Wednesday, December 24, 2008

मटमैले लबादे वाला सान्ताक्लोज़

आज ऑफिस से ही उमा को फोन कर दिया है हमेशा की तरह| पुरानी हिदायतें जो बरसों से दोहराता आ रहा हूँ, फिर समझा दी हैं के बच्चों की जुराबें खूब अच्छे से धोकर जैसे भी हो रात तक सुखा ले| टॉफी-चाकलेट वगैरह मैं ख़ुद ही लेता आऊंगा| आज क्रिसमस है ना? उनके बहुत छुटपन से ही सांताक्लोज़ के नाम से और बहुत से पिताओं की तरह मैं भी उनकी मासूम कल्पना को उड़ान देता रहा हूँ| सुबह दोनों पूछते है आपस में एक दूसरे से कि क्या रात को उसने किसी सान्ताक्लोज जैसी चीज का घर में आना महसूस किया था या नहीं| पर हमेशा की तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते और अपनी अपनी चाकलेट और टॉफी खाने जुट जाते हैं बगैर पेस्ट किए| कभी भी तो ये सोचना नहीं चाहते के रात को थका-हारा इनका बाप ही ये सब अपने मटमैले से लबादे में से निकाल कर ठूंसता होगा उस दिन की स्पेशल से धुली जुराबों में| इनकी कल्पना में तो आज भी वो ही सुर्ख लाल लबादे वाला सांता क्लॉज बसा है| पहले तो हम भी इस बैठक में शामिल होते थे, इनकी कल्पनाओं में अपने भी रंग भरने के लिए ....हाँ रात को कुछ आवाज सी सुनी तो थी पर दिखा कुछ नहीं था, सांता क्लोज ही रहा होगा और भला इत्ती रात में कौन आएगा तुम लोगों के लिए ये गिफ्ट लेकर| पर अब भीतर उदासीनता सी हो गयी है इस ड्रामे के प्रति| अब ये बचपना ही चिंता का कारण हो गया है| आख़िर आठवीं-दसवीं क्लास के बच्चों का सान्ताक्लोज से क्या काम| क्या अब इन्हें थोड़ा समझदार नहीं हो जाना चाहिए? टॉफी-चाकलेट तो यूँ भी खाते रहते हैं पर क्या आज के दिन ये उतावलापन शोभा देता है इतने बड़े बच्चों को? जीवन की बाकी सच्चाइयों को किस उमर में जानना शुरू करेंगे फिर| अब तो ध्यान जब तब इनके साथ के और बच्चों पर जाने लगा है| अकल भी अब मसरूफ रहती है जिस्मानी उठान और समझ के बीच ताल मेल बैठाने में| कभी इनके स्कूल का कोई और बच्चा घर आ जाता है तो आँखें ख्यालों के साथ मिलकर उसकी समझदानी का साइज़ समझने बैठ जाती है| पता नहीं स्कूल में ये लोग सांताक्लाज के बारे कोई बात करते हैं या नहीं? हो सकता है के इन दिनों पड़ रही छुट्टियों के कारण इस विषय पर चर्चा न हो पाती हो ...वरना इतने बड़े बच्चे और ऐसी बचकानी..| कई बार चाहा है के ख़ुद ही इन्हें रूबरू करा दूँ सच्चाई से पर जाने क्यूं ये भरम इस तरह नहीं तोड़ना चाहता| इनके विकास को लेकर मन का ज्वार-भाटा बढ़ता ही जाता है| अखबारों में निगाहें अब बाल-मनोचिकित्सकों के लेख ही तलाशती रहती हैं| आई क्यू., ई क्यू. ऐसे 'क्यूं' वैसे 'क्यूँ' कुछ समझ नहीं पाता| कद के साथ बढ़ता बचपना दो तीन साल से हताशा को और बढ़ा ही रहा है| कई बार ख़ुद को दोषी पाता हूँ कि शायद मैं ही स्वार्थवश बाल्यावस्था को समुचित रूप से....| हमेशा जुराबों से चाकलेट निकालते समय मेरी आँखें इनके चेहरे पर गड़ी होती हैं, बस एक नज़र इनकी बेएतबारी की दिख जाए तो कुछ सुकून मिले, कभी तो एहसास कराएँ मुझे बड़े होने का| कैसे जानें के मटमैले लबादे वाला इनका सांताक्लाज अब कैसा बेसब्र है इनकी उम्र का भेद जानने को|

आज तो आफिस में ही काफ़ी देर हो गयी है| बाहर आया तो देखा के बाज़ार भी बंद हो चला है| इलाके की बत्ती भी जाने कब से गुल है| चाल काफ़ी तेज हो चली है, निगाहें तेजी से दायें-बाएँ किसी खुली दूकान को तलाश रही हैं....दिल बैठ रहा है ..अब कि शायद आँगन में टंगी चक-दक धुली सफ़ेद जुराबें बस टंगी ही रह जायेंगी...क्या ऐसे टूटेगा मासूमों का भरम ...क्या गुजरेगी बेचारों पर...? बेबस सा आख़िर में आफिस के उस अर्जेंट काम को ही कोसने लगा हूँ| इसके अलावा और कर भी क्या सकता है एक मटमैले लबादे वाला| सुबह उसे एक अलग ही रूप लिए जगना होगा अब की बार| मन के भीतर किसी छोटे से कोने मैं इसकी भी रिहर्सल चल रही है| इन सब के बीच नज़र में किसी थकी हुई सी लालटेन की धुंधलाती रौशनी आ गयी है| मुझ से भी ज्यादा थका सा लग रहा कोई दूकानदार अपनी दूकान बढ़ाने को तैयार है शायद "ज़रा एक मिनट ठहरो......!!" कहता हुआ थका हारा सान्ताक्लोज दौड़ पडा है इस आखिरी उम्मीद की तरफ़| इसी उम्मीद से तो बच्चों का वो भरम बरकरार रह सकता है जिसे वो कब से तोड़ना चाहता है| जल्दी से जेब से पैसे निकाले और उखड़ी साँसों पे लगाम लगाते हुए दोनों बच्चों के फेवरिट ब्रांड याद करके बता दिए हैं| दूकानदार किलसने के बजाय खुश है| और एक वो है के आफिस से निकलते-निकलते एक अर्जेंट काम के आने पे कितना खीझ रहा था| बमुश्किल दस-पन्द्रह कदम दौड़ने पर ही साँसें कैसी उखड़ चली हैं| दुकानदार ने सामान निकाल कर काउंटर पर सजा दिया है| चॉकलेट के गोल्डन कलर के रैपर कुछ ज़्यादा ही पीलापन लिए चमक रहे हैं| शायद लालटेन की रौशनी की इन्हें भी मेरी तरह आदत नहीं है| मैंने सामान उठा कर लबादे में छुपाया और घर की तरफ़ बढ़ गया| तेज़ रफ़्तार चाल अब बेफिक्र सी चहल कदमी में तब्दील हो गई है| अब कोई ज़ल्दी नहीं है बल्कि अच्छा है कि बच्चे सोये हुए ही मिलें|
मेरा अंदाज़ा सही निकला | दोनों बच्चे नींद की गहरी आगोश में सोये हैं.....एकदम निश्छल, शांत....दीन-दुनिया से बेफिक्र| मैं और उमा खुले आँगन में आ गए हैं, बाहर से कमरे की चिटकनी लगा दी है ताकि किसी बच्चे की आँख खुल भी जाए तो हमारी इस चोरी का पता न चल सके| मोमबत्ती जला कर हमने धुली जुराबों में बच्चों की पसंद के अनुसार सौगातें जचा-जचा कर रखना शुरू किया| जुराबों में हल्का सीलापन अब भी है जो की रात भर आँगन में टंगे-टंगे और बढ़ जाएगा मगर रैपर बंद चीज़ों का क्या बिगड़ता है|
सुबह आँखें लगभग पूरे परिवार की एक साथ ही खुली| दोनों बच्चों ने भरपूर उतावलेपन से अपनी-अपनी रजाइयां फेंक दी और कुण्डी खोल के खुले आँगन में लपक लिए बगैर जाड़े की परवाह किए| दोनों जोशीले तार में लटकी-उलझी अपनी-अपनी जुराबें खींच रहे हैं भले ही उधडती-फटती रहें, उनकी बला से| उन्हें क्या फर्क पड़ता है| उन्हें तो बस सांताक्लोज के तोहफों से मतलब है हमेशा की तरह| बेकरारी पूरे शबाब पर है .....चक-दक जुराबों में तले तक पैबस्त उपहारों को उंगलिया सरका सरका के पट्टीदार दहानों से उगलवाया जा रहा है| सान्ताक्लोज की नेमतें सोफे पर टपक रही हैं मगर आज बच्चे इन्हें अजीब सी नज़रों से देख रहे हैं| जाने उपहारों में आज ऐसा क्या खुल गया है कि इनके चेहरे पर उत्साह के रंग मायूसी में बदल गए| सबसे पहले तो ज़रूरत से ज्यादा पीलापन लिए गोल्डन कलर की जांच हुई और फिर पारखी नजरें प्रोडक्ट की स्पेलिंग चेक करती हुई नीचे लिखा अस्पष्ट मैनुफक्चारिंग एड्रेस समझने लगीं| मेरे कुछ समझ पाने से पहले ही दोनों अपनी अजीब सी शक्लें बनाते हुए और भी ज्यादा बचपने में भर गए ........

"पापू....!! ये क्या ले आए......?...डुप्लीकेट है सारा कुछ..!! ये टॉफी भी ...."
"हाँ .. पापू..! मेरे वाला भी बेकार है एकदम से ...!!"
"आप भी ज्यादा ही सीधे हो ..बस..कोई भी आपको बेवकूफ बना दे...हाँ नहीं तो .."
"आज के बाद उस दूकान पे आप ...!!!!"

बच्चे अचानक संभल गए| गोल-गोल आँखें मटकाती दो शक्लें, दांतों के तले दबी जीभ.. | इस अचानक की पर्दाफाशी से मैं भी हैरान हूँ | दोनों दबी-दबी मुस्कान लिए, मुझसे आँखें बचाते हुए अपनी-अपनी चाकलेट का ज़रूरत से ज्यादा पीला रैपर उतार रहे हैं| एक बार फिर नजरें उठ कर मिली हैं और अब कमरे में ठहाके फूट चले हैं....बच्चों के मस्ती भरे और हमारे छलछलाई आंखों से..!!
बच्चे अभी छोटे हैं शायद ..हमारा ये भरम टूट चुका है..बिलंग्नी पर टंगे मटमैले लबादे से कहीं कोई सुर्ख लाल रंग भी झांकता दिख रहा है..|

कहानी व चित्र- मनु बे-तख्खल्लुस

Monday, December 15, 2008

दंगों पर एक किस्सा और सही

आतंकवाद के जमाने में दंगों के किस्से कौन पढ़ता है, फिर भी समाज की यह एक पुरानी विधा है, यह मान, एक किस्सा और सही .... वह दंगों का शहर था और उस शहर में फिर दंगा हो गया। दो मजहबों के पूजा स्थल पास-पास ही थे। वर्ष में एक बार ऐसा मौका आता कि दोनों धर्मों के उत्सव एक ही दिन आते। तब सार्वजनिक चौक के बंटवारे का प्रश्न आ खड़ा होता। सभी जानते थे कि दंगा होगा इसलिये गुपचुप कई महिनों पहले तैयारियाँ होनी शुरु हो जाती। इस बार भी जम कर दंगा हुआ। पत्थर, जलते टायर, चाकू, देशी कट्टे, ऐसीड बम, जलती मशाले इत्यादि का भरपूर उपयोग हुआ। जितने हुनरमंद थे सब संतुष्ट हुए। कहां मिलता है रोज-रोज ऐसा मौका? अब तो प्रशासन भी नकारा हो गया है। जरा सा कुछ हुआ नहीं कि कर्फ्यू लगा दिया। पुलिस भी कानून की उँगली थामने लगी तो वकील और पुलिस में क्या अंतर रहेगा? डंडे की दहशत का नाम ही तो पुलिस है।

दंगा ही वह पर्व है जिसे सभी लोग बिना किसी भेदभाव के मनाते हैं। सभी मजहबों का एक ही मकसद होता है दंगा। पिछले दंगों के किस्से, बाप दादाओं की शौर्य गाथाएं, हर गली हर नुक्कड़ का मुख्य व्यंजन होता है। कर्फ्यू अवधि खत्म होने पर घर लौटते हर व्यक्ति के मुँह में, आने वाले दिन के दंगा लक्ष्यों के चटकारे होते हैं। सभी घर लौटने की जल्दी में होते हैं। घर पर खवातीन भी बेसब्री से दूध ब्रेड और अफवाहों का इंतजार कर रही होती हैं।

खाली हवा में बातें करने से किस्सा आगे नहीं बढ़ता। किस्से के प्रवाह के लिये पात्रों का होना निहायत ही ज़रूरी होता है। आइये इस शहर के दो बाशिन्दे को लेकर किस्सा आगे बढ़ाते है। गुलमोहर बी और ब्रह्मभट्ट। गुल और ब्रह्म।

पहली बार ब्रह्म ने गुल को शहर के चैराहे के पास धुंए से भरी एक गली में देखा था। एक लाश के पास बैठ विलाप करती हुई। तार-तार बुर्का, आंसू गालों पर जमे हुए। ब्रह्म ने एक उड़ती सी निगाह से उधर देखा और आगे बढ़ चला। वह भी अपने भाई की लाश फूंक कर घर जा रहा था ।

घुटे हुए सिर लिये लोगों को देखते ही अचानक गुल उठी और उनकी और दौड़ पड़ी ''अरे हत्यारों क्या बिगाड़ा था मेरे कलेजे के टुकड़े ने तुम्हारा .......... हमारा घर जलाया ....दूकानें जलाई ......मेरे सरताज को मार दिया ......और अब मेरे ...मेरे लाल को भी मार दिया..........। वह रोती जा रही थी और उन लागों को कोसती जा रही थी। साथ ही एक विशेष आवाज के साथ सांस भी ले रही थी। कुल-मिलाकर उसके गले से जो विभत्स आवाज निकल रही थी, वह शहर के वर्तमान हालात की प्रतिध्वनी थी। गुल का विलाप जारी था। ...''मुझे क्यूं छोड़ दिया मुझे भी मार डालो .....अरे इतने पाप किये है ..एक तो पुण्य करलो ..एक तो पुण्य करलो, मुझे भी मार डालो ....'' इन अंतिम शब्दों को दोहराती ठठ्ठा मार कर हँस पड़ी। इसी बीच दो पुलिस वाले आये, उसके जवान बेटे की लाश को गाड़ी में रखा और गुल को भी घसीट कर गाड़ी में लाद दिया ।

इस पूरे प्रकरण से ब्रह्म के मन में एक नफरत की लहर सी उठी। पुलिस वाले ना आते तो वह दौड़ कर उस औरत का टेंटूआ ही दबा देता। उसे घुटन सी महसूस हुई। वमन करने को मन हुआ उसने अपनी अंतस की घृणा को इकट्टा किया और फुटपाथ पर थूक दिया।

दूसरी बार गुल से उसका सामना तब हुआ जब वो अपने संकल्प को क्रियान्वीत करने जा रहा था । हाथ में पेट्रोल से भरा बल्ब, साथ में लटकती सूतली । .... यही वह सामान था जिसने इंसान की शिराओ में बारुद भर दिया था। हाथ में नफरत की दियासलाई लिये कही भी कभी भी फट पड़ने को तत्पर। स्वार्थ सिंचित धर्म वृक्ष, नफरत फल ही देता है।

यह फल सभी जाति समुदाय के संकुचित सोच सदस्यों को समान तृप्ती देता है । धर्मान्ध व्यक्तियों को तो यह अमृत तुल्य लगता है। .... हां तो दूसरी बार ब्रह्म ने गुल को तब देखा जव वह भाई की मौत का बदला लेने जा रहा था। चारों तरफ जलती दुकानें ... भागते लोग... जलते टायर... गोलियों की आवाजें। सब कुछ उसे बेहद रोमांचक लग रहा था। अब तक वह कई घर और दुकानें जला चुका था। उजाले दीपावली की याद दिला रहे थे। गोलियों की आवाज मानो छूटते पटाखे। जलते मांस और बारुद की गूंथी हुई गंध मानो हलवाई की दूकान से आती बयार। तभी गली के दूसरे छोर पर हाथ में पत्थर और होंठों पर ठहाका लिये गुल खड़ी दिखाई दी। शायद उसने भी बरबादी का जश्न मनाना सीख लिया था। गुल ने खींच कर ब्रह्म की तरफ पत्थर फेंका। उधर ब्रह्म ने भी सूतली में आग लगाई और बल्ब गुल की तरफ उछाल दिया। गली के मध्य दोनों टकराये और आग की दीवार खड़ी हो गई। कहीं दूर पुलिस की गाड़ी का सायरन सुनाई दिया। दोनों भाग लिये।

घर और दोस्तों में ब्रह्म बहुत ही सयाना व संकोची माना जाता था। साइकिल वर कॉलेज से सीधा घर आता, दिन भर पढ़ता रहता और शाम को छोटे भाई को साथ ले पड़ौस के दोस्तो के घर कैरम खेलता। पढ़ाई में भी वो सदैव अग्रिम पंक्ति मे ही गिना जाता था। दंगाइयों के हाथों मित्रवत भाई की हत्या के बाद तो उसकी दुनिया ही बदल गई थी। पिता तो थे ही नहीं और मां की आँखें पिता को नित्य तर्पण से धुंधला ही देख पाती। मां को यह आभास ही नहीं हुआ कि कब उसका अंतिम अवलम्ब अग्निपथ पर चल पड़ा। शहर में कई दिनों से कर्फ्यू था। वह दोस्तों के घर जाने का बहाना कर छत के रास्ते गली में उतर हैवान बन जाता।

एक सुबह खाना खाकर जैसे ही वही वह घर से जाने लगा। मां के कराहने की आवाज सुनाई दी। माथे पर हाथ धरा तो तप रहा था। थर्मामीटर लगा कर देखा। बुखार तेज था। एक तरफ नफरत के नशे का चस्का दूसरी तरफ मां की चिंता। कुछ पल की कशमकश के बाद आज उसने अपनी हैवानियत स्थगित रखी। नफरत पर प्रेम की विजय ने सिद्ध किया कि नफरत आंधी है, आती है और सब कुछ तबाह कर के चली जाती है। जबकि प्रेम तो वह सरस सलिल है जो सदैव बहती है, शाश्वत है, जीवनदायिनी है। कुछ देर मां के सिरहाने बैठ गीला गमछा माथे रख बुखार कम करने का प्रयत्न करता रहा। बुखार जब थोड़ा कम हुआ तो मां को डाक्टर के पास ले जाने का तय किया। बाहर के हालात ठीक नहीण होने पर भी वह मां को पड़ौस के डाक्टर के पास ले चला। अंदर डाक्टर जांच कर रहा था और बाहर आगजनी हो रही थी। धार्मिक उन्माद के नारे लग रहे थे। आज उसका ध्यान पूर्णतया मां की चिन्ता में ही लगा था। डाक्टर ने दवाई लिखी। मां को घर छोड़ा। उसे मालूम था कि सरकारी अस्पताल में मेडिकल स्टोर खुला होगा। अपने खुफिया रास्तों से वह अस्पताल की ओर बढ़ चला। स्टोर से दवा खरीदी और लौट गया। वह जल्दी में था। मां की चिंता सता रही थी। शीघ्र मां के पास पहुँच जाना चाहता था कि वही मस्त कर देने वाले वहशी नारे उसके कानों में पड़े। कदम एक क्षण को ठिठके, अंदर की नफरत ने अंगड़ाई ली। एक पल के लिये रुका। गहरी सांस खीच कर स्वयं पर नियंत्रण किया। हाथ में पकड़ी दवा को कस कर पकड़ा और दृढ़ कदमों से घर की और चला। जैसे ही वह अपने मोहल्ले मे दाखिल हुआ चीखने-चिल्लाने की आवाजें और बचाओ-बचाओ की पुकार सुनाई दी। वह झपट कर अपने घर की तरफ दौड़ पड़ा। उसने देखा घर आग से लपटों से घिरा पड़ा था। खिड़की में देखा तो दो हाथ पुकार को उठे हुए थे। ......माँ ....हाँ वह हाथ माँ ही के थे। वह माँ.. माँ.. चिल्लाता हुआ घर की और लपका कि एक गोली दनदनाती हुई आई और उसके कंधे में आग उतरती चली गई। सड़क पर ब्रह्म पछाड़ खाकर गिरा और ढेर हो गया।

इस घटना की मौन साक्षी गुल, वही एक कोने में सहमी सी दुबकी खड़ी थी ।

कई दिन बीत गये लोगों में और दंगे करने और सहने की क्षमता नहीण रही तो जिन्होंने पहले कहा था '' जाओ मेरे बच्चो, धर्म की रक्षा करो ... मजहब के लिये मर मिटो ... ईश्वर की रक्षा आज मानव के हाथ है'' । उन्होंने फरमान जारी किया .. ''रुक जाओ मेरे बच्चो, ... दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता..... तुम्हें भड़काने वाले तो शैतान की औलाद और इंसानियत के दुश्मन है ...'' और इस तरह शहर में शांति बहाल कर दी गई।

पिछले कई दिनों से ब्रह्म फटेहाल खुद से अंजान सड़कों पर घूम रहा था। उसकी स्मृति लुप्त हो चुकी थी। कहीं कोने में पड़ी जूठन खा लेता रात किसी दुकान के शटर से लिपटा पड़ा रहता। अब वह सभी रंजो-गम से निर्लिप्त था। भूत का साया नहीं, भविष्य को खौफ नहीं। खालिस आज में ही नहीं वरन् वर्तमान में जीता हुआ। धरती उसका घर थी और आसपास के सभी मौहल्लों के कचरापात्र उसके अपने सगे।

चैराहे पर थोड़ी भीड़ थी। वह भी कुछ खाना पाने की आस में वहां चला गया। दंगा पीड़ितों का पुनर्वास केम्प लगा था। एक बाबू बैठा समोसा खा रहा था। वह समोसे को बड़े अपनेपन से देखने लगा। बाबू ने देखा, चपरासी को ईशारा किया। चपरासी ने पत्थर उठाने का अभिनय कर, उसे वहा से भगा दिया। ब्रह्म निर्विकार पास की होटल के पिछवाड़े, जूठन तलाशने चला गया।

दूसरी तरफ गुल, आज तक सहमी हुई। एक बेटे के सामने मां का जलना, बेटे का लपकना, कंधे में गोली लगना, पछाड़ खा कर गिरना बेहोशी की हालत में माँ-माँ चिल्लाना, इस पूरे घटना क्रम ने गुल को झकझोर कर रख दिया था। वह भी बदहवास लावारिस गलियों में भटका करती। इस दुनिया में अब उसका भी कोई नहीं था। अपनी सुरक्षा के लिये हाथ में हमेशा एक पत्थर रखती। मारने का अभिनय करती पर मारती किसी को नहीं। पत्थर लेकर लपकती परन्तु पास आकर पुचकार कर, माथे हाथ फेर कर चली जाती। दिन भर जनअरण्य में देह जठर और मन ममता की क्षुधातृप्ति को भटकती रहती। ब्रह्म जिस होटल के पिछवाड़े खाना तलाश रहा था वह भी वहाँ पहुँच गई। दोनों एक दूसरे को देखते रहे। फिर गुल के होंठ फड़फड़ाए ....बाहें पसारी और रो पड़ी ....बेटा .... । ब्रह्म स्तब्ध, विचारशून्य....। महीनों बाद किसी रिश्ते से सम्बोधित हुआ था। पलके बंद किये नतजानू वही बैठ गया। अपने लुट चुके स्मृतिकोश से लड़ता रहा। धीरे-धीरे धुँध छटने लगी। सड़क किनारे तार-तार बुर्के में अपने बेटे की लाश का सर गोद में रख रोती एक छाया, पलक पटल पर उभर आई। फिर जलती खिड़की में उभरे दो हाथ नजर आये। उसे लगा गोद में लेटे बेटे का चेहरा उसका अपना है और गुल के दोनों हाथ जल रहे हैं। उसने बेटे की लाश में कुछ हलचल महसूस की । अचानक वह दौड़ पड़ा और ... माँ .... कहता हुआ गुल से लिपट गया । दोनों की आंखों में अश्रुधारा बह निकली । रक्त के सैलाब से उजड़ चुकी धरा पर अश्रुसिंचन से एक नये मजहब की कौंपल फूट पड़ी। चेतना का कबूतर आशातृण लिये रिश्तों के खंडहर पर उतर गया ।

कोण और किस्सों का विस्तार अनंत होता है उन्हें सीमित करने के लिये कहीं ना कही चाप कांटना ही पड़ता है। इस किस्से को भी यहा चाप काट कर पूरा किया जाता है। पर आइये एक नजर चाप से परे भी डाल देते हैं।

अब दोनों अक्सर शहर के किसी कौने में खाना तलाश करते मिल जाते। दोनों के पास जो भी खाने का होता मिल-बांट लेते। धीरे-धीरे दोनों को पता चला कि वह अकेले नहीं है। उन जैसे बहुत हैं। अलग-अलग मजहब से आये हैं। पर वे आपस में कभी नहीं लड़ते। ना इनमें धर्मान्धता है, ना मजहबी उन्माद। सबका, सब कुछ दंगों में जल गया या लूट लिया गया है । हर एक का कोई अपना या तो दंगाइयों के हाथों मारा गया है या पुलिस की गोली से हलाक हुआ है। ये सभी किसी संत की मानिंद है जिनकी चेतना मां अन्नपूर्णा को समर्पित है। भूख इनका मजहब है, कचरा पात्र मंदिर और जूठन आराध्य। यहां गुलमोहरबी मां है और ब्रह्मभट्ट बेटा। हर दंगे के बाद इस समुदाय के सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब इस दंगों के को अमन के शहर होने में अधिक देर नहीं है।

--विनय के जोशी

Thursday, December 11, 2008

13 जुलाई 2010 : प्लास्टिक की पलकें

निखिल सचान द्वारा रचित धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैबंद' शृंखला के दो भाग '10 मार्च ,1998 : इतिश्री' और '14 जुलाई 1998 : मिट्टी के असबाब' पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए इसकी तीसरी कड़ी॰॰॰॰




१३ जुलाई २०१० : प्लास्टिक की पलकें


वो शायद आरव नहीं था और मैं चाहता भी नहीं हूं कि वो आरव हो लेकिन मुझे कहानी से मतलब है और एक नाम से भी , इसलिए मैं उसे आरव ही कहूंगा , क्या पता वो बाद में आरव ही निकले और एक अतिरिक्त नाम और एक रिक्त शब्द का मेरा खर्चा बच जाए .बस इतना ज़रूर पता है कि उसके घर में भी वैसी ही डाइरी की चिंदियों के पैबंद मिले थे जैसे मैंने आरव के पास से निकाले .
खैर ये हिस्सा शुरु होता है ठाणे पोलिस स्टेशन , मुंबई से .
आरव लकड़ी की एक बेंच पर बैठा हुआ था , उसे पहचानना ज़रा मुश्किल था . आंखों के नीचे काले घेरे , झाइयां , घुंघराली झुर्रियां और उथले गड्ढे अपनी अपनी स्पष्ट सत्ता बनाए नुमायां थे और उनका अस्तित्व बाकी चेहरे के अस्तित्व के मुक़ाबले कहीं से भी कमती नहीं था . उसकी आंख आधे हांथ के पोलिस के डंडे और उसके नीचे रक्खी लाल फ़ाइल पर झूल रही थी और उसे दोनों चीज़ें आपस में घुलती हुई दिखाई दे रही थीं . कोई भी दो आस पास रक्खी चीज़ों में सही सही फ़रक़ करना उसके लिए आसान काम नहीं था . एक टक घूरते रहने के अचानक बाद उसे एक झटके से ध्यान आता था कि उसके सिर का वज़न सम्भालना उसके लिए आसान नहीं है इसीलिए जैसे ही उंगली चिटकने की आवाज़ के जैसे एक चुटकी उसकी गर्दन के पीछे बजती थी, वो दोनों हंथेलियों के बीच अपनी गर्दन थाम कर उसे वापस सही ठिकाने पर रख देता था .
उसके एक हांथ में मोबाइल था और दूसरे हांथ में अखबार .मोबाइल बासी और अखबार ताज़ा . मोबाइल की स्क्रीन पर कोई नेट्वर्क का निशान नहीं , ना ही बैटरी का .अखबार के पहले पन्ने पर किसी ना पहचानी हुई जनानी लाश की खबर थी .
वो बार बार अपना मोबाइल अपने कान पर लगाता था , फ़िर हांथ से झटकता था , हेलो जैसा ही कुछ बोलता था और फ़िर उसे खिड़की की ऊंचाई तक ले जाकर सिग्नल पकड़ने की कवायद करता , लेकिन मोबाइल सिग्नल नहीं पकड़ रहा था क्योंकि उसे शायद ही होश था कि वो बस दस साल पुराने खिलौने जैसी कोई चीज़ ही हांथ में लिए हुए था .जिसमें ना तो कोई बैटरी ही थी और ना ही शायद कोई सिमकार्ड भी .
ये फोन एक मात्र ऐसी चीज़ थी जो हमेशा उसके पास रहती थी . रात में सोने के लिए वो उसे अपने कान से सटाकर लेटा रहता था .सारी रात सीलिंग ताकता रहता था और किसी के फोन आने का इंतज़ार करता रहता था .इसी खेल में रात ज़ाया हो जाया करती थी और कभी कभी नहीं भी .फोन के माउथपीस पर वो रात भर कुछ कुछ बुदबुदाता रहता था .बीच बीच में उसे तकिए पर पटककर सिग्नल देखता रहता था या फ़िर बिस्तर के बगल में लगी दीवार पर खुदी खिड़की की सीखचों के बाहर उसे लहराने लगता था कि अब शायद सिग्नल आ जएगा. आंखें बंद करने की कोशिश करता तो अचानक से तेज सिहरन और उलझन गुंथ कर उसके सीने में कई चक्कर दौड जाया करती थीं और वो अपनी दुबली पिंजरनुमा छाती घबराकर रगड़ने लगता था .कभी कभी थोड़ी देर बाद आराम पड़ जाता था लेकिन ज्यादातर बार नहीं भी .संक्षेप में बताऊं तो उसे एक्यूट इंसोम्निया था . अजीब अजीब इल्यूज़न्स होते थे और किसी इल्यूज़न के दौरान ही उसके आंखें बंद हो पाती थीं , भ्रम खतम और शटर की तरह आंख भी खुल जाती थी .वो खिलौने वाली गुड़िया तो देखी ही होगी ना तुमने जिसे झुकाओ तो गोल बटन सी आंख अपने भार से खुद बखुद बंद हो जाया करती थीं और खड़ा कर दो तो चुड़ैल प्लास्टिक की पलकों से कैसे आंखें फ़ाड़ फ़ाड़ कर घूरने लगती थी !
आरव भी ऐसा ही हो गया था . उसकी अखरोट के रंग वाली आंखें भी वैसे ही इल्यूज़न्स के इशारों पर रात भर गुलामी करती रहतीं थीं .
भ्रम लम्बा खिंच गया तो नींद की सब्स्टीट्यूट बनकर बेहोशी सी आ जाती थी और नींद की ज़रूरत भी पूरी कर ली जाती थी . और इसी से दिमाग की उलझी पड़ी नसों की छोटी मोटी मरम्मत भी हो जाया करती थी .बहरहाल जीने का कारोबार ज़िंदा था ....

यहां ,स्केच बनाने वाला आरव के पास लाया गया . होलकर , शिंदे और गोडसे आरव की बेंच के बगल में खड़े थे . होलकर बोला ,
"सर मैं अब भी कहता हूं कि ये साला किसी कातिल का स्केच नहीं बनवा पाएगा , इसे कुछ पता भी नहीं है हलकट को . खाली पीली टाइम खोटी करने आया है .पता नहीं खुद को भी पहचानता है कि नहीं साला "
"देखो कैसे घूरता है एक नज़र में , जैसे अखबार जला देगा आंख से ! "
शिंदे को भी ख़ास भरोसा नहीं था उस पर लेकिन दिल्चस्पी ज़रूर थी ये जानने में कि वो जैसा सोच रहा है वैसा ही कुछ है कि नहीं ?.
गोडसे को लग रहा था कि शिंदे और होलकर क्यों उसकी घंटों की मेहनत खराब करने पर तुले हुए हैं ...ख़ास तौर पर तब , जबकि ये साफ़ था कि लड़की का ख़ून नहीं हुआ है और वो क्रानिक इंसोम्निया की शिकार थी ,इसी के चलते वो बड़ी बड़ी बिना नींद की खुली हुई गोल काली आंखें लिए बिस्तर पर पड़ी मिली थी . पूरे शहर में उसे पहचानने वाला कोई था नहीं और पहचानाता भी होता तो मुंबई में ज़बर्दस्ती अपनी देने आता ही कौन है !
"काए रे ! जानता है तू उसे ? "
उसने फ़िर घूरा ...
"हां "
"कातिल को ? "
इस बार खाली घूरा...ज़वाब नहीं दिया ...
"बोल ना ..जानता है कातिल को ? "
"हां "
"ठीक है ..गोडसे तो ले के जा इसे अंदर और स्केच तैयार करा ."
आरव और गोडसे अंदर चले गए .
"कैसा बदन था ? "
"इकहरा "
"नाक ?"
"नुकीली "
गोडसे धीरे धीरे डीटेल्स लेने लगा और कैन्वस पर एच.बी. ने एक शकल को उकेरना शुरू कर दिया.बीच बीच में वो आरव पर खीझता भी था और चिल्लाता भी क्योंकि आरव लगातर ऊंघ रहा था और फ़िर वो प्लास्टिक की पलकों वाली कमीनी गुड़िया के जैसे गोडसे को घूरने लग जाता था ....
आरव के ६ बाई ८ के कमरे में अजीब अजीब से असबाब फ़ैले पड़े थे .
पूरे घर में एक भी शीशा नहीं था ,रोशनी के नाम पर बस ज़ीरो वाट का बल्ब . बेड-पोस्ट पर रेस्ट्रां के कुछ बहुत पुराने बिल पड़े थे . ध्यान से सिग्नेचर देखने पर पता पड़ जाता था कि वो सब लगभग ११-१२ साल पुराने हैं . ज्यादातर में आर्डर रिपीट हुआ था , १ वेज-सैंडविच और दो कप मोका. रेस्ट्रां का नाम ’द सिज़लर्स’ , कोलाबा .
बेड पोस्ट के ठीक ऊपर एक कैलेंडर टंगा हुआ था जिसमें कुछ कुछ तारीखों को आरव ने लाल मार्कर से गोल घेरा हुआ था और कुछ लगातार तारीखों पर काला क्रास .नवम्बर ४ से २८ . लाल घेरे पर एरो लगाकर कुछ कुछ चार लाइनों की पोएट्री अथवा गज़ल .
बेड के नीचे एक बर्थडे केक का डिब्बा भी रक्खा हुआ था जिसकी साइड वाल्स पर बटर क्रीम की फ़ंगस लगी हुई थी . और वैसी ही सहेजी हुई काफ़ी सारी चीज़ें और वैसी ही लिखावट की डायरी जिसकी वजह से मुझे लगा कि वो आरव था .
दो तीन पेंटिग्स पड़ी हुई थीं , जिस पर उसने सिरफ़ घुंघराले बाल और एक सुन्दर सी मुस्कान उकेरी हुई थी . एक प्यारी सी लड़की की उससे भी ज्यादा प्यारी मुस्कान कि कसम से किसी को भी पल भर के लिए उसकी दुनिया से खींच ले जाती मनमोहनी और उसके सारे ग़म अपने जादू से ग़लत कर देती . ये वैसी लड़की की हंसी नहीं थी जो सोफ़िस्टिकेशन के उसूलों के तहत हथेली या नैपकिन के पीछे दबाकर हंसी गई हो .ये एक ऐसी लड़की की हंसी थी जो ऊपर वाले की महर नज़र आती थी , उसके सबसे बेशकीमती मोतियों की ख़नक,चमक,धमक और हनक के साथ जीवंत !
काश उस लड़की की पूरी तस्वीर आरव ने बनाई होती तो देखने वालों के बहुत से मुग़ालते दूर हो गए होते जिसे वो आज तक भूलवश खूबसूरती समझा करते थे वो तो इस तस्वीर के अतिरिक्त और कहीं बेनक़ाब हुई ही नहीं ! ऐसे घुंघराले बाल जो सिर्फ़ किसी की पतली पतली उंगलियों से सुलझाने के लिए ही बने हों . कंघा लगा दो तो शायद बेचारी भोली परी चीख पड़ती ...
बेड पर कुछ कागज़ के टुकड़े पड़े थे जिन पर बच्चे की लिखावट में गज़लों की लाएनें लिखी हुई थीं,एक के ऊपर एक ,जैसे कि अंधेरें में लिखने की कोशिश की गई हो और उसी से लाइनें एक के ऊपर एक अंधेरे में भटक कर लिपट गई हों या फ़िर अंधेरे का फ़ायदा उठा कर लिपट गई हों .पन्नों को दबाने के लिए पेपरवेट की तरह उन पर एक काले वेलवेट के कवर की डायरी रक्खी हुई थी और उसमें सुर्ख लाल ग़ुलाब के जीवाश्म भी दबे पड़े मिले थे , जो पन्नों में घुट कर लाल बुरादा हो चले थे लेकिन तबियत से सूंघो तो यक़ीन होता था कि तबस्सुम की उमर रूह की उमर से कितनी ज्यादा लम्बी होती है .खुशबू अभी भी ताज़ा थी ....
ख़ैर ..यहां पोलिस स्टेशन में गज़लों और तबस्सुम की दुनिया से अलग-थलग एक दूसरी दुनिया थी जहां पर अभी भी गोडसे ,आरव के साथ सर खपा रहा था .
"और कोई ख़ास निशानी बताना चाहते हो ?"
"नहीं..."
"कुछ बाकी रह गया हो तो बता दो ..."
"नहीं.."
गोडसे को लगा कि उसके साथ काफ़ी मज़ाक हो चुका था...पर्याप्त मात्रा में , वो अब और झेलने की दशा में बिल्कुल नहीं था . दशा में यदि था भी तो कम से कम मूड में तो बिल्कुल नहीं था .कार्यवाही और ज़िम्मेदारी दोनों खतम मान कर उसने घंटों से कैनवस के कूल्हे घिसती हुई एच.बी. की नोक मेज पर पटककर गर्दन से तोड़ डाली और शिंदे को आवाज़ दी .शिंदे अंदर आया तो कुर्सी पर आरव अभी भी बीच बीच में ऊंघ रहा था .
मेज पर अख़बार पड़ा हुआ था ,जिस पर घुंघराले बालों वाली जनानी लाश की तस्वीर थी ...
साथ में पड़ा था गोडसे का बनाया हुआ स्केच ...
ये नुकीली नाक, अखरोट सी आंखें और इकहरे बदन वाले एक तीस साल के नौजवान की तस्वीर थी .उसकी शकल में कुछ झुर्रियों ,काले घेरे , घुंघराली झाइयां और बाकी बचे कुछ गड्ढे जोड दिए जाते तो ये साफ़ था कि यही चेहरा कैनवस से निकल कर सामने बेंच पर ऊंघ रहा था ...
लड़के और लड़की की तस्वीर के बीच में एक मोबाइल पड़ा था जो नेटवर्क पकड़ने की अभी तक कोशिश कर रहा था ....
अखबार और कैनवस में कुछ प्लास्टिक की पलकों वाली आंखें भी पड़ी थीं दोनों की ...एक की बंद और दूसरे की खुली ...
मोबाइल जादू की छड़ी जैसा ....
इशारे पर आंखें खोलता बंद करता हुआ...
अभी भी नेटवर्क की तलाश में बेवकूफ़ ...
मुझे डर है कि वो आरव ही था ....

क्रमशः॰॰॰॰

Thursday, November 27, 2008

एम. डॉट. कॉम

मां ने आज तड़के कोई काम नहीं किया। न चूल्हे में आग जलाई, न आटा-छलीरा घोलकर गाय के लिए ‘खोरड़‘ ही बनाया। न बिल्ली की कटोरी में लस्सी उंडेली, न बाहर आंगन के पेड़ पर लगाए ‘पौ‘ में चिड़ियों को पानी ही भरा। अपनी बैटरी ली और बाहर निकलते-निकलते बीड़ी सुलगा ली। दराट लेना मां नहीं भूली थी। दरवाजा बंद किया और ताला लगा कर सीधी गोशाला के पास चली गई।

सुबह का समय मां के लिए ज्यादा व्यस्तताओं का हुआ करता था। जैसे ही उठती, आंगन में चिड़ियां चहचहाने लगती। बिल्ली दूध-लस्सी के लिए बावली हो जाती। गोशाला में पशु रंभाने लगते और मां रसोई से ही उनसे बतियाती रहती। परन्तु आज ऐसा कुछ नहीं था। खामोशी का सिलसिला दहलीज के भीतर से ही शुरू हो गया था। मां इन दिनों नए भजनों के कैसेट ‘कबीर अमृतवाणी‘ अपने टेपरिकार्डर में खूब सुना करती, लेकिन आज वह भी चुप था। बिल्ली ने भी मां को पहले जैसा तंग नहीं किया, चुपचाप एक कोने मे दुबकी रही। आंगन के पेड़ों पर एक भी चिड़िया नहीं थी। सभी पौ के इर्द-गिर्द चुपचाप बैठी थी।

मां ने गोशाला का दरवाजा खोला तो सिहर उठी। जैसे भीतर अंधेरे के सिवा कुछ भी न हो। मां ने बैटरी की रोशनी में इधर-उधर झांका। पशु उदास-खामोश खड़े थे। उनकी आंखें भीगी हुई थीं। मां ने रोशनी कोने में मरी पड़ी ताजा सुई भैंस पर डाली तो जैसे कलेजा मुंह को आ गया। आंखें छलछला गयीं। अपने चादरू से आंखें पोंछती बाहर आ गई और दरवाजा ओट दिया।

आंगन से पूरब की तरफ देखा। धूरें हल्की रोशनी से भरने लगी थीं। सर्दियों की सुबह वैसे भी देर से होती है। मां ने अंदाजा लगाया.....सात बज रहे होंगे। बैटरी की जरूरत नहीं समझी। उसे दरवाजे के ऊपर खाली जगह में रख दिया।

गांव में भैंस के अचानक मरने की खबर नहीं पहुंची थी, वरना इस वक्त तक गांव की औरतें अफसोस करने पहुंच जाती। मां ने किसी को भी नहीं बताया। वे चाहती तो गांव के किसी छोकरे को भी कह कर चमार को हांक लगवा लेती, लेकिन इस बार मां ने खुद जाना बेहतर समझा। जानती थी कि यदि किसी को भेज भी दिया तो सामने तो कुछ न बोलेगा, किन्तु मन में सौ गालियां देता रहेगा। अब पहले जैसा समय कहां रह गया ? गांव में शरम-लिहाज तो नाम की बची है। जो कुछ है भी वह दिखावे भर की। नई नस्ल के छोकरे-छल्ले तो मुंह पर ही बोल देते हैं। बड़े-बूढ़ों की लिहाज तक नहीं रखते। वैसे अब बुजुर्ग बचे ही कितने हैं ? मां अपने घर के भीतर ही झांकने लगती है.......कि खुद कितने बरसों से अकेली घरबार चला रही है, इतना बड़ा बारदाना। खेती बिन बाही अव्छी नहीं लगती। फिर सरीकों का गांव है, तरह-तरह की बातें बनाएंगे। भले ही ‘ब्वारी‘ या मजदूरी से ही चला रखी है, पर मजाल कि कोई उंगली उठा सके। पांच-सात पशु भी ओबरे में बन्धे ही हैं। कोई बोल नहीं सकता कि फलाणी विधुआ के अब घरबार खत्म होने लगा है।

दो बेटे हैं। पढ़ाए-लिखाए, अब गांव छोड़ दिया। दूर-पार नौकरी करते हैं। वहीं शादियां कर लीं। वहीं बाल-बच्च्चे भी हो गए। बहुएं तो गांव-घर की तरफ देखती तक नहीं। आकर करेगी भी क्या, मिट्टी-गोबर की बास लगती है। बेटे साल में एक-आध बार खबर-सार ले लेते हैं। वैसे मां के लिए सारी सुविधाएं जुटा रखी है। टेलीफून है। रंगीन टेलीविजन है। गैस है। दूध बिलाने की मशीन। टेपरिकार्डर है।.............मां यह सोचती-सोचती गांव के बस अड्डे तक पहुंच गयी। शुक्र है कि कोई मिला नहीं, नहीं तो सभी पूछते रहते कि आज तड़के-तड़के फलाणी कहां चली है।

अड्डे पर बस घरघरा रही थी। मां ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। पर वहां का नजारा देख कर दंग रह गई। सब कुछ कितना जल्दी बदल गया। मां को याद है कि जहां आज बस अड्डा बना है वहां कभी पानी की एक बड़ी कुफर हुआ करती थी। मां ही क्यों गांव के दूसरे लोग भी अपने पशुओं को चराकर यहीं पानी पिलाते। स्कूल के बच्चे उसके चारों तरफ बैठ कर तख्तियां धोया करते। जगह-जगह गाचणी के टुकड़ पड़े होते। दवात-कलम रखे होते। कोई कापी-किताब भूली रहती। नीली स्याही की कलमें गाद में कई जगह ठूंसी रहती। जिसने स्कूल भी न देखा हो उसे भी पता चल जाता कि गांव का स्कूल यहीं कहीं पास होगा। सामने एक पत्थरों की दीवार थी, जो पश्चिम का पानी रोकता था। उस पर बणे के छोटे-छोटे पेड़ थे। उनके बीच दीवाल में खाली जगह थी, जिसमें पाप देवताओं की पत्थर की प्रतिमांए रखी होती। मां ने कितनी बार यहां आकर पूजा की होगी। पितरों की मूर्तियां बनाकर रखी होंगी। पर आज यहां सब कुछ नदारद है, जैसे वक्त ने उन्हें लील लिया हो।

अब एक बड़ा सा मैदान है, जिस पर बस और ट्रकों के टायरों की अनगिनत रेखांए हैं। यहां न अब पानी है, न बच्चों की चहल-पहल। न ही कोई पशु भूला-भटका इस तरफ आता है। रेत, बजरी, सरिया और सिमैंट के कितने ही ट्रक यहां उतरे है, जो इसे धूल का समंदर बनाए रखते है।


मां पहले बस से आगे निकल गई थी। अचानक ठिठक गई। परसा चमार के घर का रास्ता सड़क से भी तो जाता है। सोचा कि लोग क्या कहेंगे....कि फलाणी मुंह के पास बस आते हुए भी पैदल जा रही है।..या उसके बेटे उसको पेसे ही न देते होंगे..? फिर समय भी तो बच जाएगा। जब तक मरी भैंस ओबरे से बाहर नहीं निकाली, न मां खुद रोटी खाएगी न पशुओं को ही घास-चारा डालेगी। चमार के हाथ से उसकी गति जितनी जल्दी हो उतना ही पुन्न। यह ख्याल आते वह मुड़ गई। फिर रूकी। कुरते की जेब में हाथ डाला, तीन-चार रूपए की चेंज थी। आकर बस में बैठ गई।

कुछ मिनटों बाद बस चल पड़ी।

पलक झपकते ही वह जगह आ गई जहां मां को उतरना था। खेतों से नीचे उतरी तो घर दिख गया। सोचा कि यहीं से हांक दे दे।.....पर क्या पता कोई हांक सुने भी कि नहीं, ख्याल करते हुए नीचे चल दी। कई बरसों पहले मां का एक बैल मरा था। शायद फिर खुद ही आई होगी। मां को यह भी याद नहीं कि परसा चमार उनके घर कब छमाही लेने आया था। पति जिंदा थे तो वह महीने में एक-आध चक्कर लगा लिया करता। वहीं रह जाता। रात भर गप्पें चलती रहती। खूब बातें होती। वह मां और उनके पति के जूते भी गांठ कर ले आता। गांठने-बनाने को ले भी जाता। पर कितने बरस हो गए, मां ने कभी जूते नहीं गंठवाए। जरूरत भी न पड़ी। अब तो प्लास्टिक का जमाना है। बीस-तीस रूपए में जूते मिल जाते हैं। आसान काम। इस मशीनी जमाने ने तो आदमी को आदमी से ही दूर कर दिया, सोचती-विचारती मां परसे के घर के आंगन में थी। घर देखा ता हैरान रह गयी। पहले तो कच्चा मकान था--मिट्टी-भीत का बना हुआ। ऊपर बेढंगे से छवाए खपरे हुआ करते थे। खेतों-खलिहानों तक चमड़े की बास पसरी होती। आज तो यहां वैसा कुछ भी नहीं। लगा कि वह कहीं गलत मकान में तो नहीं आ गई ? अभी सोच ही रही थी कि एक छोटी सी लड़की बाहर निकली। मां को देख कर ठिठक गई। मां ने पूछ लिया,

‘‘ मुन्नी! परसे रा घर यई है ?‘‘

उसने कोई जवाब नहीं दिया। शरमा कर उल्टे पांव भीतर चली गई।

कुछ देर बाद एक बुजुर्ग आया और दहलीज पर से बाहर गर्दन निकाली और झांकने लगा। पट्टृ की बुक्कल के बीच से उसका कूब निकल आया था। चेहरे पर घनी झुर्रियां....जैसे किसी बिन बाच के खेत में हल की फाटें दी हो। मां को देखा तो पहचान गया,

‘‘ अरे भाभी तू...?‘‘

कितनी आत्मीयता थी इस सम्बोधन में। मां का धीरज बढ़ा।

खड़े-खड़े ही राजी-खुशी हुई। परसा कहने लगा,

‘‘ आ जा..अंदर को चल, आज तो बड़ी ठंड है। म्हारे तो धूप बारह बजे से पैले नी आती।‘‘

यह कहते-कहते परसा अभी पीछे मुड़ा ही था कि मां ने रोक दिया,

‘‘ बैठणा नी है परसा। मेरी ताजी सुई हुई भैंस मर गई। पहला ही सू था।‘‘

गला भर आया था मां का। आंखों से पानी टपकने लगा।

परसा क्षणभर खड़ा रहा। फिर भीतर चला गया। मां को तस्सली हुई कि वह भीतर जाएगा, छुरी निकाल किलटे में डालकर बाहर आएगा और चल पड़ेगा। लेकिन जब वह दोबारा बाहर आया तो उसके एक हाथ में पटड़ा ओर दूसरे में आग की अंगीठी थी। मां को पटड़ा पकड़ाया और अंगीठी सामने रख दी। खुद भी उसी के पास बैठ गया। जेब से बीड़ी निकाली। एक मां को दी, दूसरी अंगीठी की आग में ठूंस कर सुलगा ली। मां ने भी ऐसा ही किया। दोनों पीने लग गए। कुछ देर गहरे कश लेते रहे। मां ने ही चुप्पी तोड़ी,

‘‘ तेरा बी कदी गांव की तरफ चक्कर ही नी लगा ?‘‘

‘‘ अब कहां चला जाता है भाभी। चढ़ाई में चलते दम फूलणे लगता है। फिर टांगे बी जबाब देणे लगी।‘‘

‘‘ पर साल-फसल पर बी तो नी आया तू। म्हारे पास ही कितणे सालों की छमाही हो गयी होगी।‘‘

परसे ने एक गहरी सांस ली। खंासता भी गया। चेहरे पर दर्द उतर आया।

‘‘ जाणे दे भाभी! पुराणी गलां। तैने रखी होगी इतणी ल्याहज, पर दूसरे तो सब नाक चिढ़ाते हैं। तुम्हारे जैसे थोड़े ही है सब। बामणों-कनैतों का गांव है। .........बड़ी साल पइले गया था। उस टेम बे जब भाई मरा था। लगे हाथ छमाही भी मांगणे चला गया। बामणों ने तो मना ही कर दिया। कहणे लगे कि परसा, अब जूते कौन बनाता-गंठाता है। बणे-बणाए मिल जाते हैं दूकानों में। तू तो जाणती है भाभी, काम के साथ ही आदमी की गरज होती है। फिर मुए को नी पूछता कोई!‘‘

यह कहते हुए उसने अंगीठी की आग को उंगलियों से ठीक किया। मां की बेचैनी बढ़ती चली गई। वह इस जल्दी में थी कि परसा बात मुकाए और चल दे। पर वह बोलता गया,

‘‘ पैले पुराणा वक्त था। दूकानें नी थी। सड़क नी थी। तब परसा बड़ा आदमी था। शादी-ब्याह म्हारे कंधों पर। पटियारी-पतली म्हारे जिम्मे। बूट तो परसे के ही होणे चाहिए। अब तो न कहार न चमार। टैम-टेम की बातें हैं भाभी।‘‘

चेहरे पर आक्रोश और खीज भर गई थी। मां चुपचाप देखती रही। पूछना चाहती थी कि इन बामणों-कनैतों के पशु कौन फैंकता है, पर पूछ ही न पाई। वह परसे से एक बार फिर चलने का अनुराध करने को हुई कि परसा फिर कहने लगा,

‘‘ माफ करियों भाभी, तू तो म्हारी आपणी घर की है। कोई बामण-कनैत आया होता तो आंगण में खड़े बी नी होणे देता।......अब म्हारे घर मे न कोई बूट-जोड़ा गांठता है, न पशु फैंकता है। बच्चे नी मानते। बड़ा तो शिमला में अफसर बण गया है। छोटा बस टेशन पर दूकान करता है।...तेरे को कैसे नी पता भाभी। ....मैं तो अब कहीं न आता न जाता।‘‘

मां सुन कर हैरान-परेशान हो गई। याद आया कि परसे का ठीया उधर कहीं होता था। वह आंगन के किनारे देखने लगी तो परसे ने बताया,

‘‘वो देख उधर, मेरा ठीया होता था। लड़कों को बथेरा समझाया कि मुए इसको तो रैहणे दो। पर कहां माने। अपणे काम से इतणी नफरत जैसे ये बामण म्हारे से करते है। तोड़ दिया उसको। सारा समान बी पता नहीं कहां फैंक दिया। वहां अब लैटरींग बणा दी।‘‘

कहते-कहते अंगीठी दोनों हाथों से ऊपर उठाकर हिला दी। अंगारे चमकने लगे। फिर उठ कर भीतर चल दिया। मां ने जब उस की आंखों में देखा था तो वे गीली थी। शायद अपनी विरासत के यूं खो जाने से मन भर आया होगा। भीतर जाते उसने पट्टु के छोर से आंखें पोंछी।

दरवाजे पर पांव रखते ही कुछ याद आया, वहीं से बोला,

‘‘ तू मेरे लड़के से कहियो, वो कुछ कर देगा।‘‘

मां की हालत देखने वाली थी। उसके न बैठे बनता था न वहां से आते। कोई मां का चेहरा देखता तो पसीज जाता। नजर फिर ठीए की तरफ गई। याद करने लगी कि जब वह यहां आती तो भीतर बैठ जाती। गांव के और भी कितने लोग परसे के आसपास बैठे रहते। उनमें बामण, कैनैत, कोली, चमार सब होते। न किसी को छू-न छोत। उस समय तो परसा, चमार नहीं बल्कि एक बड़ा कारीगर होता, मास्टर, उस्ताद होता।

वह छोटी सी लड़की फिर बाहर आई और भागती हुई शौचालय में चली गई। तपाक से दरवाजो बन्द किया। शौच की बास का भभका, हवा के झोंके के साथ मां के नाक में घुस गया। चादरू से मुंह-नाक ढक लिया। उठी और चल दी। सोचते हुए कि क्या करें, कहां जाएं। मन में एक आस बची थी कि परसे का लड़का कुछ करेगा।

सूरज काफी चढ़ आया था। घर अकेला था। पशु भूखे-प्यासे होंगे। मां लम्बे-लम्बे कदम देने लगी। बस अड्डे पर पहुंची, तब तक दुकानें खुल गयी थीं। मां देखने लगीं.....चाय की दूकान, आटा-चावल की दूकान, कपड़े की दूकान, सिगरेट बीड़ी की दूकान और नाई की दूकान। एक और दूकान पर नजर गई, जिसमें एक-दो छोटी मशीनें रखी थी। वहां बैठे लड़के को अम्मा नहीं जानती थी। बाकि सभी तो उसी गांव-बेड़ के थे।

उधर देख ही रही थी कि कानों में आवाज पडी़,

‘‘ ताई कहां थी तड़के-तड़के ?‘‘

मुड़ कर देखा तो बुधराम नाई था। झाड़ू लगाते उसने फिर कहा,

‘‘ताई ! आ जा न बैठ, चाय का घूँट लगा ले।‘‘

मां बैठना नहीं चाहती थी, पर सोचा कि बुधराम ही परसे के लड़के से बोल कर भैंस फिकवा दे। वह अन्दर जा कर बैठ गई और जल्दी-जल्दी सारी बात बता दी। मां के चेहरे से काफी परेशानी झलक रही थी। बुधराम ने सारी बात सुनी तो हल्का सा मुस्करा दिया, जैसे वह कोई समस्या ही न हो। उसने अपने बांए हाथ इशारा किया और मां को बताया कि बगल में ही उसकी दूकान है। झाड़ू बैंच के नीचे फैंका और बाहर निकल पड़ा। मां उसके पीछ-पीछे चल दी। दोनों दूकान पर पहुंचे। परसे के लड़के का नाम महेन्द्र था। मां को कुछ तसल्ली हुई। बताने का प्रयास भी किया था कि वह उसी के घर से आ रही है, पर महेन्द्र ने ध्यान ही न दिया। बुधराम ने ही मां को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। उसी ने बताया कि ताई की भैंस मर गई है। महेन्द्र ने मां का नाम पूछा और फिर कम्प्यूटर में कुछ ढूंढने लग गया। मां कुर्सी से उचक कर देखने लगी। स्क्रीन पर अक्षर भाग रहे थे। उसने अपनी घूमने वाली कुर्सी जब पीछे घुमाई तो मां बैठ गई। वह बताने लगा,

‘‘ माता जी आपका नाम हमारे पास नहीं है। न ही पशुओं की लिस्ट। पंडतों-ठाकुरों ने तो पहले ही अपना रजिसट्रैशन करवा दिया है। आप भी करवा लो।‘‘

मां की समझ में कुछ नहीं आया। आश्चर्य से बुधराम को देखने लगी। उसी ने मां को समझाया,

‘‘ ताई! देख उधर, गांव के जितने भी आदमी है, उनके नाम पशुओं के साथ लिखे हैं। वो देख मेरा बी नाम है...(उंगलीसे बताने लगा)। जब कोई पशु मरता है या पैदा होता है, इसमें दर्ज हो जाता है। फीस लगती है उसकी। अगर तेरा नाम होता, मिनट में ई-मेल करके महेन्द्र शहर से दो-चार आदमियों को बुला देता और शाम तक तेरी भैंस ओबरे से बाहर।‘‘

मां की चिन्ता बढ़ गई। हैरान -परेशान होकर पूछने लगी,

‘‘ पर बुधराम वो भैंस को कैसे फैंकेंगे ?‘‘

‘ ताई! वो लोग शहर से अपनी गाड़ी में आएगें। तेरी भैंस को ओबरे से बाहर निकालेंगे। ले जाएंगे। उसे काटेंगे, परर फैंकेंगे नहीं। जैसा म्हारे चमार करते हैं। मांस, हड्डियां, खाल सब अपने साथ लेते जाएंगे। न खेतों में गंदगी रही, न गिद्धों और कुत्तों का हुड़दंग।‘‘

मां का सिर चकरा गया। कुछ पल्ले नहीं पड़ा। उठी और बाहर निकलते-निकलते एक नजर बुधराम पर डाली, दूसरी महेन्द्र और उसकी मशीन पर। अब क्या करें, कुछ समझ नहीं आया।

सड़क पर आकर मां ने उस दूकान की तरफ फिर देखा। बड़े-बड़े अखरों में दूकान का नाम लिखा था.........एम॰ डॉट कॉम।

--एस॰ आर॰ हरनोट

Thursday, November 20, 2008

मनोविश्लेषण और जैनेन्द्र की कहानियाँ

किसी व्यक्ति का जो कुछ सबसे अपना होता है, वह है उसका अपना व्यक्तित्व। व्यक्तित्व ही मनुष्य में एक व्यक्ति होने का बोध जागृत करता है। सामान्यतया, व्यक्तित्व से आशय उस व्यक्ति-विशेष के भौतिक आकार-प्रकार, रहन-सहन, वेश-भूषा आदि से समझा जाता है, परन्तु दर्शनशास्त्र में इसकी परिभाषा वृहद् है। दर्शनशास्त्र के अनुसार :

Personality can be defined as a dynamic and organized set of characteristics possessed by a person that uniquely influences his or her cognitions, motivations, and behaviors in various situations.1

उपर्युक्त परिभाषा से यह स्वतः स्पष्ट है की व्यक्तित्व की परिधि में न मात्र व्यक्ति का बाह्य वरन् अंतर्मन भी आता है। व्यक्ति-मन तथा उससे निर्मित व्यक्तित्व के मूल में तीन महत्त्वपूर्ण उपादान होते हैं यथानाम- The id, The ego और The superego। यह id बाह्य परिवेश से अचेत अतृप्त कामनाओं की शीघ्रातिशीघ्र परितुष्टि चाहता है। ego id की उन इच्छाओं को पहले आवश्यकता के आलोक में तदुपरांत बाह्य जगत् के यथार्थ के प्रकाश में देखता है। अंततः superego ego पर नैतिकता तथा सामाजिक मर्यादाओं को अंतर्निविष्ट कर विवश करता है कि id की कामना न मात्र वास्तविक हो अपितु नैतिक भी हो। यह superego ही व्यक्तित्व के विकास एवं पोषण पर नियंत्रण रखता है। और इस तरह पैतृक संस्कार और सामजिक आदर्श की ही अभिव्यक्ति हमारे व्यक्तित्व के माध्यम से दृष्ट होता है।2

वस्तुतः मनोविश्लेषण के अंतर्गत मुख्यतया उपर्युक्त विवेचन ही होता है। मनोविश्लेषण का समास विग्रह है- मन का विश्लेषण। मनोविश्लेषण की परिभाषा देते हुए Sir Sigmund Freud लिखते हैं:

Psychoanalysis is the name

of a procedure for the investigation of mental processes, which are almost inaccessible in any way.
of a method (based upon that investigation) for the treatment of neurotic disorders and
of a collection of psychological information obtained along those lines, which is gradually being accumulated into a new scientific discipline.3

यह मनोविश्लेषण वस्तुतः मन के तीन अनुभागों, चेतन, अचेतन और अवचेतन, में से अवचेतन की व्याख्या है। वह सब कुछ, जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा अनुस्यूत होता है, छंटनी कर हमारी आवश्यकतानुसार इन तीन अनुभागों में पँहुचा दिया जाता है। चेतन मन दृश्य होता है हमारे क्रिया-व्यवहार से। परन्तु, अवचेतन मन, जिसके बारे में कहा जाता है कि मानव मन जल में अधडूबे पत्थर की तरह है, जिसका वह भाग जो सरलता से दृश्य होता है चेतन है और अदृश्य डूबा भाग अवचेतन मन है4, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे चेतन मन को और इस तरह हमारे क्रिया- व्यवहारों को प्रभावित करता है।

कहानियों में पात्रों के इन्हीं क्रिया- व्यवहारों के माध्यम से मनोविश्लेषण किया जाता है। कहानियों में मनोविश्लेषण तीन स्तरों पर होता है यथा- कहानी के पात्रों का मनोविश्लेषण तटस्थ होकर, कहानीकार के जीवन के विश्लेषण के द्वारा पात्रों के मन का विश्लेषण और पाठकों के अंतर्मन तथा मानसिकता के माध्यम से कथा सूत्रों का विवेचन तथा घटनाओं का विश्लेषण। एक सफल मनोविश्लेषणापेक्ष कहानी के कहानीकार की सफलता इसमें होती है कि वह पाठकों को शब्दों और घटनाओं के माध्यम से कहानी में अन्तर्निहित कर दे किंतु पाठक तथापि उन घटनाओं को तटस्थ होकर देख सके।

हिन्दी कहानी जब प्रसाद और प्रेमचंद रूपी दो ध्रुवों पर सिमट रही थी, ऐसे ही में उनके समानान्तर जैनेन्द्र कुमार ने एक अनूठी शैली को अपनी कहानियों में जगह दी। ऐसा नहीं है कि यह शैली और विषय-वस्तु सर्वथा नवीन था। कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने भी इसी ओर इशारा किया था –

"सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।"5

परन्तु जैनेन्द्र ने मानो हिन्दी-कहानी जगत् में क्रान्ति ही ला दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की –

"मैं किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता, जो मात्र लौकिक हो, जो सम्पूर्णता से शारीरिक धरातल पर ही रहता हो, सबके भीतर ह्रदय है, जो सपने देखता है। सबके भीतर आत्मा है, जो जगती रहती है, जिसे शास्त्र छोटा नहीं, आग जलाती नहीं। सबके भीतर वह है जो अलौकिक है। मैं वह स्थल नहीं जानता जहाँ 'अलौकिक' न हो। कहाँ वह कण है, जहाँ परमात्मा का निवास नहीं है? इसलिए आलोचक से मैं कहता हूँ कि जो अलौकिक है, वह भी कहानी तुम्हारी ही है, तुमसे अलग नहीं है। रोज के जीवन में काम आने वाली, तुम्हारे जाने पहचाने व्यक्तियों का हवाला नहीं तो क्या, उन कहानियों में तो वह 'अलौकिक' है, जो तुम्हारे भीतर अधिक तहों में बैठा हुआ है। जो और भी घनिष्ठ और नित्य रूप में तुम्हारा अपना है।"6

वस्तुतः जैनेन्द्र समाज की लघुतम इकाई व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व को ही चित्रित करते हैं। उनका व्यक्ति 'जयराज न होकर प्रियराज अथवा बलराज हो सकता है' या फ़िर 'वह सुनयना भी हो सकती है, सुलोचना भी हो सकती है'। उस व्यक्ति के मन में कई इच्छाएं होती हैं, जिन्हें नैतिकता और पैतृक संस्कारों के कारण दबा दबा पड़ता है। परन्तु वह उन कामनाओं को मिथकीय भगवान शंकर की तरह पूरी तरह नहीं दबा पाता। जैनेन्द्र के यहाँ सभी मूल्य और नियम उस व्यक्ति विशेष का नितांत वैयक्तिक हो जाता है। उनके पात्रों में ऐसे ही विचार दृष्टिगोचर होता है।

'खेल' के मनोहर और सुरी के क्रिया-व्यापार बालकोचित होते हुए भी प्रौढ़ लगते हैं। 'खेल' में मनोहर और सुरी दो ही पात्र हैं। जो घटना है, वह इन्हीं दो बच्चों के आपसी नोक-झोंक, कलह, मान-मनौवल तक सीमित है। मनोहर द्वारा जान-बूझकर किसी के भाड़ को तोड़ देना किसी भी नटखट बालक की सहज वृत्ति हो सकती है, पर वह भाड़ था सुरी का। उसने जान-बूझकर भाड़ तोड़ा तो अवश्य, परन्तु उसके मन में सुरी के हृदय को कष्ट पहुँचाने की कतई इच्छा न थी। वह तो मात्र चाहता था कि वह उसके प्रति उदासीन न रहे। सुरी तो आरम्भ से ही उससे उदासीन अपना भाड़ बनाने में मग्न थी। सुरी के नाराज़ होने पर मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति द्रष्टव्य है -

"सुरी, मनोहर तेरे पीछे खडा है। वह बड़ा दुष्ट है। बोल मत, पर उसपर रेत क्यों नहीं फेंक देती! उसे एक थप्पड़ लगा - वह अब कभी कसूर नहीं करेगा। "7

'व्याज कोप का रूप' दिखाती सुरी उसके कसूर की सज़ा मुक़र्रर करती है कि उसे वैसा ही भाड़ बना कर दिया जाए, जैसा कि उसने बनाया था। भाड़ बना और सुरी का 'स्त्रीत्व', जिसे पुरूष मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति ने व्यथित किया था, उसे पुनर्निर्मित भाड़ पर लात जमाकर अक्षुण्ण रखा और मनोहर द्वारा क्षमा-याचना करने से लज्जित सुरी ने उस लजा के बंधन को काट दिया।सुरी का उपर्युक्त क्रिया-व्यवहार उसके संस्कारों में पितृसत्तात्मकता का प्रभाव मात्र था। वह पितृसत्ता जो नारियों में हीनताबोध जगाता है। 'पत्नी' की सुनंदा और 'रुकिया बुढ़िया' की रुक्मनी इसी पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ही परिणाम हैं। यद्यपि जैनेन्द्र का मानना है –

विवाह से व्यक्ति रुकता है। ... विवाह का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्रेम के निमित्त से उसकी सृष्टि है। 8

तथापि उनके पात्रों में प्रायः वैवाहिक संबंधों का खुलकर और भरपूर प्रयोग मिलता है। रुक्मनी, सुनंदा, सुदर्शना या फ़िर त्रिवेणी सभी वैवाहिक सम्बन्धों में आबद्ध है परन्तु सतीत्व की मर्यादा का वहाँ वे नहीं करतीं वरन सतीत्व को अपने अनुसार ढाल लेती हैं। वे भी सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त की 'उत्तरा' की भाँति इसी निम्नलिखित तथाकथित संस्कारों को ढोती है –

“जो सहचरी का पद मुझे तुमने दया कर था दिया

वह था तुम्हारा इसलिए प्राणेश तुमने ले लिया

लेकिन तुम्हारी अनुचरी का जो पुण्यपद मुझको मिला

है छीन सकना तो कठिन, सकता नहीं कोई हिला॥”

भले इन प्रानेशों में लाखों ऐब थे, पर वे इनके पूज्य थे। अपने स्थायी स्वार्थ की कुर्बानी देकर अपने दक्षिणांगों को तुष्ट करती थीं। उनका मानना था कि "उनका काम तो सेवा है"9
सुनंदा के साथ कालिंदीचरण जब कभी करूँ दशा में प्रार्थना करता था, 'स्त्रीत्व' को ठेस पंहुचती थी। उसके प्रति जब भी दींन-हीन सा कुछ चाहता था तो उसे लगता था कि वह 'गैर' है। ऐसा नहीं है कि सुनंदा में यशपाल के 'करवा का व्रत' की नायिका की भाँति विद्रोह के भाव नहीं आते, पर उन भावों का प्रकाशन मुखर न होकर मूक है। जैनेन्द्र की पत्नी में भारतीय परम्परा की वही स्वाभाविकता है जो कभी द्विवेदी युगीन साहित्य में था। सुनंदा ऐसी भारतीय नारी है, जो सामाजिक विषमताओं के तहत सांस्कारिकता, नैतिकता और मर्यादा का बोझ ढोती चलती है। यही कारण है कि 'रुकिया बुढ़िया' में दीना या 'पत्नी' में कलिन्दीचरण जब भी कभी कटु व्यवहार करता तो क्रमशः रुक्मनी और सुनंदा में आक्रोश की एक चिंगारी भड़क उठती, परन्तु उस चिंगारी के भयंकर ज्वाला में तब्दील होने से पहले ही भारतीयता रूपी ढेर सारा पानी डालकर सदा के लिए सुला देती थीं।

जैनेन्द्र की कहानियों में अभावग्रस्तता एक बहुत बड़ा मसला बनकर पाठकों के सामने उपस्थित होता है। यह अभाव उनके पात्रों में एक मानसिक ग्रंथि का निर्माण करता है। द्रष्टव्य है कि स्वयं जैनेन्द्र का जीवन बड़े अभावों में रहा। इनकी कहानियों के पात्रों का अभाव न मात्र आर्थिक वरन मानसिक और जैविक भी है। सुनंदा जैसे पात्रों में जहाँ मातृत्व का अभाव है तो 'मास्टरजी' की नायिका जैसों में जैविक। उनकी कई कहानियों में पात्र-पात्रा अपने जैविक, मानसिक अथवा दोनों अभावों को मिटाने के निमित्त विवाहेतर सम्बन्ध बनाते हैं। 'एक रात' की शादी-शुदा सुदर्शना अपने पति को छोड़कर चल देती है जयराज से मिलने। स्टेशन पर वे एक-दूसरे के काफ़ी क़रीब होते हैं। जयराज के जीवन का अभाव भी उसके सान्निध्य में मानों पट सा जाता है। एक-दूसरे के स्पर्श से मानों दोनों को आनंद की प्राप्ति हो जाती है। 'त्रिवेनी' के घर में आया अतिथि, जो उसका विवाह-पूर्व का प्रेमी था, से बात कर संवेदना के धरातल पर एकदम तरो-ताज़ा हो जाती है। परन्तु उस भारतीय नारी को उसकी तथाकथित दायरों का एहसास होता है और वह निश्चय करती है –

"रात को जब पति आएँगे, मैं उनसे क्षमा माँगकर अपने आँसुओं से उनका सब क्रोध बहा दूँगी।"10
यही नहीं 'मास्टर जी' की नायिका तो अपने प्रौढ़ पति को छोड़कर अपने ही घरेलू युवा नौकर के साथ भाग जाती है। सामाजिक सन्दर्भों में इन पात्रों के क्रिया-व्यापार भले ही अनैतिक एवं अमर्यादित लगें, जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में सहज ही सुलभ हैं। इन पात्रों की मानसिकता के मूल में जैनेन्द्र का निम्नलिखित दर्शन दृष्टिगोचर होता है –

“बहुत पहले की बात है। ... पाप-पुण्य की रेखा का उदय न हुआ था। कुछ निषिद्ध न था, न विधेय। ... विवाह न था और परस्पर सम्बन्धों में नातों का आरोप न था। स्त्री माता, बहन, पुत्री, पत्नी न थी; वह मात्र मादा थी और पुरूष नर।”11

‘पाजेब’ कहानी का आशुतोष उस भूल को स्वीकार करता है, या यूँ कहें करवाया जाता है, जो उसने किया ही नहीं था। उसकी इस मानसिकता के पीछे भी उसका अवचेतन काम कर रहा है। उसने अनुभवों से इतना तो अवश्य जान लिया होगा की झूठ कह लेने से संकट टल जाती है, या चापलूसी करने से मनचाही वास्तु मिल जाती है। कोई भी जन्मजात अपराधी नहीं होता। अपने परिवेश अनुभवों से उसका व्यक्तित्व गठित होता है। बालक के क्षेत्र में नकारात्मकता उसके भीतर अपराध को पनपने का मौका देता है। कहानीकार आशु के बहाने मध्यवर्गीय मानसिकता की बनावट और बुनावट से पाठकों का परिचय करा देते हैं।

'मास्टर जी' का प्रौढ़ मास्टर अपनी पत्नी से पुत्रीवत स्नेह रखता है। मास्टर का ऐसा व्यवहार भले ही असामान्य प्रतीत हो, असहज नहीं है। जैसा की कहानी कहती है, उनका विवाह तब हुआ था जब वह बाला थी और मास्टर युवा। उस समय उसके मन में भी जैविक इच्छा अवश्य रही होगी, परन्तु उम्र और उम्रानुरूप परिपक्वता में वह कम ही थी। अतः यह सम्भव है की मास्टर का व्यवहार उसके प्रति पुत्रीवत हो गया हो। यही उसकी प्रौढावस्था तक उसके साथ रही हो । परंतु उस लडकी की जैविक इच्छा का क्या? अतः वह अपने ही समवयस्क युवा नौकर के साथ भाग गयी। मास्टर इससे दुखी तो हुआ, परंतु उसके लौट आने पर दुगुना खुश। उसके आने पर मिठाईयाँ बाँटना उसके इसी मनोभाव का परिचायक है।

“बहुतेरा पढने-लिखने के बाद और माँ के बहुत कहने-सुनने पर भी रामेश्वर को कमाने की चिंता न हुई, तो माँ हार मानकर रह गयी। रामेश्वर की बाल-सुलभ प्रकृति चाहती थी की रुपये का अभाव तो न रहे; पर कमाना भी न पड़े।”12

उपर्युक्त समस्या न मात्र रामेश्वर की वरन वर्तमान युग के प्रायः सभी सद्यः-शिक्षितों की। ऐसे में उनपर दवाब बढ़ता है और रामेश्वर तो फोटोग्राफर बन गया, पर आज एक ग्रंथि के रूप में मस्तिष्क में घर कर जाती है। आज होने वाले अधिकाँश आत्महत्याओं के पीछे यही वज़ह है।

'जाह्नवी' कहानी में प्रेम में टूटी हुई अक स्त्री की मानसिक दशा की अभिव्यक्ति है। किंतु यह अभिव्यक्ति एक अनुकूल परिवेश बिम्ब के माध्यम से है। कथावाचक पात्र का छत पर उड़ते हुए कौओं के बीच घिरे जाह्नवी रोटियों के टुकड़े का फेंकते हुए गाना, प्रेम में पगी भावनाओं की करुण काव्यात्मक अभिवक्ति है।13 तो वहीँ 'बाहुबली' में अजेय होने का गर्व दर्प में बदलकर एक ग्रंथि के रूप में अपना बसेरा कर लेता हैऔर तपश्चार्योपरांत भी उसे शान्ति तथा ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।

मनोविश्लेषणसिद्ध इस कथाकार ने Freud प्रदत्त मनोविश्लेषण को सिद्धांत रूप में ग्रहण तो किया, पर पूर्णतया नहीं। वरन् इन्होंने इसमें भारतीय मीशा और दर्शन का समाहार कर लिया। इनके पात्रों में एक भारतीय आत्मा बस्ती है। परवर्ती काल में इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय ने जैनेन्द्र की परम्परा को ही आगे बढाया और जैनेन्द्र के रंग में रंगकर मनोविश्लेषण की कहानियाँ जैनेंद्रमय हो गयीं।


संदर्भः
1. http://en.wikipedia.org/wiki/Personality_psychology
2. Carver, C., & Scheier, M. (2004). "Perspectives on Personality" (5th ed.). Boston: Pearson
3. पृष्ठ सं॰- 131, "15, Historical and expository works on Psychoanalysis"- Sir Sigmund Freud
4. पृष्ठ सं॰- 95, "समकालीन विचारधाराएँ और साहित्य"- डॉ॰ राजेन्द्र मिश्र
5. पृष्ठ सं॰- 36, "कुछ विचार"- प्रेमचन्द
6. "एक रात' की भूमिका- जैनेन्द्र
7. पृष्ठ सं॰- 45, कहानी 'खेल', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
8. पृष्ठ सं॰- 147, कहानी 'ध्रुवयात्रा', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
9. कहानी 'पत्नी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
10. पृष्ठ सं॰- 141, कहानी 'त्रिवेनी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
11. पृष्ठ सं॰- 124, कहानी 'बाहुबली', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
12. पृष्ठ सं॰- 29, कहानी 'फोटोग्राफी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
13. 'हिन्दी कहानी- अन्तरंग पहचान' - रामदरश मिश्र


चतुरानन झा,
शिक्षार्थी,
उत्तर बंग विश्वविद्यालय,
राजा राममोहनपुर,
पिन-734430
जिला-दार्जिलिंग
(पश्चिम बंगाल)

Monday, November 17, 2008

चुनाव और चम्पा

इधर कुछ दिनों से उसके पति पर चुनाव का भूत सवार था, उठते-बैठते, खाते-पीते, जागते-सोते, नहाते-धोते, बस चुनाव। चुनाव भी क्या, झाड़ू पार्टी का भूत सवार था। झाड़ू पार्टी का बहुमत आएगा, झाडू पार्टी की सरकार बनेगी, क्योंकि झाड़ू पार्टी के प्रधान उनकी जाति के थे। चिड़िया पार्टी तो गई समझो, वह अक्सर गुनगुनाता फिरता था।
काना बाती कुर्र
चिड़िया उड़ गई फुर्र

उसे चिड़िया पार्टी पर काफी गुस्सा था। उनके हलके के विधायक चिड़िया पार्टी के थे और उन्हीं की शिकायत पर उसका तबादला यहां हुआ था। पति उसे पिछले तीन दिन से एक डम्मी मतपत्र दिखलाकर बार-बार समझा रहा था
कि झाड़ू पर मोहर कैसे लगानी है! कागज कैसे मोड़ना है! उसने तो जूते के खाली डिब्बे की मतपेटी बनाकर उसे दिखलाया था कि वोट कैसे डालनी है!
आज वे मतदान केन्द्र पर सबसे पहले पहुँच गए थे। फिर भी आधे घण्टे बाद ही उन्हें अन्दर बुलाया गया। चुनाव कर्मचारी उनकी उतावली पर हँस रहे थे। फिर उसका अँगूठा लगवाकर उसकी अंगुली पर निशान लगाया गया, उसका दिल कर रहा था कि अपनी ठुड्डी पर एक तिल बनवा ले, निशान लगाने वाले से।
पिछले चुनाव में उसकी भाभी ने अपने ऊपरी होठ पर एक तिल बनवाया था। हालाँकि उसका भाई बहुत गुस्साया था, इस बात पर। जब उसकी भाभी हँसती थी तो तिल मुलक-मुलक जाता था। उसकी भाभी तो मुँह भी कम धोती थी उन दिनों, तिल मिट जाने के डर से। पर वह लाज के मारे तिल न बनवा पाई। मर्द जाति का क्या भरोसा, क्या मान जाए क्या सोच ले!
अब उसके हाथ में असली का मतपत्रा था और वह सोच रही थी। यहाँ कालका जी आए उन्हें छह महीने ही तो हुए थे। वह राजस्थान के नीमका थाना की रहने वाली थी और पति महेन्द्रगढ़ जिले का। दोनों ही मरुस्थल के भाग थे। हरियाली के नाम पर खेजड़ी और बबूल बस। उसका पति वन विभाग में कुछ था। क्या था ? पता नहीं। कौन सर खपाई करे !
वह वन विभाग में था, इसकी जानकारी भी उसे यहीं आकर हुई जब वे फारेस्ट कालोनी के एक कमरे के क्वार्टर में रहने लगे। यहाँ आकर चम्पा, हाँ यही उसका नाम था न, बहुत खुश थी। यहीं उसे पता लगा कि चम्पा का फूल भी होता है और वो इतना सुन्दर और खुशबू वाला होता है। और तो और उसकी माँ, चमेली के नाम का फूल भी था, यहाँ। इतनी हरियाली, इतनी साफ-सुथरी आबो-हवा, इतना अच्छा मौसम, जिन्दगी में पहली बार मिला था, उसे। फिर सर्दियों में उसका पति उसे शिमला ले गया था। कितनी नरम-नरम रूई के फाहों जैसी बर्फ थी। देखकर पहले तो वह भौचक्क रह गई और फिर बहुत मजे ले लेकर बर्फ में खेलती रही थी। इतना खेली थी कि उसे निमोनिया हो गया था।
फिर यहाँ कोई काम-धाम भी तो नहीं था उसे। चौका-बर्तन और क्वार्टर के सामने की फुलवाड़ी में सारा दिन बीत जाता था। वहाँ सारा दिन ढोर-डंगर का काम, खेत खलिहान का काम और ऊपर से सास के न खत्म होने वाले ताने। फिर ढेर सारे ननद देवरों की भीड़ में, कभी पति से मुँह भरकर बात भी नहीं हो पाई थी, उसकी।
उसने मतपत्र मेज पर फैला दिया। हाय ! री दैया ! मरी झाडू तो सबसे ऊपर ही थी। उसने और निशान देखने शुरू किए। कश्ती, तीर कमान,। तीर कमान देखकर उसे रामलीला याद आई। उसे लगा चिड़िया उदास है, पतंग हाँ पतंग उसे हँसती नजर आई। साइकल, हवाई जहाज, हाथी सभी कितने अच्छे निशान थे और झाडू से तो सभी
अच्छे थे।
''अभी वह सोच ही रही थी कि निशान कहाँ लगाए? तभी वह बाबू जिसने उसे मतपत्र दिया था बोला-बीबी जल्दी करो और लोगों को भी वोट डालने हैं।''
उसने मोहर उठाई और मेज पर फैले मतपत्र पर झाडू को छोड़कर सब निशानों पर लगा दी और मोहर लगाते हुए वह कह रही थी कि चिड़िया जीते, साइकल जीते, कश्ती जीते पर झाड़ू न जीते।
झाड़ू को जितवाकर वह अपना संसार कैसे उजाड़ ले? हालांकि वह मन ही मन डर रही थी कि कहीं पति को पता न लग जाए।

--डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

Saturday, November 15, 2008

इतना नंगा आदमी (लघुकथा)

रेखाचित्र: मनु "बे-तक्ख्ल्लुस"

आज और दिनों की अपेक्षा मुख्य मार्ग वाले बाज़ार में कुछ ज्यादा ही भीड़ भड़क्का है | कुछ वार त्योहारों का सीज़न और कुछ साप्ताहिक सोम बाज़ार की वजह से | भीड़ में घिच -पिच के चलते हुए ऐसा लग रहा है जैसे किसी मशहूर मन्दिर में दर्शन के लिए लाइन में चल रहे हों | इतनी मंदी के दौर में भी हर कोई बेहिसाब खरीदारी को तत्पर | सड़क के दोनों तरफ़ बाज़ार लगा है | अजमल खान रोड पर मैं जैसे-तैसे धकेलता-धकियाता सरक रहा हूँ | भीड़ में चलना मुझे सदा से असुविधाजनक लगता है, पर क्या करें, मज़बूरी है | अचानक कुछ आगे खाली सी जगह दिख पड़ी | चार-छः कदम दूर पर एक पागल कहीं से भीड़ में आ घुसा है | एकदम नंग-धड़ंग, काला कलूटा, सूगला सा | साँसों में सड़ांध के डेरे, मुंह पर भिनकती मक्खियाँ, सिर में काटती जूएँ | इसीलिए यहाँ कुछ स्पेस दिख रहा है | अति सभ्य भीड़ इस अति विशिष्ट नागरिक से छिटककर कुछ दूर-दूर चल रही है |
पर मैं समय की नजाकत को समझते हुए उस पागल की ओर लपका और साथ हो लिया | हाँ! अब ठीक है | उसका उघड़ा तन मुझे शेषनाग की तरह सुरक्षित छाया प्रदान कर रहा है | मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ | हाँ! इतना नंगा आदमी कम से कम मानव बम तो नहीं हो सकता......|

नाम - मनु "बे-तक्ख्ल्लुस"
जन्म - २ मार्च १९६७
स्थान - नई दिल्ली
लेखन - जाने कब से
भाषा - हिन्दवी
संगीत - भारतीय शास्त्रीय संगीत
ग़ज़लें - मेंहदी हसन, गुलाम अली, बेगम अख्तर
रूचि- पेंटिंग, लेखन, संगीत सुनना
ब्लॉग - manu-uvaach.blogspot.com
ई-मेल - manu2367@gmail.com

Monday, November 10, 2008

अलंकार (लघुकथा)

"लघुकथा हमेशा कड़वी और तल्ख़ क्यों होती है?"

"क्यूं कोई स्नेहसिक्त, प्रणय में डूबी, हृदय के तारों को झंकृत करती, छोटी सी, मीठी सी लघुप्रेम कथा नहीं लिखता?"

"लघुकथा के पास इतना समय नहीं होता कि वह फालतू के तानेबाने में अपना समय जाया करें। जो कुछ कहना है सीधे स्पष्ट शब्दों में कहा, मर्म पर चोट की और नमस्ते।"

"मन की मिठास को सब सांद्र रुप में हृदय की गहराइयों में संजों कर रखना चाहते है। दूसरी तरफ कड़वाहट को शीघ्र और अधिकाधिक बांट कर विरल कर देना चाहते हैं। अपने अंदर की कटुता से त्वरित निवृत होने की कला ही लघुकथा है।"

"ना, लघुकथा तो गद्यशिशु होती है, कोई लाग लपेट नहीं सीधी सच्ची बात कही और चुप।"


लघुकथा विषय पर साहित्यिक गोष्ठी चरम पर थी। अण्डाकार बड़ी सी मेज के किनारों पर बैठे नगर के प्रबुद्ध साहित्यकारों के मुख से स्वर्णजड़ित उक्तियां झर रही थीं।

गोष्ठी समापन पर सभी अल्पाहार हेतु बगल के छोटे हॉल में चले गये ।

ओजपूर्ण स्वर भिनभिनाहट में बदल गये ।

सभी अब ख़ुद को कद्दावर और दूसरों को बौना करने के प्रयास में लग गये।

अभी भी अलंकृत भाषा का ही प्रयोग किया जा रहा था, बस अलंकार बदल गये थे ।

-विनय के जोशी

Thursday, November 6, 2008

14 जुलाई 1998 : मिट्टी के असबाब

इन दिनों आप पढ़ रहे हैं युवा कथाकार निखिल सचान द्वारा रचित धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैबंद'। इसे निखिल आरव की ज़िंदगी की डायरी से फ़ाड़े हुए कुछ पन्ने मानते है और कहते हैं कि उसे बिना बताए जितने पन्ने निकाल सका, आप तक पहुंचा रहा हूँ, तारीख के साथ॰॰॰॰

इस कथा का प्रथम भाग '10 मार्च ,1998 : इतिश्री' पढ़ चुके हैं। पढ़िए दूसरी कड़ी॰॰॰



१४ जुलाई १९९८ : मिट्टी के असबाब


कोरी स्लेटों पर नए अध्याय लिखे जा रहे थे , कहानियां नहीं . पुराने लिखे मिटाए जा चुके थे .सफ़ेद खड़िया का धुंधलका स्लेटों से पूरी तरह गया नहीं था लेकिन उस पर नई इबारत के नए हस्ताक्षर उभरने लगे थे . आरव की स्लेट पर कुछ कम और चारू की स्लेट पर थोड़े ज्यादा साफ़ , क्योंकि आरव की स्लेट की लकड़ी थोड़ी ज्यादा चीमड़ हो गई थी . सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .
नए दोस्त बनाए जा रहे थे...
नये बंधन कच्ची पुआलों से कसे जा रहे थे...
छाती भर के दम भर सांस लेना सीखा जा रहा था ...
इस प्रकरण में एक आध बार ही दम फ़ूला होगा लेकिन कुल मिलाकर ,ऊपर वाले की अदालत से मामला बाइज़्ज़त बरी हो चुका था.
चेतराम , भूरा, मेले, प्रिंसी और शीबू ने आरव और चारू के खोले स्कूल में दाखिला ले लिया था . गांव में वैसे तो एक प्राइमरी पाठशाला हुआ करती थी लेकिन गांव वालों की उस पर श्रद्धा बस इतने भर की थी ,कि उसमें गोबर के उपले ,धान की बोरियां और कर्बी के गट्ठर ही जमा किये जाते थे .सुबह १० बजते ही गिने गिनाए पांच विद्यार्थी या तो नहा धोकर स्कूल आ चुके होते थे या फ़िर नहाने का उपक्रम कर के . क्योंकि इंटरवल में बाजरे का रोटला तभी दिया जाता था जब चारू इस बात से संतुष्ट हो लेती थी कि स्कूल के छात्र सदाचार के बेसिक्स अपने दिमाग में बिठा चुके हैं या नहीं . खेल अजीब था लेकिन जैसा भी था ,अच्छा था .
चारू को उनके नामों से चिढ़ थी, चेतराम , भूरा..ये भी कोई नाम हैं ?
इसलिए उसने अपने बनाए रजिस्टर में उनके नए नाम ही लिखे हुए थे , बाकी सब तो ठीक था लेकिन प्रिंसी को इस बात से खास खीझ उठती थी कि चारू ने उसका नाम रजिस्टर में 'प्रिया' लिख रखा था . दरसल चारू जालौन के अपने स्कूल में अपना नाम प्रिया ही रखना चाहती थी क्योंकि उस समय हर फ़िल्म में हीरोइन का नाम यही हुआ करता था . आई ने उसे कभी भी अपना नाम बदलने की इज़ाज़त नहीं दी थी फ़िर भी अपनी सहूलियत और अपना मन रखने के लिए नए लोगों को वो अपना नाम प्रिया ही बताती थी .
अधिकतर क्लास लेने का जिम्मा चारू के हिस्से ही था . आरव भी कुछ कुछ बातें बताया करता था...मसलन बात करने का लहज़ा , चलने फ़िरने का और पहनने का . अब सभी लड़के अपना ऊनी स्वेटर अपनी पतलून में दबा कर पहनते थे और ऊपर से कपड़े की बेल्ट . क्योंकि आरव का कहना था कि ढीले ढाले कपड़े , ढीले ढाले इंसान ही पहनते हैं.
वैसे तो क्लास में पढ़ाने के लिए रोज रोज नया कुछ नहीं था इसलिए वही सारी बातें दोहराई जाती थीं ...जैसे नाक में उंगली करना एक बुरी आदत है और शौच जाने के बाद हांथ धुलना अनिवार्य होता है ,आंख में अंजन- दांत में मंजन ...वही सब बातें .चेतराम पिछली कक्षा की बातें दोहराते हुए , नाक में उंगली डाल कर बताता था कि नाक में उंगली डालना एक बुरी आदत होती है . दरसल ये उसकी घबराहट की वज़ह से होता था पर चारू को लगता था कि वो उसकी सिखाई हुई बातों का मज़ाक बना रहा है.आज फ़िर उसे बाजरे का रोटला नहीं दिया गया , फ़िर भी वो एक होनहार विद्यार्थी था , इसमें कोई संदेह नहीं था .
आरव ,चारू के माध्यम से अपने आप को यकीन दिला रहा था कि इस उलझे हुए लोगों की और भी उलझी हुई दुनियां में उसका भी एक सुलझा हुआ अस्तित्व है . उसने अपने दिमाग में पक्क्का कर लिया था कि बजाय उचित-अनुचित और सही-गलत के फ़ेर में पड़ने के , वह चारू की कल्पना की दुनिया के लिए नए वितान खींचेगा . आरव चारू से छोटा था लेकिन हर तरह से उसका बड़ा भाई बन बैठा था . चारू ईश्वर से बातें करती थी , आई के दुपट्टे से बातियाती थी और मिट्टी के खिलौनों से भी . आरव उसकी हर एक चीज़ से खुश था , सिवाय इसके कि उस ईश्वर में उसका विश्वास टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था जिसने उन दोनों की दुनिया को , एक बड़ी सी बाहरी दुनिया के मंच पर ,समय से पहले प्रदर्शन के लिए ला कर अनाथ रख छोड़ा . नन्हें कलाकार तमाशबीनों की भीड़ में बिना किसी स्क्रिप्ट के खड़े थे..
खैर ....ज़िन्दगी भी व्यस्त थी और उसे जीने वाले भी ...
मंतव्य अलग-अलग थे...
और गंतव्य भी .
आज चारू ने अपने स्कूल में छुट्टी की घोषणा कर रखी थी . छुट्टी की कोई ख़ास वजह नहीं थी पर ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया गया था कि वो स्कूल ही क्या जिसमें समय समय पर छुट्टियां ही ना होती हों, आखिर ओरिजनैलिटी नाम की भी तो कोई चीज़ होती है ना .
आज का खेल दूसरे दिनों के खेल से भिन्न था .आरव और चारू मिट्टी के बड़े ढ़ेले को लकड़ी की मूठ से कूटने में लगे थे . बीच बीच में उचित अनुपात में पानी डाला जाता था और फ़िर से कुटाई . कोशिश यह थी कि मिट्टी का एक घर बनाया जा सके और उसमें सारे खिलौने महफ़ूज़ रखे जा सकें . गारा बन चुका था और नन्हें मिस्त्री दोनों हंथेलियों से एक कल्पना को आकार दे रहे थे . गारे में लाल गेरू मिलाया गया था ताकि रंगों की गुंजाइश भी पूरी की जा सके .
चारू की मिट्टी की घुंघराली लट उसके माथे पर पेंडुलम की तरह नाच नाच कर सारे मामले पर गंभीरता से नज़र बनाए हुए थी .पेंडुलम ने देखा -एक बड़ा सा आंगन , आंगन से बड़े दो कमरे ,लकड़ी का ट्रैक्टर,खटिया और छोटा मोटा जरूरी असबाब ... चारू को घर में कुछ कमी नज़र आई , उसने पेंडुलम को कान के पीछे सहूलियत से लटकाकर कहा ,
'बाथरूम तो बनाना भूल ही गए '
आरव ने कातर निगाहों से उसकी ओर देखा ...
आई...बाथरूम..और नीम की काठ..
आरव से कुछ कहा नहीं गया , क्योंकि चारू से कुछ सुना नहीं जाता
लेकिन गुंजाइश को पूरी तरह दरकिनार भी नहीं किया जा सकता था इसलिए बिना कहा सुनी के दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि बाथरूम तो बनाया जाएगा पर उसमें दरवाज़े नहीं होंगे क्योंकि दरवाज़े तोड़ने में बहुत वक्त लगता है...
ख़ैर ..घर बनाया गया और उसमें खिलौने भी रखे गए .
सब मिट्टी के , पूरा घर भी मिट्टी का , और रहने वाले गुड्डे गुड़िया भी मिट्टी के क्योंकि मिट्टी आग नहीं पकड़ती .
अपना काम पूरा करके हेडमास्टर चारू को झपकी आ गई ..
और आरव को भी ....
उसने देखा कि..
वो मैदान में खेल रहा था , क्या ? ..कुछ ठीक से दिख नहीं रहा था पर किसी गेंद से . आई ने उसे आवाज़ दी ..
'आरव..'
'आरव..'
'हां मां ?'
'बेटा तुझसे कुछ बात करनी है , घर आ जा ..'
'आता हूं मां , बस ५ मिनट मां '
'आई ने ५ मिनट की गुंजाएश पर गौर किया , संभव नहीं था , क्योंकि ५ मिनट में उसकी हिम्मत टूट सकती थी . बहुत मुश्किल में उसने फ़ैसला किया था कि अब वो बाबा , चारू और आरव पर बोझ नहीं बन सकती है . घर का २-३ लाख रुपया , खुशी , सुकून और बाकी वैसा ही बहुत कुछ पिछले ५ वर्षों में उसकी बीमारी की भेंट चढ़ाया जा चुका था. वो तंग आ गई थी ऐसे शरीर से जिससे वो आरव और चारू को गले ना लगा सके , टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है' उसकी छाती दिन भर घुर घुर की आवाज़ करती रहती थी और नसों में सिवाय इंजेक्शन के लिक्विड के और कुछ भी नहीं दौड़ता था .टोटकों के नाम पर बाहों पर गरम चिमटे से बनाए हुए त्रिशूल के निशान थे.हर महीने वैसा ही नया त्रिशूल उसकी बांह पर दाग दिया जाता था.मान्यताएं अलग अलग थीं और भोले मानव मन को ठगने के तरीके अलग अलग,दवाएं अलग अलग,दुआएं अलग अलग ...पता नहीं कौन सी चीज़ काम कर जाती...कुल मिलाकर डाक्टरों से लेकर नीम-हकीमों तक सबने आई के शरीर और अस्तित्व का तमाशा बना दिया था .आई ने खुद से पूछा कि क्या वो इंतजार कर सकती है ?
आई ने खुद को कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि इंतजार करके वो करती भी क्या ?
आरव आ भी जाता तो उसको गले कैसे लगाती ..टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है....
बची खुची जो कुछ भी तथाकथित शक्ति थी,इकट्ठा की,स्टोर-रूम की ओर गई,थोड़ी सी खटर पटर के बाद एक पुराना कनस्तर उठाया और बाथरूम में गई ...
आई गीली फ़र्श और सूखी दीवार का सहारा लेकर बैठी थी .
एक-चौथाई , आधा, तीन-चौथाए और फ़िर पूरा ..किश्तों में उड़ेला गया .इस दौरान उसके हांथ एक बार भी नहीं कांपे , हां वो खांसी जरूर थी इसलिए तीली बार बार बुझ जाती थी .आखिरकार तीली जली और आई ने उसे अपनी साड़ी के पल्लू से मिलवा दिया .
आरव दौड़ते हुए घर में घुसा , पानी का गिलास खोजा ...
एक-चौथाई पिया...फ़िर आधा ...तीन चौथाई और फ़िर पूरा गिलास ..
आई का शरीर उसके साहस के तंदूर में भुनना शुरु हो गया था .बांह का त्रिशूल भी भुना , घुर-घुराने वाली छाती भी .साथ में आरव और चारू को अंतिम बार गले लगा लेने की लालसा भी कच्ची कच्ची ही जल उठी .
आरव गरम तवे पर पानी की छींटे मारने की छन छनाहट सुन सकता था . उसे लगा कि बिजली के तार ने आग पकड़ ली है और फ़िर सात बरस के बालक से जितनी कोशिश हो सकी उतनी ताकत लगा कर बाथरूम का दरवाज़ा तोड़ने लगा....
....
आरव की झपकी टूटी ...
सामने मिट्टी का बाथरूम था , आई नदारद थी , ना मिट्टी की और ना ही नीम की जली काठ की .आरव गठरी बना हांफ़ रहा था , पसीने से सीली गठरी .
...पुरानी याद ..पुराना भय और पुराना अपराध-बोध का पसीना ..
काश वह ५ मिनट पहले आई से मिलने आ गया होता ...
यह अपराध बोध आरव को सिर से पैर तक पिछले तीन महीने से खाए जा रहा था . वो अखिरी बार आई के पास क्यों नहीं था . आई क्या सोचती होगी उसके बारे में .कुछ सोचती भी होगी या नहीं भी ? आई का आरव कटघरें में अपनी ही खिलाफ़त और अपनी ही वक़ालत खुद ही कर रहा था , मुद्दई, वादी ,प्रतिवादी सब कुछ वही था .अपना गवाह भी वही , मुंसिफ़ भी वही...तमाशबीनों की भीड़ के बीचों-बीच अपराधी आरव हांफ़ता हुआ खड़ा था ,पसीने से तर-बतर .
तीन महीने से मामला मुल्तवी ही नहीं , कोई बाइज़्ज़त बरी भी नहीं हुआ
हर बार मुकदमा सुनने के लिए पिछली बार से ज्यादा तमाशबीन जुटे होते थे
आरव अपने कटघरे को लांघ कर बाहर आया ..
पानी की बाल्टी उठाई, दबे पांव , चारू को भनक होने दिए बिना मिट्टी के घर तक पहुंचा और पूरी बाल्टी अपने और चारू के घर पर उलट दी ..
बाथरूम बुरी तरह से रौंद दिया गया , कोई गुंजाइश नहीं रखनी थी ..
उसे अगले दिन चारू से झूठ बोलना पड़ा कि कल रात बहुत बारिश हुई है
हेडमास्टर चारू पर कोई असर नहीं हुआ . उसकी क्लास का वक्त हो चुका था , टीचर जैसी दिख सके इसलिए उसने आई का दुपट्टा दोनों कंधों पर वी के आकार में डाला और अपनी कल्पना की ऐनक नाक पर टिका कर स्कूल की ओर निकल गई .
आरव उसके विश्वास पर ठगा सा खड़ा था ....
एक और अपराध-बोध के साथ ..
सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .

क्रमशः......

Monday, November 3, 2008

10 मार्च ,1998 : इतिश्री

आज से हम निखिल सचान की धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैंबंद' का प्रकाशन आरंभ कर रहे हैं। कथाकार के अनुसार यह कहानी नहीं अपितु आरव की डायरी के कुछ यहाँ-वहाँ के पन्ने हैं, जिसे लेखक ने फाड़ लिया है और हम तक पहुँचा रहा है, तारीख के साथ॰॰॰


नीली छतरी के अवतल सिरे के दूसरी ओर एक सनकी कहानीकार रहता है , हर इंसान के हिस्से एक कहानी और उसके जिम्मे एक कथावस्तु . जब वो कथावस्तु एक ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है कि आदि और अंत में मेल जोड़ पाना असंम्भव सा लगने लगे तो लिखने वाला उसकी इतिश्री कर देता है . कलम की नोक तोड़ दी जाती है और हर संभव आशा की इतिश्री को हम दुनिया वाले , अपनी सहूलियत के लिए मौत के नाम से संबोधित करने लग जाते हैं . इसे यम का मुष्टिनाद भी कह सकते हैं ,सब कुछ पा लेने की त्वरा का मध्यांतर भी कह सकते हैं और चाहें तो कुछ ना भी कहें , क्योंकि मौत को ग्लैमराइज़ करने के उपक्रम को ग़ालिबों के हिस्से छोड़ के छुट्टी पाई जाए तो बेहतर होता है .
आरव , चारू ,आई और बाबा के इस घर में उसी मौत को ग्लैमराइज़ करने का किस्सा जिया जा रहा था , कौन कौन जी रहा था ये तो पक्का नहीं हैं लेकिन कौन नहीं जी पाया था ये ज़रूर पक्का हो गया था . बाथरूम में आई की शरीर पड़ा था , अच्छे से जला हुआ , अच्छे से भुना हुआ ...हर तरफ़ से बखूबी- बराबर. आई काठ की मूरत बनी हुई गीले फ़र्श पर पड़ी हुई थी , काठ किसी पुराने नीम की , काले-कत्थई रंग की . बाथरूम की सफ़ेद दीवारों पर धुएं की कम पकी काली स्याही ऐसे लग रही थी जैसे किसी बिना धैर्य वाले अनाड़ी चित्रकार ने शौकिया ,कूची से काली रेखाएं किसी कल्पित प्रेमिका के बालों की झाईं की कल्पना में उकेर दी हों . आरव कौतूहल में उसके शरीर को खुरच कर पूरे घटनाक्रम की वास्तविकता को पक्का कर लेना चाहता था लेकिन आई के शरीर से इतनी बास आ रही थी कि उसके आस पास जा पाने का फ़ितूर भी किसी के दिमाग़ को छू नहीं पाया .
अब तक यही कोई सौ लोग आरव और चारू के छोटे से घर के और भी छोटे कमरे में इकट्ठा हो चुके थे , गोष्ठी जारी थी , वक्ता बदले जा रहे थे . एक मोहतर्मा का कहना था कि आई बेचारी बहुत हिम्मत वाली थी क्योंकि आग को बर्दाश्त कर पाने कि हिम्मत अच्छे अच्छों में नहीं होती , अगली ने प्रतिरोध किया कि पागल औरत को हिम्मत की क्या ज़रूरत , दिमाग का नशा है , जब चाहे चढ़ जाए , बता के थोड़ी चढ़ेगा .
'बेचारी ने बहुत झेला , चार साल बाद अस्पताल से छुट्टी पाकर बच्चों का मुह देखने आ पाईं और ये सब ...' वो आगे और बोलना चाहती थी लेकिन रोने और चिंघाढ़ने में ज़रा व्यस्त हो गई .
'आरव के बाबा को फ़कीर और झाड़-फ़ूंक में पड़ना ही नहीं चाहिए था , आज के पढे़ लिखे मनई की बुद्धि जब फ़िर जाए तो कोई का कर सकत है , पड़ी रहीं बेचारी राजस्थान में तिरुपति जी के दरबार में और कम्बखत टी.बी. ने पकड़ कर ली मजबूत , अब का बताया जाए ? 'वो भी आगे नहीं बोल सकी...शायद उसी समस्या से !
लेकिन उसकी बात के मंतव्य को आगे और मजबूत बनाती हुई एक चालीस साल की महिला छींक की तरह दाखिल हुई और आते ही उन्होंने अपना फ़ैसला सुनाना उचित समझा-
'अरे क्या होगा अब इन बच्चों का ..? बेचारों की ज़िंदगी में तो कुछ बचा ही नहीं ...अरे बर्बाद हो गए बेचारे , हाए रे! उमर ही क्या ठहरी दोनों की ..अरे वो तो चली गईं आग में खुद को स्वाहा कर के बिचारी और ये बच्चे बिचारे ...' और इतना कहते हुए उसने आरव को अपने पास खींचा और चारू को गोद में लिटा कर उसके ऊपर भयावह शकलों के अलग अलग एपिसोड नचाने शुरू कर दिए . उसके रोने का अलग अलग असर हुआ . महिलाओं की मंडली के विधवा विलाप को जैसे जीवनदान सा मिल गया हो ...रोने पीटने का शोर कम कम से तीन गुना तो हुआ होगा . नौ बरस की चारू को अब जा कर मालूम पड़ा की मौके की गंभीरता क्या है या शायद ना भी मालूम पड़ा हो पर वो डर कर इतना रोई जितना जान कर नहीं रो पाई थी .
लेकिन आरव अभी भी अपने पहले आंसू को देख पाने का इंतज़ार कर रहा था . सात बरस की उमर में वो क्या हो चुका था उसे भी नहीं पता था , बाबा को भी नहीं पता था पर वो ऐसे लोगों के सामने अपनी दरिद्रता और सारी दुनिया लुट जाने का प्रदर्शन नहीं होने देना चाहता था जिन्हें आई और उसके बच्चों की याद तब ही आई जब उसका शरीर पुराने नीम की काठ में तब्दील हो चुका था . आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि वो चारू और बाबा को ये समझा सकता कि अभी भी जीवन का अंत नहीं हुआ है और आई ने जिस उम्मीद में खुदक़ुशी की उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी वो बाकी तीन लोगों के कंधों पर बिना बताए टांग कर चली गई थी .आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि कहानीकार को ये पता चल सके कि उसकी कहानी के नए नए ट्विस्ट में गज़ब की संवेदनशीलता थी और आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि चार साल में उसने सीख लिआ था कि आंसू बहाना दुनिया का सबसे वाहियात काम है .
बाथरूम की खिड़की अभी भी धुआं उगल रही थी जैसे वो कोई निशान अपनें में रखना ही ना चाहती हो , बिजली के तार रह रह कर ऐसे जलने लगते थे जैसे तड़का मारा जा रहा हो या फ़िर तेल के छींटे दिए जा रहे हों . लेकिन आई सब बातों से अनभिग्य बेजान पड़ी थी . इस बात से अंजान कि वो पागल थी , इस बात से अंजान कि वो बेचारी थी , इस बात से अंजान कि कानूनन उससे एक ज़ुर्म हो चुका था और इस बात से भी अंजान कि उसके किए की आलोचनाएं और समीक्षाएं करने में बाहर खड़े क्रिटिक इतने ज्यादा बिजी थे कि वो ये देख पाते कि आरव और चारू जूतों के रैक के पास किसी खिलौने के तरह सजाकर रख दिए गए थे . घर में भीड़ बढ़ती जा रही थी और रैक के आसपास जूते भी .
आगन्तुकों में कुछ ऐसे चेहरे भी थे जो कहीं से भी आमन्त्रित तो नहीं लगते थे , उनका तिरस्कार ही हो सकता था और , स्वागत तो कतई नहीं . ये चेहरे खाकी वर्दी वालों के थे . उनमें से ओहदे में प्रथम और ऐसे मौके पर दुस्साहस कर सकने का साहस रखने वाली एक खाकी वर्दी आरव की ओर बढ़ी ,रुकी और फ़िर किसी कोने की फ़िराक में दिग्भ्रमित सी हुई , कोना ढूंढकर फ़िर वापस आई , आरव की ओर . दरसल वह कोने को लाल रंगने गया था क्योंकि पान चबाते हुए बात करना बद्तमीज़ी समझा जाता और पोलिस को इन सब चीज़ों का ख़याल रखना पड़ता है , वह हिन्दुस्तान का सबसे संवेदनशील महकमा जो है .
'क्या हुआ आज ? '
'जी? '
'मैंने पूछा क्या हुआ आज ? '
उसने सवाल में थोड़ा मोडिफ़िकेशन तो किया पर आरव ने जवाब में नहीं . पुन: वही-
'जी?'
'अरे जब तुम्हारी आई ने आग लगाई तब तुम्हारे बाबा कहां थे ? '
'वो आफ़िस गए थे .'
बगल में खड़ी खाकी वर्दी ने साफ़ साफ़ नोट किया ....' वो...आफ़िस...गए...थे...'
'बाबा और आई के बीच कोई लड़ाई ? '
'जी नहीं '
ये भी नोट किया गया ,साफ़ साफ़. 'कोई..लड़ाई..नहीं '
वही दोनों सवाल चारू से भी दोहराए गए और जवाब भी .
चार सवाल , चार जवाब और मामला ख़तम .
अगले दिन अख़बार में लिखा गया -
'जल निगम में काम करने वाले एक क्लर्क की अधेड़ उम्र की पत्नी ने बीमारी से तंग आकर , आग जलाकर आत्महत्या कर ली . पोलिस ने आपसी कलह से इंकार किया है और प्रथम मर्तबा यह दहेज हत्या का मामला भी नहीं नजर आता . '
-स्थानीय संवाददाता- जालौन
मामला सच में ख़तम , आरव और चारू को अगले ही दिन उनके गांव भेज दिया गया , उस सब से बहुत दूर... कम से कम भौगोलिक द्रष्टि से बहुत दूर .

क्रमशः....

लेखक- निखिल सचान

Monday, October 20, 2008

चश्मे (नवलेखन पुरस्कार प्राप्त 5वीं कहानी)

कहानी-कलश पर इन दिनों आप पढ़ रहे हैं वर्ष २००८ के लिए नवलेखन पुरस्कार के लिए चयनित कथा-संग्रह 'डर' की कहानियाँ। अब तक आपने इस कथा-संग्रह से 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र शीर्षक वाली कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए नई कहानी 'चश्मे'

चश्मे


जब उसकी टैक्सी बाहर आकर रुकी तो सवेरा हो जाने के बावजूद अभी शक्ल दूर से न पहचाने जाने लायक अंधेरा था। उसने अपने घर के गेट के सामने टैक्सी रुकवाई और सामान उतार कर उसका बिल अदा किया।
टैक्सी जाने के कुछ देर बाद तक वह अपना सामान लिये वहीं खड़ा रहा। उसके घर वाली पंक्ति में तीन नये मकान और बन गये थे। दो मकानों के बनने की ख़बर तो उसने सुनी थी पर यह तीसरा प्लॉट कब बिका और मकान भी तैयार हो गया ? उसने कॉलबेल बजायी।
मां गेट खोलने के बाद आश्चर्य से उसे घूरने लगी। क्या मां उसे पहचानने की कोशिश कर रही है ? पहचान का ऐसा संकट? वह डर गया। क्या डेढ़ सालों में वह इतना बदल गया है? बाल कुछ ज्यादा सफ़ेद हो गये हैं पर वह तो असमय ही॰॰॰॰॰॰। शायद मोटा ज्यादा हो गया है। पर फिर डर जाता रहा।
´´ आ॰॰॰॰॰ अंदर आ।´´
´´प्रणाम मां।´´ उसने पैर छुए।
घुसते ही पहली नज़र बिस्तर पर पड़ी। पिताजी मौजूद नहीं थे।
´´पिताजी क्या इतनी ठंड में भी॰॰॰॰?´´
´´और क्या, नियम धरम के पक्के हैं॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां मुस्करायी।
मां रज़ाई में पैर डाल कर बैठ गयी। वह भी कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गया। मां उसकी ओर देखकर मुस्करा रही थी। वह मां को ध्यान से देखने लगा। पिछली बार एक बार भी फ़ुरसत से मां के पास नहीं बैठ पाया था। मां कितनी बदलती जा रही है। हर बार वह दूसरी मां को पाता है। चेहरे पर झुर्रियां बढ़ती जा रही हैं।
´´मां, तुम तो बूढ़ी होती जा रही हो।´´ उसने मुस्करा कर कहा।
´´जब मेरा जाया बूढ़ा होने लगा तो मैं तो बूढ़ी होऊंगी ही।´´ मां उसके निकलते जा रहे पेट की ओर देखकर मुस्करायी।
वह शरमा गया और नज़रें हटाकर कमरे की ओर देखने लगा। अलमारियों में नये शीशे लगे थे। ऊपर वाले खाने से गुलदस्ते हटा दिये गये थे और वहां भगवान की कुछ तस्वीरें और मूर्तियां रखी हुयी थीं। नीचे वाले खाने पर कुछ किताबें और बीच वाले खाने पर दो मढ़ी हुयी तस्वीरें रखी हुयी थीं। एक तस्वीर मां और पिताजी की थी। जवानी के दिनों की जब पिताजी थोड़ी मोटी मूंछें रखते थे जों ऊपर की ओर तनी रहती थीं। दूसरी फोटो परिवार की थी जिसमें मां और पिताजी आगे कुर्सियों पर बैठे थे और वह और छोटे पीछे कुर्सियों की पीठ पर हाथ रखे खड़े थे।
´´ये भगवान की तस्वीरें और मूर्तियां यहां ड्राइंगरूम में क्यों रखी हैं ?´´ उसने आलमारी की ओर देखते हुये पूछा।
´´ तेरे पिताजी रोज़ पूजा करते हैं सुबह।´´ मां बताती हुयी हँसने लगी।
´´क्या॰॰॰॰॰॰॰॰॰? पिताजी और पूजा ?´´ उसे सुनकर एक अजीब सा गाढ़ा आश्चर्य हुआ जिसमें वह देर तक डूबा रहा। पिताजी तो शुरू से ही महानास्तिक किस्म के आदमी रहे हैं जो मां के पूजा-पाठ और व्रतों के विरोध में अक्सर लम्बे-लम्बे लेक्चर पिलाया करते थे। और अब ख़ुद पूजा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰?
´´और सुन, मांस-मछली भी खाना छोड़ दिया है। कहते हैं तुम नहीं खाती हो तो मुझे भी नहीं खाना चाहिये। मांस वाले सारे बर्तनों को स्टोर में रख दिया है।´´ मां उसी रौ में बता रही थी।
उसकी समझ में पिताजी का कायांतरण बिल्कुल नहीं आया। उन्हें क्या हो गया है ? उसके सामने पिताजी का रोबदार चेहरा घूम गया। उसे अपने बचपन के, पुराने दिन याद आने लगे, जब पिताजी घर में तानाशाह की हैसियत रखते थे। इतने कड़क कि सामने जाने में डर लगे और इतने अनुशासन वाले कि घर के पेड़-पौधे भी हिलने से पहले उनकी इजाज़त लें। पुरूष होने का दंभ उन्हें विरासत में मिला था। दादाजी गांव के खांटी ज़मींदार थे और उन्होंने पूरी ज़िंदगी में दादी से एक बार भी प्रेम से बात नहीं की। पिताजी उनसे भी दो क़दम आगे थे। वे मां की हर बात, चाहे वह सही हो या गलत, इतनी तेज़ी से डपट कर काटते कि मां सहम जाती।
कारण शायद रहे होंगे अवचेतन में बैठ गयीं कुछ बातें और कुछ संस्कार। दादाजी और उनकी मंडली आपस में बैठ कर बातें करती तो तेज़ आवाज़ में कुछ शिक्षाएं निकलतीं जो अप्रत्यक्ष रूप से पिताजी के लिए होती थीं। जनानियां पांव की जूती होती हैं, उन्हें ज्यादा सिर पर नहीं चढ़ाना चाहिए। मरदों को औरतों की कोई बात नहीं माननी चाहिए। लुगाइयों को खाना पकाने और बच्चा जनने से ज्यादा कुछ नहीं सोचना चाहिए। इत्यादि इत्यादि।
मां ने सारी बातें दादी से सुनकर और फिर अपने अनुभवों से सबक प्राप्त कर अपने लिए एक सीमा खींच ली थी। मां बताती थी कि पिताजी शादी के बाद कई-कई दिनों तक मां से बोलते ही नहीं थे। मां शाकाहारी थी और वे उन्हीं बरतनों में मछलियां और अण्डे वग़ैरह खाते। कभी बाज़ार से ख़रीद कर लाते और कभी लाकर मां को बनाने का हुक्म देते। मां नाक बंद करके रोती हुयी बनाती। उस समय उसे मांसाहार बनाना भी नहीं आता था हालांकि बाद में वह बहुत अच्छा बनाने लगी थी, बल्कि उसके थोड़ा बड़ा होने के बाद तो मां ख़ुद कभी-कभी बाज़ार से अण्डे लाकर बनाकर उसको और पिताजी को प्रेमपूर्वक खिलाती।
चूंकि पिताजी पढ़े-लिखे थे और शादी के डेढ़-दो साल बाद ही शहर में नौकरी के लिये आ गये थे, इसीलिये किसी की सीखों ने ज्यादा दिनों तक काम नहीं किया। कुछ समय बाद वह मां से ठीक से बर्ताव करने लगे थे। ठीक से बर्ताव का मतलब क़तई यह नहीं था कि वह मां के कामों हाथ बंटाने लगे थे या मां के कहने पर फ़ैसले लेने लगे थे। हां, मां को बात-बेबात डपटना छोड़ दिया था और उसकी बातें एक बार सुन ज़रूर लेते थे, भले ही आखिरी फ़ैसला खुद ही लेते थे। मां बताती थी कि सुनने में भले ही ये परिवर्तन छोटे लगें पर उन जैसे इंसान के लिए बहुत क्रांतिकारी थे।
´´चाय पियेगा ?´´ मां ने बिस्तर से उतरते हुये पूछा।
´´ अं॰॰॰हां॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰बनाओ।´´ उसकी तंद्रा टूटी।´´ मां किचन में चली गयी और वह टहलने लगा।
´´परसों रात टीवी पर तेरा कार्यक्रम देखा था। बहुत अच्छा लगा।´´ मां किचन में से बोली।
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी ने भी देखा ?´´ उसने आवाज़ थोड़ी ऊँची करके पूछा।
´´ हां, हां, उन्होंने भी देखा।´´
उसका जी चाहा कि वह पूछे कि पिताजी को कार्यक्रम कैसा लगा मगर चुप रहा। मां को ख़ुद बताना चाहिये। वह जानती तो है इस रिश्ते के बारे में। पिताजी कभी उसकी तारीफ़ नहीं करेंगे और वह कभी यह दिखाने की कोशिश नहीं करेगा कि पिताजी उसके बारे में जो भी सोचते हैं, उसे जानने की उसके अंदर कोई इच्छा या उत्कंठा है।
मां चाय लेकर बिस्तर पर आ गयी। वह बहुत प्रफुल्लित दिख रही थी। हाल के घटनाक्रमों को जैसे उस पर कोई असर ही न हुआ हो। क्या मां छोटे की वजह से बिल्कुल भी दुखी नहीं है ? जब उसने बिरादरी के बाहर शादी की थी तो सुना था कि मां ने हफ़्तों अन्न-जल त्याग रखा था। छोटे ने तो दूसरी धर्म वाली से शादी कर ली है। फिर मां इतनी खुश कैसे दिख सकती है, वह भी सिर्फ़ सात-आठ महीनों में ही॰॰॰॰॰॰?
´´बहू कैसी है ? और रिंकी॰॰॰॰॰॰॰॰?´´ मां ने चाय पीते हुये पूछा।
यही विषय है जिस पर मां या पिताजी के बात करते ही वह ख़ुद को अपराधी समझने लगता है। पिताजी ने तो खैर इस मुद्दे पर एक-दो बार के बाद बात ही नहीं की पर मां॰॰॰॰॰॰? उसने भी जैसे अपने आप को संभाल लिया है।
´´ठीक हैं दोनों।´´ उसने खिड़की की ओर देखते हुये जवाब दिया।
´´रिंकी तो अब बड़ी हो गयी होगी ?´´ मां ने वात्सल्य से मुस्कराते हुए पूछा।
´´हां, अब स्कूल भी जाने लगी है।´´
´´अच्छा॰॰॰॰॰॰॰॰। मुझे उसे देखने का मन करता है पर॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ मां कुछ-कुछ कहती-कहती रुक गयी।
´´सच॰॰॰॰॰॰? तो चलो न मेरे साथ। जब मन करे फिर यहां छोड़ दूंगा।´´ वह चहक उठा।
´´अरे॰॰॰॰॰॰पिताजी अकेले हो जायेंगे यहां।´´ मां ने ठंडी सांस ली।
´´ मां, कुछ दिन के लिये चलो न॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पिताजी से कहो वह भी चल चलें।´´ उसने मां के घुटने पर हाथ रख बात का भावनात्मक वज़न बढ़ाते हुये कहा पर तुरंत अहसास हुआ कि उसने एक असंभव बात कह दी है और फिर उसने एक संभव विकल्प रखा।
´´तुम चलो मां। पिताजी अकेले रह सकते हैं कुछ दिन। मैं उनसे बात करूंगा।´´
´´अरे नहीं, वह मुझे भी नहीं॰॰॰॰॰॰।´´
´´क्यों, तुम्हें क्यों नही जाने देंगे ? क्या मेरा इतना भी हक नहीं बचा॰॰॰॰॰?´´
मां परेशान होकर कुछ सोचने लगी। फिर अचानक मुस्कराती हुयी बोली, ´´ अरे उनका कुछ पता नहीं। मुझे नहीं जाने देंगे। पता है क्या कहते हैं? पहले कहते थे जब हमारे बच्चों को हमारी परवाह नहीं तो हम उनकी क्यों करें और अब॰॰॰॰॰॰॰॰।´´
´´अब क्या कहते हैं ?´´ वह जानने को उत्सुक हो उठा क्योंकि ये पहले वाली बातें तो वह जानता था पर अब पिताजी क्या सोचने लगे हैं ?
´´अब॰॰॰॰॰? अब बच्चों पर कोई गुस्सा नहीं। कहते हैं बच्चों को अपनी ज़िंदगी जीने दो सुमन। हमने अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया बस। हमें अब उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये । हम कोई व्यापारी हैं जो हर बात का बदला खोजें ? अरे वो कुछ करते हैं हमारे लिये तो ठीक, हमें याद करते हैं, हमारे पास आते हैं तो ठीक वरना हम एक दूसरे का अकेलापन बांट सकते हैं। हमें ज्यादा मोहमाया नहीं बढ़ानी चाहिये। और तो और मुझे गीता के पता नहीं क्या-क्या श्लोक सुनाकर उनके अर्थ बताया करते हैं।´´ मां मुस्कराती हुयी बताती जा रही थी। वह मां को खुश देखकर खुश था।
´´अच्छा, ऐसी बातें करने लगे हैं वे॰॰॰॰॰?´´ उसे विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी ज़िद को हमेशा सही समझने वाले और ज़िंदगी में कभी हार न मानने वाले इंसान के बारे में सुनकर भी उसका दिल इन बातों के सच होने पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
´´ अरे बहुत बदल गये हैं॰॰॰॰॰॰।´´ मां को ज़ाहिर है खुशी हुयी थी। खुश वह भी था, हालांकि इसके पीछे की ठोस वजह नहीं समझ पा रहा था।
´´ ऐसा परिवर्तन कब से आया है उनके भीतर॰॰॰॰॰॰॰? क्या छोटे के शादी कर लेने के बाद से॰॰॰॰॰?´´ उसके मन में जो संदेह था, वह उसने सामने रख दिया।
मां थोड़ी देर के लिये ख़ामोश हो गयी। फिर अचानक ही जैसे उसे कुछ याद आया हो।
´´ हां पर एकदम से उसी के बाद नहीं॰॰॰॰॰॰॰॰। परिवर्तन तो तेरी शादी के बाद से ही आने शुरू हो गये थे।
´´ कैसा है छोटे॰॰॰॰॰?´´ उसने पूछा।
´´ अच्छा है। हर दो-तीन दिन पर फोन करके हाल-चाल पूछता रहता है। महीने-डेढ़ महीने में घर भी आ जाता है। इस बार तो अपनी पत्नी को भी लेकर आया था। वह भी अच्छी है। बहुत जल्दी सारे हिंदू संस्कार सीख लिये हैं उसने। तेरे पिताजी से ख़ूब बातें करती है। तेरे पिताजी भी उसकी बड़ी तारीफ़ कर रहे थे।´´
उसे घोर झटका लगा। पिताजी बातें करते हैं अपनी बहू से, वह भी वह बहू जो दूसरे धर्म की है, जिसके लिये बेटे ने घर का विरोध करके शादी की। उनका नज़रिया इतना विस्तृत हो गया है। उसे पिताजी से मिलने की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी।
´´ तूने तो जैसे सारे संबंध ही खत्म कर लिये हैं। आता है साल-साल भर पर और चला जाता है दो दिन में। बहू और बच्ची को भी नहीं लाता। कितनी बार कहा तुझसे कि बहू और बच्ची को गर्मियों की छुटि्टयों में यहां पहुंचा दे, दस दिनों के लिये ही सही। लेकिन नहीं तेरी तो अपने पिताजी से ही ठनी रहती है।´´ मां ने जैसे शिकायतों का पुलिंदा ही खोल लिया था।
´´ पिताजी ने ही कहा था कि इस औरत को अपने घर में घुसने नहीं देंगे। अब जब तक वह ख़ुद नहीं कहेंगे, तब तक मैं उसे नहीं लाउंगा।´´ उसने मां की आंखों से आंखें मिलाये बिना कहा। यह बात उसने बहुत पहले तय कर ली थी। आखिर उसका भी तो कोई स्वाभिमान है।
´´ और तूने मान लिया ? अरे उन्होंने गुस्से में कह दिया था। याद नहीं तेरे और छोटे पर कितना गर्व किया करते थे। देखा नहीं था, जब तुम्हारे चाचाओं से झगड़ा हुआ था तो उन्होंने सबके सामने क्या कहा था। मुझे किसी भी मतलबी रिश्तेदार की ज़रूरत नहीं, मेरे दो बेटे दो करोड़ के हैं। और तुम लोगों ने आज तक उनकी कोई बात नहीं मानी। कभी उनके मन लायक कोई काम नहीं किया। गुस्सा आना तो स्वाभाविक है।´´
सच ही कहती है मां। पिताजी वाकई उसे और छोटे को ग़ज़ब मानते थे। वह शुरू से ही बहुत यारबाश किस्म के आदमी थे और सभी यारों के बीच अपना स्थान बहुत ऊँचा रखना चाहते थे। किसी दोस्त की लगातार तीन लड़कियां होने पर उन्होंने उसके दु:ख को बांटने के लिये अपने दोनों बेटों की शादी उनकी दो लड़कियों से बचपन में ही तय कर दी थी। एक दोस्त जो पुलिस में काफी ऊँचे ओहदे पर था, से काफी पहले से उसकी नौकरी के लिये बात कर रखी थी। मकान बनवाते समय छोटे के लिये आगे की जगह दुकान, शोरूम या ऑफ़िस खोलने के लिये सुरक्षित कर रखी थी। एक बेटे का पुलिस की वर्दी में देखने का उनका पुराना सपना था। एक बेटा हमेशा घर में रहना चाहिये, ऐसी उनकी अटल मान्यता थी। लेकिन उनके बेटे उनकी छोटी-छोटी उम्मीदें भी कहां पूरी कर पाये। उसने पढ़ाई पूरी करते ही एक दोस्त के साथ मुंबई का रुख़ कर लिया और अब स्ट्रगल करते-करते अब अच्छा नाम बना लिया था। वहीं अपनी सहकर्मी के साथ शादी कर ली। छोटे दिल्ली निकल गये और शादियों के कांट्रैक्ट लेने लगे। काफी पैसा बनाने के बाद उससे भी दो क़दम आगे निकले और एक ग़ैर हिंदू से शादी कर ली। पिताजी की प्रतिक्रिया तो ठीक ही थी। उनके लड़कों ने लायक होने के बावजूद उनकी बात नहीं मानी। ग़ुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन उसके और पिताजी के मानसिक संघर्ष में मां बेकार ही पिस रही है। अबकी वह ज़रूर मीता और रिंकी को ले आयेगा। अगर पिताजी एक बार खुद लाने को कह दें तो ज़रूर॰॰॰॰॰॰।
पिताजी के टहलने जाने का नियम बहुत पुराना था। वह जब काफी छोटा था, तब पिताजी उसे भी टहलने ले जाते थे, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, पिताजी की लगायी सारी आदतें छूटती गयीं।
थोड़ी देर में कॉलबेल बजी। दरवाज़ा खोलने वही गया।
´´ अरे तुम॰॰॰॰॰॰॰॰?´´
´´प्रणाम पिताजी।´´ उसने पैर छुए।
´´ खुश रहो, जीते रहो।´´
उसे लगा जैसे पिताजी के चेहरे पर वही भाव आएंगे जो उसे पहले देख कर आते थे पर उनका चेहरा एकदम शान्त था। वह अंदर जाकर सोफ़े पर बैठते हुये बोले, ´´ आओ बेटा, अंदर आ जाओ।´´
उसे शब्दों पर विश्वास नहीं हुआ। पिताजी ने न जाने कितने अरसे बाद उसे बेटा कहा था। वह जाकर उनके सामने बैठ गया। यह एक साधारण घटना क़तई नहीं थी।
´´ कब आये ?´´
´´ जी, एक डेढ़ घंटे पहले॰॰॰॰॰॰॰॰॰।´´ वह बात करते हुये खुद को असहज पा रहा था।
´´ पेट कैसा रह रहा है आजकल ?´´
घोर आश्चर्य। उसे लगा जैसे वह सपना देख रहा हो। पिताजी उसकी सेहत के बारे में पूछ रहे थे। पेट का रोगी वह बचपन से था। वह बहुत संभलने के बाद बोल पाया, ´´ जी॰॰॰॰॰ आजकल ठीक है।´´
´´ चलो बढ़िया है। और सब॰॰॰॰?´´
´´जी सब अच्छा है।´´
´´ बहू और रिंकी बिटिया ?´´
´´ जी॰॰॰॰ दोनों ठीक हैं।´´ उसने आंखें फाड़ कर इस सच पर विश्वास करने की कोशिश करते हुये कहा।
पिताजी थोड़ी देर के लिये चुप हो गये। मां नाश्ता बना कर लायी थी। नाश्ता बीच में रख कर पिताजी की बगल में बैठ गयी। पिताजी चाय उठाते हुये बोले।
´´तुम कैसे होते जा रहे हो दिन-प्रतिदिन ? जैसे पैंतालिस साल के अधेड़ हो। बाल इतने सफेद होते जा रहे हैं और तोंद॰॰॰॰? ऐसा लगता है जैसे हलवाई हो। देख रही हो सुमन ? मेरी लगायी टहलने की आदत को इसने अपनाया होता तो आज पैंतीस की उमर में पचपन का न लगता। ॰॰॰थोड़ा सेहत का खयाल रखा करो बेटा।´´
वह मुस्कराने लगा। पिता भी मुस्करा रहे थे। मां दोनों को इस तरह बातें करते देख खुश थी। थोड़ी देर में वह उठ कर फिर किचेन में चली गयी।
´´ अभी रहोगे न कुछ दिन ?´´ पिताजी ने मुलायमियत से पूछा।
´´ जी, सिर्फ़ एक दिन का काम है दूरदर्शन में। ॰॰॰॰॰॰॰कल शाम को चला जाउंगा।
पिताजी थोड़ी देर तक उसे देखते रहे, फिर आवाज़ ऊँची करके मां से बोले।
´´ सुमन, मुझे सब्ज़ियां दे दो। मैं मंजन करने के बाद सब्ज़ियां काट दूंगा ओर तुम आटा गूंथ लेना।´´
वह मंजन करने आंगन में चले गये थे। उसे पिताजी से मिलकर, उनका यह रूप देखकर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुयी थी पर पता नहीं क्यों, एक और अजब सी भावना भी मन में घुमड़ रही थी। उदासी, निराशा, क्रोध, आत्मग्लानि या इनमें से कई भावनाओं से मिश्रित कोई नयी भावना ही जिसे न पहचान सकने के कारण वह कोई भी संज्ञा दे सकने में असमर्थ था। यह भावना उसकी खुशी को रोक रही थी। इसमें इतना खुश होने वाली भी बात नहीं। सच तो यही है कि पिताजी का जो रूप वह शुरू से देखता आया था, उसमें एक सौ अस्सी अंश का परिवर्तन उसे बहुत ज्यादा अच्छा नहीं लग रहा था। वह शुरू से ही एक तानाशाह की तरह रहे हैं। उनका इस कर हंस कर उसके बराबरी में बैठकर बात करना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। वह मां के कामों में भी हाथ बंटाने लगे हैं। उनका नज़रिया निश्चित ही बदला है पर क्यों? वह सचमुच मां की सहायता करना चाहते हैं या उन्हें डर है कि मां भी उन्हें उनके बेटों की तरह अकेला न छोड़ दे?
पिताजी मंजन करके आ गये। सोफ़े पर बैठ कर उन्होंने अख़बार उठाया ओर कुर्ते की जेब से चश्मा निकाल कर लगा लिया और इत्मीनान से अख़बार के पन्ने पलटने लगे।
वह सनाके में था। उसका सिर जैसे चकराने लगा था। पिताजी उसका चश्मा लगाये हुये थे। वही चश्मा, जिस तरह के चश्मों से उन्हें सख्त चिढ़ थी। जब एक बार वह अपने पॉवर के शीशे उसे नये फ़्रेम में लगवा कर लाया था तो पिताजी बहुत गुस्सा हुये थे।
´´ ये फ़िल्मी फ़ैशन वाले चश्मे पहनोगे तुम ? इतने छोटे-छोटे शीशे जिनमें से आंखें बाहर झांकती रहती हैं ? उठा कर बाहर फेंको इसे। जाकर बड़े शीशे वाला चश्मा ले आओ जो क़ायदे का लगे, चश्मे जैसा। जैसा विद्यार्थी लगाते हैं॰॰॰॰॰॰।´´ पिताजी दहाड़ कर बोले थे। और उसने वाकई डर कर उस चश्मे को छिपा दिया था और दूसरा चश्मा ले आया था।
बाद में वह उस तरह के चश्मे पिताजी के सामने नहीं लगाता था। यह चश्मा वह ग़लती से छोड़ गया था जब पिछली बार आया था।
´´ पिताजी, यह चश्मा॰॰॰॰॰ ?´´ वह कुछ न समझ पाने की स्थिति में था, बहुत परेशान और बहुत कंफूयज्ड।
´´ अरे यह तुम्हारा ही है।´´ पिताजी ने चश्मा निकाल कर एक बार देखा और फिर लगा लिया।
´´ आपका वाला॰॰॰॰॰?´´
´´ वह? वहां आलमारी पर रखा है। मुझे लगता है इससे ज्यादा साफ़ दिखता है।´´
´´ अच्छा॰॰॰॰।´´ वह फिर चकित था।
´´तुम फ्रेश-व्रेश होना हो तो हो लो। फिर साथ में खायेंगे।´´ पिताजी फिर अख़बार पढ़ने में मशगूल हो गये।
वह बेचैन हो उठा और उठकर टहलने लगा। पिताजी से इस तरह के मित्रवत् व्यवहार की न उसने कभी उम्मीद की थी और न उसे अच्छा लग रहा था। एक चट्टान का इस तरह से दरकना, एक पर्वत का झुक जाना उसे बहुत अखर रहा था। जो कभी किसी के सामने नहीं झुका, भगवान के सामने भी नहीं, आज वह इतना नरम पड़ गया है। पूरे परिवार का, पूरे अनुशासन ओर कठोरता से नेतृत्व करने वाला सुल्तान आज खुद को ही हार गया है। इस समझौते के लिये उन्हें किसने विवश किया, उनकी संतानों ने ही तो। इतना असुरक्षित स्वयं को उन्होंने अपने बेटों की ही वजह से तो महसूस किया है। वह लगातार अपराधबोध में धंसता जा रहा था।
टहलता हुआ वह आलमारी के पास गया और पिताजी का पुराना चश्मा उठाकर देखने लगा। वह चश्मा लगाने पर उसे लगा जैसे उसे पहले से ज्यादा साफ़ दिखायी देने लगा है। उसके खुद के चश्मे से ज्यादा साफ़। थोड़ी देर तक चश्मे को लगाये घूमता रहा फिर आकर पिताजी के सामने बैठ गया।
´´ इस बार मीता और रिंकी को भी ले आऊँगा पिताजी।´´ चश्मा उसको एकदम फ़िट आया था।
´´ हां बेटा, इस बार छुटि्टयां भी कुछ ज्यादा दिन की निकाल कर आना।´´ पिताजी ने अख़बार पढ़ते हुये ही कहा।
मां ने शर्बत बनाया था और पीने के लिये दोनों को अंदर बुला रही थी।

--विमल चंद्र पाण्डेय

Thursday, October 9, 2008

लघुकथा: ऐसा भी होता है

निशा, क्‍या बात है, आरती अपना स्‍कूटर रोक कर क्‍या कह रही थी ?

अरे यार कुछ नहीं बस ये कि वो मुझे घर छोड़ देगी उस का घर मेरे घर के पास ही है।

फिर तुम गई क्‍यों नहीं ?

अरे यार एक बार गई थी, थोडी दूर तक जाने के बाद लगा कि सब लोग ऐसे देख रहे थे कि जैसे मैं और वो अजूबा हैं।
उसका ये स्‍कूटर दोनों साइड के एक्‍सट्ररा पहियों के कारण देखते ही एहसास करवा देता हैं कि वो विकलांग है।

तो क्‍या हुआ?

नहीं यार लोग ऐसे घूर रहे थे जैसे मै भी------------मुझे तो बहुत शर्म आ रही थी। मैं तो उस के साथ कभी नहीं घर जा सकती। मैने तो आरती को बोल भी दिया है।

छः महीने बाद:

क्‍या हुआ निशा इतना गुस्‍से में क्‍यों लग रही हो ?
क्‍या बताऊ जब से आरती ने अपनी डिसेबिलटी के अनुसार एडजस्‍ट करवा कर नयी आटोमेटिक कार ली , इतनी धमंडी हो गई है कि आज मैने कहा कि तुम अगर घर जा रही तो मुझे छोड़ देनां । उसने साफ मना कर दिया कि वो घर नहीं जा रही है । जब से आरती कार में आने लगी है तो जाने खुद को क्‍या समझने लगी है । जमीन पर तो जैसे पांव ही नहीं हैं।शर्म भी नहीं आई कैसे साफ मना कर दिया, दोस्‍तो को कोई ऐसे भी मना करता है!!

--सीमा 'स्‍मृति'

Saturday, October 4, 2008

लघुकथा: रेजिगनेशन लेटर (दुर्गा पूजा विशेष)

बनर्जी बाबू ऑफिस की मारामारी से परेशान रहते थे। और आजकल तो अपने बंगाल की लोक संस्कृति को जीवित रखने की इच्छा सनक की हद तक बढ़ चुकी थी |ज्यादा से ज्यादा लोग आयें ,पंडाल को भी पुरस्कार मिल जाय तो क्या कहना! इन दिनों उनकी जिन्दगी दो पाटों में पिस कर रह गई थी |

बीबी तो सहयोग के नाम पर दूर से ही सलाम कर देती थी |मछली -चावल बना कर खाना ,उसके बाद अपने शरीर को किसी भी हद तक बढ़ने के लिए छोड़ते हुए,सारे दिन सोना। आख़िर कोई इतना कैसे सो सकता है? बच्चे अपने कामों में मशगूल थे कि उनसे कुछ कहना सुनना बेकार था। रविन्द्र नाथ की पंक्तियाँ ही उनका सहारा थी(जोदि केऊ डाक सूने ना तोमार ,एकला चोलो रे )कोई तुम्हारी पुकार सुने ना तो अकेले ही चलो। उन्हें मन ही मन गुनगुनाते हुए सुबह शाम दुर्गा पूजा की तैयारी का जायजा लेने पंहुचते थे |गीत -संगीत के कार्यक्रम ,कुछ स्टाल्स स्पोंसर करके कुछ ज्यादा कलेक्शन हो सकता है इस बार।
सारे इंतजाम का जिम्मा उनपर ही था। सब ने उन्हें "बंगाली कल्चरल असोसिअशन " का प्रेसिडेंट जो बना दिया था। "सबसे ज्यादा जिम्मेदार बनना भी ठीक नही होता है या ठीक होता है?" इसी कशमकश के बीच पंडाल की तैयारी देखने पहुंचे। वहाँ पहुचते ही पता लगा कि एक आदमी पंडाल लगाते-लगाते गिर गया है। पैर की हड्डी दो जगह से टूट गई ,इलाज में बीस हजार का खर्चा आएगा। परिवार के सभी लोग गांव में रहते हैं। बनर्जी जी अपनी इस ताजा मुसीबत को देख कर बदहवाश हो गए |उससे मिलने पर पता लगा की वह पाँच सौ रुपये महीने गाँव में भी भेजता था |
पार्टी की कैटरिंग में एक मिठाई और एक सब्जी कम कर देने पर भी सिर्फ़ दो से तीन हजार रुपये ही बच पायेंगे। बनर्जी जी की हालत सिर्फ़ वो ही जानते थे। देखें दुर्गा माँ क्या चमत्कार दिखाती हैं इस बार ?
पंडाल को नॉर्थ जोन का ग्यारह हजार रुपये का अवार्ड मिल ही गया। बनर्जी जी ने एक ठंडी साँस ली सारे रुपये ११०००+३००० +५००० (जो पिछले साल की बचत हुई थी )=१९००० इकट्ठे किए |अगले दिन बेंगाली असोसिएशन की मीटिंग में उन १९००० रुपये का हिसाब दिया।उसमे १००० रुपये अपने पास से मिलाये। एक लिफाफे में रखे और उन सभी को बताया कि ये वो उस मजदूर को देने जा रहे हैं। दूसरा लिफाफा वाइस-प्रेसिडेंट मोहंती जी को दे कर स्कूटर स्टार्ट करके चले गए |
दूसरे लिफाफे को खोलने कि जरूरत नही थी किसी को

--नीलम मिश्रा
(पिछले एक सप्ताह से गन्दी बनियाने पहने सारे दिन हथौडी की ठक-ठक करते हुए,मजदूरों को देखकर दिमाग में यह विचार आया कि बेस्ट पंडाल बनाने वाले को क्या कभी कोई इनाम मिलता है वाकई ????)

Tuesday, September 30, 2008

लघुकथा - परेशानी

पत्‍नी: आपको मालूम है, आज रात नौ बजे टी वी में आंतक एंवम् आंतकवादियों पर विशेष कार्यक्रम दिखाया जाएगा| वही आंतकवादी जिन्‍होने दिल्‍ली, अहमदाबाद और जयपुर में कैसा भयानक तांडव मचा दिया है। कैसे ये काम करते हैं, कैसे धर्म के नाम पर मासूमों की जान लेते हैं। उन परिवारों के बारे में भी दिखाया जाएगा जिन के घर पिछले शनिवार को बर्बाद हो गये थे। वो बच्‍चा जिस के हाथ में बम फट गया उसे सोच कर तो मेरी रूह कांप जाती है। कैसे इतने संवेदनाहीन हो गए हैं ये लोग? आप को मालूम, ये सभी आंतकवादी कितने पढ़े लिखे हैं? आज दिन में समाचार देख मेरे तो आंसू ही नहीं थम रहे थे।

पति महोदय: बस बस! मैं जानता हूं कि तुम बहुत जल्‍द परेशान हो जाती हो। तुम कर ही क्‍या सकती हो सिवा परेशान हो कर अपनी तबीयत खराब करने और कार्यक्रम देखकर दो वक्‍त जली हुई रोटियों और ज्‍यादा नमक की दाल खिलाने के। वैसे भी आज शनिवार है वीक एंड और सोमवार से तो बच्‍चों के भी एग्‍जाम शुरू हो जाएगें। इसी कारण आज आफिस से आते एक मूवी की सीडी लेकर आया था। चलो वो देखेंगे, वरना पूरा महीना पिक्‍चर नहीं देख पायेंगे छोडो ये रोना धोना आंतक वातंक।

पिक्‍चर देखो ऐश करो कुछ मूड बनाओ। मेरा तो आज मन है। तुम भी जाने कब दूसरों की बातों पर परेशान होना कब छोडोगी!!

--सीमा स्‍मृति

Saturday, September 27, 2008

लघुकथा : एक छोटी सी प्रेम कहानी

लड़के ने धीमी होती रेल की खिड़की के बाहर देखा तो लगा साक्षात चाँद धरा पर उतर आया हो| अलसी भौर में उनींदे नयन सीप | अपलक देखता ही रह गया | कुछ संयत हो, हाथ में पानी की केतली ले उतरा और वहां चला, जहाँ वह मानक सौंदर्य मूर्ति जल भर रही थी | फासला कम होता गया, सम्मोहन बढ़ता गया | समक्ष पहुँचने तक दोनों के मध्य स्मित अवलंबित नजर सेतु स्थापित हो चुका था | भावनाओं का परिवहन होने लगा | लड़के ने देखा लड़की की पगतली पर महावर रची थी | किसी परिणय यात्रा की सदस्या थी | बालों से चमेली की खुशबू का ज्वार सा उठा, लड़का मदहोश हो गया | कलाई थाम ली, हथेली पर रचे मेहंदी के बूटों पर अधर रख दिये | लड़की की पलकें गिर गई | तभी लड़की के पास खड़ा पानी भरता एक मुच्छड़ मुड़ा | अग्नि उद्वेलित नजरों से घूरा और अपने हाथ को लडके की कनपट्टी की दिशा में घुमा दिया | लड़का झुका और स्वयं को बचाया | इतने में उसकी ट्रेन खिसकने लगी | वह लपक कर चढ़ गया | दूसरी तरफ़ उनकी की ट्रेन भी चल पड़ी | वह मुच्छड़ के साथ घसीटती सी चली | गति पकड़ती ट्रेन की खिड़की से एक मेहंदी रची हथेली हिल रही थी | लड़का आंख में पड़ा कोयला मसलने लगा |
.
--विनय के जोशी

Monday, September 15, 2008

मन्नन राय गजब आदमी हैं (नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी)

हम गद्य विधा के लिए नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी-संग्रह 'डर' से कहानियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। अब तक इस शृंखला के अंतर्गत हमने इस कथा -संग्रह से 'स्वेटर', 'रंगमंच', 'सफ़र' कहानियों का प्रकाशन किया है। आज प्रस्तुत है चौथी कहानी 'मन्नन राय गजब आदमी हैं'


मन्नन राय गजब आदमी हैं


नाम- मन्नन राय
कद- छह फीट एक इंच
वज़न- सौ किलो के आस-पास
आयु- पचपन साल के उपर
रंग- गेंहुंआ
स्वभाव- शांत व विनोदप्रिय


ये किसी भगोड़े अपराधी का हुलिया नहीं है बल्कि एक ग़ुमशुदा की सूचना है। यह पाण्डेयपुर के मन्नन राय का परिचय है जिन पर कहानी लिखना भारी अपराध है क्योंकि ये उपन्यास के पात्र थे। फिर भी यह कहानी, यदि इसे कहानी मानें, तो लिखी जा रही है। वास्तव में यह कोई कहानी नहीं, एक समस्या का कहानीकरण है जो कि लेखक मन्नन राय का प्रशंसक होने के नाते कर रहा है। जब लेखक बहुत छोटा था तब भी यह कहानी दुनियावी भंवर में पूरी रौ में बहती जा रही थी भले लेखक उससे अनभिज्ञ था। तो इस समस्या को कहानी का जामा पहनाने के लिये लेखक ने अपने अवचेतन के साथ-साथ बड़े-बुज़ुर्गों से भी राय मशवरा किया है और भरसक तथ्य जुटाने की कोशिश की है। हो सकता है ब्यौरेवार तफ़सील से कहानी रिपोर्ताज लगने लगे या फिर संस्मरण का बाना पहने ले। पर लेखक का ध्यान और चिंता इसे लेकर नहीं है क्योंकि उसका ध्यान सिर्फ़ समस्या की गंभीरता की तरफ़ है।
पूरे बनारस को पाण्डेयपुर हिलाये रखता था और पाण्डेयपुर को मन्नन राय। ये न तो कोई बाहुबली थे न ही पुलिस के आदमी, फिर भी शोहदे उस एरिये से कई-कई दिनों तक नहीं गुज़रते थे जिधर किसी दिन वह दिखायी पड़ जाते थे। वह रेलवे के कर्मचारी थे पर उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि यदि सड़क पर झगड़ा हो रहा हो और वह उधर से गुज़र जाएं तो लोग उन्हें पकड़ कर झगड़ा सलटवाने लगते थे। पाण्डेयपुर के अलावा भी, कभी भी, कोई भी उनकी मदद लेने आ जाय, वह तुरंत उसके साथ जाकर उसकी समस्या का समाधान करते थे। किसी-किसी झगड़े में ख़ुद पड़ जाते और पीड़ित का पक्ष लेकर एक-दो पंक्तियों में ही झगड़ा निबटा देते। झगड़ा फरियाने में उनके एक-दो अतिप्रचलित संवाद सहायक होते-
’’मान जा गुरू, फलाने के परसान मत कराऽऽ।’’
’’काहे हाय-हाय मचउले हउवा राजा? खलिये मुट्ठी लेके जइबा उपर।’’
’’हमें सब सच्चाई मालूम हौऽऽ। छटका मत। समझउले से समझ जा।’’
और आश्चर्य की बात, 99.99 प्रतिशत मामले में लोग वाकई समझाने से समझ जाते।
ऐसे साहसी, दबंग और बेफ़िक्र मन्नन राय अचानक बनारस की धरती को छोड़ कर कहां चले गये जिसके बारें में उनका विचार था कि गंगा किनारे मर के कुत्ता भी तर जाता है। उनकी गुमशुदगी पूरे बनारस के लिये चिंता का विषय है। इसके विषय में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले उनके विषय में ठीक से जानना होगा। उनके जीवन के उस मोड़ पर जाना होगा जब वह तड़तड़ जवान थे।
बनारस को उस समय ज़्यादातर लोग काशी कहा करते थे। बनारस की गलियां उतनी ही पतली थीं जितनी आज हैं पर सड़कें काफी चैड़ी थीं। क़दम-क़दम पर पान की दुकानें थीं जैसी आज हैं। जगह-जगह लस्सी के ठीये थे। गली-गली में अखाड़े थे जहां बच्चे किशोरावस्था से युवावस्था में क़दम सेहत बनाते हुये रखते थे। जगह-जगह आज की ही तरह मंदिर थे और बहुत से मंदिरों में वाकई सिर्फ़ पूजा ही होती थी। विदेशी पर्यटक तब भी बहुत आया करते थे और ’अतिथि देवो भवः’ की परम्परा के अनुसार उन्हें पलकों पर बिठाया जाता। कुछ नाव वाले और गाइड उनसे पैसे ज़रूर ठगते पर पर्यटकों की सुरक्षा को लेकर वे भी अपने देश की छवि अच्छी बनाने के लिये चिंतित रहते।
कुछ गुण्डे भी हुआ करते थे पर वे अच्छे ख़ासे सेठों को ही लूटते थे और भरसक उन्हें जान से नहीे मारते थे। लड़कियों को पूरा मुहल्ला बहन और बेटी मानता था और कोई ऐसी-वैसी बात सबके लिये बराबर चिंता का विषय होती। लोगों की सुबह जलेबी-दूध के नाश्ते से शुरू होती और रात का खाना खाने के बाद मीठा पान खाने से। बड़े से बड़े धनिक भी रात का खाना खाने के बाद सपरिवार बाहर आकर मीठा पान खाते और टहलते। ऐसे ही माहौल में मनन राय का पटना से काशी आगमन हुआ। उन्हें बनारस इसलिये आना पड़ा क्योंकि यहां रेलवे में उनकी नौकरी लग गयी थी पर जब एक बार उन्होंने नौकरी और बनारस को पकड़ा तो दोनों ने उलटे उन्हें ऐसा पकड़ लिया कि वह वहीं के होकर रह गये। वह रांड़, सांढ़, सीढ़ी और संन्यासी से बचते हुये काशी का सेवन करने लगे और ऐसा रमे कि मित्रों ने चाचा का चच्चा, मामा का मम्मा की परम्परा के अनुसर मनन का मन्नन कर दिया। उनका रंग वहां जल्दी ही जम गया। पाण्डेयपुर का वह कमरा जिसमें वह रहते थे, एक नाटकीय घटनाक्रम में पूरे घर समेत उनके नाम लिख दिया गया।
घर एक पंडित का था जिसके परिवार में सिर्फ़ वह और उसकी पत्नी ही बचे थे। उसके सब बच्चे बचपन में ही एक-एक करके स्वर्ग सिधार गये थे और पंडित पंडिताइन काफी हद तक विरक्त हो चुके थे। इस विरक्ति पर थोड़ी आसक्ति तब हावी हुयी जब पंडित का भतीजा घर अपने नाम लिखवाने के लिये दबाव डालने लगा। पहले उसने चाचा-चाची को प्यार से समझाया। जब वह नहीं माने तो डराने धमकाने पर उतर आया। एक दिन वह अपने साथ तीन-चार मुस्टंडों को लेकर आया और घर के सामान निकाल कर फेंकने लगा। मन्नन राय बहुत दिनों से यह तमाशा देखकर तंग आ चुके थे। वह बाहर निकले और उन सभी को बुरी तरह से पीटने लगे। उनका गुस्सा और आवेग बदमाशों के लालच पर भारी पड़ा और वह मुहल्ले के हीरो बन गये। पंडित-पंडिताइन उसके बाद से उन्हें बेटा मानने लगे और और मरते समय घर उनके नाम लिख गये।
मन्नन राय ने जिस बहादुरी से चारो पांचों को लथार-लथार कर मारा, वह सबको चकित कर गया था। पूरे मुहल्ले में यही कहा सुना जा रहा था, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’ जो उम्र में उनसे छोटे थे, वे बातें कर रहे थे, ’’मन्नन भइया गजब आदमी हैं।’’ जो बड़े थे, वे बतिया रहे थे, ’’मन्नन रयवा गजब आदमी है यार।’’ इस बात पर पूरा क्षेत्र एकमत हो गया था कि मन्नन राय गजब के हिम्मती और ताक़तवर इंसान हैं। वह चलते तो लोग उनकी गरिमापूर्ण चाल को मुग्ध होकर देखते रहते। लोगों ने साफ़ देखा था कि उनके सिर पर एक आभामंडल दिखायी देता है। बहुत से लोग उनके चेले बन गये जिनमें से कुछ उनकी भक्ति भी करने लगे। वह सुबह सेर भर जलेबी और आधा लीटर दूध का सेवन करके स्टेशन जाते। शाम को मोछू हलवाई के यहां पाव भर रबड़ी खाते और फिर सभी मित्रों के साथ अखाड़े में भांग घोटने बैठ जाते।
बनारस को ज़माने की हवा बहुत धीरे-धीरे लग रही थी। ऐसे कि असर न दिखायी दे न पता चले पर परिवर्तन हो रहे थे। टीवी का प्रादुर्भाव हो रहा था और शहर चमत्कृत था। कुछ अति सम्पन्न लोगों के घरों में वह रंगीन चेहरा लिये आया था और कुछ सम्पन्नों के घर श्वेत-श्याम। जिसने श्वेत-श्याम भी टीवी ख़रीद लिया था वह अचानक उंची नज़रों से देखा जाने लगा था। जिनके घरों में टीवी नहीं थे उनके बच्चे अपने टीवी वाले पड़ोसियों के यहां छिछियाए फिरते। मन्नन राय को कियी ने समाचार सुनने के लिये टीवी ख़रीदने की सलाह दी तो वह हंस पड़े-
’’चलऽला हऽऽ चूतिया बनावे, हम देखले हई टीवी पर समाचार। एक ठे मेहरारू बोलऽऽले। हम तऽऽ ओनकर मुंहवे देखत रह गइली, समाचार कइसे सुनाई देईऽऽ ?’’
पर काफी सालों बाद टीवी का थोड़ा बहुत प्रभाव मन्नन राय पर भी पड़ा था। रविवार की सुबह जलेबी-दूध का सेवन करके वह सरबजीत सरदार के घर ज़रूर जाते और रामायण नाम का वह चमत्कार पूरे एक घंटे तक देखते और नतमस्तक होकर लौट आते। उन्हें टीवी का यही एक प्रयोग सही लगता।
मगर टीवी का यही एक प्रयोग नहीं था। उस पर फ़िल्में भी आ रही थीं। फ़िल्मी गाने भी आ रहे थे। जो गाने पति-पत्नी बच्चों के बिना हॉल में जाकर देखते सुनते थे, अब बच्चे घर में बैठे-बैठे देख सुन रहे थे। बच्चे जल्दी-जल्दी किशोर, किशोर बड़ी तेजी से युवा और युवा बड़ी तेज़ी से अवसादग्रस्त हो रहे थे। बनारस पूरे देश में हो रहे बदलावों को अपने में दिखा रहा था। पर उपर से कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। सब पहले के जैसा शान्त था। बच्चे गाना सुनते और गुनगुनाते फिरते-
’’एक आंख मारूं तो लड़की पट जाए............।’’
’’ दे दे प्यार दे..........।’’
’’सात सहेलियां खड़ी-खड़ी........।’’
’’सुन साहिबा सुन.........।’’
मां-बाप बच्चों के मुंह से ऐसे गाने सुनकर कभी गौरान्वित महसूस करते और कभी ऐसे गन्दे गाने न गाने की चेतवानी देते। जो इन्हें गंदा गाना कहते, वे ख़ुद एक-दो साल बाद इन्हें गुनगुनाते क्योंकि गंदगी की परिभाषा बड़ी तेज़ी से हर पल बदल रही थी।
दिल, प्यार, आशिक़ी आदि रोज़मर्रा की बातचीत के शब्द बन रहे थे। युवा लड़के दिल टूटने पर गीत गाने लगे थे। लड़कियां अपनी तारीफ़ गाने में सुनना पसंद करने लगी थीं पर उपर से सब शांत दिखायी पड़ता था।
वी.सी.आर. नाम के उपकरण ने वर्षों हल्ला मचाये रखा। पति-पत्नी रात को बच्चों के सो जाने के बाद प्रायः इसका उपयोग करते। बच्चे कभी-भी आधी नींद से जागते तो सोने का बहाना किए पूरा तमाशा देख जाते। उनके सामने उत्सुकताओं के कई द्वार खुल रहे थे।
मन्नन राय की उम्र शादी के बाॅर्डर को पार कर रही थी। घर से पड़ता दबाव भी उनकी उदासीनता को देखकर कम होता जा रहा था। वह हनुमान जी के परम भक्त थे और आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले चुके थे। हर शनिवार और मंगलवार को संकटमोचन जाने पर यह व्रत और दृढ़ होता जाता। पर स्त्रियों की वह बहुत इज़्ज़त करते थे और उनसे की गयी बदसलूकी अपने सामने नहीं देख सकते थे।
उधर बीच वह रात को पान खाकर अक्सर सरबजीत सरदार के चबूतरे पर देर तक बैठा करते थे। मोछू भी दुकान बंद करने के बाद वहीं आ जाते और तीनों देर तक दुनिया जहान की बातें करते रहते।
एक रात अब वह सरबजीत को राम-राम कह कर उठने ही वाले थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे उन्हें अंधेरे में कुछ परछाइयां दिखीं। वह कुछ देर वहीं से भांपते रहे फिर लपक कर उस ओर बढ़ चले।
वहां का नज़ारा उनके तन-बदन में आग लगाने के लिये काफी था। जनार्दन तिवारी का लड़का चून्नू त्रिलोकी ओझा की लड़की सविता को बांहों में भींचे खड़ा था और बार-बार उसे चूमने की कोशिश कर रहा था। लड़की शर्म के मारे चिल्ला नहीं पा रही थी पर छूटने की भरसक कोशिश कर रही थी। उन्होंने चून्नू को एक हाथ दिया और वह दूर जा गिरा। उठा तो सामने मन्नन राय को देखकर उसकी रूह फ़ना हो गयी।
’’तू घरे जोऽऽऽ।’’ मन्नन राय ने लड़की को डपट कर कहा और चून्नू पर पिल पड़े। चून्नू ने गिड़गिड़ाते हुये उनके पैर पकड़ लिये। मोछू और सरबजीत भी आ गये और पूरा मामला जानकर उन्होंने भी चून्नू का कान पकड़ कर दो करारे हाथ रखे। उसने कसम खायी कि वह मुहल्ले की सभी लड़कियों को बहन मानेगा, उसके बाद उसे छोड़ा गया। उस घटना के बाद चून्नू दो महीने तक दिखा नहीं। वह अपनी नानी के यहां छुट्टियां बिताने चला गया था, शायद शर्मिंदा होकर।
समय धीरे-धीरे बीतते हुये कठिन और गाढ़ा होता गया। परिवर्तन ऐसे मोड़ पर पहुंच गये थे कि उन्हें देखा जा सकता था। किशोर और युवा टीवी के गुलाम नहीं रह गये थे। उनके लिये इंटरनेट पर उच्छृंखलताओं का अथाह समुद्र था जिसमें वे जितनी चाहे डुबकी मार सकते थे। वी.सी.आर. जा चुका था। वी.सी.डी. प्लेयर पर पति-पत्नी रात को अपनी पसंद देखते तो बच्चे दरवाज़ा बंद कर दिन में देखते। हमारा देश अचानक दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत चेहरे पैदा कर रहा था। हर बात के लिये औसत आयु कम हो रही थी, चाहे बूढ़ों के मरने की बात हो या लड़कियों के रितुचक्र के शुरूआत की। किशोर खुलेआम सिगरेट पीने लगे थे और कुछ किशोर दशाश्वमेध पर घूमने वाले दलालों से हेरोइन लेकर भी स्वादने लगे थे। बाप न जाने क्यों ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने में लगे जा रहे थे और मांएं टीवी सीरीयलों में जीवन जीने लगी थीं। औसत लड़कियां किसी ख़ास साबुन या क्रीम की कल्पना कर ख़ुद को जीवनपर्यंत चलने वाले भ्रम में डाल रही थीं तो लड़के अनाप शनाप पाउडर खाकर सुडौल शरीर बनाने के सपने देख रहे थे। अखाड़े सभ्यता की निशानियों की तरह जीवित थे। गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट और जिम खुल गये थे। एक नई सदी शुरू हो गयी थी और यह सदी सच्चाई की नहीं, झूठ, आतंक और दिखावे की थी।
सांस्कृतिक नगरी काशी में एक और परिवर्तन हुआ था। आज़मगढ़, मऊ, गोरखपुर और आसपास के अपराधी अपनी गतिविधयों का केंद्र काशी को भी बना रहे थे। काशी बड़ी तेज़ी से सांस्कृतिक राजधानी से आपराधिक राजधानी बनती जा रही थी। इन शातिरों ने अपना ध्यान शिक्षित लोगों को अपराधी बनाने में लगाया। पढ़े-लिखे बेराज़गार नौजवान गैंग बना रहे थे। चोरी, छिनैती की घटनाओं में सिर्फ़ नौजवान ही मोर्चा संभाल रहे थे। इन पढ़े लिखे अपराधियों ने कई प्रशिक्षित अपराधियों और मंजे हुये गुण्डों का बोरिया बिस्तर बंधवा दिया था। इन्हीं शिक्षित अपराधियों ने रंगदारी यानि गुण्डा टैक्स वसूलने का नियम आम किया था। रंगदारी यानि हमें पैसा इसलिये दीजिये क्योंकि हम आपकी जान नहीं ले रहे हैं। पैसा दीजिये और हमारी गोलियों से सुरक्षित रहिये। इन्होंने बड़े-बड़े रसूख वाले व्यापारियों को निशाना बनाया। इसमें ख़तरा था जो ये उठा रहे थे और सफल भी हो रहे थे।
बनारस में बहुस्तरीय परिवर्तनों से मन्नन राय जैसे लोग बहुत परेशान थे। लस्सी और ठंडई की दुकानें कम हो गयी थीं। शराब की दुकानों के लाइसेंस दोनों हाथों से बांटे जा रहे थे। गाइड पर्यटकों को घुमाते-घुमाते उनका पर्स, कैमरा आदि पार कर देते और महिला पर्यटकों से बदसलूकी करने में उन्हें कोई डर नहीं था। कुछ गाइड महिला पर्यटकों से बलात्कार भी कर रहे थे तो कुछ ने एकाध विदेशियों का क़त्ल भी कर डाला था। सबको पुलिस का संरक्षण प्राप्त था जो पूरी तरह से हरे और सफेद रंग की ग़ुलाम बन गयी थी।
अधेड़ से वृद्ध हो चुके मन्नन राय सुबह-सुबह जलेबी दूध का नाश्ता करने के बाद मुहल्ले में टहल रहे थे। उस दिन रविवार था। उनका विचार था कि झुनझुन के यहां दाढ़ी बनवा लेते। वहां गये तो कुछ लड़के पहले से नम्बर लगाये हुये थे। वह कुछ भुनभुनाते हुये बाहर निकल आये और डाॅक्टर साहब के चबूतरे पर बैठकर अख़बार पढ़ने लगे। डाॅक्टर साहब भी आवाज़ सुनकर बाहर आये और मन्नन राय को प्रणाम कर वहीं बैठ गये।
’’ क्या भुनभुना रहे हैं बाऊ साहब ?’’
’’ अरे आजकल के लौंडे डाक्टर साहब। का बताएं ? दाढ़ी के साथ-साथ मोछ भी साफ करा देते हैं और झोंटा अइसा रखते हैं कि पते न चले कि जनाना है कि आदमी। अउर त अउर सरीर अइसा कि फूंक दो तो............।’’
मन्नन राय ने बात ख़त्म भी नहीं की थी कि दो मोटरसाइकिलों पर सवार चार हथियारबंद नौजवान तेज़ रफ्तार में गाड़ी धड़धडाते हुये उनके सामने से निकल गये और कन्हैया सुनार के घर के सामने गाड़ी लगा दी। तीन नौजवान बाहर टहलने लगे और एक अंदर चला गया। बाहर के तीनों नौजवान आगे बढ़ने वाले को तमंचा दिखकर पीछे रख रहे थे। तभी अंदर वाला नौजवान कन्हैया सुनार को लगभग घसीटते हुये बाहर लाया और चारों उनकी लात घूंसों से पिटायी करने लगे। कन्हैया हलाल होते सूअर की तरह डकर रहे थे। कन्हैया की पत्नी और बारह वर्षीय बेटा दरवाज़े पर खड़े होकर रो रहे थे और मदद की गुहार कर रहे थे। मगर चार तमंचों के आगे हिम्मत कौन करे। चारों लात-घूंसों के साथ गालियों की भी बौछार कर रहे थे।
’’ पहचान नहीं रहे थे हम लोगों को मादर.....।’
’’ दो पहले ही दे दिये होते तो ये नौबत क्यों आती हरामजादे ?’’
’’ हमारी बात न मानने का अंजाम बता दो साले को.....।’’
मन्नन राय मामला भांप चुके थे। कन्हैया सुनार बड़ा अच्छा आदमी था। उनके सामने इतना अंधेर। वह लपक कर उन सबके पास पहुंच गये और पूरे मुहल्ले की धड़कनें रुक गयीं।
’’ छोड़ दे एनके......।’’
’’ तू कौन है बे मादर.........।’’
एक चिकने दिखते लड़के का तमंचा लहराकर यह कहना ही था कि मन्नन राय का माथा घूम गया। उनके सामने पैदा हुये लौण्डों की ये हिम्मत ? उनकी एक भरपूर लात लड़के की जांघों के बीच पड़ी। दोनों हाथों से उन्होंने बाकी दोनों के सिर पकड़ कर लड़ा दिये और फ़िल्मी स्टाइल में चैथे के एक लात मारी। वह नीचे गिर पड़ा। अब चारों निहत्थे ही मन्नन राय पर टूट पड़े। पहले तो चारों भारी पड़े पर जब एक चिकने लड़के ने मन्नन राय के मुंह पर मार कर ख़ून निकाल दिया तो मन्नन राय अचानक सुन्न हो गये। क्षण भर उसके चिकने चेहरे को देखते रहे और अगले ही पल ’जय बजरंग बली’ का उद्घोष करते हुये चारों को पलक झपकते ही धराशायी कर डाला। लड़ायी को अंतिम घूंसे से फ़ाइनल टच देते हुये बोले, ’’लोहा उठावल सरीर ना हौ बेटा अखाड़े कऽऽ मट्टी हौऽऽऽ।’’ उनके सिर का आभामंडल चमक रहा था।
तभी गेट के बाहर खड़े कुछ अतिउत्साही नवयुवक अंदर घुस आये और चारों को पीटने लगे। काफी भीड़ जमा हो गयी और वे इस अफरातफरी का लाभ उठा कर फ़रार हो गये।
इस घटना के बाद पूरे मुहल्ले ने मन्नन राय को ज़बरदस्ती अपने-अपने घर बुलाकर उनका पसंदीदा खाद्य पदार्थ जैसे दही बड़ा, मालपुआ, गुलाब जामुन वगैरह खिलाया। मूल्य क्षरण के इस युग में भी खुले मन से यह स्वीकार किया गया कि, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’
मन्नन राय की गज़बनेस तब तक पूरे रौ में बरक़रार थी। वह पूरे मुहल्ले के सरपरस्त, रखवाले और अब बुज़ुर्ग थे। हर घर पर उनके कुछ न कुछ अहसान थे। किसी की ज़मीन का झगड़ा सुलझाया था, किसी के पैसों का लेन-देन निपटाया था तो किसी को धमका रहे बदमाशों से छुटकारा दिलाया था। पाण्डेयपुर से कैण्ट और मलदहिया से लंका तक लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते थे।
पहले के नौजवान जिन्होंने मन्नन राय की परम शौर्यता का दौर देखा था, उन्हें बड़ा भाई मानते थे। उनके समौरिया जो लंका जैसे दूर क्षेत्रों में रहते थे, अपने घरों में ख़ुद को उनका क़रीबी दोस्त घोषित करते थे भले ही उनकी आपस में एकाध मुलाक़ातें ही हुयी हों।
हालांकि जो वर्तमान पीढ़ी थी, वह मन्नन राय के बारे में क्या सोचती थी, ये मन्नन राय को पता नहीं था। यह वह पीढ़ी थी जो अपने बाप को इसलिये सम्मान देती थी क्योंकि वह पैसे देता था। यह पीढ़ी बड़ी तार्किक थी। इसके पास ईश्वर को न मानने के तर्क थे, पोर्नोग्राफी को वैधानिक कर देने के तर्क थे, शराब को जायज़ मानने के तर्क थे और आश्चर्य कि सभी तर्क दमदार थे।
मन्नन राय इस पीढ़ी की इस ताक़त से अनभिज्ञ थे। शायद इसलिये कि उनका वास्ता शुरू से ही इसके पहले वाली पीढ़ी और उसके पहले वाली पीढ़ी से पड़ा था। वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने सड़कों पर नंगा खेलते-भागते देखा था और वह इसी रूप में उनके दिमाग में दर्ज थी। मगर यह पीढ़ी अपना शिशु रूप पैदा होते ही छोड़ चुकी थी। यह पीढ़ी, जैसा कि होता है, अपनी सभी पिछली पीढ़ीयों से तेज़ और बहुत आगे थी।
रात का समय था। बिल्कुल वही दृश्य था जिसे बीते दो दशक से भी ज़्यादा का समय हो गया था। मन्नन राय सरबजीत सरदार के चबूतरे पर मोछू, लल्लन, बजरंगी और एकाध स्थानीय लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे अंधेरे में उन्हें कुछ परछाइयां दिखीं। उनके सामने दशकों पहले का दृश्य घूम गया और वह लपक कर उस ओर बढ़ चले। उन्हें उठता देख सरबजीत भी उठ कर पीछे लग गये और उन्हें देख उपस्थित सभी पांचों छहो उनके पीछे चल दिये। सभी को अच्छी तरह पता था कि मन्न्न राय गजब आदमी हैं, क्या पता कोई गजबनेस दिखा ही दें।
गजबनेस (मुहल्ले के मनचलों द्वारा दिया गया शब्द) दिखी भी। मन्नन राय ने देखा कि रामजीत पाण्डेय का लड़का सुनील परमेश्वर सिंह की बेटी अंशु को भींच कर खड़ा है और उसके नाज़ुक अंगों पर हाथ फेरने के साथ उसे चूम भी रहा है। लड़की के मुंह को उसने हाथ के पंजे से बंद कर रखा है और लड़की आज़ाद होने के लिये छटपटा रही है। मन्न्न राय ने एक ज़ोरदार थप्पड़ सुनील को मारा और वह छिटक कर दूर जा गिरा। लोग ख़ुश हो गये। उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गयी। मन्नन राय इस लड़के को अभी ठीक कर देंगे। ये आजकल के लौण्डे..........। मन्न्न राय गुस्से से लाल हो रहे थे। लड़की छूटते ही घर की ओर भागी।
’’ काहे बे, पढ़े लिखे वाली उमर में हरामीपना करत हउवे, वहू खुलेआम.......?’’
सुनील उठा, एक नज़र मन्न्नन राय की ओर देखा, एक नज़र भाग कर जाती अंशु की तरफ़ और ज़मीन पर पड़ा अपना बैग उठाने लगा। उसकी आंखों में शर्म, पछतावा, संकोच जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था। उसने बैग उठाया और चलने से पहले जली आंखों से मन्नन राय को घूरा। कल के लौण्डे को अपनी ओर इस तरह घूरते देखकर मन्नन राय का पारा गरम हो गया। उन्होंने उसे हड़काते हुये थप्पड़ उठाया-
’’ अइसे का देखत हउवे। तोर तरे माइ बाप कऽ पइसा बरबाद करे वालन कऽ इलाज हम बढ़िया से जनिलाऽऽऽ...........।’’
उनकी बात बीच में अधूरी रह गयी क्योंकि सुनील ने उनका तना हुआ थप्पड़ बीच में पकड़ लिया और झटक दिया। वहां उपस्थित सबकी सांसे रुक गयीं। मन्नन राय आपे से बाहर हो गये और दूसरे हाथ से एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। वह सम्भल भी नहीं पाया था कि दूसरा थप्पड़। फिर उस सत्रह साल के लड़के ने ऐसी हरक़त की कि वहां सबको सांप सूंघ गया।
उसने तेज़ी से अपना बैग निकाला और बिजली की फ़ुर्ती से किताबों के बीच से एक तमंचा निकाल कर मन्नन राय की कनपटी पर सटा दिया। वह बुरी तरह से हांफ रहा था। गुर्राता हुआ बोला-
’’ नेता बनने की आदत छोड़ दे बुड्ढे वरना यहीं ठोक दूंगा। जब देखो दूसरों के काम में टांग अड़ाना.......। राम राम करो मादरचोद नहीं तो उपर पहुंचा दूंगा......।’’
सभी लोग अवाक् खड़े थे। मन्न्न राय की आंखें जैसे अचानक भावशून्य हो गयी थीं। लोगों ने मन्नन राय के चेहरे की ओर देखा। वहां क्रोध का नामोनिशान नहीं था। फिर भी उन्हें लग रहा था कि वह फ़ुर्ती से सुनील के हाथ से तमंचा छीन लेंगे और उसे पीटते हुये घर ले जायेंगे। जो व्यक्ति चार-चार तमंचों को काबू कर सकता हो, उसके लिये एक सत्रह साल का दुबला-पतला लड़का और तमंचा क्या मायने रखते हैं। पर मन्नन राय जैसे शून्य में कहीं खो गये थे। उनके चेहरे पर पता नहीं कैसे अनजान भाव थे जिसे मुहल्ले वाले पहचान नहीं पा रहे थे।
सुनील बैग लेकर चल पड़ा तब भी मन्नन राय वैसे ही खड़े थे। लोगों ने स्पष्ट देखा था कि सुनील ने जब उनके उपर तमंचा ताना था तो तमंचे की नली उनकी कनपटी की तरफ़ सीधी नहीं थी बल्ेिक उनके सिर के इर्द-गिर्द रहने वाला आभामंडल उसकी ज़द में था। अब वह आभामंडल बिल्कुल विलुप्त हो गया था और वह लुटे-पिटे बड़े निरीह बुड्ढे लग रहे थे। रात अचानक और काली हो गयी थी और मन्नन राय के चेहरे पर उतर आयी थी। वह भौंचक खड़े उस रास्ते को देख रहे थे जिस पर सुनील गया था। कुछ लोग उनके कंधे पर हाथ रखकर सहला रहे थे कुछ पीठ। उन्हें पकड़ कर लोग चबूतरे पर वापस ले आये। वह कुछ बोल नही रहे थे। कुछ लोगों को उम्मीद थी कि अभी वह नीम गुस्से में हैं इसलिये कुछ बोल नहीं रहे हैं। गुस्सा संभलने के बाद ज़बरदस्त बनारसी गालियां देंगे और उस बद्तमीज़ लड़के के घर जाएंगे और......।
अचानक मन्नन राय उठ खड़े हुये। उनका रुख अपने घर की ओर था। लोग समझाने लगे।
’’ आप झूठे परेसान हो रहे हैं बाऊ साहब..........।’’
’’ कल सबेरे सुनीलवा के घर सब लोग चला जायेगा। रामजीत से बात किया जायेगा.......।’’
’’ बइठिये मन्नन भईया.......।’’
’’ बइठा यार मन्नन ........।’’
मगर वह न बैठे न रुके। धीमी चाल से वह अपने घर में घुसे और दरवाज़ा बंद कर लिया। लोग उनका यह रुख देखकर दुखी हुये। सबने चर्चा की कि मन्नन राय को बहुत दुख पहुंचा है और इसका निवारण यही है कि सुनील उनसे माफ़ी मांगे।
अगली सुबह जब सुनील के मां-बाप को यह घटना बतायी गयी तो वे आगबबूला हो उठे। लड़के की बेशर्मी से ज़्यादा दुख उन्हें मन्नन राय के अपमान का था। सुनील की बहुत लानत मलानत हुई और मुहल्ले के सभी बुज़ुर्ग लोग दोनों को लेकर माफ़ी मंगवाने मन्नन राय के घर पहुंचे। मुहल्ले में अफ़रा तफ़री मच गयी थी। जो सुनता, ज़माने को दोष देता।
मन्नन राय की दिनचर्या के अनुसार यह समय उनके नाश्ता कर चुकने के बाद डाक्टर साहब के यहां अख़बार पढ़ने का था पर वह अभी तक दिखायी नही दिये थे। लोगों ने दरवाज़ा खटखटाया तो वह अपने आप खुल गया। लोग एक अनजानी आशंका से भर उठे। हर कमरे की तलाशी ली गयी। मन्नन राय नहीं थे। हर सामान पहले की तरह व्यवस्थित था। मन्नन राय कहां चले गये ? किसी रिश्तेदार के यहां जाते तो कपड़े वगैरह ले कर जाते। सारे कपड़े, यहां तक कि उनका धारीदार जांघिया भी वहीं टंगा था। बिना कुछ लिये वह कहां जा सकते हैं.......खाली हाथ ? कुछ के दिमाग में आशंकाएं उभर रही थीं पर बोला कोई कुछ नहीं। सबको पता था कि बोलते ही बाकी सब कांवकांव करने लगेंगे-, ’’मन्नन राय कोई कायर कमज़ोर थोड़े ही हैं।’’
फिर वह गये कहां ? उनके जो थोड़े बहुत रिश्तेदार थे उनके यहां पता किया गया। वह वहां भी नहीं थे। उनके घर पर ताला लगा दिया गया है और पूरा मुहल्ला आंखें बिछाये इंतज़ार कर रहा है कि वह कब आते हैं। कुछ छंटइल बदमाश हैं जो ख़ाली मकान को हड़पने की फ़िराक़ में हैं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्हें डर है कि मन्नन राय आ गये तो हड्डी पसली ढूंढ़ें नहीं मिलेगी। उन्हें अभी भी याद है कि ’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’ है किसी की मज़ाल जो ’थे’ का प्रयोग कर दे।
लेखक मन्नन राय का बहुत बड़ा भक्त रहा है और उनकी बहुत सी आदतें न पसंद होने के बावजूद उनकी गुमशुदगी पर चिंतित है। आप उनकी आदतों और उनके व्यक्तित्व की चीरफाड़ में तो नहीं उलझ गये ? उनका ज़बरदस्ती हर किसी के काम में नेता बनने की आदत और दकियानूसी और पिछड़ी सोच.....? आप किसी दूसरे रास्ते तो नहीं जा रहे ? इसीलिये लेखक ने शुरू में ही कहा था कि सबसे बड़ी समस्या मन्नन राय की गुमशुदगी है, यह वक्त उनके आग्रहों पर सोचने का नहीं है। लेखक ने भले उनकी जवानी न देखी हो, उनका गर्व से भरा माथा और तनी हुयी रोबीली चाल देखी है। हालांकि उस दिन से लेखक को यह अनुभव हुआ है कि हर मन्नन राय बुढ़ापे में ज़्यादा दिनों तक तना नहीं रहने दिया जाता। लेखक सड़कों पर घूमते समय सिर झुकाये किसी हताश और निरीह बूढ़े को देखता है तो दौड़ कर पास जाकर देखता है कि कहीं यह मन्नन राय तो नहीं। पर वह मन्नन राय अब तक नहीं मिले, हालांकि दूर से ज़्यादातर बूढ़े मन्नन राय ही लगते हैं, उस रात के बाद वाले मन्नन राय। लेखक ने पहचान के लिये कहानी के साथ मन्नन राय की तस्वीर भी संलग्न की है। इसके साथ संपादक से व्यक्तिगत रूप से संपादक से निवेदन भी किया है कि यदि इस समस्या को खालिस कहानी के रूप में छापें और चित्र छापना संभव न हो, तो उनका एक रेखाचित्र ज़रूर छापें। वैसे आपकी सुविधा के लिये मैंने पूरा हुलिया दे ही दिया है और अब तक तो आप मन्नन राय को पहचान ही गये होंगे। यदि किसी को भी मन्नन राय के विषय में कोई भी सूचना मिले तो कृपया लेखक के पते पर अविलम्ब संपर्क करें। उचित पारिश्रमिक भी दिया जायेगा।

कहानीकार- विमलचंद्र पाण्डेय