Friday, October 30, 2009

शहतूत- मनोज कुमार पाण्डेय

तुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियां हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियां तुमने खोज-खोजकर इकट्ठा की हैं सो तुम नहीं जानते कि इनमें से कितनी चीजें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थीं और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं! या वे कौन-सी घटनाएँ हैं जो वास्तव में कभी घटी ही नहीं, किसी के भी जीवन में पर तुरन्त ही तुम्हें खयाल आता है कि तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?

तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें मैं पढ़ता हूं स्कूल की इमारत में सिर्फ तीन कमरे और एक बरामदा है। बरामदा सामने है। बरामदे के पीछे एक कमरा है। बरामदे के आजू-बाजू दो कमरे हैं जो सामने की तरफ एक अंडाकार उभार लिये हुए हैं। इन तीन कमरों में से सिर्फ एक में दरवाजा है और एक खिड़की भी, जिसकी चैखट कोई उखाड़ ले गया है। इस कमरे की दूसरी खिड़कियों में ईंटें चुनवा दी गयी हैं। बाकी दोनों कमरों की खिड़कियां इतनी बड़ी हो गयी हैं कि सोचना पड़ता है कि उन कमरों में दरवाजे से जाया जाए या खिड़कियों से। जिस एक कमरे में दरवाजा है और जिसकी एक खिड़की की चैखट कोई उखाड़ ले गया है, उसमें सिर्फ लोहे की चैखानेदार पत्तियाँ भर बची हैं। इन पत्तियों के बाहर से मैं इस कमरे में बहुत देर तक झाँकता रहता हूं। इस कमरे में दो साबुत कुर्सियाँ हैं, एक मेज, तीन लकड़ी की आलमारियां, एक झूला कुर्सी, एक काठ का घोड़ा, एक सरकसीढ़ी, कुछ नयी पुरानी किताबें, दो जंग खाये बक्से और उनके ऊपर बेतरतीब ढंग से रखी हुई परीक्षा वाली कॉपियां। इस कमरे में हमेशा ताला बंद रहता है। यह सुबह के दस साढ़े दस बजे खुलता है और इसके भीतर की दोनों कुर्सियां निकाली जाती हैं। एक मिसिर मास्टर के लिए और एक बालगोविन्न मास्टर के लिए। शाम को फिर ताला खुलता है- दोनों कुर्सियां फिर से इसी कमरे में रख दी जाती हैं और फिर से ताला बन्द कर दिया जाता है। एक बार कई दिनों तक इस कमरे की चाबी मेरे पास भी रही थी पर मुझे खिड़की से झाँकना ज्यादा अच्छा लगता है।
स्कूल, स्कूल में नहीं स्कूल के पश्चिम के बाग में चलता है। आम के पेड़ों की हरी छाया में। पेड़ खूब बड़े-बड़े हैं इसलिए पेड़ हमारी पहुंच में नहीं हैं। बस उनकी छाया ही हमारी पहुंच में है। स्कूल चलते-चलते बाग की सतह चिकनी और समतल हो गयी है। इसी बाग में कोई पाँच पेड़ छाँट लिये जाते हैं और उन पाँच पेड़ों के नीचे पाँच कक्षाएं चलती हैं। कक्षाओं का मुंह पेड़ की तरफ होता है जहां पेड़ की बगल में एक कुर्सी आ जाती है। मिसिर मास्टर और बालगोविन्न मास्टर जब एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हैं तो उनके साथ उनकी कुर्सियां भी जाती हैं। मास्टर पहले पहुंच जाते हैं और खड़े रहते हैं फिर पीछे-पीछे कुर्सी पहुंचती है। मास्टर कुर्सी पर बैठ जाते हैं। हम सब बच्चे भी बैठ जाते हैं। हम जमीन पर बैठते हैं। हम अपने बैठने के लिए घर से बोरियां लेकर आते हैं और लौटते समय बोरी अपने झोले में भर लेते हैं। झोला भी बोरी से बना होता है और कई बार कई लड़कों के कपड़े भी। ये बोरियाँ जाड़े में हमारे दोहरे काम आती हैं स्कूल से लौटते हुए हम इसमें आग तापने के लिए सूखी पत्तियां बटोरकर घर ले जाते हैं।
स्कूल के पूरब की तरफ एक पुराना-सा कुआं है। जब स्कूल खुला रहता है तो उसकी जगत पर एक रस्सी-बाल्टी रखी रहती है। हमें खूब प्यास लगती है। हम जितना पानी पीते हैं उससे ज्यादा गिराते हैं। कुएं का पानी खूब ऊपर तक है। हम इसे जादुई कुआं कहते हैं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है इसका पानी ठंडा होता चला जाता है और जैसे-जैसे जाड़ा आता है इसका पानी गर्म होता चला आता है। कुएं के पूरब में मेहंदी के कई झाड़ थे जिन पर हम झूला झूलते थे। एक बार मैं इस पर झूल रहा था कि मिसिर मास्टर आते दिखाई पड़े। मैं जल्दी से उतरने लगा और नीचे आ गिरा। मिसिर मास्टर ने मुझे कई डंडे मारे पर मैं उठ नहीं पाया। थोड़ी देर में मेरा पैर ऐसे सूज आया जैसे मुझे हाथीपांव हो गया हो। मिसिर मास्टर ने चारपाई मंगवाई और मुझे घर भिजवा दिया। हफ्ते भर बाद जब मैं फिर से स्कूल आया तो वहां मेहंदी का एक भी पेड़ नहीं बचा था। उनकी जगह पर कुछ चीखती हुई खूंटियां भर थीं। तब भी जब मैं उधर से गुजरता हूं तो कभी स्याही गिर जाती है तो कभी कलम। कितना भी ढूंढ़ो, वहां गुम हुई चीजें दोबारा कभी नहीं मिलती। खूंटियों के आगे जाने की हमें मनाही है। आगे जंगल शुरू हो जाता है।
स्कूल में दो ही मास्टर हैं। एक मिसिर मास्टर, एक बालगोविन्न मास्टर। दोनों कुर्ता पहनते हैं। बालगोविन्न मास्टर की तोंद बहुत बड़ी है। जब वह चलतें हैं तो उनकी तोंद आगे-पीछे होती हुई बहुत मजेदार लगती है। बालगोविन्न मास्टर छड़ी लेकर चलते हैं पर हमें मारने के लिए उन्हें बांस की पतली-पतली टहनियां पसन्द हैं जो चमड़े को चूमती हैं तो एक शाइस्ता-सी सटाक की आवाज होती है और जिस्म में पतली-पतली लाल रेखाएं बन जाती हैं जो थोड़ी देर बाद जिस्म के नक्शे पर उभरी लाल पगडंडियों-सी दिखाई देने लगती हैं बालगोविन्न मास्टर इन पगडंडियों पर बिना छड़ी लिये ही चलते हैं।
मिसिर मास्टर खूब काले हैं और काली-काली मूंछे रखते हैं। उनका घर स्कूल के पश्चिम के बाग के पश्चिम में है। वह अपनी मिसिराइन को खूब पीटते हैंं। कई बार जब वह मिसिराइन को पीट रहे होते हैं तो उनकी चीखें हम तक पहुंच जाती हैं। पीटने के दृश्य हम तक पहुंच जाते हैं। जिस दिन भी ऐसा होता है हम दिन भर डरे रहते हैं। क्या हमारा पिटना मिसिराइन को दिखता होगा तो वे भी ऐसे ही डर जाती होंगी? मिसिर मास्टर की मेरे पिता से खूब जमती है। मेरे पिता भी मास्टर हैं सुबह मेरे पिता मिसिर मास्टर के यहां जाते हैं तो शाम को मिसिर मास्टर मेरे यहां आ जाते हैं। मैं पिता से भी डरता हूं और मिसिर मास्टर से भी। मिसिर मास्टर कक्षा में जब कभी इम्तहान लेते हैं सारे बच्चों की कॉपियां मुझसे जंचवाते हैं और मेरी कॉपी खुद जांचते हैं। इससे क्लास में मेरा रूतबा थोड़ा बढ़ जाता है और मैं चाहता हूं कि ये स्थिति हमेशा कायम रहे।
मेरी कक्षा में एक लड़का है ‘अशोक कुमार निर्मल’। उसका घर का नाम बितानू है। हम भी उसे बितानू कहते हैं और अपनी स्याहियां उसके कपड़े या झोले पर पोंछ देते हैं। वह शिकायत करता है तो मिसिर मास्टर हंसने लगते हैं। कहते हैं कि ‘‘तू क्यों रोता है बे ! तेरी माई जैसे इतने लोगों का धोती है वैसे ही तेरा भी धो देगी।’’ पूरी कक्षा फिसिर-फिसिर करने लगती है और बितानू का चेहरा तमतमा उठता है। अब धीरे-धीरे उसने शिकायत करनी बन्द कर दी है। हम उसके साथ बदमाशी करते हैं तो वह जलती आंखों से हमें देखता है और न जाने क्या-क्या बुदबुदानेे लगता है! इधर उसका बुदबुदाना बढ़ता जा रहा है पर हम उसकी बुदबुदाहट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि मिसिर मास्टर और कक्षा की बहुसंख्या हमारे साथ होती है। मैं अपनी कक्षा में पढ़ने में सबसे अच्छा हूं। मुझे अधिकतर सवालों के जवाब आते हैं। पर एक दिन ऐसा हुआ कि मिसिर मास्टर ने जो सवाल दिये उनमें से पाँच में से तीन मुझे नहीं आते थे। पूरा दम लगाकर भी मैं गणित के उन सवालों को हल नहीं कर पाया। मुझे मिसिर मास्टर से डर लगा। ऐसे किसी भी मौके पर मिसिर मास्टर दूसरों की अपेक्षा मुझे ज्यादा पीटते थे। कहते, ससुर बाभन का लड़का होकर तुम्हारा ये हाल है।’’ या “पढ़ोगे नहीं ससुर तौ का निर्मलवा की तरह गदहा चराओगे?” लड़कियों के लिए कहते, “इन ससुरिन को, क्या करना है! घर में रहेंगी, चूल्हा-चैका करेंगी और लड़िका जनेंगी।” ऐसा कोई भी प्रसंग पूरी कक्षा पर भारी गुजरता है। मैं या जो भी उनके कोप का भाजन बनता है पिट-पिटकर चकनाचूर हो जाता है और दूसरों के चेहरे बिना पिटे ही सहम जाते हैं लड़कियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। पर बितानू कुछ दूसरी तरह का है। उसकी आंखें लाल हो जाती हैं और वहां आग दहकने लगती है। इसीलिए वह सबसे ज्यादा मार खाता है।
तोे उस दिन इसी बितानू ने पाँच के पाँचों सवालों के जवाब सही-सही दिये थे और मैं पाँच में से तीन का जवाब नहीं दे पाया था, पर मेरी कॉपी तो मिसिर मास्टर सबके बाद में जाँचते हैं पहले तो मैं ही बाकी कॉपियां जाँचता हूं तो उस दिन मैंने जान-बूझकर बितानू के तीन सवालों को गलत काट दिया। मेरी कॉपी मिसिर मास्टर ने देखी। तीन सवाल तो मैंने किये ही नही थे। सबके साथ-साथ मेरी भी पिटाई अच्छे से हुई बल्कि मेरी कुछ ज्यादा ही अच्छे से, क्योंकि बाभन होने की वजह से और पिता के साथ दोस्ताना सम्बन्धों की वजह से मिसिर मास्टर मेरे प्रति कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी महसूस करते हैं। तो मिसिर मास्टर ने मेरे बदन का भूगोल बदल दिया। कहीं नदियां निकल आयीं तो कहीं छोटे-छोटे पहाड़। पर इतना जैसे कम था।
बितानू उठा और अपनी कॉपी लेकर मिसिर मास्टर के पास पहुंच गया। बोला, “मास्साब मेरे ये सवाल सही हैं, फिर भी राजकरन ने गलत काट दिया।”
मिसिर मास्टर ने उसे उपहास के भाव से देखा और बोले, “तौ अब धोबी-धुर्रा बाभन में गलती निकालेंगे?” फिर पता नहीं क्या सोचकर बोले, ‘‘ला कापी इधर ला।
मैं तो सच पहले से ही जानता था। मिसिर मास्टर ने मेरी तरफ देखा और मैं मशीन की तरह उठकर उनके पास जा पहूंचा। बस चार डंडे की सजा मिली पर दूसरे दिन बितानू ज्यादा पिटा क्योंकि ‘निर्मल’ होने के बावजूद वह गन्दे कपड़े पहनकर आया था। उस दिन के बाद से बितानू ने स्कूल आना छोड़ दिया। कक्षा में एक जगह खाली हो गयी और मेरे भीतर भी। मुझे लगा कि अगर उस दिन मैंने उसके सवाल गलत नहीं काटे होते तो बितानू स्कूल नहीं छोड़ता, पर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया।
हुआ यह कि मिसिर मास्टर के बेटे की तिलक थी। पिता गये हुए थे। मैं भी उनके साथ गया था। खूब चहल-पहल थी। अचानक पता नहीं क्या सूझा कि मैंने बायें हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर एक गोल घेरा बनाया और उसमें दायें हाथ की तर्जनी बार-बार डालने निकालने लगा। मैं यह काम पूरी तल्लीनता से कर रहा था। दो लड़के मुझे देखकर हँस रहे थे और कुछ इशारे कर रहे थे। पिता की निगाह मुझ पर गयी तो उनका चेहरा कस उठा। उन्होंने मुझे बुलाया, कसकर कान उमेठा और घर जाने के लिए कहा। मैं मुंह बनाता और कान सहलाता घर चला आया।
पिता रात में घर आये तब तक मैं सो गया था। उन्होंने मुझे बुलाने के लिए कहा तो दीदी गयी और मुझे जगा लायी। पिता ने मुझे इतनी जोर का थप्पड़ मारा कि मैं जमीन पर लोट गया। इसके बाद पिता ने कहा कि कल से स्कूल जाना बन्द। मैं बहुत देर तक जमीन पर वैसे ही मुर्दे की तरह पड़ा रहा। फिर दीदी मुझे उठाने आयी। मैंने उसका हाथ झटक दिया। खुद उठा और बिस्तर पर पहुंच गया। पूरी रात मुझे नींद नहीं आयी। मैं पूरी रात इस बारे में सोचता रहा कि पिता ने मुझे क्यों मारा! पर मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। अगले कई दिनों तक स्कूल जाना बन्द ही रहा। पर मैं दिन में दो बार मैदान जाने का डिब्बा उठाता और स्कूल के पूरब तरफ जंगल में पहुंच जाता। वहां बैठे-बैठे मैं स्कूल की तरफ ताका करता।
एक दिन मैं ऐसे ही वहां छुपा बैठा था और स्कूल की तरफ ताक रहा था कि बालगोविन्न मास्टर लोटा लेकर अन्दर आते दिखाई पड़े। बालगोविन्न मास्टर थोड़ा-सा अन्दर आये, एक जगह आड़ तलाशी और धोती खोलकर बैठ गये। बालगोविन्न मास्टर मुझे देख न लें इस डर से में पीछे खिसकता चला गया। जब तक वह धोती खोल बैठे रहे, डर के मारे मेरी घिग्घी बंधी रही। वह उठने ही वाले थे कि एक बड़ा-सा ढेला आकर उनकी पीठ पर पड़ा। बालगोविन्न मास्टर हकबकाकर आगे रखे लोटे पर गिर गये। लोटे का सारा पानी गिर गया। बालगोविन्न मास्टर कांखते हुए चिल्लाये, ‘‘कौन है ससुर?’’ किसी तरफ से कोई जवाब नहीं आया। मैं डर के मारे जमीन पर लेट-सा गया। बालगोविन्न मास्टर बहुत देर तक इधर-उधर देखते रहे, फिर उन्होंने बगल से लसोढ़े की पत्तियां तोड़ी और उससे अपना पिछवाड़ा साफ किया, इधर-उधर देखते हुए धोती पहनी और बाहर निकल गये।
बालगोविन्न मास्टर बाहर निकल गये तो मुझे डर लगा। मैं उठकर खड़ा हो गया और अनायास ही चारों तरफ देखा। चारों तरफ पेड़, झाड़ियां, फूल ही फूल। आम, महुआ, लसोढ़ा, बेर, करौंदा, कैथा, सेमल, नीम, बबूल, जंगलजलेबी, मकोय, ढिठोरी, चिलबिल और भी न जाने क्या-क्या जिनके मैं नाम तक नहीं जानता। पेड़ों के ऊपर घनी लताएं फैली हुई थीं। इतनी कि कई पेड़ दिख ही नहीं रहे थे, सिर्फ लताएं दिख रही थीं। कुछ जगहों पर लताएं भी नहीं दिख रही थीं, सिर्फ नीले-पीले फूल दिख रहे थे।
मुझे सब कुछ जादू-जादू-सा लगा। मेरा डर उड़नछू हो गया। जैसे किसी सम्मोहन की कैद में मैं जंगल के भीतर की तरफ बढ़ने लगा। अन्दर एक तालाब था जिसके किनारे-किनारे काई फैैली हुई थी। उसमें बैगनी रंग के गुच्छेदार फूल खिले हुए थे और अन्दर की तरफ कमल के बड़े-बड़े पत्ते पानी की सतह पर हरे धब्बों की तरह तैर रहे थे और चारों तरफ खूब कमल ओर कुमुदिनी के फूल खिले हुए थे। मैंने इसके पहले सचमुच का कमल नहीं देखा था। मेरे घर के ओसारे में दरवाजे के ऊपर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें टंगी हुई हैं, उन सबमें कमल के फूल हैं। एक ब्रह्माजी की तस्वीर है जिसमें वह कमल के फूल पर बैठे हुए हैं, दूसरी सरस्वती की तस्वीर है जिसमें उनके एक हाथ में कमल का फूल लटका हुआ है। ऐसे ही एक कुबेर-लक्ष्मी की तस्वीर है जिसमें दोनों एक हाथी पर बैठे हुए हैं और हाथी अपनी सूंड़ से एक कमल का फूल तोड़ रहा है। तो मेरे ध्यान में कमल के फूल से जुड़े जितने भी प्रसंग थे सब देवताओं से जुडे़ हुए थे, इसीलिए जब मैंने तालाब में कमल खिले देखे तो तालाब मुझे पवित्र किस्म का लगा। मुझे लगा कि रात में जरूर यहां परियाँ उतरती होंगी। मेरा मन हुआ कि मैं एक कमल का फूल तोड़ूं पर कमल तालाब में काफी अन्दर खिले हुए थे। तालाब गहरा हो सकता था और मुझे तैरना नहीं आता।
तभी मैंने देखा कि एक तरफ से धुआं उठ रहा है। मैं धीरे-धीरे वहां पहुंचा तो देखा कि ओमप्रकाश और बितानू आग में से कुछ निकाल रहे हैं ओमप्रकाश मुझसे एक कक्षा आगे पाँचवी में पढ़ता है। मैं उन दोनों तक पहुंचता उसके पहले ही बितानू ने मुझे देख लिया और उठकर खड़ा हो गया।
मुझे लगा कि दोनों मुझे देखकर सकपका से गये। पर बितानू ने कहा, ’’वहां क्यों खड़े हो पंडित? यहां आओ।‘‘
मैं असमंजस में रहा! फिर धीरे-धीरे चलकर उनके पास जाकर खड़ा हो गया। सामने गणित की रफ कॉपी का पन्ना पड़ा हुआ था। उस पर तीन भुनी मछलियां रखी हुईं थीं। कागज पर एक कोने में थोड़ा सा पिसा नमक रखा था। बितानू ने पूछा, ‘‘खाओगे पंडित?’’
मैंने कहा, ‘‘छिः तुम लोग पापी हो।’’
ओमप्रकाश हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘अच्छा पंडित जी हम लोग तो पापी हैं ही पर मछली तो आज आपको भी खानी पड़ेगी। नहीं तो मैं बालगोविन्न मास्टर को बता दूंगा कि उनको ढेला तुमने मारा था।’’
मैं चैंक गया। “इसका मतलब उनको ढेला तुम लोगो ने मारा था।” मैंने कहा।
‘‘तो क्या हुआ! हम दो हैं और तुम अकेले। दो की बात में ज्यादा दम होता है।’’ ये बितानू था।
उसके दो वाले तर्क से मैं गड़बड़ा गया। फिर भी मैंने कहा, ‘‘मैं यह भी बताऊंगा कि तुम दोनों यहां यह सब करते हो।’’
बितानू बोला, ‘‘देख बे पंडित, जा बता दे। मैं तो पहले से ही स्कूल नहीं आता, तेरा मास्टर मेरा क्या उखाड़ेगा!’’
दोनों तनकर खड़े हो गये। मुझमें वह हिम्मत नहीं बची कि मैं उन दोनों की शिकायत करने के बारे में सोचता। दोनों मुझसे ज्यादा ताकतवर। और शिकायत करके भी क्या होगा, सही बात है कि बितानू तो पहले से ही स्कूल छोड़ चुका है और फिर पिता ने मुझे भी तो स्कूल आने से मना किया है। पिता पूछेंगे कि तुम वहां क्या कर रहे थे तो मैं क्या जवाब दूंगा! अब बचा ओमप्रकाश, वह तो स्कूल भी जाता है, ऊपर से मुझसे ऊपर की कक्षा में पढ़ता है। अगर उसने मेरी शिकायत कर दी तो.........
तो मैंने कहा, ‘‘देखो तुम लोग मेरे बारे में कुछ मत बताना। मैं भी तुम दोनों के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’’
बितानू बोला, ‘‘हम तो बताएंगे।’’ शायद वह मेरे डर को भांप गया था।
मैं बहुत देर तक न-नुकुर करता रहा। वे दोनों मुझे धमकाते रहे।
आखिरकार मैंने मिनमिनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा थोड़ी-सी दो। अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं खाऊंगा।’’
ओमप्रकाश ने मछली का एक टुकड़ा निकाला, उसमें नमक छुवाया और मेरे मुंह में डाल दिया। मुझे उबकाई-सी आयी। आंखों में आंसू आने को हुए, पर मैं उबकाई और आंसू दोनों पी गया। देर तक वह टुकड़ा मेरे मुंह में वैसे का वैसे ही पड़ा रहा। फिर उसका नमक मेरे मुंह में घुला। उसमें एक अजीब-सी महक थी। मेरे रोयें सन्न भाव से खड़े हो गये जैसे किसी अनपेक्षित का इन्तजार कर रहे हों। फिर मछली का टुकड़ा मेरे मुंह में बिखर गया। मैं दम साधे उसे महसूस करने की कोशिश कर रहा था। टुकड़ा और घुला। थोड़ा और। और। फिर मैंने उससे एक टुकड़ा और मांगा।
बितानू बोला, ‘‘शाबास पंडित, मजा आया न !’’
मैं हंसने लगा। इसके बाद मैं भी उनका साझीदार हो गया।
अगले कई दिनों तक मैं रोज मैदान जाने का डिब्बा लेकर वहां पहुंचता रहा। ओमप्रकाश अपने साथ मछली फांसने वाली कटिया लेकर आता। कटिया चार-पाँच मीटर लम्बे ताँत के तार की बनी होती, जिसके एक छोर पर वह वहीं छुपायी गयी बांस की टहनी लगा देता। दूसरे छोर पर एक पतला-सा लोहे का तार नुमा बंसी लगी होती जिसका अगला हिस्सा हुक की तरह मुड़ा होता। वह वहीं तालाब के किनारे की नमी से केंचुए इकट्ठा करता और हुक में केंचुए फंसा देता। वह कई-कई कटिया लगाकर स्कूल चला जाता। जब इंटरवल होता तो वह तालाब की तरफ लपकता। मैं पहले से ही वहां पहुंचा होता।
वहीं पर मैंने पहली बार अंडे खाये। बीड़ी का सुट्टा मारा। फिर एक दिन अम्मा ने कहा कि मैं पिता के स्कूल के लिए निकल जाने के बाद स्कूल चला जाया करूं। इसमें कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि पिता का स्कूल दूर था और वह पहले ही निकल जाते थे। मेरा स्कूल घर के सामने ही था सो मैं आराम से बाद में जा सकता था। अम्मा ने जरूर पिता की सहमति से ही ऐसा किया होगा। अम्मा न बताती तब भी उन्हें तो मिसिर मास्टर से पता चल ही जाना था।
कितना अच्छा होता कि स्कूल घर से दूर होता। कितना अच्छा होता कि स्कूल के मिसिर मास्टर, बालगोविन्न मास्टर और पिता एक दूसरे को जानते न होते। हम घर में भी पिटते और स्कूल में भी। दोनों जगहों पर हम संदिग्ध थे और हमें ठोंक-पीटकर अच्छा बनाने का पवित्र अभियान चलाया जा रहा था।
मैं स्कूल जाने लगा तो धीरे-धीरे मेरी दोस्ती ओमप्रकाश और बितानू से बढ़ती गयी। स्कूल में मेरा वक्त ओमप्रकाश के साथ बीतता और इंटरवल में बितानू हम दोनों का तालाब पर इन्तजार करता कभी मछली, कभी चिड़िया के अंडे, कभी आलू कभी कुमुदिनी की जड़ तो कभी अरहर और मटर की फलियों के साथ।
ओमप्रकाश के साथ उसकी बहन भी स्कूल आती थी। वह मुझे बहुत सुन्दर लगती थी। उसके बायें गाल पर चवन्नी बराबर एक बड़ा-सा तिल था। तिल मुझे बहुत अच्छा लगता था और मुझे उसकी तरफ खींचता था। मेरा मन उसे छूने का करता। मैं उसे देर-देर तक चुपके-चुपके निहारता था। मैंने एक दिन ओमप्रकाश से कह ही दिया,
‘‘ओम भाई, तुम्हारी बहन मुझे बहुुत अच्छी लगती है।’’
उसने कहा, ‘‘मुझे भी तुम्हारी दीदी बहुत अच्छी लगती है। चलो बदल लेते हैं। तुम अपनी दीदी मुझे दे दो और मेरी बहन ले लो।’’
दीदी वहीं बगल के मिडिल स्कूल में आठवीं में पढ़ती थी। वह न जाने कहां पीछे दुबकी थी और हमारी बातें सुन रही थी। दीदी अचानक प्रकट हुई और इसके पहले कि हम कुछ समझ पाते उसने मेरे और ओमप्रकाश के सिरों को पकड़कर आपस में लड़ा दिया। हम दोनों की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। दीदी ने हम दोनों की खूब ताबड़तोड़ ढंग से पिटाई की। हम दोनों पस्त होकर वहीं पड़े रहे और दीदी ने घर जाकर सब कुछ बता दिया।
घर पहुंचा तो दादी डंडा लिए मेरा इन्तजार कर रही थी। खूब पिटाई हुई। दूसरे दिन स्कूल में भी मेरी और ओमप्रकाश की जमकर पिटाई हुई। कई दिनों बाद दादी ने प्यार से समझाया कि उसका क्या जाता! मान लो ऐसा हो जाय तो बाभन की लड़की पाकर उसकी तो इज्जत बढ़ जाएगी पर तुम्हारे तो पूरे खानदान की नाक कट जाएगी कि तुम्हारी बहन किसी सूद-बहरी के साथ चली गयी। अरे ऐसी बातों पर तो गर्दन तक कट जाती हैं अैार तू है कि....... कुल का कलंक बनकर पैदा हुआ है।
इसके बाद हम पर स्कूल में नजर रखी जाने लगी। घर पर लगातार सुनने को मिलता कि अच्छे लड़के सूद-बहरी की संगत नहीं किया करते। ऐसा करने से उनका मन गन्दा हो जाता है और उनके भीतर तमाम गन्दी आदतें आ जाती हैं। स्कूल में भी मिसिर मास्टर की निगाहों में आने से बचना होता था। सो हमारे मिलने की एकमात्र जगह जंगल था।
ओमप्रकाश इस बीच बेवजह पिटने लगा था। कई बार मिसिर मास्टर उसके नाम को लेकर उसकी फजीहत करते। ‘‘ससुर अंधेरे की औलाद नाम ओम प्रकाश!’’ फिर एक दिन उसे मिसिर मास्टर ने कुएं पर जाने और रस्सी-बाल्टी छूने से मना कर दिया। ओमप्रकाश नहीं माना तो मिसिर मास्टर ने उसे जमीन पर गिराकर लातों और डंडों से खूब पीटा। ओमप्रकाश की समझ में जब कुछ नही आया तो उसने मिसिर मास्टर की कलाई में दांत गड़ा दिया। मिसिर मास्टर ने चिल्लाकर उसे छोड़ दिया। ओमप्रकाश थोड़ा दूर गया और वहां से ईंट का एक टुकड़ा उठाकर मिसिर मास्टर के सिर पर दे मारा। मिसिर मास्टर सिर थाम कर बैठ गये तो ओमप्रकाश ने उन्हें मां की गाली दी और घर भाग गया। दूसरे दिन ओमप्रकाश के घर वाले आकर सरेआम मिसिर मास्टर की मां बहन कर गये। इसके बाद ओमप्रकाश और उसकी बहन दोनों का स्कूल आना बन्द हो गया।
पन्द्रह-बीस दिन बाद एक दिन कुएं में मरा हुआ कुत्ता तैरता दिखा। दो दिन तक लगातार कुएं का पानी निकलवाया गया। मिसिर मास्टर ने घर से लाकर गंगाजल डाला पर दस दिन बाद ही कुएं में मरा हुआ बछड़ा पाया गया। इसके बाद कुएं में एक बदबू फैल गयी जो बढ़ती ही गयी। इसके बावजूद छोटे-छोटे बच्चेे जाते और उसमें ईंट के टुकड़े उछालते तो एक छपाक की आवाज होती और पानी के कुछ छींटे बाहर आ जाते। पानी में कीड़े पड़ गये थे। कई बार पानी के साथ कीड़े भी बाहर आ जाते। बाद में इस कुएं में कूड़ा फेंका जाने लगा। धीरे-धीरे पानी गायब हो गया और बजबजाता हुआ कीचड़ भर बचा जिसमें घिनौने कीड़े रेंगते जोंकें कई बार ऊपर तक चली आतीं और कुएं की जगत पर फिसलती दिखाईं देतीं। कुएं के ऊपर से जो हवा गुजरती उसमें एक जहरीली बदबू फैल जाती। एक-एक कर कुएं में कई ऐसे बच्चे पाये गये जिनकी नाल तक नहीं काटी गयी थी। इनके बारे में पता ही तब चलता है जब कुएं के ऊपर कौव्वे या गिद्ध मंडराने लगते हैं।
ओमप्रकाश के जाने के बाद बितानू ने भी तालाब पर आना बन्द कर दिया। मैं अकेला पड़ गया हूं। मिसिर मास्टर लगभग रोज मुझे पीटते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ओमप्रकाश और उसके घरवालों से गाली उन्होंने मेरी वजह से खायी। मैं अकेला पड़ गया हूं पर इस बीच मुझे वर्जित का चस्का लग चुका है। मैं पेड़ पर नहीं चढ़ पाता। मैं मछली नहीं फंसा पाता। बीड़ी पिये भी बहुत दिन हो गये हैं पर मैं जंगल में अकेले ही भटका करता हूं। पूरे जंगल का स्वाद मुझे पता है। मछली न सही इमली, अमोला, करौंदा, कैथा, झरबेरी या बढ़हल की फुलौरियों का स्वाद मंुह में पानी ला देता है। जब इमली में फलियां नहीं लगी होती हैं तो कई बार मैं इमली की नरम-नवेली पत्तियां खाता हूं। उनमें भी इमली जैसा ताजा खट्टापन होता है। मैंने एक घास भी खोज निकाली है जो तालाब के किनारे की नम जगहों पर पनपती है। इसकी गुच्छेदार पत्तियां इमली से भी ज्यादा खट्टी होती हैं। उनको खाने से कई बार दांत इतने खट्टे हो जाते हैं कि रोटी चबाना तक मुश्किल होता है। पर सबसे ज्यादा फिदा मैं शहतूतों पर हुआ हूं। तालाब के किनारे-किनारे शहतूतों का एक जंगल जैसा है। यहां शहतूतों के बीसियों पेड़ उगे हैं जब उन पर फल आते हैं तो ये फल इतने हरे होते हैं कि उन्हें पत्तियों से अलग देख पाना भी मुश्किल होता है। फिर उन फलों पर एक लाली उतरने लगती है। उधर लाली दिखी नहीं कि मेरे मुंह में पानी आना शुरू हो जाता है और काले फलों के दिखाई देते ही मैं उस पर बेसब्री से टूट पड़ता हूं छोटे-छोटे फल जीभ के जरा-सा दबाव पर ही मुंह में घुल जाते हैं खाते-खाते जीभ लाल हो जाती है। कई बार कपड़ों पर भी दाग पड़ जाते हैं जिन्हें बितानू की माई छुड़ाती है।

ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारी दुनिया के समान्तर स्मृतियों की भी एक जीती-जागती दुनिया है जहां तुम बितानू, ओमप्रकाश और मछलियों की तलाश में भटकते हो। तुम मानते हो कि वहां एक सचमुच का स्कूल है जिसमें मिसिर मास्टर ओर बालगोविन्न मास्टर पढ़ाते हैं और जहां से तुम भागे हुए हो। तुम्हें पता नहीं कि कुएं की दुर्गन्ध शहतूतों में समा चुकी है इसीलिए तुम्हें अभी भी लगता है कि शहतूत दुनिया के सबसे स्वादिष्ट फल हैं।
तुम महानगर में रहते हो। महानगर में आजकल तपती हुई गर्मी पड़ रही है। तुम कई दिनों से एक बाबू से मिलने जा रहे हो जिसने तुम्हारा काम लटका रखा है। धूप और गर्मी बर्दाश्त नहीं होती तो जल्दी पहुंचने के लिए अपनी जेब सहलाते हुए तुम रिक्शा करते हो। तुम ओमप्रकाश की याद में इतने डूबे हुए हो कि तुम्हें पता भी नहीं चल पाता कि जिस रिक्शे पर तुम बैठे हुए हो उसे ओमप्रकाश चला रहा है। रिक्शे से उतरकर तुम आॅफिस जाते हो तो तुम्हें पता चलता है कि जिस बाबू ने तुम्हारा काम रोक रखा है उसका तबादला हो गाया है और उसकी जगह पर अशोक कुमार निर्मल बैठा हुआ है। तुम उसे देखकर खुश हो जाते हो पर वह तुम्हारी यादों में इतना डूबा हुआ है कि तुम्हें पहचान ही नहीं पाता। तुम्हे लगता है कि यह दुनिया एक जंगल है। तब तुम तालाब खोजने लगते हो। तुम्हें तालाब नहीं मिलता, तुम्हें एक नल मिलता है। नल का पानी इतना गर्म है कि तुम्हारे हाथों पर छाले पड़ जाते हैं और तुम्हारा चेहरा शहतूतों की तरह काला पड़ जाता है। तुम्हें शहतूतों की याद आती है। तभी तुम देखते हो कि नल का पानी जहां जाकर इकट्ठा होता है उसके बगल में शहतूत का एक पेड़ है जो फलों से लदा हुआ है। तुम उसके नजदीक जाते हो तो पेड़ तुम्हें अपने घेरे में ले लेता है और तुम्हें छाँट-छाँटकर अपने सबसे मीठे फल देने लगता है। अब तुम बड़े हो गये हो। तुम फलों को घर लाओगे, उन्हें धोओगे तब खाओगे पर तुम ऐसा नहीं करते। पता नहीं एक बचपना तुम्हारे भीतर बचा हुआ है या पेड़ ही बेसब्र हो उठता है कि वह तुम्हारी अंजुरी शहतूतों से भर देता है। तुम एक साथ सारे शहतूत अपने मुंह में भर लेते हो। अचानक तुम्हें जोर की उबकाई आती है। तुम्हें लगता है कि तुमने अपने मुह में रोंयेदार गुजगुजे कीड़े भर लिये हैं। पेड़ तुम्हारा माथा सहलाना चाहता है पर तुम बाहर भागते हो। तुम फिर से नल पर जाओगे और कुल्ला करोगे और आज के बाद शहतूतों की तरफ पलटकर भी नहीं देखोगे। आगे हो सकता है कि तुम किसी ऐसे जंगल में जाकर बस जाओ जहां शहतूत क्या मछली, मेहंदी, इमली, बढ़हल या कमल जैसी चीजें सपनों में भी तुम तक न पहुँच सकें।
मैं इसी बात से तो डरता हूँ।

मनोज कुमार पाण्डेय