Monday, May 19, 2008

सी॰एम॰ का कुत्ता- खब्दू लाल

पिछले महीने हमने पल्लवी त्रिवेदी का व्यंग्य 'आत्मा की तेरहवीं' प्रकाशित किया था। आज हम इन्हीं की व्यंग्य-रचना 'सी॰एम॰ का कुत्ता- खब्दू लाल' प्रस्तुत कर रहे हैं।

ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सी. एम. साहब के बाबा साहब ..अरे उनके पिताजी नहीं उनके सुपुत्र। आजकल बड़े लोगों के बच्चों को बाबा साहब ही कहा जाता है न इसलिए हम भी वही बुलायेंगे। हाँ तो...बाबा साब को एक स्कूल में लंच टाइम में बच्चों का टिफिन ताकते एक देसी कुत्ते पे प्यार आ गया। शायद उसे बहुत जाना पहचाना सा लगा वो कुत्ता। बाद में वो अपने किसी दोस्त को बता रहे थे कि पिताजी के आगे-पीछे कई ऐसे लोग घूमते हैं...बड़े अच्छे लगते हैं। अब उन्हें तो पाल नहीं सकते सो कुत्ता पालने को घर ले आये। बाई साब बहुत भड़कीं, सी.एम. साब बोले कि अच्छी नस्ल का ला देंगे इसको भगाओ। मगर बाबा साब अड़ गए..ज्यादा डांट-डपट हुई तो भूख हड़ताल का एलान कर दिया। पिताजी के गुण जैसे के तैसे उनमे ट्रांसफर हुए थे। खैर..माँ की ममता पसीजी, और उन्होंने अनुमति प्रदान कर दी। बाबा साब ने भी माँ को कभी पता नहीं चलने दिया कि उनके वजन में जो इजाफा हुआ था वो भूख हड़ताल के दौरान ही हुआ था।

खैर कुत्ता घर आ गया...नाम सोचे गए..टौमी, मोती,झबरू, इत्यादी सभी लेटेस्ट नाम बाबा साब को बताये गए...पर बाबा साब जानवरों के सच्चे मित्र थे...उन्होंने कहा कि क्यों जानवरों को अलग नाम दिए जाएं......जो नाम इंसानों के होते हैं वही कुत्ते को भी दिया जायेगा। उन्हें पिताजी के सेक्रेटरी 'खब्दू लाल ' का नाम बहुत पसंद आया...सो तय हुआ कि नए मेहमान को भी इसी नाम से पुकारा जायेगा। सेक्रेटरी ने माथा पीट लिया..बहुत कोशिश कि उनका खुद का नाम परिवर्तित हो जाए लें इस उम्र में नाम बदलने का कोई नियम नहीं था सो उन्होने 'के.एल.' लिखना शुरू कर दिया!पहले तो बड़ी मुश्किल हुई ,जब कोई असली खब्दू को बुलाता तो खुद दौडे चले जाते। अब थोडा कंट्रोल कर लिया है खुद को।

खब्दू भी अपने नए घर में बहुत प्रसन्न था....बेरोक-टोक सी.एम. साहब के ऑफिस में जाकर बैठता। एक-दो बार सी.एम. साहब के साथ गाड़ी में बैठकर किसी प्रोग्राम में भी हो आया..वहाँ उसने दूसरे कुत्ते को आदमियों को सूंघते देखा..अगले दिन से उसने भी ऑफिस में आने वाले हर आदमी को सूंघना शुरू कर दिया। जिनके ऊपर वह भौंकता, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। हर आदमी को खब्दू की सूंघ परीक्षा को पास करना अनिवार्य था। सी.एम. साहब भी बड़े खुश थे कि बिना ट्रेंड किये ही कुत्ता इतना होशियार है। सी.एम. साहब को कभी पता नहीं चल पाया लेकिन आगंतुकों को पता चल गया था कि खब्दू उन लोगों पर भौंकता है जिनकी जेब में खब्दू के लिए कोई खाद्य सामग्री नहीं होती है। इसलिए अब खब्दू कम ही भौंकता था। सी.एम. साहब आज तक यही सोचते हैं कि खब्दू विस्फोटक सामग्री सूंघता है।

अब खब्दू की दोस्ती सी.एम. साहब के चमचों से भी हो गयी थी। चमचा पार्टी समझ गयी थी कि अगर सी.एम. साहब को खुश करना है तो खब्दू को खुश रखना अनिवार्य है। खब्दू भी गाहे-बा-गाहे धौंस जमाता रहता था कि अगर कहा नहीं माना तो कमरे में घुसोगे तो भौंक दूंगा। खब्दू के लिए हर प्रकार की हड्डी का इंतजाम करना, मालिश वाले को बुलाना, बाहर घुमाने ले जाने से लेकर देसी विदेशी कुत्तियाओं का इंतजाम करना इन्हीं चमचों का काम था। जिसे वे खुशी-खुशी अंजाम देते।

खब्दू प्रतिभा का अत्यंत धनी था। सी. एम. हाउस में रहकर अल्प समय में ही उसने अपनी कुर्सी बचाए रखने के तमाम गुर सीख लिए थे। हाँलाकि उसे बाबा साब की कम्पनी बिलकुल अच्छी नहीं लगती लेकिन उसने बाबा साब को कभी महसूस नहीं होने दिया कि उसका समय बर्बाद हो रहा है उनके साथ। एक-आध बार वो सी. एम साब के साथ आदिवासियों और गरीबों के घर हो आया था...वहीं से उसने सीखा था कि बेमन से भी कैसे लोगों के साथ घुला मिला जाता है। बाबा साहब खब्दू को बहुत प्यार करते थे और खब्दू भी प्यार का दिखावा बहुत कुशलता से करता था। बाबा साहब कभी लाड़ में आकर पूछते कि वो उन्हें कभी छोड़कर तो नहीं जायेगा? खब्दू चाट चाटकर इशारों में जिन्दगी भर साथ निभाने का वादा करता। एक-आध आम सभा में सी. एम. साहब के साथ जाकर उसने वादे करने की भी ट्रेनिंग ले ली थी। इतना वह जानता था कि जो उसे लेकर आया है उससे बिगाड़ हो गया तो पल भर में वह सड़क पर आ जायेगा।

कुछ ही वक्त में उसने यह भी जान लिया कि अच्छा वक्त हमेशा नहीं रहता, इसलिए आगे के लिए धन संचय करने में ही भलाई है। उसने देखा था कि सी. एम. साहब. भी पांच साल के बाद का इंतजाम करने में जी जान से जुटे हुए हैं। अब उसने सी. एम. साहब से मिलाने के बदले बाकायदा शुल्क वसूलना शुरू कर दिया। राशि भी इतनी थी कि हर आम आदमी अफोर्ड कर सकता था। बगीचे में एक पेड़ के नीचे खब्दू ने अपनी संचित राशि दबानी शुरू कर दी थी।

अभी तक सब कुछ बहुत बढ़िया चल रहा था लेकिन एक दिन तय हुआ कि बाबा साहब को आगे की पढाई के लिए किसी दूसरे शहर के होस्टल में भेजा जायेगा, खब्दू खुश था कि चलो अब उसे बाबा साब के साथ बोर नहीं होना पड़ेगा लेकिन बाबा साब जिद पर अड़ गए कि खब्दू भी उनके साथ ही जायेगा। खब्दू को बहुत गुस्सा आया बाबा साब पर, उसका मन हुआ कि उछल कर काट ले उनको लेकिन सी.एम. हाउस में आकर खब्दू ने उसकी सहज कुत्ताई छोड़कर इंसानी प्रवृत्ति अपना ली थी। अब हर काम को करने से पहले नफा-नुकसान सोचने लगा था। इसलिए मन मसोस कर रह गया। सी.एम. साहब ने भी अनुमति दे दी। खब्दू को पता था कि होस्टल में जाने पर उसे यहाँ जैसे आराम नहीं मिलेंगे और न ही ऐसा दबदबा होगा। खैर प्रत्यक्ष में खब्दू ने हाँ कर दी। जाने का दिन आया, खब्दू ने अपना सारा धन समेटकर अपने बक्से में रख लिया। खब्दू बाबा साब के साथ ट्रेन में सवार हुआ.....पर रास्ते जैसे ही दूसरे स्टेट की राजधानी आई,खब्दू चुपचाप बाबा साब को सोते छोड़कर नीचे उतर गया, बाबा साब के रास्ते में खाने के बिस्कुट भी लगे हाथ अपने बक्से में रख लिए। जब बाबा साब अपने गंतव्य पर पहुंचे तो खब्दू को न देखकर बहुत रोये कलपे..मगर चमचा पार्टी ने यह कहकर समझा दिया कि शायद दरवाजे के पास खडे होकर यात्रा करते में खब्दू नीचे गिर कर मर गया होगा। बाबा साब ने भी खब्दू की तस्वीर पर माला चढाकर अपने कमरे में टांग ली।

और खब्दू ....उसने पता लगा लिया है कि नए स्टेट के सी.एम. का बेटा किस स्कूल में पढता है। और आजकल वह बिना नागा लंच टाइम में स्कूल जाकर बैठता है। आइये प्रार्थना करें कि खब्दू को जल्दी ही नए बाबा साब सी.एम. हाउस में लिवा ले जाएं...।

Monday, May 12, 2008

रॉयल्टी (कहानी)

‘अवलोकितेश्वर’ नाम इन्हें इनके पिताजी ने दिया था। दो पुत्रियों के बाद इनका जन्म हुआ था। परिवार संयुक्त होने की वज़ह से तथा वंश में अट्ठारह वर्षों के बाद पुत्र की पैदाईश ने परिवार को उत्सव के लिए भले ही पुख़्ता वज़हें दे दी हों किन्तु, परिवार के पुरोहित ने इनके जन्म को इनके पिता के लिए अशुभ बताया तथा जन्म के तीसरे वर्ष को सर्वाधिक घातक। माताजी चिन्तित रहने लगी, चिन्ता जायज़ भी थी चूँकि पिताजी बचपन से ही शारीरिक रूप से कमजोर रहे व साथ ही दिल के मरीज थे।

डेढ़ वर्ष बाद ही घर में एक बार फिर पुत्र की किलकारियाँ गूँजी। इस बार पिताजी ने कुल-पुरोहित से कुण्डली वगैरह नहीं बनवाई पर जन्मोत्सव विधिवत् किया। सशंकित माताजी को कुल-पुरोहित की बातें हमेशा याद रही, यह बात संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों पर जाहिर हो चुकी थी, भले ही डेढ़ वर्ष का अबोध तब तक न समझ पाया था। जिस बच्चे के जन्म पर भव्य उत्सव हुआ था, वह उपेक्षित रहने लगा और शिशु ऱूप में दूसरे पुत्र को ज़्यादा तरज़ीह दी जाने लगी।

गुजरते समय के साथ शंका से जन्मी उपेक्षा ने, पिताजी को छोड़, पूरे परिवार की आदत का शक्‍ल अख़्तियार कर लिया था। घर में किसी को बीमारी होती, सारा दोष अबोध के सिर लगता – परिवार का पैतृक व्यवसाय बिखराव के कगार पर आया, दोषारोपण अबोध पर – सांझा चूल्हा टूट गया, दोष अबोध के माथे लगा। ख़ैर, पिताजी चौथे-पाँचवे-छठे क्या दसवें वर्ष तक सकुशल रहे। लेकिन, अवलोकितेश्वर शायद उतने अबोध नहीं। दुनिया भर की उपेक्षाओं ने (माँ अपने आप में एक दुनिया होती है) उसे समय से पहले बड़ा बना रहा था। सगी माता का व्यवहार सौतेलों को दहला देने जैसा होता। बड़ा बेटा सरकारी स्कूल जाता तो छोटा पब्लिक।

ग्यारहवें वर्ष पिताजी बीमार पडे़ और बीमार रहने लगे। फिर भी पैतृक व्यवसाय से नियमित आय आती रही। घर में अवलोकितेश्वर के अलावे दो बड़ी बहनें व एक छोटा भाई था पर, सबसे बड़ा पहाड़ टूटा था, उन्हीं के ऊपर। जो भी हो, समय उनके लिए तेजी से गुजर रहा था या इसे यूँ कहें कि वे तेजी से बडे हो रहे थे। पिताजी के मदद के बहाने वे प्रिंटिंग के पैतृक व्यवसाय से जुड़े रहते। घर पर अन्य सदस्यों के लिए ज़िन्दगी सामान्य थी।

अवलोकितेश्वर दसवीं बोर्ड की परीक्षा दे रहे थे उसी दौरान पिताजी चल बसे। बड़े लड़के होने के कारण परिवार के भरण-पोषण का गुरू दायित्व उन पर आना था, आया भी। वह पीछे नहीं हटे। पढ़ने की उत्कट इच्छा भी थी, सामाजिकता भी। पिताजी के जाने के साथ एक सच्चा दोस्त-हमदर्द सब चला गया था। प्रिंटिंग के जमे व्यवसाय को भी किशोर संरक्षक का साथ रास आने लगा, हालात सामान्य होते गए।

मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी उतीर्ण हुए अवलोकितेश्वर ने घर में बिना किसी को बताए पत्राचार माध्यम से इन्टरमीडिएट में दाखिला ले लिया। और, इच्छा के विरूद्ध कला विषयों में ही सही, पर आगे की पढ़ाई जारी रखी। इस बीच, छिटपुट रचनाएँ लिखकर छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में भेजने लगे। परिवार में माँ ने बड़ी बहन की शादी तय कर डाली। सारे दायित्व का सकुशल निर्वहन करते हुए उन्होंने इन्टरमीडिएट कला की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उतीर्ण कर ली। छोटा भाई चन्दन भी उसी वर्ष अंग्रेजी माध्यम से मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उतीर्ण किया, माँ ने मुहल्ले में मिठाइयाँ बँटवाया। शहर के नामी स्कूल में बारहवीं की पढ़ाई के लिए उनका दाखिला करवाया, विज्ञान शाखा में।

अवलोकितेश्वर ने पुनः बिना किसी को बताए पत्राचार से ही स्नातक के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। घर की स्थिति सामान्य करने की कोशिश करते हुए वे दुकान में ही खाली समय में पढ़ते-नोट्स बनाते। इधर, चन्दन ने इन्टरमीडिएट, विज्ञान से प्रथम श्रेणी

में उतीर्ण कर ली।

माँ के सामने दो बड़े कार्य थे, दूसरी बेटी का ब्याह और चन्दन को इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए भेजना। उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस बेचने का निर्णय लिया, चूँकि सारी जमा-पूँजी तो बड़ी बेटी के ब्याह में ही ख़र्च हो गया था। प्रेस बिक गया। दूसरी बेटी का विवाह हो गया और चन्दन चले गए इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। घर में बच गए अवलोकितेश्वर और माँ। स्नातक का आख़िरी साल था, मुश्किलें मानों हर रोज अपना क़द बढ़ाने पर तुली थीं। बहुत कठिनाई से परीक्षा दे पाए किन्तु, उतीर्ण हुए प्रथम श्रेणी में ही।

अब समस्या थी आमदनी के निश्चित स्रोत की क्योंकि विवाह में ख़र्चे के बाद इन्जीनियरिंग के पढ़ाई के ख़र्च के साथ दो आदमी का गुजारा मुश्किल था। उन्होंने दिल्ली जाने की इज़ाज़त ली और दिल्ली आकर एक समाचार-पत्र में अस्थाई नौकरी कर ली। साथ ही, एक बार फिर पत्राचार से पत्रकारिता की पढ़ाई करने लगे। हर महीने वे माँ को ख़र्च के लिए पैसे भेजने लगे। माँ ने इन्हें कभी न चिट्ठी लिखी, न कभी बुलाया। बहनों को भी ये ख़ुद फोन करके कुशल-क्षेम पूछा करते। बीच-बीच में छुट्टी लेकर कई बार घर भी गए।

संयोग से पत्रकारिता की पढ़ाई समाप्त होते ही एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में उप-सम्पादक की स्थाई नौकरी मिल गई। छोटे भाई चन्दन की इन्जीनियरिंग की पढ़ाई भी समाप्त होने को थी। जिस दिन इन्होंने अपनी नौकरी लगने की ख़बर देने को माँ को फोन किया पता चला कि चन्दन ने किसी सहपाठी से विवाह कर लिया और वे लोग स्थाई रूप से विदेश जा रहे थे। ख़बर के बदले ख़बर, दोनों तरफ़ ख़ुशी थी, अप्रत्याशा थी। कौन कितना ख़ुश था राम जाने पर, अवलोकितेश्वर ने सहजता बनाए रखी।

हर महीने वे नियम से माँ को ख़र्चे के लिए पैसे भेजते और उनकी कुशलता की जानकारी लेते।

मैं इनके घर के सामने वाले घर में रहती थी और एक अत्यन्त साधारण (निम्नमध्यमवर्गीय) घर की लड़की थी। अवलोकितेश्वर तरक्की करते हुए सम्मानजनक स्थिति में पहुँच चुके थे। एक दिन ख़ुद ही मेरे पिताजी से मिलने आए और मुझसे विवाह का प्रस्ताव रख डाला। मेरे पिताजी बिना मेहनत के एक उच्च-मध्यमवर्गीय दामाद पाकर निहाल थे, मैं ठगी-सी।

हमारा विवाह हुआ। इनके घर से शायद कोई नजदीकी नहीं आया था (माँ भी नहीं),कुछ दूर-दराज़ के रिश्तेदार ज़रूर आए थे। विवाह के बाद भी ये अपनी तरफ से सभी को फोन करते, मिलते रहते। मुझे अपने घर भी ले गए – माँ से मिलवाया – बहनों-जीजाओं से मिलवाया। हर जगह हमारा सामान्य-सा स्वागत हुआ पर, इनका उत्साह कम नहीं था भले ही व्यक्तित्व अत्यन्त गम्भीर था। उस वक़्त मुझे लगा था कि बड़े घरों में लोग भी बहुत गम्भीर क़िस्म के होते हैं।

समय गुजरा, हमारे भी दो बच्चे हुए – मैत्रेय और नेहल। इस दौरान चन्दन कभी भी भारत नहीं आए। हमारे बच्चे बड़े होने लगे। जितनी चाहते-इच्छाएँ अवलोकितेश्वर ने अधूरे रख छोड़े थे, सब इन दोनों के माध्यम से पूरे करने लगे। अपने कहानी-काव्य-निबंध संकलनों के प्रकाशन से मिलने वाले राशि को वे मेरे नाम जमा करवाते। हर महीने वे नियम से माँ को ख़र्चे के लिए पैसे भेजते और उनकी कुशलता की जानकारी लेते।

देखते-देखते हमारे बच्चे भी बारी-बारी बारहवीं की परीक्षा विज्ञान विषयों से उतीर्ण कर ली। दोनों को ही इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए इन्होंने रीजनल कॉलेजों में डलवा दिया। इन्होंने शायद ही कभी अपने अतीत या अपने परिवार के विषय में कोई बात मुझसे की हो। किसी महीने कुछ आर्थिक तंगी के कारण मैंने इन्हें काफी हल्के ढ़ंग से माँ को कुछ कम पैसे भेजने को की बात कही इस तर्क के साथ कि उनके दूसरे बच्चे भी तो हैं। अपने आदत के मुताबिक़ ये न तो खीझे, न गुस्साए, बस उठे और जाकर सबसे पहले माँ को पैसे भेज आए। उस रात मुझे उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे उन्हें अच्छे-बुरे हर तरह के रचना व संग्रह के एवज में रॉयल्टी मिलती है, वैसे ही उनकी माँ भी उनके द्वारा रॉयल्टी की अधिकारिणी है। हमारे बच्चों ने भी शायद पिता की सीख ली हो ! ख़ैर, माताजी की ज़िन्दगी तक वे बिना कोताही बरते इस को जारी रखा।

इनके कविताओं-कहानियों में मुझे अर्द्धनग्न-रूँआसे-विखण्डित पात्रों की आत्माएँ जरूर झाँकती नज़र आती थी। किन्तु, इस लेखक की मानसिक युद्धों व अतीत के झंझावातों की कहानियों से मैं अब तक अपरिचित थी। अचानक एक दिन इनको दफ़्तर में ही दिल का दौरा पड़ा। इन्हें इनके सह-कर्मियों ने अस्पताल पहुँचाकर मुझे फोन किया। हमारे दोनों बच्चे बाहर थे, मैं बेतहाशा अस्पताल पहुँची। डॉक्टरों ने इन्हें ख़तरे से बाहर बताया तब मेरी जान में जान लौटी। चूँकि, पहला और हल्का दौरा था अतः डॉक्टरों ने एहतियात के साथ दूसरे दिन ही घर जाने की इज़ाज़त दे दी। अगले कुछ दिन पूरे आराम की सलाह दी गई थी।

उन्हीं दिनों मैंने पहली बार चट्टान को पिघलते देखा – आसमान से व्यक्तित्व की बिखराहट देखी और लगा कि इनके ही किसी कहानी या काव्य का कोई पात्र सजीव हो उठा हो। दोनों बच्चे घर आए हुए थे। कई दिनों तक स्याह की ओट से सूरज चिपका रहा। घर में ख़ामोशी पसरी रही। कई वर्षों-दशकों तक चुप रहता आया एक शख़्स शायद पहली बार कुछ बोला-बरसा और कई दिनों तक बिना रूके, फिर हम उन्हें सुनते रहे। छठे दिन रात में इन्हें दूसरा और अन्तिम दौरा पड़ा। पर, इन पाँच रातों में हम तीनों ने उनके साथ पाँच दशकों की बेतरतीब ज़िन्दगी जी ली थी। किसी की आँख में कुछ बचा ही नहीं था – न आँसू – न नींद – न ख़्वाब !

आज इनकी तेरहवीं थी। और, मैं इन्हें दिए वादे के कारण अपनी डायरी लेकर लिखने बैठ गई हूँ। वादा क्या कहूँ ? जीवन जीने के बिल्कुल नायाब तरीके इन्होंने मुझे सिखाए थे, बताए थे। कभी-कभी तो मैं हैरान रह जाती इनकी दार्शनिकता में पगी बातों से, किन्तु, वे अक्षरशः व्यवहारिक और ग्राह्य भी हुआ करती थी। ख़ैर, इन्होंने ही मुझे सिखाया था कि जब भी रोने का जी करे — कोई बेतहाशा याद आए – कोई चिन्ता तक़लीफ दे तो मन के समस्त भावों को लिखने लग जाओ। इससे न सिर्फ अन्दर की बेचैनी समाप्त होगी बल्कि नए रास्ते भी कदाचित् सूझ जाएंगें। बेवक़्त रोने को अनुचित भी मानते थे, वज़ह चाहे जितने भी गम्भीर हो। मुझसे तो इन्होंने जाते-जाते तक यही वादा करवाया कि न मैं उन्हें याद करके रोऊँ और न ही किसी की आश्रिता होऊँ। जब तक जीऊँ, स्व-निर्भर रहूँ और उनके लिखे क़िताबों से मिलने वाले रॉयल्टी से अपना व अपने सामाजिक दायित्व पूरी करती रहूँ।

कहानीकार- अभिषेक पाटनी

Friday, May 2, 2008

कहानी - मातमपुर्सी

इस बार भी घर पहुंचने से पहले ही बाउजी ने मेरे लिए मिलने जुलने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त बना रखी है। इस सूची में कुछ नामों के आगे उन्होंने ख़ास निशान लगा रखे हैं, जिसका मतलब है, मुझे उनसे तो ज़रूर ही मिलना है।
इस शहर को हमेशा के लिए छोड़ने के बाद अब यहां से मेरा नाता सिर्फ़ इतना ही रहा है कि साल छ: महीने में हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर मेहमानों की तरह आता हूं और अपने खास खास दोस्तों से मिल कर या फिर मां बाप के साथ भरपूर वक्त गुज़ार कर लौट जाता हूं। रिश्तेदारों के यहां जाना कभी कभार ही हो पाता है। हर बार यही सोच कर आता हूं कि इस बार सब से मिलूंगा, सब की नाराज़गी दूर करूंगा, लेकिन यह कभी भी संभव नहीं हो पाया है। हर बार मुझसे नाराज़ होने वाले मित्रों की संख्या बढ़ती रहती है और मैं हर बार समय की कमी का रोना रोते हुए लौट जाता हूं।
लेकिन बाउजी की इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम देखते ही मैं चौंका हूं। उस पर उन्होंने दोहरा निशान लगा रखा है। मैंने उनकी तरफ सवालिया निगाह से देखा है। उन्होंने हौले से कहा है - मैंने तुझे लिखा भी था कि मेहता की वाइफ गुज़र गयी है। मैंने तुझे अफ़सोस की चिट्ठी लिखने के लिए भी लिखा था। अभी बेचारा बीवी के सदमे से उबरा भी नहीं था कि अब महीना भर पहले संदीप भी नहीं रहा। मैं अवाक रह गया - अरे .. संदीप.. क्या हुआ था उसे? वह तो भला चंगा था, बल्कि उसकी शादी तो साल भी पहले. ही हुई थी। मैंने उसे कार्ड भी भेजा था।
आगे की बात मां ने पूरी की है - शांति बेचारी ज़िदगी भर खटती रही और अकेले बच्चों को पढ़ाती लिखाती रही। तेरे अंकल तो नौकरी के चक्कर में हमेशा दौरों पर रहे और उसी ने बच्चों को पढ़ाया लिखाया। जब आराम करने का वक्त आया तो कैंसर उसे खा गया। मां का गला भर आया है।
मां बता रही है कि संदीप कानपुर से एक मैच खेल कर लौट रहा था। रास्ते में किसी बस अड्डे पर कुछ खा लिया होगा उसने जिससे फूड पाइज़निंग हो गयी और यहां तक तो पहुंचते पहुंचते तो उसकी यह हालत हो गयी थी कि वहीं बस अड्डे से दो एक लोग उसे अस्पताल ले गये। जब तक घर में खबर पहुंचती, वह तो खतम हो चुका था। पता भी नहीं चल पाया कि उसने किस शहर के बस अड्डे पर क्या खाया था। अभी बेचारी शांति की राख भी ठण्डी नहीं हुई थी कि .. .. ..
मेरे सामने दोहरी दुविधा है। मैं संदीप की बीवी से पहली ही बार और वह भी कैसे दुखद मौके पर मिल रहा हूं। पता चला था संदीप की पत्नी बहुत ही खूबसूरत और साथ ही स्मार्ट भी है। शांति आंटी और अंकल भी हमेशा उसकी तारीफ करते रहते थे। मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि इतनी अच्छी लड़की को शादी के सिर्फ़ साल भर के भीतर विधवा हो जाना पड़ा। क्‍या सोचती होगी वह भी कि पहले सास गयी और अब खुद का सुहाग ही उजड़ गया।
मेरा संकट है, मैं ऐसे मौकों पर बहुत ज्यादा नर्वस हो जाता हूं। मातमपुर्सी के लिए मेरे मुंह से लफ्ज़ ही नहीं निकलते। मुझे समझ ही नहीं आता कि क्या कहा जाये और कैसे कहा जाये। घबरा रहा हूं कि मैं उन लोगों का सामना कैसे करूंगा। एक तरफ अंकल हैं जो मुझे बहुत मानते हैं और इन दो महीनों में ही पत्नी और जवान बेटा खो चुके हैं और दूसरी तरफ़ संदीप की पत्नी है जिससे मैं पहली बार मिल रहा हूं।
इससे पहले कि मैं झुक कर अंकल के पैर छूता, अंकल ने बीच में ही रोक कर मुझे गले से लगा लिया है। शिकवा कर रहे हें कि मैं कितनी बार यहां आया और घर पर एक बार भी नहीं आया। मेरे पास कोई जवाब नहीं है और मैं झेंपी हुई हसीं हंस कर रह जाता हूं। देखता हूं इस बीच वे पहले की तुलना में बहुत कमज़ोर लग रहे हैं। आखिर दो मौतों का ग़म झेलना कोई हंसीं खेल नहीं। मैं संदीप या आंटी के बारे में कुछ कहने को होता हूं कि वे मुझसे पूछ रहे हैं बंबई के हालचाल और बाल बच्चों के बारे में। मैंने एक सवाल का जवाब दिया नहीं होता कि वे दूसरा सवाल दाग देते हैं। मैं खुद किसी तरह से बातचीत का सिरा उस तरफ मोड़ना चाहता हूं ताकि अफसोस के दो शब्द तो कह सकूं। बाउजी ने एकाध बार बात घुमाने की कोशिश भी की लेकिन मेहता अंकल हैं कि हंस-हंस कर इधर उधर की बातें कर रहे हैं। ठहाके लगा रहे हैं। तभी पारूल पानी की ट्रे ले कर आयी है। मैं उठ कर उसे हेलो कहता हूं। वह हौले से जवाब देती है। बेहद सौम्य और खूबसूरत लड़की। चेहरे पर ग़ज़ब का आत्मविश्वास। लेकिन हाल ही के दोहरे सदमे ने उसके चेहरे का सारा रस और नूर छीन लिया है। शादी के साल भर के भीतर उसकी जिंदगी क्या से क्या हो गयी। इतने अरसे में तो पति पत्नी एक दूजे को ढंग से पहचान भी नहीं पाते और .. .. ..।
तय नहीं कर पा रहा हूं बातचीत किस तरह से शुरू करूं। और कोई मौका होता तो कोई भी हलकी फुलकी बात कही जा सकती थी लेकिन इस मौके पर.. ..। तभी अंकल ने उसे फरमान सुना दिया है - अरे भई, दीपक को कुछ चाय नाश्ता कराओ। बरसों बाद हमारे घर आया है। और वे गाने लगे हैं - बंबई से आया मेरा दोस्त।
पारूल चाय का इंतज़ाम करने चली गयी है। अंकल ने बातचीत को अलग ही दिशा में मोड़ दिया है। वे कोई पुराना किस्सा सुनाने लगे हैं। मैं फिर संदीप के बारे में बात करना ही चाहता हूं कि पारुल चाय ले कर आ गयी और मेरा वाक्य अनकहा ही रह गया।
चाय पारुल ने खुद बना कर सबको दी है। अचानक सब खामोश हो गये हैं और कुछ देर तक सिर्फ़ चाय की चुस्कियों की ही आवाज़ आती रही। चाय खत्म हुई ही है कि पारुल ने अगला फरमान सुना दिया है - आप लोग खाना खा कर ही जायेंगे। पारुल ने जिस अपनेपन और अधिकार के साथ कहा है, उसमें मना करने की गुंजाइश ही नहीं है।
पारुल के चले जाने के बाद भी मैं देर तक बातचीत के ऐसे सूत्र तलाशता रहा कि किसी भी बहाने से सही, कम से कम दो शब्द अफसोस के कह ही दूं। दो एक बार आंटी और संदीप का ज़िक्र भी आया लेधिक बातचीत आये-गये तरीके से आये बढ़ गयी। में हैरान हो रहा हूं कि अभी तो आंटी और संदीप को गुज़रे महीना भर ही हुआ है, और अंकल ने उन्हें अपनी यादों तक से उतार दिया है।
अब बाउजी और मेहता अंकल की बातचीत अपनी निर्धारित गति से अपनी पुरानी लकीर पर चल पड़ी है और मैं उसमें कहीं नहीं हूं।
मैं मौका देख कर कमरे से बाहर आ गया हूं और कुछ सोच कर रसोई में चला गया हूं जहां पारुल खाना बनाने की तैयारी कर रही है। मुझे देखते ही पारुल ने उदासी भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया है। मैं यहां भी बातचीत शुरू करने के लिए सूत्र तलाश रहा हूं। हम दोनों ही चुप हैं।
पारूल ने ही उबारा है मुझे - बंबई से कब आये आप?
आज सुबह ही। आते ही संदीप का पता चला तो.. .. .. ..।
मैंने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है। पारूल भी चुप है। मैं ही बात का सिलसिला आगे बढ़ाता हूं - दरअसल, मैं आप लोगों की शादी में नहीं आ पाया था इसलिए आपसे नहीं मिल पाया था लेकिन संदीप के साथ मेरी खूब जमती थी। मैं आपसे मिल भी रहा हूं तो इस हाल में। मेरी आवाज भर्रा गयी है।
पारुल की आंखें भर आयी हैं। थोड़ी देर बाद उसी ने बातचीत का सिरा थामा है - मैं आपसे पहली बार मिल रही हूं लेकिन आप के बारे में काफी कुछ जानती हूं। पापा और संदीप अक्सर आपकी बातें करते रहते थे।
पारूल ने शायद जानबूझ कर बात का विषय बदला है।
मैंने भी बात को मोड़ देने की नीयत से कहा - मैं कुछ मदद करुं क्या?
मुझे लगा, यहां उसके साथ कुछ और वक्त बिताया जाना चाहिये।
-नहीं, बस सब कुछ तैयार ही है।
-आपने बेकार में तकलीफ़ की।
-इसमें तकलीफ़ की क्या बात, मुझे खाना तो बनाना ही था। और फिर मेरे घर तो आप पहली ही बार आये हैं। संदीप होते तो भी आप खाना खाते ही। उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।
-नहीं यह बात नहीं है। दरअसल.. .... .. .. ।
उसने कोई जवाब नहीं दिया है।
-अब क्या करने का इरादा है। मैंने बातचीत को भविष्य की तरफ मोड़ दिया है।
-सोच रही हूं घर पर ही रह कर कमर्शियल आर्ट का अपना पुराना काम शुरू करूं। संदीप कब से पीछे पड़े थे कि सारा दिन घर पर बैठी रहती हो, कुछ काम ही कर लो। पहले मम्मी जी की बीमारी थी फिर ये दोहरे हादसे। मैं तो एकदम अकेली पड़ गयी हूं। मुझे क्या पता था कि जब संदीप की बात मानने का वक्त आयेगा, तब वही नहीं होगा .. .. .. ..।
-मेरी मदद की जरूरत हो तो बताना।
-बताऊंगी, अभी कब तक रहेंगे यहां?
-दसेक दिन तो हूं ही। आऊंगा फिर मिलने। बल्कि आप का उस तरफ आना हो तो..।
-घर से निकलना नहीं हो पाता। फिर भी आऊंगी किसी दिन।
तभी अंकल की आवाज आयी है - अरे भई, यहां भी कोई आपका इंतज़ार कर रहा है। थोड़ी सी कम्पनी हमें भी दे दो। मैं पारुल को वहीं छोड़ कर ड्राइंग रूम में वापिस आता हूं।
देखता हूं - अंकल ने बोतल और तीन गिलास सजा रखे हैं।
मुझे देखते ही उन्होंने पूछा है- अभी भी अपने बाप से छुप कर पीते हो या उसके साथ भी पीनी शुरू कर दी है ?
और उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया है।
-आओ बरखुरदार. तुम्हारी इस विजिट को सेलिब्रेट करें।
मुझे समझ में नहीं आ रहा, पैंसठ साल का यह बूढ़ा और कमज़ोर आदमी दोहरी मौतों के दुख से सचमुच उबर चुका है या इन ठहाकों, हंसी मज़ाक और शराब के गिलासों के पीछे अपना दुख जबरन हमसे छुपा रहा है। बाउजी इस वक्त खिड़की के बाहर देख रहे हैं।