Tuesday, July 13, 2010

बलवा हुजूम ‍ः मिथिलेश प्रियदर्शी

दोस्तो,

किन्हीं तकनीकी कारणों से हम सोमवार की कहानी को ठीक समय पर नहीं प्रकाशित कर सके, उस बात का हमें खेद है। युवा कहानीकारों की कहानियों के प्रकाशन की शृंखला में इस बार पढ़िए युवा कहानीकार मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी- 'बलवा हुजूम'।


बलवा हुजूम


यकीन मानें मेरा। खूब खुश हो रहा हूँ, अपने भीतर का सब कुछ आपके आगे उड़ेलकर। अपनी बातें आपकी भाषा में लिखकर। इस तरह बातें करना वाकई बड़ा सहज और मजेदार है।
अक्षरों के टेढ़े-मेढ़ेपन पर मत जाइये। ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। बस ‘क‘ और ‘फ‘ तथा ‘म‘ और ‘भ‘ और कभी कभी ‘घ‘ और ‘ध‘ को पढ़ते समय सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल मेरी उँगलियां लकीरनुमा छत खींच कर उसके नीचे शब्दों को लटकाने की आदी नहीं है, इसलिए दिखने और लिखने में लगभग एक समान लग रहे अक्षरों के साथ गड़बड़ी की संभावना का बन जाना मुश्किल नहीं है।
जमीन पर पतली लकड़ी से पाठ सिखाते समय नानूसान कहते, ‘‘शब्द जिन्दा होते हैं। नीचे मिट्टी में लिख रहे हो तब तक ठीक है। कागज पर बिना रेखा खींचे शब्दों को हवा में लटकने दोगे, कागज हिलाते ही वे गिर पड़ेंगे।‘‘ मैं विस्मित होकर उन्हें ताकता, वे मुस्कुराते और ठुड्डी पर टिकी उनकी लंबी सफेद दाढ़ी थोडी़ और लंबी हो जाती।
सीखने के शुरूआती दौर थे, जब मैं ‘क‘ और ‘फ‘ में लगातार घालमेल कर रहा था। नानूसान मुझसे बार-बार ‘काफ्का‘ लिखवा रहे थे। जमीन पर लिखते-मिटाते एकबार मैंने उनसे पूछ दिया ‘‘काफ्का माने?‘‘
’’बहुत पहले पैदा हुआ बाहर देश का एक लेखक। उसकी किताबें तुम्हें पढ़ाऊँगा, जब हम यहाँ से बाहर होंगे।‘‘
आगे के कई दिनों तक अनायास मेरे हाथ तिनके से ‘‘काफ्का‘‘ लिखते रहे थे।
कईयों के लिए मेरा इस तरह से फर्राटेदार लिखना, समझना एकदम से दांतों के नीचे उँगली रख लेने वाली बात हो सकती है। दुनिया-जहान में आजकल होने वाले कई अजूबों पर सिर हिलाकर आश्चर्यमिश्रित सहमति कायम की जा सकती है, जैसे कि कल को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का पद पट्टे पर मिलने लग जाए (लोकतंत्र की स्थिति समझाते हुए नानूसान कहा करते हैं), या फिर कानून के मोटे पोथे में एक पन्ना और जुड़ जाए जो सोचने को अपराध मानने और उसपर दण्ड देने पर रंगा हो (कानून व्यवस्था की बात निकलने पर उन्होंने यह बात कही थी), या यह कि शहर के तमाम चिड़ियाघर बंदरों, सियारों के साथ-साथ पेड़ भी दिखाने लग जाएं या कि पीने के पानी के लिए समन्दर से ही मोटी-मोटी पाईप लाइनें जोड़ी जाने लगे (पर्यावरण के लगातार छीजते जाने पर चिन्तित होकर फीकी हंसी के साथ नानूसान ये बातें कहते हैं)।
ऐसी और न जाने कितनी अजीबोगरीब बातें, जो कल को हकीकत हो जा सकने वाली हों, बड़ी तेजी से फैलती समझदारी के कारण इन पर यकीन कर हामी भरने वालों और बातें करने पर भरसक चिन्तित होने की कोशिश करने वालों की संख्या खूब-खूब है। पर मेरा या मुझ जैसे एक निपट जंगली आदिवासी का जेल में या जंगल में रहकर फर्राटेदार लिखना-पढ़ना, वह भी उस भाषा में जो धरती की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा हो। कईयों के लिए यह वाकई अविश्वास से भरकर सिर धुनने वाली बात है। पर होती रहे। यहाँ तो प्रमाण है, इस लिसलिसहे स्याही से बनते शब्दों से पटता जाता यह कागज।
आगे बातें शुरू करने से पहले मैं अपने उन दोस्तों का नाम लेना चाहूँगा, जिन्होंने अपने असीम यातनाओं से भरे दिन-रात से कुछ बेहद धैर्य वाले घंटे निकाले, जिनकी बदौलत ढेलकुशी चलाने वाली मेरी उँगलियां अक्षर गढ़ने लगीं।
नानूसान, मेट, और बुच्चू। लेकिन सबसे पहले नानूसान क्योंकि लिखने के लिए जरूरी चीजें कागज, कलम और ज्ञान सब उन्हीं का उपलब्ध कराया हुआ है।
मुझ जैसे जवान लड़कों को पहली ही नजर में बाप-दादा की उमर सरीखा लगनेवाला, सफेद-धूसर लंबी दाढ़ी और उसके बीच हमेशा कायम रहने वाली एक गंभीर मुस्कान का धनी बुढ़ा नानूसान। जंगल और जंगल की पहचान, पीड़ाएं उसकी नसों में भरी हैं, तभी तो दूसरे ही दिन सुबह नाश्ते के वक्त संकेतों से ही मुझे अपने करीब बुलाया। उसी स्थिर मुस्कान के बीच उनके होंठ हिले और एकदम से हमारे जंगल की भाषा झरी, ‘‘जंगल से हो?‘‘ मैंने अचकचाकर हाँ तो कह दिया, लेकिन नाश्ते का कटोरा हाथ में लिए खड़ा कई पलों तक उन्हें ताकता रह गया। सुखद आश्वस्ति में डाल देने वाली यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात के तीसरे रोज ही हमारी दूसरी मुलाकात में उन्होंने सीधे पूछा ‘‘कुछ गड़बड़ किया जो पकड़े गए?‘‘ तब अपने अपराध के प्रति अनजान-सा उनकी आंखों में एकटक झाँकता मैं चुपचाप उंकडूँ बैठा रहा था। मुझे यूँ खामोश देख, उन्होंने इस बार तनिक करीब आकर मेरे बेडौल, खुरदुरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मेरी नाड़ी देखी थी और जरा चिंतित लहजे में हौले से मेरी ही जुबान में कहा था ‘‘तुम पर जंगल में सिपाहियों की अंदरूनी खबरें फैलाने का आरोप है। बतौर मुखबिर।‘‘
सुनकर मैं सकते में नहीं आया था और न ही मैंने कोई सवाल उनकी नजरों पर टांगा था, क्योंकि पकड़कर तुरन्त वहीं ढ़ेर कर दिये जाने के मुकाबले यह सब तो कुछ भी नहीं था। पर बाद की मुलाकातों में ऐसे कई खामोश सवालों के जवाब मुझे मिलते गये थे।
नानूसान डॉक्टर हैं, जैसे बडे़ अस्पतालों में हुआ करते हैं। लेकिन वे लोगों को अपने पास बुलाने की बजाए खुद उनके पास पहुँचने पर यकीन करते हैं।
उनके पास एक मोटरगाड़ी है, जिसपर कुछ मित्रों को लेकर वे दूर-दराज के इलाकों में इलाज के लिए निकल पड़ते थे। उनकी मोटर में हमेशा खूब दवाईयां होती थी, जिसे वे अपनी देखरेख में बांटा करते थे। इन इलाकों में इनके बैठने के दिन-समय तय होते थे। मोटर से मोड़ी-खोली जा सकने वाली मेज-कुर्सियां उतरतीं और किसी पेड़ की छाया के नीचे दवाखाना जम जाता। सूई लगाने से लेकर पानी चढ़ाने तक का काम खुले आसमान के नीचे होता। मलेरिया, फायलेरिया, कालाजार, डायरिया, टीबी जैसे घातक रोगों के खूब रोगी होते थे। सब के सब हारे-थके, परेशान। भूत प्रेतों और डाक्टरों पर एक साथ भरोसा करने वाले। इन सब पर नानूसान का
लेखक परिचय- मिथिलेश प्रियदर्शी
जन्म- चतरा, झारखंड
पहली ही कहानी ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ को वागर्थ २००७ का नवलेखन पुरस्कार।
संप्रति- अखबारों के लिए लेखन
ईमेल- askmpriya@gmail.com
इलाज चलता और साथ में समझाईश भी। इन जानलेवा रोगों के अलावे और कई रोग पसरे पड़े थे, पर जो सबसे बड़ा रोग था और जिससे प्रायः जूझ रहे थे और जिसका उपचार नानूसान के पास भी नहीं था, ऐसी भूखमरी ने कईयों को अकाल मौत के हवाले डाल दिया था। इसके पीड़ितों से इसके बारे में बात करना उनकी दुखती रग पर हाथ रखना होता था, लेकिन बातें होती थीं और बार-बार होती थीं। इस रोग की पहचान और इसके लक्षण तो साफ थे, बस इसके मूल और निदान पर लोगों के साथ नानूसान की चर्चाएं जमती थीं। यह एक दुःख था जो कहने से जरा कम टीस देता था।
हमारे जंगल का पश्चिम छोर, जहां से बाहर निकलने के लिए पेड़ों से बचबचाकर निकलती हुई कई पतली पगडंडियों से मिलकर बनी एक चौड़ी पगडंडी, जो आगे जाते-जाते कच्ची सड़क की शक्ल ले लेती है, जंगल से लगातार इसी राह के साथ दूर होते जाने पर कुछ छोटे गांव और बाद में एक हाट पड़ता है, जहाँ से हम नमक और देह ढंकने के लिए कपड़े लाते हैं। नानूसान कहते हैं, वे इसी हाट में कई दफा आ चुके हैं, जहाँ से जंगल के रोगों-दुःखों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, समझने का बढ़िया मौका मिला है। हालांकि अफसोस कि नानूसान से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो पाई, जबकि मैं पियार, केंद, बैर, लकड़ियां लेकर कई बार हाट जा चुका हूं।
और इसी तरह दुःखों-बीमारियों का पीछा करते जंगल को समझते-बुझते वे जंगल के हो गए। जहां उन जैसों के लिए अपार काम था। वे रम गए। भाषा सीखी, संस्कृति को समझा, दर्द को महसूसा, दावेदारों को पहचाना, सब कुछ खोद कर लूट ले जाने को आतुर बाहर-भीतर के लूटेरों, गुंडों, ठेकेदारों को पहचाना। जंगल को जंगल न रहने देने की साजिशों में शामिल तत्वों को देश-दुनिया के सामने नंगा किया। उन्होंने पूरे जंगल का इलाज किया, सोचने-समझने, लड़ने लायक स्वस्थ बनाया। युद्धभूमि में मानवीयता के लिए बेखौफ समर्पित एक ऐसे वैद्य और प्याऊ की भूमिका उन्होंने निभायी, जिसके लिए हर घायल उसके कर्तव्य के दायरे में आता है। उन्होंने सबको दवाईयां दी, सबकी मरहम-पट्टी की, सबको माने उनको भी जिनके करीब तक जाना मना किया गया था, जंगल आते समय।
प्रदेश के खलिफा, हुक्मरान जंगल के जिन रखवालों के शिकार के लिए जी-जान से जुटे थे और नाकाम होने पर मंदिरों में घंटियां तक टनटना रहे थे, नानूसान का चिकित्सक होने के नाते उनका भी दर्दे-ए-हाल लेते रहेने को भीषण जुर्म माना गया। बस, बिना जोखिम उठाये तुरंत के तुरंत नानूसान को भी शिकार घोषित कर पकड़ लिया गया।
जिससे जितना ज्यादा डर, उसपर उतने ज्यादा और भारी आरोप। राजद्रोह लगा दिया गया और वे तब से यहाँ हैं।
नानूसान के बारे में ये बातें खुद नानूसान ने नहीं, मेट ने और थोड़ी-बहुत बुच्चू ने बतायी, जब मैं थोड़ा पुराना और हिन्दी सुनने-समझने लायक हो गया।
सबसे पहले दोस्ती मेट से ही हुई थी। तब नानूसान से और बाद में बुच्चू से।
मेट अच्छा आदमी है और चालक है। यहां इसलिए है कि उसकी ट्रक से नशे में धुत एक रईसजादा अपनी विदेशी कार सहित कुचला गया था। मरने वाले के बाप ने ऐसी जुगाड़ लगायी थी कि मेट उम्रकैद के फासले से चंद ही कदमों से बच पाया था। मालिक ने ट्रक तो छुड़ा लिया पर मेट को सड़ने के लिए छोड़ दिया और संयोग कि उस खूनी ट्रक को अब मेट का बेटा चला रहा है।
और बेचारा बुच्चू प्रेम में मारा गया। एक लड़की थी मीना, जिसके साथ बुच्चू ने भागकर शादी की। लड़की के परिवार वालों की ओर से अपहरण का मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आनन-फानन में दोनों के दोनों पकड़ भी लिये गए। संयोग कि लड़की को अठारह पूरा करने में आठ दिन की कसर रह गई थी। काले कोट वालों ने पैसे को आगे और प्रेम को पिछवाड़े डालते हुए अपनी जिरह से साबित कर दिया कि बुच्चू ने नाबालिग लड़की को बहलाया, फुसलाया और उसे गुमराह करके अगवा कर लिया। बलात्कार की पुष्टि के लिए किए गए डाक्टरी जाँच में कुछ नहीं निकला, फिर भी बुच्चू तीन सालों के लिए रेल दिया गया और अभी तो पचास-पचपन दिन ही हुए हैं उसे।
मेरी उम्र के ही अगल-बगल फटकने वाले इस चमकदार लड़के की चमक बंद अहाते में रहते हुए बदरंग हो गई है। उसके भीतर फैले हुए सारे रंग उड़ने लगे हैं। वह आँखों में अतल सूनापन लिए खाली होता जा रहा है, इतना कि कोई कभी भी आए कभी भी जाए फर्क नहीं पड़ता।
अपनी दमक और तेज खो देने वाला एक अकेला बुच्चू नहीं है यहाँ। कई हैं। जेल हुक्मरानों को इसी में चाहरदीवारी की सफलता भी दिखती है। इस जगह को बनाया ही इस तरीके से गया है कि यहां लाये जाने वाले का पहले व्यक्तित्व मार खा जाये, फिर देह जंग खाकर निस्तेज हो जाये और अंत में सोच उसका साथ छोड़ दे। जब वह यह जगह छोड़े तो निरा पंगु होकर, मृत्युपर्यन्त अपनी निरर्थकता के साथ।
मुझे खुद से ज्यादा रोज बूढ़ा होते हुए नानूसान की परवाह है, जिनकी परवाहों में गांव है, जंगल है और हर वह आदमी है जो पीड़ित, बीमार और घायल है। डर भी लगता है कि प्रकृति, समाज और मानवता से दूर इस नितांत बंद जगह की जड़ता से हमारे माथे की गति प्रभावित न हो जाये। नानूसान कहते हैं, ‘‘हृदयगति से कम खतरनाक मस्तिष्क की गति का रुक जाना नहीं है, जो व्यक्ति की पहचान, उसके अस्तित्व पर संकट ला देता है।
इस घेरे में गति का घोर अभाव है। यहाँ सब कुछ स्थिर और नियत है, जिससे हमारे भीतर एक ऊसर किस्म का सूनापन भरता जाता है।
वही-वही चेहरे, वही-वही आवाजें, घड़ियों के पीछे-पीछे बजने वाली घंटियों की टन-टन, धीरे-घीरे बनती-मिटती परछाईयाँ, पानी के विशालकाय जड़ हौदे, बुरी तरह से ढंकी हुई कुएँ की मुंडेर, कोठरी के भीतर की चुप्पी, अँधेरा और सीलन, सूरज के उगने से लेकर तारों के ओझल होने तक की तयशुदा हलचलें, कोठरी से दिखती लाल-लाल दीवारें और उनपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे उपदेशात्मक वाक्य कि ‘अनुशासन ही देश को महान बनाता है‘, ऐसे और भी कई आधे-लिखे-मिटे चकतेनुमा शब्द-वाक्य, जिनसे अक्षर ज्ञान के बाद मैं चिढ़ता रहता हूँ। चौतरफा रचे-बसे ये सारे के सारे दृश्य आँखों से स्थायी रुप से चिपक-से गए हैं। ऊबकर इनसे टकराने से बचता हूँ, लेकिन बेकार।
पेशी के दिनों को छोड़कर बाकी के दिन और तारीखें कैलन्डरों और रजिस्टरों में ही गतिमान हैं। इनका बदलना हमारे लिए कोई बदलाव लेकर नहीं आता है। लगता है, आज के दिन जैसे जिया, कल इससे अलग नहीं था या परसों भी या फिर पिछले दो सालों के लगभग सभी दिन, जब से यहाँ रखा गया हूँ। दिन-रात इस सुस्ती से सरकते हैं, मानों इस चाहरदीवारी के भीतर घटों, मिनटों और सेकेण्डों की स्वाभाविक गति को थोड़ा घटा कर रखा गया है। शायद बाहर के तीन सेकेण्ड पर यहां एक सेकेण्ड होता हो या इसी तरह भीतर के एक मिनट में बाहर तीन मिनट गुजर जाते हों। समय के बड़े-बड़े बोझों से सबकी पेशानियों पर हताशा की एक स्थूल परत जम गयी है। गाहे-बगाहे लाख खुलकर हँसने पर भी यह परत छिपती नहीं है।
यहाँ बन्द हम कईयों से मिलने कोई नहीं आता, एक मरगील्ले कुत्ते को छोड़ कर, जिसे चाहने वालों की संख्या पचास के पार है और वह जल्द ही पुचकारों और दुलारों से ऊबकर-थककर पूँछ हिलाना बन्द कर देता है और बाहर चला जाता है। हम कुछ नये सहमे से रहने वाले लोग उसे छूने भर की तमन्ना लिए, अपनी बारी का इन्तजार करते, किनारे बैठकर मन मसोसते रह जाते हैं। कभी-कभी उसे देखे पखवाड़े गुजर जाते हैं।
एक नीमरोज, जब अधिकतर लोग अपनी बैरकों में ऊंघ रहे थे और मैं पखानाघर के सामने की घासें नोच रहा था, वह मुझे दिखा। वह मेरी ओर नहीं आ रहा था, जानकर मैं अचानक उसके सामने कूद पड़ा। बचकर वह भागने को हुआ लेकिन मैंने दोनों हाथों और पैरों का फैला हुआ घेरा दिखाकर उसे छेक लिया। गोल और मीठा मुँह बनाकर धीमी आवाज में पुकारता-पुचकाराता मैं उसे पकड़ने में सफल रहा।
मैंने उसे अंकवार रखा था और महीनों से इकक्ष हो रहा प्यार उड़ेलना चाहता था। मैं उसकी रोओं में फंसी बाहर की हवा और महक पाना चाहता था। पखानाघर के सामने कुत्ते को इस तरह अकेले में भीचें देखकर भीतर की पहरेदारी वाला सिपाही मेरी ओर ऐसे लपका, जैसे डण्डे से मारकर मेरा सिर खोल देना चाहता हो। उसके चीते की तरह लपकने में मेरे द्वारा कुत्ते का आलिगंन, जैसे किसी अनर्थ, अपराध या अनुशासन भंग का हिस्सा हो और मेरे ऐसा करने से उसका देश महान बनने से रत्ती भर से रह गया हो या शायद जेल की अवधारणा में प्रेम का प्रस्फूटन या संबंधों का गाढ़ापन जेल की स्वाभाविक यातनाओं को ठेंगा दिखाता हो या फिर वह मुझे कुत्ते के फेफड़े में भरी आजादी की उस हवा को चखने से रोक देना चाहता हो जिसको लेकर पूरे इतिहास भर में कई बगावतें हुई, जैसा कि नानूसान बताते हैं।
खैर, कुत्ते को वहीं हड़बड़ाया-घबराया छोड़, मैं भाग कर अपने पिंजड़े में दुबक गया। साँसों को तरतीब कर ही रहा था कि बीसियों गालियों के साथ दो-तीन रुल चूतड़ों पर चिपक गए, साथ में कई दिनों तक यह जलालत भरी अफवाह भी कि जंगलों के लोग कुत्ते-बकरियों तक को नहीं बख्शते। यह उसी सिपाही ने फैलाया था, जो मुलाकातियों से जमकर रुपये ऐंठा करता था। कई दफा उनकी दी हुई मिठाईयां और खाने वह पूरी की पूरी डकार जाता था। उसे मुझ जैसे कैदियों से घोर नफरत थी जिससे मिलने कोई नहीं आता।
कुत्ते वाली अप्रत्याशित घटना में मजा ढूँढ़ने वाले वे लोग थे, जो खाकी कपड़ों से ढँकी टाँगे दबाते और उनकी थूकों में नमक लगा कर मजे से चटकारे लेते। इनमें से कईयों ने औरतों और बच्चों को रौंदा था, तो कईयों ने कईयों के गले और अतड़ियों में खुखरियाँ घुमाई थीं। ये हत्यारे, बलात्कारी कहने को जेल की छड़ों के दूसरी ओर थे। जेल प्रशासन के नुमाइन्दे के रुप में अघोषित राज इन्हीं का चलता था। इनकी क्रूर, वहशी और घाघ आँखों के चौकन्नेपन और खुफियागिरी से सिर्फ हम ही नहीं जेल के चूहे तक परिचित थे। इनमें भाड़े के खूनी, बौने कदों वाले नेता, सेठ-ठेकेदारों के गुर्गे, घरों और सड़कों के लुटेरे आदि सब शामिल थे, जो भ्रष्ट जेलर के साथ मिलकर साजिशों और खुसुर-फुसुर का माहौल गर्म रखते।
जंगल से बहुत-बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी, जहां दुनिया की किसी भी खूबसूरती को गलती से भी नहीं छोड़ा गया था। उल्टे, मानवता को लजा देने के लिए जिन-जिन नमूनों की जरूरत पड़ सकती है, ऐसे सारे तत्वों को यहां चुन-चुन कर रखा गया था। लेकिन प्रकृति की स्वच्छंदता के आगे किसी का जोर नहीं चलता। हमारे भीतर के सुख महसूसने वाले सारे तंत्रों को निष्क्रिय बना देने के पुरजोर प्रयासों में लगे जेलर को प्रकृति की कलाओं, रंगों और छटाओं से खासी मशक्कत करनी पड़ती।
प्रकृति का उत्सव हमारे लिए वाकई एक अलग खुशनुमा पहलू है, जो सारे दबावों-तनावों को धुल-पुंछ देता है।
मैंने देखा है, यहाँ भी लोगों को पुलकते हुए। उस दिन, जिस दिन बारिश की पहली बौछार पड़ती है। हमें लगता है, ये बूँदे बाहर से बेखटक हमसे मिलने आयी हैं, जेल की दीवारों पर लिखे ‘अनुशासन ही देश कोे महान बनाता है‘ जैसे सारे उपदेशों और कायदे-कानूनों को धोते हुए। हाथ बढ़ाकर हम बूँदांे को हथेलियों और माथे पर मलते हैं, जीभ से उसका स्वाद लेते हैं। वाकई हम पुलकते होते हैं।
बारिश अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर भीतर हमारे लिए बदलाव चाहता है। जेल की ऊसर जमीन पर भी जेलर की नाक तले वह हमारे लिए प्यारी-प्यारी हरी दूबें जन्माता है। उनकी हरियाली और मुलायमियत हमारे दिलों में उतरती जाती है। निर्मोही जेलर को यह सब बदलाव नहीं सुहाता, वह इन प्यारी दूबों पर हमी से फावडे़ चलवाता है। इन दूबों के साथ-साथ धरती पर आए लाल-सुनहले कीट-पतंगें भी खत्म हो जाते हैं।
बारिश के बाद आए मेंढ़कों और झींगुरों की लोरी से हम मजेदार नींद की सैर करते हैं। प्रकृति दुष्ट जेलर के समूचे नियंत्रण को ध्वस्त कर हमें दुलारती-बहलाती है और असहाय जेलर हमें खुश होने और मजे लेने से नहीं रोक पाता है। वह चाहरदीवारी के भीतर जन्म से ही कैद बारह सालों के जुड़वाँ अशोक के पेड़ों का बारिश में लहलहाना भी नहीं रोक पाता है या बसंत में अशोक की फुनगियों पर जंगल, पहाड़, नदी, गांव और शहर की सैर कर आई कोयल का कूकना भी।
छोटे-मोटे गड्ढों में ठहरे बारिश के गंदले लेकिन आजाद पानी से खेलते हुए हम उसकी ठंढई अपनी रोओं में महसूसते हैं। हौदों और कुओं में कैद रंगहीन सर्द पानी की बजाए जी करता है, हम उसी थोड़े पानी में नहायें या फिर नहाने के लिए जेल की गहरे तक गड़प् दीवारों से नदी निकल पड़े और जिसमें ऊपर से भी बारिश होती रहे। जेल के बीचो-बीच होकर गुजरती यह नदी अपने भीतर असंख्य मछलियां समेटी हो, जिससे जेल के स्वादहीन खाने से हमें निजात मिल सके।
बरसात की तरह बसंत भी बाहरी दुनिया और हमारे बीच फर्क किए बगैर जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों को फलाँगते हुए बेधड़क आता है और तब उसकी मादकता और मोहकता के जेल में करीने से सज जाने पर तमाम यातनायें हमें हँसी-खेल लगने लगती हैं। तब लगता है कि सजा की कुल दिनों की बात करते समय उसमें बसंत के दिनों को न जोड़ूँ।
अपने समूचे क्रूर प्रयासों के बाद भी हमें दुःखी न देख जेलर कुढ़ता-झींखता रहता है। बहुत ही ज्यादा बढ़ आए फोते के कारण बेहद भद्दे अंदाज में टांगें फैला कर फूदकता हुआ जेलर, गर्मियों के दिनों में अपेक्षाकृत ज्यादा शैतान लगता है।
पिछली गर्मी की लंबी दुपहरियों में जब सूरज कई-कई घंटों अपनी पूरी ताकत से जलता हुआ आकाश में टंगा रहता, हम पेट में कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे अनाज लिए, पैर मोड़ते फैलाते झपकियां लेने की असफल कोशिशों में जुटे रहते। गर्मियों के लू-दाह वाले दिनों में भी जेलर इत्मिनान से घूम-घूम कर हमारा जायजा लेता रहता और लगभग उजड़ चुके अपने चुनिंदा बालों में उँगलियों से ऐंठ डालते हुए बर्फिला रंगीन पानी गटकता रहता। बलात्कारियों, खूनियों और ठगों की अविराम चापलूसियों से घिरा वह अश्लील लतीफे धड़ल्ले से सुनता-सुनाता और दूर-दूर तक सुनाई देने वाले लंबे-लंबे ठहाके लगाता।
सिकचों के इस पार से दिखने वाले सीमित दृश्यों को ताकते-ताकते आँखों में पर्याप्त बोरियत भर जाती। धुँआ कर चलने वाली गर्म हवाओं से जेल का पूरा अहाता सुलगता रहता। दोपहर को धरती से निकलती हुई गर्मी से अहाते का सूनापन भी दहकने लगता। चौतरफा फैले ऐसे गर्म दृश्यों को देखने पर लगता आँखें झुलस जाएँगी।
सूरज का प्रकोप शाम खत्म होने पर भी कम नहीं होता। एक अदृश्य आग में हम लगातार धीमे-धीमे सिंक रहे होते। शाम को हम उसी पानी से हाथ-मुँह धोते जो दोपहर को खुले आसमान के नीचे खौलता होता। हम प्यास से अकुलाते यूँ ही पड़े रहते पर गर्म पानी हलक के नीचे नहीं जा पाता।
घंटी लगने पर जब रात में सोना होता, हम घंटों छत को और छत से लटकते पीले बल्ब को घूरते रहते। गर्मी से बेहाल हम करवटें बदलते, उठते-बैठते घंटों निकाल देते। ऊबने-थकने पर तब कहीं नींद आती। आधी रात या उसके आस-पास जब हम सारी थकान, गर्मी, और मच्छरों को भूलकर बेमतलब के सपनों में गिरते-पड़ते बेसुध पड़े होते, दुष्ट जेलर अपने दल-बल के साथ हमारी कोठरियों में टार्च की सफेद रोशनी चमकाता, रुल से सिंकचों पर चोट करता औचक निरीक्षण करने में जुटा रहता। एकाएक नींद टूट जाने से हम हड़बड़ाकर उठ बैठते, घूमते दल-बल को देख झुँझलाहट होती और फिर गुस्से में मच्छरों के लिए हथेलियां चटचटाते अपनी खीझ और गुस्सा जाहिर करते। रतजग्गे वाले ऐसे समयों में हम अपने पिंजड़ों में दाह-पसीने, चिपचिपाहट और बेचैनी के बीच अपनी सजा को और अधिक खींचता हुआ महसूस करते। भर गर्मी हमें परेशान देख जेलर खूब पर्व मनाता और पुलका-पुलका रहता।
जाड़े में हमारे मजे औसत रहते। मीठी धूप में बैठना यदि नसीब होता तो हमारे भीतर की उचटता नर्म धूप की गर्मी में पिघलकर बह जाती, नहीं तो कंबल के भीतर के अंधेरे और गर्मी में ही दिन-रात कट जाते।
जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, सर्दी के शुरुआती दो महीने निकल चुके हैं, जो हमंरे लिए कहीं से भी सुखद नहीं रहे हैं। पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना के बाद से जेल सुपरिटेंडेन्ट को हटाकर बहुत दूर एक कस्बाई जिले के जेल में भेज दिया गया है। उसकी जगह पर जो नया आया है, जो नानूसान की उम्र के आस-पास ही ठहरता है, सनकीपन की हद तक जाकर दौरे करता है। दुष्ट जेलर, हेड चीफ, वार्डर सब उसके पीछे जूते बजाते, रुल घूमाते, नफरत और वहशीयाना नजरों से हमें घूरकर चले जाते हैं।
असल में, उन्हें यह विश्वास करने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना में हमारी कहीं से कोई संलिप्तता नहीं है।
हमारे प्रति बनी उनकी धारणा और विश्वास इसलिए भी नहीं घट रहा है कि प्रांरभिक जाँच में घटना के समय हमारी गतिविधियाँ उनके लिए खटकने वाली थी। इतवार की सुबह मुलाकाती जब अपने बंधु-बान्धवों से मुलाकात कर रहे थे, मैं और नानूसान, वार्डर और मेट की निगहबानी में कोहरा छंटने के बाद खिले जाड़े की सुषुम धूप में देह के पोरों में गर्माहट भर रहे थे कि गेट के करीब वह कानफोडू़ धमाका हुआ था। ‘ये क्या हुआ‘ की घोर जिज्ञासा वाले भाव के साथ वार्डर और मेट को भूलकर हम तत्क्षण गेट की ओर लपके थे, पर तुरंत पोजीशन में आए वार्डरों और सिपाहियों द्वारा हम गेट से दस-पन्द्रह फर्लांग पहले ही धर लिए गए थे।
हम जिस तरह से जकड़े गये थे और वापस अलग-अलग कोठरियों में डाले गये थे, यह समझना कहीं से भी कठिन नहीं था, कि हमारे इस तरह अचानक दौड़ पड़ने को क्या समझ लिया गया है। हमारे प्रति बने-बनाये पूर्वागह और उसपर यह घटना, जाहिर तौर पर उनके इतने गड़बड़ तरीके से समझ लिए जाने पर पूरी जांच की शुरुआत हम ही से हुई थी।
मुझे नानूसान से अलग करके कैद तन्हाई में डाल दिया गया था। कई आशंकाओं के भंवर में डूबता-उतरता मैं नानूसान के लिए चिंतित था। मुझे डर था कि इस घटना के जरिए नानूसान का मुकदमा और ज्यादा प्रभावित न कर दिया जाए।
धमाका और फिर तुरंत कैद तन्हाई, यह सब इतने त्वरीत अन्दाज में हुआ था कि घटना को लेकर हमारी अनभिज्ञता बनी ही रह गई थी। घटना के तुरंत बाद अहाते में कड़ाई व्याप्त गया था। सारे ओहदों पर खूब फेर-बदल हुई थी। हमारा दोस्त मेट भी नहीं दिखता था जो कुछ बता सके।
अब तक पजए गए जेल जीवन के सबसे दर्दनाक दिन मेरे लिए यही रहे। अँधेरे में दिन-रात काटता मैं अपनी अब तक कि जिन्दगी जेल से जंगल को मन ही मन दुहराता चला जाता। घटनाओं के साथ-साथ लगने वाले दुःख, पीड़ा, क्षोभ, अफसोस, खुशी, पछतावा जैसे भावों को दुहरा-तिहरा जीता मैं हर पल बेचैन होता रहता। मैं हफ्तों पहले देखे गये उगते-डूबते सूरज, उसकी गुनगुनी गर्मी, उड़ती चिड़ियाओं के झुंड और शाम ढ़ले जेल के हाते के ठीक ऊपर से गुजरते थकान से भरे कबूतरों को याद कर मन मसोसता और लंबी ऊब और झुंझलाहट से भर देने वाली पूछताछ में साहबों का साथ देने की भरसक कोशिश करता।
दरअसल हम उस झमेले के शिकार हो गए थे जिसका हमको ठीक-ठीक पता तक नहीं था। घटना को लेकर उत्सुकता का आलम यह कि लंबी पूछताछ के दौरान साहबों की ओर से पूछे जाने वाले सवालों के जवाब में मन करता की बड़े भोलेपन से उल्टी पूछूँ कि कैसे क्या हुआ था साहब उस दिन? मैं असमंजस में पड़ा आँखें चिहाऱ कर उन्हें देखता भर रह जाता। वे सवाल दर सवाल किए चले जाते। आखिर में वे अँधेरे में इधर-उधर गालियां बिखेर कर और दो-तीन झन्नाटेदार थप्पड़ों से मेरी कनपट्टियां झन-झनाकर इस वायदे के साथ रुखसत होते कि वे फिर आयेंगे, धमाके वाले इतवार कांड में कौन-कौन शामिल है, यह उगलवाने।
यह सब लगातार चलता रहा और जब जाँच में लगे साहबों के हाथ कुछ मजबूत सूत्र आए जिसमें हम कहीं नहीं थे और जब फरारियों को पकड़ कर कुछ नए आरोपों के साथ वापस जेल में ले आया गया, तब जाकर मुझे कैद तन्हाई से मुक्ति मिली। हालांकि इसके बाद भी नानूसान को किसी तरह की कोई राहत नहीं दी गई।
इतना कुछ हुआ, परि जाकर पता चला कि उस इतवार को आखिर हुआ क्या था?
असल में, घटना वाले इतवार एक मुलाकाती अपने साथ जो खाना लेकर आया था, उस टिफिन में ऊपर से तो गोल-गोल लिट्टियां रखी थीं, पर नीचे दो जिन्दा देसी बम थे, जिन्हें विस्फोट कर दो लोगों को भगाया गया था। बुच्चू बता रहा था कि भाग निकले कैदी पकड़े नहीं जाते पर कुछ ऐसा हो गया कि दोनों के दोनों धरे गये।
धमाका कर मुलाकाती सिर्फ अपने भाई को भगाने आया था पर धुएँ और अफरातफरी का सहारा लेकर एक सजायाफ्ता कैदी और फरार हो गया, जो किसी ठेकेदार के चक्कर में पड़ कर अपनी प्यारी पत्नी को शक के कारण पीट-पीटकर हत्या कर देने के आरोप में ष्बीसबरसाष् भोग रहा था। भागकर दोनों महुआटांड जाने वाली बस में सवार हो गये थे, पर महुआटांड जाने की बजाए दोनों आपस में बातचीत कर वहाँ से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर पहले ही एक गांव के नजदीक उतर गए। उतरे तो ठीक, लेकिन जिसको भगाने के लिए बम फोड़ा गया था, उसकी लूटने-झपटने की पुरानी आदत। उतरते-उतरते उसने बस के दरवाजे पर खड़ी बुढ़िया से उसका लाल बांका मुर्गा छीन लिया। यह आदमी पहले घाटी में गिरोह बनाकर बस-ट्रक लूटता था, वह भी पार्टी के नाम पर। गिरोह के सदस्यों को पुलिस तो खोज ही रही थी, नाम बदनाम करने के कारण पार्टी वाले भी पीछे पड़े थे, लकिन पार्टी वालों के हाथ पड़ने से पहले ही गिरोह के चार आदमी पुलिस के हत्थे चढ़ गए। पार्टी के नाम पर उत्पात मचाना खूब भारी पड़ गया। थाना लूटने, पिकेट उड़ाने जैसे बीसियों आरोप और ऊपर से लाद दिए गए। दो साल से यूँ ही पड़े हुए थे। इन्हीं चार में से एक को उसके दुस्साहसी भाई ने बम पटक कर भगा लिया।
दूसरा कैदी जिसने मौका ताक कर चालाकी दिखाई थी और निकल लिया था, उसी की योजना थी, गाँव के नजदीक उतरने की, क्योंकि इस गाँव में उसकी फूफसास रहती थी। तुरंत के लिए यह ठिकाना उन्हें महफूज भी लगा था, पर संयोग कि लाल रंग वाले उस बांके मुर्गे वाली बुढ़िया इसी गांव की निकली और उसने इन दानों को पहचान भी लिया। फिर तो गांव वालों ने दोनों को भरदम मारा और थाने में दे दिया। जहां इन्होंने सब किस्सा बक दिया।
इस बम कांड ने बहुत कुछ उलट कर रख दिया है। कहां तो इसे जेल तोड़कर नानूसान को भगाने की बात कही जा रही थी। लेकिन तथ्यों के सामने आते ही सभी अफवाहों की हवा ढीली हो गयी। अब तो पूरा इतवारी बम कांड झरने के पानी की तरह साफ है, पर जेल वालों के दिमाग में अब भी हमारे प्रति अविश्वास, सर्तकता और चौकन्नापन साफ झलक रहा है। हालांकि मुझे कैद तन्हाई से छुटकारा दे दिया गया है, पर वापस नानूसान की देखभाल के लिए नहीं रखा गया है। उन्होंने मुझे ताकीद भी किया है कि मैं उनसे दूर रहूँ। इस समय मेरा अकेलापन हाट से बाहर की ओर आने वाले उस सड़क के सूनापन जैसा हो गया है जिसपर हाट खत्म होने और अँधेरा घिर आने की वजह से कोई एक कुत्ता तक मौजूद नहीं होता।
मैं बुच्चू के साथ भी नहीं हूँ। मुझे कोठरी में उच्चकों और चार सौ बीसों के साथ रखा गया है। ये लंपट हैं, चापलूस हैं, धूर्त, लोलुप झगड़ालू और कटखने भी। भद्दी-भद्दी बातें बतियाते हैं और बात-बात में कहकहे लगाते हैं। ये आपस में दोस्ती का नाटक करते हैं, एक-दूसरे की तारीफ करते हैं, खुशामद करते हैं, फिर किसी बात पर एक दूसरे की मां-बहनों पर चढ़ बैठते हैं, बाहर निकलकर सबक सिखाने की धमकियाँ देते हुए कुत्ते-सूअरों की तरह लड़ते-भिड़ते हैं।
अकेलेपन निराशा और अवसादों का यह दौर अब आगे भी जारी रहने वाला है। लगता है, अब सही मायने में जेल मुझे डराएगा और इस डर और हताशा से बचाकर मुझे सिखाने, बताने वाला कोई नहीं होगा। मैं जान गया हूँ, जेल जैसे रेतीले-पथरीले और ऊसर जगह में मौसम की सारी अठखेलियाँ और ठिठोलियाँ नानूसान जैसों के संग ही समझा जा सकता है। अभी सर्दी है। सर्दी की कनकनी भरी रातों में कछुए की तरह कंबल के अंधेरे में सिर घुसाए, मैं इतना कुछ सोच लगातार कांपता रहता हूँ। मेरा कांपना केवल सर्द रातों की वजह से नहीं है। इस कंपकंपी में कल सताने वाला एक अदत्श्य भय है, जिसके संकेत मैं रोज-ब-रोज पा रहा हूँ।
मुझे यह कंपकंपी नई नहीं लग रही है। मैं इसे पहले भी दो-तीन दफे महसूस कर चुका हूँ। बचपन में हुई ऐसी कंपकंपियों का तो मुझे ख्याल नहीं, पर इस कोठरी में आने के दो दिन पहले जंगल की उस मायूस सांझ की पहली और जरा कम तीव्रता वाली कंपकंपी और उस सांझ के उतरने के बाद आयी काली-कलूटी रात की भीषण कंपकंपी की झनक अबतक मेरे देह में बची है।
हौले से हरेक अंग को झनझना कर, रीढ़ की हड्डी में समाकर खत्म हो जाने वाली वह पहली कंपकंपी, मैंने गर्मी की उस सांझ महसूस की थी, जब जंगल की या कि मेरी त्रासदी अपनी प्रक्रिया में थी और इसके कुछ लक्षण मुझे अपनी प्रेमिका में भी दिखाई दे गये थे।
सुक्की , मैं और हमारा जंगल।
हम प्यार करते थे और फूल गिरते थे। उन फूलों को बकरियाँ अपने गालों में दबाकर खा जाती थी। हम प्यार करते थे और महुए टपकते थे, उन महुओं को भी बकरियाँ आँखें नचाकर खा जाती थी। महुआ या जामुन की जड़ों पर जहाँ हम बैठे या अधलेटे होते, हमारी देहों पर या बिल्कुल करीब गिरे फूलों या महुओं को खाने कोई साहसी और समझदार बकरी आती या फिर कोई मासूम, छौना। छौना निधड़क और बड़ी कोमलता से फूलों या महुओं को चुभलाता हमारी ओर से बेपरवाह होता। हम मिलकर उसे आसानी से पकड़ते और बारी-बारी से चूमते। वह उसे छाती से चिपटाकर कहती, ’’हम तीनों वहां घर बनाएंगे, जहां यह जंगल खत्म होता है और जहां इस धरती और आकाश का मिलन होता है। तब हमारे घर का दरवाजा जंगल की ओर होगा और घर की पिछली दीवार के रुप में क्षितिज का विशाल आसमान होगा, जिसकी ओट में हम बिल्कुल सुरक्षित होंगे। हालांकि ऐसी तमाम कल्पनाओं में खोते हुए उसके चेहरे का रंग मलिन होता जाता, क्योंकि जंगल की आबोहवा तेजी से बदलती जा रही थी। इसका भान था मुझे और उसे भी, पर हम अलग-अलग दुःखी हुआ करते थे, अलग-अलग समय में। वह हर सांझ, जब हम यूं ही लेटे या अधलेटे होते, डूबते सूरज के साथ अपनी कल्पनाओं को, जंगल में आने वाली संभावित त्रासदी से दरकता हुआ पाती।
जंगल का गाढ़ापन जार-जार होकर बिखर रहा था और जंगल के बदलते मौसम के साथ-साथ हमारे प्यार का तिलिस्म भी चटक रहा था। जंगल में बढ़ आए फाँटों से अब कोई भी नया-पुराना जो मुंह उठाकर जंगल में घुसा चला आ रहा था, हमें आसानी से झांक जाता था। पेड़ों की जिन जड़ों पर पसरकर हम सपने बुना करते थे, वहां कुछ देर या बहुत देर पहले कईयों के होने की गंध और निशान बचे होते थे।
हम इस डर मिश्रित निराशा और दुःख के साथ लगातार खामोशी भरे चौकन्नेपन में जिए जा रहे थे। जंगल के गंधाते जा रहे माहौल में अब सुक्की क्षितिज के भी सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त नहीं लगती थी। सांझ, सवेरे, दिन, दोपहर हमें प्रेम के लिए जगह तलाशनी पड़ रही थी। अपने ही घर में हम भटक-भटक कर प्रेम कर रहे थे। हमारी प्यारी मुर्गियां और बकरियां गायब हो रही थीं और हमारे परिजन भी। हमारी झोपड़ियां अचानक राख हो रही थीं और हमें जंगल से बाहर बने तंबूओं की ओर खदेड़ा जा रहा था।
हमारे दिलों में खौफ भरने वाले धीरे-धीरे पूरे जंगल में छितर रहे थे। इनमें से कई हमारे बंधु-बांधव थे और कई, बड़े शहरों से भेजे गए हरबे-हथियारों से लैस सिपाही। ये अपनी लोहेनुमा गाड़ियों में गोला-बारुद भरकर लाये थे और मुक्त हाथों से हमारे बंधु-बांधवों को बाँट रहे थे ताकि जंगल के पुराने रखवालों से जंगल को खाली कराया जा सके। जंगल के सौंदर्य से हमेशा खिलवाड़ी करते रहनेवाले कुछ मुट्ठी भर लंपट, लफंगे किस्म के लड़कों का साथ उन्हें नसीब था, जो घरभेदिये का काम कर रहे थे।
शहरी सिपाहियों ने हमारे लिए एक रेखा खींच रखी थी, जीवन और मृत्यु की कि इनकी ओर से हथियार उठाने पर जीवन अन्यथा सौ फीसदी मृत्यु। पर सच यह था कि कोई भी चुनाव शर्तिया मौत की ओर ही ले जाने वाला था। भाईयों से ही लड़ने-कटने की स्थिति में थे हम।
जंगल में एक संभावित युद्ध शुरु होने वाला था और हम इसके सबसे आसान शिकार थे। बड़े शहरों से आए सिपाहियों ने हथियार चलाने के लिए हमारे बंधु-बान्धवों का कंधा चुना था और मौज के लिए हमारे बहनों को, जो चंद पैसों या फिर मौत के विकल्प पर उन्हें उपलब्ध हो जा रहा थे। यह सबकुछ वाकई डरावना थां।
उथल-पुथल से भरे ऐसे ही समय की वह सांझ, हमारी पिछली कई सांझों से बिल्कुल अलग और हमें एक-दूसरे से जूदा करने वाली थी।
उस सांझ जब वह आयी तो रोजाना की तरह उसकी हाथों में हंसिआ नहीं , पलक झपकते मृत्यु की गलियों में भेज देने वाला एक खतरनाक हथियार था, जो निश्चित तौर पर सिपाहियों की ओर से ही दिया गया था। अलविदा कहते सूरज की सुरमई तांबई रोशनी में वह हद से ज्यादा उदास और डूबती दिख रही थी।
महुओं का टपकना दिन भर से शुरु था और वे गिर कर बासी हो रहे थे। बकरियों का आना शायद अभी भी बाकी था।
मैंने उसे सहारा दिया और उसके हाथों से हथियार लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह वैसी ही अधलेटी उदास और थकी-थकी नजरों से मुझे देखती रही।
सूरज भरपूर रंगीन होता हुआ नीचे जा रहा था, जैसे किसी पेड़ पर गिरकर लटक जाएगा।
मैं उस हथियार को जतन से पोछता रहा और वह मुझे ताकती रही। शायद वह बहुत कुछ कहना चाहती थी या फिर कुछ भी नहीं। मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता था या फिर कुछ भी नहीं। हम अगले कई पलों तक अबोले बैठे रहे थे।
फिर मैं चुप्पी छोड़ आहिस्ते से उठा और अपनी पूरी ताकत से सामने जामुन की टहनियों की ओर उस हथियार को उछाल दिया। काले-काले, रस से भरे खूब सारे पके जामुन गदबदा कर पथर गए। मैं बड़े इत्मिनान से उन्हें चुन रहा था और उनमें धंसे छोटे-छोटे कंकड़ों-मिट्टियों को हटाकर, साफ जामुनों को बकरियों की तरह अपनों गालों के बीच दबाता जा रहा था।
कुछ साबूत जामुनों को दोनों हथेलियों में भरकर, जब मैं उसकी ओर मुड़ा, वह वहाँ नहीं थी।
सूरज अपनी रंगीनियाँ बिखेरकर जंगल के बाहर गिर गया था। जामुनों को वहीं बिखेरकर मैं तने और जमीन के ऊपर तक निकल आए मोटे-मोटे जड़ों का सहारा लेकर पसर गया। वह शायद इस जंगल के सांझ के साथ कहीं बिला गयी थी, सोच कर रीढ़ की हड्डी के बीच से एक हौले से झुरझुरी के साथ एकबएक कंपकंपी उठी और मैं हिल गया।
सांझ खत्म हो जाने के बाद मद्धिम रात पसरने को थी और मैं यूँ ही पसरा रहा, एक धीमी किन्तु स्थाई कंपकंपी के साथ। जामुन के कसेपन के साथ वाले खट्टेपन से मुझे अपने होंठ ज्यादा मोटे और भद्दे तरीके से लटके लग रहे थे। पिछले कई मिलनों में, खास कर गर्मियों वाली देर से उतरने वाली सांझों में, जब हम भरपेट आम, जामुन खाकर एक दूसरे को चूमते तो हमारे होंठ अपेक्षाकृत ज्यादा मोटे, ठोस, मुलायम और झूलते मालूम होते थे। मैं जंगल और सुक्की के बारे में घंटों सोचता रहा।
चाँदनी छिटकने पर साधारण लकड़ी की तरह मालूम होता हथियार, बिखरे जामुन के बीच अब भी पड़ा था। सुक्की के इस तरह हथियार छोड़ चले जाने और रात की सांय-सांय भयानक तरीके से बढ़ आने से रीढ़ की हड्डी से उठा मेरा भय कनपटी पर आकर सनसनाने लगा। लग रहा था, जंगल में घुसपैठ मचाकर फैल जाने वालों की खूनी नजरें अगल-बगल के पेड़ों से मुझे झाँक रही हैं। अचानक वे पेड़ों से सरसराते हुए उतर पड़ेंगे और क्षण भर में मुझे नोच-फाड़ खाएँगे। इतने भयानक ख्याल आते ही मुझे ठंड का अहसास हुआ और मैं डरकर सिकुड़ गया। मैं जामुनों के बीच पड़े उस हथियार की ओर फिर से देखे बगैर उसे वहीं छोड़ तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागने लगा, बिल्कुल नाक की सीध में, सुक्की की झोपड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर।
जामुन खाने से विकृत हुए होंठ और गले की भरपूर ताकत से एक भयंकर आवाज के साथ मैं चिल्लाना चाहता था, अपनी प्रेमिका के लिए कि वह सावधान हो जाए और बची रहे। हम जंगल नहीं छोड़ंेगे । हम आगे और प्रेम करेंगे। मैं पूरी ताकत लगाने पर भी भागता हुआ नहीं चिल्ला सकता था, या शायद ठहरकर भी नहीं। मैं जितना अधिक जोर लगाता था, आवाज निकलने की बजाए मेरी कंपकंपी बढ़ जाती थी। और मैं हिरण की रफ्तार से नहीं भाग पा रहा था।
मेरा डर, मेरी आशंका सब कुछ सच था। मैं भागता हुआ सच में दबोच लिया गया था। मुझे अपनी गिरफ्त में लेने वाले जंगल के रखवाले नहीं थे। ये वही थे, जिनसे हम पिछले कई हफ्तों से भागते फिर रहे थे, जो बाहरी सिपाहियों और उनके गोले-बारुदों के साथ मिलकर हमसे जंगल छोड़ने को कह रहे थे, जो हमारी प्यारी मुर्गियों और बकरियों को खा रहे थे। हमारे प्रिय परिजनों को गायब कर रहे थेव। हमारी झोपडियां जला रहे थे और भेड़ियों की तरह झुंड में घूमते हुए हमारी बहनों को भंभोड़ रहे थे।
ये गुडडव मुझे पहचानते थे और मैं उन्हें। मैं कई दिनों या हफ्तों या फिर महीनों से इनकी नजरों में चढ़ा था। ये एक साथ मुझपर गुर्रा रहे थे और फिर तुरंत ही उन भेड़ियों ने मेरे धुर्रे उड़ा दिए। मेरी अंतड़ियां उलट गई। आँखें पलट गईं, लेकिन पीड़ा के इस जोर से मेरी आवाज लौट आई जो डर से कुछ देर पहले भागते हुए जम सी-गई थी। वे संपूर्ण ताकत से मुझे पीट रहे थे और मैं मारे जाते हुए सूअर की तरह भयंकर आवाज निकालता हुआ चीख रहा था, ‘‘सुक्की सावधान रहना, तुम बची रहना। जंगल मत छोड़ना। हम बचेंगे और आगे और प्रेम करेंगे।‘‘
मैं अपने भीतर की सारी आवाज सुक्की को सचेत करने में झोंक रहा था।
खूब पीट जाने पर लगा, मेरी नसों में न रक्त बचा है, न शक्ति और न कोई आवाज।
और रौसे मैं मर गया।
अगली दोपहर मैंने जाना, मैं बच गया हूँ और चारों ओर जंगल का नामोनिशान नहीं है।
मैं बड़े शहर के सिपाहियों के बीच था जो मेरी ओर इशारा करते हुए जोर-जोर से मुखबिर-मुखबिर चिल्लाकर बातें कर रहे थे। अगले कई हफ्तों तक हर उसके पास जिसके सामने मेरी पेशी हुई, मेरे लिए मुखबिर शब्द ही कहा गया।
जेल की इस चाहरदीवारी में मैं इसी आरोप में बन्द हूं। उनकी नजरों में मैंने बेहद संगीन अपराध किया है। यदि किया है तो। और सब सोचते हैं, मैंने यह जरुर किया है, नानूसान, मेट और बुच्चू को छोड़कर।
नानूसान बेहद दुःखद स्थिति में हैं। उनसे अलग किया जाना मेरे लिए बेहद दुखदायी है और यह सुक्की से अलग होने से तनिक भी कम असहनीय नहीं है।
जंगल की लड़ाई शायद लंबी चले, क्योंकि कई अपने ही दूसरे खेमे से लड़ रहे हैं। अब तक तोे गोलियों की दिन-रात की बौछार और बमों की चिंगारियों से पेड़ों की पतियाँ, फूल और फल बिंध कर झर गए होंगे। बंदर, नीलगाय, खरगोश, चितल, तेंदुए और हिरण यहाँ तक की अपनी बाँबियों में दुबके विषधर भी बारुद की तेज भभकने वाली आग में भून गए होंगे और हमारी झोपड़ियों के खाक हो जाने के बाद पेड़ों पर ठहरने वाले चिड़ियाओं के घोसलों का जलना-गिरना आम हो गया होगा।
और जंगल की इस आग में मेरी सुक्की का प्रेम करने के लिए बचा रह जाना, तालाब में पर्याप्त जहर छोड़ देने के बाद भी एक सुनहली मछली के जीवित तैरते रह जाने जैसा होगा।
मुझे नहीं मालूम कि इन आड़े-तिरछे अक्षरों, शब्दों और वाक्यों को निहार भर लेने के लिए सुक्की जिंदा है या नहीं, लेकिन लिखना सिख लेने के बाद मैं यह सब इसलिए भी लिख रहा हूं ताकि दुनिया को कल अचानक घट जा सकने वाली बातों की बाबत पहले से इढाला कर सकूं।
दरअसल, उस इतवारी बम कांड के बाद नामालूम क्यों, हम जेलर की नजरों में और अधिक संदिग्ध हो गये हैं। वह हमारी तकलीफें लगातार बढ़ाता जा रहा है। मालूम होता है, वह हमेशा हमें मारने के मौकों की तलाश में लगा रहता है, हालांकि उसे ऐसे मौके हाथ नहीं लग रहे हैं, क्योंकि हम हमेशा बड़े संयमित और सचेत रहते हैं। पर बात इतनी ही नहीं है। यह सब तो मैं अपने सामान्य विवेक से पकड़ रहा हूं। बुच्चू के मार्फत नानूसान ने कुछ सचमुच डरावनी बातें बतायी हैं कि ऊपरी और उससे भी ऊपरी और सबसे ऊपरी आकाओं के इशारों पर वे उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। बड़ी चालाकी से उनके लिए खामोश मौत की तैयारी की जा रही है। इसलिए नानूसान ने मुझे भी चौंकन्ना रहने को कहा है।
नानूसान अपनी कोठरी में बीमार हैं और कभी-कभी खून की उल्टियां कर रहे हैं। जेलर आखिरकार उन्हें बीमारावस्था में धकेल देने की अपनी योजना में सफल हो गया है। इसलिए उसने जानबूझ कर उन्हें उल्टियां करते हुए छोड़ दिया है। बाहर किसी को भनक तक नहीं लगने दी जा रही है। हुक्मरान उनकी प्राकृतिक मौत हो आने की आस में टकटकी बांधे बैठे हैं। दिखावा के लिए जेल का डॉक्टर उन्हें सुईयां लगाना चाहता है, लेकिन उनके लिए सबसे खतरनाक बात यही है। डर यह है कि कहीं सुईयों में हवा भर कर नसों में पैवस्त कर नानूसान को मार न डाला जाए। इसलिए नानूसान शहर के किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की बात पर डटे हैं। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं रोज-रोज उनके खाने में थोड़ी-थोड़ी विष न दी जा रही हो। यह सब देखने-समझने वाला उनके पास कोई है भी नहीं।
मैं अपनी कोठरी में चेता हुआ हूं और नानूसान तो सावधान हैं ही। बस, अब जंगल, पहाड़, गांव और शहर को भी चेत जाना चाहिए ताकि कल को कुछ ऐसा-वैसा हो जाए तो ये सब झूठे आश्चर्य में पड़ कर दिखावे में मुंह बाये न रह जाएं।

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7 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

I HAVE BEEN WATING FOR NEW STORY FROM TWO MONTHS.ARE YOU SLEEPING?

Anonymous का कहना है कि -

ye to khin de khani nhin hai

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

बलवा हुजूम अच्छी कृति है. मंज़रकशी और संकल्पना ऊंचे दर्जे की है. हां, कहानी की रफ़्तार ज़रूर कुछ कम लगी. कुल मिला कर दिलचस्प अफसाना है. अश्विनी कुमार रॉय

rakesh bhatt का कहना है कि -

bekar kahani hai. time barbad hua.

sudeep का कहना है कि -

it is a good story.I like it but ya it is quite slow.

गुरप्रीत सिंह का कहना है कि -

एक अच्छी रचना।

MY BLOG
मित्रवर,
नमस्ते।
मैँ आपको मेरे blog पर आमत्रित करता हूँ, मेरा blog क्षेत्र मेँ प्रथम प्रयास है। अपने विचारोँ से अवश्य अवगत करायेँ।धन्यवाद।
http://yuvaam.blogspot.com/p/katha.html?m=0

Unknown का कहना है कि -

Achha likha hai.

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