Monday, April 27, 2009

जीनकाठी - हरनोट की प्रतिनिधि कहानी

ए. आर. हरनोट की सबसे प्रसिद्ध कहानी

एस आर हरनोट हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध कथाकार हैं। हिमाचल की ग्राम्य विरासत, वहाँ की परम्परा, खूबियों-खामियों का कहानी के माध्यम विश्लेषण किया है हरनोट ने। पिछले दिनों इनकी कहानियों पर साहित्यालोचना के शिखर पुरूष नामवर सिंह ने दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में अपने विचार प्रस्तुत किये।

उन्होंने जिस कहानी का उल्लेख अपने वक्तव्य में किया, उस कहानी को बहुत से कहानी-मर्मज्ञ हरनोट की प्रतिनिधि कहानी मानते हैं। आज हम आपके समक्ष हरनोट की वही कहानी लेकर उपस्थित हैं। इससे पहले कहानी-कलश पर एस आर हरनोट की 'बेज़ुबान दोस्त' और 'एम डॉट कॉम' कहानियाँ पढ़ चुके हैं। बेज़ुबान दोस्त का ऑडियो संस्करण भी हिन्द-युग्म के पास उपलब्ध है।


जीनकाठी


भुंडा: पहाड़ी समाज का एक विचित्र, अद्भुत और रोमांचक उत्सव। पुराने समय में इसे हर बारह वर्ष के बाद मनाए जाने की परम्परा प्रचलित थी। लेकिन पहाड़ों में आज इसके आयोजन का कई कारणों से कोई निश्चित समय नहीं रहा है। इसमें 'बेड़ा' नामक एक पर्वतीय दलित जाति की विशेष सहभागिता और महत्व होता है। इस परिवार से एक व्यक्ति का चुनाव करके उसे यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे अस्थायी रूप से ब्राह्मण बना दिया जाता है। उत्सव के दिन देवता और ईश्वर की तरह उसकी पूजा होती है। इस धर्माचार के तहत ऊंची पहाड़ी से नीचे की ओर एक लम्बा रस्सा बांध दिया जाता है। बेड़ा अपनी जान की बाजी लगाता हुआ जीनकाठी पर बैठ कर इस रस्से पर सरकता हुआ नीचे आता है।
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सहज राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।

उसे ठण्डे पानी से नहलाया गया। पूजा के उपरान्त सारे संस्कार ब्राह्मणों की तरह करवाए गए विधिवत यज्ञोपवीत धारण करवाया गया। अब वह नीच जाति का न रह कर ब्राह्मणों की तरह पवित्र हो गया था। लोग उसे देवता का रूप मानने लगे थे। एकाएक अछूत से पंडित बन गया था सहजू। अब उसे विशेष विधि-विधान का पालन भी करना था जिसमें एक समय खाना खाना, नख और केश न काटना तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना इत्यादि शामिल था। भोजन और कपड़े उसे मन्दिर की तरफ से मिलने शुरू हो गए थे। यहां तक कि आयोजन की अवधि तक उसके पूरे परिवार का खर्चा भी देवता कमेटी को ही उठाना था।

भुण्डा उत्सव के लिए अब विशेष रस्से का निर्माण किया जाना था।

लोग देवता के तमाम वाद्यों के साथ एक पहाड़ी पर सहजू को लेकर मूंज का घास काटने चले गए थे। पहले सहजू ने ही दराटी से घास काटने की परम्परा का निर्वाह किया था। इसके बाद सभी गावों वालों ने घास काटना शुरू कर दिया। जब पर्याप्त मात्रा में घास काट लिया गया तो सभी ने घास की गड्डियों को मन्दिर के प्रांगण में लाकर रख दिया। इसी घास से सहजू को भुण्डा के लिए रस्सा बनाना था। उत्सव स्थल का मुआयना किया गया तो कुल लम्बाई 500 मीटर की निकली। इतना ही लम्बा रस्सा बनना था। मजबूती के लिए उसकी मोटाई लगभग 25-30 सेंटीमीटर रखनी ज़रूरी थी।

सहजू को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर नहाना पड़ता था। पूजा-पाठ के पश्चात् वह मूंज के घास से रस्सा बनाने में जुट जाता। यह कार्य अत्यन्त ही पवित्र माना जाता। उस समय कोई दूसरा व्यक्ति न उसके सामने आता और न ही बात करता था। कोई भी रस्से को छू तक नहीं सकता था। यदि भूल से किसी ने ऐसा कर लिया तो वह अपवित्र माना जाता। तत्काल उस पर एक भेड़ की बलि चढ़ाई जाती और नया रस्सा बनाना आरम्भ करना पड़ता। रस्सा बनाते हुए सहजू के मन में तरह-तरह के खयाल आते रहते। वह सोचता कि उसका जो बुजुर्ग बरसों पहले भुंडा निभाते रस्से से गिर कर मर गया था उसने भी इसी तरह तिनका-तिनका घास के रेशे से मौत को बुना होगा। वह इन्हीं ख्यालों में दिन भर खोया रहता। उसकी पत्नी दूर बैठी उसे चुपचाप निहारती रहती। कई बार निगाहें सहजू के चेहरे पर टिक जाया करती। उसके चेहरे पर आते-जाते भाव को पढ़ने की कोशिश करती। कभी वहां मौत की परछाई रेंगती दिखती तो कभी अपार सम्पन्नता की लकीरें बनती-बिगड़ती नजर आतीं। अपने खाविंद को एक दलित से बाह्मण होने के सुख को भी ह उसके चेहरे और आंखों पर तलाशने लगती। लेकिन कभी-कभी वह चेहरा अपने पति का न लग कर एक पाखंडी या करयालची का जैसा लगता जिस पर जबरन ब्राह्मण का मुखौटा चढ़ा दिया गया हो और लोगों द्वारा अपने मनोरंजन के लिए उसे 'स्वांगी' बना दिया गया हो।

जब सहजू रस्से बनाने का काम बन्द करता तो गांव के लोग उनके पास आते-जाते रहते। उनसे इज्जत से बतियाते। घास कम होता देख फिर काट कर ले आते।
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हिमाचल प्रदेश के छोटे से गाँव चनावग (शिमला) में जन्मे कहानीकार एस आर हरनोट की १० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूलतः कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, इतिहास और शोध आदि पर लेखन। वर्ष २००३ का अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान (कथा यू के) तथा २००७ में हिमाचल राज्य अकादमी पुरस्कार। अन्य १० प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। कई सम्पादित कहानी संग्रहों में कहानियाँ संग्रहित। हिन्दी विश्व कहानी कोश, कथा लंदन, कथा में गाँव, १९९७ की श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ, दस्तक, समय गवाह है और हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियाँ में कहानियाँ प्रकाशित। कथादेश के कथा विशेषांक-फरवरी-२००७ '१० वर्ष एक चयन' में कहानी 'जीनकाठी' संकलित। कहानी दारोश पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा 'इंडियन क्लासिक्स सीरिज के तहत' फिल्म का निर्माण। फोटोग्राफी में विशेष रूचि। हिमाचल के मेलों और त्यौहारों पर शोध ग्रन्थ पर कार्य। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम, रिट्स एनैक्सी, शिमला में सहायक महा प्रबंधक (सूचना एवं प्रसार) के पद पर कार्यरत
भुण्डा जैसे महा-उत्सव का आयोजन भगवान दत शर्मा के दिमाग की उपज थी। तहसीलदार के पद से शर्मा जी कुछ दिनों पूर्व ही सेवानिवृत हुए थे।

जिस दिन वे सेवानिवृत हुए, उन्होंने अपने गांव में पूरे ताम-झाम के साथ एक बड़ी धाम दी थी। इस सहभोज के लिए सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त गांव-बेड़ और परगने तक से लोग बुलाए गए थे। दफतर से तो उनके नए-पुराने साथी आए ही थे, परन्तु अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक को भी विशेष रूप से आमन्त्रित किया था। विधायक के साथ प्रशासन के सभी अधिकारीगण पधारे थे। गांव के देवता को भी बुलाया गया था। शर्मा जी जब अपने दफतर से गांव पहुंचे तो साथ दस-पन्द्रह छोटी-बड़ी गाड़ियां थीं। अंग्रेजी बाजे के साथ ढोल-नगाड़ा बजाने वाली पार्टी को बुलाना भी नहीं भूले थे। इससे जहां उन्होंने तहसीलदारी की ठीस बरकरार रखने की कोशिश की वहां लोगों के बीच अपनी छवि को एक धार्मिक दृष्टि देने का भी प्रयास किया था।

धाम में कई प्रकार के पकवान बनाए गए थे। कई तरह की शराबें उपलब्ध थीं। पांच बकरे भी काटे गए थे। लोगों ने इससे पहले कभी ऐसा जशन नहीं देखा था। इसीलिए इस कार्यक्रम की चर्चा काफी दिनों तक होती रही। शर्मा जी ने इतना बड़ा आयोजन करके एक साथ कई निशाने साधे थे। लेकिन ये सब उनके मन की बातें थीं जिसकी वे किसी को भी भनक नहीं लगने देना चाहते थे। वे जानते थे कि जिस ठाठ से उन्होंने नौकरी की है, सेवानिवृति के बाद वह ठसक कहां रहने वाली ? सभी कुर्सी को प्रणाम करते हैं। बाद में तो कोई कुत्ता भी नहीं पूछता। बैंक-बेलैंस भले ही लाखों में हो पर जब तक कोई कुर्सी का जुगाड़ न हो तो आदमी आदमी रहता ही कहां है। वेसे भी शर्मा जी तहसीलदार के पद से रिटायर हुए थे। पैसा खूब कमाया था। इज्जत-परतीत -खासी बटोरी थी। काम लोगों के बहुत किए। ऐसा नहीं कि वे दूध के धुले हुए थे। पर पैसा इस ढंग से बनाया कि अपने ऊपर कोई आंच तक न आने दी।

अट्ठावन साल की उम्र में भी भगवान दत शर्मा चालीस के आसपास ही लगते थे। अभी भी गाल लाल थे। झुर्रियों का कहीं नामोंनिशान न था। हालांकि बाल कई बरस पहले सफेद हो चुके थे लेकिन मेंहदी से उन्हें काले किए रखते थे। माथा काफी चौड़ा था। गोल चेहरा ठोडी तक आते-आते थोड़ा नुकीला था। हल्की मूंछे उन पर खूब जंचती थी। माथे पर चंदन और कुमकुम मिश्रित टीका वे हमेशा लगाए रखते। नौकरी में उन्होंने कभी टाई और कोट पहनना नहीं छोड़ा। कोट की जेब में टाई के रंग से मिलता रूमाल वे हमेशा रखते। इसीलिए ठाठबाठ देख कर उनके वरिष्ठ अफसरों का भीतर ही भीतर फुंके रहना स्वभाविक था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना लिबास बदल लिया था। अब फेरीदार पाजामे-कुरते के साथ वे नेहरूकट सदरी पहनते और जेब में बाहर झांकता लाल रूमाल सजा रहता। इस चमक-धमक से भी उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हटकर ही लगता था।

शर्मा जी का परिवार गांव में सबसे सम्पन्न था। वे तीन भाई थे। तीन ही गांवों के मालिक। उन्हें बड़े जमींदार भी कहा जा सकता था। अपने परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएं और तीन पोतू-पोतियां थे। दो लड़कियों की शादी हो चुकी थी। छोटा लड़का बी0डी0ओ0 लग गया था। बड़ा कत्थे का ठेकेदार था। साथ जमींदारी भी संभालता था। पानी लगती ज़मीन थी। फसलों के साथ खूब सब्जियां होती थीं जिनसे अच्छी-खासी आमदनी थी। दो क्वालिस गाड़ियों के साथ दो ट्रक भी थे। गोरखों की एक लेबर लगातार खेती-बाड़ी के काम में लगी रहतीं।
पहला काम शर्मा जी ने देवता कमेटी में घुसने का किया था। कई दिनों तक देवता के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। लेकिन जब कमेटी में सरपंच के चुनाव हुए तो लोगों के पास उनसे बढ़िया विकल्प कोई नहीं था। सर्वसम्मति से सरपंच चुन लिए गए। यह उनके धार्मिक जीवन की शुरूआत थी। यहीं से वे ग्राम पंचायत की प्रधानी तक जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अभी से जुगाड़ भिड़ाने शुरू कर दिए थे। शर्मा जी अब कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे गांव-परगने में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी उनकी साख का डंका बजना शुरू हो जाए। उनकी खूब वाह-वाह हो और विधायक तथा मुख्य मन्त्री तक खूब पहुंच भी बन सके। देवता को इसका माध्यम् बनाने की उन्होंने सोची थी।

उनका पूरा गांव ब्राह्मणों का था। पांच गोत्रों के ब्राह्मण वहां रहते थे। इसे एक प्राचीन सांस्कृतिक गांव भी माना जाता था। कालान्तर से यहां बारह बरस के अन्तराल के बाद निरन्तर भुण्डा महोत्सव मनाया जाता रहा। गांव में कई प्राचीन मन्दिर अभी भी मौजूद थे। जिनका न केवल धार्मिक बल्कि पुरातात्विक महत्व भी था। गांव में चार-पांच परिवार दलितों के थे। उन्हीं में एक परिवार ''बेड़ा'' जाति का था जो भुण्डा में मुख्य भूमिका निभाया करता। लेकिन बरसों पहले उनके परिवार का एक सदस्य भुण्डा का रस्सा टूटने से मर गया था। शर्मा जी ने अपने दादा-पड़दादाओं से इस कथा को सुन रखा था जो मन में आज भी तरोताजा थी। जब बेड़ा को जीन-काठी पर बिठा कर रस्से पर छोड़ा गया तो कुछ दूरी पर वह रूक गई। बेड़ा बेचारा न आगे खिसक पाया न पीछे। रस्से में बाट पड़ गए थे। लोगों ने दोनों ओर से बहुत प्रयत्न किए कि बेड़ा की जीन-काठी आगे खिसक जाए लेकिन सभी प्रयत्न असफल हो गए। उन्होंने जब रस्से को जोर-जोर से लकड़ी के डंडों से पीटना शुरू किया तो रस्सा टूट गया। बेड़ा कई सौ फुट नीचे चट्टानों पर गिर पड़ा और मृत्यु हो गई। उस गांव और परगने के लिए वह दिन बड़े अनिष्ट का माना गया था। उसके बाद गांव में भयंकर महामारी फैल गई। गांव की आधी से ज्यादा जनसंख्या मौत के मुंह में चली गई। इसीलिए गावों के ब्राह्मणों ने बेड़ा के परिवार के साथ दूसरे दलितों को भी गांव से भगा दिया और सारे अनिष्ट का ठीकरा उन्हीं के सिर फोड़ डाला।
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अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शर्मा जी को इससे बेहतर और कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा था। वे जानते थे कि उस हादसे के बाद गांव में कभी भुण्डा नहीं हो पाया था। हालाकि दूसरे गांवों में कभी-कभार बीस-चौबीस बरसों के अन्तराल से ही सी यह आयोजन होता ही रहा था। अपनी तहसीलदारी के रहते उन्होंने भी कई आयोजन करवाए थे। परम्पराएं उसी तरह निभाई जाती थीं लेकिन 'बेड़ा' को जितने लम्बे रस्से पर उतारा जाता उसके नीचे उतनी ही लम्बी जाली भी बिछा दी जाती थी। बेड़ा किसी कारण गिरे भी तो उसे तत्काल बचाया जा सकता था। कई जगह 'बेड़ा' जाति का कोई व्यक्ति उपलब्ध न होने पर लोग बकरे को ही जीन-काठी पर बांध कर छोड़ते थे।

शर्मा जी ने यह बात एक दिन देवता कमेटी के सदस्यों से की। सभी को उनकी बात खूब जची थी। देवता के गूर का विचार था कि उनके गांव पर अभी तक उस अनिष्ट का साया कायम है। वह तभी मिट सकता है जब गांव में भुण्डा का आयोजन किया जाए। इससे गांव पहले जैसा सम्पन्न और खुशहाल भी हो जाएगा। लेकिन बात लाखों रूपए के व्यय की थी। आज की महंगाई में इतना बड़ा आयोजन करना नामुमकिन था। इसका समाधान भी शर्मा जी ने ही निकाल दिया था। उन्होंने तत्काल एक लाख रूपए देवता कमेटी को दान देने का वादा कर दिया। इससे सभी सदस्यों का मनोबल बढ़ गया। दूसरा विकल्प यह निकाला गया कि देवता के पास जो बरसों का सोना-चांदी पड़ा है उसे अच्छी कीमत पर बेच दिया जाए। देवता का धन यदि देवता के ही काम आए तो इसमें बुरा भी क्या.......? इस बात पर सभी की सहमति बन गई थी।

अब समस्या ''बेड़ा'' को ढूंढने की थी। गांव में किसी को भी पता नहीं था कि बरसों पहले निकाले जाने के बाद वे लोग कहां जा कर बस गए थे। शर्मा जी ने ही इसका समाधान भी निकाला था। उन्होंने बेड़ा को तलाश करने और गांव में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। देवता कमेटी उनकी सक्रियता को देख कर बेहद प्रभावित थी। उन्हें खूब मान-प्रतिष्ठा भी मिलनी शुरू हो गई थी। देवता से लेकर गांव-परगने के कई दूसरे छोटे-बड़े काम अब उन्हीं के सलाह-मशविरे से होने लगे थे। यह सुख शर्मा जी को तहसीलदार की कुर्सी से कहीं बढ़ कर लगने लगा था।

शर्मा जी मन ही मन बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने आयोजन की पूरी रूप-रेखा अपने मन में तैयार कर ली थी। यह भी तय कर लिया था कि प्रदेश के मुख्य मन्त्री को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाए। गांव-बेड़ में जब देवता कमेटी के निर्णय का पता चला तो लोग हैरान-परेशान हो गए। इतने बड़े आयोजन के लिए वे तैयार नहीं थे। लेकिन शर्मा जी और कमेटी के अन्य सदस्यों ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया था।.......फिर इतने बड़े पुण्य से वंचित भी कौन रहना चाहता था ?

शर्मा जी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बेड़ा' परिवार तलाशने की थी। 'बेड़ा' जाति के लोग दूर-दूर तक भी अब नहीं रहे थे। भीतर की बात यह थी कि जिस परिवार को अनिष्टकारी मानकर गांव से निकाला गया था उसी के सदस्य को लाना जरूरी था। गांव के बुजुर्गों और कुल पुरोहितों का मानना था कि गांव पर उन लोगों का अभिशाप अभी तक भी बैठा है। क्योकि जो 'बेड़ा' रस्से से गिर कर मरा था उसमें उसका तो कोई दोष नहीं था। इसलिए यदि उसी परिवार का कोई रस्से पर उतरे तो दो काम सफल हो जाएंगे। पहला कलंक और शाप से छुटकारा और दूसरा भुण्डा के सफल आयोजन से पुण्य ही पुण्यका फल।

शर्मा जी गांव के एक-दो लोगों को लेकर पहले विधायक जी के पास पहुंचे और इस सन्दर्भ में बात की।

'' देखो विधायक जी! हमारे गांव में लगभग डेढ़ सौ साल बाद भुण्डा होगा। मुख्य अतिथि तो आपको मुख्य मन्त्री जी ही लाने हैं। इससे आपका भी भला और हमारे साथ गांव का भी फायदा।''

शर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक विधायक के आगे प्रस्ताव रखा था।

विधायक जी को तत्काल कुछ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से 'बेड़ा' के रस्से पर से गिरने से हुई मौत की बात सुन रखी थी। वे खुद भी दलित वर्ग से थे। उनका चुनाव-क्षेत्र आरक्षित था। सिगरेट के कश लगाते हुए काफी देर मन ही मन में बैठकें करते रहे। उनका विचार बरसों पहले घटी घटना की तरफ चला गया। उसकी आड़ में उन्होंने अपने फायदे-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया। दलितों की वोटों की तरफ एक सरसरी नजर दौड़ाई जो उन्हें पिछले चुनाव में बहुत कम मिले थे। दूसरी सबसे बड़ी बात उन्हें इस इलैक्ट्रॉनिक युग में अपनी पुरानी परम्पराओं के साथ अपने को जोड़ने की लगी। तीसरी जो मुख्य बात समझ में आई वह थी गांव से निष्काशित 'बेड़ा' और दलित परिवारों को पुन: इस बहाने सम्मान दिलाने की थी। यह अवसर उन्हें 'ऑल इन वन' जैसा लगा।

विधायक जी ने मन में खूब जोर का एक ठहाका लगाया लेकिन उसका भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर उतारते हुए कहने लगे,

''शर्मा जी! धन्य है आप। नौकरी करते हुए भी अपनी परम्पराएं मन में बचा रखी हैं। वरना रिटायरमैंन्ट के बाद तो लोग सठिया जाते हैं। कोई तो इस गम से परेशान होकर दो साल भी नहीं निकाल पाते। आपने तो इतना बड़ा बीड़ा उठाया है। बड़ी समाज सेवा है भई। मैं तो आपके साथ हूं। मेरे लिए आप जो सेवा दें, सिर माथे।''

शर्मा जी खुश हो गए। मन में कुल देवता को नमन किया। उसी के परताप से सब शुभ हो रहा है। पर दूसरे पल कुछ चिन्ताओं की रेखाएं अनायास चेहरे पर उमड़ी तो विधायक जी ने टोक दिया,

'' कुछ परेशान दिख रहे हैं शर्मा जी ? ''

'' नहीं...नहीं विधायक जी ऐसी बात नहीं है।''

'' भई मैं आपके साथ हूं। कुछ है तो नि:संकोच बताएं। ''

साथ दूसरा व्यक्ति बैठा था। उसने पहले विधायक जी के चेहरे पर नजर दी। फिर शर्मा जी की तरफ देखा। चिन्ता का उसी ने समाधान किया था।

'' परेशानी उस बेड़ा परिवार को तलाशने की है जिन्होंने गांव छोड़ दिया था। ''

विधायक जी ने सुना तो आंखें लाल हो गईं। मन अपमान से तिलमिला गया। जैसे बरसों पहले गांव से उन्हें ही निकाला गया हो। लेकिन पल भर में सहज हो लिए।

'' उनकी फिक्र आप क्यों करते हैं शर्मा जी। कागज लाइए पता मैं बता देता हूँ।....है तो बहुत दूर। लेकिन जब आप सभी ने इतने बड़े आयोजन की ठानी है तो दूरियां कैसी। हाँ थोड़ी-बहुत मान-मनौती तो करनी ही पड़ेगी । बात भले ही बरसों पहले की है पर बेइज्जती के जख्म तो सदा हरे ही रहते हैं न।''

शर्मा जी और उनके साथ बैठे दोनों आदमी थोड़ा झेंप गए। लेकिन शर्मा जी को सूत्र मिल गया था। झट से डायरी निकाली और विधायक जी के पास पकड़ा दी। उन्होंने सदरी की जेब से पेन निकाला और पता लिख दिया।

शर्मा जी ने डायरी वापिस पकड़ी और पता पढ़ते हुए टेलीफोन शब्द पर नजर पड़ी तो चौंक गए....,

'' टेलीफोन भी है ....? ''

विधायक जी अपना आपा खोते-खोते रह गए।

'' क्यों शर्मा जी इन लोगों के पास टेलीफोन या दूसरी सुविधाएं नहीं होनी चाहिए थी। ''

बात हृदय में सुई की तरह चुभी। पर संभल गए।

'' कैसी बात करते हैं विधायक जी। मेरा इरादा कोई ऐसा-वैसा थोड़े ही था। बस देख कर खुशी से चौंक गया था कि काम और आसान हो गया। ''

'' ऐसा मत करना शर्मा जी। फोन से बात मत करना। वरना बना-बनाया खेल बिगड़ेगा। मान-सम्मान से जाना उनके पास। कठिन काम है। अब आपकी तहसीलदारी देखनी है कि कितनी काम आती है।''

शर्मा जी को विधायक जी चुनौती देते दिखे थे। लेकिन काम अपना था, चुपचाप उठे और विधायक जी को प्रणाम करके निकल आए।
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जब दलित परिवार उस गांव से निकाले गए तो वे कई दिनों भूखे-नंगे भटकते रहे थे। उन्होंने मांग-मांग कर गुजारा किया था। कई सदस्य मर भी गए। बड़ी मशक्कत के बाद एक परिवार ने उनकी मदद की और उन्हें कुछ जमीन भी दे दी। मेहनत से उन्होंने अपना एक छोटा सा गांव बसा लिया। शर्मा जी ने तो कभी उस गांव का नाम तक नहीं सुना था।

गांव लौट कर देवता कमेटी से चर्चा हुई तो सभी खुश हो गए। शर्मा जी और कमेटी के दो अन्य कारदार तत्काल 'बेड़ा' को आमन्त्रित करने चल दिए। जहां तक सड़क थी वहां तक वे लोग गाड़ी से गए थे। लेकिन वहां से लगभग सात मील का चढ़ाई वाला रास्ता ''बेड़ा'' परिवार के गांव तक पहुंचता था। शर्मा जी को पैदल चलने की कतई आदत नहीं रही थी। तहसीलदारी में तो ऐसे रास्तों के लिए पहले से ही घोड़ा उपलब्ध रहता। लेकिन इस समय तो अपने पांव से ही काम चलाना पड़ा। जैसे-कैसे शाम ढलने से पहले वे वहां पहुंचे गए थे।

उसे गांव का नाम देना शर्मा जी को बेमानी लगा था। एक घाटी की ढलान की ओट में चार-पांच घर थे। अनघड़े पत्थरों से उनकी छतें छवाई गई थी। उनमें दो-तीन घर दो मंजिला थे। लेकिन थे साफ-सुथरे। नीचे और ऊपर की तरफ छोटे-छोटे खेत थे जिनमें गेहूं और जौ की फसल लहलहा रही थी। उन घरों के आंगन से एक चौड़ा रास्ता घासणी के बीचोबीच दूसरी तरफ कहीं गुम होता दिखाई दे रहा था। एक घर के पास पहुंचते ही दो-तीन कुत्तों ने उनका स्वागत किया। लेकिन तभी एक महिला आंगन में निकली और कुत्तों को चुप करवा दिया। उसने कुछ अपनी पहाड़ी बोली में कहा था लेकिन शर्मा जी उसे नहीं समझ सके। तभी भीतर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला तो शर्मा जी ने उससे बात शुरू कर दी। वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता था। जब यहां रह रहे बेड़ा परिवार के बारे में पूछा तो उसने घासणी के मध्य से आगे निकलती पगडंडी की तरफ इशारा कर दिया। वे उधर निकल चल दिए थे।

दूसरी तरफ पहुंचे तो उनकी नजर एक पक्के दो मंजिला मकान पर पड़ी। वे पगडंडी से नीचे उतरकर उस घर के आंगन में पहुंच गए।

एक बजुर्ग आंगन में बैठा तम्बाकू पी रहा था। उसने हल्की काली ऊन का कुरता-पाजामा पहन रखा था। सिर पर लाल रंग की गोलदार पहाड़ी टोपी थी। दाईं तरफ एक किल्टा रखा था जिसके भीतर दो बिल्ली के बच्चे खेल रहे थे। एक मेमना भीतर से भाग कर आता और किल्टे में सिर की डकेल मार कर फिर भीतर भाग जाता। किल्टा रेंग कर इधर आता तो वह बजुर्ग हल्का सा धक्का देकर उसे दूर कर लेता। सामने रखी टोकरी में कई सफेद-भूरी ऊन के फाहे रखे हुए थे। कश लेते हुए वह एक फाहा उठाता और तकली से कातने लग जाता। शर्मा जी की नजरें कुछ
पल उस तकली के साथ घूमती रही। पास ही एक दराट भी पड़ा था। शर्मा जी की नजरें उसके कान पर पड़ी। बड़े-बड़े सोने के बाले देख कर वह चौंक गए।

शर्मा जी कुछ पूछते, तभी एक आदमी भीतर से बाहर निकला। उसकी उम्र पैंतालीस के आसपास लग रही थी। अचानक पखलों को आंगन में देख कर ठिठक गया। शर्मा जी ने एक सांस में अपना परिचय दे दिया। गांव का नाम सुनते ही बुजुर्ग जोर से खांसा और कई पल खांसता रहा। खांसी कम हुई तो फटाफट किल्टा सीधा करके बिल्ली के बच्चों को उस के अन्दर कैद कर दिया। भीतर से खटर-पटर की आवाजें आती रहीं। तकली टोकरी में फैंक कर पास पड़े दराट पर दांया हाथ चला गया। उसने टेढ़ी गर्दन करके उन लोगों को सिर से पांव तक देखा। आंखों में खून तैर रहा था। गुस्से से पूरा शरीर कांपने लगा था। शर्मा जी ने सरसरी नजर उसके चेहरे पर डाली पर आंख मिलाने की हिम्मत न हुई। एक बार लगा कि वह बूढ़ा अपना हुक्का चिलम समेत उन पर फैंक देगा। या दराट लेकर पीछे ही दौड़ा आएगा। उसने एक साथ कई कश हुक्के की नड़ी से खींचे। शर्मा जी इस अप्रत्याशित गुड़गुडाहट के बीच जैसे फंस से गए थे।

उन्होंने डरते-डरते जैसे ही भुंडा की बात शुरू की वह बुजुर्ग हांपता हुआ खड़ा हो गया। देख कर ऐसा लग रहा था मानो उस पर किसी देवता की छाया आ गई हो। उसने जैसे ही दराट का वार शर्मा जी पर करना चाहा भीतर से आए आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसे मुश्किल से संभाला और खींचते हुए भीतर ले गया। अभी भी वह टेढ़ी गर्दन से पीछे देख रहा था। शर्मा जी और उनके साथियों की पांव तले की जमीन खिसक गई। मारे भय के वे घर के पिछवाड़े हो लिए।

भीतर कुछ देर उन लोगों की आपस में बोल-चाल होती रही जिसकी आवाजें शर्मा जी के कान में गर्म तेल की तरह पड़ती रही। उनके न तो वहां रूकते बन पा रहा था न जाते। आज शर्मा जी ने अपने को इतने विवश पाया जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें भुंडा के आयोजन पर पानी फिरता नजर आने लगा। एक मन किया कि वहां से तत्काल खिसक लिया जाए। लेकिन मन पर स्वार्थ की परतें इतनी गहरा गईं थीं कि पांव पीछे मुड़ने के बजाए आंगन की तरफ सरकने लगे।

वह आदमी गुस्से में बाहर निकलते ही उन पर चिल्ला पड़ा,

'' यहां से चले जाएं आप लोग। क्या सोच रखा है। कैसे निकाला था हमारे बुजुर्गों को। सब जानते हैं। हम वहां दोबारा जलील होने जाएं......आप लोगों ने यह सोचा कैसे। हम बेवकूफ नहीं हैं। आज की बात होती तो बताते। हां।''

शर्मा जी एक पल के लिए सकते में आ गए। पर उसके खाली हाथ देख हिम्मत बटोर कर उसके सामने चले आए। अपनी गरज थी, दोनों हाथ जोड़ दिए,

'' देखो भाई! जो कुछ आपके साथ हुआ, उसमें हमारा क्या दोष...? हम उसके लिए आप सभी से माफी ही मांग सकते हैं। इसी खतिर आए भी हैं। आज जो चाहें आप सजा दे सकते हैं। भला-बुरा बोल सकते हैं। सब कुछ सर-माथे। हम ही नहीं सारा गांव उसके लिए शर्मिन्दा भी है। हम चाहते हैं कि आप भुंडा निभाए। हमारे साथ-साथ पुण्य के भागीदार भी बनें।''

'' तुम्हारे गांव के बुजुर्गों ने अच्छा नहीं किया था। सब कुछ उजाड़ दिया हमारा। आज किस मुंह से आप यहां आए। बाबा कुछ बीमार है। ठीक होते तो पता नहीं क्या कर देते.......हे भगवान!''

यह कहते-कहते उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। जैसे कोई बड़ी अनहोनी टल गई हो।

शर्मा जी आगे बढ़े और आत्मीयता से उसके दोनों हाथ अपने हाथों में भर लिए। अति विनम्र और स्नेह से कहने लगे,

'' भाई ! मत समझो कि हम यहां अपनी मर्जी से आए हैं। यह देव आज्ञा है। हम कौन होते हैं। हमारी औकात ही क्या..? सभी उस देवता-ईश्वर की मर्जी है। हम तो आपके आगे हाथ ही जोड़ सकते हैं। आपके बुजुर्ग के पांव ही पड़ सकते हैं।''

शर्मा जी को अपने काम के लिए ''गधे को मामा' बोलने वाली कहावत इस वक्त बिल्कुल उचित जान पड़ रही थी।

देवता का वास्ता सुनकर वह थोड़ा सा सहज हुआ। कहा कुछ नहीं। उल्टे पांव भीतर लौट गया। दरवाजे पर पहुंचते ही एक लड़के ने उसे पानी का बड़ा सा डिब्बा पकड़ा दिया। उसने खड़े गले सारा पानी गटक लिया। शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्हें एक पल लगा कि किए-किराए पर पानी फिर गया है। भीतर वह बुजुर्ग जोर-जोर से अपनी बोली में गालियां बक रहा था। काफी देर बाद वह आदमी जब दोबारा बाहर आया तो हाथ में तीन प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। शर्मा जी ने देखा तो जान में जान आई। कुर्सियां आंगन में पटका दीं।

अब तक इधर-उधर से कुछ मर्द और आरतें भी आंगन के उस तरफ इकट्ठे हो गए थे। पंडितों का उनके आगे इस तरह गिड़गिड़ाना सभी को अकल्पनीय लग रहा था।

वातावरण में भरी उमस जैसे हल्की हो गई। उसने तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वे चुपचाप बैठ गए। फिर किल्टा उठाया। बिल्ली के दोनों बच्चे भाग खड़े हुए। ऊन की टोकरी और हुक्का एक किनारे रखते हुए अपना नाम बताने लगा,

'' मैं सहज राम.....घर में सहजू ही बोलते हैं। वो मेरे पिता जी.......सौ पार कर गए है।''

'' सौ पार......?''

शर्मा जी और दोनों कारदार स्तब्ध रह गए। बुजुर्ग इतनी उम्र का दिखता ही नहीं था।

सहज राम की बातचीत करने के ढंग से लग रहा था कि वह कुछ पढ़ा लिखा भी है। शर्मा जी लम्बी भूमिका नहीं बांधना चाहते थे। उन्होंने उससे सीधी बात की और पहले की घटना पर दोबारा अफसोस ही नहीं जताया बल्कि गांव और देवता की तरफ से माफी भी मांग ली थी। सहजू ने कुछ देर मन में विचार-विमर्श किया। फिर भीतर चला गया। बाहर खड़े लोग भी भीतर हो लिए। उन सभी की काफी देर खुसर-फुसर होती रही। काफी देर बाद बाहर आया और भूंडा में आने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। शर्मा जी और उनके साथी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। उन सभी का आभार जताया और वहां से खिसक लिए। तीनों के चेहरे पर इसका सुख तो झलक रहा था लेकिन मन पर पड़ी चोटें इतनी गहरी थीं कि सड़क तक किसी ने कोई बात ही नहीं की।
·

देर रात वे गांव पहुंचे थे। पर कोई भी रात भर सो न पाया था। सुबह जब देवता कमेटी के सदस्यों और लोगों को शर्मा जी ने बताया कि 'बेड़ा' मिल गया है तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके बाद गांव के हर घर में भुण्डा उत्सव प्रवेश कर गया था। सभी तैयारियों में जुट गए थे। अपनी-अपनी तरह से सोचते-विचारते लोग जैसे-कैसे भी अपने खोए हुए पुण्य को फिर से कमाना चाहते थे। अपने घर-परिवार, पशु और खेती को विपत्तियों से सदा-सदा के लिए मुक्त कर देना चाहते थे।

भुण्डा उत्सव की प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो गईं थीं। सबसे पहले गांव वालों की एक सभा बुलाई गई। सभा का आयोजन मुख्य देवता के मन्दिर के प्रांगण में हुआ था। मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने लगभग डेढ़ मीटर ऊँचाई पर स्थित चौंतड़ा था। गांव के पंच और देवता के कारदार इसी पर बैठकर ऐसे कार्यक्रमों के निर्णय लिया करते थे। इस पर पंचो के बैठने के आसन बने थे जिनके पीछे ऊंचे पत्थर लगे थे। शर्मा जी सरपंच थे इसीलिए उनका स्थान मध्य में था। चारों तरफ दूसरे कारदार और मुखिए बैठ गए। गांव के लोग चौंतड़े के चारों तरफ नीचे बैठ गए थे। देवता के गूर के साथ बैठ कर पुरोहितों ने लम्बी बातचीत के बाद मुहूर्त और तिथियों को अन्तिम रूप दे दिया और सहजू को सर्वसम्मति से 'बेड़ा' नियुक्त कर लिया गया।

मुहूर्त के मुताबिक जब सहजू को शर्मा जी ने इस बारे बताया तो उसने एक शर्त यह रख दी कि रस्सा उतना ही लम्बा बनेगा जितना कि पिछले भुण्डे में उनके बुजुर्ग ने बनाया था। दूसरी शर्त यह थी कि रस्से के नीचे बचाव के लिए कोई जाली इत्यादि नहीं लगाई जाएगी। शर्मा जी के लिए यह शर्त काठ की तरह सिर पर पड़ी थी। उन्होंने तत्काल कुछ कहना ठीक नहीं समझा लेकिन यह बात परेशानी की तो थी ही। रस्से के नीचे बिना जाली लगाए यदि दोबारा वही हादसा हो गया तो किए किराए पर पानी फिर जाएगा। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई समाधान न सूझा तो सारी बात देवता के हवाले कर दी गई। पर 'बेड़ा' की शर्तें मानने के इलावा उनके पास कोई चारा भी न था।

अब सारा गांव भुंडा की तैयारियों में जुट गया था। देवता के पंचों ने गांव के लोगों के लिए कई कार्य निर्धारित कर दिए थे। साथ ही उत्सव के आयोजन के व्यय को देखते हुए प्रत्येक परिवार को पांच सौ रूपए और एक-एक मन चावल की जोड़ भी डाल दी गई थी। इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया था। सभी अपने-अपने घरों की लिपाई-पुताई में लग गए थे। प्रत्येक घर में से एक सदस्य देवता कमेटी के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त कर लिया गया था। पूरे गांव के रास्ते साफ होने लगे थे। कोई बर्तन इकट्ठे करता, तो कोई जंगल से पत्ताों को लाकर पत्तालें बनाता तो कोई घर-घर जाकर निर्धारित जोड़ की उगराही करता रहता। शहर से रोज ही अब एक आध ट्क सामान का भी आ जाता जिसकी ढुलाई लोग मन्दिर तक मिलजुल कर करते।

भुण्डा के आयोजन की खबर जब इधर-उधर पहुंची तो प्रशासन के भी कान खड़े हो गए। हालांकि अभी देवता कमेटी की तरफ से कोई विधिवत निमन्त्रण नहीं निकला था लेकिन प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने वहां आना-जाना शुरू कर दिया था। कभी कोई प्रशासन का आदमी, कभी कोई पुलिस वाला तो कभी विधायक के चमचे पहुंचने लगे थे। शर्मा जी इस आयोजन के दूल्हा बन गए थे। सारे काम उनकी सलाह-मशविरे से हो रहे थे। उनकी आंखों में उज्जवल भविष्य के सपने तैरने लेगे थे। कुछ दिनों की सेवानिवृति ने जो ऊँघूपन उन्हें दिया था वह चेहरे पर बैठी रौनक ने भगा दिया था। उन्हें कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा था मानो वह नए-नए तहसीलदार बन गए हों।

कार्यक्रम के अनुसार नियुक्त किए गए लोग सहजू को लाने उसके गांव चले गए थे। उसे बाजे-गाजे के साथ गांव लाया गया था। साथ उसकी पत्नी और एक बच्चा भी था। जिस दिन सहजू बेड़ा को गांव लाया गया उस दिन से छ: माह बाद भुण्डा का आयोजन होना था। सहजू और उसके परिवार को मुख्य देवता के मन्दिर के एक कमरे में रखा गया था। यह सुखद आश्चर्य ही था कि जिन देवता के मन्दिर प्रांगण में आज भी किसी दलित को नहीं जाने दिया जाता, सहजू 'बेड़ा' और उसके बच्चे देवता के मन्दिर में वास करने लगे थे।


जैसे-जैसे उत्सव के दिन नजदीक आते गए रस्सा लम्बा होता गया। जिस रोज रस्सा पूरा हुआ सहजू और उसकी पत्नी उसे एकटक देखते रहे......मानो रस्सा पूरा न होकर जीवन ही सम्पूर्ण हो चला हो। अपने हाथों से मौत का सामान तैयार करने का दर्द उन दोनों के मन में बसा था। लेकिन भुण्डा जैसे कालान्तर से चले आ रहे महोत्सव में एक दलित से देवता बनने का सुख भी मौजूद था। यह सुख उस मौत के एहसास से कहीं बड़ा था। शायद उससे भी कहीं ज्यादा था बरसों से निर्वासित जीवन जीने के बाद पुन: मिलता आदर। ब्राह्मणों की बैंठ और देव-पंक्ति में मिला उच्च स्थान का क्षणिक अपितु अविस्मरणीय आनन्द।

रस्से को पूर्ण निर्मित देख कर देवता के कारदारों ने निर्धारित स्थान पर बने हवन कुण्ड को खोल दिया था। मुहूर्त के मुताबिक अब आग लाने की रस्म अदायगी थी। हवन जलाने के लिए आग केवल क्रौष्टु ब्राह्मण(कृष्ण गौत्र) के घर से ही लाई जानी थी। गांव में एक शास्त्री जी इस गौत्र से थे। देवता के कारदार और अन्य लोग कुछ सुनारों के साथ आधी रात को बाजा-बजंतर लिए उसके घर पहुंच गए। उनके साथ एक तांबे की अंगीठी और एक मेढा(नर भेड़) भी थे। कई विधि-विधानों के तहत् देवदार के वृक्ष की लकड़ी जलाकर आग तैयार की गई और उसे तांबे की अंगीठी में डाल दिया गया। अंगीठी को सुनारों ने मेढा के सिर पर रख दिया और उसे लेकर वापिस लौट आए।

बेचारा मेढा ढोल-नगाड़ों और पारम्परिक वाद्य संगीत के बीच कई पल अग्नि-वाहक बना रहा। सभी उसकी सेवा में जुटे थे। वह उस दौरान षायद सहजू की तरह अपने आप को भी ब्राह्मणों से ज्यादा सम्मानित समझ बैठा होगा। जैसे ही हवनकुंड के पास लोग पहुंचे तो आग की अंगीठी उसके सिर पर से उतार कर कुंड में रख दी गई और तत्काल उस पर उसकी बलि दे दी गई।

अग्नि प्रज्जवलित कर दी गई थी। हवन कुण्ड पर यज्ञेश्वरी देवी की प्रतिमा का निर्माण किया गया। उसकी प्राण-प्रतिष्ठता हुई। मेढे की जान लेकर......। अब यहां भुण्डे के अन्तिम दिन तक हवन चलना था।

अब मुख्य देवता की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाला जाना था जो कि धर्माचार का एक अहम हिस्सा था। देवता की मूर्ति एक गुफा मन्दिर में प्रतिष्ठित रहती थी जिसे केवल भुण्डा जैसे विशाल आयोजन में ही बाहर निकाला जाता था। इसके साथ कई अन्य छोटी मूर्तियां और सामान भी होता था। दैनिक पूजा और दूसरे अनुष्ठानों एवं जातराओं इत्यादि के लिए देवता की एक अन्य मूर्ति नीचे की मंजिल में रखी होती थी। लोग जानते थे कि पिछले भुण्डा के दौरान मन्दिर के किवाड़ बन्द कर दिए गए थे। इसीलिए लोगों की उत्सुकता अब कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। देव मूर्ति को निकालने का कार्य हर कोई नहीं कर सकता था। विधिनुसार यह काम उस गांव के एक ब्राह्मण को तीन सुनारों के साथ करना था। इन तीनों के सिर भीतर जाने से पूर्व मूंड दिए गए थे और उनके मुंह में परजतने (पंचरत्न) भी डाल दिए गए थे। वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से कफन का कपड़ा लिपटा दिया गया था। वे अन्धेरे में ही भीतर गए थे और जिस के हाथ जो मूर्ति और दूसरी सुसंगत वस्तुएं लगीं उन्हें बाहर उठा कर ले आए थे।

देवता के गूर ने जैसे ही मूर्ति के दर्शन किए वह सकते में पड़ गया। वह नकली मूर्ति थी। किसी सस्ती धातु की इस मूर्ति को मूल रूप दे दिया गया था। गूर के सिवाए किसी को यह पता नहीं लग पाया कि वह मूर्ति असली नहीं थी। श्रध्दा और अपार आस्था में रत लोग देवता का जयकारा कर रहे थे।........ असली मूर्ति की कुछ सालों पूर्व मन्दिर से चोरी हो गई थी। देवता की वह प्रतिमा बेशक़ीमती धातु की बनी थी जिसके माथे पर एक हीरा जड़ा था। जब वह बाहर धूप में रखी होती तो उसके मुख से पसीने जैसा तरल पदार्थ निकलने लगता और नीचे रखी कटोरी भर जाती। उसे चरणामृत के रूप में लोगों में बांट दिया जाता था जिसे लोग बड़ी श्रध्दा से ग्रहण करते थे। उसकी कीमत भी करोड़ों में आंकी जाती थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि जो मूर्ति आज उनके समक्ष मौजूद है, वह नकली है..?

गूर अभी तक स्तब्ध खड़ा था। उसने पुन: उन लोगों को भीतर भेजा लेकिन वे पुन: खाली हाथ लौट आए थे। गूर में तत्काल देव छाया ने प्रवेश कर लिया। उसकी हालत देखने वाली थी। पूरा शरीर कांप उठा था। चेहरा काला और डरावना हो गया था। आंखों में खून तैरने लगा था। इस तरह का आक्रोश पंचों ने कभी नहीं देखा था। यह किसी अनहोनी का संकेत था। लेकिन यहां ''पंचो के मुंह में परमेशवर'' की कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी पंच,कारदार और देवता कमेटी के सदस्य हाथ जोड़ कर यही विनती कर रहे थे कि जैसे-कैसे इस आयोजन का निपटारा देव-कृपा से हो जाए। बाद में देवता की जो भी आज्ञा होगी वह सिर-माथे। मुश्किल से काफी देर बाद गूर से देव छाया चली कई। सब कुछ शांत हो गया तो गूर ने केवल सरपंच शर्मा जी से ही बात की। इस बात को सुन कर वे हैरान-परेशान हो गए। उन दोनों ने इस बात की भनक किसी को भी न लगने का तत्काल निर्णय ले लिया। यदि इस बात का खुलासा हो जाता तो इतने बडे आयोजन पर पानी फिर गया होता।

उत्सव के पहले दिन लोग वाद्यों के साथ मुख्य देवता के मन्दिर स्थल से निकले। सभी छोटे-बड़े मन्दिरों में जाकर एक-एक दिया जलाते रहे और देवी-देवताओं को उत्सव के लिए आमन्त्रित करते चले गए। बाहर से आमन्त्रित देवतागण भी पधारने शुरू हो गए थे जिनका धूम-धाम से स्वागत किया गया।

दूसरे दिन सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित हुए। देव-कलशों को गोल दायरे में रख दिया गया था। बीच में गांव की मुख्य देवी का कलश था। अब क्रौष्टू ब्राह्मण ने पुराण पढ़ना शुरू कर दिया था। उसके पास एक पुरानी हस्तलिखित पुस्तिका थी जिससे मंत्र पढ़ कर वह सभी देवताओं का स्वागत कर रहा था। देवता के मंदिर की दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे के फर्श पर देवता के एक कारदार ने इसी बीच देवदार के वृक्ष का एक चित्र सिंदूर से बना दिया था और अब सारे कलश उस चित्र पर प्रतिष्ठित कर दिए गए थे।

तीसरा दिन जल यात्रा का था। उस दिन वरूण देवता की पूजा होनी थी। गावों की महिलाएं पारम्परिक परिधानों में तड़के ही मन्दिर के प्रांगण में पहुंच गई। वे वहीं से आ रही थी जहां सहजू और उसकी पत्नी को ठहराया गया था। सभी उन्हें सिर झुका कर प्रणाम कर रही थीं। सहजू की पत्नी के लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य जैसा ही था। वह जानती थी कि उनकी जाति की अस्सी साल की बुढ़िया को भी ब्राह्मणों की दस साल की लड़की के पास मत्था टेकना पड़ता है। लेकिन आज उससे उल्टा था। वह कई बार मन ही मन हँस लेती थी। लेकिन रस्से पर जैसे ही उसकी नजर जाती वह कांपने लग जाती। जैसे मौत का एक भयानक राक्षस रस्से में लिपट गया हो जो कभी भी उसके पति को झपट कर खा लेगा। कभी तो उसे रस्से के बाटों में असंख्य भेड़िए रेंगते नजर आते जैसे वह रस्सा न हो कर जंगल के बीहड़ की कोई टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो और उस पर वे दौड़ते उनकी ओर चले आ रहे हों।

उन औरतों के सुन्दर पहनावे ने उसके मन में कुछ क्षणों के लिए रंगीनियां भर दी थीं। उसी पल मन्दिर से ढोल, नगारा, शहनाई, करनाल, रणसिंघा आदि वाद्य-यंत्रों के संगीत के साथ देवताओं के पूजारियों, ब्राह्मणो, गूरों और नर्तकों का जलूस निकला। उसमें सजी-संवरी नौ ब्राह्मण कन्याएं भी थी। उनके सिर पर लाल कलश थे। जुलूस पूर्व दिशा की ओर एक बांवड़ी की तरफ चल दिया था। वहां पहुंच कर उन कलशों को ताजा जल से भर दिया गया। विधिवत पूजन हुआ और उन्हें यथावत् कन्याओं के सिर पर रख कर वापिस मन्दिर लाया गया।

भुण्डा के आखरी दिन से पूर्व मूल मन्दिर और गांव को प्रेतात्माओं से सुरक्षित करना था ताकि उत्सव में कोई अपशकुन न हो। भूत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न न कर सकें। देवताओं के गूरों ने मिल कर इस विधि-विधान को पूरा किया था। वे अपने-अपने देवता के सामने हाथों में एक विशेष पात्र लिए खड़े हो गए थे। वे पूजा करते हुए अर्ध-नग्न अवस्था में काफी देर मन्त्रोच्चारण करते रहे। फिर उनमें देव छाया प्रवेश कर गई थी। देवताओं के वाद्य-यन्त्र भी बजने शुरू हो गए। मुख्य देवता के गूर को लोगों ने अपने कन्धे पर उठा लिया था। उसी के दिशा निर्देश में अब सब कार्य होने लगे थे। शेष बचे गूर और लोगों का जुलूस पीछे-पीछे चल रहा था। गांव के बाहर का चक्कर काटा गया। जुलूस में कई बंदूकधारी बंदूके चला रहे थे। जगह-जगह बकरों के सिर धड़ से अलग हो रहे थे। पगडंडियां उनके खून से सराबोर हो रही थी। परिक्रमा पूरी हुई तो जुलूस वापिस मन्दिर लौट आया और वहां हवन शुरू हो गया। यह तांत्रिक विधि थी। देवता का गूर मन्दिर की छत पर चढ़ गया था। वह चारों दिशाओं में घूम रहा था। मन्दिर के चारों कोनों पर एक-एक मशालची तैनात था। हर कोने पर एक-एक बकरे की बलि दी गई। गूर छत से नीचे उतरा तो महमान देवताओं के गूर मन्त्रोच्चारण के साथ अपनी मूल अवस्था में लौट आए।

यह शिखफेर प्रक्रिया थी। सहजू ने अपनी पत्नी को बताया था।.....अब यहां से सारी प्रेतात्माएं भाग गई हैं और भुण्डा के कार्य में कोई भी विघ्न नहीं डाल सकता। लेकिन वह पति के मुख की ओर कई पल टकटकी लगाए देखती रही। पता नहीं कितने प्रश्न उसके मन में जागे थे जिन्हे वह सहजू से पूछना चाहती थी।.....पूछना चाहती थी कि भुण्डा के बाद देवता क्यों न उन्हें ब्राह्मण ही बना रहने दें ? फिर क्यों वे अछूत हो जाएं ? क्यों एक अछूत को कुछ दिनों के लिए देवता की तरह पूजा जाए......और यदि दुर्भाग्य से उसके पति की रस्से से गिरकर मौत हो जाए तो कौन सा देवता जिनके नाम पर अभी-अभी असंख्य मेढों और बकरों की बलि प्रेतों और भूतों को भगाने के लिए दी गयी है.....उसके पति को बचा देगा ...... ? ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो उसके मस्तिष्क में कौंध रहे थे लेकिन वह थी कि किसी न किसी तरह अपनी जिज्ञासाओं को दबाए चुपचाप बैठी रही। भय से कांपती हुई। जैसे सारे भूतों और प्रेतात्माओं ने उसके भीतर घुस कर आश्रय ले लिया हो।

सहजू ने अपनी पत्नी के मन में उग रहे प्रश्नों को पढ़ लिया था। पर उनके उत्तर उसके पास नहीं थे। मन पर एक भारीपन लदा था......शायद ऐसे ही अनगिनत प्रश्नोंको लेकर जिनका कोई तसल्लीबख्श जवाब नहीं था....? वह उनके उत्तर भी पूछता तो किस से पूछता ? कोई कारदार, देवता का गूर या खुद देवता भी शायद उनके उत्तर न दे पाते। उसे आज ये सारीर की सारी क्रियाएं बिल्कुल ढोंग लगने लगी थीं।
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रात को सहजू और उसकी पत्नी नहीं सो पाए। न एक दूसरे से किसी ने कुछ बात की। अपनी-अपनी उधेड़-बुन में दोनों लगे रहे। सहजू के मन में भय तो था ही पर खुशी भी कम नहीं थी। अपने दादा-पड़दादाओं को वह बार-बार याद कर रहा था जो न जाने पितर-देवता बन कर कहां-कहां प्रतिष्ठापित होंगे।........ भुण्डा में उसका इस तरह 'बेड़ा' बन कर उतरना बरसों पहले खोए हुए मान को दोबारा हासिल करना भी था।

सुबह हुई। भुण्डा का आज अन्तिम और मुख्य दिन था। सहजू के ब्राह्मणत्व का आखरी दिन।

दोनों तड़के-तड़के उठ गए थे। मुहूर्त के अनुसार निश्चित समय पर रस्से की विधिवत पूजा की गई। सहजू ने अपने हाथों से रस्सा खश जाति के राजपूतों को सौंप दिया। उन्होंने रस्से को कन्धे पर अत्यन्त सावधानी से उठाया ताकि उसका कोई भाग जमीन से स्पर्श न करे। फिर बांवड़ी के पास ले जा कर खूब भिगोते रहे। पूरी तरह से भीगने के पश्चात् उसे पहले ही की तरह ही कन्धे पर उठा लिया गया। रस्से का वजन दुगुना हो गया था। कड़ी मशक्कत के बाद खशों ने रस्से को भुण्डा-आयोजन के मूल स्थान पर पहुंचाया था। वहां ढांक के सिरे पर एक खम्भा गाड़ा गया था जिसमें रस्से का एक सिरा मजबूती से बांध दिया गया। ढांक की ऊंचाई बहुत थी। नीचे देखने पर आंखे पथरा जाती थीं। दूसरे सिरे को पहाड़ से नीचे फैंक दिया गया। नीचे खड़े लोगों ने उसे तत्काल पकड़ लिया और वहां गड़ाए दूसरे खम्बे में खींच कर बांध दिया। सहजू की शर्त रस्से के नीचे जाली न लगाने की मान ली गई थी। फिर भी किसी दुर्घटना की आशंका से निपटने के लिए पहाड़ी के नीचे लम्बी कतार में पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए थे।

बेड़े के रूप में सहजू का देवता की तरफ से विशेष स्नान हुआ और यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे शुध्द ब्राह्मण बना दिया गया। उसे पगड़ी और एक सफेद लम्बा चोगानुमा कुर्ता पहनाया गया था। उसकी विशेष पूजा होने लगी थी। देवता ही की तरह। जैसे वह कोई मनुष्य न होकर एक घड़ी के लिए ईश्वर का अवतार बन गया हो। अब समय मुख्य उत्सव में शामिल होने का आ गया था। एक कारदार भीतर गया और अत्यन्त आदर से उसे अपनी पीठ पर उठा कर मंदिर से बाहर ले आया।

सहजू की पत्नी को पति से अलग होना था। यह बिछोह का दर्दनाक समय था। उसे भी मन्दिर की तरफ से पहनने के लिए नए कपड़े दिए गए थे। ये वस्त्र सफेद रंग के थे......विधवा का लिबास। उसे गांव की कई औरतों ने घेर रखा था। न चाहते हुए भी उस बेचारी को होते पति से विधवा बनना पड़ा था। मन नहीं मान रहा था लेकिन भुण्डा की रस्मों ने उसे असहाय बना दिया था। औरतों ने उसके बाल खोल दिए। कलाइयों की चूड़ियां उतार दीं। मांग से सिंदूर पोंछ दिया गया। माथे की बिंदिया भी छीन ली गई। सुहागिन से विधवा बनने तक के वे क्षण अति दुखदायी थे। जब सुहाग की प्रतीक ये चीजें उसके बदन से उतारी जा रही थीं तो उसे ऐसा लगा था जैसे कलेजे के टुकड़े किए जा रहे हो। वह बच्चे को साथ लेकर उस स्थान के लिए लोगों के साथ चल पड़ी जहां रस्से का दूसरा सिरा बांधा गया था। बच्चा यह सबकुछ विस्मित होकर देख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है...? उसके बापू को इस तरह उठा कर कहां ले जा रहे हैं...?

पुरोहितों ने अब संकल्प पढ़ने शुरू कर दिए थे। ये उसी तरह थे जैसे किसी बलिदान के अवसर पर पढ़े जाते है। वाद्ययन्त्रों पर वही संगीत बज रहा था जो शवयात्रा पर बजाया जाता था। वातावरण मेें इस संगीत ने एक अजीब सी मायूसी पैदा कर दी थी। चारों तरफ एक घड़ी के लिए घोर उदासी छा गई थी। यह नजारा कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे किसी घर से मृत्यु ने किसी अपने को छीन लिया हो। माहौल अत्यन्त गमगीन होने लगा था। मूल स्थान तक पहुंचते-पहुंचते कई जगह सहजू पर कफन की तरह कपड़ा ओढ़ाया गया और उसके मुंह में परजतना डाल दिया गया।

समारोह की शोभा बढ़ाने के लिए मुख्य मन्त्री पहुंच गए थे। विधायक और प्रशासन के कई अधिकारी भी उनके साथ थे। उन सब के लिए पहाड़ की ढलान पर एक ओर मंच बनाया गया था ताकि वे सब उस सम्भावित नरबलि का नजारा ले सकें। शर्मा जी ने उनकी आव-भगत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी।

शर्मा जी की नजर इस बीच एक पालकी पर पड़ी। उसके साथ कुछ लोग भी चल रहे थे। पहले उनकी समझ में कुछ नहीं आया। पालकी नजदीक पहुंच गईं। उसमें एक बुजुर्ग बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। शर्मा जी को पहचानते ज्यादा समय नहीं लगा। यह वही सहजू का पिता था जिसका सामना सहजू के आंगन में पहले ही हो चुका था। उसके साथ उस गांव के तमाम लोग भी थे। शर्मा जी स्तब्ध रह गए। अब पांव पीटने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सहजू के गांव के लोग इस शान से उत्सव में पधार जाएंगे। समक्ष एकाएक कई प्रश्न खड़े हो गए। पर उनके उत्तर कहां से आते....? मुंह बांध कर बैठना ही उचित जान पड़ा। शर्मा जी कुछ कारदारों को साथ लेकर उनके पास गए और बनावटी अपनापन दिखाकर उन्हें उसी मंच के साथ बिठा दिया जहां मुख्यमन्त्री बैठे थे। पालकी में एक दलित का इस तरह पधारना न तो शर्मा जी पचा पा रहे थे और न ही गांव के दूसरे लोग। क्योंकि पालकी में बैठने का अधिकार तो वे लोग अपना ही मानते आए हैं। शर्मा जी वहां से झटपट खिसक लिए और खम्भे के पास जा कर खड़े हो गए, जहां सहजू को भुंडा के रस्से पर से सरकते हुए पहुंचना था।

सहजू की घरवाली चुपचाप डरी-सहमी रस्से के अन्तिम छोर के पास बैठी, एकत्र उन सभी देवताओं से अपने पति की ज़िन्दगी मांग रही थी जिन्होंने पिछली रात उस गांव को भूत-प्रेतों और दुष्ट आत्माओं से निवृत्त किया था। उसका मन विचलित होने लगा था। एक मन करता कि इस लिबास को उतार कर जला दे और पति के पास जा कर विनती करे कि हमें नहीं बनना है देवता। न बनना है भगवान। हम जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। हम बिना मान-प्रतिष्ठा के भी अपने छोटे से परिवार में सुखी हैं। ईश्वर न करे कि रस्सा टूट जाए.........? इतना भर सोच कर वह जमीन पर गिर पड़ी थी। पास खड़ी औरतों ने उसे न संभाला होता तो उसका सिर चट्टान से टकरा जाता। शर्मा जी उसकी स्थिति देखकर घबरा गए थे। उन्होंने तुरन्त पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने शुरू कर दिए। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो उनकी जान में जान आई।........... एक सुहागिन को इस पल अपने पति के जीते जी एक विधवा होने के तीखे दर्द और अथाह वेदना से गुजरना पड़ रहा था।

सहजू जब खम्बे के पास पहुंचा तो निगाह तराईयों से उतरती अपनी पत्नी के पास चली गई। वे तमाम वेदनाएं उसने अपने भीतर महसूस कीं जिसे उसकी पत्नी सुहागिन से विधवा बन कर सह रही थीं। आंखें छलछला गई। मन में एक तीखी टीस उठी जो सुई की तरह नसों में चुभती रही। यह चुभन असहनीय थी। सहजू को एक पल लगा कि उसकी सासें जीन-काठी पर बैठने से पूर्व ही निकल जाएगी। जैसे-कैसे अपने को सम्भाला और हजारों लोगों की उमड़ती भीड़ के बीच उसका ध्यान चला गया।............हजारों आंखें उसी की ओर ताक रही थीं। उन आंखों में एक याचना थी। लालच था। उसकी ज़िन्दगी के लिए दुआएं भी थीं लेकिन उस जीवन के साथ सभी का अपना-अपना स्वार्थ निहित था। सारी प्रार्थनाएं केवल अपने लिए थीं। वे आंखें उसे अपने लिए ज़िन्दा रखना चाहती थीं ताकि उनका जीवन सुखमय हो। घर-परिवार में खुशहाली आए। जमीन-जायदाद और पशु-धन सलामत रहे। उन पर किसी तरह के अनिष्ट की छाया तक न पड़े। सभी का ध्यान रस्से पर से नीचे सरकते सहजू पर था। उसकी पत्नी के भीतर जो अथाह दर्द और भयानक भय पसरा था उसका न कोई प्रतिवादी चश्मदीद गवाह था और न कोई उसके आंसुओं को पोंछने वाला। ...........एक महान और तथाकथित जन-स्वार्थ की पूर्ति का उत्सव था वह....?

.................एक घड़ी के लिए तो सहजू को यह भी लगा कि वह आज दुनिया का सबसे बड़ा और धनवान आदमी है जिसके आगे ब्राह्मण और ठाकुर तो क्या देवता तक भी पुण्य की भीख मांग रहे हैं।

शर्मा जी तो आज अपने आप को सबसे प्रतिष्ठित और व्यस्त आदमी समझ रहे थे। हर जगह उन्हीं का बोल-बाला था। सहजू की पत्नी के बिल्कुल साथ खड़े थे शर्मा जी। वे भी लोगों के साथ उनकी दुआओं में शामिल थे लेकिन उनकी एक-दो दुआएं कुछ अलग ही थीं। वह दुआएं मांग रहे थे गांव को कलंक से छुटकारा पाने की और साथ अपने यश और प्रतिष्ठा की जिसके सहारे उन्हें आगामी राजनीति में प्रवेश पाना था। मन में और भी कई विचार कौंध रहे थे। उनकी इच्छा थी कि जैसे ही 'बेड़ा' नीचे सही सलामत पहुंचे, वे उसे सबसे पहले उठाकर अपने चूल्हे के पास ले जाएं ताकि उन्हें अपने ऊपर लगे कलंक, अनिष्ट, भूत-प्रेत आदि की छाया से सबसे पहले छुटकारा मिल सके। साथ ही अपने परिवार के लिए पहला आशीर्वाद भी लेना चाहते थे। वह जानते थे कि 'बेड़ा' आज के दिन देवता और भगवान के समान होता है और उसका घर के भीतर प्रवेश अति शुभ होता है। वह सबसे पहले इस पुण्य के भागीदार बनना चाहते थे। गांव के दूसरे सवर्णो की भी यही इच्छा थी।

सहजू ने ईश्वर को प्रणाम किया। अपने इष्ट देवता को याद किया और अपने पिता को नमन किया। उस पितर को स्मरण किया जो इसी आयोजन में वर्षों पहले रस्से से गिर कर मौत के मुंह में चला गया था। फिर रस्से को हिला दिया। अब जीन-काठी पकड़ी और टिका कर रस्से पर बांध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियां टिका दी गर्इं थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोड़ी थी जिस पर सवार होकर उसे मौत का एक लम्बा और खतरनारक सफर तय करना था। गांव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना था.....एक अछूत होकर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बन कर। उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे थे। वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ 'बेड़ा' जाति एक जीन-काठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज उस अछूत को क्या मिलेगा........? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व........और देवत्व। ........वह जोर से हंसा और जीन-काठी पर बैठ कर रस्से से नीचे सरक गया..........हाथ में एक सफेद रूमाल को लहराता हुआ। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुंच कर वह थोड़ा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड़ गया था, पर उसने अपने आप को संभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊंचाई से गिर कर वह कहां बच पाता...? देवता के वाद्य पूरे जोश और ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था। लेकिन उन वाद्यों के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की सांसे रूक गई थीं......।

सहजू जैसे ही दूसरे खम्बें के नजदीक पहुंचा उसने चलती हुई जीन काठी रोक दी और रस्से पर मजबूती से बैठ गया। वह ऊंचाई से जितनी तेजी से नीचे आया था उस रफ्तार को रोकना कतई संभव नहीं था। परन्तु उसने जिस तरह संयत रह कर अपने आप को रस्से पर रोका था वह आश्चर्यजनक था। एक पल के लिए जैसे सब कुछ ठहर गया था। सभी उपस्थित जनों के दिलों की धड़कनें ही रूक गईं थीं। बाजा-बजंतर भी चुप हो गया था। एक गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसर गया था। शर्मा जी के साथ सभी कारदार और लोगों के मन में किसी अनहोनी ने जन्म ले लिया। ........दोबारा कोई बड़ा अनिष्ठ तो नहीं होने वाला....? सहजू बिल्कुल सुरक्षित था लेकिन उसकी काठी नहीं चल रही थी। देवता के कारदार और गूर शर्मा जी के साथ खम्बे के पास एकत्रित हो गए थे। शर्मा जी एकाएक जोर से चिल्लाए,

''सहजू ! तुम्हारी मंजिल आ गई है। नीचे उतर जाओ।''

यही अन्य लोगों ने भी दोहराया था।

लेकिन सहजू अभी भी चुपचाप था। जैसे कुछ सुना ही न हो। भीतर बहुत कुछ फूट रहा था। टूट रहा था। उस टूटन की किरचों ने उसे भीतर ही भीतर आहत कर दिया था। शर्मा जी ने हाथ जोड़ दिए और गिड़गिड़ाते हुए सहजू को नीचे उतर जाने का निवेदन करते रहे। सभी कारदारों और गांव के ब्राह्मणों ने भी हाथ जोड़ रखे थे। लेकिन सहजू नहीं उतरा। उसके मन में बहुत बड़ा तूफान उमड़ पड़ा था। उसे लगा कि वह सहजू बेड़ा नहीं बल्कि किसी सरकस का नर्तक भर है, जिसे जैसा चाहा नचा दिया। खेल खत्म हुआ तो उसका अस्तित्व भी समाप्त। जो लोग आज उसकी जय जयकार कर रहे है कल वही उसकी परछाई से भी दूर भागेंगे। फिर न कोई सम्मान और न ही कोई इज्जत-परतीत। उसे शर्मा जी और देवता के तमाम कारदारों के साथ सारे ब्राह्मण उस पल शैतान की तरह लग रहे थे जैसे वह स्वयं उनके पल्ले पड़ गया हो और उनके हाथों की कठपुतली हो। जहां वह रस्से पर रूका था वहीं तक सब कुछ था। देवता भी और भगवान भी। सम्मान और प्रतिष्ठा भी। इज्जत और परतीत भी। नीचे उतरते वह फिर वही दलित.......नीच.......अछूत। हाथ खाली के खाली। उसका मन आक्रोश से भरता जा रहा था।.......उसने भीड़ में एक नजर दौड़ाई। सामने से पालकी में उसके पिता आ रहे थे। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए.....जैसे उन्हें आज सब कुछ मिल गया हो। उसने पिता की आंखों में अपनी विजय की चकाचौंध तो देखी लेकिन उसके पीछे छिपे दर्द और अपमान को भी सचमुच पढ़ लिया।

सहजू की नजर अब उस तरफ गईं जहां दलितों के परिवार खड़े थे। वहीं से सबसे ज्यादा जय जयकार की आवाजें गूंज रही थी। उनके मन साफ थे। मन की आवाजें थीं वो जिनमें सहजू को कोई स्वार्थ नजर नहीं आया। हां, उनके कपड़े फटे हुए थे। कुछ औरतों की छातियां फटे कुरतों के बीच से बाहर झांक रही थी। उनके बाल बेतरतीबी से उलझे हुए थे। फूलदार रिब्बनों की जगह उनमें घास और पत्तियां फंसी थीं। उनके साथ उनके बच्चे भी थे। नंगी टांगे। बदन पर महज एक लम्बा सा फटा कुरता। छालों से रिसते पांव। आंखों में अथाह दर्द।.........सहजू को अपने देवत्व पर शर्म आ गई।

उसके कानों में फिर अवाजें गूंजी........

''शाबाश सहजू! शाबाश! नीचे आ जाओ। तुम आज भुंडा के सबसे बड़े देवता हो।''

इस बार वह जोर से हंस दिया।

'' कैसा देवता......? कौन सा देवता। मैं तो एक अछूत हूं। कठपुतली मात्र हूं। सारे पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं। अपने स्वार्थ के लिए ऊंचे लोगों ने भी क्या-क्या परपंच रचे हैं...?.....जानते हो शर्मा जी, मैं इस घड़ी तो सबसे बड़ा पंडित हूं। देवता हूं और सभी का ईश्वर। लेकिन नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूत......और तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर। तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं, मुझे भगवान मान रहे हैं, कल इन्हें मेरी परछाई से भी दोष लगने लगेगा। अपवित्र हो जाएंगे ये !!''

शर्मा की बोलती बन्द हो गई थी। कभी नहीं सोचा था कि सहजू के दिमाग में कुछ और भी चल रहा है। उसकी बाते मन में सुई की तरह चुभ गईं। अब वह झटपट इस स्थिति से उबरना चाहते थे। अपने को सहज करते हुए गिड़गिड़ाए,

'' ऐसा मत सोचो सहजू,! तुम्हारे बिना इतना बड़ा आयोजन कैसे सम्पन्न होता। तुम आज हमारे सब कुछ हो।

सहजू ठहाके लगाने लगा,

''केवल आज ही न शर्मा जी.......कल....?''

शर्मा जी सकपका गए। स्थिति भांपने में उन्हें देर नहीं लगी। सीधी बात पर आ पहुंचे।

'' ऐसा मत कहो सहजू। भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बोलो तुम्हे क्या चाहिए..? आज तो वह समय है कि जिस चीज में भी तुम हाथ लगाओगे वह तुम्हारी हो जाएगी।''

'' सोच लो शर्मा जी!''

'' सहजू! इसमें दो राय नहीं हो सकती। आज के दिन तो तुम हमारे भगवान हो। बोलो तो....।''

'' हमारी जमीन लौटा दो शर्मा जी। हम यहीं बसना चाहते है। इसी गांव में, जहां से आप लोगों ने हमारे पूर्वजों को भगाया था।''

शर्मा जी को जैसे काठ मार गया। कलेजा मुंह को आने लगा। एक मन किया कि इस नीच की औलाद को इसकी असली औकात दिखा दूं कि अपने से ऊंचे लोगों से किस तरह बात की जाती है......? लेकिन समय की नजाकत को भांपते हुए लहू का घूंट पी गए। रूमाल से उन्होनें माथे का पसीना कई बार पोंछा। यह ख्याल पूरे आयोजन के दौरान किसी के भी मन में नहीं आया था कि सहजू ऐसा भी कर सकता है। लेकिन आज तो कोई उसको कुछ नहीं कह सकता। वह जहां चाहे जा सकता है। जिस वस्तु को चाहे मांग सकता है। शर्मा जी के साथ कारदार और जो गूर खड़े थे उन्होंने आंखों-आंखों में बातें की। सहजू को निराश करना उचित नहीं समझा था। मजबूरन शर्मा जी को हां कहनी पड़ी।........सहजू जानता था कि इस अवसर पर दिया धन या जमीन कोई दूसरा नहीं ले सकता। उसने जीन काठी को हल्का सा खींचा और सरकता नीचे उतर आया। चारों तरफ अब लोगों ने उसकी जय जयकार करनी शुरू कर दी थी। सभी देवताओं के वाद्य बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह संगीतमय हो गया था।

समारोह में उपस्थित लोगों ने आज तो सचमुच महा पुण्य कमा लिया पर शर्मा जी, उनके साथी कारदार तथा उस गांव के लोगों के लिए यह उत्सव मायूसी लेकर आया था। उन्होंने कभी नहीं चाहा था कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों के इस गांव में फिर कोई दलित पसर जाए। लेकिन अब तो सहजू को भुंडा के अवसर पर सभी देवताओं को साक्षी मान कर जमीन देने की जुबान भी दे दी गई थी। उनका विश्वास था कि अपनी बात से मुकर जाना गांव और लोगों पर फिर किसी आफत के आने का बायस बन सकता है। मगर इसके बावजूद भी वे लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे थे। सहजू बेड़ा को अपने-अपने घर ले जाने के उनके सपने भी अब टूट गए थे। सभी को जैसे सांप सूंघ गया हो।

उत्सव अब पूरे यौवन पर था। चारों तरफ का माहौल उमंगों से भर गया। पर शर्मा जी के भीतर एक सन्नाटा पसर गया था। लोग उनके पास आकर बधाई दे रहे थे। इस आयोजन की सफलता के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन उनका मन विचलित था। जैसे यह भुंडा नहीं किसी विनाशोत्सव का आयोजन हुआ हो। उनकी स्थिति विचित्र हो गई थी। मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। कोई जब पास आता तो वे हंस देते। चला जाता तो अजीब सी हरकतें करने लगते.......कभी कुछ गाने लगते तो कभी नाचना शुरू कर देते। बिल्कुल पागलों जैसी हरकतें करने लगे थे।......मानो गांव से देवताओं द्वारा भगाए गए भूत-प्रेत सब के सब उनके भीतर नाचने लगे हो। शर्मा जी की इस हालत को देख कर देवता के कारदार, गुर और गांव के दूसरे लोग परेशान हो गए थे। उन्होंने शर्मा जी को घेर लिया था।

तभी मुख्यमन्त्री और विधायक उनके पास पहुंचे। शर्मा जी की पीठ थपथपा कर कहने लेगे,

'' भई शर्मा जी मान गए आपको। इतना बड़ा आयोजन तो आप ही करवा सकते थे। सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत। आपने हमारी तो एक बड़ी दुविधा ही मिटा दी। क्या नाम था इस बेड़ा का......? हां, सहजू......सहज राम। क्यों विधायक जी यही था न...........उसने तो कमाल कर दिखाया.........हमें तो लोकसभा के लिए कोई दलित मिल ही नहीं रहा था.........भई शर्मा जी कमाल कर दिया आपने।''

यह कहते हुए मुख्यमन्त्री और विधायक वहां से निकल लिए। पर शर्मा जी उनकी बात सुन कर बुत की तरह खड़े रह गए थे। काटो तो खून नहीं। जैसे कोई जोर का तमाचा मुंह पर जड़ कर निकल गया हो। जो कुछ रही सही कसर थी वह भी जाती रही।

सहजू को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। वह, उसकी पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्य खुशी-खुशी लोगों से ईनाम के पैसे और जेवर इकट्ठे करने में मशग़ूल थे।

Tuesday, April 21, 2009

बेहया- मनोज कुमार पाण्डेय की पहली कहानी

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के माध्यम से प्रतिवर्ष कुछ नये रचनाकारों का प्रथम रचना-संग्रह प्रकाशित करता है। यह पुरस्कार गद्य व पद्य दोनों विधाओं में दिया जाता है। हम लम्बे समय से इस कोशिश में हैं कि इंटरनेट के पाठकों तक नवीन साहित्य-सृजन के उल्लेखनीय अध्याय पहुँच पायें। पद्य वर्ग में 7 संग्रह प्रकाशित हुए। जिसमें से आप इन दिनों हरे प्रकाश उपाध्याय के पहले कविता-संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' की चुनी हुई कविताएँ पढ़ रहे हैं। गद्य वर्ग में वर्ष 2008 के लिए 6 कहानी संग्रहों का प्रकाशन ज्ञानपीठ की ओर से किया गया। जिसमें विमल चंद्र पाण्डेय का कथा-संग्रह 'डर' को रु 50 हज़ार का नगद इनाम भी मिला। इस संग्रह की 12 कहानियों में से हमने आपको 11 कहानियाँ पढ़वा दी हैं। एक कहानी संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' हिन्द-युग्म के पंकज सुबीर का भी आया। इसकी भी दो कहानियाँ आप पढ़ और सुन भी चुके हैं। आज से हम तीसरे कहानी-संग्रह 'शहतूत' की कहानियों का प्रकाशन आरम्भ कर रहे हैं। यह युवा कहानीकार मनोज कुमार पाण्डेय का संग्रह है। आज पढ़ते हैं, पहली कहानी 'बेहया'-



बेहया


चित्र साभार- नितीश प्रियदर्शी
इधर बहुत दिनों बाद गांव लौटा हूँ। मेरे लिए गांव आने का मतलब है अपने बचपन में लौटना। बचपन, जहाँ अम्मा हैं, बाबू हैं, दीदी हैं, घर के बगल की गड़ही है, गड़ही में बेहया की हरी-भरी झाड़ी, झाड़ी किनारे डंडा लिए खड़ी आजी और उनके सामने थर-थर काँपता हुआ मैं। बचपन की सारी छवियां एक तरफ, और आजी की यह छवि दूसरी तरफ, आजी की यह छवि सब छवियों पर भारी पड़ती है।
कितना अच्छा लगता है जब कहीं किसी लेखक की स्वीकृति पढ़ता हूँ कि मैंने तो कहानी कहना अपनी दादी से सीखा। मैंने तो कहानी कहना अपनी नानी से सीखा। काश! मैं भी ऐसा कह सकता, पर मेरे बचपन में कहानियां थीं ही कहाँ, वहाँ तो कहानियों की जगह आजी के डंडे थे। बात-बात पर हमारी पीठ पर बरसते हुये। आज जब मैं आपसे अपनी बात कहने बैठा हूं तो सोचता हूं पहले इन डंडों के ऋण से ही मुक्त हो लूँ, नहीं तो न जाने कब तक यह मुझे परेशान करते रहेंगे।
मैं गड़ही के बगल में बैठा हूं। गड़ही में मुँह तक पानी भरा है। पानी में मछलियां फुदक रही हैं । अब गड़ही का पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता होगा। शिवमूरत चाचा इसे फिर से भर देते होंगे। पर अभी पिछले साल तक इसमें मछली नहीं, बेहया था। गड़ही का पानी बरसात खत्म होते ही सूखने लगता था। तब गड़ही बेहया से भर जाती थी। बेहया से जो जगह बचती उसे हम भर देते। हम माने दीदी और मैं। हम वहाँ होते अपने अनोखे एकांत के साथ। हमारे चारों ओर होती बेहया की बड़ी-बड़ी पत्तियां, लाऊडस्पीकर जैसी बनावट के हल्के बैंगनी आभा लिए फूल। सब मिलाकर एक खूबसूरत झुरमुट। एक मुलायम हरी-भरी झाड़ी।
गर्मियों में हमारे छुपने की एकमात्र जगह यही मुलायम हरी-भरी झाड़ी होती। नीचे एक जाल-सा बुन गया था टहनियों का। हम उस पर लेटते, बैठते, खेलते, झूलते और जब पकड़े जाते तो यही टहनियां पड़तीं हमारी पीठ पर। सटाक-सटाक-सटाक। हमें कई बार लगता कि साला बेहया हमसे बदला ले रहा है अपने ऊपर उछलकूद मचाने का। पर हम थे कि अगला मौका मिलते ही फिर वहीं पहुँच जाते। उसी झुरमुट में। आजी कहती बेहया के बीच रह-रहकर हम भी बेहया हो गये हैं।
अम्मा, आजी को कभी फूटी आंख भी नहीं सुहाई। दीदी बताती पहले वह जब मर्जी होती अम्मा को पीट देतीं। पर एक बार जब ऐसे ही मौके पर बाबू, अम्मा और आजी के बीच में खड़े हो गये, तब से अम्मा तो मार खाने से बच गईं पर आजी ने जल्दी ही उन्हें प्रताड़ित करने का नया तरीका खोज निकाला अब आजी के निशाने पर दीदी और मैं आ गये। आजी हमें बुरी तरह पीटतीं और अम्मा पिटने से बचकर भी तड़पतीं। या फिर यह भी तो हो सकता है कि आजी हममें भी अम्मा को ही देखती रही हों। हमारे पिटने पर बाबू कुछ भी न कहते। उन्हें लगता इतना तो आजी का हक बनता ही था।
गर्मियों के दिन थे। मेरे स्कूल में रोज मलाईबरफ वाला भोंपू बजाता हुआ आता। मैं रोज-रोज रंगीन बरफ का जादू अपने दोस्तों के मुंह में घुलता हुआ देखता। मेरे मुंह मे पानी आ जाता कि ये जादू किसी भी तरह मेरे मुंह में घुल जाये। बस। बाबू या आजी से तो पैसे मांग नही सकता था और अम्मा के पास कभी पैसे होते ही नहीं थे। आजी के पास एक गुल्लक था। गुल्लक में थे बहुत सारे सिक्के। एक दिन मैंने चुपके से आजी की गुल्लक में से एक सिक्का निकाल लिया और फिर रोज-रोज रंगीन बरफ का ये जादू मेरे मुंह में भी घुलने लगा। अब मैं मलाई चाटता और मेरे दोस्त मुझे ललचाई नजरों से देखा करते। कभी पैसा खर्च हो जाने से बच जाता तो स्कूल से आते ही मैं बेहया की हरी-भरी झुरमुट के बीच घुस जाता और निकलता तो खाली हाथ।
आजी को एक दिन पता चल ही गया। फिर तो आजी खूब चिल्लाई। आय-हाय, आय-हाय कुलघाती-सटाक। सुअर के मूत- सटाक। नासपीटे धमसागाड़े-सटाक-सटाक। बस और भी खूब गालियां और खूब मार। पर आजी को अभी संतोष कहां हुआ था ! उनकी गुल्लक में चोरी उनकी निगाह में उनके आतंकी अनुशासन को चुनौती थी। आजी ने उस दिन खाना नहीं खाया। बाबू रात में आये तो आजी ने आते ही उनसे सारी बातें नमक-मिर्च लगाकर बता दी। बाबू ने मुझे पास बुलाया और पूछा कि मैंने पैसे का क्या किया? मैं कुछ नहीं बोला। बाबू ने दुबारा पूछा पैसे का क्या किया? मैंने जवाब दिया, मलाईबरफ खाई। फिर तो मैं खूब धुना गया। यहाँ कटा, वहाँ फटा। यहाँ सूजन, वहाँ दर्द। बाबू बार-बार चिल्ला रहे थे, और चोरी करोगे हूँऽ, मलाईबरफ खाओगे हूँऽ, लो खाओ और खाओ। बाबू के मोटे-मोटे मजबूत हाथ ऊपर पड़ते तो लगता कि चीख के साथ जान ही निकल जायेगी। इस चीख के साथ आंसू कभी नहीं निकले। रोना कभी नहीं आया। रोना तो आया दूसरे दिन जब मैं झाड़ियों में छुपाये हुए पैसे इकट्ठा कर रहा था।
पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था कि अम्मा डाँट भी देती तो मैं रोने लगता। दीदी से झगड़ा होता और दीदी कभी मार-वार देती तो मैं रोने लगता। भले ही दीदी को मैं भी पीट देता, पर रोता फिर भी। दीदी मुझे बैठकर बड़ी देर तक दुलारती-मनाती, पर आजी या बाबू के मारने पर चीखें निकलती, जिस्म पर यहां-वहां स्याह निशान उभर आते। कपड़ों सहित पूरा शरीर धूल-धूसरित हो जाता पर आंसू थे कि आते ही नहीं थे। बाबू-आजी थे कि इसे भी मेरी ढिठाई समझ लेते और मुझे और मार पड़ती। मैं आज तक नहीं समझ पाता कि मैं जो बात-बात पर रो पड़ता था, बाबू-आजी से इतनी मार खाकर भी कभी क्यों नहीं रोया। मेरे आंसू आखिर कहाँ गायब हो जाते थे। गायब भी हो जाते थे तो अगली बार दीदी या अम्मा के सामने फिर कैसे निकल आते थे, इतने आंसू कि कभी दीदी चाहती तो लोटा भर लेती। पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था।
हमारा स्कूल घर के पास ही था और स्कूल के पांड़े पंडितजी का घर हमारे खेत के पास। वे अक्सर हमारे घर आ जाते तो आजी दुनिया-जहान की बातों के साथ-साथ हमारी शिकायतों का पुलिंदा भी खोल देतीं। आजी उन्हें बार-बार बतातीं कि हमारी हड्डी तो आजी की थी पर चमड़ा पांडे़ पंडितजी का। पांड़े पंडितजी के लिए इतना इशारा काफी होता और वे हमारा चमड़ा काट देते। आखिर उनको हमारे यहां रोज-रोज बैठना जो होता। दुनिया भर की सही-झूठ बातें करनी होतीं। सुर्ती-सुपाड़ी खानी होती और क्यारियों से हरी सब्जियाँ ले जानी होती। ऊपर से तुर्रा यह कि उनके लिए बेहया की टहनियां भी मुझे ही ले जानी होती। वे मुझे दिन भर पीटने का बहाना ढूंढ़ते रहते। मैं लगभग रोज पिटता पर आंसू वहां भी कभी नहीं आते थे।
इतने दिन बीत गये। पांड़े पंडितजी अभी भी वहीं पर हैं। हेडमास्टर हो गये हैं। अभी कल बाबू मेरे छुटके भाई अन्नू की शिकायत कर रहे थे कि कैसे उसने एक दिन पांडे़ पंडितजी की कुर्सी पलट दी और डंडा छीनकर भाग आया। मुझे हँसी आ गयी। मुझे अन्नू पर बहुत सारा लाड़ आया। क्या हुआ जो घर आकर उसे मार पड़ी होगी! क्या हुआ जो स्कूल में पांड़े पंडितजी ने मारा होगा। अन्नू ने खड़े रहकर पिटाई तो नहीं सही थी। मैं तो ऐसा करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। कौन कहता है कि दिन बदलते नहीं हैं दिन जरूर बदलते हैं, बल्कि बदल रहे हैं, नहीं तो मजाल होती अन्नू की कि पांड़े पंडितजी की कुर्सी पलट दे।
पिछले दिनों बाबू मेरे लिए जो भी चिट्ठियां लिखते, सब में अन्नू की बदमाशियों का जिक्र होता। जब से मैं यहां आया बाबू कई बार मुझसे कह चुके हैं कि मैं अन्नू को थोड़ा समझाने की कोशिश करूं। बाबू को क्या पता कि जब मैं अन्नू की बदमाशियों के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूं तो मेरे अंदर कैसी खुशी होती है। यही सब शरारतें और बदमाशियां तो मैं करना चाह रहा था अपने बचपन में, पर आजी के.........। अन्नू को देखना दरअसल अपने ही बदले हुए बचपन को देखना होता है। मैं अन्नू को अपने पास बुलाता हूँ और उसका गाल चूम लेता हूँ। इस अनायास प्यार से पहले तो वह सकुचाता है, फिर हँसने लगता है। कितनी प्यारी और निडर है उसकी हँसी। मैं उसके बिखरे हुए बालों को और बिखेर देता हूँ और कहता हूँ कि जाओ खेलो।
दरअसल अन्नू को कुछ सहूलियतें अपने आप ही मिल गई हैं। आजी के शरीर में अब पहले जैसा दम रहा नहीं कि दौड़ाकर पकड़ लें। आजी तो अब बैठे-बैठे अम्मा, बाबू, अन्नू सब पर बड़बड़ाती रहती हैं और भगवान से बार-बार अपने आपको उठा लेने की विनती करती रहती हैं। बुढ़ापे में कष्ट भला किसे नहीं होता पर आजी का सबसे बड़ा कष्ट यह है कि अब सब अपने मन की करते हैं, आजी से कुछ पूछा नहीं जाता। रहे पांड़े पंडितजी, तो उन्हें बच्चों को पीटने के लिए टहनियां ही कहां मिलती होंगी और अब भला हाथों को कौन कष्ट दे। इस गड़ही में तो बेहया बचा नहीं। शिवमूरत चाचा ने इसमें मछलियां पाल लीं। आसपास भी जहां बेहया होता था, वहां अब खेत बन गये हैं। धीरे-धीरे बेहया लोगों के मन से भी साफ हो जायेगा और तब बेहया होने की उपमा मिलनी बंद तो अभी तो बेहया बिल्कुल साफ, पर कल अगर बेहया की पत्तियों या फूलों में से कोई दवा ही निकल आये तब?
ऐसा भी नहीं है की बिल्कुल बेकार की चीज है बेहया। बाबा जिन्दा थे तो बेहया की मोटी-पतली टहनियां काट कर लाते और हंसिये से चीरकर धूप में सुखाने के लिए रख देते। यही बेहया चूल्हे में जलता और हम रोटी खाते। बाद के दिनों में जब हम गाय-भैंस लेकर चराने थोड़ा दूर निकल जाते तो यही बेहया हमारे लिए हॉकी की छड़ी बन जाता। मुझसे छोटा झुन्नू बेहया की इन्हीं सीधी-सादी टहनियों से कुएं के पास की नाली पर पुल बनाता। हम कभी गिर-पड़ जाते या आजी कभी ज्यादा ही पीट देतीं तो इसी बेहया के पत्ते हमारी सिंकाई में काम आते। एक अकेले बेहया की इतनी उपयोगिता कम तो नहीं थी, कि उसे इस तरह से साफ कर दिया जाय कि उसके लिए कहीं जगह ही न बचे।
जब बेहया था तो उसकी झुरमुट में हम गर्मियों में कच्चे आम सबसे छुप-छुपाकर पकने के लिए रख आते। दीदी, मैं और बाद में झुन्नू भी, उसमें छुपमछुपाई खेलते और हमारे साथ खेलती जलमुर्गी, बनमुर्गी, गौरैया, बुलबुल। इसी झुरमुट में दबे पांव बिल्ली आतीं, गिलहरी और चिड़ियों की तलाश में। आजी भी जब हमारी तलाश में आतीं तो दबे पांव ही आतीं।
गर्मियों में जब इस झुरमुट में मधुमक्खियां होतीं तो कई बार मैं चुपके से कटोरा और कंडी की आग लेकर उसमें घुस जाता और अपने लिए थोड़ी सी शहद निकाल लाता। जितनी शहद कटोरे में होती उसकी दुगुनी जमीन पर। पर मेरे लिए यह बहुत होती और दीदी को ललचाने के लिए भी। दीदी को मधुमक्खियों से जितना डर लगता शहद उतनी ही अच्छी लगती। शहद का लालच देकर दीदी से कोई बात मनवाई जा सकती थी।
एक बार जब मैं अकेले ही अपने छुपाये हुए आम ढूंढ़ रहा था, देखा आजी मुझे ढूंढती हुई इधर-उधर ताक रही हैं। मैं उनकी निगाहों में आने से बचता हुआ धीरे-धीरे पीछे की तरफ खिसक रहा था कि अचानक आजी ने देख लिया और मेरी तरफ बढ़ती हुई चिल्लाई-निकल बाहर, अभी बताती हूँ। मैं घबराकर भागने के लिए पीछे पलटा और पीली ततैयों के एक छत्ते से टकरा गया। ततैयों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया और डंक पर डंक मारने लगीं। मैं चिल्लाते हुए बाहर भागा। जब तक मैं गिरते-पड़ते बाहर आया, ततैयों के डंक के लाल-लाल निशान पूरे शरीर पर उभर आये थे। आजी बाहर डंडा लिए खड़ी थीं और मेरे ऊपर चिल्ला रहीं थीं। कुछ ततैयों ने उन्हें भी काट खाया था। मेरे बाहर निकलने भर की देर थी और आजी ने मेरे शरीर पर उभरे हुये निशानों को अपने डंडे से आपस में जोड़ दिया।
मेरा पूरा शरीर डंक और डंडे के जोर से सूज गया और इस बुरी तरह जकड़ गया कि मैं हाथ-पांव भी नहीं हिला पा रहा था। दर्द इतना था कि शरीर दर्द का समन्दर बन गया था ओर एक के बाद एक टीसती हुई लहरें उठ रहीं थीं। पर रोना तब भी नहीं आया। रोना तो तब आया जब अम्मा रात में कोठरी बंद कर गगरी के पानी से सिंकाई कर रही थीं। अचानक मुझे इतना रोना आया कि मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। अम्मा ने चुप-चुप करते हुए मुझे अपने आंचल में छुपा लिया। मेरा रोना था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। अम्मा मुझे चुप-चुप, चुप मेरे लाल करते हुये खुद सिसकने लगी। अम्मा सिसक रही थीं। अम्मा सिकाई कर रही थी। अम्मा दर्द कम करने के लिए मेरा पोर-पोर चूम रही थीं कि बाबू आ गये।
ऐसा पहली बार हुआ था कि बाबू सामने थे और मेरा रोना नहीं थमा। ऐसा भी पहली ही बार हुआ था कि बाबू ने मुझे प्यार से छुआ-सहलाया। पता नहीं क्यों मैं और जोर-जोर से रोने लगा। जैसे अंदर आंसुओं का कोई बांध था जो तेज आवाज के साथ टूट गया था। बाबू अचकचा से गये। उन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया और जीवन में पहली बार मैंने बाबू के हथौड़े जैसे उन हाथों की कोमलता को महसूस किया जो गुस्से में मेरी पीठ पर पड़ते तो मेरी चीख से आस-पास की हवा तक कांप उठती। जब मेरा रोना थमा और हिचकियों के साथ मैंने अपना सिर ऊपर उठाया तो मुझे बाबू की आंखें नम दिखीं। शायद मेरे ही थोड़े से आंसू बाबू की आंखों में पहुंच गए हों या फिर यह मेरा भ्रम ही रहा हो, पर उस दिन के पहले मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू की आंखें मेरे लिए भी नम हो सकती हैं। यह जादू जाने कैसे उस रात हो गया था। उससे भी बड़ा जादू यह हुआ कि उस रात के बाद बाबू ने मुझे शायद ही फिर कभी मारा हो। पता नहीं यह किस बात का असर था।

आज जब गड़ही में नहीं बचा बेहया, बेहया की जगह पानी में उछलती-तैरती मछलियां हैं। मैं मछलियों को उछलते हुए देख रहा हूं। मेरे मन में बचपन की अनेक स्मृतियां मछलियों सी ही उछल रही हैं। गड़ही में बेहया कहीं नहीं है पर बिना बेहया के कोई स्मृति बनती ही नहीं। कहीं मैं इसके झुरमुट में आम छुपा रहा हूं तो कभी यही बेहया मेरे जिस्म पर बरस रहा है। आज भी जब मैं खुले बदन होता हूं तो मुझे अपने समूचे जिस्म पर आजी के डंडों के अनगिनत निशान दिखाई पड़ते हैं। मेरे देखते-देखते वे उभर आते हैं और उनमें से लहू टपकने लगता हैं। पीड़ा से मेरा जिस्म ऐंठने लगता है।
इस पीड़ा से बचने के लिए मैं अनायास ही अन्नू की बदमाशियों को अपने बचपन के साथ गड्डमड्ड कर देता हूं। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है। बेहया नहीं है तो क्या हुआ अन्नू ने अपने छुपने-छुपाने के लिए कई जगहें ढूँढ़ लीं हैं। वह जब कभी मेरी तरह अपना बचपन याद करेगा तो उसके जिस्म पर लहू टपकाते निशान नहीं उभरेंगे। उसकी आंखों में मछलियां तैरेंगी। क्या पता उसे पंडितजी की कुर्सी पलट देने की हिम्मत इन मछलियों से ही मिली हो।
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मनोज कुमार पाण्डेय

Friday, April 17, 2009

उसके बादल - विमल चंद्र पाण्डेय

इन दिनों हम आपको युवा कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय के पुरस्कृत कथा-संग्रह 'डर' से कहानियाँ पढ़वा रहे हैं। पिछले हफ्ते हमने इस कहानी संग्रह की एक छोटी कहानी 'सिगरेट' प्रकाशित की थी। आज भी हम लेकर आये हैं, एक छोटी कहानी 'उसके बादल'। आप अब तक इस कहानी-संग्रह से १० कहानियाँ (सिगरेट, एक शून्य शाश्वत, वह जो नहीं, सोमनाथ का टाइम टेबल, डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र ) पढ़ चुके हैं।



उसके बादल



घर में घुसने पर पूरा घर किसी कला फ़िल्म के रुके हुए बेरंग, बेरौनक रंगों से बना हुआ लगा। लालटेन की ज़र्द बीमार रोशनी, बिखरे और अस्त व्यस्त सामान। दीवार पर ठेठ मध्यमवर्गीय सजावट जिसमें गणेश जी से लेकर आसाराम बापू तक की तस्वीरें थीं। हर चीज़ के असली रंग में मद्धम पीला रंग मिला हुआ था। पीले रंग की एक पारदर्शी चादर जैसे पूरे घर में टांग दी गई हो।
उसकी नज़र चारपाई पर जाकर अटक गई। चारपाई इस तरह ख़ाली थी जैसे उस पर बरसों से कोई न सोया हो। वह आकर चारपाई के पास खड़ा हो गया। पिता की देहगन्ध सूंघने की कोशिश की पर माहौल में अब कोई गन्ध नहीं बची थी। शायद हवा पूरी गन्ध उड़ा ले गई थी। अभी कुछ देर पहले तक सब कुछ था, पिता थे, उनकी आवाज़, उनके कपड़े, उनकी गन्ध तक..............अब कुछ भी नहीं, गन्ध तक नहीं। चीज़ें वक़्त के साथ कैसे पूरी तरह से ग़ायब हो जाती हैं। वह चारपाई के पास ज़मीन पर बैठ गया। जब वह बहुत छोटा था तो पिता के पसीने की गन्ध उसे बहुत अच्छी लगती थी।
जब कभी वह उनसे उलझा रहता और वह कहते,
’’छोड़ मुझे, मैं नहाने जा रहा हूं। पूरा शरीर महक रहा है।‘’
’’नहीं, महक नहीं रहा है। बहुत अच्छी ख़ूशबू आ रही है।‘‘ वह सूंघकर कहता।
’’अच्छा, मेरे पसीने से तुझे ख़ूशबू आ रही है ?’’ वह हँसते।
’’हाँ,...........बहुत अच्छी।’’ वह उनसे लिपट जाता।
अभी दो महीने तक सब कुछ था। माँ थी, पिता थे, वह भी वह था और घर भी घर था। अच्छा हुआ माँ की सुहागन मरने की बरसों पुरानी साध पूरी हुई। माँ के मरने के दो महीने के भीतर ही पिता भी चले गये।
वह चारपाई के पास से उठकर कमरे में आ गया। क्या उसे सुकून मिल रहा है आज.........? क्यों...........? पिता के मर जाने से............? इसका जवाब वह जानता है पर ख़ुद से कहता कैसे......? पिछले दो महीने से पिता की हर छूटती सांस के पीछे उसका यही इंतज़ार तो रहा है। जो होना है वह समय क्यों ले ? जल्दी से जल्दी होना चाहिए...............कष्टों का अन्त, जीवन के साथ.........क्योंकि जीवन कष्ट है उनके लिए................और उसके लिए ? वह भी तो उनकी हर छूटती सांस के साथ अपना जीवन छोड़ता रहा है। हर पल होती उनकी मौत में वह बराबर का हिस्सेदार रहा है। और जब वह आज चले गए हैं तो उसका भी एक बड़ा हिस्सा तो मर गया है..........उसका बचपन, उसकी जवानी और वह बत्तीस साल का एक थका, परेशान और निराश बूढ़ा होकर अकेला रह गया है।
बादल का एक टुकड़ा खिड़की के बिल्कुल पास आ गया था। सारी चीज़ें हवा, वक़्त, रोशनी, बादल, जिन्हें छुआ नहीं जा सकता, कितने पास होती हैं। हम सिर्फ़ उन्हें महसूस कर सकते हैं। पर बादल को तो छुआ भी जा सकता है। वह उठ आया। खिड़की के पास आने पर पता चला कि बादल का वह टुकड़ा कुछ दूर सरक गया है। वह ज़बरदस्ती उसमें किसी शक्ल को ढूंढने लगा........पर काफी देर बाद भी नाकामयाब रहा। कभी दो आंखें मिल जातीं तो नाक नहीं मिलती, कभी नाक मिल जाती तो एक आंख ग़ायब हो जाती। कभी दोनों मिलते तो मुँह की आकृति नहीं बनती। कितनी कोशिशों के बावजूद भी पिता का चेहरा उस बादल में नहीं बन पाया था। माँ कहती थी जो लोग मर जाते हैं वो बादल बन जाते हैं। वे अपनी सबसे प्रिय जगह अपने सबसे प्रिय के पास जाकर बरसते हैं। माँ बरसी थी, अपनी मौत के तीन दिन बाद। उस बादल के टुकड़े में वह घंटों बैठकर मां का अक्स बनाता रहा था। पिता चारपाई पर लेटे थे। मौसी उनके सिरहाने बैठी थी। उस दिन मौसी अपना बहुत सा सामान समेटकर चली आई थी क्योंकि अब उसे माँ का कोई डर नहीं था। माँ सब कुछ बिखरा छोड़कर, जिसे वह ज़िंदगी भर समेटती रही, अचानक चली गई थी। बीमार पिता उस बीमार रोशनी में अपनी बीमार चारपाई पर थे। सन्नाटा इतना कि पलक भी झपके तो सुनाई दे। मगर ये सन्नाटा उपस्थितियों की कमी से नहीं था, यह छाया था संवादों की कमी से जो ज़बान से आकर आंखें में कैद हो गये थे। मौसी पिता के सिरहाने लगी कुर्सी पर बैठी उनकी उठती गिरती सांसों के साथ उठती गिरती ज़िंदगी को देख रही थी। पिता की आंखें बंद थीं जैसे उनमें जीवन का कोई अंश और जीने की कोई इच्छा शेष न बची हो। वह आश्चर्य से मौसी के बैग और होल्डाल को देख रहा था।
’’मैं यहीं रहना चाहती हूँ मुन्ना। तेरे पिताजी के साथ। आज तक तो कुछ नहीं कर पाई....कुछ दिनों इनकी सेवा करना चाहती हूँ।’’ मौसी ने धीरे से कहा था, बिना उससे नज़रें मिलाए। कुछ बोलने से पहले उसके दिमाग में खटका था, अगर मौसी की कोई ग़लती नहीं होती तो वह उसकी ओर देख कर बात नहीं करती ? नज़रें न मिलाने का मतलब.......? माँ अपनी जगह बिल्कुल ठीक थी? उसका संदेह फिर गहराया था। अब वह बच्चा तो था नहीं जो कुछ समझ नहीं सकता था।
जब बच्चा था तब मामले भले उसके सिर के ऊपर से चले जाते थे। उस समय वह छठी-सातवीं में रहा होगा जब मौसाजी का देहान्त हुआ था। मौसी उसके घर आई थी। पिता न जाने क्यों मौसी से बहुत कम बोलते और उसके सामने भी जल्दी नहीं पड़ते थे। मौसी भी चुपचाप रहती। माँ से मौसी की बातें ऐसी होतीं कि उसे लगता कि वे दोनों किसी दूसरी ही भाषा में बातें करतीं थीं। एक विचित्रता यह थी कि अकेले में पिता से आंखें मिलते ही न जाने दोनों के कौन से ज़ख्म उभर आते जिससे रिसते ख़ून को सम्भालते दोनों अलग दिशाओं में मुड़ जाते।
एक दिन माँ मुहल्ले में किसी के यहां गीत गाने गई थी। किसी की शादी थी और माँ व मौसी दोनों को गीत गाने का बुलावा आया था। वह शायद शाम को ज़्यादा खेलने के कारण थक कर जल्दी सो गया था। जब उसकी नींद खुली तो पड़ोस के घर से आती गाने की आवाज़ से वह समझ गया कि माँ और मौसी घर में नहीं हैं। वह स्वयं रसोईघर से खाना लेने जाने लगा कि रुलाई की आवाज़ ने उसके कदम जड़ कर दिए।
वह सन्न रह गया। मौसी पिता से लिपट कर हिलक-हिलक कर रो रही थी। पिता उसके सिर पर हाथ फेर रहे थे। वह यह मान सकता था कि मौसी को मौसाजी की याद आ रही होगी पर इस बात का जवाब उसका बालमन नहीं ढूँढ़ पाया कि पिता क्यों मौसी को चुप कराते-कराते ख़ुद भी रोने लगे और मौसी की आंखों और गालों को चूमने के बाद उसे खींचकर सीने से लगा लिया।
वह खाना निकालना भूल गया और अपने कमरे में जाकर बैठ गया। न वह इतना बच्चा ही था कि इसे देखकर एक सामान्य घटना मानकर भूल जाता न ही इतना समझदार कि किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंच जाता। वह यह भी नहीं समझ पा रहा था कि ये बात माँ को बतानी चाहिए कि नहीं।
उस बार मौसी सबसे ज़्यादा दिन रही थी। तकरीबन तीन महीने। बीच में कुछ दिन माँ और पिता में दबी ज़बान में तक़रार भी हुई थी। उसे अब लगता है कि सब कुछ वहीं से शुरू हुआ होगा। फिर एक दिन अचानक, जब पिता दफ्तर में थे, माँ मौसी का सामान उठवा कर उन्हें ट्रेन में बिठा आई थी। वह हैरान हुआ था। उसका ख़याल था कि पिता आकर मौसी को न पाकर बहुत शोर मचाएंगे और झगड़ा करेंगे पर वह शान्त रहे। आते ही वह सीधा मौसी के कमरे में गए और मौसी के साथ मौसी का सामान भी ग़ायब देखकर थके कदमों से आ कर बरामदे में कुर्सी पर बैठ गए। माँ चाय लेकर आई और पिता को देती हुई बोली, ‘‘वह दोपहर की गाड़ी से चली गई।‘‘
बदले में पिता ने कातर भाव से पहले माँ की तरफ देखा, फिर घड़ी की तरफ और फिर उसकी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘जाओ, बाहर जाकर खेलो।‘‘ और वह ख़ुशी से उछला हुआ बाहर चला गया।
ऐसी कई अपरिभाषित चीज़ें और लम्हे दिमाग़ में अव्यक्त होकर रह गए पर दिमाग़ की क्षमता बढ़ने पर अपरिभाषित चीज़ें भी अपनी परिभाषा गढ़ने लग गईं।
‘‘पिताजी हर दस दिन पर टूर पर कैसे चले जाते हैं? संजय और दिनेश के पिताजी को तो कभी टूर नहीं मिलता।‘‘ उसे याद है ये उसने तब पूछा था जब वह हाईस्कूल की परीक्षा में फर्स्ट आया था और पिता घर में मौजूद नहीं थे।
बदले में माँ ने जिस नज़र से उसे देखा था उसमें न ग़ुस्सा था, न प्रीति, न प्रतीक्षा न आकांक्षा, बस एक भीगी हुई संवेदना थी जिसमें वह ऊपर से नीचे तक भीग गया था। वह कुछ और भी पूछना चाहता था तब तक माँ नहाने चली गई थी हालांकि यह उसके नहाने का समय नहीं था।
पिता जब भी टूर पर जाते, माँ न जाने क्यों स्वेटर बुनने लगती। मौसम चाहे सर्दी का हो, गर्मी का या बरसात का, पिता के घर से निकलते ही माँ के हाथों में ऊन और सलाइयां आ जातीं और स्वेटर वहीं से शुरू हो जाता जहां पिछली बार पिता के लौटने पर रुका था। इस बीच वह कम बोलती किसी से बात करने से बचती। कुछ पूछने पर बिना आँखें मिलाए इस तरह उत्तर देती जैसे यह स्वेटर बुनना उस समय उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न हो। उसने ध्यान दिया था कि कमरे में किसी के न रहने पर मां स्वेटर बुनना रोक कर दीवारों की तरफ देखने लगती है या मेज़ पर रखी अपनी शादी की फोटो की तरफ, मगर अंदर जाते ही फिर आँखें और ध्यान स्वेटर पर लगा देती है। प्रश्नवाचक निगाहों से देखने पर कभी कह देती है, ‘‘डिज़ाइन सोच रही थी।‘‘
चीज़ों को समझने की एक सीमा होती है.......उम्र की सीमा। उस सीमा के पार जाने पर बिना कुछ कहे सब कुछ समझा और जाना जा सकता है। मगर क्या सब कुछ.......? उसी उम्र में उसे यह पता चला कि यूं चीज़ों को जानने की भी एक सीमा होती है। लाख कितने भी क़रीब रहो, चीज़ों को उनके दिखने की आवृत्ति और कोण से नहीं जाना जा सकता।
उस सीमा तक समझने और जानने के बाद उसने कुछ भी पूछना और यथासंभव सोचना छोड़ दिया था। मां अगर बातों को उसके सामने अब भी नहीं खोलना चाहती तो वह क्यों माँ को शर्मिंदा करे? कई बार उसके भीतर उठ रहे तूफ़ान ने उसे माँ के सामने लाकर खड़ा कर दिया पर माँ की आँखों में स्वयं को दिलासा देती रोशनी देखकर कुछ भी पूछने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। धीरे-धीरे ये ज़रूर हुआ कि मौसी के प्रति मन में घृणा की भावना ज़मीन लेती गई।
माँ के बिस्तर पर पड़ने का पता नहीं क्या कारण था? एक से एक डॉक्टर और उनकी पूरी प्रतिभा माँ की बीमारी नहीं पकड़ पा रही थी। पिता माँ की देखभाल में हमेशा उसके सिरहाने बैठे रहते। उनकी दिल की बीमारी अभी बहुत भयंकर रूप में नहीं बदली थी। उसे याद आया जब माँ को सीने में दर्द उठा था, उसकी मौत के ठीक तीन दिन पहले। मौसी मां की बीमारी का सुन कर कुछ दिन पहले आई थी और माहौल तब से तनावपूर्ण था। वह जान रहा था कि यह तनाव इसलिए ख़ामोशी की चादर ओढ़े हुए है कि क्योंकि वह इस घर में ऐसा व्यक्ति है जिससे तीनों ही अपने कोने छिपाना चाहते हैं। वह चाहता तो बाहर जाकर इस तनाव को घुलने का मौका दे सकता था पर इस बार उसने एक बार भी इस तनाव से खुद को अलग नहीं किया। कोई तो कुछ बोलेगा...........कुछ तो बात खुलेगी। माँ बिस्तर पर अपनी अंतिम सांसे गिन रही है, तनाव अंतिम स्तर पर है........शायद खुले। उसने माँ की ज़िंदगी पर जुआ खेला था और दाँव हार गया था।
दर्द उठते ही पिता माँ के लिए दवाई लेकर दौड़े थे और मौसी पानी। माँ ने मौसी के हाथ में पकड़े पानी के गिलास को झटका दिया था और वह दूर जा गिरा था।
‘‘इसे मेरी नज़रों से हटा दो वरना मैं कल की मरती आज मर जाऊँगी। ...........तुम भी शायद यही चाहते हो कि मैं जल्दी से जल्दी...................।‘‘ माँ रो पड़ी थी।
तनाव सभी सीमाओं को तोड़कर सतह पर आ गया था। उसे लगा अब पिता या मौसी में से कोई माँ को समझाने या सफाई देने की कोशिश करेगा पर ऐसा नहीं हुआ। मौसी चुपचाप वहाँ से हटकर अपने कपड़े समेटने लगी। पिता उसके पास आकर धीरे से बोले, ‘‘इसे घर छोड़ आओ।‘‘
घर मतलब मौसी की वह कोठरी जिसमें वह अकेली रहती थी और उसकी खोज ख़बर लेने वाला कोई नहीं था। मौसाजी की मौत के बाद हुए बँटवारे में यह अकेली कोठरी और इसका विरोध करने पर दुनिया की तनहाइयाँ और उपेक्षाएँ उसके हिस्से आई थीं।
वह मौसी को उनके घर छोड़ आया। रास्ते में मौसी ने उससे कुछ बात करने की कोशिश की पर वह उदासीन बना रहा। माँ की उदास तस्वीर आँखों के सामने घूमती रही।
क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ जैसे अनेकों प्रश्न मन को बचपन से मथते रहते थे। वह चाहता कि वह पिता से पूछे कि आखिर मौसी से उनका रिश्ता क्या है, माँ क्यों उनकी वजह से खुद को तिल-तिल कर मारती जा रही है, सारी समस्या की जड़ क्या है पर वह कभी पूछ नहीं पाया। पिता ख़ुद भी तो उसे बता सकते हैं। यदि उसके सामने सब कुछ घट रहा है और पिता ने अब तक कुछ नहीं बताया तो इसका सीधा मतलब तो यही होता है कि उन्हें पता है कि पूरे प्रकरण में उनकी ग़लती है। उसने कल्पनाओं की ईंट-ईंट जोड़कर संभावनाओं का घर खड़ा कर लिया था जिसमें उसे साफ़ दिखाई देता कि सबसे बड़ी अपराधी मौसी है, फिर पिता। पिता को शायद पिता होने की रियायत मिली थी क्योंकि प्रत्यक्षतः सारी ग़लती पिता की ही दिखाई देती थी फिर भी बचपन से उसके घर के इर्द-गिर्द बने रहस्यमय आवरण ने उसे यह विश्वास दिला दिया कि ज़्यादा अपराध मौसी का है।
इन सब बातों से सर्वोपरि कारण यह था कि पिता को वह सारी कमज़ोरियों के बावजूद बहुत प्रेम करता था और पिता के बिना जीवन की कल्पना उसके लिए कठिन थी। एक मानसिक जुड़ाव जो कई धरातलों पर चेतनाओं की कई परतों से जुड़ा था, उसे हर समय झकझोरता। माँ के गुज़रने के कुछ दिनों बाद जब माँ की कुछ पुरानी चीज़ें एक बोरे में बन्द की जाने लगीं तो पिता ने दौड़ कर बोरा छीन लिया, ‘‘उसकी कोई भी चीज़ कहीं नहीं हटेगी। सारी निशानियाँ और उसकी सारी प्रिय चीज़ें यहीं मेरे कमरे में ही रहेंगी.............मेरी आँखों के सामने।‘‘ पिता आँखों में ही बिलख पड़े थे।
उसने पिता की प्रिय आसाराम बापू की तस्वीर उतारी और सख्त नापसंद होने के बावजूद उसे एक कपड़े से पोंछ कर यथास्थान टांग दिया। पिता की प्रिय बाँसुरी जो उन्होंने अरसे बाद एक दिन बजाई थी, सामने की रैक पर पड़ी हुई थी। उसने बाँसुरी को उठा कर अपनी कमीज़ से पोंछा। सिरे पर लगा ख़ून जम चुका था और काला हो चुका था पर बिल्कुल ताज़ा सा लग रहा था। उसने निश्चय कर लिया था कि पिता की सारी प्रिय चीज़ें अपनी आँखों के सामने रखेगा।
जब इस बार मौसी अपना बैग और होल्डाल लेकर आ गई तो उसे बहुत बुरा लगा। क्या हुआ जो माँ नहीं है घर में, इस घर में वही होगा जो माँ को पसंद था। तीन दिन तक किसी तरह मौसी की उपस्थिति को उसने बर्दाश्त किया पर माँ जैसे हर वक़्त पूछती, ‘‘मुन्ना, तुझे पता है न, मैं इसे अपने घर में बर्दाश्त नहीं कर सकती?‘‘
उस दिन जब पिता सोकर उठे और वह सहारा देकर उन्हें उठाने लगा तो उनकी आँखें इधर-उधर भटकने लगीं। उसे लगा जैसे माँ उसके ऊपर सवार हो गई हो और वह पंद्रह सोलह साल पुराने संवाद बोल रहा हो।
‘‘ मैं रात की गाड़ी से उन्हें उनके घर छोड़ आया।‘‘ पिता की आंखें यह सुनकर बुझ गई थीं। रात की बारिश के बाद सुबह पूरी तरह धुली साफ़ सड़कों जैसी आँखें। वह चाहता था कि पिता उससे सवाल करें,‘‘ किससे पूछ के छोड़ आए तुम उसे घर ?‘‘ उसे डाटें,‘‘ तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे बिना पूछे उसे यहाँ से ले जाने की ?‘‘ शायद कोई छिपा हुआ राज़ ही क़बूल कर लें, ‘‘उसे वापस ले आओ, मैं उसके बिना नहीं रह सकता।‘‘
पर पिता ने सिर्फ अपनी थकी हुई आँखें मूंद लीं। उसे थोडा़ सा दुख हुआ। पिता अब सिर्फ पिता नहीं रहे थे। वह धीरे-धीरे बादल बनते जा रहे थे। वह स्पष्ट देख रहा था उनका धीरे-धीरे करके बादल में बदलते जाना। शुरूआत ऊपर से हुई थी। उनकी आँखें कब की बादल बन चुकी थीं। जिस दिन पाँव बादल बन जाएंगे, पिता सारी थकन समेटे आसमान की और चल देंगे। फिर कुछ दिनों बाद उसके पास आकर बरसेंगे। उसके पास.............? अपने सबसे प्रिय के पास।
अंधेरे के अंदर अंधेरा, सिर्फ संभावनाएं, कोई सत्य नहीं...........वह शायद ऐसे अंधेरों में घिर गया है जहाँ से उसे टटोलते-टटोलते ही गंतव्य तक पहुँचना है। कभी ख़ूब चीखने का मन होता, कभी रो पड़ने का और कभी सोचता कि पिता को झकझोर कर उठाए और सारे सवालों के जवाब मांगे।
जब पिता की आँखें बन्द हो जातीं तो कमरे की सारी चीज़ों का वजूद मिट जाता। उसकी आँखें पिता के निर्विकार चेहरे पर टिक जातीं। घंटों-घंटों उन्हें देखता रहता और आगे ही आगे निकलता जाता। समन्दर की लहरें जैसे ऊपर जाने के बाद ऊपर ही ऊपर चली जातीं हों, वापस नीचे आने का उन्हें ध्यान ही न रहा हो। सैकड़ों घोड़े ख़ाली मैदान में आगे ही आगे बढ़ते जा रहे हों, उन्हें सिर्फ आगे ही राह दिखाई दे रही हो।
‘‘ अरे, डायरी नहीं पढ़ते किसी की................चलो इधर लाओ।‘‘ पिता ने लाड़मिश्रित डाँट पिलाई थी।
‘‘उहहूंहूं...............मैं पढ़ूंगा।‘‘ वह ठुनका था।
‘‘नहीं, चलो अपनी पढ़ाई करो। जब बड़े हो जाना तब पढ़ना।‘‘
‘‘तब आप पढ़ने देंगे ‘‘
‘‘हाँ............।‘‘
पिता ने आँखें खोलीं और अपनी बाँसुरी मँगाई। वह उन्हें बाँसुरी देकर पैर की तरफ बैठ गया। पिता बजाने लगे। एकाध बार उन्हें खाँसी आई और थोड़ी तकलीफ हुई पर जल्द ही एक धीमी दर्द भरी धुन हवा में तैर कर हर अनुभूति और हर रंग को और गाढ़ा करने लगी। उसका मन बहुत भारी हो गया। उसे लगा जैसे वह रो देगा।
‘‘यह धुन बहुत अच्छी है..............नहीं ?‘‘ पिता थकी आवाज़ में उससे क्या पूछना चाह रहे थे ?
उसने देखा बाँसुरी के सिरे पर ख़ून लगा हुआ था। मृत्यु.............उसने सोचा। धीरे -धीरे ज़िंदगी की तरफ बढ़ती मृत्यु कितनी डरावनी है, अचानक होने वाली दर्दनाक से दर्दनाक मौत से भी ज़्यादा भयंकर, डरावनी और दर्दनाक।...........या एक उत्सव ..........जिसके इंतज़ार में पल-पल सरकती ज़िंदगी का सफ़र बोझिल और यंत्रणादायक लगता है। क्या वह उस क्षण का इंतज़ार कर रहा है? पिता क्या कहेंगे उस वक़्त? मृत्यु अपने आने से पहले अपना बोध दे देती है। क्या पिता को मृत्युबोध हो जाय तो उसे कोई संदेश देकर जाएंगे?
पिता अपनी आदत के अनुरूप गए। कोई शोर शराबा नहीं ..........कष्ट सहने की अभूतपूर्व क्षमता।
‘‘ सुनंदा की कोई ग़लती नहीं...........................।‘‘ उसे लगा जैसे पिता को मृत्युबोध हो गया था। पर आगे भी शायद कुछ कहना बाकी रह गया था जो वह नहीं कह पाए। पिता के कहे में उसे कुछ भी नया नहीं लगा था। न जाने क्यों उसे पहले से ही लग रहा था कि पिता अंतिम समय में उससे यही बोलेंगे..............पर सिर्फ इतना ही ?
रात लगभग पूरी जा चुकी थी। उसने चाबी लगाई और पिता का संदूक खोला। पिता की डायरी उठाई। अपने अकेलेपन से तो सभी ईमानदार होते हैं। ख़ुद से सभी सच बोलते हैं। तभी बाहर बादल गरजा। डायरी उसके हाथ से छूट कर गिर गई। क्या पिता आए हैं ?........उसके पास बरसने? उसने खिड़की से बाहर देखा। बारिश के आसार नहीं थे। नहीं बारिश नहीं होगी.................पिता अपने सबसे प्रिय के पास जाकर बरसेंगे......................उसके पास नहीं। उसने देखा डायरी के भीतर से कई पत्र गिर कर इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। उसने एक पत्र उठाया और पढ़ने लगा। पत्र पर तारीख़ दस-बारह साल पुरानी थी।
प्रिय अजीत
एक अभागिन विधवा जैसी हो सकती है, मैं उतनी ठीक हूं। तुम्हें मेरी चिंता नहीं करनी चाहिए। हर दस-बारह दिनों पर तुम्हारा यहां आना मुझे ठीक नहीं लगता। दीदी परेशान होती हैं तो मुझे दुख होता है। मेरी किस्मत में जो था वह हो चुका है। मैं ख़ुद को संभाल लूँगी। तुम अपने परिवार पर ध्यान दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम अपने परिवार को खो बैठो। ऐसा हुआ तो मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी।
तुम्हारी सुनंदा
वह फटी आंखों से इस पत्र को देख रहा था। उसकी टाँगें कँपकँपा रही थीं। मौसी का चेहरा आंखों के सामने नाच रहा था। हर वजह की कितनी परतें होती हैं। हर परत में सम्मलित हुए बिना किसी भी वजह को पूरी तरह से नहीं जाना जा सकता। फिर भी संवेदनाओं का एक स्पर्श बिना कुछ कहे भी सब कुछ समझा जा सकता है। एक के बाद एक उसने सारे पत्र पढ़ डाले। उसकी आंखों से आग और पानी दोनों बरस रहे थे। सारे बादल छँट चुके थे। बाहर शांति थी और भीतर अंधड़ उमड़ रहे थे।
एक तेज़ हवा का झोंका आया और सारे पत्र कमरे में उड़ने लगे। वह चुपचाप खड़ा सारे पत्रों को उड़ता हुआ देख रहा था। पत्रों में लिखे शब्द और उनमें लगी इबारतें उसके दिमाग़ में नाच रही थीं।
डॉक्टर कहते हैं कि दीदी का मानसिक संतुलन शादी के बाद ठीक हो सकता है।.........हमें ये कुर्बानी देनी होगी अजीत, हमारे प्यार की खातिर, मेरी दीदी और बाबूजी की ज़िंदगी की खातिर.............। तुम इतनी लम्बी ज़िंदगी कैसे जीओगी सुनंदा ? दस पंद्रह दिनों पर तुम्हें देखने आता रहूंगा, मना मत करो।............मैं तुमसे प्रेम करती हूं पर दीदी की आँखों में अपने लिए नफरत नहीं देख सकती। ...........दीदी हमारे संबंध को ग़लत समझ रही हैं, तुम यहाँ मत आया करो। ..........मैं दीदी को देखने आना चाहती हूँ, उनकी सारी नफरतों को सह लूँगी।.......सुनंदा, मैं चाहता हूँ मैं मरूं तो तुम मेरे सामने रहो।............मुन्ना की बेरुखी मुझे बहुत कष्ट देती है, तुम उसे सब बता दो ताकि वह मुझसे नफरत न करे।
उसे लगा जैसे वह किसी घिसी पिटी पुरानी पारिवारिक फिल्म की कहानी जी रहा है। इसमें सबके संवाद भावुक होने हैं और बहुत सी ग़लतियों को सुधारना है। मगर उसने जो ग़लतियाँ कर दी हैं वो उसकी गलतियाँ कहाँ हैं। और यह ग़लती कहां यह तो पाप है भले इसका ज़िम्मेदार वह पूरी तरह से नहीं है पर पाप तो उसके हाथों हुआ है। किसी भी मुकम्मल चीज़ को सिर्फ एक आयाम से देखकर उसके बारे में जानना कितना ग़ैरमुकम्मल है। उसने अनजाने में जो पाप कर दिए हैं उनका कोई प्रायश्चित नहीं हो सकता। उसने सोचा था कि वह इन संवादों का हिस्सा नहीं बनेगा। सब कुछ यांत्रिक तरीके से नहीं करेगा। उसकी प्रतिक्रिया वैसी नहीं होगी। वह ठंडे दिमाग़ से सोचेगा। मगर वह न चाहते हुए भी न जाने कब फूट-फूट का रोने लगा था, ‘‘मौसी मुझे माफ कर देना।‘‘ उसने खिड़की के बाहर देखा और पूरी ताक़त से चीखा, ‘‘ पिताऽऽऽऽऽऽऽ...........तुम काऽऽऽऽऽयर थे।‘‘
उसने पिता की और मौसी की सारी चिट्ठियां तह करके डायरी में रख दीं। संदूक बंद करके पिता की डायरी उठाई। थोड़ी देर उसे देखता रहा फिर उसे पिता की ऐनक के पास रख दिया। पिता की सारी प्रिय चीज़ें और निशानियां इसी कमरे में रखी थीं। मगर क्या सारी प्रिय चीज़ें..........................? उसने आंखें पोंछी और घड़ी की ओर देखा। सुबह के पांच हो रहे थे। एक शर्ट और एक तौलिया उसने बैग में डाला और मुँह धोने लगा।
बाहर मौसम अच्छा था और बारिश के आसार बिल्कुल नहीं थे पर बारिश अचानक ही धीरे-धीरे शुरू हो गई थी और खिड़की के पास बादल का एक टुकड़ा आ गया था।

Wednesday, April 8, 2009

सिगरेट- 'डर' की दसवीं कहानी

युवा कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय के पुरस्कृत कथा-संग्रह 'डर' से आप अब तक ९ कहानियाँ ( एक शून्य शाश्वत, वह जो नहीं, सोमनाथ का टाइम टेबल, डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र ) पढ़ चुके हैं। आज हम उसी संग्रह से एक छोटी-सी कहानी 'सिगरेट' प्रकाशित कर रहे है। आशा करते हैं कि आप पसंद करेंगे।



सिगरेट



बूढ़ा ज़्यादा देर एक जगह बैठने का आदी नहीं था। थोड़ी देर टहलने के बाद वह पत्थर की बेंच पर बैठा लेकिन जल्दी ही उठ गया। लोग टहलते हुए आ-जा रहे थे। बूढ़ा भी टहलने लगा।
टहलते-टहलते उसका हाथ जेब में चला गया और माचिस की डिब्बी उंगलियों में फंसी बाहर आ गयी। वह डिब्बी को ध्यान से देखने लगा, जैसे पहली बार देख रहा हो। कितना पुराना साथ था इस माचिस का और उसका। दोनों बचपन के साथी थे। यह पार्क उनका तीसरा साथी था।
लेकिन वे सिर्फ तीन ही नहीं थे। कुल मिलाकर पाँच थे। वह बूढ़ा, यह माचिस,यह पार्क, बूढ़े का दोस्त और सिगरेट की पैकेट। दोस्त की याद आते ही बूढ़े का मन भारी सा होने लगा। उसने दूसरी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा ली।

उसे याद आया, जब वह दसवीं में था तो उसने इसी पार्क से सिगरेट पीनी शुरू की थी। दोस्त ने सिखाया था। वह और दोस्त अपने घर से सुबह टहलने के लिए निकलते। पार्क में आकर थोड़ी देर खूबसूरत लड़कियों को देखते, फिर किसी सुरक्षित कोने में एक पौधे और झाड़ी की आड़ लेकर सिगरेट की पैकेट निकालते।
’’अरे, माचिस तो मैं घर पर ही भूल आया।’’ कभी - कभी ऐसा भी होता।
’’मैं लाया हूं माचिस।’’ वह मुस्कुरा कर कहता।
फिर दोस्त एक सिगरेट निकलता। उसे परिपक्व सिगरेटबाज़ की तरह पैकेट पर धीरे- धीरे ठोंकता, फिर आहिस्ते से अपने होंठों में दबाता और दीवार की टेक लगा लेता। वह माचिस जलाता और दोनों हथेलियों से तीली की लौ को बुझने से बचाते हुए दोस्त की सिगरेट को माचिस दिखाता। दोस्त सिगरेट के कश खींचता और धुंए के छल्ले बनाने की कोशिश करता। दोस्त ने बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी तरह छल्ले बनाना कभी नहीं सीख पाया।
दोस्त दो महीने पहले अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था। वह चौबीसों घण्टे दोस्त के साथ रहता था, सबके मना करने के बावजूद।
जिस दिन दोस्त मरा, उस दिन सुबह से ही वह बहुत मुखर दिख रहा था। उसका बेटा अस्पताल के स्नानागार मे मंजन और स्नान वगैरह कर रहा था और बहू खाना लाने के लिए घर गयी थी। दोस्त की हालत वाकई सीरियस थी। डॉक्टरों ने डेडलाइन दे दी थी....... बस कुछ घण्टे या कुछ दिन। वह उसका हाथ पकड़ कर उसका माथा सहला रहा था कि दोस्त ने आँखें खोलीं।
’’ लगता है विदाई का समय आ गया।’’ दोस्त एक मुर्दा हँसी हँसा।
’’ नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि एक और टेस्ट के बाद ही कुछ........।’’ उसने झूठ बोलने की कोशिश की और पकडा गया।
’’यार तू तो कम से कम सही बोल।’’
’’यार तू तो.....।’’ उसकी आँखें भर आयीं।
’’मुझे जाने का ग़म नहीं है यार। अधिकतर ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुका हूँ। बस दो ग़म हैं। एक तो यह कि तेरी तरह छल्ले बनाना नहीं सीख पाया और दूसरा यह कि........।’’ दोस्त रुक गया।
’’दूसरा क्या..........?’’ उसने ज़ोर दिया।
’’दूसरा यह साले कि तुझसे पहले नहीं मरना था। तुझे मार कर मरना था कमीने।’’ दोस्त हंस रहा था।
वह भी निराशा के बादलों से थोड़ा बाहर निकल आया।
’’ अबे जा साले, चार दिन का मेहमान है तू। मैं अभी कई साल जीने वाला हूं।’’ उसने दोस्त के हाथों को सहलाते, हंसते हुये कहा।
’’ देख लेना बुड्ढे, मरने के तीन महीने के अंदर तुझे भी न बुला लिया तो कहना।’’ दोनों हँसे और खूब हँसे। सारी बोझिलता हँसी की आँच में कपूर की तरह उड़ गयी।
दोनों बूढ़ों की बातें एक नर्स ने सुन ली। इतनी वीभत्स बातें, वह भी एक मृतप्राय मरीज़ से? वह बूढ़े को अजीब सी नज़रों से देखने लगी।
जब वह बाहर चली गयी तो दोस्त ने अपने दोनों पोतों को पास बुला कर पैसे देते हुये कहा,
’’ जाओ बेटे, बाहर से जलेबी खा आओ।’’
’’दादाजी, मैं जलेबी नहीं खाऊंगा, कॉमिक्स खरीदूँगा।’’ बड़ा पोता मचला।
’’ ठीक है, ये ले और पैसे , जा।’’
दोनों उछलते कूदते बाहर चले गये।
’’यार एक चीज़ माँगूँ, देगा ?’’
’’ जान माँग ले।’’ बूढ़े ने कहा।
’’ एक जला ना।’’ दोस्त ने विनती की।
’’ साले, पागल हो गया है? इस हालत में सिगरेट तुझे बहुत नुकसान करेगी।’’ उसने झिड़कते हुये मना किया।
’’ अब क्या फ़ायदा क्या नुकसान........। बस एक आख़िरी बार पी लूँ तेरे साथ........... फिर पता नहीं..........।’’
बूढ़े ने दोस्त का मुँह हथेली से बंद करके आगे के शब्दों को रोक दिया। दौड़ कर उस प्राइवेट वार्ड का दरवाज़ा बंद किया और आकर दोस्त के पास बैठ गया। दोस्त उठने लायक नहीं था, लेकिन ख़ुद से उठकर पलंग के सिरहाने की टेक लेकर बैठा था। बूढ़े ने पैकेट निकाली तो दोस्त ने पैकेट झपट ली और उसमें से एक सिगरेट निकाल ली। फिर धीरे-धीरे पैकेट पर ठोंका और होंठों के बीच दबा लिया। बूढ़े ने भारी मन से माचिस जलायी और हथेलियों के बीच से सिगरेट को लौ दिखायी।
दोस्त धीरे-धीरे कश लेने लगा। बूढ़ा भी दोस्त के शांत चेहरे को देख कर संतुष्ट था। दोनों ने हमेशा की तरह एक ही सिगरेट से बारी-बारी कश लिया।
’’हम कितना कुछ करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। सोचा था रिटायरमेंट के बाद कुछ अपनी मर्ज़ी का करेंगे। हम दोनों ने सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर दीं, फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में हिल स्टेशन जाकर बसने और भाग-दौड़ से दूर ज़िंदगी बिताने का सपना तो सपना ही रह गया। कमबख्त ज़िंदगी ने वक़्त ही नहीं दिया। अपने पीछे भगाती रही, भागती रही.........।’’ दोस्त कश लगाते हुये खो सा गया था।
’’ कोई बात नहीं यार, हमारी ज़िंदगी अब हमारे बादवाली पीढ़ीयां ली रही हैं। हमारी निश्चिंतताएँ, हमारे सपने अब उनकी आंखों में हैं।’’ बूढ़े ने दोस्त की हथेली दबाते हुये कहा।
’’ कहां.......? अब तो सब कुछ बदल गया है दोस्त। हवा बदल गयी है। अपने तरीके से, अपनी शर्तों पर कोई ज़िंदगी नहीं जी पाता। ज़िम्मेदारियां सारी निभा दीं पर अपने ख़ुद के लिये सोचा कुछ नहीं कर पाया।’’
’’ हमने कोशिश तो की यार अपने तरीके से ज़िंदगी जीने की, ये क्या कम बात है ?’’ बूढ़ा बोला।
’’ज़िंदगी जीना तो छोड़, मैं तो तेरी तरह छल्ले बनाना भी नहीं सीख पाया।’’ दोस्त ने होंठ गोल करके धुआँ छोड़ा।
’’ चल कोई बात नहीं, मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। वहीं सिखा दूँगा।’’ उसने कहा।
दोस्त के साथ यह उसकी आख़िरी सिगरेट थी। उस दिन जब दोस्त ने आँखें मूंदी तो हर मित्र और रिश्तेदार की ज़बान पर एक ही वाक्य था, ’’ आख़िर हर ज़िम्मेदारी निभा गये।’’
’’ हाँ, सबको पार लगा दिया।’’
’’ जो-जो करना चाहते थे कर के ही रहे।’’
’’ नहीं, छल्ले बनाना नहीं सीख पाया। बहुत चाहकर भी नहीं.........।’’ बूढ़ा बुदबुदाया। लेकिन किसी ने सुना नहीं, ख़ुद बूढ़े के अलावा।
उस दिन से रोज़ सुबह पार्क में टहलने जानेवाला दशकों पुराना क्रम टूट गया। दो महीनों में आज वह पहली बार आया था। बूढ़े के दोनों बेटे मॉण्ट्रियल में, बेटी मुंबई में और बीवी आसमान में थी। कभी-कभी बेटों की ई-मेल, बेटी का फोन और बीवी की याद आकर उसे उदास करने की कोशिश करते लेकिन वह तटस्थ रहने की पूरी कोशिश करता। जीवन का खेल इस अवस्था में काफी कुछ समझ में आ ही जाता है। सब आना-जाना है। बेटे-बेटी ख़ुश रहें, अपनी ज़िंदगी जियें, ज़्यादा लगाव घातक है। कोई कितना भी प्रिय हो, कभी भी छोड़ कर जा सकता है। यही जीवन है।
जब पत्नी की मौत हुयी थी तो बूढ़ दोस्त के पास बैठ कर बहुत रोया था, लेकिन जब दोस्त की मौत हुयी तो बिल्कुल नहीं रोया। उसे लगता जैसे दोस्त फ़िल्म देखने हॉल में गया है। दोस्त हमेशा की तरह पहले पहुंच गया है, वह थोड़ा बाद में पहुंचेगा। इसमें रोना और दुख क्या करना। हां, याद आने पर कभी-कभी दिनचर्या सुस्त हो जाती है।
वह फिर पीछे की तरफ लौट पड़ा-सत्रह साल वाली उम्र में। जहां से उसने जीवन जीना शुरू किया था।
’’ इतनी देर कहां लगा दी। फ़िल्म शुरू हुये दस मिनट हो चुके हैं।’’ दोस्त थोड़ी सी भी देरी पर बहुत नाराज़ होता था।
’’ यार आज पापा ऑफ़िस ही नहीं गये, इसलिये कई बहाने मारने पड़े।’’ वह बताता।
पूरी फ़िल्म के दौरान जब वे दो पैकेट सिगरेट पी जाते तो दोस्त थोड़ा चिंतित दिखायी देता।
’’आजकल सिगरेट बहुत ज़्यादा हो जा रही है। कम करनी होगी।’’
’’ हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ।’’ वह भी दोस्त का समर्थन करता।
फिर किसी दिन दोस्त फैसला सुनाता, ’’ मैं एक तारीख से सिगरेट छोड़ रहा हूँ, हमेशा के लिये।’’
’’एक से ही क्यों ?’’ एक बार उसने पूछा था।
’’ताकि सीधा-सीधा हिसाब याद रहे कि सिगरेट छोड़े कितने दिन हुये।’’
’’जब हमेशा के लिये छोड़ रहा है तो जानने की क्या ज़रूरत.........?’’
फिर दोस्त तीस या इकतीस तारीख को रोज़ से दुगुनी सिगरेटें पीता और उसे भी पिलाता। इस वजह के साथ कि कल से सिगरेट एकदम से छोड़ देनी है। सिगरेट पीना सिखाने में दोस्त उसका गुरू था लेकिन दोस्त छल्ले नहीं बना पता था और इस मामले में वह दोस्त का गुरू था।
दोनों महीने के अंतिम दिन ख़ूब सिगरेटें पीते और नये महीने की शुरूआत बिना सिगरेट के करते। फिर दोनों तीन से चार और चार से पांच तारीख़ तक अपना वादा निभाते। छह-सात तारीख आते ही दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगते कि कोई कुछ कहे। कोई बोलता- कभी वह, कभी दोस्त।
’’कल रात से ही सिर बड़ा दर्द हो रहा है।’’
’’हां, मुझे भी हल्का सिरदर्द है। कुछ दिनों से पेट भी साफ नहीं हो रहा है।’’
’’शायद हमने अचानक छोड़ दी इसीलिये............।’’
’’ चलो धीरे-धीरे कम करते हुये छोड़ते हैं।’’
फिर दोनों धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करते। कुछ दिनों तक कम होने का यह क्रम चलता, फिर वही पुराना ढर्रा। मगर अगली तीस या इकतीस को कोई न कोई एक नया प्रण ज़रूर करता।
’’इस महीने से एक दिन में बस दो सिगरेट।’’
’’डन।’’
’’डन।’’
यह ’डन’ तब तक निभता जब तक वे कोई फ़िल्म देखने नहीं जाते। जिस दिन हॉल में घुसते, पैकैटें ख़त्म हो जातीं।
बूढ़े ने अपनी मर्ज़ी से भी सिगरेट छोड़ी, ह्दय को स्वस्थ रखने के लिये। जब सीने में दर्द होता और डॉक्टर सिगरेट पीने को मना करता। बूढ़ा एक हफ़्ते तक सिगरेट नहीं पीता, फिर जैसे ही दर्द होता, पैकेट हाथ में आ जाती। इस बार, पिछले हफ़्ते बूढ़े को डॉक्टर ने चेताया था कि सिगरेट छोड़ दीजीये वरना ज़्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बूढ़ा आंखों में मुस्कराया था। एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ी इस बार।
सब कुछ कितनी जल्दी होता चला गया। आज सोचने पर बूढ़े को विश्वास नहीं होता कि सिगरेट शुरू किये पचास-पचपन साल हो गये। कब स्कूल, कॉलेज, नौकरी, शादी, बीवी, बच्चे, रिटायरमेण्ट एक के बाद एक परिवर्तन आते गये। नये-नये अनुभव मिलते गये। दोस्त हर अनुभव में साथ रहा। सिगरेट भी हर अनुभव में साथ रही। दोस्त अकेला छोड़ गया............एक उदास अनुभव के साथ, एक सिहरन के साथ। सिगरेट ने अकेला नहीं छोड़ा। अब भी साथ है। शायद यह शरीर के साथ ही साथ छोड़ती हो।
उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लिया और आधी बची सिगरेट झाड़ियों में फेंक दी। अकेले उसे सिगरेट पीने की आदत नहीं। एक सिगरेट एक बार में पूरी नहीं पी पाता, भले ही तुरंत अगली जला लेता है। दो महीने से प्रयास कर रहा है कि अकेला पीना सीख ले पर पचास साल पुरानी आदत दो महीने में कैसे बदले। आधी पीने के बाद आधी, जो कि दोस्त का हिस्सा है, नहीं पी जाती, फेंक देनी पड़ती है।
पार्क में टहलते लोग बूढ़े को अजीब नज़रों से देखते हैं। सुबह की ताज़ी हवा लेने के बजाय यह बूढ़ा सिगरेट पी रहा है, वह भी श्रृंखलाबद्ध...........लगातार। बूढ़ा यादों में खोया चलता रहता है।
कभी-कभी उसे लगता है कि वह बूढ़ा नहीं है-सत्रह साल का लड़का है। दसवीं का छात्र। दोस्त के साथ पार्क में घूमता हुआ। बतियाता हुआ।
’’शादी के बाद अगर तेरी बीवी ने मना किया तो तू सिगरेट छोड़ देगा?’’ उसने कश मारते हुये दोस्त से पूछा था।
’’यार पद्मा से मेरी शादी हो जाय बस्स्स्स............वह कहेगी सारी दुनिया छोड़ दूंगा।’’
’’ऐसा क्या है उसमें...............?’’
’’मेरी नज़र से देख, क्या होंठ हैं, गुलाब की पंखड़ियां, आंखें जैसे नीले मोती और फ़िगर..............परी है परी। आइ लव हर।’’ दोस्त खोने लगा था।
’’और पद्मा से तेरी शादी न हो पायी तो........?’’
’’तो ज़िंदगी में कभी शादी नहीं करूँगा और न ही पद्मा को करने दूँगा। आख़िर हमने साथ जीने मरने की कसमें खायी हैं।’’ दोस्त अटल इरादे से बोला था।

लेकिन दोस्त की शादी पद्मा से नहीं हुयी और दसवीं कक्षा का पवित्र प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया। दोस्त पद्मा की शादी रोक भी नहीं पाया बल्कि अपने पिताजी के साथ जाकर शादी की दावत भी खा आया। उस रात दोस्त बहुत रोया था। उस रात उसने सिगरेट की अग्नि हाथ में लेकर कभी शादी न करने की कसम खायी थी। लेकिन बाद में दोस्त की शादी भी हुयी और प्यारे-प्यारे बच्चे भी हुये।

एक बार बूढ़ा, दोस्त के साथ अपनी बेटी से मिलकर आ रहा था, जो हॉस्टल में रह कर पढ़ती थी, कि दोस्त की परी स्टेशन पर मिल गयी। शादी के पंद्रह साल ही बीते थे और दोस्त की पद्मा बिल्कुल पहचान में नहीं आ रही थी। गुलाब की पंखड़ियों के उपर हल्के बाल उगे दिख रहे थे और नीले मोती, मोटे फ़्रेम के चश्मे में क़ैद हो गये थे। एक ज़माने में दोस्त को पागल कर देने वाला ’फ़िगर’ ऊपर से नीचे तक बराबर हो चुका था। उसका पति उससे भी बीस था।
पद्मा से मुलाक़ात के बाद दोस्त ख़ूब हँसा था। सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुये उसने कहा था, ’’यार, वक़्त भी कैसा मसखरा है। हर चीज़ से ज़ाहिर करता है कि मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं।’’
यादों में खोये-खोये बूढ़े ने सिगरेट जला ली थी और पार्क के गेट तक पहुंचने ही वाला था। उसके बांये हाथ में आज का अख़बार था और दाहिने हाथ में सिगरेट झूल रही थी। गेट के पास पहुंचते ही उसका मन हुआ कि वह उन झाड़ियों के पीछे झांके, जिसके पीछे उसने अपने दोस्त के साथ छल्ले बनाने की शुरूआत की थी।
झाड़ियां अब काफ़ी घनी हो गयी थीं। उस समय का पौधा अब मोटे तने वाला पेड़ बन चुका था। बूढ़े ने चलते-चलते ही अख़बारवाले हाथ से पेड़ पर लटकी लताओं को हटाया और अंदर झांका।
अंदर कुछ सुरसुराहट थी। सोलह-सत्रह साल के दो लड़के उन झाड़ियों और लताओं के पीछे बैठे सिगरेट पी रहे थे। एक गुरू की तरह आसमान की तरफ़ मुंह करके छल्ले बना रहा था और दूसरा चेले की तरह ध्यान से देखकर उसका अनुसरण कर रहा था। बूढ़े को देखकर वे घबरा गये। बूढ़ा मुस्करा उठा। उसे अचानक अपने भीतर ढेर सारा उल्लास अनुभव हुआ। आधी सिगरेट ख़त्म हो गयी थी। उसने सिगरेट को मुस्कराते हुये ज़मीन पर गिराया, पैरों से मसला और गेट की तरफ़ बढ़ गया।

Thursday, April 2, 2009

एक शून्य शाश्वत

आज हम नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत विमल चंद्र पाण्डेय के पहले कथा-संग्रह 'डर' की नौवीं कहानी प्रकाशित कर रहे हैं। अब तक आप इस संग्रह से ८ कहानियाँ ( वह जो नहीं, सोमनाथ का टाइम टेबल, डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र ) पढ़ चुके हैं। आज की कहानी 'एक शून्य शाश्वत' इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी है और आलोचक मानते हैं कि सबसे सशक्त कहानी है। एक आलोचक ने यहाँ तक कहा कि कहानीकार को अपने संग्रह का नाम इसी कहानी के नाम पर रखना चाहिए था।


एक शून्य शाश्वत


{कभी मन अचानक ही विरक्त हो जाता है..........बिना किसी ख़ास कारण के या ढेर सारे कारणों के हुजूम से। पूरी दुनिया से वीतरागी.......कुछ भी अच्छा नहीं लगता मन को। हम साधारण मनुष्य हैं, कुछ देर बाद सामान्य हो जाते हैं। यह वैसी ही किसी विरक्ति के विस्तार पाने की कहानी है।}


शब्द रास्ता हैं और शून्य मंज़िल

मैं इन सस्ते और ऐयाश लोगों के बीच
जो सिक्के चबाते हैं और
केकड़े की तरह चिपक जाते हैं
रहते-रहते सोचता हूं-
क्या पड़ी थी ईश्वर को
जो बैठे बिठाए
माँस के वृक्ष बनाए - कैलाश बाजपेई
(’शायद’ शाश्वत की तत्कालीन मनःस्थिति)

काश! मुझमें भी थोड़ा भय बाकी रहता, थोड़ा प्रेम और थोड़ा लोभ। तब शायद मैं भी इस सन्निपाती समय में अपने हाथों को ज़ोर-ज़ोर से हिलाता हुआ अभिमान और आभासी ज्ञान की आंच में पके झूठे शब्दों को फिच्च-फिच्च करके बाहर फेंकता। ये शब्द मुझे थोड़ा और सम्मान दिलाते जिससे मैं वास्तविकता से थोड़ा और दूर जाकर अपने निजी अन्धकार से अनभिज्ञ एक अस्थाई गुब्बारे की तरह फूल जाता। परन्तु इन यशस्वी कपटियों के निचुड़े दिमागों में यह बात शायद तब आती हो जब अंतिम हिचकी में उनके प्राण अटक जातें हों और उन मूर्खों को मृत्यु से भय सा लगता हो। मालविका, मुझे क्षमा करना। तुम्हें देने को मेरे पास कुछ नहीं रहा, सिवाय शून्य के। इस दुनिया में दो ही चीज़ों का महत्व है, शब्दों का और शून्य का......और यदि ध्यान से देखोगी तो पाओगी कि शब्द भी दरअसल शून्य में जाने का रास्ता ही हैं। न मुझे तुम पर क्रोध आता है, न प्रेम, न घृणा........। मुझे सिर्फ़ हँसी आती है दुनिया के कारोबार पर। कभी-कभी उस पर, कभी-कभी तुम पर और कभी-कभी ख़ुद पर......।
ये बातें और इस तरह की बहुत सी बातें करने लगा था शाश्वत उन दिनों। उसका मूड हर पल बड़ी तेजी से बदला करता था। कभी बहुत ख़ुश दिखता और कभी अचानक उदास हो जाता। कभी बहुत देर तक गुमसुम रहता और अगले ही पल इतनी तेज़ किलकारी मारकर हंसने लगता कि आस-पास के सब चकित हो कर उसे ही देखने लगते। बोलता-बोलता अचानक चुप हो जाता। शून्य में देखने लगता और घण्टों देखता रहता। वह उन दिनों सामान्य नहीं रह गया था और यही बहस का मुद्दा भी तो था।

ज़िला बदर बनाम ज़िंदगी बदर
ये सब उन बेरौनक दिनों के बहुत बाद से शुरू हुआ था जब हम यह मानने लगे थे कि हमारी उम्र के आधे कबूतर उड़ गए हैं और हर दिन हमारे कंधे पर एक लाश की तरह भार बढ़ाता जा रहा है। हम अपनी विशिष्टता के अंधे विश्वास से तब तक भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए थे जब हमारे कई समौरिया अपने छह-छह साल के बच्चों को अपने कंधे पर बिठा कर गुब्बारे दिलाने लहरतारा पुल के नीचे ले जाते थे और अठन्नी कम कराने के लिए गुब्बारे वालों की मां-बहन किया करते थे।
हम उनके तुष्ट वात्सल्य की तुलना में अपने कुत्सित विचारों के अंधे गलियारों से जन्मे अबोध और अधूरे बच्चों को गलीच नालियों में मां-मां की कातर पुकार करते बहते हुए देखते और हर बार पिछली बार से दुगुना शर्मिंदा होते। यह अपराधबोध हमारे कंधे पर एक अतिरिक्त भार बढ़ाता और कम-अज़-कम इस फ्रंट पर ताक़तवर होने के लिए हम एक मादा (निसंदेह अलग अलग) की तलाश में भी उसी तेज़ी से मुब्तिला थे जितनी तेज़ी से रोज़ी की।
हमारे मानदंडों पर कोई ऐरा गैरा ख़रा भी तो नहीं उतर सकता था क्योंकि हम विशिष्ट थे। यह विश्वास हम एक दूसरे को प्रायः दिलाया करते कि हममें से कहीं कोई साधारण न बन जाए। हमारे अधिकतर ’साधारण’ समकालीन बच्चों और बाप की किच्चमपों के बीच भी बीवी से प्रेम करने का अवसर निकाल लिया करते और संभोग से संतुष्ट होकर गोल गालों और अनवरत बढ़ती जा रही तोंद के साथ भर लहरतारा इतराया करते जिसे हम ’छटकना’ कहते (साला कैसे छटक रहा है)। एक हाथ में दुधमुंहा बच्चा पकड़ उसकी पें-पें बंद करने की कोशिश व दूसरे हाथ से सामान्य ज्ञान दर्पण पढ़ते नज़र आते मित्रों के दृश्य लहरतारा में आम थे। हम निरन्तर सूखती जा रही काया और पिचकते जा रहे गालों के बावजूद जीवन की आशा से सिर्फ़ इसलिए चिपके थे क्योंकि हम विशिष्ट थे। हमारे पास एक तथाकथित प्रौढ़ दिमाग था, कुछ स्वघोषित महान विचार थे और एक स्वपोषित चमकदार स्वप्न था जो बकौल हमारे पूरा होने पर हमें लहरतारा क्या, बनारस क्या, पूरे देश या प्रदेश की कथित तौर पर सबसे शक्तिशाली गद्दी पर आसीन कराने वाला था।
उल्लेखनीय बात उन दिनों की भी नहीं है जब हम पोथी पढ़-पढ़ कर मरते रहते थे और हमारे बहुत से समवय एम.आर.की नौकरी या डी.टी.पी.,टैली और ए. लेवल,ओ लेवल के कोर्स कर रहे थे। उस समय तो कोई इतर बात हमारे मष्तिष्कों में समा ही नहीं सकती थी। हम सोचते ज़्यादा थे और काम कम करते थे। वह एक तेज़ बहती नदी का दौर था जब समय रुई के रेशे की तरह जलता जाता था। हम घर के खाने को गले तक भर कर घर के पैसों से सिनेमा और यायावरी करते हुए अपनी कड़ी तैयारी को और-और धार देते रहे पर सफलता वाले फल की डाली हमारी पहुंच से और-और दूर जाती गई। बनारस को अपने महान स्वप्नों के आकार में छोटा और संकुचित पाकर हम राजधानी की ओर कूच कर गए। अपने विचारों की तुलना में बनारस गंवार लगता और बनारसी यानि हमारे समवय मित्र इस नाली में रेंगते कीड़े जो यहीं पैदा होकर यहीं मर जाएंगे। हमें लहरतारा में नहीं रहना था। हमें बनारस में नहीं मरना था....................................हमें दिल्ली में मरना था। दिल्ली के बी-32 में।

रोज़ बुतों की आइनों से मारामारी दिल्ली में
पाण्डव नगर के बी-32 नामक आशियाने में हमारे सपने दिल्ली का बड़ा आकाश पाकर इतना परवान चढ़ गए कि उतरने में हमारी पूरी दिमागी व्यवस्था हिल गई। जब हमारे सपनों की लौ बुझने से ठीक पहले वाली लपलपाहट में अचानक गगनचुम्बी आकार ले रही थी तब इसे शाश्वत ने सबसे पहले भांप लिया था और वैकल्पिक रोज़गार की तलाश में यहां-वहां सिर मारना शुरू कर दिया था।
दूसरे फ्रंट पर भी शाश्वत ही सबसे पहले या यों कहें एकमात्र सफल हुआ था। कई अदृश्य बोझों से लगातार झुकते जा रहे अपने कंधों को हम यह कह कर सांत्वना देते कि शाश्वत हम सबमें सबसे ज़्यादा स्मार्ट, हैंडसम और वाकपटु वग़ैरह है पर हम जानते थे कि असली कारण यह नहीं था। हमारे अंदर की आंच उन स्वप्नमहलों की ईंट पकाने में पूरी तरह ख़र्च हो गई थी जिनके आर्किटेक्ट हम नहीं थे। ये हमने कहीं से चुराए थे या हमारे घरवालों ने ज़बरदस्ती हमारी आंखों में रोप दिए थे जो अब बालिग हो गए थे, चुभने लगे थे और बेतहाशा दर्द देते थे। इन उधार के सपनों ने टूटने से पहले एक महत्वपूर्ण कार्य यह किया था कि हमारे भीतर से वह तत्व चुरा लिया था जिसे जीवन जीने का उत्साह या सरल शब्दों में शायद जिजीविषा कहते हैं। कभी बड़े आसमान के आकांक्षी रहे हम एक छोटी सी ज़मीन के लिए तड़प रहे थे। ये तैयारी के शुरुआती चार-पांच सालों को घोर ऐयाशी में बरबाद करने का ख़ामियाज़ा था जो भुगतते-भुगतते अब हम उस मोड़ पर खड़े थे जहां से आगे जाने के रास्ते अव्वल तो थे नहीं और यदि कहीं थे भी तो दूर तक अंधेरे का ट्रैफिक जाम दिखाई देता था। घोर गुरबत में सिर्फ़ चुहल करने के लिए एक ज्योतिषी को हाथ भी दिखाया गया पर वक़्त-ए-मुफ़लिसी में वह भी सरकारी ज्योतिषी निकला, यानी पूछो कुछ तो बताए कुछ। शाश्वत और सुनील दोनों के हाथ देखकर सुनील की आंखों में झांक कर और शाश्वत की ओर उंगली उठा कर बोला था, ’’ इससे सावधान रहना ’’ और हम किलक कर हँस पड़े थे।
उसका नाम मालविका था और वह उसके अनुसार सभी आम लड़कियों से अलग एक विशिष्ट लड़की थी जो चॉकलेट पर जान छिड़कती थी, आइसक्रीम की दीवानी थी और जिसे गुलाब के फूल बहुत पसंद थे।
उसके आने से पहले हम तीन थे। मैं, शाश्वत और सुनील। हम हर फ़ैसले में शाश्वत की राय चाहते और हमारे हर फ़ैसले में उसकी छाया शामिल होती। वह इस अबूझ दुनिया को डिकोड करने के लिए हमारा शब्दकोश था जिसे धीरे-धीरे हम नासमझों ने इन्साइक्लोपीडिया बना दिया था।
मालविका और उसकी निकटता बढ़ने में दोनों के विशिष्ट होने का कारक काम आया। शायद दो अलग परिवेश और संग में विशिष्ट बने दो जनों ने आपस में अपनी विशिष्टता जांच ली। शाश्वत नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा और मालविका ने पब्लिकली मान लिया कि उसे चॉकलेट, आइसक्रीम और चाट बहुत पसंद हैंे।
इधर शाश्वत ने नौकरी की तलाश शुरू की और इधर हम धड़ाम से सच्चाई की उस ज़मीन पर आ गिरे जिससे आंखें मूंदकर हम ज़बरदस्ती आंखों में चुभ रहे सपनों को महसूसते रहते थे।
’’अब वक़्त आ गया है कि हम वास्तविकता को समझें और उसका मुक़ाबला करें। हम हार गए हैं। हमने अपनी ज़िंदगी के सबसे ख़ूबसूरत साल उन आकांक्षाओं को पूरा करने में लगा दिए जो दरअसल हमारी थी हीं नहीं। हम किन्हीं के दिए हुए सपनों को किसी की लगाई झूठी आशा पर ढो रहे थे। हम ग़लत समझते थे कि हम विशिष्ट हैं। यदि अब न संभले तो हमारा वजूद ख़त्म हो जाएगा।’’
शाश्वत की बातों को और उसकी तपती सच्चाई को हमने कहीं बहुत गहराई से महसूस किया था जहां हमारे सपने अब कैंसर की गांठ की तरह हो गए थे। वहां छूने पर एक जानलेवा दर्द उठता था जो एक तवील इंतज़ार के बाद ही ख़त्म होता था। हम शाश्वत की आड़ में अपनी उम्मीदों की रक्षा कर रहे थे पर उसके एकदम से अपनी जगह से हट जाने से हमारी उम्मीदें एकदम नंगी हो गईं थीं और उनका रोगग्रस्त शरीर साफ़ दिख रहा था। अब हम इन उम्मीदों को उढ़ाने के लिए किसी दूसरी उम्मीद की छोटी ही सही चादर ढूँढ़ने लगे थे।
मगर राजधानी वह शै है जो उम्मीद देती तो है पर मरीचिका की तरह। हर बार उसकी तलाश में वहां पहुंचने पर वह फिर किसी ऐसी जगह नज़र आती है जहां वह दरअसल होती नहीं है। वास्तव में दिल्ली कहा जाने वाला यह शहर किसी भी मांग के लिए सीधे मना नहीं करता। इच्छित चीज़ का कभी न मिल सकने वाला वर्चुअल प्रतिबिम्ब सामने तो होता है पर पकड़ में नहीं आता। फिर इच्छाएं दबाई जाने पर घाव के नासूर बनने की प्रक्रिया में जीवन भर कष्ट देती हैं या कम-अज़-कम निशान छोड़ जाती हैं।

एक छोटी सी प्रेम कथा विद फूको एण्ड माक्र्स, यू नो
असली मुद्दे पर आने से पहले और यह बांटने से पहले कि वह ख़तरनाक दिन कब शुरू हुए थे, मालविका से शाश्वत की नज़दीकी बढ़ने वाले दिन भी सामने की दीवार पर जहां मक्खी बैठी है, फ़िल्म की तरह चल रहे हैं और अनायास ही याद आ रहा है कि कैसे वह शुरू-शुरू में नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती थी।
मालविका के साथ शाश्वत की पहली मुलाकात हुई तो हम भी साथ थे। वह हमें बहुत बोल्ड और हाइ-फाइ चीज़ लगी थी। कारण कई थे। कहीं कहीं हम तो कहीं कहीं वह। हर बात में यू नो, बुलशिट और फ़क़ आॅल जैसी चीज़ें हमारे लिए दिलचस्प और निसंदेह एक अच्छे अभ्यास की आकांक्षी थीं। हम अभ्यास भी गंवारों की तरह कर पाते यानि फ़क़ यू बोलने में निर्लज्जता और बेपरवाही के अलावा सही उच्चारण भी शामिल होना चाहिए पर हम आपस में हर बार फक में नुक़्ता लगाना तक भूल जाते और स्वयं को भाषा का दोषी मानते। हमारे अंदर छिपा कस्बाई मेढक उसका रहन सहन और बोली-बानी देखकर कभी तो बिल्कुल सहम जाता और कभी हमारे गले से मुंह के पास आकर टर्राने लगता। हम थोड़े शर्मिंदा हो जाते। वह कानपुर के एक कपड़ा व्यवसायी की बेटी थी जो अपनी विशिष्टता के भ्रम में ख़बरों की दुनिया के मायाजाल का हिस्सा बनने चली आई थी। हमारी विशिष्टता की तरह उसकी विशिष्टता भी उसका स्वयं अपने आसपास बनाया गया एक तिलिस्म था जो दुनियावी चोटें खाकर धीरे-धीरे टूट रहा था। जिस दुनिया में जाने का अभ्यास वह वर्षों से आइने के सामने बोल-बोल कर कर रही थी उसमे दाखिले की कुछ और भी शर्तें थी जो ख़ौफ़नाक थीं। ये शर्तें सुनने में बुलशिट थीं और यू नो, फ़क़ दिस कह कर भूल जाने लायक थीं। वह पहली कुछ मुलाकातों में एंगेल्स, माक्र्स, फूको, हैबर मॉस, माइकल एंजेलो, एल्टन जॉन, ईगल्स, कियानू रीव्स, नोम चोम्स्की, शकीरा, होटल कैलिफोर्निया और ट्विस्ट एण्ड शाउट वग़ैरह से नीचे बात करने को तैयार नहीं होती थी। हमारा इन्साक्लोपीडिया ही इतना हरफ़नमौला था, हम नहीं। हम अपने अंदर के मेढक के जबड़े दाबे पीछे हो लेते और शाश्वत पूरी कुशलता से उस लड़की को टैकल करता।
धीरे-धीरे दोनों के स्वप्नों के छोटे-छोटे वृत्त एक दूसरे से टकराने लगे और विसरण या परासरण जाने कौन सी क्रिया से एक बड़े वृत्त का आकार लेने लगे। वह एक शर्मीली सी लड़की थी जो माक्र्स, फूको और शकीरा का खोल नोच देने पर काफी हद तक एक मासूम बच्ची सी लगती थी और उसी हद तक देसी भी। एकाध बार हमने उसे रफी और किशोर सुनते भी रंगे हाथों पकड़ा था और ’’यू नो, पहले आवाज़ें ज़्यादा अच्छी थीं और आज म्यूज़िक’’ सुनकर इसे उसकी रुचियों में न डाल उसकी उत्सुकता में जोड़ लिया था।
’’ मैं आइसक्रीम खाउंगी। ’’ वह मचली थी। वह दिन शाश्वत के लिए यादगार था। हम दोनों वेटर को पचास रुपए देकर बाहर आ गए थे और उसने पहले से बुक न होने के बावजूद दोनों को एक केबिन दे दिया था।
आइसक्रीम खाने के क्रम में कुछ आइसक्रीम उसके होंठों पर लग गई। शाश्वत का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था और पेट में जाने कैसी कड़बड़ कड़बड़ होने लगी थी। वह पोंछने को तत्पर हुई तो उसने उसका हाथ थाम लिया। वह सहम गई जैसे उसकी छठी इंद्रिय ने उसे बता दिया हो कि अगले पल क्या होने वाला है। शाश्वत ने अपनी ज़बान से आइसक्रीम साफ़ कर दी। मालविका की आंखें बंद हो चली थीं। शाश्वत की ज़बान उसके होंठों पर फिर रही थी। दोनों के होंठ आपस में कुछ देर अपनी गर्मी को महसूसते लाल हो चले थे। फूको, माक्र्स और हैबर माॅस खिड़की से खड़े यह देख कर मुस्कराते रहे। अचानक इनमें से एक को न जाने क्या सूझा कि वह जाकर बिल्कुल मालविका के सामने खड़ा हो गया।
मज़े की बात शाश्वत ने बाद में बताई थी कि चुम्बन के दौर के थोड़ा लम्बा खिंच जाने पर उसने अचानक सिर झटक कर मेक-अप ठीक करना शुरु कर दिया था। शाश्वत के ’क्या हुआ’ पूछने पर छूटते ही बोली थी, ’’ मुझे शादी से पहले यह सब पसंद नहीं।’’
शाश्वत उन नाज़ुक क्षणों में भी अपने को हंसने से नहीं रोक पाया था और वह बदले में लजाती हुयी फ़िल्मी हीरोइनों की तरह उसके सीने पर इस तरह से मुक्के मारने लगी कि अगले को चोट न आए। जिसके तुरंत बाद वाले दृश्य में नायक नायिका आलिंगनबद्ध हो जाते हैं और पार्श्व में एक युगल गीत चलने लगता है।
हम भी बहुत हंसे थे। हमारे साथ कई चिंतक, दार्शनिक और क्रांतिकारी भी हंसे थे। माक्र्स तो बहुत देर तक खिलखिलाते रहे थे।

मैं, सुनीलपिंटू97 और एक नया फन
शाश्वत का समय हमारे समय से कुछ अलग सा होने लगा था। उसके वर्तमान की देह पर खरगोश जैसे कोमल रोंए उग आए थे जिन्हें वह दुनिया से बेख़बर सहलाता रहता था। हम अपने वर्तमान की पीठ पर उगे साही के कांटों से छिदने से ख़ुद को बचाने का प्रयास करते हुए इस सनातन प्रश्न से जूझते रहते कि हे ईश्वर, तूने पेट क्यो कर बनाया।
हम शाश्वत की ताक़त, क्षमता और हिम्मत को अपने चलने के लिए मशाल मानते। उसके उत्साह से उत्साहित होते और उसकी थोड़ी सी भी निराशा देखकर हमारे भीतर भी नैराश्य का गाढ़ा अंधेरा उतरने लगता। उसे हम अपना बाप छोड़कर सब कुछ मानते और वही हमारा बाप छोड़ कर सब कुछ आजकल एक छोटी सी अदद (कुछ भी चलेगा टाइप) नौकरी पाने के लिए दिल्ली के बाज़ारों की ख़ाक छान रहा था और हर शाम एक अलग सी रुंआसी सूरत बना कर लौटता था। हम अपनी जतनों पाली गई विशिष्टता के लिए सबसे ज़्यादा उसी को ज़िम्मेदार यानि दोषी मानने लगे थे। जब उसकी ये हालत है इस बाज़ार में तो हम तो ख़ैर..................।
हम मतलब मै और सुनील। सुनील मतलब सुनीलपिटू97ऐटरेडिफमेलडॉटकॉम जिसके इंटरव्यू का यह आलम है कि एक इंटरव्यू से तो वह अपनी ई मेल आई डी की वजह से ही खदेड़ दिया गया। अंग्रेज़ी बोलते समय सहायक क्रियाओं से ऐसे ही परहेज़ करता है जैसे दारू पीते समय पानी से।
मैं भी साक्षात्कारों की कई शृंखला से गुज़रने के बावजूद एक भी नौकरी का आउटपुट नहीं पा सका था। सुनील भी और शाश्वत तो पता नहीं कितने प्रयास कर चुका था। उस दिन तीनों बारी-बारी आकर कमरे में इस तरह बैठते गए, बिना एक दूसरे से कुछ बोले गोया विश्वकप के फाइनल में क्रमश आउट हो रहे भारतीय बल्लेबाज़ हों। उस दिन ऐसा लग रहा था कि हमारे और शाश्वत में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है.......कुछ हो भी तो दिल्ली की कठोर मिट्टी ने उसे पाट दिया है। पर उसने हमेशा की तरह साबित किया कि उसमें और हममें फ़र्क़ है। हम हर असफलता से निराशा और कुंठा की पूंजी जमा कर रहे थे और वह इन्हीं परिस्थितियों से ज़िंदगी जीने का एक नया बहाना चुरा लाया था। इसमें बहुत बड़ा हाथ मालविका का भी था जिससे बकौल शाश्वत वह उन दिनों जीना सीख रहा था।
उसकी योजना वाकई लाजवाब थी। सच कहा शाश्वत, दिल्ली में धन तो बहुत है बस उसे खींचने का फन चाहिए। उसके फनपर हमें कोई शंका नहीं थी। सिर्फ़ अपनी क़िस्मत पर शक था। कुछ सवाल और ढेर सारी आशाओं के सितारे चमकना लाज़िमी था।
’’ क्या गारंटी है कि यह कामयाब होगा ?’’ मैंने पूछा था या शायद सुनील ने।
’’ कोई गारंटी नहीं। इस दुनिया में मौत के अलावा किसी चीज़ की गारंटी नहीं जिसके काफी पास हम पहुंच चुके हैं। अब हम कहीं गारंटी नहीं ढूँढे़गे।’’
कुछ सवाल और उछाले गए, कुछ आशंकाएं और व्यक्त की गईं लेकिन आशंकाओं और हिचकिचाहटों के बकवास बादलों के बीच एक ठोस और नुकीला प्रश्न तीनों के ठीक बीच वाली मेज़ पर रखा हमें मुंह चिढ़ा रहा था ’’ कोई और विकल्प ? ’’ इस सवाल का जवाब पूरी तरह से नकारात्मक आने पर हम उस योजना के क्रियान्वयन पर विचार करने लगे जो पूरी तरह से झूठ पर टिकी थी और इस झूठ के रंग हमारे चेहरों पर लग जाने पर हम बरबाद भी हो सकते थे। पर यह खेल अंतिम दांव था ’’ आर या पार’’ सरीखा जिसे हमारे ख़ाली पेट (जिसमें अक्सर सिर्फ़ पानी और धुआं भरते रहने के कारण रेलगाड़ी चलती महसूस होती थी) खेलने को मजबूर थे।

फिर जो चीज़ निकल कर आई वह कुछ ऐसी थी।

’’योग गुरू श्री शाश्वताचार्य विश्व भ्रमण करने और टारंटों में अपने हालिया प्रशिक्षण शिविर के बाद अगले कुछ माह के लिए दिल्ली में हैं। योग से हर शारीरिक समस्या का निदान करने वाले आचार्य इस बार आपकी मानसिक समस्याओं को भी दूर करने का उपाय बताएंगे। प्रशिक्षण और समाधान के लिए संपर्क करें - सचिव, बी-32, तृतीय तल, पाण्डव नगर, नई दिल्ली
सीधे संपर्क के लिए समय तय करें -
दूरभाष - 9312234178, 9818833048, 9868219486


उन सभी जगहों पर ये पैम्फलेट चिपकाए और चिपकवाए गए जहां बकौल शाश्वताचार्य ’आंख के अन्धे, गांठ के पूरे’ लोग रहते थे। ग्रेटर कैलाश, कैलाश कॉलोनी, डिफेंस कॉलोनी, पंजाबी बाग, लोदी गार्डन (जिनमें लाइन मारने जाना हमारा स्वप्न हुआ करता था जो आत्मविश्वास की कमी के कारण स्वप्न ही रहा) जैसे बहुत से इलाक़ों में हमने अपनी दो बाइ दो की उम्मीदों में लेई लगा कर ऊँची-ऊँची दीवारों और ’कुत्ते से सावधान’ वाले चमकदार फाटकों (जिनमें आदमी भी रहते थे) पर चस्पां कर दिए। कुछ हॉकरों को सेटकर (जो ऐसी कॉलोनियों में अंग्रेज़ी अख़बार डालते थे) अंग्रेज़ी अख़बारों में इस पूरे मैटर का अंग्रेज़ी तर्जुमा डलवा दिया गया।
हम दोनों योग गुरू के साथ पूरे तन मन से लगे रहते (धन रहता तो लगाने से हम शर्तिया नहीं हिचकते) और मालविका पूरे तन मन व धन से। वह उन दिनों शाश्वत का सबसे बड़ा सम्बल थी।
दो दिन तक जब न कोई फोन हमारे मोबाइल पर घनघनाया और न ही किसी योग प्रेमी के चरण बी-32 में पड़े तो हमारी हिम्मत डोलने लगी। मैं और सुनील दोनों निराश होने लगे। शाश्वत ने दो साल पहले ( जब हमें लोग लौंडियाबाज़ कहते थे) एक कमललोचनी के कई अंगों को देख उसकी फिटनेस से प्रभावित होकर स्वयं भी फिट रहने के लिए उसके योग संस्थान से बाक़ायदा योग सीखा था, यही कारण था कि उसका स्वयं पर नियंत्रण उच्चकोटि का था। हमने योग नहीं सीखा था। मैंने तो कुछ भी नहीं सीखा था और सुनील जिस कन्या के हाथों की चपलता देखकर कराटे कक्षाओं में जाने लगा था, उसी से कुछ चपल हाथ खाकर वापस लौट आया था।

चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगें शाम को
तीसरा दिन था। हम पैम्फलेट को सामने रख कर उसे घूर रहे थे कि उसमें ग़लती कहां है। शाश्वत अपने मोबाइल (जिसमें सिर्फ़ दो गेम थे) पर सांप वाला कोई गेम खेल रहा था। सुनील ने बनारसी अंदाज़ में घोषणा की कि हमारी किस्मत की किताब में हर्फ़ों को लिखने के लिए गधे के एक अंग विशेष को कलम की तरह इस्तेमाल किया गया है। उपर वाले लेखक पर यह सीधा आक्षेप था। उसने तुरंत प्रतिकार किया।
मेरा फोन घनघनाया था। जी, जी हां बताइए। हां, मैं उनका सचिव ही बोल रहा हूं। कल चार बजे....? ज़रा रुकिए, मुझे देखने दीजिए। नहीं, क्षमा करें, चार नहीं साढ़े चार बजे। हां, हां बिल्कुल। शुल्क के लिए हमें कोई निर्देंश नहीं है। आचार्य को काम आपकी समस्याओं को दूर करना है, धन कमाना नहीं। अच्छा, हाँ.......ठीक है। नमस्कार।
मैंने फोन रखकर दोनों के चेहरों की तरफ देखा। शाश्वत मोबाइल हाथ में लिए मेरी तरफ भौंचक देख रहा था। उसके सांप आपस में लड़ गए थे और खेल ख़त्म हो गया था। सुनील अपनी आदत अनुसार बहुत ख़ुशी में निर्वात में मां की गाली देकर किलकारी मारना चाहता था पर मेरी तरफ से हरी झण्डी पाने के लिए चेहरे पर विशेष भाव लिए उतावला खड़ा था।
’’ कुलदीप खुराना, पेशे से बिल्डर। कल साढ़े चार बजे.........पहली अप्वाइंटमेण्ट। मेरे कुछ और बोलने से पहले दोनों ने मुझे मिलकर मुझे हवा में उछाल दिया। ’’ साले क्या एक्टिंग की है। चार बजे.......मुझे देखने दीजिए। हा हा हा.....साढ़े चार बजे.। बहुत ख़ूब। हाहाहाह हाहाह...मज़ा आ गया।’’
टटटाटै टटटाटै ट ट टाटै टाटे टाटे। ये सुनील के मोबाइल की रिंगटोन थी। सारा शोर क्षणांश में थम गया और कमरे में पिन ड्रॉप साइलेंस हो गया। जी, हां, हां। क्या........? साढ़े चार बजे ? जी नहीं, यह समय पहले से बुक है। हां पांच ठीक रहेगा। जी बिल्कुल। ठीक है, नमस्कार।
हम निमिष भर में व्यस्त हो गए थे। शाश्वत योग और ध्यान की ढेर सारी किताबें लाया था और अपने ज्ञान का पुनर्भ्यास और विस्तार कर रहा था। हम भी पढ़ कर सीख रहे थे। आख़िर आचार्य के शिष्यों को भी तो प्रवीण होना चाहिए।
शाश्वत किसी भी तरह के शुल्क निर्धारण के ख़िलाफ़ था। उसका मानना था कि शुल्क निर्धारित करने से हमारी औकात पता चलने का ख़तरा है और कुछ फ़ायदे में रहने के बावजूद हम अपनी सीमा बांध लेंगे। जो उनकी श्रद्धा होगी, वे देंगें। साले बड़े लोग हैं, इनकी श्रद्धा भी बड़ी ही होगी।
इसका फ़ायदा अगले ही दिन दिख गया।
पहले ही श्रद्धालु मरीज़ ने (जिसने बड़ी मेहनत से अपनी बीमारी खोजी थी) स्वामी श्री शाश्वताचार्य से परामर्श करने और कुछ आसन सीखने के बदले हमारी उम्मीदों से बहुत ज़्यादा रुपए अर्पित कर दिए। कुछ प्राणायाम बताने के अलावा आचार्य ने उसके सामने एक रहस्योद्घाटन भी किया कि सुबह उठकर ताज़ी हवा में टहलने से उसका मधुमेह नियंत्रण में आ सकता है। वह इस रहस्योद्घाटन से कृतकृतार्थ हो गया और आचार्य के चरणों में मय हज़ार रुपए झुक गया। हालांकि झुकने से पहले वह क्षणांश को ठिठका था और हमने इसे रीड कर लिया था।
उस पचास वर्षीय मरीज़ को प्रस्थान करने से पहले हम ऐसी जगह ले आए जहां से आचार्य न दिखें। आचार्य के विषय हमने ऐसी ऐसी छोड़ी कि उसे आश्चर्य में भरकर हमारा वांछित प्रश्न पूछना ही पड़ा।
’’ आचार्य जी की उम्र कितनी है ? ’’
’’ श्री आचार्य जी की अवस्था इस समय सैंतालिस वर्ष है पर योगबल से उन्होंने इसे सताइस पर रोक रखा है। अब योगबल से उनकी अवस्था तीन वर्ष में एक वर्ष इतनी बढ़ती है।
योगप्रवीर श्री सुनील के मुख पर इस झूठ का आभामंडल साफ देखा जा सकता था कि कैसे उन्होंने अठाइस साल के लौण्डे को खड़े-खड़े सैंतालिस का बना डाला। उनकी शिष्या सुश्री मालविका बहन भी कोई अड़तीस चालीस के आस पास थीं और उनके चेहरे पर तेइस साल की कन्या की कमनीयता थी। वाह योग........................आह योग।

दुकान का विस्तार और एक मद्धम सी उम्मीद
तो हमारा धंधा चल निकला। और वह भी काफी कम समय में। हमने इस अविश्वसनीय काम को संभव बनाने के लिए सिर्फ़ एक सावधानी बरती थी। वह था मीडिया को अपने साथ मिला लेना। शाश्वत ने समझ लिया था कि इस युग की सबसे बड़ी और सबसे भ्रष्ट शक्ति यही है जो किसी को भी उठा और गिरा सकती है। हमने अपने सारे क्रेडिट और संपर्क खंगाल डाले और मीडिया को साम दाम दंड भेद से अपने साथ कर लिया था। यही कारण था कि हम चार दिन की उपलब्धि एक दिन में पाने लगे थे। फिर भी हमारे सामने कई परेशानियां थीं। मसलन हमारे पास आगंतुकों से मिलने के लिए कोई अच्छा स्थान नहीं था। आचार्य थोड़ी दूरी पर स्थित एक सुंदर और साफ पार्क ( जिनकी संख्या दिल्ली में साफ पानी के नलों से ज़्यादा है) में सुबह- शाम अपना अड्डा जमाते और इस बीच सिगरेट की तलब होने पर ज़ार-ज़ार छटपटाते। पार्क में हरी घास पर श्वेत वस्त्र (सफेद कपड़ा नहीं) बिछा कर नेत्र (आंखें नहीं) मूंद कर बैठ जाने पर इतना दिव्य लुक आता कि साला ग्राहक हमारे जाल में यूं चुटकी बजाते फंस जाता।
किसी के पेट को कम करने के लिए आचार्य उसे उग्रासन करके दिखाते, किसी की रीढ़ के दर्द को चक्रासन का रामबाण सुझाते, किसी का पेट साफ कराने के लिए पवनमुक्तासन की राह पकड़ाते। आचार्य कुछ ही दिनों में बम पारंगत हो गए थे। बैठे-बैठे सट से शीर्षासन कर लेते और उसी अवस्था में शरीर की शुद्धता और पवित्रता जैसे पूरब विषय पर बोलते तो अगले ही पल शरीर की नश्वरता और आत्मा की सनातनता जैसे पश्चिम विषय पर अपना ज्ञान बघारने से ख़ुद को नहीं रोक पाते। जैसा कि हमेशा से होता आया है, जनता को जितनी ज़्यादा वाहियात चीज़ हो उतनी ज़्यादा पसंद आती है, आचार्य के प्रवचनों की मांग योग और आसनों की अपेक्षा बहुत ज़्यादा बढ़ने लगी।
शाश्वत के ’बोलने’ के हम शुरू से कायल थे। उसकी आवाज़ साफ़ थी, उच्चारण शुद्ध था और उसके पास दिमाग़ था। उसने हमसे राय बात की, कई कोणों से विचार किया गया और दुकान का विस्तार करने का निर्णय लिया गया।
उसने पूरे दस दिनों तक गहन होमवर्क किया। ख़ूब देखा, ख़ूब सुना और ख़ूब पढ़ा। सुबह दो तीन घण्टे चैनल बदल बदल कर दाढ़ी वाले और क्लीन शेव्ड बाबाओं, बापुओं, स्वामियों और आचार्यों को ध्यान से सुनता, गुनता और कुछ नोट भी करता जाता। दिन में कई ऐसे गुरुओं के होम प्रोडक्शन की किताबें व पत्रिकाएं पढ़ता और सोचने लगता, कभी हंस पड़ता और हमें भी कुछ सुनाता रहता।
एक बापू ब्रह्मचर्य विशेषज्ञ थे। भारत की जनसंख्या को नियंत्रित करने का उनका एक ही और सबसे असरदार अस्त्र ( जिसे वे ब्रह्मास्त्र कहते थे) था ब्रह्मचर्य। उनके अनुसार औलादें औलाद नहीं ब्रह्मचर्य खण्डन का परिणाम हैं। उनके ब्रह्मचर्य विषयक प्रवचन इतने असरदार होते कि परिवार समेत प्रवचन सुनने गया गृहस्वामी पत्नी और बच्चों को तम्बू में छोड़ अकेला ही घर लौट आता। बापू ने ब्रह्मचर्य न पालने के परिणामों पर कई डरावनी पुस्तके भी लिखी थीं। कोई इज़्ज़्तदार इंसान इनमें से एक भी पढ़ ले तो उसे एक बार भी ब्रह्मचर्य खण्डित होने पर इतनी ग्लानि हो कि वह तुरंत आत्महत्या कर ले। पालन के कई उपायों में से एक मंत्र का जाप भी था। कमाल यह पता चला कि कई पति इस मंत्र का जाप करते हैं और अपनी पत्नियों से अलग सोने लगे हैं। इस सफलता की बात को बापू कई बार अपने प्रवचनों में दिन दहाड़े बताते भी हैं।
एक बाबा जिन्हें योग सिखाने का जुनून था यह कहते हुए पाए गए कि भले ही सुबह खाने को न मिले, योग ज़रूर करना चाहिए। बिना खाए योग करने पर यदि कोई बीमारी हो जाए तो उसके इलाज के लिए उनके पास एक से एक औषधियां थीं जो उनकी पांच सौ करोड़ की टर्नओवर वाली कंपनी में बनाई जाती थीं।
एक आचार्य थे जो हिंदू धर्म के बहुत बड़े झंडाबरदार थे। प्रवचन में उनके दो पसंदीदा विषय थे ’मैं’ और ’श्रीराम’ ( श्रीराम और मैं नहीं )। जो भक्त इन दोनों विषयों में रुचि नहीं रखते थे उनमें वह रुचि नहीं रखते थे। अपने ईश्वर में इतनी श्रद्धा रखते थे कि उनके विषय में बातें करते वक़्त उनकी आंखों से श्रद्धा के आंसू निकल आते ( उनके साथ-साथ भक्तों के भी ) और दूसरों के ईश्वरों से इतनी घृणा करते थे कि उनकी आंखों से लुत्तियां निकलने लगतीं ( उनके साथ-साथ भक्तों के भी )। वह कक्षा में बच्चों को पढ़ाने की शैली में प्रवचन करते। वह सवाल करते, बच्चे जवाब देते।
दस दिन के अथक परिश्रम के बाद ऐलान-ए-शाश्वत कुछ यूं था।
’’ बेकार ही दस दिन इन सब पर रिसर्च की। ये लोग जो दिस दैट बोलते रहते हैं, मैं उससे लाख गुना अच्छा बोल सकता हूं। बस ये ध्यान रखना है कि आवाज़ में थोड़ी माइल्डनेस और लानी है। साथ ही शाहरुख खान की तरह थोड़ी ओवरएक्टिंग भी सीखनी है ताकि बोलते-बोलते रोना आ जाए।’’
’’ और हां, अगर बोलना हो ’ सीता की आंखों में आंसू आ गए तो बोलना पड़ेगा ’मृगनयनी सीता माता के कमल लोचनों में जल भर आया’ और मुंह पूरा खुल जाना चाहिए और आंखें आधी बंद।’’ यानी सुनील भी धंधे में पूरा ध्यान दे रहा था।
.........आखिर यह भी हुआ और ख़ूब हुआ। देखा, इस देश में जितनी अच्छी पैकिंग हो, चीज़ उतनी अच्छी बिकती है, शाश्वत ने कहा था। सचमुच, लोग चुपके से चंदा वग़ैरह भी देने लगे थे। बदले में वह अपने व्यवसायिक प्रतिद्वंदी को परास्त करने का रास्ता पूछते या किसी की पत्नी को अपने आगोश में प्राप्त करने का मंत्र यंत्र। आचार्य का काम यह नहीं था। उन्होंने ऐसे कई श्रद्धालुओं को डांटकर भगा दिया था। मगर यह काम अब सुनील ने संभाल लिया था। मोटी रक़म के साथ आए ग्राहक को वह कोई चिरकुट सा धागा अभिमंत्रित बता कर थमा देता या सुडोकू जैसा कुछ बनाकर उसे कारगर यंत्र बताकर टिका देता। यह दीगर बात है कि शाश्वत को जब भी यह पता चला तो दोनों में जमकर बहस हुई जिसमें हर बार मालविका ने सुनील का पक्ष एक स्लोगन के साथ लिया - बिज़नेस इज़ बिज़नेस।
हमारा समय फ़िल्मों की तरह चट से बदल गया था। शाश्वत का नायक की तरह (उसके पास नायिका थी) और हमारा नायक के दोस्तों की तरह। वरना कुछ समय पहले तक हम इतनी बार टूट टूट कर जुड़े थे कि हमारे जोड़ मुस्कराहट के कपड़ों के उपर से भी साफ़ दिखते थे। अब नहीं। अब हमारे जोड़ों पर समय ने धन, सम्मान और ख़ुशियों से प्लास्टर कर दिया था और हम मज़बूत बन गए थे, थोड़े भारी भी। हमने मयूर विहार में एक फ्लैट ले लिया था और राजाआंे की तरह ऐश कर रहे थे। एक बाबा के सौजन्य से गुड़गांव के एक बहुत भीतरी इलाक़े में एक झोपड़ी भी डाल दी थी जिसे मीडिया ने हमारा आश्रम बताया और लोगों के हुजूम को बड़े आराम से उधर मोड़ दिया। ’’ये मीडिया और ये बाबा, सदी की दो सबसे ताक़तवर और भ्रष्ट चीज़ें मिलेंगी तो कमाल तो होगा ही, ’’ शाश्वत अपने पांव छूने को बेताब लोगों की भीड़ को देखकर अक्सर मालविका से कहता। मालविका का फ्लैट मालवीय नगर में था पर वह ज़्यादातर हमारे घर में ही रहती। जब हम साथ होते तो आगे के प्रवचन और कार्यक्रम की रणनीति बनाते और जब हम हट जाते तो शाश्वत और मालविका अपने भविष्य की रणनीति बनाते। ज़्यादातर बातें कमरों के पर्दों के रंग, बड़े घर, और बड़ी गाड़ी पर होतीं।
उस दिन अचानक बातों का रुख पता नहीं कहां से कहां मुड़ गया।
शाश्वत की गोद में मालविका का सिर था और चारों तरफ हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम मिला हुआ था।
’’ क्या हुआ ? बहुत ख़ामोश हो। ’’ मालविका ने सिर को टेढ़ा करके उसकी तरफ नज़रें घुमाईं।
’’ कुछ नहीं। बस यूं ही..............कुछ सोच रहा हूं। ’’
’’ क्या........? ’’
’’ यही कि हम क्या कर रहे हैं। ’’
’’ क्या कर रहे हैं ? प्यार कर रहे हैं। ’’
’’ नहीं, मैं हमारे व्यवसाय के विषय में बात कर रहा हूं। ’’
’’ क्या......?’’
’’ मुझे कभी-कभी ये सब अच्छा नहीं लगता। हालांकि मैं अपने प्रवचनों में जो कहता हूं, उसका अर्थ मुझे भली-भांति पता है पर उनमें से कुछ बातें मुझे कभी-कभी बहुत सही लगने लगी हैं। ’’
’’ तो........? ’’
’’ मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे प्रवचनों में बहुत भीड़ होती है। हज़ारों लोग आते हैं, मेरी बातों को ध्यान से सुनते हैं, मेरी हां में हां मिलाते हैं पर कहीं कुछ बदलता नहीं है। ’’
’’ क्या बदले.? क्या चाहते हो तुम ? ’’
’’ तुम उठो मत, लेटी रहो। पता नहीं क्या चाहता हूं पर संतुष्ट नहीं हूं। जानती हो जब मैं जब छोटा था तो सारी बुरी चीज़ों को देखकर सोचता था कि मुझे कहीं से कोई शक्ति मिल जाए ग़ायब होने की तो सबकी परेशानियां दूर कर दूं.........। ’’
’’ ? ’’
’’ दरअसल इस कार्यक्रम को करते-करते न जाने कब मेरे अंदर एक और लालच भी जाग चुका था.........सुंदरता को कायम करने का। बदसूरती को दूर करने का। एक ख़ूबसूरत दुनिया बनाने का.......लोगों को फूलों से प्रेम सिखाने का, उन्हें तितलियों, पहाड़ों और नदियों की ख़ूबसूरती समझाने का। नफरत की बदसूरती दिखाने का.........प्रेम का.........। ’’
’’ ये आज कैसी बे-सिर पैर की बातें कर रहे हो ? ’’
’’ तुम उठ क्यों गई ? जानती हो हम ये समझ रहे हैं न कि हम जनता को मूर्ख बना रहे हैं। हम दरअसल उन्हें अच्छी बातें बता रहे हैं पर वे हमें मूर्ख बना रहे हैं। वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते न करना चाहते हैं। मैं सोचने लगा था कि मैं किसी को कुछ दे सकता हूं, सिखा सकता हूं। संतोष, आदर, प्रेम...वे कुछ लेकर नहीं जाते। दरअसल यह एक हास्यास्पद मगर क्रूर खेल है जिसमें हम मोहरे ये समझते हैं कि हम इस खेल के सूत्रधार हैं। मगर जो सूत्रधार हैं वे हम मोहरों से मनोरंजन करके, थोड़ा हंस कर, थोड़ा रोकर अपने घरों को चले जाते हैं, एक नई ताज़गी के साथ। अब मुझे सब पाखंडी बाबाओं पर ग़ुस्सा नहीं आता। वे जनता को मूर्ख बना रहे हैं पर कुछ शब्द उनके ज़रिए लिए जा सकते हैं, प्रेम, सम्मान, शान्ति.......। पर कुछ नहीं, हमसे खेलने वाले बहुत क्रूर हैं। उस दिन जो झगड़ा हो गया मेरे प्रवचन के दौरान वाहन स्टैण्ड में.......।’’
’’ ओह तो तुम उस छोटी सी वजह से परेशान हो.? ’’
’’ परेशान नहीं...। बात कुछ और है। पर हां, परेशान तो हूँ ही। दरअसल उस दिन मैं रिश्तों और जीवन में धैर्य पर बोल रहा था। तुमने देखा न, मैं ख़ूब बोला और कई कहानियां और प्रेरक प्रसंग सुनाए। जब मैंने पूछा कि कितने लोग अब से जीवन में धैर्य का पालन करेंगे और क्रोध पर नियंत्रण करेंगे, तो जानती हो क्या हुआ ? ’’
’’ ? ’’
’’ कोई ऐसा नहीं था जिसने हाथ न उठाया हो। मुझे न जाने क्यो थोड़ी सी ख़ुशी भी हुई थी उस समय जबकि मैं शायद हमेशा की तरह अभिनय ही कर रहा था। मुझे लगा.......। ’’
’’ छोड़ो न, हम भी क्या बातें लेकर बैठ गए। ये बताओ गाड़ी के बारे में क्या सोचा ? तीनों ए.सी. लेंगे। यह क्या कि तुम्हारी गाड़ी ए. सी और बाकी लोग साधारण गाड़ी में। तीनों कारें ए.सी. होंगी। जनता में भी सही और भव्य छवि बनेगी। सुनील होण्डा सिटी के लिए ही कह रहा था। तुम क्या कहते हो ?
’’ ठीक है। जैसा तुम लोगों को ठीक लगे, करो। ’’ यह कहकर वह बालकॅनी में आ गया और सिगरेट पीते हुए एकटक सितारों की ओर देखने लगा। ’’
मालविका भी क़ायदे से उसके पास आती और उसकी परेशानी की असली वजह खोजने में उसकी मदद करती पर उस समय वह इतनी ख़ुश थी कि फोन मिलाकर सुनील से बातें करने लगी।
कमरे का प्रकाश धीरे-धीरे बहुत मद्धम होता जा रहा था।

उन बेरौनक दिनों की नींव
अब तक हमारी अध्यात्म की राष्ट्रीय कंपनी बहुत अच्छी चल रही थी। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमसे हाथ मिलाना चाह रही थीं। यह वह दौर था जब हम उन सभी चेहरों के संपर्क में आए जिन्हें देख सुन कर कहीं इस विचार का जन्म हुआ होगा।
एक बाबा जिन पर अपने आश्रम के लिए सरकारी ज़मीन हड़पने का केस चल रहा था (पर इससे उस ज़मीन पर का एक पौधा तक नहीं उखड़ पाया था), हमसे अपनी कंपनी का टाइ-अप करके युवाओं के हित में कई नई नई आध्यात्मिक स्कीमें चलाना चाहते थे। उनकी कंपनी का टर्न ओवर देश की अग्रणी कंपनियों में था। एक पूर्व प्रधानमंत्री तक उनकी कंपनी का नियमित ग्राहक था जिसे वह अपनी कंपनी का ब्रांड अंबेसडर बना कर पेश किया करते थे और देश-विदेश के भक्तों की आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार कराते थे व लंकाकाण्ड बांचते समय ज़रूर रोते थे।
एक बाबा जिनका कॅरियर ग्राफ बिल्कुल शाश्वत की तरह था यानी वह प्रवचन इंडस्ट्री में वाया योग अध्यापन आए थे, उन दिनों दो ही काम कर रहे थे। कैंसर और एड्स का इलाज़ योग और आयुर्वेद ( मतलब उनकी कंपनी में बनी आयुर्वेदिक दवाइयां ) से करने का दावा और शाश्वत को अपने खेमे में खींचने की कोशिश।
शाश्वत ने सबसे मुलाक़ातें की, किसी को निराश नहीं किया। सबको अपना बड़ा भाई माना ( पिता मानने पर एक बाबा जो प्रवचन में साठ साल वालों को भी बेटा कहते थे, भड़क गए थे और अपनी पालतू नवयौवनाओं के सामने अपने दीर्घ स्तंभन की दो- चार डरावनी कहानियां सुना डाली थीं )। सबको आश्वस्त किया कि वह आध्यात्म इंडस्ट्री के नियमों के अनुसार ही चलेगा।
मगर इसमें एक अड़चन थी।
यह क़दम तो उसने बहुत पहले ही सोच कर इस पर पर्याप्त शोध किया था। मार्केट में प्रचलित सभी बाबाओं से अलग और लोकप्रिय छवि बनाने के लिए, कुछ अलग। सबसे बीमार और सबसे ग़रीब बस्ती में उतर कर ज़मीनी कार्य। मीडिया जिसे ख़रीदने के लिए सिर्फ़ जेब में हाथ डालने की ज़रुरत भर थी, बहुत पहले ही सेट कर ली गई थी।
हालांकि उसने इसके क्रियान्वयन में थोड़ी आनाकानी दिखाई। उसकी तबियत थोड़ी ख़राब थी शायद। पर चूंकि कार्यक्रम तय था, हमने समझा बुझा कर उसे फील्ड में उतारा।
वह उनकी बस्ती में उतरा तो बस्ती के लोग ऐसे उतरा गए जैसे उनकी बस्ती में स्वयं नारायन आएं हों। शाश्वत बस्ती को और वहां के लोगों को देख कर हैरान हुआ। हैरान और क्राधित तो मैं भी हुआ था। हमें यही बस्ती चुननी थी ? चारों तरफ रोगों और गंदगी का सामा्रज्य था। ऐसी- ऐसी बीमारियां फैली थीं कि कमज़ोर लोग नाम सुनकर ही छुआछूत का शिकार हो जाएं। सुनील मज़े में बाकी काम सम्भाल रहा है और मैं फालतू में इसके साथ फील्ड में उतर आया।
उस बस्ती में नंग-धड़ंग बच्चे गलियों में अपने ग़रीब खेल खेलते दिखाई देते। साइकिल के बेकार हो चुके टायरों को धकेलते हुए वे उसके पीछे दौड़ते। कुछ एक दूसरे को कपड़े से बनी गेंद से मारने का खेल खेलते हुए आपस में मां-बहन की गालियां देते हुए दौड़ते। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचना का प्रमाण अपने बदन और वदन पर लिए लोगबाग अपनी झुग्गियों के बाहर बैठ कर गांजा, बीड़ी और तम्बाकू का सेवन करते और हर बार नये कारणों से भीतर काम कर रही स्त्रीलिंगों को गालियां देते। गालियां देते वक़्त बस्ती वाले पुत्री और पत्नी में भेद नहीं रखते थे। पिता और पुत्र इन्हें गालियां देते समय अपने झुके कंधे मिला लेते और इससे थक कर आपस में एक दूसरे को गलीच गालियां देते और छोटे-छोटे मुद्दों पर महाभारत जैसा घमासान करते।
इस समय बस्ती महामारी की चपेट में थी। सभी निवासी शरीर और सूरत से ही बरसों के रोगी नज़र आते। किसी का शरीर सिर्फ़ हड्डियों का ढांचा नज़र आता तो किसी के शरीर में सिर्फ़ पेट ही नज़र आता। सारा दृश्य किसी डरावने स्वप्न जैसा लगता। हर क़दम पर पिछले से बढ़ कर हौलनाक व वीभत्स दृश्य दिखाई देते। ऐसा लगता अब यह स्वप्न इस अतिरंजक दृश्य से टूट जाएगा पर अगले ही क्षण उससे भी दहलाऊ दृश्य उपस्थित हो जाता। उल्टियों से भनभना रही बस्ती में मीडिया को कोई बहुत ज़्यादा उत्साहजनक बात नज़र नहीं आई। उन्होंने थोड़ी देर शाश्वत को कवर किया, थोड़ी लाइव की और नाक बंद कर, जान बचा कर चले गए।
अब हमें भी चल देना चाहिए था। मैंने चलने का प्रस्ताव रखा पर शाश्वत को न जाने क्या हो गया था। लोगों ने उसके पांव छुए और सिर्फ़ एक बार अपने घरों में घुसने और बीमारों के सिर पर हाथ फेरने की विनती की। उनका विश्वास था कि उसके हाथ लगाने से ये लोग, ये लोग जो कई बार पहली नज़र में भ्रम से एक लाश जैसे दिखते थे, ठीक हो सकते हैं। वह एक-एक करके सबके घरों में जाने लगा। लोग उसके स्वागत में डायरियाग्रस्त मरीज़ों की उल्टियों पर फटाफट मिट्टी डाल रहे थे। कुछ ज़िद्दी कुत्ते उस मिट्टी को पैर से हटाकर उल्टियों को जल्दी से जल्दी साफ कर रहे थे। मैंने उसे कई बार टोका। मारे बदबू के मै बेहोश हुआ जा रहा था। वह सबके पास जा-जाकर बैठ रहा था।
’’ आप हमारी बस्ती में थोड़ी देर रुक जाएं तो सभी बीमारियां भाग जाएं। ’’
’’ यह मेरा दो साल का बेटा है। सुबह से आठ उल्टियां कर चुका है। देखिए इसका शरीर कैसे ऐंठता जा रहा है। इसके माथे पर हाथ फेर दीजिए आचार्य जी। ’’
’’ मेरी पत्नी और बेटी दोनों उल्टी और दस्त से खाट से जा लगी हैं। मैंने दवाइयां खिलाईं और पानी भी पिला रहा हूं पर बीमारी बढ़ती जा रही है गुरूदेव। दया करें। ’’
’’ मेरे पिताजी को न जाने क्या हो गया है प्रभु। बहुत हिलाने पर भी कुछ बोल नहीं रहे हैं। आप एक बार देख लीजिए महाराज। ’’
मैं जितनी जल्दी हो सके इस नर्क से दूर भाग जाना चाह रहा था। मुझे लगा मैं थोड़ी देर भी और रुका तो मैं भी उल्टी करने लगूंगा।
’’ मैं गाड़ी में बैठा हूं आचार्य, आप जल्दी आएं। ’’ मैं बस्ती के बाहर खड़ी होण्डा सिटी में आकर उसका इंतज़ार करने लगा। पर बाप रे..........वह शाम को आया। पांच घण्टे बाद जब मैं कार में लेटे-लेटे दो नींदें ले चुका था। वह बिल्कुल टूटा सा दिख रहा था, थका हारा, निराश और बदहाल। इसे घर चलकर तुरंत गरम पानी से नहा लेना चाहिए, मैंने सोचा।
घर पहुंच कर वह कुछ बोला नहीं और अपने कमरे में जाकर पड़ गया। उस दिन सुनील का जन्मदिन था। मालविका सुनील के लिए उसकी पसंदीदा मिठाई लाई थी। हमने मिठाई खाई, थोड़ा डांस किया और सुनील को उपहार दिए। काफी कहने के बावजूद शाश्वत कमरे से निकल तो आया पर एक भी मिठाई नही खाई। हमारी दोस्ती का यह पहला साल रहा जब हममें से किसी एक का जन्मदिन रहा और तीनों ने साथ शराब नहीं पी। उस दिन भी हम तीन पी रहे थे पर शाश्वत नहीं था। मालविका द्वारा जब जब प्रेम का वास्ता और कसम दिए जाने पर भी जब वह पीने को तैयार न हुआ और कमरे में बन्द हो गया तो मालविका का मूड ख़राब हो गया। उसने ग़ुस्से की पिनक में एकाध पैग ज़्यादा पी लिया और सुनील जब उसे सहारा देकर उसके घर ले जाने लगा तो वह उसकी बांहों में झूल गई। शायद नशे की अधिकता से वह होश खो बैठी थी।

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे
चीज़ों को जानना उनके ख़िलाफ होना है। प्रेम, वासना, मोह, आकर्षण आदि न दिखाई देने वाली चीज़ों से दुनिया चलती है और दिखाई देने वाली चीज़ों के लिए मरती मारती है। यह दुनिया न भोजन से चलती है, न धन से, न प्रेम से। ये सब भ्रम हैं। ये संचालित होती है दुखों के अकूत भंडार से। अकूत दुख हैं यहां। कई प्रकार के, कई आकार के, कई रंगों के, कई महक के............। कुछ खुले रूप में रखे हुए हैं और कुछ बन्द दरवाज़ों के पीछे रखे हुए हैं। पर तुम इतने मूर्ख हो कि उस बंद दरवाज़े को खटखटाने का मोह छोड़ नहीं पाते। तुमने देखा कि तुम्हारे पड़ोसी ने उस दरवाज़े पर दस्तक दी और उसे दुख ही मिले पर अपने भाग्य को आज़माने को तुम विवश हो। तुम फिर-फिर वही ग़लती दोहराते हो और दुखों के अकूत भण्डार में सिर से पांव तक धंसते चले जाते हो। तुमने क्या कभी उन क्षणों को अनुभव किया है जब तुम पूरी दुनिया से वीतरागी हो जाते हो ? तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता, धन, भोजन, परिवार, मनोरंजन। तुम्हें किसी चीज़ की आकांक्षा नहीं रहती, यश, संतुष्टि, आराम, संभोग, समष्टि। अगर वह क्षण तुमने जीवन में एक बार भी अनुभव किया है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे भीतर मनुष्यता का एक अंश शेष है...........अब भी। वह क्षण ही इस दुनिया का वास्तविक सत्य है। उस समय यदि तुम्हें पारस भी मिले तो तुम उसे ठोकर मार दो। वही सबसे पवित्र अर्थात सुख और दुख के मध्य की स्थिति है यदि कुछ समय रहे तो। पर तुम थोड़ी देर बाद ही फिर से सुखों के रूप में आए दुखों की ओर आकर्षित हो जाते हो। मैं तुमसे यह सब क्यों कह रहा हूं ? क्योंकि यही सत्य है। अब तक मैं तुमसे जो कुछ भी कहता आया हूं, विशेष तौर पर जीवन की सुंदरता के विषय में वह सब झूठ है, सर्वथा मिथ्या। जीवन क़तई सुंदर नहीं है। नहीं, मैं पागल नहीं हो रहा हूं। विक्षिप्तता हालांकि एक आनन्द है। दुखों के मूल भिज्ञता से जितना दूर खिसका जाएगा विक्षिप्तता उतनी ही पास आती जाएगी। विक्षिप्त मनुष्य धरती पर ईश्वर है। पर धरती के अलावा भी कहीं क्या ईश्वर है ? नहीं, नहीं है और यदि है भी तो धरती पर प्राप्त क्रूरतम प्राणी से भी क्रूर है तुम्हारा ईश्वर !
एक बस्ती है मेरी नज़र में। मेरी नज़र में एक है, तुम्हारी नज़र में भी एक होगी। यह बहुत बड़ी है। यह दुनिया के हर कोने में फैली हुई है। वहीं ईश्वर नहीं पहुंचता क्योंकि वह तुम्हारी जेबों में ओझल है, तुम्हारी तिज़ोरियों में क़ैद है और तुम्हारे शरीर पर रहता है। उस बस्ती के हर घर में एक-दो बीमार लोग हैं। हर घर में। क्या तुम बता सकते हो उनकी बीमारियां क्या हैं ? नहीं हैजा और डायरिया तुम्हें होते हैं क्योंकि ये ठीक भी हो सकते हैं। उनके रोग कभी ठीक नहीं होते। उनकी बीमारियां बड़ी रहस्यमय हैं। जब उनके परिवार का एक सदस्य कुछ ठीक सा दिखाई देने लगता है तो दूसरा बीमार पड़ जाता है और यह सिलसिला चलता रहता है।
मैं आप सभी भक्तों से, जो प्रवचन में उपस्थित हैं और जो नहीं भी हैं, अपील करता हूं कि बस्ती में चलें। तन, मन, धन जिस तरह भी सम्भव हो, उनकी सेवा करें। मैं विश्वास दिलाता हूं कि ईश्वर यदि कहीं हुआ तो वहीं मिलेगा।

बिगड़ी मनःस्थिति या पागलपन?
एक दिन तो वह मालविका को भी बस्ती में ले गया। वह बस्ती के दृश्य देखकर भागने लगी। उसका दुपट्टा नाक पर आ गया और भौंहें चढ़ गईं।
’’ मेरा साथ नहीं दोगी ?’’
’’ दूंगी, पर इस नर्क में नहीं........।’’
’’ यदि नर्क ही मेरी नियति बन जाए ?’’
’’ मुझे जाने दो शाश्वत।’’
वह हाथ छुड़ा कर भागी तो न जाने क्यों शाश्वत की नज़रें बड़ी देर तक उस रास्ते पर लगी रहीं जिससे वह गई थी और थोड़ी देर बाद अचानक वह रहस्यमय ढंग से मुस्कराने लगा था। उसकी मुस्कराहट ख़ासी डरावनी लगी थी।
शाश्वत अब अकेला था। कई प्रवचनों में लगातार भक्तों से अपील करते रहने के बावजूद एक भी भक्त उसके साथ नहीं था।
मुझे जल्दी ही महसूस हुआ कि शाश्वत का यह क़दम ग़लत ही नहीं बल्कि बेवकूफी से भरा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कुछ बाबा भी उसके इस क़दम से नाराज़ थे। कुछेक ने फोन करके कहा कि शाश्वत को ये मूर्खताएं करने से रोको वरना वह किसी भयंकर बीमारी की चपेट में आ जाएगा।
अब वह नियम से बस्ती में जाने लगा था। बल्कि कुछ समय बाद तो वह नियम से फ्लैट पर आने लगा था। मीडिया ने उसे कवर करना छोड़ दिया था और भूत-प्रेतों और फिल्मी सितारों के विवाह जैसी महत्वपूर्ण चीज़ों को कवर कर रही थी। हम असमंजस की स्थिति में थे। हर विषय पर हमसे चर्चा कर निर्णय लेने वाला शाश्वत उधर से ही एक पारदर्शी साउंडप्रूफ खोल में बंद होकर आता। हम कुछ बोलते तो उसे हमारे हांेठ हिलते दिखाई देते और वह मुस्करा देता। वह अव्वल तो कुछ बोलता नहीं और बोलता तो हमें सिर्फ़ उसके होंठ हिलते दिखाई देते या मिलतीं न समझ में आने वाली बातें।
उस रात सभी चोटी के बाबा हमारे फ्लैट पर आधे घंटे के लिए आए थे, शाश्वत को समझाने। वह रात ग्यारह बजे रोज़ रात की तरह थका हुआ आया। हम सभी कुर्सियों पर बैठे उसका इंतज़ार कर रहे थे। वह आया और एक कुर्सी पर ढेर हो गया गोया भरभरा कर झर गया हो। बाबाओं ने उसे अलग-अलग चीज़ों का अलग-अलग तरीक़े वास्ता दिया। पता नहीं वे सच में शाश्वत के हितैषी थे या शाश्वत की संभावित प्रसिद्धि से डर रहे थे। वह सब चुपचाप सुनता रहा।
’’ ख़तरा यह नहीं कि ईश्वर मर चुका है। ’’ वह अचानक मुस्कराता हुआ बोला।
’’ बल्कि ख़तरा इससे है आध्यात्मिक बनियों कि नीत्शे भी मर चुका है। मर गया है नीत्शे भी।’’ वह उनका मज़ाक उड़ाता हंसने लगा।
’’ मुझे आपके उस राम पर ज़रा भी श्रद्धा नहीं जो एक तरफ तो एकपत्नीक होने के कारण पुरुषोत्तम कहा जाता है तो दूसरी तरफ़ एक महिला के प्रणय निवेदन के जवाब में उसका परिहास करता है और उसके नाक कान तक काट लेता है।’’
बाबा व्हिस्की का घूंट भरते हुए रुक गए। उनकी आंखों से लुत्तियां निकलने लगीं और वह पैग ख़त्म कर चलते बने।
’’ आपका योग और इसके प्रयोग से देश को निरोग बनाने का संकल्प दोनों झूठे हैं। क्यों नहीं चलते आपके प्रशिक्षण शिविर पिछड़े गांवों में ? क्यों रहते हैं महीने में बीस दिन विदेशों में ?’’
शाकाहारी योगगुरु नमकीन खाते खाते रुक गए, धीरे से कुर्सी से उतर कर सुनील के पास ठिठके और बाहर निकल गए। उनका एक संवाद बड़े डरावने तरीक़े से कमरे में देर तक गूंजता रहा था, ’’ अफ़सोस, तुम्हें पता ही नहीं कि तुम किन लोगों की अवहेलना कर रहे हो और तुम्हारे साथ क्या-क्या हो सकता है ?’’
’’ और आप ? ब्रह्मचर्य की क्या अवधारणा है आपकी ? आप क्यों अपने मनु महाराज की बात उदधृत करते रहते हैं कि व्यक्ति को मां, बहन और पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इंद्रियां बड़ी बलवान होती हैं। यह कथन क्या बताता है ? कौन बड़ा मानसिक रोगी है ? आप या आपके मनु महाराज ?’’
’’ यही सब सुनवाने के लिए बुलवाया था सुनील ?’’ बापू बोले और खड़े हो गए। फिर शाश्वत की तरफ़ देखते हुए बोले, ’’ मर जाओगे यदि भीड़ को बता दोगे कि तुम उनमें से हो। अगर जीवन के ऐश्वर्य को भेगना है तो एक ही रास्ता है, भीड़ जो कि भेड़ होती है उसे भरोसा दिलाओ कि तुम उनमें से नहीं हो। तुम विशिष्ट हो।’’
’’ निकल जाओ सब के सब। अभी, इसी समय।’’ शाश्वत चीखा और कमरा ख़ाली हो गया। अब हम चार बचे थे। सुनील क्रोध में हिंसक नज़र आ रहा था। उसने मुर्गे की टांग एक बार में ही ख़ाली कर दी और अपना पैग एक सांस में ख़ाली कर गया।
’’ क्या नाटक लगा रखा है ? क्या चाहते हो आख़िर तुम ?’’ एसकी आवाज़ नशे में फंस रही थी।
’’ कुछ नहीं, सिर्फ़ दुखों का शाश्वत समाधान।’’ वह बिल्कुल शान्त नज़र आ रहा था।
’’ क्या दुख दुख चिल्ला रहे हो ? कहां है दुख ?’’ सुनील ने बात पर ज़ोर देने के लिए नशे की झोंक में मेज़ पर रखा पापड़, नमकीन और चिकन ज़मीन पर गिरा दिया। ’’ कहां है दुख ? कहां है, दिखाओ मुझे।’’ उसकी तेज़ आवाज़ पूरे अपार्टमेण्ट में गूंज गई। उसका चेहरा लाल होकर तमतमा रहा था और वह चीखता हुआ हिस्टीरिया का मरीज़ लग रहा था। मैं और मालविका स्तब्ध थे।
शाश्वत शान्त भाव से सोफ़े पर बैठ गया और सुनील की ओर ममता भरी नज़रों से देखता हुआ बोला, ’’ मुझे तुम्हारे काॅलर के नीचे खुले बटन से झांकता दुख दिखाई दे रहा है। अभी वह काले बाल की शक्ल में है जो कुछ समय बाद सफेद होने लगेगा। वह हालांकि असली दुख नहीं है पर तुम्हारे लिए वही दुख है..........एक आसान और सहज दुख।’’
’’ तुम ऐसी बातें इसीलिए कर रहे हो ना कि तुम दिखाना चाह रहे हो कि तुम कितने महान और ज्ञानी हो और हम कितने निकृष्ट पापी ? तुम्हारा मक़सद ये है न कि हम तुम्हारी इज़्ज़त करने लगें और सिर्फ़ तुम्हारा प्रभुत्व मानें ? ऐसा नहीं होगा, सुना तुमने ? ऐसा नहीं होगा......कभी नहीं। धन्धे में हम सबका बराबर हिस्सा है........हम सबका।’’
वह गिरता, इससे पहले ही मैंने और मालविका ने उसे थाम कर सोफ़े पर लिटा दिया। वह उत्तेजना से हांफ रहा था और उसकी सांसें तेज़ चल रही थीं। शाश्वत ने हम सब पर एक नज़र डाली और कमरे में चला गया।

एक ही दिन में कितनी उम्र बढ़ गयी मेरी
अभी तो दिन बीता भी नहीं!


रोज़ कितने आराम से
चलता चला जाता था दूर तक टहलता
आज क्या हुआ कि घने कुहासे में मेरे पांव
एक बूढ़ी औरत की लाश में फंस गये
आज मैंने एक बाप को
मरा हुआ बच्चा बिना कफन के गंगा में फेंकते देखा
देखा दो लोग एक बांस की फट्टी में बांधे
टांगे चले जा रहे हैं एक कुचला हुआ शव
दिन में कई-कई बार लाश ढोने वाली गाड़ियां देखीं -अरुण कमल
तुम ज़रूर जानना चाहती हो क्या हुआ है। मैं तो ख़ुद नहीं जानता, तुम्हें कैसे बताऊं ? हां यह ज़रूर जानता हूं कि वे एक हफ़्ते मेरे लिए किसी दुखद स्वप्न जैसे थे। एक ऐसा दुखःद स्वप्न जो टूटने से पहले मुझे पूरी तरह बरबाद कर गया।
........जिस दिन मैं पहली बार बस्ती में घुसा था उस दिन मेरे साथ एक हौलनाक हादसा पेश आया था जो मेरे साथ नहीं हुआ था। एक झोपड़ी के सामने एक बूढ़ा अपनी एड़ियां रगड़ रहा था। उसकी चंद सांसें ही उसके पास बची थीं। उसकी पत्नी और छोटे बच्चे उससे लिपट कर रो रहे थे और मुझसे उसकी जान बचाने की गुहार कर रहे थे। मैं उनकी जान कैसे बचा सकता था? इसी बीच बूढ़े का जवान बेटा उसके पास आया और उसकी जेब से पैसे निकालने लगा। घर वाले उसे रोकने लपके पर तब तक वह अपने बाप की जेब से पैसे निकाल चुका था। कितने......? कुछ सिक्के जो शायद उसकी जेब में छूटे रह गए थे। सबको लड़के पर बहुत ग़ुस्सा आया पर मुझे लड़के पर बहुत प्रेम और दया आई। वह बाप की हालत देखकर रोने लगा और कच्ची शराब की दुकान पर चला गया। मैं हिल गया मालविका........पूरी तरह हिल गया। एक मां थी जो अपने बच्चे को सिखा रही थी कि वह जाए और सामने वाली बस्ती की दुकान से कुछ रोटियां चुरा लाए ताकि उसके छोटे भाई-बहन खा सकें। वह चुराने में कामयाब हो गया पर अकेले ही सारी रोटियां खा गया और मां की मार ख़ुशी-ख़ुशी खा रहा था। एक लड़की ने आत्महत्या करने की कोशिश की और उसके घर वाले उसे कहीं इलाज के लिए ले जाने की बजाय उसे गालियां दे रहे थे। नहीं तुम वजह मत पूछो। मैं ख़ुद नहीं जानता। क्या कुछ चीज़ें बिना वजह के भी सही या ग़लत नहीं होतीं? ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं जो बिना वजह के भी सही या गलत थीं। क्या सही था क्या ग़लत, मैं इस पर नहीं सोच रहा था.............फिर किस पर सोच रहा था ? सारी गड़बड़ी तब शुरू हुयी जब मैंने यूं ही......सिर्फ़ सोचने के लिए उन लोगों में अपने परिवार के चेहरे फिट करके देखा। मेरी प्यारी मां जो एक दिन के लिए भी घर जाने पर बिना खीर खाए जाने नहीं देती। मेरे पिता जो मुझे अब भी अपनी सेहत का ख्याल न रखने के लिए डांटते हैं। मेरे बड़े भाई जो मेरे लिए अपने हिस्से की मिठाइयां छोड़ दिया करते थे। फिर पता नहीं क्या हुआ...........अचानक। मैं पता नहीं कहां जा रहा हूं मालविका।
जानती हो उस बस्ती में एक प्यारा सा बालक मुझे मिला जिसकी आंखों में एक अजीब सी चमक है जो ख़ुशी और कष्ट के बीच की रोशनी है। उसका नाम सिद्धार्थ है। वह कई तरह के कष्टों से घिरा है। वह सिर से पांव तक नितान्त दुख है। वह बस्ती के उन दो-चार बच्चों से भी काफ़ी परिपक्व है जो स्कूल नाम की एक टूटी-फूटी चीज़ में पढ़ाई नाम का झूठा काम कर के आते हैं। वह सभी बच्चों से अलग है। वह मुझसे अक्सर पूछता है, ’’ क्या ईश्वर सचमुच है ? ’’ मैं कुछ देर सोचने के बाद कहता हूं, ’’ हां, है।’’ तो वह फिर पूछता है, ’’ यदि है तो मेरी बीमारियां और कष्ट क्यों नहीं दूर करता? मुझे बहुत दर्द होता है, मेरे दर्द क्यों नहीं कम करता वह.......?’’ जानती हो मै उसे प्रतिदिन कहता हूं कि ईश्वर जल्दी ही उस ठीक कर देगा और अपने शब्दों के उदास खोखलेपन को महसूसते मेरी आंखें भर आती हैं। वह बच्चा एक अच्छा चित्रकार भी है। सुंदर-सुंदर चित्र बनाया करता है पर स्वयं वह अच्छे रंगों के प्रयोग से बना एक बिगड़ा हुआ चित्र है। पर वही सत्य है।
मैंने ऐसी-ऐसी कहानियाँ देखीं कि सारी तो तुम्हें बता भी नहीं सकता। क्या....? मैं तब के बाद से कुछ ज़्यादा दुखी होने लगा हूँ? नहीं तब के बाद से मैं एक अजीब बीमारी से त्रस्त हो गया हूँ। मैं दुखी ही नहीं हो पा रहा हूं। मैं डरता हूँ कहीं मैं असामान्य तो नहीं हो रहा हूँ। मुझे कितना भी दुखद दृश्य देखकर दुख का अनुभव नहीं हो पा रहा इन दिनों। पता नहीं मेरे भीतर ये बीज कहीं बहुत पहले से दबे थे या फिर मैं इधर बहुत कमज़ोर हो गया हूं। मुझे माफ़ करना, तुम्हारे साथ रहने और तुम्हारे प्रेम में मुझे कुछ भी अनुभव नहीं हो पा रहा है। शायद एक कोटा होता होगा अनुभवों का जो धीरे-धीरे प्रयोग करने पर ख़त्म होता जाता हो। मुझे जो अनुभव हो रहे हैं वह शायद मैं बता नहीं पा रहा हूं या तुम समझ नहीं पा रही हो..........।

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
हम उसकी गतिविधियां देख कर स्तब्ध और कुछ-कुछ सहमे से थे। हमारा डर वह अपनी हरकतों से रोज़-ब-रोज़ बढ़ाता ही जा रहा था।
एक दिन पानी सिर से उपर जाता देख हम दोनों ने उसे टोका।
वह गंदे कपड़े पहने बस्ती से आया और सोफे़ पर बैठकर किसी से बातें करने लगा। किससे ? पता नहीं। उसके पास कोई नहीं था। हम तो जैसे दहल गए।
’’ क्या है यह ? क्या कर रहे हो तुम ?’’
’’ खेल रहा हूँ इस बच्चे के साथ।’’
’’ कौन बच्चा? क्या बकवास कर रहे हो तुम? हम बहुत भयभीत हो उठे थे अचानक।
’’ यही बच्चा। सिद्धार्थ नाम है इसका। यह बहुत दुख में है सुनील।’’
मैं आगे बढ़ा और उसे झकझोर दिया।
’’ कहां है बच्चा ? तुम पागल हो रहे हो शाश्वत।’’
बदले में उसने ऐसी हरकत की कि हमारा कलेजा डर के मारे उछल कर हलक में आ गया। ज़मीन पर झुकते हुए फ़र्श को माथे से लगाते हुए बोला, ’’ यह बच्चा मेरा गुरू है सुनील। इसने मुझे जीवन का अर्थ समझाया है और कमाल देखो न.....जब अर्थ समझ में आया तो पाया कि कोई अर्थ ही नहीं है इसका।’’
हम सन्नाटे में थे। हममें से सबसे मज़बूत दिमाग़ का मालिक अपना दिमागी संतुलन खो चुका था। हम मालविका के फ्लैट के लिए भागे। शायद वह इस जाते हुए को वापस ला सके। निकलते हुए हमें उसकी कमज़ोर आवाज़ सुनायी दी- ’’ मैं पागल नहीं हो रहा, काश हो पाता। बल्कि चाहो तो मुझे मानसिक दिवालिया घोषित कर सकते हो।’’
मालविका उससे नज़रे मिलाते हुए न जाने कौन से अपराधबोध से ग्रस्त थी या शायद उसके पागलपन से डर रही हो। वह उसके गले नहीं लगी। दोनों एक ही सोफ़े पर बैठे रहे। मालविका ने थोड़ी देर बाद उसकी हथेली ऐसे थामी जैसे कोई इलज़ाम लेने को विवश हो।
’’अगर मुझे कोई बीमारी हो जाए तो भी तुम मुझे इतना ही प्यार करोगी?’’ उसने अचानक बिना भूमिका बनाए पूछा।
’’ हँ....हाँ।’’
’’ अगर मुझे लकवा मार जाए तो........?’’
’’ हां शाश्वत, मगर तुम ये क्यों........?’’ उसकी आवाज़ के दोनों सिरों पर भय लिपटा था।
’’ और अगर मुझे कोढ़ हो जाए तो...?’’ उसका लहज़ा पहले से भी ठोस था।
मालविका रोती हुई अंदर भाग गई। सुनील उसे चुप कराने अंदर दौड़ा और शाश्वत पागलों की तरह हंसने लगा। उस रात सुनील और मालविका दोनों एक मत से सहमत हुए कि शाश्वत का पागलपन अचानक ख़तरनाक और हिंसक मोड़ ले चुका है। उसी रात मुझे लगा कि जैसे वह पागल नहीं हुआ है बल्कि किसी मानसिक सदमे से उसका संतुलन थोड़ा सा बिगड़ गया है जो थोड़े से इलाज़ के बाद ठीक हो सकता है।
डसने तीन बड़े डॉक्टर अधिकृत कर लिए थे जो दिन भर अपने लाव लश्कर के साथ बस्ती में डटे रहते। बस्ती का आकार बढ़ता जा रहा था, रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही थी, शाश्वत की मूर्खताएं बढ़ती जा रही थीं और हमारे पैसे घटते जा रहे थे।
हम मेहनत और बुद्धि से कमाए पैसों को इस तरह बरबाद नही होते देख सकते थे। हमने शाश्वत को समझाने की कोशिश में ज़मीन आसमान एक कर दिया पर वह था कि हमेशा उस पारदर्शी खोल में जा घुसता। घर आता तो उसकी हरकतें हमें और आश्वस्त करतीं कि वह पागल हो गया है। जिसे वह सिद्धार्थ बताता, हमें उसकी परछाईं तक नहीं दिखती। वह एक अनजान सा शख़्स दिखने लगा था। ऐसा लगता उसने जितने चेहरे आज तक जिए हैं वे चेहरे उसके अब के चेहरे पर उग आए हैं। कभी वह संत लगने लगता है, कभी पापी, कभी निर्दोष बालक और कभी एक ऐसा अजनबी जिसे देख कर लगता है कि इसे कहीं देखा है।

इसी बीच मुझे उसके साथ बनारस जाना पड़ा।
उसके घर से ख़बर आई कि उसके पिताजी बीमार हैं और वे उसे याद कर रहे हैं। मैंने पूरी यात्रा के दौरान उसकी बीमारी को समझने की कोशिश की। आख़िर वह मेरे बचपन का दोस्त था। रास्ते भर वह अपनी बर्थ पर एक तरफ दब कर सोया था। ख़ाली जगह में उसके अनुसार सिद्धार्थ सोया था। मैंने ख़ाली जगह में हाथ फिराया, एकाध बार वहां बैठा भी पर मुझे किसी की उपस्थिति महसूस नहीं हुई।
उसके पिता की तबियत बहुत ज़्यादा नाज़ुक थी। जैसे वे शाश्वत को देखने के लिए ही अटके हों। शाश्वत के भाई उनका अच्छे डॉक्टरों से इलाज करा रहे थे। वह कुछ देर तक पिता के पास बैठा। पिता आंखों में प्रश्न लिए उसकी तरफ देख रहे थे। उसने पिता के माथे पर हाथ फेरा और एक ठंडी सांस लेकर बोला, ’’ अनदेखे का भय हमें उसका आनंद लेने से राकता है। भय से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।’’
पिता ने कुछ न समझ पाने की स्थिति में आंखें मूंद लीं। वह गंगा की तरफ निकल गया। मैं उसके पीछे पहरेदार की तरह भागा। गंगा के घाट पर बैठ कर लहरों को बड़ी ममता से देखने लगा। लहरों में पता नहीं उसे कौन सा रहस्य दिख रहा था। मैं उसकी मनस्थिति को समझने की कोशिश करता रहा और मूर्खों की तरह उलझा रहा। अचानक उठकर वह मणिकर्णिका घाट की तरफ चल पड़ा जिधर मुर्दे फूंके जाते हैं।
घाट पर हमेशा की तरह एक साथ कई चिताएं जल रही थीं। वह एक तरफ बैठ गया और चिताओं को देखने लगा। मैं भी सहमा सा उसके बगल में बैठ गया।
’’जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’’ सहसा उसने मेरी ओर मुँह करके पूछा। उसकी मुद्रा इतनी सामान्य थी जैसे हम येल चिको रेस्तरां में बैठें हों और वह पूछ रहा हो कि मैं चाय लेना पसंद करूंगा या कॉफी। जलतें मांस की गंध से मेरे सिर में खलबली मची थी। मैंने इतनी देर तक कभी श्मशान का सामना कभी नहीं किया था। शाश्वत तो इधर बस्ती के कई लोगों को ख़ुद ही फूंकने गया था। श्मशान के पास देर तक बैठने पर जुगुप्सा के अलावा यह भी होता है कि श्मशान ढेर सारे सवाल पूछने लगता है। मैं चुप रहा।
’’ ? ’’
’’ लोग श्मशान से लौट कर भी जीने की इच्छा शेष रखते हैं।’’
उसके इस कथन पर मैं प्रतिवाद करता कि ’मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जा सकता’ या ’ये तो प्रकृति का नियम है’ या ऐसा ही कुछ, पर मैं चुप रहा। इधर मैं मुंह खोलता, उधर उल्टी हो जाती। ख़ुद को जज़्ब किए बैठा रहा।
’’ बनारस का आदमी कहीं भी चैन नहीं पा सकता उसे वापस लौट कर बनारस ही आना होता है चैन पाने के लिए।’’ कहता हुआ अचानक वह पैंट झाड़कर यूं खड़ा हो गया गोया फ़िल्म देख कर उठा हो। मैं खीज कर पूछता कि ’इसमें क्या तर्क है’ पर चुप रहा।
उसी शाम डॉक्टरों के अथक परिश्रम के बावजूद उसके पिता की मौत हो गई। वह घर पहुंचा तो सामने बहुत भीड़ थी जिसने उसके लिए सादर रास्ता छोड़ दिया। उसकी मां रो-पीट रही थी। वह सब कुछ एक नज़र देख कर अंदर अपने कमरे में घुस गया।

पिता की चिता जलते वक़्त वह किनारे खड़ा था। पूरा परिवार रो सुबक रहा था और वह निश्चल खड़ा चिता को जलता देख रहा था। मैंने उसकी ओर ध्यान से देखा। उसके चेहरे पर ज़रा भी ग़मी या नमी नहीं थी। मेरी आंखें गीली थीं। अपनी ओर घूरता पाकर उसने मुझसे धीरे से कहा, ’’ राओ मत। यह वही चिता है जो हमने सुबह जलती देखी थी। उस समय तो नहीं रोये, अब क्यों रो रहे हो?’’
मैं निश्चित हो गया कि वह पागल हो गया है या पागल होने के क्रम में है। ढेरों आलोचनाएं झेलते मैं उसे अगले ही दिन दिल्ली ले आया। आकर पता चला कि सुनील और मालविका ने मयूर विहार में ही एक कंबाइंड फ्लैट ख़रीदा है। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। शाश्वत से बिना पूछे? माना उसका मानसिक स्वास्थ्य इन दिनों कुछ ख़राब है पर पैसों पर पहला जायज़ हक तो उसी का था। उससे पूछना नहीं था तो कम से कम उसे बताना तो चाहिए था।
मैंने रात को यह बात उसे घुमा फिरा कर बताई तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। थोड़ी देर सोचता रहा फिर बोला, ’’एक जगह है जहां होने का अर्थ न होना है और न होकर होना ही पूर्ण होना है। सारा झगड़ा होने का है। होना ही बंधन है और शून्य मुक्ति। ’’
मैं असहाय सा वहां से उठ गया।
उसने फिर बस्ती में जाना शुरू कर दिया और चुप-चुप सा रहने लगा। कई बार पूछने पर जवाब देता, गुमसुम रहता और अचानक खिलखिलाकर हंसने लगता। वह सामान्य नहीं रह गया था।
सुनील मालविका के साथ अगले महीने होने वाले बहुप्रचारित अखिल भारतीय प्रवचन कम सम्मेलन में व्यस्त था और मैं शाश्वत को संभालने में।
वह अजीब सी बातें करता। न जाने किस किस के बारे में बोलता। एक दिन मुझे पास बुलाया।
’’जानते हो कल रात क्या हुआ?’’
’’ क्या...?’’ मैंने अन्यमनस्कता से पूछा।
’’ कल रात फिर मैं बेचैन था। नींद नहीं आ रही थी। दुख मेरा गला घोंटने की कोशिश कर रहे थे। फिर मैं उठा, रात के अंधेरे में ख़ुद को चादर की तरह तह करके सिरहाने रख दिया और अकेला ख़ुद को लिए बिना ही चल पड़ा। थोड़ी दूर चला तो पाया कि मैं बिस्तर से उठकर अपने पीछे आ रहा हूं। एक निराश गीत मेरे चलने से हवा में पैदा हो रहा था। जब मैं शहर के बीचोंबीच पहुंचा तो निराशा भरा गीत सुनकर शहर की नींद एक बार खुली और मुझे देख कर एक ज़ोर की जम्हाई लेकर फिर सो गया। अगर मेरा शहर होता तो मुझसे ऐसा उपेक्षित व्यवहार न करता। मुझे अपनी गोद में लेकर समय के पंखे से तब तक हवा करता जब तक मुझे नींद न आ जाती। वहीं मेरे कुछ पुराने उतारे हुए दिन पड़े हुए थे। मैं बहुत ख़ुश हुआ कि शायद अब मैं सुख को ढूंढ सकूंगा। मैंने उन्हें पहनने की कोशिश की पर अफ़सोस, वे अब छोटे हो चुके थे। ............जब मैं निराश तड़पता आगे बढ़ा तो वहां एक सफेद बालों वाला बूढ़ा खड़ा दिखा। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपनी ओर खींच कर मेरे कान में बोला, ’’ तह तक नहीं जाओ बेटे। वहां से कोई जैसा जाता है, वापस नहीं आता।’’
’’तुम कल रात बाहर गए थे? जानते हो शहर का माहौल.......?’’ मुझे ग़ुस्सा आ गया था। उसकी कीमती चेनें, जो अब सिर्फ़ दो रह गई थीं, ही ख़तरा बुलाने के लिए काफी थीं।
’’बता सकते हो वह बूढ़ा कौन था?’’ उसने मेरी बात और उसके वज़न दोनों को नज़रअंदाज़ करते हुए पूछा। मेरे न बोलने पर ख़ुद ही बोल भी पड़ा।
’’वह मेरी मृत्यु थी। जानते हो मृत्यु का अर्थ मेरे लिए पलायन नहीं है बल्कि इसका मतलब है बनारस। बनारस का अर्थ मृत्यु है और मृत्यु का नाम बनारस।’’ वह शायद मुझसे कह रहा था।
मैं डर गया। तो इसकी बीमारी में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी शामिल है।
’’ तुम उस नर्क में जाना छोड़ दो।’’ मै। अंतिम प्रयास के रूप में गिड़गिड़ाया हालांकि जानता था कि यह बेअसर है।
’’ क्या करूं ? वह नर्क समूचा मेरे भीतर उतर आया है।’’ वह बोलते हुए अपार कष्ट में दिखाई दिया।
वे बड़े अजनबी से दिन थे। ख़ुशियां मेहमान हो गई थीं और उलझनें किराएदार। मुझे शाश्वत पर कभी सुनील और मालविका की तरह ग़ुस्सा आता और कभी लगता कि वह सही है। वह अपने पैसे अगर किसी की सेवा में ख़र्च कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। मैं उसकी मनस्थिति को समझने की कोशिश करता तो और उलझ जाता। आख़िर उसकी कुछ हरकतें पागलों जैसी क्यों हैं?
हिम्मत करके उसे सब साफ़ बता देना ही ठीक था।
’’बहुत कुछ अजीब तरीक़े बदल चुका है। मैं इतने बदलावों को समझ नहीं पा रहा हूं। सुनील और मालविका ने पास ही एक कंबाइंड फ्लैट लिया है और दोनों उसी में रहने वाले हैं................शादी के बाद।’’
’’ प्रेम बांधता नहीं आज़ाद करता है ........... जो बांधे वह प्रेम नहीं और यह भी एक दुख ही है..........एक महंगा दुख।’’ उसने कहा और बस्ती से उठा कर लाए कुछ बच्चों को भोजन कराने लगा।

बनारस और मृत्यु..............अंतर्सम्बन्धों के सूत्र
मुझे शुरू से शक था कि उसके पागलपन में बनारस का भी बहुत बड़ा हाथ है। वह बनारस और मृत्यु की बातें ऐसे करता जैसे दूसरे शहर में रह रही प्रेमिका की बातें कर रहा हो। क्या हाथ है, क्या संबंध है, यह लाख सिर पटकने के बावजूद मुझे समझ में नहीं आया था। समझ में तो मुझे यह भी नहीं आया था कि उसके और मालविका के बीच सुनील का समीकरण कब बन गया। वह कब और कैसे मालविका से दूर हो गया या मालविका कब और कैसे सुनील के क़रीब चली गई। सारी बातें मेरे सामने साफ़ नहीं थी इसलिए आधा पक्ष जानकर मैं कोई राय नहीं क़ायम करना चाहता था। हो सकता है मालविका का कोई दोष न हो।
सुनील और मालविका को एक दिन उसने अपने पास बुलाया और ऐलान किया कि वह अगले महीने होने वाले प्रवचन के कार्यक्रम से ख़ुद को अलग कर रहा है। चूंकि वह शून्य हो चुका है और उसके पास किसी को देने के लिए कुछ नहीं बचा, लिहाज़ा वह यह प्रवचन नहीं दे सकता। दोनों बुरी तरह भड़क गए। दोनों ने उसे जाते समय काफी भला-बुरा कहा और वह मुस्कराता रहा। दोनों ने मुझे भी डांटा कि मैं ठीक से उसका इलाज क्यों नहीं करा रहा। वह कुछ देर मुस्कराने और उससे भी ज़्यादा देर हंसने के बाद अचानक नॉर्मल हो गया और एक बच्चे के फोड़े की पट्टी बदलने लगा।
बस्ती में डॉक्टरों के रात-दिन जुते रहने के बावजूद इस हफ़्ते चार मौतें हुई थीं। मौत वहां हवा की तरह बहती थी जो कभी भी किसी को भी चपेट में ले सकती थी। उस रात शाश्वत बस्ती में ही रुका था। हम तीनों शराब पी रहे थे। मालविका की गोद में सुनील का सिर था और कमरे के हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम मिला हुआ था। हम तीनों तीन पैग लगा कर नशे की पहली तह में घुस चुके थे। मालविका ने बताया कि वह और सुनील मिल कर एक आध्यात्मिक चैनल शुरू कर रहे हैं जो पहले तो लोकल होगा बाद में उसे नेशनल बनाया जाएगा। मुझे थोड़ी चुहल सूझी या शायद मैंने गुम हो चुके कुछ लम्हों को खोजने की कोशिश सी की।
’’ तुम ठहरी कॉण्वेंट एजुकेटेड और सुनील को ’ राम गोज़ टु स्कूल बाइ बस’ और ’ व्हाट इज़ द टाइम बाइ योर वाच’ से ज़्यादा अंग्रेज़ी नहीं आती। तुम सुनती हो शकीरा और एल्टन जाॅन पर सुनील को पसंद है मनोज तिवारी और शारदा सिन्हा। तुम दोनों में जमेगी कैसे ?’’
मालविका ने सुनील के माथे का चुम्बन लिया और दुलार से बोली, ’’ प्रेम सिर्फ़ आपसी समझ मांगता है।’’ सुनील उसे अपनी गोद में गिरा कर चूमने लगा। मैं उनकी ओर न जाने क्यों नहीं देख पाया और मेरी नज़रें दूसरी ओर घूम गईं। मैं चैथा पैग बनाने लगा।
’’ ज़िंदगी का सफ़र, है ये कैसा सफर।’’ मेरे मोबाइल की सिंगटोन बजी। शाश्वत का फोन था। उसने कहा कि मैं दस हज़ार रुपए लेकर फ़ौरन बस्ती पहुँचूँ।
मैं अपने कमरे में जाने लगा तो मालविका ने मुझे खींच कर सोफ़े पर बिठा दिया और ख़ुद चैथा पैग बनाने लगी।
’’ बस बहुत हो गया पागल के पीछे पागलपन दिखाना। अब सब बंद।’’ सुनील ने ऐलान किया।
’’ पीछे नहीं आगे देखना सीखो।’’ मालविका ने नसीहत दी।
मैंने थोड़ा प्रतिरोध किया। वह पागल नहीं हुआ है बस थोड़ा सा दिमागी संतुलन बिगड़ा है, ठीक हो जाएगा। वह दुखों को शायद बहुत अनुभूति से देखने लगा है।
’’ नहीं वह पागल हो चुका है और जैसा तुम बताते रहे हो वह जल्दी ही आत्महत्या भी कर लेगा।’’ मालविका यह बताते हुए बहुत दुखी लग रही थी।
शराब मेरे भीतर जाकर न जाने कैसा असर दिखा रही थी। मेरा सिर और शरीर दोनों बुरी तरह हिल रहे थे। मैं कुछ कहना नहीं चाहता था पर अचानक मेरे शरीर ने जुम्बिश ली और मुंह से आवाज़ निकली, ’’ तुम बहुत कमीनी लड़की हो।’’
उसके बाद मैंने बेहोश होने से पहले कुछ और भी कहा था पर मुझे याद नहीं। पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गया। मैंने सुबह मालविका को सॉरी भी बोला, वह मुस्करा दी। हां, उस दिन पहली बार मैं इतनी कम शराब पीकर बेहोश हुआ था।

मौत से पहले आदमी ग़म से निज़ात पाए क्यों
अगले दिन जब शाश्वत फ़्लैट पर आया तो वही बच्चा उसके साथ था जिसे वह सिद्धार्थ कहता था। आश्चर्य, मुझे बच्चा दिखाई दिया। शायद वह आज पहली बार उसे फ्लैट पर लाया हो। उस बच्चे को देखकर मुझे लगा जैसे मैंने उसे कहीं देखा है, किसी किताब में, किसी फ़िल्म में.........लम्बे कान, घुंघराले बाल, होंठों पर मुस्कान। मैंने दिमाग पर बहुत ज़ोर दिया कि इससे मिलती जुलती तस्वीर कहां देखी है, पर असफल रहा।
शाश्वत बनारस जाने की तैयारी कर रहा था।
’’ कल रात दो और बच्चे मर गए।’’ उसने सामान पैक करते हुए बताया।
मैं चुप रहा।
’’ मैं इस बच्चे के साथ बनारस जा रहा हूं। पूछोगे नहीं मैं बनारस क्यों जा रहा हूं ?’’
’’ ? ’’
’’क्योंकि मैं कायर हूं। अगर मैं कायर न होता तो मैं बुद्ध होता। पर मैंने पलायन का रास्ता चुना है क्योंकि मैं अपने भीतर वह साहस नहीं जुटा पा रहा हूं जो यहां रहने के लिए चाहिए। मुझे मेरा बनारस बुला रहा है। मुझे मेरे पुराने निष्कपट और सच्चे दिन बुला रहे हैं जिन्हें मुझे फिर से पहन लेना है ताकि मैं इस जंगल समय से ख़ुद को बचा सकूँ। मैं भाग रहा हूं।’’ ’’कितना नॉस्टेलजिक है यह सब’’, मैंने सोचा।
मैं भी उसके साथ समान पैक करने लगा। सुनील का कहना था कि वह जहां भी जाए मैं भी साथ जाऊं ताकि वह आत्महत्या न कर ले। अखिल भारतीय प्रवचन के लिए शाश्वताचार्य का ज़िन्दा रहना ज़रूरी था ताकि बताया जाय कि आचार्य अभी बनारस में शुद्धिकरण अभियान पर हैं और पार्टनर बन रहे बाबाओं की मदद से सुनील को लांच किया जा सके जिसकी पृष्ठभूमि बड़े नफ़ासतपूर्ण तरीक़े बनाई जा रही थी। इधर वह पागलों जैसी हरक़तें कर रहा था और उधर सारे बाबा एकजुट होकर पूरी दुनिया को यह बताने में लगे थे कि शाश्वत एक बुरी आत्मा है। उसके हिस्से में ईश्वर ने इतनी ही मानव सेवा लिखी थी। अब वह पागल हो गया है और सुनील नाम के उसके शिष्य में संबोधि का विस्फोट हुआ है। आगे वह मानव जाति की सेवा करेगा। हर चैनल पर यही कार्यक्रम चल रहे थे। सभी बाबा चैनलों पर इंटरव्यू दे रहे थे और शाश्वत था कि उसे अपनी दुनिया से ही फ़ुर्सत नहीं थी। कभी-कभी तो मुझे उन कार्यक्रमों को देखकर लगता कि एक दिन जनता शाश्वत को तलवार लेकर काटने निकल पड़ेगी।
’’ मैंने यह फ्लैट बेच दिया है और पैसे डॉक्टरों को दे दिए हैं।’’ सुनकर मेरा पूरा शरीर एक अनजानी आशंका से कांप उठा। यह फ्लैट बिक गया। सुनील और मालविका ने ने अलग फ्लैट ले लिया। शाश्वत के शरीर पर एक चेन और घड़ी तक नहीं और वह तो ख़ैर बनारस जा रहा है। मैं ? मेरा क्या होना है ?
बहरहाल, अभी तो उसके साथ बनारस निकलना था उसका बॉडीगार्ड बनकर।
बनारस से उसका अर्थ शायद एक ठहरी हुई नीरस ज़िदगी से था। मैं कुछ ही दिनों में उबने लगा। वही सुस्त दिनचर्या। शाश्वत रोज़ गंगा के किनारे बैठता और उस बच्चे से बातें करता। मैं जब भी बच्चे को देखता मेरी नज़्ार वहीं ठहर जाती। मैं दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालता कि इससे मिलती जुलती सूरत मैंने कहां देखी है पर मुझे याद नहीं आता। मैं शाश्वत की मनस्थिति को समझने के लिए रोज़ भिखारियों को देर तक देखता रहता और उनका दुख समझने की कोशिश करता। मुझे भी कभी-कभी थोड़ा दुख होता।
बच्चे की ड्राइंग अच्छी थी। वह रोज़ घाटों की, पतंग लूटते बच्चों की, नहाते लोगों की तस्वीरें बनाता और शाश्वत को दिखाता।
उस शाम बच्चा एक तरफ़ सीढ़ीयों पर बैठा कोई तस्वीर बना रहा था। शाश्वत घाट पर टहल रहा था, नदी के उस पार देखता हुआ।
’’ तुम दिल्ली चले जाओ। मेरे पीछे क्यो लगे हो ?’’ उसने अचानक पीछे घूम कर पूछ लिया।
’’ ताकि तुम आत्महत्या न कर सको।’’ मैंने भी बिना कुछ सोचे समझे कह दिया।
’’ मैं आत्महत्या नहीं करुंगा। मेरी हत्या होगी।’’ उसने धीरे से कहा और बच्चे के पास जाकर बैठ गया। बच्चे ने बनाया हुआ चित्र उसके हाथ में दे दिया। चित्र में एक सुन्दर घर था जिसके छपरैल की हर ईंट अलग आकार व प्रकार की थी। इसमें कुछ लोग थे, स्वस्थ और सुंदर। घर के आस पास ढेर सारे फूल खिले हुए थे। तितलियां उड़ रहीं थीं। पंछी पंख फैलाए घरों की ओर जा रहे थे।
’’ तुमने तितलियों और फूलों में रंग क्यो नहीं भरा ?’’ उसने बच्चे से पूछा।
’’ मेरे पास रंग नही हैं।’’ बच्चे ने मायूस स्वर में कहा।
वह गुमसुम हो गया।
’’ आपके पास रंग हैं ?’’ बच्चे ने उसकी आंखों में अपनी निर्दोष आंखों से झांकते हुए पूछा।
’’ नहींऽऽऽऽऽऽऽऽ, मेरे पास भी नहीं। कोई रंग नहीं मेरे पास।’’ वह अचानक फूट-फूट कर रोने लगा। ’’ देखा, मेरी हत्या हो गई। रोज़ होती है।’’ वह बोल भी रहा था और रो भी रहा था।
अचानक, ऐन उसी वक़्त मुझे लगा जैसे मैं बहुत बड़ा बेवकूफ़ हूं और मुझे ठगा गया है। सुनील और मालविका दिल्ली में ऐश कर रहे हैं और मुझे इस पागल के पीछे लगा दिया है। ये साला बना हुआ पागल है। ये कभी आत्महत्या नहीं करेगा, वह शिगूफा शायद हमें गुमराह करने के लिए छोड़ा था इसने। मुझे आज, अभी और इसी वक़्त दिल्ली के लिए निकलना चाहिए।
मैं झल्ला कर पलटा और चल दिया। सिर्फ़ चार क़दम ही चला होऊँगा कि उसकी आवाज़ सुनाई दी। वह शायद बच्चे को कोई कविता सुना रहा था।
अपने कमज़ोर से कमज़ोर क्षण में भी
तुम यह मत सोचना
कि मेरे दिमाग़ की मौत हुई होगी !
नहीं, कभी नहीं !
हत्याएं और आत्महत्याएं एक जैसी रख दी गई हैं
इस आधे अंधेरे समय में।
फ़र्क़ कर लेना साथी ! - आलोकधन्वा

मैं पलटा और एक ख़तरनाक तारीक़ी मेरे पूरे वजूद में उतर गई। शाश्वत अकेला था। दूर-दूर तक कोई नहीं था। वह सामने जिस ओर मुंह करके बच्चे को कविता सुना रहा था, वह जगह ख़ाली थी। बच्चे का अस्तित्व कहीं नहीं था मगर शाश्वत ख़ाली जगह से बातें करता रहा था। उस बच्चे की शक्ल जो मुझे बहुत क़रीब से देखी जान पड़ती थी, उसकी छाया तक कहीं नहीं थी। भूत.........मेरे मन ने चीत्कार किया और मैं चलने की बजाय दौड़ने लगा। हे भगवान, यह मुझे क्या हो रहा है ? उफ्फ, कहीं इस पागल के साथ रहकर मैं भी पागल तो नहीं हो रहा हूं ? मैं बहुत तेज़ दौड़ने लगा। मैंने एक बार भी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं अभी दिल्ली जाउंगा। सुनील और मालविका भरोसे लायक नहीं हैं। बहुत बडे हरामख़ोर हैं दोनों। कमीने साले।