Thursday, July 31, 2008

यदि आप मुग़ल सल्तनत के समय होते तो आप के दोनों हाथ काट दिए जाते

उपन्यास सम्राट मुँशी प्रेमचंद के 128 वें जन्मदिवस पर प्रेमचंद के जीवन और उनके साहित्य पर एक दृष्टि डाल रहे हैं इन्हीं के साहित्यिक वंशज प्रेमचंद सहजवाला

तीन दिन पहले प्रेमचंद की याद में कुछ लिखने के लिए जब प्रेमचंद सहजवाला से शैलेश भारतवासी ने आग्रह किया तो प्रेमचंद जी ने दिल्ली के कई पुस्तकालयों में अपने दो दिन लगाकर यह विश्लेषण भेजा।

प्रेमचंद - एक युग पुरूष

लेखक- प्रेमचंद सहजवाला


shakespeare ने कहा है 'what is in a name'. मैं जब स्वयं अपने नाम की तरफ़ देखता हूँ तो यह कहावत याद आती है. प्रेमचंद जैसे महापुरूष का हम-नाम होना खुशी की बात हो सकती है,
पर शायद कई जन्म ले कर भी उस महान विभूति के बराबर नहीं हुआ जा सकता. यदि कोई उनके चरणों की धूल के एक कण की संज्ञा दे दे तो यही सौभाग्य है. मैं प्रेमचंद के जाने के भी एक दशक बाद दुनिया में आया. इसलिए उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. पर कहानियाँ लिखनी शुरू की तो एक दिन स्वयं तो दिल्ली के हौज़ खास में प्रेमचंद के सुपुत्र श्रीपत राय के यहाँ बैठा पाया. श्रीपत राय ने 'कहानी' पत्रिका में मेरी 25 के करीब कहानियाँ छापी व एक प्रतियोगिता में पुरस्कार भी दिया. मेरे पहले संग्रह की भूमिका भी उन्होंने लिखी. तब मैं मौसम विभाग के सोनीपत कार्यालय तैनात था और अक्सर दिल्ली आता तो श्रीपत राय के दर्शन करने अवश्य जाता. वहां उनके चित्र देखते देखते व उनसे बातें करते हुए अपने सौभाग्य पर ऑंखें स्वयमेव छलछला जाती कि मैं प्रेमचंद के घर बैठा हूँ. श्रीपत राय मेरी कहानियो पर खूब डांटते कि भाषा कितनी कच्ची है. पात्रों की विविधता है ही नहीं. कभी वे कोई कमज़ोर कहानी लौटाते तो बस में वापस आते आते कहानी के लौटने का कोई गम न रहता बल्कि मन में एक खुशी का सैलाब सा उमड़ रहा होता कि मुझे प्रेमचंद के सुपुत्र ने डांटा है. श्रीपत राय ने ही प्रेरणा दी कि सभी कहानियाँ मेरे पास क्यों भेज देते हो. उनकी प्रेरणा से ही धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान सारिका वामा व रविवार जैसी पत्रिकाओं में छपा. एक कहानी संग्रह को शिक्षा मंत्रालय का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ. पर यह सब श्रीपत राय जी की प्रेरणा से ही हुआ. श्रीपत राय ने मेरे संग्रह की भूमिका में लिखा - 'उनकी कहानियाँ जीवन की आतंरिक अनुभूति में उद्भूत हुई हैं. उनमें जीवन की पीड़ा है. और उस पीड़ा को झेलने की क्षमता प्रदान करने वाली अदम्य शक्ति. अभी इन रचनाओं में सर्वगुण-संपन्नता की खोज मैं नहीं कर रहा हूँ. मैं तो इन रचनाओं के नियंता को अपनी संतति मानने की अवज्ञा कर रहा हूँ'.
अब वो दौर भी समाप्त हो गया है. पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो अपनी उपलब्धियों की फ़िक्र नहीं होती. वे बहुत कम हैं. पर महापुरुषों की जन्म तिथियों पर अपनी कलम से चंद श्रधा पुष्प अर्पित करता हूँ, इसी सौभाग्य से प्रायः फूला नहीं समाता
तारीख 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में एक युग पुरूष का जन्म हुआ जिसने विश्व साहित्य की फलक पर भारत के नाम को बुलंदियों पर पहुँचा दिया. गोदान, रंगभूमि, कर्मभूमि व गबन जैसे विश्व प्रसिद्द उपन्यासों व शतरंज के खिलाड़ी, ठाकुर का कुआँ, कफ़न, पूस की रात व दो बैलों की कथा जैसी सशक्त कहानियों के रचयिता प्रेमचंद किसी एक भाषा के लिए गर्व का विषय नहीं हैं वरन समस्त साहित्य जगत के शाश्वत युग द्रष्टा हैं.

जन्म के समय पिता ने उन का नाम रखा धनपत राय व ताऊ ने रखा नवाब राय. ७ वर्ष के थे तो माँ चल बसी व 14 वर्ष के थे तो पिता चल बसे. तदुपरांत सौतेली माता व सौतेले भाई के साथ जीवन यापन प्रारम्भ किया. लगभग उसी समय उनका बेमेल सा विवाह हुआ और वे एक लंबे समय तक अपनी पत्नी से अलग रहे. इस के बाद मार्च 1906 में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया जो मृत्यु पर्यंत उनकी जीवन संगिनी बनी रही. बीसवीं सदी के उस पहले दशक में एक विधवा से विवाह करना एक क्रन्तिकारी कदम था जो ईश्वरचंद्र चंद्र विद्यासागर द्वारा करवाए गए प्रथम विवाह के बाद हुए बहुत कम विधवा विवाहों के कड़ी में था.

बचपन में गरीबी के कारण देखे गए संघर्षमय दिनों के बावजूद, समय के साथ उनकी शख्सियत कैसी बनी इसकी दो झलकियाँ हम उनके ही सुपुत्र अमृत राय के व शिवरानी देवी के शब्दों में देखते हैं.

प्रसिद्व पुस्तक 'प्रेमचंद स्मृति - स्नेह के फूल' (चयन अमृत राय) में कई लेखकों के प्रेमचंद सम्बन्धी संस्मरण हैं. अमृत राय अपने संस्मरण में लिखते हैं -

'क्या तो उनका हुलिया था. - घुटनों से ज़रा ही नीचे तक पहुँचने वाली मिल की धोती, उसके ऊपर उसके ऊपर गाढे का कुरता और पैर में बन्ददार जूता.. गंवैया भुच्च जो अभी गांव चला आ रहा है, जिसे कपड़ा पहनने की भी तमीज नहीं, जिसे यह भी नहीं मालूम की धोती कुरते पर चप्पल पहनी जाती है या पम्प. आप शायद उन्हें प्रेमचंद कह कर पहचानने से भी इनकार कर देते. मुझे अच्छी तरह याद है सस्ते के ख़याल से किरमिच का जूता पहना और रंगरोगन की झंझट न रहे, रोज़ रोज़ उस पर सफेदी पोतने की मुसीबत से निजात मिले इसलिए वह किरमिच का जूता brown रंग का होता था जिसे आजकल तो शायद रिक्शेवाला भी नहीं पहनता और शौक से तो नहीं ही पहनता....
... उन्हें ऐशो-इशरत पसंद होती तो जहाँ अंतःकरण को बेच कर बहुत लोग बम्बई की फिल्मी दुनिया में पड़े रहते हैं वहां प्रेमचंद भी अपने अंतःकरण का थोड़ा बहुत सौदा कर के पड़े रह सकते थे. और (फिल्मी दुनिया में) एक हज़ार रूपया महीना तो पा ही रहे थे और भी ज़्यादा बनाने के सिलसिले निकाल सकते थे - लेकिन नहीं ऐशो इशरत की संकरी सुनहली गली उनके लिए नहीं थी. उनके लिए खुली हवा का राज मार्ग ही बेहतर था., जहाँ वे एक बड़ के तले कुएं के पास आराम से अपनी जिंदगी बिता सकते थे. वहां खुली हवा तो है, ताज़ा ठंडा मीठा पानी तो है नीला आसमान तो दिखाई देता है, राह चलते किसी आदमी का बिरहा तो सुनायी दे जाता है. आदमी आदमी के दुःख दर्द की तो एकाध बात कर लेता है....'


अमृत राय के इन शब्दों में प्रेमचंद की पूरी साहित्यिक शख्सियत छलकती है.. वे आम आदमी के साहित्यकार थे जो खेतों में सड़कों पर व कारखानों में अपनी जिंदगी की गर्दिशों से जूझता था.

सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति प्रेमचंद के विषय में उसी पुस्तक 'प्रेमचंद स्मृति' में स्वयं उनकी पत्नी शिवरानी देवी एक प्रसंग ले कर लिखती हैं -

' प्रेस खुल गया था, और आप स्वयं (प्रेमचंद) वहां काम करते थे; जाड़े के दिन थे. मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जँचे और गरम कपड़े बनाने के लिए अनुरोध पूर्वक दो बार चालीस चालीस रूपये दिए परन्तु उन्होंने दोनों बार वे रुपये मजदूरों को दे दिए. घर पर जब मैंने पूछा - कपड़े कहाँ हैं? तब आप हंस कर बोले - कैसे कपड़े? वे रुपये तो मैंने मजदूरों को दे दिए; शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद लिया होगा. इस पर मैं नाराज़ हो गयी. तब वे अपने सहज स्वर में बोले - जो दिन भर तुम्हारे प्रेस में मेहनत करे वह भूखा मरे और मैं गरम सूट पहनूं, यह तो शोभा नहीं देता. उनकी इस दलील पर मैं खीझ उठी और बोली - मैंने तुम्हारे प्रेस का ठेका नहीं लिया है. तब आप खिलखिला कर हंस पड़े और बोले - जब तुमने मेरा ठेका ले लिया है तब मेरा रहा ही क्या? सब तुम्हारा ही तो है... मैं निरुत्तर हो गयी और बोली - मैं ऐसा सोचना नहीं चाहती. तब उन्होंने असीम प्यार के साथ कहा - तुम पगली हो. '
जीवन के अन्तिम क्षण तक साथ देने वाली इस जीवन संगिनी के विषय में स्वयं प्रेमचंद क्या कहते हैं यह उसी, शिवरानी जी के लेख में ही देखिये. गरम सूट आख़िर उन्होंने प्रेमचंद के भाई साहब के माध्यम से बनवा ही लिया और आख़िर पहन कर जब उन्होंने शिवरानी जी को सलाम किया तब वे बोली -

'सलाम तो बड़ों को किया जाता है; मैं तो न उमर में बड़ी हूँ न रिश्ते में न पदवी में फिर आप मुझे सलाम क्यों करते हैं? तब उन्होंने उत्तर दिया - उम्र, रिश्ता, या पदवी कोई चीज़ नहीं है; मैं तो ह्रदय देखता हूँ और तुम्हारा ह्रदय माँ का ह्रदय है. जिस प्रकार माता अपने बच्चों को खिला पिला कर खुश होती है, उसी प्रकार तुम भी मुझे देख कर प्रसन्न होती हो और इसीलिए अब मैं हमेशा तुम्हें सलाम किया करूँगा.'


ब्रिटिश काल था और महात्मा गाँधी नेहरू व पटेल के रास्ते पर चलते असंख्य लोग देखते देखते जेलों में भर जाते थे. प्रेमचंद व पत्नी शिवरानी देवी पर भी ब्रिटिश के प्रहार होने ही थे. शिवरानी देवी भी महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन के बाद गिरफ्तार हो गयी थी. पर प्रेमचंद ब्रिटिश की निर्ममता के उससे पहले ही तब शिकार हो गए थे जब नवाब राइ नाम से उनका उर्दू कहानियो का संकलन 'सोजे वतन' छपा था. तब वे बीस रुपये मासिक वेतन पर सरकारी अध्यापक थे. कहानियाँ देश भक्ति की भावना से भरी थी. collector ने उन्हें बुला कर झाड़ते हुए कहा था कि आपकी कहानियो में ज़बरदस्त sedition (भड़काने वाले भाव) है. यदि आप मुग़ल सल्तनत के समय होते तो आप के दोनों हाथ काट दिए जाते. collector ने उस संग्रह की बची हुई सात सौ प्रतियाँ अग्नि की भेंट चढा दी थी. प्रेमचंद उस समय तक धनपत राय या नवाब राय के नाम से लिखते थे पर अब प्रेमचंद नाम से लिखने लगे. पर ब्रिटिश से पूर्णतः मुक्त वे तब हुए जब 8 फ़रवरी 1921 को उन्होंने गोरखपुर में महात्मा गाँधी का भाषण सुना और 16 फ़रवरी 1921को उन्होंने बीस साल पुरानी सरकारी नौकरी छोड़ दी. पति पत्नी कांग्रेस में थे तब . प्रेमचंद ने पत्नी शिवरानी देवी से एक बार कहा - 'मैं महात्मा गाँधी को सब से बड़ा मानता हूँ. उनका भी उद्देश्य यही है कि मजदूर और काश्तकार सुखी हों और मैं भी लिख कर उनको उत्साह दे रहा हूँ. वे हिंदू मुसलमान एकता चाहते हैं तो मैं हिन्दी उर्दू को मिला कर हिन्दुस्तानी बनाना चाहता हूँ (सन्दर्भ - साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित वृहद पुस्तक 'प्रेमचंद रचना- संचयन' में कमल किशोर गोयनका का लेख 'निवेदन' पृष्ठ ११)

कांग्रेस के उन दिनों का ही सन्दर्भ दे कर शिवरानी देवी अपने संस्मरण में एक दिन का विवरण देते लिखती हैं, जब प्रेमचंद घर में ही रह गए थे और वे कई महिलाओं के साथ कांग्रेस कार्यालय गई थी ('प्रेमचंद स्मृति') -

'आठ बजे रात को जब लौटी तब लड़कों के ज़बानी मालूम हुआ कि आप भी कांग्रेस दफ्तर की तरफ़ गए हैं. आख़िर आप रात के दो बजे आए, मेरे पूछने पर मुस्करा कर बोले - जब तुम्हें देश प्रेम बेबस कर सकता है तो क्या मुझे नहीं कर सकता?'

उसी वार्तालाप में प्रेमचंद ने शिवरानी देवी को बताया -

'मैं तो मजदूर हूँ. लिखना मेरा धर्मं है - यही मेरी मजदूरी है इसमें मुझे संतोष है ...'

कलम के सिपाही प्रेमचन्द जी नाम लेते ही आँखों के समक्ष एक चित्र उभरता है- गोरी सूरत, घनी काली भौंहें, छोटी-छोटी आँखें, नुकीली नाक और बड़ी- बड़ी मूँछें और मुस्कुराता हुआ चेहरा। टोपी,कुर्ता और धोती पहने एक सरल मुख-मुद्रा में छिपा एक सच्चा भारतीय। एक महान कथाकार- जिसकी तीक्ष्ण दृष्टि समाज और उसकी बुराइयों पर केन्द्रित थी। एक समग्र लेखक के रूप में उन्होने मध्यवर्गीय समाज को अपने साहित्य में जीवित किया।

अनेक पत्र- पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए ख्याति प्राप्त की। १९०१से इनकी लेखनी चलनी प्रारम्भ हुई तो चलती ही रही। इन्होने कथा जगत को तिलिस्म , ऐयारी और कल्पना से निकाल कर राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी भावनाओं की दुनिया में प्रवेश कराया। १९३० में 'हँस' निकाला और १९३२ में 'जागरण'।

सरकारी नौकरी में स्वाभिमान आड़े आया और त्यागपत्र देकर गाँव लौट आए। कलम चलाकर ४०-५० रपए में घर चलाने लगे। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा खी। कभी जेल नहीं गए, किन्तु सैनिकों की वाणी में जोश भरा। 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से अपने विचार जन-जन में पहुँचाए।

उन्होंने पहली बार कथा साहित्य को जीवन से जोड़ा और सामाजिक सत्यों को उजागर कर अपने दायित्व का निर्वाह किया। उनमें पर्याप्त जागरूकता और सूक्ष्म दृष्टि थी। उन्होंने अपने युग को पहचाना । जीवन की पाठशाला में जो भी सीखा उसी को साहित्य का आधार बनाया। समाज, जीवन और भावबोध प्रेमचन्द के लिए महत्वपूर्ण बातें थीं। वे ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे जिसमें किसी का भी शोषण ना हो ।

प्रेमचन्द प्रगतिशील साहित्यकार थे किन्तु उनकी प्रगतिशीलता आरोपित नहीं थी। वे भारत को रूढ़िमुक्त करना चाहते थे। उन्होने मध्यम वर्गीय आत्मप्रदर्शन व आडम्बर प्रियता पर करारी चोट की, उनका विविध चित्रण किया। निर्मला उपन्यास मध्यवर्ग और उसकी कमजोरियों का कच्चा चिट्ठा है। गोदान में ग्रामीण जीवन को जीवित किया है।
उनका साहित्य एक ओर भारत की अधोगति, और दूसरी ओर भारत की भावी उन्नति के पथ पर चला है। उन्होंने जिस विचारधारा का सूत्रपात किया वह थी पापाचार का निराकरण। उन्होंने अपने उपन्यासों में धर्म की पोल खोली है। हिन्दू धर्म की की जीर्णशीर्णता का सुन्दर चित्रण किया व धर्म को मानवता वादी आधार प्रदान किया। उन्होंने मनुष्य सेवा को ही ईश सेवा माना।
प्रेमचन्द जी ने अपने समाज की रूढ़ियों पर खुलकर प्रहार किया। उन्होंने अपने उपन्यासों के द्वारा पाठकों तक ऐसी भावनाओं का सम्प्रेषण किया जिसमें जीवन के प्रति गरिमा हो। उन्होंने समाज को दिशा प्रदान की। प्रेमचन्द जी ने पूँजीवाद का तीव्र विरोध किया।
नारी को प्रगतिशील बनाया तथा बाल-विवाह और अनमेल विवाह के दुष्परिणामों से समाज को परिचित कराया। निर्मला का करूण अन्त चीख-चीख कर यही कहता है। दहेज प्रथा से उन्हें चिढ़ थी। दहेज का दुष्परिणाम भी इनके उपन्यासों में मिलता है।
उन्होंने किसानों की समस्याओं को लेखनी में उतारा। मज़दूरों, युवकों, विद्यार्थियों और अछूतों को साहित्य का विषय बनाया और उनके कष्टों को वाणी दी।
शोषण,गुलामी,ढ़ोंग, दंभ,स्वार्थ रूढ़ि, अन्याय,,अत्याचार सबकी जड़ें खोदीं और मानवता की स्थापना की।
गोदान, मंगलसूत्र निर्मला सेवासदन इनकी अमर कृतियाँ हैं।
प्रेमचन्द जी की कहानियाँ हिन्दी साहित्य का श्रृंगार हैं। बड़े भाई साहब, ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, कफ़न,आज भी प्रासंगिक हैं। समाज का हर वर्ग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ उनमें जीवित है।
आर्थिक समस्याएँ उन्हें फिल्म जगत में ले गईं किन्तु समझौता करना उनका स्वभाव नहीं था। वापिस आ गए और संघर्षों से भरा जीवन जीते रहे । ८ अक्टूबर १९३६ को मात्र ५६ वर्ष की अवस्था में पंचभौतिक शरीर को त्याग परम तत्व में विलीन हो गए।
प्रेमचन्द की कथाएँ और उनके उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। जब-जब उन्हें पढ़ा जाएगा, जन मानस उन्हें अपने बहुत करीब ही पाएगा। उस पवित्र आत्मा को मेरा शत-शत नमन। -शोभा महेन्द्रू
प्रेमचंद B.A तक की परीक्षाएं आर्थिक संघर्षों नौकरियों ट्यूशनों के बीच केवल द्वितीय श्रेणी में ही पास कर पाए, पर बचपन ही से उन्हें पुस्तकें पढने की एक अदम्य भूख सी थी. २० वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते विश्व का प्रमुख साहित्य पढ़ डाला. उनकी प्रखर शख्सियत ने एक भावी युग पुरूष को जन्म दे दिया था. उर्दू के बाद वे जब हिन्दी में भी लिखने लगे तब उनकी पहली कहानी 'सौत' छपी तथा उनका पहला हिन्दी कहानी संग्रह 'सप्त-सरोज' जब छपा तब साहित्य प्रेमियों ने सहज ही उन का नाम गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर के समकक्ष रख दिया . देखते देखते प्रेमचंद नाम विश्व के साहित्याकाश पर छा गया. प्रेमचंद के उपन्यासों के विदेशी अनुवाद छपने लगे. यहाँ यह लिखना ज़रूरी है कि भारत में जहाँ बंगाली साहित्य पर अंग्रेज़ी साहित्य की गहरी छाप थी वहीं प्रेमचंद व उन के परवर्ती साहित्यकारों पर रूसी क्रांति व रूसी साहित्य का भरपूर प्रभाव रहा. प्रेमचंद के बाद रेणु, अज्ञेय, जैनेन्द्र, यशपाल आदि की पीढी भी जब अपना साहित्य लिख गयी तब नयी कहानी के आन्दोलन में मोहन राकेश जैसे साहित्यकारों पर अन्तोन चेखोव की छाप स्पष्ट नज़र आती थी. प्रेमचंद के विश्व प्रसिद्व उपन्यास रंगभूमि में औद्योगीकरण व उस से जुड़े शोषण के विरुद्ध गांव के एक सूरदास भिखारी का ज़बरदस्त संघर्ष है. जब ब्रिटिश ने भारत-भूमि पर उद्योग का जाल बिछाया तब पहले पहल कार्ल मार्क्स तक ने उसे सराहा था पर शीघ्र ही एक मोह-भंग का सा आभास देते हुए मार्क्स ने ब्रिटिश की शोषण वृत्ति के विरुद्ध चेतावनी दी थी. रंगभूमि में भी सूरदास की ज़मीन जिसे उसने पशुओं को चरने के लिए छोड़ दिया है, पर जॉन सेवक नाम का एक अँगरेज़ तम्बाकू की फैक्ट्री लगाना चाहता है. पूरा उपन्यास उद्योग जगत व पूंजीवादी व्यवस्था की शोषण वृत्ति को नग्न करता सा प्रतीत होता है. प्रेमचंद की शख्सियत व साहित्य पर उन के चरम काल तक पहुँचते पहुँचते रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की से उन की बेहद गहरी समानता पाई गयी. मैंने गोर्की का उपन्यास 'वे तीन' पढ़ा तथा उस के बाद रंगभूमि पढ़ा तो रंगभूमि के सूरदास और 'वे तीन' के गरीब कबाडी येरेमाई बाबा के बीच बेहद समानता मिली. विश्व के ये दोनों महान साहित्यकार अपने अपने परिवेश का चित्रण करते हुए व अपनी अपनी मौलिकता खोये बिना एक दूसरे के प्रतिबिम्ब से लगने लगे थे . रूसी क्रांति भी शोषण के विरुद्ध थी और यहाँ भारत में भी ब्रिटिश अपनी पूंजीपति ताकत द्वारा भारतीय मजदूर किसान का शोषण ही कर रही थे. इसलिए भारत के भगत सिंह में जहाँ लेनिन नज़र आता था वहीं नेहरू व सुभाष आदि वामपंथी विचारों से बेहद प्रभावित दिखे . यहाँ के साहित्य के साथ भी यही होना था. पर यदि हम प्रेमचंद के सभी उपन्यासों व उनके सर्वोत्कृष्ट उपन्यास 'गोदान' पर एक नज़र डालें तो शुद्ध भारत-भूमि के शोषित पात्रों से साक्षात्कार करते हैं प्रेमचंद जैसी विभूतियों की मौलिक छटपटाहट व चिंतन का पता चलता है. गोदान का होरी हो या रंगभूमि का सूरदास, या गबन की जालपा, प्रेमचंद के सभी पात्र यथार्थ पात्र हैं और यथार्थ के चित्रण में उन से अधिक सिद्धहस्त कोई अन्य नहीं हो सकता. मुझे बहुत वर्ष पहले दूरदर्शन पर देखा एक साक्षात्कार याद आ रहा है, जो जैनेन्द्र जी से कोई महिला साहित्यकार ले रही थी. साक्षात्कार के दौरान सम्बंधित महिला ने जब यह कहा - मुंशी प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र जी, आप को भी एक दिग्गज माना गया है...तब प्रश्न के पूरा होने से पहले ही जैनेन्द्र जी ने साक्षात्कारकर्ता महिला को रोकते हुए कहा - प्रेमचंद के साथ मुझे भी एक दिग्गज माना जाए, इसकी तो मैं अनुमति नहीं दूँगा...

प्रेमचंद ने गद्य की सभी विधाएं लिखी. पर विश्व में वे उपन्यास-सम्राट माने गए व उनकी कई कहानियाँ विश्व-पटल पर अभी तक छाई हुई हैं. उनके पात्र तत्कालीन समाज के भीतर से जन्म ले कर ही कथा मंच पर आते हैं . भला 'बड़े घर की बेटी' की आनंदी को कौन भूल सकता है. उस समय के गांव के एक संयुक्त परिवार की बहू आनंदी एक अमीर घर से आयी ,पर मन में अमीरी का गुरूर होते हुए भी एक गरीब घर का हिस्सा बन गयी है. देवर उस पर किसी झगडे के दौरान खड़ाऊं फेंकता है, फिर भी वह सारा गरल पी कर दो दिन में ही बात भूल जाती है. इसमें प्रेमचंद की निजी आदर्शवादिता अवश्य सम्मिलित सी है, पर अस्वाभाविक नहीं लगती. कहानी में सगे भाइयों के बीच उभरते क्रोध व मन-मुटाव के बावजूद एक दूसरे के बिना न रह सकने की जो कमजोरी है उसे केवल प्रेमचंद ही व्यक्त कर सकते हैं. मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रेमचंद की कहानियों में एक अन्य अनूठा तकनीकी गुण नज़र आया. पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता है जैसे शब्दों का कोई चलचित्र चल रहा है, एक फ़िल्म सी सामने चलती नज़र आती है . प्रेमचंद की कहानियाँ हमेशा एकरस नहीं रही, बल्कि चार दशकों में उनमें हर किस्म के बदलाव आए. प्रेमचंद आदर्श के लेखक माने गए हैं. आदर्श के आभाव में होने वाली दुर्घटनाएं उन के कई धरातलों में से एक महत्वपूर्ण धरातल है. कुछ कहानियों में भले ही हृदयपरिवर्तन उनके आदर्श को स्थापित करने का एक महत्त्वपूर्ण हथकंडा रहा हो (जैसे 'नमक का दरोगा' आदि में) पर आदर्श से विमुखता के दुष्परिणाम भी उनका एक सशक्त हथकंडा है.

इसका सब से सशक्त उदाहरण है 'शतरंज के खिलाडी'. कहानी का पहला अनुच्छेद पढ़ कर देखें -

'लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे बड़े गरीब अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था...'

वाजिद अली शाह तब अवध के नवाब थे और ब्रिटिश जैसी उपनिवेशवादी ताकत के ख़िलाफ़ किसी भी चेतना के अभाव में देखिये, कहानी का अंत कैसा होता है .

'अँधेरा हो चला था. बाज़ी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे. चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती हुई सर धुनती थी...'

शतरंज के दोनों खिलाडी इस प्रकार शतरंज के बादशाहों पर lad कर एक दूसरे को मार देते हैं पर उधर ब्रिटिश की गोरी पलटन वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर देती है.

कई समीक्षकों ने माना है कि तकनीकी तौर प्रेमचंद की कहानियों के पात्र यथार्थ होते हुए भी लेखक की कठपुतली का सा व्यवहार करते हैं . परन्तु यदि हम एक नज़र उनकी तीन विश्वप्रसिद्ध कहानियों पर डालें जो उन्होंने लगभग अंत में जा कर लिखी, तो इस असामान्यता से वे मुक्त होते दिखाई देते हैं. ये तीन कहानियाँ हैं 'शतरंज के खिलाडी', 'पूस की रात''कफ़न'. बल्कि कई समीक्षक यह मानते हैं कि इन तीन कहानियो में वे भावी नयी कहानी तक के बीज बो गए और यदि वे और अधिक वर्षों तक रहते तो पात्रों के स्वाभाविक व्यवहार तक अवश्य पहुँचते. मैं ने महसूस किया कि 'शतरंज के खिलाडी' के अन्तिम वाक्यों ( 'अँधेरा हो चला था. बाज़ी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे. चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती हुई सर धुनती थी...' ) में एक बिम्ब का जन्म हुआ है जो नयी कहानी का एक सशक्त अवयव था. साथ ही प्रेमचंद की कई कहानियो में संवाद कम हैं पर narration ज़्यादा है. पर ज़रा कफ़न कहानी को पढिये जिसे मैं उनकी सब से अधिक सशक्त कहानी मानता हूँ. इस में एक युग पुरूष द्वारा लिखी गयी कालजयी कहानियों के सभी तत्त्व हैं, क्या पात्र, क्या कथ्य तथा क्या तकनीकी पहलू. मैंने हर दौर की कहानियाँ पढ़ी होंगी पर 'कफ़न' से अधिक सशक्त कहानी नहीं पढ़ पाया. इस कहानी के कुछ अनुच्छेद नीचे उद्दृत कर रहा हूँ

घीसू के पुत्र माधो की गर्भवती पत्नी के मरने पर लोगों से जुटे पैसे ले कर कफ़न खरीदने गए पिता पुत्र जब शराबखाने पहुँचते हैं तब एक दूसरे से कहते हैं) -

('कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथडा भी न मिले उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए'
'कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है.'
'और क्या रखा जाता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते तो दवा दारू कर लेते'

(घीसू और माधो गांव में व्याप्त भूख के प्रतीक हैं व इसलिए अकर्मण्य हो गए हैं, कि काम करने वाले किसानों को भी एक चेतनाहीन गूंगी जिंदगी बितानी पड़ती है एक जगह:)

माधव आसमान की तरफ़ देख कर बोला, मानो देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो - दुनिया का दस्तूर है लोग बाम्भनों को हजारों रूपये देते हैं. कौन देखता है, परलोक में मिलता है कि नहीं.


(एक अन्य संवाद):

(माधव) बोला - बड़ी अच्छी थी बेचारी. मरी तो खूब खिला पिला कर.

बहू के मरने के बावजूद घीसू और माधो की चेतना आज हो रहे जश्न में है क्यों कि पेट भरने का इतना बड़ा जश्न इस से पहले घीसू ने बीस वर्ष पहले मनाया था जब एक शादी में उसने बहुत सी पूरियां कचौडियाँ व मिठाई खाई थी.

प्रेमचंद की कहानियो पर फिल्में भी बनी और tele-films भी, पर न तो श्वेत-श्याम film 'गबन' ही स्तर की उन ऊंचाइयों को छू पाई जहाँ प्रेमचंद थे, न ही दूरदर्शन की सब से पहली tele-film सद्गति. सत्यजित राय भले ही ऑस्कर विजेता रहे पर 'शतरंज के खिलाडी' बना कर वे औंधे मुंह ही गिरे. उन्होंने 'शतरंज के खिलाडी' पहले अंग्रेज़ी में अनुवादित कराई, फिर बंगाली में फिर उस से हिन्दी में script लिखवाई. लखनऊ के पुस्तकालयों में इतिहास की पुस्तकों का घोर अध्ययन भी किया . पर प्रेमचंद की आत्मा तक पहुँचने में वे विफल ही रहे.

तारीख 8 अक्टूबर1936 की प्रातः दस बजे इस युग-द्रष्टा महापुरुष ने अन्तिम रूप से आँखें मूँद ली. किसी शायर ने जीवन की नश्वरता पर लिखा है -

कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए, बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं.


पर नश्वर जो भी होता है, वह शरीर होता है. प्रेमचंद जैसे ज्योतिपुंज अपने शाश्वत साहित्य के मध्यम से अनंत काल तक विश्व-पटल पर विद्यमान रहते हैं. इसी लिए एक फारसी शायर ने लिखा है:

ऐ रफ्तागाने महफिले मा
रफ्तेद वले न अजदिले मा


अर्थ - ऐ हमारी महफिल से जाने वाले तू चला तो गया, पर हमारे दिल से नहीं गया.



एक रोचक प्रसंग

प्रेमचंद का हर वर्ग के पात्रों विशेषकर गरीब पात्रों से कितना लगाव था इस का एक रोचक उदहारण यह कि एक बार वे महादेवी वर्मा जी के घर गए तो महादेवी जी की काम करने वाली बाई ने बताया कि वे विश्राम कर रही हैं. प्रेमचंद जी ने बाई से कहा कि महादेवी जी को विश्राम करने दे तथा विश्राम में अकारण विघ्न न डाले. तब तक प्रेमचंद जी आँगन में उस बाई के साथ फर्श पर बैठे गांव-खेत की असंख्य बातें करते रहे. महादेवी जी की आंख खुली और उन्होंने प्रेमचंद जी को बाहर आंगन में बैठा पाया तो बाई से गुस्से में बोली - 'तुम ने मुझे जगा कर बताया क्यों नहीं कि प्रेमचंद जी आए हुए हैं.' इस पर प्रेमचंद जी मुस्करा कर महादेवी जी से बोले कि आप के न जागने से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ. मुझे इस महिला व इसके गांव के लोगों की कई बातें पता चली जो मेरे लेखन में बहुत उपयोगी होंगी. प्रेमचंद समाज के हर पात्र, चाहे वह निम्न वर्ग का हो या राजसी ठाठ-बाठ वाला, को निकट से जानने में एक अनूठा आनंद महसूस करते थे व उसे अनिवार्य भी समझते थे और यही उन की मौलिकता भी थी और लेखन-शक्ति भी.

(यद्यपि इसके कहीं प्रमाण नहीं मिलते, लेकिन बहुत से प्रेमचंद प्रेमियों से सुना जा सकता है।)


छायाचित्र साभार- छाया

Monday, July 28, 2008

बेजुबान दोस्त

एस आर हरनोट की बेहद संवेदनशील कहानी

चुन्नी की आदतें समझ से परे हो गई हैं।
उसके अम्मा-बापू और दादू उसको लेकर काफी परेशान रहते हैं। वह घर का इकलौता बेटा है। उसकी ऊल-जुलूल हरकतों से घर के ही नहीं गांव-परगने तक के लोग परेशान रहते हैं। इसी वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई भी नहीं हो पाई है। जब वह दूसरी कक्षा में था तो उसकी क्लास के एक बच्चे ने गुलेल से एक चिड़िया मार दी थी। बस फिर क्या था, चुन्नी पगला गया। उसने बच्चे को खूब पीटा और फिर उसी की गुलेल से उसकी एक आंख फोड़ दी। चुन्नी को खूब मार तो पड़ी ही, स्कूल से भी निकाल दिया गया। गांव के बच्चे भी उस घटना के बाद उसके साथ कभी नहीं खेले। इस अकेलेपन ने उसे कई दिनों तक निराश-हताश किए रखा। लेकिन धीरे-धीरे उसका लगाव पशुओं और पक्षियों से होने लगा। मौसमों से होने लगा। बादलों से होने लगा। पेड़ों और झाड़ियों से होने लगा। घाटियों और धारों से होने लगा। तितलियों से होने लगा। यानी प्रकृति के हर रंग ही जैसे उसने अपने भीतर समेट लिए हों।

वह नौ बरस का हो गया है। पर उसका जिस तरह का पहनावा है उससे उसकी उम्र का अंदाज लगाना मुश्किल है। मां-बाप ने शायद ही कभी नया कपड़ा उसे सिलाया होगा। वैसे अब उसे कपड़े देने की जरूरत भी नहीं पड़ती। गांव का कोई न कोई आदमी उसे कुछ न कुछ दे दिया करता है। इसलिए कभी उसके बदन पर उसके नाम का कपड़ा नहीं होता। वह हमेशा लम्बा बन्द गले का कुरता पहने रहता है। उसके उपर एक पुरानी सदरी। नीचे फटी-पुरानी जीन की पैंट। एक झोला भी वह हमेशा कन्धे पर टांगे रहता है। उसके बाल बेतरतीब से माथे और आंखों पर बिखरे रहते हैं। बालों में भीतर तक धंसे-फंसे चील के नुकीले चिलारू बाहर आने को बेताब। लम्बे बालों के नीचे कानों का कोई अता-पता नहीं। गोल-मटोल मुंह और छोटी नुकीली सी ठोडी। नाक माथे की तरफ हल्का सा तना हुआ। उसका ऊपर वाला ओंठ दाएं तरफ से कटा हुआ है जिससे आगे के दो दांत हमेशा बाहर झांकते रहते हैं। कई लोग इसी कारण उसे खंडु कह कर भी पुकारते हैं। उसके ओठों पर हमेशा एक हल्की सी मुस्कान तैरती रहती है। उसके मन में जो कुछ चलता रहता होगा शायद यह उसी की चमक है जिसका नूर उसके चेहरे पर कोई भी देख सकता है। सदरी और कुरते की जेबों में कुछ न कुछ भरा रहता है। किसी में नमक तो किसी में बासी रोटियों के टुकड़े। किसी जेब में चावल तो किसी में जंगल के करूंदु-बैर। पांव में कभी एक तरह के जूते नहीं होंगे। एक में चप्पल तो दूसरे में प्लास्टिक का जूता। कभी वह नंगे पावं ही चला रहता है।


स्कूल से हटने के बाद चुन्नी कई दिनों तक घर पड़ा रहा। कुछ दिनों के बाद उसे घर वालों ने पशुओं को चुगाने का काम दे दिया। धीरे-धीरे गांव के कुछ और लोगों ने भी उसे यह जिम्मा सौंप दिया था। एक साल के भीतर ही वह पशु चुगाने में पारंगत हो गया। उनके साथ उसका खूब मन भी लगने लगा था।

हिमाचल प्रदेश के छोटे से गाँव चनावग (शिमला) में जन्मे विश्व विख्यात कहानीकार एस आर हरनोट की १० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूलतः कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, इतिहास और शोध आदि पर लेखन। वर्ष २००३ का अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान (कथा यू के) तथा २००७ में हिमाचल राज्य अकादमी पुरस्कार। अन्य १० प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। कई सम्पादित कहानी संग्रहों में कहानियाँ संग्रहित। हिन्दी विश्व कहानी कोश, कथा लंदन, कथा में गाँव, १९९७ की श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ, दस्तक, समय गवाह है और हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियाँ में कहानियाँ प्रकाशित। कथादेश के कथा विशेषांक-फरवरी-२००७ '१० वर्ष एक चयन' में 'कहानी जीनकाठी' संकलित। कहानी दारोश पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा 'इंडियन क्लासिक्स सीरिज के तहत' फिल्म का निर्माण। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम, रिट्स एनैक्सी, शिमला में सहायक महा प्रबंधक (सूचना एवं प्रसार) के पद पर कार्यरत
गांव के किसानों के कई गाय-बैल इतने खराब थे कि खूंटे से खुलते ही पखले को सींग से मारने उनके पीछे भाग जाते। पर मजाल है कि चुन्नी के साथ कभी ऐसा हुआ हो। कोई बैल या दूसरा पशु कितना ही सींगमार क्यों न होता, चुन्नी को देख कर ऐसे सहज हो जाता जैसे वह उसी का पाला हो। यही नहीं गांव के खूंखार किन्नौरी कुत्ते जो हमेशा काटने के डर से बन्धे रहते, चुन्नी को देख उनकी आंखों में प्यार सा उमड़ पड़ता। अब तो वह जिस बैल, कुत्ते, भेड़-बकरी या बिल्ली तक को प्यार से बुलाता वे उसके पास चले आते और चुन्नी उनसे बतियाता रहता। उसके घर में दो बैल, तीन गाय और कुछ भेड़-बकरियां थीं। उनका तो वह जैसे सगा हो गया था। गाय कभी दूध न देती और बिगड़ जाती तो उसकी अम्मा चुन्नी को बुला लिया करती। चुन्नी जैसे ही गौशाला की दहलीज पर जाता गाय चुपचाप दूध देने लग जाती। घर वालों को उसकी हरकतों पर कई बार अचरज भी होता। गांव के बच्चे और बड़े अब घर-बाहर या खेत-खलिहान में यह ध्यान रखते कि किसी जानवर या पक्षी को चुन्नी के सामने न भगाए या मारे। यदि चुन्नी ने ऐसा करते देख लिया तो उसकी खैर नहीं। वह किसी को कुछ भी कर सकता था। यहां तक कि उसके सामने अपने पशुओं या कुत्ते तक को कोई फटकार नहीं लगा सकता था।

घर के आंगन में जितने भी पेड़ थे उन सभी पर चुन्नी ने छोटे-छोटे पौ लगा रखे थे। जंगल में वह जहां पशुओं को चुगाने जाता वहां भी कई पेड़ों की टहनियों पर उसने कुछ न कुछ टांगा होता जिनमें वह रोज पानी डाल दिया करता। देर-सवेर सभी पक्षी उनसे पानी पीते। वह खुद बांवड़ी और नल से पानी लाता और पौ में भरता रहता। छत पर उनको बासी रोटियां डालता। जौ डालता। चावल डालता। अब तो वह किसी भी घर में मांगने भी चला जाता था। जानता था कि कुत्ते या पक्षियों को रोटी-दाना उनके घर में ज्यादा नहीं होता, इसलिए वह गांव में घूमता और लोग उसके झोले में रात की बची रोटियां डाल देते। कुछ दाने डालते तो कुछ चावल डाल देते। पहले गांव वालों को भी उसकी आदतें समझ नहीं आती थीं। लेकिन धीरे-धीरे उसके बावलेपन से उन्हें प्यार होने लगा और उन्हें अब अनाज देना अच्छा लगने लगा था।

इतना ही नहीं जब वह अपने पशुओं को लेकर जंगल जाता तो दूसरे पशु भी उसके झुण्ड में चले आते। जबकि गांव के पशु एक दूसरे से इतनी इरख रखते कि देखते ही लड़ जाया करते। पर चुन्नी को देखते वे ऐसा नहीं करते। पशु जब चरते रहते तो वह तितलियों के पीछे भागने लगता। तितलियां भी उसके चारों तरफ इकट्ठी हो जाती, जैसे वह चुन्नी न होकर कोई वनफूल हो। कई बार तो छोटे-छोटे हिरनों और खरगोशों को भी लोगों ने उसके आसपास मंडराते देखा था। पता नहीं उसके पास ऐसा क्या जादू था ? कोई नहीं जानता था।


चुन्नी का परिवार बहुत गरीब था। सरकार की तरफ से बड़ी मुश्किल से उन्हें पांच बीघे का नयातोड़ तो मिला था पर उसके साथ सिमैंट फैक्ट्री लगने के बाद उस ज़मीन पर खतरे के बादल मंडराने लगे थे। इस नएतोड़ की ज़मीन भी फैक्ट्री की हदों में गिनी जाने लगी थी जो सरकार ने कम्पनी को लीज पर दे दी थी। इसके साथ कम्पनी ने कई दूसरे जमींदारों की ज़मीने भी खरीदनी शुरू कर दी थी। पहले सभी ने पुरजोर विरोध किया था लेकिन धीरे-धीरे सब ठंडा होता चला गया। कारण पंचायतों के कुछ प्रधान और बड़े जमींदार थे जिन्होंने चुपके-चुपके कम्पनी वालों से समझौता कर लिया था और अपनी थोड़ी-थोड़ी जमीनों का करोड़ों रूपए वसूला था। कम्पनी के लिए यह पैसा देना इसलिए नहीं दुखा कि इसी बहाने वे पंचायतों में बसे गांव-गांव तक पहुंचने शुरू हो गए थे। जिन किसानों के पास थोड़ी ज़मीन थी और रोजी-रोटी के कोई बड़े साधन नहीं थे, उनके लिए कम्पनी का विरोध करना सूरज के सामने दिया जलाना था। इसलिए मजबूरन उन्हें भी अपनी ज़मीने देनी पड़ी थी। इन में कुछ ऐसे भी सिरफिरे थे जिन्होंने अपने बाप-दादाओं की जमीनें बेच दी थी। ये बिचौलिए किस्म के लोग थे। पहले-पहल मेहनत-मजदूरी किया करते थे। लेकिन जमीन बेचकर पैसे मिलने का ऐसा चस्का पड़ा कि अपने पास सिर ढकने तक जगह न बची। ऐसा नहीं था कि उन्हें पैसा अच्छा नहीं मिला था। पर वे कम्पनी और बड़े जमीदारों के मायाजाल में फंसते चले गए और किसी को कानोकान भनक तक न लगी थी। उनकी जमीनों और घासणियों को बिकवाने का काम बिचौलियों ने ही किया था। उन लोगों ने अपनी जमीनों के तो अच्छे पैसे वसूले ही थे पर साथ जिन्हें जमीन बिकवाने के लिए राजी किया था उसके एवज में भी कम्पनी से लाखों की कमीशन खा गए थे।

जो लोग समझदार थे उन्होंने कम्पनी से मिले पैसों से अच्छे मकान बना लिए और दूसरी जगहों पर जमीने भी खरीद ली थी। परन्तु कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हें बैठ कर पैसा बरबाद करने की आदत पड़ गई थी। वे या तो जुए में पैसे गंवा देते या दिन-रात शराब पीकर मस्त रहते। बसों में बैठते तो पैसों की ठीस मार कर दूसरे यात्रियों को परेशान करतें। दूकानों में हुड़दंग मचाते। घरों में बच्चों-बीबियों को मारते-पीटते रहते। काम कुछ नहीं करते थे। सारा-सारा दिन किसी घर के लैंटर या किसी दूकान के बरामदे में बैठ कर दारू भी छकते रहते और ताश की चौकड़ियां भी लगी रहती। यानी देखते ही देखते फैक्ट्री के साथ लगी पंचायतों के गांव का माहौल ही बदल गया था। कुछ गिने चुने लोग जो जमीन से मिले पैसे से तरक्की करना चाहते थे वे भी कुछ दिनों में नंगे हो गए थे। उन्हें कम्पनी के अफसरों ने कई तरह के लालच में फंसा दिया था। कम्पनी की तरफ से अच्छा-खासा कर्ज देकर उनसे ट्रक खरीदवाए थे। व्यापार का ज्यादा अनुभव न होने की वजह से वे बेचारे कर्जे की किश्तें भी पूरी नहीं लौटा पाए। जो ट्रक उन्होंने लिए थे वे भी एक ऐसी कम्पनी से लिए गए जिनमें पुराने और सैकिण्ड हैंड पूर्जे थे। इसलिए वे दो-चार चक्कर लगाकर हर कहीं खड़े हो जाते। फिर उनकी मुरम्मत भी कम्पनी के द्वारा बताई वर्कशोपों पर होती रहती। दूसरे उनमें रखे ड्राइवर और कण्डक्टर ही ज्यादा पैसा खा जाते और मालिकों को हमेशा घाटा ही बताते। इस तरह कईयों के तो दीवाले निकल गए थे। लेकिन कम्पनी का काम दिनोदिन बढ़ रहा था।

कम्पनी के पीछे सरकार थी। उनके मन्त्री थे। बड़े अफसर थे। इसलिए जब कभी कहीं भी विरोध के स्वर उठते तो वे बिना सुनाई के दब जाते। इलाके के थाने उनके थे। प्रधान, सैक्ट्री उनके थे। इन्सपैक्टर उनके थे। पटवारी-तहसीलदार उनके थे। यहां तक कि इलाके का विधायक भी कम्पनी का होकर रह गया था।

जिन किसानों ने ज़मीनें नहीं दी थी उनकी मुसीबत भी कम नहीं थी। सिमैंट के लिए जिस पहाड़ी से पत्थर जाता वहां दिन-रात ब्लास्ट होते रहते। उनसे कई मकानों में दरारें आ गई थीं। कुछ मकान तो गिर ही गए थे। मुआवज़े के नाम पर किसानों को आधी रकम भी नहीं मिल पाती थी। कईयों के तो चक्कर लगते रहते और उतने में मकान गिर जाता था। लोग रात को सो नहीं सकते थे। दिन को खेतों में काम नहीं होता था। कभी दिन को भी बलास्ट होते तो खेतों को बाहते-बाहते बैल खोलने पड़ते थे। औरतों को घास काटते-काटते खाली लौटना पड़ता था। आसपास के स्कूलों में बच्चों का पढ़ना दूभर हो गया था।

सरकार यह दावा भी करती नहीं थकती थी कि उस सिमैंट फैक्ट्री में अधिकतर कामगर स्थानीय ही है लेकिन सच्चाई यह थी कि किसी भी बड़े काम में वहां का कोई व्यक्ति नहीं था। जो कुछ गिनेचुने थे वे पत्थरों की खानों में मजदूर का काम करते थे।



उधर कम्पनी ने अपनी एक अलग तरह की छवि बना ली थी। साथ की पंचायतों में वे खूब दान करते। कई परिवारों की बेटियों के ब्याह तक के खर्च स्वयं वहन करते। स्कूल के भवनों को बनवाते। जगह-जगह पानी के नल और हैंडपम्प लगवा देते। मन्दिरों की मुरम्मत करवाते। सराय बनवाते। देवताओं की जातरा और मेले करवाते। यानी ऐसे तमाम कार्य जिनसे उनकी छवि धर्मात्मा, समाजसुधारक की बनी रहे, वे निरन्तर करते रहते। यहां तक कि शहरों में बड़े-बड़े सांस्कृतिक आयोजनों को वे ही पैसा देते। उन्हें स्पांसर करवाते। पर्यावरण दिवस पर तो वे ज्यादा ही सक्रिय रहते। करोड़ों रूपए खर्च कर देते। क्योंकि वे जानते थे कि फैक्ट्री लगाने से पहले पूरे प्रदेश में पर्यावरण प्रदूषित होने के डर से उनका विरोध होता रहा था। इसी मुद्दे के चलते उन्हें कई सालों तक स्वीकृति नहीं मिली थी। लेकिन जेसे-कैसे उन्होंने उसे हासिल कर लिया था। इसलिए इस दिवस को वे विशेषतौर पर मनाते। इस दिन सारे कायक्रमों पर खर्च कम्पनी ही करती। वे हजारों सफेद-हरी टोपियां और टी-शर्टस बनवाती और लागों के साथ सभी बच्चों को भी बांट देती।

भीतर की बात यह थी कि जिस इलाके में फैक्ट्री लगी थी उसके आसपास धूल-मिट्टी से लोगों का जीना दूभर हो गया था। खेतों में फसलें पहले जैसी नहीं उगती। घर आंगन धूल से सने रहते। दिन को तो फैक्ट्री की चिमनियां खामोश रहती पर आधी रात के बाद वे धुआं उगलना शुरू कर देती और चार बजे सुबह तक आसमान धुएं के बादल से घिर जाता। लोगों की समझ में यही आता कि आसमान में बादल छाए हैं। जिसे पता भी होता वह कर भी क्या लेता।

फैक्ट्री के साथ नीचे एक पहाड़ी नदी बहती थी। जिसमें बारह महीने पानी रहता था। उससे कई पंचायतों के घरों को पानी जाता था। कई सौ बीघे जमीनें सींची जाती थीं। अधिकतर क्यार उसी के किनारे थे। जिनमें लोग धान और हरी सब्जियां उगाया करते। लेकिन देखते ही देखते वह नदी ही गायब हो गई थी। लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए कम्पनी की तरफ से कई विशेषज्ञ बुलाए गए लेकिन उन्होंने प्राकृतिक रूप से नदी सूखने के ही तर्क दिए। लोगों के पास विश्वास करने के सिवा चारा भी क्या था लेकिन सच्चाई यह थी कि लगातार ब्लास्टों से नदी के स्त्रोत ही नीचे धंस गए थे। फिर जो लम्बी सुरंग कम्पनी फैक्ट्री तक पत्थरों की सप्लाई के लिए खोद रही थी उस नदी का बहाव उन्होंने भीतर ही भीतर उसकी तरफ मोड़ लिया था। हालांकि उसमें पहले जैसा पानी नहीं रहा था लेकिन गुजारे लायक तो था ही।


कम्पनी ने जहां फैक्ट्री लगाई थी उससे पत्थर की खानें बहुत दूर थी। इसलिए वहां तक पत्थर-मिट्टी पहुंचाने के लिए एक लम्बी सुरंग बनाना जरूरी था।

सुरंग की खुदाई का जब काम शुरू हुआ तो कम्पनी के नाक में दम भर गया। उनके मजदूर जितना मलवा खोदते उससे दुगुना हर सुबह वहां पड़ा मिलता। सुरंग के निर्माण में कोई भी स्थानीय मजदूर नहीं था। एक दिन मलबे के नीचे कई मजदूर दब कर मर गए थे परकिसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। कम्पनी के अफसरों ने उनकी लाशों को भी इतनी सफाई से ठिकाने लगाया कि किसी को कोई अतापता नहीं लगा। इसलिए सुरंग का काम सुचारू रूप से चले उनके एक ज्योतिष ने काम का दोबारा शुभारम्भ पांच जीव बलियों से करने का उपाय सुझाया था। इस महा बलि-अनुष्ठान में एक बच्चा, एक बकरा, एक मूर्गा, एक भैंसा और एक मोर चाहिए था। हालांकि यह बात खुले तौर पर किसी को भी पता नहीं थी लेकिन उन्हीं में से एक मजदूर ने कहीं शराब पीकर यह उगल दिया था। बच्चा लाना बहुत कठिन था। इसलिए कम्पनी वालों को यह बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई थी। वे उसके लिए कोई भी कीमत दे सकते थे। यह बात उन्होंने अपने विश्वासपात्र पंडित मणि राम को बताई थी और साथ लाखों रूपए देने का भी लालच दे दिया।

कम्पनी जब भी कोई धार्मिक आयोजन या पूजा-पाठ करती तो पंडित मणि राम को ही बुलाया करती थी। उसे पैसा भी अच्छा-खासा मिल जाया करता। वह उनका बेहद विश्वसनीय आदमी बन गया था। देखते ही देखते उसका दो मंजिला पक्का मकान बन गया था। उसके बड़े बेटे के पास दो छोटी गाड़ियां और एक ट्रक भी आ गया था। जिस घर में कभी रोटी के लाले पड़े रहते वह रात-रात में इतनी तरक्की कर जाए, इसका तो भगवान ही मालिक। उसके कम्पनी के अफसरों से सम्बन्धों की खूब चर्चा रहती।

पंडित कई दिनों तक इसी पशोपश में रहा कि क्या किया जाए ? उसकी भाभी विधवा थी जिसका छोटा बेटा अभी चार साल का हुआ था। उसने एक योजना बनाई। पहले पहल गांव-पंचायत में यह अफवाह फैला दी कि बच्चे उठाने वाला तेंदुआ गांव में घुस आया है। बात फैली तो मीडिया तक पहुंच गई। कई लोग जो रात को शराब पीकर चलते उन्हें अगर कोई गीदड़ भी दिख जाता तो यह कह कर हल्ला मचा देते कि उन्होंने तेंदुए को देखा है। इसी की आड़ में एक दिन कम्पनी के लोगों की मिलीभगत से उसने आंगन से अपनी विधवा भाभी का बच्चा उठवा दिया और शोर मचाया कि उसके हाथ से तेंदुआ बच्चा झपट कर ले गया है। इसका हल्ला पूरे गांव-परगने यहां तक कि पूरे प्रदेश में फैल गया था। एक सप्ताह तक अखबार वाले समाचार देते रहे और तरह-तरह की कहानियां घड़ते चले गए। फिर एक दिन उसी कम्पनी ने विधायक की मौजूदगी में उस विधवा को सांत्वना दी और एक लाख रूपए की मदद भी दे गए। अब किसे शक होता कि आखिर बच्चा कैसे गुम हुआ। उसी रात उस ज्योतिष ने सुरंग के मुहाने पर बड़ी पूजा का आयोजन किया था जहां उस मासूम को दूसरे जीवों के साथ बलि चढ़ा दिया गया था। यह बात भी एक गोरखे मजदूर के मुंह से किसी ने सुनी थी और दबी जुबान से घर-घर चली गई थी।


जब पंडित के परिवार का वह बच्चा तेंदुए के नाम से उठाया गया उसके तकरीबन एक सप्ताह पूर्व कम्पनी के अफसार चुन्नी को बहला-फुसला कर ले गए थे। उनकी नजर उस पर कई दिनों से थी क्योंकि वह अकेला ही सारा-सारा दिन पशुओं के पास रहता था। यह काम कम्पनी वालों ने चुन्नी के गांव के एक विश्वासपात्र बिचौलिए को सौंपा था ताकि उसे किसी अनहोनी की भनक तक न लगे। चुन्नी को उसने दिलासा दिया गया था कि उसे पूजा में बैठना है जिसके लिए उसे खूब रूपए दिए जाएंगे। उसे यह भी समझाया गया कि वह इस बात को किसी को न बताएं। चुन्नी को बड़ी मुश्किल से मनाया गया था। वह सुबह जैसे ही पशुओं के पास गया वह आदमी उसे अपने साथ ले गया। उसे नए कपड़े दिए गए। नहलाया-धुलाया गया और एक ऐसी जगह रखा गया जो निपट अंधेरी थी। चुन्नी वहां अकेला नहीं था। उस जगह एक मोर, एक मूर्गा, एक बिल्ली भी बांध कर रखी गई थी। चुन्नी उनको देख कर हैरान सा रह गया। उसे देख कर वे आजादी के लिए छटपटाने लगे थे। उसे वहां अब कुछ अजीब सा लगने लगा था। उसने वहां रखी नंगी तलवारें भी देखीं जिनमें खून के निशान पहले से मौजूद थे। उनमें सिंदूर और मौली बन्धी थी। चुन्नी अब घबरा गया था। वह भागना चाहता था और साथ उन जानवरों और पक्षियों को भी आजाद करवाना चाहता था।

देर रात जब उसे लेने लोग आए तो वहां न चुन्नी था और न दूसरे जानवर। कम्पनी के अफसरों में हड़कम्प मच गया था। उन्होंने बहुत पीछा किया लेकिन जंगली रास्तों का वह अच्छा-खासा वाकिफ था जिससे वह बच गया। दूर आकर उसने वह रात एक अन्धेरी गुफा में काटी थी। उसका गांव वहां से दूर था इसलिए दूसरे दिन शाम तक भी वह गांव नहीं लौटा था। दूसरे उसे कम्पनी के लोगों का भय भी था कि वे उसे पकड़ कर दोबारा न ले जाएं।

चुन्नी के गायब होने की खबर चारों तरफ आग की तरह फैल गई थी। देर रात जब न चुन्नी घर लौटा और न किसी के पशु गांव लौटे तो उसके घर वालों ने गांव वालों के साथ मिलकर उसकी तलाश शुरू कर दी थी। वह जिस जंगल में पशुओं के साथ दिनभर गुजारता जब वे वहां गए तो देख कर दंग रह गए कि सारे पशु एक जगह जमा है। उनके साथ भेड़-बकरियां भी हैं और दो-चार कुत्ते भी। पर चुन्नी का कहीं अता-पता नहीं है। जैसे-कैसे लोगों ने पशुओं को गांव तक पहुंचाया और दूर-दूर तक जंगलों में चुन्नी को रात भर तलाशते रहे परन्तु उसकी कहीं सार-खबर नहीं मिली। कई तरह की शंकाएं लोगों और उसके घर वालों को खाए जा रही थी।

चुन्नी घर में कुछ न बताए इसलिए कम्पनी के एक अफसर के साथ दो-तीन दूसरे कर्मचारी भोर होने से पहले ही गांव में आकर पहुंच गए थे। वे लगातार उसके घरवालों को सांत्वना देते रहे। उन्होंने जंगल और गांव के आसपास अपने कई लोग तैनात कर दिए थे कि चुन्नी सबसे पहले उनकी पकड़ में आए ताकि उसके ढूंढने का श्रेय उन्हें ही मिले। उन्हें यह भी विश्वास था कि चुन्नी अगर कोई ऐसी-वैसी बात बताएगा तो लोग उस सिरफिरे का आसानी से यकीन नहीं करेंगे। फिर जिस तरह की हमदर्दी वे जता रहे थे उससे तो उन पर कतई शक नहीं हो सकता। वह जैसे ही जंगल के बीहड़ों से सुबह निकला कम्पनी के लोगों के साथ गांव के लोगों ने उस पकड़ लिया। वह सहमा हुआ तो था ही। लेकिन गांव के अपनों को देख कर उसकी हिम्मत लौट आई थी। सबसे पहले कम्पनी के अफसरों ने ही उससे पूछ-ताछ शुरू की थी कि वह अपने गुम होने का रहस्य बताए। लेकिन उनके चेहरे तो उसने पहले ही देखे हुए थे इसलिए मारे डर के वह चुपचाप रहा। यहां तक कि अपने पिता व दादू के पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया।

इसके बाद चुन्नी के व्यवहार में कई तरह के बदलाव हो गए थे। वह घर में सहमा-सहमा रहता। उसकी आंखों को कोई पढ़ता तो जान पाता कि उनमें कितना भय भरा पड़ा है। अब वह गांव के बच्चों को कहीं भी पकड़ लेता और बताता कि वे कम्पनी के लोगों से बच कर रहें। इतना ही नहीं वह धीरे-धीरे किसी भी गांव के आदमी को रोक लेता और कहता कि वे अपने बच्चों, मुर्गों और बिल्ली को बचा कर रखें नहीं तो उन्हें कम्पनी के लोग पकड़ कर ले जाएंगे। कभी वह कहने लगता कि उस पार जंगल में जो मोर कूहकता है उसकी जान खतरे में है। इस तरह की बातों का लोग मजाक ही उड़ाते और हंस कर टाल दिया करते।


चुन्नी के पिता के साथ जो घट रहा था वह आश्चर्यजनक था। उनकी सारी फसल तवाह हो गई थी। उनका नयातोड़ कम्पनी की खानों के नीचे था। इसलिए अधिकांश मलबा उसी में फैंका जा रहा था। चुन्नी के बापू ने न जाने किस-किस के दरवाजे खटकाए होंगे परन्तु किसी ने कोई मदद नहीं की। अब उसने कोर्ट जाने की सोची थी। एक दिन पटवारी के पास अपने नएतोड़ के कागजात लेने गया तो यह सुनकर हक्काबक्का रह गया कि वह नयातोड़ उसके नाम है ही नहीं। वह तो सरकारी ज़मीन है। उसने आज तक अवैध रूप से कब्जा किया हुआ है। चुन्नी के बापू के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वह गिड़गिडाया, बहुत अर्ज-विनती की कि वह नयातोड़ उसी का है, पर पटवारी ने एक नहीं सुनी। वह तहसीलदार के पास शिकायत लेकर भी गया वहां से भी टका सा जवाब वही मिला। विधायक के पास भी गया पर कोरे आश्वासनों के कुछ नहीं मिला।

सच्चाई यह थी कि कम्पनी के लिए वह जमीन यानी नयातोड़ सोने की खान था। कम्पनी के अफसरों ने पटवारी के साथ मिलीभगत से इसे लीज वाली जगह के साथ ही शामिल करवा लिया था। पटवारी ने सारे कागज बदल दिए थे। इस काम के लिए पटवारी, तहसीलदार, गांव के प्रधान व विधायक तक को अच्छी खासी रकम दी गई थी।

चुन्नी के परिवार वालों के लिए यह बात मरने जैसी थी। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि वे क्या करें। ऊपर से चुन्नी का झमेला था। उसके गुम होने का रहस्य बरकरार था। ऊपर से उसकी बातें समझ से परे हो रही थी। उसकी फिक्र भी लगी रहती। उसने अब अपना कोट भी गवां दिया था। कल कुछ और कर लेगा। क्या भरोसा। एक दिन चुन्नी ने बकरा ही गुम कर दिया था। उस दिन उसे खूब मार भी पड़ी। दिन भर वह पशुओं और भेड़-बकरियों के साथ चरता रहा लेकिन दिन ढलते ही ऐसे गायब हुआ कि कहीं अता-पता ही नहीं चला। उसने खुद भी देर रात तक बकरे को ढूंढा था। फिर थक-हार कर घर आकर बता दिया। उसके बापू ने गांव के एक-दो साथियों के साथ आधी रात तक उसे तलाश किया पर वह कहीं नहीं मिला। फिर यह सोच कर घर चले आए कि हो न हो बाघ खा गया हो। दूसरे दिन किसी ने बताया कि उसे कम्पनी के दो लोग घसीटकर गाड़ी में ले गए। उन्होंने जरूर उसे रात को ही काट कर खा लिया होगा।

इतना ही नहीं दूसरी जगहों से भी मेमने और यहां तक कि घर के आंगन से मुर्गे तक गुम होने लगे थे। पर यह पता आज तक नहीं लग सका कि वे जाते कहां थे। शक कम्पनी के लागों पर होता था परन्तु उनके खिलाफ कोई जुबान तक नहीं खोल सकता था।


चुन्नी जिस जंगल में पशु चुगाता वह बड़ा जंगल था। उसमें चीड़ का घना वन था। लगभग एक हजार पेड़ होंगे। उसे सरकार ने संरक्षित वनक्षेत्र घोषित किया हुआ था। उसमें कोई भी व्यक्ति किसी तरह के हथियार मसलन दराट-कुल्हाड़ी नहीं ले जा सकता था पर पशु चुगाने पर पावन्दी नहीं थी। लेकिन कम्पनी के लिए वह वन कागजों में सामान्य दर्शाकर उसे भी लीज पर दे दिया गया था। लोगों ने बहुत विरोध किया। मीडिया ने इस मुद्दे को खूब उछाला पर परिणाम वही ढाक के तीन पात। उस जंगल के भीतर चूने का पत्थर मौजूद ाथा जिसकी कम्पनी को सख्त जरूरत थी। अब धीरे-धीरे चीड़ के पेड़ कटने लगे थे।


सात सौ पेड़ों के कटने का समाचार जब गांव वालों ने सुना तो हक्के-बक्के रह गए। यह जंगल उनके लिए महज जंगल नहीं था एक बजुर्ग के साए की तरह था। वहां लोगों के दिन भर पशु चरते। भेड़-बकरियां पलती। औरतें घास-पत्ती उसी में करती। दोपहरिया चीड़ों के पेड़ों के नीचे गुजरती। तरह-तरह के जानवर और पक्षी उसमें बास करते। मोरों की कूहकें दूर-दूर तक सुनाई देतीं यानी वह चीड़ों का जंगल आदमियों के साथ जानवरों और पक्षियों का घर भी था। रोजी-रोटी थी। बसेरा था। चुन्नी के लिए तो वह स्वर्ग के बराबर था।

चुन्नी जंगल कटने से बेहद परेशान था। वह कई दिनों से देख रहा था कि कम्पनी के लोगों के साथ उसके इलाके का पटवारी और गार्ड एक-एक चीड़े के पेड़ के पास जा-जा कर उनके तने छीलते और काली स्याही से उस पर नम्बर लिख दिया करते। ऐसा जब उसने पहली बार देखा था तो एक आदमी से पूछ लिया था,

''भाई तुम इन पेड़ों को काट छील कर इन पर क्या लिखते हो।''

उसने बजाए इस बात का उत्तर देने के उल्टा उसे ही डांट दिया था,

''ओए छोरे! तू इन डंगरों को लेकर अब यहां मत आया कर। ये जंगल अब कम्पनी का हो गया है। सारा कट जाएगा।''

वह इतना कह कर कुल्हाड़ी से फिर दूसरे पेड़ का तना छिल देता और दूसरा आदमी झटपट उस पर फिर एक नम्बर लिख देता। चुन्नी को यह सब पसंद नहीं था। कम्पनी के लोग पहले दिन जितने पेड़ों के तने छिल कर नम्बर लगाते दूसरे दिन वे नम्बर मिटे होते। चुन्नी का एक काम और बढ़ गया था। पांच बजे जब कामगर छुट्टी करते तो चुन्नी का काम शुरू हो जाता। वह हर पेड़ के पास जाता। उनके तने से कटा छिलका उठाता और नम्बर पर चिपका देता। दूसरे दिन वह इतना चिपक जाता कि कई बार तो पता ही नहीं चलता कि कहीं किसी पेड़ में कोई नम्बर भी लगा था। लेकिन एक दिन जब चुन्नी की इस हरकत का कम्पनी वालों को पता चला तो उसकी शिकायत उसके मां-बाप से करके अब उस जंगल में उसका आना-जाना पशुओं समेत बन्द कर दिया गया था।

चुन्नी को उन चीड़ के पेड़ों से बेहद प्यार था। वह दिन भर उनकी छांव में बैठा रहता। कभी किसी पेड़ की टहनी पर चड़ जाता और वहीं से पशुओं और भेड़-बकरियों की जुगाली करता रहता। कभी किसी पक्षी ने छाड़ियों में कोई घोसला बनाया होता तो छुप कर घोसले में बड़े होते बच्चों को देखा करता। उनकी मां उन्हें दूर-दूर से अपनी चोंच में कभी कुछ लाती तो कभी कुछ। बच्चे मां के आने की आहट भर से चौकस हो जाते और चहचाने लगते। घोसलों से कई चोंचे एक साथ बाहर निकलती जिन में चिड़िया मां बारी-बारी कुछ डालती रहती। फिर उन बच्चों को अपनी पंखों में छुपा लेती और सोई रहती। चुन्नी दबे पांव चलता ताकि चीड़ के पत्तों की सरसराहट से आवाज न आए और चिड़िया के बच्चों की नींद न टूटे।

इतना ही नहीं उसने जंगल में कई जगह जानवरों के थावं देखे थे। एक जगह तो एक हिरनी ने कई बच्चे जाए थे। वह एक छोटी सी गुफा थी। चुन्नी उस गुफा के पास भी एक बार जाया करता। कई बार वे बच्चे अकेले होते। चुन्नी के पांव की आहट सुनकर वे चौंकते। चिंचियाते। चुन्नी कुछ बड़बड़ा देता। फिर वे चुप हो जाते। कहीं से हिरनी आती और उस गुफा में चली जाती। उन्हें दूध पिलाती। हैरानी की बात थी कि चुन्नी की उपस्थिति हिरनी को नहीं खलती। यहां तक कि चुन्नी के साथ जो कुत्ते होते वे भी कभी किसी जानवर पर वार नहीं करते।

चुन्नी ने सुन रखा था कि जैसे ही पेड़ों की निशानदेही पूरी हो जाएगी इनका कटना शुरू हो जाएगा। वह इस बावत भी सब से बात करता रहता। कभी किसी से गुहार लगाता तो कभी किसी से। उसका पिता उसे समझाता,

''चुन्नी क्यों तू इन फिजूल की बातों में जाता है। देख चुन्नी! मत इन कम्पनी के लोगों से पंगा लिया कर। ये खतरनाक लोग होते हैं। कुछ भी कर सकते हैं। हम तो गरीब हैं। क्या कर लेंगे। अपना काम कर।''

चुन्नी चुपचाप सुनता, पर पिता की बात एक कान से सुनता और दूसरे से निकाल देता। दूर घाटी में जहां वह पशु चुगाया करता वहां से भी घर लौटते या सुबह जाते वह जंगल में घुस जाता और दस-बीस पेड़ों के छिलके वापिस कटी हुई जगहों पर चिपका देता। कम्पनी के लोगों को फिर से दोबारा मेहनत करनी पड़ती। वे खूब चिढ़ते। चुन्नी ने देखा था कि अब पंछियों ने वहां घोसले बनाने भी बन्द कर दिए थे। कोई जानवर भी कम्पनी के आदमियों के डर से उस जंगल में नहीं जाता था। उसने झाड़ियों के नीचे कई घोसले बिखरे-टूटे हुए देखे थे। कई जगहों पर तो पक्षियों के छोटे-छोटे अंगे भी टूटे पड़े थे। इतना ही नहीं चिड़ियाओं के छोटे-छोटे बच्चे भी पेड़ों के नीचे मरे हुए चुन्न्ी ने देखे थे। वह इन सभी को देख कर परेशान हो गया था। उसे न भूख लगती न प्यास। पशुओं के पास दिनभर वह उस जंगल को ही निहारता रहता। किसी ऊंचे टीले पर बैठ कर ये सब देखता रहता। उस जंगल के जानवर भी अब नंगी घाटियों में थांव ढूंढते रहते। पक्षियों को भी कहीं घोसला बनाने तक की जगह नहीं रही थी। कुछ बेचारे तो पत्थर की खानों में कम्पनी द्वारा किए बए ब्लास्टों से ऐसे ही मर जाया करते।


चुन्नी आज जब दिन भर पशु चुगा कर लौटा तो उसके पास दादा का पुराना कोट नहीं था। पहले दिन उसने झूठ बोला था कि वह जंगल में ही भूल आया है। लेकिन दूसरे दिन भी जब कोट उसके पास नहीं था तो बारी-बारी घर के सब लोगों ने इस बावत उसकी अच्छी-खासी तफ़तीश की थी पर चुन्नी ने अपनी जुबान तक नहीं खोली। चुन्नी के पिता ने उस कोट को चार बरस पहले गांव में आए एक किन्नौरे दर्जी से सिलवाया था। अपनी भेड़ की ऊन थी। कितनी मेहनत से सर्दियों के दिनों में उस कोट की पट्टी ऊन कात-कात कर बनी थी। और उसके बाद एक साल तक वह जुलाहे के पास अनबुना पड़ा रहा। चार साल तक चुन्नी के दादा उसे लगातार पहनते रहे थे। मैला होने पर पिछले साल चुन्नी की मां ने रीठे और राख से उसे धो कर साफ तो कर लिया लेकिन उसकी थोड़ी लम्बाई घट गई थी। चुन्नी कभी-कभार इस कोट को पहन कर जंगल जाया करता था।

चुन्नी से उसका परिवार ज्यादा सख्ती भी नहीं करता था। वह उनका इकलौता बेटा था। इसलिए ज्यादा डांट-डपट नहीं हुई थी। पर पूछ रोज होती रहती। चुन्नी कभी चुप रहता और कभी बात टाल कर आंगन में चला जाता। इसी सप्ताह गांव के बुधराम का कोट गुम हो गया। फिर उससे अगले सप्ताह माठू चाचा का। फिर तेलीराम लुहार भी कहीं अपना कोट गंवा बैठा। हद उस दिन हुई जब आंगन की रस्सी में सुखाने डाला पूजारी मनीराम का कोट जाता रहा। कोटों का इस तरह गुम होना गांव में अब एक रहस्य बन गया था। लोग चुपके-चुपके दूर-दूर तक कोटों की तलाश करते पर कहीं भनक नहीं लगती। कुछेक ने तो कम्पनी के मजदूरों के बीच भी गोपनीय तरीके से तलाश की पर वहां भी अतापता न लगा। गांव वालों की समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि कोटों के सिवा उनकी कोई दूसरी चीज कभी नहीं गुम हुई।

एक दिन चुन्नी ने तड़के ही अपने पशु खोल दिए थे। साथ ही गांव वालों के भी। अब गांव के सारे पशुओं का जिम्मा चुन्नी का होता। गांव की चाची-ताईयां जहां उसे अपने किशन-कन्हैया से पुकारती वहां लड़कियां गोपियां बन कर उसकी लाडली हो गई थी। यह इसलिए भी था कि गांव की औरतों और लड़कियों का ज्यादातर समय पशुओं को चुगाने में ही जाया होता था। इसके लिए उन्हें चुन्नी के रूप में एक बढ़िया ग्वालू मिल गया था। इसकी भनक मीडिया को भी लग गई थी कि एक गंवई लड़का पूरे गांव के पशुओं को एक साथ चुगाता रहता है और उसका जानवरों और पक्षियों से बहुत प्यार है। कुछ अखबारों ने तो उसके बड़े-बड़े लेख भी छापे थे। एक स्थानीय चैनल ने उसे पशुओं को चराते बढ़चढ़ कर दिखाया था।

चुन्नी स्वयं सभी की गोशालाओं में जाता और पशुओं को ले जाता। उस दिन उसने सारे पशु सड़क में एक जगह खड़े कर दिए थे। साथ दर्जनों भेड़-बकरियां थीं। गांव के कुत्ते थे। दिन कोई खास नहीं था पर चुन्नी को पता चल गया था कि कम्पनी के कई ट्रक आज आएंगे और जंगल का कटान शुरू हो जाएगा। इसलिए चुन्नी सुबह से ही वहां डट गया। लोगों को इस बात की भनक तब लगी जब गांव की साढ़े सात बजे वाली बस सड़क पर रूक गई। ड्राईवर को चुन्नी के बारे कुछ भी मालूम नहीं था। इसलिए वह सुबह ही उससे भिड़ गया। बात हाथापाई तक पहुंची लेकिन चुन्नी के साथ कुत्तों को देख कर वह चुपचाप बस में बैठ गया। इस घटना को देख कर गांव के लोग भी वहां पहुंच गए थे। चुन्नी के पिता ने उसे डांटा लेकिन उस पर कुछ असर नहीं हुआ। लोगों ने अपने-अपने पशुओं को गोट कर वापिस घर लाना चाहा पर उन्होंने भी किसी की बात नहीं सुन्नी और धीरे-धीरे सड़क पर आगे सरकते रहे। फिर हाथ जोड़ कर चुन्नी की मां ने पूछा था,

''चुन्नी! मेरे बच्चुआ! ये सब क्या है ? क्यों तैने सड़क को रोक दिया है। देख बचुआ इन डंगरों को ऊपर घाटी में चुगाने ले जा। मत रोक रास्ता। देख! नहीं तो ये लोग पुलिस ल्याएंगे। कम्पनी के लोग आएंगे।...''

पहली बार चुन्नी ने खामोशी तोड़ी थी। वह जोर से चीखा था,

''अम्मा! मैं नी ले जाता डंगरों को यहां से। तू नी जानती ये कम्पनी के लोग आज मेरे जंगल को काट देंगे। देख-देख कितने ट्रक वहां पार से आ रहे हैं।''

लोगों की नजर जब उधर गई तो हैरान-परेशान रह गए। खुले ट्रकों में मजदूर खड़े थे। सभी के हाथों में आधुनिक किस्म की कुल्हाड़ियां थीं। आरे थे। आज जंगल कटना था। लोगों को चुन्नी का विरोध समझ आ गया लेकिन उन्हें पता था कि डंगर-पशु, भेड़-बकरियां और कुत्ते इन आधुनिक औजारों का विरोध नहीं कर पाएंगे। हालांकि पूरा गांव वहां था। एक बड़ा जन-समूह। परन्तु उस वक्त वह जन-समूह चुन्नी और उसके पशुओं के सामने निहत्था असहाय लग रहा था। तभी उन ट्रकों के पीछे कई नीली-पीली गाड़ियां आती दिखाई दीं। उनके रूकते ही बंदूकों और लाठियों से लैस पुलिस उतरी। उन्होंने पहले लोगों को चेताया। उसके बाद लाठियां बरसीं। फिर जैसे ही बदूंके उन पर तनी, वे बदहवास से भाग खड़े हुए। यहां तक की उनके साथ भीड़ में चुन्नी का बापू और दादा भी भाग लिए। कई पल बंदूकों के चलने की आवाजें उनका पीछा करती रहीं। सामने चुन्नी था। उसके पशु थे। कुत्ते थे।.....और रोती-बिलखती चुन्नी की अम्मा थी। उन पर कोई असर न देख कर पुलिस वालों और कम्पनी के लोगों का कहर उन पर फिर टूटा। लाठियों से उन्हें मारते-पीटते रहे। पर वे आगे बढ़ते चले गए। चुन्नी की मां अपने बेटे के लिए परेशान थी। पता नहीं कब उसके सिर पर लाठी लगी और वह वहीं ढेर हो गई। एक लाठी चुन्नी के सिर पर भी लगी थी लेकिन वह उसी तरह अपनी बेजुबान फौज के साथ आगे बढ़ता रहा। कुछ देर बाद वह बेहोश हो कर गिर पड़ा। उसके साथ कई पशु भी लाठियों की मार से घायल हो कर गिर पड़े और कुछ मर गए थे। इसके बावजूद भी उनके लिए पशुओं का सामना करना मुश्किल हो गया था। यह घटना आग की तरह गांव से होती हुई परगने तक फैल गई थी। चुन्नी और उसके पशुओं का यह अनोखा विरोध उन्हें समझ आ गया था। कुछ ही देर में वहां लोगों का सैलाब उमड़ गया।


चुन्नी और उसकी अम्मा को उसी दिन बेहोशी की हालत में अस्पताल पहुंचा दिया गया था। वे दोनों जिन्दगी और मौत की जंग लड़ रहे थे। सड़क में मरे हुए गाए और बैलों को देख कर लोग भड़क उठे थे। मामला अब गो-हत्या का हो गया था जिसे न तो कम्पनी वालों के लिए और न अब सरकार के लिए संभालना आसान था। धीरे-धीरे इस मामले ने एक नया मोड़ ले लिया था जिसकी लपेट में अब पूरा प्रदेश आने लगा था।


कोई भी पशु उसके बाद अपने ओबरे(गोशाला) नहीं लौटा। न भेड़-बकरियां और न कुत्ते ही। पशु जंगलों, घासणियों और घाटियों में आज भी रंभाते रहते हैं। भेड़-बकरियां जगह-जगह मिमियाती रहती है और कुत्ते कम्पनी के लोगों को पहचान कर उनके पीछे भौंकते हुए भागने लगते हैं। जंगल की चिड़ियाएं पेड़ों की टहनियों पर उदास-उदास बैठी रहती है। प्यास लगती है तो चुन्नी के लगाए पौ में पानी तलाशती है। पर अब कहीं कुछ नहीं मिलता। बरसों से सजा-बसा हराभरा जंगल सूना-सूना सा लगता है। गीदड़ जंगल में दिन-दिहाड़े बदहवास से हूंकने लगते हैं। उनकी हूंकारे सुन कर भी कोई कुत्ता चूं तक नहीं करता। कौओं के दल पगलाए से गांव के घरों, खेत, खलिहानों की मुंडेरों पर अजीब तरह से कर्राटे रहते हैं मानों कम्पनी के अफसरों को इस कुकृत्य के लिए जी भरा गालियां दे रहे हों।

एक दिन गांव के कुछ लोग उस धार पर अपने पशुओं को ढूंढते हुए निकले जहां चुन्नी उन्हें चुगाया करता था। वहां पहुंचे तो एक पहाड़ी के नीचे का दृश्य देख कर दंग रह गए। वहां झाड़ियों में जगह-जगह लोगों के गुम हुए पुराने कोट लटके थे। तकरीबन हर जेब में एक चिड़िया ने घोसला बनाया था। लोगों की आहट पाकर जेबों से कई चिड़ियाएं बाहर निकलीं थीं और अजीब तरह से चहचाना शुरू कर दिया था। शायद वे सोच रहीं होंगी कि कहीं कम्पनी के लोग उनके घोंसलों को नष्ट करने फिर न आ गए हों। जेबों में से कुछ जवान होते चिड़िया के बच्चों ने अपनी चोंचे बाहर निकाल दी थीं।

-हि0प्र0 पर्यटन विकास निगम, रिट्ज एनैक्सी, शिमला-171001
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Monday, July 21, 2008

नवलेखन 2008 पुरस्कार प्राप्त कहानी- रंगमंच

विमल चंद्र पाण्डेय को इस वर्ष का नवलेखन पुरस्कार मिला है। यह पुरस्कार इन्हें इनके पहले कहानी-संग्रह 'डर' के लिए दिया गया है। इस संग्रह में कुल १२ कहानियाँ हैं, जिसे हम एक-एक करके प्रकाशित करेंगे। आज हम पहली कहानी लेकर आये हैं- 'रंगमंच'


रंगमंच

पाँच बजे ही वह श्रीराम सेंटर पहुंच गया। हालांकि शो साढे़ दस बजे से था, पर उसे चैन नहीं था। आज के दिन का वह बड़ी बेसब्री से पिछले एक हफ़्ते से इंतज़ार कर रहा था। कैसे उसने ये सौ रूपये बचाए थे, यह वही जानता था। पांच बजे आ गया था कि अगर भीड़ ज़्यादा भी हो, तो टिकट आराम से मिल जाए। मलिक भाई को बोल दिया था कि आज नाटक देखने जाना है, जल्दी जा रहा हूँ।
यहाँ पहुँचकर बिलकुल ऐसा लगता है, जैसे सपनों कि दुनिया में आ गया हो। हर तरफ नाटक के पोस्टर और वही लोग, वही माहौल। उधर एन.एस.डी. चले जाओ या इधर श्रीराम सेंटर में आ जाओ। हर तरफ वही लोग दिखायी देते है, जिनसे उसे प्रेरणा मिलती है। हर वक्त नाटकों में डूबे हुये, रंगमंच की बातें करते हुए। यही माहौल वह चाहता था, जो अपने छोटे-से शहर में उसे नहीं मिल पाता था। यही माहौल, जिसक लिये वह अपने घर से इतनी दूर दिल्ली आया था।
हां, वहां भी कभी-कभी नाटक होते थे, जब कोई संस्था कई जगहों की नाटक कंपनियों को आमंत्रित कर, नाटक मंचित कर अपने संस्थापक को या कोई उद्योगपति अपने पिता को श्रद्धांजलि देना चाहता था। उनमें टिकट नहीं लगते थे। वह हर रात देर तक बैठकर सारे मंचन देखा करता था। टिकट न लगने के बावजूद हॉल लगभग खाली ही रहता था। रात को जब घरों में खाना-वाना बनने का समय होता, तो हॉल में लोगों की संख्या थोड़ी बढ़ जाती, जिनमें बच्चे ज़्यादा होते। कारण उसे यही समझ में आता था कि खाना बनाने में जब बच्चे मां को परेशान करते होंगे, तो मां कहती होगी- “जा बेटा चुन्नू, नागरी नाटक मंडली में एक नाटक देखकर आ, तब तक मैं खाना बना लूँगी। यहां रहेगा, तो मुन्नी से झगड़ा करता रहेगा।’’ पत्नियां अपने पतियों को पुचकारती होंगी- “अरे, आप मुझे आराम से खाना बनाने दीजिए न! तब तक जाइए, शर्मा जी को लेकर थोड़ी देर नाटक देख आइए। खाना बनाकर मैं गोलू को भेजकर आपको बुलवा लूंगी।’’ नाटक चलने के दौरान गेट खुला रहता। जिसका जब मन करता, जाता, जब मन करता चला आता। पहली और दूसरी पंक्ति के दर्शकों को छोड़कर, जिनमें ज़्यादातर नाटकों और निर्णायक मंडल से जुड़े लोग होते, कोई लगातार पांच मिनट मुंह बंद करके न बैठता। बीच-बीच में लोग सीटियां भी मार देते, ख़ासतौर पर जब मंच पर कोई सुंदर लड़की आती और तालियां न बजाने वाली जगह पर भी अपने शहर की प्रसिद्ध मस्ती का उदाहरण देते हुए इतनी एकता से इतनी देर तक तालियां बजाते कि अगली दो-तीन लाइनें सुनायी ही न देतीं।
दर्शकों में किशोर लड़कियों के होने की भी संम्भावना होती है। इस संभावना को नजरअंदाज न करते हुये कुछ स्थानीय स्कूलों के किशोर भी संभावनाएं तलाश करने थियेटर में आ जाते। नयी सुंदर शर्टें और टमाटर कट जाने लायक क्रीज लगी पैंटें पहनकर।
कुछ गिनती के ही दर्शक होते, जो नाटक को नाटक की तरह देखते। बाकी सिर्फ वहां टाइम पास करने आते और उजड्डई करते रहते। उसे बहुत गुस्सा आता। ये नाट्य संस्थाएं, जो इतनी दूर से आयी हैं, क्या सोचेंगी हमारे शहर के बारे में ? क्या यह वही शहर है जिसने देश के बड़े-बड़े नाटककरों भारतेंदु और प्रसाद को जन्म दिया है जिनके नाटका के मंचन आज भी देश के हर कोने में होते हैं।
कुछ देर में लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। हर तरफ़ पढ़े-लिखे और सभ्रांत लोगों के झंुड दिखाई देने लगे थे। सुंदर-सुंदर कारों में बैठकर आये आदमी-औरतें और ख़ूबसूरत युवा जिनके सामने संभावनाओं के असीम सागर लहरा रहे थे, सिर्फ़ नाटक देखने के लिये अपना समय निकाल कर आये थे। सबकी ओर देखकर यही लग रहा था कि सभी सिर्फ़ नाटकों और नसीर जी के विषय में बातें कर रहे हैं।
एक सपने के सच होने जैसा है सब कुछ उसके लिये। रंगमंच का बेताज बादशाह, उसका प्रिय अभिनेता आज उसके सामने अभिनय करेगा। यहां वास्तविक कद्र है नाटकों और अभिनेताओं की।
वरना वहां उसके शहर में एक बार दोस्तों ने सिर्फ़ इस बात पर उसका मज़ाक उड़ाया था कि वह अंधे लड़कों द्वारा प्रस्तुत नाटक देखने चला गया था।
“तो क्या तुम लोग सिर्फ़ लड़कियां देखने जाते हो? नाटक अच्छा हो बुरा, अभिनय किस स्तर का है, प्रकाश, मंच, संगीत कैसा है, इससे तुम्हें कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ता ?’’ पूरी बहस के बाद उसे वाकई चैंकाने वाली यह बात पता चली थी।
बदले में सब सिर्फ़ हंसे थे। उसे अपनी संगति पर तरस आया था। स्नातक की परीक्षा ख़त्म होते ही उसने दिल्ली की ओर कूच कर लिया। वहां वैसे भी उसके लिये कुछ ख़ास नहीं बचा था। पिता से उसका अल्प संवाद, जो शुरू से ही औपचारिक रहा था, अब नाटकों में उसके बढ़ते शौक से ख़त्म- सा हो गया था। मां बड़े भाइयों की तनख्वाह, उनकी शादी जैसे गंभीर मसलों से जूझने लगी थी। उसे किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की।
यहां उम्मीदों के जहाज़ पर बैठ कर आया वह उस समय बिल्कुल निराश हो गया जब उसने छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सबको भागते देखा। एक अंधी दौ़ड में, जहां उन्हें ख़ुद ही नहीं पता कि किस कीमत पर क्या पाने के लिये दौड़ रहे हैं। उसने एक गोल परिधि में भागते हुये लोगों को देखा, जो भाग कर हर शाम उसी बिंदु पर आ जाते हैं, जहां से सुबह भागना शुरू किया था। ज़िंदगी का एक दिन निकल जाने का उन्हें अहसास भी नहीं होता और वे अगली बार भागना शुरू कर चुके होते हैं। वह समझ गया कि यहां जगह बनाना उतना आसान नहीं हैं, जितना उसने समझ रखा था।
नाटकों का आनंद उठाने के लिये ज़िदा रहना ज़रूरी था, ज़िदा रहने के लिये कुछ खाना ओर कुछ खाने के लिये कुछ कमाना। उसने एक कूरियर कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। हालांकि बिना बाइक के काम मिलने में दिक्कत हुयी और करने में भी दिक्कत होती थी, पर अंदर एक जूनून उसे हर वक्त सक्रिय रखता था। चाहता, तो दिल्ली में कई रिश्तेदारों ओर दोस्तों से उधार या कुछ मदद ले सकता था पर अपनी अंदरूनी आग और जूनून ने उसे अकेला ही अपने सपनों के घरौंदो की दीवार पर अपने पसीने का प्लास्टर करने में लगाये रखा।
कुछ समय के बाद उसने एक नाट्य संस्था ज्वाइन कर ली जहां शाम को दो-ढाई घंटे रिहर्सल में देने पड़ते थे। निर्देशक ने जो उस नाट्य संस्था का मालिक था, उससे आठ सौ रुपये फ़ीस भी ली जो बाद में उसे व्यर्थ जान पड़ने लगी। तीन नाटकों का अनुभव बताने पर भी निर्देशक ने उसे बैकस्टेज के काम में लगाया था और इतने दिन बीत जाने पर भी वह अब तक वही कर रहा था। लेकिन पात्रों के संवाद बोलने के ढंग से ही उसे संस्था का पूरा स्तर समझ में आ गया था। सदस्य कई राज्यों और ज़िले से थे। उनकी संवाद बोलने की अदा इतनी क़ातिल थी कि वह आंख बंद करके उनके राज्यों के नाम और उनकी मातृभाषा बता सकता था। धीरे-धीरे उसने वहां जाना छोड़़ दिया और किसी योग्य निर्देशक और नाट्य संस्था की खोज करने लगा।
अब दिन भर वह अपना काम करता और शाम को ऑफ़िस में रिर्पोटिंग कर सीधा मंडी हाउस की बस पकड़ता। एन.एस.डी. और श्रीराम सेंटर में लगे बुलेटिनों से संस्थाओं के पते और निर्देशकों का फोन नम्बर नोट करता। फिर प्लान करता कि काम का बोझ थोड़ा कम होने और पैसों की आवक थोड़ी बढ़ जाने पर वह किसी अच्छी नाट्य संस्था से जुड़ कर अभिनय करेगा। तब तक नाटकों से जुड़े रहने का तरीका उनका मंचन देखना और उनसे जुड़ा साहित्य पढ़ना था।
धीरे-धीरे काफी लोग इकट्ठे हो चुके थे। वे अपने मित्रों के साथ छोटे-छोटे झुंड बनाये बातचीत कर रहे थे। उसे महसूस हुआ, कितनी तन्मयता से वे नाटक के पोस्टरों को देख रहे हैं ओर कितने भक्ति भाव से नाटकों के विषय में बातें कर रहे हैं वरना वहां तो पिता यह कहते थे कि यह भाड़ों के काम दो-चार छिछोरे ही करते हैं, कोई शरीफ़ घर के थोड़े ही..........।
हालांकि इतनी कम तनख्वाह में हर नाटक देख पाना संभव नहीं था, पर वे नाटक वह ज़रूर देखता जिनके टिकटों के मूल्य कम होते। दस, पच्चीस या ज़्यादा से ज़्यादा पचास। पैसों की कमी की वजह से उसे कई पसंदीदा निर्देशकों के नाटक छोड़ देने पड़ते जिसकी पूर्ति वह उनकी समीक्षा पढ़ कर किया करता था।
ज़िंदगी अभी काफी कठिनाई से चल रही थी। यह सौ रुपये जुटाने के लिये उसने पिछले एक हफ़्ते से एक भी चाय नहीं पी थी और पिछले चार दिनों से सिर्फ़ दोपहर का खाना खाया था। एकदम बीच दोपहरी में खाओ तो वह सुबह के खाने के पूर्ति भी करता है और रात को भी उतनी ज़रूरत महसूस नहीं होती। फिर एक टाइम खाकर यदि दिल और दिमाग को इतनी अच्छी ख़ुराक मिले तो और क्या चाहिये। और चाय तो वैसे भी कोई पौष्टिक चीज़ नहीं है। जितनी जल्दी इसकी आदत छूट जाय, उतना अच्छा है। हालांकि हल्की-हल्की भूख लग रही थी पर इतने अच्छे माहौल में इतने अच्छे अभिनेता का नाटक देखने का उत्साह उस भूख पर हावी था।
वह ख़ुश था और पहली बार सौ रुपये का टिकट ख़रीदने को लेकर एकदम गंभीर था। जेब में कुछ खुले पैसे थे जो बस के टिकट के काम आने वाले थे। टिकट अगर पचास का हुआ तब तो मज़ा आ जायेगा। नाटक भी देख लेगा और आज फुल प्लेट सब्ज़ी भी खा लेगा। पचास रुपये चार-पांच दिन तो चल ही जायेंगे, उसके बाद तनख्वाह भी मिल जायेगी। यही तो सोचा था कि यह नाटक देख लेगा फिर अगर पैसे बच गये तो रात को खायेगा। मलिक भाई को बोल दिया है कि इस बार तनख्वाह एकदम टाइम पर चाहिये।
मलिक भाई उस कूरियर कंपनी का मालिक था जिसमें वह काम करता था। उसे देखने पर लगता था कि वह कूरियर कंपनी चलाने के लिये ही धरती पर पैदा हुआ है। छोटा कद, दूर तक निकला हुआ पेट, ख़ूब बड़ा सा सिर जिस पर बचे बालों को रंगने के चक्क्र में वह अक्सर अपनी चांद भी रंग लेता था। ढीले-ढाले लबादे जैसे कपड़ों में वह ख़ुद एक इंटरस्टेट पार्सल लगता था। लेकिन वह दिल का अच्छा इंसान था और उसके नाटक प्रेम के कारण ऑफिस से थोड़ा जल्दी निकल जाने की इजाज़त दे दिया करता था, क्योंकि उसके अनुसार वह बिज़नेसमैन होने के बावजूद एक कलाप्रेमी था और अपने काॅलेज के दिनों में नाटकों में ’हीरो’ बना करता था। उसने मलिक भाई से भी एकाध बार, मज़ाक में ही सही, नाटक देखने चलने के लिये कहा था लेकिन उसका ख़याल था कि पूरी दुनिया ही एक रंगमंच है और हम सब कठपुतलियां। वह चूंकि इस दुनिया के नाटकों को बहुत क़रीब से देख चुका है, इसलिये इन नाटकों में उसका उतना मन नहीं लगता। उसके नाटकों की बातें करने पर मलिक भाई अक्सर यह बात दोहराता था और बाद में यह भी ज़रूर जोड़ता था कि जवानी में वह बहुत रसिक और कलाप्रेमी था। आज उसके द्वारा नसीरूद्दीन शाह का ज़िक्र करने पर उसने उसे तुरंत छुट्टी दे दी और इस राज़ का खुलासा किया कि वह जवानी में नसीरूद्दीन शाह का बहुत बड़ा फ़ैन रह चुका है और उसकी ’काग़ज़ के फूल’ उसने चार बार देखी है।
वह टिकट खिड़की खुलने का इंतज़ार कर रहा था। अब तक तो खुल जानी चाहिये थी। अमूमन साढ़े छह के शो के लिये पौने छह तक खिड़की खुल जाती है, पर छह से उपर हो रहे हैं और खिड़की अब तक नहीं खुली। उसने बंद खिड़की के अंदर एक आदमी को कुछ काग़ज़ात संभाल कर ले जाते देखा।
’’ सुनिये भाई साहब......।’’
’’ हां, बोलो।’’
’’ यह विंडो अब तक बंद क्यों है ? टिकट कब से मिलेंगे ?’’
’’ टिकट....? काहे के टिकट ?’’
’’ अरे, इस नाटक के और काहे के...........।’’
’’ टिकट नहीं है।’’
’’ तो फिर.............?’’ वह आश्चर्यचकित था।
’’ पास से एंट्री है।’’
’’ पास से...........? वह कैसे मिलेंगे ?’’ वह भौंचक था। उसे पता ही नहीं चला।
’’ मिलेंगे क्या। जिसको मिलने थे मिल गये।’’ वह आदमी खीज रहा था।
’’ पर यहां होर्डिंग पर तो लिखा होना चाहिये था कि पास से एंट्री होगी।’’ वह थोड़ा रुंआंसा हो आया था।
’’ तो होर्डिंग पर लिखा हैं क्या कि टिकट से एंट्री होगी ? हुं:।’’ वह आदमी भुनभुनाता हुआ वहां से चला गया।
इसके बारे में तो सोचा ही नहीं था। उसने ध्यान दिया कि जितने भी लोग अंदर जा रहे हैं सबके हाथ में सफ़ेद कार्ड हैं। तो इसलिये विंडों अब तक नहीं खुली। वह बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गया। पूरा शरीर अंदर से एक अप्रत्याशित झटके से कांप रहा था। एक सुनहरा ख़्वाब पूरा होते-होते रह गया। नसीर को क़रीब से देखने का इतना सुलभ मौका हाथ से जा रहा है। एक इतना बड़ा ख़्वाब जो इतनी आसानी से पूरी होने वाला था, टूट रहा है।
एक पल के लिये उसे लगा चलो कोई बात नहीं। यहां तो बड़े-बड़े कलाकार आते ही रहते हैं। आज नहीं किसी और दिन सही। लेकिन फिर एक साधारण महानगरीय कलाप्रेमी पर एक छोटे शहर का असाधारण कला प्रेमी हावी हो गया जिसके लिये अपने आदर्श अभिनेता को साक्षात अभिनय करते देखना एक साधारण घटना क़तई नहीं थी।
एक अंतिम प्रयास करते हैं। वह गेट पर खड़ा हो गया और प्रवेश करते लोगों से पूछने लगा, ’’हेलो सर, क्या आपके पास एक अतिरिक्त पास है ?’’
’’ नो सॉरी।’’
’’ हलो सर, डू यू हैव एनी एक्स्ट्रा पास ?’’
’’ सॉरी यंग मैन।’’
’’सर क्या आपके पास........?’’
’’सॉरी।’’
’’ सर, आई नीड अ..........।’’
’’ सॉरी।’’
’’ सर, इफ़ यू..........।’’
’’सॉरी, आइ डोंट हैव..........।’’
हर जवाब के साथ वह और निराश होता चला गया। एक अट्ठारह-उन्नीस साल का लड़का उसकी गतिविधियों को ध्यान से देख रहा था। वह उदास और निराश टहलता एक समूह के पास जाकर खड़ा हो गया जिसमें तीन ख़ूबसूरत लड़कियां और दो स्मार्ट दिखते लड़के आपस में बातें कर रहे थे। वह बोझिल मन के साथ खड़ा उस बोर्ड को देख रहा था जिस पर नाटक का परिचय लिखा हुआ था। लड़के-लड़कियां बातों में मशगूल थे। वह उनकी बातों को भी सुनने की कोशिश कर रहा था, शायद नसीर साहब के आगे के प्रोग्राम के बारे में कुछ पता चल जाये।
’’ व्हाट दिस प्ले इज़ ऑल अबाउट ?’’ लंबे बालों और कान में बाली पहने लड़के ने पूछा।
’’ आइ डोंट नो एक्ज़ैक्टली, थिंक बेस्ड ऑन सम स्टोरीज़।’’ सफ़ेद कुरते वाली लड़की ने बताया।
’’ पर यार अक्षय, इतनी भीड़ क्यों है आज ?’’ लाला टी-शर्ट वाली लड़की ने पूछा जिसके टी-शर्ट का फैलाव उसके जिस्म के फैलाव के सामने कम क्षमता वाला साबित हो रहा था।
’’ यार, नसीर हैज़ कम फार दिस शो।’’ सफ़ेद कुरते वाली लड़की बोली।
’’हूँ नसीर ?’’ लड़की की जिज्ञासा और बढ़ी।
’’ नसीरूद्दीन शाह, द फ़ेमस एक्टर आॅफ आर्ट सिनेमा।’’ बाली और लंबे बालों वाले लड़के ने फटाक से नसीरूद्दीन शाह का उपयुक्त वर्गीकरण कर अपने ज्ञान और प्रेजेंस ऑव माइंड से लड़की को प्रभावित करने की चेष्टा की।
’’ आइ डोंट लाइक आर्ट सिनेमा एण्ड नसीरूद्दीन शाह।’’ लड़की ने उसकी चेष्टा पर पानी फेरते हुये अपने दोनों हाथ उपर किये, अंगड़ाई ली और अपनी नाभि का दर्शन उपस्थित लोगों के लिये और सुलभ कर दिया।
’’ देन हूम डू यू लाइक।’’ लड़का झेंप मिटाने के लिये इस प्रश्न का उपयोग रबर की तरह कर रहा था कि लड़की के जवाब पर उसे लाजवाब कर सके।
’’ टाॅम क्रूज़।’’ लड़का ख़ुद लाजवाब हो गया।
वह इन बातों को सुनकर आश्चर्य में डूबा जा रहा था। बाप रे, इनके बारे में वह क्या-क्या सोच रहा था। ये इतने कला प्रेमी हैं, समर्पित हैं और ना जाने क्या क्या..........। इन्हें तो यहां क्या हो रहा है, यह भी नहीं मालूम।
’’ आइ आॅल्सो डोंट लाइक दिस आर्ट सिनेमा एण्ड दीज़ बोरिंग हिंदी प्लेज़ आॅल्सो........।’’ नीले टॉप वाली लड़की ने उस लड़की से दो क़दम आगे बढ़कर उसका समर्थन किया जिससे वह बहुमत में आ गयी। इस ख़ुशी में वे दोनों अपने बाकी दोस्तों से चार क़दम आगे जाकर सिगरेट पीने लगीं। लंबे बालों वाला लड़का अपने बालों और बाली की वजह से लड़कियों के समूह में जा मिला और सिगरेट पीने के कार्यक्रम में उनका सहयोग करने लगा।
बाकी बचे दोस्त आपस में बातें करने लगे।
’’ यार अमित, तू अकेला कैसे? रश्मि कहां है ?’’ सफ़ेद कुरते में थोड़ी शालीन लगती लड़की ने शालीन भाषा में पूछा।
’’ शी इज़ अबाउट टु कम।’’ गोरे लड़के ने गंभीरता से जवाब दिया।
’’ श्योर.........?’’ प्रश्न में शायद कोई व्यंग्य छिपा था।
’’ श्योर। और अगर नहीं आयी तो ये दोनों पास फाड़ दूंगा एण्ड विल नेवर मीट हर।’’ लड़का थोड़ा गुस्से में आ गया था।
उसने तिरछी निगाहें करके उस लड़के को देखा जिसके लिये इस नाटक से ज़रूरी एक लड़की का यहां पहुंचना था। काश, वह लड़की न आये और वह उस लड़के से एक पास मांग कर यह नाटक देख सके।
’’ और प्ले नहीे देखोगे ?’’ सफ़ेद कुरते वाली लड़की ने पूछा।
’’ बुलशिट प्ले।’’
लड़की चुप हो गयी। थोड़ी देर चुप रह कर फिर उसे समझाने लगी, ’’यू नो, यू ऑल गाइज़ हैव सेम प्रॉब्लम। रश्मि विकी के साथ थोड़ा घूमने क्या चली गयी, तुम..........।’’
उसने आगे नहीं सुना। वहां से हट गया। इस प्रांगण में खड़े होकर भी लोग ये सब बातें सोच सकते हैं। उनका छोटी-छोटी समस्याओं को इस नाटक पर तरज़ीह देना रास नहीं आया। एक वह है जो खाने जैसी बुनियादी चीज़ क़ुर्बान करके आया है, फिर भी उसे देखने की अनुमति नहीं है। और एक ये हैं जो सिर्फ़ घूमने के मकसद से यहां आये हैं। उसने एक बार पूरी भीड़ की तरफ देखा। न.........कोई नहीं, कोई नाटक देखने नहीं आया, सब सिर्फ़ टाइम पास करने आये हैं। उसे लगा जैसे वह नसीर को देखने के लिये उतावला हो रहा है, उसका शतांश भी कोई नहीं है। सभी अपनी शाम को थोड़ा ख़ुशनुमा बनाने चले आये हैं।
लड़का अब भी उसकी ओर देख रहा था। वह उसकी ओर चलने लगा तो लड़का भी उसकी ओर आने लगा।
’’ क्या बात है ?’’ लड़का पास आकर धीरे से बोला।
’’ कहां क्या बात है ?’’ उसे प्रश्न ही समझ में नही आया।
’’ पास नहीं है ?’’
’’ नहीं........।’’
’’ चाहिये ?’’
उसके कान खड़े हो गये। लड़का उसे देवदूत नज़र आने लगा। लोग अंदर घुसना शुरू कर चुके थे। नाटक शुरू होने में अभी भी पंद्रह-बीस मिनट की देरी थी। वह उतावला हो उठा।
’’ हां.........चाहिये। प्लीज़ आप दिला सकते हैं ?’’
’’ हां, मैं दिला सकता हूं।’’ लड़के ने उसका हाथ पकड़ कर सड़क के एक किनारे खींच लिया और सावधानी से इधर-उधर देखता हुआ बोला।
’’ डेढ़ सौ लगेंगे।’’
’’ डेढ़ सौ.....? पर मेरे पास तो.............।’’ वह फिर से नाउम्मीद होने लगा।
’’ कितना है........कितना ?’’ लड़का जल्दी में लग रहा था।
’’ सौ रुपये।’’ उसके मुंह से निकल गया।
’’ जल्दी दो।’’
उसने थोड़ा हिचकिचाते हुये जेब से सौ का नोट निकाला ही था कि लड़के ने फटाक से नोट छीनकर जेब के हवाले कर दिया। पलक झपकते ही पास उसके हाथ में था और लड़का सड़क के दूसरी ओर से जा रहा था।
अब वह भी उस भीड़ का एक हिस्सा था जिनके पास अंदर घुसने के लिये पास थे। पास मिल जाने का उत्साह और ख़ुशी दिल में छा गयी थी। कभी वह पास को जेब में रखता और कभी निकाल कर हाथ में ले लेता। उस लड़के के लिये शायद सौ रुपये बड़ी चीज़ थी। उसे पता नहीं था कि जेब में पैसे न होने पर भी उसके लिये इस पास के आगे सौ रुपये की कोई कीमत नहीं थी। मन में एक ख़लिश ज़रूर थी कि आगे के चार-पांच दिन कैसे बीतेंगे। शायद एक बार ज़ोर देता तो लड़का बीस रुपये कम में भी मान जाता ओर एकाध बार के खाने का इंतज़ाम हो जाता। यह वह क्या सोच रहा है। भला यहां खड़ा होकर, वह भी पास के साथ, यह सब सोचना चाहिये ? पास मिल गया, क्या कम है ? इसमें भी ईश्वर का चमत्कार है। वह खाने और भूख की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश करने लगा मगर दिमाग था कि बार-बार इन्हीं समस्याओं की ओर जाने लगा था। दिन में एक बार खाने का भी क्रम टूट जायेगा शायद........। फिर वह ज़िदा कैसे रहेगा ? वह काम तो करेगा नहीं जो अब तक नहीं किया यानि परिचितों से उधार मांगना। फिर...? नाटक देखना तो बहुत ज़रूरी है। उसी के लिये तो यहां आया है। पर खाना भी तो..........। वह अंदर से थोड़ा बेचैन महसूस करने लगा।
’’ यार, दिस इवनिंग इज़ सो रोमांटिक।’’ उसकी बगल में खड़े समूह में से एक सभ्रंात दिखते आदमी ने अपने दोस्त से कहा।
’’ देन व्हाय आर यू वेस्टिंग योर ब्यूटिफुल इवनिंग हियर विदाउट बॉटल ?’’
सिगरेट की राख झाड़ते उसके दोस्त ने पूछा।
’’ नथिंग, माय बॉस इज़ कमिंग हियर टुडे। इट्स अ ग्रेट चांस टु इंप्रेस हिम।’’ और वह हंसने लगा।
वह वहां से भी हट गया। इतनी भीड़ में है कोई जो वाकई नाटक ही देखने आया है और इस नाटक के न देखने पर उसे कोई फ़र्क़ पड़ेगा या सिर्फ़ वही........। वह थोड़ा और आगे बढ़कर गेट के पास खड़ा हो गया। और याद आया कि कल उसने साबुन ख़रीदने के बारे में सोचा था पर पैसे नहीं थे पर पैसे नहीं थे। पिछले दस दिनों से साबुन बिना ही काम चला रहा है। शरीर से गंध तो नहीं आ रही ? उसने धीरे से गर्दन घुमाकर कंधे के नीचे सूंघने की कोशिश की। मगर आसपास के जिस्मों से इतनी अच्छी ख़ूशबू आ रही थी कि अपने जिस्म से भी उसे ख़ूशबू सी उठती महसूस हुयी।
सामने की दुकान पर कुछ लोग छोले-भटूरे और पेटीज खा रहे थे। आज उसने भूख की वजह से खाना दोपहर में जल्दी ही खा लिया था इसलिये भूख जग आयी थी। क्या करे, कुछ खा ही ले। वह थोड़ा हिचकिचा कर दुकान की ओर बढ़ गया।
’’ छोले भटूरे कैसे प्लेट हैं भईया ?’’
’’ बारह रुपये।’’ उसका मन बुझ गया।
’’ और पैटी ?’’
’’ आठ रुपये।’’
उसने चेंज निकाली। बस के किराये के बाद पांच रुपये ही बचते थे। गरम-गरम भटूरे उसके पेट की आग में घी डाल रहे थे। कभी उसके मन में नसीर की उतार चढ़ाव युक्त संवाद शैली गूंजने लगती और कभी गरम छोले भटूरे और पैटीज का स्वाद ज़बान पर आते-आते रह जाता। वह बेचैन सा होने के कारण इधर-उधर टहलने लगा था।
इसी बीच एक आदमी बाइक रोककर अपने दोस्त के साथ उतरा और जल्दी से झुंड में खड़े लोगों के पास जाकर कुछ पूछने लगा। सब तरफ़ पूछ लेने के बाद वे दोनों उसकी ओर बढ़े।
’’ हेलो बाॅस, एक्स्ट्रा पास है क्या ?’’
’’ नहीं, केवल एक ही है।’’ उसने जवाब दिया।
’’ तुम अकेले ही हो न ? यार हमें दे दो पास। मेरे दोस्त के पास नहीं है।’’ उसने हंसते हुये मज़ाक में प्रस्ताव रखा और यह सोच कर कि यह माना नहीं जायेगा, थोड़ा आगे निकल गया। उसके दोस्त ने भी पलट कर मज़ाक में कहा, ’’ दे दो यार, सौ-डेढ़ सौ ले लो। इसे अकेले जाना पड़ेगा।’’
वह सकते में खड़ा था। एक कठिन फ़ैसला तुरंत लेना था। दोनों गेट के अंदर जा चुके थे। दुकान में अभी-अभी राजमा भी बन कर तैयार हुआ था। लोग थालियों में राजमा चावल लेकर खा रहे थे। राजमा से ख़ुशबूदार भाप उठ रही थी। वह कुछ सोच ही रहा था कि उसके अंदर से एक तेज़ आवाज़ निकली, ’’ हैलो सर, दो सौ।’’
दोनों कुछ आगे निकल चुके थे। आवाज़ सुनकर वे पलटे और उसकी ओर आने लगे। उनमें से एक ने पर्स निकाल लिया। वह आश्चर्यचकित था कि वह तो बोला ही नहीं फिर उसके मुंह से आवाज़ कैसे निकली। वह पास उनको नहीं देगा। आखिर नसीर का नाटक है। पता नहीं फिर कब हो। नहीं, वह ख़ुद नाटक देखेगा। किसी क़ीमत पर पास उसको नहीं देगा। पैसे क्या इन सब चीज़ों की कीमत चुका सकते हैं। एक दोस्त ने सौ-सौ के दो नोट निकाल लिये थे। उसने एक हाथ से रुपये पकड़े और दूसरे हाथ से पास उसको थमा दिया। दोनों गेट के अंदर चले गये। वह वहीं खड़ा रहा। उसे मलिक भाई की बात याद आयी। पूरी दुनिया एक रंगमंच है और हम सभी उसकी कठपुतलियां। वह ज़बरदस्ती एक फ़ीकी मुस्कान मुस्कराया। हाथ में सौ-सौ के दो नोट फंसे थे। थोड़ी देर तक वह खड़ा होर्डिंग की तरफ देखता रहा। एक सौ का नोट जेब में डाला, अगले दिन होने वाले नाटक की टाइमिंग को मन में दोहराता हुआ एक सौ का नोट हाथ में लेकर दुकान की ओर बढ़ गया। छोले-भटूरे और राजमा चावल की प्लेटों से धुंआ उठ रहा था।

Thursday, July 17, 2008

पापा.........!!!

सुनिधि एक गंभीर स्वभाव की पापा की लाडली बिटिया है, उसके पापा जितना प्यार उससे करते हैं उतना ही प्यार और सम्मान सुनिधि के मन में अपने पापा के लिए भी है। इन दिनों वो स्नातकोत्तर अन्तिम वर्ष की छात्रा है. आइये उसकी डायरी में झांक कर उसकी कहानी जानते हैं।

६ जनवरी १९९५- ४:४५ बजे
टेलीफोन की घंटी बजी, चाचा का फ़ोन था, पता चला पापा के स्कूटर से किसी जीप वाले की टक्कर हो गयी है, पापा के पाँव की हड्डी टूट गयी है, अस्पताल में उन्हें प्लास्टर चढ़ा दिया गया है।


८ जनवरी १९९५
आज आधी रात को सोते हुए सपना देख रही थी कि रात के समय किसी काले आदमी ने तेज धार वाले हथियार से पापा को दो टुकड़ों में काट दिया है। ऐसा भयानक ख्वाब देख कर मैं पसीने से तर-बतर झटके से उठ बैठी। पापा के कमरे में जाकर देखा, पापा सुरक्षित थे, सो रहे थे, मैं भी उनसे चिपट कर सो गयी।

१५ जनवरी १९९५
फ़िर वही रात का समय है, नींद में फ़िर से एक सपना है- "आधी रात को हम सब कहीं से घर लौट रहे हैं, अचानक पापा का स्कूटर किसी चीज़ से टकराता है, मैं पीछे बैठी थी, उछल कर दूर जा गिरती हूँ और पापा एक बहुत गहरे अंधेरे कुँए में जा गिरते हैं, मेरे मुँह से आवाज़ भी नहीं निकल रही है, चीखना चाहती हूँ पर नहीं चीख पाती, कुछ भी करने में स्वयं को असमर्थ पाती हूँ, कोई मदद करने वाला भी नहीं है।"
मैं फ़िर पसीने से तर-बतर उठ कर बैठ जाती हूँ। पापा सुरक्षित सोये हुए थे, मैं पापा का हाथ पकड़ कर रोते हुए सोने की कोशिश करती हूँ।

२१ जनवरी १९९५
आज एक और बुरा सपना देखा-" दिन दहाड़े पापा से कोई झगड़ा कर बैठता है और रात में आकर सुनसान जगह पर पापा को चाकू से मार देता है। मैं झटके से उठ बैठती हूँ, पापा सुरक्षित सो रहे थे। मैं गायत्री मन्त्र का जाप करते हुए सो जाती हूँ।

२५ जनवरी १९९५
हर सातवें-आठवें दिन बाद ऐसे ही पापा की मौत के सपने मैं देखती रही। कुछ सपने बार-बार देखती थी। मैं कुछ डरी-डरी सी रहने लगी थी, पापा को बहुत प्यार करती हूँ ना, शायद इसीलिए, फ़िर पापा का कुछ ज्यादा ही ख्याल रखने लगी थी।

१५ मार्च १९९५- ५:४५ बजे
टेलीफोन की घंटी बजी, मामा का फोन था, नाना गुजर गए, पापा-मम्मी अजमेर चले गए, बारह दिन तक अब वहीं रहेंगे। मेरी परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं और घर में बड़ी होने की वजह से भाई-बहनों के देखभाल की जिम्मेदारी भी है, इसलिए सपने देखने का या तो वक़्त नहीं था या याद नहीं रहता था कि क्या सपने देखती थी !!!!!

मई १९९५
परीक्षाएँ ख़त्म हो गयी हैं। फ़िर से डरावने सपनों का दौर शुरू हो गया है। नाना का भगवान् में बड़ा विश्वास था, उनके गुजर जाने के बाद मेरी भी इश्वर में श्रद्धा बढ़ गयी है, शायद उनसे प्रेरणा पाकर .... सुबह उठते से ही अपनी जगह पर बैठकर इश्वर का ध्यान करती, बुरे कर्मों के लिए माफ़ी मांगती और सद्कर्मों की प्रेरणा चाहती, कभी-कभी लगने लगा था कि जैसे इश्वर मुझसे बात करते हों. बेहद सुकून भरा पल होता था वो।

१३ दिसम्बर १९९५
फिर रात को सो रही हूँ फिर एक भयानक सपना- " हम पाँचों (मैं, पापा मम्मी ,बहन और भाई ), चाचा के घर से उनके बेटे का जन्मदिन मना कर लौट रहे हैं। एक ही कालोनी में घर है तो हम पैदल ही मस्ती करते हुए हँसते-हँसाते वापस आ रहे हैं, करीब १२:३० हो रहे हैं, अचानक मोड़ के दूसरी तरफ़ से एक हमलावर पापा के ऊपर रस्सी का फँदा फेंकता है परन्तु सफल नहीं होता तभी दूसरा हमलावर पापा को धर दबोचता है, थोड़ी देर हाथापाई होती है, पर मेरे पापा उसका सामना नहीं कर पाते और पस्त हो जाते हैं और मैं सुन्न सी खड़ी देख रही हूँ, तभी अचानक पहले वाले हमलावर ने फ़िर से फंदा पापा के ऊपर फेंका और इस बार कामयाब हो गया, उसने रस्सी में अटके मेरे पापा को दूर तक घसीटा और फ़िर जोर से घुमाकर सड़क पर पटक दिया, जोर की आवाज़ हुई, पापा की सारी हड्डियाँ टूट गई, पर उसे इस पर भी संतोष नहीं हुआ उसने रस्सी फ़िर घुमाई और फ़िर जोर से पापा को सड़क पर दे मारा, पापा टुकड़े-टुकड़े हो गए, मैं फटी-फटी आंखों से देख रही हूँ और जड़वत हूँ कुछ भी नहीं कर सकती, पापा के पास जाकर जोर-जोर से चिल्लाती हूँ ,"पापा - पापा ", पर मेरे गले से आवाज़ ही नहीं निकलती। मैं जैसे पत्थर का बुत बन गयी हूँ।"
एकदम झटके से उठ बैठती हूँ। कड़कड़ाते जाड़े में भी मैं पसीने से पूरी भीगी हुई थी, पापा सो रहे थे, मैं सारी रात पापा के पास बैठ कर गायत्री मन्त्र का जाप करती रही।

२ जनवरी १९९६
मेरे ऐसे डरावने सपनों का दौर चलते करीब एक साल होने को आया है, मैं कुछ अभ्यस्त सी हो गयी थी और कुछ डरी-सहमी भी रहती थी, ऐसे सपनों को किसी से बताया भी नहीं जा सकता।

८ जनवरी १९९६ ---६:०५ बजे
सवेरे उठकर बैठी थी, इश्वर का ध्यान कर रही थी कि अचानक बंद आंखों के आगे एक सिनेमा हाल के परदे के समान सफ़ेद स्क्रीन बन गई, मैं उस पर एक फ़िल्म देखने लगती हूँ, "एक व्यक्ति सफ़ेद सा है, लेटा हुआ है, ऊपर आसमान से एक चमकती हुई बत्ती के जैसा कोई व्यक्ति नीचे उतरा और उसके हृदय में एक छुरा घुसा दिया, सोया हुआ व्यक्ति उछल-उछल कर तड़फड़ाया और कुछ ही पलों में उस बत्ती से चमकते जीव के साथ अनंत में विलीन हो गया, फ़िर ग़ज़ब की आत्मिक शान्ति, मेरे मन में भी...."

यह सब कुछ मैंने कुछ ही पलों में और जागते हुए देखा, कुछ पल इस बात पर सोचा, फिर उठकर काम पर लग गई, कॉलेज गई, वापस भी आ गई, इस पर सोचती भी रही पर कुछ भी समझ नहीं आया, कोई अर्थ नहीं निकाल पायी, असमंजस में भी थी कि पता नहीं भगवान् क्या कहना चाहते हैं ???

----------------१९:०५ बजे
पापा कुछ परेशान से लग रहे थे, उनकी तबियत ठीक नहीं लग रही थी, मैं उनसे बात करते बैठी थी।

---------------१९:३० बजे
पापा के दिल में दर्द शुरू हो गया है उनकी दवाई दे दी है फ़िर भी दर्द बढ़ता जा रहा है, पसीना आना शुरू हो गया है , पापा पलंग पर बैठे हुए तड़प रहे थे, इतनी सर्दी में भी उन्होंने अपना स्वेटर कोट उतार दिया है, तुंरत ही चाचा को फोन किया, पापा की हालत बताते हुए घर आने के लिए कहा, पापा की तबियत और बिगड़ रही है, भाई उन्हें लेकर अस्पताल के लिए चल दिया है, चाचा भी वहीं जा रहे हैं..
बहन और मम्मी भी अस्पताल चले गए, मैं घर पर अकेली थी, पापा को जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा था, अब सुबह देखे वृत्तान्त का अर्थ स्पष्ट था, पापा के पलंग के किनारे अकेली बैठी मैं प्रार्थना कर रही हूँ, अचानक महसूस हुआ कि सारी परेशानी ख़त्म हो गयी है, वही आत्मिक शान्ति जैसी सुबह महसूस की थी।

-पूजा अनिल

Monday, July 14, 2008

हिन्द-युग्म के विमल चंद को इस वर्ष का नया ज्ञानोदय नवलेखन पुरस्कार


(दैनिक जागरण)


Vimal Chandra Pandeyनया ज्ञानोदय की ओर से युवा रचनाकारों को प्रोत्साहित करने हेतु प्रतिवर्ष दिये जाने वाले नवलेखन पुरस्कार के गद्य विधा का पुरस्कार हिन्द-युग्म के युवा कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय को मिला है। हिन्द-युग्म के लिए यह बहुत ही गौरव की बात है। विमल चंद पाण्डेय हिन्द-युग्म के कहानी-मंच कहानी-कलश के उप-संपादक भी हैं और हिन्द-युग्म से पिछले १ वर्ष से जुड़े हुए हैं। विगत महीने की आखिरी तारीख को इन पुरस्कारों की उद्घोषणा हुई। विमल इन दिनों समाचार एजेंसी UNI के इलाहाबाद कार्यालय में कार्यरत हैं। इलाहाबाद से प्रकाशित सभी हिन्दी अखबारों ने विमल की इस सफलता पर समाचार प्रकाशित किये थे। लेकिन स्कैन्ड स्वरूप में हमें कल ही प्राप्त हो सकी।


(अमर उजाला)


नवलेखन पुरस्कार प्रतिवर्ष किसी एक गद्य रचना और पद्य रचना के लिए दिया जाता है। (कई बार सम्मिलित रूप से भी पुरस्कार दिये जाते हैं)। इसमें १८ से ३५ वर्ष के युवा रचनाकार अपने प्रथम संग्रह के साथ प्रतिभागी बनते हैं।

विमल चंद्र पाण्डेय के कहानी-संग्रह 'डर' को निर्णायकों ने श्रेष्ठ चुना। इस कहानी संग्रह में कुल १२ कहानियाँ हैं। जिन्हें आप एक-एक करके कहानी-कलश पर पढ़ेंगे। इसी कहानी-संग्रह की एक कहानी 'सफ़र' बहुत पहले कहानी-कलश पर प्रकाशित हुई थी, जिसे पाठकों ने खूब सराहा था। इसके अतिरिक्त विमल चंद्र पाण्डेय की दो कहानियाँ 'समय के शिल्प में प्रेम का कथ्य' और 'तनहाइयां परिंदे की' भी कहानी-कलश पर प्रकाशित हैं।


(यूनाइटेड भारत)


चयन समिति में प्रसिद्ध समालोचक डॉ॰ नामवर सिंह, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया और अनामिका शामिल रहीं।


(डेली न्यूज़ एक्टीविस्ट)


हिन्द-युग्म की ओर से युवा रचनाकार गौरव सोलंकी भी इस पुरस्कार के प्रतिभागी रहे। गौरव सोलंकी ने अपने कविता-संग्रह 'एकांत की ख्वाहिशें' और कहानी-संग्रह 'एक लड़की जो नदी बन गई' के साथ सम्मिलित हुए थे।

हिन्द-युग्म परिवार की ओर से विमल चंद्र पाण्डेय को बहुत-बहुत बधाइयाँ।