Thursday, July 17, 2008

पापा.........!!!

सुनिधि एक गंभीर स्वभाव की पापा की लाडली बिटिया है, उसके पापा जितना प्यार उससे करते हैं उतना ही प्यार और सम्मान सुनिधि के मन में अपने पापा के लिए भी है। इन दिनों वो स्नातकोत्तर अन्तिम वर्ष की छात्रा है. आइये उसकी डायरी में झांक कर उसकी कहानी जानते हैं।

६ जनवरी १९९५- ४:४५ बजे
टेलीफोन की घंटी बजी, चाचा का फ़ोन था, पता चला पापा के स्कूटर से किसी जीप वाले की टक्कर हो गयी है, पापा के पाँव की हड्डी टूट गयी है, अस्पताल में उन्हें प्लास्टर चढ़ा दिया गया है।


८ जनवरी १९९५
आज आधी रात को सोते हुए सपना देख रही थी कि रात के समय किसी काले आदमी ने तेज धार वाले हथियार से पापा को दो टुकड़ों में काट दिया है। ऐसा भयानक ख्वाब देख कर मैं पसीने से तर-बतर झटके से उठ बैठी। पापा के कमरे में जाकर देखा, पापा सुरक्षित थे, सो रहे थे, मैं भी उनसे चिपट कर सो गयी।

१५ जनवरी १९९५
फ़िर वही रात का समय है, नींद में फ़िर से एक सपना है- "आधी रात को हम सब कहीं से घर लौट रहे हैं, अचानक पापा का स्कूटर किसी चीज़ से टकराता है, मैं पीछे बैठी थी, उछल कर दूर जा गिरती हूँ और पापा एक बहुत गहरे अंधेरे कुँए में जा गिरते हैं, मेरे मुँह से आवाज़ भी नहीं निकल रही है, चीखना चाहती हूँ पर नहीं चीख पाती, कुछ भी करने में स्वयं को असमर्थ पाती हूँ, कोई मदद करने वाला भी नहीं है।"
मैं फ़िर पसीने से तर-बतर उठ कर बैठ जाती हूँ। पापा सुरक्षित सोये हुए थे, मैं पापा का हाथ पकड़ कर रोते हुए सोने की कोशिश करती हूँ।

२१ जनवरी १९९५
आज एक और बुरा सपना देखा-" दिन दहाड़े पापा से कोई झगड़ा कर बैठता है और रात में आकर सुनसान जगह पर पापा को चाकू से मार देता है। मैं झटके से उठ बैठती हूँ, पापा सुरक्षित सो रहे थे। मैं गायत्री मन्त्र का जाप करते हुए सो जाती हूँ।

२५ जनवरी १९९५
हर सातवें-आठवें दिन बाद ऐसे ही पापा की मौत के सपने मैं देखती रही। कुछ सपने बार-बार देखती थी। मैं कुछ डरी-डरी सी रहने लगी थी, पापा को बहुत प्यार करती हूँ ना, शायद इसीलिए, फ़िर पापा का कुछ ज्यादा ही ख्याल रखने लगी थी।

१५ मार्च १९९५- ५:४५ बजे
टेलीफोन की घंटी बजी, मामा का फोन था, नाना गुजर गए, पापा-मम्मी अजमेर चले गए, बारह दिन तक अब वहीं रहेंगे। मेरी परीक्षाएँ शुरू होने वाली हैं और घर में बड़ी होने की वजह से भाई-बहनों के देखभाल की जिम्मेदारी भी है, इसलिए सपने देखने का या तो वक़्त नहीं था या याद नहीं रहता था कि क्या सपने देखती थी !!!!!

मई १९९५
परीक्षाएँ ख़त्म हो गयी हैं। फ़िर से डरावने सपनों का दौर शुरू हो गया है। नाना का भगवान् में बड़ा विश्वास था, उनके गुजर जाने के बाद मेरी भी इश्वर में श्रद्धा बढ़ गयी है, शायद उनसे प्रेरणा पाकर .... सुबह उठते से ही अपनी जगह पर बैठकर इश्वर का ध्यान करती, बुरे कर्मों के लिए माफ़ी मांगती और सद्कर्मों की प्रेरणा चाहती, कभी-कभी लगने लगा था कि जैसे इश्वर मुझसे बात करते हों. बेहद सुकून भरा पल होता था वो।

१३ दिसम्बर १९९५
फिर रात को सो रही हूँ फिर एक भयानक सपना- " हम पाँचों (मैं, पापा मम्मी ,बहन और भाई ), चाचा के घर से उनके बेटे का जन्मदिन मना कर लौट रहे हैं। एक ही कालोनी में घर है तो हम पैदल ही मस्ती करते हुए हँसते-हँसाते वापस आ रहे हैं, करीब १२:३० हो रहे हैं, अचानक मोड़ के दूसरी तरफ़ से एक हमलावर पापा के ऊपर रस्सी का फँदा फेंकता है परन्तु सफल नहीं होता तभी दूसरा हमलावर पापा को धर दबोचता है, थोड़ी देर हाथापाई होती है, पर मेरे पापा उसका सामना नहीं कर पाते और पस्त हो जाते हैं और मैं सुन्न सी खड़ी देख रही हूँ, तभी अचानक पहले वाले हमलावर ने फ़िर से फंदा पापा के ऊपर फेंका और इस बार कामयाब हो गया, उसने रस्सी में अटके मेरे पापा को दूर तक घसीटा और फ़िर जोर से घुमाकर सड़क पर पटक दिया, जोर की आवाज़ हुई, पापा की सारी हड्डियाँ टूट गई, पर उसे इस पर भी संतोष नहीं हुआ उसने रस्सी फ़िर घुमाई और फ़िर जोर से पापा को सड़क पर दे मारा, पापा टुकड़े-टुकड़े हो गए, मैं फटी-फटी आंखों से देख रही हूँ और जड़वत हूँ कुछ भी नहीं कर सकती, पापा के पास जाकर जोर-जोर से चिल्लाती हूँ ,"पापा - पापा ", पर मेरे गले से आवाज़ ही नहीं निकलती। मैं जैसे पत्थर का बुत बन गयी हूँ।"
एकदम झटके से उठ बैठती हूँ। कड़कड़ाते जाड़े में भी मैं पसीने से पूरी भीगी हुई थी, पापा सो रहे थे, मैं सारी रात पापा के पास बैठ कर गायत्री मन्त्र का जाप करती रही।

२ जनवरी १९९६
मेरे ऐसे डरावने सपनों का दौर चलते करीब एक साल होने को आया है, मैं कुछ अभ्यस्त सी हो गयी थी और कुछ डरी-सहमी भी रहती थी, ऐसे सपनों को किसी से बताया भी नहीं जा सकता।

८ जनवरी १९९६ ---६:०५ बजे
सवेरे उठकर बैठी थी, इश्वर का ध्यान कर रही थी कि अचानक बंद आंखों के आगे एक सिनेमा हाल के परदे के समान सफ़ेद स्क्रीन बन गई, मैं उस पर एक फ़िल्म देखने लगती हूँ, "एक व्यक्ति सफ़ेद सा है, लेटा हुआ है, ऊपर आसमान से एक चमकती हुई बत्ती के जैसा कोई व्यक्ति नीचे उतरा और उसके हृदय में एक छुरा घुसा दिया, सोया हुआ व्यक्ति उछल-उछल कर तड़फड़ाया और कुछ ही पलों में उस बत्ती से चमकते जीव के साथ अनंत में विलीन हो गया, फ़िर ग़ज़ब की आत्मिक शान्ति, मेरे मन में भी...."

यह सब कुछ मैंने कुछ ही पलों में और जागते हुए देखा, कुछ पल इस बात पर सोचा, फिर उठकर काम पर लग गई, कॉलेज गई, वापस भी आ गई, इस पर सोचती भी रही पर कुछ भी समझ नहीं आया, कोई अर्थ नहीं निकाल पायी, असमंजस में भी थी कि पता नहीं भगवान् क्या कहना चाहते हैं ???

----------------१९:०५ बजे
पापा कुछ परेशान से लग रहे थे, उनकी तबियत ठीक नहीं लग रही थी, मैं उनसे बात करते बैठी थी।

---------------१९:३० बजे
पापा के दिल में दर्द शुरू हो गया है उनकी दवाई दे दी है फ़िर भी दर्द बढ़ता जा रहा है, पसीना आना शुरू हो गया है , पापा पलंग पर बैठे हुए तड़प रहे थे, इतनी सर्दी में भी उन्होंने अपना स्वेटर कोट उतार दिया है, तुंरत ही चाचा को फोन किया, पापा की हालत बताते हुए घर आने के लिए कहा, पापा की तबियत और बिगड़ रही है, भाई उन्हें लेकर अस्पताल के लिए चल दिया है, चाचा भी वहीं जा रहे हैं..
बहन और मम्मी भी अस्पताल चले गए, मैं घर पर अकेली थी, पापा को जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा था, अब सुबह देखे वृत्तान्त का अर्थ स्पष्ट था, पापा के पलंग के किनारे अकेली बैठी मैं प्रार्थना कर रही हूँ, अचानक महसूस हुआ कि सारी परेशानी ख़त्म हो गयी है, वही आत्मिक शान्ति जैसी सुबह महसूस की थी।

-पूजा अनिल

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7 कहानीप्रेमियों का कहना है :

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

पूजा जी,
कहानी के शुरू में मुझे लगा कि बहुत ही साधारण सी कहानी होगी..पर अंत में जो गूढ संदेश आपने कहने की कोशिश करी वो बहुत अच्छा लगा.. डायरी के पन्नों से कहानी फिल्म ’आनन्द’ में बनी थी..
मुझे ये कन्सेप्ट भी अच्छा लगा..

-- तपन शर्मा

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

बहुत ही अच्छी कहानी अंत तक बांधे रही

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

कहानी में कौतूहल अंत तक बाँधे रहता है.. और एक बहुत ही भावपूर्ण हृदयस्पर्शी कहानी ..

Anonymous का कहना है कि -

कितना अजीब है,कुछ समझ ही नही आया,पढता गया,जाने कब ख़त्म हो गई,तब महसूस हुआ की दिल में कुछ चलने लगा है.सही है जी
आलोक सिंह "साहिल"

Anonymous का कहना है कि -

सरल-सहज ढ़ंग से कही गई-सुन्दर कहानी
श्यामसखा‘श्याम;

Sadhana Vaid का कहना है कि -

बहुत ही रहस्यमयी सी कहानी पूजा जी । अंत में मिल जाने वाली आत्मिक शांति किस बात की ओर संकेत करती है ? पापाजी स्वस्थ हुए या फिर ........? साल भर तक चलने वाला पूर्वाभास उनके कमज़ोर होते जाने वाले दिल के प्रति तो सतर्क नहीं कर रहा था ? कहानी का अंत स्पष्ट उत्तर नहीं देता । यह शांति नियति के स्वीकार की है या समस्या के समाधान की ?

Anonymous का कहना है कि -

कहानी पढ़ते हुए लगा कि तुम बहुत संवेदनशील हो ।
ये सच है हम में से बहुत से लोगों को नियति पूर्वाभास देती है
कहानी के अंत को स्पष्ट रखती तो बेहतर रहता ।
क्योंकि आत्मिक शांति आपने किस पल महसूस की ? या ये typing mistake है ?

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