Monday, July 27, 2009

नींद के बाहर- धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानी

इन दिनों हर माह हम वरिष्ठ कहानीकार धीरेन्द्र अस्थाना की कहानियाँ प्रकाशित कर चुके हैं। अब तक आप 'उस धूसर सन्नाटे में' और 'उस रात की गंध' कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए धीरेन्द्र अस्थाना की सबसे लम्बी कहानी जो एक समय में काफी चर्चित भी हुई थी।


नींद के बाहर


छह दिसंबर के आठ साल बाद, छह दिसंबर को ही, धनराज चौधरी की बाबरी मस्जिद भी ढह गई, लेकिन इस बार न कहीं दंगा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर धनराज चैधरी, जो लकदक दोस्तों की चकमक दुनिया में धनराज के नाम से मशहूर था, ने जेब से रूमाल निकालकर अपना चश्मा साफ किया, वापस आंखों पर चढ़ाया और खड़ा हो गया। ऑफिस से मिली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पर्सनल डायरेक्टर को पकड़ाए और जाने के लिए मुड़ा।

‘जस्ट ए मिनट।‘ पर्सनल डायरेक्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मुस्कान के साथ बोला, ‘ऑल द बेस्ट। यू नो वी ऑल आर इन द सेम बोट। जाना सभी को है। किसी को पहले, किसी को बाद में। मार्केट में सम्राट समूह का खाता बन्द हो रहा है।‘

‘जी!‘ धनराज ने अस्फुट स्वरों में कहा और पर्सनल डायरेक्टर के केबिन से बाहर आ गया।

यह तो बहुत भीषण चूतियापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो रिटायर होने में पूरे पंद्रह बरस बाकी हैं। वह सुस्त कदमों के साथ अपने केबिन में घुसा तो वहां सहायक कैशियर उसके इंतजार में था।

‘सर, यह रहा आपके वी. आर. एस. का चेक।‘ सहायक कैशियर ने धनराज को उसका हिसाब समझाया, ‘दस वर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सेलरी चार लाख रुपये। पांच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपये। इनकम टैक्स एक लाख रुपये। यह रहा आपका चेक चार लाख रुपये। ओ.के. सर?‘

‘कितने लोग इस स्कीम के तहत निकाले गए हैं मिस्टर सिन्हा?‘ धनराज ने पूछा।

‘फिलहाल चालीस।‘ सहायक कैशियर ने बताया, ‘लेकिन मार्च तक साठ और जाएंगे।‘

‘ओ. के. ऑल द बेस्ट।‘ धनराज हंसा। लेकिन सिन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर कहीं जोरदार दंगा हो गया है।

चेक को लिफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में डाला, दराजों से अपना छोटा-मोटा निजी सामान उठाया। ब्रीफकेस बंद कर बड़ी हसरत से अपने केबिन का मुआयना किया और बुझे मन से बाहर आ गया।

ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुंच रहे दिन थे। कंप्यूटर क्रांति घर कर चुकी थी। पूरी दुनिया एक गांव में बदल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खुल गए थे। जवान लड़के-लड़कियां नेट सर्फिंग के जरिये अपने जीवन साथी तलाश रहे थे। सौंदर्य प्रतियोगिता बाजार तय कर रहा था। विश्व सुंदरी का ताज हर वर्ष भारतीय लड़की के माथे पर दमकने पर मजबूर था, क्योंकि पूरी दुनिया की निगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में वी आर एस लागू कर कर्मचारियों को घर बिठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपक्रम निजी हाथों में जा रहे थे या जानेवाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सुपरस्टार ने पूरे देश को विशाल जुआघर में बदल डाला था और तमाम टीवी चैनलों के दर्शक छीन लिए थे। वह देश के आम लोगों को करोड़पति बनाने पर तुला था और उस गेम शो से प्राप्त पारिश्रमिक से अपने सिर पर चढ़ा करोड़ों का कर्जा उतार रहा था। रितिक रोशन का खुशनुमा जमाना था।

इन्हीं खुशनुमा दिनों में धनराज चैधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया था और टैक्सी के इंतजार में था।
बाहर सब कुछ पूर्ववत था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। डोसा-इडली, बड़ा-पाव खा रहे थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पॉइंट के समुद्र में रात चमक रही थी। ओबेराय होटल के टैरेस पर मखमली अंधेरा उतर रहा था। नरीमन पॉइंट की बिल्डिंगें सिर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पॉइंट की अटलांटा बिल्डिंग के भीतर कुछ ही देर पहले धनराज की दुनिया ढहा दी गई थी और सब चुप थे-निर्वाक।

चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अंधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्डी में एक तेज सिहरन-सी उठी। उसने टैक्सी की खिड़की का शीशा आधा गिरा दिया। समुद्री हवा का एक ठंडा टुकड़ा टैक्सी के भीतर आकर सिर उठाने लगा। धनराज को मलेरिया जैसी कंपकंपी अपने बदन पर रेंगती अनुभव हुई। यह कैसी कंपकंपी है, धनराज ने सोचा और ठंडी हवाओं को भीतर आने दिया। बाहर कई लड़कियां कम वस्त्रों में जॉगिंग कर रही थीं।

माना कि वह दिसंबर की रात थी लेकिन वह मुंबई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह कटखना नहीं होता। टैक्सी के बाहर मायावी और दिलकश मरीन ड्राइव पर वैभव की एक चमकदार धूल धारासार बरस रही थी। धनराज ने टैक्सी को ‘लोटस‘ की तरफ मुड़वा दिया।

‘लोटस‘ में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंदर, सबसे जवान और सबसे उत्तेजक लड़कियां नाच रही थीं, अंडरवल्र्ड के सबसे बड़े डॉन के सबसे खतरनाक गुंडे उन लड़कियों की हिफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंदीदा मेज पर बैठते ही धनराज को याद आया कि अब वह सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर नहीं है और किसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार को कंपनी के हित में पटाने यहां नहीं आया है। अपनी पसंदीदा मेज और पसंदीदा लड़की को छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए वह ‘लोटस‘ से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने की बीस रातें धनराज ‘लोटस‘ में ही बिताता था-नींद के बावजूद।

लेकिन आज धनराज अकेला था और नींद के बाहर था। पूरे दस वर्ष से धनराज नींद के एक तिलिस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींद के भीतर इस तिलिस्मी दुनिया में बड़े लोग, बड़े व्यापार, बड़ी पार्टियां, बड़ी सुंदरता और बड़ी मारकाट थी। इस दुनिया में बड़ी सफलता के साथ धनराज ने अपना होना सिद्ध किया हुआ था। इसीलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि नींद के बाहर की जिस लगभग अजनबी हो चुकी दुनिया में उसे अचानक उठाकर फेंक दिया गया है, वहां वह खुद को कैसे साबित करेगा?

‘लोटस‘ के बाहर बारिश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और सिहर गया। उसने उस बारिश में विपत्तियों को बरसते देख लिया था।

पैडर रोड की वाईन शॉप के किनारे टैक्सी रुकवाकर धनराज ने ड्राइवर को सौ का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ड मौंक का क्वार्टर और बिसलरी की बॉटल पकड़ लो तो।‘ ड्राइवर ने बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुंह से ‘सॉरी‘ निकल गया। असल में वह फिर भूल गया था कि वह कंपनी की गाड़ी में, कंपनी के ड्राइवर के साथ नहीं, टैक्सी में बैठा है। खुद बाहर जाकर उसने अपना सामान लिया और वापस टैक्सी में आ बैठा। बिसलरी का थोड़ा पानी पीकर उसने रम का क्र्वाटर बचे हुए पानी में मिला दिया और एक चुस्की लेकर सिगरेट जला ली।

सिद्धि विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गर्दन झुका दी। उसने तो गर्दन झुकाए-झुकाए ही काम किया था, तो फिर वी आर एस की गाज उसके सिर पर क्यों गिरी? बहुत मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में। सुबह आठ बजे तैयार होकर वह अपनी कार में बैठ जाता था और पौने दस तक दफ्तर ‘टच‘ कर लेता था। शाम सात बजे तक दफ्तर में रहने के बाद वह जन संपर्क अभियान पर निकलता था। रात दस-साढ़े दस पर घर के लिए रवाना होकर बारह-सवा बारह तक घर पहुंचता था। घर पर जाते ही वह खाना खाता था और सो जाता था। सुबह छह बजे उठकर फिर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, कॉलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी पत्नी सरिता ने संभाला हुआ था।

तो फिर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूंट भरा, अब इसका वह क्या कर सकता था कि सम्राट समूह का एक महत्वाकांक्षी प्रोडक्ट ‘सम्राट नमक‘ बाजार में पिट गया। बाजार देखना तो मार्केटिंग का काम है। वह जो कर सकता था, उसने किया। पत्रकारों के एक दल को लेकर वह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में काॅलगर्ल भी मुहैया करवाई थी।
‘रीजेंसी‘ जा रहा था। इस होटल से वह सरिता के लिए पहाड़ी कबाब और बेटे के लिए ड्राईचिली पनीर पार्सल कराता था। जाने दो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी‘ को टैक्सी के भीतर से ही हाथ हिला दिया।

मीरा-भायंदर रोड की एक सुनसान जगह पर टैक्सी रुकवाकर उसने पेशाब किया और खाली बोतलें झाड़ियों में फेंक दीं। दस मिनट के बाद टैक्सी उसके घर के नीचे थी। टैक्सीवाले को चार सौ रुपये देकर उसने सिगरेट सुलगा ली और घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। उसका फ्लैट पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेमप्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा दी, अपने विशेष अंदाज में। रात के दस बज रहे थे।

‘इतनी जल्दी‘, सरिता ने दरवाजा खोलते ही पूछा।

धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठकर सिगरेट एश ट्रे में मसल दी। फिर उसने चश्मा उतारा और तिपाई पर रख दिया। फिर वह घड़ी उतारने लगा।

‘अरे? आज ड्राइवर ऊपर तक नहीं आया?‘ सरिता चैंक गई, ‘और मोबाइल किधर है, खो दिया क्या?‘

धनराज दो-तीन मोबाइल खो चुका था और उसका ड्राइवर ब्रीफकेस उठाकर कमरे के भीतर तक आता था। एक गिलास पानी पीकर वह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।

‘गाड़ी खराब है और मोबाइल दफ्तर में छूट गया।‘ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोहित कहां है?‘ उसने बेटे की जानकारी ली।
‘रोहित इस समय तक कहां आता है? अभी तो ट्रेन में होगा। तुम आज जल्दी आ गए हो। सब ठीक तो है न?‘ सरिता आशंकित-सी हो गई।

‘हां।‘ धनराज संक्षिप्त हो गया, ‘कुछ सलाद वगैरह मिलेगा?‘

सरिता किचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी वाॅल यूनिट में बने छोटे-से बार को खोल अपने लिए रम का एक पैग बनाया और फ्रिज में से पानी निकालकर गिलास में मिला दिया। गिलास को तिपाई पर रखकर वह मुंह-हाथ धोने चला गया। तब तक सरिता एक प्लेट में चिकन के दो टुकड़े रख गई।

धनराज ने गिलास हाथ में लिया और घूमकर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा।

घर में टीवी था, वीसीआर था, फ्रिज था, म्यूजिक सिस्टम था, वाशिंग मंशीन थी, एसी था, सोफा था, वॉल यूनिट थी, डबल बेड था, डाइनिंग टेबल थी, ड्रेसिंग टेबल थी, सेंटर टेबल थी, वार्डरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, प्रिंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन थी, बर्तन थे, बिस्तर थे, कपड़े थे, बीवी थी, बेटा था और बीते दिनों की यादें थीं।

और? और तुम्हें क्या चाहिए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूंट लिया।

सरिता सलाद लेकर आई तो धनराज की आंखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोहित था। धनराज ने ध्यान से देखा, रोहित मूंछवाला होने के पायदान पर था। सुबह वह जा रहा होता था तो रोहित सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोहित सो चुका होता था। उसका वीकली ऑफ संडे होता था और रोहित शनिवार रात अपने दोस्तों के साथ वीकएंड की पार्टियों में चला जाता था। रोहित इतवार की रात दस-ग्यारह बजे खाना खाकर लौटता था, तब तक धनराज सो चुका होता था। इतवार को धनराज पूरे हफ्ते की नींद चुरा लेता था।

‘पापा ऽऽ‘, रोहित धनराज से चिपट गया।

‘बेटा ऽऽ‘, धनराज ने प्रश्न किया, ‘हमारा नमक क्यों पिट गया?‘

‘पिट गया?‘ रोहित ने लापरवाही से कहा, फिर लापरवाही में थोड़ा-सा व्यंग्य मिलाकर बोला, ‘पिटना ही था। अपना सब कुछ पिटने ही वाला है।‘

अरे बाप रे! धनराज चकित रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझदार हो गया है।

‘तेरे वेब मीडिया के क्या हाल हैं?‘ धनराज ने पिताओं जैसी उत्सुकता जताने की कोशिश की।

अपने कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करने के बाद रोहित वेब मीडिया नाम की कंपनी में ट्रेनी ग्राफिक डिजाइनर हो गया था।

‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है।‘ रोहित ने तनिक गर्व से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेरिकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूं।‘

‘अरे वाह!‘ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?‘

‘मिलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाद आठ हजार लेकिन मैं चक्कर में हूं कि कहीं और निकल जाऊं।‘ रोहित मुस्कराया।

‘लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना क्यो?‘ धनराज चिंतित-सा हुआ।

‘नौकरी नहीं पापा, जॉब...जॉब।‘ रोहित खिलखिलाने लगा, ‘हमारी जेनरेशन एक जगह बंधकर नहीं रहती आप लोगों की तरह...जहां ज्यादा पगार वहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है, साल में ढाई तीन सौ रुपये का एक इनक्रीमेंट...हमें एक साल में तीन हजार का इनक्रीमेंट चाहिए वरना तो अपने को परवड़ेगा नहीं।‘ रोहित तेजी से हिंदी, मराठी, अंग्रेजी में बोलकर बेडरूम में चला गया।

बहुत दिनों या शायद महीनों या फिर सालों बाद तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोहित अपनी कंपनी, अपने जाॅब, अपने नाम आनेवाली ई-मेल और अपनी गर्ल फ्रेंड्स की दुनिया में मगन था। जब वह चुप होता तो सरिता काॅलोनी में गुजरती अपनी दिनचर्या की गठरी खोल देती थी। धनराज को लगा, अपनी जा चुकी नौकरी की सूचना इस समय देना परिवार की खुशियों के ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। वह चुपचाप मां-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा।
फिर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलार्म लगाकर वह सोने चला गया।

×××

धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में, अपनी नींद में ही बेआवाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया डायरेक्टर वाली उसकी नौकरी बनी रहती।

बहुत-बहुत बुरे दिनों की बहुत बदहाल और कमजोर सीढ़ियों पर कदम जमा-जमाकर ऊपर चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस वर्ष उसने हालात से पिटते और सपना देखते हुए काटे थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, देहरादून और फिर एकदम जोधपुर में उसका जीवन कटा था। और फिर एकाएक वह मुंबई आ गया था-सम्राट समूह में मीडिया मैनेजर होकर। दो साल के भीतर वह समूह का मीडिया डायरेक्टर हो गया था। एक सुखी जीवन उसका अंतिम सपना था। इस सुखी जीवन की गोद में पहुंचते ही वह प्राणपण से उसे संवारने और बटोरने में लग गया।

सम्राट समूह ने उसे निचोड़ा भी बहुत, लेकिन इसका उसे कोई गिला नहीं रहा। वह अपनी नींद में यह सोचते हुए जीता रहा कि उसके सुख शाश्वत हैं। नींद से बाहर की एक बड़ी दुनिया से असंपृक्त वह घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की यात्रा में मुसलसल मुब्तिला रहा। वह यह याद ही नहीं रख पाया कि उसका एक अतीत भी है, जिसमें बहुत बुरे दिन रहते हैं।
इसीलिए नौकरी चले जाने के बाद जब नींद से बाहर की दुनिया से उसकी मुठभेड़ हुई तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह सोचता था कि जिस कठिन जीवन को वह बहुत पीछे छोड़ आया है, उस जीवन से अब कम से कम उसका कोई लेन-देन बाकी नहीं रहा है। लेकिन यह लेन-देन न सिर्फ बाकी था, बल्कि चक्रवृद्धि ब्याज सहित उसके सिर पर सवार हो गया था।
इस ज्ञान ने धनराज की नींद उड़ा दी।

सिलसिला यूं शुरू हुआ।
नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह दफ्तर जाने के लिए तैयार हुआ और मीरा रोड स्टेशन पहुंचा। सुबह के साढ़े आठ बजे थे। टिकट खिड़की पर खड़ी लंबी कतारों को देख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाद उसने चर्चगेट का द्वितीय श्रेणी का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि प्लेटफार्म पर जो भीड़ है, वह उसे मधुमक्खियों के छत्ते सरीखी क्यों लग रही है? इस छत्ते में धनराज ने सिर्फ दो काम किए। चर्चगेट ले जानेवाली ट्रेन के करीब पहुंचा और धक्के मार-मारकर दूर धकेल दिया गया। लोग दरवाजों पर ही नहीं, खिड़कियों पर भी लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात ट्रेनें निकल गईं और धनराज किसी भी ट्रेन में नहीं चढ़ पाया। असल में धनराज को लोकल ट्रेन का अभ्यास ही नहीं था। आखिरकार जब ट्रेन पकड़ने के चक्कर में वह पिट-पिटकर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जिस्म और गिर चुके महंगे चश्मे का गम संभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया।

घर पर रोहित अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। सरिता रोहित का टिफिन तैयार कर रही थी।

धनराज को वापस घर आया देख दोनों ने एक साथ पूछा, ‘क्या हुआ?‘

धनराज खिसिया गया। फिर उसने लगभग रुआंसे स्वर में बताया कि लोकल में तो वह चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्डन फ्रेम का चश्मा भी गंवा दिया है।

रोहित हा...हा...कर हंसने लगा, ‘मीरा रोड से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोड से विरार जाने का, फिर वहां से बननेवाली ट्रेन में चढ़कर आने का। क्या समझे?‘

धनराज कुछ नहीं समझा।

फिर सरिता ने चकित होकर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टैक्सी से जाते हो...आज लोकल की सनक किसलिए?‘ इसके बाद उसने धनराज को याद दिलाया कि उसके चश्मे का फ्रेम दो हजार का था।

इस बीच रोहित ‘बाय‘ बोलकर निकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा, ‘अरे, तू कैसे जाएगा?‘

‘पापा, मैं रोज ट्रेन में ही जाता हूं।‘ रोहित फर्राटे से निकल गया।

अरे? धनराज विस्मित रह गया।

‘अब बताओ, चक्कर क्या है?‘ सरिता उसके लिए एक कप चाय ले आई और उसके सामने हेडमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई।

‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया।

‘तो इसमें शहीद होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है? सम्राट समूह से पहले भी तुम्हारी नौकरियां आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।‘ सरिता ने उसे ढांढस बंधाया तो धनराज विस्मित रह गया।
फिर कई दिनों तक धनराज विस्मित ही होता रहा।

उसने पाया कि हर समय व्यस्त रहनेवाला उसका फोन मृतकों की तरह दुनिया से बाहर चला गया है। वह रिसीवर उठाकर देखता तो डायल टोन मौजूद मिलती। एक बार उसने अपने एक खास दोस्त अश्विनी पाराशर को फोन किया। अश्विनी की सेक्रेटरी ने पूछा कि वह कौन बोल रहा है, कहां से बोल रहा है और उसे किस बारे में बात करनी है? धनराज ने चिढ़कर कहा कि वह अश्विनी का दोस्त है तो सेक्रेटरी ने विनम्रता के साथ बताया कि साहब मीटिंग में हैं, वह अपना फोन नंबर बता दे, धनराज ने नंबर बताकर फोन रख दिया और अश्विनी के फोन का इंतजार करने लगा। मगर अश्विनी का फोन नहीं आया।

उसने एक और दोस्त को फोन किया। वह भी मीटिंग में था। तीसरे दोस्त की आन्सरिंग मशीन पर उसने मैसेज रिकॉर्ड कराया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया।

‘बिल और ब्लडप्रेशर मत बढ़ाओ।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘सम्राट समूह के दिनों में तुम भी या तो मीटिंग में होते थे या टाॅयलेट में।‘

‘पापा, जो सामने है, उसे एक्सेप्ट करो।‘ रोहित ने सलाह दी, ‘आप ही तो बताते थे कि आपने बहुत बुरे दिन देखे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्वॉय करो।‘

एनज्वॉय? अच्छे दिन? लेकिन कितने दिन? पांच-सात लाख रुपयों के सहारे कितने दिन टिकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चिंतित हो गया।

सरिता ने धनराज की दिनचर्या बता दी। सुबह छह बजे जागकर चाय पीना, फ्रेश होना और एक घंटे तक पार्क में टहलना। पार्क से लौटकर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के बाद नहाना-धोना और भायंदर की लायब्रेरी जाकर किताबें पढ़ने की कोशिश करना, लौटकर खाना खाना और सो जाना। शाम को उठकर चाय पीना और मार्केटिंग करना। लौटकर टीवी देखना, रात का खाना खाना और सो जाना। किताबों की सूची भी सरिता ने ही तैयार कर दी।

धनराज के माथे पर त्यौरियां चढ़ गईं। वह चिढ़कर बोला, ‘मैं क्या रिटायर हो गया हूं?‘

‘रिटायर हुए नहीं हो, रिटायर कर दिए गए हो।‘ रोहित ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस वर्ष के हो। इस काॅलोनी में पैंतीस-छत्तीस के आदमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपनियां बंद हो गई हैं।‘

चिंतित और बदहवास धनराज ने इसके बावजूद दोस्तों की दुनिया पर निगाह डालनी बंद नहीं की। लगातार निराश होने के बाद अंततः उसने स्वीकार कर लिया कि वह नींद के बाहर का आदमी है और उसकी आवाज नींद के भीतर की दुनिया से टकराकर लौटने को अभिशप्त है।

नींद के भीतर की दुनिया बहुत विराट थी। उस नींद के भीतर एक महानींद थी। उस महानींद की दुनिया महाविराट थी। उस दुनिया में नींद के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रवेश वर्जित था। उस दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं था। वहां संबंध नहीं कारोबार टिकता था। वहां एक महाबाजार लगा हुआ था, जिसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या विक्रेता। इस दुनिया के सारे रास्ते बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी।
धनराज चिंतित नहीं, विचलित हुआ।

कॉलोनी के लोगों से उसका दुआ सलाम होने लगा था।
तभी एक हादसा हुआ।
सकीना नाम की एक जवान लड़की ने चूहों को मारने वाला जहर ‘रैटोल‘ खाकर आत्महत्या कर ली।
सकीना उस कॉलोनी में रहनेवाले एक टेलर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहवीं में पढ़ती थी। सरिता से बहुत हिली-मिली थी सकीना इसलिए इस मौत से सरिता अंदर तक हिल गई। अस्पताल से लौटकर बताया उसने, वह कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बता नहीं पाई। शायद उस लड़की को उसके कॉलेज के कुछ गुंडे लड़कों का गैंग परेशान कर रहा था।

‘तुमको याद नहीं है।‘ बताया सरिता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके पापा की वहां भी मार्केट में दर्जी की दुकान थी। दिसंबर के दंगों में उनका घर और दुकान जला दिए गए थे।‘

‘अरे?‘ धनराज चैंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाद हुआ और इस कॉलोनी में भी।‘

धनराज को याद आया।
दिसंबर के दंगोंवाले दिनों में वह भी कांदिवली की एक निम्न मध्यवर्गीय बस्ती चारकोप में किराए पर रहता था। वह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संक्रमण काल था।

‘इसमें कॉलोनी का क्या दोष है?‘ सरिता तुनक गई, ‘पूरी कॉलोनी के लोग अस्पताल में हैं। लाश को लेकर आ रहे हैं।‘

धनराज ने छह दिसंबर में जाकर देखा-रात के दस बजे थे। बंबई ने अभी जागने के लिए अंगड़ाई ली थी। धनराज का डाॅक्टर दोस्त जयेश और उसकी खूबसूरत युवा पत्नी सोनाली रात भर रुकने का कार्यक्रम बनाकर धनराज के घर आए थे। सरिता ने दहीवाला चिकन बनाया था और मछलियां फ्राई की थीं। उसका बेटा रोहित अपने एक मुस्लिम दोस्त के घर मालवणी गया हुआ था और रात को वहीं रुकनेवाला था।

शराब पीते हुए और मछलियां खाते हुए धनराज ने टीवी के पर्दे पर देखा-बंबई से हजारों किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर में एक मस्जिद गिराई जा रही थी। धनराज डर गया। गिलास समेटकर वह अस्फुट स्वरों में बोला, ‘गुरु निकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंदर औरत है...बेहतर होगा कि तुरंत निकल जाओ।‘

छह दिसंबर की उस रात डॉक्टर दंपत्ति चारकोप से चार बंगला अपने घर सुरक्षित पहुंच गए और मालवणी की मुस्लिम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोहित भी घर लौट आया। इसके बाद सड़कों पर एक वहशी प्रेत अपनी बांहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने निकला।

अगली सुबह या शायद उससे अगली सुबह धनराज नींद में था कि सरिता ने उसे झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तुम? देखो, अपने जले हुए घर की दुर्दशा देखने आई नजमा को बस्ती के कुछ आवारा लड़कों ने पकड़ लिया है। कुछ भी हो, ऑफ्टर आल नजमा हमारे रोहित की टीचर है। उसे बचाओ।‘

‘पुलिस? पुलिस कहां है?‘ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोहित पर हाथ फिराकर फिर नींद में चला गया था।

पुलिस कस्टडी में जब तक नजमा पहुंची तब तक उसकी छातियों से गालों तक के हिस्से में पचपन घाव दर्ज हो चुके थे, और उसकी जांघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।

धनराज उस दिन दफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं मिली थी। कांदिवली रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए भी ऑटो उपलब्ध नहीं था। हालांकि ऑटो की तलाश में वह लगभग एक किलोमीटर दूर मछली मार्केट तक पैदल चला गया था।

मछली मार्केट श्मशान की तरह भुतैला और डरावना था। मछली, मुर्गे और मटन बेचनेवाले के बाकड़े और दड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राईक्लीनर, जहां धनराज के कपड़े धुलते और प्रेस होते थे, नष्ट हो चुका था। उसके जले हुए कपड़ों की ढेर सारी राख के बीच से एक जख्मी हाहाकार झांक रहा था। लकी ड्राईक्लीनर का मालिक अनवर अपनी पत्नी और दो बच्चों सहित खुली सड़क पर तंदूरी चिकन की तरह भून दिया गया था।

सहमा-थका सा धनराज घर वापस लौटा तो सरिता सिर ढांप कर लेटी थी और फोन घनघना रहा था, दूसरी तरफ जोगेश्वरी में रहने वाला उसका एक कांट्रेक्टर दोस्त साजिद था। वह पूछ रहा था, ‘क्यों मियां? हमारी ही मस्जिद गिरा दी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है। यह लोकतंत्र है या दादागिरी?‘

‘मुझे इस पचड़े में मत फंसाओ यार।‘ धनराज ने हताश होकर कहा था और फोन रख दिया था। तभी दरवाजे की घंटी बजी थी।

दरवाजे पर कॉलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट किस्म के कुछ छोकरों का समूह था। धनराज उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। वह आधी रात वाली दुनिया का नागरिक था, उस दुनिया का, जिसमें पड़ोसियों से परिचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुनकर सरिता भी दरवाजे तक चली आई थी। सरिता को देखते ही भीड़ का चेहरा खिल उठा था। उनमें से तीन-चार लोग ‘भाभी जी नमस्ते‘ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी दरवाजे पर खड़े-खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को पिछली ही रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेवाले डॉ. हबीबुल्लाह का सामान उठाकर भागते देखा था।

‘आज रात बहुत चौकस रहना है भाभीजी।‘ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंदाज में बोला था, ‘हमें पक्की खबर मिली है कि नागपाड़ा से एक ट्रक भरकर लोग इस तरफ आएंगे... हम भी तैयार हैं लेकिन...‘

‘हमें क्या करना होगा?‘ सरिता घबराई-सी आवाज में बोली थी।

‘आपको क्या करना है, बस जागते रहना है। रात को कोई लड़का पुलिस से बचकर भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है...हमारा कोड वर्ड है भालू आया। वैसे हमारे लड़के तो रात भर जागेंगे हीं...‘ दूसरे ने विस्तार से समझाया था फिर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का जागरण चन्दा तो मिलेगा न?‘

‘हां, हां।‘ सरिता तुरंत भीतर गई और सौ-सौ के दो नोट लाकर बोली, ‘हम लड़ नहीं सकते...यही हमारा योगदान है।‘
वे शोर मचाते हुए लौट गए।

रात की शराब का चंदा बटोरा जा रहा था। शायद शराब पीने के बाद जिस्मों पर घाव बनाने में ज्यादा मजा आता हो या लूट-मार करने की अतिरिक्त ताकत मिलती हो।

उनके जाते ही धनराज बिफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है? कैसे कैसे लुच्चों से संबंध रखती हो तुम?‘

‘लुच्चे नहीं हैं ये।‘ सरिता ने उल्टा उसे ही डांट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात तुम्हारे बेटे को मालवणी से सुरक्षित निकाल लाए थे...कुछ मालूम भी है तुम्हें, मालवणी में हमारे कितने लोग काट दिए गए...उन्होंने लोगों की पैंटें उतरवाईं, चेक किया और जितने भी हमारे लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट डाला।‘ सरिता के चेहरे पर दहशत और क्रोध एक साथ बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को वहां से?‘

धनराज को आश्चर्य हुआ। क्या यह वही सरिता है, जो नजमा को बचा लेने की पवित्र करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोहित का खयाल आया।

‘रोहित को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है।‘ सरिता ने जानकारी दी।

सरिता की मां कांदिवली में ही रहती थी, लेकिन फ्लैट में। दंगों में फ्लैट अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जिद की तरह उठी थी कि कैसे भी करके अपना एक फ्लैट खरीदना है।

नागपाड़ा से तो कोई ट्रक नहीं आया, लेकिन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंद घरों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। उन जलने वाले घरों में एक घर सकीना का भी था।

सकीना के जनाजे में धनराज भी शामिल हुआ।
जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलावा सब के सब हिंदू थे। यह गणित धनराज को समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, वो और जो लोग सकीना के जनाजे में शामिल हैं वो, दोनों की जात में क्या फर्क है?

‘क्या धनराज साब।‘ रास्ते में कॉलोनी के टीएल प्रसाद ने पूछा, ‘सुना है, आपकी नौकरी चली गई?‘

‘हां, चली गई है।‘ धनराज ने रुखे लहजे में जवाब दिया।

‘अब क्या करेंगे?‘

‘बड़ा-पाव का ठेला लगाऊंगा।‘ धनराज इतने ठंडे स्वर में बोला कि प्रसाद दूसरे व्यक्ति के साथ लग गया, प्रसाद एक मल्टी नेशनल कंपनी में टीवी इंजीनियर था।

लौटते समय बूंदा-बांदी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया।

‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने सहानुभूति से पूछा।

‘हैदराबाद चला जाऊंगा।‘ याकूब ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘वैसे भी यहां अकेला रहकर क्या करूंगा। हैदराबाद में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बर्बाद होने की मुझमें ताकत भी नहीं।‘ याकूब बाकायदा सिसकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बर्बाद किया है।‘

‘मतलब?‘ धनराज चैंक गया।

‘कॉलेज के जिन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लूटी है, वे हमारी ही जात के हैं।‘ याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा किया तो धनराज थर्रा गया।

‘तो तुम पुलिस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?‘ धनराज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

‘बिन मां की बच्ची और किसे बताती?‘ याकूब ने हिचकी ली, ‘मैं एक गरीब दर्जी...कौन सुनेगा मेरी? वे चारों लड़के नेताओं के शहजादे हैं...सकीना बताती रहती थी उनकी बदमाशियों के बारे में... पर मैं सोचता था कि किसी तरह वह यहां अपनी बारहवीं पास कर ले तो उसे लेकर हैदराबाद चला जाऊं...क्या पता था कि इतनी जल्दी ऐसा हो जाएगा।‘

‘हे भगवान!‘ धनराज का दिमाग कलाबाजियां खाने लगा, ‘ये किस दुनिया में आ गया हूं मैं?‘ फिर वह बहुत उदास हो गया।

×××

उदासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बिना पूर्व सूचना के अचानक उसके घर आया-पहली बार।
धनराज बहुत खुश हुआ, लेकिन वापस उदास हो गया।
छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था, लेकिन उसके सिर के ज्यादातर बाल उड़ गए थे। बचे हुए बालों को सफेदी खा गई थी। उसके गाल पिचके हुए थे और वह थोड़ा झुककर चलता था।

‘दस साल बाद मिल रहे हैं हम।‘ धनराज ने भाई को गले से लगा लिया। ‘लेकिन ये क्या हालत बना ली है तूने?‘

‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!‘ धनराज का छोटा भाई राकेश चौधरी हंसा, एक विषादग्रस्त हंसी, ‘आपने भी कहां सुध ली हमारी...केवल अड़तीस सौ रुपये की नौकरी में अपने बीवी-बच्चों के साथ मां, भाई और बहन को पालता रहा हूं मैं। ऐसा तो होना ही था।‘ भाई धनराज के गले से अलग होकर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्वर्य को ताकने लगा।

‘मैं तो अभी भी नहीं आता...‘ भाई ने गर्दन झुका ली, ‘लेकिन मां ने जबरन भेज दिया। बोली अगर धनराज अपने फर्ज भुला बैठा है तो क्या? बंबई जा और बहन का हक छीनकर ला।‘

‘मतलब?‘ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहां लड़ाई-झगड़ा करने आया है?‘

‘नहीं भाई साहब। बिल्कुल नहीं। मां की भाषा है वो। एक थक चुकी मां की भाषा। आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी, जो इन दस वर्षों में चैबीस बरस की हो गई है। उसकी शादी करनी है। मैंने एक लड़का देखा है।‘

‘चैबीस बरस की?‘ धनराज सोफे पर ढह गया।

'आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी।‘ एक हथौड़ा उठा और धनराज की खोपड़ी पर बजा। उसे याद आया-हर साल राखी पर एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा आता था जोधपुर से, बिला नागा, जिसका जवाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बजकर पांच मिनट पर एक फोन आता था जोधपुर से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके दूसरे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाद वह फोन आना भी बंद हो गया।

‘मैं रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हूं, लेकिन मेरे अपने घर में फ्रिज नहीं है।‘ भाई ने भाभी को बताया और हंसने लगा।
अपराध-बोध के बीच टहलती सरिता ने देवर के लिए दहीवाला चिकन बनाया और धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?‘

‘मुफ्त की मिल जाए तो।‘ भाई फिर हंसने लगा।
आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ क्रोध और कुछ-कुछ गर्व के साथ रोकश चैधरी बीते हुए दस वर्षों में खड़े अपने संघर्षों के बारे में बताता रहा। धनराज और सरिता किसी अपराधी की तरह सब सुनते रहे।

‘बबलू क्या करता है?‘ बीच बहस में धनराज को बबलू याद आ गया।

‘वो गुंडा बन गया है।‘ राकेश चैधरी ने सूचना दी।

‘क्या बात कर रहा है?‘ धनराज उत्तेजित हो गया, ‘गुंडा मतलब?‘

‘क्या मालूम? उसके कुछ दोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपुर से बाहर कहां-कहां जाता रहता है। दो-एक बार मैंने उसकी अटैची में रिवॉल्वर देखी तो डर गया। सीधे मुंह बात भी कहां करता है?‘ राकेश के चेहरे पर पुनः बीता हुआ दुःख उतर आया।

‘अरे?‘ धनराज के दुःख बढ़ते ही जा रहे थे।

‘पूरे चार साल इंतजार किया उसने आपका, फिर अंधेरी गलियों में उतर गया। तीन साल से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है। कभी-कभी ही आता है। अपना एक कांटेक्ट नंबर दिया है उसने मां को। वहां मैसेज देने पर उसे मिल जाता है।‘ राकेश चैधरी ने अपना गिलास उलटा कर दिया।

‘क्या नंबर है उसका?‘ धनराज ने पूछा।

‘वो भी बस मां को ही पता है। कभी फोन करना हो तो मां ही करती है।‘
धनराज को याद आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से वादा किया था कि बंबई में सैटिल होते ही वह उसे बंबई बुला लेगा और फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने का मौका देगा। बबलू को नाटक वगैरह करने का शौक था और दस साल पहले वह बीस वर्ष का था।

‘मैं तो बहुत बुरा आदमी निकला।‘ बिस्तर पर लेटते ही धनराज के दुखों में नये आयाम जुड़ने लगे।

×××

उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाद धनराज अपने कठिन दिनों में लौटा।
वहां एक घर था। छोटा-सा दो कमरों का घर, जो पिता के आखिरी अरमान और आखिरी सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाद बीच नौकरी में ही पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु से एक-दो महीने पहले ही धनराज देहरादून में अपनी नौकरी गंवाकर सरिता और छोटे रोहित के साथ जोधपुर बसने पहुंचा था, पिता के ही घर में। राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक के रूप में लगा हुआ था। उसी दौलत इलेक्ट्रॉनिक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैशियर नियुक्त हुआ। पिता की मृत्यु हुई तो धनराज ने भाग-दौड़ करके राकेश को पिता के बदले उन्हीं के दफ्तर में लगवा दिया। पूरा परिवार प्रसन्न था कि घर का एक सदस्य सरकारी मुलाजिम हुआ। सरिता को एक छोटे-से स्कूल में पढ़ाने का काम मिला हुआ था। छोटी-सी ही सही लेकिन एक बंधी हुई राशि मां को पेंशन के रूप में मिलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज पिता को कृतज्ञता की तरह याद करता था कि उन्होंने एक घर बनवा दिया था, वरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।

उन्हीं दिनों बंबई जाते रहने वाले धनराज के एक दोस्त किशोर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह पच्चीस हजार खर्च करे तो किशोर उसे बंबई के सम्राट समूह में घुसवा सकता है। सम्राट समूह बंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताव खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताव धनराज के स्वप्नों को पंख देता था, लेकिन पच्चीस हजार बड़ी राशि थी। धनराज को लगा कि वह जोधपुर में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे मां के पास जाते थे- धनराज के, राकेश के, सरिता के, पेंशन के। उस सामूहिक आय से कुनबा चलता था। साझे दुखों और साझे सुखों का आत्मीय जमाना था। मां को भनक मिली तो उसने अपना मंगल सूत्र बेच दिया। सरिता ने भी अपने कड़े उतार दिए। पांच हजार रुपये राकेश ने भी मिलाए।
और इस तरह धनराज बंबई आ पहुंचा। तब तक राकेश की शादी नहीं हुई थी।

किशोर ने उस पैसे का क्या किया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याद है कि किशोर ने उसे सम्राट समूह के पर्सनल डायरेक्टर से मिलवाया। डायरेक्टर ने उससे एक एप्लीकेशन ली, बायोडाटा के साथ और सातवें दिन वह चकित-मुदित आंखों से अपने एपाइंटमेंट लेटर को देख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीरियड के साथ धनराज चैधरी सम्राट समूह का मीडिया मैनेजर हो गया था।

बाद की सफलताएं धनराज ने खुद अर्जित की थीं।
इसके बाद धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खर्राटे गूंजने लगे थे।
सुबह राकेश चैधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे दोपहर की ट्रेन से लौट जाऊंगा।‘
‘इतनी जल्दी?‘ सरिता ने टोका, ‘दो चार दिन मुंबई तो घूम लेते।‘
‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है भाभी।‘ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में जरूर हूं, लेकिन मेरा काम ऐसा है कि ज्यादा छुट्टियां नहीं मिलतीं। मुझे सैनिक अधिकारियों के घर फ्रिज ठीक करने जाना होता है न!‘
‘आपको मां का मंगलसूत्र लौटाना है।‘ अचानक राकेश ने याद दिलाया तो धनराज हड़बड़ा गया।
‘शादी डेढ़ लाख में हो रही है।‘ राकेश ने ब्यौरे देने शुरू किए, ‘ममता की शादी में पचास हजार मैं लगा रहा हूं। पच्चीस हजार बबलू भी देगा। बाकी पिचहत्तर हजार रुपये आपको देने हैं।‘
‘और ममता के गहने?‘ सरिता ने पूछा।
‘दस साल पहले मां का मंगल सूत्र दस हजार का था, ऐसा मां ने बताया है।‘ राकेश ने सूचना दी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कर्जे पर उठा रहा हूं। मैंने दस वर्ष तक सबको पाला है। इसके बाद मेरा दम निकल जाएगा।‘ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी दो बेटियां हैं।‘
हड़बड़ाए हुए धनराज चैधरी ने बड़ी कातर दृष्टि से सरिता को देखा। सरिता ने आंख के इशारे से कहा, हां कह दो।
‘ठीक है।‘ धनराज ने एक लंबी सांस छोड़ी, ‘मां के मंगलसूत्र को जाने दो। ममता के लिए हाथ, कान और गले के गहने हम देंगे। पिचहत्तर हजार का चैक चलेगा?‘
‘हां।‘ राकेश ने राहत की सांस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश को उम्मीद नहीं थी कि भाई इतनी आसानी से हां कर देगा।
‘अब मैं भी तुझे एक खबर दे ही दूं।‘ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है।‘
‘यह तो अच्छी खबर नहीं है। पर क्या कर सकते हैं?‘ राकेश को सचमुच दुःख हुआ।
थोड़ी ही देर में दोस्तों के साथ वीकएंड मनाकर रोहित भी घर आ गया और इतने वर्षों के बाद अपने चच्चू को देख उछल पड़ा।
‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।‘ राकेश ने रोहित को गले लगा लिया, ‘इतना बड़ा भतीजा भी चच्चू को चिट्ठी नहीं लिखता।‘ राकेश ने उलाहना दिया।
‘चिट्ठी का जमाना चला गया चच्चू। तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फिर देख मैं तुझे रोज एक ई-मेल करूंगा।‘ रोहित ने राकेश के उलाहने को मजाक में बदल दिया। फिर वह अपने चच्चू को लेकर बिल्डिंग के टैरेस पर चला गया।
राकेश को विदा करने स्टेशन तक रोहित ही गया। रोहित बहुत खुश था कि ममता बुआ की शादी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शादी में भी वह जोधपुर नहीं गया था, क्योंकि उन दिनों धनराज की सम्राट समूह में नयी-नयी नौकरी लगी थी और वह खुद इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक किए हुए था। उसे समूह में खुद को प्रमाणित करना था।
‘खुद को प्रमाणित करते-करते तुम चूतिया बन गए गुरु।‘ धनराज ने सोचा और नम आंखों के साथ भाई को विदा किया।
उस रात देर रात तक नींद नहीं आई।

दो

पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींद नहीं आती। देर रात तक वह अपनी विशाल कॉलोनी में जहां-तहां घूमता रहता। पहले जीवन नाक की सीध में चलता था, इसलिए वह काॅलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपरिचित था, मगर अब तो वह पूरी कॉलोनी के ही रहस्यों से दो-चार होने लगा था।
पता नहीं क्या सोचकर बिल्डर ने कॉलोनी का नाम गोल्डन नेस्ट रखा था। डाल-डाल और पात-पात तो क्या, वहां कहीं भी कोई सोने की चिड़िया बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले को बिल्डर ने इस तरह बनाया था कि उसमें सभी आय वर्ग के लोग रह सकें। ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरी उस कॉलोनी का विशाल मेन गेट बंद होते ही वह पूरी तरह से बंद, सुरक्षित किले जैसी हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खुलते ही बीचों-बीच दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर बाजार था। सड़क के पहले दाएं मोड़ पर वन रूम किचन के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-एक था। दूसरे दाएं मोड़ पर वन बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-दो था। सड़क के पहले बाएं मोड़ पर टू बेड रूम हॉल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-तीन था और दूसरे बाएं मोड़ पर सेक्टर-चार था। सड़क जहां समाप्त होती थी वहां बंगलेनुमा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर-पांच कहलाता था। इस कॉलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पार्क, स्वीमिंग पुल, अस्पताल, ब्यूटी पार्लर, पोस्ट ऑफिस, सिनेमा हॉल, स्कूल, हेल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पांच यानी रो हाउसेज आधे से ज्यादा खाली थे, बाकी किराए पर उठे हुए थे। इनमें अधिकतर निजी नर्सिंग होम, कोचिंग क्लासेज, ब्यूटी पार्लर, अंग्रेजी के प्राइमरी स्कूल, कंप्यूटर सेंटर, फेमिली रेस्त्रां, साइबर कैफे और कम्युनिकेशन सेंटर खुल हुए थे। सड़क के दोनों ओर बने बाजार सभी तरह की दुकानों से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान वहां मौजूद था। कॉलोनी में दो मंदिर भी थे-एक गणपति का, दूसरा शिरडी के साईंबाबा का। हां, मस्जिद वहां एक भी नहीं थी। वह कॉलोनी के बाहर, हाईवे के उस तरफ, स्टेशन जाने वाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी।
यह छह दिसंबर के बाद हुए दंगों का ध्रुवीकरण था कि ज्यादातर मुसलमान हाईवे के उस तरफ और हिंदू हाईवे के इस तरफ सिमट गए थे। नया नगर का पूरा इलाका लगभग मुस्लिम परिवारों का था। मीरा रोड के हिंदू नया नगर को मिनी पाकिस्तान कहते थे। हाईवे के उस पार भी काफी परिवार हिंदुओं के थे लेकिन ज्यादा आबादी मुस्लिमों की ही थी। वहां भी जब जिसको मौका मिलता, अपना घर बेचकर गोल्डन नेस्ट आ जाता था। गोल्डन नेस्ट में मुसलमानों के सात-आठ परिवार ही थे, लेकिन वे सभी वहां किराएदार थे, मकान मालिक नहीं। उन्हीं में से एक टेलर मास्टर याकूब भी था, जिसकी लड़की सकीना ने चूहे मारनेवाला जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह सेक्टर-एक में किराएदार ही था और अब हैदराबाद चला गया था।
धनराज का घर सेक्टर-दो में था।
सेक्टर-दो में ज्यादातर लोग सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में काम करनेवाले कर्मचारी थे, जिन्होंने इधर-उधर से कर्ज लेकर चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने फ्लैट बना लिए थे। सेक्टर-एक में निम्न-मध्यवर्गीय लोग रहते थे। इनमें छोटे-मोटे अध्यापक, लोअर डिवीजनल क्लर्क, ऑटो टैक्सी चलानेवाले, फिल्मों और सीरियलों में काम पाने के लिए स्ट्रगल कर रहे भविष्य के अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार निवास करते थे। सेक्टर तीन और चार साहबों की दुनिया थी। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, छोटे-बड़े प्रोड्यूसर, शेयर मार्केट के ब्रोकर, बैंकों के अधिकारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्मचारी, टीवी चैनलों के कार्यक्रम अधिकारी, कालबा देवी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के मालिक, अखबारों के संवाददाता, वकील और प्रोफेसर रहा करते थे।
सेक्टर तीन और चार के नागरिक सेक्टर एक और दो की तरफ जाना तो दूर झांकना भी पसंद नहीं करते थे। यह अलग बात है कि बाजार ने उनकी निजी पहचान मिटा दी थी। सेक्टर एक और दो के लोग भी अपनी-अपनी विशिष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेकिन उनकी संपन्नता में दस बाई पंद्रह के सिर्फ एक कमरे का फर्क था, इसलिए उन दो सेक्टरों में आवाजाही चलती रहती थी।
सेक्टर एक और दो के ही नहीं, मुख्य बाजार के भी काफी लोग, सेक्टर-दो के ताजा-ताजा बेरोजगार हुए धनराज चैधरी को नाम और शक्ल से पहचानने लगे थे। वाइन शॉपवाला बिना मांगे ओल्ड मौंक रम देता था, सिगरेटरवाला विल्स का पैकेट। मटन शॉपवाला चांप और गर्दन का गोश्त देता था, साथ में मछली हड्डी। सब्जीवालों को पता था कि उसे करेला, कटहल, पालक, टिंडा, मटर और शलगम-गाजर पसंद हैं। चिकन की उसकी अपनी पसंदीदा दुकान थी और मछली की अपनी। घर का राशन पानी अस्मिता सुपर मार्केट से आता था और बाल लकी हेयर कटिंग सैलून में कटते थे। मेडिकल स्टोरवाला धनराज को देखते ही नारमेस फाइव एम जी का पत्ता पकड़ा देता था। शीतल नॉनवेज का मालिक उसे नाम से बुलाता था और उसे देखते ही वेटर को पहाड़ी या रेशमी कबाब पार्सल करने का हुक्म सुना देता था।
वह मोलभाव करने और सब्जियां खरीदने में पारंगत हो गया था। कॉलोनी और उसके बीच जो अपरिचय का विंध्याचल था, वह क्रमशः गलने लगा।
धनराज ने देखा कि दैनंदिन जीवन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन, कहां, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है। वे सिर्फ इस बात पर नजर रखते थे कि किसके किचन में क्या पका, किसके घर कौन-सा नया सामान आया, किसने किसके जन्मदिन पर क्या दिया या किस घर की लड़की या लड़का किससे फंसा हुआ है। रोजगार उनके लिए सिर्फ माध्यम था, ताकत या घमंड का प्रतीक नहीं। उनके दुःख इस विषय में लिपटे थे कि सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बिना नहाए काम पर जाना पड़ा। समय पर ट्रेन पकड़ लेना उनके लिए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर वे घंटों बहस कर सकते थे और बिजली चले जाने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर सकते थे।
धनराज ने पाया कि कॉलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते अंकल कहने लगे हैं। वाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और दुकानदार लगातार गिरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि धनराज की नौकरी चली गई है। उन्हें लगता था कि ऐसे लोगों की नौकरियां लगती-छूटती रहती हैं।
‘भाई साहब, हमारा एक काम करेंगे क्या?‘ एक दिन रास्ते में उसे देविका ने टोक दिया।
‘क्या?‘ धनराज ने देविका को जांचा।
वह ऊंची, भरी-पूरी, शानदार महिला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप और कामचलाऊ जेवर होते, तो वह सेक्टर एक और दो की हेमा मालिनी बन सकती थी। वह सेक्टर-एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-दो के कई घरों में उसका आना-जाना था।
‘इनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।‘ उसने अपने पति का पक्ष सामने रखा, ‘ये लेडीज के अंडर गार्मेंट्स बेचने वाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौटकर इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी पड़ती है। लेकिन ये अंग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी हिंदी रिपोर्ट को अंग्रेजी में बना देंगे?‘
‘ठीक है।‘ उसने गर्दन हिला दी।
‘धन्यवाद भाई साहब।‘ देविका गदगद हो गई। रात के भोजन पर सरिता ने बताया, ‘देविका के घर से तुम्हारे लिए मिर्ची का अचार और गट्टे की भाजी आई है।‘
लेकिन देविका के पति रतन केड़िया की मार्केट रिपोर्ट्स ने धनराज को विचलित कर दिया।
रतन केड़िया की रिपोर्टें देसी रोजगार का मर्सिया थीं। जयपुर हो या जोधपुर, गोवा हो या नागपुर, सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापुर, पुणे हो या नासिक, रत्नागिरी हो या इंदौर-हर जगह स्त्रियों के अंतःवस्त्रों पर नामी ब्रेंड हावी थे। बड़े शहरों में स्त्रियों के तन विदेशी ब्रेंड ढक रहे थे। ऐसे में रतन केड़िया की लोकल कंपनी कहां ठहर सकती थी?
कुछ ही समय बाद रतन केड़िया की रिपोर्टें आनी बंद हो गईं।
रतन केड़िया ने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और हंसने लगा।
नौकरी चले जाने पर ये लोग हंसते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेकिन उसे जवाब नहीं मिला।
उन्हीं दिनों एक रात वह थैले में सब्जियां, अंडे और शराब लेकर लौट रहा था कि उसने सेक्टर दो के सेक्रेटरी हिमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े सिगरेट पीते देखा।
‘नीचे क्यों खड़े हो?‘ धनराज ने यूं ही सवाल उछाल दिया।
शाह ने नयी सिगरेट सुलगा ली, ‘आज मुझे नौकरी से हटा दिया गया है।‘ शाह खिसिया कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है कि यह बात ऊपर जाकर हर्षिता को कैसे बताऊं?‘
हर्षिता हिमांशु की पत्नी का नाम था।
हिमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर-दो को चिकन बिरयानी की दावत दी थी। धनराज के लिए उसने विशेष इंतजाम किया था। लोगों की नजरें बचाकर वह धनराज को अपने बेडरूम में छोड़ आया था, जहां रॉयल चैलेंज की एक बाॅटल तीन-चार सोडों के साथ पड़ी थी।
धनराज तीन पैग पीकर वापस टैरेस पर चलती पार्टी में शरीक हो गया था।
‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने पूछा।
‘देखते हैं।‘ हिमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेचकर गांव चले जाएंगे।‘ हिमांशु अपने फ्लैट की सीढ़ियां चढ़ने लगा।
गांव? धनराज की हलक में कांटे-से गड़ने लगे। गांव के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई एक खबर याद आ गई। वह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बरानांद गांव की खबर थी।
शताब्दी के सबसे भीषण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में स्थितियां विकट हो गई थीं। गांव के लोग पेड़ों की छाल पीसकर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जिन लोगों के पास किराए लायक पैसे थे, वे काम की तलाश में निकट के शहरों को निकल गए थे। जिनके पास नहीं थे, वे गांव में भूखे-प्यासे मर रहे थे।
और यह केवल बरानांद गांव की कहानी नहीं थी।
गांव-दर-गांव भूख-प्यास का प्रेत मंडराता फिर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे। रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहां दस, बीस या तीस प्रतिशत कर्मचारी छंटनी के शिकार नहीं हो रहे थे।
ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।
सुबह-सुबह जगाकर सरिता और रोहित ने धनराज को विश किया, फिर सरिता ने ताना जैसा मारा, ‘आज कोई पार्टी-वार्टी नहीं हो रही?‘
धनराज ने नींद की दुनिया में जाकर देखा -
वह एक तीन सितारा होटल का पार्टी रूम था, जहां उसके जन्मदिन की पार्टी प्रायोजित की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पार्टी में शरीक थे। उनमें एक टीवी चैनल का कार्यक्रम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेकेदार थे, कुछ होलसेल विक्रेता थे। दो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बिजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर थे। कुछ पी आर ओ और कुछ सरकारी अधिकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटेंट एडीटर था और थीं कुछ उदीयमान मॉडल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा लेकर आए थे और अपने-अपने ड्रिंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खुशगवार मौके को कैमरे में कैद कर रहा था। वेटर पनीर टिक्का, चिकन टिक्का और सीख कबाब सर्व करने में तल्लीन थे। दुखों की सूचनाओं तक से दूर जगर मगर करता एक बाजार वहां बिछा पड़ा था।
जन्मदिन वाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार होकर फोन के पास बैठ जाता था। उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी लेता था। कई वर्षों से यही नियम था। हर बरस वह गिनती करता था कि जन्म दिन की बधाई देने वालों में कितने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका प्रिय शगल था। बधाई देनेवालों में से कुछ को वह शाम को होनेवाली पार्टी में निमंत्रित करता था। सम्राट समूह से कोई कांट्रेक्ट हासिल करने का इच्छुक व्यापारी यह पार्टी आयोजित करता था। इस पार्टी में सौदों का लेन-देन भी होता था। ऐसी अनेक पार्टियों के फोटो एलबम धनराज की वॉल यूनिट की शोभा बढ़ा रहे थे।
लेकिन इस बार धनराज देर तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर वह मुस्करा भर दिया। दिन भर में कुल मिलाकर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चैधरी का, एक उसकी सास का और तीसरा उसके फैमिली डॉक्टर राणावत का।
शाम सात बजे चौथा फोन आया उसके पड़ोसी हिमांशु शाह और उसकी पत्नी हर्षिता का। उसे याद आया-एक जन्मदिन के भव्य आयोजन में उसने शाह दंपत्ति को भी निमंत्रित किया था।
‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा हिमांशु।‘ धनराज द्रवित हो गया।
‘क्या बात करते हैं धनराज जी।‘ हिमांशु ने गर्मजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्मदिन की पार्टी हमारी तरफ से हमारे घर में है। आप भाभी और रोहित के साथ आठ बजे तक पहुंच जाइए।‘
धनराज बेआवाज बिखर गया।
निष्कपट जीवन नींद के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन यों सुखा डाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने रिश्ते कमाए होते, तो जीवन का रंग आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और वह भी अपनी नींदें बेचकर? मां जैसे दुनिया के सबसे कीमती रिश्ते की अकारण नाराजगी मोल लेकर।
धनराज को अपनी मां याद आ गई।
बचपन वाली मां।
मां धनराज का जन्मदिन मना रही थी।
वह मुजफ्फरनगर का सड़क किनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जिसके बाहर बने बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों पिता का ट्रांसफर जोशीमठ में हो गया था और पिता ने परिवार को यहां रखा हुआ था क्योंकि जोशीमठ में परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी।
मुजफ्फरनगर के उस किराए के कमरे में माथे पर टीका लगाकर मिठाई के नाम पर गुड़ खाया था धनराज ने और गुल्ली-डंडा खेलने मैदान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उनके पैदा होने के बाद भी घर में सिर्फ धनराज का ही जन्म दिन मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?

×××

पता नहीं धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूदा-बेहूदा खयाल आते रहते और वह चिंता से भर जाता। पढ़-लिखकर या पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जवान छोकरों को धनराज पार्क की बेंचों, चायघरों या पान की दुकानों के बाहर खाली बैठे देखता और उसे लगता इनमें से कुछ लड़के जल्दी ही अरुण गवली या दाउद इब्राहिम के गैंग में शामिल हो जाएंगे। वह उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोेगों को शूट करते देखता और पसीने-पसीने हो जाता। वह देखता कि रोहित की कंपनी भी बंद हो गई है और वह गोल्डन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंडे बेचने लगा है। कभी वह देखता कि उसने अपना मकान बेचकर सेक्टर-एक में वन रूम किचन ले लिया है और आॅटो चलाने लगा है। कभी उसे दिखाई देता कि उसने बबलू को फोन किया है और बबलू ने मुंबई आकर सम्राट समूह के चेयरमैन का भेजा भून दिया है।
जब कभी वह मार्केट में खरीदारी के लिए निकलता, तो एक-एक दुकान को गौर से देखता और सोचता कि वह किस चीज की दुकान खोल ले, ताकि व्यस्त भी रहे और चार पैसे भी कमाए। लेकिन हर दुकान का मालिक उसे बताता कि उसका धंधा मंदा चल रहा है। दुकानें उठ रही हैं। व्यवसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, डकैती और हत्याएं बढ़ रही हैं।
धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे निकालने जाता, अपना बैलेंस देख कर चिंताग्रस्त हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, सिर्फ निकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की शादी थी। हाथ, गले और कान के जेवरों का उसने जो वादा किया था, उनका एस्टीमेंट पैंतीस हजार बैठ रहा था। कम से कम दस हजार आने-जाने-रहने में खर्च होनेवाले थे।
अभी तक धनराज ने रोहित की तनख्वाह पर नजर नहीं डाली थी, लेकिन अब उसे रोहित के खर्च खटकने लगे। उसने पाया कि रोहित ने अब तक जो भी कमाया था, वह सब का सब महंगी कमीज-पैंटों, वीकएंड पार्टियों, सिनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जीन्स और टॉप पहनकर कभी-कभी घर चली आनेवाली रोहित की गर्ल फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।
‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा यार?‘ लड़कियां धनराज के सामने ही रोहित को नये खर्चों के लिए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।
इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और वीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में जमा कर दिए। उसका तर्क था कि मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और वीसीआर गए जमाने की चीज हो गई है। इतने सारे चैनल हैं, चैबीस घंटे चलती फिल्में हैं, ऐसे में वीसीआर की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ दिनों के बाद उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टेबल के बेच दिया। उसका कहना था कि अब रोहित पूरे दिन दफ्तर में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नये कोर्स की कक्षाओं में। इसलिए घर में फालतू सामानों की भीड़ बढ़ाने की कोई तुक नहीं है। कुछ दिनों के बाद धनराज अपनी फैक्स मशीन भी बेच आया। उसका कहना था कि जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स किसके आएंगे?
सरिता और रोहित आदर्श पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसलिए उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब वे दोनों भी चिंतित हो गए। दोनों को एक साथ लगा कि धनराज कहीं उन्हें मुंबई के पहलेवाले दिनों में तो नहीं ले जाना चाहता है! दोनों को लगा कि समय रहते जाग जाना चाहिए।
एक रात दो पैग पी लेने के बाद धनराज का सामना रोहित से हो गया। उसने टीवी बंद किया और रोहित को अपने सामने बिठा लिया। रोहित चैकन्ना हो गया।
‘देखो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है। तुम्हारी खुशियों का दुश्मन नहीं हूं मैं। लेकिन तुम खुद बताओ...‘ धनराज ने तीसरा पैग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है, ऐसे में क्या तुम्हें शोभा देता है कि तुम अपनी पगार वेनह्यूजन की पैंटों, चिरागदीन की शर्टों और दो-दो हजार के जूते खरीदने में खर्च करो...वीकएंड की पार्टियों में हजार-पांच सौ का कंट्रीब्यूशन करो...मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए रोहित, तुम्हें छह हजार रुपये मिलते हैं। एक हजार रुपये अपने खर्चे के लिए रखो और पांच हजार रुपये बैंक में जमा करा दो। एक साल में साठ हजार रुपये...यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत देगा।‘ धनराज ने तीसरा पैग समाप्त कर दिया।
‘मैं ऐसा नहीं सोचता पापा...मैं कमाने और खर्च करने में यकीन रखता हूं। रोहित ने पहली बार अपने पिता के साथ बहस की, ‘आप देखते ही हैं कि डी गैंग के शूटर बिल्डरों, प्रोड्यूसरों, डाॅक्टरों को गोलियों से भून देते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है। पिछले दिनों सेक्टर चार में रहने वाला मेरा एक दोस्त मकरंद जोगेश्वरी में एक खंभे से टकराकर ट्रेन से गिरा था। वह अब तक कोमा में है। मकरंद एक मल्टीनेशनल कंपनी में वेब डिजाइनर था।‘
‘अरे वाह!‘ धनराज तालियां बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझदार हो गए हो।‘ धनराज हसंने लगा, ‘वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तुम्हारी दोस्ती बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं।‘
‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूं?‘ रोहित ने तिलमिला कर जवाब दिया।
धनराज चुप हो गया। वह खुद भी यह कहां चाहता था कि उसका बेटा सेक्टर-एक के लड़कों जैसा हो जाए। तो फिर?
क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चैथा पैग बनाने लगा।
‘अब बस करो।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘लड़के की तनख्वाह पर आंख गड़ाने से बेहतर है कि तुम शराब पीना छोड़ दो।‘
‘क्या?‘ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के. छोड़ देता हूं।‘ धनराज ने कहा और रम की बची हुई बॉटल को खिड़की से बाहर फेंक दिया।
रात के अंधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के पिछवाड़े गिरने के बावजूद बॉटल के टूटने ने खासा शोर किया। वाचमैन की सीटियां गूंजने लगीं। दो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खिड़िकियों से झांककर भी देखा। धनराज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी आंखें एक अजीब-से अचंभे में पहुंचकर स्थिर हो गई थीं, फिर वह सोफे पर ही पसर गया।
बहुत दिनों के बाद धनराज बिना खाना खाए सो गया।
‘साॅरी पापा।‘ सोते हुए धनराज के माथे पर किस किया रोहित ने, ‘मैं आपकी तकलीफ को समझता हूं।‘
सरिता की आंख में बड़े दिनों के बाद कुछ आंसू आए। वह धनराज के जूते उतारने लगी। देर तक बेडरूम की खिड़की से बाहर के अंधेरे को ताकती हुई वह सोचती रही कि उनकी गृहस्थी को किसका शाप लगा है।
उस रात दिल्ली के एक महंगे इलाके में एक धन पशु कॉलेज की एक लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे काट-काटकर तंदूर में भून रहा था और मुंबई के कुछ होटलों में बीवियां बदलने का खेल चल रहा था।

×××


गोल्डन नेस्ट के बाहर हाईवे पर शेयर ऑटो मिलते थे। हैरान परेशान धनराज ने शेयर ऑटो किया और पांच रुपये में भायंदर स्टेशन पहुंच गया। पुल पार करके वह भायंदर पश्चिम पहुंचा और उसने भगत सिंह पुस्तकालय की सदस्यता ले ली।
इस पुस्तकालय में होनेवाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार वह मुख्य अतिथि बनकर आया था।
‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी‘ नाम की किताब इशु कराकर वह पुस्तकालय की मेज के एक कोने पर चला गया। उसे किताब के नाम ने आकर्षित किया था। लेकिन जल्दी ही वह ऊब गया। उसने किताब वापस कर दी और बाहर आ गया।
रेल की पटरियों के पास एक बड़ी-सी खुली जमीन, जिस पर लकड़ी के मोटे-मोटे स्लीपर पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बूढ़ों को देखा। उसे लगा, बूढे़ लोगों की कोई सभा है। उन बूढ़ों के पास से गुजरता हुआ धनराज वापस पुल पर आ गया और पुल पर चढ़ती-उतरती भीड़ को देखने लगा।
बहुत भीड़ हो गई है। उसने सोचा और खुद भी भीड़ का हिस्सा बन कर सीढ़ियां उतरने लगा। पूर्व में आकर वह शालीमार फर्नीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर का ज्यादातर फर्नीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के लिए कॉफी मंगवा ली।
‘बड़े दिनों के बाद आना हुआ?‘ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चाहिए?‘
‘अब घर में जगह ही कहां बची है।‘ धनराज ने जवाब दिया, ‘सब कुछ तो है।‘
‘सो तो है।‘ उपाध्याय जी खिसियाकर बोले, ‘इस धन्धे में भी बहुत मंदी आ गई है। कई-कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीदने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीद चुके हैं। अब तो दुकान का किराया निकालना भी भारी पड़ रहा है।‘ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल दुकान को निहारते हुए ठंडी सांस ली।
धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘वे कौन लोग हैं?‘
उन्हें उनके बेटे-बहुओं या दामाद-बेटियों ने घर से निकाल दिया है। इसलिए दिन भर पटरियों पर टाइम पास करते हैं।
‘क्यों?‘ धनराज थोड़ा-सा चकित हुआ और थोड़ा-सा उदास, ‘घर से क्यों निकाल दिया है?‘
‘क्या है कि लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या दामाद काम पर चले जाते हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहेंगे? इन्हें सुबह निकाल दिया जाता है और रात को वापस ले लिया जाता है।‘ उपाध्याय जी ने समझाया।
इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बूढ़ों का जीवन यही होगा। धनराज ने सोचा और पूछा, ‘और इनका खाना?‘ वह बूढ़ों को लेकर चिंतित हो गया।
‘खाना, रात को मिलता है न! दिन में बड़ा पाव वगैरह खा लेते होंगे।‘ उपाध्याय जी ने लापरवाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है। मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूं, जिन्हें उनके बेटों ने विरार से चर्चगेट का पास बनवा दिया है। बूढ़े सुबह विरार ट्रेन में जाकर बैठ जाते हैं और रात को उसी ट्रेन से उतरकर अपने घर चले जाते हैं।‘
‘और लैटरीन-बाथरूम?‘ धनराज पूछ बैठा।
‘उसके लिए स्टेशन हैं न!‘ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चिढ़-सी मची, ‘और बताइए क्या चल रहा है?‘
‘चलना क्या है?‘ धनराज मुस्कराया और वापस शेयर ऑटो में बैठकर घर लौट आया।
धनराज का घर!
रात को जब धनराज ने बिना शराब पिए खाना खा लिया तो सरिता खुश होने के बजाय दुखी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चाताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चाहिए थी इस आदमी से, जिसने परिवार को सारे सुख दिए। क्यों औरतें पति और बेटे में से किसी एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?‘ सरिता ने सोचा और डबडबाई आंख लिए किचन में चली गई।
ग्यारह बजे के करीब रोहित घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े देखा तो इशारों से सरिता से पूछा। सरिता ने उस चुप रहने का इशारा किया और रोहित चुपचाप बेडरूम में आ कपड़े बदलने लगा।
खाना खाकर रोहित हॉल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंद कर दूं?‘
‘नहीं।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। फिर पूरी रात धनराज ने दो ही काम किए-दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं।
उसकी करवटों को देर रात तक महसूस किया रोहित और सरिता ने।
अगली सुबह फ्रेश होकर धनराज वापस भगतसिंह पुस्तकालय चला गया। उसने अल्मारियों में लगी बहुत-सी किताबों को देखा-क्राइम एंड पनिशमेंट, अन्ना कैरेनिना, राम की शक्ति पूजा, मुक्ति बोध रचनावली, उखड़े हुए लोग, मां, सारा आकाश, आदि विद्रोही, कुरू कुरू स्वाहा, एक चिथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, मित्रो मरजानी, भागो नहीं दुनिया को बदलो, पूंजी, रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूशन, हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड, आधी रात की संतानें, तमस, काला जल, कव्वे और काला पानी, दर्शन दिग्दर्शन, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अंधेरे बंद कमरे, ठुमरी, गोदान, कनुप्रिया, अंधा युग, मुर्दाघर, बेदी समग्र, मंटोनामा, दादर पुल के बच्चे।
फिर वह थक गया। किताबों से उसका वास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे लगा यह दुनिया उसकी नहीं है। बहुत-बहुत हताश होकर वह वापस मेज पर बैठ गया। देर तक बैठा रहा फिर थके कदमों से बाहर निकल आया।
बाहर जीवन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस लिए, कंधे पर झोला लटकाए, सिर पर बोझ उठाए ट्रेन पकड़ने के लिए भागे जा रहे थे। टिकट विंडों की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, रेलवे स्टॉल पर खड़े-खड़े बड़ा पाव, पाव समोसा, कचैरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से मोबाइल चिपकाए संदेश सुन रहे थे, भागकर ट्रेन के पायदान पर लटक रहे थे। किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी। भीड़ को देख अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन काम पर जा रहा है और कौन काम से निकाला जाकर लौट रहा है। किसके पास पैसा है और किसके पास पैसा नहीं है। सबके चेहरों में सिर्फ एक ही समानता थी कि सबके चेहरे खामोश, चिंताग्रस्त और खोए-खोए से नजर आते थे-फिर चाहे वे चेहरे स्त्रियों के हों या पुरुषों के।
धनराज पुल पार करके भायंदर पूर्व की तरफ आ रहा था कि एक ठीक-ठाक से दिखते लड़के ने उसे सीढ़ियों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘ धनराज अचकचा गया और तेजी से बोला ‘हां हैं, क्यों?‘
‘मुझे दीजिए न!‘ लड़के ने आग्रह किया।
‘क्यों भई!‘ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी भिखारी जैसा नहीं लगता था।
‘बड़ा पाव खाना है।‘ लड़के ने गर्दन झुका दी।
‘घर से भागकर आए हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘हां।‘ लड़के ने स्पष्ट जवाब दिया।
‘कहां से?‘ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।
‘बिहार से।‘ लड़का मासूमियत से बोला।
‘क्यों?‘ धनराज के तेवर आक्रामक हुए।
‘काम की तलाश में।‘ लड़का सहमा-सा बोला।
‘तो काम करो। भीख क्यों मांगते हो?‘ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपये एक साथ दिए।
‘लाइए काम।‘ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूं। सब बोलते हैं, काम करो, पर काम देता कोई नहीं है।‘
‘कहां-कहां काम ढूंढा? पढ़े-लिखे हो?‘ धनराज के भीतर लड़के को लेकर दिलचस्पी पैदा होनी शुरू हुई। यूं भी वह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।
‘कालबा देवी के बाजारों से लेकर भायंदर के बाजारों तक घूमा हूं। दसवीं पास हूं पर सब बोलते हैं कि किसी जान-पहचान वाले को लाओ।‘ लड़का व्यथित था।
‘मुबई आने की सलाह किसने दी?‘ धनराज ने पूछा।
‘किसी ने नहीं।‘ लड़का सहजता से बोला, ‘बिहार के लड़के भाग कर या तो मुंबई आते हैं या कलकत्ता जाते हैं।‘
‘तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता मैं।‘ धनराज गहरी उदासी में डूबकर बोला और उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपये का नोट निकालकर दे दिया।
धनराज रेलवे स्टाॅल पर खड़ा इडली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक दूसरे आदमी से पूछते देखा, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘
‘तो भीख मांगने का यह आधुनिक तरीका है?‘ धनराज ने सोचा और खुद को छला गया महसूस किया। पैसे चुकाकर वह स्टेशन के बाहर निकल रहा था कि एकदम अचानक उसे अपने पिता की याद आई। उसने देखा स्टेशन के बाहर, टिकट विंडो के सामने एक 40-45 साल का थका-थका-सा आदमी बांसुरी पर गा रहा था-
‘चुपके-चुपके रोनेवाले
रखना छुपा के दिल के छाले...
ये पत्थर का देस है पगले
कोई न तेरा होय।‘
धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। वह आदमी भीख नहीं मांग रहा था, सिर्फ गाना गा रहा था। लेकिन उसकी आवाज में इतनी करुणा, इतना विलाप और दर्द था कि लोग खुद-ब-खुद उसे एक रुपया, आठ आना, दो रुपया दिए जा रहे थे। धनराज ने भी एक दो रुपये का सिक्का उसे दिया और सोचा, बिहार से आए उस लड़के को इस आदमी के सामने केवल खड़ा कर देना चाहिए।
रखना छुपा के दिल के छाले...धनराज ने दोहराया और पिता की याद गहरी हो गई।
मृत्यु से कुछ समय पहले तक पिता बिस्तर में लेटे-लेटे यही गाना गाया करते थे-
पिंजरे के पंछी रे
तेरा दर्द न जाने कोय...
मृत्यु की तरफ जाते पिता देख रहे थे कि जीवन भर के जी तोड़ संघर्ष के बावजूद घर उनसे संभल नहीं पाया था। अपने अंतिम दिनों में वह बहुत हताश थे और आंखें बंद कर के गाते रहते थे -
रखना छुपा के दिल के छाले रे...
यह तब की बात है, जब धनराज बी.ए. करने के बाद जोधपुर में नौकरी के लिए मारा-मारा घूम रहा था और राकेश एक बिजली की दुकान में पढ़ाई छोड़कर रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हो गया था। बाद में उसी दुकान पर धनराज भी लगा, लेकिन तब तक पिता के छाले फूट गए थे और उन छालों को उन्होंने हमेशा के लिए छुपा लिया था।
घर पहुंचकर धनराज लेटने के लिए चला गया। सरिता ने खाने के लिए पूछा, तो उसने मना कर दिया। सरिता ने बताया कि वह सेक्टर चार जा रही है।
‘सेक्टर चार। क्यों?‘ धनराज हैरान रह गया।
‘सेक्टर चार के पब्लिक स्कूल में मैथ की टीचर चाहिए। सोचती हूं एप्लाई कर आऊं।‘ सरिता ने बताया।
‘ओह।‘ धनराज के होंठ गोल हो गए। सरिता गणित की अच्छी जानकार थी।
‘ठीक है।‘ धनराज ने एक ठंडी सांस भरी और गुनगुनाने लगा-रखना छुपा के दिल के छाले रे...
शाम चार बजे धनराज बैठा अपने ब्रीफकेस की सफाई कर रहा था कि उसे एक कार्ड मिला-अयूबी सिक्योरिटीज। धनराज को याद आया कि जिन दिनों सम्राट समूह का पालघर वाला प्लांट लग रहा था, उन दिनों अयूबी सिक्योरिटीज के मालिक महमूद अयूबी ने उससे प्रार्थना की थी कि वह उसे काम दिलाए। फिल्मों में विलेन बनने आए महमूद अयूबी ने लंबे संघर्ष से ऊबकर छोटे स्तर पर सिक्योरिटी गाड्र्स का धंधा अपना लिया था। अयूबी चारकोप में उसका पड़ोसी था। बाप का तंबाकू का व्यवसाय था, जो उसे रास नहीं आया। वह मुंबई में प्राण या प्रेम चोपड़ा या फिर अमजद खान बनने आया था, लेकिन निर्माताओं ने उसे मौका ही नहीं दिया। वापस घर लौटने में हेठी होती थी, इसलिए उसने इस धंधे में उतरने की सोची। उसने चारकोप में अपने बाजू में एक और घर किराए पर लिया और अपने शहर अलीगढ़ से जांबाज किस्म के एक दर्जन बेकार युवकों को बुलाकर उस घर में रख दिया। घर के बाहर उसने बोर्ड टांगा ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ और धंधे की तलाश में निकल पड़ा।
उन्हीं दिनों धनराज ने उसके बारह में से छह गबरू जवानों को अपने पालघर के प्लांट में रखवाया था। अयूबी ने कहा था, ‘यह मुसलमान की जुबान है धनराज सेठ। आपने हमारी मदद की। कभी हमको भी आजमा कर देखना।‘ बाद के दिनों में धनराज को पता चलता रहा कि महमूद अयूबी चारकोप की पतरेवाली बैठी चाल से निकलकर एक दो कमरोंवाले फ्लैट में शिफ्ट हो गया है। उसका धंधा चल निकला है और उसकी सिक्योरिटी सर्विस में अब पचास से ज्यादा लोग हैं। सबके सब अलीगढ़, सहारनपुर, नजीबाबाद और मेरठ के मुसलमान नौजवान, जो बिना रोजगार के अपने-अपने शहरों में बेकार भटक रहे थे। मुंबई जैसे शहर में अयूबी पचास से ज्यादा लड़ाकू नौजवानों का माई-बाप था। यह छोटी बात नहीं थी। लोग उन लड़कों को अयूबी के फंटर बोलते थे।
घटाटोप अंधेरे में जैसे एकाएक टॉर्च जलकर बुझ जाए। धनराज उछल पड़ा। उसे लगा, मुसलमान की जुबान को जांचने का मौका आ पहुंचा है।
समस्या यह थी कि उसके पास अयूबी का नया पता-ठिकाना नहीं था। उसने तय किया कि अयूबी के पुराने घर चारकोप चलता है। फटाफट तैयार होकर धनराज घर से निकल पड़ा। मीरा रोड पहुंच कर उसने बोरीवली का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर आ गया। शाम के छह बज रहे थे। चर्चगेट से आनेवाली गाड़ियां थके-टूटे-झल्लाए, भुनभुनाते और भन्नाए लोगों को प्लेटफार्म पर फेंक रही थीं। व्यस्त घंटे शुरू हो गए थे। उस तरफ के प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ टिड्डी दल की तरह बिछी पड़ी थी। सिर ही सिर। न उभरी हुई छातियों का आकर्षण, न उत्तेजक नितंबों को लेकर कोई सिसकारी। जैसे वीतरागियों का हड़बड़ाया हुआ समूह मायालोक से निकलकर मुक्ति के रास्तों पर भागा जा रहा हो।
हालांकि चर्चगेट जानेवाली गाड़ियां खाली थीं, फिर भी एहतियातन धनराज ने प्रथम श्रेणी का ही टिकट लिया था। बोरीवली तक ही तो जाना था। ट्रेन आई तो वह आराम से चढ़ गया और गेट पर खड़ा होकर हवा खाने लगा। वह दहिसर और बोरीवली के बीच बसी झोंपड़पट्टी और उनमें रहते हुए लोगों का मुआयना-सा करने लगा।
दो-तीन लोग पास में डिब्बा या बोतल रखकर पूरे जमाने से निरपेक्ष होकर पटरियों पर बेफिक्री के साथ निपट रहे थे। कुछ औरतें अपनी झोपड़ियों के बाहर बैठी परात में आटा गूंथ रही थीं। झोंपड़पट्टी से थोड़ा हटकर एक मैदान जैसी जगह में कुछ छोटे लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। चार जवान छोकरे और दो अधेड़ ताश खेल रहे थे और किसी बात पर ठहाके लगाकर हंसते जा रहे थे। एक बच्चा घुटनों-घुटनों सरकता हुआ पास बहते गंदे नाले में जा गिरा था, जिसे बचाने के लिए एक औरत झोपड़ी से निकल नाले की तरफ चिल्लाती हुई भागी जा रही थी। इस बीच ट्रेन आगे बढ़ गई।
यह जीवन पहले भी था धनराज। धनराज के भीतर कोई बुदबुदाया, बल्कि इससे भी ज्यादा बदतर और बेमानी। जरा सोचो क्या तुम इस जीवन के भीतर दो-पांच दिन के लिए भी सांस ले सकते हो। उसमें रहकर ठहाके लगा सकते हो। झिलमिल करती, मदमस्त मुंबई का चकाचैंध करने वाला स्वर्ग इस जीवन के नरक पर ही टिका हुआ है। इस जीवन से ताकत लो धनराज।
धनराज बौखला गया। ऐसा उसके जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। यह कौन उसके भीतर छुपा उसे पुकार रहा है?
बोरीवली उतर धनराज वेस्ट में आ गया। चारकोप के ऑटो में बैठकर उसने सिगरेट जला ली।
चरकोप का चेहरा बदल गया था। चारकोप बस डिपो से गोराई जानेवाली खाड़ी के जिस मोड़ तक धनराज कभी रात में गुजरने की सोच भी नहीं सकता था, वह पूरा इलाका लकदक बाजारों, छोटे बंगलों और हाउसिंग सोसायटी के फ्लैटों से जगर-मगर हो गया था। इस नये चारकोप के भीतर से पुराने चारकोप को तलाशना खासा कठिन था। धनराज अपने घर ले जानेवाली गली को भूल गया। धनराज आठ बरस के बाद चारकोप लौट रहा था। उसने आॅटो मेन रोड पर छोड़ दिया और बस डिपो के बगल में बनी पहली गली और उस गली के नुक्कड़ पर बने साईंबाबा के मंदिर को खोज निकाला। मंदिर पहले से ज्यादा बड़ा और भव्य हो गया था। उसने मंदिर के सामने खड़े होकर हाथ जोड़े और गर्दन झुका दी। इसी गली के अंतिम सिरे पर वो मैदान था, जिसमें दिसंबर के दंगों में मुसलमानों का सामान जलाया गया था। वहां एक सात मंजिला इमारत खड़ी थी। उस इमारत को पार कर धनराज आगे बढ़ गया। आखिर वह रुका और उसने एक पानवाले से पूछा, ‘क्यों बॉस, सेक्टर चार में डॉ. लवंगारे वाली गली कौन-सी है?‘
डॉ. लवंगारे का क्लीनिक उस गली के मोड़ पर एकदम शुरू में था, जिस गली में कभी धनराज रहा करता था। डॉ. लवंगारे अपने मरीजों को इतनी गोलियां देता था कि उनसे पेट भर जाए। इसीलिए सरिता उसे घोड़ों का डॉक्टर कहती थी।
लवंगारे वाली गली वही थी, जिसके सामने कभी मैदान और अब सात मंजिला इमारत खड़ी थी। धनराज उस गली में आगे बढ़ गया, आखिर, रोड पर ही बनी 440/41 नंबर वाली पतरे की चाल के सामने वह रुक गया। यह था उसका अपना घर।
उसने बंद घर के बाहर लगी बेल बजा दी।
दवाजा खुला और धनराज एलिस के आश्चर्यलोक में जा गिरा।
वही थी, एकदम वही। सपना सारस्वत। मालाड के चांदनी बार की उसकी पसंदीदा डांसर, बीते दिनों में एंटरटेनमेंट के वाउचर बना-बनाकर बहुत पैसे लुटाए थे उसने सपना सारस्वत पर।
‘तुम? दोनों के मुंह से एक साथ निकल पड़ा।
‘आओ। भीतर आओ।‘ सपना ने मुस्करा कर कहा, कितने बरसों बाद आए हो...लेकिन ध्यान रखना मेरे निकलने का टाइम हो गया है। सपना ने अपनी घड़ी दिखाई।
धनराज भीतर आ गया। वह सपना को भूल उस घर को घूम-घूमकर देखने लगा।
‘पुलिस में भर्ती हो गए हो क्या?‘ सपना खिलखिलाई।
‘पागल। इस घर में कभी मैं रहता था।‘ धनराज ने सपना के गालों को थपथपा दिया। कितने जमाने के बाद उसके जीवन में एक मचलता हुआ उल्लास लौट रहा था।
‘क्या बात करते हो?‘ सपना दंग रह गई, ‘तो क्या मैं तुम्हारे घर में रहती हूं?‘
‘नहीं रे।‘ धनराज उसी उल्लास के बीच खड़ा-खड़ा बोला, ‘बंबई में घर इतनी आसानी से नहीं बनते। तुम तो वैसी की वैसी हो...एकदम चकाचक।‘ अब वह सपना को निहारने लगा।
‘हमको चकाचक रहना पड़ता है धनराज। हमारा पेशा है यह।‘ सपना की आवाज उखड़ने लगी।
‘उखड़ो मत, उखड़ो मत।‘ धनराज ने अचानक गार्जियन की भूमिका संभाल ली, ‘धंधे का टाइम हो रहा है तुम्हारे। अभी भी चांदनी बार में ही नाचती हो?‘
‘नहीं। अभी मैं लोटस में हूं।‘ सपना ने इतराकर कहा।
‘अरे बाप रे? लोटस तक पहुंच गईं तुम?‘ धनराज चकित हो गया, ‘अगली छलांग कहां की है, दुबई की?‘
लड़कियां श्रीदेवी और रेखा बनने बंबई आती थीं और बारों में नाचने लगती थीं। बारों में नाचते-नाचते उनका सपना अभिनेत्री बनने के बजाय ‘लोटस‘ पहुंच जाने का हो जाता था। लोटस में नाचते-नाचते वे दुबई पहुंच जाती थीं-शेखों के दरबार में। पांच-सात साल दुबई में गुजारकर वे वापस मुंबई लौटती थीं-ढेर सारे हीरे-जवाहरात, मोटे बैंक बैलेंस, निचुड़े हुए सीनों और गंभीर बीमारियों के साथ। मुंबई की किसी अच्छी जगह पर अपना फ्लैट खरीदतीं और उसी फ्लैट में खाते-पीते और मुटाते हुए एक दिन मर जाती थीं।
‘मुझे नहीं जाना दुबई।‘ सपना सिहर गई।
‘दुबई तो तुमको जाना ही पड़ेगा रानी।‘ धनराज हंसने लगा। ‘लोटस‘ के शब्दकोश में ‘न‘ अक्षर छपा ही नहीं है। तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हें दुबई जाना ही पड़ेगा।‘
सपना लजा गईं फिर बाहर निकल ताला बंद करने लगी। खाली जाते आॅटो को रोक वह उसमें बैठती हुई बोली, ‘दुनिया बहुत छोटी है, शायद हम फिर मिल जाएं। वैसे तुमने मेरा घर, साॅरी अपना घर तो देखा ही हुआ है।‘
‘बाय।‘ धनराज ने हाथ हिला दिया, फिर वह घर के बाहर बनी दीवार की रेलिंग पर बैठ गया।
दो लड़कियां सामने से गुजरीं। उन्होंने धनराज को उड़ती नजर से देखा, फिर उनमें से एक एकाएक ठिठक गई?
‘आप धनराज अंकल हैं?‘ वह बोली, ‘रोहित के पप्पा?‘
‘हां!‘ धनराज ने कुछ याद करने की कोशिश की, ‘तुम?‘
‘अंकल मैं डॉली हूं। डॉली काकड़े।‘ लड़की पास चली आई।
‘अरे? आप इत्ते बड़े हो गए?‘ धनराज को याद आ गया। यह विनोद काकड़े की बेटी थी, जो कभी-कभी अपने घर से उसके लिए फिश फ्राई लाती थी। विनोद काकड़े इसी सोसायटी में अंदर रहता था और बेस्ट में ड्राइवर था।
‘घर चलिए न अंकल।‘ लड़की मचलने लगी।
‘अभी नहीं बेटे।‘ धनराज ने मना कर दिया, ‘मुझे तुम यह बताओ कि सामने वाली सोसायटी में जो अयूबी अंकल रहते थे, उनका पता कहां से मिलेगा?‘
‘पानबुड़े भाभी से पूछिए न।‘ लड़की ने सलाह दी और बोली, ‘आंटी को बोलिए न, कभी इधर भी आएं।‘
‘जरूर।‘ धनराज ने जवाब दिया और पानबुड़े भाभी के घर की तरफ बढ़ने लगा।
पानबुड़े भाभी अपने घर के बाहर दुकान लगाती थीं और अयूबी का वहां सिगरेट-सोडे-नमकीन का खाता चलता था। पानबुड़े भाभी का पति अच्छा गायक था, लेकिन फिल्मों में मौका न मिल पाने के कारण शराब पी-पीकर मर गया था, वह इस गली की जगत भाभी थीं।
चारकोप के दिनोंवाली दूसरी होली में धनराज ने भाभी के स्तनों पर रंग मल दिया था। भाभी गुर्राने लगी थीं, फिर कमरे में जाकर चापर निकाल लाई थीं। धनराज ने माफी मांग ली थी। वह थोड़ा मुटा गई थीं, लेकिन हंसती अभी भी उसी अंदाज में थीं, जिसे देख आदमी फिसलने-फिसलने को हो जाए।
‘अयूबी अब्भी बहुत बड़ा सेठ है।‘ भाभी ने बताया, ‘अब्भी इदर एक सेक्टर छह बन गएला है गोराई के बाजू में, कोई भी आॅटो में बैठ जाओ, अयूबी तक पहुंचा देगा। कोई खास बात?‘
‘नहीं भाभी। बस यूं ही। सोचा मिल लेता हूं। फिर आता हूं।‘ धनराज भाभी से विदा लेकर खाली जाते आॅटो में बैठ गया और बोला, ‘सेक्टर छह। अयूबी के दफ्तर।‘
आॅटो वाले ने धनराज का सिर से पांव तक मुआयना किया और बोला, ‘आॅफिस नजीक ही है, पन पचास रुपया लगेंगा। और अपुन ऑफिस के सामने नई छोड़ेंगा। दूर से दिखा के चला आएंगा, चलेगा?‘
‘चलेगा।‘ धनराज ने जवाब दिया।
सेक्टर-छह की पुलिस चैकी के पास ऑटोवाले ने धनराज को उतार दिया और बताया, ‘वो सामने काले कांच के दरवाजों वाली बिल्डिंग अयूबी सेठ की है।‘
धनराज ने चुपचाप पचास रुपये दे दिए। ऑटो मुश्किल से दस मिनट चला होगा।
धनराज को याद आ गया। यह वही रास्ता है जो गोराई बीच ले जाने वाले तट पर जाता है। तट से बोट लेकर उस पार उतरते हैं, फिर तांगे में बैठकर गोराई बीच जाते हैं। चारकोप वाले दिनों में वह सरिता और रोहित के साथ कई बार इस रास्ते से गोराई बीच जा चुका है। लेकिन तब यह रास्ता सुनसान रहता था। बिल्डिंग और रो हाउस तो क्या चाय की एक गुमटी भी यहां नजर नहीं आती थी। लगातार मुंबई आ रहे लोग एक दिन इसकी एक-एक इंच जगह पर खड़े हो जाएंगे। धनराज ने कल्पना की।
काले कांच के दरवाजों के बाहर धनराज को दो सशस्त्र वाचमैनों ने रोक लिया, ‘किससे मिलने का है?‘
‘अयूबी से।‘ धनराज ने उत्तर दिया।
‘कार्ड?‘ एक वाचमैन ने हाथ आगे बढ़ाया।
धनराज ने पर्स निकाला। संयोग से सम्राट समूह के मीडिया डायरेक्टरवाले दो-तीन विजिटिंग कार्ड उसमें मौजूद थे। उसने एक कार्ड पकड़ा दिया और देखा-बिल्डिंग के गेट पर सुनहरे अक्षरों में अयूबी सिक्योरिटीज ही लिखा था। वह थोड़ा-सा आश्वस्त हुआ। उनमें से एक वाचमैन भीतर गया और करीब तीन मिनट बाद वापस आया, ‘जाइए।‘
धनराज ने काले कांच का दरवाजा भीतर की तरफ धकेल दिया और एसी की ठंडी फुहार से प्रफुल्ल हो गया।
‘सॉरी सर।‘ एक महिला ऑपरेटर बोली और उसने अपने सामने की बेंच पर बैठे कुछ सादी वर्दीवालों को इशारा किया। तत्काल दो लोग उठे और उन्होंने धनराज को सिर से पांव तक मय ब्रीफकेस के जांच लिया। इसके बाद उनमें से एक ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। धनराज चल पड़ा, एक गलियारा पार करने के बाद साथ आए आदमी ने एक कमरे का दरवाजा खोला और बोला, ‘जाइए।‘
भीतर अयूबी था।
वह अयूबी नहीं, जिसकी धनराज ने कभी मदद की थी।
यह चमकते लेकिन खिंचे हुए कटावदार चेहरे वाला वह अयूबी था, जैसा वह फिल्मों में बनने आया था, सुनहरे पर्दे पर उसे यह मौका नहीं मिला तो वास्तविक जीवन को उसने इस दिशा में मोड़ लिया। वह कीमती शेरवानी में था। उसके बाएं हाथ में राडो घड़ी और दाएं हाथ में सोने का ब्रेसलेट था। गले में काफी मोटी सोने की चेन डाले एक बड़ी-सी मेज के पीछे वह रिवॉल्विंग चेयर पर बैठा था।
धनराज के प्रवेश करते ही वहां मौजूद तीन-चार लोग कमरे से बाहर निकल गए।
‘वेलकम धनराज सेठ।‘ अयूबी ने खड़े होकर अपनी बांहें फैला दीं, ‘बहुत दिनों के बाद अपनु को याद किया।‘
अयूबी से गले मिलकर धनराज उसके सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गया। वह समझ नहीं पाया कि बात का सिरा किधर से थामे। चुप रहकर वह इस बात का अंदाजा लगाने में भी व्यस्त था कि ‘अयूबी सिक्योरिटीज‘ में उसे उसके लायक क्या काम मिल सकता है।
‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज तत्काल मुद्दे पर आ गया।
‘अपुन को क्या करने का है?‘ अयूबी ने पूछा, ‘अपुन ने तुमको जुबान दिया था सेठ। बोलो, अपुन तुम्हारे वास्ते क्या कर सकता है?‘
‘मुझे तुम्हारे यहां नौकरी मिल सकती है?‘ धनराज ने सीधे ही पूछ लिया।
उसके सवाल पर अयूबी की हंसी छूट गई। हंसते-हंसते उसकी आंखों में पानी आ गया। थोड़ा संभलकर वह बोला, ‘मजा आ गया धनराज सेठ। तुम बिल्कुल नहीं बदले...अभी भी एकदम वैसे ही हो...सिर झुका कर कोल्हू के बैल का माफिक डगर-डगर करते हुए। अच्छा टाइम पास हुआ आज।‘ फिर उसने इंटरकाॅम उठाकर ऑपरेटर से कहा, ‘सलीम लंगड़े को भेजो तो।‘
भरे-पूरे बदन और शातिर-सी आंखोंवाले, दोनों पैरों पर चलकर आनेवाले जिस आदमी ने भीतर आकर अयूबी से ‘यस बाॅस‘ कहा उसे देख धनराज अचरज में पड़ गया, ‘इसका नाम लंगड़ा क्यों है?‘
‘लंगड़े!‘ अयूबी फिर हंसने लगा, ‘यह धनराज सेठ है...अपने शरीफ दिनों का शरीफ दोस्त। अपन को उठाने में इसने बहुत मदद किया था। अभी इसको मदद का जरूरत है। अपुन लोग इसके वास्ते क्या कर सकता है?‘
‘किस टाइप का मदद बॉस?‘ सलीम लंगड़े ने अदब के साथ पूछा।
‘इसका सेठ इसको नौकरी से निकाल दिया है।‘ अयूबी ने बुदबुदा कर कहा।
‘सेठ को खल्लास करने का है?‘ लंगड़े ने तत्परता से पूछा।
‘नहीं।‘ धनराज डर गया और सहम कर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
‘बैठ जाओ धनराज सेठ। दस साल के बच्चे का माफिक डरो मत। अपुन तुम्हारी समस्या पर डिस्कस कर रेला ऐ।‘ अयूबी ने धनराज को कंधे पकड़कर वापस बैठा दिया। फिर उसने अपने दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में मिला लिया। फिर वह कुछ-कुछ संजीदगी और कुछ-कुछ हताशा की-सी स्थिति में बोला, ‘अयूबी की जुबान झूठा पड़ गया धनराज। तुम शरीफ आदमी हो, अपुन तुमको अपने यहां काम नहीं दे सकता। अपुन का धंधा अभी बदल गएला है।‘
‘तो मैं चलूं?‘ धनराज उठने लगा।
‘पचास हजार या लाख जो बोलो, ब्रीफकेस में रखवा दूं?‘
अयूबी की सदाशयता को देख धनराज विस्मित रह गया। लाख-पचास हजार की बात अयूबी इस तरह कर रहा था, जैसे सौ पचास रुपये देने हों।
‘नहीं, धन्यवाद। मैं चलता हूं।‘ धनराज पूरी तरह खड़ा हो गया।
‘ठीक है।‘ अयूबी भी खड़ा हो गया, ‘मेरे को गलत मत समझना। क्या है कि ये काम तुमको परवड़ेगा नईं।‘
धनराज चुपचाप बाहर आ गया।
बाहर दूर-दूर तक कोई ऑटो नहीं था। धनराज पैदल-पैदल चलता मेन रोड पर आ गया। ऑटो में बैठकर वह थका-थका-सा बोला, ‘मुझे घर ले चलो।‘
‘घर?‘ ऑटोवाला चकरा गया।
‘बोरीवली स्टेशन छोड़ दो।‘ धनराज ने लगभग बुदबुदाते हुए कहा और सिगरेट जलाने लगा।
घर खोजने, घर बनाने, घर संवारने, घर संभालने और घर बचाने में ही जीवन बीत गया है धनराज। अब घर से थोड़ा ऊपर उठो। वरना पता चलेगा कि घर भी नहीं बचा और जीवन भी गया। धनराज का मस्तिष्क सहसा दार्शनिक किस्म की बातें सोचने लगा।
बोरीवली स्टेशन के बाहर पटरियों के किनारे बसे गरीबों के घर टूट रहे थे। मनपा का तोड़ू दस्ता पुलिस के संरक्षण में लोगों के घर उजाड़ रहा था और लोग अपना छोटा-मोटा सामान बचाने में जुटे थे। धनराज उन टूटे हुए घरों को देखता हुआ पुल पर चढ़ा और बोरीवली पूर्व की तरफ उतरने लगा। गजब है इनका जीवन। धनराज सोच रहा था। दो दिन बाद ये लोग फिर यहां घर खड़ा कर लेंगे, आखिर, बंबई आने के बाद कोई यहां से जाता थोड़े ही है। घर रहे या न रहे! प्लेटफॉर्मों पर खड़ी भीड़ उन्मत्त और आक्रामक थी। धनराज ने मान लिया कि उससे ट्रेन नहीं पकड़ी जाएगी। रात के नौ बज रहे थे। इस वक्त बोरीवली से विरार की ट्रेन पकड़ना असाधारण वीरों का ही काम है। सीढ़ियां उतरकर खोमचों, ठेलों और दुकानों को निरुद्देश्य ताकता हुआ वह भायंदर जानेवाली बस के स्टॉप पर आ गया।
बस समय जरूर ज्यादा लेती थी, लेकिन ठीक गोल्डन नेस्ट के दरवाजे के बाहर उतारती थी।
दरवाजे के बाहर खासी भीड़ थी। पांचों सेक्टरों की मिली-जुली भीड़। कुछ पुलिसवाले भी इधर-उधर टहल रहे थे। उस भीड़ को चीरते हुए धनराज राजकुमार पान बीड़ी शॉप पर चला गया, उसकी सिगरेट खरीदने की नियमित दुकान। दुकान के मालिक राजकुमार ने रहस्यमय अंदाज में रस ले-लेकर बताया, सेक्टर-पांच के सोना ब्यूटी पार्लर पर पुलिस की धाड़ पड़ी है। कॉलेज की पांच लड़कियां पांच अधेड़ पुरुषों के साथ अश्लील हरकतें करती पकड़ी गई हैं। पकड़े गए पुरुषों में एक वर्मा साहब भी हैं, सेक्टर-चार के वर्मा साहब, जिनकी गोरेगांव पश्चिम में बहुत बड़ी रेडीमेड कपड़ों की दुकान है और जिनका बेटा फोर्ट की एक कंपनी में कंप्यूटर इंजीनियर है।
‘वर्मा साहब ने सेक्टर-चार की इज्जत का कचरा कर दिया है।‘ राजकुमार हंसने लगा, ‘इस उमर में तो आदमी पालक हो जाता है, मेरे को लगता है कि चुसवा रहे होंगे।‘ राजकुमार फिर हंसा...‘हा...हा...हा...अब उनकी बेटी इस रोड पर से कैसे गुजरेगी? हा...हा...हा...!‘

×××

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कोख से पैदा हुआ उत्तर आधुनिक समय हंस रहा था। शहर के अखबार और बाजार डॉट कॉम कंपनियों के विज्ञापनों से अटे पड़े थे। जुहू की गलियों में चोरी-छिपे चलनेवाला देह व्यापार का धंधा पिछड़ रहा था। महंगे और बड़े कॉलेजों की बिंदास किशोरियां चिपकी हुई जींस और टॉप के साथ कॉलेजों से बाहर निकलकर केवल एक रात के डिस्को जीवन और डिनर विद बीयर के सौदे पर लेन-देन कर रही थीं। इंटरनेट पर पोर्नो साईट सबसे ज्यादा पैसा पीट रही थीं। पूरी दुनिया की हजारों नंगी लड़कियों को करोड़ों बाप-बेटे कंप्यूटर के मॉनीटर्स पर देखने में मशगूल थे। सरकारें अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही थीं। मल्टीनेशनल कंपनियों का अजगर बाजार को लीलता हुआ घुसा चला आ रहा था। कारें बढ़ती जा रही थीं। हवा और पानी समाप्त हो रहे थे। मुंह में चीज बर्गर या चिकन सैंडविच या मटन रोल दबाए और हाथ में कोक की बोतल थामे युवा लड़के डॉट कॉम कंपनियों में चैदह-चैदह घंटे खप रहे थे। जवान होती लड़कियां अपने उत्तेजक सीनों और कामातुर नितंबों के साथ फिल्म फाइनेंसरों की हथेलियों पर नाच रही थीं। अकेले छूट गए बूढ़े लोगों को उनके फ्लैटों में घुसकर कत्ल किया जा रहा था। बच्चों को क्रेच में फेंक दिया गया था और मांएं लोकल में लटक कर काम पर जा रही थीं।
दुनिया की सबसे छोटी कविता लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर खड़ी अट्ठहास कर रही थी-आई। व्हाई?
आई। व्हाई? गोल्डन नेस्ट के सेक्टर-चार की उदीयमान अभिनेत्री गीता अलूलकर ने सोचा और सातवें माले के अपने कीमती फ्लैट की खिड़की से छलांग लगा दी। गीता अलूलकर के साथ-साथ उसके गर्भ में जन्म ले चुका उसका बच्चा भी मारा गया ।
आई। व्हाई? सेक्टर-एक के शराबी ऑटो ड्राइवर की बीवी शोभा नार्वेकर ने सोचा और बदन पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। फिर घर से निकलकर पूरे सेक्टर में वह पछाड़ खाती फिरती रही।
नागपाड़ा पुलिस चैकी में बिना सोए छत्तीस घंटे से ड्यूटी दे रहा कांस्टेबल सालुंके बड़बड़ाया-आई। व्हाई? फिर उसने खुद को गोली मार ली।
घर से निकाल दिए गए सत्तर साल के सतवीर राणा ने दोहराया-आई। व्हाई? फिर वह विरार फास्ट के आगे कूदकर कट गया।
बारहवीं में पढ़ रहे साइंस के स्टूडेंट नासिर हुसैन ने सोचा-आई। व्हाई? और बस स्टॉप पर खड़ी अपनी सहपाठी रमेश टिपणिस के चेहरे पर तेजाब फेंककर भाग खड़ा हुआ।
आई। व्हाई? एक समवेत और नसों को तड़का देनेवाला शोर उठा और मालाड, गोरेगांव, चेंबूर, डोंबीवली, कुर्ला, भायंदर, मुलुंड, कल्याण, विरार के नौजवान और हताश लड़के सीधे हाथ की उंगलियों को रिवॉल्वर की शक्ल में ताने दगड़ी चाल की गलियों में गुम हो गए, जहां सात-सात हजार में शूटरों की भर्ती चल रही थी।
आई। व्हाई? छोटे-मोटे बिल्डर और शराबघरों के मालिक सोचते थे और चुपके से सत्ता के गलियारों में दाखिल हो जाते थे।
पत्र-पत्रिकाएं बंद हो रही थीं। पुस्तकालय सूने पड़े थे। बड़े लेखक या तो मर गए थे या चुक गए थे। मीडियॉकर लेखकों को शौचालयों के मालिक, जूतों और टायरों के मालिक, शराब कंपनियों के हिस्सेदार लाखों रुपये में पुरस्कार बांट रहे थे। जन संघर्षों में सक्रिय रूप से जुड़े रचनाकारों को सलाखों के पीछे डाला जा रहा था। युवा लेखक टीवी सीरियलों के फूहड़ संसार में सेंध लगा रहे थे। अपहरण ने उद्योग का और हफ्ता वसूली ने धंधे का रूप धर लिया था। गुंडे नगरसेवक बन गए थे, डॉक्टर व्यापारी और क्रिकेटर घपलेबाज।
और इस पूरे ‘सीन पिचहत्तर‘ में धनराज के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी।

तीन

नहीं, यह वह बबलू नहीं था, जिसे धनराज अमिताभ बच्चन बनने का सपना देखते हुए जोधपुर में छोड़ गया था। यह सलोने, लंबोतरे चेहरे, स्वप्निल आंखों और बात-बेबात पर मुस्कराता किशोर नहीं था। यह नागेश चैधरी था।
नागेश चैधरी का चेहरा सख्त और खुरदुरा था। उसकी आंखों में एक बनैली हिंसा और क्रूर चमक कौंधती थी। हंसता वह अभी भी था, लेकिन अब उसकी हंसी में एक उपेक्षा जैसा कुछ रहता था। सबसे बड़ी बात, उसकी बातें अजनबी हत्यारों के रहस्यमय देश से आती अंतिम आदेशों जैसी थीं।
इस नागेश चैधरी को अपने सामने खड़ा पा धनराज तो एकाएक लड़खड़ा ही गया।
धनराज जोधपुर आया हुआ था, सपरिवार। बहुत जमाने के बाद वह अपने कुल कुनबे के बीच था। एक बहुत सादे विवाह समारोह में ममता को विदा कर देने के बाद वे सब लोग अजीब-सी फुर्सत में एकाएक खाली हो गए थे। शादी का सारा इंतजाम, भागदौड़ और सरंजाम राकेश ने एक जिम्मेदार अभिभावक की तरह अंजाम दिया था और अब वह अपने प्रयत्नों को शहीदों की-सी मुद्रा में एकालाप की तरह गा रहा था। धनराज और सरिता उसकी शौैर्यगाथा को बड़ी तन्मयता से सुन रहे, जबकि नागेश के चेहरे पर एक अजीब-सा वीतराग था।
यह वीतराग धनराज ने अपनी मां के चेहरे पर भी देखा। पता नहीं, मां-बेटे में से किसने-किसके चेहरे से यह वीतराग चुरा लिया था। ठीक-ठीक यही वीतराग धनराज ने पिता के अंतिम समय में उनके चेहरे पर भी देखा था। कहां से आता है यह वीतराग और क्यों?
बुआ की शादी में, लड़केवालों के दल में शामिल होकर रोहित जमकर नाचा था और अब थककर, दादी की गोद में सिर छुपाकर एक बेफिक्र नींद में चला गया था। राकेश की पत्नी अपनी दोनों बेटियों के साथ दूसरे कमरे में जा चुकी थी। बैठकवाले कमरे में बाकी लोग थे-सरिता, धनराज, राकेश , नागेश , मां और सोता हुआ रोहित। बीच-बीच में ममता की यादें भी टहलने चली आती थीं। इस पूरे कुनबे को बैठक की दीवार में, फ्रेम में जड़े पिता मुस्कराते हुए देख रहे थे। राकेश की शौर्यगाथा से पूरी तरह निरपेक्ष नागेश टीवी पर समाचार सुन और देख रहा था। अचानक वह रुका। धनराज ने देखा-टीवी पर उद्घोषिका कह रही थी -
‘जनाधिकार अभियान के सिलसिले में मुंबई आए भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने पत्रकारों को बताया कि या तो एनरॉन द्वारा महाराष्ट्र को लूट लिया जाएगा या महाराष्ट्र की जनता एनरॉन को लूट लेगी। केंद्र सरकार की उदार अर्थव्यवस्था तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भारत के लिए खतरे की घंटी बताते हुए श्री चंद्रशेखर ने कहा कि उदारीकरण एवं विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिए जाने के कारण इतनी विषमता पैदा हो गई है कि गरीब इलाकों में भारी तनाव की स्थिति छाई हुई है। बेरोजगारी बढ़ने के साथ-साथ कारखाने बंद हो गए हैं। सब्सिडी बंद हो जाने के कारण हमारे किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं। श्री चंद्रशेखर ने कहा कि जो आत्महत्या करने पर मजबूर होता है, कल वह हत्या भी कर सकता है।‘
‘गुड!‘ बबलू उर्फ नागेश चैधरी चहका, ‘बुर्जुआ नेता भी चिंतित हैं।‘ फिर उसने टीवी बंद कर दिया।
धनराज ने राहत की सांस ली, फिर बात शुरू करने के लिहाज से बोला, ‘बुर्जुआ मतलब?‘
‘आप नहीं समझेंगे। छोड़िए।‘ नागेश हंसी में हिकारत-सी भरकर बोला, जिससे धनराज को चोट लगी।
‘राकेश बता रहा था कि तुम गुंडागर्दी करने लगे हो?‘ धनराज ने पलटकर वार किया।
बहुत जोर का ठहाका लगाया नागेश चैधरी ने फिर तिक्त लहजे में बोला, ‘बीवी बच्चे, मां, बहन, नौकरी, आर्थिक तंगी की सदाबहार रुलाई के बीच मेंढक की तरह टर्रा-टर्राकर जीवन गुजारते राकेश भाई की कोई गलती नहीं है। वे भी उसी सड़े गले समाज का हिस्सा हैं, जिसे हम बदलना चाहते हैं।‘
‘क्या बदलना चाहते हो तुम?‘ धनराज तनिक जोर से बोला, ‘मुझे तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रहीं?‘
‘आएंगी भी नहीं।‘ नागेश फिर टहलने लगा, ‘आप मुंबई के अपने सुखी जीवन में मस्त रहिए।‘
‘क्या सुखी जीवन?‘ धनराज तिलमिला गया, ‘मेरी नौकरी को गए छह महीने हो गए हैं।‘
‘तो क्या हुआ?‘ नागेश रुका, ‘रोहित कमाता है न?‘
‘केवल छह हजार रुपये?‘ धनराज ने याद दिलाया।
केवल छह हजार रुपये? नागेश फिर हंसा, ‘केवल? उन दिनों को भूल गए आप जब केवल छह सौ रुपये में हमारा बाप हम सबको पालता था। ममता को हम इंटर के बाद क्यों नहीं पढ़ा सके? इसलिए कि हम हर महीने उसकी फीस नहीं भर सकते थे। बिहार के जिन गांवों में मैं काम करता हूं, वहां के लड़के इंटरव्यू का बुलावा आने पर भी दिल्ली-मुंबई इसलिए नहीं जा पाते, क्योंकि उनके पास रेल का किराया नहीं होता।‘
‘बिहार के गांवों में क्या काम करते हो तुम?‘ धनराज की उत्सुकता जागी।
‘वो भी आपको समझ में नहीं आएगा।‘ नागेश उपेक्षा से बोला।
‘मगर यह कैसा काम है?‘ धनराज बुजुर्गों की तरह बड़बड़ाया।
‘यह ऐसा काम है, जो पूरा होने पर देश का नक्शा बदल देगा।‘ नागेश की आंखें चमकीं, ‘लेकिन उस बदले हुए नक्शे में आप लोगों के लिए भी जगह नहीं होगी। वर्ग शत्रुओं के कत्ले-आम के दौरान आप जैसे लोग भी मारे जाएंगे। पैटी बुर्जुआ रास्कल।‘
धनराज सहम गया। उसे लगा राकेश ने शायद ठीक कहा था कि बबलू गुंडा हो गया है। धनराज ने राकेश की तरफ देखा, वह ऊबा-ऊबा सा, सोने के लिए दूसरे कमरे में जा रहा था। फिर नागेश भी बाहर चला गया, शायद किसी दोस्त से मिलने। ऐसे कौन-से दोस्त हैं, जो इतनी रात को भी जागते हैं। धनराज सोच रहा था। अंततः धनराज और सरिता ने भी उसी कमरे में चटाई पर बिस्तर लगा लिया और रोहित को जगाकर उस बिस्तर के एक कोने पर सुला दिया। मां अपने कोने में पसर गई। मां का वर्षों पुराना कोना।
यह पिता का घर था।
रखना छिपा के दिल के छाले ऽऽऽ!
घर छालों की तरह फट गया था। घर की दुर्दशा को देखते-देखते धनराज ने सरिता की तरफ ताका, तो पाया कि सरिता धनराज को ताक रही थी।
‘क्या सोच रही हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘मुझे लगता है, हमें इस घर को इस तरह नहीं भुला देना था।‘ सरिता की आंखें नम थीं। वह एक सच्चे पश्चताप के बीच खड़ी पिघल रही थी।
‘मुझे भी ऐसा ही लगता है।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली।
सुबह जब वह जागा, तो कमरे के एक कोने में रोहित, उसका बबलू चच्चू और राकेश की दोनों बेटियां बातों में व्यस्त थे। सरिता शायद मंजू के साथ किचन में थी और मां?
धनराज ने इधर-उधर देखा-मां कमरे की खिड़की के पार सीढ़ियां चढ़कर छत पर जाती दीख रही थी। शायद धूप में टहलने के लिए। धनराज ने देखा कि इस वक्त बबलू का चेहरा बबलू का ही था। शायद इसलिए कि वह मासूम बच्चों की निष्पाप दुनिया में बैठा था।
बबलू रोहित को समझा रहा था-इन्फर्मेशन टेक्नोलॉजी का लॉलीपॉप थोड़े-से लोगों के लिए है बेटे। ये सब, लोगों को चूतिया बनाने का गोरख-धंधा है। जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोगों को रोटी नहीं मिलती, उस देश में कंप्यूटर क्रांति को तरजीह देना अवाम के साथ एक भौंडा मजाक है। हकीकत यह है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के माध्यम से इस देश में उपनिवेशवाद की वापसी हो रही है।‘
‘उपनिवेशवाद क्या होता है चच्चू?‘ रोहित ने पछा।
‘यह बताना तो बहुत कठिन है बेटे।‘ बबलू उलझ गया, ‘इसे इस तरह समझ कि अंग्रेजों के समय में हम उनकी एक कॉलोनी थे, जहां वे लूटमार करते थे। अभी भी हम लूटमार की मंडी हैं, लेकिन इस बार उन्होंने गैट और उदारीकरण का नकाब पहना हुआ है।‘
‘पर चच्चू मुंबई में तो मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी पाना खुशी की बात समझी जाती है।‘ रोहित अपनी नौकरी को जस्टीफाई करने के चक्कर में था।
‘मुंबई देश नहीं है बेटे। मुंबई देश के जिस्म पर उगा हुआ कैंसर है।‘ बबलू हंसने लगा। धनराज को लगा बबलू की आत्मा में फिर से नागेश चैधरी प्रवेश ले रहा है। एक समय था। धनराज को याद आया, यही बबलू मुंबई जाने के नाम से रोमांचित हो उठता था।
‘मैंने सुना है।‘ बबलू पूछा करता था। ‘वहां हेमा मालिनी सड़कों पर सब्जी खरीदती हुई दिख जाती है?‘
‘चच्चू मेरे को अपनी पिछतौल दिखाओ न?‘ यह सोना थी, राकेश की छोटी बेटी।
नागेश जेब से रिवॉल्वर निकालने लगा।
धनराज फिर सहम गया और करवट बदलकर वापस सो गया।
दुबारा जब वह जागा, तो धूप चढ़ आई थी। उस धूप में घर की दुर्दशा और भी चमकीली हो गई थी। यह ठीक है कि इन दिनों वह बेकार है, लेकिन सुखी दिनों में तो उसे कुछ पैसे हर महीने मां को भेजते रहने चाहिए थे। वह सोचता था कि नो न्यूज इस द गुड न्यूज। उसे क्या पता था कि उसके भाई, उसकी बहन और उसकी मां अपने दारिद्र्य के अभिमान की ऊंची अटारियों पर चढ़े बैठे थे। शुरू में कुछ समय तक मां की चिट्ठियां आती रही थीं। उनमें वही सब होता था जो ढहते हुए घरों से आनेवाली चिट्ठियों में होता है-ममता चुप रहने लगी है। राकेश चिड़चिड़ा हो गया है। बबलू के लच्छन ठीक नहीं हैं। वह रात-रात भर बाहर रहता है। कई-कई दिन तक घर नहीं आता। तू बबलू को अपने पास क्यों नहीं बुला लेता?
तब धनराज चारकोप की बैठी चाल वाले एक कमरे में रहता था। उसकी नयी-नयी नौकरी थी जिसके नये-नये जानलेवा तनाव थे। वह सोचता था कि थोड़ा संभल जाए, तो कुछ करे, लेकिन तब तक मां की चिट्ठियां ही आनी बंद हो गईं।
धनराज जानता है कि ये सब केवल खुद को दिलासा दिलाने वाले तर्क हैं। गुनहगार तो वह है।
तभी रोहित के साथ वह आता दिखा-बबलू। नहीं, नागेश चैधरी।
‘रिवाॅल्वर से क्या करते हो?‘ धनराज ने लेटे-लेटे पूछा।
‘रिवाॅल्वर से उस आदमी का भेजा उड़ा देते हैं, जो भूखी, बदहाल लड़कियों के साथ बलात्कार करता है, जो बच्चों से अपने खेत में बंधुआ मजदूरी करवाता है, जो किसानों के घर जला देता है।‘ नागेश चैधरी हंसा, ‘और कुछ जानना है?‘
‘चच्चू, तू लोगों को मार देता है?‘ यह रोहित था, पूरे आश्चर्य के बीचोबीच।
‘हां बेटा, कभी-कभी मार देना पड़ता है।‘ बबलू ने रोहित को इस तरह समझाया मानो कभी-कभी वह मच्छर को मसल देता हो।
‘तुझे पुलिस नहीं पकड़ती चच्चू?‘ रोहित ने प्रश्न किया।
‘पुलिस में भी अपने दोस्त होते हैं बेटा। वो बता देते हैं कि भाग जाओ। फिर हम भाग जाते हैं।‘ बबलू अभी तक बबलू था, मुस्कराता हुआ, सहज और सरल।
‘और कभी तू पकड़ा गया तो?‘ रोहित की जिज्ञासाएं उफान पर थीं।

‘तो तेरा चच्चू मार दिया जाएगा।‘ बबलू जोर-जोर से हंसने लगा, ‘मरना तो सभी को होता है बेटे। किस मकसद के लिए मरे, बड़ी बात यह है।‘
खाना खाकर बबलू रोहित को जोधपुर का किला दिखाने ले गया। धनराज के दिमाग में हथौड़े चलने लगे-मकसद। मकसद। मकसद।
बच्चों को पढ़ाना-लिखाना, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाना, परिवार को सुखी रखना क्या यह सब मकसद के दायरे में नहीं आता? धनराज सोच रहा था। लगातार। क्या जीवन में उससे कोई चूक हो गई है? लोग गरीब हैं, भूखे हैं, अशिक्षित हैं, गटर में हैं, सड़क पर हैं, मारे जा रहे हैं-इसमें उसका क्या दोष है?
मां आ रही थी। धीरे-धीरे। धीर गंभीर।
धनराज उठकर बैठ गया।
मां के पीछे-पीछे सरिता भी आई और सरिता के पीछे ‘ताई ताई‘ करती राकेश की दोनों बेटियां-सोना, मोना। राकेश अपनी नौकरी पर जा चुका था।
‘सुखी तो है न?‘ मां ने पूछा और सोना-मोना को अपनी गोद में बिठा लिया।
धनराज हंसा, एक फीकी हंसी। पछतावे और दुख में डूबी-डूबी सी। फिर उसने अचानक पूछा, ‘डैडी की याद आती है?‘
मां ने इनकार में गर्दन हिला दी। धनराज ने देहरादून वाले दिनों में जाकर देखा-पिता नशे में धुत्त हैं और मां को लात-घूसों से पीट रहे हैं। उसने एकाएक पिता का हाथ पकड़ लिया है और भौंचक्के पिता ने मां को छोड़ धनराज को पकड़ लिया है। धनराज के मुंह पर झापड़ रसीद कर उन्होंने उसे ठंडे बाथरूम में बंद कर दिया है।
मां का चेहरा एकदम शांत है। उसे कोई दुख-सुख नहीं व्यापता।
‘अपने दुख किसके साथ बांटती हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘मुझे कोई दुख नहीं है।‘ मां मुस्कराने लगी, ‘मेरे दुख भी उसके हैं और सुख भी उसी के।‘
‘उसके? उसके कौन?‘ धनराज चैंका।
‘राम के।‘ मां ने आंखें बंद कर लीं।
मां का राम कौन है? धनराज असमंजस में पड़ गया। उसने छह दिसंबर में जाकर देखा-राम का नाम लेकर ढेर सारे लोग मस्जिद गिरा रहे थे।
खाना खाकर धनराज सोना-मोना को गोद में लेकर छत पर चला गया। गर्मी के दिनों में इसी छत पर पिता की महफिल जमती थी। पिता के अंतिम दिनोंवाला घर, जो उन्होंने दर-दर की ठोकरें खाने के बाद आखिरकार जोधपुर में बना ही डाला था। पिता सोचते थे कि अपने-अपने पैरों पर खड़े होने के बाद उनके तीन बेटे इस घर को तीन मंजिला भवन में बदल देंगे।
‘बड़े पापा हम मुंबई जाएंगे,‘ मोना ने धनराज को टोका।
‘औल हम भी।‘ छोटी सोना ने सुर में सुर मिलाया।
‘जरूर।‘ धनराज ने दोनों को आश्वासन दिया और छत से दिखती, दूर जाती उस सड़क को देखने लगा, जिससे गुजरकर धनराज मुंबई और बबलू बिहार चला गया था। एक ही सड़क लोगों को अलग-अलग जगहों पर क्यों ले जाती है। धनराज सोच रहा था। दोनों लड़कियां आपस में झगड़ने लगी थीं। धनराज उन्हें लेकर नीचे आ गया।
रात को जमीन पर बैठकर सब लोगों ने एक ही कमरे में एक साथ खाना खाया। गोश्त और चावल। गोश्त मां ने पकाया था। मंजू ने बताया, ‘मां जी ने कई साल बाद अपने हाथ से मटन पकाया है।‘
धनराज को फिर पिता याद आ गए। पिता कहते थे -‘तेरी मां बिना मसालों के भी ऐसा गोश्त पकाती है कि बख्शी दा ढाबा भी शरमा जाए।‘ बख्शी दा ढाबा देहरादून का एक मशहूर रेस्त्रां था, जिस पर हर समय भारी भीड़ रहती थी। खासकर रात में।
‘मैंने भी कई सालों के बाद गोश्त खाया है।‘ बबलू हंसने लगा।
‘चच्चू तेरे इलाके में मटन नहीं मिलता है?‘ यह रोहित था।
‘ज्वार की मोटी मोटी रोटी पर लहसुन और लाल मिर्च की चटनी मिल जाए, तो लोग खुश हो जाते हैं बेटे।‘ बबलू बता रहा था, ‘और अगर साथ में चोखा हो, तो बात ही क्या?‘
‘चोखा क्या होता है चच्चू?‘ रोहित पूछ रहा था।
‘आलू को उबालकर उसे सरसों के तेल में मसल देते हैं...‘
‘बस?‘ रोहित चकित था, ‘कौन लोग इतने गरीब होते हैं चच्चू?‘ पीजा, बर्गर, कोक की दुनिया में बड़ा हुआ रोहित उबले हुए आलू के साथ सुख का सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा था।
‘हर मेहनत करनेवाला गरीब होता है बेटे।‘ बबलू ने जवाब दिया।
‘घर के सब लोग बैठे हैं।‘ अचानक धनराज बोला, ‘बबलू तुम क्या सोचते हो? मुझे अब क्या करना चाहिए?‘
बबलू को सम्भवतः धनराज से इस प्रश्न की उम्मीद नहीं थी। वह अचानक हड़बड़ा-सा गया। फिर संजीदा होकर बोला, ‘बुरा मत मानना भाई साहब। पूरे विवेक के साथ बोल रहा हूं। असल में आपकी समस्या यह है कि आपके जीवन का कोई मकसद नहीं है। आप जैसे लोग दोनों तरफ से मारे जाते हैं। आपकी जरूरत न इधर है न उधर।‘ बबलू ने कहा, ‘एशिया की सबसे नारकीय झोपड़पट्टी धारावी आपकी मुंबई में ही है। कभी वहां गए हैं आप? आपने नासिक के देवलाली गांव के बारे में सुना है। उसे विधवाओं का गांव कहते हैं। वहां के सारे पुरुष फायरिंग रेंज में चोरी से घुसकर पीतल-तांबा बटोरते हैं, ताकि उसे बेचकर पेट भर सकें। पीतल-तांबा बटोरते-बटोरते वहां का एक-एक पुरुष तोप के गोलों का शिकार हो गया। निपाणी का नरक देखा है आपने? मुंबई की कितनी सारी कपड़ा मिलें बंद हो गई हैं। उनके मजदूर क्या कर रहे हैं, पता है आपको? मुझे मालूम है, इन सवालों से नहीं टकरा सकते आप। ये बहुत असुविधाजनक सवाल हैं। आपका पूरा जीवन मैं से मैं के बीच चक्कर काटते बीता है, इसीलिए बाकी लोग खुद ब खुद आपके जीवन से बाहर चले गए हैं। उन सबके जीवन में आपकी कोई जरूरत नहीं है।‘ बबलू रुका, फिर वह नागेश चैधरी वाली हंसी हंसने लगा, ‘ऐसा करो, आप मुरारी बापू की शरण में चले जाओ। सुना है, मुंबई में उसकी नौटंकी सुपर-डुपर हिट है।‘
धनराज का सिर झुक गया।
‘बबलू,‘ सरिता ने खाना रोक दिया, ‘तुम हद के बाहर जा रहे हो।‘
‘सॉरी भाभी,‘ बबलू ने विनम्रता से जवाब दिया, ‘मेरा मकसद किसी का भी दिल दुखाना नहीं था।‘ फिर वह हाथ धोने के लिए आंगन में बने नल पर चला गया।
रात दस बजे कोई लड़का बदहवास-सा बबलू से मिलने आया। कुछ देर आंगन में कुछ खुसुर-फुसुर की उन्होंने, फिर बबलू उसी के साथ घर के बाहर चला गया।
जब बबलू को गए दो घंटे बीत गए, तो धनराज ने प्रश्नाकुल हो राकेश की तरफ देखा। राकेश ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘वो गया। वो ऐसे ही जाता है।‘
धनराज जड़ हो गया।

×××

मुंबई पहुंचने के अगले रोज धनराज के सीने में तेज दर्द उठा। उसका बदन पसीने-पसीने हो गया। तकलीफ से उसका चेहरा ऐंठने सा लगा और दोनों आंखें बाहर निकलने को आतुर हो उठीं।
रोहित उस समय अपने ऑफिस में था और सरिता ‘कौन बनेगा करोड़पति‘ देख रही थी। धनराज छटपटाकर बेडरूम में ड्रेसिंग टेबल के पास गिरा। उसके गिरने की आवाज सुनकर सरिता भागकर बेडरूम में पहुंची, फिर वह सामनेवाले पड़ोसी के.के. महाजन की मदद से उसे सेक्टर-पांच के नर्सिंग होम में ले गई।
धनराज को दिल का दौरा पड़ा था।
स्वस्थ होने में धनराज को एक महीना लगा।
उसकी बीमारी में जोधपुर से कोई नहीं आ पाया। राकेश को छुट्टी नहीं मिली। ममता ससुराल में थी। उस तक खबर काफी देर से पहुंची। अकेली मां आ नहीं सकती थी और बबलू बिहार के गांवों में था।
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा धनराज अपने एकान्त में गुनगुनाया करता -
रखना छुपा के दिल के छाले रे ऽऽऽ!
उन्हीं दिनों सरिता को सेक्टर-चार के पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई।
धनराज और अकेला हो गया।
यह अकेला धनराज एक रात गौतम बुद्ध की तरह सरिता और रोहित को सोता छोड़ कहीं अंधेरे में गुम हो गया।
कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने धनराज को हाथ में एक ईंट लिए अयोध्या के रास्ते पर पैदल-पैदल जाते देखा था।
(रचनाकाल: जनवरी 2001)

Monday, July 13, 2009

पीले फूलों का सूरज - गौरव सोलंकी

हम बहुत देर तक ऐसे हँसते रहे थे जैसे कोई हफ़्तों का भूखा देर तक खाना खाता रहे। वह मुझसे एक डेढ़ इंच लम्बी होगी। हम आमने सामने सीधे खड़े होते तो मैं सीधी गर्दन करके उसके होठों को नहीं चूम पाता। वह अक्सर मुझ पर हल्की सी झुक जाती थी। मुझे लगता था कि वह मुझ पर हल्की सी छा जाती है। वैसे उस रात हमने एक दूसरे को नहीं चूमा। हमने बातें की और हँसते रहे। मुझे भूख लगी थी, रात बहुत थी, वह दिल्ली थी और वह हीरोइन बनना चाहती थी। वैसे दिल्ली न भी होती तो भी वह हीरोइन ही बनना चाहती। उसने मेरे लिए मैगी बनाई और अपने लिए सिर्फ़ चाय। उसने कहा कि तुम्हारे किचन में कॉकरोच हैं। मैंने कहा कि मैं लेखक बनना चाहता हूं। उसने कहा कि लेखक बनना चाहना तो ऐसा है कि जिस क्षण चाहो, उससे अगले क्षण कागज़ और पेन उठाकर लेखक बन सकते हो। मैंने कहा कि यह इतना आसान नहीं है। जैसे किचन में कॉकरोच हैं, वैसे कलेजे में भी हैं। हम हँसे।

कुछ देर बाद उसने मुझसे कहा कि मुझे स्टॉक मार्केट या फिल्मों पर लिखना चाहिए। दोनों का बड़ा बाज़ार है। मुझे लगा कि ‘स्टॉक मार्केट का बड़ा मार्केट’ कहना तो वैसा ही है, जैसे कहना कि इंडिया गेट का बड़ा गेट है या पंजाबी बाग का बड़ा बाग है। यह मैंने उसे बताया तो उसने कहा कि मेरा दिमाग गणित में बेहतर चल सकता था। उसने मुस्कुराते हुए कहा कि इंजीनियरिंग का भी बड़ा बाज़ार है। उसका दूर के रिश्ते का एक भाई अमेरिका में इंजीनियर था। मैं उससे कई बार कह चुका था कि मुझे भाइयों और इंजीनियरों से चिढ़ है। यह हम दोनों को एक साथ याद आया और हम हँसे।
फिर वह पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेट गई। मैं लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर मैगी खा रहा था। उसने कहा कि मुझे कुछ काँटे खरीद लेने चाहिए, ताकि मैगी खाने में सहूलियत रहे। मैंने कहा कि यहाँ आसपास छोटी दुकानें नहीं हैं और बड़ी दुकानों में घुसने पर मुझे डर और असुरक्षा का सा अहसास होता है। इसीलिए मैंने एक हफ़्ते से दाढ़ी भी नहीं बनाई है। मेरे ब्लेड ख़त्म हो चुके हैं और आसपास कोई छोटी दुकान नहीं है। उसने पूछा कि क्या मैं उदास हूं?
मैंने कहा, नहीं और हम हँसे।

वह शुक्रवार था। मेरा रूममेट विकास अपने घर चला गया था। हफ़्ते के उन दो दिनों में ही मुझे वह कमरा अपने कमरे जैसा लगता था। जब तक आप इतने आज़ाद न हों कि नंगे होकर बिस्तर पर सो सकें, आपका अपना घर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम से ज़रा भी बेहतर है, ऐसा मुझे नहीं लगता।
- मुझे संख्याओं से भी डर लगता है। डर भी नहीं, कुछ लगता है कि अंकों से दूर भागने का मन करता है....और तुम कहती हो कि मैं गणित में अच्छा रहता...
- मैं किसी फ़िल्म स्कूल में जाना चाहती थी।
- स्कूल कैसे भी हों, आदमी को बर्बाद ही करते हैं।
- कभी कभी मुझे यह भी लगता है कि किसी दिन पेट पालने के लिए मुझे शादियों के डीजे में नाचना पड़ जाएगा।
- तुम फ़िल्मों में हीरोइन बनना चाहती हो या डांसर?
- तुम बहुत लॉजिकल हो...तुम्हें मैथ्स ही पढ़ना चाहिए था।
- मैं अंग्रेज़ी में लिखना चाहता हूं, लेकिन मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती।
- क्यों?
- अब नहीं आती तो नहीं आती...
- मैं पूछ रही हूं कि अंग्रेज़ी में क्यों लिखना चाहते हो?
- तुम डीजे में क्यों नाचना चाहती हो?
- ऐसा मैं चाहती नहीं ....और मैं नाचूंगी भी नहीं।
- आज मेरा जन्मदिन है।
वह चौंक गई।
- सात तारीख है आज?
- चलो तुम्हें इतना तो याद है कि मैं सात तारीख को पैदा हुआ था।
- सॉरी...मैं भूल गई। सुबह तक याद था मुझे...और तुमसे मिलते ही भूल गई। सॉरी...हाँ? हैप्पी बर्थडे...
- वैसे आज तेईस तारीख है...
मैं मुस्कुराया। उसने तकिया मुझ पर फेंक कर मारा और चिल्लाई। फिर उसने मेज पर से एक किताब उठा ली और मुझसे पीठ फेरकर पढ़ने लगी। मैंने उससे कहा कि हीरोइनों को बेवकूफ़ होना चाहिए और किताबें नहीं पढ़नी चाहिए। उसने तुरंत मेरी बात मान ली और किताब वापस मेज पर फेंक दी।
उसने कहा कि फ़िल्मों में इतना सम्मोहन होता है कि कई बार वह कोई फ़िल्म देखते देखते उसे पॉज करके बहुत तीव्रता से हीरोइन बनना चाहने लगती है। फिर वह डायरी लिखने लगती है, जो और भी बेचैन कर देने वाला अनुभव होता है। तब उसे साँस लेने में भी तकलीफ़ होती है और वह उठकर खुली हवा के लिए छत पर चली जाती है।
वह दिल्ली थी और मैं उससे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता था। वह फ़िल्मों और ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहती थी। वह तब्बू और किसी कोंकणा के बारे में बात करती रही। कुछ देर बाद रुककर उसने फिर पूछा कि क्या मैं उदास हूं?
मैं उठकर टेरेस पर टहलने लगा जैसे वह टेरेस ही था और हमारे ऊपर पंखा लगी छत नहीं, आसमान था। मुझे आकाश से एक ख़ास किस्म का मोह था। हमने तय किया कि इंसान को ज़्यादा नाजुक नहीं होना चाहिए।
उसने कहा- तुम टीवी खरीद लो।
- मेरे पास पैसे नहीं हैं...और होते, तो भी शायद मैं कोई किताब खरीदता और मिठाइयाँ।
- तुम मुझे एक विचित्र तरह से विकर्षित करते हो।
मैं हँसा।
- क्या दिल्ली में लड़कियाँ वाकई शराब पीती हैं?
- जैसे तुम्हें मालूम नहीं।
- मैं दिल्ली की किसी लड़की को नहीं जानता।
और एक उदासी हमारे बीच के पलंग के उभरे हुए कोने पर पसर गई। हमने सोचा कि हमें उदास नहीं होना चाहिए। हम रोज़ यही निश्चय करते थे। ख़ुश रहने के ढेरों फ़ायदे मुझे जुबानी याद थे।
- कल मेरा एक ऑडिशन है. कनॉट प्लेस में।
- मैं चाहता हूं कि तुम्हें छोड़ने जाऊँ, लेकिन मेरे पास बाइक नहीं है।
उसने आँखें बन्द कर ली। उस पल मैं उसके होठों को छूना चाहता था।
- तुम कौनसी किताब खरीदते?
उसने आँखें खोलकर पूछा।
- तुम्हें भी रात में डर लगता है?
- किससे?
- अँधेरे से...
वह उठकर खिड़की तक गई और बाहर के जगमगाते अँधेरे को देखने लगी। सड़क पर गाड़ियाँ सरपट दौड़ रही थी। मैं बैठ गया था।
- नहीं लगता।
- मुझे भी नहीं लगता...
- फिर तुमने पूछा क्यूं?
- तुमने कभी रात में तितलियाँ देखी हैं?
- नहीं...
- उन्हें लगता होगा। तभी तो रात में नहीं उड़ती।
- तुम्हें क्या मैं तितली जैसी लगती हूं?
- कभी कभी गौरैया जैसी भी।
वह खनखनाकर हँसी। उसकी माँ ऐसे ही हँसती थी। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। उसने मेरी ओर देखा। मेरा उठकर दरवाज़े तक जाने का मन नहीं था। जो भी था, वह दो-तीन मिनट तक खड़ा रहा और लौट गया। तब तक हम चुप रहे। हमने सीढ़ियों पर पैरों के लौटने की आवाज़ सुनी। आवाज़ पैरों की थी, लेकिन दिमाग तक यही सन्देश गया कि कोई आदमी लौटा है। वह कुछ और भी हो सकता था। आदमी सोचने पर कुछ विशेष मन में नहीं आता। आँख, नाक, कान, सिर, हाथ, पैर ही याद आते हैं। जाने क्यों ऐसा लगता है कि ‘आदमी’ शब्द सोचने पर कुछ और चित्र मन में बनना चाहिए। यह सोचना वैसे ठीक नहीं है।
लौटने की ध्वनि आने की ध्वनि से ठीक उल्टी होती है। इन्हें नवजात शिशु भी अलग अलग पहचान सकता है। बहुत लोग हैं, जिनका आना मुझे अच्छा लगता है। लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसका लौट जाना मुझे अच्छा लगता हो। ‘लौट जाना’ मुझे ‘रोना’ का पर्यायवाची लगता है। जब भी कोई मुझसे मिलने आता है, मैं यह सोचकर काँप जाता हूं कि कुछ देर या कुछ दिन बाद वह वापस चला जाएगा। दरवाज़े से लौटते हुए गाय, कुत्ते और भिखारी की भी मुझे बहुत देर तक याद आती रहती है। मेरे भीतर लौटकर चले गए सजीवों निर्जीवों की सैंकड़ों खुशबुएँ बसी हुई हैं, जो पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए कभी कभी मैं चाहता हूं कि कोई मुझसे मिलने न आए और न ही मैं किसी से मिलने जाऊँ। कभी कभी मैं दरवाज़ा भी नहीं खोलता।
- एक वक़्त था, जब मैं भी एक्टर बनना चाहता था।
- मुझे पता है।
- किसने बताया?
- तुम हमेशा ऐसे बोलने की कोशिश करते हो, जैसे कैमरे के सामने बोल रहे हो। तुम गलतियाँ नहीं करना चाहते।
मुझे अच्छा लगा कि वह मुझ पर इतना ध्यान देती है। मैं नहीं जानता था कि यह उसने ख़ास मेरे बारे में ही बोला है या किसी किताब में पढ़ी हुई बात दोहराई है। यह मैं जानना भी नहीं चाहता था।
- इतनी रात को दरवाज़े पर कौन होगा?
- कोई भी हो सकता है। भगवान भी...
- मुझे नहीं लगता कि यहाँ लड़कियाँ तुमसे मिलने आती होंगी।
- मुझे भी नहीं लगता।
- तुम बोर नहीं होते?
- हाँ, हो जाता हूं। अपने आप से ऊबने लगा हूं।
- तुम्हें कुछ नया करना चाहिए। कुछ और नहीं तो शादी ही...नहीं तो तुम मर जाओगे।
- मैं दिल्ली में नहीं मरना चाहता।
- हे भगवान! क्या क्या बातें करने लगे हम! हमें यह सब नहीं बोलना चाहिए।
उसने ‘टच वुड’ बुदबुदाते हुए मेरी कुर्सी छुई। मुझे लगा कि इस परम्परा का गलत ज़गह उपयोग किया गया है। मेरे ख़याल से ‘टच वुड’ नज़र न लगने के लिए बोला जाता है। उसने माफ़ी माँगने की तरह मेरे गालों को भी छुआ। तभी दरवाज़े पर फिर से खटखट हुई। दरवाज़े पर आहट होते ही पूरे कमरे में एक बेचैन सी शांति फैल जाती थी। हम बिना हिले डुले बैठे रहे। दरवाज़ा फिर से बजा। अब वह उठकर चल ही दी। वह पुराना शीशम का दरवाज़ा था, जो खुलते और बन्द होते हुए बहुत आवाज़ करता था।
टिफिन वाला लड़का खड़ा था। उसने हरे रंग का डिब्बा पकड़ा दिया। वह लेकर अन्दर आ गई। लड़का फिर भी वहीं खड़ा रहा। वह नेपाल के किसी छोटे से कस्बे का था और अपने पिता के साथ दिल्ली आ गया था। एक दिन मैंने उससे पूछा था कि वह कब से अपने घर नहीं गया? उसने कहा था, तीन साल। मुझे बुरा लगा था। मुझे अपने घर की याद भी आई थी। मैं हमेशा से ऐसा लावारिस नहीं था। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। हम इकट्ठे खाना खाते थे और जल्दी सो जाते थे। माँ के पास अपने बचपन से लेकर तब तक की बहुत सारी बातें होती थी जो वह बार बार हमें बताती रहती थी। हमने आँगन में कुछ सब्जियाँ उगा रखी थी। हमारे घर में एटलस की एक साइकिल थी, जिसकी चेन बहुत जल्दी जल्दी उतर जाती थी। राजू को भी (उसका सही नाम मुझे नहीं याद) अपने घर के बाल्टी, चम्मच, कनस्तर और भगोने ऐसे ही याद आते होंगे। वह सुन्दर हँसता था और कम बोलता था। नेपाल में अस्थिरता थी और गरीबी भी। दिल्ली सबको खपा लेती थी और सबमें खप जाती थी।
वह डिब्बा लेकर मुझ तक आई तो लड़के ने कहा, “पैसे?”
मैं उठकर खूंटी पर टँगी जींस तक गया और उसकी पिछली जेब में से बटुआ निकाला।
- खुल्ले नहीं हैं यार। कल ले लेना।
वह चुपचाप खड़ा होकर उम्मीद भरी नज़रों से मुझे देखता रहा।
कुछ देर बाद बोला- मैडम डाँटेगी...
मुझे निर्दयी खुशी सी हुई। हर कोई किसी न किसी से डरता है, मैंने सोचा।
- कितने देने हैं इसे?
- तुम दोगी?
- हाँ।
- चालीस।
लड़का खुश हुआ। वह पैसे देकर दरवाज़ा बन्द कर आई। उसने फिर से दरवाज़ा खटखटाया। इस बार मैंने खोला।
- भैया, कल दो टिफिन आएँगे?
वह खिड़की के पास खड़ी थी। मैंने उसकी ओर देखा। वह बाहर देख रही थी।
- जैसा भी होगा, कल फ़ोन कर दूंगा।
- ठीक है।
वह चला गया। मैं आकर फिर कुर्सी पर बैठ गया।
- तुम सीपी से यहीं लौटोगी ना कल?
मैंने बोलने से पहले दिमाग में शब्द चुने थे। कल से पहले ‘ना’ लगाना बहुत ज़रूरी लगा था। ‘लौटकर आना’ भी ‘लौटकर जाने’ का बिल्कुल उल्टा था और सुखद भी। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
- तुमने बताया नहीं कि पैसे होते तो तुम कौनसी किताब खरीदते?
उसने पलटकर पूछा।
- शायद अज्ञेय की कोई किताब।
वह चुप रही। मैंने पूछा- तुमने सुना है अज्ञेय का नाम?
- नहीं सुना।
जिन चीजों के बारे में वह नहीं जानती थी, उनके बारे में बात करने पर मुझे अपराधबोध सा होता था।
- कल फ़िल्म का ऑडिशन है?
- हाँ, लेकिन मुझे नहीं लेंगे।
- क्यों?
- उन्हें सुन्दर लड़की चाहिए।
वह मुस्कुराते हुए मुझ तक आ गई थी। वह मुझसे अपनी प्रशंसा करवाना चाहती थी। उस रात वह दूसरी बार था, जब मेरा उसके होठ छूने का मन हुआ। उससे तिनका भर भी कम नहीं, ज्यादा नहीं।
- नहीं, मैं तुम्हारी तारीफ़ नहीं कर सकता। मैं कहना चाहता हूं कि यह कमरा नहीं, झील है और तुम कमल हो और मैं डूब गया हूं। लेकिन मैं नहीं कहूंगा।
- तुम सच में डूब गए हो?
- हाँ, माथे तक।
- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?
- इस कमरे का किराया तीन हज़ार है। यह छोटा सा कमरा, जो झील है और वह रसोई, जिसमें कॉकरोच हैं।
- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?
- तुम बार बार क्यों पूछती हो?
- तुम बीमार लगते हो...
- ऐसा मेरी दाढ़ी के कारण लगता होगा।
उसने मेरे माथे पर हाथ रखकर देखा। उसका हाथ गर्म था। मैंने आँखें बन्द कर ली। मैं चिल्लाना चाहता था।
वह धीरे से बोली- यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है।
- वैसे मैं रोऊँगा नहीं, लेकिन रोने लगूं तो मुझे रोने देना।
- चलो तुम्हारे बचपन के बारे में बात करें।
मैंने कुछ लम्बी साँसें ली। वह मेरे माथे पर हाथ रखकर खड़ी थी। मैं बैठा था।
- तुम्हें भूख लगी होगी। टिफिन खोल लो।
- तुम्हें लेखक नहीं बनना चाहिए।
- मुझे भी ऐसा ही लगता है – बहुत देर बाद मैंने उसकी आँखों में देखकर कहा – काश बाहर धूप होती!
- तब क्या होता?
- तब रात नहीं होती और शोर होता, जिसके नीचे हम अपना दुख दबा देते।
- काश कि धूप को फेयर एंड लवली की तरह गालों पर मला जा सकता। मैं ख़ूब गोरी हो जाती।
- काश कि धूप के ब्लेड होते, जिनसे दाढ़ी बनाई जा सकती।
- काश धूप का काँच होता, जिसके घर बनते। मैं ऐसे ही घर में रहती।
- तुम जल जाती।
मैंने उसके दाएँ पैर की ओर देखा। एक रात उनके घर में आग लगी थी। उसके पैर की दो उंगलियों पर अब तक उसके निशान थे।
- और ब्लेड से तुम्हारे गाल नहीं जलते?
- ब्लेड को तो बर्फ़ में रखकर ठंडा भी किया जा सकता था।
- दुख बहुत है?
पूछते हुए वह माँ जैसी हो गई थी। उसने एक साड़ी पहन ली थी, जिसका पल्ला उसके सिर पर सरक आया था। मैं चुप रहा और मैंने अपना सिर माँ की छाती में छिपा लिया। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। फिर उस घर ने हम सबको बाहर निकाल फेंका था।
- मैं तुमसे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता हूं।
- हाँ करो...
उसने सहमति दी और फिर मैं कुछ भी न बोल पाया। मैं नहीं जानता था कि मैं दिल्ली की लड़कियों के बारे में क्या बात करना चाहता हूं? मुझे बस हरी, लाल, पीली होती ट्रैफ़िक लाइटें याद आ रही थी और वाहनों की भीड़। मेरी मोटरसाइकिल और पीछे की सीट पर बैठी एक लड़की। वह दोनों तरफ पैर करके बैठी थी। वह कभी कभी मेरे कंधे पर हाथ रख लेती थी। मेरी जेब में रखे मोबाइल पर लगे इयरफ़ोन उसके कानों में थे। वह गाने सुन रही थी। फिर लाइट हरी हो गई थी और हॉरनों का शोर। मैं भी चल पड़ा था। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा था। वही दिल्ली थी।
मुझे चुप देख उसने कहा कि हमें खाना खा लेना चाहिए। मैंने कहा कि मुझे भूख नहीं है।
- चलो बाहर सड़क पर घूम आते हैं।
- मुझे लगता है कि तुम एक बार यहाँ से बाहर चली गई तो वापस नहीं आओगी।
- तुम सनकी भी होते जा रहे हो।
- तुम समझदार होती जा रही हो। तुम्हें फ़िल्मों में नहीं जाना चाहिए। तुम थिएटर कर लो।
- थिएटर कोई नहीं देखता।
मैं हँसा।
- किताबें भी तो कोई नहीं पढ़ता। फिर ही हज़ारों लोग लिखते हैं।
मुझे हँसता देख उसे अच्छा लगा होगा। उसकी आँखें कुछ चमकने लगी थी या शायद यह मेरा वहम ही था। वह पलंग पर लेट गई और उसने आँखें बन्द कर लीं। मुझे लगा कि वह सोना चाहती है। मुझे उसके सोने से पहले लाइट ऑफ़ करनी थी और ‘गुड नाइट’ बोलना था। वह किसी भी क्षण सो सकती थी या हो सकता है कि सो भी गई हो। यह सोचकर मुझे गुस्सा आया। और ‘थिएटर कोई नहीं देखता’ – यह किसी का सोने से पहले का आखिरी डायलॉग कैसे हो सकता है? मेरा मानना है कि सोने या चले जाने से पहले बातों को ख़त्म करने वाली बातें कही जानी चाहिए। यह तो वैसा ही है कि कोई जाने से ठीक पहले कहे कि आज सोमवार है और तुरंत निकलकर चला जाए। यह तो जाने के अपमान जैसा है और सोमवार के भी। माँ तो और भी हद करती थी। माँ लेटे लेटे कुछ पूछती थी, जैसे- उनके घर क्या कर रहे थे तेरे पापा? – और जवाब सुनने से पहले ही सो जाती थी। जबकि मैं कोशिश करता हूं कि सोने से पहले किसी से बात कर रहा हूं तो ‘कल देखेंगे’ या ‘हाँ’ या ‘नहीं’ मेरा आखिरी डायलॉग हो। कहीं से चले आने से पहले मैं अक्सर ‘ठीक है’ बोलता हूं। चाहे कुछ भी ठीक न हो, फिर भी।
- तुम्हारे पति कैसे हैं?
- उनका नाम नवदीप है।
उसने आँखें खोल ली। मुझे तसल्ली हुई। मैंने मुस्कुराना चाहा।
- कैसा है नवदीप?
- अच्छे हैं। कम बोलते हैं और बहुत प्यार करते हैं।
- तुम्हारे पापा जैसे हैं फिर तो...
- उंहूं...पापा जैसे तो पापा ही थे बस।
- जिन दिनों तुम्हारी शादी हुई थी, मेरा शराब पीने का बहुत मन करता था।
- तुम मेरी शादी में आते तो मुफ़्त में जी भर के शराब पी सकते थे।
- क्या सच में दिल्ली की लड़कियाँ शराब पीती हैं?
- पूरे एक हज़ार कार्ड छपे थे।
मैं चुप रहा। वह मेरी ओर देखती रही। वह चाहती थी कि मुझे गुस्सा आए। मैं चाहता था तो भी गुस्सा नहीं आता था। एक कातरता मेरे पूरे अस्तित्व पर हावी रहती थी।
मैंने कहा- माँ कहती थी कि लड़कियों को कभी प्रेम नहीं करना चाहिए।
- क्यों?
- प्रेम उन्हें निष्ठुर बना देता है।
- और लड़कों को?
- लड़कों के बारे में माँ कुछ नहीं कहती थी – मैं रुका – लेकिन मुझे लगता है कि प्रेम लड़कों को असहाय बनाता है...और साथ ही हिंसक भी।
वह मेरे इस विश्लेषण पर हँसी। वह मुझे कुछ बेवकूफ समझती थी और यह मुझे भी अच्छा लगता था।
- तुम मुझे मार तो नहीं डालोगे?
- एक बार इस बारे में भी सोचा था।
वह चुप रही।
- बड़ा ज़मींदार होगा तुम्हारा नवदीप तो?
- आठ तो नौकर हैं घर में।
- और नौकरानियाँ?
- पाँच नौकर हैं, तीन नौकरानियाँ।
- तुम्हें नाम याद हैं इतने सारे नौकरों के?
- एक नौकर का नाम याद रखो, तो भी काम चल जाता है। ज़रूरी नहीं कि हर नौकर को उसके अलग नाम से ही पुकारा जाए। बिरजू कहकर चिल्लाओ तो जो भी नौकर आसपास हो, उसका फ़र्ज़ बनता है कि आए।
- यानी बिरजू का नाम याद है तुम्हें?
- नहीं, बिरजू उनमें से किसी का नाम नहीं है।
- बहुत सारे खेत होंगे ना?
- हाँ, इतने कि आसमान में उड़ने का मन करता है।
- सरसों के फूल देखकर तुम्हें मेरी याद नहीं आती?
- तीन ट्रेक्टर हैं उनके घर में।
- फिर तुम डीजे में क्यों नाचोगी?
इस प्रश्न पर उसका चेहरा उतर गया। वह खुश होना चाह रही थी। उसने कहा कि मैं बहुत बुरा हूं। मुझे बुरा लगा। मैंने कहा कि मैं छत पर जाना चाहता हूं, लेकिन मकान मालिक ने ज़ीने के दरवाज़े पर ताला लगा रखा है। मैंने उससे पूछा कि क्या मुझे उस ताले को तोड़ देना चाहिए? उसने कहा, नहीं। मैंने कहा कि मुझे डर लगता है कि किसी दिन कोई आसमान का ताला भी लगा देगा। इस बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। मैंने कहा कि लेखक बनना बहुत मुश्किल और अमानवीय काम है।
उसने पूछा- क्यों?
- आपको हर पंक्ति में चमत्कार करने की कोशिश करनी पड़ती है। आप चाहते हैं कि हर लाइन में कुछ नया कह दें, जो पहले कभी न कहा गया हो। जबकि ज़िन्दगी में ऐसा कहाँ होता है? मेरे कुल जीवन में तीन या चार बातें ही ऐसी हुई होंगी, जो कहीं और, किसी भी और के साथ नहीं हुई और पढ़ते हुए लोग यह उम्मीद करते हैं कि हर रोज़ कुछ नया पढ़ने को मिले। ऐसा चाहने से पहले वे अपनी नीरस ज़िन्दगियों की ओर देखते तक नहीं। कभी कभी लिखना आपको चूसने लगता है।
उसने चिंतित होकर कहा कि मुझे आज ही लिखना छोड़ देना चाहिए और विश्वास दिलाया कि मैं आठवीं तक के बच्चों को अच्छी तरह ट्यूशन पढ़ा सकता हूं। नवदीप का एक स्कूल भी था लेकिन उसने उसका ज़िक्र नहीं किया। वह ज़िक्र करती तो मैं अपनी नज़रों में और भी दयनीय हो जाता।
रात बहुत थी और आमतौर पर रातें बहुत डरावनी होती हैं। बहुत सारे खेत एक साथ देखकर क्या मेरा भी उड़ने का मन करेगा, मैं यह सोचता रहा। मैं नहीं सोच पाया। मुझे आम याद थे लेकिन मैं आम के पेड़ भूल चुका था।
- तुम्हें ट्यूशन ही पढ़ा लेना चाहिए।
उसने दुबारा यही बात कही।
- मैं एक कार खरीदना चाहता हूं।
- क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि उदास आदमी कार में बैठते ही खिलखिलाकर हँसने लगता होगा?
- यह मैं नहीं सोच पाता। कार में बैठकर कैसा लगता होगा, मैं नहीं जानता। कुछ महीने पहले तक मुझे यह भी पता नहीं था कि सोफे पर बैठकर कैसा लगता है?
- कौनसी कार खरीदोगे?
- सबकी तरह मैं कारों के नाम नहीं जानता और मुझे लगने लगा है कि मैं ज़िन्दगी भर कार नहीं खरीद पाऊँगा। खरीदना तो दूर, मैं बैठ भी नहीं पाऊँगा। तुम नहीं जानती कि यह लगना कैसा होता है?
- हाँ, मैं सच में नहीं जानती। मगर मैं जानती हूं कि तुम्हारे पापा का सपना था कि तुम एक लम्बी कार खरीदो जिसके पिछले शीशे पर तुम्हारा नाम लिखा हो।
वह मेरे पापा को मुझसे भी बेहतर जानती थी।
- अंग्रेज़ी में...
- हाँ, अंग्रेज़ी में।
फिर हमारे बीच अंग्रेज़ी के लहजे की चुप्पी रही। वह आधे डब्ल्यू के आकार में बैठी थी। उसके गले में लटके लॉकेट पर एन लिखा था। मैंने उसकी छाती पर रखा बी देखा। हमारे बीच सौ कोस का फ़ासला होगा क्यों कि अगले ही क्षण मैंने जब उस बी को छूना चाहा तो मेरे हाथ में हवा का एक टुकड़ा था। मैं बहुत देर तक दौड़ता रहा लेकिन उसे छू नहीं पाया।
- तुम दोनों साथ सोते हो?
- कौन दोनों?
- तुम और नवदीप...
- नहीं, वे पहले सो जाते हैं। मुझे कुछ देर में नींद आती है।
जिस ओर रसोई थी, उस ओर से छत का एक टुकड़ा हवा में उड़ गया। अब छत में रोशनदान था जिसमें से ऊपर जाया जा सकता था। शुक्र था कि बारिश नहीं हो रही थी। बारिश हो रही होती तो मैं उसके नीचे बाल्टी या तसला रख आता। छेद थाली के आकार का था। उसमें से रात टपक रही थी। मुझे लगा कि कुछ घंटों बाद इसमें से सुबह टपकने लगेगी। सुबह पानी जैसी थी जो किसी भी बर्तन में आ सकती थी। सुबह का आकार कटोरी, थाली या चम्मच जैसा भी हो सकता था। दवा की शीशी के ढक्कन जैसा भी! मेरे एक चाचा दवा के अभाव में मर गए थे। उन दिनों सुबहें बहुत थी लेकिन दवाओं की कमी थी। उन्हें रात भर दौरे पड़े थे और वे पागल हो जाने से तुरंत पहले मर गए थे। वे बी ए में पढ़ते थे और अच्छा गाते थे। उन्हें एक स्वस्थ लड़की से प्यार था। स्वस्थ लड़की का मानना था कि बीमार लड़के को बीमार लड़की से ही प्यार करना चाहिए। वे बीमार लड़की नहीं ढूंढ़ पाए थे और मरते नहीं, पागल हो जाते तो यह भी मुश्किल था कि पागल लड़की ढूंढ़ पाते। चुस्त और हट्टे कट्टे लड़कों के लिए प्रेम करना आसान था। हालांकि लड़कियाँ संवेदनशील और भोली थी और सबसे नर्म आवाज़ में बात करती थी।
वह बोली कि अब हमें खाना खा लेना चाहिए। हमने टिफिन खोलकर खाना खा लिया। मैं बीच बीच में छत के उस हिस्से को देखता रहा, जो उड़ गया था। हमारे खा चुकने के बाद किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मुझे गुस्सा आया कि कोई भूखा आया तो उसे क्या खिलाएँगे? कुछ देर पहले आ जाता तो हम दोनों एक एक रोटी कम खा लेते।
उसने पूछा- कौन होगा?
- मेरा रूममेट तो परसों आएगा।
- मुझे बार बार लगता है कि कहीं नवदीप न आया हो।
- उसके पास यह पता है? 378, गली नं 3?
वैसे पता बोलना ज़रूरी नहीं था।
- नहीं है। लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुछ भी असम्भव नहीं है।
वह अपने आप में छिप गई। दूसरी बार बेचैन सी खटखट हुई तो मैंने दरवाज़ा खोला। उसमें तेल लगाने की ज़रूरत थी। विकास खड़ा था, मेरा रूममेट। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थी और वह हाँफ रहा था। वह चार घंटे पहले घर जाने के लिए निकला था और प्रकाश की गति से भी आता-जाता तो भी इतनी जल्दी नहीं लौट सकता था। घर जाते ही वह पड़कर सो जाता है और कम से कम छ: सात घंटे में उठता है, ऐसा उसने मुझे बताया था। मैंने पूछा था कि क्या वह जाकर चाय भी नहीं पीता? उसने ‘नहीं’ कहा था।
मुझे टिफिन याद आया। मैंने वहीं खड़े खड़े उससे पूछा कि क्या उसने डिनर कर लिया है? उसने इनकार में गर्दन हिला दी। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं दरवाज़े पर अड़कर खड़ा था। उसने मेरे सिर के ऊपर से झाँककर अन्दर देखा। वह कुछ सिमटकर डबल्यू से एन हो गई थी। वह अन्दर की ओर बढ़ा। मैंने हल्का सा प्रतिरोध किया, जो प्रतिरोध लगे भी और न भी लगे। बस इतना ही कि कल को लड़ाई हो तो वह यह न कह सके कि उस रात मैं उसे घर में नहीं घुसने दे रहा था और मैं चाहूं तो यह कह सकूं कि जब मैं एकांत चाहता था, वह जबरदस्ती घुस आया था। बात प्राइवेसी से ज़्यादा डेढ़ डेढ़ हज़ार रुपए की थी जो हम किराए के भरते थे। बिजली के तीन सौ रुपए अलग थे। मैं हट गया। वह अपना बैग उठाकर अन्दर आ गया। फिर वह ठिठककर खड़ा रहा। मुझे भय था कि वह उसे कॉलगर्ल न समझ ले। ऐसे गन्दे ख़याल के लिए मुझे अपने आप से घृणा भी हुई। उसका पलंग कमरे में ही था मगर वह उसे पार करके रसोई तक चला गया। शायद वह भी हमारे बीच में अचानक टपककर असहज महसूस कर रहा था। फिर गिलास में पानी डालने की आवाज़ हमें सुनी। वह एन बनी ही बैठी थी। पानी पीकर वह रसोई और कमरे के दरवाज़े पर आया और इशारे से मुझे बुलाया। मैं गया तो मुझे दूसरे कोने में ले जाकर मुस्कुरा कर बोला- मेरे पीछे से मज़े कर रहा है।
- देख छत उड़ गई है।
मैंने उसे उड़ी हुई छत दिखाई। वह चौंक गया। उसने कहा कि छत उड़ नहीं सकती। यह टुकड़ा टूटकर नीचे गिरा होगा, जो मैंने छिपा दिया होगा और अब उसे बहका रहा हूं। मैं कुछ नहीं बोला और वापस कमरे में आ गया।
- तू घर क्यों नहीं गया?
मैंने वहाँ से चिल्लाकर पूछा। वह असमंजस भरी नज़रों से मेरी ओर देख रही थी। जाने क्यों, यह पूछना मैं उसे सुनाना चाहता था।
- आज ट्रेन ही नहीं आई।
कहता हुआ वह भी कमरे में आ गया।
- ऐसा कैसे हो सकता है? ट्रेन निकल गई होगी।
- नहीं, उन्होंने कहा कि आज छुट्टी है।
’उन्होंने’ कोई भी हो सकते थे। मैंने नहीं पूछा कि किन्होंने कहा?
अब वह बोल पड़ी- छुट्टियों की स्पेशल रेलगाड़ियाँ तो चलती हैं लेकिन रेलगाड़ियों की छुट्टी तो कभी नहीं सुनी।
- उन्होंने कहा कि बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी बातें तो होती ही रहती हैं।
विकास की आवाज़ में अतिरिक्त मिठास आ गई थी। वह मुस्कुराई। मुझे खीझ हुई। मैं आकर कुर्सी पर बैठ गया। वह हमारी ओर चेहरा करके अपने पलंग पर बैठ गया। हम इस तरह थे कि मेरी पीठ और उसका चेहरा विकास की ओर थे। मैंने कुर्सी थोड़ी सी खिसका ली। अब मेरा चेहरा दीवार की ओर था और मेरे दायीं तरफ वह थी।
- चलो, कहीं घूम आते हैं।
- और मैं वापस न आई तो?
हाँ, यह डर तो मुझे था। मैंने बालकनी में चलने का प्रस्ताव रखा जो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वह अपनी मुस्कान और भाव भंगिमाओं को लेकर ज़्यादा सजग हो गई थी। मुझे लड़कियों की यह आदत बुरी लगती है कि वे आपके साथ एकांत में किसी और ढंग से पेश आती हैं और किसी तीसरे की उपस्थिति में किसी और ढंग से। मैं उड़ी हुई छत के नीचे से नहीं गुजरा। वह बेहिचक उसके नीचे से ही आई। वह मेरे पीछे थी। विकास वहीं बैठा रहा। मुझे ट्रेन की छुट्टी वाली बात सफेद झूठ लग रही थी।
बालकनी में पहुँचते ही मेरे मुँह से निकलने को हुआ कि मैं डर रहा था कि यह तुम्हें किराए की लड़की न समझ ले, लेकिन मैंने अपने आप को रोक लिया। नीचे सड़क पर दो कुत्ते लेटकर सो रहे थे। एक रिक्शेवाला खाली रिक्शा लेकर धीरे धीरे जा रहा था। मेरा एक बार रिक्शा चलाने का मन भी था। नीचे खड़े स्कूटर पर बैठे एक छोटे से पक्षी को देखकर मुझे लगा कि कोयल है। मैं कोयल को ठीक से नहीं पहचानता था, इसलिए हर अनजान पक्षी को देखकर कोयल होने का वहम होता था।
अब हम खड़े थे और वह मुझसे लम्बी थी। वह मुँडेर पर झुककर नीचे देखने लगी। उसके पास एक उम्मीद थी कि वह कल सुबह हीरोइन बन सकती है। मुझे दूर दूर तक अपना ऐसा कुछ बनना दिखाई नहीं देता था। हो सकता है कि मैं ज़िन्दगी भर कागज़-कलम लेकर बैठा सोचता रहूं और कुछ भी न लिख पाऊँ।
मैं पूछ बैठा- तुम्हें आइडिया है कि एक लड़की कितने में आती होगी?
- कैसी लड़की?
- सुन्दर लड़की, जो तुम्हारे नवदीप की तरह कम बोलती हो और बहुत प्यार करती हो।
- भला मुझे कैसे मालूम होगा?
- नवदीप से पूछ कर बताना।
- तुम उन्हें क्यों बीच में लाते हो?
मैं कुछ कहता, उससे पहले ही दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। विकास को उठकर खोल देना चाहिए था या नहीं खोलना था तो बैठे रहना चाहिए था। लेकिन वह उठकर मेरे पास आया और बोला कि मैं जाकर दरवाज़ा खोलूं। मैंने कहा कि मैं भी बराबर किराया देता हूं और नौकर नहीं हूं। मेरे भीतर यह उसके असमय लौट आने का गुस्सा था। उसने कहा कि उसके पैर में मोच आ गई है इसलिए वह नहीं जा सकता। मैंने पूछा कि फिर वह यहाँ तक कैसे आया? उसने कहा कि दरवाज़े की दिशा में चलने पर दर्द होता है। मुझे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि कुछ देर पहले रसोई से अपने पलंग तक जाने में भी वह दरवाज़े की दिशा में ही चला था। उस समय वह लंगड़ा भी नहीं रहा था और न ही उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। और तो और, वह मुस्कुराया भी था। मैं भी अपनी ज़गह से नहीं हिला। दुबारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया गया तो वह ‘मैं खोल देती हूं’ कहकर दरवाज़े की दिशा में बढ़ी। “रहने दो”, मैंने कहा और चल दिया। विकास ने पीछे से कहा कि कोई उसे पूछे तो मैं कह दूं कि वह घर पर नहीं है। इस बार मैं गुस्से में था, इसलिए टूटी हुई छत के नीचे से बचकर चलना याद नहीं रहा। मैं उसके नीचे से गुज़रा तो सिर पर रात की दो तीन बूँदें गिरी। दरवाज़ा खोला तो सामने कोई नहीं था। मैंने बाहर निकलकर झाँका तो ज़ीने की ऊपर से तीसरी सीढ़ी पर दो सिपाही घात लगाकर बैठे थे। एक के हाथ में पिस्तौल थी। उसे देखकर बिना कुछ जाने समझे मैंने दोनों हाथ ऊपर कर दिए। अब वे बहादुरी से उठे और मुझ तक आए।
पिस्तौल वाले ने कहा- तो तुम हो विकास?
मैंने कहा- नहीं।
दूसरा बोला- इसकी दाढ़ी देखकर तो लगता है कि यही होगा।
मैंने कहा- विकास तो रोज़ शेव करता है। मैंने आज तक उसकी दाढ़ी ज़रा सी भी बढ़ी नहीं देखी।
पहला कुछ और रौब झाड़ता हुआ बोला- तो कहाँ है विकास?
मैंने ध्यान दिया कि वह हर वाक्य के आरम्भ में ‘तो’ ज़रूर बोलता है। मैंने कहा- तो वह यहाँ नहीं है।
पहला बोला- तो हम घर की तलाशी लेंगे।
दूसरे ने टोका- लेकिन साहब, वारंट नहीं है।
पहले को गुस्सा आया।
- तुम यार हमारी तरफ हो या इसकी तरफ? बहुत कानून झाड़ रहे हो।
वाकई मुझे ऐसे किसी नियम के बारे में नहीं पता था। मैंने धन्यवाद भरी नज़रों से दूसरे को देखा। वह झिड़की खाकर सकपका गया था। अजीब बात थी कि जिसके हाथों में पिस्तौल थी, वही साहब था और मेरी दृष्टि में पहला भी। बाहर चाँद था, जिसे देखकर मुझे धूप होने का भ्रम हुआ।
मैंने कहा- आप पिस्तौल छिपा लीजिए, मुझे रात में धूप दिखाई दे रही है।
दोनों सिपाहियों ने एक साथ सड़क की ओर देखा। वही रिक्शावाला, जो पिछली सड़क से खाली रिक्शा लेकर गया था, एक लड़की को बिठाकर ले जा रहा था। मैंने पिस्तौल वाले सिपाही से पूछा कि क्या दिल्ली रात में महिलाओं के लिए असुरक्षित है? यह मैंने उसी सुबह अख़बार में पढ़ा था। मुझे अख़बार की हर बात सच लगने लगती थी। सिपाही ने तुरंत कहा, बिल्कुल नहीं। मुझे विश्वास हो गया।
तभी एक लाल मोटरसाइकिल गुज़री, जिस पर एक लड़के के पीछे एक लड़की बैठी हुई थी। उसका टॉप पीछे से बार बार ऊपर उठ जाता था, जिसे एक हाथ से वह बार बार नीचे खींचती थी। यह देखकर दोनों सिपाही मुस्कुराए। पिस्तौल का भय न होता तो शायद मैं भी मुस्कुराता। वह लड़का लड़की को साइकिल के अगले डंडे पर बिठाकर ले जाता तो इतनी परेशानी नहीं होती। तब पैडल मारते हुए लड़के का पैर लड़की की कमर को ढक लेता। लड़की अधिक सुरक्षित महसूस करती। दिल्ली में कम साइकिलें थी, इसलिए अधिक असुरक्षा थी।
पहले सिपाही ने मुझसे मुख़ातिब होकर कहा- तो तुम नहीं बताओगे कि विकास कहाँ है?
मैंने कहा- बता दूँगा।
दूसरा बोला- जल्दी बताओ।
मैंने कहा- अन्दर है।
वे दोनों मुझे धकेलकर अन्दर घुस गए। मैं ठगा सा वहीं खड़ा रहा।
- ज़रा सी छत उड़ी हुई है। ध्यान से जाइएगा।
मैंने पीछे से चिल्लाकर कहा, जिस पर उन्होंने शायद ग़ौर नहीं किया।
मैं बालकनी में पहुँचा तो दूसरा सिपाही विकास का कॉलर पकड़कर खड़ा था। पहले सिपाही ने कुछ दूर से उस पर पिस्तौल तान रखी थी। उसे देख कर यह संदेह होता था कि कहीं पिस्तौल दूसरे सिपाही पर ही तो नहीं तानी गई है। वह एक कोने में खड़ी थी। उसे डर लगता था तो उसका इमली खाने का मन करता था। रात में इमली खोज कर लाना भी मुश्किल था। डर रात-दिन देखकर नहीं आता।
दूसरा सिपाही विकास को खींचकर ले जाने लगा तो मैंने हौले से पूछा- क्या किया है इसने?
विकास का चेहरा पसीने से तर था। पहला सिपाही, जिसकी पिस्तौल का निशाना खिंचते हुए विकास के साथ साथ घूम रहा था, बोला- इसने हत्या की है...पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर।
- नहीं साहब नहीं मैंने नहीं मारा कुछ मैंने छोड़ नहीं किया मुझे छोड़ दीजिए...
मैंने विकास को पहली बार इतना भयभीत देखा था। दूसरे सिपाही ने एक चाँटा मारा तो वह बिल्कुल चुप हो गया। वे उसे घसीटकर ले गए। मैं कुछ नहीं कर पाया। उनके जाने के बाद जब शांति छा गई तो वह धीरे से बोली- क्या तुम्हारे पास थोड़ी सी इमली होगी?
मैंने कहा- नहीं है।
कुछ रुककर वह फिर बोली- क्या सच में इसने किसी को मारा है?
- मुझे कैसे पता होगा?
- क्या ऐसा हो सकता है कि नवदीप भी ट्रेन से उतरकर इधर आ रहे हों और इसकी उनसे किसी बात पर झड़प हो गई है। तुम नहीं जानते कि वे कितनी छोटी छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं। एक बार बस में मेरे पास वाली सीट पर बैठे आदमी ने मुझसे बस इतना पूछ लिया था कि आप कहाँ जा रही हैं? ये दूसरी तरफ बैठे थे। इन्हें इतना गुस्सा आया कि पूछो मत। उस आदमी को जंगल के बीच में बस रुकवाकर उतरना पड़ा था। मुझे डर लग रहा है कि कहीं वे विकास से लड़ पड़े हों और इसने उन्हें...
- ऐसा नहीं हुआ होगा।
मैंने पूरे विश्वास से कहा जबकि मैं पूरी इच्छाशक्ति को समेटकर चाहना चाहता था कि ऐसा ही हुआ हो। वह मुझ पर इतना भरोसा भी नहीं करती थी लेकिन मेरा जवाब सुनकर उसके चेहरे का तनाव कुछ कम होता दिखा।
- तुम उसके घर फ़ोन कर दो।
- किसी के पिता या माँ या भाई-बहन को मैं यह कैसे बताऊँ कि इसने किसी की हत्या कर दी है जबकि हम सब जानते हैं कि हत्या की कम से कम सज़ा उम्रकैद है। हो सकता है कि फ़ोन सुनते सुनते कोई दिल का दौरा पड़ने से मर जाए और मुझ पर गैर-इरादतन हत्या का अभियोग लग जाए।
- हाँ, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। बेहतर है कि हम चिट्ठी लिखकर भेज दें। तुम्हें उसका पता याद है?
- वह तो मकान मालिक के रेंट एग्रीमेंट पर लिखा होगा।
- ठीक है, तुम उसे खोजो। मैं चिट्ठी लिखती हूं।
- लेकिन चिट्ठी पढ़कर भी तो कोई मर सकता है।
- नहीं, हम उसके ऊपर लिख देंगे कि कमज़ोर दिल वाले न खोलें। फ़ोन के ऊपर तो ऐसी वैधानिक चेतावनी नहीं लिख दकते ना।
- तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं फिर कहता हूं कि तुम्हें थिएटर करना चाहिए।
- पर तब तक पुलिसवाले उसे बहुत मारेंगे ना?
मैं सोच में पड़ गया। मुझे दुख हुआ। भले ही उसके अचानक आ जाने से मुझे कितना भी बुरा लगा हो, लेकिन उसके पिटने पर मुझे उससे कई गुना बुरा लगता। अब तक मैं सोच रहा था कि सब कुछ शादी-रिसेप्शन वाली मुम्बइया फ़िल्मों या बालहंस में छपने वाली बच्चों की कहानियों की तरह अच्छा अच्छा होगा। जब मेरे सामने पुलिसवाले खड़े थे, तब भी मेरी यही चेतना इतनी सक्रिय थी कि मैं चाँद और लड़कियों को देख पा रहा था। मेरे दिमाग में धुली हुई वर्दी अपने पति को पकड़ाती पुलिसवाले की पत्नी थी और घर लौटकर अपनी बच्ची के साथ खेलते हुए सिपाही का एक चित्र भी था। दोनों चित्रों में पुलिसवाले सभ्य भाषा में बात कर रहे थे। बल्कि पहले में तो वह चुप ही था और टूथब्रश दाँतों के बीच रखकर मुस्कुरा रहा था। मैंने भद्दी गालियों और तलवों पर पड़ते डंडों के बारे में अब तक कुछ नहीं सोचा था। अब सोचते ही मैं ज़मीन पर आया और मुझे बुरा लगा। ख़त पहुँचने में कम से कम एक सप्ताह लगता (मुझे ‘सप्ताह’ शब्द बहुत अच्छा लगने लगा था...वह मेरी तरह हफ़्ता नहीं, सप्ताह कहती थी) और वह भी डाकिये की भलमनसाहत पर निर्भर करता। तब तक पुलिस चाहती तो विकास को पीट पीटकर या किसी सुनसान सड़क पर गाड़ी से उतारकर नकली मुठभेड़ में मार सकती थी। हम कुछ नहीं कर सकते थे, इसलिए मैंने कहा- मुझे लग रहा है कि हम सपना देख रहे हैं।
उसने कहा, “हाँ मुझे भी...” और हमने आँखें खोल ली। हमें एक साथ चाँद दिखा। हमने तय किया कि बुरे सपनों के बीच में से अब से जल्दी जग जाया करेंगे। मैंने रसोई में झाँककर देखा। विकास का बैग रखा था। उसे देखकर मैंने आँखें बन्द कर ली और फिर सड़क की ओर देखते हुए खोली।

मुझे तुम बहुत याद आती हो। मेरी मेज पर एक गुलदस्ता रखा है जिसमें सरसों के पीले फूल हैं। मैं नहीं जानता कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, तब भी मुझे पीला रंग पसन्द आएगा या नहीं, लेकिन तुम्हारे कन्धे से लिपटा हुआ दो हज़ार दो मुझे बहुत याद आता है। मान लो कि फिर से एक सरकारी स्कूल हो जिसमें हम पढ़ते हों। मैं किसी भी तरह तुम्हारे बारे में बात करना चाहता हूं, उतनी ही सीधी-सपाट, जितनी तुम्हें समझ में आती हैं और अच्छी लगती हैं। मान लो कि सरकारी स्कूल हो, जिसमें हम हर दो घंटे बाद साथ साथ पानी पीने जाते हों। हम बिना कुछ बोले पास पास वाली टोंटियों पर झुककर पानी पीते हों और लौट आते हों। क्लास में शोर हो रहा हो और लौटकर हम भी उसमें शामिल हो जाते हों।
नहीं, इस तरह भी नहीं। मैं तुम्हारे हाथ पर अपना हाथ रखकर क्लास के बीचों बीच बैठे रहना चाहता हूं। मैं इस दृश्य के बीच में पेड़-पत्तों-नदी या आसमान को नहीं लाना चाहता। मैं बारिश के किसी दिन की बात कर रहा हूं। लम्बी गली में पानी भर गया है। बाज़ार जल्दी बन्द हो गया है। हम साढ़े पाँच के करीब अपने अपने घरों के लिए निकलते हैं। मान लो कि हम दोनों का एक एक घर है जिसमें हम अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं। घर होने की कल्पना से चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। आजकल दिन कुछ ऐसे हैं कि मैं ज़्यादा मुस्कुराना अफ़ॉर्ड नहीं कर सकता। तुम अफ़ॉर्ड कर सको तो जी भर कर मुस्कुराना। इतना कि तुम्हारे शहर में बाढ़ आ जाए। ...और तुम ज़्यादा काम मत किया करो। बहुत थक जाती हो।

एक अपराधबोध मेरे अन्दर के कुएँ में उतरता चला गया। उससे अगले दिन जब विकास को पेशी के लिए अदालत में ले जाया जा रहा था, उसने भागने की कोशिश की और पीठ पर पुलिस की सरकारी गोली खाकर मर गया।
पापा के मरने के बाद दीदी को लगता रहा था कि मैं उन्हें जानबूझकर वक़्त पर अस्पताल नहीं ले गया। मैंने दीदी को एक दफ़ा यह भी कहते सुना कि पापा का ठीक इलाज़ होता तो शायद वे कुछ साल और जी जाते। अप्रत्यक्ष रूप से घर में यही कहा जाता रहा कि उनकी मौत के लिए मैं और मेरा नाकारा होना ज़िम्मेदार है। उनके घर छोड़ कर चले जाने के लिए भी माँ और दीदी को मैं ही दोषी लगता था। मैंने अपने पिता को मारा है, यह आरोप वर्षों तक दिन रात मुझे मथता रहा और अंतत: मेरे व्यक्तित्व में समा गया। उस रात भी ‘ऐसा ही कुछ फिर होगा’ सोचकर – और अगले दिन ऐसा हुआ भी – मैं अन्दर आ गया। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई थी।
मैंने कहा- हमें फ़ोन ही कर देना चाहिए, चाहे जो भी हो।
वह चुप रही। मैं उठकर अपना मोबाइल फ़ोन ढूंढ़ने लगा। वह एक किताब के बीच में रखा मिला, जैसे रोमांटिक कविताओं में किताब में गुलाब के सूखे हुए फूल मिला करते हैं। जाने कब से मैंने अपना फ़ोन नहीं देखा था। दो या तीन दिन हो गए होंगे। इतने समय से कोई कॉल भी नहीं आई थी। मुझे उस क्षण लगा कि मेरी ज़िन्दगी मोबाइल फ़ोन के बिना भी चल सकती है। वह बन्द पड़ा था। उसकी बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। अब चार्जर ढूंढ़ना था। मैंने गद्दा उठाकर झाड़ा, किताबें फिर से टटोली लेकिन वह नहीं मिला। वह दीवार से पीठ टिकाकर खड़ी थी और मेरा खोजी अभियान देख रही थी। मैंने सोचा कि इससे अच्छा होता कि चार्जर मिल जाता और फ़ोन न मिलता। फ़ोन को तो मिस्ड कॉल मारकर भी ढूंढ़ा जा सकता था। लेकिन अगले ही पल मुझे याद आया कि यह और भी बुरा होता क्योंकि वह ऑफ़ पड़ा था।
- फ्रायड सही कहता था। मैंने ही पापा को मारा है।
मैं फिर कुर्सी पर था। वह दीवार से टेक लगाए ही खड़ी थी।
- वे बीमार थे पागल। तुमने कुछ नहीं किया।
- मुझे यकीन नहीं होता। क्या तुम फिर से यह बात कह सकती हो?
वह चुप मुझे देखती रही। उनका नौकर भी मुझे ऐसे ही चुपचाप देखता रहता था। पाँच साल पहले की बात होगी। हम तब स्कूल में पढ़ते थे। वह नहीं भी होती थी, तब भी मैं उनके घर चला जाता था। उस शाम भी नौकर ने मुझे बरामदे में बिठा दिया था और बरामदे के खम्भे से टिककर उसी तरह घूरता रहा था। बाथरूम का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था। लकड़ी का दरवाज़ा था जिसमें ऊपर की तरफ एक हाथ जितनी ज़गह छूटी हुई थी और तीन चार उंगलियों जितनी नीचे भी। लकड़ी की तख्तियों के बीच झिर्रियाँ थी। नौकर ने कहा कि मौसी नहा रही हैं। उसकी मम्मी को वह मौसी ही कहता था और शुरु के कुछ दिनों तक मैं समझता रहा था कि वह उसका मौसेरा भाई है। उसकी मम्मी अपनी बहन के ससुराल से उसे लेकर आई थी।
मैं इस तरह बैठा था कि मेरा चेहरा बाथरूम की तरफ था। यह मुझे अटपटा सा लग रहा था लेकिन अपनी ज़गह बदलने का प्रयास स्थिति की असहजता को और भी स्पष्ट बना सकता था, इसलिए मैं बैठा रहा। बाल्टी में बर्तन का डूबना और फिर शरीर पर पानी का गिरना मुझे बार बार सुनता था। बीच में चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई पड़ती थी। एक चित्र दिमाग में बनता था, जिसे मैं तुरंत रबड़ से मिटा देता था। एक रुपए वाली नटराज की नकली रबड़ जो दो तीन बार मिटाते ही काली पड़ जाती थी। बर्तन एक बार हाथ से छूटकर दरवाज़े के पास आकर गिरा। दरवाज़े के नीचे वाली खाली ज़गह में से मुझे उनका हाथ दिखा, जिसने बिजली की सी चपलता से पीतल का लोटा उठा लिया। भिंडी जैसी लम्बी लम्बी गोरी उंगलियाँ। मैं तब सत्रहवें साल में था।
शाम के चार-साढ़े चार बजे होंगे। वे अक्सर इसी वक़्त नहाती थी। वे कुछ देर बाद गुलाबी नाइटी में बाहर निकली। उनके निकलने से पहले मैंने उनका कपड़े पहनना भी सुना था। मैंने नमस्ते कहा और नज़रें झुका ली। उन्होंने पूछा कि क्या मैंने पानी वानी पिया? मैंने सिर झुकाए हुए ही इनकार में गर्दन हिलाई और ‘नहीं’ कहा। उन्होंने नौकर से पानी लाने के लिए कहा और मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गई।
- अरे, ऐसे सिर झुकाकर क्यों बैठे हो..लड़कियों की तरह?
मुझे मुस्कुराते हुए मज़बूरन अपना चेहरा ऊपर को करना पड़ा। उनके गाल टमाटर की तरह सुर्ख़ थे और भीगे हुए बाल कानों के ऊपर से होकर वहाँ तक लटक रहे थे, जहाँ उनकी पेंट की जेब होती, यदि उन्होंने पेंट पहन रखी होती। मैं कुछ क्षण तक अपलक देखता रहा।
- क्या हुआ?
उन्होंने पूछा।
- कुछ नहीं।
मैंने पलकें झपकाई और मुस्कुरा दिया।
नौकर ने पानी के गिलास लाकर रख दिए और रानी साहिबा के प्रहरी की तरह वहीं खड़ा रहा।
- तुम स्कूल नहीं गए आज?
- नहीं, माँ कुछ बीमार थी। इसलिए जल्दी आ गया।
- क्या हुआ माँ को?
- वही घुटनों का दर्द। कल शाम से ही बिस्तर पर लेटी हुई हैं।
- ओह!
उनके चेहरे पर एक सॉफिस्टिकेटेड सी चिंता आई और चली गई। मैं मेज पर रखी एक महिला पत्रिका उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा।
- तुम्हारा मन न लगता हो तो दो-चार मैगज़ीन लेते जाना। यहाँ तो रद्दी में ही पड़ी फिरती हैं।
मैं कुछ कह पाता, उससे पहले ही वे उठी और अन्दर से कुछ रंगीन ज़िल्द वाली पत्रिकाएँ लाकर मेरे सामने रख दी। वे उसी पत्रिका के अलग अलग अंक थे। सबसे ऊपर गर्भावस्था विशेषांक था जिसे मैंने नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की॥
- यह रहने दो।
मेरी कोशिश असफल रही क्योंकि अगले ही क्षण उन्होंने ऊपर वाली पत्रिका उठाकर अपनी गोद में रख ली और मुस्कुराती रही।
- शानो ने बताया कि तुम कविता भी लिखते हो। भई हमें भी सुनाओ कुछ।
वे प्यार से उसे शानो कहती थी। मुझे उस पर गुस्सा आया। मैंने अपनी कविताएँ उसे इस शर्त पर पढ़वाई थी कि वह किसी से भी न कहे, अपने बगीचे में लगी रात की रानी से भी नहीं।
- नहीं...बस ऐसे ही थोड़ा बहुत लिख लेता हूं।
मैं शर्मा सा गया था। उन्होंने नौकर को सब्ज़ियाँ लाने को कह दिया। वह चला गया।
- बचने की कोशिश मत करो। अब तो कुछ सुनाना ही पड़ेगा।
उनके बोलने में अब तक किशोरियों वाली चंचलता बची हुई थी।
- मुझे याद नहीं है आंटी। फिर कभी सुना दूंगा।
- कोई बहाना नहीं चलेगा।
हारकर मुझे कविता सुनानी ही पड़ी।
- जितनी याद है, उतनी सुना देता हूं।
- ठीक है।

धूप बुलाती है मुझको
और छाँव नहीं भाती उसको
मैं दिन भर चलता जाता हूं
इस धूप में जलता जाता हूं
कोई साथी तो आ जाए
मुझको थामे, छाँव दिलाए

शीर्षक मैंने कविता सुनाने के बाद बताया। धूप-छाँव।
- वाह! बहुत अच्छा लिखते हो। तुम्हारी उम्र में मैं भी लिखती थी। सुनोगे?
- हाँ, ज़रूर।
उन दिनों अपनी प्रशंसा सुनकर मेरी खुशी छिपाए नहीं छिपती थी। वे थोड़ी और तारीफ़ करती तो मैं उनका महाकाव्य तक सुनने को तैयार हो जाता। वे कमरे में गई और एक डायरी उठा लाई। पन्ने पलटने के दौरान मैंने देखा कि बहुत सजा कर लिखा गया था। मेरी लिखावट बहुत गन्दी थी और मैंने कोई डायरी भी नहीं बना रखी थी।
उन्होंने गाकर सुनाया।

ये मेरा हुस्न तेरी चाहत का दीवाना है
हर लम्हा अपने इश्क का अफसाना है
एक पल भी मैं जी नहीं सकती तेरे बिना
यही तेरे दिल को मेरे दिल का नज़राना है

- बहुत अच्छा है...सच में बहुत अच्छा है।
वे खुश हुई।
- शुक्रिया। एक और सुनो।

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
तेरा मेरा जन्मों जन्मों का नाता है
आकर लिपट जा तू गले से मेरे
मेरे दिल का रस्ता तेरे दिल तक जाता है

- वाह! क्या बात है!
- मैं शायरी ही लिखती थी। फिर सब छूट गया। कुछ साल बाद देखना, तुम्हारा भी छूट जाएगा।
उनकी गहरी काली आँखें थी और काली पुतलियों के चारों तरफ दूध सी शुद्ध सफेदी। मेरी माँ की आँखों के आसपास सलवटें पड़ गई थी और हर समय आँखें मिंची मिंची सी लगती थी। माँ के माथे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी थी। आंटी के माथे पर तीन लटें स्टाइल से बिखरी हुई थी। माँ का पेट थोड़ा निकलने लगा था। आंटी छरहरी थी और उम्र उन्हें छू भी नहीं गई थी। माँ पौनी बाँह के ब्लाउज पहनती थी और आंटी बड़े गले के स्लीवलेस। माँ ने सिनेमाहॉल में सिर्फ़ ‘हम आपके हैं कौन’ देखी थी और आंटी हर तीसरे हफ़्ते फ़िल्म देखने जाती थी।
जब हम छोटे थे तो उनके अन्दर वाले कमरे में घर-घर खेला करते थे। मैं उनके घर आता तो कभी कभी पापा मुझे छोड़ने आ जाते। हम कमरे के एक कोने में खाट को खड़ी करते और ऊपर से चादर ढककर छत बना लेते। वह हम दोनों का तिकोना घर होता था। (चार कोनों वाला घर उसने नवदीप के साथ बसाया) वह गुड़िया लाती और मैं पत्थर के टुकड़े। वह चुन्नी लाती और मैं काजल की खाली डिबिया में चीनी। अक्सर दोपहर होती थी लेकिन उस भीतर वाले कमरे में कम रोशनी ही रहती थी। पीछे की दीवार में एक खिड़की थी जो खेतों की तरफ खुलती थी। उसी के पास वाले कोने में हम घर बनाते थे। हम अपने घर को चादर ओढ़ा रहे होते या अन्दर बैठकर गाना गा रहे होते या गुत्थमगुत्था हो रहे होते, उसी बीच कभी धीरे से कमरे के दरवाज़े की बाहर वाली साँकल चढ़ जाती थी।
चार्जर उस रात नहीं मिला।
- अगर हम कहीं टहलने निकल गए होते तो शायद विकास बच जाता।
उसने कहा। वह मेरे पीछे झुककर मेरे दोनों कन्धों पर अपने हाथ रखे हुए थी। उसने अपनी शादी की एक फ़ोटो मुझे ईमेल से भेजी थी। उसमें वह इसी तरह नवदीप के कन्धों पर हाथ रखकर खड़ी थी।
- क्या वह आदमी भी बच जाता, जिसे उसने स्टेशन पर मारा है?
- मुझे लगता है कि पुलिस को कुछ गलतफ़हमी हुई है।
- तुम उसे जानती ही कितना हो? दस मिनट या हद से हद पन्द्रह मिनट?
- मैं तुम्हें भी कितना जानती हूं? कभी कभी लगता है कि बस तीन चार मिनट...
- कभी कभी लगता है कि तुम मुझे जानने समझने की एक्टिंग कर रही हो...और कभी कभी न जानने की। जैसे सब कुछ किसी सीन की रिहर्सल है...
- तुम चाहो तो मेरे सेल से फ़ोन कर सकते हो।
मैंने नहीं चाहा। मैं जैसा चाहता था, वैसा कई बार हो जाता था। जैसे उस रात मैंने चाहा कि सुबह के ऑडिशन में उसे चुन लिया जाए और वह चुन ली गई। डेढ़ साल बाद एक ऐसा दिन भी आया, जब देश भर के पत्रकारों के पास उसका नम्बर था और मेरे पास नहीं था।
माँ थोड़ी रुढ़िवादी थी और साथ ही अपराध-कथाओं वाली पत्रिकाएँ उसे बहुत पसन्द थी। हम दोनों भाई-बहनों को वह अच्छे संस्कार देना चाहती होगी, शायद इसलिए ऐसा साहित्य हमसे छिपाकर रखा जाता था। माँ की अपनी एक अलग दुनिया बन गई थी जिसमें उसके घरेलू नुस्खे, शक, वहम और बीमारियाँ थी। वह बहुत बीमार रही, लेकिन कभी किसी डॉक्टर के पास नहीं गई। छुटपन की मेरी जितनी भी यादें हैं, उनमें वह पापा के साथ झगड़ती हुई ही नज़र आती है। वे दोनों बिना बात के ही लड़ने लगते थे। कभी कभी देर रात में उनके झगड़ने से हमारी नींद टूट जाती थी, कभी रात के खाने के वक़्त माँ पापा को थाली लाकर पकड़ाती और पापा उसे दीवार पर दे मारते। अव्वल तो पापा माँ के लिए कभी कुछ खरीदकर लाए हों, मुझे याद नहीं पड़ता और एकाध बार लाए भी तो माँ ने उन साड़ियों के बदले बर्तन खरीद लिए। माँ ने हमेशा अपने मायके से लाया हुआ कपड़ा ही पहना। पापा हम दोनों भाई-बहनों को बहुत प्यार करते थे और मैं माँ को ज़्यादा प्यार करता था। दीदी शायद पापा के ज़्यादा करीब थी। माँ में रिश्तों के प्रति एक भयावह सी तटस्थता थी और वह एक सीमा से अधिक किसी को भी अपने नज़दीक नहीं आने देती थी। अपने बच्चों को भी नहीं। गठिया ने माँ को खाट पर ला बिठाया था, लेकिन मैंने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा। पापा सहायक डाकपाल थे और उन्होंने कभी शराब नहीं पी। फिर भी हमारे घर में एक तनाव इधर उधर डोलता रहता था। वह शायद सुबह सुबह आने वाले नल के पानी में घुल गया था, जो फिटकरी डालने पर भी तली में नहीं बैठता था।
उस शाम आंटी काफ़ी देर तक अपनी शेरो-शायरी सुनाती रही। मुझे याद नहीं कि मैंने ध्यान से कुछ सुना हो। मैं पूरे समय मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रहा। अब मुझे लगता है कि वे भी यही चाहती थी। नौकर सब्ज़ियाँ लेकर आया तो उन्होंने उसे दूध लाने भेज दिया।
अपनी डायरी बन्द करके वे बोली- अब तक तुम्हारी कविताओं में तुम्हारी उम्र शामिल नहीं हुई।
- मैं समझा नहीं।
मैं हँसा। वे खनखनाकर हँसी।
- इस उम्र की एक उमंग, थोड़ी सी आशिक़ी, थोड़ी शरारतें...यह सब तो होना ही चाहिए।
मैं वाकई लड़कियों की तरह लजा गया। माँ के मुँह से मैंने कभी आशिक़ी या इससे मिलता जुलता शब्द नहीं सुना था। वे माँ से छ: साथ साल ही छोटी होंगी, लेकिन बातों से बीस साल छोटी लगती थी।
एक उम्र के बाद कुछ औरतें उस अनुभवी हिरणी की तरह हो जाती हैं जिसका शेर का शिकार करने का मन होता है तो वह शेर का शिकार करके ही छोड़ती है। इस दौरान वह इस बात का भी बख़ूबी ध्यान रखती है कि घास और जंगल को उस पर बिल्कुल भी शक़ न हो और न ही शाकाहारी समाज में उस पर जीवहत्या का आरोप लगे। कोई फँसे तो वह शेर ही हो, हिरणी नहीं।
आप जानते हैं कि हिरणी शिकार कैसे करती है? मैं बताता हूं।
उसे अविश्वसनीय रूप से बहुत सारे चुटकुले याद होते हैं। वह आपको चुटकुले सुनाने लगती है। आपको मज़ा आता है। आप हँसते जाते हैं। आपकी उम्र की लड़कियाँ आपस में तो कुछ फुसफुसाकर ही ही करके हँसती हैं और आपके साथ हमेशा बच्चियों जैसी भोली भाली बातें करती हैं, इसलिए क्रमश: और अंतरंग विषयों पर आते वे चुटकुले आपको और भी अच्छे लगते हैं। आपको पन्द्रह सोलह साल की लड़कियों पर गुस्सा भी आता है और तरस भी। जो रहस्य आपके दिमाग को दिन-रात खाए जाते थे, उन पर से हल्का हल्का पर्दा उठने लगता है। हिरणी जानती है कि कहाँ रुक जाना है, तड़पाना है और कब फिर से शुरु होना है। शुरु शुरु में आपको लगता है कि आप सिर्फ़ सुन रहे हैं और बिल्कुल पाक साफ़ हैं और जिस पल भी चाहें, मैदान छोड़कर उस मासूम सी लड़की के पास जा सकते हैं जो अपने ननिहाल गई हुई है और कल सुबह लौट आएगी। आप सोचते हैं कि यह जी टी वी देखते देखते कुछ देर के लिए फैशन टी वी देखने जैसा है और आप जब चाहें, एक बटन दबाकर जी टी वी पर लौट सकते हैं। आप भूल जाते हैं कि आप उस लड़की की माँ के साथ बैठे हैं, जो रोज़ स्कूल में आधा लंच आपको देती है, जो आपकी सबसे अच्छी दोस्त है और जिससे आप प्यार करते हैं। इसी बीच हिरणी एक चुटकुला सुनाती है, जिसमें स्कूल के ड्रेस कंपीटिशन में एक लड़की बिना कपड़ों के पूरे शरीर पर चॉकलेट मलकर पहुँच जाती है और अपने आप को टाइटल देती है- मिंट विद अ होल। आप बहुत हँसते हैं। वह बस थोड़ा सा मुस्कुराती है और पढ़ाई-लिखाई की बातें करने लगती है। वह सचमुच जानती है कि उसे कहाँ रुकना है और आप जो अपने आप को बहुत समझदार मानते हैं, कुछ भी नहीं जानते। आप अनुरोध करते हैं कि वह कुछ और सुनाए। वह पूछती है कि क्या आप कुछ देखना चाहेंगे? आप हाँ हाँ हाँ करते हैं। आप उस शाम ही दुनिया की सब गहराइयाँ छान मारने के लिए उत्सुक हैं, बेताब हैं। वह आपको अन्दर के कमरे में ले जाती है, जिसकी पिछली दीवार में खेतों की तरफ खुलने वाली खिड़की है और जिसके कोने में आपका बरसों पुराना तिकोना घर है। लेकिन आपको कुछ याद नहीं है। वह आपको चिकने पन्नों और रंगीन चित्रों वाली एक किताब निकालकर दिखाने लगती है। अब आप पूरे पागल हो जाते हैं। आपकी नसों में ख़ून की ज़गह पिघला हुआ लोहा दौड़ने लगता है। आप शेर हों या गीदड़ हों या इंसान, आपको एक गुफा की ज़रूरत महसूस होती है और उसके लिए आप उस समय कुछ भी कर सकते हैं।
एक शाम अचानक आप अपनी चेतना और विवेक पाते हैं तो देखते हैं कि आप किसी और के घर के कमरे में लगभग नंगे लेटे हैं। कमरे में अँधेरा पसर रहा है, जिसने दीवारों पर टँगे चित्रों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। आपको खिड़की से बाहर दूर तक सरसों के काले होते खेत दिखाई देते हैं। वातावरण में ऐसी बोझिल उदासी है, जिसे केवल छोटे शहरों की अप्रैल की शामों में सात बजे के आसपास महसूस किया जा सकता है। आप अँधेरे में अपना चेहरा टटोलते हैं। आपके होठों के ऊपर हल्का हल्का रोयां आपकी उंगलियों को चिढ़ाता है। आपके नाक और कान कहीं गिर गए हैं। थोड़ी सी कोशिश के बाद आप उन्हें बिस्तर के नीचे से खोज निकालते हैं और पहन लेते हैं। चले जाने से पहले आप एक बार ज़ोर से चीखना चाहते हैं। पागलपन पाली चीख या जैसे कभी कभी बच्चा जनती हुई औरतें चीखती हैं। लेकिन आप एक सभ्य समाज में रहते हैं और इसलिए अश्लील नहीं चीख सकते। आप गलियारा, दरवाज़ा, सड़क, बिजलीघर और दो-तीन गलियाँ सधे कदमों से पार करते हुए अपने घर लौट आते हैं। आकर आप चाय पीते हैं और टीवी देखते हैं।
वह मुझसे कहती है- एक क्षण होता है, जिसमें हम अपनी मासूमियत सदा के लिए खो बैठते हैं। उससे पहले हम उसके बाद के समय की चाह में भाग रहे होते हैं और उसके बाद उससे पहले के समय की चाह में। उस एक पल की खूंटी पर हमारा पूरा जीवन टिका रहता है।
- क्या तुम प्रेम में विश्वास करती हो?
- मुझे नहीं पता।
वह रुआँसी हो जाती है। हम दोनों के बीच बचपन का एक धागा है, जिस पर हमारे बूँद बूँद आँसू निरंतर तैरते हैं। वह जब भी रोती है, उसे अपने पिता की याद आती है, जो फ़ौज में थे और बिना लड़ाई के मारे गए थे। कश्मीर की किसी बर्फीली पहाड़ी पर उनका पैर फिसला था और वे सैंकड़ों फीट गहरी खाई में जा गिरे थे। वह पाकिस्तान से नफ़रत नहीं करती।
मैं पूछना चाहता हूं कि उसकी ज़िन्दगी कौनसे क्षण की खूंटी पर झूल रही है, लेकिन नहीं पूछता। वह अपनी शादी से अगली सुबह तीन दिन के लिए नवदीप के साथ नैनीताल गई थी। उसके कुछ महीनों बाद जब मैं नैनीताल गया तो मेरा किसी झील में कूदकर आत्महत्या करने का मन होता था। पर्यटन स्थल मुझे इसीलिए अच्छे नहीं लगते क्योंकि वहाँ लोग हनीमून मनाने आते हैं। मैं पहाड़ों पर पलता तो निश्चित तौर पर अपराधी बनता। यह सोचकर मुझे विकास की याद आती है। वह तो लखनऊ में पला-बढ़ा है। शायद इसीलिए अब तक उसके प्रति मेरी सहानुभूति कुछ कम हो गई है।
यह आश्चर्यजनक है कि माँ को मुझमें और पापा में से किसी एक को चुनना होता तो वह पापा को ही चुनती। जबकि मुझे लगता है कि मैं उससे पापा की अपेक्षा कहीं ज़्यादा प्यार करता था। यह बात और है कि माँ को कभी ऐसे चुनाव का मौका नहीं मिला। उसे अपने जीवन में अक्सर लम्बी बहसों के नतीज़ों की सूचना भर दे दी गई। उसे कभी विकल्प नहीं दिए गए और बड़ी बात यह है कि उसने कभी शिद्दत से ऐसा चाहा भी नहीं।
अगली शाम पापा देर से घर आए। मैं उस दिन भी स्कूल नहीं गया था और दिन भर बिस्तर पर पड़ा सोता-जागता रहा था। पापा ने कहा कि आंटी को तेज बुखार है और चूंकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं है (नौकर, नौकर ही माने जाते हैं; पुरुष या स्त्री नहीं) इसलिए वे चाहते हैं कि मैं रात में उनके यहाँ सोऊँ। बाद में मुझे लगता रहा कि ऐसा आंटी ने ही उन्हें कहा होगा। वे मुझे देखना चाहती होंगी।
मैंने इनकार कर दिया। उन दिनों पापा मेरे प्रति रूखे होते जा रहे थे। फ्रायड ने कहा है कि मूलत: हर पुरुष अपने पिता का और हर स्त्री अपनी माता की शत्रु होती है। घोर अवसाद के दिनों में बहुत बार मुझे इसका उल्टा भी सच लगा है। हालांकि मेरा बचपन बहुत लाड़-दुलार में बीता, लेकिन ज्यों ज्यों मैं बालक से पुरुष होता गया, त्यों त्यों पिता मुझसे दूर होते गए (शायद माँ भी। क्या फ्रायड ने अधूरी बात कही थी या मुझमें जो स्त्री थी, माँ की उससे शत्रुता थी?)।
मेरे मना करने पर उन्हें बहुत गुस्सा आया। यूँ तो मैं हमेशा उनके घर जाने के लिए उतावला रहता था और आज जब उन्हें ज़रूरत है तो नहीं जा रहा हूं। उन्होंने फिर से कहा कि मुझे जाना चाहिए। मैंने फिर से मना किया। दीदी रसोई में प्याज काट रही थी। माँ चुपचाप अपनी खाट पर लेटी थी जैसे कुछ भी न सुनाई देता हो। वे बहुत पुराने साल थे जब पापा बाहर से आते ही माँ को बहुत सारी बातें बताते थे। तब माँ की पसन्द की सब्ज़ियाँ भी आती थी। वे उनकी शादी के बाद के एक-दो साल ही थी, जिन्हें और बहुत् से अच्छे समयों की तरह मैं कभी नहीं देख पाया।
फिर पापा ने मुझे ख़ूब डाँटा। आखिर मुझे जाना ही पड़ा।
वह उसी सुबह अपने ननिहाल से लौटी थी। वह वैसी ही थी- मासूम, चंचल और धुली धुली बर्फ सी। मैं सीधा उसके कमरे में गया। आंटी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थी। वे उसी गुलाबी नाइटी में थी और कहीं से भी बीमार नहीं लग रही थी। वे कनखियों से मुझे देखकर मुस्कुराई। मैं सत्रह साल का पाँच फीट सात इंच का लड़का हवा में उड़ते पत्ते सा कमज़ोर हो गया और गिरते-गिरते बचा। मैंने निश्चय किया कि एक दिन आएगा, एक अच्छा सा ख़ुशनुमा दिन, जब मैं उसे सब कुछ बता दूँगा और वह मुझे अपने सीने में भींच कर छिपा लेगी और उंगलियों से मेरे बाल सहलाएगी और समझाती रहेगी कि मैं इतना बुरा नहीं हूँ। एक सचमुच का दिन होगा, जब वह कहेगी कि अब सब कुछ ठीक हो गया है और दुनिया में ऐसा कोई भी दाग नहीं, जिसे धोया न जा सके। उस दिन मैं सचमुच बहुत रोऊँगा।
- तुम ऐसे लग रहे हो, जैसे दिन भर या तो सोते रहे हो या रोते रहे हो....और तुम जानते ही हो कि रोना तो मुझे कितना नापसन्द है।
वह मेरे घुसते ही बोली। उसकी हर चीज के बारे में एक राय थी और वह उसी पर अडिग रहती थी। आपकी बाँह कटकर आपके शरीर से अलग हो गई हो और उस समय सिर्फ़ वही आपके पास हो और आप दर्द के मारे रोने लगें तो वह गुस्से में आपको अकेला पटककर भी जा सकती थी। उसे कठोरता पसन्द थी जिसे वह आत्मबल कहती थी। उसे व्यावहारिकता पसन्द थी जिसे वह समझदार संवेदनशीलता कहती थी। मेरी बदकिस्मती कि मैं उसकी पसन्द का कुछ भी न बन पाया। उसकी फ़ेवरेट काजू कतली तक नहीं।
- मैं सोता रहा सारा दिन।
- फिर ठीक है।
वह हँसी। वह अख़बारों और पत्रिकाओं में से तस्वीरें काट काटकर अपने संग्रह में चिपका रही थी। उसे करीना कपूर भी पसन्द थी। मुझे उस रात वह एक अलग दृष्टिकोण से दिखाई पड़ रही थी जिसमें उसकी माँ का पास वाले कमरे में बैठकर मुस्कुराना भी शामिल था। मैंने चेक वाली शर्ट पहन रखी थी, जिसकी बाजुएँ चढ़ी हुई थी। मैं निम्नमध्यमवर्ग के कम बोलने वाले किशोरों जैसा लगता था और शायद था भी। वह बेफ़िक्र और आधुनिक थी। गर्दन और गालों पर गिरते उसके बाल, जो गर्मियों में उसे तकलीफ़ देते थे, मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वह चार्ट पर तस्वीरें चिपकाते चिपकाते एक हाथ से आदतन उन्हें पीछे करती थी तो मैं लगभग आह भरता था।
उस रात आग लग गई। मैं उसके कमरे में सोया था। वह और आंटी टीवी वाले कमरे में सोई थी और नौकर तारों की छाँव में ऑडोमॉस लगाकर सोया था। आग टीवी वाले कमरे में लगी। बाद में अनुमान लगाया गया कि खिड़की पर लगे लकड़ी के पल्लों ने सबसे पहले आग पकड़ी, जिन्होंने परदों को जलाया और फिर मेज पर रखी लालटेन ने अपने मिट्टी के तेल की शुद्धता का परिचय देते हुए उसे और भड़का दिया। मेरी आँख तब खुली जब वे दोनों बदहवास सी इधर-उधर दौड़ रही थी और नौकर आग-आग और पानी-पानी चिल्ला रहा था।
असल में आग हम सबकी ज़िन्दगी में लग गई थी। कोई शॉर्ट सर्किट नहीं हुआ था और न ही किसी बिल्ली ने कोई मोमबत्ती गिराई थी। इसलिए सबको ऐसा लगा कि आग किसी ने जानबूझकर लगाई है। आंटी का हाथ झुलस गया था और उसके पैर की दो उंगलियाँ। आंटी ने ही पापा से कहा होगा कि उन्हें मुझ पर शक़ है। पापा ने उस बात पर तुरंत भरोसा क्यों कर लिया, यह बताने के लिए मुझे अपने बचपन में लौटना होगा।
क्या मुझे लौटना चाहिए?
शायद नहीं, लेकिन तमाम प्रतिबन्धों के बावज़ूद मैं बार बार लौटूंगा।
तब पापा की घनी मूँछें थी और उनके सारे बाल काले थे। वे मुझे गोद में उठाकर चूमते थे तो मुझे उनकी मूँछें चुभती थी। मैं तब इतना ही बड़ा था कि कभी कभी सुबह और शाम में भेद नहीं कर पाता था। मुझे एक दृश्य याद आता है, जिसमें आंटी पापा की मूँछों को छू रही हैं। एक भारी हँसी की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती है। एक दृश्य है, जिसमें पापा मेरे हाथ में बिस्किट का पैकेट थमाकर आंटी के साथ कहीं चले गए हैं। कहाँ गए हैं, यह मुझे याद नहीं आता। एक दृश्य में मैं गुलाब के फूलों के बीच सहमा सा अकेला खड़ा हूं। यह तो हमारी फैमिली एलबम में लगी एक फ़ोटो है, लेकिन फ़ोटो को पलटकर उस दिशा का दृश्य नहीं दिखाई देता जिधर कैमरा था। उसके लिए आपको मेरी आँखों में झाँककर देखना पड़ेगा। लेकिन क्लिक की आवाज़ के साथ ही मैं आँखें बन्द कर लेता हूं और जो मैं उस क्षण देख रहा था, वह कोई भी कभी नहीं देख पाता। एक और दृश्य है, जिसमें मेरी रंगबिरंगी बॉल लुढ़कती हुई दूसरे कमरे में चली जाती है। मैं उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। मेरे कमरे में घुसते ही आंटी हड़बड़ाकर पलंग से उठकर खड़ी हो जाती हैं। पापा पलंग पर ही बैठे हैं। मैं बॉल निकालने के लिए तेजी से पलंग के नीचे घुस जाता हूँ। बॉल के पास एक सफेद रंग का छोटा जालीदार कपड़ा गिरा पड़ा है, जिसकी एक तनी बॉल को छू रही है।
आग पर जल्दी ही काबू पा लिया गया था। आंटी के हाथ और उसके पैर पर जलने के स्थायी दाग के अलावा कोई बड़ा नुक्सान नहीं हुआ। पापा ने दोपहर को घर लौटते ही मुझे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा और एक बैग में अपने कपड़े भरकर आंटी के घर चले गए। उसके बाद वे कभी घर नहीं लौटे। माँ ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और कुछ महीनों बाद उनका तलाक़ भी आसानी से हो गया। दीदी ने माँ के पास रहना ही चुना। मैं कुछ नहीं बोला और उनके साथ ही रहा। हालांकि मुझे पूरा विश्वास है कि माँ को चुनने का मौका दिया जाता तो हम दोनों की बजाय वह पापा को ही चुनती।
जब पापा मरे तो वे मेरे पापा नहीं थे, इसलिए दुख भी कम होना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ रस्में या दस्तख़त रिश्तों की गहराई को ज़रा भी कम या ज़्यादा कर सकते हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता और सच में ऐसा नहीं लगता तो मुझे नवदीप से उसकी शादी पर भी दुखी नहीं होना चाहिए था। किंतु ऐसा भी नहीं हुआ। मैं ख़ुद अपनी मान्यताएँ और सिद्धांत नहीं जानता था। मुझे मौत पर भी दुख होता था और शादी पर भी।
हमारे परिवार का विघटन हम सबके लिए पूरी तरह अनापेक्षित नहीं था, लेकिन उसके होने का ढंग चौंका देने वाला था। उसका माध्यम भी मैं ही बना। पापा ने जैसे सिद्ध कर दिया कि आग मैंने ही लगाई है और उसी आग को बुझाने के लिए उन्होंने यह फ़ैसला किया है। उस एक रात के पीछे उन्होंने पन्द्रह बीस सालों तक हर रात अपना देर से लौटना छिपा कर रख दिया। साथ ही बाकी सदस्यों के लिए (दीदी और यहाँ तक कि माँ भी) उन्होंने अपने दिल में एक छोटा सा मधुर कोना हमेशा बचाकर रखा, लेकिन मुझसे वे कभी नहीं बोले। तब भी नहीं, जब उसकी शादी रुकवाने के लिए मैं तीन घंटे तक उनके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाता रहा। उन पर कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। पहले वे अपने दफ़्तर की फाइलें देखते रहे, फिर आंटी के साथ बैठकर खाना खाया और फिर अख़बार पढ़ने लगे। उन्होंने मुझे डाँटने तक के लिए अपनी जुबान नहीं हिलाई। आंटी ने ज़रूर मुस्कुराकर एक बार खाने के लिए पूछा। वे मुझसे ऐसा बर्ताव कर रहे थे जैसे मैं उनका जन्मों पुराना दुश्मन हूं। वे ही हमारे रिश्ते को पिता-पुत्र के रिश्ते से उठाकर बराबरी के से रिश्ते पर ले आए थे, जिसमें एक दूसरे को क्रूरता से चोट पहुँचाई जा सकती थी और दूसरे को पीड़ा से कराहते देखकर हँसा जा सकता था।
स्कूल के हमारे आखिरी दिनों में, जब मेरे पिता उसके पिता जैसे कुछ हो गए थे, वह भी मुझसे कटी कटी रहने लगी थी। हम दोनों ही बहुत कम स्कूल जाते थे और आसपास के लड़के-लड़कियों की तीखी नज़रों से अनजान बनने का नाटक करते हुए अपनी सीट पर चुपचाप बैठे रहते थे। एक दिन पानी पीकर लौटते हुए उसने कहा कि वह चाहती है कि उसकी शादी ज़ल्द से ज़ल्द हो जाए।
मैंने कहा- तुम पढ़ने के बहाने भी तो इस घर से दूर जा सकती हो।
उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी शादी की रात मैं हारे हुए बाकी लड़कों की तरह दिल्ली भाग आया। दिल्ली की वह मुलाक़ात हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी। उसके बाद बहुत दिनों तक मुझे लगता रहा कि वह अज्ञेय की कोई किताब मुझे डाक से भेजेगी, लेकिन कुछ नहीं आया। ब्लेड या काँटे तक नहीं।
एक समय है, शेरो शायरी वाली शाम में नौकर के दूध लाने चले जाने के बाद का समय, जिसमें एक कमरा मेरे चारों तरफ चक्कर काटती हुई धरती की तरह घूम रहा है और मैं उस समय का सूर्य हूँ। स्मृतियाँ, कल्पनाएँ, डर और पश्चाताप- सब जुड़कर गड्डमड्ड हो जाते हैं। मैं सूरज हूँ और खिड़की के उस पार गहरा अँधेरा है, जिसे मैं मिटा नहीं सकता। जब घूमते हुए कमरे की वह सरियों वाली खिड़की मेरे सामने आती है तो अँधेरे में कुछ चमकता है। जैसे किसी लड़की ने पीले फूलों की कढ़ाई वाला हरा सूट पहन रखा हो और वह बस एक क्षण को दिखी हो और छिप गई हो। हो सकता है कि सड़क पर से गुजरते किसी वाहन की रोशनी सरसों के खेतों पर पड़ी हो और मुझे भ्रम ही हुआ हो, लेकिन वही एक क्षण है जो मेरा अतीत और भविष्य है। मैंने उसी नक्षत्र में जन्म लिया है और उसी में मर गया हूँ।
मेरे पास उसकी एक तस्वीर है जो उसने किसी मन्दिर के बरामदे में खड़े होकर खिंचवाई है। उसके पीछे पहाड़ हैं और उसने माथे पर लाल टीका लगा रखा है। वह उस समय भी मुझसे थोड़ी सी लम्बी होगी। वह ख़ुश लग रही है। मैं शीशा उठाकर अपना चेहरा देखता हूँ। अगर मेरे माथे पर भी लाल टीका होता...होता क्या, अभी लगाकर देखा जा सकता है। मैं ढूंढ़ता हूँ...कमरे में उथल पुथल मचाता हुआ...लेकिन मेरे कमरे में मेरे ख़ून के सिवा कुछ भी लाल नहीं होगा। अगले ही मिनट मेरी उंगली में गलती से चाकू चुभ जाता है। अब मैं माथे पर लाल टीका लगा लेता हूँ। उसकी आँखों पर चश्मा नहीं है। मैं भी अपना चश्मा उतार देता हूँ। यदि मेरे चेहरे पर भी थोड़ी ख़ुशी झलके...नहीं, उससे पहले मुझे दाढ़ी बनानी होगी। वह मेरा इकलौता ब्लेड है, जिससे मैं दाढ़ी बनाता हूं। अब मैं चेहरा धोता हूँ, इस तरह बचता हुआ कि माथे का टीका न धुल जाए। मैं चेहरा पोंछता हूँ और फिर शीशा उठाकर देखता हूँ। अब मैं अपने होठों पर थोड़ी सी ख़ुशी भी ला सकूँ तो क्या मैं उस जैसा दिखूँगा? क्या हम दोनों की नाक का पैनापन और घनी घनी भौंहें एक जैसी हैं?
क्या ऐसा हो सकता है? क्या ऐसा हुआ होगा?

कहानीकार- गौरव सोलंकी