Monday, May 4, 2009

पापा की सज़ा- तेजेन्द्र शर्मा

तेजेन्द्र शर्मा हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं। हिन्दी के बहुत कम ऐसे प्रवासी लेखक हैं जिनके लेखन में साहित्यकता की झलक मिलती है। तेजेन्द्र की कहानियों में लंदन में रह रहे भारतीयों या यूँ कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों का जीवन चलता-फिरता है। आज हम इसी कथाकार की एक कहानी 'पापा की सजा' लेकर उपस्थित हैं।


पापा की सज़ा


पापा ने ऐसा क्यों किया होगा?

उनके मन में उस समय किस तरह के तूफ़ान उठ रहे होंगे? जिस औरत के साथ उन्होंने सैतीस वर्ष लम्बा विवाहित जीवन बिताया; जिसे अपने से भी अधिक प्यार किया होगा; भला उसकी जान अपने ही हाथों से कैसे ली होगी? किन्तु सच यही था - मेरे पापा ने मेरी मां की हत्या, उसका गला दबा कर, अपने ही हाथों से की थी।

सच तो यह है कि पापा को लेकर ममी और मैं काफ़ी अर्से से परेशान चल रहे थे। उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गई थी कि उनके पेट में कैंसर है और वे कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। डाक्टर के पास जाने से भी डरते थे। कहीं डाक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी, तो क्या होगा?


"रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता।"
पापा को हस्पताल जाने से बहुत डर लगता है। उन्हें वहां के माहौल से ही दहश्त होने लगती है। उनकी मां हस्पताल गई, लौट कर नहीं आई। पिता गये तो उनका भी शव ही लौटा। भाई की अंतिम स्थिति ने तो पापा को तोड़ ही दिया था। शायद इसीलिये स्वयं हस्पताल नहीं जाना चाहते थे। किन्तु यह डर दिमाग में भीतर तक बैठ गया था कि उन्हें पेट में कैंसर हैं। पेट में दर्द भी तो बहुत तेज़ उठता था। पापा को एलोपैथी की दवाओं पर से भरोसा भी उठ गया था। उन पलों में बस ममी पेट पर कुछ मल देतीं, या फिर होम्योपैथी की दवा देतीं। दर्द रुकने में नहीं आता और पापा पेट पकड़ कर दोहरे होते रहते।

पापा की हरकतें दिन प्रतिदिन उग्र होती जा रही थीं। हर वक्त बस आत्महत्या के बारे में ही सोचते रहते। एक अजीब सा परिवर्तन देखा था पापा में। पापा ने गैराज में अपना वर्कशॉप जैसा बना रखा था। वहां के औज़ारों को तरतीब से रखने लगे, ठीक से पैक करके और उनमें से बहुत से औज़ार अब फैंकने भी लगे। दरअसल अब पापा ने अपनी बहुत सी काम की चीज़ें भी फेंकनी शुरू कर दी थीं। जैसे जीवन से लगाव कम होता जा रहा हो। पहले हर चीज़ को संभाल कर रखने वाले पापा अब चिड़चिड़े हो कर चिल्ला उठते, 'ये कचरा घर से निकालो !'

ममी दहशत से भर उठतीं। ममी को अब समझ ही नहीं आता था कि कचरा क्या है और काम की चीज़ क्या है। क्ई बार तो डर भी लगता कि उग्र रूप के चलते कहीं मां पर हाथ ना उठा दें, लेकिन मां इस बुढ़ापे के परिवर्तन को बस समझने का प्रयास करती रहती। मां का बाइबल में पूरा विश्वास था और आजकल तो यह विश्वास और भी अधिक गहराता जा रहा था। अपने पति को गलत मान भी कैसे सकती थी? कभी कभी अपने आप से बातें करने लगती। यीशु से पूछ भी बैठती कि आख़िर उसका कुसूर क्या है। उत्तर ना कभी मिला, ना ही वो आशा भी करती थी।

रंगहीन तो ममी का जीवन हुआ जा रहा था। उसमें केवल एक ही रंग बाकी रह गया था। डर का रंग। डरी डरी मां जब मीट पकाती तो कच्चा रह जाता या फिर जल जाता। कई बार तो स्टेक ओवन में रख कर ओवन चलाना ही भूल जाती। और पापा, वैसे तो उनको भूख ही कम लगती थी, लेकिन जब कभी खाने के लिये टेबल पर बैठते तो जो खाना परोसा जाता उससे उनका पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर को आने लगता। ममी को स्यवं समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या होता जा रहा है।

"मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी।"
मुझे और मां को हर वक्त यह डर सताता रहता था कि पापा कहीं आत्महत्या न कर लें। ममी तो हैं भी पुराने ज़माने की। उन्हें केवल डरना आता है। परेशान तो मैं उस समय भी हो गई थी जब पापा ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। उन्होंने कमरे में बुला कर मुझे बहुत प्यार किया और फिर एक पचास पाउण्ड का चैक मुझे थमा दिया, 'डार्लिंग, हैप्पी बर्थडे !' मैं पहले हैरान हुई और फिर परेशान। मेरे जन्मदिन को तो अभी तीन महीने बाकी थे। पापा ने पहले तो कभी भी मुझे जन्मदिन से इतने पहले मेरा तोहफ़ा नहीं दिया। फिर इस वर्ष क्यों।

'पापा, इतनी भी क्या जल्दी है? अभी तो मेरे जन्मदिन में तीन महीने बाकी हैं।'

'देखो बेटी, मुझे नहीं पता मैं तब तक जिऊंगा भी या नहीं। लेकिन इतना तो तू जानती है कि पापा को तेरा जन्मदिन भूलता कभी नहीं।'

मैं पापा को उस गंभीर माहौल में से बाहर लाना चाह रही थी। 'रहने दो पापा, आप तो मेरे जन्मदिन के तीन तीन महीने बाद भी मांगने पर ही मेरा गिफ्ट देते हैं।' और कहते कहते मेरे नेत्र भी गीले हो गये।

मैं पापा को वहीं खड़ा छोड़ अपने घर वापिस आ गई थी। उस रात मैं बहुत रोई थी। केनेथ, मेरा पति बहुत समझदार है। वो मुझे रात भर समझाता रहा। कब सुबह हो गई पता ही नहीं चला।

पापा के जीवन को कैसे मैनेज करूं, समझ नहीं आ रहा था। ध्यान हर वक्त फ़ोन की ओर ही लगा रहता था। डर, कि कहीं ममी का फ़ोन न आ जाए और वह रोती हुई कहें कि पापा ने आत्महत्या कर ली है।


फ़ोन आया लेकिन फ़ोन ममी का नहीं था। फ़ोन पड़ोसन का था - मिसेज़ जोन्स। हमारी बंद गली के आख़री मकान में रहती थी, ' जेनी, दि वर्स्ट हैज़ हैपण्ड।.. युअर पापा... ' और मैं आगे सुन नहीं पा रही थी। बहुत से चित्र बहुत तेज़ी से मेरी आंखों के सामने से गुज़रने लगे। पापा ने ज़हर खाई होगी, रस्सी से लटक गये होंगे या फिर रेल्वे स्टेशन पर.. .
मिसेज़ जोन्स ने फिर से पूछा, 'जेनी तुम लाइन पर हो न?'

'जी।' मैं बुदबुदा दी।

'पुलिस को भी तुम्हारे पापा ने ख़ुद ही फ़ोन कर दिया था। ...आई एम सॉरी माई चाइल्ड। तुम्हारी मां मेरी बहुत अच्छी सहेली थी।'

'...थी? ममी को क्या हुआ?' मैं अचकचा सी गई थी। 'आत्महत्या तो पापा ने की है न?'

' नहीं मेरी बच्ची, तुम्हारे पापा ने तुम्हारी ममी का ख़ून कर दिया है। 'और मैं सिर पकड़ कर बैठ गई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समाचार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी। पापा ने ये क्या कर डाला। अपने हाथों से अपने जीवनसाथी को मौत की नींद सुला दिया !

पापा ने ऐसे क्यों किया होगा? मैं कुछ भी सोच पाने में असमर्थ थी। केनेथ अपने काम पर गये हुए थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया क्या हो। एकाएक पापा के प्रति मेरे दिल में नफ़रत और गुस्से का एक तूफ़ान सा उठा। फिर मुझे उबकाई का अहसास हुआ; पेट में मरोड़ सा उठा। मेरे साथ यह होता ही है। जब कभी कोई दहला देने वाला समाचार मिलता है, मेरे पेट में मरोड़ उठते ही हैं।

हिम्मत जुटाने की आवश्यक्ता महसूस हो रही थी। मैं अपने पापा को एक कातिल के रूप में कैसे देख पाऊंगी। एक विचित्र सा ख्याल दिल में आया, काश! अगर मेरी ममी को मरना ही था, उनकी हत्या होनी ही थी तो कम से कम हत्यारा तो कोई बाहर का होता। मैं और पापा मिल कर इस स्थिति से निपट तो पाते। अब पापा नाम के हत्यारे से मुझे अकेले ही निपटना था। मैं कहीं कमज़ोर न पड़ जाऊं.. .

ममी को अंतिम समय कैसे महसूस हो रहा होगा..! जब उन्होंने पापा को एक कातिल के रूप में देखा होगा, तो ममी कितनी मौतें एक साथ मरी होंगी..! क्या ममी छटपटाई होगी..! क्या ममी ने पापा पर भी कोई वार किया होगा..! सारी उम्र पापा को गॉड मानने वाली ममी ने अंतिम समय में क्या सोचा होगा..! ममी.. प्रामिस मी, यू डिड नॉट डाई लाईक ए कावर्ड, मॉम आई एम श्योर यू मस्ट हैव रेज़िस्टिड..!


मैने हिम्मत की और घर को ताला लगाया। बाहर आकर कार स्टार्ट की और चल दी उस घर की ओर जिसे अपना कहते हुए आज बहुत कठिनाई महसूस हो रही थी। ममी दुनियां ही छोड़ गईं और पापा - जैसे अजनबी से लग रहे थे। रास्ते भर दिमाग़ में विचार खलबली मचाते रहे। मेरे बचपन के पापा जो मुझे गोदी में खिलाया करते थे..! मुझे स्कूल छोड़ कर आने वाले पापा .. ..! मेरी ममी को प्यार करने वाले पापा.. ..! घर में कोई बीमार पड़ जाए तो बेचैन होने वाले पापा ..! ट्रेन ड्राइवर पापा ..! ममी और मुझ पर जान छिड़कने वाले पापा ..! कितने रूप हैं पापा के, और आज एक नया रूप - ममी के हत्यारे पापा ..! कैसे सामना कर पाऊंगी उनका.. ..! उनकी आंखों में किस तरह के भाव होंगे..! सोच कहीं थम नहीं रही थी।

मेरी कार घर के सामने रुकी। वहां पुलिस की गाड़ियां पहले से ही मौजूद थीं। पुलिस ने घर के सामने एक बैरिकेड सा खड़ा कर दिया था। आसपास के कुछ लोग दिखाई दे रहे थे - अधिकतर बूढ़े लोग जो उस समय घर पर थे। सब की आंखों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे। कार पार्क कर के मैं घर के भीतर घुसी। पुलिस अपनी तहकीकात कर रही थी। ममी का शव एक पीले रंग के प्लास्टिक में रैप किया हुआ था। ... मैनें ममी को देखना चाहा..मैं ममी के चेहरे के अंतिम भावों को पढ़ लेना चाहती थी।.. देखना चाहती थी कि क्या ममी ने अपने जीवन को बचाने के लिये संघर्ष किया या नहीं। अब पहले ममी की लाश - कितना कठिन है ममी को लाश कह पाना - का पोस्टमार्टम होगा। उसके बाद ही मैं उनका चेहरा देख पाऊंगी।

एक कोने में पापा बैठे थे। पथराई सी आंखें लिये, शून्य में ताकते पापा। मैं जानती थी कि पापा ने ही ममी का ख़ून किया है। फिर भी पापा ख़ूनी क्यों नहीं लग रहे थे ? .. पुलिस कांस्टेबल हार्डिंग ने बताया कि पापा ने स्वयं ही उन्हें फ़ोन करके बताया कि उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी है।

पापा ने मेरी तरफ़ देखा किन्तु कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। उनका चेहरा पूरी तरह से निर्विकार था। पुलिस जानना चाह्यती थी कि पापा ने ममी की हत्या क्यों की। मेरे लिये तो जैसे यह जीने और मरने का प्रश्न था। पापा ने केवल ममी की हत्या भर नहीं की थी – उन्होंने हम सब के विश्वास की भी हत्या की थी। भला कोई अपने ही पति, और वो भी सैंतीस वर्ष पुराने पति, से यह उम्मीद कैसे कर सकती है कि उसका पति उसी नींद में ही हमेशा के लिये सुला देगा।

पापा पर मुकद्दमा चला। अदालत ने पापा के केस में बहुत जल्दी ही निर्णय भी सुना दिया था। जज ने कहा, "मैं मिस्टर ग्रीयर की हालत समझ सकता हूं। उन्होंने किसी वैर या द्वेश के कारण अपनी पत्नी की हत्या नहीं की है। दरअसल उनके इस व्यवहार का कारण अपनी पत्नी के प्रति अतिरिक्त प्रेम की भावना है। किन्तु हत्या तो हत्या है। हत्या हुई है और हत्यारा हमारे सामने है जो कि अपना जुर्म कबूल भी कर रहा है। मिस्टर ग्रीयर की उम्र का ध्यान रखते हुए उनके लिये यही सज़ा काफ़ी है कि वे अपनी बाकी ज़िन्दगी किसी ओल्ड पीपल्स होम में बिताएं। उन्हें वहां से बाहर जाने कि इजाज़त नहीं दी जायेगी। लेकिन उनकी पुत्री या परिवार का कोई भी सदस्य जेल के नियमों के अनुसार उनसे मुलाक़ात कर सकता है। दो साल के बाद, हर तीन महीने में एक बार मिस्टर ग्रीयर अपने घर जा कर अपने परिवार के सदस्यों से मुलाक़ात कर सकते हैं।"


मैं चिढ़चिढ़ी होती जा रही थी। कैनेथ भी परेशान थे। बहुत समझाते, बहलाते। किन्तु मैं जिस यन्त्रणा से गुज़र रही थी वो किसी और को कैसे समझा पाती। किसी से बात करने को दिल भी नहीं करता था। कैनेथ ने बताया कि वोह दो बार पापा को जा कर मिल भी आया है। समझ नहीं आ रहा था कि उसका धन्यवाद करूं या उससे लड़ाई करूं।

कैनेथ ने मुझे समझाया कि मेरा एक ही इलाज है। मुझे जा कर अपने पापा से मिल आना चाहिये। यदि जी चाहे तो उनसे ख़ूब लड़ाई करूं। कोशिश करूं कि उन्हें माफ़ कर सकूं। क्या मेरे लिये पापा को माफ़ कर पाना इतना ही आसान है? तनाव है कि बढ़ता ही जा रहा है। सिर दर्द से फटता रहता है। पापा का चेहरा बार बार सामने आता है। फिर अचानक मां की लाश मुझे झिंझोड़ने लगती है।

मेरी बेटी का जन्मदिन आ पहुंचा है, "ममी मेरा प्रेज़ेन्ट कहां है?" मैं अचानक अपने बचपन में वापिस पहुंच गई हूं। पापा एकदम सामने आकर खड़े हो गये हैं। मेरी बेटी को उसका जन्मदिन का तोहफ़ा देने लगे हैं ।

अगले ही दिन मैं पहुंच गई अपने पापा को मिलने। इतनी हिम्मत कहां से जुटाऊं कि उनकी आंखों में देख सकूं। कैसे बात करूं उनसे। क्या मैं उनको कभी भी माफ़ कर पाऊंगी? दूर से ही पापा को देख रही थी। पापा ने आज भी लंच नहीं खाया था। भोजन बस मेज़ पर पड़ा उनकी प्रतीक्षा करता रहा, और वे शून्य में ताकते रहे। अचानक ममी कहीं से आ कर वहां खड़ी हो गयीं। लगी पापा को भोजन खिलाने। पापा शून्य में ताके जा रहे थे। कहीं दूर खड़ी मां से बातें कर रहे थे।

मैं वापिस चल दी, बिना पापा से बात किये। हां, पापा के लिये यही सज़ा ठीक है कि वे सारी उम्र मां को ऐसे ही ख़्यालों में महसूस करें, उसके बिना अपना बाकी जीवन जियें, उनकी अनुपस्थिति पापा को ऐसे ही चुभती रहे।

जाओ पापा मैंने तुम्हें अपनी ममी का ख़ून माफ़ किया।



तेजेन्द्र शर्मा
  • 21 अक्टूबर, 1952 को पंजाब के शहर जगराँव में जन्म।

  • मूलतः पंजाबी भाषी

  • स्कूली पढ़ाई दिल्ली के अंधा मुग़ल क्षेत्र के सरकारी स्कूल से

  • दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अँग्रेज़ी एवं एम.ए. अँग्रेज़ी, कम्प्यूटर कार्य में डिप्लोमा

  • वर्तमान में लंदन के ओवरग्राउण्ड रेल्वे में कार्यरत।

  • काला सागर (1990), ढिबरी टाईट (1994 - पुरस्कृत), देह की कीमत (1999), ये क्या हो गया? (2003), बेघर आँखें (2007) [कहानी-संग्रह], ये घर तुम्हारा है... (2007) [कविता-ग़ज़ल संग्रह] प्रकाशित

  • भारत एवं इंग्लैंड की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख, समीक्षाएँ एवं ग़ज़लें प्रकाशित

  • लेखक के लेखन एवं व्यक्तित्व पर आधारित पुस्तक वक़्त के आइने में प्रकाशित – संपादक हरि भटनागर

  • अँग्रेज़ी में: 1. Black & White – the Biography of a Banker (2007), 2. John Keats - TheTwo Hyperions (1978) 3. Lord Byron - Don Juan (1977)

  • दूरदर्शन के लिए "शांति" सीरियल का लेखन।

  • अन्नु कपूर द्वारा निर्देशित फिल्म "अभय" में नाना पाटेकर के साथ अभिनय

  • बी.बी.सी. लन्दन, ऑल इंडिया रेडियो व दूरदर्शन के कार्यक्रमों की प्रस्तुति, नाटकों में भाग एवं समाचार वाचन

  • ऑल इंडिया रेडियो व सनराईज़ रेडियो लन्दन से बहुत सी कहानियों का प्रसारण।

  • संपादन : पुरवाई - इंग्लैंड से प्रकाशित होने वाली पत्रिका का दो वर्ष तक सम्पादन।

  • पुरस्कार : 1. ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1995 (प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों।)
    2. सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार - 1998
    3. सुपथगा सम्मान -1987
    4. कृति यू.के. द्वारा वर्ष 2002 के लिये "बेघर आँखें" को सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार
    5. प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007)
    6. तितली बाल पत्रिका का साहित्य सम्मान – बरेली (2007)
    7. भारतीय उच्चायोग लन्दन द्वारा वर्ष 2007 का हरिवंश राय बच्चन सम्मान।

  • विशेष : वर्ष 1995 से "इंदु शर्मा कथा सम्मान" की स्थापना।

  • वर्ष 2000 से ही इंग्लैंड में रह कर हिन्दी साहित्य रचने वाले साहित्यकारों को सम्मानित करने हेतु "पद्मानंद साहित्य सम्मान" की शुरुआत की गई।
    कथा यू.के. के माध्यम से लन्दन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन।
    लन्दन में कहानी मंचन की शुरुआत "वापसी" से की।
    लन्दन एवं बेजिंगस्टोक में अहिंदी भाषी कलाकारों को लेकर हिन्दी नाटक "हनीमून" का सफल निर्देशन एवं मंचन।
  • अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन : 1999 में छठे हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी और अगामी पीढ़ी" विषय पर एक पर्चा पढ़ा, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। सम्मेलन के एक सत्र का संचालन किया और कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।
    2002 में त्रिनिडाड में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में "हिन्दी एवं इंग्लैड का पाठ्यक्रम" विषय पर एक पर्चा पढ़ा। वहीं आयोजित एक कवि सम्मेलन में कविता पाठ किया।

  • लन्दन, मेनचेस्टर, ब्रेडफ़र्ड व बर्मिंघम में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य-पाठ

  • यॉर्क विश्विद्यालय में कहानी कार्यशाला करने वाले ब्रिटेन के पहले हिन्दी साहित्यकार।

  • सम्पर्क : kahanikar@hotmail.com



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15 कहानीप्रेमियों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

ीइतनी मार्मिक कहानी? आँख से आँसू टपक पडे तेजेन्द्र जी को हर्दिक बधाई अपका भी धुक्रिया

Divya Narmada का कहना है कि -

मर्मस्पर्शी कहानी...गागर में सागर...तेजेंद्र जी को सशक्त कहानी के लिए बधाई.

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

कई अर्थ छिपे हैं कहानी में। वर्तमान की वृद्धावस्‍था के शायद यही परिणाम भुगतने हैं। बधाई कहानी के लिए।

Anonymous का कहना है कि -

tejendra ji
chhashm e dariya me ab bhi tair rahe hain kahani ke ek ek shabd... adbhut...
suresh

Anonymous का कहना है कि -

tejendra ji
chhashm e dariya me ab bhi tair rahe hain kahani ke ek ek shabd... adbhut...
suresh

dr. suresh tiwari का कहना है कि -

tejendra ji
chhashm e dariya me ab bhi tair rahe hain kahani ke ek ek shabd... adbhut...
suresh

Bhuvendra Tyagi का कहना है कि -

Really very exprssive story. Climax is superb.

Yogi का कहना है कि -

मुझे समझ नहीं आया, कि पापा ने ममी का खून क्यों किया।

समझ नहीं आ रहा, क्या कहूँ आपकी कहानी के बारे में

मैं kya feel kar raha hu, samajh nahin aa rhaa...

unexpressable feelings in words......

I am confused.........

हिम्‍मत जोशी, चेन्‍नई का कहना है कि -

महोदय
आपने कहानी भेजी इसके लिये बहुत बहुत ध्न्‍यवाद
मेरे परिवार में कहानियां बडी रुचि से पढी जाती है। इसलिये इसका एक प्रिंट धर ले जा रहा हूं। एक प्रिंट कार्यालय के पुस्‍तकालय को भी दे रहा हूं। वे आपके द्वारा भेजी गई सामग्री की हार्डकापी रखेंगे।

राजीव तनेजा का कहना है कि -

मार्मिक कहानी

neelam का कहना है कि -

आपकी कहानी पढने का सुअवसर हमे भी मिला कहानी बेहद मर्म स्पर्शी है |
कभी एक कहानी पढ़ी थी ,अंग्रेजी में की नायक सोती हुई नायिका की खूबसूरती को बस ऐसे ही देखते रहना चाहता है ,और वो उसे कोई इंजेक्शन लगा देता है ,कुछ धूमिल सी याद आई आपकी इस कहानी को पढ़ कर ,जान लेने की हद तक की दीवानगी या मजबूरी बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर देती है ,एक बार फिर से शुक्रिया ,"बेघर आँखें "भी पढने का मन है

Pritishi का कहना है कि -

Very touching story. Don't know why, but somehow reminded me of the movie "A beautiful mind" ...

God bless
RC

शोभा का कहना है कि -

मुझे कहानी इतनी अच्छी लगी कि इसको पढ़ने का मन बार-बार हुआ। अनेक संवेदनाओं से ओतप्रोत कथा के लिए बधाई। मैने इस कथा को अपनी आवाज़ दी है। अवश्य सुनिएगा।

Archana का कहना है कि -

मार्मिक कहानी संवेदनाओं से ओतप्रोत कथा के लिए बधाई। Dhibri Tight Padhkar to main Ro padi thhi.....

Prabodh Kumar Govil का कहना है कि -

maine tejendra ko tab bhi dekha hai jab aisi kahaniyan unke zehan men kisi hina ki tarah maheen peesi ja rahi theen,haan,unka jeewan unhen aisi kahaniyaan likh paane ka prashikshan de raha tha, tab bhabhi "indu" jeewit theen.

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