Thursday, April 22, 2010

संवेदना

सतीश (विजय से): क्या बात है? बड़े दिन से ऑफ़िस नहीं आया?
विजय: यार मेरे बेटे की तबियत काफ़ी खराब चल रही है। डॉक्टरों के चक्कर और बड़े अस्पतालों के बिल भर भर के मैं परेशान हो चुका हूँ।
सतीश: ओह! अब कैसी तबियत है? पैसे की कमी हो तो कहना। जितना बन पड़ेगा सब दोस्त मिल कर करेंगे।
विजय: कैसी बात कर रहे हो भाई! आज कल मैडीक्लेम का जमाना है। सारा पैसा वही कम्पनी तो भर रही है। साठ हजार तक तो कम्पनी दे ही चुकी है। आराम से बड़े अस्पताल में इलाज करवा रहा हूँ।
सतीश: अरे वाह! कमाल है यार... पैसे की चिन्ता ही नहीं। और अस्पताल वाले भी तो मैडीक्लेम के नाम पर मुँह माँगा पैसा माँगते हैं। चलो बढ़िया है.. ध्यान रखना अपने बेटे का.. चलता हूँ..
विजय: ठीक है भाई...

कुछ दिनों बाद....

सतीश: यार विजय.. वो अपना अमित है न? उसके घर में नौकरानी की बेटी को कैंसर बता दिया है...
विजय: अच्छा!! तो अब?
सतीश: अमित कह रहा है कि यदि अभी ठीक नहीं हुआ तो शायद न बच पाये। इलाज के लिये दस हजार चाहिएँ। इसलिये सभी से थोड़ा बहुत जो बन पाये वो इकट्ठा कर रहा है...चाहें पचास रूपये ही क्यों न हों।
विजय: यार ये क्या बेकार के पचड़े में पड़ जाते हो तुम लोग भी... सब बेकार की बातें...मैं चलता हूँ।

Wednesday, April 14, 2010

अम्बेडकर होटल- रामजी यादव

आज हम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की 119वीं जयंती पर युवा कहानीकार रामजी यादव की कहानी 'अम्बेडकर होटल' प्रकाशित कर हैं। यह कहानी कथादेश के फरवरी 2010 अंक में भी प्रकाशित है----

लेखक परिचय- रामजी यादव
जन्म: 13 अगस्त 1963, बनारस (चमांव)
लम्बे समय तक राजनीतिक कार्यकर्ता। 1997 से दिल्ली में सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
कृतियाँ: वृत्तचित्र निर्माण/निर्देशन गाँव का आदमी, दी कास्ट मैटर्स, एक औरत की अपनी कसम, दिल्ली के हीरो, खिड़कियाँ हैं, बैल चाहिए, तथा सफरनामा समेत दो दर्जन से अधिक वृत्तचित्र। भूमिका में स्‍त्री (कविता-संग्रह),अथ कथा-इतिहास (उपन्यास)खेलने के दिन (कहानी-संग्रह) कुछ साहित्य कुछ साहित्येत्तर (लेख-संग्रह) अति शीघ्र प्रकाश्य।
सम्प्रति: पुस्तक-वार्ता में सह संपादक।
सम्पर्क: ई-47/7ओखला, औद्यौगिक क्षेत्र फेज-2, नयी दिल्ली-20
ईमेल- yadav.ramji2@gmail.com
शायद यह रात भर की दबी हुई उत्तेजना थी या बरसों से दबे हुए गौरव की पहचान कि रामा प्रसाद की नींद ढाई बजे ही खुल गयी। रोज की तरह उन्हें आलस्य झटकने के लिए आँखें मलनी नहीं पड़ीं। बिना किसी प्रयास के आलस्य अपने आप भाग गया था गोया रामा प्रसाद की साफ और चमकती आँखों में उसके लिए कोई खतरा था। उन्होंने नीम अंधेरे में ही घड़ी की सुइयाँ देखीं। लगा जैसे वे अपनी रोजमर्रा की गति से नहीं चल रही हैं। उन्होंने सोचा कि अभी इतनी रात बाकी है एक घंटा और सो लेता हूँ। वे फिर लेट गए और आँखें मूंद लीं लेकिन तुरंत ही आँखें स्वतः ही खुल गयीं। रामा प्रसाद वैसे ही लेटे रहे लेकिन उनका मन आज काबू में नहीं था। अनेक ऐसी स्मृतियाँ थीं जो उमड़-घुमड़ रही थीं। और अंततः उनसे और लेटे न रहा गया। उठकर कमरे में ही टहलने लगे। एक बार फिर घड़ी देखी तो पौने तीन बजने वाले थे। अंततः उनसे और न रहा गया और उन्होंने होटल पर जाने का निर्णय लिया। बाथरूम में घुसे और हाथ मुँह धोते बीच-बीच में गुनगुनाते जाते, क्या मथुरा का द्वारका का कासी हरद्वार...

दरअसल रात में ही उनका मन घर आने का नहीं था। छोटे भाई सामा प्रसाद तीन दिन के लिए गाँव गए हुए थे और घर में उनके अलावा दूसरा कोई पुरुष न होने से ही घर आना जरूरी था अन्यथा वे घर कम आते थे। एक तो इसलिए कि होटल के कामों में ही वे रम गए थे और लगभग बहरासू हो गए थे। दूसरे इसलिए कि उनकी घरवाली और एकमात्र बेटे की मौत के बरसों बाद उनके लिए घर का अर्थ जीवन गुजारना भर रह गया था। वैसे भी होटल उनके लिए घर से कम नहीं था और सभी कारीगर एवं नौकर उनके अपने घर के लोग थे।

"बबीता!", उन्होंने सामा की पत्नी को आवाज लगायी- "मैं होटल जा रहा हूँ।"
और वे घर से निकल पड़े। गेट को उढ़का दिया। बीस-पच्चीस कदम दूर जाने पर गेट की कुंडी खड़कती सुनाई पड़ी।
अभी वे होटल से पाँच-छह किलोमीटर दूर अपनी कॉलोनी में ही थे लेकिन उन्हें लगता कि होटल सामने ही है। मुख्य मार्ग पर निकलकर उन्होंने स्टेशन जाने वाला एक तिपहिया पकड़ा। उस समय टूंडला, इलाहाबाद और लखनऊ जाने वाले अनेक लोग स्टेशन के लिए निकल पड़ते थे और उन्हें सबसे जल्दी पहुँचाने वाले तिपहिया चालक मुस्तैद रहते थे।

रामा प्रसाद बहुत मेहनती और दिलचस्प आदमी थे। यूँ दूर से वे साधारण दिखते लेकिन एक बार बात करने पर लगता था कि वे कितने हँसलोल और रसवादी थे। उनके बारे में प्रदीप के माध्यम से जानकारी मिलती थी और अब वे हमारे परिचित हो गए थे। रामा के घर में क्या पक रहा है और उनके मन में क्या है यह उनके मुँह से निकलकर प्रदीप के जरिये हमारी मंडली के कानों तक पहुँच जाता था। प्रदीप अब उनके घर के सदस्य की तरह था।

प्रदीप हमारी मंडली का अनिवार्य हिस्सा था। वह फतेहपुर जिले से यहाँ पढ़ने आया था और विशाल के घर में रहता था। विशाल ने उसे सोने की जगह दे दी थी और मौके बे मौके खाना भी वह वहीं खाता था। हमारी मंडली जमती ही विशाल के घर में थी इसलिए खाने या चाय का प्रबंध भी अमूमन वही करता था। प्रदीप के पिता एक मामूली किसान थे और अपने इकलौते पुत्र के लिए जितना रुपया भेजते उनमें से आधे किताबों पर खर्च कर देता। फिर अधिकांश दिन फाकामस्ती में गुजारता। बेशक वह हमसे घुला-मिला था लेकिन उधार माँगने से बचता था। कभी तिवारी ढाबा कभी यादव होटल में वह उधार खा लेता लेकिन तीन-चार दिन में दोनों तगादा कर देते। पैसे न होने पर प्रदीप रास्ता बदलकर निकलता था लेकिन उसके मन में इससे एक गहरा अपराधबोध पैदा होने लगा। फिर जहाँ इक्का-दुक्का ही विकल्प थे वहाँ यह गुण विशेष उपयोगी था भी नहीं।

इन्हीं कठिन और बदहवास दिनों में उधार खाते पर खाने के लिए ही वह रामा प्रसाद के होटल पर गया। उन्होंने यह जानने पर कि वह यहीं फेथफलगंज का निवासी है उसे एक महीने का समय दिया। प्रदीप खा तो रहा था लेकिन उसे उम्मीद नहीं थी कि वह पैसा चुका पाएगा।
देखा जाएगा। प्रदीप ने सोचा और महीने लगने पर तीन सौ की जगह साठ रुपये लेकर गया और बोला, "भाई साहब यही है जो है सो!"
रामा ने रुपये छीन लिये। गिना और प्रदीप को ऊपर से नीचे तक देखा। बोले, "हैं! इतने ही! आप तो कह रहे थे महीने पर ठीक तारीख को पूरा देंगे!"
प्रदीप चुप रहा। रामा ने कहा, "हूँ तो बोलिये!"
"अगर नौकरी होती तो तीन सौ की क्या बात थी हजार रुपये भी बिना मांगे मिल जाते।"
"तो क्या बाकी रुपये पाँच महीने में चुकाओगे? और खाओगे कहाँ?"
प्रदीप ने कुछ नहीं कहा। बस एक बार उनकी ओर देखा। जैसे कह रहा हो, चुका दूँगा।
"अच्छा अभी खा लो। कोई उपाय देखता हूँ।"
वह अनिच्छा से बैठ गया लेकिन खाने में जैसे कोई स्वाद ही न था। अलबत्ता लोग दाल-सब्जी के लिए हड़बोंग मचाये हुए थे।
यह होटल हमेशा आदमियों से भरा रहता। जंक्शन होने के कारण बहुत से यात्री यहाँ से गाड़ी बदलते थे। रोजमर्रा के लोग कुली मजदूर रिक्शे-तांगे वाले ड्राइवर आदि यहाँ खाते थे। यहाँ तीन ही होटल थे इसलिए हमेशा लोगों का रेला जमा रहता। वैसे प्रदीप के अनुसार और दोनों के मुकाबले रामा प्रसाद के होटल का खाना उम्दा होता था और जो भी एक बार यहाँ आता तो अक्सर यहीं खाता। दाम तीनों के बराबर थे और तीनों ही इस बात पर दृढ़ थे कि होटल में कोई शराब नहीं पी सकता। रामा प्रसाद खासतौर से सफाई और स्वाद पर ध्यान रखते थे। हर दिन कई मन सब्जियाँ और दाल खप जातीं।
प्रदीप ने हाथ धोये और रामा के पास जाकर खड़ा हो गया। "अब बोलिये!"
रामा प्रसाद ने उसे साठ रुपये लौटाते हुए कहा, "इसे ले जाओ। खाने का कोई पैसा नहीं लूँगा। रोज खाओ। मेरे बच्चों को पढ़ा दिया करो लेकिन... और बोला कितना रुपया लोगे?"
"अरे! मैं क्या बताऊँ?" प्रदीप ने विस्मय से कहा। उसके पास पूरी शामें खाली थीं। दो-तीन घंटे तो आराम से निकाल सकता था।
"तो क्या तीन सौ ठीक रहेंगे?" रामा प्रसाद ने कहा- "तीन बच्चे हैं। जो भी समय लगाओ मन से पढ़ाओ लेकिन।"
"ठीक है कल से पढ़ा दूंगा।" प्रदीप के लिए वह बिन माँगी मुराद थी। ट्यूशन की कोशिश तो उसने पहले भी की थी परंतु प्रायः महीने भर पढ़ाने पर आधा-तिहाई रुपये ही मिल पाते थे। अक्सर लोग ट्यूटर को मजूर समझते जिससे काम तो कसकर लेते लेकिन मेहनताना देने में तकलीफ महसूस करते थे। यह लोकेलटी का भी असर था। प्रदीप ने खिन्न होकर ट्यूशन छोड़ दिये। रामा प्रसाद की बात से उसे लगा कि खाने के साथ पैसे भी नियमित मिला करेंगे।
"तो कल से पढ़ाओगे?"
"हाँ।"
"कल ठीक समय से आना। मैं पता बता दूँगा।"
"जी।"
दूसरे दिन प्रदीप ठीक समय से पहुँचा तो रामा प्रसाद ने उसे अपने घर का पता लिखवा दिया और रास्ते के बारे में बताया। जब प्रदीप चलने लगा तो उन्होंने पूछा, "कैसे जाओगे लेकिन?"
प्रदीप ने उसकी ओर देखा और बोला, "तिपहिये से जा निकलूँगा।"
रामा प्रसाद ने कोने में खड़ी साइकिल की ओर इशारा किया, "इसे ले जाओ।"
प्रदीप ने साइकिल ली और उनके घर की ओर चल पड़ा।

नये मास्टर साहब का स्वागत गर्मजोशी से हुआ। चाय के साथ कुछ खाने की चीजें भी थीं। इतनी कि प्रदीप संकुचित होने लगा। सामा प्रसाद की दो लड़कियाँ और एक लड़का आये। लड़का लहुरा था। घर में दुलरुआ होने के कारण वह अपेक्षा करता था कि उसकी सभी बातों पर तवज्जो दी जाये। इसलिए प्रदीप के साथ थोड़ी अकड़ और थोड़े लाड़ से उसने बातचीत शुरू की। महोदय कक्षा दो में पढ़ते थे लेकिन अक्षरों और मात्राओं का जोड़ बिठाकर शब्द बनाना और पढ़ पाना उनके लिए कठिन था। फिर भी अंग्रेजी और हिन्दी की किताबों के चित्र देखकर वे पूरी की पूरी कविता सुना देते। और आश्चर्य यह कि पंक्ति दर पंक्ति सही सुना देते। बड़ी लड़की पढ़ने में होशियार थी और गणित के प्रति अधिक सचेत थी। उसने प्रदीप को न समझ में आने वाले सवाल समझाने को कहा। प्रदीप कई उदाहरणों और प्रविधियों से उसे समझाता और वह तन्मय होकर सुनती लेकिन कोई हल निकलने से पहले ही वह उत्तेजना से चीखने लगती 'मुझे समझ में आ गया। मैं कर लूँगी।' और कॉपी छीनकर बाकी सवाल हल करने लगती।
मझली लड़की अन्तर्मुखी थी। पहले ही दिन प्रदीप ने समझ लिया कि उसकी मूल समस्या होमवर्क पूरा करने की है। दर्जन भर विषयों की कॉपियाँ भरते-भरते वह बेचारी रुआंसी हो उठती। कोई सहायक नहीं था। प्रदीप ने जब पूछा कि तुम्हारे स्कूल में क्या पढ़ाया जाता है तो वह बताते-बताते रोने लगी कि मैडम केवल होमवर्क दे देती हैं। कक्षा में केवल कॉपियाँ चेक करते हुए समय बीत जाता है और कभी पाठ सुनने और समझने का मौका हाथ नहीं आता। प्रदीप ने उसे दिलासा दी कि जल्दी ही वह उसे कक्षा में सबसे तेज बना देगा तो वह मुस्कुराने लगी। गरज यह कि दो घंटों में उनके बीच दोस्ताना हो गया।
होटल लौटकर प्रदीप ने साइकिल वापस रख दी और वापस चला गया।

प्रदीप जल्दी ही उस घर से घुल-मिल गया। सामा प्रसाद और बबीता देवी भी उससे बहुत स्नेह करते थे। बबीता जी तो बड़ी जीवंत और धार्मिक महिला थीं। वे प्रायः व्रत-उपवास रखतीं और पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनतीं। पूरी बैठक और उनका अपना कमरा देवी-देवताओं के चित्रों से भरा रहता था। जब साल के बासी कलेंडर उतारे जाते तो वे सामा प्रसाद को ताकीद करतीं कि वे या तो उन्हें गंगा में बहा आयें या आग के हवाले कर दें। वे ढेर सारे किस्से और व्रतकथाएँ जानती थीं और मंदिर तथा नहान जाती थीं। प्रदीप जब घर का काफी आत्मीय हो गया तो उसके अंदर यह जिज्ञासा पैदा होने लगी कि ये लोग कौन हैं और कहाँ से आये हैं! धीरे-धीरे वह यह जान गया कि ये लोग इलाहाबाद के एक गाँव के मूल निवासी हैं और गाँव में इनकी जमीन और घर अभी भी हैं। लंबा-चौड़ा परिवार है और सभी लोग मेहनत-मजदूरी खेती किसानी करके पेट पाल रहे थे।
लेकिन प्रदीप का आशय उनकी जाति से था। उसे किसी प्रकार उनकी जाति मालूम नहीं हो पा रही थी। वह चाहता तो किसी से भी पूछ सकता था लेकिन पूछने का कोई संदर्भ और बहाना ही नहीं था। वह कई बार मंडली में इस सवाल पर उजबक की तरह देखने लगता। बेशक हममें से कोई भी जाति के कारण किसी से घृणा नहीं करता था लेकिन पता नहीं क्यों हम भी प्रदीप से सामा प्रसाद और उनकी पत्नी-बच्चों के रंग-रूपचाल-ढाल पहनावा और बात-व्यवहार के बारे में दरयाफ्त करने लगे थे। हमारे आदर्श का लबादा क्षमा और सहानुभूति की बैसाखियों पर टंग गया था। हम कयास लगाते कि वे लोग कौन हो सकते हैं? सवर्ण या पिछड़ी जाति या ....... नहीं नहीं। एक दिन जब प्रदीप ने बताया कि सामा प्रसाद जनेऊ पहनते हैं तो आदित्य बेसाख्ता बोल पड़ा कि कुनबी हो सकते हैं। इधर बीच हमने सामाजिक परिवर्तन की अनेक कहानियाँ पढ़ी थीं और यह हमारे लिए दिलचस्प था कि गैर सवर्ण अपने सम्मान के लिए क्या चिन्ह अपना रहे हैं। विशाल के दादा आर्य समाजी थे और उसके घर में भी ऐसे अनेक व्यवहार प्रचलित थे जो पहले सवर्ण और कुलीन ही करते थे। लेकिन सारी कयावद के बावजूद हमें ठीक-ठाक नहीं पता चल पाया कि सामा प्रसाद की जाति क्या है!

यह एक ऐसा प्रश्न था जो हमारे विवेक पर साँप की तरह कुंडली मारे बैठा था। हमारी दिनचर्या कस्बाई थी और हम छोटे शहर के आधुनिक लोग थे। हम लगभग इतने ठस हो चुके थे कि बड़ी से बड़ी घटना भी हमें उत्तेजित नहीं कर पाती थी। बल्कि हम उसे तथ्य के रूप में चर्चा में इस्तेमाल करते थे। शायद इसीलिए हम जाति-धर्म के मामलों में उदासीन हो चुके थे और इस तरह हम जाति-धर्म निरपेक्ष थे। शायद इसीलिए हम रामा प्रसाद और सामा प्रसाद की जाति के बारे में जिज्ञासु होकर भी ठंडे थे। परन्तु जैसे ही प्रदीप हमारे बीच आता वैसे ही हमारे विवेक पर कुंडली मारे बैठा साँप फनफनाने लगता था। हम प्रदीप से खोद-खोदकर पूछते, यार और कोई नयी बात बताओ?

एक दिन प्रदीप को सबकुछ पता चल गया।
पता नहीं यह कब हो गया था लेकिन उसकी नजर उसी दिन पड़ी। उसने देखा कि बैठक की दीवारों पर टंगे देवी-देवताओं के सारे चित्र गायब थे। उससे भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि सामने की दीवार पर शीशे में मढ़ी डॉ. अम्बेडकर की तस्वीर लटक रही थी। बगल में ही महात्मा फुले और संत रैदास की भी तस्वीरें थीं। अरे! प्रदीप के मुँह से जोर से निकल पड़ता यदि उसने अपने आपको जबरन रोका न होता। वह उठकर खड़ा हो गया और तुरंत बाथरूम में घुस गया। उसने मुँह में पानी डालकर देर तक गुलगुलाया और फिर कुल्ला किया। धीरे-धीरे उसका विस्मय कम हुआ तो वह लौट आया। तो यह बात है! उसने दस-ग्यारह महीने के व्यवहार की छानबीन की। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो गया! क्या ये लोग....! लेकिन हर्ज क्या है? अब तो वह बबीता देवी को चाची कहता था और तीनों बच्चों का भाई बन चुका था।
उसके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी। न ही वह छुआछूत मानता था। लेकिन वह बीच रिश्ते में किसी ऐसी सच्चाई के प्रकट होने का क्षोभ था जो अब तक गाँठ बन चुकी थी और बाहर निकलते-निकलते दिल-दिमाग में सुराख बना गई थी।
वह शाम को साइकिल वापस करने होटल पर गया तो गद्दी पर सामा प्रसाद मौजूद थे और रामा प्रसाद बाहर खड़े थे। जैसे वे उसी की राह देख रहे थे। बोले, "आओ प्रदीप मास्टर! कैसे हो?"
प्रदीप ने मुस्कुराकर कहा, "ठीक हूँ।"
"मुझे आपसे कुछ बात करनी है.", जब रामा प्रसाद ने कहा तो प्रदीप कुछ चौंक गया क्योंकि ट्यूशन शुरू करने के दस-पन्द्रह दिन बाद से ही वे उसे तुम कहने लगे और कभी आप नहीं कहा। आज जब उन्होंने उसे आप कहा तो प्रदीप को लगा वे तस्वीरों के मामले में सफाई देना चाहते हैं।
वह उनके पास पहुँच गया और बोला, "जी!"
"चलिये जरा टहल आते हैं।", उन्होंने कहा और स्टेशन की ओर बढ़ गये। प्रदीप भी पीछे हो लिया। वे लोग प्लेटफार्म नं. 8 पर जा पहुँचे। यहाँ गाड़ियों का शोर और लोगों की भीड़ कम थी। रामा प्रसाद कुछ देर इधर-उधर देखते रहे फिर बोले- "तब!?"
प्रदीप के भीतर जैसे जवाब तैयार था। उसने तुरंत कह दिया, "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर मुझे पहले भी मालूम होता तो बुरा थोड़े मानता।"
इस जवाब पर रामा प्रसाद ने विस्मय से प्रदीप की ओर देखा। उन्हें एकदम से उसकी बात समझ में न आयी। वे आँखें सिकोड़कर अकनते रहे। काफी देर बाद उनकी समझ में बात आयी तो वे ठहाका मार कर हँसे। इस ठहाके से प्रदीप झेंप गया। उसे लगा जैसे उन्होंने उसके मन के चोर को देख लिया है। उसकी हिम्मत रामा प्रसाद को देखने की न हुई।
हँस चुकने के बाद उन्होंने प्रदीप का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसे दबाते हुए बोले, "नौजवान! मैं तो समझता था तुम लोग नये जमाने के लोग हो। इन बातों से तुम्हें क्या मतलब। जब मन में बात थी तो पहले ही पूछ लेते लेकिन।"
प्रदीप एक बार फिर झेंप गया। बोला, "माफी चाहता हूँ चचा, लेकिन मेरा वह मतलब...."
रामा प्रसाद ने कहा, "छोड़ो यार! मैं यहाँ कुछ और बतियाने आया हूँ।"
प्रदीप की आँखें शर्म से पानी-पानी हो आयीं। दोनों कुछ देर चुपचाप इधर-उधर देखते रहे। फिर रामा प्रसाद बोले "या फिर रहने दो फिर कभी बता दूँगा।"
प्रदीप ने कहा, "नहीं! आज ही बता दीजिये।"
वे बोले, "यार बहुत पहले बाबा साहेब हुए हैं। ये जो देश का संविधान है उन्होंने ही लिखा है। वे हमारे अपने ही कुल खानदान के आदमी थे। उन्ने बहुत बड़ी-बड़ी बातें कही हैं। बेचारे कितना दुख झेले। हर आदमी ने उनका अपमान किया।समाज के कमजोर लोगों के लिए वे जीवन भर लड़े लेकिन।"
प्रदीप उन्हें एकटक देखता रहा था। रामाप्रसाद अनपढ़ थे। उनका घरेलू व्यवहार कड़ी मेहनत और संवेदना ही उनकी सफलता के आधार थे। इतना जरूर था कि उन्होंने अपने भतीजों का दाखिला अच्छे स्कूल में करवाया था लेकिन स्वयं कभी पढ़ाई-लिखाई की कोई बात न की थी। आज वे नयी बातें बोल रहे थे। प्रदीप इस पर चकित था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी बात का क्या तात्पर्य समझे?!
रामा प्रसाद बोले, "यार प्रदीप! तुम मुझे भी पढ़ना-लिखना सिखा दोगे? बोलो कितना लोगे?"
प्रदीप चुप रहा तो उन्होंने फिर कहा, "सोचते होगे कि बुढ़ऊ क्या पढ़ेंगे? मजाक नहीं लेकिन। मैं पढ़ना चाहता हूँ। बाबा साहब की किताबें अपने आप पढ़ना चाहता हूँ। जितना कहोगे दे दूँगा। तीन.....चार.....पाँच सौ हर महीना।"
प्रदीप बोल पड़ा, "नहीं चचा। आपने कम पैसा मुझे नहीं दिया है। मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि मैं आपका क्या कहूँ?"
"चचा छोड़कर चेलवा कह दो लेकिन पढ़ाओ जरूर।", उनकी बात पर दोनों देर तक हँसते रहे। चलते समय रामा प्रसाद ने कहा, "साइकिल ठीक से चल रही है कि नहीं। आज उसे ले जाओ और ओवर हालिंग करा लो। शहर में कब तक पैदल चलोगे।"
शाम को प्रदीप मंडली में आया और सबको पता चला कि रामा प्रसाद का पूरा नाम रामा प्रसाद अहिरवार है। बरसों पहले मिल में काम करने इस शहर में आये थे। कुछ पैसा जमा हो गया तो उन्होंने स्टेशन के पास एक ढाबा खोल लिया और धीरे-धीरे वह चल निकला। उनके छोटे भाई सामा प्रसाद अहिरवार भी कुछ समय बाद पत्नी समेत गाँव से आये। दोनो भाइयों के परिश्रम सच्चाई और सफाई से ढाबा बहुत अच्छा चला और उन्होंने बहुत पाँश कॉलोनी में घर बनवा लिया। ब्राह्मणों बनियों से भरी इस कॉलोनी में एक से एक धार्मिक गतिविधियाँ चलती थीं जिनका प्रभाव उनके परिवार पर भी पड़ा चूँकि घर में पर्याप्त पैसा था इसलिए दान-पुण्य का सिलसिला तेजी से चला। रामा प्रसाद प्रायः होटल में ही रहते थे। घर में सामा प्रसाद का ही परिवार रहता था और कुछ ले देकर उन्हीं का था ही। वे देखते थे कि आस-पास सभी हिन्दू हैं तो उन्होंने कभी अपनी जाति के बारे में कोई जिक्र नहीं किया। अकसर वे जगजीवन राम को मिलने वाली गालियों में भी अपना ऊँचा सुर मिला देते थे। लोग उनको और उनके परिवार को सम्मान देते थे इसलिए इस स्थिति को बनाये रखने के लिए वे जनेऊ पहनने लगे तथा उनकी पत्नी प्रायः मंदिर जाती थीं।
इन्हीं दिनों जब प्रदीप उनके घर पढ़ाने आता था तो रामा प्रसाद के होटल पर अम्बेडकर मिशन के कुछ कार्यकर्ता आने लगे थे। उन्हीं से उनको अम्बेडकर और फुले के बारे में जानकारी हुई। वे लोग ही रामा प्रसाद को संत रैदास, फुले और अम्बेडकर की तस्वीरें और कुछ किताब दे गए। लेकिन उन्हें पढ़ना तो आता ही नहीं था। हर महीने आने वाले कार्यकर्ताओं का असर यह पड़ा कि घर से देवी-देवताओं की फोटो उतर गयीं और इन महापुरुषों की तस्वीर लग गयीं। पहले-पहल घर के लोगों को बड़ा बुरा लगा। सबसे ज्यादा तकलीफ तो बबीता देवी को हुई। वे रोने लगीं और कई दिन तक खाना नहीं खाया। देवी-देवताओं का यह अपमान देखकर उनके मन में अनिष्ट की सैकड़ों आशंकाएँ घुमड़ने लगीं, लेकिन रामा प्रसाद घर में सबसे बड़े थे और होटल तथा घर के बड़े मालिक थे इसलिए उनका विरोध संभव नहीं था। फिर भी रामा प्रसाद ने एहतियातन बैठक का बाहरी दरवाजा बन्द कर दिया ताकि कोई अड़ोसी-पड़ोसी सीधे न घुस जाये।
घर में परिवर्तन की आंधी आ गई थी। रामा प्रसाद के मन में पढ़ाई की भूख जाग गई थी। बहुत दिनों तक वितृष्णा से मुँह बिचकाये बबीता देवी धीरे-धीरे पुराने देवी-देवताओं को भूलने लगी थीं। अब फुले और अम्बेडकर की तस्वीरों को देखती तो श्रद्धा उमड़ने लगती। जैसे वे उनके सगे बाबा हों। बैठक में जाते ही वे अनजाने में अपना पल्लू सिर पर रख लेतीं। धीरे-धीरे वे उन तस्वीरों के पास अगरबत्ती सुलगाने और उनके भजन गाने लगीं। उन्होंने अपने बच्चों को यह बताया कि ये बाबा साहब (अम्बेडकर) और नाना (फुले) हैं।
यह सब सुनकर मंडली के लोग भी कम चकित न हुए। सुनील ने कहा, "मैं तो पहले से ही सोचता था कि ये वही लोग हैं।"
विशाल जल भुनकर बोला, "जी हुजूर, आकाशवाणी हुई थी न।"
मैं कुछ कहता इसके पहले ही प्रदीप बोल पड़ा, "लेकिन यह देखो न कि अम्बेडकर इतनी बड़ी बात है कि साठ-पैंसठ साल का एक आदमी भी अब पढ़ना-लिखना चाहता है।"
सभी चुप रह गए। सचमुच सोचने वाली बात थी। फिर भी सुनील से न रहा गया, "साठ-पैंसठ क्या मरने के किनारे पहुँचे बहुत से बूढ़े पढ़ने लगते हैं।"
प्रदीप को इस पर ताव आ गया। बोला, "अबे यह क्यों भूलता है कि इस आदमी ने अपने घर से देवी-देवताओं को निकाल दिया। और किसी बूढ़े में है हिम्मत?"
ऐसी कठहुज्जत होती रही और चाय पीकर हम अपने घर लौट आये।

रामा प्रसाद की पढ़ाई तेजी से चली। कुछ ही दिनों में उन्होंने अक्षर और मात्राएँ जोड़कर पढ़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वे विजय कुमार पुजारी लिखित अम्बेडकर की जीवनी पढ़ गए। उनके भीतर रोमांच और उत्साह का रेला उमड़ पड़ा था। उनकी किताबों की संख्या बढ़ रही थी।
इसी बीच एक अच्छी खबर यह कि प्रदीप को सरकारी नौकरी मिल गयी। वह अंतिम विदा लेने आया तो सामा प्रसाद का परिवार बहुत विह्नल हो गया था। उसके लिए नये कपड़े बनवाये गए। चलते हुए उसने चाची के पांव छुए तो वह लगभग रो पड़ी। रामाप्रसाद ने उसे देर तक गले लगाये रखा। गाड़ी में बिठाने आये और प्रदीप के मना करने पर भी उसकी जेब में दो हजार रुपये रख दिये। सामा प्रसाद ने उसे एक जोड़ी जूते तथा सूटकेस दिया। जब मंडली उसे विदा करने आयी तो स्टेशन पर काफी कारुणिक माहौल बन गया। विशाल ने प्रदीप के कान में जोर से कहा, "जाओ बेटी नैहर किसी का घर नहीं होता।"
प्रदीप,सुनील,देवेश, मैं और रामा प्रसाद हँस पड़े लेकिन विशाल को रुलाई फूट पड़ी।

बहुत दिन बीत गये। इसी बीच हजारों अम्बेडकर गाँव बने। महात्मा फुले के नाम पर मेले लगे। उत्तर भारत में सत्ता का समीकरण बदल गया और दलितों का उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ बना कानून लागू करना प्रशासन की विवशता होने लगी। लोकतंत्र की बयार नगरों से होते कस्बों, गाँवों और दूर देहातों तक बहने लगी। अनेक ऐंठे हुए लोग ढीले पड़ते। धौंस, धमकी और गाली मार में विश्वास करने वालों के विश्वास कमजोर पड़ने लगे। लोग मुहावरों और भाषा की नाजुकी पर ध्यान देने लगे। साधारण जन और भी साधारण जनों को सरकारी दामाद कहने लगे। लेकिन दूसरों का मल-मूत्र ढोकर जीवन गुजार देने वालों में अपने काम को प्रति जुगुप्सा पैदा हुई। एक आदमी की तरह सोच पैदा हुई तो वे पूरी व्यवस्था के प्रति घृणा से भर उठे। इन सबके खिलाफ अनेक जघन्य प्रतिक्रियाएँ होने लगीं और अनेक स्त्रियां बलात्कार और बेहुरमती का शिकार हुईं। लगता था इस रोजमर्रा के युद्ध में आजाद भारत में सबसे बुनियादी श्रम करने वाले अपनी आजादी के लिए आहुंतियाँ दे रहे हैं। औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के पैंतालीस वर्षों बाद भारत की राजनीति के वोट बैंक की दिशा बदल रही थी। केवल मुसलमानों को रिझाना अब बीते जमाने की बात हो गई थी। अब दलितों और पिछड़ों के ऊपर ही भारत की सत्ता का दारोमदार था। कोई भी संसदीय पार्टी अब उनके बगैर अनाथ थी। सभी के एजेंडे बदल रहे थे।
बहुत कुछ बदल रहा था। जितनी पूरे योरोप की आबादी थी उससे भी ज्यादा भारत में खरीदार हो रहे थे। दुनिया भर की कम्पनियाँ भारत में पैठ रही थीं। दुनिया के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं आया था। अपना सामान बेचने के लिए बाजार बड़ी विनम्रता से लोगों के घरों में घुस रहा था। अमूनन लोग आराम के क्षणों में टेलीविजन देखते रहते और ब्रेक के दौरान टेलीविजन से निकलकर बाजार चुपचाप उनके जेहन में बस जाता था। यहाँ तक कि लोग बातचीत करते तो बाजार वहाँ चला आता। प्रेम, व्यवहार, दाम्पत्य, प्रतिबद्धता, पुण्य और मनुष्यता हर कहीं बाजार पहुँच रहा था। कविताएँ और कहानियाँ बिना बाजार के बासी लगतीं। यही वह समय था जब रामा प्रसाद के होटल की ओर बाजार ने रुख किया।
गर्मी के दिनों में सभी ढाबों और होटलों पर लस्सी, शरबत और शीतल पेय मिलते थे। लेकिन जैसे-जैसे नदियों और कुओं का शीतल जल प्रदूषित होकर तेजी से सूखने लगा वैसे-वैसे लोगों की प्यास और पेट में जलन बढ़ने लगी थी। मिनरल वाटर और शीतल पेय कम्पनियों ने तुरन्त इसका फायदा उठाने की मुहिम तेज कर दी। इन्हीं दिनों पेप्सी ने होटलों, रेस्तरां, ढाबों और जरनल स्टोरों पर बड़े-बड़े बैनर-होर्डिंग लगाना शुरू किया। गरज यह कि लोगों को दूर से ही पता चल जाये कि वहाँ पेप्सी बिकता है। एक दिन रामा प्रसाद के यहाँ भी पेप्सी कम्पनी के लोग आये और उससे होर्डिंग पर लिखने के लिए होटल का नाम पूछा। अभी तक यह होटल बिना नाम का था। केवल व्यवहार और उम्दा स्वाद के कारण लोग इसे जानते थे।

इसीलिए जब लोगों ने होटल का नाम पूछा तो रामा प्रसाद सोच में पड़ गए। सामा प्रसाद थे नहीं कि उनसे पूछते। उन्हें लगा कि वे अपनी माँ के नाम पर होटल का नाम रखें लेकिन तुरंत ही बाद उन्हें समझ में आया कि पिता का स्थान स्वर्ग से ऊँचा होता है। वे काफी सोचते रहे और फिर तय किया कि 'दो भाई' नाम ठीक रहेगा। परंतु यह भी नहीं जँचा। अपने नाम पर रख सकते थे लेकिन इससे सामा प्रसाद को बुरा लगता। फिर...
बहुत देर तक उन्हें कुछ समझ में नहीं आया और वे सोचते रहे। और जब समझ में आया तो एक पर्ची पर नाम लिखकर लड़कों के आगे बढ़ाया। कम्पनी के लड़कों ने नाम पढ़ा और विस्मय से मुस्कराए। वे जब चले गए तब रामा प्रसाद देर तक इस नाम पर सोचते रहे। वे अनेक भावों से भरे हुए थे। भावनाएँ इतनी प्रबल थीं कि कई बार अनायास आँखें छलछलायीं। न जाने आज गाँव बहुत याद आ रहा था। माई बिल्कुल सामने खड़ी थी और बाऊ बीड़ी पीते हुए खावां बांध रहे थे। अपनी माँ के साथ राधे भी अभी याद आया था। राम प्रसाद बार-बार थूक घोंटते और सोचते कि सामा प्रसाद भला क्या सोचेंगे, लेकिन हर बार यही लगता कि उन्होंने बहुत बड़ा फैसला लिया है।

दूसरे दिन रात में ग्यारह बजे के आस-पास होर्डिंग होटल पर लग गई। रामा प्रसाद ने उसे बड़े प्यार और उत्तेजना से छूकर देखा। उन्हें गरिमा और बराबरी की अनुभूति हुई। लेकिन तुरंत उन्होंने उसका अनावरण नहीं किया। यह काम सुबह की बेला में ही ठीक रहेगा। सामा प्रसाद अभी कल लौटने वाले थे और रामा प्रसाद को आज भी घर जाना था। वे बेमन से ही घर गए।

होटल तक पहुँचते-पहुँचते रामा प्रसाद ने एक बार फिर घड़ी देखी। साढ़े तीन बज रहे थे। इस समय तक होटल के कारीगर और सहायक जाग गए थे और नित्य क्रिया से फारिग होकर रोजमर्रा के कामों में लग गए थे।

रामा प्रसाद ने होटल में घुसकर सबसे पहले होर्डिंग का स्विच दबा दिया। ट्यूब लाइटें दरबे में बंद कबूतर की तरह फड़फड़ायीं और जल उठीं। काँपते हाथों से उन्होंने होर्डिंग पर लगाया गया कपड़ा हटा दिया। पेप्सी की बोतल झटकती तारिका से भी ज्यादा चमकता होटल का नाम दिखा- 'अम्बेडकर होटल'। रामा प्रसाद रोमांच से भर उठे। वे बाहर सामने दो-तीन सौ कदम दूर गए और मुड़कर देखा तो नाम दूर से चमक रहा था।

अब तब ढेर सारे लोग जाग चुके थे। यादव जी आँख मलते हुए दीवार पर पेशाब कर रहे थे। मुड़े तो सहसा रामा प्रसाद के होटल पर उनकी नजर पड़ी और जब उन्होंने ध्यान से देखा तो एकदम से सनाका खा गए, "हैं!अरे! ई सरवा तो.....अरे...कितना साल हो गया...." वे दौड़ते हुए तिवारी के यहाँ पहुँचे और धीमी आवाज में चिल्लाते हुए बोले, "तिवारी जी तिवारी जी! तनिक हियाँ देखो। निकलो बाहर।"
तिवारी जी बड़ी जल्दी बाहर निकल आए और बोले- "का हो! का रमझल्ला भवा?"
"अरे ई देखा तनि सामने!"
तिवारी जी ने सामने की ओर देखा- 'अम्बेडकर होटल'। वे यादव जी का मुँह देखने लगे। कुछ देर बाद बोले, "या द्‍याखो! हम का समझत रहेन। का निकला।"
यादव जी ने कहा, "समझे तो हमहू नाहीं। बाकी पता नाहीं काहे मन गवाही न दिया कि ई भी बिरादर होगा।"
"कवि कहे हैं कि जात, बरन, मुसुक, बूइक्श न बंधि है। कभी न कभी खुलिहैं जरूर। अब द्‍याखो सबेरे का हाल। अम्बेडकर होटल बचे नाहीं। दूय चार दिना मा बोरिया बिस्तर बांधि के रामा सामा चलि जइहैं गाँव। ", तिवारी जी ने मुस्कराते हुए भविष्यवाणी की।
यादव जी तुरंत ही अपने होटल पर आये और अपने नौकर से बोले, अरे बोतला सारे जा जल्दी से बोड लिखवा के लिया- 'आदर्श हिन्दू होटल' लिखवाये, 'शुद्ध शाकाहारी।'

सुबह तक काफी कुछ बदल चुका था। हर नियमित ग्राहक अम्बेडकर होटल के पास तक जाकर लौट रहा था। यहाँ तक कि रिक्शे-तांगे वाले भी यादव जी के 'आदर्श हिन्दू होटल' और 'सनातनी तिवारी ढाबा' की ओर लपक रहे थे।

अम्बेडकर होटल की सारी रसद खाने वालों का इंतजार कर रही थी। दिन चढ़ने पर रामा प्रसाद ने होर्डिंग का स्विच ऑफ कर दिया था लेकिन नाम वैसे ही चमक रहा था। बारह बजे तक सामा प्रसाद गाँव से लौट आये। जब उन्होंने यह नजारा देखा तो माथा पीट लिया और कलेजा थामकर धम्म से बैठ गए। आँखों के आगे अंधेरा छा गया। बहुत देर बाद वे रामा के पास पहुँचे और पूछा-"भइया! यह आपने क्या किया?"
रामा प्रसाद ने उन्हें स्नेह से देखा लेकिन कुछ बोले नहीं तो उन्होंने फिर पूछा- "भईया, आपको अपनी इज्जत का कुछ खियाल न रहा तो बच्चों को भविष्य भी नहीं दिखा?"
रामा प्रसाद चुप न रहे। बोले- "बाल बच्चे भीख न माँगेंगे सामा। हमने मेहनत से जिया है। वे भी मेहनत से जिएंगे। और तुमको क्या बाबा साहब बेइज्जती लगते हैं!?"
सामा ने कुछ न कहा। वे हमेशा बड़े भाई का सम्मान करते रहे। उस बड़े भाई का जिन्होंने सबकुछ उन्हीं के लिए किया है।हताश सामा ने मन मसोसकर जैसे अपने आप से कहा- "पता नहीं अब इस होटल में कोई कैसे आएगा।"
रामा जोर से बोले-"खाना वहीं नहीं खाते सामा, जिनकी जात होती है। खाना इंसान भी खाते हैं।"
सामा से कुछ कहते नहीं बना। लेकिन मन में क्षोभ इतना था कि कोई ढाँढ़स बंधाता तो रुलाई फूट पड़ती!

तभी दो रिक्शों में दो शहरी जोड़े उन दोनों होटलों की हौच-पौंच देखकर आगे बढ़े और अम्बेडकर होटल के सामने उतर कर अंदर जा बैठे।

Tuesday, April 13, 2010

नाच- हरे प्रकाश उपाध्याय

लेखक परिचय- हरे प्रकाश उपाध्याय
5 जनवरी 1981 को भोजपुर बिहार के गाँव 'बैसाडीह' में जन्मे हरे प्रकाश ने जैसे-तैसे बी॰ए॰ की पढ़ाई पूरी की है। वर्तमान में एक मीडिया संस्थान में छोटी सी नौकरी कर रहे हैं और साहिबाबाद (ग़ाजियाबाद, उ॰प्र॰) में निवास रहे हैं। 'अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित हैं। कवि का एक कविता-संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' (2009) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। हरेप्रकाश उपाध्याय युवा कवियों में सबसे अधिक पसंद किये जाने वाले कवि हैं। हरे प्रकाश उपाध्याय कहानियाँ भी लिखते हैं।
संपर्क- hpupadhyay@gmail.com
आज पचमा मास्साब के बेटे की बारात जा रही थी और उन्होंने जिले की सबसे नामी पार्टी का लौंडा नाच किया था। बारात के पहले जितनी दौड़-भाग करनी थी कर ली थी। आज उन्होंने अपने बहनोई को सारी जिम्मेदारी सौंप अपनी बैठक शामियाने में जमा ली। नाच शुरू होने के पहले अंग्रेजी दारू का पौआ भी चढ़ा लिया। अब सामने चार लौंडे थे। नाच शुरू करने के पहले वे एक साथ देवी वंदना प्रस्तुत कर रहे थे, ‘‘रखो भवानी लाज, आज पड़ा है भारी काज। रखो दुर्गा देवी लाज। मां शारदे काली सब बाधा दूर करो। आज का गाना तुम मसहूर करो। मां भवानी...।’’
पचमा मास्साब भावुक हो गए, ‘‘क्या रूप दिया है दईब ने। और जीभ पर सरसती विराज रही है। पहिला जनम में कौनो पाप किए होंगे कि लवंडा हुए...।’’
लडक़ा का मामा बोला, ‘‘चुप ना रहिए पाहुन। आप भी न। दारू भीतर जाते मेहरारू हो जाते हैं। कमर देखिए कमर...माल टूटेगा?’’
‘‘चुप न रहो बहिनचोदा। दीदीया का कमर न देखतो हो। वो सब तुम्हारे दीदीया न लगेंगे।’’
उधर सामने की चौकी पर चोली में दो टमाटर लिए और घाघरा पहने लौंडा, ‘‘गौने की रात बीती जाइहो...सइयां हिले ना डोले।’’ और शामियाने के लोग बेकाबू होने लगे, ‘‘जीव..जीव रे झरेला। चल चल धन लिखी तोरा मतारी के..चल..’’
‘‘जीव..जीव..’’ ‘‘चल लिख दी टोपरा चल चल...।’’
दूसरा लौंडा भी आ गया गोगल्स लगाए। जिंस टॉप में। गाना बदल गया...‘‘चल चल तोरा माई से कहतानी...चल चल... आग लागो राजा तोहरा जवानी में...हमरा के धइल खरीहानी में...’’ सीटियां बजा उठा हर नचदेखवा..।
दो ताल नाच हुआ फिर तीसरा लौंडा आया। वह उससे भी सेक्सी। गाना का बोल निकाला...‘‘गोली चली जी गोली चली...आ राजा गोली चली...’’ और सचमुच गोली चली और जा लगी इस तिसरे लौंडे को। शोर करना छोड़ लोग भागने लगे। एक के ऊपर एक। एक बूढ़ा गिर गया और उसके ऊपर से छह मुस्टंड गुजर गए। वह अधमरा हो गया...।
थोड़ी दूर पर खड़ी थी पुलिस की जीप। नाच में बवाल न हो इसलिए उन्हें न्यौता देकर बुलाया गया था। पर वे तो गांजा पी रहे थे जीप के बगल में गमछा बिछाकर। हल्ला सुनकर वे जीप में बैठ गए और अपना-अपना बंदूक सम्हाल लिया जो यकीनन जरूरत पड़ती तो न छूटती न उन्हें छोडऩा आता। इसलिए वे हनुमान चालिसा पढऩे लगे...भूत प्रेत निकट नहीं आवे हनुमान जब नाव सुनावे...। दारोगा ने धीरे से सिपाहियों से पूछा, ‘‘आज जान तो नहीं जाएगी भाइयो।’’ एक सिपाही ने भुनभुनाकर कहा, ‘‘बहिनचो तुम पूड़ी-जलेबी के लिए एक दिन हमारी जनानियों की मांग धुलवाओगे।’’
लोग भाग गए तो पचमा मास्साब थर-थर कांपते पहुंचे पुलिस के जीप के पास और हाथ जोडक़र हकलाने लगे, ‘‘आ..आ..आप लोग कुछ करिए...’’
दारोगा जान गया कि गए लोग। इसलिए अकडक़र बोला, ‘‘ऐ मास्टर हमसे पूछ के किए थे नाच? अब जाओगे भीतर। वहीं करना तुम समधी मिलन। अगर लवंडा मर गया होगा तो हम क्या हमारा बाप भी नहीं बचाएगा तुमको...।’’ वह गुस्से से तमतमा गया और पचमा मास्साब के गाल पर अपना तमाचा दे बैठा।
और मौका होता तो अपना गाल पोंछते हुए पचमा मास्साब कहते, ‘अपना औकात मत भूलिए दरोगा जी। कौनो मास्टरे से पढक़र बने होंगे दरोगा आप।’ पर अभी तो उनकी सचमुच घिग्घी बंधी थी। बोलते कैसे?
दारोगा पचमा मास्साब का कालर पकडक़र शामियाने की ओर चला। जैसे किसी रंगबाज ने किसी पाकेटमार को पकड़ लिया हो। पीछे-पीछे सिपाही भी पूरी अकड़ में जैसे कोई वीरता का अवार्ड लेने जा रहे हों। शामियाने में पचमा मास्साब के परिवार और बेहद करीबी रिश्ते के ही कुछ लोग बचे थे और लौंडे को घेरे हुए खड़े थे। गोली नहीं लगी थी उसे। गोली छूते हुए निकल गई थी। वह बेहोश हो गया था। एक आदमी हवा कर रहा था गमछे से और एक आदमी पानी के छींटे मार रहा था उसके चेहरे पर। बाकी के लोग बाकी के लौंडों से सटने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे थे। जिस चौकी पर नाच हो रहा था। उस पर नाच का जोकर चढक़र माइक के सामने भाषण देने लगा था। वह गुस्से में लगता था। वह कह रहा था, ‘‘सांस्किरतिक महफील का जिनको सहूर नहीं उन समाजविरोधी ताकतों को नहीं आना-जाना चाहिए कहीं। अभी नाच चलता तो सबको मजा आता। अंडा देती मुरगी को हलाल करनेवालों को सोचना चाहिए कि मुरगी मर गई तो फिर अंडा खाने का सवाद कइसे मिलेगा...।’’ वह अपनी रौ में था कि पीछे से एक मरियल सिपाही ने दिया पूरी ताकत लगाकर उसके चूतड़ पर एक लात। वह संतुलन खोकर जमीन से जा लगा। लौंडे को जिंदा पाकर दारोगा जी में देखने वाली तेजी से उत्साह का संचार हुआ। वे सबको हडक़ाने लगे। नाच पार्टी के मालिक ने पैर पकड़ लिया। लोग बीच-बचाव करने लगे। बारात में कुछ नेता टाइप प्रभावी आदमी भी थे। दारोगा उन्हें पहचानता था। वे एक किनारे ले गए दारोगा को। वह पांच हजार की जिद कर रहा था। कुछ देर में ना-नुकुर के बाद दो हजार पर मान गया। पचमा मास्साब से दो हजार लेने के बाद वह कहने लगा, ‘‘मास्साब आप इज्जतदार आदमी हैं। जाइए, आगे से ध्यान रखिएगा। लंठ-लबार को नहीं न लाना चाहिए बारात में। अब गोली आप ही के आदमी ने न चलाई होगी। कोई मर जाता तो आप नहीं जानते हैं बहिनचो कितना टेंसन हो जाता। आज कल के जो नएका नेता सब है, जानते नहीं हैं.।’’ दारोगा एक लौंडे को लेकर अपनी टीम के साथ जीप की ओर चला गया। नाच पार्टी दुख, करुणा और असहायता के अनेक भावों से घिरी अपना साजो-सामान समेटने लगी।