Tuesday, September 30, 2008

लघुकथा - परेशानी

पत्‍नी: आपको मालूम है, आज रात नौ बजे टी वी में आंतक एंवम् आंतकवादियों पर विशेष कार्यक्रम दिखाया जाएगा| वही आंतकवादी जिन्‍होने दिल्‍ली, अहमदाबाद और जयपुर में कैसा भयानक तांडव मचा दिया है। कैसे ये काम करते हैं, कैसे धर्म के नाम पर मासूमों की जान लेते हैं। उन परिवारों के बारे में भी दिखाया जाएगा जिन के घर पिछले शनिवार को बर्बाद हो गये थे। वो बच्‍चा जिस के हाथ में बम फट गया उसे सोच कर तो मेरी रूह कांप जाती है। कैसे इतने संवेदनाहीन हो गए हैं ये लोग? आप को मालूम, ये सभी आंतकवादी कितने पढ़े लिखे हैं? आज दिन में समाचार देख मेरे तो आंसू ही नहीं थम रहे थे।

पति महोदय: बस बस! मैं जानता हूं कि तुम बहुत जल्‍द परेशान हो जाती हो। तुम कर ही क्‍या सकती हो सिवा परेशान हो कर अपनी तबीयत खराब करने और कार्यक्रम देखकर दो वक्‍त जली हुई रोटियों और ज्‍यादा नमक की दाल खिलाने के। वैसे भी आज शनिवार है वीक एंड और सोमवार से तो बच्‍चों के भी एग्‍जाम शुरू हो जाएगें। इसी कारण आज आफिस से आते एक मूवी की सीडी लेकर आया था। चलो वो देखेंगे, वरना पूरा महीना पिक्‍चर नहीं देख पायेंगे छोडो ये रोना धोना आंतक वातंक।

पिक्‍चर देखो ऐश करो कुछ मूड बनाओ। मेरा तो आज मन है। तुम भी जाने कब दूसरों की बातों पर परेशान होना कब छोडोगी!!

--सीमा स्‍मृति

Saturday, September 27, 2008

लघुकथा : एक छोटी सी प्रेम कहानी

लड़के ने धीमी होती रेल की खिड़की के बाहर देखा तो लगा साक्षात चाँद धरा पर उतर आया हो| अलसी भौर में उनींदे नयन सीप | अपलक देखता ही रह गया | कुछ संयत हो, हाथ में पानी की केतली ले उतरा और वहां चला, जहाँ वह मानक सौंदर्य मूर्ति जल भर रही थी | फासला कम होता गया, सम्मोहन बढ़ता गया | समक्ष पहुँचने तक दोनों के मध्य स्मित अवलंबित नजर सेतु स्थापित हो चुका था | भावनाओं का परिवहन होने लगा | लड़के ने देखा लड़की की पगतली पर महावर रची थी | किसी परिणय यात्रा की सदस्या थी | बालों से चमेली की खुशबू का ज्वार सा उठा, लड़का मदहोश हो गया | कलाई थाम ली, हथेली पर रचे मेहंदी के बूटों पर अधर रख दिये | लड़की की पलकें गिर गई | तभी लड़की के पास खड़ा पानी भरता एक मुच्छड़ मुड़ा | अग्नि उद्वेलित नजरों से घूरा और अपने हाथ को लडके की कनपट्टी की दिशा में घुमा दिया | लड़का झुका और स्वयं को बचाया | इतने में उसकी ट्रेन खिसकने लगी | वह लपक कर चढ़ गया | दूसरी तरफ़ उनकी की ट्रेन भी चल पड़ी | वह मुच्छड़ के साथ घसीटती सी चली | गति पकड़ती ट्रेन की खिड़की से एक मेहंदी रची हथेली हिल रही थी | लड़का आंख में पड़ा कोयला मसलने लगा |
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--विनय के जोशी

Monday, September 15, 2008

मन्नन राय गजब आदमी हैं (नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी)

हम गद्य विधा के लिए नवलेखन पुरस्कार प्राप्त कहानी-संग्रह 'डर' से कहानियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। अब तक इस शृंखला के अंतर्गत हमने इस कथा -संग्रह से 'स्वेटर', 'रंगमंच', 'सफ़र' कहानियों का प्रकाशन किया है। आज प्रस्तुत है चौथी कहानी 'मन्नन राय गजब आदमी हैं'


मन्नन राय गजब आदमी हैं


नाम- मन्नन राय
कद- छह फीट एक इंच
वज़न- सौ किलो के आस-पास
आयु- पचपन साल के उपर
रंग- गेंहुंआ
स्वभाव- शांत व विनोदप्रिय


ये किसी भगोड़े अपराधी का हुलिया नहीं है बल्कि एक ग़ुमशुदा की सूचना है। यह पाण्डेयपुर के मन्नन राय का परिचय है जिन पर कहानी लिखना भारी अपराध है क्योंकि ये उपन्यास के पात्र थे। फिर भी यह कहानी, यदि इसे कहानी मानें, तो लिखी जा रही है। वास्तव में यह कोई कहानी नहीं, एक समस्या का कहानीकरण है जो कि लेखक मन्नन राय का प्रशंसक होने के नाते कर रहा है। जब लेखक बहुत छोटा था तब भी यह कहानी दुनियावी भंवर में पूरी रौ में बहती जा रही थी भले लेखक उससे अनभिज्ञ था। तो इस समस्या को कहानी का जामा पहनाने के लिये लेखक ने अपने अवचेतन के साथ-साथ बड़े-बुज़ुर्गों से भी राय मशवरा किया है और भरसक तथ्य जुटाने की कोशिश की है। हो सकता है ब्यौरेवार तफ़सील से कहानी रिपोर्ताज लगने लगे या फिर संस्मरण का बाना पहने ले। पर लेखक का ध्यान और चिंता इसे लेकर नहीं है क्योंकि उसका ध्यान सिर्फ़ समस्या की गंभीरता की तरफ़ है।
पूरे बनारस को पाण्डेयपुर हिलाये रखता था और पाण्डेयपुर को मन्नन राय। ये न तो कोई बाहुबली थे न ही पुलिस के आदमी, फिर भी शोहदे उस एरिये से कई-कई दिनों तक नहीं गुज़रते थे जिधर किसी दिन वह दिखायी पड़ जाते थे। वह रेलवे के कर्मचारी थे पर उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि यदि सड़क पर झगड़ा हो रहा हो और वह उधर से गुज़र जाएं तो लोग उन्हें पकड़ कर झगड़ा सलटवाने लगते थे। पाण्डेयपुर के अलावा भी, कभी भी, कोई भी उनकी मदद लेने आ जाय, वह तुरंत उसके साथ जाकर उसकी समस्या का समाधान करते थे। किसी-किसी झगड़े में ख़ुद पड़ जाते और पीड़ित का पक्ष लेकर एक-दो पंक्तियों में ही झगड़ा निबटा देते। झगड़ा फरियाने में उनके एक-दो अतिप्रचलित संवाद सहायक होते-
’’मान जा गुरू, फलाने के परसान मत कराऽऽ।’’
’’काहे हाय-हाय मचउले हउवा राजा? खलिये मुट्ठी लेके जइबा उपर।’’
’’हमें सब सच्चाई मालूम हौऽऽ। छटका मत। समझउले से समझ जा।’’
और आश्चर्य की बात, 99.99 प्रतिशत मामले में लोग वाकई समझाने से समझ जाते।
ऐसे साहसी, दबंग और बेफ़िक्र मन्नन राय अचानक बनारस की धरती को छोड़ कर कहां चले गये जिसके बारें में उनका विचार था कि गंगा किनारे मर के कुत्ता भी तर जाता है। उनकी गुमशुदगी पूरे बनारस के लिये चिंता का विषय है। इसके विषय में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले उनके विषय में ठीक से जानना होगा। उनके जीवन के उस मोड़ पर जाना होगा जब वह तड़तड़ जवान थे।
बनारस को उस समय ज़्यादातर लोग काशी कहा करते थे। बनारस की गलियां उतनी ही पतली थीं जितनी आज हैं पर सड़कें काफी चैड़ी थीं। क़दम-क़दम पर पान की दुकानें थीं जैसी आज हैं। जगह-जगह लस्सी के ठीये थे। गली-गली में अखाड़े थे जहां बच्चे किशोरावस्था से युवावस्था में क़दम सेहत बनाते हुये रखते थे। जगह-जगह आज की ही तरह मंदिर थे और बहुत से मंदिरों में वाकई सिर्फ़ पूजा ही होती थी। विदेशी पर्यटक तब भी बहुत आया करते थे और ’अतिथि देवो भवः’ की परम्परा के अनुसार उन्हें पलकों पर बिठाया जाता। कुछ नाव वाले और गाइड उनसे पैसे ज़रूर ठगते पर पर्यटकों की सुरक्षा को लेकर वे भी अपने देश की छवि अच्छी बनाने के लिये चिंतित रहते।
कुछ गुण्डे भी हुआ करते थे पर वे अच्छे ख़ासे सेठों को ही लूटते थे और भरसक उन्हें जान से नहीे मारते थे। लड़कियों को पूरा मुहल्ला बहन और बेटी मानता था और कोई ऐसी-वैसी बात सबके लिये बराबर चिंता का विषय होती। लोगों की सुबह जलेबी-दूध के नाश्ते से शुरू होती और रात का खाना खाने के बाद मीठा पान खाने से। बड़े से बड़े धनिक भी रात का खाना खाने के बाद सपरिवार बाहर आकर मीठा पान खाते और टहलते। ऐसे ही माहौल में मनन राय का पटना से काशी आगमन हुआ। उन्हें बनारस इसलिये आना पड़ा क्योंकि यहां रेलवे में उनकी नौकरी लग गयी थी पर जब एक बार उन्होंने नौकरी और बनारस को पकड़ा तो दोनों ने उलटे उन्हें ऐसा पकड़ लिया कि वह वहीं के होकर रह गये। वह रांड़, सांढ़, सीढ़ी और संन्यासी से बचते हुये काशी का सेवन करने लगे और ऐसा रमे कि मित्रों ने चाचा का चच्चा, मामा का मम्मा की परम्परा के अनुसर मनन का मन्नन कर दिया। उनका रंग वहां जल्दी ही जम गया। पाण्डेयपुर का वह कमरा जिसमें वह रहते थे, एक नाटकीय घटनाक्रम में पूरे घर समेत उनके नाम लिख दिया गया।
घर एक पंडित का था जिसके परिवार में सिर्फ़ वह और उसकी पत्नी ही बचे थे। उसके सब बच्चे बचपन में ही एक-एक करके स्वर्ग सिधार गये थे और पंडित पंडिताइन काफी हद तक विरक्त हो चुके थे। इस विरक्ति पर थोड़ी आसक्ति तब हावी हुयी जब पंडित का भतीजा घर अपने नाम लिखवाने के लिये दबाव डालने लगा। पहले उसने चाचा-चाची को प्यार से समझाया। जब वह नहीं माने तो डराने धमकाने पर उतर आया। एक दिन वह अपने साथ तीन-चार मुस्टंडों को लेकर आया और घर के सामान निकाल कर फेंकने लगा। मन्नन राय बहुत दिनों से यह तमाशा देखकर तंग आ चुके थे। वह बाहर निकले और उन सभी को बुरी तरह से पीटने लगे। उनका गुस्सा और आवेग बदमाशों के लालच पर भारी पड़ा और वह मुहल्ले के हीरो बन गये। पंडित-पंडिताइन उसके बाद से उन्हें बेटा मानने लगे और और मरते समय घर उनके नाम लिख गये।
मन्नन राय ने जिस बहादुरी से चारो पांचों को लथार-लथार कर मारा, वह सबको चकित कर गया था। पूरे मुहल्ले में यही कहा सुना जा रहा था, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’ जो उम्र में उनसे छोटे थे, वे बातें कर रहे थे, ’’मन्नन भइया गजब आदमी हैं।’’ जो बड़े थे, वे बतिया रहे थे, ’’मन्नन रयवा गजब आदमी है यार।’’ इस बात पर पूरा क्षेत्र एकमत हो गया था कि मन्नन राय गजब के हिम्मती और ताक़तवर इंसान हैं। वह चलते तो लोग उनकी गरिमापूर्ण चाल को मुग्ध होकर देखते रहते। लोगों ने साफ़ देखा था कि उनके सिर पर एक आभामंडल दिखायी देता है। बहुत से लोग उनके चेले बन गये जिनमें से कुछ उनकी भक्ति भी करने लगे। वह सुबह सेर भर जलेबी और आधा लीटर दूध का सेवन करके स्टेशन जाते। शाम को मोछू हलवाई के यहां पाव भर रबड़ी खाते और फिर सभी मित्रों के साथ अखाड़े में भांग घोटने बैठ जाते।
बनारस को ज़माने की हवा बहुत धीरे-धीरे लग रही थी। ऐसे कि असर न दिखायी दे न पता चले पर परिवर्तन हो रहे थे। टीवी का प्रादुर्भाव हो रहा था और शहर चमत्कृत था। कुछ अति सम्पन्न लोगों के घरों में वह रंगीन चेहरा लिये आया था और कुछ सम्पन्नों के घर श्वेत-श्याम। जिसने श्वेत-श्याम भी टीवी ख़रीद लिया था वह अचानक उंची नज़रों से देखा जाने लगा था। जिनके घरों में टीवी नहीं थे उनके बच्चे अपने टीवी वाले पड़ोसियों के यहां छिछियाए फिरते। मन्नन राय को कियी ने समाचार सुनने के लिये टीवी ख़रीदने की सलाह दी तो वह हंस पड़े-
’’चलऽला हऽऽ चूतिया बनावे, हम देखले हई टीवी पर समाचार। एक ठे मेहरारू बोलऽऽले। हम तऽऽ ओनकर मुंहवे देखत रह गइली, समाचार कइसे सुनाई देईऽऽ ?’’
पर काफी सालों बाद टीवी का थोड़ा बहुत प्रभाव मन्नन राय पर भी पड़ा था। रविवार की सुबह जलेबी-दूध का सेवन करके वह सरबजीत सरदार के घर ज़रूर जाते और रामायण नाम का वह चमत्कार पूरे एक घंटे तक देखते और नतमस्तक होकर लौट आते। उन्हें टीवी का यही एक प्रयोग सही लगता।
मगर टीवी का यही एक प्रयोग नहीं था। उस पर फ़िल्में भी आ रही थीं। फ़िल्मी गाने भी आ रहे थे। जो गाने पति-पत्नी बच्चों के बिना हॉल में जाकर देखते सुनते थे, अब बच्चे घर में बैठे-बैठे देख सुन रहे थे। बच्चे जल्दी-जल्दी किशोर, किशोर बड़ी तेजी से युवा और युवा बड़ी तेज़ी से अवसादग्रस्त हो रहे थे। बनारस पूरे देश में हो रहे बदलावों को अपने में दिखा रहा था। पर उपर से कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। सब पहले के जैसा शान्त था। बच्चे गाना सुनते और गुनगुनाते फिरते-
’’एक आंख मारूं तो लड़की पट जाए............।’’
’’ दे दे प्यार दे..........।’’
’’सात सहेलियां खड़ी-खड़ी........।’’
’’सुन साहिबा सुन.........।’’
मां-बाप बच्चों के मुंह से ऐसे गाने सुनकर कभी गौरान्वित महसूस करते और कभी ऐसे गन्दे गाने न गाने की चेतवानी देते। जो इन्हें गंदा गाना कहते, वे ख़ुद एक-दो साल बाद इन्हें गुनगुनाते क्योंकि गंदगी की परिभाषा बड़ी तेज़ी से हर पल बदल रही थी।
दिल, प्यार, आशिक़ी आदि रोज़मर्रा की बातचीत के शब्द बन रहे थे। युवा लड़के दिल टूटने पर गीत गाने लगे थे। लड़कियां अपनी तारीफ़ गाने में सुनना पसंद करने लगी थीं पर उपर से सब शांत दिखायी पड़ता था।
वी.सी.आर. नाम के उपकरण ने वर्षों हल्ला मचाये रखा। पति-पत्नी रात को बच्चों के सो जाने के बाद प्रायः इसका उपयोग करते। बच्चे कभी-भी आधी नींद से जागते तो सोने का बहाना किए पूरा तमाशा देख जाते। उनके सामने उत्सुकताओं के कई द्वार खुल रहे थे।
मन्नन राय की उम्र शादी के बाॅर्डर को पार कर रही थी। घर से पड़ता दबाव भी उनकी उदासीनता को देखकर कम होता जा रहा था। वह हनुमान जी के परम भक्त थे और आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले चुके थे। हर शनिवार और मंगलवार को संकटमोचन जाने पर यह व्रत और दृढ़ होता जाता। पर स्त्रियों की वह बहुत इज़्ज़त करते थे और उनसे की गयी बदसलूकी अपने सामने नहीं देख सकते थे।
उधर बीच वह रात को पान खाकर अक्सर सरबजीत सरदार के चबूतरे पर देर तक बैठा करते थे। मोछू भी दुकान बंद करने के बाद वहीं आ जाते और तीनों देर तक दुनिया जहान की बातें करते रहते।
एक रात अब वह सरबजीत को राम-राम कह कर उठने ही वाले थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे उन्हें अंधेरे में कुछ परछाइयां दिखीं। वह कुछ देर वहीं से भांपते रहे फिर लपक कर उस ओर बढ़ चले।
वहां का नज़ारा उनके तन-बदन में आग लगाने के लिये काफी था। जनार्दन तिवारी का लड़का चून्नू त्रिलोकी ओझा की लड़की सविता को बांहों में भींचे खड़ा था और बार-बार उसे चूमने की कोशिश कर रहा था। लड़की शर्म के मारे चिल्ला नहीं पा रही थी पर छूटने की भरसक कोशिश कर रही थी। उन्होंने चून्नू को एक हाथ दिया और वह दूर जा गिरा। उठा तो सामने मन्नन राय को देखकर उसकी रूह फ़ना हो गयी।
’’तू घरे जोऽऽऽ।’’ मन्नन राय ने लड़की को डपट कर कहा और चून्नू पर पिल पड़े। चून्नू ने गिड़गिड़ाते हुये उनके पैर पकड़ लिये। मोछू और सरबजीत भी आ गये और पूरा मामला जानकर उन्होंने भी चून्नू का कान पकड़ कर दो करारे हाथ रखे। उसने कसम खायी कि वह मुहल्ले की सभी लड़कियों को बहन मानेगा, उसके बाद उसे छोड़ा गया। उस घटना के बाद चून्नू दो महीने तक दिखा नहीं। वह अपनी नानी के यहां छुट्टियां बिताने चला गया था, शायद शर्मिंदा होकर।
समय धीरे-धीरे बीतते हुये कठिन और गाढ़ा होता गया। परिवर्तन ऐसे मोड़ पर पहुंच गये थे कि उन्हें देखा जा सकता था। किशोर और युवा टीवी के गुलाम नहीं रह गये थे। उनके लिये इंटरनेट पर उच्छृंखलताओं का अथाह समुद्र था जिसमें वे जितनी चाहे डुबकी मार सकते थे। वी.सी.आर. जा चुका था। वी.सी.डी. प्लेयर पर पति-पत्नी रात को अपनी पसंद देखते तो बच्चे दरवाज़ा बंद कर दिन में देखते। हमारा देश अचानक दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत चेहरे पैदा कर रहा था। हर बात के लिये औसत आयु कम हो रही थी, चाहे बूढ़ों के मरने की बात हो या लड़कियों के रितुचक्र के शुरूआत की। किशोर खुलेआम सिगरेट पीने लगे थे और कुछ किशोर दशाश्वमेध पर घूमने वाले दलालों से हेरोइन लेकर भी स्वादने लगे थे। बाप न जाने क्यों ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने में लगे जा रहे थे और मांएं टीवी सीरीयलों में जीवन जीने लगी थीं। औसत लड़कियां किसी ख़ास साबुन या क्रीम की कल्पना कर ख़ुद को जीवनपर्यंत चलने वाले भ्रम में डाल रही थीं तो लड़के अनाप शनाप पाउडर खाकर सुडौल शरीर बनाने के सपने देख रहे थे। अखाड़े सभ्यता की निशानियों की तरह जीवित थे। गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट और जिम खुल गये थे। एक नई सदी शुरू हो गयी थी और यह सदी सच्चाई की नहीं, झूठ, आतंक और दिखावे की थी।
सांस्कृतिक नगरी काशी में एक और परिवर्तन हुआ था। आज़मगढ़, मऊ, गोरखपुर और आसपास के अपराधी अपनी गतिविधयों का केंद्र काशी को भी बना रहे थे। काशी बड़ी तेज़ी से सांस्कृतिक राजधानी से आपराधिक राजधानी बनती जा रही थी। इन शातिरों ने अपना ध्यान शिक्षित लोगों को अपराधी बनाने में लगाया। पढ़े-लिखे बेराज़गार नौजवान गैंग बना रहे थे। चोरी, छिनैती की घटनाओं में सिर्फ़ नौजवान ही मोर्चा संभाल रहे थे। इन पढ़े लिखे अपराधियों ने कई प्रशिक्षित अपराधियों और मंजे हुये गुण्डों का बोरिया बिस्तर बंधवा दिया था। इन्हीं शिक्षित अपराधियों ने रंगदारी यानि गुण्डा टैक्स वसूलने का नियम आम किया था। रंगदारी यानि हमें पैसा इसलिये दीजिये क्योंकि हम आपकी जान नहीं ले रहे हैं। पैसा दीजिये और हमारी गोलियों से सुरक्षित रहिये। इन्होंने बड़े-बड़े रसूख वाले व्यापारियों को निशाना बनाया। इसमें ख़तरा था जो ये उठा रहे थे और सफल भी हो रहे थे।
बनारस में बहुस्तरीय परिवर्तनों से मन्नन राय जैसे लोग बहुत परेशान थे। लस्सी और ठंडई की दुकानें कम हो गयी थीं। शराब की दुकानों के लाइसेंस दोनों हाथों से बांटे जा रहे थे। गाइड पर्यटकों को घुमाते-घुमाते उनका पर्स, कैमरा आदि पार कर देते और महिला पर्यटकों से बदसलूकी करने में उन्हें कोई डर नहीं था। कुछ गाइड महिला पर्यटकों से बलात्कार भी कर रहे थे तो कुछ ने एकाध विदेशियों का क़त्ल भी कर डाला था। सबको पुलिस का संरक्षण प्राप्त था जो पूरी तरह से हरे और सफेद रंग की ग़ुलाम बन गयी थी।
अधेड़ से वृद्ध हो चुके मन्नन राय सुबह-सुबह जलेबी दूध का नाश्ता करने के बाद मुहल्ले में टहल रहे थे। उस दिन रविवार था। उनका विचार था कि झुनझुन के यहां दाढ़ी बनवा लेते। वहां गये तो कुछ लड़के पहले से नम्बर लगाये हुये थे। वह कुछ भुनभुनाते हुये बाहर निकल आये और डाॅक्टर साहब के चबूतरे पर बैठकर अख़बार पढ़ने लगे। डाॅक्टर साहब भी आवाज़ सुनकर बाहर आये और मन्नन राय को प्रणाम कर वहीं बैठ गये।
’’ क्या भुनभुना रहे हैं बाऊ साहब ?’’
’’ अरे आजकल के लौंडे डाक्टर साहब। का बताएं ? दाढ़ी के साथ-साथ मोछ भी साफ करा देते हैं और झोंटा अइसा रखते हैं कि पते न चले कि जनाना है कि आदमी। अउर त अउर सरीर अइसा कि फूंक दो तो............।’’
मन्नन राय ने बात ख़त्म भी नहीं की थी कि दो मोटरसाइकिलों पर सवार चार हथियारबंद नौजवान तेज़ रफ्तार में गाड़ी धड़धडाते हुये उनके सामने से निकल गये और कन्हैया सुनार के घर के सामने गाड़ी लगा दी। तीन नौजवान बाहर टहलने लगे और एक अंदर चला गया। बाहर के तीनों नौजवान आगे बढ़ने वाले को तमंचा दिखकर पीछे रख रहे थे। तभी अंदर वाला नौजवान कन्हैया सुनार को लगभग घसीटते हुये बाहर लाया और चारों उनकी लात घूंसों से पिटायी करने लगे। कन्हैया हलाल होते सूअर की तरह डकर रहे थे। कन्हैया की पत्नी और बारह वर्षीय बेटा दरवाज़े पर खड़े होकर रो रहे थे और मदद की गुहार कर रहे थे। मगर चार तमंचों के आगे हिम्मत कौन करे। चारों लात-घूंसों के साथ गालियों की भी बौछार कर रहे थे।
’’ पहचान नहीं रहे थे हम लोगों को मादर.....।’
’’ दो पहले ही दे दिये होते तो ये नौबत क्यों आती हरामजादे ?’’
’’ हमारी बात न मानने का अंजाम बता दो साले को.....।’’
मन्नन राय मामला भांप चुके थे। कन्हैया सुनार बड़ा अच्छा आदमी था। उनके सामने इतना अंधेर। वह लपक कर उन सबके पास पहुंच गये और पूरे मुहल्ले की धड़कनें रुक गयीं।
’’ छोड़ दे एनके......।’’
’’ तू कौन है बे मादर.........।’’
एक चिकने दिखते लड़के का तमंचा लहराकर यह कहना ही था कि मन्नन राय का माथा घूम गया। उनके सामने पैदा हुये लौण्डों की ये हिम्मत ? उनकी एक भरपूर लात लड़के की जांघों के बीच पड़ी। दोनों हाथों से उन्होंने बाकी दोनों के सिर पकड़ कर लड़ा दिये और फ़िल्मी स्टाइल में चैथे के एक लात मारी। वह नीचे गिर पड़ा। अब चारों निहत्थे ही मन्नन राय पर टूट पड़े। पहले तो चारों भारी पड़े पर जब एक चिकने लड़के ने मन्नन राय के मुंह पर मार कर ख़ून निकाल दिया तो मन्नन राय अचानक सुन्न हो गये। क्षण भर उसके चिकने चेहरे को देखते रहे और अगले ही पल ’जय बजरंग बली’ का उद्घोष करते हुये चारों को पलक झपकते ही धराशायी कर डाला। लड़ायी को अंतिम घूंसे से फ़ाइनल टच देते हुये बोले, ’’लोहा उठावल सरीर ना हौ बेटा अखाड़े कऽऽ मट्टी हौऽऽऽ।’’ उनके सिर का आभामंडल चमक रहा था।
तभी गेट के बाहर खड़े कुछ अतिउत्साही नवयुवक अंदर घुस आये और चारों को पीटने लगे। काफी भीड़ जमा हो गयी और वे इस अफरातफरी का लाभ उठा कर फ़रार हो गये।
इस घटना के बाद पूरे मुहल्ले ने मन्नन राय को ज़बरदस्ती अपने-अपने घर बुलाकर उनका पसंदीदा खाद्य पदार्थ जैसे दही बड़ा, मालपुआ, गुलाब जामुन वगैरह खिलाया। मूल्य क्षरण के इस युग में भी खुले मन से यह स्वीकार किया गया कि, ’’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’’
मन्नन राय की गज़बनेस तब तक पूरे रौ में बरक़रार थी। वह पूरे मुहल्ले के सरपरस्त, रखवाले और अब बुज़ुर्ग थे। हर घर पर उनके कुछ न कुछ अहसान थे। किसी की ज़मीन का झगड़ा सुलझाया था, किसी के पैसों का लेन-देन निपटाया था तो किसी को धमका रहे बदमाशों से छुटकारा दिलाया था। पाण्डेयपुर से कैण्ट और मलदहिया से लंका तक लोग श्रद्धा से उनका नाम लेते थे।
पहले के नौजवान जिन्होंने मन्नन राय की परम शौर्यता का दौर देखा था, उन्हें बड़ा भाई मानते थे। उनके समौरिया जो लंका जैसे दूर क्षेत्रों में रहते थे, अपने घरों में ख़ुद को उनका क़रीबी दोस्त घोषित करते थे भले ही उनकी आपस में एकाध मुलाक़ातें ही हुयी हों।
हालांकि जो वर्तमान पीढ़ी थी, वह मन्नन राय के बारे में क्या सोचती थी, ये मन्नन राय को पता नहीं था। यह वह पीढ़ी थी जो अपने बाप को इसलिये सम्मान देती थी क्योंकि वह पैसे देता था। यह पीढ़ी बड़ी तार्किक थी। इसके पास ईश्वर को न मानने के तर्क थे, पोर्नोग्राफी को वैधानिक कर देने के तर्क थे, शराब को जायज़ मानने के तर्क थे और आश्चर्य कि सभी तर्क दमदार थे।
मन्नन राय इस पीढ़ी की इस ताक़त से अनभिज्ञ थे। शायद इसलिये कि उनका वास्ता शुरू से ही इसके पहले वाली पीढ़ी और उसके पहले वाली पीढ़ी से पड़ा था। वर्तमान पीढ़ी को उन्होंने सड़कों पर नंगा खेलते-भागते देखा था और वह इसी रूप में उनके दिमाग में दर्ज थी। मगर यह पीढ़ी अपना शिशु रूप पैदा होते ही छोड़ चुकी थी। यह पीढ़ी, जैसा कि होता है, अपनी सभी पिछली पीढ़ीयों से तेज़ और बहुत आगे थी।
रात का समय था। बिल्कुल वही दृश्य था जिसे बीते दो दशक से भी ज़्यादा का समय हो गया था। मन्नन राय सरबजीत सरदार के चबूतरे पर मोछू, लल्लन, बजरंगी और एकाध स्थानीय लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे कि शीतला प्रसाद के घर के किनारे अंधेरे में उन्हें कुछ परछाइयां दिखीं। उनके सामने दशकों पहले का दृश्य घूम गया और वह लपक कर उस ओर बढ़ चले। उन्हें उठता देख सरबजीत भी उठ कर पीछे लग गये और उन्हें देख उपस्थित सभी पांचों छहो उनके पीछे चल दिये। सभी को अच्छी तरह पता था कि मन्न्न राय गजब आदमी हैं, क्या पता कोई गजबनेस दिखा ही दें।
गजबनेस (मुहल्ले के मनचलों द्वारा दिया गया शब्द) दिखी भी। मन्नन राय ने देखा कि रामजीत पाण्डेय का लड़का सुनील परमेश्वर सिंह की बेटी अंशु को भींच कर खड़ा है और उसके नाज़ुक अंगों पर हाथ फेरने के साथ उसे चूम भी रहा है। लड़की के मुंह को उसने हाथ के पंजे से बंद कर रखा है और लड़की आज़ाद होने के लिये छटपटा रही है। मन्न्न राय ने एक ज़ोरदार थप्पड़ सुनील को मारा और वह छिटक कर दूर जा गिरा। लोग ख़ुश हो गये। उन्हें मुंहमांगी मुराद मिल गयी। मन्नन राय इस लड़के को अभी ठीक कर देंगे। ये आजकल के लौण्डे..........। मन्न्न राय गुस्से से लाल हो रहे थे। लड़की छूटते ही घर की ओर भागी।
’’ काहे बे, पढ़े लिखे वाली उमर में हरामीपना करत हउवे, वहू खुलेआम.......?’’
सुनील उठा, एक नज़र मन्न्नन राय की ओर देखा, एक नज़र भाग कर जाती अंशु की तरफ़ और ज़मीन पर पड़ा अपना बैग उठाने लगा। उसकी आंखों में शर्म, पछतावा, संकोच जैसा कोई भाव दूर-दूर तक नहीं था। उसने बैग उठाया और चलने से पहले जली आंखों से मन्नन राय को घूरा। कल के लौण्डे को अपनी ओर इस तरह घूरते देखकर मन्नन राय का पारा गरम हो गया। उन्होंने उसे हड़काते हुये थप्पड़ उठाया-
’’ अइसे का देखत हउवे। तोर तरे माइ बाप कऽ पइसा बरबाद करे वालन कऽ इलाज हम बढ़िया से जनिलाऽऽऽ...........।’’
उनकी बात बीच में अधूरी रह गयी क्योंकि सुनील ने उनका तना हुआ थप्पड़ बीच में पकड़ लिया और झटक दिया। वहां उपस्थित सबकी सांसे रुक गयीं। मन्नन राय आपे से बाहर हो गये और दूसरे हाथ से एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। वह सम्भल भी नहीं पाया था कि दूसरा थप्पड़। फिर उस सत्रह साल के लड़के ने ऐसी हरक़त की कि वहां सबको सांप सूंघ गया।
उसने तेज़ी से अपना बैग निकाला और बिजली की फ़ुर्ती से किताबों के बीच से एक तमंचा निकाल कर मन्नन राय की कनपटी पर सटा दिया। वह बुरी तरह से हांफ रहा था। गुर्राता हुआ बोला-
’’ नेता बनने की आदत छोड़ दे बुड्ढे वरना यहीं ठोक दूंगा। जब देखो दूसरों के काम में टांग अड़ाना.......। राम राम करो मादरचोद नहीं तो उपर पहुंचा दूंगा......।’’
सभी लोग अवाक् खड़े थे। मन्न्न राय की आंखें जैसे अचानक भावशून्य हो गयी थीं। लोगों ने मन्नन राय के चेहरे की ओर देखा। वहां क्रोध का नामोनिशान नहीं था। फिर भी उन्हें लग रहा था कि वह फ़ुर्ती से सुनील के हाथ से तमंचा छीन लेंगे और उसे पीटते हुये घर ले जायेंगे। जो व्यक्ति चार-चार तमंचों को काबू कर सकता हो, उसके लिये एक सत्रह साल का दुबला-पतला लड़का और तमंचा क्या मायने रखते हैं। पर मन्नन राय जैसे शून्य में कहीं खो गये थे। उनके चेहरे पर पता नहीं कैसे अनजान भाव थे जिसे मुहल्ले वाले पहचान नहीं पा रहे थे।
सुनील बैग लेकर चल पड़ा तब भी मन्नन राय वैसे ही खड़े थे। लोगों ने स्पष्ट देखा था कि सुनील ने जब उनके उपर तमंचा ताना था तो तमंचे की नली उनकी कनपटी की तरफ़ सीधी नहीं थी बल्ेिक उनके सिर के इर्द-गिर्द रहने वाला आभामंडल उसकी ज़द में था। अब वह आभामंडल बिल्कुल विलुप्त हो गया था और वह लुटे-पिटे बड़े निरीह बुड्ढे लग रहे थे। रात अचानक और काली हो गयी थी और मन्नन राय के चेहरे पर उतर आयी थी। वह भौंचक खड़े उस रास्ते को देख रहे थे जिस पर सुनील गया था। कुछ लोग उनके कंधे पर हाथ रखकर सहला रहे थे कुछ पीठ। उन्हें पकड़ कर लोग चबूतरे पर वापस ले आये। वह कुछ बोल नही रहे थे। कुछ लोगों को उम्मीद थी कि अभी वह नीम गुस्से में हैं इसलिये कुछ बोल नहीं रहे हैं। गुस्सा संभलने के बाद ज़बरदस्त बनारसी गालियां देंगे और उस बद्तमीज़ लड़के के घर जाएंगे और......।
अचानक मन्नन राय उठ खड़े हुये। उनका रुख अपने घर की ओर था। लोग समझाने लगे।
’’ आप झूठे परेसान हो रहे हैं बाऊ साहब..........।’’
’’ कल सबेरे सुनीलवा के घर सब लोग चला जायेगा। रामजीत से बात किया जायेगा.......।’’
’’ बइठिये मन्नन भईया.......।’’
’’ बइठा यार मन्नन ........।’’
मगर वह न बैठे न रुके। धीमी चाल से वह अपने घर में घुसे और दरवाज़ा बंद कर लिया। लोग उनका यह रुख देखकर दुखी हुये। सबने चर्चा की कि मन्नन राय को बहुत दुख पहुंचा है और इसका निवारण यही है कि सुनील उनसे माफ़ी मांगे।
अगली सुबह जब सुनील के मां-बाप को यह घटना बतायी गयी तो वे आगबबूला हो उठे। लड़के की बेशर्मी से ज़्यादा दुख उन्हें मन्नन राय के अपमान का था। सुनील की बहुत लानत मलानत हुई और मुहल्ले के सभी बुज़ुर्ग लोग दोनों को लेकर माफ़ी मंगवाने मन्नन राय के घर पहुंचे। मुहल्ले में अफ़रा तफ़री मच गयी थी। जो सुनता, ज़माने को दोष देता।
मन्नन राय की दिनचर्या के अनुसार यह समय उनके नाश्ता कर चुकने के बाद डाक्टर साहब के यहां अख़बार पढ़ने का था पर वह अभी तक दिखायी नही दिये थे। लोगों ने दरवाज़ा खटखटाया तो वह अपने आप खुल गया। लोग एक अनजानी आशंका से भर उठे। हर कमरे की तलाशी ली गयी। मन्नन राय नहीं थे। हर सामान पहले की तरह व्यवस्थित था। मन्नन राय कहां चले गये ? किसी रिश्तेदार के यहां जाते तो कपड़े वगैरह ले कर जाते। सारे कपड़े, यहां तक कि उनका धारीदार जांघिया भी वहीं टंगा था। बिना कुछ लिये वह कहां जा सकते हैं.......खाली हाथ ? कुछ के दिमाग में आशंकाएं उभर रही थीं पर बोला कोई कुछ नहीं। सबको पता था कि बोलते ही बाकी सब कांवकांव करने लगेंगे-, ’’मन्नन राय कोई कायर कमज़ोर थोड़े ही हैं।’’
फिर वह गये कहां ? उनके जो थोड़े बहुत रिश्तेदार थे उनके यहां पता किया गया। वह वहां भी नहीं थे। उनके घर पर ताला लगा दिया गया है और पूरा मुहल्ला आंखें बिछाये इंतज़ार कर रहा है कि वह कब आते हैं। कुछ छंटइल बदमाश हैं जो ख़ाली मकान को हड़पने की फ़िराक़ में हैं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्हें डर है कि मन्नन राय आ गये तो हड्डी पसली ढूंढ़ें नहीं मिलेगी। उन्हें अभी भी याद है कि ’मन्नन राय गजब आदमी हैं।’ है किसी की मज़ाल जो ’थे’ का प्रयोग कर दे।
लेखक मन्नन राय का बहुत बड़ा भक्त रहा है और उनकी बहुत सी आदतें न पसंद होने के बावजूद उनकी गुमशुदगी पर चिंतित है। आप उनकी आदतों और उनके व्यक्तित्व की चीरफाड़ में तो नहीं उलझ गये ? उनका ज़बरदस्ती हर किसी के काम में नेता बनने की आदत और दकियानूसी और पिछड़ी सोच.....? आप किसी दूसरे रास्ते तो नहीं जा रहे ? इसीलिये लेखक ने शुरू में ही कहा था कि सबसे बड़ी समस्या मन्नन राय की गुमशुदगी है, यह वक्त उनके आग्रहों पर सोचने का नहीं है। लेखक ने भले उनकी जवानी न देखी हो, उनका गर्व से भरा माथा और तनी हुयी रोबीली चाल देखी है। हालांकि उस दिन से लेखक को यह अनुभव हुआ है कि हर मन्नन राय बुढ़ापे में ज़्यादा दिनों तक तना नहीं रहने दिया जाता। लेखक सड़कों पर घूमते समय सिर झुकाये किसी हताश और निरीह बूढ़े को देखता है तो दौड़ कर पास जाकर देखता है कि कहीं यह मन्नन राय तो नहीं। पर वह मन्नन राय अब तक नहीं मिले, हालांकि दूर से ज़्यादातर बूढ़े मन्नन राय ही लगते हैं, उस रात के बाद वाले मन्नन राय। लेखक ने पहचान के लिये कहानी के साथ मन्नन राय की तस्वीर भी संलग्न की है। इसके साथ संपादक से व्यक्तिगत रूप से संपादक से निवेदन भी किया है कि यदि इस समस्या को खालिस कहानी के रूप में छापें और चित्र छापना संभव न हो, तो उनका एक रेखाचित्र ज़रूर छापें। वैसे आपकी सुविधा के लिये मैंने पूरा हुलिया दे ही दिया है और अब तक तो आप मन्नन राय को पहचान ही गये होंगे। यदि किसी को भी मन्नन राय के विषय में कोई भी सूचना मिले तो कृपया लेखक के पते पर अविलम्ब संपर्क करें। उचित पारिश्रमिक भी दिया जायेगा।

कहानीकार- विमलचंद्र पाण्डेय

Saturday, September 13, 2008

रसभरी (किशोर प्रेम की कोमलांगी कहानी)

बहुत दिनों बाद इस शहर में रसभरी बिकती देखी। मैं कार चला रहा था, पत्नी व बच्चे भी साथ थे किसी उत्सव में शामिल होने जा रहे थे। रसभरी खरीदने खाने की इच्छा थी परन्तु पत्नी ने साज-सिंगार मे इतनी देर कर दी थी कि अगर मैं गाड़ी रोकता तो और देर हो जाती, इसलिये चाहकर भी गाड़ी नहीं रोक सका।
हालाँकि तथा-कथित अभिजात्य वर्ग में शामिल होकर, मशीनी जिन्दगी जीते-जीते, मैं भी इन सब्जियों-फलों को जो अक्सर गाँव-देहात या कस्बों में मिलती है, का स्वाद लगभग भूल ही चुका था। फिर भी मन में दबी रसभरी दो दिन से मेरे पीछे लगी थी। मैं अस्पताल आते-जाते उसी सड़क से तीन बार गुजर चुका था और हर बार मेरी निगाहें उस रेहड़ी वाले को ढूंढ़ती रही थीं, फल-सब्जी की दुकान पर भी पता किया पर रसभरी नहीं मिलीं।
आज अचानक दोपहर को अस्पताल से एक सीरियस मरीज़ देखने का बुलावा आने पर मैं अस्पताल जा रहा था कि वो रसभरी की रेहड़ी ठेलता हुआ सामने से आता दिखा। मैंने गाड़ी रोकी तब तक वह काफी दूर निकल गया था। आज तो मेरा बचपना मुझ पर हावी था, मैंने उसकी और दौड़ते हुए आवाज दी 'ओ! रसभरी!'
उसके लगभग दौड़ते पाँव थम गये। मैं उसके पास पहुंचा ही था कि उसने तराजू तान दी बोला 'कितनी'?
मैने बिना सोचे कहा 'आधा-किलो।'
उसने तोलकर कागज के लिफाफे में डालकर मुझे पकड़ाते हुए कहा 'बाइस रुपये'। मैंने पचास का नोट दे दिया। वह गल्ले से पैसे निकाल रहा था तो मैने पूछा 'रसभरी और कहीं नहीं मिली शहर में तुम कहां से लाते हो' उसने पैसे वापिस करते हुए कहा 'दिल्ली से' और चलता बना जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो। देखा तो वह रेहड़ी धकियाए काफी दूर जा चुका था।
अस्पताल से घर लौटने पर मरीज देखने के चक्कर में रसभरियों को भूल ही गया। रात सोने लगा तो अचानक याद आया तो मुहं से निकला 'अरे! मेरी गाड़ी में रसभरियां थी उनका क्या हुआ? पत्नी ने करवट बदलते हुए कहा 'नौकर ने निकालकर फ्रिज में रख दी होगी'।
हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।
मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।
पर आज रसभरी का फ्रिज में रखा जाना सुनकर मेरा दिल दहल गया था। क्या सचमुच रसभरी की लाश मिलेगी फ्रिज में? वितृष्णा सी होने लगी।
पर मैंने, भुलक्कड़ नौकर को धन्यवाद दिया, जब रसभरी का लिफाफा, रसोई की सिलपर रखा देखा।
लिफाफा उठाकर, वापिस बेडरूम में आ गया और लिफाफे से, निकालकर रसभरी मुँह में रखी। आ हा! क्या रस की फुहार फूटी मेरे मुँह में, अजीब सा मीठा खटास, ना नीम्बू, ना सन्तरा, ना आम, रसभरी का स्वाद, रसभरी खाये
बिना नहीं जाना जा सकता।
पत्नी ने मेरी और करवट लेकर कहा 'अरे! कम से कम, धो तो लेते।' अब उसे कौन समझाए कि ऐसे बाँगरू देहाती फलों को स्नान नहीं करवाया जाता? उनके ऊपर पड़ी धूल की परत का अपना स्वाद है, अपना आनन्द है।
मनुष्य की एक आदत बड़ी अजीब है। किसी को भूलता है तो ऐसे जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। याद करने पर आता है तो छोटी सी बात, छोटी सी घटना को उम्रभर कलेजे से लगाये-चिपकाए जीए चला जाता है।
रसभरी खाते-खाते मेरी एक पुरानी टीस जो यादों की सन्दूक में कहीं बहुत नीचे छुप-खो गई थी, उभर आई।
बचपन जिस कस्बे में बीता था, वह उस जमाने में फलों के बागों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। उस दिन से पहले मुझे रसभरी कभी अच्छी नहीं लगी थी जबकि घर-घर क्या कस्बे के अधिकांश लोग, रसभरियों के पीछे पागल थे और अनवर मियां के बाग की मोटी रसभरियां तो ऐसे बिकती थीं, जैसे कर्फ्यू के दिनों में दूध।
एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।
उस दिन चैम्बर वाली धर्मशाला के सामने वह रेहड़ीवाले से रसभरी तुलवा रही थी और साथ-साथ रसभरी छील-छीलकर खाती जा रही थी। उसने कल्फ लगा, कॉटन का सफेद स्कर्ट व सन्तरी रंग की टॉप पहन रखी थी, मुझे उसमें और रसभरी में एक अजीब समता लगी थी ।
वह मेरा पहला प्यार थी। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि मैने बहुत से प्यार किये हैं। वह यानी 'मेरा पहला प्यार' हमारे घर से थोड़ी दूर पर रहती थी। आपने रेलवे रोड़ पर सचदेवा जनरल स्टोर तो देखा होगा, जिसका गोरा-चिट्टा मालिक, बालों को खिज़ाब से रंगकर, पत्थर की प्रतिमा सा, काउंटर पर बैठा रहता था। उसके चेहरे के स्थितप्रज्ञ भाव केवल किसी खास अमीर ग्राहक के आने पर ही बदलते थे। वरना वह एक आँख से दुकान के नौकरों व दूसरी से सड़क पर अपना अबोल हुक्म चलाता प्रतीत होता था।
उसकी दुकान सबसे साफ-सुथरी व व्यवस्थित दुकान थी, हर चीज इतने करीने रखी सजी होती थी, दुकान के नौकर भी वर्दी पहने होते थे, इन सब बातों के होते आम ग्राहक तो डर के मारे दुकान पर चढ़ते ही नहीं थे।
उसी सचदेवा जनरल स्टोर के सामने एक होटल था, जी हाँ, सारे शहर में यही एक होटल था उन दिनों,बाकी सारे वैष्णो ढाबे थे। इस होटल के बाहर जालीदार छींके में मुर्गी के झक-सफेद अंडे टंगे रहते थे और शीशे के दरवाजे के भीतर हरी गद्दियों वाली कुर्सीयां, लाल रंग के मेजपोशों वाली मेजों के साथ लगी दिखती थी। कुल मिलाकर हमें वह फिल्मों वाला नजारा लगता था। मुझे बहुत बाद मालूम हुआ कि वह होटल नहीं, रेस्तराँ था। पर तब वह शहर का एक मात्र होटल था जहाँ सामिष भोजन मिलता था।
वह इसी होटल के ऊपर रहती थी। मैं तब दसवीं कक्षा में पढ़ता था, नई-नई मसें भीगीं थी। मन में एक अजीब हलचल रहने लगी थी, जिन लड़कियों को मैं पहले घास भी नहीं डालता था अब उन्हें नजर चुराकर देखना मुझे अच्छा लगने लगा था। उन्हीं दिनों मैंने भाटिया वीर पुस्तक भँडार से किराये पर लेकर चन्द्रकान्ता व चंद दीगर जासूसी उपन्यास पढ़ डाले थे।
मुझे वह चंद्रकान्ता लगने लगी थी। उसकी चाल में एक अजीब मादकता थी, मैं उसकी एक झलक पाने के लिये बिना बात बाजार के चक्कर लगाने लगा था, तथा जब वह रसभरी खरीदकर, अपने चौबारे चढ़ जाती थी, तो मैं रेहड़ी से रसभरी लेने पहुँच जाता था। रसभरी अब मुझे सभी फलों से अच्छी लगने लगी थी। पर मुसीबत यह थी कि रसभरी साल में दो तीन महीने आती थी।
वह कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? मुझे पता नहीं था, पर उसे रिक्शा में पढ़ने जाते देखना, मेरा रोज का काम हो गया था, हमारे मुहल्ले की इस उम्र की लड़कियों ने या तो पढ़ना छोड़ दिया था या उनका पढ़ना छुड़वा दिया गया था और वे घर-घुस्सू हो गई थीं। पर यह लड़की रिफ्यूजी याने पाकिस्तान से विस्थापित थी। और इन रिफ्यूजियों मे एक खास खुलापन था। वह रिकशा में ऐसे बैठती थी, जैसे कोई रानी रत्न-जड़ित रथ पर या कोई मेम विक्टोरिया में बैठी हो। सचदेवों का बड़ा लड़का सुरेन्द्र, मेरे साथ पढ़ता था, वह शाम को कभी-कभार अपनी दुकान पर बैठ जाता था, मैंने उसे अक्सर सुरेन्द्र से बातें करते देखा था, मैं उसका नाम भी नहीं जानता था, पर शर्म के मारे सुरेन्द्र से भी नहीं पूछ पाया था। वैसे भी सुरेन्द्र शोहदों की टोली में था और मैं किताबचियों की टोली में।
शायद अब उसे भी पता चल गया था कि मैं उसे देखता रहता हूँ। अब वह भी कभी-कभी पलट कर मुझे देखने लगी थी। एक दिन मैं, रेलवे-क्रासिंग बन्द होने के कारण, फाटक के बाजू में पैदल-यात्रियों हेतु बने चरखड़े से, साइकिल निकाल रहा था, कि वह भी दूसरी और से उसमें से निकलने लगी। हमारी नजरें मिलीं, एक पहचान पल-भर के लिये कौंधी। फिर वह, मेरे हाथ पर हाथ रख कर चरखड़े से निकल गई। मैं सुन्न खड़ा रह गया था, उस छुअन के अहसास से। अगर पी़छे आता राहगीर मुझे न धकियाता, तो शायद मैं उम्र-भर वहीं खड़ा रह जाता।
मैं वहाँ से चला तो गुनगुनाने लगा था 'हम उनके दामन को छूकर आये हैं,हमें फूलों से तोलिये साहिब'।
अनेकों बार सूंघा था मैंने अपने उस हाथ को। मैंने तो अपने उस हाथ को चूमना भी चाहा था, पर मैं यह सोचकर नहीं चूम सका कि वह यह जानकर नाराज न हो जाये। आज उन बचकानी बातों को सोचकर हँसी आती है।
हमारी नजरें मिलने का सिलसिला लगभग दो साल चला। वह सामने से आती दिखती तो मैं जान-बूझकर आहिस्ता चलने लगता कि उसे ज्यादा देर तक देख सकूं। वह भी मौका मिलते ही मुड़-मुड़कर मुझे देखती तथा किसी के आ जाने पर अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देती जैसे अपनी जुल्फें सँभाल रही हो।
एक बार तो पीछे मुड़कर देखते हुए वह मुस्कराई भी थी। उस वक़्त उसकी साफ-शफ़्फ़ाक बिल्लोरी आँखों मे एक चमक थी, एक पहचान थी, एक राज़ था, एक साझेदारी थी और भी जाने क्या-क्या था, शायद प्यार भी था। मुझपर कई दिन, एक अजीब सा नशा छाया रहा। फिर मुझे मेडिकल ऐन्ट्रेंस टेस्ट देने पटियाला जाना पड़ा। तीन दिन बाद ही लौट पाया था।
ट्रेन रात को पहुँच। स्टेशन से मेरे घर का छोटा रास्ता दूसरा था पर मै उसके घर की तरफ से लौट रहा था । उसके घर में एक कमरे की बत्ती जल रही थी, मैं खड़ा हो गया। मैं वहीं खड़ा उस खिड़की को देखने लगा। बाजार के चौकीदार के टोकने पर ही घर गया था।
उस रात के बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दी। वह घर भी बन्द रहने लगा। मैं जाने क्यों उदास रहने लगा। वक़्त मेरी उदासी से बेखबर अपनी रफ़्तार से चलता गया।
एक दिन मैंने देखा कि डाकिया उसके घर की सीढीयां चढ़ रहा था। फिर उसने एक खत उनके बरमदे में फेंक दिया और चलता बना। मैं शाम होने पर, सीढियों पर चढ़कर बरामदे में पहुँचा, वहाँ बेंत की दो टूटी कुर्सियां पड़ी थीं। पर खत शायद हवा उड़ा ले गई थी। एक कुर्सी पर एक छोटा सा चिथड़ा सा पड़ा था, उठाकर देखा तो वह एक जनाना रुमाल था। अनजाने में, मैं उसे सूंघ बैठा; मुझे उसमें वही गंध महसूस हुई, जो उसके छूने पर अपने हाथ मे आई थी।
हालांकि वह रुमाल किसी और का भी हो सकता था। पर तब मुझे यकीन था कि वह उसी का है। उस रुमाल पर लाल व हरे रंग का फूल काढ़ा हुआ था। मैंने उसे अपनी किताब ग्रे'ज अनाटमी में रख लिया था। अनाट्मी का कोर्स खत्म होने पर भी मैने वह किताब नहीं बेची, हालांकि कई बार मुझे पैसे की किल्लत भी हुई थी।
बरस पर बरस बीतते गये। यादों के आइने पर वक़्त की धूल की परत चढ़ गई और उसकी याद भी उसी की तरह खो गई थी। आज अगर रसभरी न खरीदता, खाता तो बचपन के मीठे कसैले, अतृप्त, असफल, अधूरे प्रेम की याद कैसे आती।

--डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

Friday, September 5, 2008

शिक्षक-दिवस पर चार संस्मरण

हिन्द-युग्म शिक्षक दिवस पर रचनाकारों से विभिन्न विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित किया था। कहानी-कलश पर ही कल हमने डॉ॰ शीला सिंह का संस्मरण 'है नमन उनको' और प्रेमचंद सहजवाला की संस्मरणात्मक कहानी 'वह एक दिन' प्रकाशित किया था। ढेरों प्रस्तुतियाँ मुखपृष्ठ पर उपलब्ध हैं। अभी हम कुछ कलमकारों की अपने गुरुओं से जुड़ी यादें लेकर आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।



मिसाल- शिक्षक हो तो ऐसे हो
प्रस्तुति- विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'

शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या

मैं अपने पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव माँ श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के साथ जब भी कहीं जाता तो मैं तब आश्चर्य चकित रह जाता , जब मैं देखता कि अचानक ही कोई युवती , कभी कोई प्रौढ़ा ,कोई सुस्संकृत पुरुष आकर श्रद्धा से उनके चरणस्पर्श करता है .सर /मैम, आपने मुझे पहचाना ? आपने मुझे फलां फलां जगह , अमुक तमुक साल में पढ़ाया था ....!प्रायः महिलाओ में उम्र के सा्थ हुये व्यापक शारीरिक परिवर्तन के चलते माँ अपनी शिष्या को पहचान नहीं पाती थी , पर वह महिला बताती कि कैसे उसके जीवन में यादगार परिवर्तन माँ या पिताजी के कठोर अनुशासन अथवा उच्च गुणवत्ता की सलाह या श्रेष्ठ शिक्षा के कारण हुआ .... वे लोग पुरानी यादों में खो जाते . ऐसे १, २ नहीं अनेक संस्मरण मेरे सामने घटे हैं .कभी किसी कार्यालय में किसी काम से जब मैं पिताजी के साथ गया तो अचानक ही कोई अपरिचित पिताजी के पास आता और कहता , सर आप बैठिये , मैं काम करवा कर लाता हूँ ...वह पिताजी का शिष्य होता .

१९५१ में जब मण्डला जैसे छोटे स्थान में मम्मी पापा का विवाह लखनऊ में हुआ , पढ़ी लिखी बहू मण्डला आई तो , दादी बताती थी कि मण्डला में लोगो के लिये इतनी दूर शादी , वह भी पढ़ी लिखी लड़की से ,यह एक किंचित अचरज की बात थी .उपर से जब जल्दी ही मम्मी पापा ने विवाह के बाद भी अपनी उच्च शिक्षा जारी रखी तब तो यह रिश्तेदारो के लिये भी बहुत सरलता से पचने जैसी बात नहीं थी . फिर अगला बमबार्डमेंट तब हुआ जब माँ ने शिक्षा विभाग में नौकरी शुरू की . हमारे घर को एतिहासिक महत्व के कारण महलात कहा जाता है , "महलात" की बहू को मोहल्ले की महिलाये आश्चर्य से देखती थीं . उन दिनों स्त्री शिक्षा , नारी मुक्ति की दशा की समाज में विशेष रूप से मण्डला जैसे छोटे स्थानो में कोई कल्पना की जा सकती है . यह सब असहज था .

अनेकानेक सामाजिक , पारिवारिक , तथा आर्थिक संघर्षों के साथ माँ व पिताजी ने मिसाल कायम करते हुये नागपुर विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेज्युएशन तक की पढ़ाई स्व अध्याय से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में साथ साथ बेहतरीन अंको के साथ पास की . तब सीपी एण्ड बरार राज्य था , वहाँ हिन्दी शिक्षक के रूप में नौकरी करते हुये , घर पर छोटे भाईयों की शिक्षा के लिये रुपये भैजते हुये , स्वयं पढ़ना , व अपना घर चलाना , तब तक मेरी बड़ी बहन का जन्म भी हो चुका था , सचमुच मम्मी पापा की परस्पर समर्पण , प्यार व कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति , ढ़ृड़ निश्चय का ही परिणाम था .मां बताती थी कि एक बार विश्वविद्यालय की परीक्षा फीस भरने के लिये उन्होंने व पापा ने तीन रातो में लगातार जागकर संस्कृत की हाईस्कूल की टैक्सट बुक की गाईड लिखी थी, प्रकाशक से मिली राशि से फीस भरी गई थी ...सोचता हूँ इतनी जिजिविषा हममें क्यों नहीं ... प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय तत्कालीन पीएसएम से , साथ साथ बी.टी का प्रशिक्षण फिर म.प्र. लोक सेवा आयोग से चयन के बाद म.प्र. शिक्षा विभाग में व्याख्याता के रूप में नौकरी ....मम्मी पापा की जिंदगी जैसे किसी उपन्यास के पन्ने हैं .... अनेक प्रेरक संघर्षपूर्ण , कारुणिक प्रसंगों की चर्चा वे करते हैं , "गाड हैल्पस दोज हू हैल्प देम सेल्फ".आत्मप्रवंचना से कोसो दूर , कट्टरता तक अपने उसूलों के पक्के , सतत स्वाध्याय में निरत वे सैल्फमेड हैं ..

जीवन में जितने व्यैक्तिक व सामाजिक परिवर्तन मां पिताजी ने देखे अनुभव किये हैं , बिरलों को ही नसीब होते हैं . उन्होंने आजादी का आंदोलन जिया है . लालटेन से बिजली का बसंत देखा है , हरकारे से इंटरनेट से चैटिग के संवाद युग परिवर्तन के वे गवाह हैं ... , शिक्षा के व्यवसायीकरण की विडम्बना , समाज में नैतिक मूल्यों का व्यापक ह्रास , भौतिकवाद , पाश्चात्य अंधानुकरण यह सब भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देखना उनकी पीढ़ी की विवशता है जिस पर उनका क्षोभ स्वाभाविक ही है ....

तमाम कठिनाईयों के बाद भी न केवल मम्मी पापा ने अपना स्वयं का जीवन आदर्श बनाया वरन हमारे लिये एक उर्वरा पृष्ठभूमि तैयार कर दी . हमारे लिये ही क्या, जो भी उनके संपर्क में आता गया छात्रो के रूप में , परिवार में या समाज में ,सबको उन्होंने एक आदर्श राह बतलाई है . आज भी हमारे बच्चो के लिये पिताजी प्रेरक दिशादर्शक हैं . हमारे परिवार की आज की सुढ़ृड़ता के पीछे माँ का जीवन पर्यंत संघर्ष है . स्वयं नौकरी करते हुये अनेक बार पिताजी का अंयत्र स्थानातरण हो जाने पर मुझे , मेरी दीदी तथा दो छोटी बहनों को सुशिक्षित करना माँ , पापा की असाधरण तपस्या का ही प्रतिफल है .मुझे लगता है कि कितने पुष्प प्रफुल्लित होते देख न हम जिनको पाते .... माता पिता के रूप में भी एक आदर्श शिक्षक की भूमिका का निरंतर निर्वहन मम्मी पापा ने किया है .

पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव विदग्ध शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से सेवानिवृत हुये . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमाँक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं . वतन को नमन , अनुगुंजन , ईशाराधन , जैसी अनेको पुस्तको के लेखक, महाकवि कालिदास कृत रघुवंश व मेघदूतम का श्लोकशः अनुवाद उन्होने गेय छंदो में किया है . शिक्षण में नवाचार व अन्य शैक्षणिक विषयो पर कई किताबें उन्होने लिखी है . कई पत्र पत्रिकाओ का संपादन किया है . अनेक संस्थाओ ने उन्हें समय समय पर ढ़ेरों सम्मान दिये .रिटायरमेंट के बाद भी भारतीय यूनिट ट्रस्ट के माध्यम से पिताजी ने अनेक युवको को मण्डला में रोजगार के अवसर दिये , रेडक्रास में , पं . बाबूलाल कमेटी के अध्यक्ष के रुप में, अनेकानेक सामाजिक संस्थाओ में वे सतत सक्रिय हैं .

वर्तमान परिवेश में शिक्षा शासकीय क्षेत्र से हटकर निजि क्षेत्र में एक व्यवसाय के रूप में स्थापित होती जा रही है , इस कारण एवं शिक्षकों के आचरण की शुचिता में कमी के चलते गुरुओ के प्रति छात्रो की कृतज्ञता समाप्त प्राय है .ऐसे समय में मैं शिक्षक दिवस पर अपने समस्त शिक्षकों के प्रति अपनी
आदरांजली अर्पित करते हुये,अपने पूज्य माता पिता शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या के जीवन वृत को देख मैं यही दोहराना चाहता हूँ ,शिक्षक हो तो ऐसे हो ......



कुछ यादें तपन की कलम से

शिक्षक दिवस पर अन्य प्रस्तुतियाँ

यूँ तो हर टीचर से मुझे सीखने को मिला। सभी ने अच्छा पढ़ाया, इस काबिल बनाया कि इंजीनियर बन सकूँ। बहुत मुश्किल हो जाता है चुनना तब, जब हर कोई आपको समान लगता हो। पर फिर भी दो ऐसे शिक्षक जिनका मेरे जीवन पर निस्संदेह प्रभाव पड़ा है। मेरी हिन्दी शुरू में बहुत कमजोर थी। मात्राओं का ज्ञान न के बराबर था और हिन्दी की कॉपी में सिवाय लाल रंग के कुछ नहीं होता था। पाँचवीं कक्षा में छाया गुप्ता नाम की शिक्षिका हमारी हिन्दी की अध्यापिका थीं। उनके पढ़ाने के तरीके ने मुझ पर प्रभाव डाला। मात्राओं का ज्ञान भी हुआ और मुझे पूरी वर्णमाला भी याद हो गई। मुझे गर्व है कि मैं उन चंद लोगों में से हूँ जिन्हें वर्णमाला याद है। ये उन्हीं की पढ़ाई का नतीजा रहा जो हिन्दी भाषा के प्रति मेरा सदैव लगाव रहा। हालाँकि इस लगाव के पीछे पारिवारिक कारण भी शामिल है किन्तु हिन्दी का ज्ञान तो उन्हीं से मिला।

दूसरे शिक्षक थे नवीं तथा दसवीं में संस्कृत के अध्यापक श्री राम गोपाल। कहते हैं हमें अपना कुछ समय ६ साल से छोटे बच्चे और ६५-७० वर्ष के बुजुर्ग के साथ बिताना चाहिये। उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। संस्कृत के श्लोक इतने अच्छे तरीके से सिखाते थे कि आज भी याद आते हैं। हर श्लोक पर पूरा पीरियड निकाल जाते थे। और भी पढ़ा सकते थे, पर कोर्स भी तो पूरा करवाना होता था। वे ज्ञान का भंडार थे। एक बार यदि को उनसे श्लोक का मतलब पूछ ले तो भूल पाना नामुमकिन था। बोर्ड के पेपर से ‍‍६ महीने पहले ही उन्होंने कह दिया था कि मेरे शत प्रतिशत नम्बर आयेंगे, और आये भी पूरे १००। मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं। हर साल शिक्षक दिवस के मौके पर उन्हें याद कर लिया करता हूँ। काश वे आज..


श्रद्धासुमन
प्रस्तुति--कमलप्रीत सिंह

कोई चालीस एक साल पहले की बात है . उन दिनों मैं मिशन हायर सेकंडरी स्कूल नसीराबाद (राजस्थान) में छठी कक्षा का छात्र था .हमारे एक शिक्षक श्री ई सेमसन थे जो हमें अंग्रेजी,गणित और सामजिक ज्ञान पढाया करते थे पूरे मनोयोग से विषयों को रुचिकर बना कर पढाने में सिध्ह्हस्त थे .
जब कभी भी मासिक परीक्षाएं होतीं और अधिकतर बच्चों के अंक कम आते तो पूरी कक्षा के सामने बड़े ही सरल भाव से हो चुके पर खेद प्रकट करते हुए प्रेरणा के दो शब्द कहते और हम बच्चों की आँखें उन्हें सुनते सुनते डबडबा आतीं और हम सभी लगभग रो देते . हम मन ही मन कुछ बेहतर कुछ अच्छा करने की ठानते और करते भी . एक भली बात यह थी की पढाये जाने वाले विषयों के अतिरिक्त चित्रकला से उन्हें विशेष लगाव था वह घंटों बैठे कला की साधना किया करते . कभी स्केच , कभी पेंटिंग्स तो कभी बहुत ही सुंदर व्यक्ति चित्र बनाते. मैंने महीनों उन्हें बड़े करीब से ये सब करते बनाते देखा है जिसके लिए इनकी कोई भी अपेक्षा नहीं रही ,कुछ नहीं चाहा .मैंने उन से बहुत कुछ ग्रहण करने का प्रयास किया .अंगूठे और अंगुलिओं के बढे हुए नखों से चाक को कुरेद कुरेद कर उस पर गुरुदेव रवींद्र का चेहरा तराशना , मोटे कार्ड जैसे कागज़ पर पेंसिल से हल्की सी चेहरे की आकृति बना कर उसे नाखूनों से उकेरना उन्हें भला लगता . संगीत के क्षेत्र में भी उनका विशेष दखल था .बड़ा ही सुंदर स्वर पाया था .उनके द्वारा प्रस्तुत गीत संगीत के संगम को सुनते तो भाव विभोर हो उठते . इन सभी गुणों के धनी हमारे गुरूजी एक सरल ह्रदय के स्वामी और भाव विवेक वाले व्यक्ति थे मेरे आदर्श बन गए थे वे आज भी मेरे व्यक्तित्व के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं और रहेंगे भी .दो वर्ष पूर्व ही उन से मिलने जाने पर उन के इस संसार में न रहने का शोक संदेश मिला.मन बहुत व्यथित हुआ .आज के इस शुभ दिन उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने का यह सुअवसर मैं खोना नहीं चाहता


शिक्षक दिवस से जुडी यादें
प्रस्तुति- बज्मी नकवी, कानपूर

ज़िन्दगी चलते रहने का नाम है और जीवन की इसी तेज़ रफ़्तार में कितने ही अच्छे बुरे अनुभव होते हैं लेकिन उनमे से कुछ आदमी भुला देता है और कुछ ज़िन्दगी भर याद रहते हैं. आज teachers day के मौके पर मुझे एक ऐसा ही मसीहा याद आ रहा है जो ज़िन्दगी में हर वक़्त याद आया.. कहने को तो वो अध्यापक था लेकिन असल में वो ठंडी छाव था.... मुझे याद है मैं हाई स्कूल का छात्र था.... जुलाई के महीने में मेरा पूरा परिवार कानपुर से बाहर था, अचानक मुझे एक दिन तेज़ फीवर हुआ और मैं अचानक बेहोश हो गया.. इस स्थिति में मैं अकेला था ......... मुझे २० दिन के बाद संजय गाँधी हॉस्पिटल में होश आया तो मेरे आस पास पूरी फॅमिली थी.... मुझे पता चला कि मेरे अध्यापक मुक्तिदा हुसैन मुझे हॉस्पिटल लाये थे जहाँ मेरे इलाज में पूरे ४ चार लाख रुपये उन्होंने अपनी पत्नी के गहने बेच कर ये रक़म इकट्ठी की थी... doctors के मुताबिक मैं अगर ठीक टाइम पर हॉस्पिटल न पहुँचता तो मैं इस दुनिया में नहीं होता....
ऐसे शिक्षक को शत-शत नमन.....
इस घटना को बरसों बीत गए ..............वोह जवान आदर्श देवता सा मानव अब बूढा हो चला है लेकिन अगर कभी मैंने उनका शुक्रिया अदा करना चाहा तो उसने पूरी सख्ती से झिड़क दिया कैसा आदमी था वो जो इस दुनिया में रहकर भी एहसान जताने से दूर है ............ मुझे हर मौके पर वोह याद आता है कभी डांटता कभी प्यार करता ऐसे सच्चे इंसान को आज teachers day पर लाखों सलाम


Thursday, September 4, 2008

वह एक दिन...(संस्मरणात्मक कहानी)

शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य पर हम तमाम विधाओं पर रचनाएँ प्रकाशित कर रहे हैं। आज सुबह ही हमने डॉ॰ शीला सिंह का संस्मरण 'नमन है उनको' प्रकाशित किया था। हिन्द-युग्म पर अन्य-विधाओं भी में बहुत सी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं (यहाँ देखें)। आज ही आवाज़ ने प्रेमचंद की कहानी 'प्रेरणा' को प्रसारित किया है, जो एक गुरू और शिष्य की ही कहानी है। अब पढ़िए प्रेमचंद सहजवाला की संस्मरणात्मक कहानी॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰



मुंबई से लोकल पकडो तो लगभग चालीस मिनट बाद एक स्टेशन आता है - उल्हास नगर. . आजकल वह एक महानगर जैसा है जिसमें करोड़पति व्यापारी तक रहते हैं. पर जिस ज़माने की मैं बात कर रहा हूँ उस ज़माने वह सिंध से आए हुए शरणार्थियों का एक शिविर मात्र था. छोटे छोटे, माचिस के डिब्बिया जितने घर जिनमें दस-दस बीस बीस प्राणी कैसे रहते होंगे, यह सहज ही कल्पना की जा सकती है. गरीबी घर घर में एक सदस्य की तरह रहती थी. औरतें हर समय आंसू बहाती थी और पुरूष हर समय नौकरी के लिए दिन भर धक्के खाते थे. रिफ्यूजी बैरकों में बारह बारह घर होते थे और रात को जब इतने बड़े बड़े परिवार बैरकों के बाहर चारपाइयाँ डाल सोते थे, तो लगता बाढ़-वाढ़ से पीडितों का एक लावारिस समूह सा है. अलबत्ता कई बार चांदनी का भरपूर मज़ा ले कर आपस में हंसने खुश होने के बहाने सब ढूंढ लेते थे. कभी तो बड़ी बड़ी उम्र की औरतें भी कोई सामूहिक गीत गा कर या कहानी कह कर सोने जाती थी. बच्चे, जब तक माएं काम से फारिग हो कर बाहर चारपाइयों पर आयें, तब तक बिस्तरों पर ऊधम मचाते, कलाबाजियां करते और खिलखिलाते.
ऐसे में शिक्षा का क्या हाल होगा, यह भी समझा जा सकता है. मैं एक नगर निगम के स्कूल में पहली में दाखिल हुआ, जहाँ मास्टर दो चार बातें पढ़ा कर दरवाज़े पर बीडी पीने बैठ जाता था और रविवार को किसी न किसी क्लास को नज़दीक ही बने अपने घर में बुला लेता था. घर क्या था एक बड़े और फटीचर से हॉल में टाट की बोरियों से पार्टीशन बने होते थे और वह खुश हो कर हमेशा कहता था - मेरे घर में कुल छप्पन लोग हैं. यानी सात भाई उनके के बेटे बहुएं और बेटों के उतने ही बड़े बड़े कुनबे और उन मास्टर जी के पिता. पिता वृद्ध थे सो रोज़ एक रजिस्टर ले कर कोई न कोई टाट हटा कर अन्दर बैठी बहुओं का सिर खाते. किस बच्चे ने नहा लिया, किस ने अभी नहीं नहाया और किस ने नाश्ता कर लिया, किसको अभी करना है, इस सब की attendance सी लगाते . हम बच्चे सोचते की मास्टर जी कुछ मीठा खिलाएंगे और हम सब कुछ खेल कूद कर घर लौटेंगे . पर मास्टर सब बच्चों को सेवा का मूल्य बता कर कुछ प्लेटें या थालियाँ पकड़ा देता . बाहर दो तीन नगर निगम के नल्के दिखा देते और हम उन गंदी प्लेटों को रगड़ रगड़ कर धोते और एक दूसरे से प्रतियोगिता करते. मास्टर शाब्बास देता और आख़िर में जो सेऊ बांटता उसके बहुत कम हिस्से का नमकीनपन मुंह को महसूस होता..

चौथी पास की तो एक और स्कूल में गए. यहाँ एक बड़े से वर्गाकार हॉल में, जिसे लोग 'कांग्रेस ऑफिस' कहते थे, में लकड़ी की पार्टीशन लगा कर कई कक्षाएं बनाई गई थी. रिसेस के समय ऐसे लगता जैसे खतरनाक बाढ़ आयी नदी का पानी ज़ोर ज़ोर से बह रहा है. बहुत असहनीय सा शोर होता. सुबह सब से बीच वाले पार्टिशनों के बीच खड़ा वाइस-प्रिंसिपल कर्कश आवाज़ में प्रार्थना करवाता - वंदे.. मा..तरम. उस के पीछे पाँच सौ बच्चों की आवाज़ गूंजती. वंदे... मा...तरम. बाहर साइकलों पर आते जाते लोगों को भी पता चलता, प्रार्थना हो रही है. अंत में वाइस- प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - ज...य हिंद. सब को चिल्ला कर कहना होता - ज...य हिंद. तीन बार यह करना पड़ता. यदि किसी बच्चे ने क्रम तोड़ दिया और बीच में ही बोल पड़ा - जय हिंद, तब वाइस-प्रिंसिपल चिल्ला कर कहता - इस लड़के को मेरे पास भेजो. अन्दर खड़ा मास्टर या मास्टरनी उसे बाहर भेज देती. लड़का क्लास से बाहर ऐसे निकलता जैसे शहीद होने जा रहा हो...

एक मास्टर थे, वह दूसरों की तुलना में इतने जालिम थे की उन का नाम लड़कों-लड़कियों ने रख दिया यमराज. खूब पीटते. हिन्दी और सामाजिक ज्ञान पढाते. बड़ी आयु के थे. नाम था शीतल दास और स्वाभाव से बेहद गरम. क्लास में घुमते तो बच्चों की हालत अच्छी न होती. बेहद भयभीत से रहते. कभी कभी अचानक टेस्ट लेते. कर्कश आवाज़ में प्रश्न पूछते - घोड़ा का बहुवचन?

लड़का स्त्रीलिंग-पुल्लिंग याद कर के आया होता. फ़ौरन जवाब देता - घोडी.

लड़के की कमीज़ का कॉलर मास्टर के खूंखार पंजे में आ जाता. लड़के का फंसा हुआ चेहरा नीचे, ज़मीन की तरफ़ डूबता जाता, जब तक कि उसकी नाक ज़मीन न सूंघ रही हो. मास्टर की लात उस की कमान की तरह मुडी हुई पीठ पर पड़ती.

लड़कियों को वे मास्टर नहीं मारते थे. पर लडकी को सामने खड़ा कर के ऐसी झाड़ पिलाते कि लड़की की घिग्घी बंध जाती. रिसेस या छुट्टी में उस की सहेलियां उससे कुछ ज़बरदस्ती बुलवाती और मूड ठीक करने की कोशिश करती. लडकी फूट फूट कर रो पड़ती. वैसे हाथ तो कमोबेश सभी अध्यापक चलाते थे, कुछ अध्यापिकाएं भी कुछ कम गरम-मिजाज नहीं थी, पर इन मास्टर शीतल दास से तो अध्यापकों को भी नफरत थी. कुछ अध्यापिकाओं ने लड़कियों की तरफदारी कर के उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि बहुत घबरा जाती हैं. पर मास्टर बुजुर्ग थे और बेहद क्रूर भी तो थे. सलेटी बाल दो असमान हिस्सों में बँटे और आंखों पर मोटे मोटे शीशों वाला उनके जितना ही निर्मम सा चश्मा. चेहरे और नाक की चमड़ी खुरदरी सी. अध्यापिकाओं में से एक दो युवा अध्यापिकाओं को भी ऐसी झाड़ पिला दी की फ़िर उन के सामने कोई न बोल सकी

शीतल दास में किसी भी किस्म का रहमो-करम हो, ऐसा कभी नहीं लगता था. स्कूल में युवा अध्यापक थे, तो सातवीं आठवीं की कुछ सुंदर लड़कियां भी. पर ज़माना इतना आधुनिक नहीं था कि बातचीत की स्वतंत्रता हो या कोई किस्सा सुनने को मिले. पर एक दिन देखें तो क्या होता है. एक नौजवान मास्टर हैं, रिसेस के बाद आते हैं तो देखते हैं कि क्लास में अभी केवल एक लडकी आयी है. मास्टर उस सुंदर लडकी को देख अपने चरित्र से गिर जाते हैं . लड़की को किसी बहाने पास बुलाया. और.. बस उस के गाल को चूम लिया और झट से कुर्सी पर बैठ गए. लड़की स्तब्ध सी थी. ऐसा कभी हुआ नहीं. बाकी विद्यार्थी आ गए. पर वह किसी से कुछ बोली नहीं. चुपचाप सब पीरियड पढ़ती रही. स्कूल में छुट्टी भी हो गई. मास्टर को उस क्लास में या बाद में अन्य क्लासों को पढाते समय कुछ धुकधुकी सी ज़रूर हुई होगी. पर छुट्टी तक कुछ न हुआ तो उस का डर जाता रहा. प्रिंसिपल और वाइस-प्रिंसिपल वाले पार्टीशन के साथ वाले पार्टीशन में बैठे सभी अध्यापक-अध्यापिकाएं कॉपियाँ चेक करने लग गए. उस से साथ वाली पार्टीशन में गुस्सैल सा पढने का चश्मा लगाये शीतल दास . कुछ देर सन्नाटा सा लगता है. अचानक एक नौजवान आता है. पूछता है - मास्टर गोपाल कौन से हैं?

सब की गर्दन मास्टर गोपाल की तरफ़ उठ गई.

वह लड़का कॉलर से पकड़ कर गोपाल मास्टर को घसीटना शुरू कर देता है. देखते देखते सात लड़के और आ जाते हैं. गोपाल को बाहर घसीट दिया जाता है. पार्टिशनों के बीच उनकी धुनाई शुरू हो जाती है. सब के सब सकते में आ जाते हैं. मास्टर को खीच कर एक दीवार से उन का सर पटका जाता है. लड़का उसी लड़की का भाई है, जिस लडकी से ये लड़के कह रहे हैं, मास्टर ने बदतमीजी की है. गोपाल हाथ जोड़ते हैं, रोते हैं. उन की नाक से खून बह रहा है. सब को लगता है, कुछ करना चाहिए. अपराध की काफ़ी सज़ा पा गए गोपाल मास्टर. प्रिंसिपल के पास जाते हैं सब. प्रिंसिपल लाचार है. वाइस-प्रिंसिपल जो सुबह प्रार्थना में गलती होने पर खूब हाथ जमाते हैं, वे किसी बहाने बाहर चले गए हैं.

सब का ध्यान शीतल दास वाले कमरे में जाता है. सब से तेज़ हैं, बोलने में भी कर्कश. लड़कों को झाड़ भी देंगे , समझा भी देंगे . सब उन के सामने बेबस से खड़े हो जाते हैं - कुछ कीजिये. गोपाल बहुत पिट गए हैं.

शीतल दास निस्पंद से सब पर अपनी नज़र टिकाते हैं. धीमे धीमे कहते हैं, जैसे ख़ुद से कह रहे हों - गोपाल ने बदमाशी की है, मैं क्या करूँ?

समय बदलते देर नहीं लगती. मास्टर शीतल दास बुजुर्ग थे. सिंध से विभाजन के समय आए थे. लड़कियां और अध्यापिकाएं कभी कभी उन के बारे में बातें करते हुए कहती थी - तीन बहुएं हैं, एक तो मायके भाग गई है.

-क्यों क्यों?

-क्यों कि ससुर जो यमराज है ऐ नादान लडकी.

बहरहाल. एक दिन सब कुछ बदल सा जाता है. हम सब बाहर मैदान में प्रार्थना कर रहे थे उस दिन. कभी कभी प्रिंसिपल अच्छे मौसम में बाहर बने एक ऊबड़-खाबड़ से मैदान में प्रार्थना करने भेज देते थे. वाइस-प्रिंसिपल उस दिन आए नहीं थे. एक मास्टर दयालदास प्रार्थना करवा रहे थे. प्रार्थना पूरी होती है. प्रार्थना के दौरान ही हम ने देखा, एक बाहर का व्यक्ति जिस ने कमीज़ और मैला सा पजामा पहन रखा था, उसने मास्टर दयालदास के कान में न जाने क्या कहा था. प्रार्थना पूरी हुई. हम आदेश का इंतज़ार कर रहे थे कि लाइनों में अपनी अपनी कक्षा में जायें. पर मास्टर दयालदास जिन के पाजामे का नाड़ा कई बार कुर्ते से बाहर लटक कर नज़र आने लगता था, उस ने सब को रोक कर कहा - बहुत अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि ... और उस की बात आगे आ कर एक अध्यापिका ने पूरी की -कि मास्टर शीतलदास का ...

और बात पूरी करते करते उस अध्यापिका के चेहरे पर रंग-ढंग इतनी तेज़ी से बदले मानो उसे समझ ही न आ रहा हो कि अब ऐसे क्षण उसे अपना चेहरा कैसा बनाना चाहिए. पल भर में उस मैदान का दृश्य ही बदल गया. मास्टर लोग आपस में कुछ सलाह-मशविरा करने लग गए और लड़कों की तो हालत ही ख़राब थी. एक लड़का अचानक दोनों बाहें खोल कर हवाई जहाज़ सा बना कर खुशी में मारे उड़ने सा लगा - हा हा हा हा हा .. मर गया मास्ट ...र्रर्र .

कई लड़के भयभीत थे. पर एक दूसरे के कन्धों के गिर्द बाहें डाल कर टहलते हुए मानो आज की घटना का अर्थ समझने लगे. कई एक दूसरे के कानों में मुंह ले जा कर कानाफूसी करने लगे - बहुत मारता था. कह रहे हैं आज ख़ुद मर गया. हा हा ..

-चुप बे क्या भरोसा.

लड़कियों की हालत विचित्र थी. वे झुंड के झुंड बना कर सोचने लगी कि अब हम सब को करना क्या होगा. क्या उस मास्टर को जिंदा करने की योजनायें बन रही हैं?...

...इस बीच मास्टर दयालदास ने क्या किया कि अपनी दायीं हथेली खोल कर सब को खल्ला दिखा कर चिल्ला पड़े - लानत है तुम सब पर. मास्टर शीतल दास गुज़र गए हैं और तुम सब लट्टू भी खेलने लग गए... उस मास्टर के गुस्सा करने पर अक्सर अध्यापिकाओं को जी भर कर हँसी आ जाती थी. आज भी न जाने क्या हुआ कि एक अध्यापिका हँसी को पल्लू में दबाती हुई दूसरी को कंधे पर टोहका मार कर आगे खिसक गई... एक सीनियर अध्यापिका ने घोषणा की - सब बच्चे क्लास में जायें. आज पढ़ाई नहीं होगी. जिस समय रिसेस होगी. हम सब मास्टर शीतल दास के घर जायेंगे...

शीतल दास के घर के बाहर का नज़ारा ही अजीब था. बहुत विद्यार्थी उस square में जमा हो गए जिस के तीन तरफ़ बैरकें थी और एक तरफ़ पथरीली सी सड़क. एक घर के बरामदे में शीतल दास जो यमराज माने जाते थे, का पार्थिव शरीर और उनके रिश्तेदारों की भीड़. बरामदे के प्रवेश पर लड़कियों का झुंड सा इकठ्ठा हो कर अन्दर झाँकने की कोशिश करता है. वही सीनियर अध्यापिका आती है. एक बड़ी कक्षा की लड़की उस के कान में फुसफुसाती है - लोग कह रहे हैं कि वो जो जवान सी औरत इधर आ रही है, वही उनकी मायके भागी हुई बहू है. अध्यापिका अपने चेहरे पर एक ठोस और गंभीर सी भंगिमा समय की नजाकत को पहचान कर बना लेती है और एक सहेली की तरह अपनी उस विद्यार्थी को चुप रहने का इशारा भी करती है. सब को कई कदम पीछे हट कर कहीं और झुंड बनाने को भी कहती है. लड़कियां सोचती हैं कि हमें तो रोना भी चाहिए, पर गुपचुप फुसफुसाती हैं - रोना आए तब न! जान बूझ कर आंखों में मिर्ची डाल दें क्या..

कोई लडकी कहती है - जिस को सब से ज्यादा झाड़ पडी हो उस की, ऐसी कोई ढूंढ लाओ. मास्टर की झाड़ याद करके फूट फूट कर रोएगी..

लड़के अपनी दुनिया में गुम हैं. कुछ सूझ नहीं रहा किसी को, कि हमें करना क्या चाहिए . कोई कोई लड़का झटपट बस्ता ले कर घर पहुँच गया और माँ को बता दिया, एक मास्टर गुज़र गया है.

माँ ज़बरदस्ती बीच में ही घर आए बेटे के मुंह में रोटी-सब्जी के टुकड़े ठूंसती पूछती है - कौन सा मास्टर मर गया?

लड़का अपना महत्व सा जताता कहता है - है कोई. और फ़टाफ़ट दौड़ कर अपने झुंड में पहुंचना चाहता है.

एक लड़का दूसरों का ध्यान खींच कर सब को चकित कर देता है - वो देखो, लोग कह रहे हैं कि डॉक्टर है. पर वह अपनी दवाइयों का बक्सा साथ क्यों ले जा रहा है????

-अबे लोग बता रहे हैं मास साहब की बीबी बेहोश हो गई है, इसलिए.

कुछ लड़के एक बरैक के पीछे लट्टू खेलने लग जाते हैं. कोई कोई लड़का दूर से ही घबराता सा ऐसे समय लट्टू खेलने वालों को देखता है फ़िर मुस्कराहट आने पर हथेली से वह मुस्कराहट छुपा देता है. लट्टू खेलने वाला लड़का उसकी तरफ़ देख आँख मारता है तो वह बैठा हुआ लड़का उससे मज़ाक करता है - मास साब आ रहे हैं..

और एक लड़का अचानक तेज़-तेज़ और धुक्धुकाती साँस के साथ इधर क्यों आ रहा है? क्या कोई और बड़ी ख़बर सुनाने आ रहा है? लड़का यहाँ, लट्टू खेलने वाले ग्रुप के पास पहुँचता है और कुछ देर उसकी साँस फूल रही होती है, हांफता ही रहता है. कुछ बोल नहीं पाता .

- अबे बोल कुच्छ ..

वो हाँफते हाँफते कहता है - वो जो.. वो जो.. डॉक्टर आया है न... एक लड़का कह रहा है कि वो डॉक्टर मास्टर को जिंदा कर सकता है..

लट्टू खेलने वाले हाथ सहसा रुक जाते हैं. एक अजीब से भय की झुरझुरी सब के बदन में दौड़ जाती है. एक तेज़ सा लड़का चिल्लाता है - तेरा दिमाग ख़राब है क्या? मरने वाला कभी जिंदा होता है? ..

हम बच्चे थे. क्या जानें कि ऐसा हो सकता है या नहीं. पर वो लड़का दावे के साथ कह कर मानो अपने भीतर का डर भी ज़ाहिर करना चाहता है, अपने करीबी मित्रों के बीच. उसी की दो तीन बार पिटाई भी की थी मास्टर ने जिसे लोग यमराज कहते थे. . उस के पिता झगडा भी करने आए थे, पर मास्टर को तेज़ देख कर प्रिंसिपल से झगड़ कर चले गए थे.

न जाने किस ने यह भ्रम फैला दिया. किसी ने ऐसी कल्पना भर की होगी. वो लड़का कहने लगा - पर एक बात है, वो डॉक्टर कह रहा है कि पाँच हज़ार दे दो, तो जिंदा कर दूँगा..

सब चकरा जाते हैं. शरीर सुन्न से हो गए हैं. एक अजीब confusion सा...और किसी को सूझ ही नहीं रहा कि क्या करना चाहिए हम सब को. क्या जैसे क्लास में बैठते थे, वैसे ही यहाँ मैदान में पालथी मार कर बैठ जाएँ? ...

नमन है उनको (संस्मरण)

शिक्षक दिवस के अवसर पर डॉ॰ शीला सिंह का संस्मरण

हिन्द-युग्म ने शिक्षक दिवस पर कुछ ही दिनों पूर्व रचनाएँ आमंत्रित किए थे। उन्हीं में से पहली किश्त हम डॉ॰ शीला सिंह के संस्मरण के रूप में पेश कर रहे हैं।


डॉ॰ सुदर्शना सिंहल
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में मै जब भी एक चेम्बर के सामने से गुज़रती हूं तो मेरे पांव थम जाते हैं। वहां से डॉ॰ सुदर्शना सिंहल के नाम की नेमप्लेट हट चुकी है। मैं मन ही मन बुदबुदाती हूँ, अब वे यहाँ नहीं रहतीं, शायद कहीं नहीं रहती हैं। दक्षिण पूर्व-एशिया एवं बौद्ध-दर्शन की प्रकाण्ड विदुषी थीं। अंग्रेजी़, हिन्दी, संस्कृत और लगभग दस विदेशी भाषाओं पर उनका अधिकार था। दक्षिण पूर्व एशिया की पांच लिपियों को जानती थीं। हिन्दी को पहला शब्दकोश देने वाले मूर्धन्य विद्वान रघुवीर जी की पुत्री थीं। विभाग में उनकी विद्वत्ता, सौन्दर्य एवं सादगी की बड़ी चर्चा थी। मेरा उनसे सामान्य परिचय था केवल अभिवादन का, मैं प्रणाम करती और वे मुस्कुराती हुई आगे बढ़ जातीं।

मैं उनके सानिध्य में अपनी पीएच.डी. के दौरान आई। बहुत विकट परिस्थितियों मे मेरा पंजीकरण उनके अधीन हुआ और वे मेरी सुपरवाइज़र बनीं। मेरा शोधकार्य प्रारंभ ही हुआ था कि वे बीमार पड़ी और पता चला कि ब्रेस्ट्कैन्सर से पीड़ित हैं और आखिरी पड़ाव पर हैं, उनके पति जाने -माने चिकित्सक थे, उन्होनें देश के सभी बड़े चिकित्सकों से सम्पर्क किया। सभी की यही राय थी की अधिक से अधिक उन्हें जीने के लिये छः महीने का मौका दिया जा सकता है। मै बहुत परेशान थी, हताश थी, उनसे मिलने गई, वे दर्द से स्याह थी पर मुस्कुरा रही थी। मुझे पास बुलाया और कहा -गाइड बदल ले मेरा क्या ठिकाना, मैं रो पड़ी और ना में सिर हिलाया वे हंसते हुई बोली ठीक है इन्तजा़र कर, रंजना जो मेरी सिनियर थीं, बोलीं- देखो मुझसे भी यही कह रही हैं। मैं वहा से चली आई।

लोग एक अन्होनी का इन्तजार कर रहे थे। डाक्टरों ने एक अवसर लिया और सर्जरी करने का निर्णय लिया। वे भी समय से पहले जाने के लिये तैयार हो गई अद्भुत साहस था, और एक चमत्कार हुआ। उनका आपरेशन सफल रहा और वे ठीक होने लगीं, चिकित्सकों कि टोली चकित थी, ऐसे कैसे हो सकता है?

मैडम बच गई थीं। उनका कैन्सर ठीक होने लगा था, पर सर्जरी ने शरीर के कुछ अंश छीन लिये थे, मोती जैसे दाँत काले हो गये थे, सुनहले रेशमी बाल रूखे और बेजान हो गये थे, दाहिना हाथ इतना मोटा हो चुका था कि मानों शरीर का आधा वजन उसमें समा गया हो. वे मंथर गति से ठीक हो रही थी, उनकी इच्छा से मै नेशनल लाइब्रेरी कोलकता, महाबोधिसोसायटी दिल्ली, एवं अमेरिकन संस्थान में शोध के लिये चली गई। वापस लौट कर मैंने उनके पास जाना प्रारंभ किया। वे मुझे समय नहीं दे पा रही थी, इसके कारण उन्हें ग्लानि होती थी। एक दिन मुझे बुला कर कहा कि यदि मैं कुछ महीने के लिये उन्के साथ रह जाऊँ तो वे मेरी थीसिस जल्दी ही पूरी करा देंगी, उनके पति इस बीच विदेश प्रवास में रहेगें. मैंने हामी भरी और उनके घर चली आई।

उनके घर पर जो दिन मैंने बिताये वे दिन मेरे जीवन की थाती बन गये। मैंने उनको करीब से जाना, कितनी अनूठी थीं वे, इतना स्नेहिल और विशाल हृदय मैंने आज तक नहीं देखा। जब मैं देर रात तक काम करती और बिना कुछ ओढ़े सो जाती तो रात को कोई चादर उढा़ जाता था। आंख खुलती तो चाय का कप लिये खड़ी होतीं। उनका बेटा निखिल जो बहुत छोटा था शोर मचाता तौ उसे चुप करातीं और कहती कि दीदी सो रही है। मारे ईर्ष्या के निखिल कई बार मुझे चिको्टी काट कर भाग जाता था। प्यार से वे मुझे राजे कहतीं अर्थात राजकुमारी उनके यहाँ बेटियों को राजे कहा जाता था, विभाग से लौटने के बाद हम दोनों हल्की चाय को सुड़क-सुड़क कर पीते थे। मैं चाय नहीं पीती थी पर उस चाय की याद आज भी आती है। फिर मैं अपना काम करने बैठती और वे साथ बैठ कर मेरा काम देखती थीं, बड़ी सह्जता से गंभीर विषयों को समझा देती थीं। श्लोकों को ऐसे गुनगुनाती मानों कोई गीत गा रही हों, हिन्दी की हर विधा पर उनका अधिकार था। हिन्दी के कठिन लगने वाले शब्दों का सरलता से प्रयोग करतीं, भाई को भ्राता जी, नौकरानी को भ्रित्या, छोटी चौकी को आसन्दी कहना ये सब उनके नित्य प्रयोग के शब्द थे, मैं उन्हें चकित होकर देखती मानो मैं कोई शिशु हूँ और अभी-२ जन्मी हूँ। हिन्दी से, देश की सभ्यता से, परम्परा से प्यार करना मैंने उन्हीं से सीखा, कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, ये मैंने उन्हीं से जाना। १९४७ की पीड़ा जो पाकिस्तान से आते वक़्त उन्होंने भुगती थी, मैं सुनती तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। ऐसी ही न जाने कितनी बातें मैने अपनी गुरू माँ से जाना था। मैं कुछ महिनों में बदल चुकी थी, मुझे जिन्दगी के मायने समझ में आने लगे थे। दु:खों से टकराने का ज़ज्बा भी आ गया था। मैंने इन दिनों क्या-क्या जाना उसके लिये मेरे पास शब्द नहीं है, वे मुझे नित्य नये रूप में दिखती थीं।

मेरी थीसिस लिखी जा चुकी थी। मुझे वापस घर लौटना था, मैंने देखा एक सुन्दर सी छोटी साईकिल लाई गई है। मैंने उनकी तरफ़ देखा तो हँसते हुई बोलीं- तुम्हारे बेटे के लिये उपहार है। माँ-बेटे को अलग करने का पाप किया था मैंने यह उसकी नानी की तरफ़ से है, मैं अवाक थी मैंने तो गुरू से ही दक्षिणा ले ली थी। मेरी पीएच.डी पूरी हो गई थी। इस बीच मैडम के साथ मेरा एक अनकहा रिश्ता कायम हो चुका था। हम माँ-बेटी जैसे हो गये थे, मुझे डिग्री मिली, नौकरी मिली, मेरी पुस्तक छपी, मुझे हिन्दी संस्थान का एवार्ड मिला वे मेरे साथ रहीं

अचानक उनके पति का देहान्त हो गया और वे वीआरएस लेकर इलाहाबाद चली गईं. उनके सभी शिष्य वहां मिलने जाते थे। इसी बीच मेरे बाबूजी भी नहीं रहे थे। मैं लगभग एक वर्ष तक अव्साद्ग्रस्त थी। इस बीच मैडम से मिलना हुआ था। शायद वह कुछ कहना चाहती थीं पर कह नहीं पाती थीं, मुझे बाद मे पता चला की वे बाहर गई हैं। वैसे भी विश्व के हर कोने को उन्होंने देखा था। न जाने क्यों मैं घबरा रही थी। मैं इलाहाबाद गई; मैडम से मिलने उनके घर पहुँची; शोर मचाती अन्दर घुसी, एक महिला जो मेरे लिये अनजानी थी निकली और पूछा-क्या हैं? मैंने कहा- मैडम है? उसने मुझे घूर कर देखा और बोली-वो नहीं है। मैंने कहा-कहा है?तभी उनका बड़ा बेटा दौड़ता हुआ आया उसकी आंखें मुझे सब बता रही थी। शैशव ने मेरा हाथ पकड़ रखा था। मैं अपनी मैडम के जीवन के अंत समय की बातें सुन रही थी। शैशव की आवाज़ कहीं दूर से आती हुई लग रही थी, मैं सोच रही थी मौत को झुठलाने वाली मौत के साथ क्यों गई.................

डॉ॰ शीला सिंह
रीडर,(प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग)
वसंत कॉलेज़ फ़ॉर वीमेन, वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी (उ॰प्र॰)