मिसाल- शिक्षक हो तो ऐसे हो
प्रस्तुति- विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या
मैं अपने पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव माँ श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के साथ जब भी कहीं जाता तो मैं तब आश्चर्य चकित रह जाता , जब मैं देखता कि अचानक ही कोई युवती , कभी कोई प्रौढ़ा ,कोई सुस्संकृत पुरुष आकर श्रद्धा से उनके चरणस्पर्श करता है .सर /मैम, आपने मुझे पहचाना ? आपने मुझे फलां फलां जगह , अमुक तमुक साल में पढ़ाया था ....!प्रायः महिलाओ में उम्र के सा्थ हुये व्यापक शारीरिक परिवर्तन के चलते माँ अपनी शिष्या को पहचान नहीं पाती थी , पर वह महिला बताती कि कैसे उसके जीवन में यादगार परिवर्तन माँ या पिताजी के कठोर अनुशासन अथवा उच्च गुणवत्ता की सलाह या श्रेष्ठ शिक्षा के कारण हुआ .... वे लोग पुरानी यादों में खो जाते . ऐसे १, २ नहीं अनेक संस्मरण मेरे सामने घटे हैं .कभी किसी कार्यालय में किसी काम से जब मैं पिताजी के साथ गया तो अचानक ही कोई अपरिचित पिताजी के पास आता और कहता , सर आप बैठिये , मैं काम करवा कर लाता हूँ ...वह पिताजी का शिष्य होता .
१९५१ में जब मण्डला जैसे छोटे स्थान में मम्मी पापा का विवाह लखनऊ में हुआ , पढ़ी लिखी बहू मण्डला आई तो , दादी बताती थी कि मण्डला में लोगो के लिये इतनी दूर शादी , वह भी पढ़ी लिखी लड़की से ,यह एक किंचित अचरज की बात थी .उपर से जब जल्दी ही मम्मी पापा ने विवाह के बाद भी अपनी उच्च शिक्षा जारी रखी तब तो यह रिश्तेदारो के लिये भी बहुत सरलता से पचने जैसी बात नहीं थी . फिर अगला बमबार्डमेंट तब हुआ जब माँ ने शिक्षा विभाग में नौकरी शुरू की . हमारे घर को एतिहासिक महत्व के कारण महलात कहा जाता है , "महलात" की बहू को मोहल्ले की महिलाये आश्चर्य से देखती थीं . उन दिनों स्त्री शिक्षा , नारी मुक्ति की दशा की समाज में विशेष रूप से मण्डला जैसे छोटे स्थानो में कोई कल्पना की जा सकती है . यह सब असहज था .
अनेकानेक सामाजिक , पारिवारिक , तथा आर्थिक संघर्षों के साथ माँ व पिताजी ने मिसाल कायम करते हुये नागपुर विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेज्युएशन तक की पढ़ाई स्व अध्याय से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में साथ साथ बेहतरीन अंको के साथ पास की . तब सीपी एण्ड बरार राज्य था , वहाँ हिन्दी शिक्षक के रूप में नौकरी करते हुये , घर पर छोटे भाईयों की शिक्षा के लिये रुपये भैजते हुये , स्वयं पढ़ना , व अपना घर चलाना , तब तक मेरी बड़ी बहन का जन्म भी हो चुका था , सचमुच मम्मी पापा की परस्पर समर्पण , प्यार व कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति , ढ़ृड़ निश्चय का ही परिणाम था .मां बताती थी कि एक बार विश्वविद्यालय की परीक्षा फीस भरने के लिये उन्होंने व पापा ने तीन रातो में लगातार जागकर संस्कृत की हाईस्कूल की टैक्सट बुक की गाईड लिखी थी, प्रकाशक से मिली राशि से फीस भरी गई थी ...सोचता हूँ इतनी जिजिविषा हममें क्यों नहीं ... प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय तत्कालीन पीएसएम से , साथ साथ बी.टी का प्रशिक्षण फिर म.प्र. लोक सेवा आयोग से चयन के बाद म.प्र. शिक्षा विभाग में व्याख्याता के रूप में नौकरी ....मम्मी पापा की जिंदगी जैसे किसी उपन्यास के पन्ने हैं .... अनेक प्रेरक संघर्षपूर्ण , कारुणिक प्रसंगों की चर्चा वे करते हैं , "गाड हैल्पस दोज हू हैल्प देम सेल्फ".आत्मप्रवंचना से कोसो दूर , कट्टरता तक अपने उसूलों के पक्के , सतत स्वाध्याय में निरत वे सैल्फमेड हैं ..
जीवन में जितने व्यैक्तिक व सामाजिक परिवर्तन मां पिताजी ने देखे अनुभव किये हैं , बिरलों को ही नसीब होते हैं . उन्होंने आजादी का आंदोलन जिया है . लालटेन से बिजली का बसंत देखा है , हरकारे से इंटरनेट से चैटिग के संवाद युग परिवर्तन के वे गवाह हैं ... , शिक्षा के व्यवसायीकरण की विडम्बना , समाज में नैतिक मूल्यों का व्यापक ह्रास , भौतिकवाद , पाश्चात्य अंधानुकरण यह सब भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देखना उनकी पीढ़ी की विवशता है जिस पर उनका क्षोभ स्वाभाविक ही है ....
तमाम कठिनाईयों के बाद भी न केवल मम्मी पापा ने अपना स्वयं का जीवन आदर्श बनाया वरन हमारे लिये एक उर्वरा पृष्ठभूमि तैयार कर दी . हमारे लिये ही क्या, जो भी उनके संपर्क में आता गया छात्रो के रूप में , परिवार में या समाज में ,सबको उन्होंने एक आदर्श राह बतलाई है . आज भी हमारे बच्चो के लिये पिताजी प्रेरक दिशादर्शक हैं . हमारे परिवार की आज की सुढ़ृड़ता के पीछे माँ का जीवन पर्यंत संघर्ष है . स्वयं नौकरी करते हुये अनेक बार पिताजी का अंयत्र स्थानातरण हो जाने पर मुझे , मेरी दीदी तथा दो छोटी बहनों को सुशिक्षित करना माँ , पापा की असाधरण तपस्या का ही प्रतिफल है .मुझे लगता है कि कितने पुष्प प्रफुल्लित होते देख न हम जिनको पाते .... माता पिता के रूप में भी एक आदर्श शिक्षक की भूमिका का निरंतर निर्वहन मम्मी पापा ने किया है .
पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव विदग्ध शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से सेवानिवृत हुये . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमाँक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं . वतन को नमन , अनुगुंजन , ईशाराधन , जैसी अनेको पुस्तको के लेखक, महाकवि कालिदास कृत रघुवंश व मेघदूतम का श्लोकशः अनुवाद उन्होने गेय छंदो में किया है . शिक्षण में नवाचार व अन्य शैक्षणिक विषयो पर कई किताबें उन्होने लिखी है . कई पत्र पत्रिकाओ का संपादन किया है . अनेक संस्थाओ ने उन्हें समय समय पर ढ़ेरों सम्मान दिये .रिटायरमेंट के बाद भी भारतीय यूनिट ट्रस्ट के माध्यम से पिताजी ने अनेक युवको को मण्डला में रोजगार के अवसर दिये , रेडक्रास में , पं . बाबूलाल कमेटी के अध्यक्ष के रुप में, अनेकानेक सामाजिक संस्थाओ में वे सतत सक्रिय हैं .
वर्तमान परिवेश में शिक्षा शासकीय क्षेत्र से हटकर निजि क्षेत्र में एक व्यवसाय के रूप में स्थापित होती जा रही है , इस कारण एवं शिक्षकों के आचरण की शुचिता में कमी के चलते गुरुओ के प्रति छात्रो की कृतज्ञता समाप्त प्राय है .ऐसे समय में मैं शिक्षक दिवस पर अपने समस्त शिक्षकों के प्रति अपनी
आदरांजली अर्पित करते हुये,अपने पूज्य माता पिता शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या के जीवन वृत को देख मैं यही दोहराना चाहता हूँ ,शिक्षक हो तो ऐसे हो ......
कुछ यादें तपन की कलम से
शिक्षक दिवस पर अन्य प्रस्तुतियाँ
यूँ तो हर टीचर से मुझे सीखने को मिला। सभी ने अच्छा पढ़ाया, इस काबिल बनाया कि इंजीनियर बन सकूँ। बहुत मुश्किल हो जाता है चुनना तब, जब हर कोई आपको समान लगता हो। पर फिर भी दो ऐसे शिक्षक जिनका मेरे जीवन पर निस्संदेह प्रभाव पड़ा है। मेरी हिन्दी शुरू में बहुत कमजोर थी। मात्राओं का ज्ञान न के बराबर था और हिन्दी की कॉपी में सिवाय लाल रंग के कुछ नहीं होता था। पाँचवीं कक्षा में छाया गुप्ता नाम की शिक्षिका हमारी हिन्दी की अध्यापिका थीं। उनके पढ़ाने के तरीके ने मुझ पर प्रभाव डाला। मात्राओं का ज्ञान भी हुआ और मुझे पूरी वर्णमाला भी याद हो गई। मुझे गर्व है कि मैं उन चंद लोगों में से हूँ जिन्हें वर्णमाला याद है। ये उन्हीं की पढ़ाई का नतीजा रहा जो हिन्दी भाषा के प्रति मेरा सदैव लगाव रहा। हालाँकि इस लगाव के पीछे पारिवारिक कारण भी शामिल है किन्तु हिन्दी का ज्ञान तो उन्हीं से मिला। दूसरे शिक्षक थे नवीं तथा दसवीं में संस्कृत के अध्यापक श्री राम गोपाल। कहते हैं हमें अपना कुछ समय ६ साल से छोटे बच्चे और ६५-७० वर्ष के बुजुर्ग के साथ बिताना चाहिये। उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। संस्कृत के श्लोक इतने अच्छे तरीके से सिखाते थे कि आज भी याद आते हैं। हर श्लोक पर पूरा पीरियड निकाल जाते थे। और भी पढ़ा सकते थे, पर कोर्स भी तो पूरा करवाना होता था। वे ज्ञान का भंडार थे। एक बार यदि को उनसे श्लोक का मतलब पूछ ले तो भूल पाना नामुमकिन था। बोर्ड के पेपर से ६ महीने पहले ही उन्होंने कह दिया था कि मेरे शत प्रतिशत नम्बर आयेंगे, और आये भी पूरे १००। मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं। हर साल शिक्षक दिवस के मौके पर उन्हें याद कर लिया करता हूँ। काश वे आज..
श्रद्धासुमन
प्रस्तुति--कमलप्रीत सिंह
कोई चालीस एक साल पहले की बात है . उन दिनों मैं मिशन हायर सेकंडरी स्कूल नसीराबाद (राजस्थान) में छठी कक्षा का छात्र था .हमारे एक शिक्षक श्री ई सेमसन थे जो हमें अंग्रेजी,गणित और सामजिक ज्ञान पढाया करते थे पूरे मनोयोग से विषयों को रुचिकर बना कर पढाने में सिध्ह्हस्त थे .
जब कभी भी मासिक परीक्षाएं होतीं और अधिकतर बच्चों के अंक कम आते तो पूरी कक्षा के सामने बड़े ही सरल भाव से हो चुके पर खेद प्रकट करते हुए प्रेरणा के दो शब्द कहते और हम बच्चों की आँखें उन्हें सुनते सुनते डबडबा आतीं और हम सभी लगभग रो देते . हम मन ही मन कुछ बेहतर कुछ अच्छा करने की ठानते और करते भी . एक भली बात यह थी की पढाये जाने वाले विषयों के अतिरिक्त चित्रकला से उन्हें विशेष लगाव था वह घंटों बैठे कला की साधना किया करते . कभी स्केच , कभी पेंटिंग्स तो कभी बहुत ही सुंदर व्यक्ति चित्र बनाते. मैंने महीनों उन्हें बड़े करीब से ये सब करते बनाते देखा है जिसके लिए इनकी कोई भी अपेक्षा नहीं रही ,कुछ नहीं चाहा .मैंने उन से बहुत कुछ ग्रहण करने का प्रयास किया .अंगूठे और अंगुलिओं के बढे हुए नखों से चाक को कुरेद कुरेद कर उस पर गुरुदेव रवींद्र का चेहरा तराशना , मोटे कार्ड जैसे कागज़ पर पेंसिल से हल्की सी चेहरे की आकृति बना कर उसे नाखूनों से उकेरना उन्हें भला लगता . संगीत के क्षेत्र में भी उनका विशेष दखल था .बड़ा ही सुंदर स्वर पाया था .उनके द्वारा प्रस्तुत गीत संगीत के संगम को सुनते तो भाव विभोर हो उठते . इन सभी गुणों के धनी हमारे गुरूजी एक सरल ह्रदय के स्वामी और भाव विवेक वाले व्यक्ति थे मेरे आदर्श बन गए थे वे आज भी मेरे व्यक्तित्व के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं और रहेंगे भी .दो वर्ष पूर्व ही उन से मिलने जाने पर उन के इस संसार में न रहने का शोक संदेश मिला.मन बहुत व्यथित हुआ .आज के इस शुभ दिन उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने का यह सुअवसर मैं खोना नहीं चाहता
शिक्षक दिवस से जुडी यादें
प्रस्तुति- बज्मी नकवी, कानपूर
ज़िन्दगी चलते रहने का नाम है और जीवन की इसी तेज़ रफ़्तार में कितने ही अच्छे बुरे अनुभव होते हैं लेकिन उनमे से कुछ आदमी भुला देता है और कुछ ज़िन्दगी भर याद रहते हैं. आज teachers day के मौके पर मुझे एक ऐसा ही मसीहा याद आ रहा है जो ज़िन्दगी में हर वक़्त याद आया.. कहने को तो वो अध्यापक था लेकिन असल में वो ठंडी छाव था.... मुझे याद है मैं हाई स्कूल का छात्र था.... जुलाई के महीने में मेरा पूरा परिवार कानपुर से बाहर था, अचानक मुझे एक दिन तेज़ फीवर हुआ और मैं अचानक बेहोश हो गया.. इस स्थिति में मैं अकेला था ......... मुझे २० दिन के बाद संजय गाँधी हॉस्पिटल में होश आया तो मेरे आस पास पूरी फॅमिली थी.... मुझे पता चला कि मेरे अध्यापक मुक्तिदा हुसैन मुझे हॉस्पिटल लाये थे जहाँ मेरे इलाज में पूरे ४ चार लाख रुपये उन्होंने अपनी पत्नी के गहने बेच कर ये रक़म इकट्ठी की थी... doctors के मुताबिक मैं अगर ठीक टाइम पर हॉस्पिटल न पहुँचता तो मैं इस दुनिया में नहीं होता....
ऐसे शिक्षक को शत-शत नमन.....
इस घटना को बरसों बीत गए ..............वोह जवान आदर्श देवता सा मानव अब बूढा हो चला है लेकिन अगर कभी मैंने उनका शुक्रिया अदा करना चाहा तो उसने पूरी सख्ती से झिड़क दिया कैसा आदमी था वो जो इस दुनिया में रहकर भी एहसान जताने से दूर है ............ मुझे हर मौके पर वोह याद आता है कभी डांटता कभी प्यार करता ऐसे सच्चे इंसान को आज teachers day पर लाखों सलाम
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5 कहानीप्रेमियों का कहना है :
prernaspad
bahut hi achhi prastuti hai.
शिक्षक दिवस पर विशेष प्रेरणाप्रद उपलब्धियों का उपहार हिंद -युग्म ने हमें दिया .बधाई .
सभी लोगो के संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा. लोग शिक्षक को कितना सम्मान देते हैं. बज्मी नक्वी जी का वाक्या बहुत ही गज़ब लगा. एक बार को लगा कि यह तो बिलकुल फिल्म जैसा है.
मैं रिचर्ड फेमन की पुस्तक का एक अंश लिख रहा हूँ.
If you're teaching a class, you can think about the elementary things that you know very well. These things are kind of fun and delightful. It doesn't do any harm to think them over again. Is there a better way to present them? The elementary things are easy to think about; if you can't think of a new thought, no harm done; what you thought about it before is good enough for the class. If you do think of something new, you're rather pleased that you have a new way of looking at it.
The questions of the students are often the source of new research. They often ask profound questions that I've thought about at times and then given up on, so to speak, for a while. It wouldn't do me any harm to think about them again and see if I can go any further now. The students may not be able to see the thing I want to answer, or the subtleties I want to think about, but they remind me of a problem by asking questions in the neighborhood of that problem. It's not so easy to remind yourself of these things.
-Richard Feynman, "The Dignified Professor"
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