Monday, March 23, 2009

तमाशा

नमस्कार,
कोई सम्बोधन इसलिये नहीं दे रही हूँ क्योंकि आपके लिये मेरे पास कोई सम्बोधन है ही नहीं । जब अपने चारों तरफ नंजर दौड़ाती हूँ तो पाती हूँ कि वे सभी जो मेरे आस पास हैं उनके लिये मेरे पास एक उचित सम्बोधन भी है किन्तु आपके लिये ...? आपके लिये तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, न भावनाएँ और ना ही सम्बोधन। वैसे अगर रिश्तों की परिभाषाओं के मान से देखा जाए तो आपके और मेरे बीच में भी एक सूत्र जुड़ा है मगर मैं उस सूत्र को नहीं मानती इसीलिये ये पत्र लिख रही हूं ।
यहाँ इस घर से जब मेरे विदा होने की घड़ी आ गई है तब स्मृतियों के अध्यायों को खोलते हुए सुधियों के पन्नों को टटोलते हुए ये पत्र आपको लिख रही हूँ। यकीन मानिये मैं ऐसा कभी भी करना नहीं चाहती थी, अगर चाहती तो पिछले वर्षों में कभी भी लिख देती। आज भी ये पत्र लिख रही हूं तो उसके पीछे भी एक बड़ा कारण है और ये कारण आपसे भी जुड़ा है और मुझसे भी। ये पत्र संभवत: आपके और मेरे बीच का पहला संवाद है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि यही अंतिम भी हो क्योंकि इसीलिये तो मैं ये पत्र लिख रही हूँ। पत्र शुरू करने से पहले बहुत सारी भूमिका इसलिये बाँध रही हूँ ताकि आपको ऐसा ना लगे कि ये एक लड़की द्वारा भावुकता में लिखा गया पत्र है। ये पत्र एक सुदृढ़ मन:स्थिति में लिख रही हूं। एक बात पुन: दोहरा रही हूँ कि लिख इसलिये रही हूं क्योंकि इसके अलावा कोई चारा था भी नहीं।

मैं भी नहीं जानती कि उस वक्त यदि मैं कुछ सोच पाती तो क्या सोचती जब मैं केवल कुछ ही दिनों की थी। शायद दस दिन पहले ही मेरा जन्म हुआ था। दादी बताती हैं कि आप शहर से आए थे और बरामदे में बैठे थे जब दादी ने दस दिन की मुझे आपकी गोद में लाकर लिटा दिया था और कुछ हँसते हुए कहा था ''ले मुन्ना देख ले अपनी बिटिया को''। आगे की घटना बताते हुए दादी कुछ गंभीर हो जाती हैं किन्तु बताती अवश्य हैं। संभवत: यही वह बात है जिसने मुझे इतना मजबूत बनाया है । मैं सोचती हूँ कि दादी ने भी शायद इसीलिये मुझे बार बार वो घटना सुनाई है क्योंकि वो भी मुझे ऐसा ही बनाना चाहती थीं। दस दिन की मैं आपकी गोद में लेटी ही थी कि आपने हिकारत से मुझे उठाकर नीचे गोबर से लिपे कच्चे फर्श पर पटक दिया था ये कहते हुए ''हटाओ ये तमाशा, एक तो अनपढ़, गंवार देहातन मेरे पल्ले बाँध दी ऊपर से इन सब चक्करों में भी उलझा रहे हो''।

दादी बताती हैं कि तब आप शायद केवल अपना सामान बटोरने ही वहाँ आए थे क्योंकि तब के गए आप फिर कभी भी नहीं लौटे। मैं कभी भी नहीं भूल पाई इस बात को कि आपने मुझे हिकारत से जमीन पर पटकते हुए एक घिनौना सा नाम दिया था 'तमाशा'। चूंकि मैं नहीं समझती कि आपके और मेरे बीच में मर्यादा की कोई ओट है इसीलिये पूछती हूँ आपसे कि ये तमाशा आया कहाँ से? उसी अनपढ़, गंवार देहातन के साथ आपके संबंधों का ही तो परिणाम थी मैं। उस स्त्री को भोगते समय तो आपको विचार नहीं आया कि ये तो अनपढ़, गंवार देहातन है। मेरी माँ ने भले ही उस तिरस्कार को सह लिया हो पर मेरे मन ने अपने आपको दिया गया आपके नाम तमाशा रूपी अपमान को कभी भी सहजता से नहीं लिया।
आप एक बड़ा लेखक बनना चाहते थे और बन भी गए हैं। आज आपका नाम है, मान है सम्मान है सब कुछ है और इन सबके बीच में मैं या मेरी वो कृषकाय माँ कहीं भी नहीं आते हैं क्योंकि वहाँ तो कोई और है, वो जिसे आपने सीढी क़ी तरह इस्तेमाल किया है। सीढ़ी इसलिये क्योंकि वो उस आलोचक की बेटी थी जिसकी कलम आपको एक गुमनाम लेखक के अंधेरों से निकाल कर सफलता की रोशनी में ला सकती थी। मेरी माँ चाहतीं तो उनके रहते दूसरा विवाह करने पर आपको कोर्ट में भी घसीट सकतीं थीं परंतु वो आपकी तरह नहीं थीं, हाँ अगर उनकी जगह मैं होती तो ऐसा जरूर करती।
मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो बहुत बार मुझे उस एक पुरुष की कमी महसूस हुई जिसे मैं दूसरों के घर में पिता के रूप में देखती थी। वह पुरुष जब किसी नन्ही बच्ची को रुई से भरी हुई गदबदी सी गुड़िया लाकर देता तो रो देती थी मैं। जब किसी बच्ची को पिता की उंगली थामे जाते देखती तो पूछती थी माँ से, दादी से कि कहाँ है ये पुरुष जो बाकी के सब घरों में तो है पर मेरे ही घर में नहीं है। उन दोनों स्त्रियों की ऑंखों में नमी का सोता फूट पड़ता था मेरे इस प्रश्न से। हालंकि ये सब बातें तब की हैं जब मैं छोटी थी नासमझ थी। उस समय मुझे पता ही नहीं था कि जिस पुरुष को लेकर मैं इतना परेशान हो रही हूं वही पुरुष मुझे 'तमाशा'नाम देकर चला गया है।

जब ठीक से समझने लायक हुई थी तब पहली बार दादी ने मुझे बैठाकर सब कुछ बताया था और बिल्कुल साफ-साफ बताया था। मुझे याद है कि उस दिन मैं स्कूल नहीं गई थी दिन भर घर में बैठी रोती रही थी। लेकिन अगले दिन जब सुबह हुई तो मैं सब कुछ भूल चुकी थी उस विगत को जो मेरा था। मुझे केवल वह शब्द 'तमाशा' ही याद था। उस दिन के बाद मुझे फिर उस पुरुष की कमी कभी भी अपने जीवन में महसूस नहीं हुई जो दूसरों के घर में पिता बन कर नंजर आता था। उस दिन के बाद मेरा एक नया जन्म हुआ था एक मजबूत और दृढ़ निश्चयी लड़की का जन्म। दादी और माँ दोनो ही चाहती थीं कि मैं खूब पढ़ूं और मैंने किया भी वही। हिंदी में मास्टर डिग्री लेने के पीछे मेरी मंशा यही थी कि मैं उस तमाशा नाम देने वाले को बता सकूँ कि अब मैं भी वही हूँ जो तुम हो।
कॉलेज के दौरान कई बार ऐसा हुआ कि आपका नाम गाहे-बगाहे आता रहा। फिर जब आपने अपना आत्मकथ्यात्मक उपन्यास लिखा तब तो आपके और मेरे बीच के उस एक सच का पता सबको चल गया था। जब मैं हिंदी में एम ए कर रही थी तब उसी उपन्यास पर एक संगोष्ठी का आयोजन किसा गया था। मुझे भी उसमें अपने विचार रखने थे। मैंने अपनी बात की शुरूआत कुछ इस तरह से की थी 'ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भी इस उपन्यास में कहीं हूँ और ऐसा इसलिये क्योंकि इसका लेखक मेरी माँ का पति रहा है किंतु एक बात मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि मेरी माँ का पति होने का मतलब ये कदापि नहीं है कि वो मेरा पिता भी है। पिता एक पदवी होती है जो मैं किसी कायर और भगोड़े को नहीं दे सकती' इतना कह कर जब मैं सांस लेने के लिये रुकी तब पूरा हाल तालियों से गूंज रहा था। सच कहती हूं उन तालियों से बड़ा पुरुस्कार मुझे अपने जीवन में दूसरा नहीं मिला। उन तालियों ने मुझे और भी मजबूत कर दिया था वह उस व्यक्ति को मेरा पहला जवाब था जिसने मुझे तमाशा नाम दिया था।

एमए के बाद पीएचडी की और उसके बाद मेरा नाम हो गया डॉ. स्वाति कुसुम देशपाण्डे। कुसुम को स्वयं मैंने अपने नाम के बीच में स्थान दिया है क्योंकि ये मेरी माँ का नाम है, मेरे नाम के बीच में किसी भगोड़े का नाम आ ही नहीं सकता था। ये मेरा दूसरा जवाब था। ये पत्र जिस खास प्रयोजन से लिख रही हूं अब उस पर ही आती हूँ। आपको ये तो पता हो ही गया होगा कि मेरी शादी हो रही है। पता इसलिये चल गया होगा क्योंकि मैं जानती हूँ कि माँ और दादी ने मुझसे छुपाकर आपको खबर की है। मैं ये भी जानती हूँ कि उन दोनों स्त्रियों ने नहीं चाहते हुए भी केवल सामाजिक मान और मर्यादाओं के चलते ही ऐसा किया है। मैंने भी सब कुछ जानते हुए भी उनसे कुछ भी नहीं कहा, मैं उन दोनों स्त्रियों को छोड़कर अब जब जा रही हूँ तब कुछ भी कह कर या करके उन दोनों का दिल दुखाना नहीं चाहती। परम्परा है कि कन्यादान के समय स्त्री का पति भी साथ होता है और दोनों मिलकर अपनी कन्या का दान करते हैं, शायद केवल और केवल इसी परम्परा के चलते ही उन दोनों स्त्रियों ने आपको सूचना दी है।

मैं ये पत्र इसलिये लिख रही हूं ताकि आपको ये बता सकूँ कि कोई भी व्यक्ति दान उसी चींज का कर सकता है जो उसकी हो और जब आपका मुझ पर कोई भी अधिकार है ही नहीं तब भला आप मुझे दान कैसे कर सकते हैं? जिस उम्र में मैं एक गुड़िया के लिये तरसती थी तब आप वह मुझे दे नहीं पाए और अब जब उन दोनों स्त्रियों ने मिलकर एक गुड्डा मेरे लिये तलाश किया है तब मैं नहीं चाहती कि आप दुनिया के सामने आकर ये साबित करने का प्रयास करें कि आप ने ही मेरे लिये ये गुड्डा लाकर दिया है। समाज पुरुष प्रधान है और निश्चित रूप से जब आप होंगे तो आपको ही सारा श्रेय मिलेगा और उन दोनों स्त्रियों की सारी तपस्या व्यर्थ हो जाएगी। मैं नहीं चाहती कि आप उस गुड्डे के हाथों में मेरा हाथ सौंपें, पिता का सम्बोधन मैं न कल आपको दे सकती थी न आज दे सकती हूं, मेरा जीवन इस सम्बोधन से विहीन है। रही बात आपकी तो आपके साथ तो ईश्वर ने न्याय किया है आप मुझे तमाशा कह कर जमीन पर फैंक कर चले गए थे शायद इसी कारण आप फिर नि:संतान ही रहे। नि:संतान इसलिये क्योंकि मैं अपने आप को आपकी संतान नहीं मानती और उस दूसरी स्त्री से आपको कुछ नहीं मिला ना बेटा ना बेटी। मैने अपने आपको पिता सम्बोधन से स्वयं विहीन किया है किन्तु आपको बच्चों के सम्बोधन से तो स्वयं ईश्वर ने विहीन कर दिया है। मैं जानती हूं कि इस सम्बोधन से विहीन होने के कारण ही आप जरूर आना चाहेंगे मेरी शादी में।
इसीलिये आपसे कह रही हूं कि आप मेरी शादी में मत आना। मैं अपनी ही शादी में कोई भी 'तमाशा' खड़ा करके उन दो महान स्त्रियों को कोई दु:ख नहीं पहुंचाना चाहती जिन्होंने मुझे यहाँ तक लाकर खड़ा किया है कि मैं आज कॉलेज में आप और आप जैसे कई लेखकों को अपने छात्रों को पढ़ाती हूँ। पुन: आपसे कह रही हूं कि ये मैं डॉ. स्वाती कुसुम देशपाण्डे चाहती हूं कि आप मेरी शादी में ना आएँ। मैं जानती हूं कि आप इतने बेशर्म नहीं हैं कि इतना कुछ लिखने के बाद भी चले आएँ। पत्र में लिखी हुई किसी भी बात के लिये क्षमा माँगने की औपचारिकता इसलिये नहीं करूंगी क्योंकि मैने कुछ भी गलत लिखा ही नहीं है, अगर आपको किसी भी बात के लिये बुरा लगा हो तो उसके लिये आप अपने आप से खुद क्षमा मांगें और शायद मुझसे भी। आशा है आप नहीं आएंगे।-

-डॉ. स्वाती कुसुम देशपाण्डे, प्राध्यापक हिंदी विभाग, शास. कॉलेज


कहानीकार- पंकज सुबीर

Thursday, March 19, 2009

वह जो नहीं- 'डर' की 8वीं कहानी

पिछले सप्ताह नवलेखन पुरस्कार 2008 से सम्मानित कथा-पुस्तक 'डर' का दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के हाथों विमोचन हुआ। अब तक हिन्द-युग्म ने इस संग्रह से 7 कहानियाँ ( सोमनाथ का टाइम टेबल, डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र ) प्रकाशित कर चुका है। आज हम इस कहानी-संग्रह की सबसे छोटी कहानी पढ़वा रहे हैं। अगले सप्ताह वह कहानी जिस कहानी की चर्चा 14 मार्च के विमोचन समारोह में सबसे अधिक रही॰॰॰॰


वह जो नहीं


अंदर घुसते ही एक अलग सी ही दुनिया नजर आती थी। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सजी गोल-गोल मेजें और उनके चारों तरफ कुर्सियां। एक मेज से दूसरी मेजवाले का चेहरा साफ दिखाई न पडे़, ऐसी रोशनी की व्यवस्था थी। हर मेज से उठने वाला धुआं आंखों से दिमाग तक पहुँचता था। हर छल्ले, हर कश, हर घूँट और हर गिलास में अपनी-अपनी कहानियां और मजबूरियां थीं, कुछ बनीं, कुछ ओढ़ी और कुछ ऐसी जो हमेशा से हैं। सामने थोड़ी उंचाई पर एक लड़की बेहद कम कपड़ों में नांच रही थी- आप जैसा कोई.........। उसके अंग उसकी मजबूरियों के तरह काफी हद तक नंगे नजर आ रहे थे। सभी अपनी कुरसियों से अपनी अतीत की तरह चिपके हुए थे। किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं। जिस पर सुरुर अधिक हो जाता वह थोड़ी देर उठकर लड़की के साथ नाच लेता, उसके बदन की गर्मी से अपने बदन की तपिश शांत कर लेता और फिर अपने अतीत से चिपक जाता।
’’वेटर, कम हियर।’’
’’यस सर ?’’
’’वन लार्ज व्हिस्की।’’
’’ओके सर।’’
वहां से काउंटर साफ दिखाई पड़ रहा था। शेल्फ पर करीने से रखी बोतलें भी दिखाई पड़ रहीं थीं। काउंटर पर एक लड़की झुकी बारमैन से बातें कर रही थी। शायद काफी नशे में थी। पैग पर पैग चढ़ाती लड़की किसी बड़े बाप की बिगड़ी औलाद लग रही थी, या फिर शायद कोई बाज़ारू...........।
राखी की समझ इतनी छोटी है, ऐसा शादी के पहले तो नहीं लगता था। शक भी एक लाइलाज बीमारी की तरह होता है, लेकिन इतना बड़ा शक.....? वह भी उसके चरित्र के बारे में......।
’’वेटर।’’
’’यस सर।’’
’’वन मोर लार्ज।’’
अब तो घर जाने का दिल ही नहीं करता। राखी से तो बात करना भी मुश्किल है। पता नहीं उसके दिमाग पर ज़माने भर की गंदगी कहां से छा गयी है।
’’तुम कल रात किसके साथ थे ?’’
’’किसके साथ का मतलब ? सिन्हा के साथ गया था तो ज़ाहिर है उसी के साथ हूँगा।’’
’’नहीं, कल रात तुम नेहा के साथ थे, एक ही रूम में।’’
’’बको मत, मैं नेहा के साथ नहीं था।’’
’’तुम उसी के साथ थे। मैंने कल रात उसके फ्लैट पर रिंग किया तो उसने फोन नहीं उठाया।’’
’’यार मैं एक रूम में था और सिन्हा मेरे बगल वाले रूम में। बीच में नेहा कहां से आ गयी ?’’
’’बीच में नहीं, वह तो शुरू से तुम्हारे साथ है। बीच में तो मैं आ गयी।................तुम्हें उसी से शादी करनी चाहिए थी।’’
’’फॉर गॉड सेक, चुप रहो राखी........रोना बंद करो। ...ऐसा कुछ नहीं..........।’’
लड़की का स्टेज पर डांस तेज़ हो रहा था- ’चोली के पीछे.............’ कपड़े भी कम होते जा रहे थे। बार काउंटर पर लड़की पीती जा रही थी।
चरित्र पर लगा दाग तब कैसे स्वीकार्य हो सकता है जब कोई चरित्र को ही अपनी सबसे बड़ी ताक़त माने और उसे ही चरित्रहीन कहा जाये। राखी ने सीधा इल्ज़ाम लगा दिया कि उसके नेहा के साथ नाजायज़ संबंध हैं, जबकि वह तो नेहा के मौन आमंत्रणों का जवाब दोस्ती से देकर नज़रअंदाज़ करता आया है।
’’जीजाजी, यह मैं क्या सुन रहा हूं ?’’
’’क्या? मैं कुछ समझा नहीं।’’
’’आप दीदी के साथ ऐसा नहीं कर सकते।’’
’’कैसा नहीं कर सकता? क्या कर रहा हूं मैं?’’ वह चीख पड़ा था। राखी को ये बेसिर-पैर की बातें अपने मायके वालों तक पहुँचाने की क्या ज़रूरत थी। राजू का दीमाग भी बिल्कुल अपनी बहन जैसा ही है। एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि असली बात क्या है। क्या सबके लिए वही जवाबदेह है ?
’’यस सर?’’
’’वन मोर लार्ज।’’
’’फाइन सर।’’
सामने की मेज़ से उठ कर एक आदमी नाचती हुयी लड़की से लिपटने की कोशिश करने लगा है। लड़की परेशान। शायद मजबूरी ने सिर्फ़ नाचने और जिस्म दिखाने की ही इजाज़त दी है, इसके आगे इसका भी एक चरित्र है। यह बात बाउंसर्स को भी पता है। उन्होंने उस आदमी को बाहर ले जाकर पटक दिया है। थोड़ी देर तक भुनभुनाहटें, फुसफुसाहटें। कुछ देर बाद फिर नाच व गाना शुरू-’जाओ चाहे दिल्ली, मुंबई.............’।
काउंटर के सामने वाली मेज़ पर एक ख़तरनाक सा दिखने वाला आदमी एक सूटेड बूटेड आदमी से बातें कर रहा है।
’नहीं सेठ, इससे कम में काम नहीं होगा। छोटा-मोटा काम होता, हाथ-पांव तोड़ने का होता तो............लेकिन इसके लिए तो.........।’
’ अच्छा चलो साठ कर लो। अब ठीक है न ?’
’चलो सेठ, आपके लिए कर लेता हूं नही तो आजकल रेट तो ज़्यादा.........। अच्छा सेठ चलता हूं। कल परसों में ख़बर पढ़ लेना।’
आज किसी की मौत होगी। ये शहर तो जैसे मौत के आगोश में ही सोता और जागता है। किसी की ज़िंदगी सारे अरमानों और बहुत से प्लांस को अधूरा छोड़ कर ख़त्म हो जायेगी। मौत पर इंसान का कोई बस नहीं, बहाना चाहे जो भी हो। मरने की बात सोचने पर कॉलेज की कुछ बातें याद आ जाती हैं।
’’और अगर मर गया तो........?’’ बात में बात निकलती।
’’नहीं यार, अभी नहीं मरूंगा। अभी तक तो कुछ किया ही नहीं।’’
’’कुछ मतलब ?’’ अगला हँसता।
’’अबे, न शादी की, न मज़े लिये। कुछ भी तो नहीं देखा। शादी करुँगा, बच्चे पैदा करुंगा, पैसे कमाऊँगा, तब कहीं जाकर.............।’’ वह भी हँसता।
लेकिन शादी तो एक समझौता बनकर रह गयी। राखी ने उसे कोई सुख, कोई संतुष्टि नहीं दी, न शारीरिक, न मानसिक। वह बच्चे नहीं पैदा कर सकती, इस ख़बर से वह तो परेशान हुआ ही था लेकिन राखी तो जैसे अर्धविक्षिप्त सी हो गयी। वह बिल्कुल ही असुरक्षित महसूस करने लगी। उसका ख़ुद पर से, उस पर से, दुनिया से, भगवान से, सबसे भरोसा उठ गया। परिणाम यह हुआ कि हालात बद से बदतर होते चले गये। वह एक ऐसे आदमी के चरित्र पर शक करने लगी जिसने शादी के पहले कोई नशा तक नहीं किया था, किसी लड़की पर निगाह तक नहीं डाली थी और इसे बहुत बड़ी बात समझता था। जिसने अपने दिल के आइनाखाने को सिर्फ़ एक अक्स के लिए शफ़्फ़ाक रख छोड़ा था। वह जो प्यार को इबादत मानता था। उसकी कद्र करता था और प्यार के अहसास के आगे जिस्म को कुछ नहीं समझता था।
लड़की का नाच चरम पर था। बदन पर नाम मात्र के कपड़े ही बचे थे- ’’खल्लास........।’’ काउंटर पर पी रही लड़की बारमैन से उलझ रही थी। वह बहुत पी चुकी थी। वह अपनी कुर्सी से उठ गया।
’’क्या बात है? यह चिल्ला क्यों रही हैं?’’
’’देखिये न सर, इनका बिल पंद्रह सौ हो गया है। यह बिना पे किये और रम मांग रही हैं। क्लब के रूल के अनुसार हम पंद्रह सौ के बाद क्रेडिट नहीं चला सकते और ये मैडम........।’’
’’ठीक है, ये लो दो हज़ार, इनके बिल में एडजस्ट करके इन्हें पीने दो।’’
वह आकर कुर्सी पर बैठ गया। आज राखी ने सारी हदें पार कर दीं। उसको राजू के सामने ऐयाश ही नहीं कहा, बल्कि उसके पूरे ख़ानदान को गाली दी। ये औरत किस मिट्टी की बनी है, समझ में नहीं आता। हाँ वाकई, राखी ने आज साबित कर दिया कि चरित्र, सदाचार, आत्मसंयम सब बेकार की बातें हैं। आप कितनी पवित्रता से ज़िंदगी बिता रहे हैं, उससे किसी को कोई मतलब नहीं है। राखी क्या, उसे स्वयं इन सब बातों में यक़ीन नहीं रहा।
’’थैंक्यू मिस्टर.........?’’
’’अमर।’’
’’थैंक्स... अमर, मेरा........ बिल चुकाने के........... लिए। मे आई.....सिट...हियर ?’’ लड़की और उसकी ज़बान दोनों लड़खड़ा रहे थे।
’’इट्स ओके मिस.........?’’
’’काजल.......।’’
’’हैलो काजल, नाइस टु मीट यू। यू शुड गो टु योर होम नाउ। तुम लड़खड़ा रही हो।’’
’’तुम....जैसा हैंडसम.......इंसान सामने हो.......और काजल......घर चली जाये.......नेवर।’’ लड़की ने माहौल की गरमाहट उसके होंठों में भर दी। उसका शरीर जलने लगा। सबकुछ धुंधला सा होने लगा था। नाच, पीना, शरीरों की रगड़, सबकुछ चरम पर था।
’’कम ऑन.........अमर.........कम विद मी।’’ ऊपर के फ़्लोर पर कमरे शायद इसीलिये थे। दोनों घुसे। दरवाज़ा बंद किया गया। उसकी बांहों में लड़की का जिस्म झूल रहा था और वह लड़खड़ाती हुयी बार-बार उसे किस कर रही थी। उसने उसे बिस्तर पर लिटाया और उसकी बगल में लेट गया। लड़की ने अपनी गुदाज बांहें उसके गले में डाल दीं। उसने काफी देर से पीछा कर रही अपनी रूह को परे धकेला और लड़की को किस करने लगा।
शराब उसके सिर पर भी असर दिखा रही थी। किस करते वक़्त उसे लड़की के चेहरे में राखी का चेहरा नज़र आने लगा। जब सबकी नज़रों में वह चरित्रहीन और ऐयाश है तो मासूमियत का चोला पहन कर बेवकफूफ़ों की तरह घूमने से क्या फ़ायदा? उसके हाथ लड़की के नाज़ुक अंगों पर फ़िरने लगे। नशे की अधिकता से लड़की की आंखें बंद हो रही थीं।
’’आई लव........यू..... विशाल......आई लव....यू। डोंट......लीव मी....एलोन....।’’ उसके हाथ रुक गये। कमरे में एक झिरी से उसकी रूह फिर प्रवेश पा गयी। प्यार वाकई एक ख़ूबसूरत एहसास है। वह सीधा बैठ गया।
’’क्या........हुआ........विशाल ?’’
’’.............।’’
’’क्या ......हुआ.....विशाल....?’’
’’आयम नॉट विशाल। आयम अमर।’’ वह बिस्तर से उतर कर खड़ा हो गया।
’’ओह........यू.....आर नॉट.....विशाल ?’’
’’नो, आयम........। यू लव हिम ?’’
’’या.......बट ही.......डज़ंट। ही...........डज़ंट।’’ लड़की की आंखें बंद हो गयीं। नशे की अधिकता उसके दिमाग और आंखों पर हावी हो गयी।
थोड़ी देर तक वह लड़की को देखता रहा। वह बाज़ारू लड़की उसे बहुत पवित्र और ख़ूबसूरत लग रही थी। उसका सोया हुआ शांत चेहरा उसे बहुत भला लगा। उसने लड़की माथे पर एक चुंबन लिया और चुपके से बाहर निकल गया।

Monday, March 16, 2009

ईस्ट इंडिया कंपनी

आज हम प्रकाशित कर रहे हैं युवा कहानीकार पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' की शीर्षक कहानी। यह कहानी संग्रह विगत १४ मार्च २००९ को दिल्ली के हिन्दी भवन सभागार में विमोचित हुआ। उस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग आप यहाँ सुन सकते हैं। इस किताब का लोकार्पण आप अपने हाथों भी ऑनलाइन तरीके से कर सकते हैं, साथ में अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस कहानी को सुन भी सकते हैं। यहाँ जायें। पंकज सुबीर के इस कहानी-संग्रह को भारतीय ज्ञानपीठ ने अनुशंसा के साथ प्रकाशित किया है। निर्णायक मंडली में स्वमान्य धन्य आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह भी थे, जिन्हें इस कहानी का शीर्षक इतना पसंद आया कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान उन्होंने इस कहानी को पूरा सुना। आप भी पढ़िए॰॰॰॰


ईस्ट इंडिया कंपनी


वे कुल जमा नौ थे, इसमें अगर दो बच्चों को भी जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या ग्यारह हो जाती है। हालांकि वैसे तो पूरा रेल का सामान्य श्रेणी का डब्बा यात्रियों से ठसाठस भरा था, लेकिन उसके हिस्से में वे कुल ग्यारह थे, एक तरफ बैठे हुए पाँच और दूसरी तरफ चार एवं साथ में दो बच्चे। इन ग्यारह में उसे अपनी मनपसंद खिड़की के पास की जगह मिल गई थी, एक बार उसे रेल में खिड़की के पास स्थान मिल जाए तो फिर उसे डब्बे के अंदर की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रहता, उसका मन बाहर तेजी से दौड़ रहे खेतों खलिहानों, नदी, तालाबों, बिजली टेलिफोन के खंभों, और पर्वत मालाओं के साथ दौड़ने लगता है और साथ में ताल मिलाने लगती है रेल की पटरियों पर थाप दे रही पहियों की आवाज ''सटक सटक -पटक पटक-पटक पटक'' ,''सटक सटक-पटक पटक-पटक पटक .........।''
आज उसे पहले पहल तो खिड़की के पास स्थान नहीं मिला था, लेकिन अचानक ही खिड़की के पास बैठे भद्र महाशय से टीसी की कुछ चर्चा हुई और वे अपना सामान उठाकर टीसी के साथ चले गए, वैसे भी वे तथा उनका लकदक कर रहा सामान दोनों ही सामान्य श्रेणी के डब्बे में कुछ असहज लग रहे थे। कदाचित उच्च श्रेणी में आरक्षण न मिल पाने के कारण वे यहां बैठ गए थे, गरीब लोगों के भारत से अवसर मिलते ही वे अपने वाले अमीर लोगों के भारत में चले गए, अपने हिस्से की खिड़की एक गरीब को देकर। उनके वहां से हटते ही उसने बिजली की फुर्ती से खिड़की के पास कब्जा कर लिया, खिड़की के पास बैठते ही उसे लगा कि अब यात्रा कितनी ही लंबी हो जाए कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि खिड़कियों के उस पार के एक पूरे संसार के साथ अब वो जुड़ गया है, यात्रा की यायावरता अब पूरी पकृति के साथ जुड़कर गतिमान होगी।
तो वे कुल जमा ग्यारह थे कुछ घंटों के लिए मजबूरीवश बना एक सर्वथा अपरिचित लोगों का समाज, इस समाज में न कोई किसी के भूत के बारे में जानता है, न भविष्य के, केवल वर्तमान के कुछ घंटों को काटने के लिए ये समाज बना है। खिड़की के पास आसन जमाने के काफी देर बाद वो डब्बे के अंदर आया, यहां आने से मतलब मानसिक रूप से अंदर आना है। बाहर की प्रकृति को छोड़ वो अंदर आया, तब उसे ये दस लोग दिखाई दिये, जो उसके समेत कुल ग्यारह थे और उपर वर्णित समाज की रचना कर रहे थे।
सामने की सीट पर कोने में छोटा परिवार सुखी परिवार विराजमान था, अत्यंत युवा ग्रामीण पति पत्नी और उनकी दो छोटी छोटी बेटियां, ये बेटियां इस बात का प्रमाण थीं कि यह परिवार अधिक दिनों तक छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं रहेगा। अगर दो बेटे होते तब शायद यह रह लेता, परंतु पति पत्नी की अत्याधिक युवावस्था और दो बेटियां, छोटा परिवार सुखी परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं। इन चार के बाद सीट पर एक महिला अपनी युवा बेटी को लेकर बैठी थी, लड़की क्योंकि युवा थी, इसलिए जाहिर है खिड़की के समीप बैठी थी उसके ठीक सामने। मां बेटी दोनों ही खाते पीते घर की होने की बात को अपनी चर्बी के द्वारा सिद्ध करने का पूर्ण प्रयास कर रही थी। यह था उसका विपक्षी दल का बेन्च अर्थात उसके ठीक सामने की सीट पर विराजमान उसके हिस्से का आधा समाज।
अब उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों पर नजर डाली इस अवलोकन के दौरान उसे लगा कि विपक्ष की ओर नजर डालना बहुत आसान है, आंखें उठाओ और देख लो, लेकिन अपने पक्ष को देखने के लिए बाकायदा प्रयास करना पड़ता है,बात वही सप्रयास और अप्रयास वाली है। अपनी बेंच के लोगों में स्वंय को छोड़कर उसने बाकी लोगों को देखा, विपक्ष की और जब उसने देखा था तो कहीं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई थी, किंतु जब गरदन घुमा कर कुछ झुककर उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों को देखा तो उन लोगों में विशेषकर महिलाओं में प्रतिक्रिया उनकी आंखों में साफ दिखाई दी, कुछ इस प्रकार की ,कि देखो कैसे घूर रहा है।
खैर इस देखने दिखाने की प्रक्रिया में जो कुछ नजर आया वो इस प्रकार था उसके ठीक पास दो महिलाऐं बैठी थीं, और उनके पास फिर एक महिला थी और फिर एक पुरूष बैठा था। अब इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि तीन महिलाएं और एक पुरूष बैठा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं कहा जा रहा क्योंकि दो महिलाएँ एक साथ थीं और तीसरी महिला और चौथा पुरूष एक साथ, जैसा उनके वार्तालाप से पता चल रहा था। उसके ठीक पास की दो महिलाएँ पारंपरिक भारतीय महिलाऐं थीं, जो संभवत: निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से संबंधित थीं, पारंपरिक इसलिए क्योंकि उनकी बातचीत में पात्र भले ही रह रह कर बदल रहे थे लेकिन विषय एक ही था ''निंदा'', और यह निंदा पूरी शिद्दत के साथ और पूरी ईमानदारी के साथ की जा रही थी, हालांकि कभी कभी यह निंदा निहायत कानाफूसी वाले स्तर पर पहुंच जाती थी, शायद उन महिलाओं का यह मानना था कि भले रेल के डब्बे की दीवारें हों या घर की दीवारें, दीवारें तो दीवारें हैं, और उनके कान होते ही हैं।
इन दो महिलाओं के उस तरफ जो पुरूष और महिला थे वे वास्तव में दो वृद्ध थे, एक सरदार जी और उनकी पत्नी, सरदार जी पूर्ण पारंपरिक वेशभूषा में थे और ऊपर एक कृपाण भी लटकाए हुए थे। पत्नी उनसे कुछ अधिक वृद्ध थी या फिर बीमार थी, ऐसा इसलिए क्योंकि सरदार जी थोड़ी थोड़ी देर बाद स्वयं उठकर नीचे फर्श पर बैठ जाते थे, और उन दो लोगों वाले स्थान पर उनकी पत्नी अधलेटी हो जाती थी। ऐसा रह रहकर हो रहा था ।
पूर्ण सिंहावलोकन करने के पश्चात उसने पुन: सामने नजर डाली तो उसके ठीक सामने बैठी लड़की उससे नजर मिलते ही बिला वजह ही शर्मा गई। कुछ लड़कियों के साथ यही समस्या होती है, एक ठीक ठाक सा पुरूष जो थोड़ी दूर से देखने पर युवक होने का भ्रम उत्पन्न करता हो, उसकी उपस्थिति मात्र से ही इन्हें कुछ कुछ होने लगता है। स्थिति यह हो गई कि कुछ ही देर में उसे ''कनखियों से देखना'', ''दुपट्टा मुंह में दबाना'', ''पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद कर लजाना'' जैसी घोर दुर्लभ घटनाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का सौभाग्य मिल गया। यद्यपि ट्रेन के उस घोर मरूस्थली फर्श पर कुरेदने जैसा कुछ नहीं था, फिर भी महिलाऐं परंपराओं का पालन करने में अधिक विश्वास करती हैं, अब परंपरा पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने की है तो कुरेदना है।
उधर कोने का छोटा परिवार सुखी परिवार अपने आचरण से स्पष्ट कर रहा था कि अब यह छोटा परिवार यात्रा समाप्त होने के कुछ समय पश्चात ही छोटे परिवार का दायरा तोड़ देगा। यद्यपि दो बच्चियों के कारण दोनों खासे परेशान नजर आ रहे थे।
तो इस तरह दोदो के चार समूहों में ग्यारह सदस्यीय दल चर्चारत था, और इन सबके बीच एक बिला वजह की चर्चा उसके और सामने वाली लड़की के बीच भी हो रही थी, हालांकि यह चर्चा निगाहों से होने वाली चर्चा थी और पूर्णत: एकतरफा थी। और इसी एकतरफा चर्चा के कारण वो पुन: खिड़की से बाहर निकल गया और एक बार फिर नदी ,तालाब ,पेड़ ,पहाड़ों के साथ दौड़ने लगा। अच्छा होता है खिड़की के पास बैठना क्योंकि खिड़की के पास बैठने वाले को यही एक बड़ी सुविधा होती है, अगर डिब्बे या बस के अंदर का माहौल किसी व्यक्ति विशेष अथवा घटना विशेष के कारण रूकने योग्य न हो रहा हो, तो शारिरिक रूप से अंदर उपस्थित रहकर मानसिक रूप से बाहर निकला जा सकता है जो वो अभी कर रहा है।
काफी देर तक वो खिड़की के बाहर दौड़ता रहा तब तक जब तक बाहर अंधेरे ने नदी पर्वत तालाबों को लील नहीं लिया और बाहर दौड़ना उसके लिये पूर्णत: असहज नहीं हो गया। घना अंधकार बाहर फैला और वो अंदर लौट आया, अंदर आकर उसे पहली तसल्ली यह मिली कि उसका मूक साथी अपनी मां के कंधे पर सिर टिकाए सोने या संभवत: ऊँघने की स्थिति में आ चुका था, बाकी सब कुछ पूर्ववत था, हाँ एक लगभग अधेड़ उम्र के स्त्री पुरूष जो केवल इसलिए पति पत्नी कहे जा सकते थे क्योंकि ट्रेन भारत में थी, वे दोनों जहां दोनो सीटें खत्म होती हैं ठीक उस स्थान पर आकर खड़े हो गए थे। पति पूर्णत: पारंपरिक भारतीय अधेड़ था ,जिसके सर के बाल विलुप्त हो गए थे और पेट तोंद नामक निर्जीव वस्तु में परिवर्तित हो चुका था। पत्नी उससे भी ज्यादा भारतीय नजर आ रही थी।
पति की आंखों में कुछ पा लेने के लिए आतुरता नजर आ रही थी। उसने देखा कोने वाले सरदारजी की पत्नी फिलहाल लेटी हुई है, और सरदार जी सीट से नीचे बैठे ऊँघने वाली मुद्रा में नजर आ रहे थे। नवागत खड़े खड़ाए दंपति की निगाहें अधलेटी सरदारनी के द्वारा घेरे गए स्थान पर टिकी हुई थी, अगर सरदारजी पास नहीं बैठे होते तो निश्चत रूप से वे अभी तक सरदारनी को उठा चुके होते। रात काफी हो चुकी थी लेकिन पब्लिक डब्बे में क्या रात और क्या दिन, क्योंकि बैठे बैठे ऊँघना ही था, और वो भी लोहे की सख्त सीटों पर। उसे केवल एक बात का डर था कि उसके ठीक सामने की ऊँघ टूट न जाए, नहीं तो फिर उसे कुरेदना लजाना झेलना पड़ेगा,क्योंकि अंधेरे मे खिड़की से बाहर भी तो नहीं जा सकता।
सरदारनी अचानक कुछ कराही और उठ कर बैठ गई, सरदाजी को इस बात का पता नहीं चल पाया कि सरदारनी उठ कर बैठ गई है वे पूर्ववत ऊँघते रहे, सरदारनी को शायद कम दिखता है वह उठकर चुपचाप बैठ गई बस एक बार दुपट्टे को संभाल कर सर ढंक लिया। सरदारनी के उठते ही खड़े पति पत्नी के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसे फिल्मी भाषा में आंखो ही आंखों में इशारा हो गया कहा जा सकता है। इस बात को केवल उसी ने देखा कि खड़े पति ने भोंहों को ऊपर उचका कर गर्दन को सामने खींच कर सरदारनी के बैठ जाने से बने रिक्त स्थान की और इशारा किया, और जवाब मे खड़ी पत्नी ने गिरगिट की तरह तीन बार स्वीकृति मे सिर हिलाकर पति के हाथों से बैग ले लिया यह पूरा घटनाक्रम उसके लिए दिलचस्प हो गया था, उसे अब डिब्बे के अंदर भी मज़ा आ रहा था।
हाथों मे बैग लेकर खड़ी पत्नी कुछ देर तक खड़ी रही, फिर बिल्ली की तरह दबे पांव उस रिक्त स्थान की और बढ़ी, दबे पांव बढ़ने का कारण शायद यही था कि सरदारजी की नींद न खुल जाए क्योंकि उस स्थिति में सरदारजी उस स्थान के पहले हकदार होने के कारण बैठ जाते। लेकिन खड़ी पत्नी का साथ आज किस्मत दे रही थी, वह अपना बैग और लगभग बैग सा ही ठसा ठसाया शरीर लेकर उस रिक्त स्थान पर बैठ गई, अर्थात अब उसे बैठी पत्नी कहा जा सकता था। खड़ी पत्नी के बैठते ही उसकी सीट पर हल्की सी हलचल हुई, यह हलचल सरदारनी की तरफ से नहीं हुई क्योंकि उन्हें तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था, यह हलचल उसके ठीक पास बैठी दोनों पारंपरिक महिलाओं की और से हुई।
ये दोनों महिलाऐं अभी भी ऊँघ-ऊँघ कर निंदा में लगी हुई थीं रात हो जाने के कारण निंदा के विषय भी नींद या रात से संबंधित हो गए थे, मसलन फलानी को नौ बजे से ही नींद आने लगती है या फलानी सुबह के आठ बजे तक सोती रहती है। इन्ही दोनों महिलाओं का यह निंदा का पारंपरिक कार्य तीसरी महिला अर्थात खड़ी पत्नी के ठीक पास आकर बैठते ही कुछ देर के लिए रुक गया। निंदा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि प्रेम गली अति सांकरी जामे तीन महिला न समाए, जो कनफुसियाना, फुसफुसियाना दो महिलाओं के बीच मजा देता है,वह मजा तीन में कहाँ? यही कारण था शायद कि दोनों महिलाओं के बीच का वार्तालाप खड़ी पत्नी के बैठी पत्नी मे बदलते ही थम गया ,और दोनों कनखियों से बैठी पत्नी की और देख रही थीं।
इसी बीच सरदार जी की ऊँघ अवस्था समाप्त हो गई, उन्होंने उठकर जैसे ही अपने स्थान पर उक्त महिला को बैठे देखा तो तुरंत बोले ''औ भैणजी इत्थे तो मैं बैठा था'' महिला ने तुरंत अपने पति की और देखा, अधेड़ पति ने तुरंत सरदारजी को जवाब दिया ''सरदारजी महिला हैं कब तक खड़ी रहतीं, आप तो अच्छे बैठे ही हो नीचे।'' सरदारजी वयोवृध्द होने के साथ विनम्र भी थे, और फिर महिला के बैठने पर आपत्ति कैसे दर्ज कराते। कुछ नहीं बोले मुड़कर सरदारनी से कुछ पूछने लगे, खड़ा पति और बैठी पत्नी दोनों मुस्कुरा रहे थे। उसने विरोध दर्ज कराना चाहा फिर सोचा जाने दो अपना क्या गया जगह तो सरदारजी की गई।
कुछ देर तक उसने खिड़की के बाहर अंधेरे में आंखे फाड़कर देखने का प्रयास किया लेकिन बाहर कुछ सूझ ही नहीं रहा था । वह पुन: अंदर आ गया उसके ठीक सामने अभी भी ऊँघ का माहौल था वह भी ऊँघने लगा। काफी देर तक वह ऊँघता रहा उसकी इस निर्विघ्न ऊँघ के पीछे कई कारण थे जैसे कि उसके ठीक सामने कि निगाह चर्चाओं का ऊँघ जाना, छोटा परिवार सुखी परिवार की पारिवारिक चेष्टाओं का थम जाना और ठीक पास के निंदा पुराण का भी ऊँघ जाना। काफी देर बाद जब उसकी आंखें थोड़ी खुलीं तो उसने देखा कि सारे सहयात्री ऊँघ वाली अवस्था से निंद्रा वाली अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं, उसके समेत केवल पांच लोग ही जाग रहे हैं, सरदारजी, सरदारनी, बैठी पत्नी और खड़ा पति। बैठी पत्नी अपने खड़े पति की चिंता में जाग रही थी और सरदारजी, सरदारनी के कारण जाग रहे थे, अर्थात् भारतीय दांम्पत्य जीवन का अनूठा उदाहरण दोनों युगल बने हुए थे।
सरदारनी को बैठे रहने में परेशानी हो रही थी शायद इसीलिये वे बार बार पहलू बदल रही थीं । पहले वो थोड़ी-थोड़ी देर बाद अधलेटी हो जाती थीं लेकिन खड़ी महिला के बैठी होने के बाद अधलेटे होने की जगह समाप्त हो गई थी। पत्नी को परेशान देख सरदारजी ने धीरे से पूछा ''की हुआ वीरांवालिए लेटना है? '' सरदारनी को कुछ समझ नहीं पड़ा वो चुपचाप बैठी रही। सरदारजी सरदारनी की पीड़ा समझ कर भी चुप रहे। इसी बीच उसने देखा कि बैठी पत्नी और खड़े पति के बीच पुन: कुछ आंखो ही आंखो में इशारा टाइप की चीज़ हुई। जिसके होने के बाद बैठी पत्नी के मुख पर कुछ इंच लंबी मुस्कुराहट फैल गई।
बैठी पत्नी ने आवाज में विनम्रता घोलते हुए सरदारजी से पूछा ''क्या बात है भाई साहब भाभी जी से बैठते नहीं बन रहा है क्या?'' सरदारजी ने सोचा शायद ऐसा सीट खाली करने के उद्देश्य से पूछा जा रहा है, इसलिए तुरंत जवाब दिया ''हां भैणजी तबीयत खराब है, ज्यादा देर बैठ नहीं पाती।'' बैठी पत्नी ने कहा ''अब तो सब सो ही गए हैं मेरे पास एक मोटी दरी है, आप उसे दोनो सीटों के बीच बिछा कर इनको वहां लिटा दो, यहां इन्हें परेशानी हो रही है।'' इतना कहकर वो अपने खड़े पति की और मुख़ातिब होते हुए बोली ''सुनिये आप ही थोड़ी जगह बनाकर ये दरी बिछा दीजिये, भाईसाहब बिचारे अकेले हैं'' स्वयं ही सलाह देकर उसकी स्वीकृति भी स्वयं देकर उसने बेग से दरी निकालकर पति की और बढ़ा दी, पति ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह दरी हाथ में ली और दोनों सीटों के बीच रखे सामान को सीटों के नीचे सरकाते हुए दरी को बिछा दिया।
दरी बिछते ही बैठी पत्नी ने तुरंत सरदारजी का बैग लेकर उसे दरी के एक सिरे पर तकिये की तरह रख दिया और सरदारजी से बोली ''लीजिए भाईसाहब भाभीजी को यहां लिटा दीजीए यहां उन्हें आराम मिल जाएगा'' सरदारजी ने उठ कर सरदारनी का हाथ पकड़ कर उठा लिया, और नीचे बिछी दरी पर लिटाने लगे, इन सब में खड़ा पति भी सहयोग प्रदान कर रहा था। सरदारनी के लेटते ही खड़ा पति भी तुरंत सरदारनी के उठने से रिक्त हुए रिक्त स्थान पर बैठकर बैठा पति हो गया, सरदारजी ने उसे बैठते हुए देखा लेकिन कुछ न बोले बोलते भी कैसे, उन लोगों की दरी पर ही तो सरदारनी को लिटाया है। सरदारजी ने सरदारनी के पैरों के पास थोड़ी जगह बनाई और वहीं नीचे बैठ गये,बैठी पत्नी ने सरदारजी से कहा ''यहां भाभीजी आराम से सुबह तक सो सकेंगी।'' उत्तर में सरदारजी ने विनम्रता से केवल सर हिला दिया।
रात काफी बीत चुकी थी ट्रेन पूरी रफ्तार से भाग रही थी ,उसे याद आया बचपन में इतिहास के शिक्षक बार बार उसे समझाते थे कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई, फिर धीरे धीरे भारत में फैली और अंतत: पूरे भारत पर कब्जा कर लिया, तब उसे समझ नहीं आता था कि ऐसा कैसे हो सकता है, इतिहास का वो सबक आज जाकर उसे समझ में आया कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस तरह भारत पर कब्जा किया होगा =। उसने बैठी पत्नी और ताजा ताजा बैठे पति की और देखा उसे लगा वे दोनो यूनियन जैक में बदल गए हैं वह धीरे से मुस्कुराया और आंखें बंद कर ऊँघने लगा। बाकी यात्रियों के साथ अब बैठा पति तथा बैठी पत्नी और सरदारजी एवं सरदारनी भी ऊँघने से निंद्रा की और बढ़ रहे थे क्योंकी अब सभी संतुष्ट हो गए थे। यूनियन जैक सीट पर लहरा रहा था, और भारत नीचे दरी पर सो रहा था वह भी धीरे धीरे सो गया।

Thursday, March 5, 2009

सोमनाथ का टाइम टेबल- नया ज्ञानोदय द्वारा पुरस्कृत ७वीं कहानी

इनदिनों आप पढ़ रहे हैं नवलेखन पुरस्कार २००८ से पुरस्कृत कहानी-संग्रह 'डर' की कहानियाँ। अब आपलोग इस कहानी-संग्रह की छः कहानियाँ (डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र) पढ़ चुके हैं। इस कहानी-संग्रह का विमोचन १४ मार्च २००९ को 'हिन्दी भवन सभागार, नई दिल्ली' में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के हाथों किया जायेगा। इस कथा-संग्रह के रचयिता और हिन्द-युग्म के सदस्य विमल चंद्र पाण्डेय इस कार्यक्रम में इसी कहानी-संग्रह से किसी कहानी का कथापाठ भी करेंगे। आप सभी आमंत्रित हैं। पूरी जानकारी जल्दी ही दी जायेगी। आज पढ़िए इस कथा-संग्रह की सातवीं कहानी 'सोमनाथ का टाइम टेबल'


सोमनाथ का टाइम टेबल


या कुन्देनदुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
याश्वेतपद्मासना
या ब्रह्माच्युतशकरप्रभृतिभिर्देवैसदावन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।

चार बजे - जागना
चार से साढ़े चार - फ्रेश होना और नहाना
साढ़े चार से पांच - पूजा करना
पाँच से छ: - पढ़ना (याद करना)
छह से सात - टहलने जाना और व्यायाम करना
सात से नौ - पढ़ना
नौ से साढ़े नौ तक - नाश्ता करना
साढ़े नौ से दस तक - लता मंगेशकर के गाने सुनना
दस से एक - पढ़ना
एक से डेढ़ तक - भोजन करना
डेढ़ से दो तक - आराम करना
दो से पांच तक - पढ़ना
पांच से छ: तक - मनोरंजन (बाहर टहलने जाना)
छ: से नौ तक - पढ़ना
नौ से दस तक - भोजन करना
दस बजे - सो जाना


नोट - "विद्यार्थी के लिए कम से कम छह घंटे की नींद बहुत जरूरी है।"

विवेकानंद - "उठो, जागो और तब तक चलते रहो जब तक लक्ष्य को पा न लो।"

टाइम टेबल पूरा होने पर सोमनाथ को लगा जैसे अब तक इधर-उधर बिखरा बेतरतीब जीवन दोनों हाथों से समेट कर करीने से लगा दिया गया हो।
परीक्षाओं की निकटता से सबसे ज़्यादा डर तब लगने लगता है जब ’प्रीपरेशन लीव’ घोषित हो जाती है। और वह भी बोर्ड..............बाप रे। कैसी होती है बोर्ड की परीक्षा? डराने के लिए लोगबाग कैसी-कैसी बातें करते रहते हैं। उसे लगा जैसे यह टाइम टेबल बना कर उसने अब तक की गयी सारी लापरवाहियों को जीत लिया है। अब कड़ाई से नियमों का पालन होगा। चारों किनारों पर लेई लगाकर काग़ज़ दीवार पर चिपकाते समय उसने चारों कोनों और बीच में (अच्छी तरह चिपक जाने के बावजूद) भी तीन-चार घूंसे मारे। फिर थोड़ी दूर खड़ा होकर यूं मुग्धता से देखने लगा जैसे कोई महान चित्रकार अपना चित्र पूरा हो जाने पर देखता है। अगर इसका पालन पूरे दो महीने हो जाय तो परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास होने से कोई नहीं रोक सकता। कहीं हमेशा के लिए पालन हो गया तब तो इंसान बन जाएगा, उसने मन में सोचा और विचारों को और पुख्तगी दी जो उसकी भिंची हुयी मुट्ठी से साफ दिखायी दी।

इस महीने यह उसका तीसरा टाइम टेबल था।
अभी कमरे से बाहर निकला ही था कि बरामदे में पिताजी से सामना हो गया। टाइम टेबल का पालन कल से क्यों, आज से बल्कि अभी से, काल्ह करे सो आज कर, सोचकर पांच से छह वाले स्लॉट में बाहर, ज़रा यूँ ही तफ़रीह करने निकल रहा था।
"कहां साहबजादे?" पिताजी का लहजा उसे देखकर हमेशा एकरेखीय क्यों हो जाता है।
"जरा बाहर जा रहे हैं।" उसने दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए कहा मानो ऐसे बोलने से बात तार्किक मानी जाएगी।
"ऊ तो दिखी रहा है। आप भीतर रहबे कितना करते हैं?"
मां चाय लेकर आयी और पिताजी के बगल में बैठ गयी। वह समझ गया कि आज पांच से छः वाले स्लॉट में सिर्फ़ भाषणबाजी होगी। पिताजी का मूड आज फिर किसी ने दफ्तर में सनका दिया है।
"इस उमर में हमारे दिमाग में सिर्फ़ पढ़ाई रहती थी।" पिताजी मां की तरफ़ देखते, चाय की चुस्की भरते हुए बोले।
उनके भाषण की प्रस्तावना यहीं से शुरू होती थी। बातों में आत्मप्रशंसा की गंध न आए, इसके लिए वह ’हम लोग’ से भाषण की गाड़ी का इंजन गरम करते थे हालांकि इसका सीधा और सरल अर्थ ’मैं’ ही होता था।
"जब भी समय मिलता था, हम लोग पढ़ने बैठ जाते थे। और समय मिलता भी कितना था, बारह बिगहे की खेती कम भी नहीं होती। पढ़ाई भी, खेती भी। तब भी हाईस्कूल में पूरे गांव जवार में फस्र्ट विद ऑनर्स।’’ पिताजी ने पहला गियर लगा दिया था।
"तब भी क्या उखाड़ लिया आपने? बिजली विभाग में बाबू बने बैठे हैं। आपके साथ के कितने लाखों चीर रहे हैं।’’ उसका हमेशा की तरह मन आया कि भइया का डायलॉग दोहरा दे पर वह हमेशा की तरह दबा गया। हूँ, हमेशा हाईस्कूल की दुहाई देते हैं, इण्टर, बीए में कितना था, यह कभी नहीं बताते। ऐसा सोचते समय क्षणांश के लिए उसे लगता था कि जब वह हाईस्कूल पास कर इण्टर में जाएगा तो राज़ खुलेगा कि पिताजी इण्टर में मेरिट में आए थे।
"अरे सुमित्रा, भरी नदी में तैर-तैर कर पढ़ने गए हैं हम लोग। एक हाथ में किताब और एक से तैर रहे हैं।" पिताजी ने ऐसी भंगिमा बनायी मानो वह तैर रहे हैं और उन्हें सांस लेने में तकलीफ़ हो रही है। ये मां भी। पिताजी फेंकते रहते है और ये ऐसे मुस्करा कर सुनती रहती है मानो अलिफ़ लैला की कहानियां सुन रही है।
"और सिनेमा-विनेमा के बारे में तो हमने सुना ही नहीं था कभी। पहली फ़िल्म नौकरी मिलने पर बरेली में देखी थी 'चंबल की कसम' छिहत्तर या शायद सतहत्तर में।"
"उस समय कहां इतने हॉल-वॉल हुआ करते थे।" उसने दिमाग में और भी ढेर सारी दलीलें कौंधी पर वह चुप ही रहा।
"और इनकी जेब से देखो तो.................पिक्चर की टिकट निकलती है। दो महीने हैं बोर्ड की परीक्षा और ये अय्याशी। टकसाल में पिक्चर............?"
वह सन्न रह गया। तो पिताजी इसलिए नाराज़ हैं। एकबारगी तो उसकी जान निकल गयी। कहीं 'जवानी के लुटेरे' की टिकट तो जेब से नहीं निकल आयी। मगर वह तो हॉल से निकलते ही फाड़ दी थी। फिर टकसाल का नाम सुनकर राहत मिली। उसमें तो ’बॉर्डर’ चल रही है। देशभक्ति फ़िल्म है। हालांकि दिनेश ये सुनकर उसे भी बड़े अरमानों से खींच ले गया था कि एक गाने में बड़े ’हॉट’ सीन हैं।
"परसों दिनेश का जन्मदिन था तो वह कई लोगों का बॉर्डर दिखाने ले गया था" उसने धीरे से कहा। पता नहीं पिताजी ने उस गाने के बारे में सुना है या नहीं।
पिताजी भड़क गये। "साले हमारे मित्र तो हमें कभी जन्मदिन पर फ़िल्म दिखाने नहीं ले जाते जबकि कमा भी रहे हैं। परसों अस्थाना का जन्मदिन था। हरामखोर ने चाय के साथ दो पकौड़ियां भर खिलायी थीं।"
"जैसा करेंगे वेसा ही तो भरेंगे। अपने जन्म्दिन पर आप भी तो सबको चाय पर ही टरकाते हैं।" उसने ईंट का जवाब पत्थर से दिया मगर मन में।
"पढ़ लो बेटा, पढ़ लो। यही साल-दो साल सबसे कीमती हैं। इनको संभाल लिया तो आदमी बन जाओगे।"
वह ख़ुश हो गया। यह भाषण का अंतिम अर्थात् उपसंहार का हिस्सा था। उसे याद आया कि पिताजी पिछले कई वर्षों से यही उपसंहार प्रयोग कर रहे हैं जो ज़्यादा घिसने के कारण अपनी धार खो चुका है। वरना अभी दो साल पहले तक स्थिति यह थी कि भाषण के एक दौर समाप्त होने पर उसे लगता था कि वह सचमुच बहुत अधम और आवारा है। तुरंत पढ़ने बैठता और कम से कम चार घंटे लगातार पढ़ता। तुरंत एक टाइम टेबल भी बनाता जिसमें रोज आठ से दस घंटे पढ़ने का संकल्प होता।
पिता उसकी तरफ़ से ध्यान हटा कर मां से बातें करने लगे। वह उल्टे पांव कमरे में लौट आया। पूरा मूड चौपट हो चुका था। उसने धीरे से किवाड़ बंद किए, सिटकनी लगायी और गद्दे के नीचे से रंगीन चित्रों वाली किताब निकाली। कुछ पन्ने पलटते ही उसकी सांसे तेज़ हो गयी और ख़ून का प्रवाह दुगुने वेग से होने लगा। लगातार तनती जा रही शिराओं को उसने खुली छूट दे दी और उन्मुक्त कल्पनाओं को दबी इच्छाओं के चाबुक से हांक दिया। मगर इसका क्या कहें कि बीच-बीच में बड़े अतार्किक ढंग से सलोनी याद आने लगी। उसकी मोहक हंसी, उसकी सुरीली आवाज़। उसने किताब छिपा दी और सलोनी की हंसी याद करने लगा। सभी शिराएं धीरे-धीरे ढीली होने लगीं और वह अचानक ही हल्का अनुभव करने लगा।


2.
पिताजी से ज़्यादा डर उसे भइया से लगता था। बहुत ज़्यादा। पिता की स्टाइल जानी पहचानी थी, संवाद परिचित थे और वह ज़्यादा आक्रामक नहीं थे। जबकि भईया, वह तो जैसे गिद्ध की नज़र ओर बाज की पकड़ रखता है। और उसके दोस्त, बाप रे बाप।
"किस क्लास में है बे सोमनाथ ?" गणेशी भईया ने पूछा था।
"हाईस्कूल फ़ाइनल है।" भईया ने चाय पीते हुए बताया।
"इधर आओ बे।" गणेशी भईया ने बुलाया।
वह डरता-डरता गया।
"परसों संझा समय मलदहिया पे क्या कर रहे थे ?" गणेशी भईया के सवाल ने उसे दहला दिया। वह दिनेश और तौफीक के साथ जीजीआइसी गया था, सलोनी की झलक पाने।
"मलदहिया पर ?" भईया भी चौंक गया। " गये थे बे?"
वह बहुत डर गया। हदस में उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकली। वह जानता था कि अचानक कुर्सी से उठकर भईया तड़ाक से उसके गाल पर एक कड़क चांटा रख देगा और पूरा ब्रह्मांड उसकी आंखें के सामने नाच जाएगा।
अचानक गणेशी भईया उसका हाथ अपने पास खींच कर इधर-उधर देखते हुए बोले, "भोसड़ी वाले, आगे से लौंडियाबाज़ी करते देखे तो गांड़ काट कर भूसा भर देंगे। लंका से लेकर भोजूबीर तक हमारी पहुंच हैं। कहीं दिखना मत।"
वह रूंआंसा हो गया। गणेशी भईया ने उसे इतने गंदे लफ्ज़ों में डांटा और भईया ने कुछ नहीं कहा। सिर्फ़ हंसता हुआ बोला, "भग बे, जाकर पढ़ाई कर।"


3. सलोनी जब से मुहल्ले में आयी है, मुहल्ला सुंदर लगने लगा है। अब नालियों में मुंह मारती सूअरें देख कर उसे गंदा नहीं लगता। कहीं भी गोबर-टट्टी पड़ी रहती है तो क्या हुआ, एक इतनी ख़ूबसूरत चीज़ भी तो इसी मुहल्ले में है।
एक अजीब परिवर्तन हुआ था। जबसे सलोनी को देखना उसे अच्छा लगने लगा था, तबसे ’रेशमा की जवानी’ और ’शीला मेरी जान’ जैसी फ़िल्में उसे गंदी लगने लगी थीं। रंगीन चित्रों वाली किताब उसने तौफीक को लौटा दी थी और फ़िल्में जाना बंद कर दिया था। एक फ़िल्म देखते हुए एक लड़की बिल्कुल सलोनी की तरह लगी थी। वह मुग्ध होकर देख ही रहा था कि लड़की ने अपने सारे कपड़े उतार फेंके। उसने वह फ़िल्म वहीं छोड़ दी और बाहर निकल आया।
"आप नयी किराएदार आयी हैं क्या ?" उसे आश्चर्य हुआ कि इतना साधारण प्रश्न पूछने के लिए उसे दस दिन छत पर टहल कर इंतज़ार करने की क्या ज़रूरत थी।
"हां। आपके बगल वाला प्लाॅट हमारा है, पापा ने अभी खरीदा है। उस पर हमारा घर बनेगा। इसीलिए हम इस मुहल्ले में आए हैं ताकि पापा मकान में जल्दी से काम लगवा सकें।’’ सुंदर लड़की ने जवाब दिया।
’’ आप बहुत सुंदर हैं।’’ उसने मन में कहा ओर प्रत्यक्षतः पूछा, ’’ इसके पहले आप लोग कहां रहते थे ?’’
’’नदेसर।’’ सुंदर लड़की ने मुख्तसर सा जवाब दिया।
’’ आपकी छत से होकर जो हवा इधर आ रही है वह बहुत प्यारी सुगंध दे रही है।’’ उसने कहना चाहा पर आवाज़ निकली, ’’नदेसर में मेरा भी एक दोस्त रहता है।’’
’’अच्छा कौन ?’’ जलतरंग सी आवाज़ ने पूछा मानो वह नदेसर के सभी बाशिंदों का डेटाबेस रखती है।
’’अनुज नाम है उसका। क्वींस काॅलेज में पढ़ता है। मैं भी। टेंथ, मैथ्स। आप ?’’ इस बार का अपना सायास प्रयास उसे अच्छा लगा।
’’मैं जीजीआइसी, टेंथ्स, आर्ट्स।’’ वह बुझ सा गया। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि लड़की ज़रूर मैथ से पढ़ रही होगी, गणित में बहुत कमज़ोर होगी, गुणनखंड से बहुत डरती होगी और कोई दोस्त खोज रही होगी जो पढ़ाई में उसकी मदद कर सके।
’’ मेरा नाम सोमनाथ है।’’ उसने उसका नाम जानने की गरज से किसी फ़िल्म की स्टाइल दोहरायी।
’’ और मैं सलोनी।’’ लड़की ने भी शायद फ़िल्म देख रखी हो।
अब तो उसका मन हुआ कि लड़की की आंखों में आंखें डाल कर कह दे कि तुम्हारा नाम बहुत ख़ूबसूरत है, मगर अचानक उसके सारे संवाद खो गये। लड़की आसमान में देख कर एक मोहक किलकारी मार कर खुश हुयी थी। उसने भी एक बार उपर देखा और फिर लड़की की गर्दन को देखने लगा जिस पर एक सुंदर तिल था।
’’ आपको पतंगें देखना पसंद है क्या ?’’
’’ बहुत, सिर्फ़ देखना ही नहीं उड़ाना भी। जब छोटी थी तो ख़ूब उड़ाती थी, अब मां मना करती हंै।’’
जब वह उसके चले जाने के बाद नीचे उतरा तो उसका वजूद बदल चुका था। उस पर एक ख़ुमारी तारी थी और वह अनायास ही कुछ देर अकेला रहना चाहता था।


4.
भईया कोई जादूगर था। वह हर समस्या को चुटकी जाते हल कर देता। उसकी एक चमत्कारिक दुनिया थी जिसमें वह अपने दोस्तों के साथ घूमा करता था। रात को ख़ूब देर-देर से घर आता और कभी-कभी तो नहीं भी आता। उसका फोन आता कि आज रात वह अपने फलां दोस्त के यहां रुकेगा। पिताजी उसे शायद ही कभी कुछ कहते हों। पहले उसके देर से आने पर ख़ूब झगड़े हुआ करते थे। एक दिन उसने सुना, भईया चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, ’’अपने सिद्धांत मुझ पर मत पेलिए। बहुत ईमानदारी की पुंगी बजाते रहे ज़िंदगी भर। पूरे जीवन में आपकी क्या उपलब्धि रही, ये एक घर, एक सड़े से मुहल्ले में? मैं आपकी तरह बाबू नहीं बनना चाहता। जो चाहूंगा, वहीं करूंगा।’’
उसे लगा पिताजी चिल्लाएंगे और भईया के उपर खूब बिगड़ेंगे, पर वह चुपचाप अपने शयनकक्ष मे चले गये। मां भी आंसू पोंछती उनके पीछे-पीछे चली गयी।
एक दिन भईया को खोजने पुलिस आयी थी। भईया घर पर नहीं था। दरोगा ने पिताजी को ख़ूब हड़काया था। सोमनाथ डर कर स्टोर रूम में छिपा रहा था। दरोगा की आवाज़ सुनकर ही उसे दहशत हो रही थी।
’’ आने पर कहिएगा थाने आकर मिले मुझसे नहीं तो साले के हाथ-पांव तोड़ दूंगा।’’
भईया आया तो उसने भईया को अपने तरीके से यह बात बतायी। वह उस वक्त भी डर रहा था। भईया थोड़ी देर सोचता रहा फिर गणेशी भईया को फोन मिलाने लगा।
दूसरे दिन वह सलोनी को दिखा-दिखा कर पतंग उड़ा रहा था। दोनों उस एक पतंग पर सवार होकर बादलों को चीर रहे थे। दोनों बहुत ख़ुश थे। उसने पतंग दूर तक ढील कर सलोनी को उड़ाने के लिए दी। सलोनी ने थोड़ी देर तक अच्छे से उड़ाया पर पतंग में चख अधिक थी। जब पतंग कन्निया कर पटकाने लगी तो उसने जल्दी से डोर थाम ली। अद्भुत स्पर्श...........वह सम्मोहित सा हो गया और कुछ क्षणों के लिए किसी दूसरी दुनिया में खो गया।
’’अरे संभालो गिरी........।’’
जब तक सलोनी की आवाज़ सुनकर वह पतंग को ठुमकी देता, वह छतिया कर सामने के छत पर पटका गयी थी। उसने छुड़ाने की कोशिश की पर पतंग नहीं निकली। वह सलोनी को डोर थमा कर नीचे उतरने लगा कि उसकी रुह कांप उठी। वही दरोगा उसके घर की तरफ अपनी बुलेट से चला आ रहा था। इस बार वह अकेला था। वह सरसराता हुआ भईया के कमरे में पहुंचा और तुरंत उसे ख़बर दी, ’’ कल वाला दरोगा फिर आ रहा है।’’
भईया ने बदले में उसे हिकारत से देखा।
’’क्या कर रहे थे छत पर? पढ़ाई नहीं हो रही?’’ भईया ने कड़क आवाज़ में पूछा।
गेट बजने की आवाज़ सुनकर भईया उठ कर गेट खोलने गया।
’’नमस्कार रामनाथ भाई।’’ दरोगा ने भईया को सलाम किया तो उसके मन में भईया के लिए डर और सम्मान दोनों दुगुना हो गया।
’’नमस्कार दरोगा जी। आइए अंदर आइए।’’ भईया ने गेट खोल दिया और दरोगा गाड़ी बाहर खड़ी कर अंदर आ गया।
’’ तुम अंदर जाओ मां और दो कप चाय बना दो।’’ भईया ने पीछे-पीछे गेट तक निकल आयी बदहवास दिखती मां से कहा।
वह मौका पाकर धीरे से पतंग छुड़ाने चला गया।


5.
भईया के समने पड़ने से वह अंतिम क्षण तक बचता था। और उसके दोस्तों के सामने अगर एक बार भी क्लास लगी तो हफ़्ते भर तक सपने आते हैं। गणेशी भईया से तो वह भईया से भी ज़्यादा डरता था। बहुत मरखाह थे और दो बार थप्पड़ मार कर उसका गाल सुजा चुके थे। एक दिन उसने सुना, वह भईया से कह रहे थे, ’’ गुरू तुम्हारे इलाके में नया घण्टा टंगा है, तुम नहीं बजाओगे तो हमें दिलाओ।’’
’’ अबे हम तो डायन वाला सिद्धांत लगाकर कर्म करते हैं और फल की इच्छा भी नहीं करते। तुम्हारे लिए सोचना पड़ेगा। बहुत पसंद है क्या?’’ भईया ने रस लेते हुए पूछा था।
’’पसंद.........? अब मिल जाए तो ज़िंदगी तर जाए। एकदम करारा और फ़्रेश आइटम है। तुम गुरू आदमी हो, कुछ करो।’’
’’ और तुम बेटा हो गुरूघंटाल.....।’’ भईया के साथ-साथ गणेशी और अमरेश भईया भी हंसे थे।
उस दिन वह छत पर बैठा सलोनी से बातें कर रहा था। आठ बजे से पहले बैठ कर बातें करना सुरक्षित था। उसके बाद खाना बना कर कभी उसकी तरफ से मां छत पर आ जाती तो कभी सलोनी के पापा खाना खाकर टहलने चले आते।
बातें करते हुए उसने महसूस किया सलोनी थोड़ी उदास है।
’’क्या हुआ ?’’ उसने डरते-डरते सलोनी का हाथ पकड़ा ओर किसी कड़ी प्रतिक्रिया के लिए ख़ुद को तैयार कर लिया। आख़िर सलोनी ने ही तो कहा था कि वह उसका सबसे अच्छा दोस्त है और उसके साथ उसे समय बिताना बहुत अच्छा लगता है।
’’कुछ नहीं..........।’’ ओर सलोनी ने अपनी दूसरी हथेली उसके हाथ पर रख दी।
वह रोमांच से भर उठा। आसमान अचानक उसे बहुत नीचे उतर आया जान पड़ने लगा ओर धरती कुछ तेज़ी से घूमती महसूस हुयी। वह सोचने लगा कि अब क्या कहे, क्या करे।
’’ सोमू, आज मेरा जन्मदिन है और मम्मी की तबियत ख़राब होने के कारण घर में मिठाई नहीं आयी। घर दूर होने की वजह से कोई सहेली भी नहीं आयी। पिछले साल नदेसर में मेरी सभी सहेलियां...........।’’ बोलते-बोलते उसकी आवाज़ थर्राने लगी।
अचानक सोमनाथ को लगा कि ऊपर वाले ने उसे बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी दी है। इस दुखी लड़की को ख़ुश करना उसका कर्तव्य है। उसक सामने उसकी सलोनी रो दे और वह चुप बैठा रहे? अचानक वह एक आनोखे अभिभावकत्व भाव से भर उठा और दोनों हाथों से उसके आँसू पोंछ दिये। हालांकि इसमें भी उसे काफी हिम्मत करनी पड़ी।
’’तुम यहीं रहना, मैं अभी आया।’’ वह फुर्ती से उठ खड़ा हुआ।
’’कहां जा रहे हो ?’’
’’बस अभी आया।’’
’’नहीं, मुझे छोड़ कर कहीं मत जाओ।’’ सलोनी ने उसका हाथ पकड़ कर खींचा तो उसे लगा कि वह कितने महत्व की चीज़ है। अभी कहीं भईया देख ले तो उसे पता चले कि जिसे वह बेवकूफ़ बच्चा समझता है, उसकी किसी के लिए कितनी अहमियत है। काश यह दृश्य भईया ने देखा होता। तभी उसे भईया के करारे चांटे याद आ गये और अनायास ही उसका हाथ गाल पर चला गया। अच्छा हुआ जो वह घर में नहीं है।
वह जब बैठा तो सलोनी उसके सीने से लग गयी। उफ्फ, उसका स्पर्श..........उसके बालों की सुगंध। उसे लगा जैसे वह हवा में उड़ रहा हो। वह उसके बालों पर हाथ फेरने लगा। सलोनी ने उसके सीने से लगे-लगे ही कहा, ’’यू आर माइ बेस्ट फ्रेंड।’’
उसने धीरे से उसे अपने से अलग किया। बिठाया, बालों से हाथ फेरते उसके चेहरे तक आया और कहा, ’’मैं बस पांच मिनट में आया, नीचे मत जाना।’’
सलोनी की पुकार को अनसुना कर वह नीचे उतर आया। नीचे आकर अपने सारे पैसे बटोर कर दुकान तक जाने और वापस दौड़ कर छत तक पहुंचने में उसे उतना ही समय लगा जितना अमूमन सिर्फ़ छत से अपने कमरे में जाने में लगता था।
’’जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं।’’ उसने बर्फ़ी का टुकड़ा उसके मुंह में ज़बरदस्ती डाल दिया। सलोनी ना-नुकुर करती रही ओर उसने उसे ज़बरदस्ती चार बर्फि़यां खिला दीं। फिर सलोनी ने आने हाथों से उसे दो बर्फि़यां खिलायीं। उसके बाद उसके जादू की तरह अपनी जेब से पेप्सी की दो बोतलें निकालीं। दोनों ने एक दूसरे का जूठा पिया और इसमें एक आनोखी भावना ने दोनों को घेरे में ले लिया जिसे कोई नाम दिये जाने की ज़रूरत किसी को नहीं थी।
’’ये मेरा सबसे यादगार जन्मदिन रहा, थैंक्स।’’ सलोनी ने उसके गाल पर एक चुम्बन लिया। वह विभोर हो गया। बदले में ऐसी ही कार्रवाई वह भी करना चाह रहा था लेकिन एक ही दिन में इतनी उपलब्धियां उससे संभाली नहीं जा रही थीं। कहीं यह ख़ूबसूरत सपना टूट न जाए, यह सोचकर वह चुप बैठा रहा। दोनों देर तक एक दूसरे का हाथ थामे बैठे रहे। स्पर्श की अपनी एक भाषा थी। इस दृश्य को लिए ही वह नीचे आया ओर कई दिनों तक इसी दृश्य में खोया रहा।
टाइम टेबल की तरफ देखने पर घबराहट बढ़ जाती है। एलजेबरा और त्रिगोनोमेण्टरी के अलावा अभी मैथ में ही बहुत कुछ बचा है। हाइट एण्ड डिस्टेंस अगर आज ख़त्म हो जाए तो फिर सर्किल ओर इलिप्स कल कर लेगा। चार्ल्स और बॉयल के सवाल लगाने हैं। हिंदी और अंग्रेजी पर पूरा दो हफ्ता चाहिए। उसकी अंग्रेजी काफ़ी कमज़ोर थी। टेंस के बारे में सोचते ही टेंस हो जाता था। सलोनी की अंग्रेजी काफी अच्छी है। उसके पापा उसे पढ़ाते हैं। उसे याद आया कि उसे कभी पिताजी ने पढ़ाई पर भाषण देने के अलावा और कुछ नहीं किया। न उसे कभी ख़ुद पढ़ाया न ही भईया को कभी पढ़ाया होगा। उसे भईया भी नहीं पढ़ा सकता। उसे तो लगता है कुछ आता ही नहीं। कोई परीक्षा पास नहीं कर पाता ओर कहता है कि तैयारी कर रहा है। हां, कॉलेज में कोई ऐसी डिग्री नहीं जो उससे बची हो। पढ़ाई को लेकर भईया कभी गंभीर नहीं रहा। बस यूनिवर्सिटी के सामने अपने दोस्तों के साथ पुतले फूंकता है और पुलिस से डंडे खाता अखबारों में छाया रहता है। उन अपमानजनक तस्वीरों को भी ऐसे संभाल कर रखता है मानो पुलिस उसे मार नहीं रही बल्कि मुख्य अतिथि बना कर माला पहना रही है। उसने पीछे मुड़ कर देखा तो पाया कि भईया ने पढ़ाई तो दूर दिनचर्या सुधारने के लिए भी कभी कोई टाइम टेबल नहीं बनाया।
उसने ख़ूब टाइम टेबल बनाए हैं। इस टाइम टेबल का पालन सिर्फ़ हफ़्ते भर हो पाया। उसने टाइम टेबल दीवार से नोच दिया। काग़ज़ के कुछ टुकड़े दीवार पर लगे रह गये। वह नये जोश के साथ टाइम टेबल बनाने लगा। दरअसल कुछ चीज़ें इस तरह बदल गयी हैं कि यह टाइम टेबल बहुत कठिन और कमज़ोर हो गया है। अब सब शुरू से। ज़्यादातर हिस्से पूर्ववत् थे। शाम के हिस्से में कुछ बदलाव हुआ।
2 बजे से 5 बजे तक - पढ़ना
5 बजे से 7 बजे तक - छत पर टहलना
7 से 9 तक - पढ़ना
9 बजे 10 तक - भोजन करना
10 बजे - सो जाना

उसने इस टाइम टेबल को लाल ओर हरे रंगों के स्केच से बनाया। थोड़ी देर गौर से देखने के बाद टाइम टेबल को उसने उसी जगह चिपका दिया। इसका भी पालन कितने दिनों तक हो पाएगा, कहना मुश्किल है। कारण.........सिर्फ़ एक ही सलोनी। जब भी पढ़ने बैठता, मन को एकाग्र कर पाना मुश्किल हो जाता। पहले सलोनी का चेहरा किताब के पन्नों पर उतर आता...फिर वह उससे बातें करने लगती। कल्पना के घोड़े बेलगाम हो जाते और वह सलोनी को उस पर बिठा कर हवा की चाल से कहीं दूर निकल जाता। वहां कोई नहीं होता। सिर्फ़ वह, सलोनी और उनके मनपसंद रंग।
वह बहुत अच्छा गाती है, यह उसे बहुत बाद में पता चला।
’’क्या गांउं ?’’
’’कुछ भी..........जो भी तुम्हें पसंद हो।’’
’’कोई छत पर आ गया तो ?’’ वह भय दिखाती।
’’कोई नहीं आएगा। तुम धीरे-धीरे गाओ।’’ वह सुझाता।
’’ फिर से आइयो
बदरा बिदेसी
तेरे पंखों पे मोती जड़ूंगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले की सौ।’’
गाते समय उसकी आंखें लगभग बंद हो जातीं। सोमनाथ सोचता कि उसे सलोनी का गाया गाना ज़्यादा अच्छा लग रहा है या उसका आंखें बंद किया हुआ चेहरा।
एक दिन वह नीचे से भईया का वाकमैन कम रेकॉर्डर उठा लाया। सलोनी ने एक-एक करके कई गाने गाए और उसने इन्हें रेकॉर्ड कर लिया। परीक्षा में बच रहे कम दिनों को देखते हुए यह ज़रूरी था। पढ़ते समय हमेशा उसके गाने कानों में गूंजें, इससे अच्छा है कि इसे टाइम टेबल में एकमुश्त थोड़ी जगह दे दी जाए।


6.
एक दिन भईया ने उसे अपने कमरे में बुलाया। गणेशी भईया भी बैठे थे।
’’यह जानता होगा।’’ भईया ने गणेशी भईया से मुस्कराते हुए कहा।
’’ पीछे जो भास्कर जी आए हैं उनकी लड़की का क्या नाम है ?’’ गणेशी भईया ने पूछा।
’’ जी.......सलोनी।’’ उसने हकलाते हुए बताया।
’’ हम्म्म्ममम, यथा नाम तथा गुण।’’ गणेशी भईया भईया की तरफ़ देखकर मुस्कराये।
उन्होंने ने सलोनी के क्लास और विषयों के बारे में काफी जानकारियां लीं और जब अपने मतलब की सारी बातें पूछ चुके तो उसे डपटते हुए बोले, ’’साले बहुत जानकारी रखे हो उसके बारे में। पढ़ाई में दिमाग नहीं है। तैयारी करो बेटा नहीं लटक जाओगे। बोर्ड है बोर्ड। चलो निपटों हिंया से।’’
वह बगल वाले कमरे में आने की बजाय दीवार से लग कर उनकी बातें सुनने लगा। गणेशी भईया जिस तरह से सलोनी का नाम ले रहे थे उसका मन कर रहा था कि उनका मुंह तोड़ दे पर उनका मुंह इतना ख़तरनाक है कि वह दो क्षण से ज़्यादा उधर देख ही नहीं पाता।
फिर वहां रूक कर सुनने से ही उसे गणेशी भईया के मंसूबों के बारे में पता चला। वह किसी सुनसान रास्ते पर सलोनी को रोक कर उससे बात करने की योजना बना रहे थे। तो इन्हें पता है कि सलोनी कोचिंग से किस रास्ते से लौटती है। वह तन कर खड़ा हो गया। उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं। वह गणेशी भईया को सबक सिखाएगा। उनकी यह हिम्मत ?
अगले दिन वह पनवाड़ी वाले मोड़ पर खड़ा था कि गणेशी भईया की मोटरसाइकिल आती दिखी। वह सावधान हो गया। गणेशी भईया आकर मोटरसाइकिल खड़ी कर पनवाड़ी से बातें करने लगे और एक सिगरेट सुलगा कर पीने लगे। यह रास्ता आमतौर पर शाम को शांत ही रहता था। वह सोचने लगा कि क्या और कैसे करेगा। सामने से सलोनी अपनी साइकिल पर आती दिखी तो उसकी धड़कनें तेज़ हो गयीं।
जैसे ही साइकिल पनवाड़ी के पास आने को थी, गणेशी भईया ने साइकिल इतनी तेज़ी से मोड़ी कि सलोनी को साइकिल रोक देनी पड़ी। उसके पांव ज़मीन पर टिक गये। यही क्षण था जब वह तेज़ क़दमों से चलता सड़क पार करके सलोनी के पास पहुँच गया।
’’ प्रणाम भईया।’’ उसने गणेशी भईया को तुरंत सलामी ठोकी। सलोनी उसे देखकर जीवंत हो उठी। उसने तुरंत साइकिल संभाली और यह जा वह जा।
’’तुम चूतियाराम हिंया का कर रहे हो।’’ भईया ने पनवाड़ी के सामने ही उसके कान उमेठ दिये। ’’हमें पहिले से तुम्हारे उपर सक रहा। आज पकड़ लिए न रंगे हाथ। चलो घर कूटते हैं। इसिलिए आज इधर निकले थे।’’
’’सोमू, इधर इधर......।’’ उसने देखा दिनेश सड़क के उस पार रजिस्टर लेकर लहरा रहा है।
’’हम नोट्स लेने आए थे दिनेश से। झूठे कान उमेठ दिये आप।’’ उसने भुनभुनाते हुए कहा ओर सड़क पार कर गया। हालांकि यह संवाद उसने ज़ोर से बोला था पर इतना ही ज़ोर बचा था उसके पास कि भुनभुनाहट की आवाज़ सुनायी दी। यह उसका वर्ष का सर्वश्रेष्ठ संवाद वर्ष भर रहेगा।
उसे लगा घर पर गणेशी भईया भईया से शिकायत करेंगे ओर भईया उसकी ख़बर लेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
रात को सलोनी उसके सीने से लग गयी। ’’तुम नहीं पहुंचते तो पता नहीं वह आदमी क्या बद्तमीज़ी करता। कई दिनों से मेरा पीछा करता है।’’ सोमनाथ ने उसके बाल सहलाए। उसी वक्त उसके मन में विचार आया कि बोर्ड की परीक्षाएं पास करने में क्या है। यह तो बच्चों का काम है। उसे महसूस हुआ कि नीचे उतर के वह एलजेबरा उठाए या कोआर्डिनेट, टेंस उठाए या सूर, सब चुटकियों में हो सकता है। सलोनी को सीने से चिपकाए ही का आकार बढ़ने लगा। सबसे पहले वह मुहल्ले की सबसे ऊँची छत से उंचा हुआ, फिर स़ड़क पर स्थित ताड़ के पेड़ से, फिर टीवी टावर से और अंत में उसने आसमान में किसी सितारे की बगल में सड़ा होकर देखा। उसकी छत पर दो परछाइयां आपस में चिपकी खड़ी थीं।
सलोनी उसकी ज़िंदगी की हर परत में शामिल हो चुकी थी। कई कठिनाइयों को देखते हुए उसने कुछ दिनों बाद एक नये टाइम टेबल की रचना की जो पिछले टाइम टेबल से कुछ बिंदुओं पर अलग था।

सुबह चार बजे - जागना
चार से साढ़े चार - सलोनी के गाए गीत वाकमैन लगाकर सुनना
रात आठ से साढ़े आठ - सलोनी के गाने वाकमैन में सुनना

जो कल्पनाएं पढ़ाई में बाधा थीं वही पढ़ने और अच्छा करने को भी प्रेरित करती थीं पर मूड से। सब कुछ मूड पर निर्भर होता चला जा रहा था। कुछ कल्पनाएं आगे की ओर धकेलतीं और कुछ पीछे की और खींचतीं। वह हमेशा कल्पनाओं में खोया रहता। कल्पनाएं थीं भीं तो अनंत। उसके घर के बगल में सलोनी का घर बने, इस स्थिति में सोचने के लिए ढेर सारी संभावनाएं थी, अनेकों स्वप्न थे और हर स्वप्न में भरपूर जीवन था।
मगर जैसे ही सलोनी के प्लॉट में ईंटें गिरीं, उसकी पूरी लाइन में एक अजीब सा तनाव छा गया। शुक्ला जी, सिंह अंकल और तिवारी जी तीनों मिलकर उसके घर आकर बैठने लगे। हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले पिताजी और भईया एक साथ मिलकर अजीब मुख मुद्राएं बनाए खुसर फुसर करने लगे। वह उजबक सा अपनी पढ़ाई से बहाना निकाल उनकी बातें सुनने की कोशिश करता पर जब कुछ समझ में नहीं आता तो पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक कड़ा टाइम टेबल बनाने लगता। एक दिन सलोनी ने ही बताया।
’’ कुछ लोग नहीं चाहते कि हम यहां घर बनाएं।’’
’’ क्यों मगर ?’’ उसे सुनकर आश्चर्य हुआ।
’’ हम लोग एससी एसटी हैं न इसलिए...........।’’
’’ एससी या एसटी ?’’
’’ पता नहीं, दोनों अलग अलग होता है क्या ?’’
’’ और क्या। अलग होता है। तुम्हें नहीं मालूम ?’’
’’ नहीं, कभी जानने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। पर इसी में से कुछ।’’
’’मगर क्या.........?’’
भईया देर रात तक अपने दोस्तों के साथ घर में बैठकें करने लगा था। उसे वहां फटकने की भी मनाही थी। जितना उसने छिप छिपाकर सुना उससे उसे यही लगा कि सब सलोनी के पापा का नाम लेकर उनकी ज़मीन के बारे में ही बात कर रहे हैं।
फिर जल्दी ही एक दिन एक चमत्कार हुआ जिसे सारे मुहल्ले ने आंखें फाड़-फाड़ कर ओर हाथ जोड़-जोड़ कर देखा।
वह उस दिन टाइम टेबल से भी आगे निकल कर रात दो बजे तक पढ़ता रहा था इसलिए नींद देर से खुली। बगल वाले प्लॉट से खूब आवाज़ें आ रही थीं। वह तड़ से बिस्तर से कूदा और गेट खोल कर बाहर निकल आया।
सलोनी का प्लॉट मुहल्ले और आस-पास के लोगों से खचाखच भरा हुआ था। एकाध लोग कैमरे लेकर फोटो खींच रहे थे। भईया को लोग घेरे खड़े थे और वह चीख-चीख कर लोगों को कुछ बार-बार बता रहा था।
’’ मुझे भोर में सपना आया। सपने में भोलेनाथ बाबा विश्वनाथ हाथ में त्रिशूल लिए मुझसे कह रहे थे, मुझे बाहर निकालो, मुझे बाहर निकालो। मैं डर गया ओर मेरी नींद खुल गयी। मैं पेशाब करने बाहर आया तो देखा कि प्लॉट के बीचों बीच प्रकाश सा दिख रहा है। मैं आया तो देखा धरती को चीर कर यह शिवलिंग बाहर निकलना चाह रहा है। मैंने डर के मारे शोर मचाना शुरू किया तो शुक्ला जी निकल आए। मैं तो चूतिया आदमी हूं, मुझे कुछ बुद्धि नहीं। शुक्ला जी ने जैसे यह देखा, अपने घर से दूध उठा लाए। वह जैसे ही शिवलिंग पर दूध डालने लगे, यह धीरे-धीरे बाहर आने लगा। मैं भी दूध ले आया और डाला तो यह थोड़ा और बाहर आया। तब तक तिवारी जी, श्रीवास्तव जी और ठाकुर साहब भी आ चुके थे। फिर तो कई लोग अपने घरों से दूध लाकर डालने लगे।
’’ आपका पूरा नाम क्या है रामू जी ?’’ एक अखबार वाले ने लिखते हुए पूछा।
’’ जी रामनाथ पाण्डेय। यह भी नोट कर लिजीएगा कि श्रीवास्तव जी के साथ परशुराम दूबे भी बाहर निकले थे।’’ भैया ने दूबे जी को इशारा करते देख उनके नाम का भी उल्लेख किया। दूबे जी अहसानमंद नज़रों से पहले भईया की ओर फिर शिवलिंग की ओर देखने लगे। अचानक भीड़ में से कोई चिल्लाया, ’’ बोल बाबा विश्वनाथ की........।’’
पूरी भीड़ चिल्लायी, ’’ जऽऽऽऽऽऽऽऽय।’’
भीड़ ने फिर साथ में एक हुंकार भरी, ’’ हऽऽऽर हऽऽऽर महादेऽऽऽऽऽव।’’
सलोनी के पापा एक तरफ खड़े थे। सब लोग उनकी तरफ घूमे।
’’ आप बहुत भाग्यशाली हैं भास्कर जी। साक्षात् महादेव आए हैं आपकी ज़मीन में। अब यहां भोलेनाथ का भव्य मंदिर बनेगा। बोलिए बाबा विश्वनाथ की................।’’
’’ जऽऽऽऽऽऽय.......।’’ पूरी भीड़ के साथ सलोनी के पापा ने जो धीरे से कहा वह न जाने कहां खो गया।


7.
भीड़ की कोई ज़ात नहीं होती। भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। भीड़ का स्थायी भाव होता है शोर और भोजन होता है उन्माद। ऐसा कहते हुए अनुपम सर बहुत गंभीर नज़र आए थे। वह उनके सामने पूरी समस्या सुनाकर चुपचाप बैठा था। अनुपम सर उसके स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाते थे और गली के मोड़ पर रहते थे।
’’ अब क्या होगा सर ? सलोनी के पापा ने पूरी जमा पूंजी लगाकर यह ज़मीन ख़रीदी है।’’ उसने चिंतित स्वर में पूछा।
’’ तुम्हें क्या लगता है सोमू ? क्या होना चाहिए ?’’ अनुपम सर ने इत्मीनान से पूछा था।
’’ मुझे...........मैं क्या कह सकता हूं सर ? अब भगवान के आगे कोई क्या.........?’’ वह विचारों के भंवर में फंसा हुआ था।
’’ तुम किस भगवान को मानते हो सोमू ?’’ सर ने फिर पूछा।
’’ मैं..........? मैं शंकर भगवान को, बजरंग बली को और दुर्गा मां को..............।’’ उसने सोचकर बताया।
’’ हम्म्म्म्म.............तो जाओ शंकर भगवान की पूजा करो और उनसे आग्रह करो कि यह प्लॉट छोड़कर कहीं और प्रकट हों। देखो तुम्हारी कितनी सुनते हैं।’’ सर ने मुस्कराते हुए कहा। वह और उलझ गया और वहां से गुमसुम चला गया।
उसे लगा था सर कोई सॉलिड आइडिया बताएंगे जिससे वह सलोनी के बुझ चुके चेहरे पर मुस्कान ला सकेगा। सर पूरे मुहल्ले में उसे सबसे समझदार लगते थे। पर सर जल्दी किसी के मामले में पड़ते नहीं। उनकी बातें सुनो तो लगता है कि वह चाह दें तो दुनिया की सारी ख़राब चीज़ें व्यवस्थित हो जाएं पर वह सिर्फ़ आइडिया देते हैं। ख़ुद किसी चीज़ में नहीं पड़ते। उनके पास टाइम भी कहां है। हमेशा पढ़ते या कुछ लिखते रहते हैं। अब उसके पास एक ही रास्ता बचा था। मनीष और उसकी जादुई नुस्खे। वह हालांकि मनीष का बहुत अच्छा दोस्त तो नहीं पर उससे कोई झगड़ा भी नहीं है। वह ज़रूर उसकी मदद करेगा। दिनेश से उसकी अच्छी दोस्ती है। उसे साथ लेकर जाना ठीक रहेगा।
मनीष पांच मिनट ड्राइंगरूम में बैठने के बाद दोनों को अपने कमरे में ले आया जहां कोर्स की किताबों के पीछे लाल, हरे, नीले रंगों के कवर वाली अनेक किताबें थीं। उसका कमरा भी रहस्यमय था। घुसते ही लगता था कि यहां फुसफुसाहट से बात करनी चाहिए। कमरे में एक तिलिस्म था जो घुसते ही अपनी ज़द में ले लेता था।
’’ परसों पापा ने मुझे बहुत पीटा।’’ मनीष लगभग फुसफुसाते हुए बोला।
’’क्यों बे क्यों ?’’ दोनों ने लगभग साथ-साथ पूछा।
’’ क्यों क्या। दिमाग नहीं है किसी को इस घर में। जवान बेटे पर हाथ उठाते हैं।’’ बोलकर मनीष थोड़ी देर के लिए रुका और फिर फुसफुसाहट में बोलने लगा, ’’ मैंने एक चूहा मार कर उसके ख़ून से रुमाल को अभिमंत्रित किया था और सामने के कुशवाहा अंकल के घर में डालने वाला ही था कि..............।’’
’’उससे क्या होता ?’’ दिनेश अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाया और बात बीच में काट दी। मनीष अचानक ख़ामोश हो गया और फिर सिद्धपुरुष की तरह गंभीर आवाज़ में बोला, ’’साले बात बीच में न काटा करो। उस रुमाल में उस आदमी का नाम आ जाता जिसने कुशवाहा अंकल की साइकिल चुरायी है। पापा ने पहले ही देख लिया। जवान बेटे को कैसे ट्रीट करते हैं आजकल के बापों को मालूम नहीं है। हां बताओ सोमू, मुझसे क्या चाहते हो तुम ?’’ वह मुद्दे पर जल्दी आ गया तो सोमनाथ को ख़ुशी हुयी।
’’ मैं ख़ाली इतना चाहता हूं कि सलोनी की ज़मीन उसको मिल जाये। उसके घर में दो दिन से खाना नहीं बन रहा यार।’’ उसने दुखी स्वर में कहा।
’’हम्म्म, ये मुद्दा भगवान से संबंधित है इसलिए मैं कोई गारंटी नहीं ले सकता कि काला जादू एकदम काम करेगा...........।’’
’’तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे तुम्हारा काला जादू हमेशा काम करता है जबकि गारंटी का रेशियो...............।’’ दिनेश की बात सुनकर मनीष झटके से खड़ा हो गया और उसकी आवाज़ अचानक ही बहुत धीमी हो गयी। उतार चढ़ाव भरी आवाज़।
’’मेरा जादू अक्सर काम नहीं कर पाता तो सिर्फ़ इसलिए कि साला इस घर का माहौल इसके लिए बहुत ख़राब है। सब मेरे पीछे पड़े रहते हैं। इसके लिए शांत माहौल चाहिए। देखना किसी दिन ये सब चुतियापा छोड़कर श्मशान चला जाऊँगा साधना करने तब समझ में आएगा जवान लड़के के साथ कैसे..............।’’
’’ छोड़ो मनीष भाई, बताओ न क्या करूं ?’’ सोमनाथ ने उसकी बात काट का अपनी वाज़िब चिंता रखी तो वह कुछ किताबें पलटने लगा। किताबों का पलटना कुछ देर तक चला और कमरे में एक तिलिस्मी सन्नाटा देर तक छाया रहा।
’’ देखो दोस्त, तुम एक काम करो। एक गिरगिट मारो ओर उस लड़की, क्या नाम बताया, हां सलोनी की लम्बाई के बराबर का धागा लेकर उसे गिरगिट के ख़ून से रंग लो। फिर इस मंत्र का खुले आसमान के नीचे बैठकर एक सौ आठ बार जाप करो। जाप करके इस धागे को इस यंत्र बने काग़ज़ में लपेट कर उसके छत पर फेंक दो। अल्लाह ने चाहा तो इस घर की सभी बाधाएं गायब हो जाएंगी। एक बात का ध्यान रखना कि यह सब करते तुम्हें कोई न देखे इसलिए आधी रात को ही..............।’’ अचानक आदत से मजबूर दिनेश ने बात काट दी। हालांकि यह सवाल सोमनाथ के मन में भी कौंधा था।
’’ अल्लाह क्यों बे भगवान क्यों नहीं.................?’’
’’ साले बेवकूफ़, छोटी-छोटी चीज़ों से ऊपर उठो। विद्या ऐसे नहीं आती। किसी भी कला के लिए अल्लाह, भगवान और हर भगवान को साधना पड़ता है, समझे ?’’ मनीष ने तल्ख आवाज़ में पूछा।
दोनों ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया।
’’ तुम लोग समझोगे भी नहीं। तुम लोग मेरे घरवालों से कम जाहिल थोड़े हो जो यह तक नहीं जानते कि जब बाप का जूता.........ख़ैर। ऐसा किताब में लिखा हुआ है, यही समझ लो। एक बात जान लो किसी भी विद्या को सीखने के लिए..............।’’
मनीष की रहस्यमयी बातों को दोनों मुंह बायें सुन रहे थे कि तिलिस्मी कमरे का दरवाज़ा किर्रऽऽऽ की तिलिस्मी आवाज़ के साथ खुला और मनीष की बात अधूरी रह गयी।
’’ ख़ूब बैठकी हो रही है बेटा। खाली बकवास दिन भर। पढ़ाई हो गयी तेरह बाइस। महीने भर बची है बोर्ड की परीक्षा। पिछली पिटाई भूल गये लगता है। आने दो पापा को बताती हूं कि दिन भर बकवास हो रहा है। ओर तुम लोग बेटा ? कोर्स तैयार हो गया क्या जो तफ़रीह मारने निकले हो ? तुम लोगों के घर भी शिकायत भिजवानी पड़ेगी। कायदे से मार चाहिए तुम लोगों को भी.............।’’
जब मनीष की मम्मी अपना संक्षिप्त भाषण देकर निकलीं तो कमरे का सारा लिलिस्म टूट चुका था। मनीष को देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे वह अभी श्मशान की ओर निकल जाएगा। सोमनाथ ने काग़ज़ पर बना यह यंत्र उठाया ओर यह सोचता हुआ निकल गया कि आख़िरी बार उसने गिरगिट कहां देखा था।
सुबह से शाम तक की अथक मेहनत के बाद सोमनाथ एक गिरगिट मारने में सफल हो गया। दिनेश ने गिरगिट मारने के कार्यक्रम में उसका मनोबल बढ़ाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। शाम तक गिरगिटों का अध्ययन करके सोमनाथ इतना एक्सपर्ट अनुभव कर रहा था कि सिर्फ़ एक गिरगिट मारना उसे काफी महंगा सौदा लगा। वह गिरगिटों की आदतों ओर उनके रहन-सहन पर सुंदर लेख लिख सकता था या कोई लेक्चर दे सकता था। अब ये सब आसान काम थे।
उसके ख़ून में पांच फीट लम्बा धागा सानना मुश्किल काम था। दोनों ने इसे जी कड़ा करके अंजाम दिया। धागे को ख़ून में डुबाने, रात के दो बजे छिप कर बिना आहट छत पर जाने और 108 बार मंत्र का जाप करने में काफी शक्ति थी। इतनी देर में उसके अंदर इतना आत्मविश्वास भर गया कि उसे पूरी तरह विश्वास हो गया कि अब उसकी सारी समस्याएं आज रात भर की मेहमान हैं। जब काग़ज़ में लपेट कर वह धागा उसने सलोनी के छत पर फेंका तो एक ख़ुशगवार निश्चिंतता ने उसे लपेट लिया और वह बेपरवाही से सोचता हुआ नीचे उतरा कि जब वह सुबह सो कर उठेगा तो सब कुछ बदल चुका होगा।
जब वह सुबह सो कर उठा तो सब कुछ बदल चुका था। आज मुहल्ले के लोग शिवलिंग पर दूध नहीं चढ़ा रहे थे। आज शिवलिंग के चारों तरफ दीवार उठायी जा रही थी। कुछ लोग दरियों ओर चटाइयों पर बैठे आरती कर रहे थे जिसका भावार्थ यह था कि हे प्रभु तुम्हीं ग़रीबों को धन, लंगड़ों को पांव और बांझों को पुत्र देते हो इसलिए हमें भी वे-वे चीज़ें दो जिनकी हमें ज़रूरत है। भईया दीवार चुन रहे मज़दूरों को गाली देकर तेज़ हाथ चलाने को कह रहा था। उसी समय कुछ अखबार वाले और कैमरा लिये लोग आये तो भईया अचानक झपट कर खु़द भी मज़दूरों के साथ काम करने लगा। एक कैमरा वाला भईया का दोस्त था जो एक बहुत अच्छे चैनल में कैमरामैन था। पहले वह शादियों की वीडियो रिकॉर्डिंग करता था और भईया ने उसे किसी से कह सुन कर उस चैनल में रखवा दिया था। वह अक्सर भईया को अपने चैनल पर प्रमुखता से दिखाता था और उसके कहने पर अखबार वाले भी भईया की ख़ूब अच्छी तस्वीरें छाप देते थे। बदले में भईया उन्हें कभी-कभी चाय पान करा दिया करता था। सब भईया और उसके दोस्तों की तस्वीरें लेने लगे।
सलोनी के मम्मी पापा एक तरफ़ खड़े थे। उसके पापा आंखों में आंसू भरे आरती कर रही भीड़ के के पास खड़े दरोगा के पास फिर गये जिन्हें उन्होंने ही रिपोर्ट लिखवा कर बुलाया था। इस बार दरोगा भड़क गया।
’’ अजीब आदमी हैं आप। अरे कितना बार समझाएं आपको कि भगवान के मामलों में क़ानून कुछ नहीं कर सकता। आप भी क्यों नहीं बैठते और कीर्तन करते ? ग़ज़ब के नास्तिक आदमी हैं आप।’’
’नास्तिक’ शब्द सुनकर आरती करने वाले पलटे और नास्तिक को क़रीब खड़ा देख कर दुगुने ज़ोर से आरती गाने लगे। भईया भी बीच-बीच में इनकी मदद करता। अचानक उत्साहसे पलटता और चिल्लाता, ’’ हर हऽऽऽऽर.........?’’
उसके बाकी दोस्त जिनमें कुछ सलोनी को घूर रहे थे ओर कुछ उसकी मम्मी को, उसके स्वर में स्वर मिलाते हुए चिल्लाते, ’’ महादेऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽव।’’
वह उलझन भरी हताशा के साथ कुछ देर वहीं खड़ा रहा। प्लॉट में श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी। सलोनी के चेहरे पर छायी वीरानी उसे उदास करने लगी। उसे भगवान और भईया दोनों पर गुस्सा आने लगा। फिर उसे लोगों पर भी बहुत गुस्सा आया। मनीष के काले जादू ने भी काम नहीं किया। अब यहां एक छोटा सा मंदिर बनेगा और मुहल्ले के लोग यहां पूजा करने आया करेंगे। भईया या उसका कोई दोस्त यहां पुजारी बन कर बैठ जाएगा। सलोनी के पापा अपना परिवार लेकर यहां से कहीं दूर चले जाएंगे। वह कुछ दिन सलोनी को याद करेगा और फिर अपनी पढ़ाई और टाइम टेबल पर ध्यान देने लगेगा। बहुत सालों बाद किसी यात्रा के दौरान सलोनी उसे ट्रेन में मिलेगी। वह कहेगा कि वह उससे अब भी प्रेम करता है। वह कहेगी वह उससे तब भी प्रेम नहीं करता था। वह घबरा गया।


8.
रात चांदनी थी और चांद की रोशनी में छत पर दो आकृतियां बिना हिले-डुले बैठी थीं।
’’ तुम अपने टाइम टेबल के हिसाब से आज कल पढ़ाई कर रहे हो या नहीं ?’’
’’ उहूं........आजकल पढ़ाई में एकदम मन नहीं लगता। तुम्हारी तैयारी कैसी है ?’’
’’ ठीक है।’’
थोडी देर तक वही ख़ामोशी छायी रही जो हर बार एक संवाद के बाद छा जा रही थी, बहुत देर से।
’’सुनो।’’
’’हूं।’’
’’ वह गाना सुनाओ न..........।’’
’’नहीं सोमू, कोई आ गया तो......?’’
’’ कोई नहीं आएगा। तुम गाओ ना। कितनी अच्छी हवा चल रही है।’’
’’ फिर से आइयो
बदरा बिदेशी
तेरे पंखों पे मोती जड़ूंगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले...................।’’
गाते-गाते सलोनी का गला भर आया ओर सुनते-सुनते सोमनाथ की आंखें। उसने सलोनी की हथेलियों को माथे से लगा लिया।
’’ हम लोग तीन-चार दिनों में यह मुहल्ला छोड़ देंगे। पापा केस करने जा रहे थे तो चाचा ने रोक लिया। कहा पैसे की बर्बादी है।’’
’’ मत जाओ।’’ वह भरे गले से इतना ही कह पाया। थोड़ी देर तक फिर चुप्पी छायी रही।
’’ पापा कह रहे थे कि हम एससी-एसटी न होते तो हमारे ज़मीन में भगवान नहीं निकलते। हमारी ज़मीन इसलिए हड़पी गयी क्योंकि हम लोग एससी-एसटी हैं।’’ सलोनी ने कहा और उसकी ओर यूं देखने लगी मानों कोई सवाल पूछा हो।
’’नहीं सलोनी, यह पूरी तरह सच नहीं है।’’ अचानक उसे लगा जैसे उसके ऊपर अनुपम सर सवार हो गयें हों। ’’ तुम्हारे जगह कोई ब्राह्मण या ठाकुर भी होता तो उसकी ज़मीन भी हड़पी जाती। ये लोग धीरे-धीरे इतने मज़बूत और बड़े होते जा रहे हैं कि अब ये कुछ भी हड़प सकते हैं। हां, इस पंडितों और ठाकुरों के मुहल्ले में एक एससी की ज़मीन हड़प लेना आसान ज़रूर रहा।’’ उसकी आवाज़ तेज़ हो गयी तो सलोनी ने उसका हाथ दबाया।
’’ मैं तुम्हें यह मुहल्ला छोड़ कर नहीं जाने दूंगा।’’ कहता हुआ उठ कर वह नीचे चला गया। हालांकि भईया की जादूगरी और ताक़त को वह अच्छी तरह जानता था। वह जानता था कि भइया कुछ भी कर सकता है। उसने जब से होश संभाला है, भईया के चमत्कारों को देखसुन कर ही बड़ा हुआ है। अब इस मामले को ही ले तो पाता है कि अकेले भईया ने क्याक्या साध रखा है। कितनी जल्दी चीज़ों को सल्टा देता है। सलोनी के पापा ने एक दिन कुछ नेता टाइप के लोगों को बुलाया। वे लोग अपने हाथों में तख्तियां लिये हुये थे जिन पर लिखा था, हक नहीं छोड़ेंगे, जान दे देंगे। वंचितों के अधिकार हड़पना बंद करो। सरकार निकम्मी है और भी बहुत से नारे। वह ख़ुश हुआ कि अब शायद कुछ अच्छा होगा। वे लोग अभी उस प्लॉट में मंदिर के आस-पास तख्तियां लेकर बैठे ही थे कि पता नहीं कहां से ढेर सारे गेरुए कपड़े पहने और हाथ में छोटे-बड़े त्रिशूल लिए ढेरों बाबा लोग आ गये और वहां जय श्री राम, जय श्री राम के नारे लगने लगे। तख्तियों वाले लोगों में से कुछ को उस भीड़ में पता नहीं किसने थोड़ा मार-वार भी दिया। वे लोग तख्तियां वहीं फेंक-फांक कर भाग गये। एक दिन एक सरकारी गाड़ी लाल बत्ती लगाये आयी और उसमें से एक अधिकारी के साथ सलोनी के पापा भी उतरे। अधिकारी मंदिर को कुछ देर तक देखता रहा और फिर सलोनी के पापा के कंधे पर हाथ रख कुछ कहा। भईया को भी बुलाया गया और उसने भईया को भी कुछ समझाया मगर कमाल कि उसके जाने के बाद सब कुछ वैसे का वैसा ही रहा। सब अपने अपने काम पर लग गये जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। एक दिन तो हद, सलोनी के पापा के साथ चार पांच हट्टे-कट्टे लोग आये और आकर मुहल्ले में शोर मचाने लगे। भईया शोर सुनकर बाहर निकला तो वे लोग भईया से भिड़ गये और उसे एकाध झापड़ रख दिया।
ये क्या मज़ाक है ? भईया ने गुर्राते हुए पूछा।
मज़ाक तो तू कर रहा है साहब के साथ। कल से ये सब यहां से हट जाना चाहिए। एक ने चाकू लहरा दिया।
भईया ने अचानक पैंतरा बदला और अपनी कमर के पीछे हाथ डाल कर एक छोटी सी पिस्तौल निकाल ली। सोमनाथ का दिल दहल गया। भईया के पास पिस्तौल .....? उसने पिस्तौल लहरायी और उन आदमियों से न बोलकर सलोनी के पापा से बोला, ’’आपके परिवार के साथ जो भी ऊंच-नीच होगी अंकल जी, उसके जिम्मेदार सिर्फ़ आप और आप होंगे, यह बात तो अब मानेंगे आप, है कि नहीं...........?
सलोनी के पापा हतप्रभ खड़े रह गये और वे आदमी उनको देखते रह गये और भईया पिस्तौल चमकाता आराम से गणेशी भईया के घर की तरफ निकल गया। भईया कब क्या कर देगा और क्या क्या कर चुका है इसके बारे में उसके जैसे कमअक्ल और बेवकफूफ लोग सपने में भी अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते, इसे वह बहुत पहले मान चुका है और इसीलिये भईया से इतना कांपता है।


9.
उसे अपनी अस्त-व्यस्त होती जा रही दिनचर्या से बहुत कोफ़्त हो रही थी। रात में दो तीन बजे सोने और सुबह आठ नौ बजे जगने से ताज़ा बनाये टाइम टेबल की बहुत अवमानना हो रही थी। यह अवमानना उसके मन में एक तरह का डर भरती जा रही थी ओर उसे हमेशा लगने लगा था कि वह बोर्ड की परीक्षा में फ़ेल हो जाएगा। उसके आस-पास ऐसे बहुत से लोग थे जो हमेशा कहते-रहते थे कि हाई स्कूल की बोर्ड परीक्षा ही किसी भी विद्यार्थी का असली इम्तिहान होती है। कि यह एक ऐसा आग का दरिया है जहां विद्यार्थी की असली औकात पता चलती है। कि यही असली युद्ध है। कि यही सबसे कठिन परीक्षा है इत्यादि-इत्यादि।
उसके टाइम टेबल में कई चिंताएं घुस आयी थीं चुपके-चुपके। वे टाइम टेबल में दिखायी तो नहीं देती थीं पर उसका ज़्यादातर समय ले लेतीं। चार-पांच दिन गुज़र चुके थे। शिवलिंग के चारों तरफ़ दो-तीन फीट उंची दीवार खड़ी कर दी गयी थी। अखबार में आया था - ’’कुछ छात्रों का भक्ति में अभूतपूर्व योगदान।’’ ’’ विद्यार्थियों ने किया चमत्कारिक मंदिर में श्रमदान।’’ ’’पढ़ने वाले जागरूक छात्रों का सौहार्द्र और भक्ति में अनोखा योगदान’’ आदि-आदि। कुछ दिनों बाद यह दीवार और ऊँची होने वाली थी और इस पर पलस्तर करके इसे मज़बूत, पक्का और टिकाउ बनाया जाने वाला था। उसके पास समय जितना कम बचता जा रहा था, उसकी पूजा प्रार्थना भी उसी अनुपात में अढ़ती जा रही थी। इधर उसने त्रिकाल संध्या भी शुरू कर दी थी जिसे देख कर अक्सर पिताजी कहते, ’’ पूजा-पाठ से नहीं पास होओगे साहबजादे। पढ़इये काम आएगी।’’
वह पास होने के लिए पूजा नहीं कर रहा था। सलोनी से उसका मिलना कम हो गया था। उसके सामने जाते ही उसे लगता कि वह एक छोटा बच्चा है जिसे सिर्फ़ पढ़ना-लिखना है। इसके बाहर के किसी भी मसले के लिए वह बालक है जिसकी राय की कोई कीमत नहीं। वह यह बात अच्छी तरह समझ चुका है पर सलोनी नहीं समझती। वह पता नहीं क्यों उसे बहुत सक्षम समझती है। कितनी भोली है वह।
आजकल उसके दिमाग में सलोनी के चेहरे से ज़्यादा शिवलिंग के आस पास की दीवार घूमती रहती है। वह जब भी सलोनी को याद करता है, उसका चेहरा ख़यालों में लाता है, उसके उदास चेहरे पर वह दीवार उगने लगती है। उसका चेहरा उस दीवार के पीछे ढँक जाता है और उसके पीछे से सुबकने की आवाज़ आने लगती है। वह रोना चाहता है पर रुलाई नहीं आती। वह इस समस्या के बारे में सोचने लगता है तो अचानक अपनी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो जाता है। जब टाइम टेबल के हिसाब से पढ़ने बैठता है तो मन सलोनी में उलझ जाता है। कभी-कभी दोनों को छोड़कर आंखें बंद कर लेट जाना चाहता है पर लेटता है तो रीढ़ की हड्डी में दर्द महसूस होता है।
उसके सपनों की फेहरिस्त में एक दिन उसे वह सपना आया जिसने उसे उठते ही उल्लास से भर दिया। उन दिनों वह ढेर सारे सपने अक्सर देखा करता था। कुछ सुबह तक याद रह जाते थे, कुछ वह भूल जाया करता था। पर यह सपना याद था, एकदम स्पष्ट.......एकदम साफ़। उस रात वह तीन घंटे पूजा करके सोया। होश और बेहोशी के बीच उसने जो सपना देखा कि उसकी आंख डर के मारे खुल गयी। बिल्कुल स्पष्ट सपना। उसे लगा अभी बिल्कुल सुबह है पर जब वह तेज़ी से बैठक में पहुंचा तो वहां पिताजी, भैया ओर शुक्ला जी धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे।
’’ मैंने अभी-अभी एक सपना देखा। सुबह का सपना।’’ वह उत्साह में था। उत्साह की मात्रा इसी से समझी जा सकती है कि वह भईया के सामने कुछ बोल रहा था जो भईया के किसी सवाल का जवाब नहीं था।
’’ बको।’’ भईया ने निर्विकार भाव से कहा।
बदले में उसने पूरा सपना ख़ासी तफ़सील में कह सुनाया जिसमें भगवान शंकर ने उसके सपने में आकर तांडव करते हुए इस ज़मीन से निकाल कर गली के मंदिर में स्थापित होने की इच्छा प्रकट की थी। सब शांति से उसका सपना सुनते रहे और वह इसे अपने सपने का प्रभाव मानकर सुनाता रहा। जब पूरा सपना ख़त्म हुआ तो शुक्ला जी के चेहरे का रंग ज़रा सा बदला था पर भईया का चेहरा जस का तस था।
’’ हां बहुत अच्छा सपना था। अब जाकर पढ़ाई करो।’’ भईया ने ठंडे स्वर में पूछा।
’’ तो अब वहां से मंदिर हट जाएगा ?’’ उसने उसी उत्साह में पूछ लिया।
तड़ाक! एक ज़ोर का चांटा उसके गाल पर पड़ा और वह गिर पड़ा। भईया का स्वर थप्पड़ मारने के बाद भी निर्विकार और ठंडा था।
’’अपने काम से काम रखो बेटा नहीं तो तबियत से थूर देंगे। भगो यहां से।’’
वह उठकर कमरे में आया तो जबड़े के दाहिने हिस्से में दर्द हो रहा था और नटराज शंकर सामने लगी तस्वीर में नृत्य कर रहे थे। उसने मां से बताया, ’’मैंने भी सपना देखा है मां कि भगवान कह रहे हैं कि मुझे इस प्लॉट में मत कैद करो। तुम पिताजी को समझाओगी न मां ?’’
मां ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ’’ बेटा, वो लोग तुमसे ज़्यादा समझदार हैं न ? तुमसे ज़्यादा पढ़े लिखे। अभी पढ़ाई पर ध्यान दो। जब भईया जितना पढ़ लोगे तो समझदार हो जाओगे कि सबके सपने का महत्व अलग-अलग होता है। अच्छा बताओ खीर खाओगे या सिवईं ?’’
उसने इस सपने के बारे में किसी को नहीं बताया।
सलोनी अब अक्सर कहने लगी है कि उसके पापा अब जल्दी ही यह मुहल्ला छोड़ कर चले जाएंगे। सोमनाथ की पढ़ाई इधर एकदम डिस्टर्ब है। दिनेश रात दिन पढ़ाई कर रहा है। वह तिबारा कोर्स पूरा कर रहा है और उसका अभी एक बार भी ख़त्म नहीं हुआ। मनीष दिन में पढ़ता है और रात में कपड़े उतार कर एक मंत्र का जाप करता है। उस मंत्र का एक करोड़ बार जाप कर लेने पर उसके पास ग़ायब होने की शक्ति आ जाएगी। यह सब सोचता-सोचता अचानक किसी अनुउल्लेखनीय घटना के तहत वह कुछ मिनटों के अंदर वह बड़ा हो गया। सब बकवास है। मनीष का जादू, उसकी पूजा। सच्चे मन से प्रार्थना हो तो पूरी होती है , उसने सुना है पर सब बकवास बातें हैं। कुछ पूरा नहीं होता। कोई रास्ता नहीं। सीधा रास्ता तो यही है कि वह मंदिर को बम लगा कर उड़ा दे। पर बम कहां मिलेगा।


10.
वह बदल चुका है क्योंकि पूरी दुनिया बदल चुकी है। हर सुबह गाढ़ी उब के दस्ताने पहने आती है ओर उसे दिन भर नोचती रहती है। हर रात सीली उदासी का नकाब ओढ़े आती है और दूर तक फैल जाती है। कटने का नाम नहीं लेती। हर एक पल अपनी ही परछाईं से लड़ता अपने वजूद पर कोहरे की तरह देर तक छाया रहता है। परीक्षा की तैयारियों के बीच पढ़ते-पढ़ते अचानक उसे लगता है कि परीक्षा उसे नहीं देनी, कोई और देगा। या फिर जो कुछ भी हुआ है उससे उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह किसी और के साथ घटा है। उसके साथ क्या गुज़र चुका है, इससे किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। और सब कुछ इतनी जल्दी हुआ है कि लगता है उसे ब्योरेवार कुछ याद ही नहीं आ रहा......ख़ूब कोशिश करने पर भी। सब कुछ कई टूटे-फूटे दृश्यों में सामने से गुज़रता है।
वह शाम को बाहर जा रहा था कि पिताजी ने टोक दिया, ’’ कहां जा रहे हो पढ़ाई करने के टाइम ?’’ वह बिना जवाब दिए बाहर निकलने लगा। पिताजी आवाज़ लगाते रह गये। दरवाज़े तक पहुंचा ही था कि भईया ने देख लिया कि वह पिताजी की आवाज़ को अनसुना करके निकल रहा है। भईया ने उसे डपटती आवाज़ में रुकने के लिए कहा। उसने एक दया भरी निगाह भईया पर डाली और निकलने लगा। भईया उसकी उपेक्षा से आहत हुआ ओर सोफ़े से अचानक उछल कर एक ज़ोर का चांटा उसके गाल पर रसीद कर दिया। वह नीचे गिर पड़ा। ’’सुनाई नही देता ? हं:: सुनाई नहीं देता ?’’ भईया ने उसके उठते ही एक करारा चांटा और रसीद कर दिया। वह दूसरी बार उठा और चुपचाप दरवाज़े की ओर बढ़ा। इस हरकत ने भईया को आगबबूला कर दिया। उसने पूरी ताक़त से चांटा ताना था मगर गिरने से पहले सोमनाथ ने भइया का हाथ पकड़ लिया। दोनों की निगाहें मिलीं और उसने भईया का हाथ हिकारत से झटक दिया। फिर वह उसकी ओर बिना देखे बाहर निकल गया। भईया हारे हुए जुआरी की तरह धम्म से सोफ़े पर गिर गया।
’’ देख रहे हैं क्या हो गया है लड़के को ?’’ मां ने दुखी स्वर में कहा। बहुत दुख या ज़्यादा ख़ुशी में वह उसे और भईया को नाम से न पुकार कर लड़का कहती है।
’’ कुछ नहीं हुआ। कुछ दिनों में नॉर्मल हो जाएगा।’’ पिताजी ने टीवी देखते हुए आराम से कहा।
’’कुछ बोलता नहीं आजकल। खोया-खोया रहता है हमेशा। पता नहीं बाहर इतनी देर तक बौंड़ियाता रहता है। जबसे वह लड़की गयी है और पूरे मुहल्ले के समने इसकी पिटाई हुयी है, इसकी पागलों जैसी हालत हो गयी है। मुझे बहुत डर लगता है जी। इसकी परीक्षा भी सिर्फ़ एक हफ़्ता बची हुआ है।’’ मां के स्वर में उदासी और डर मिला हुए थे।
’’ चूतिया है। झूट्ठो का लंड़परेतन फैलाया है। तुम जादा हाय हाय मचाओगी तो अउर नाटक करेगा, छोड़ दो उसकी ओर ध्यान देना कुछ दिन। चार दिन में नशा उतर जाएगा।’’ पिताजी झल्ला कर बोले फिर मस्त होकर टीवी देखने लगे।
जब वह अनुपम सर के यहां से वापस आया तो देर रात थी। सब लोग खाकर सो चुके थे। भूख न होने के बावजूद वह थोड़ा सा खाना लेकर छत पर आ गया। खाना बहुत ज़रूरी है, भूख न होने के बावजूद, क्योंकि अब टाइम टेबल से पढ़ाई करनी बहुत ज़रूरी है। सलोनी ने कहा था कि उसे मेहनत से पढ़ाई करनी है और फर्स्ट आना है। अनुपम सर भी देर तक यही समझाते रहे थे कि वह मेहनत से पढ़ाई करे और अच्छे नंबरों से पास हो। सलोनी भी यही चाहती थी। पढ़ाई जल्दी से जल्दी पूरी करके उसे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा तभी तो वह उन चीज़ों को अपनी ज़िंदगी से निकाल सकेगा जिसकी उसे कोई ज़रूरत नहीं है। अनुपम सर बहुत समझदार हैं। सब उनके जैसे क्यों नही होते।
चांदनी रात थी ओर सलोनी की छत दूर तक वीरान थी। हालांकि कहीं दूर से गुनगुनाने की आवाज़ उसके कानों में पड़ रही थी।
’’ फिर से आइयो
बदरा बिदेसी..................।
उसे साफ दिखायी दिया कि उसके सामने सिर्फ़ पलक झपकते चांदनी रात अंधेरी रात में बदल गयी।
तेरे पंखों पे मोती जड़ूंगी
तुझे तेरे कारे कमरी वाले की सौं।’’
एक अंधेरी रात और एक भर्रायी आवाज़। उसकी मिन्नत थी कि वह कहीं न जाए। उसे छोड़कर कहीं नहीं। जब उसने कई बार अपनी मिन्नत दोहरायी तो उसने थर्राती आवाज़ में जो बयान किया उससे वह भी थर्रा गया।
’’ उस आदमी ने पूरी ताक़त से मुझे सुनसान सड़क पर लिटा दिया था और मेरे ऊपर चढ़ा हुआ था। मेरी साइकिल मेरे बगल में गिरी पड़ी थी और उसका पहिया मेरी आंखों के सामने घूम रहा था। घूमते पहिए के पीछे तुम्हारे भईया का चेहरा था। वह चेहरा जो मंदिर में पूरी ताक़त से चीख कर भजन गाते वक्त लाल हो जाता है। वह उस वक्त भी लाल था।’’
उसके लिए इस बात का कोई ख़ास मतलब नही था कि कैसे सलोनी ने पास पड़ा पत्थर गणेशी भईया के माथे पर मारा। कैसे भईया जब तक शोर मचाता जब तक उसे पकड़ने दौडा तब तक वह वहां से भाग चुकी थी। कैसे उसकी किताबें और साइकिल उसे कभी नहीं मिल पाएंगीं। वह दूर कहीं खो चुका था जहां से ट्रेन अपनी पूरी गति से पटरियों को रौंदती अपनी मंज़िल पर बढ़ी चली जा रही थी।
’’ हम लोग यह मुहल्ला छोड़ कर कल सुबह जा रहे हैं सोमू।’’ उसकी आवाज़ अब भी थर्रा रही थी।
वह कुछ नहीं बोला था और तब भी दूर पटरियों में देखने लगा था जहां अब भी उसकी नज़र टिकी थी।
जैसे तैसे थोड़ा खाना खाकर वह नीचे आया। मेज पर कोई पुराना टाइम टेबल रखा था। शायद पिछली बार का। एक दीवार पर भी चिपका था। उसे याद नहीं आया कि अंतिम कौन सा है। दीवार वाले पर उसकी नज़र कुछ लाइनों पर पड़ी।

सुबह सात से आठ - पूजा करना
शाम छह से सात - पूजा और आरती करना
रात ग्यारह से बारह - पूजा करना

वह उठा और दीवार से टाइम टेबल नोच दिया। उसे चिंदी-चिंदी करके एक कोने में फेंक दिया। फिर दूसरा टाइम टेबल उठा कर उसे भी बिना देखे फाड़ कर उड़ा दिया। उस अंधेरी रात की तरह इस चांदनी रात को भी उका मन हुआ कि अभी जाए और शिवलिंग को उठाकर उस प्लॉट के बाहर फेंक दे। लात मार कर मंदिर की दीवारें तोड़ दे। भले ही सारे मुहल्ले में शोर मच जाय। भले ही उस रात की तरह फिर से भईया उसे पूरे मुहल्ले के सामने इतना मारे कि उसके मुंह से ख़ून निकल आय। भले ही भईया थोड़ी ही देर में फिर से मंदिर में शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा कर दे। भले ही सब कुछ थोड़ी ही देर में पहले जैसा बन जाय। भले ही सब कुछ करने से कोई फ़ायदा न हो लेकिन वह एक बार फिर से सब तोड़े ज़रूर। पर उसने कुछ नहीं किया। रसायन विज्ञान की किताब उठायी और तुल्यांकी भार के सवाल लगाने लगा। सलोनी ने उस रात कहा था, ’’ मैं बड़ी होकर बहुत बड़ी अफ़सर बनूंगी ओर सब कुछ ठीक कर दूंगी। तुम भी मेहनत से पढ़ाई करना ताकि बड़े अफ़सर बन सको।’’
तुल्यांकी भार के सवाल लगाते-लगाते उसे नींद आ गयी। नींद में उसने एक बहुत ख़ूबसूरत सपना देखा।
वह अपनी छत पर खड़ा था। सलोनी अपनी छत पर खड़ी उसे देख रही थी। अचानक मुहल्ले में पानी भरने लगा। सलोनी कूद कर उसकी छत पर आ गयी। उसके पास, बहुत पास। पूरे मुहल्ले में पानी भर गया था। उसका घर, शुक्ला जी का घर, श्रीवास्तव जी का घर, ठाकुर साहब का घर, शिवजी का मंदिर सब कुछ धीरे-धीरे उस बढ़ते पानी में समा गया। जब पानी छत तक और उनके पैरों तक आ गया तो अचानक सोमनाथ के पैरों के पास एक खाली नाव आकर रुकी। वह सलोनी को लेकर नाव पर बैठ गया। उसने अपनी कुछ किताबें और टाइम टेबल भी लेना चाहा पर सलोनी ने वह छीन कर पानी में फेंक दिया। दोनों की नाव वहां से चल पड़ी। उसने देखा कि भईया, उसके दोस्त, वह शिवलिंग, उसकी किताबें और पूरा मुहल्ला पानी से बाहर आने के लिए हाथ-पांव मार रहा है। वह किसी को बचाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाता है। नाव उन दोनों को लेकर मंथर गति से आगे बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है पूरी दुनिया में सिर्फ़ वह दोनों ही बचे हैं। ऐसा लगता है यह पानी चालीस दिन और चालीस रातों तक लगातार बरसता रहा है। पहाड़ तक इस पानी में डूब गए हैं। दूर तक पानी ही पानी नज़र आ रहा है। सलोनी धीरे-धीरे उसका प्रिय गीत गुनगुना रही है। वह उसके बाल सहला रहा है। हवा में एक अजीब सी रूहानी ताज़गी है। दोनों एक दूसरे में खोये-खोये बहुत दूर निकल जाना चाहते हैं।

जब वह सोकर उठेगा तो उसे क़तई विश्वास नहीं होगा कि यह एक स्वप्न था।

Wednesday, March 4, 2009

लक्ष्य (लघुकथा)

पौ फटते ही उसने लिखना शुरू कर दिया था। एक झोंपड़े की दीवार पर लिखते ही साइकिल उठा, अगली दीवार ढूँढ़ने लगता। एक दीवार पर लिखने के उसे दो रुपये मिलते थे। ठेकेदार ने कहा था, शाम होने से पहले पचास दीवारें लिखी होनी चाहिये। उसे लक्ष्य प्राप्त होने का विश्वास था, लेकिन चार बजते-बजते वह थक कर चूर हो गया। पूरा बदन दर्द कर रहा था। कलाई का दर्द तो सहा ही नहीं जा रहा था। उसे लगा अब वह और नहीं लिख पायेगा। गेरु से भरी बाल्टी और ब्रश एक तरफ रख दीवार के सहारे, माथा पकड़ कर बैठ गया। अभी बैठा ही था, कि ठेकेदार की मोटर साईकिल आ कर रुकी।
- ’अरे उठ ! अभी तो बहुत सा लिखना है, कल सुबह जब स्वास्थ मंत्री इधर से गुजरें तो सड़क से दीखती हर दीवार पर लिखा होना चाहिये। ’
- ’मालिक बदन का पोर-पोर दुख रहा है। सुबह से कुछ नहीं खाया। अंगुलियां से ब्रश नहीं पकड़ा जा रहा।’ फटे बनियान में वह ठंड से कांपता हुआ बोला।
ठेकेदार को दया आ गई उसने मोटर साइकिल की डिक्की में हाथ डाला, एक बोतल निकाली और बोला ’ले दो घूँट लगा ले सब ठीक हो जायेगा।’ उसकी आँखों में चमक आ गई। अब वह लक्ष्य प्राप्त कर लेगा । दो की बजाय बड़े-बड़े पाँच घूंट हलक में उतार लिये और नये उत्साह से नशामुक्ति के नारे लिखने लगा।
..............दारू दानव से करो किनारा। आगे बढ़ता देश हमारा।

-विनय के जोशी