Tuesday, July 13, 2010

बलवा हुजूम ‍ः मिथिलेश प्रियदर्शी

दोस्तो,

किन्हीं तकनीकी कारणों से हम सोमवार की कहानी को ठीक समय पर नहीं प्रकाशित कर सके, उस बात का हमें खेद है। युवा कहानीकारों की कहानियों के प्रकाशन की शृंखला में इस बार पढ़िए युवा कहानीकार मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी- 'बलवा हुजूम'।


बलवा हुजूम


यकीन मानें मेरा। खूब खुश हो रहा हूँ, अपने भीतर का सब कुछ आपके आगे उड़ेलकर। अपनी बातें आपकी भाषा में लिखकर। इस तरह बातें करना वाकई बड़ा सहज और मजेदार है।
अक्षरों के टेढ़े-मेढ़ेपन पर मत जाइये। ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। बस ‘क‘ और ‘फ‘ तथा ‘म‘ और ‘भ‘ और कभी कभी ‘घ‘ और ‘ध‘ को पढ़ते समय सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल मेरी उँगलियां लकीरनुमा छत खींच कर उसके नीचे शब्दों को लटकाने की आदी नहीं है, इसलिए दिखने और लिखने में लगभग एक समान लग रहे अक्षरों के साथ गड़बड़ी की संभावना का बन जाना मुश्किल नहीं है।
जमीन पर पतली लकड़ी से पाठ सिखाते समय नानूसान कहते, ‘‘शब्द जिन्दा होते हैं। नीचे मिट्टी में लिख रहे हो तब तक ठीक है। कागज पर बिना रेखा खींचे शब्दों को हवा में लटकने दोगे, कागज हिलाते ही वे गिर पड़ेंगे।‘‘ मैं विस्मित होकर उन्हें ताकता, वे मुस्कुराते और ठुड्डी पर टिकी उनकी लंबी सफेद दाढ़ी थोडी़ और लंबी हो जाती।
सीखने के शुरूआती दौर थे, जब मैं ‘क‘ और ‘फ‘ में लगातार घालमेल कर रहा था। नानूसान मुझसे बार-बार ‘काफ्का‘ लिखवा रहे थे। जमीन पर लिखते-मिटाते एकबार मैंने उनसे पूछ दिया ‘‘काफ्का माने?‘‘
’’बहुत पहले पैदा हुआ बाहर देश का एक लेखक। उसकी किताबें तुम्हें पढ़ाऊँगा, जब हम यहाँ से बाहर होंगे।‘‘
आगे के कई दिनों तक अनायास मेरे हाथ तिनके से ‘‘काफ्का‘‘ लिखते रहे थे।
कईयों के लिए मेरा इस तरह से फर्राटेदार लिखना, समझना एकदम से दांतों के नीचे उँगली रख लेने वाली बात हो सकती है। दुनिया-जहान में आजकल होने वाले कई अजूबों पर सिर हिलाकर आश्चर्यमिश्रित सहमति कायम की जा सकती है, जैसे कि कल को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का पद पट्टे पर मिलने लग जाए (लोकतंत्र की स्थिति समझाते हुए नानूसान कहा करते हैं), या फिर कानून के मोटे पोथे में एक पन्ना और जुड़ जाए जो सोचने को अपराध मानने और उसपर दण्ड देने पर रंगा हो (कानून व्यवस्था की बात निकलने पर उन्होंने यह बात कही थी), या यह कि शहर के तमाम चिड़ियाघर बंदरों, सियारों के साथ-साथ पेड़ भी दिखाने लग जाएं या कि पीने के पानी के लिए समन्दर से ही मोटी-मोटी पाईप लाइनें जोड़ी जाने लगे (पर्यावरण के लगातार छीजते जाने पर चिन्तित होकर फीकी हंसी के साथ नानूसान ये बातें कहते हैं)।
ऐसी और न जाने कितनी अजीबोगरीब बातें, जो कल को हकीकत हो जा सकने वाली हों, बड़ी तेजी से फैलती समझदारी के कारण इन पर यकीन कर हामी भरने वालों और बातें करने पर भरसक चिन्तित होने की कोशिश करने वालों की संख्या खूब-खूब है। पर मेरा या मुझ जैसे एक निपट जंगली आदिवासी का जेल में या जंगल में रहकर फर्राटेदार लिखना-पढ़ना, वह भी उस भाषा में जो धरती की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा हो। कईयों के लिए यह वाकई अविश्वास से भरकर सिर धुनने वाली बात है। पर होती रहे। यहाँ तो प्रमाण है, इस लिसलिसहे स्याही से बनते शब्दों से पटता जाता यह कागज।
आगे बातें शुरू करने से पहले मैं अपने उन दोस्तों का नाम लेना चाहूँगा, जिन्होंने अपने असीम यातनाओं से भरे दिन-रात से कुछ बेहद धैर्य वाले घंटे निकाले, जिनकी बदौलत ढेलकुशी चलाने वाली मेरी उँगलियां अक्षर गढ़ने लगीं।
नानूसान, मेट, और बुच्चू। लेकिन सबसे पहले नानूसान क्योंकि लिखने के लिए जरूरी चीजें कागज, कलम और ज्ञान सब उन्हीं का उपलब्ध कराया हुआ है।
मुझ जैसे जवान लड़कों को पहली ही नजर में बाप-दादा की उमर सरीखा लगनेवाला, सफेद-धूसर लंबी दाढ़ी और उसके बीच हमेशा कायम रहने वाली एक गंभीर मुस्कान का धनी बुढ़ा नानूसान। जंगल और जंगल की पहचान, पीड़ाएं उसकी नसों में भरी हैं, तभी तो दूसरे ही दिन सुबह नाश्ते के वक्त संकेतों से ही मुझे अपने करीब बुलाया। उसी स्थिर मुस्कान के बीच उनके होंठ हिले और एकदम से हमारे जंगल की भाषा झरी, ‘‘जंगल से हो?‘‘ मैंने अचकचाकर हाँ तो कह दिया, लेकिन नाश्ते का कटोरा हाथ में लिए खड़ा कई पलों तक उन्हें ताकता रह गया। सुखद आश्वस्ति में डाल देने वाली यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात के तीसरे रोज ही हमारी दूसरी मुलाकात में उन्होंने सीधे पूछा ‘‘कुछ गड़बड़ किया जो पकड़े गए?‘‘ तब अपने अपराध के प्रति अनजान-सा उनकी आंखों में एकटक झाँकता मैं चुपचाप उंकडूँ बैठा रहा था। मुझे यूँ खामोश देख, उन्होंने इस बार तनिक करीब आकर मेरे बेडौल, खुरदुरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मेरी नाड़ी देखी थी और जरा चिंतित लहजे में हौले से मेरी ही जुबान में कहा था ‘‘तुम पर जंगल में सिपाहियों की अंदरूनी खबरें फैलाने का आरोप है। बतौर मुखबिर।‘‘
सुनकर मैं सकते में नहीं आया था और न ही मैंने कोई सवाल उनकी नजरों पर टांगा था, क्योंकि पकड़कर तुरन्त वहीं ढ़ेर कर दिये जाने के मुकाबले यह सब तो कुछ भी नहीं था। पर बाद की मुलाकातों में ऐसे कई खामोश सवालों के जवाब मुझे मिलते गये थे।
नानूसान डॉक्टर हैं, जैसे बडे़ अस्पतालों में हुआ करते हैं। लेकिन वे लोगों को अपने पास बुलाने की बजाए खुद उनके पास पहुँचने पर यकीन करते हैं।
उनके पास एक मोटरगाड़ी है, जिसपर कुछ मित्रों को लेकर वे दूर-दराज के इलाकों में इलाज के लिए निकल पड़ते थे। उनकी मोटर में हमेशा खूब दवाईयां होती थी, जिसे वे अपनी देखरेख में बांटा करते थे। इन इलाकों में इनके बैठने के दिन-समय तय होते थे। मोटर से मोड़ी-खोली जा सकने वाली मेज-कुर्सियां उतरतीं और किसी पेड़ की छाया के नीचे दवाखाना जम जाता। सूई लगाने से लेकर पानी चढ़ाने तक का काम खुले आसमान के नीचे होता। मलेरिया, फायलेरिया, कालाजार, डायरिया, टीबी जैसे घातक रोगों के खूब रोगी होते थे। सब के सब हारे-थके, परेशान। भूत प्रेतों और डाक्टरों पर एक साथ भरोसा करने वाले। इन सब पर नानूसान का
लेखक परिचय- मिथिलेश प्रियदर्शी
जन्म- चतरा, झारखंड
पहली ही कहानी ‘लोहे का बक्सा और बंदूक’ को वागर्थ २००७ का नवलेखन पुरस्कार।
संप्रति- अखबारों के लिए लेखन
ईमेल- askmpriya@gmail.com
इलाज चलता और साथ में समझाईश भी। इन जानलेवा रोगों के अलावे और कई रोग पसरे पड़े थे, पर जो सबसे बड़ा रोग था और जिससे प्रायः जूझ रहे थे और जिसका उपचार नानूसान के पास भी नहीं था, ऐसी भूखमरी ने कईयों को अकाल मौत के हवाले डाल दिया था। इसके पीड़ितों से इसके बारे में बात करना उनकी दुखती रग पर हाथ रखना होता था, लेकिन बातें होती थीं और बार-बार होती थीं। इस रोग की पहचान और इसके लक्षण तो साफ थे, बस इसके मूल और निदान पर लोगों के साथ नानूसान की चर्चाएं जमती थीं। यह एक दुःख था जो कहने से जरा कम टीस देता था।
हमारे जंगल का पश्चिम छोर, जहां से बाहर निकलने के लिए पेड़ों से बचबचाकर निकलती हुई कई पतली पगडंडियों से मिलकर बनी एक चौड़ी पगडंडी, जो आगे जाते-जाते कच्ची सड़क की शक्ल ले लेती है, जंगल से लगातार इसी राह के साथ दूर होते जाने पर कुछ छोटे गांव और बाद में एक हाट पड़ता है, जहाँ से हम नमक और देह ढंकने के लिए कपड़े लाते हैं। नानूसान कहते हैं, वे इसी हाट में कई दफा आ चुके हैं, जहाँ से जंगल के रोगों-दुःखों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, समझने का बढ़िया मौका मिला है। हालांकि अफसोस कि नानूसान से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो पाई, जबकि मैं पियार, केंद, बैर, लकड़ियां लेकर कई बार हाट जा चुका हूं।
और इसी तरह दुःखों-बीमारियों का पीछा करते जंगल को समझते-बुझते वे जंगल के हो गए। जहां उन जैसों के लिए अपार काम था। वे रम गए। भाषा सीखी, संस्कृति को समझा, दर्द को महसूसा, दावेदारों को पहचाना, सब कुछ खोद कर लूट ले जाने को आतुर बाहर-भीतर के लूटेरों, गुंडों, ठेकेदारों को पहचाना। जंगल को जंगल न रहने देने की साजिशों में शामिल तत्वों को देश-दुनिया के सामने नंगा किया। उन्होंने पूरे जंगल का इलाज किया, सोचने-समझने, लड़ने लायक स्वस्थ बनाया। युद्धभूमि में मानवीयता के लिए बेखौफ समर्पित एक ऐसे वैद्य और प्याऊ की भूमिका उन्होंने निभायी, जिसके लिए हर घायल उसके कर्तव्य के दायरे में आता है। उन्होंने सबको दवाईयां दी, सबकी मरहम-पट्टी की, सबको माने उनको भी जिनके करीब तक जाना मना किया गया था, जंगल आते समय।
प्रदेश के खलिफा, हुक्मरान जंगल के जिन रखवालों के शिकार के लिए जी-जान से जुटे थे और नाकाम होने पर मंदिरों में घंटियां तक टनटना रहे थे, नानूसान का चिकित्सक होने के नाते उनका भी दर्दे-ए-हाल लेते रहेने को भीषण जुर्म माना गया। बस, बिना जोखिम उठाये तुरंत के तुरंत नानूसान को भी शिकार घोषित कर पकड़ लिया गया।
जिससे जितना ज्यादा डर, उसपर उतने ज्यादा और भारी आरोप। राजद्रोह लगा दिया गया और वे तब से यहाँ हैं।
नानूसान के बारे में ये बातें खुद नानूसान ने नहीं, मेट ने और थोड़ी-बहुत बुच्चू ने बतायी, जब मैं थोड़ा पुराना और हिन्दी सुनने-समझने लायक हो गया।
सबसे पहले दोस्ती मेट से ही हुई थी। तब नानूसान से और बाद में बुच्चू से।
मेट अच्छा आदमी है और चालक है। यहां इसलिए है कि उसकी ट्रक से नशे में धुत एक रईसजादा अपनी विदेशी कार सहित कुचला गया था। मरने वाले के बाप ने ऐसी जुगाड़ लगायी थी कि मेट उम्रकैद के फासले से चंद ही कदमों से बच पाया था। मालिक ने ट्रक तो छुड़ा लिया पर मेट को सड़ने के लिए छोड़ दिया और संयोग कि उस खूनी ट्रक को अब मेट का बेटा चला रहा है।
और बेचारा बुच्चू प्रेम में मारा गया। एक लड़की थी मीना, जिसके साथ बुच्चू ने भागकर शादी की। लड़की के परिवार वालों की ओर से अपहरण का मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आनन-फानन में दोनों के दोनों पकड़ भी लिये गए। संयोग कि लड़की को अठारह पूरा करने में आठ दिन की कसर रह गई थी। काले कोट वालों ने पैसे को आगे और प्रेम को पिछवाड़े डालते हुए अपनी जिरह से साबित कर दिया कि बुच्चू ने नाबालिग लड़की को बहलाया, फुसलाया और उसे गुमराह करके अगवा कर लिया। बलात्कार की पुष्टि के लिए किए गए डाक्टरी जाँच में कुछ नहीं निकला, फिर भी बुच्चू तीन सालों के लिए रेल दिया गया और अभी तो पचास-पचपन दिन ही हुए हैं उसे।
मेरी उम्र के ही अगल-बगल फटकने वाले इस चमकदार लड़के की चमक बंद अहाते में रहते हुए बदरंग हो गई है। उसके भीतर फैले हुए सारे रंग उड़ने लगे हैं। वह आँखों में अतल सूनापन लिए खाली होता जा रहा है, इतना कि कोई कभी भी आए कभी भी जाए फर्क नहीं पड़ता।
अपनी दमक और तेज खो देने वाला एक अकेला बुच्चू नहीं है यहाँ। कई हैं। जेल हुक्मरानों को इसी में चाहरदीवारी की सफलता भी दिखती है। इस जगह को बनाया ही इस तरीके से गया है कि यहां लाये जाने वाले का पहले व्यक्तित्व मार खा जाये, फिर देह जंग खाकर निस्तेज हो जाये और अंत में सोच उसका साथ छोड़ दे। जब वह यह जगह छोड़े तो निरा पंगु होकर, मृत्युपर्यन्त अपनी निरर्थकता के साथ।
मुझे खुद से ज्यादा रोज बूढ़ा होते हुए नानूसान की परवाह है, जिनकी परवाहों में गांव है, जंगल है और हर वह आदमी है जो पीड़ित, बीमार और घायल है। डर भी लगता है कि प्रकृति, समाज और मानवता से दूर इस नितांत बंद जगह की जड़ता से हमारे माथे की गति प्रभावित न हो जाये। नानूसान कहते हैं, ‘‘हृदयगति से कम खतरनाक मस्तिष्क की गति का रुक जाना नहीं है, जो व्यक्ति की पहचान, उसके अस्तित्व पर संकट ला देता है।
इस घेरे में गति का घोर अभाव है। यहाँ सब कुछ स्थिर और नियत है, जिससे हमारे भीतर एक ऊसर किस्म का सूनापन भरता जाता है।
वही-वही चेहरे, वही-वही आवाजें, घड़ियों के पीछे-पीछे बजने वाली घंटियों की टन-टन, धीरे-घीरे बनती-मिटती परछाईयाँ, पानी के विशालकाय जड़ हौदे, बुरी तरह से ढंकी हुई कुएँ की मुंडेर, कोठरी के भीतर की चुप्पी, अँधेरा और सीलन, सूरज के उगने से लेकर तारों के ओझल होने तक की तयशुदा हलचलें, कोठरी से दिखती लाल-लाल दीवारें और उनपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे उपदेशात्मक वाक्य कि ‘अनुशासन ही देश को महान बनाता है‘, ऐसे और भी कई आधे-लिखे-मिटे चकतेनुमा शब्द-वाक्य, जिनसे अक्षर ज्ञान के बाद मैं चिढ़ता रहता हूँ। चौतरफा रचे-बसे ये सारे के सारे दृश्य आँखों से स्थायी रुप से चिपक-से गए हैं। ऊबकर इनसे टकराने से बचता हूँ, लेकिन बेकार।
पेशी के दिनों को छोड़कर बाकी के दिन और तारीखें कैलन्डरों और रजिस्टरों में ही गतिमान हैं। इनका बदलना हमारे लिए कोई बदलाव लेकर नहीं आता है। लगता है, आज के दिन जैसे जिया, कल इससे अलग नहीं था या परसों भी या फिर पिछले दो सालों के लगभग सभी दिन, जब से यहाँ रखा गया हूँ। दिन-रात इस सुस्ती से सरकते हैं, मानों इस चाहरदीवारी के भीतर घटों, मिनटों और सेकेण्डों की स्वाभाविक गति को थोड़ा घटा कर रखा गया है। शायद बाहर के तीन सेकेण्ड पर यहां एक सेकेण्ड होता हो या इसी तरह भीतर के एक मिनट में बाहर तीन मिनट गुजर जाते हों। समय के बड़े-बड़े बोझों से सबकी पेशानियों पर हताशा की एक स्थूल परत जम गयी है। गाहे-बगाहे लाख खुलकर हँसने पर भी यह परत छिपती नहीं है।
यहाँ बन्द हम कईयों से मिलने कोई नहीं आता, एक मरगील्ले कुत्ते को छोड़ कर, जिसे चाहने वालों की संख्या पचास के पार है और वह जल्द ही पुचकारों और दुलारों से ऊबकर-थककर पूँछ हिलाना बन्द कर देता है और बाहर चला जाता है। हम कुछ नये सहमे से रहने वाले लोग उसे छूने भर की तमन्ना लिए, अपनी बारी का इन्तजार करते, किनारे बैठकर मन मसोसते रह जाते हैं। कभी-कभी उसे देखे पखवाड़े गुजर जाते हैं।
एक नीमरोज, जब अधिकतर लोग अपनी बैरकों में ऊंघ रहे थे और मैं पखानाघर के सामने की घासें नोच रहा था, वह मुझे दिखा। वह मेरी ओर नहीं आ रहा था, जानकर मैं अचानक उसके सामने कूद पड़ा। बचकर वह भागने को हुआ लेकिन मैंने दोनों हाथों और पैरों का फैला हुआ घेरा दिखाकर उसे छेक लिया। गोल और मीठा मुँह बनाकर धीमी आवाज में पुकारता-पुचकाराता मैं उसे पकड़ने में सफल रहा।
मैंने उसे अंकवार रखा था और महीनों से इकक्ष हो रहा प्यार उड़ेलना चाहता था। मैं उसकी रोओं में फंसी बाहर की हवा और महक पाना चाहता था। पखानाघर के सामने कुत्ते को इस तरह अकेले में भीचें देखकर भीतर की पहरेदारी वाला सिपाही मेरी ओर ऐसे लपका, जैसे डण्डे से मारकर मेरा सिर खोल देना चाहता हो। उसके चीते की तरह लपकने में मेरे द्वारा कुत्ते का आलिगंन, जैसे किसी अनर्थ, अपराध या अनुशासन भंग का हिस्सा हो और मेरे ऐसा करने से उसका देश महान बनने से रत्ती भर से रह गया हो या शायद जेल की अवधारणा में प्रेम का प्रस्फूटन या संबंधों का गाढ़ापन जेल की स्वाभाविक यातनाओं को ठेंगा दिखाता हो या फिर वह मुझे कुत्ते के फेफड़े में भरी आजादी की उस हवा को चखने से रोक देना चाहता हो जिसको लेकर पूरे इतिहास भर में कई बगावतें हुई, जैसा कि नानूसान बताते हैं।
खैर, कुत्ते को वहीं हड़बड़ाया-घबराया छोड़, मैं भाग कर अपने पिंजड़े में दुबक गया। साँसों को तरतीब कर ही रहा था कि बीसियों गालियों के साथ दो-तीन रुल चूतड़ों पर चिपक गए, साथ में कई दिनों तक यह जलालत भरी अफवाह भी कि जंगलों के लोग कुत्ते-बकरियों तक को नहीं बख्शते। यह उसी सिपाही ने फैलाया था, जो मुलाकातियों से जमकर रुपये ऐंठा करता था। कई दफा उनकी दी हुई मिठाईयां और खाने वह पूरी की पूरी डकार जाता था। उसे मुझ जैसे कैदियों से घोर नफरत थी जिससे मिलने कोई नहीं आता।
कुत्ते वाली अप्रत्याशित घटना में मजा ढूँढ़ने वाले वे लोग थे, जो खाकी कपड़ों से ढँकी टाँगे दबाते और उनकी थूकों में नमक लगा कर मजे से चटकारे लेते। इनमें से कईयों ने औरतों और बच्चों को रौंदा था, तो कईयों ने कईयों के गले और अतड़ियों में खुखरियाँ घुमाई थीं। ये हत्यारे, बलात्कारी कहने को जेल की छड़ों के दूसरी ओर थे। जेल प्रशासन के नुमाइन्दे के रुप में अघोषित राज इन्हीं का चलता था। इनकी क्रूर, वहशी और घाघ आँखों के चौकन्नेपन और खुफियागिरी से सिर्फ हम ही नहीं जेल के चूहे तक परिचित थे। इनमें भाड़े के खूनी, बौने कदों वाले नेता, सेठ-ठेकेदारों के गुर्गे, घरों और सड़कों के लुटेरे आदि सब शामिल थे, जो भ्रष्ट जेलर के साथ मिलकर साजिशों और खुसुर-फुसुर का माहौल गर्म रखते।
जंगल से बहुत-बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी, जहां दुनिया की किसी भी खूबसूरती को गलती से भी नहीं छोड़ा गया था। उल्टे, मानवता को लजा देने के लिए जिन-जिन नमूनों की जरूरत पड़ सकती है, ऐसे सारे तत्वों को यहां चुन-चुन कर रखा गया था। लेकिन प्रकृति की स्वच्छंदता के आगे किसी का जोर नहीं चलता। हमारे भीतर के सुख महसूसने वाले सारे तंत्रों को निष्क्रिय बना देने के पुरजोर प्रयासों में लगे जेलर को प्रकृति की कलाओं, रंगों और छटाओं से खासी मशक्कत करनी पड़ती।
प्रकृति का उत्सव हमारे लिए वाकई एक अलग खुशनुमा पहलू है, जो सारे दबावों-तनावों को धुल-पुंछ देता है।
मैंने देखा है, यहाँ भी लोगों को पुलकते हुए। उस दिन, जिस दिन बारिश की पहली बौछार पड़ती है। हमें लगता है, ये बूँदे बाहर से बेखटक हमसे मिलने आयी हैं, जेल की दीवारों पर लिखे ‘अनुशासन ही देश कोे महान बनाता है‘ जैसे सारे उपदेशों और कायदे-कानूनों को धोते हुए। हाथ बढ़ाकर हम बूँदांे को हथेलियों और माथे पर मलते हैं, जीभ से उसका स्वाद लेते हैं। वाकई हम पुलकते होते हैं।
बारिश अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर भीतर हमारे लिए बदलाव चाहता है। जेल की ऊसर जमीन पर भी जेलर की नाक तले वह हमारे लिए प्यारी-प्यारी हरी दूबें जन्माता है। उनकी हरियाली और मुलायमियत हमारे दिलों में उतरती जाती है। निर्मोही जेलर को यह सब बदलाव नहीं सुहाता, वह इन प्यारी दूबों पर हमी से फावडे़ चलवाता है। इन दूबों के साथ-साथ धरती पर आए लाल-सुनहले कीट-पतंगें भी खत्म हो जाते हैं।
बारिश के बाद आए मेंढ़कों और झींगुरों की लोरी से हम मजेदार नींद की सैर करते हैं। प्रकृति दुष्ट जेलर के समूचे नियंत्रण को ध्वस्त कर हमें दुलारती-बहलाती है और असहाय जेलर हमें खुश होने और मजे लेने से नहीं रोक पाता है। वह चाहरदीवारी के भीतर जन्म से ही कैद बारह सालों के जुड़वाँ अशोक के पेड़ों का बारिश में लहलहाना भी नहीं रोक पाता है या बसंत में अशोक की फुनगियों पर जंगल, पहाड़, नदी, गांव और शहर की सैर कर आई कोयल का कूकना भी।
छोटे-मोटे गड्ढों में ठहरे बारिश के गंदले लेकिन आजाद पानी से खेलते हुए हम उसकी ठंढई अपनी रोओं में महसूसते हैं। हौदों और कुओं में कैद रंगहीन सर्द पानी की बजाए जी करता है, हम उसी थोड़े पानी में नहायें या फिर नहाने के लिए जेल की गहरे तक गड़प् दीवारों से नदी निकल पड़े और जिसमें ऊपर से भी बारिश होती रहे। जेल के बीचो-बीच होकर गुजरती यह नदी अपने भीतर असंख्य मछलियां समेटी हो, जिससे जेल के स्वादहीन खाने से हमें निजात मिल सके।
बरसात की तरह बसंत भी बाहरी दुनिया और हमारे बीच फर्क किए बगैर जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों को फलाँगते हुए बेधड़क आता है और तब उसकी मादकता और मोहकता के जेल में करीने से सज जाने पर तमाम यातनायें हमें हँसी-खेल लगने लगती हैं। तब लगता है कि सजा की कुल दिनों की बात करते समय उसमें बसंत के दिनों को न जोड़ूँ।
अपने समूचे क्रूर प्रयासों के बाद भी हमें दुःखी न देख जेलर कुढ़ता-झींखता रहता है। बहुत ही ज्यादा बढ़ आए फोते के कारण बेहद भद्दे अंदाज में टांगें फैला कर फूदकता हुआ जेलर, गर्मियों के दिनों में अपेक्षाकृत ज्यादा शैतान लगता है।
पिछली गर्मी की लंबी दुपहरियों में जब सूरज कई-कई घंटों अपनी पूरी ताकत से जलता हुआ आकाश में टंगा रहता, हम पेट में कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे अनाज लिए, पैर मोड़ते फैलाते झपकियां लेने की असफल कोशिशों में जुटे रहते। गर्मियों के लू-दाह वाले दिनों में भी जेलर इत्मिनान से घूम-घूम कर हमारा जायजा लेता रहता और लगभग उजड़ चुके अपने चुनिंदा बालों में उँगलियों से ऐंठ डालते हुए बर्फिला रंगीन पानी गटकता रहता। बलात्कारियों, खूनियों और ठगों की अविराम चापलूसियों से घिरा वह अश्लील लतीफे धड़ल्ले से सुनता-सुनाता और दूर-दूर तक सुनाई देने वाले लंबे-लंबे ठहाके लगाता।
सिकचों के इस पार से दिखने वाले सीमित दृश्यों को ताकते-ताकते आँखों में पर्याप्त बोरियत भर जाती। धुँआ कर चलने वाली गर्म हवाओं से जेल का पूरा अहाता सुलगता रहता। दोपहर को धरती से निकलती हुई गर्मी से अहाते का सूनापन भी दहकने लगता। चौतरफा फैले ऐसे गर्म दृश्यों को देखने पर लगता आँखें झुलस जाएँगी।
सूरज का प्रकोप शाम खत्म होने पर भी कम नहीं होता। एक अदृश्य आग में हम लगातार धीमे-धीमे सिंक रहे होते। शाम को हम उसी पानी से हाथ-मुँह धोते जो दोपहर को खुले आसमान के नीचे खौलता होता। हम प्यास से अकुलाते यूँ ही पड़े रहते पर गर्म पानी हलक के नीचे नहीं जा पाता।
घंटी लगने पर जब रात में सोना होता, हम घंटों छत को और छत से लटकते पीले बल्ब को घूरते रहते। गर्मी से बेहाल हम करवटें बदलते, उठते-बैठते घंटों निकाल देते। ऊबने-थकने पर तब कहीं नींद आती। आधी रात या उसके आस-पास जब हम सारी थकान, गर्मी, और मच्छरों को भूलकर बेमतलब के सपनों में गिरते-पड़ते बेसुध पड़े होते, दुष्ट जेलर अपने दल-बल के साथ हमारी कोठरियों में टार्च की सफेद रोशनी चमकाता, रुल से सिंकचों पर चोट करता औचक निरीक्षण करने में जुटा रहता। एकाएक नींद टूट जाने से हम हड़बड़ाकर उठ बैठते, घूमते दल-बल को देख झुँझलाहट होती और फिर गुस्से में मच्छरों के लिए हथेलियां चटचटाते अपनी खीझ और गुस्सा जाहिर करते। रतजग्गे वाले ऐसे समयों में हम अपने पिंजड़ों में दाह-पसीने, चिपचिपाहट और बेचैनी के बीच अपनी सजा को और अधिक खींचता हुआ महसूस करते। भर गर्मी हमें परेशान देख जेलर खूब पर्व मनाता और पुलका-पुलका रहता।
जाड़े में हमारे मजे औसत रहते। मीठी धूप में बैठना यदि नसीब होता तो हमारे भीतर की उचटता नर्म धूप की गर्मी में पिघलकर बह जाती, नहीं तो कंबल के भीतर के अंधेरे और गर्मी में ही दिन-रात कट जाते।
जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, सर्दी के शुरुआती दो महीने निकल चुके हैं, जो हमंरे लिए कहीं से भी सुखद नहीं रहे हैं। पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना के बाद से जेल सुपरिटेंडेन्ट को हटाकर बहुत दूर एक कस्बाई जिले के जेल में भेज दिया गया है। उसकी जगह पर जो नया आया है, जो नानूसान की उम्र के आस-पास ही ठहरता है, सनकीपन की हद तक जाकर दौरे करता है। दुष्ट जेलर, हेड चीफ, वार्डर सब उसके पीछे जूते बजाते, रुल घूमाते, नफरत और वहशीयाना नजरों से हमें घूरकर चले जाते हैं।
असल में, उन्हें यह विश्वास करने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना में हमारी कहीं से कोई संलिप्तता नहीं है।
हमारे प्रति बनी उनकी धारणा और विश्वास इसलिए भी नहीं घट रहा है कि प्रांरभिक जाँच में घटना के समय हमारी गतिविधियाँ उनके लिए खटकने वाली थी। इतवार की सुबह मुलाकाती जब अपने बंधु-बान्धवों से मुलाकात कर रहे थे, मैं और नानूसान, वार्डर और मेट की निगहबानी में कोहरा छंटने के बाद खिले जाड़े की सुषुम धूप में देह के पोरों में गर्माहट भर रहे थे कि गेट के करीब वह कानफोडू़ धमाका हुआ था। ‘ये क्या हुआ‘ की घोर जिज्ञासा वाले भाव के साथ वार्डर और मेट को भूलकर हम तत्क्षण गेट की ओर लपके थे, पर तुरंत पोजीशन में आए वार्डरों और सिपाहियों द्वारा हम गेट से दस-पन्द्रह फर्लांग पहले ही धर लिए गए थे।
हम जिस तरह से जकड़े गये थे और वापस अलग-अलग कोठरियों में डाले गये थे, यह समझना कहीं से भी कठिन नहीं था, कि हमारे इस तरह अचानक दौड़ पड़ने को क्या समझ लिया गया है। हमारे प्रति बने-बनाये पूर्वागह और उसपर यह घटना, जाहिर तौर पर उनके इतने गड़बड़ तरीके से समझ लिए जाने पर पूरी जांच की शुरुआत हम ही से हुई थी।
मुझे नानूसान से अलग करके कैद तन्हाई में डाल दिया गया था। कई आशंकाओं के भंवर में डूबता-उतरता मैं नानूसान के लिए चिंतित था। मुझे डर था कि इस घटना के जरिए नानूसान का मुकदमा और ज्यादा प्रभावित न कर दिया जाए।
धमाका और फिर तुरंत कैद तन्हाई, यह सब इतने त्वरीत अन्दाज में हुआ था कि घटना को लेकर हमारी अनभिज्ञता बनी ही रह गई थी। घटना के तुरंत बाद अहाते में कड़ाई व्याप्त गया था। सारे ओहदों पर खूब फेर-बदल हुई थी। हमारा दोस्त मेट भी नहीं दिखता था जो कुछ बता सके।
अब तक पजए गए जेल जीवन के सबसे दर्दनाक दिन मेरे लिए यही रहे। अँधेरे में दिन-रात काटता मैं अपनी अब तक कि जिन्दगी जेल से जंगल को मन ही मन दुहराता चला जाता। घटनाओं के साथ-साथ लगने वाले दुःख, पीड़ा, क्षोभ, अफसोस, खुशी, पछतावा जैसे भावों को दुहरा-तिहरा जीता मैं हर पल बेचैन होता रहता। मैं हफ्तों पहले देखे गये उगते-डूबते सूरज, उसकी गुनगुनी गर्मी, उड़ती चिड़ियाओं के झुंड और शाम ढ़ले जेल के हाते के ठीक ऊपर से गुजरते थकान से भरे कबूतरों को याद कर मन मसोसता और लंबी ऊब और झुंझलाहट से भर देने वाली पूछताछ में साहबों का साथ देने की भरसक कोशिश करता।
दरअसल हम उस झमेले के शिकार हो गए थे जिसका हमको ठीक-ठीक पता तक नहीं था। घटना को लेकर उत्सुकता का आलम यह कि लंबी पूछताछ के दौरान साहबों की ओर से पूछे जाने वाले सवालों के जवाब में मन करता की बड़े भोलेपन से उल्टी पूछूँ कि कैसे क्या हुआ था साहब उस दिन? मैं असमंजस में पड़ा आँखें चिहाऱ कर उन्हें देखता भर रह जाता। वे सवाल दर सवाल किए चले जाते। आखिर में वे अँधेरे में इधर-उधर गालियां बिखेर कर और दो-तीन झन्नाटेदार थप्पड़ों से मेरी कनपट्टियां झन-झनाकर इस वायदे के साथ रुखसत होते कि वे फिर आयेंगे, धमाके वाले इतवार कांड में कौन-कौन शामिल है, यह उगलवाने।
यह सब लगातार चलता रहा और जब जाँच में लगे साहबों के हाथ कुछ मजबूत सूत्र आए जिसमें हम कहीं नहीं थे और जब फरारियों को पकड़ कर कुछ नए आरोपों के साथ वापस जेल में ले आया गया, तब जाकर मुझे कैद तन्हाई से मुक्ति मिली। हालांकि इसके बाद भी नानूसान को किसी तरह की कोई राहत नहीं दी गई।
इतना कुछ हुआ, परि जाकर पता चला कि उस इतवार को आखिर हुआ क्या था?
असल में, घटना वाले इतवार एक मुलाकाती अपने साथ जो खाना लेकर आया था, उस टिफिन में ऊपर से तो गोल-गोल लिट्टियां रखी थीं, पर नीचे दो जिन्दा देसी बम थे, जिन्हें विस्फोट कर दो लोगों को भगाया गया था। बुच्चू बता रहा था कि भाग निकले कैदी पकड़े नहीं जाते पर कुछ ऐसा हो गया कि दोनों के दोनों धरे गये।
धमाका कर मुलाकाती सिर्फ अपने भाई को भगाने आया था पर धुएँ और अफरातफरी का सहारा लेकर एक सजायाफ्ता कैदी और फरार हो गया, जो किसी ठेकेदार के चक्कर में पड़ कर अपनी प्यारी पत्नी को शक के कारण पीट-पीटकर हत्या कर देने के आरोप में ष्बीसबरसाष् भोग रहा था। भागकर दोनों महुआटांड जाने वाली बस में सवार हो गये थे, पर महुआटांड जाने की बजाए दोनों आपस में बातचीत कर वहाँ से लगभग पन्द्रह-बीस किलोमीटर पहले ही एक गांव के नजदीक उतर गए। उतरे तो ठीक, लेकिन जिसको भगाने के लिए बम फोड़ा गया था, उसकी लूटने-झपटने की पुरानी आदत। उतरते-उतरते उसने बस के दरवाजे पर खड़ी बुढ़िया से उसका लाल बांका मुर्गा छीन लिया। यह आदमी पहले घाटी में गिरोह बनाकर बस-ट्रक लूटता था, वह भी पार्टी के नाम पर। गिरोह के सदस्यों को पुलिस तो खोज ही रही थी, नाम बदनाम करने के कारण पार्टी वाले भी पीछे पड़े थे, लकिन पार्टी वालों के हाथ पड़ने से पहले ही गिरोह के चार आदमी पुलिस के हत्थे चढ़ गए। पार्टी के नाम पर उत्पात मचाना खूब भारी पड़ गया। थाना लूटने, पिकेट उड़ाने जैसे बीसियों आरोप और ऊपर से लाद दिए गए। दो साल से यूँ ही पड़े हुए थे। इन्हीं चार में से एक को उसके दुस्साहसी भाई ने बम पटक कर भगा लिया।
दूसरा कैदी जिसने मौका ताक कर चालाकी दिखाई थी और निकल लिया था, उसी की योजना थी, गाँव के नजदीक उतरने की, क्योंकि इस गाँव में उसकी फूफसास रहती थी। तुरंत के लिए यह ठिकाना उन्हें महफूज भी लगा था, पर संयोग कि लाल रंग वाले उस बांके मुर्गे वाली बुढ़िया इसी गांव की निकली और उसने इन दानों को पहचान भी लिया। फिर तो गांव वालों ने दोनों को भरदम मारा और थाने में दे दिया। जहां इन्होंने सब किस्सा बक दिया।
इस बम कांड ने बहुत कुछ उलट कर रख दिया है। कहां तो इसे जेल तोड़कर नानूसान को भगाने की बात कही जा रही थी। लेकिन तथ्यों के सामने आते ही सभी अफवाहों की हवा ढीली हो गयी। अब तो पूरा इतवारी बम कांड झरने के पानी की तरह साफ है, पर जेल वालों के दिमाग में अब भी हमारे प्रति अविश्वास, सर्तकता और चौकन्नापन साफ झलक रहा है। हालांकि मुझे कैद तन्हाई से छुटकारा दे दिया गया है, पर वापस नानूसान की देखभाल के लिए नहीं रखा गया है। उन्होंने मुझे ताकीद भी किया है कि मैं उनसे दूर रहूँ। इस समय मेरा अकेलापन हाट से बाहर की ओर आने वाले उस सड़क के सूनापन जैसा हो गया है जिसपर हाट खत्म होने और अँधेरा घिर आने की वजह से कोई एक कुत्ता तक मौजूद नहीं होता।
मैं बुच्चू के साथ भी नहीं हूँ। मुझे कोठरी में उच्चकों और चार सौ बीसों के साथ रखा गया है। ये लंपट हैं, चापलूस हैं, धूर्त, लोलुप झगड़ालू और कटखने भी। भद्दी-भद्दी बातें बतियाते हैं और बात-बात में कहकहे लगाते हैं। ये आपस में दोस्ती का नाटक करते हैं, एक-दूसरे की तारीफ करते हैं, खुशामद करते हैं, फिर किसी बात पर एक दूसरे की मां-बहनों पर चढ़ बैठते हैं, बाहर निकलकर सबक सिखाने की धमकियाँ देते हुए कुत्ते-सूअरों की तरह लड़ते-भिड़ते हैं।
अकेलेपन निराशा और अवसादों का यह दौर अब आगे भी जारी रहने वाला है। लगता है, अब सही मायने में जेल मुझे डराएगा और इस डर और हताशा से बचाकर मुझे सिखाने, बताने वाला कोई नहीं होगा। मैं जान गया हूँ, जेल जैसे रेतीले-पथरीले और ऊसर जगह में मौसम की सारी अठखेलियाँ और ठिठोलियाँ नानूसान जैसों के संग ही समझा जा सकता है। अभी सर्दी है। सर्दी की कनकनी भरी रातों में कछुए की तरह कंबल के अंधेरे में सिर घुसाए, मैं इतना कुछ सोच लगातार कांपता रहता हूँ। मेरा कांपना केवल सर्द रातों की वजह से नहीं है। इस कंपकंपी में कल सताने वाला एक अदत्श्य भय है, जिसके संकेत मैं रोज-ब-रोज पा रहा हूँ।
मुझे यह कंपकंपी नई नहीं लग रही है। मैं इसे पहले भी दो-तीन दफे महसूस कर चुका हूँ। बचपन में हुई ऐसी कंपकंपियों का तो मुझे ख्याल नहीं, पर इस कोठरी में आने के दो दिन पहले जंगल की उस मायूस सांझ की पहली और जरा कम तीव्रता वाली कंपकंपी और उस सांझ के उतरने के बाद आयी काली-कलूटी रात की भीषण कंपकंपी की झनक अबतक मेरे देह में बची है।
हौले से हरेक अंग को झनझना कर, रीढ़ की हड्डी में समाकर खत्म हो जाने वाली वह पहली कंपकंपी, मैंने गर्मी की उस सांझ महसूस की थी, जब जंगल की या कि मेरी त्रासदी अपनी प्रक्रिया में थी और इसके कुछ लक्षण मुझे अपनी प्रेमिका में भी दिखाई दे गये थे।
सुक्की , मैं और हमारा जंगल।
हम प्यार करते थे और फूल गिरते थे। उन फूलों को बकरियाँ अपने गालों में दबाकर खा जाती थी। हम प्यार करते थे और महुए टपकते थे, उन महुओं को भी बकरियाँ आँखें नचाकर खा जाती थी। महुआ या जामुन की जड़ों पर जहाँ हम बैठे या अधलेटे होते, हमारी देहों पर या बिल्कुल करीब गिरे फूलों या महुओं को खाने कोई साहसी और समझदार बकरी आती या फिर कोई मासूम, छौना। छौना निधड़क और बड़ी कोमलता से फूलों या महुओं को चुभलाता हमारी ओर से बेपरवाह होता। हम मिलकर उसे आसानी से पकड़ते और बारी-बारी से चूमते। वह उसे छाती से चिपटाकर कहती, ’’हम तीनों वहां घर बनाएंगे, जहां यह जंगल खत्म होता है और जहां इस धरती और आकाश का मिलन होता है। तब हमारे घर का दरवाजा जंगल की ओर होगा और घर की पिछली दीवार के रुप में क्षितिज का विशाल आसमान होगा, जिसकी ओट में हम बिल्कुल सुरक्षित होंगे। हालांकि ऐसी तमाम कल्पनाओं में खोते हुए उसके चेहरे का रंग मलिन होता जाता, क्योंकि जंगल की आबोहवा तेजी से बदलती जा रही थी। इसका भान था मुझे और उसे भी, पर हम अलग-अलग दुःखी हुआ करते थे, अलग-अलग समय में। वह हर सांझ, जब हम यूं ही लेटे या अधलेटे होते, डूबते सूरज के साथ अपनी कल्पनाओं को, जंगल में आने वाली संभावित त्रासदी से दरकता हुआ पाती।
जंगल का गाढ़ापन जार-जार होकर बिखर रहा था और जंगल के बदलते मौसम के साथ-साथ हमारे प्यार का तिलिस्म भी चटक रहा था। जंगल में बढ़ आए फाँटों से अब कोई भी नया-पुराना जो मुंह उठाकर जंगल में घुसा चला आ रहा था, हमें आसानी से झांक जाता था। पेड़ों की जिन जड़ों पर पसरकर हम सपने बुना करते थे, वहां कुछ देर या बहुत देर पहले कईयों के होने की गंध और निशान बचे होते थे।
हम इस डर मिश्रित निराशा और दुःख के साथ लगातार खामोशी भरे चौकन्नेपन में जिए जा रहे थे। जंगल के गंधाते जा रहे माहौल में अब सुक्की क्षितिज के भी सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त नहीं लगती थी। सांझ, सवेरे, दिन, दोपहर हमें प्रेम के लिए जगह तलाशनी पड़ रही थी। अपने ही घर में हम भटक-भटक कर प्रेम कर रहे थे। हमारी प्यारी मुर्गियां और बकरियां गायब हो रही थीं और हमारे परिजन भी। हमारी झोपड़ियां अचानक राख हो रही थीं और हमें जंगल से बाहर बने तंबूओं की ओर खदेड़ा जा रहा था।
हमारे दिलों में खौफ भरने वाले धीरे-धीरे पूरे जंगल में छितर रहे थे। इनमें से कई हमारे बंधु-बांधव थे और कई, बड़े शहरों से भेजे गए हरबे-हथियारों से लैस सिपाही। ये अपनी लोहेनुमा गाड़ियों में गोला-बारुद भरकर लाये थे और मुक्त हाथों से हमारे बंधु-बांधवों को बाँट रहे थे ताकि जंगल के पुराने रखवालों से जंगल को खाली कराया जा सके। जंगल के सौंदर्य से हमेशा खिलवाड़ी करते रहनेवाले कुछ मुट्ठी भर लंपट, लफंगे किस्म के लड़कों का साथ उन्हें नसीब था, जो घरभेदिये का काम कर रहे थे।
शहरी सिपाहियों ने हमारे लिए एक रेखा खींच रखी थी, जीवन और मृत्यु की कि इनकी ओर से हथियार उठाने पर जीवन अन्यथा सौ फीसदी मृत्यु। पर सच यह था कि कोई भी चुनाव शर्तिया मौत की ओर ही ले जाने वाला था। भाईयों से ही लड़ने-कटने की स्थिति में थे हम।
जंगल में एक संभावित युद्ध शुरु होने वाला था और हम इसके सबसे आसान शिकार थे। बड़े शहरों से आए सिपाहियों ने हथियार चलाने के लिए हमारे बंधु-बान्धवों का कंधा चुना था और मौज के लिए हमारे बहनों को, जो चंद पैसों या फिर मौत के विकल्प पर उन्हें उपलब्ध हो जा रहा थे। यह सबकुछ वाकई डरावना थां।
उथल-पुथल से भरे ऐसे ही समय की वह सांझ, हमारी पिछली कई सांझों से बिल्कुल अलग और हमें एक-दूसरे से जूदा करने वाली थी।
उस सांझ जब वह आयी तो रोजाना की तरह उसकी हाथों में हंसिआ नहीं , पलक झपकते मृत्यु की गलियों में भेज देने वाला एक खतरनाक हथियार था, जो निश्चित तौर पर सिपाहियों की ओर से ही दिया गया था। अलविदा कहते सूरज की सुरमई तांबई रोशनी में वह हद से ज्यादा उदास और डूबती दिख रही थी।
महुओं का टपकना दिन भर से शुरु था और वे गिर कर बासी हो रहे थे। बकरियों का आना शायद अभी भी बाकी था।
मैंने उसे सहारा दिया और उसके हाथों से हथियार लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह वैसी ही अधलेटी उदास और थकी-थकी नजरों से मुझे देखती रही।
सूरज भरपूर रंगीन होता हुआ नीचे जा रहा था, जैसे किसी पेड़ पर गिरकर लटक जाएगा।
मैं उस हथियार को जतन से पोछता रहा और वह मुझे ताकती रही। शायद वह बहुत कुछ कहना चाहती थी या फिर कुछ भी नहीं। मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता था या फिर कुछ भी नहीं। हम अगले कई पलों तक अबोले बैठे रहे थे।
फिर मैं चुप्पी छोड़ आहिस्ते से उठा और अपनी पूरी ताकत से सामने जामुन की टहनियों की ओर उस हथियार को उछाल दिया। काले-काले, रस से भरे खूब सारे पके जामुन गदबदा कर पथर गए। मैं बड़े इत्मिनान से उन्हें चुन रहा था और उनमें धंसे छोटे-छोटे कंकड़ों-मिट्टियों को हटाकर, साफ जामुनों को बकरियों की तरह अपनों गालों के बीच दबाता जा रहा था।
कुछ साबूत जामुनों को दोनों हथेलियों में भरकर, जब मैं उसकी ओर मुड़ा, वह वहाँ नहीं थी।
सूरज अपनी रंगीनियाँ बिखेरकर जंगल के बाहर गिर गया था। जामुनों को वहीं बिखेरकर मैं तने और जमीन के ऊपर तक निकल आए मोटे-मोटे जड़ों का सहारा लेकर पसर गया। वह शायद इस जंगल के सांझ के साथ कहीं बिला गयी थी, सोच कर रीढ़ की हड्डी के बीच से एक हौले से झुरझुरी के साथ एकबएक कंपकंपी उठी और मैं हिल गया।
सांझ खत्म हो जाने के बाद मद्धिम रात पसरने को थी और मैं यूँ ही पसरा रहा, एक धीमी किन्तु स्थाई कंपकंपी के साथ। जामुन के कसेपन के साथ वाले खट्टेपन से मुझे अपने होंठ ज्यादा मोटे और भद्दे तरीके से लटके लग रहे थे। पिछले कई मिलनों में, खास कर गर्मियों वाली देर से उतरने वाली सांझों में, जब हम भरपेट आम, जामुन खाकर एक दूसरे को चूमते तो हमारे होंठ अपेक्षाकृत ज्यादा मोटे, ठोस, मुलायम और झूलते मालूम होते थे। मैं जंगल और सुक्की के बारे में घंटों सोचता रहा।
चाँदनी छिटकने पर साधारण लकड़ी की तरह मालूम होता हथियार, बिखरे जामुन के बीच अब भी पड़ा था। सुक्की के इस तरह हथियार छोड़ चले जाने और रात की सांय-सांय भयानक तरीके से बढ़ आने से रीढ़ की हड्डी से उठा मेरा भय कनपटी पर आकर सनसनाने लगा। लग रहा था, जंगल में घुसपैठ मचाकर फैल जाने वालों की खूनी नजरें अगल-बगल के पेड़ों से मुझे झाँक रही हैं। अचानक वे पेड़ों से सरसराते हुए उतर पड़ेंगे और क्षण भर में मुझे नोच-फाड़ खाएँगे। इतने भयानक ख्याल आते ही मुझे ठंड का अहसास हुआ और मैं डरकर सिकुड़ गया। मैं जामुनों के बीच पड़े उस हथियार की ओर फिर से देखे बगैर उसे वहीं छोड़ तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागने लगा, बिल्कुल नाक की सीध में, सुक्की की झोपड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर।
जामुन खाने से विकृत हुए होंठ और गले की भरपूर ताकत से एक भयंकर आवाज के साथ मैं चिल्लाना चाहता था, अपनी प्रेमिका के लिए कि वह सावधान हो जाए और बची रहे। हम जंगल नहीं छोड़ंेगे । हम आगे और प्रेम करेंगे। मैं पूरी ताकत लगाने पर भी भागता हुआ नहीं चिल्ला सकता था, या शायद ठहरकर भी नहीं। मैं जितना अधिक जोर लगाता था, आवाज निकलने की बजाए मेरी कंपकंपी बढ़ जाती थी। और मैं हिरण की रफ्तार से नहीं भाग पा रहा था।
मेरा डर, मेरी आशंका सब कुछ सच था। मैं भागता हुआ सच में दबोच लिया गया था। मुझे अपनी गिरफ्त में लेने वाले जंगल के रखवाले नहीं थे। ये वही थे, जिनसे हम पिछले कई हफ्तों से भागते फिर रहे थे, जो बाहरी सिपाहियों और उनके गोले-बारुदों के साथ मिलकर हमसे जंगल छोड़ने को कह रहे थे, जो हमारी प्यारी मुर्गियों और बकरियों को खा रहे थे। हमारे प्रिय परिजनों को गायब कर रहे थेव। हमारी झोपडियां जला रहे थे और भेड़ियों की तरह झुंड में घूमते हुए हमारी बहनों को भंभोड़ रहे थे।
ये गुडडव मुझे पहचानते थे और मैं उन्हें। मैं कई दिनों या हफ्तों या फिर महीनों से इनकी नजरों में चढ़ा था। ये एक साथ मुझपर गुर्रा रहे थे और फिर तुरंत ही उन भेड़ियों ने मेरे धुर्रे उड़ा दिए। मेरी अंतड़ियां उलट गई। आँखें पलट गईं, लेकिन पीड़ा के इस जोर से मेरी आवाज लौट आई जो डर से कुछ देर पहले भागते हुए जम सी-गई थी। वे संपूर्ण ताकत से मुझे पीट रहे थे और मैं मारे जाते हुए सूअर की तरह भयंकर आवाज निकालता हुआ चीख रहा था, ‘‘सुक्की सावधान रहना, तुम बची रहना। जंगल मत छोड़ना। हम बचेंगे और आगे और प्रेम करेंगे।‘‘
मैं अपने भीतर की सारी आवाज सुक्की को सचेत करने में झोंक रहा था।
खूब पीट जाने पर लगा, मेरी नसों में न रक्त बचा है, न शक्ति और न कोई आवाज।
और रौसे मैं मर गया।
अगली दोपहर मैंने जाना, मैं बच गया हूँ और चारों ओर जंगल का नामोनिशान नहीं है।
मैं बड़े शहर के सिपाहियों के बीच था जो मेरी ओर इशारा करते हुए जोर-जोर से मुखबिर-मुखबिर चिल्लाकर बातें कर रहे थे। अगले कई हफ्तों तक हर उसके पास जिसके सामने मेरी पेशी हुई, मेरे लिए मुखबिर शब्द ही कहा गया।
जेल की इस चाहरदीवारी में मैं इसी आरोप में बन्द हूं। उनकी नजरों में मैंने बेहद संगीन अपराध किया है। यदि किया है तो। और सब सोचते हैं, मैंने यह जरुर किया है, नानूसान, मेट और बुच्चू को छोड़कर।
नानूसान बेहद दुःखद स्थिति में हैं। उनसे अलग किया जाना मेरे लिए बेहद दुखदायी है और यह सुक्की से अलग होने से तनिक भी कम असहनीय नहीं है।
जंगल की लड़ाई शायद लंबी चले, क्योंकि कई अपने ही दूसरे खेमे से लड़ रहे हैं। अब तक तोे गोलियों की दिन-रात की बौछार और बमों की चिंगारियों से पेड़ों की पतियाँ, फूल और फल बिंध कर झर गए होंगे। बंदर, नीलगाय, खरगोश, चितल, तेंदुए और हिरण यहाँ तक की अपनी बाँबियों में दुबके विषधर भी बारुद की तेज भभकने वाली आग में भून गए होंगे और हमारी झोपड़ियों के खाक हो जाने के बाद पेड़ों पर ठहरने वाले चिड़ियाओं के घोसलों का जलना-गिरना आम हो गया होगा।
और जंगल की इस आग में मेरी सुक्की का प्रेम करने के लिए बचा रह जाना, तालाब में पर्याप्त जहर छोड़ देने के बाद भी एक सुनहली मछली के जीवित तैरते रह जाने जैसा होगा।
मुझे नहीं मालूम कि इन आड़े-तिरछे अक्षरों, शब्दों और वाक्यों को निहार भर लेने के लिए सुक्की जिंदा है या नहीं, लेकिन लिखना सिख लेने के बाद मैं यह सब इसलिए भी लिख रहा हूं ताकि दुनिया को कल अचानक घट जा सकने वाली बातों की बाबत पहले से इढाला कर सकूं।
दरअसल, उस इतवारी बम कांड के बाद नामालूम क्यों, हम जेलर की नजरों में और अधिक संदिग्ध हो गये हैं। वह हमारी तकलीफें लगातार बढ़ाता जा रहा है। मालूम होता है, वह हमेशा हमें मारने के मौकों की तलाश में लगा रहता है, हालांकि उसे ऐसे मौके हाथ नहीं लग रहे हैं, क्योंकि हम हमेशा बड़े संयमित और सचेत रहते हैं। पर बात इतनी ही नहीं है। यह सब तो मैं अपने सामान्य विवेक से पकड़ रहा हूं। बुच्चू के मार्फत नानूसान ने कुछ सचमुच डरावनी बातें बतायी हैं कि ऊपरी और उससे भी ऊपरी और सबसे ऊपरी आकाओं के इशारों पर वे उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। बड़ी चालाकी से उनके लिए खामोश मौत की तैयारी की जा रही है। इसलिए नानूसान ने मुझे भी चौंकन्ना रहने को कहा है।
नानूसान अपनी कोठरी में बीमार हैं और कभी-कभी खून की उल्टियां कर रहे हैं। जेलर आखिरकार उन्हें बीमारावस्था में धकेल देने की अपनी योजना में सफल हो गया है। इसलिए उसने जानबूझ कर उन्हें उल्टियां करते हुए छोड़ दिया है। बाहर किसी को भनक तक नहीं लगने दी जा रही है। हुक्मरान उनकी प्राकृतिक मौत हो आने की आस में टकटकी बांधे बैठे हैं। दिखावा के लिए जेल का डॉक्टर उन्हें सुईयां लगाना चाहता है, लेकिन उनके लिए सबसे खतरनाक बात यही है। डर यह है कि कहीं सुईयों में हवा भर कर नसों में पैवस्त कर नानूसान को मार न डाला जाए। इसलिए नानूसान शहर के किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की बात पर डटे हैं। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं रोज-रोज उनके खाने में थोड़ी-थोड़ी विष न दी जा रही हो। यह सब देखने-समझने वाला उनके पास कोई है भी नहीं।
मैं अपनी कोठरी में चेता हुआ हूं और नानूसान तो सावधान हैं ही। बस, अब जंगल, पहाड़, गांव और शहर को भी चेत जाना चाहिए ताकि कल को कुछ ऐसा-वैसा हो जाए तो ये सब झूठे आश्चर्य में पड़ कर दिखावे में मुंह बाये न रह जाएं।

Monday, July 5, 2010

मिट्टी का प्रेमी- शेखर मल्लिक

इन दिनों आप हर सोमवार को युवा कहानीकारों की कहानियों का आनंद ले रहे हैं। अब तक हम आपको शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'एक बूढ़े की मौत' और गौरव सोलंकी की कहानी 'कम्पनी-राज' पढ़वा चुके हैं। आज पढ़िए युवा कहानीकार शेखर मल्लिक की कहानी 'मिट्टी का प्रेमी'।


मिट्टी का प्रेमी


उसने अचानक चीख कर कहा, “मैं आदमी हूँ और मेरी आदमियत एक सच्चाई है. जिसकी समुचित व्याख्या आदमी के इतिहास के किसी भी ज्ञात-अज्ञात दर्शन में दर्ज नहीं की गयी है !”
…मंच के सामने के लोग हक्के-बक्के से उसे ताकने लगे...

…और वह एकाएक सपने से बाहर आ गया...पसीने से तरबतर...हांफता हुआ सा... उस एक पल को, जब वह सपने की गिरफ्त से छूटा था, एक अजीब सा भाव उसके प्रौढ़ता की दहलीज पर खड़े चेहरे पर मंडरा रहा था... अजीब और डरावना…

प्राची ने दोस्ती आगे बढ़ाई थी, उन दिनों जब शिशिर को ना तो देश की राजनीतिक उथल-पुथल से कोई लेना-देना था, ना इराक पर बरसते अमेरिकी मिसाइलों से हलाक हो रहे मासूम इराकियों के खून से, ना ही भारत-उदय के भडकीले नारों से... वह सिर्फ अपनी बी.टेक. पूरी करना चाहता था. ऊंचे ग्रेड के साथ. एक सरकारी उपक्रम की ताम्बे के कारखाने से जबरन वी.आर.एस. दिलवाकर नौकरी से बिठाये गए बाप की जोड़-गाँठ कर जमाई जमापूंजी से बी.आई.टी. मेसरा जैसे नामी संस्थान में, एक साल भटकने के बाद, प्रवेश पाया था उसने. तब उसे खुद को साबित करना था, खुद को टिकाना था... उस समय उसे सिर्फ, अर्जुन की तरह, मछली की आँख दिखाई देने लगी थी.
मैंनेज्मेंट गुरूओं के बेस्ट सेलींग उवाचों का अक्षरशः पालन करने वाला शिशिर तब, भगत सिंह की बड़े चाव से खरीदी गई जीवनी या पाश की कविताओं के संग्रह को भूल चुका था...
… प्राची महक की तरह एकदम से उसके उसके पुरे वजूद पर छाती जा रही थी उन दिनों... लेकिन वह प्यार के समीकरण में एलजेबरा सी कठिन कब बन जाएगी, ये वह उन दिनों सोच या समझ नहीं पाया था.
प्राची ने इसके चार महीनों बाद सपाट लहजे में आखिरी फैसला किया था, “आई डोंट लव यू, आई लव समवन एल्स...
लेखक परिचय- शेखर मल्लिक
18 सितम्बर 1978 को हाबड़ा (पं॰ बंगाल) में जन्मे शेखर चन्द्र मल्लिक मुख्यतः कथाकार हैं। ‘हंस’ में ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ में इनकी एक कहानी पहले स्थान पर चयनित। एक कहानी (कोख बनाम पेट) का तेलगू भाषा में अनुवाद हुआ। ‘गुलमोहर का पेड़’ नाम से एक कहानी संकलन प्रकाशित। संप्रति- प्रलेसं की जमशेदपुर ईकाई से संबद्ध और स्वतंत्र लेखन।
संपर्क- बी डी एस एल महिला महाविद्यालय, काशिदा, घाटशिला, पूर्वी सिंहभूम- 832303, झारखण्ड
मोबाइल- 09852715924
ई-मेल- shekhar.mallick.18@gmail.com
...तुम मेरा बहुत ख्याल रखते हो शिशिर, इतना ज्यादा कि मेरा दम घुटने लगता है... मैं सांस भी नहीं ले पा रही. मुझे तुम्हारा प्यार एक तंग सुरंग लगता है. लगता है मैंने पत्थर पर ही सर मार लिया है...”
एक ऐसा धमाका जो सिर्फ उसके भीतर हुआ, जिसकी गूंज बाहर कहीं सुनाई नहीं पड़ी थी. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि इतना पुख्ता विश्वास भी तोड़ा जा सकता है ? बकौल उसकी सहेली, उसे अब कोई और पसंद आ गया था, उसकी खुशी अब कोई और था. आत्मा तो, गीता के अनुसार, अपना चोला बदल लेती है.
क्या प्रेम भी, और वो भी इतनी जल्दी !
प्राची ने अगली सुबह स्वीकार किया था कि ‘आज जिस तरह तुम्हारा दिल तोड़ रही हूँ, कल कोई मेरा तोड़ दे तो मैं इस दर्द को जान सकूँगी...’ ईमानदार स्वीकारोक्ति थी...
शिशिर ने इसके बाद कहा कि वह तो मिटटी का आदमी है, मिटटी का आदमी टूट जाता है...
इसके बाद शिशिर वह नहीं रहा, जो वह रहा आया था. गुंजाइश भी नहीं थी. टूटने के बाद जुडना मुश्किल, बेहद मुश्किल... नामुमकिन सा होता है.
वह अख़बारों में संपादक के नाम पत्र लिखने लगा...संसद की बहसों, सेंसेक्स की ऊँचाइयों के ओट में छिपी झुग्गियों की गुमनामियों पर, मोहल्ले की बजबजाती गन्दी नालियों के ऊपर से काफिले सहित गुजर जाने वाले गेंदे की माला के महक में दुबके विधायक जी की बेतकल्लुफ़ी पर, नुक्कड़ पर जाने कितने सालों से लोगों पर पत्थर फेंकने वाली उस अधेड़ पगली पर जिसका बलात्कार कर, जननांग में पत्थर ठूंस दिए गए थे...वह समाचार चैनलों को एस.एम्.एस करने लगा...बहसों में जुड़ने लगा... वह अपने पंगु हो चुके इमोशंस से असली संवेदनाओं के दायरे में आ रहा था. सपनों से मोहभंग होते ही वह कसमसाकर आदमियत की एक और धारा या कहें मुख्यधारा में आ रहा था... बेलाग सच्चाइयों को छानने वह घने-घुप्प अंधेरों में गोते मारने लगा...
कभी-कभी एक राय बनाता कि पवित्र रिश्तों में धोखे नहीं होते, या फिर...
रिश्ते बहुत कम ही पवित्र हो पाते हैं...
बहरहाल इसके बाद एक सकारात्मक बात यही हुई कि प्राची प्रेमिका से अच्छी दोस्त में रूपांतरित हो गयी थी... आम तौर पर इसका विपर्य ही देखने को मिलता है. दोनों ने घावों को कुरेदना छोड़ दिया था, कम से कम शिशिर ने तो.
प्राची ने अपने नए ‘फंटे’, जैसा कि उसी ने बताया था, इंजीनियरिंग महाविद्यालयों की मौलिक शब्दावली में दो हँसों का जोड़ा “फंटा-फंटी” कहलाता है, को इन गुजरे सालों के किसी शांत, गुमशुदा सी विस्मृत कर दी गई रात के किसी पहर अपना कौमार्य सौंप रही थी. जर्रा-जर्रा... आहिस्ता-अहिस्ता...
वो बेदर्दी से सर काटे आमिर/ और मैं कहूँ उनसे... / हुज़ूर आहिस्ता, आहिस्ता जनाब... आहिस्ता-अहिस्ता...
प्राची से भी कुछ तो छूट रहा था...हर दोपहर एफ. एम. या अपनी टोली के भैयाओं के कंप्यूटर पर...जगजीत सिंह की रूमानी गज़लें... प्यार मुझसे जो किया तो क्या पाओगे / मेरे हालत की आंधी में बिखर जाओगे...
...छूट रहा था, गुनाहों का देवता जैसी रचनाओं का पढ़ा जाना... मुख़्तसर डूब कर...
...छूट रहीं थी, बच्चन और निराला-नागार्जुन की कवितायेँ...जो उसने १२वीं के दौरान स्कूल के पुस्तकालय से लेकर पढ़ी थी.
वह भी तो उस रात के बाद सिर्फ एक टुकड़ा शरीर भर रह गयी थी... बस एक मादा शरीर... अपनी तमाम संभावनाओं से भरपूर, फिर भी सिर्फ एक मादा शरीर !
फिर एक दिन किसी अंतरंग क्षण जैसी सहूलियत मिलने पर उसने शिशिर से ये सब बताया था. और पता नहीं, वह वाकई निरपेक्ष रहा या उसे बुरा लगा... प्राची तय नहीं कर सकी. उसे लगा कि वो खुद भी तय नहीं कर सका.

उसने सामने दीवार पर लगभग झूल सी रही पैतृक युग की घड़ी को कुछ उनींदी आँखों से देखा, सुबह के साढ़े आठ हो चुके थे...
एन.डी.टी.वी. के ‘मुकाबला’” कार्यक्रम में पिछली शाम साढ़े आठ बजे क्रमशः दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के नुमाइंदों, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता, एक प्रसिद्द प्रोफ़ेसर सह उत्तर-आधुनिक साहित्यकार आदि के श्रीमुख से उसने ‘क्रांति’ नामक शब्द की विविध व्याख्या सुनी थी... ‘आज देश की पिछहत्तर फीसदी आबादी २५ साल से कम वय की है और, ये नयी पीढ़ी बदलाव ला सकती है, ला रही है...’ सूत्रधार ने एक हडबड़ाऊ सा निष्कर्ष दे कर कार्यक्रम समाप्त घोषित किया था, गोया विज्ञापन ना मारे जाएँ... और एक चाय का विज्ञापन चलने लगा, जिसमें सोते देशवाशियों से जागने की अपील की गई है.
...क्रांति...?
प्राची ने दोपहर उसे एसएमएस कर उससे कहा था, “ पता है आज शाम मैं वोदका पीने जा रही हूँ. साला गम बहुत हो गया है जिंदगी में, देखूँ कम कर पाती हूँ क्या...”
शिशिर को हँसने का मन हुआ. ज़िंदगी में गम का नशा ही इतना गहरा होता है, इतना पुरजोर, इतना दमनात्मक कि कोई और नशा चढ़ता ही नहीं... मगर प्राची से कहना फ़िजूल ही था. उसे लगा प्राची कन्फ्यूज्ड है... वह रिश्तों में यकीन करती है मगर परम्परागत रिश्तों के दायरे से बाहर, उनकी जब्त से परे, वह तो अनाम रिश्तों में जूझती रही है... मगर उसे अब तक ना तो तसल्ली मिली है, ना ठहराव. वह उसी से ही पूछती सी रही है कि आखिर उसे चाहिए क्या ?
“यू मस्ट् नॉट मैरी एवर... तुम ऐसे ही रहो, शादी मत करना कभी... तुम ऐसे ही खुली ठीक हो...बांध कर नहीं रह पाओगी...या जो तुम हो वह रह सकोगी...,” शिशिर सोच कर कह रहा था, “और जैसी तुम हो वैसी तुम्हें पति नाम का कोई जीव स्वीकार कर पाएगा...” ऐसा कह चुकने के बाद उसने खुद को अंदर से खंगाला, ये उसके भीतर का मर्द सोच रहा है या वह सिर्फ एक खोखली सोच गढ़ रहा है.
प्राची ने कलम का कैप निकल कर दांतों तले दबाया और चूसने लगी, “शिशिर, यहाँ खुली, स्वच्छंद लड़की रह ही कहाँ सकती है, इवेन इन टुडेज सोसाईटी...? और तुम क्या मुझे खुला ही देखना चाहते हो, अव्यवस्थित... क्या मैं ‘नगरवधू’ हूँ शिशिर ?”
वह हल्की खांसी से गला साफ़ करके बोला, “तुम्हें तो खुद पता नहीं कि तुम्हें चाहिए क्या...तुम ही खुद को कैसे देखना चाहती हो ?”...
प्राची किरचों की तरह एक बार बिखरी, फिर खुद को समेट रही है, आज तक... शायद ‘वोदका’ उसे पूरा जोड़ ना भी दे, जुड़ जाने का भ्रम जरूर दे सकता है, एक रात के लिए... बस खुमार की उम्र तक... ताकि लगे कोई गम, कोई पछतावा, कोई ‘गिल्ट’ उसके दरारों से बाहर नहीं झांक रहा...
वातावरण में कुछ अटपटापन हर रहा था. दो विपरीत-लिंगी अपने अंदर एक घुटन सी महसूस करने लगे... कॉल डिस्कनेक्ट हो चुका था.
वह धीरे से चलकर छत की मुंडेर पर आ खड़ा हुआ था. उसने दूर तक क्षितिज में गहराती जा रही शाम को देखा और विचारों का गुना-भाग करने लगा…
प्रेम और क्रांति... पवित्र विश्वास और विश्वासघात...
उसने 'अपराधबोध' के भार से दबती जा रही प्राची से कहा था, शायद सतही तौर ही, “तुम गिल्टी मत महसूस करो, जो भी तुमने किया वो उस क्षण का फ़ैसला था. उस क्षण जो तुम्हें अच्छा लगा, वही किया तुमने . यदि उस क्षण वो सही था तो फिर अब क्यों पछताना या उसके गलत होने का एहसास करना...”
प्राची की आवाज़ तीखी मगर कांपती सी लगी, “मैं तुम्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानती हूँ...शिशिर, मैंने कह दिया और तुम चले गए... मुड़कर भी नहीं देखा...”
'मुड़कर तो कई बार देखा, कई बार जताया भी, पर तुम तो सारे दरवाजे बंद कर चुकी थी... मेरे लौटने के. सिर्फ इसलिए कि कोई और तुम्हें अब पसंद था, चाहे तुम उसके साथ खुश होने का भ्रम ही पालते रहो , फिर भी अब तुम उसके साथ ईमानदार थी... शिशिर ने मन में कहा, प्रत्यक्ष्य नहीं.

“क्या तुम अपनी वर्जिनिटी खो चुकी हो ?” शिशिर ने बहुत सहम कर, जैसे चोर मन से पूछा था, जब प्राची को उसने फिर से कुछ व्यक्तिगत हो जाने दिया था. प्राची थोड़ी देर हँसती रही, मानों तत्काल उठे भावों को जबरन हंसी की ईंटों तले दबा देना चाहती हो, “हाँ !” उसने फिर स्पष्ट कहा, “दीपेश ने आग्रह किया था...”
“और तुमने मान लिया ?”
“हाँ, मैं बस एक्सप्लोर करना चाहती थी...ये आखिर चीज क्या है? यू नो, जस्ट फॉर शीयर एक्सपेरिएंस...
पर मैं बहुत ठंडी हूँ शिशिर, बेहद ठंडी...बुत की तरह पड़ी रही...बस वही करता गया जो कुछ उसे करना था...फिर मैं बहुत रोई थी. बहुत देर तक. किसी गिल्ट से नहीं, बल्कि मुझे सचमुच बहुत बुरा लगा ये सब...एकदम बुरा...इसमें क्या मज़ा था... खुद से जैसे घिन सी होने लगी, यकीन करोगे ?”

उसने चादर अपने बदन से उठाकर परे हटा दिया और पैर नीचे टिकाया...एक आधी सी अंगड़ाई ली, सूरज काफी चढ़ चूका था. जिस ईमारत में वह बतौर पेइंग गेस्ट ठहरा हुआ था, उसकी चौथी मंजिल के खिड़की तक... उसने कैलेंडर पर तारीख के अंकों और वार को गौर से देखा. आज २१ अक्तूबर है, मंगलवार... आज दिवाली है, अँधेरे पर प्रकाश की जीत का दिन...अमावस्या को चनौती देने के लिए लाखों दीयों की पंगत बैठेगी आज...
वह बुदबुदाया ‘रौशनी’... फिर इस शब्द को चबाता हुआ सा वह गुसलघर में घुसा.
उस रात उसे जगमगाते दीयों की पाक रौशनी के धुंधले हो जाने के बाद और पटाखों का शोर थम जाने के बाद लगा, अभी रात के सन्नाटे को दो फाड़ कर मानों कोई एक रूमानी कोरस गा रहा हो जैसे, जैसे इंसानी जज्बतों के हर्फें सारे के सारे ट्युन्ड ऑन कर दिए गए हों...और बयार की रवानगी में बहे जा रहे हों...

प्राची से आखिरी मुलाकात कब हुई थी याद नहीं, याद है धुंधली होती हुई वो मुलाकात...
इंजीनियरिंग के प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान में अंतिम सेमेस्टर की तैयारी में जुटी प्राची... अपनी सेकिंड हैण्ड स्कूटी पर कॉलेज से लौटती प्राची...कैम्पस चयनों में अब तक कोई बजी हाथ ना आने से परेशान प्राची...२१ वीं सदी के पहली आर्थिक मंदी के दौर में भविष्य को लेकर आशंकित प्राची...
“तुम पूना या बंगलौर क्यों नहीं ट्राई करती ?”
“करुँगी.”
शिशिर उसके कानों के टॉप्स देखता है, कानों के पास की लट उड़ जाने से टॉप्स उसका ध्यान खींच रहे हैं, बार-बार. प्राची एकाएक उसे घूरती हुई बोलती है, “शिशिर यार आई वांट टू किस यू...वेरी डीपली, मेरा हक बनता है.”
...शिशिर सहम सा गया.

आज रात ठंडी बढ़ती सी लगने लगी है. उसने चादर बक्से से निकाल कर ओढ़ ली थी, कमर तक ही...
कुछ भी स्थाई नहीं है, कुछ भी अंतिम नहीं है, ना तो पहला प्रेम ही... तोल्स्तोय ने ऐसा क्यों कहा था...?

प्राची खुले आकाश में उड़ रही है...निर्विघ्न...निर्बाध...क्या ये मुक्ति है...? २१ साल की लड़की...भावी कंप्यूटर इंजिनियर...उन्मुक्त...डैने फैलाये...’सोसाइटी’ की गर्द और गुब्बार से परे...किंचित ऊंचाई पर, नियमों-वर्जनाओं से अछूत...
तो फिर... सेक्स और वोदका...!
प्रतीक हैं, या मुक्ति की किलकारी...?
उसे लगा प्राची उसे चिढ़ा रही है...ठेंगा दिखा रही है...दानिशमंदों को समाज के टूटने, संस्कारों के बिखेरने की चिंता खाए जाती हो, तो हो उसकी बला से. ‘प्राची आई विश आई कुड लिव लाइक यू...’
शिशिर का भी अंतिम सेमेस्टर है, पर लग रहा जैसे कहीं कुछ अपूर्ण है...कुछ खाली-खोखला सा है...शायद कुछ छूट सा रहा है, शायद वह विश्वास जो संस्थान में प्रवेश लेते समय था... पर वह पा ही लेगा खुद के लिए, अपने परिवार के लिए वांछित...पैसा...जिंदगी का आधार...पर संतोष उसे फिर भी नहीं है...

मुंडेर पर खड़े आधे घंटे बाद उसने देखा सूर्य एक-एक इंच धंसता हुआ पहाड़ों की ओट में छिप चुका है और उस जगह पर अब सिर्फ कमजोर होती लालिमा बची रह गयी है.
सूर्य की तरह इस पूरी जैविक सत्ता की भी नियति यही है. अस्त हो जाने की. पर सूर्य फ़िलहाल अगले दिन फिर परवान चढेगा, नई तारीख के साथ...
प्राची अब एक बार भावनाओं की रौ में आकर कह गई है, “शिशिर , मैं तुम्हारी वही गुड़िया हूँ...”
लेकिन इसका अब कोई अर्थ नहीं है. खंडहर फिर नहीं जुड़ते...
शिशिर का बी. टेक. अंतिम सेमेस्टर में है... पर उसने अपनी तसल्ली के लिए फिर से चित्र बनाना शुरू किया है. कूची कैनवास को फिर से चूमने लगी है...

Monday, June 28, 2010

कम्पनी-राज ‍ः गौरव सोलंकी

जैसाकि हमने पिछले सोमवार को वादा किया था कि हर सोमावर हम आपको एक ऐसी कहानी से रूबर करवायेंगे जिसे युवा कहानकार ने लिखा हो। इस शृंखला में दूसरी कहानी के तौर पर मशहूर युवा कवि-लेखक गौरव सोलंकी की एक कहानी 'कम्पनी राज' लेकर उपस्थित हैं। यह कहानी वागर्थ में प्रकाशित हो चुकी है।


कम्पनी-राज


वह एक लम्बे अरसे से बीमार था। उसे कम भूख लगती थी और ज़्यादा सपने आते थे। वह एक साँवली सलोनी लड़की से प्रेम करता था और झटपट शादी कर लेना चाहता था। एक चुकी हुई सी नौकरी करने के अलावा उसके पास कोई काम नहीं था, लेकिन उसे लगता था कि उसके पास समय कम है और काम बहुत ज़्यादा। वह हर समय हड़बड़ी में रहता था और आधी चीजें भूल जाया करता था। जैसे आप उसके साथ रहते हैं और गैस पर दूध रखकर ऑफ़िस के लिए निकल गए हैं। रास्ते में गाड़ी में तेल भरवाते हुए आपको दूध याद आता है और आप तुरंत उसे फ़ोन करके दूध देखने को कहते हैं। वह फ़ोन पर बात करता हुआ रसोई की ओर बढ़ता है, लेकिन दरवाजे तक पहुँचते पहुँचते फ़ोन कट जाता है। आप निश्चिंत हो गए हैं लेकिन इस बात के नब्बे प्रतिशत चांस हैं कि फ़ोन कटते ही वह भूल जाएगा कि आपने क्या कहा है। ओह! वह मुड़ गया है और ऐसी संभावनाएँ सौ प्रतिशत हो गई हैं। वैसे इसमें सारा दोष उसी का हो, ऐसा भी नहीं था। वह गाँव जैसे एक छोटे से कस्बे से आया था और महानगर में खो गया था, लेकिन खोना नहीं चाहता था। सारी बेचैनी और परेशानी इसी कारण थी। उस महानगर में बहुत सारी अमेरिका-राष्ट्रीय कंपनियाँ थी जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहा जाता था। उन्हीं में से एक इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग का काम करने वाली कंपनी के लिए वह काम करता था यानी घूमती हुई पृथ्वी पर खड़े लोग, जो अपकेन्द्रण बल के कारण एक दूसरे से और धरती से दूर होते जा रहे थे, वह उन्हें जोड़ता था। दुनिया भर में डेढ़ करोड़ लोग उसकी कम्पनी की वेबसाइट के सदस्य थे और कम्पनी का दावा था कि उनकी साइट पर प्रतिदिन चार हज़ार प्रेम प्रसंग शुरु होते हैं। इसी तरह कम्पनी अब तक पन्द्रह हज़ार शादियों की पहली सीढ़ी बनने का दावा करती थी। ख़त्म होते प्रेम प्रसंगों और टूटी हुई शादियों का न तो कोई हिसाब रखा जाता था और न ही वेबसाइट के पहले पन्ने पर उन्हें मोटे मोटे अक्षरों में लिखा जाता था। जबलपुर की उस लड़की का नाम कनिका था और वह एम बी ए कर रही थी। लड़के का नाम उदयसिंह था और उस समय एक विकासशील देश में यह आत्मघाती ज़िद थी कि वह एम बी ए नहीं करना चाहता था। कुछ साल पहले तक वह अनाथ बच्चों के लिए एक स्वयंसेवी संगठन खोलना चाहता था लेकिन नौकरी में घुसने के बाद से उसका वह इरादा भी दिन-ब-दिन कमज़ोर पड़ता जा रहा था। अब ऐसा हो गया था कि वह कनिका से शादी कर लेना चाहता था और कभी कभी एसी, फ्रिज़ और दीवार पर तस्वीर की तरह टँगने वाले टीवी से युक्त तीन कमरों वाले घर के सपने देखता था। यह इकलौता सपना था, जिसे देखने के बाद उसे देर तक घुटन महसूस होती थी, जैसे किसी ने उसे तेईस डिग्री के स्थिर तापमान वाले कमरे में एक आरामदेह कुर्सी पर एक कम्प्यूटर के सामने बिठा दिया है और लोहे की जंजीरों से बाँध दिया है। इस तरह कि माउस से चुम्बक की तरह चिपके उसके हाथ उतनी ही गति कर सकें, जितनी कर्सर को पूरी स्क्रीन की यात्रा करवाने के लिए आवश्यक है और उसकी आँखें उसकी नाक पर अटके चश्मे की सीमाओं से बाहर न देख सकें और उसके पैर, जिनके नीचे घोड़े वाली नाल ठोककर लोहे के भारी पहिए लगा दिए गए हैं, उसे उतनी ही दूर ले जा सकें, जितनी दूर सी जी 4000 नाम की एक दूसरी मशीन है, जिस पर उसे काम करना पड़ता है। यह और
लेखक परिचय- गौरव सोलंकी
हिन्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय युवा कहानीकार। गौरव की कहानियों के प्रशंसकों की संख्या इंटरनेट और इंटरनेट के बाहर लगभग बराबर। पिछले डेढ़-दो सालों से हर नामी-गिरामी पत्र-पत्रिका में धड़ल्ले से छप रहे हैं। गौरव की एक कहानी 'पीले फूलों का सूरज' को चर्चित साहित्यिक पत्रिका 'कथादेश' द्वारा द्वितीय पुरस्कार। मेरठ (यूपी) में जन्मे और सांगरिया (राजस्थान) में पले-बढ़े गौरव सोलंकी आईआईटी रूड़की से बीटेक की पढाई पूरी कर चुके हैं, लेकिन लेखन ही इनका एकमात्र साध्य है। जीविकोपार्जन के लिए 'तहलका-हिन्दी' की नौकरी। हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित यूनिकवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह 'सम्भावना डॉट कॉम' में इनकी कविताएँ संकलित और इस कारण भी चर्चा में। गौरव की कविताओं को पसंद करने वालों की संख्या कहानीप्रेमियों की संख्या से भी अधिक। गौरव की कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं।
ईमेल- aaawarapan@gmail.com
मो॰- 9971853451
भयानक था कि उसकी सीट पर छना हुआ ठंडा पानी हर समय मौज़ूद रहता था और उसे प्यास नहीं लगती थी। उसके पास मुफ़्त आई एस डी कॉल की सुविधा वाला एक फ़ोन रखा रहता था और वह किसी से बात नहीं करना चाहता था। उस फ़ोन से वह किसी भी वक़्त ऑर्डर देकर मुफ़्त में पिज़्ज़ा मँगवा सकता था लेकिन उसे भूख नहीं लगती थी और लगती भी थी तो वह केवल चने खाना चाहता था। वह हर शाम सात या आठ बजे एक कमरे में लौटता था, ज्इसे वह घर कहता था। उसके मोबाइल फ़ोन में उस कम्पनी की सिम थी, जो दिलों को दिलों से जोड़ती थी। वह आकर आँख मूँद कर अपने बिस्तर पर पड़ जाता था और देर तक फ़ोन पर कनिका से बातें किया करता था। उसे कभी कभी गुस्सा आता था जिसमें वह फ़ोन काट देता था। प्यार आने पर वह फ़ोन को चूमने की ध्वनि निकालता था और मन में एक बार और निश्चय करता था कि जल्दी ही किसी दिन, जब आखातीज जैसा सावा होगा, वह कनिका से शादी कर लेगा और दहेज की एक फूटी कौड़ी भी नहीं माँगेगा। तब उसे अपने पिता की भी हल्की सी फ़िक्र होती थी जो उम्र भर घर घर घूम घूम कर बिजली के फिटिंग करते रहे थे और उसकी शादी से उम्मीदें बाँधे हुए थे कि वे एक नया घर बनाएँगे जिसमें पूरा फिटिंग अंडरग्राउंड होगा। फ़ोन रख देने के बाद वह देर तक तकिये को अपनी बाँहों में भींचकर पड़ा रहता था और फिर अपने कम्प्यूटर पर तेज़ आवाज़ में गाने चलाकर चाय बनाने लगता था। उसकी बगल में रहने वाला राजीव दीक्षित शाम को जाता था और सुबह पाँच बजे लौटता था। यह उसे अच्छा लगता था लेकिन राजीव को बहुत बुरा लगता था। उसे तारे देखते हुए सोना अच्छा लगता था। इसलिए उसने अपने कमरे की छत पर चमकते हुए चाँद, तारे और ग्रह चिपका रखे थे, जो अँधेरा होने पर चमकते थे। एक दिन उसका पारले जी बिस्कुटों को देखते हुए सोने का मन हुआ तो उसने गोंद से दस बारह बिस्कुट छत पर चिपका दिए। सुबह होने पर वह उन्हें उतारकर चाय में डुबो डुबोकर खा गया। गोंद का स्वाद भी उतना बुरा नहीं था। उसका कनिका को देखते हुए सोने का मन भी करता था। उदय की कम्पनी का नाम ‘वी’ था यानी हम। उसी की वेबसाइट पर चैटिंग करते हुए वह और कनिका मिले थे। कनिका की आईडी थी ‘लिप्स’ और उदय की ‘स्मोक’। वह कनिका से ऐसे मिला था-
स्मोक(10:25) – हाय... स्मोक(10:25) – हाउ आर यू? स्मोक(10:27) – आर यू देयर? स्मोक(10:31) - ? लिप्स(11:48) – आर यू अमित? स्मोक(11:49) – नो...आई एम उदय स्मोक(11:50) – एंड यू... स्मोक(11:52) - ? स्मोक(12:03) – फ़क ऑफ़ लिप्स(12:05) – सॉरी....आई वाज़ आउट ऑफ़ माई रूम लिप्स(12:06) – सो हू आर यू? स्मोक(12:07) – आई एम उदय लिप्स(12:08) – आई एम कनिका
बाद के दिनों में उन्होंने एक साझी मेल आई डी बनाई, ‘स्मोकिंग-लिप्स’। उसने सिगरेट कभी नहीं पी लेकिन उस आई डी के बनने के कुछ दिनों बाद से ही वह बीमार रहने लगा। वह ईश्वर और शगुन, दोनों में ही विश्वास नहीं करता था और कभी कभी इसके लिए पछताता भी था। उसे लगता था कि उसके फेफड़े खराब होते जा रहे हैं और वह जिस हवा में साँस लेता है, वह किसी प्रयोगशाला में बनाई गई हवा है। वह एक बार खाँसने लगता तो तीन-चार मिनट तक खाँसता ही रहता था। उसकी उम्र तेईस साल थी और कभी कभी उसे लगता था कि वह कई युगों से इस धरती पर है और जवान है, लेकिन बूढ़ा हो गया है। वह जब कार में बैठा होता था तो उसका रेलगाड़ी के जनरल कम्पार्टमेंट में बैठने का मन करता था। वह कार के शीशे पर अपनी आँख टिकाकर अपनी उंगलियों को गोल मोड़कर बाहर की सड़क को देखता था और जिस दिन धुंध होती थी, उसका मन करता था कि वह कुछ दूर तक पैदल चले। कभी कभी मोबाइल फ़ोन पर बात करते हुए उसे लगता था कि उसका कान गर्म होकर पिघलने लगा है। तब वह शीशे में अपना चेहरा देखता था और उसे एक कान नहीं दिखाई देता था। फिर उसे याद आता था कि उसकी दायीं आँख की नज़र कमज़ोर है और उसने चश्मा नहीं लगा रखा है। एक लम्बी सुबह में उसने तय किया कि उसे डॉक्टर के पास जाना चाहिए। शाम को जिम में दो किलोमीटर दौड़ने के बाद मौसमी का जूस पीकर वह एक डॉक्टर के पास गया, जो चार सौ रुपए फ़ीस लेता था। डॉक्टर फ़ुर्सत में था और ख़ुश था। मरीज़ वाली कुर्सी पर उदय बैठने लगा तो बिना बीमारी जाने ही उसने उसे विश्वास दिलाया कि वह बहुत जल्द ठीक हो जाएगा। डॉक्टर ने कहा, चूंकि बाहर बारिश हो रही है (और बारिश हो रही थी), इसलिए ऐसे सुहाने दिन में हम बीमारियों के बारे में बात नहीं करेंगे। हम जीत और आरोग्य के बारे में बात करेंगे। उसे डॉक्टर का यह दृष्टिकोण अच्छा लगा। डॉक्टर ने उसे स्तन कैंसर पर विजय पा लेने वाली औरतों की कहानियाँ सुनाई और पिचानवे रुपए प्रकाशित मूल्य वाली एक किताब पढ़ने को दी। वह उसका पहला पन्ना ही पढ़ पाया था, जब डॉक्टर ने किताब वापस ले ली। उसने कॉफ़ी पी और चार सौ रुपए देकर लौट आया। अगले हफ़्ते फिर से आने की बात के साथ डॉक्टर ने उसे लिखकर दिया कि उसे खाने में से मिर्च कम कर देनी चाहिए।
उस शाम वह उदास था और रोना चाहता था। उस सुबह की तरह ही वह एक लम्बी शाम थी, जो कई दिन तक बीतती रही। उसने नौकरी छोड़ देने की सोची और अपने पिता को फ़ोन किया मगर वह नौकरी छोड़ने की बात नहीं कर पाया। उसे पढ़ाई के लिए लिया गया लोन चुकाना था और उसकी दो छोटी बहनें थी, जो उसकी तरह किसी अच्छे मुहूर्त में शादी करना चाहती थी। उस रात उसने एक खराब कविता लिखी और सो गया। अगले दिन दफ़्तर में बहुत काम था। उसकी मैनेजर का नाम प्रिया गुप्ता था। वह चालीस के आस पास की मोटी और गोरी औरत थी। वह तेज गति से बोलती थी और कुछ अक्षरों में तुतलाती भी थी। वह एक घंटे बाद ही उसके पास आधे दिन की छुट्टी माँगने गया। वह आधे दिन की छुट्टी लेकर ही पूरे दिन के लिए चला जाना चाहता था। उसे छुट्टी नहीं मिली। मैनेजर के केबिन से लौटते हुए उसने सोचा कि कि किसी रात, जब वह देर तक ऑफिस में रुकी होगी, तो वह पार्किंग में गला घोटकर उसकी हत्या कर देगा और उसकी कार लेकर चला जाएगा। - तुम आजकल उदास उदास लगते हो। शाम को कनिका ने उसे फ़ोन पर कहा। - मैं आजकल एक नए प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं। - कौनसे नए? - यह कि लोग जब अपना अकाउंट खोलें तो हर समय उन्हें विपरीत लिंग का कम से कम एक व्यक्ति बात करने के लिए तैयार मिले। - वह कैसे होगा? - हमें नए लड़के और लड़कियाँ पैदा करने होंगे। - सीरियसली बताओ। - हमारी कम्पनी इस काम के लिए लड़के लड़कियाँ रख रही है जो फ़र्ज़ी खाते बनाएँगे और दिनभर यही काम करेंगे। - हाउ इंट्रेस्टिंग इट इज़! - तो तुम भी यही कर लो। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता। मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूं। - तुम बहुत बोरिंग होते जा रहे हो। ”हाँ”, उसने कहा और फ़ोन काट दिया। उसने सोचा कि अब से वह हर हफ़्ते डिस्को जाया करेगा और कम सोचेगा। उसने ‘वी’ पर ‘क्लाउड’ नाम से एक नई आईडी बनाई।
क्लाउड(09:38) – हाय लिप्स! कॉफी पीने चलोगी? लिप्स(09:41) – हू आर यू? क्लाउड(09:42) – जतिन लिप्स(09:44) – मैं किसी जतिन को नहीं जानती क्लाउड(09:46) – मैं भी किसी कनिका को नहीं जानता
लिप्स(09:46) – कौन हो तुम? क्लाउड(09:48) – जतिन...और तुम्हारी आई डी की डीटेल्स में तुम्हारा नाम दिख रहा है...
लिप्स(09:49) – ओह! मुझे लगा कि तुम मुझे जानते हो।
क्लाउड(09:50) – कॉफ़ी पर जान भी लेंगे।
लिप्स(09:52) – इतनी रात को?
क्लाउड(09:53) – कहाँ रहती हो?
लिप्स(09:54) – आई पी एक्सटेंशन
क्लाउड(09:56) – हमममम
लिप्स(09:58) – ?
क्लाउड(09:59) – डू यू हेव अ बॉयफ्रेंड?
लिप्स(10:00) – नहीं
क्लाउड(10:02) – फिर तो हमें कॉफ़ी पीनी ही चाहिए
लिप्स(10:04) – आज नहीं...फिर कभी
क्लाउड(10:05) – फिर कब?
लिप्स(10:06) – मैं सोचूंगी...
क्लाउड(10:07) – यू आर ए रियल बिच
लिप्स(10:08) – !!??
क्लाउड(10:09) – मैं उदय हूं
लिप्स(10:11) – हाँ, मुझे पता था।
क्लाउड(10:12) – झूठी
लिप्स(10:13) – तुम्हारी कसम
लिप्स(10:14) – फ़ोन करो।
- यह सब क्यूं? मेरी परीक्षा ले रहे थे? - जिसमें तुम फेल हो गई। - अब जैसा तुम्हें समझना है, समझो। - परीक्षा नहीं ले रहा था। नए लड़कों को यही ट्रेनिंग देने का काम मिला है मुझे। - ओहहो! हाउ इंट्रेस्टिंग! उसने फिर फ़ोन काट दिया। दो या तीन मिनट बाद फ़ोन बजा। कनिका ही थी। - तुम फ़ोन क्यूं काट देते हो? अगर मेरी कोई बात पसन्द नहीं आती तो बताओ ना कि क्यूं नहीं आती? - मैं तर्क नहीं करना चाहता। - असल में तुम्हारे पास कोई तर्क होता ही नहीं। - हाँ, मैं बेवकूफ़ हूँ। - मैंने ऐसा कब कहा? - नहीं, तुमने नहीं कहा लेकिन मैं मानता हूँ। - तुममें खालीपन आता जा रहा है... - हाँ लिप्स...आई एम टेरिबली अलोन। - मेरे रहते हुए भी? - शायद हाँ। - मैं आऊँ वहाँ? - साढ़े दस बज रहे हैं। - आई मिस यू। - उससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्यों मुझे ज़रा भी बेहतर महसूस नहीं होता कनिका? - मुझे तुम्हारी फ़िक्र हो रही है बच्चे। तुम यहाँ आ जाओ। - आई पी एक्सटेंशन? - हाँ। - तुम्हारे हॉस्टल में रुकूंगा? - वापस चले जाना। - नहीं, मैं ठीक हूँ। - फ़ोन मत काटना। आई वांट टू बी विद यू। वह आधी रात के बाद तक जागता रहा। उसे अपने कॉलेज के दिन याद आए, जब वह रात भर जागकर फ़िल्में देखने के बाद दोस्तों के साथ बस स्टेंड के ढाबों पर चाय पीने जाया करता था। वह पहाड़ और मैदान की सीमा पर बसा एक छोटा सा हरा-भरा शहर था। वहाँ बहुत बारिश होती थी और हफ़्ते में कम से कम एक बार तो वह क्लास से लौटते हुए भीगता ही था। कुछ दिन बीते- दो या तीन दिन। एक शाम उसने एक सुपरहिट फ़िल्म भी देखी जो उसे बहुत बुरी लगी। चौथे दिन सुबह से बरसात हो रही थी। वह मरे हुए से कदमों से चलकर अपनी मैनेजर के पास गया। उसकी आँखें अपने लेपटॉप में गड़ी थीं और उदय को लगा कि वह अगले ही क्षण उसमें घुस जाती यदि वह उससे न बोलता।
- प्रिया, बरसात हो रही है और अमूमन ऐसे मौसम में मुझे अपने घर और कॉलेज की याद आती है। - स्वूपर वाले काम की डेडलाइन आधे घंटे बाद ख़त्म हो रही है उदय। वह मुस्कुराकर बोली और उसे लगा कि बिल्कुल इसी तरह लॉर्ड क्लाइव अपने भारतीय मातहतों से बात करते होंगे। उसे लगता था कि प्रिया अपने आप को किसी अंग्रेज़ की औलाद समझना चाहती है और वह तीन मिनट की बात के बाद (या उससे भी कम) किसी भी अमेरिकन के साथ सो सकती है। उदय को सब गोरे लोग घृणित रूप से एक जैसे लगते थे। गोरी लड़कियाँ भी, लेकिन उन्हें वह भोगना चाहता था। - मेरा मन कर रहा है कि मैं बाहर सड़क पर कुछ देर घूम आऊँ। वह भरसक मुस्कुराकर बोला और उसकी आँखों में आँसू आ गए। - तुम पिछले महीने भी एक दिन इसी तरह पन्द्रह मिनट के लिए गए थे और तीन दिन बाद लौटे थे....और जहाँ तक मुझे याद आता है, उसके बाद भी कम से कम सात आठ बार तुम मुझसे ऐसा पूछ चुके हो।
- क्योंकि मुझे लगता है कि पहाड़ और बारिश और यहाँ तक कि केंचुए भी इंटरनेट से ज़्यादा ज़रूरी हैं। - हाँ, लेकिन तुम्हें याद होना चाहिए कि हम लोगों को करीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं। यह मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है कि मैं बार बार तुम्हें यह याद दिलाऊँ। वह गुस्से में आ गई थी लेकिन मुस्कुराती रही। वह उठकर चल दिया।
- अगर अगले बाईस मिनट में स्वूपर पूरा न हो तो मुझे मेल करके स्टेटस बताना।
वह पीछे से बोली। सामने एक ख़ूबसूरत लड़की का पोस्टर लगा था, जो बहुत उत्साह से अपने कम्प्यूटर पर काम कर रही थी। वह ‘वी’ का प्रतीक पोस्टर था। अपनी सीट पर आकर उदय ने अपने साथ वाले लड़के को लगन से महानता की ओर कदम बढ़ाते हुए देखा और उसे लगा कि मैं दुनिया का सबसे नाकारा इंसान हूँ। काम के हर दिन के बाद उसका आत्मविश्वास पहले दिन से कुछ कम हो जाता था। कभी कभी उसे अपनी सब योग्यताएँ फ़र्ज़ी लगने लगती थी और वह अलमारी में से अपनी सब डिग्रियाँ निकाल निकालकर उन पर लगी मोहरों को सूरज की रोशनी में अलग अलग दिशाओं से देखा करता था। उसे लगता था कि वह सारी पढ़ाई भूल गया है और यह ऐसा ही है, जैसे वर्षों तक गुल्लक में सिक्के डालते रहने के बाद एक दिन उसे उठाकर हिलाओ तो कुछ भी न बजे। वह फटी फटी आँखों से आसमान को देखता रहता और हर महीने की पच्चीस तारीख को उसके खाते में आ जाने वाले पैंतीस हज़ार रुपए भी उसकी आँखें बन्द नहीं कर पाते थे। वह एक ऐसे समय और परिस्थितियों की पैदाइश था जिसमें पैंतीस हज़ार रुपयों का सीधा सा मतलब था खुशी। उसकी माँ का मानना था कि पैसा ख़ुदा नहीं है तो उससे कम भी नहीं है। उसे जुगुप्सा होती थी। एक शाम उसने अपने स्कूल के दिनों की एक दोस्त को फ़ोन किया जिसकी शादी हो चुकी थी। उन दिनों वह गर्भवती और व्यस्त थी। वह उसे कई दिनों से फ़ोन मिला रहा था, लेकिन वह हर रोज़ काट देती थी। उस शाम उसने फ़ोन उठाया और चहचहाकर बोली- कहाँ मर गए थे बन्दर? इतने दिन बाद याद किया। - मैं तुमसे एक सलाह लेना चाहता हूँ। - लड़की का चक्कर है क्या? शादी के बाद से वह उससे ऐसे बात करने लगी थी जैसे उसकी भाभी हो। फ़िक्रमन्द, समझदार और कुछ भी कहकर हँस देने का अधिकार रखने वाली। लक्ष्मण-सीता टाइप होता यह रिश्ता उसे काटने को दौड़ता था। - क्या तुम्हें लगता है कि मैं किसी और लड़की के बारे में तुमसे बात करना चाहूंगा जबकि तुम्हें वे दिन याद हैं जब मैं तुम्हारे प्यार में रात रात भर जगा करता था और जिस दिन तुमने मुझे पार्क के पिछले दरवाज़े की ओट में ऊपर से नीचे तक अपने आप से चिपका लिया था, मैं एक पेपर में फेल हो गया था... उसे बुरा लगा। वह गर्भवती थी और अपनी होने वाली संतान को संस्कारित बनाना चाहती थी। उसने फ़ोन काट दिया और अपने पूजाघर में जोत जलाने चली गई।
वह सड़क पर निकल गया। उसने आठ-नौ साल के एक बच्चे से जीवन के उद्देश्य के बारे में बात छेड़ी। वह बच्चा उसे घूरता हुआ अपने घर की तरफ भाग गया। उसने सोचा कि यदि वह नौकरी छोड़ दे तो उसके पिता, माँ, भाई और बहनों की क्या प्रतिक्रिया होगी? उसने शहर की सड़कों की कठोर प्रतिक्रियाओं के बारे में भी सोचा और कुछ देर के लिए उसमें डर भर गया। वह किसी भी स्थिति में अपने कस्बे में नहीं लौटना चाहता था क्योंकि उसे लगने लगा था कि वहाँ के वायुमण्डल में कमर और आँखें झुका देने वाली गहरी निराशा तैरती है। वहाँ उसने दब्बू किस्म के बच्चों वाला स्कूली जीवन जिया था और उसे अपने बचपन को याद करना बुरा लगता था। उसकी सबसे सघन यादें वे थी जिनमें बड़ी कक्षाओं के लड़के स्कूल के अँधेरे कोनों में उसके गाल चूमते थे। उसने सोचा कि उसकी बहनें किन्हीं लड़कों के साथ भागकर शादी कर लें तो अच्छा हो। वह बार बार जेब से फ़ोन निकालकर देखता था। उसे लगता था कि उसके स्कूल की वही दोस्त, जिसने एक गर्म फरवरी में उससे प्यार किया था, फोन करेगी। वह एक शांत किस्म की लड़की थी, जो जल्दी सोकर उठ जाती थी। उसी ने उदय को बताया था कि उसे पायलट नहीं बनना चाहिए क्योंकि वह बहुत देर में निर्णय ले पाता था और पुलिस अफ़सर भी नहीं, क्योंकि उसे दया आती थी। संभोग के क्षणों में वह उन्मत्त बाघिन सी हो जाती थी और वह उसे और भी हिंसक देखना चाहता था। उसे काला रंग और सफेद चूहे पसन्द थे। उसकी जाँघें अमचूर की तरह खट्टी थीं। अगले दिन दफ़्तर में एक मीटिंग थी जिसमें उसके और प्रिया गुप्ता के अलावा आठ लोग और थे। वह एक नया मनोरंजक फ़ीचर जोड़ने के लिए तकनीकी और ऊबाऊ बहस थी, जिसमें से वह निकल भागना चाहता था। वह पूरा समय खिड़की के काँच में से बाहर देखता रहा। - तुम्हारा क्या कहना है उदय? बीच में प्रिया ने उसे टोका। - किस बारे में? - प्रोग्रेसिव नेचुरलाइजेशन ठीक रहेगा या प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन? - मुझे तो दोनों ही ठीक नहीं लगते। - क्या तुम हमें इन दोनों के बीच का अंतर समझा सकते हो? उसने दो रटी रटाई परिभाषाएँ बोल दी। प्रिया को अच्छा नहीं लगा।
- तुम्हारा क्या ख़याल है रवि? - वही ठीक होगा प्रिया, जो तुम्हें ठीक लगता है। - नहीं। आप सब जानते हैं कि हमारे यहाँ चर्चाएँ होती हैं और वह हर विचार स्वीकार किया जाता है, जो इनोवेटिव हो। फिर चाहे वह आइडिया किसी का भी हो। - हाँ, हम सब जानते हैं। - हाँ, हम सब जानते हैं। उदय को छोड़कर सबने दोहराया। - आप सब अपनी अपनी स्वतंत्र राय दीजिए। सबने अलग अलग एक ही बात कही। जैसे बहुत ज़ोर देने पर रवि ने बहुत मुस्कुराते हुए अपनी टाई ठीक करते हुए कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन बेहतर है क्योंकि वह भविष्य की तकनीक है और कम्पनी के सिद्धांतों के सर्वाधिक अनुकूल है। विनीता ने कहा कि प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन में लगातार चकित करते रहने वाली एकरसता है। उसे बीच में टोककर प्रिया ने कहा- तुमने असली पॉइंट पकड़ा है। विनीता आभार में मुस्कुराई। यह पंक्ति उसने सुबह अख़बार में किसी आध्यात्मिक लेख में ईश्वरीय सत्ता के बारे में पढ़ी थी। मनिन्दर ने कहा कि यह पुरानी तकनीक की खूबियों और नई ज़रूरतों के समाधानों का आदर्श मिश्रण है। इस पर तो हमें पेटेंट के लिए आवेदन करना चाहिए। सबने हाँ, हाँ कहकर उसका समर्थन किया।
प्रिया गुप्ता प्रेजुडाइज़्ड नेचुरलाइजेशन की मुख्य डिजाइनर थी। मीटिंग रूम से बाहर निकलते हुए, जिसका नाम सोच समझकर ब्रह्मपुत्र नदी के नाम पर रखा गया था, उदय ने अपने साथ वाले क्लीनशेव्ड लड़के से पूछा- क्या तुम्हें लगता है कि मानवजाति पचास और साल जी पाएगी? उसने आश्चर्य से उदय को देखा और प्रिया उनके पास से गुज़र रही थी, इसलिए वह उदय की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ गया। आधे घंटे बाद प्रिया ने उसे अपने केबिन में बुलाकर कहा कि वह इस विषय पर उसकी जानकारी से प्रभावित है इसलिए वह चाहती है कि उदय आज शाम एक अतिरिक्त घंटा रुककर काम करे। उसकी मेज पर स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी का एक प्रतिरूप रखा था। उदय ने उससे पूछा कि वह पार्किंग में अपनी कार कहाँ खड़ी करती है? - जहाँ ग्लोब में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ। - लेकिन ग्लोब गोल होता है और पार्किंग चौकोर है। - फिर जहाँ नक्शे में उत्तरी अमेरिका है, वहाँ।
वह उसी समय पार्किंग में गया, यह देखने के लिए कि जहाँ भारत है, वहाँ किसकी कार है? उसने पाया कि भारत की जगह महिला शौचालय है और चीन की जगह पुरुष शौचालय। उसे लगा कि हर दिन पार्किंग का केन्द्र-बिन्दु प्रिया की कार की ओर खिसक रहा है, जैसे वहाँ से पूरी पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नियंत्रित होता हो। उसे लगा कि एक दिन आएगा, जब पूरी पार्किंग अमेरिका बन जाएगी और शौचालयों की ज़गह नक्शे के बाहर कहीं हवा में होगी। उसने अपनी आँखें मली और अपनी सीट पर लौट आया। उसके कम्प्यूटर पर प्रिया का एक मेल आया हुआ था, जिसमें तीसरी बार उससे सख़्त अनुरोध किया गया था कि वह चौड़ी आस्तीन की शर्टें पहनकर दफ़्तर न आया करे। कम्पनी का मानना था कि यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इससे उनकी कार्यक्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है। उस शाम वह तीन अतिरिक्त घंटे रुका। एक घंटा काम करने के बाद उसने अपना कम्प्यूटर बन्द कर दिया और दो घंटे तक इधर उधर घूमता रहा। उस शाम उसे पहली बार पता चला कि हर मंजिल पर दो-दो आपातकालीन निकास द्वार हैं और कम्पनी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों के केबिन उन दरवाज़ों से सटे हुए हैं। उस शाम से उसने उन्नीस सौ इकत्तीस की मार्च का इंतज़ार करना शुरु कर दिया। वह दो हज़ार आठ का अगस्त था और उस शहर में हर दूसरे तीसरे दिन बरसात होती थी। वह एक बड़ा शहर था, जिसकी सड़कें टूटी हुई थीं और चूंकि स्ट्रीट लाइटें कहीं कहीं थीं, सात बजते बजते उन सड़कों के गड्ढ़े अँधेरे में डूबने लगते थे। वहाँ पक्षी नहीं थे और जिन्हें घोंसलों से प्रेम था, वे चिड़ियाघर जाते थे। हालांकि घोंसले वहाँ भी नहीं मिलते थे। उसे बार बार अपनी उसी स्कूल वाली दोस्त की याद आने लगी थी और यह उसने कनिका को भी बताया। इसका कारण उसे समझ में नहीं आता था। उसने कनिका से कहा कि वह उससे प्यार करना चाहता है और वह उसे खो देने पर बहुत दुखी नहीं होती, मगर उसे इस तरह खोना भी नहीं चाहती थी, इसलिए उसने कहा कि वह सप्ताहांत तक इंतज़ार करे। सप्ताहांत के रास्ते में शुक्रवार बचा था। वह उस दिन दफ़्तर नहीं गया और उसने देर तक बालकनी में खड़े होकर बादल गिने। वह कुछ दूर पैदल चला और दूध का पैकेट खरीदकर हाथों में उछालते हुए लौटा। उस सड़क पर ज़्यादातर कारें ही चलती थी और पैदल या साइकिल पर चलने वाले लोग साम्यवादी सजावट सी लगते थे। उसने उस दोपहर इंटरनेट पर लेनिन को ढूंढ़कर पढ़ा और भगतसिंह के बारे में सोचता रहा। उसे यह सोचकर अच्छा लगा कि उसने बहुत से शहरों में भगतसिंह चौक देखे हैं। कनिका ने उससे कहा था कि राजीव गाँधी और इन्दिरा गाँधी ही पिछली सदी के सच्चे महापुरुष हैं। कई बार ऐसा हुआ था कि एक ही शहर में तीन-चार इन्दिरा गाँधी मार्ग या राजीव चौक होने की वज़ह से वह घंटों तक रास्ता भटककर चक्कर काटता रहा था। यह अजीब था कि जिस दिन उसने छुट्टी ली, उस दिन कड़ाके की गर्मी पड़ी और वह दोपहर के बाद बाज़ार में ही घूमता रहा। वह बन्दूकों की एक दुकान पर गया और उन्होंने उसे बन्दूक या पिस्टल का लाइसेंस होने की ज़रूरत के बारे में विस्तार से समझाया। उसने कहा कि वह बिना लाइसेंस का एक रिवॉल्वर खरीदना चाहता है और ‘रिवॉल्वर’ बोलते हुए बचपन की गर्मियों में पढ़े हुए कई जासूसी उपन्यास उसकी स्मृति में से गुज़र गए। उसे अपनी माँ की याद आई जो चाहती थी कि वह दो-तीन बच्चे पैदा करे और उसे लगा कि शायद यह भी चाहती थी कि उसे चालीस की उम्र में डायबिटीज हो जाए और वह मोटा हो और सोते हुए खर्राटे ले। वह हँसा। दुकान वाले ने बिना लाइसेंस के हथियार बेचने से मना कर दिया। वह चला आया। उसे लगा कि उन्हें उसके आतंकवादी होने का शक हुआ है और कुछ दूर तक कोई उसका पीछा करता रहा है। वह मुड़ मुड़कर पीछे देखता रहा। वह घुमावदार रास्तों से आया और उसने दो ज़गह ढाबों में बैठकर चाय पी।
उसका कॉलेज का दोस्त, जो बेरोज़गार था और बहुत व्यग्र था कि नौकरी करे, उससे मिलने आया। कॉलेज से निकलने के बाद वे पहली बार मिल रहे थे। उदय को लगा कि अचानक उनके बीच वह औपचारिकता आ गई है जो वह अपने पिता और घर में उनसे मिलने आने वाले उनके दोस्तों के बीच देखा करता था। कुछ देर के लिए उसे लगा कि वह अपना पिता हो गया है क्योंकि वे दोनों मौसम और महंगाई के बारे में बात करते रहे। उसे लगा कि उसका दोस्त उसकी हर बात को बहुत ध्यान से सुनता है और एक सम्मान देते रहने की कोशिश करता है। उसे शर्मिन्दगी हुई। दोस्त यह कहकर गया कि वह उसकी नौकरी कहीं लगवा दे तो उसका बहुत अहसान हो। उदय उसके गले लग गया और उसका जी हुआ कि अपनी सब डिग्रियों और बैंक की पासबुक को आग लगाकर कहीं चला जाए। दुख में से गुज़रते हुए ऐसा लगता है कि यह हमेशा रहेगा। ऐसा सुख में से गुज़रते हुए नहीं लगता। उसने कूलर बेच दिया। वे आठ सौ रुपए उसने अपनी अलमारी के अख़बार के नीचे अलग से सँभालकर रख दिए। कनिका शनिवार की सुबह ही आ गई। वह मीठी थी। उदय ने कहा कि हम चाय के साथ कुछ नमकीन खाएँगे। उन्होंने खाया भी। - यह सब जो अँधेरा है कमरे में, हम बस उसके बारे में बात करेंगे।
कनिका ने उसके बहुत क़रीब आकर यह कहा। ऐसे, जैसे किसी की उपस्थिति में ही उसके ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचना पड़े, तब जितने नज़दीक जाकर हम फुसफुसाते हैं। वह चुप पड़ा रहा। - और थोड़ी सी बात तुम्हारे बालों के बारे में भी... वह हँसी। उदय ने पूछा- क्या यह अनैतिक होगा कि हम आग बुझाने के लिए उनके घर से पानी लाएँ, जो माचिसें बेचते हों? - यदि समय है कि नीति-अनीति के बारे में सोचा जा सके, तो शायद अनैतिक ही होगा। - और मानो कि समय नहीं है, तो? - तो सब माफ़ है। मेरा और तुम्हारा क़त्ल भी। - फिर भी...सोचेंगे कि समय है। तुम क्या कुछ पैसे मुझे उधार दे पाओगी? - कितने? - मैं लौटाऊँगा नहीं। - मैंने पूछा, कितने बाबा? - पाँच सौ। - बस? - हाँ बस। - ले लेना...लेकिन बदले में तुम्हें मुझे साझेदार बनाना पड़ेगा। - किसमें? - अपने अँधेरे में... - तुम जानती हो कनिका...कि मैं प्यार करता हूँ तुमसे। - तुम्हारी बातों से नहीं लगता। - मैं तुम्हें कभी कभी बहुत बेवकूफ़ समझता हूँ और तुम्हारे ऊपर हँसता भी हूँ...कभी कभी मैं तुमसे इतनी नफरत करता हूँ कि तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। - तुम गधे हो। - सब लड़कियों को जानवर ही क्यों अच्छे लगते हैं? वह करवट के बल उसकी ओर चेहरा करके लेटी थी। अब तुनककर सीधी लेट गई। - और किसे अच्छे लगते हैं? और किसने कहा कि तुम मुझे अच्छे लगते हो? - किसी को नहीं... - क्या तुम्हें तब भी वह याद आती है, जब मैं तुम्हारी टाँगों पर टाँगें रखकर तुम्हारे बिस्तर पर लेटी होती हूँ? - सिर्फ़ उसके कूल्हे याद आते हैं – उसने एक गहरी साँस ली – और आज हम तुम्हारे बालों के बारे में बात करने वाले थे ना? - नहीं, तुम्हारे बालों के बारे में बुद्धू...और अँधेरे के बारे में, जो तुम्हारी आँखों से कमरे तक फैला हुआ है। - तुम्हारी आवाज़ मुझे बदली बदली सी लग रही है। - मैं भी तुम्हें मार डालना चाहती हूँ उदय। ”मार डालो”, उसने धीरे से कहा और वे सो गए। वे तब तक सोते रहे, जब तक उन्हें बहुत तेज भूख नहीं लग गई। शाम के पाँच बज चुके थे। एक रेस्तराँ में खाने के बाद उसने कनिका से कहा कि अब उसे चले जाना चाहिए। हालांकि वह उसे एक दिन और रोकना चाहता था। वह चली गई। उसने पहुँचकर एस एम एस किया कि वह ठीक ठाक पहुँच गई है। उसने निश्चय किया कि वह कनिका से ज़रूर शादी करेगा। उसने अपनी माँ को फ़ोन किया और यह नहीं बताया क्योंकि एक तो वह माँ के साथ बहुत लम्बी बात नहीं करना चाहता था और दूसरे, माँ के इस भ्रम को भी नहीं तोड़ना चाहता था कि उसने होश सँभालने के बाद से पूरी स्त्री नहीं देखी। उसे अजीब लगता था कि वह जब माँ को याद करता है तो उसके हृदय में बिल्कुल भी कोमलता नहीं होती। वह बिजली के कुछ तार खरीदकर लाया और कुछ मैकेनिक वाला सामान, जिसमें चार तरह के पेंचकस थे। तभी से उसे अपनी महानता का अहसास होना शुरु हुआ। उसने सोचा कि वह उस दुकानदार से कितना अलग और ऊपर है, जिसने उसे ग्यारह सौ रुपए में यह सामान बेचा है। उसने घर लौटते हुए पच्चीस रुपए की एक आईसक्रीम खाई। उस रात उसने सोचा कि अब से वह हर रोज़ डायरी लिखा करेगा। लेकिन जब वह लिखने बैठा तो उसे लगभग सभी वे बातें महत्वहीन लगीं, जिन्हें वह लिखना चाहता था। जैसे उसे ये पंक्तियाँ लिखना बहुत हल्का लगा कि ‘मैंने आज बिजली के तार खरीदे’ या ‘कनिका जब बस में चढ़ रही थी तो मेरा मन किया कि मैं गन्ने का रस पियूँ’। वह नहीं चाहता था कि कल को कोई उसकी डायरी पढ़कर हँसे। उसका यह पक्का विश्वास था कि यदि कोई डायरी लिखी जाती है तो एक न एक दिन वह किसी और द्वारा ज़रूर पढ़ ली जाएगी। - तुम्हारी शादी हो चुकी है? उसने सोमवार को लंच के समय के दौरान मेन गेट पर खड़े गार्ड से पूछा। - जी नहीं। - तुम बिहार से हो? - जी। उदय मुस्कुराया। - आपको कैसे पता चला? - तुम्हारे चेहरे की चमक देखकर पता चलता है। गार्ड को उसका चेहरा याद हो गया। मंगलवार को जब कम्पनी में घुसते हुए उसके बैग की जाँच हो रही थी तो गार्ड उसे देखकर मुस्कुराया।
उदय ने पूछा- क्या तुमने इतिहास पढ़ा है? - मैं तो दसवीं पढ़ा हूँ साहब। - कहीं से ढूंढ़कर तांत्या टोपे की पर्सनेलिटी के बारे में पढ़ना। तुम्हारा चलने और बोलने का ढंग वैसा ही है। वह तांत्या टोपे को नहीं जानता था, फिर भी वह लगभग गदगद हो गया। उस दिन उदय ने लंच नहीं किया और मेन गेट के पास खड़ा होकर उसी से बतियाता रहा। उसका नाम सुन्दरसिंह था। वह अपने गाँव की एक लड़की से प्रेम करता था, जिसकी एक बाबू से शादी हो गई थी। सबका एक साझा किस्सा था जिसमें कभी बाबू तो कभी इंजीनियर होते थे। बुधवार को उसकी तलाशी की औपचारिकता भर हुई और बृहस्पतिवार के बाद वह दफ़्तर में ऐसे दाख़िल होने लगा, जैसे बाहर के लोग डाकघर या बिजलीघर के किसी भी कमरे में बेहिचक घुस जाते हैं। इतिहास गवाह है कि दुनिया में कोई भी ऐसी क्रांति नहीं हुई जिसमें निर्दोष लोग न मारे गए हों। यह सोचकर उसे तसल्ली होती थी और बुरा भी लगता था। धीरे धीरे वह इस बुरा लगने से बाहर आता गया। यह ज़रूरी भी था। उसने गीता और विवेकानन्द को पढ़ा। उसने दूसरे विश्वयुद्ध की कहानियों पर बनी कुछ अंग्रेज़ी फ़िल्में देखी और उसे याद आया कि उसके बचपन में बच्चों के बीच यह डरावनी अफ़वाह फैली रहती थी कि जल्दी ही तीसरा विश्वयुद्ध होगा और उसमें पूरी दुनिया नष्ट हो जाएगी। कुछ दिनों तक वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक सुरंग बनाने की योजना बनाता रहा था।
उसे कभी कभी बहुत डरावने सपने आते थे- खूंखार जादूगरों और चुड़ैलों के। किसी किसी सपने में तो उसकी माँ ही राक्षसी बनकर उसे खाने लगती थी। आधी रात में अक्सर वह चिल्लाकर जगता था। उन्हीं दिनों वह गीता पढ़ रहा था, जिसे उसने बीच में ही छोड़ दिया। उसे लगा कि यह सब वह पहले से ही जानता है। उसे तेज गुस्सा आता था और वह अपने कमरे की चीजें तोड़ते तोड़ते रुक जाता था। एक छुट्टी के दिन (शायद पन्द्रह अगस्त) उसे अहसास हुआ कि उसे कभी किसी ने तोहफ़ा नहीं दिया। उसने कनिका को फ़ोन करके कहा कि वह उसे भोगना चाहता है। इस पर कनिका को बहुत हँसी आई। - पागल.... – वह हँसते हँसते ही बोली – तुमने कहा नहीं। मैं आ जाती वहाँ। - नहीं, फ़ोन पर। - फ़ोन पर कैसे? - जैसे हम लोगों को क़रीब लाने के महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं... - तुमने पी रखी है? - ना.. - पर फ़ोन पर क्यूँ? - क्योंकि मुझे लगता है कि हम आमने-सामने उतने ईमानदार नहीं रह पाते। तुम जब आँखें खोले रखना चाहती हो, तब भी बन्द कर लेती हो। ....या यह मेरा बहाना ही है और मैं सिर्फ विद्रोह करना चाहता हूँ। - उदय...तुम्हारा यही पागलपन मुझे उत्तेजित करता है। - क्या पहना है तुमने? - समझो कि हवा। बीच में ही, जब वे उस तहखाने के आखिरी कमरे का ताला खोल रहे थे, उदय ने कहा कि वह उससे ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहता है। वह बोली कि यह तो ऐसा है, जैसे किसी ने उसे ख़ूबसूरत सी चोटी पर ले जाकर धक्का दे दिया हो। उदय बोला- मैं और तुम साथ में एक फ़िल्म देखेंगे, जिसके अंत में हीरो हीरोइन की शादी हो जाती हो। यह वादा था या जैसे सगाई की अँगूठी। वह ख़ुश हुई। उदय ने सोचा था कि एक अच्छी ज़िन्दगी होगी, जिसमें इज़्ज़त होगी और पवित्रता। यह उसने बहुत पहले सोचा था, जब वह पढ़ता था और इम्तिहान देता था। उसके कुछ समय बाद उसने समाज और दुखों के बारे में सोचा था।
उसने वह कमरा खाली कर दिया। कुछ ख़ास सामान नहीं था। कुछ कपड़े, किताबें, दो चार बर्तन, बिस्तरबन्द और कम्प्यूटर। कम्प्यूटर बेचकर बाकी सामान उसने कम्पनी में ही काम करने वाले एक साथी लड़के के कमरे में रख दिया। वह लड़का हैरान था। उसने कुछ सामान्य सवाल पूछे, जिनका जवाब उदय ने नहीं दिया। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा कि वह जा रहा है और ऐसे लौट आएगा, जैसे गया ही न हो। यह भटकाने वाला उत्तर था। ऐसे उत्तर के साथ रहकर संन्यासी या अपराधी हो जाने का डर था। वह एक मेहनती लड़का था और दस घंटे की नौकरी करने के साथ साथ पढ़ाई भी कर रहा था। उसने उदय की बातों पर अधिक ध्यान देना उचित नहीं समझा। वह भटकना नहीं चाहता था। उन दोनों को एक दूसरे के दर्शन पर तरस आता था। वे दोनों दोस्त नहीं थे और उससे पहले उन्होंने तीन या चार बार ही बात की होगी। अब, जबकि वह बेघर था तो थोड़ा खुलकर साँस लेता था और सोचता था कि कुछ करना होगा, कुछ करूँगा तो उसे लगने लगा कि उसका आक्रोश कम होने लगा है। वह बहुत दूर आ गया था और लौटना नहीं चाहता था। उसे लगा कि असुविधाएँ उसे कमज़ोर बना रही हैं। यह एक नया रहस्योद्घाटन था। एक छोटा समयांतराल था जिसमें उसमें रिक्तता भर गई। वह एक दिन रेलवे स्टेशन पर गया और उसने सामान्य कूपे में बैठकर देखा। उसे वहाँ भी घुटन सी हुई। उसे गरीबी से हमेशा से डर लगता रहा था और उससे ज़्यादा गरीबी से उपजने वाली अबौद्धिकता से। आलू पूड़ी और सस्ते पाउडर वाली औरतों के बीच से तेजी से निकलकर वह बाहर आ गया। बाहर, जहाँ धूप थी, पार्क था और कुछ बूढ़े थे। वह पेड़ की छाँव में बैठी एक सुन्दर अधेड़ औरत को कुछ देर तक देखता रहा और उसने सोचा कि मर जाना चाहिए। मगर यह विकल्प उसे ज़रा भी प्रभावित नहीं कर पाया और वह देर तक घास पर लेटा रहा। उसने सोचा कि दुनिया बेवकूफ़ लोगों से भरी पड़ी है जिनके पास बहुत सारा धन है। वह उन्हें मूर्ख बनाएगा और कभी गरीब नहीं होगा। उसे अपनी क़ाबिलियत पर फिर से यक़ीन होने लगा और उसने सोचा कि यह शनिवार है।
बीच में कहानियाँ और भी थी जिनमें रेलगाड़ियों की सुखद या कष्टदायक यात्राएँ नहीं थी और गर्मी की लम्बी दोपहरों में बरामदे की चटाई के पीछे से झाँकती उदासियाँ थी। उसकी दो बहनें थी और माँ-पिता ने सोचा था कि एक और हुई तो वे कस्बा छोड़कर गाँव लौट जाएँगे। यह घर में सबको मालूम था और उन दिनों, जब उदय दस या ग्यारह साल का रहा होगा, वह प्रार्थना करता था कि उसकी माँ की बच्चा पैदा करने की शक्ति अब छीन ली जाए। वह शुरु से आखिर में ही था जैसे चार भाई-बहनों के बीच में दूसरे और तीसरे नम्बर के बच्चे अक्सर होते हैं। ईश्वर यदि था – और होगा ही, क्योंकि इसी इकलौती बात पर पूरा शहर एकमत था और वह अकेला बिना तर्क बेवकूफ़ – तो उसने उदय की गुहार कुछ इस तरह सुनी कि शादी के पाँच साल बाद तक भी उसकी भाभी को कोई संतान नहीं हुई। उसकी माँ ही कहती थी कि भाभी भी माँ जैसी ही है और उदय को लगता था कि यह ऐसा सोचने का ही नतीज़ा है। भाभी सुन्दर थी और वह उसे कभी माँ की नज़रों से नहीं देख पाया। उसने कभी चाहा भी नहीं। उसका भाई एक के बाद एक, कई काम करके छोड़ चुका था और फ़िलहाल खाली था। भाभी को देखकर उसे लगता था कि वह उसके भाई से ऊब चुकी है। वह दिन भर झल्लाई रहती थी और किसी से फ़ोन पर लम्बी लम्बी बातें किया करती थी। उसकी बहनें घर के सब कामों में कुशल थी और महीनों तक उसकी राह देखा करती थी। दोनों बहनों को छोड़कर पूरे घर से उसे कोफ़्त होती थी। पिता से उसे प्रेम था। नौकरी ऐसी थी कि उसके कम होते आक्रोश में एक नया सोमवार ही काफ़ी था। उस दिन, जब उसे गर्मियों के उदास कस्बे अच्छी तरह से याद थे, उसने प्रिया के केबिन में जाकर कहा कि वह नौकरी छोड़ना चाहता है।
- तुम ठीक तो हो उदय? वह उस दिन ख़ुश लग रही थी।
- हाँ, मैं बिल्कुल ठीक हूँ और जानता हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ... - कहीं स्वूपर के डर से तो नहीं? – वह ज़ोर से हँसी (उस पर) – वो काम किसी और को दे देते हैं। तुम डाटा हैंडलिंग या टेस्टिंग सँभाल लो। - मैं यह नौकरी छोड़ना चाहता हूँ और तुम लोगों के इस दो कौड़ी के काम के बारे में एक भी बात नहीं करना चाहता। - तुम बहुत कमज़ोर कर्मचारी रहे हो। ज़रा सा भी दबाव नहीं सह पाते। मुझे लगता है कि इस तरह तुम ज़िन्दगी में किसी भी क्षेत्र में बहुत आगे नहीं जा पाओगे। - और दुनिया बहुत बड़ी, मेहनती और चुस्त है। है ना? - हाँ... - तुम औरत नहीं होती तो मैं तुम्हें अभी एक गाली देना चाहता था। - शुक्र है कि ऐसे समय में भी तुमने अपने मूल्य बचा रखे हैं। - यह मूल्यों की बात नहीं है। वह गाली ही पुरुषों के लिए है। - तुम सोचते हो कि तुम बदतमीज़ी करोगे तो हम आसानी से तुम्हें निकाल देंगे? एक क्षण में ही वे सब मिलकर हम हो गए थे – उसके विरुद्ध ‘वी’। - ...तुम शायद भूल चुके हो कि तीन साल से पहले नौकरी छोड़ने पर तुम्हें कम्पनी को तीन लाख रुपए देने पड़ेंगे। एक अच्छी सुबह में तुमने ख़ुश होकर उन कागज़ों पर हस्ताक्षर किए थे। क्या मुझे वे कागज़ ढूंढ़ने पड़ेंगे? ये सब बातें वह अंग्रेज़ी में बोल रही थी। अंग्रेज़ी चमत्कारिक भाषा है जिसमें बहुत अश्लील बातें भी सभ्य लगती हैं। वह चुपचाप लौट आया। उसने शायद माफ़ी भी माँगी। वह जब लौटकर अपनी सीट पर आया तो उसके हाथ दो मोटी रस्सियों से बँधे हुए थे। उसे लगा कि ग़ुलामों से भरे हुए एक ट्रक में ठूँसकर उसे अफ़्रीका ले जाया जाएगा और वहाँ एक बड़े से चबूतरे पर उसकी नीलामी होगी। एक गोरी चमड़ी वाला सुदर्शन नवयुवक उस पर लगातार कोड़े बरसा रहा होगा। वहीं कहीं आसपास घंटाघर भी हो, ऐसा उसने चाहा। वह समय देखना चाहता था। अपनी ओमेगा की घड़ी उतारकर उसने कूड़ादान में फेंक दी। पिछले सोमवार को इसी समय उसने अपने कम्प्यूटर की पीठ थपथपाई थी, जब उसने पूरी इमारत के बिजली के कनेक्शन का नक्शा ढूंढ़ निकाला था। फिर हर दिन शाम को वह देर तक रुकता था। उस पूरे सर्किट को समझने में उसे तीन दिन लगे और क्या करना है, यह सोचने में तीन मिनट। रोज़ रात को आठ बजे सुरक्षा कर्मचारियों की ड्यूटी बदलती थी। पूरी बिल्डिंग में खुफिया कैमरे लगे थे, जिनकी लाइव रिकॉर्डिंग देखने के लिए एक आदमी नौकरी पर था। आठ बजे से जिसकी ड्यूटी लगती थी, साढ़े आठ के आसपास उसे गुटखे की तलब लगने लगती। धूम्रपान प्रतिबन्धित था लेकिन गुटखे के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा था। उदय सोचता था कि अमेरिका में गुटखा नहीं खाया जाता होगा। इस बात के लिए वह पश्चिम का अहसानमन्द था। वह गार्ड साढ़े आठ बजे निकलकर बाहर सड़क पर लगे खोखे तक जाता, रजनीगन्धा का एक पाउच खरीदता, खोलकर हथेली पर रगड़ता, मुँह में रखता और धीमे धीमे कदमों से लौट आता। इस पूरे काम में पन्द्रह या बीस मिनट लगते थे। ऐसा सवा दस बजे के आसपास फिर से होता था। यानी उदय को हर दिन तीस या चालीस मिनट मिलते थे, जब खोजी कुत्तों की निगाहें कोने कोने पर नहीं होती थी। उसने ऐसे कोने ढूंढ़ निकाले थे जो उसके काम के थे और जहाँ बैठने वाले कर्मचारी कभी देर तक नहीं रुकते थे। पिछले पाँच दिनों में उसने उन्हें कोनों के बिजली के कनेक्शन में थोड़ी थोड़ी बड़ी छेड़छाड़ की थी। एक दिन का काम बाकी था। उसी के लिए उस सोमवार भी वह देर तक रुका। वह नौकरी छोड़ सकता तो उसी सुबह काम अधूरा छोड़कर चला जाता।
मंगलवार एक अच्छा और पवित्र दिन था। उस दिन उसने दफ़्तर के फ़ोन से दो घंटे तक कनिका से बातें की। कनिका उस दोपहर सोना चाहती थी। जब दो घंटे पूरे हो गए तो उसने कनिका को गुडनाइट कहा और खुलकर चूमा। उसके सामने बैठने वाली एक औरत उसे ऐसा करते देख हँसी भी। उदय को उस औरत पर दया आई। वह उठकर उसकी सीट पर गया और उससे पूछा कि क्या उसने कभी किसी से प्यार किया है? वह हड़बड़ा गई और बोली कि वह गर्भवती है। एक क्षण के लिए उदय को लगा कि यह उसकी स्कूल की दोस्त है। लेकिन उस औरत के बाल लम्बे थे। उसे लगा कि चाहकर भी बालों को बहुत अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। फिर भी उसने उससे उसका नाम पूछा। उसका नाम नताशा था और उदय को अपनी याददाश्त पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी अपनी दोस्त का नाम याद नहीं आया। उसे लगा कि उन दोनों ने कभी एक दूसरे को नाम लेकर पुकारा ही नहीं था। उन दिनों वे पकड़े जाने से डरते थे इसलिए फ़ोन पर बात करते समय बार बार एक दूसरे का नाम लेकर मुसीबत नहीं बढ़ाना चाहते थे। उदय ने सोचा कि यदि उस समय उसे ज़रा भी आशंका होती कि वह उसका नाम भूल जाएगा तो वह कम से कम एक दो बार तो रोज़ बातों बातों में उसका नाम लेता ही। उसने उस औरत से पूछा कि क्या स्कूल में ऐसा कोई लड़का उसका दोस्त था, जो आई ए एस अफ़सर बनना चाहता था? उस औरत ने कहा, जो नताशा थी, कि हर स्कूल में ऐसे कई लड़के होते हैं और अभी उसे तीन ऐसे लड़के याद आ रहे हैं, जिनमें से दो तो आई ए एस अफसर बन भी चुके हैं। वह पछताया कि क्या बात छेड़ दी! उसने उस औरत से अनुरोध किया कि वह आज आधी छुट्टी लेकर चली जाए। वह गिड़गिड़ाया भी, लेकिन वह नहीं मानी। उसने कहा कि वह चला जाए और उसे काम करने दे, नहीं तो वह शिकायत कर देगी। उदय बोला कि एक स्विच है, लेकिन उसे नहीं सुना। वह बहरी हो गई। मृत्यु ऐसी ही होती है।
वाकई एक स्विच था, एंकर का स्विच, जो उदय की मेज के नीचे लगा था और सोमवार की शाम से पहले जिससे एक दूधिया लाइट जलती थी और दबाने पर इमारत की हर मंजिल पर दो ज़गह शॉर्ट सर्किट होकर आग नहीं लगती थी। यह सोमवार की शाम से पहले था और आप जानते हैं कि उदय शिद्दत से चाहता था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाए। सोमवार की सुबह वह प्रिया के पास गया भी था और जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ और वह भी अपने आप से कह चुका था कि उसे नौकरी छोड़ देने दी जाती तो वह कनेक्शन बदलने का काम बीच में ही छोड़कर चला जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक अठारह उन्नीस साल का लम्बा लड़का, जो हरियाणा के किसी गाँव से उस महानगर में आया था, बहुत से और कामों के साथ इस काम के लिए भी नौकरी पर रखा गया था कि हर शाम छ: बजे जो क्यूबिकल खाली हो जाएँ – उदय को क्यूबिकल हीरे की तरह चमकता हुआ शब्द लगता था – उनकी बड़ी लाइट ऑफ करके वह छोटी दूधिया लाइट जला दिया करे। ऐसा मन्दी के कारण था। वह बेचारा लड़का सिर झुकाकर ग़ुलामों वाला सलाम अच्छी तरह करता था और समय का पाबन्द था। उदय दोपहर बाद तीन बजे बिना किसी से कुछ पूछे निकल आया। बाहर निकलकर उसने सबसे पहले आसमान को देखा। बादल छा रहे थे और ठंडी तेज हवा चल रही थी। फिर उसने मुड़कर कम्पनी की विशालकाय इमारत देखी, जिस पर अंग्रेज़ी में लाल रंग से ‘वी’ लिखा था। उसने सोचा कि ‘हम’, ‘मैं’ से कहीं अधिक अहंकारी शब्द है क्योंकि इसमें शक्तिशाली होने का बोध भी है। काँच के पार सैंकड़ों लोग अपने अपने कम्प्यूटरों में नज़रें गड़ाकर फटाफट काम करते हुए दिख रहे थे और तब उसे शक्कर के दाने के लिए कतार में लगी चींटियों की याद आई और भेड़ों के उस झुंड की भी, जो हर शाम मैदान के ठीक बीच में से गुजरता था, जब वह बचपन में क्रिकेट खेलता था। वह बाहर निकलकर अन्दर आने वाले दरवाज़े की तरफ़ गया और सुन्दरसिंह से हाथ मिलाया। सुन्दरसिंह ने कहा, “मौसम बहुत अच्छा है साहब।“ “हाँ”, उसने कहा और चल दिया। एक टाटा सुमो उसे लगभग छूती हुई सी गुज़र गई। उसने मन में कोई गाली नहीं दी और वह मुस्कुराता रहा। कुछ दूर आगे जाकर वह सड़क किनारे लगे एक पत्थर पर बैठ गया और उसने अपनी माँ को फ़ोन करके कहा कि वह उससे बहुत प्यार करता है। यह उसने बार बार कहा। साथ ही उसने सोचा कि कैसे भी हो, शादी से पहले वह एक रात कनिका के गर्ल्स हॉस्टल में ज़रूर गुजारेगा।
फिर उसने एक कंकर उठाया और हवा में उछाल फेंका। सच मानिए, मैं पूरे होश में हूँ और मुझे वह हवाई काल्पनिकता बिल्कुल भी पसन्द नहीं जो सच और सपने का भेद ही मिटा दे, लेकिन सड़क के दूसरी तरफ बैठी एक भूरी चिड़िया ने साफ साफ देखा कि आसमान में सूराख हो गया है।

Monday, June 21, 2010

एक बूढ़े की मौत- शशिभूषण द्विवेदी

कहानी-प्रेमियो,

बहुत दिनों से हिन्द-युग्म का कहानी-कलश मंच अनियमित रूप से अपडेट होता रहा। लेकिन पिछले कुछ महीनों से हम आप सबके लिए कुछ ख़ास की तैयारी में थे। आज से हम हर सोमवार किसी युवा कथाकार की एक कहानी प्रकाशित करेंगे। इसके अंतर्गत हम चर्चित युवा कथाकारों की कहानियों के अलावा बिलकुल नये कहानीकारों की कहानियाँ भी प्रकाशित करेंगे।

शुरुआती कहानी के तौर पर प्रसिद्ध युवा कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'एक बूढ़े की मौत' प्रकाशित कर रहे हैं।


एक बूढ़े की मौत


कहानी लिखने के लिए कहानी ढूँढऩी पड़ती है। पता नहीं, यह कितना सच है मगर अब तक हर कहानी लेखक ने मुझसे यही कहा है कि कहानी लिखना खासा मुश्किल काम है। कभी कभी मुझे भी ऐसा ही लगता है, कारण कि जो चीज हमारे सबसे ज्यादा निकट होती है वही इतनी दूर होती है कि हम उसके बारे में कोई निर्णय नहीं ले पाते। मगर यहाँ निर्णय किसे करना था? हम तो उस दिन एक अदद कहानी की तलाश में थे। एक ऐसी कहानी जो सिर्फ कहानी हो और कुछ नहीं...हाँ, कई बार ऐसा होता है कि कहानी उपन्यास भी हो जाती है, कविता भी और...खैर, जाने दीजिए, हम क्यों बेवजह कहानी का पुराण खोलें। सौ बात की एक बात यही कि कहानी कभी विशुद्ध कहानी नहीं होती, बहुत कुछ होती है। इस ‘बुहत कुछ’ के बीच ही हमें एक कहानी तलाशनी थी। कहानी का विषय था-‘एक बुड्ढा मर गया’। अब भला बताइए कि ये भी कोई विषय हुआ? बुड्ढे तो मरते ही रहते हैं। उनका क्या!
मगर नहीं-बात इतनी आसानी से टालना उस वक्त हमारे बस में नहीं था। रह-रह कर एक ही बात दिमाग में आती कि आखिर बुड्ढा मरा क्यों? ‘बुड्ढे मरते ही क्यों हैं?’ जैसे मूर्खतापूर्ण सवाल भी तब हमारे जेहन में कौंध रहे थे। इस बीच बूढ़ों की मौत के संबंध में कई संभावनाएँ भी हमने ब्यौरेवार खोज निकालीं। मसलन-बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है जो धीरे-धीरे शरीर और मन मस्तिष्क को क्षीण करता जाता है। अंतत: मौत की त्रासद नियति ही उसका सार्थक उपचार है। या बुढ़ापा जवानी की गलतियों का नतीजा होता है परिणामस्वरूप मौत उसका पलायन बिंदु...।
एक संभावना और थी जो कि बंबइया हिंदी फिल्मों से उठाई गई थी यानी बुढ़ापे में आदमी नकारा हो जाता है, बच्चे उसे घर से निकाल देते हैं और वह आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लेता है। संभावनाएँ अपार थीं, उतनी ही जितनी कि आसमान में तारे होते हैं और हम इन तमाम संभावनाओं से रू-ब-रू होते हुए एक से एक शानदार बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोल रहे थे। आप यकीन नहीं करेंगे-इस बीच हमने इतने बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोलीं कि एकबारगी तो हमें शक ही हो गया कि हिंदुस्तान कहीं बूढ़ों का ही देश तो नहीं। एक ढूँढ़ो तो हजार मिलते हैं और फिर जवानी में बुढ़ापा और बुढ़ापे में जवानी के किस्से भी यहाँ कम नहीं।
कुल मिलाकर कहानी लिखने के लिए सारे हालात कन्फ्यूजन पैदा करने वाले थे। ऐसे में बाबू जानकी प्रसाद सिंह से मिलना एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा...हालाँकि यह दुखद भी कम नहीं था लेकिन वह दूसरा किस्सा है, फिलहाल छोड़िए उसे...।
लेखक परिचय- शशिभूषण द्विवेदी
शशिभूषण द्विवेदी हिन्दी कहानी के चर्चित युवा कथाकारों में से एक हैं। शशिभूषण का एकमात्र कहानी-संग्रह 'ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं। इसी संग्रह के लिए लेखक को युवा लेखकों को दिये जाने वाले सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नवलेखन पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।
संपर्क- 405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/53, सेक्टर-5, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) फोन: 9582403770
तो जिस अस्पष्ट से बूढ़े की अब तक हमने कल्पना की थी, जानकी बाबू ठीक उससे विपरीत चुस्त-दुरुस्त और सुलझे हुए इंसान थे। फिर जैसी आज के बूढ़े से अपेक्षा की जाती है ठीक वैसे ही सूट-बूट की तमाम आधुनिकता से लैस जानकी बाबू सत्तर-पचहत्तर की उम्र में भी खासे जवान दिखते थे। जिस सधी हुई राजसी चाल से वे चलते उसे देखकर लगता जैसे पुराने राजवंशों का इतिहास एकाएक पलटी मारकर आज के उत्तर आधुनिक युग में पहुँच गया है। हालांकि यह बीसवीं सदी का अंत था और सारा देश इक्कीसवीं सदी में जाने को तैयार था तब भी सदी के अधिकतर बूढ़े अभी तक अठारहवीं सदी से आगे नहीं बढ़े थे। उनके चेहरों की झुर्रियां सदियों के फासले की गवाह थीं। ऐसे में जानकी बाबू झंडू च्वनप्रास के विज्ञापन के बूढ़े नायक की तरह हमारे सामने अवतरित हुए। अपने वंश और कुलगोत्र के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘विशुद्ध क्षत्रियों के कुल में जन्मा, वत्स गोत्र में उत्पन्न एक अविवाहित कुमार हूँ मैं...।’ अगर कुमार हैं तो अविवाहित होंगे ही मगर इन दो शब्दों पर उनके विशेष जोर ने हमारे सामने कई अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए थे। उस वक्त हमने सोचा कि ठाकुर साहब अब शायद अपने अखंडित ब्रह्मचर्य की कथा कहेंगे। मगर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा...सिर्फ शून्य में ताकते रहे। यह जानकी बाबू की आदतों में शुमार था कि जरा-सा असहज होने पर वे झटपट विषयांतर कर देते या फिर शून्य में ताकने लगते। वे काफी पढ़े-लिखे थे और अच्छी अंग्रेजी बोल लेते थे। शायद इसीलिए जब कभी अपनी बात कहते तो बात में दम लाने के लिए किसी न किसी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक या लेखक का नाम जरूर लेते। ‘फलाँ लेखक ने भी यही कहा है’ वाला भाव उनकी बातचीत का स्थाई भाव था। वैसे जानकी बाबू बोलते कम ही थे, इतना कम कि कई बार तो लोग उन्हें गूंगा या बहरा तक समझ लेते।
इतनी सब खासियतों के बावजूद जानकी बाबू अकेले थे। हालाँकि अपने अकेलेपन का दुखड़ा उन्होंने कभी किसी के सामने नहीं रोया फिर भी लोग मानते थे कि वे अकेले हैं और अकेलापन उन्हें सालता है। नाते रिश्तेदार और मित्रों से कटे जानकी बाबू की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती जब वे उठकर नहाते धोते, पूजा पाठ करते और फिर घूमने निकल जाते। प्रात: भ्रमण का यह शौक उन्हें कब से लगा, कोई नहीं जानता लेकिन हाँ, लोगों ने जब से उन्हें घूमते देखा है पीतल की मूँठ वाली खूबसूरत छड़ी हमेशा साथ देखी है। एक तरह से यह छड़ी जानकी बाबू की पहचान थी क्योंकि जानकी बाबू जिस सुबह अपने कमरे में मरे हुए पाये गए तब भी यह छड़ी उनके हाथ में ही थी।
इस छड़ी का प्रयोग भी वे किसी तलवार की तरह ही करते थे। कभी कभी राह चलते कुत्ते जब उन्हें घेर लेते तो उन्हें लगता जैसे दुश्मनों ने उन पर हमला कर दिया हो और वे चक्रव्यूह में फँस गए हों...फौरन उनकी तलवार यानी पीतल की मूठ वाली छड़ी सक्रिय हो जाती। ऐसे अनेक किस्से जानकी बाबू के साथ जुड़े थे। इस तरह के किस्सों के पीछे मूल भाव यही था कि ठाकुर साहब आज भी खुद को मध्यकालीन राजवंशों का एक कुलदीपक ही मानते थे। हर वक्त उन्हें यही शक रहता कि कहीं न कहीं, कोई न कोई उनके खिलाफ षडयंत्र कर रहा है। हमारा खयाल है कि अपनी शादी भी उन्होंने इसीलिए नहीं की वरना जानकी बाबू में कमी क्या थी! खैर, यह हमारा एक कयास ही है। इस संबंध में हमारी उनसे कोई विशेष बात नहीं हुई।
जानकी बाबू की मौत के ठीक एक दिन पहले मैं उनसे मिला था। गजब का उत्साह था उनमें उस दिन। शायद यह खबर उन तक पहुंच चुकी थी कि सुदूर अमेरिका के किसी भूभाग में एक विलक्षण चेतनाशील वैज्ञानिक ने मानव क्लोन का आविष्कार कर लिया है। क्लोनिंग की मोटी मोटी जानकारी भी अब तक जानकी बाबू को हस्तगत हो चुकी थी। अखबारों की कटिंग और पत्रिकाओं का पुलिंदा लिए जानकी बाबू उस दिन अपनी स्टडी में बैठे कुछ सोच रहे थे। सोच क्या रहे थे, शून्य में ताक रहे थे जैसी कि उनकी आदत थी। हमारे यूं अचानक पहुंच जाने से भी उनकी मुद्रा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। सिर्फ उनके हाथों ने कुछ हरकत की और एक तरह से हमें बैठने का इशारा कर दिया।
याद नहीं हम कितनी देर तक यूं ही बैठे रहे...कभी मेज पर पड़े कागजों को उठाते, पढ़ते, कभी जानकी बाबू को देखते। हमने देखा कि उस वक्त जानकी बाबू के चेहरे पर एक गहरी उदासी छायी हुई थी। अचानक उनके मुख से कुछ अस्फुट से शब्द हवा में लहराने लगे। ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे...’ सूक्ति से उठने वाले आरोह-अवरोह के बीच उनकी आवाज जैसे काँप रही थी। चेहरे का भाव कुछ ऐसा था कि ढूँढऩे वाले उसमें करुणा भी ढूँढ़ लेते, भय भी, साहस भी...और किसी सीमा तक भविष्य भी।
‘नाभिकीय अंतरण विधि के द्वारा शरीर की किसी कोशिका के नाभिक को यांत्रिक रूप से निकालकर तत्पश्चात नाभिक रहित अंडाणु में प्रतिस्थापित कर हल्की विद्युत तरंगे प्रवाहित करो। कोशिका तीव्र विभाजन होगा, फिर तीव्र विकसित अंडाणु को माँ के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दो। लो, तैयार हो गया क्लोन...।’ हल्की वेदनामय मुस्कान के साथ जानकी बाबू ने कहा। उन्हें जैसे यह अहसास ही नहीं था कि मैं भी वहां बैठा हूँ। उनकी नजरें शून्य में अटकी हुई थीं और पूरे राजसी अंदाज में जानकी बाबू की वाणी कमरे के कोने कोने में गूंज रही थी। उनके हाथों की गति वाणी की लयात्मकता के साथ जैसे एकाकार हो गई। मैं कुछ पूछना ही चाह रहा था कि जानकी बाबू अचानक फुर्ती से मेरी ओर मुड़े और एक जड़ नजर के साथ मुझे घूरने लगे। उनकी इस नजर में एक सम्मोहन था, एक जादू। मुझे लगा जैसे मेरे शरीर की त्वचा पारदर्शी हो चुकी है और जानकी बाबू की जड़ नजरें उसके आर-पार देख रहीं हैं। हृदय की धड़क़न एकाएक बढ़ गई और शरीर में रक्त का प्रवाह असंतुलित हो उठा। एक पल को तो लगा जैसे साँस ही रुक जाएगी मगर जल्द ही खुद को व्यवस्थित करते हुए मैंने जानकी बाबू से पूछ ही लिया कि आखिर उनकी बेचैनी का राज क्या है?
‘राज!’ वे धीरे से मुस्कराए-‘जानते हो जिंदगी में मृत्यु का आना कितना जरूरी है...।’
‘हूँ’ मैंने अनचाहे हामी भरी।
‘नहीं, तुम कुछ नहीं जानते। उस फूल को देखो और मेरी बात ध्यान से सुनो।’ जानकी बाबू ने गमले में लगे एक गुलाब के फूल की ओर इशारा किया और एक गहरी साँस छोड़ी। (यहाँ जानकी बाबू ने शायद महाकवि टेनीसन का संदर्भ दिया था जिनका कहना था कि यदि मैं फूल को उसके स्वयं में जान जाऊँ तो जान जाऊंगा कि मनुष्य क्या है और ईश्वर क्या है।)
जैसे कोई आदमी पहाड़ की चोटी से छलाँग लगाने को तैयार हो और अपनी बीती जिंदगी पर अफसोस कर रहा हो, ठीक वैसे ही जानकी बाबू की हर साँस जिंदगी के प्रति गहन प्रेम और विरक्ति की सूचना एक साथ थी। मैं उनकी ठहरी हुई जड़ आँखें देख रहा था और वे बोल रहे थे...लगातार।
‘बचपन में हम एक किस्सा सुना करते थे। एक राजा था, एक रानी। उनकी सुंदर-सी एक बिटिया थी, बिल्कुल फूल जैसी कोमल। राजा धर्मात्मा था और प्रजा सुखी। प्रजा सुखी हो या दुखी, राजा तो हर हाल में दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो ही जाता है। मगर यहाँ राजा प्रसिद्ध था तो प्रजा भी सुखी थी। प्रजा और राजा के सुख का यह आलम था कि पड़ोसी राज्य का दुखी राजा इसी बात से दुखी रहता। होता है...ऐसा भी होता है। अक्सर लोग दूसरों के सुख से ही दुखी होते हैं। तो पड़ोसी राजा तमाम सुखों के बीच भी दुखी था। उसका यह दुख तब और घना हुआ जब उसने सुखी और प्रसिद्ध राजा की सुंदर फूल सी बिटिया को देखा। पड़ोसी और दु:खी राजा तमाम जुगत लगाकर भी जब सुखी राजा की फूल सी बिटिया को न पा सका तब उसने अपने दुख के चरम पर आकर आत्महत्या कर ली। दुखी राजा मर गया मगर उसका दुख जिंदा रहा और उसने एक राक्षस का अवतार लिया। यह राक्षस इतना तेज और ताकतवर था कि बड़ी बड़ी फौज भी उसका सामना करने से डरती थी। वह बार बार मारा जाता फिर बार बार जी जाता। उसके जीने-मरने की यह कहानी बरसों तक चलती रही। इस बीच वह सुखी राजा भी मर गया और उसकी फूल सी बिटिया भी। कहते हैं कि एक बार एक ऋषि से उसका झगड़ा हुआ और ऋषि ने उसे भस्म हो जाने का शाप दे दिया। राक्षस भस्म तो हो गया मगर उसकी आत्मा कलपती रही। यह कलपती आत्मा लंबे समय तक किसी शरीर में न रह पाने के लिए आज भी अभिशप्त है। मौत तो सबको आती है न बाबू, सो वह राक्षस हर रोज न जाने कहाँ-कहाँ मरता रहता है...मगर अब?’ जानकी बाबू एकाएक खामोश हो गए। उनकी यह अनर्गल सी बिना किसी संदर्भ की कहानी मुझे बड़ी अटपटी लगी। (हालाँकि यहाँ भी उन्होंने प्रसिद्ध दार्शनिक सात्र्र का संदर्भ दिया था और कहा था कि आदमी स्वतंत्र है किसी भी स्थिति में। वह अपना निर्माता और स्रष्टा स्वयं ही है।) मगर उस वक्त जानकी बाबू की इस कहानी में से मैं कुछ ठोस और भौतिक तत्व निकालना चाहता था, सो मैंने कि क्या कभी जानकी बाबू भी किसी फूल सी राजकुमारी को चाहते थे? हो सकता है कि वह राजकुमारी किसी कारणवश उन्हें न मिल पाई हो और उनका प्रेम किसी अंधे मोड़ पर आकर आत्महत्या कर बैठा हो। कुल मिलाकर उस वक्त यही अनुमान लगाया जा सकता था कि जानकी बाबू का मृत प्रेम उसके बाद विध्वंसक हो गया और राक्षस के प्रतीक में इस कहानी में जीने लगा। जो हो, जानकी बाबू अपनी रौ में बहे चले जा रहे थे। कहने लगे, ‘महाशय, जीवन के बाद पुनर्जीवन होता है या नहीं-मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतना तो निश्चित है कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी होता है।’
‘क्यों?’ मैंने पूछा। फिर मुझे अपने ही सवाल पर शर्म भी आई, कारण कि कई बार नैराश्य के चरम क्षणों में मैं भी इस बात का हामी हुआ हूं कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी है। लेकिन यह अच्छा ही हुआ कि जानकी बाबू ने मेरा ‘क्यों’ नहीं सुना वरना मुझे और जाने क्या क्या सुनना पड़ता।
उस रात की बात का कुल लब्बोलुआब यही था कि जानकी बाबू अपने कथा नायक राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका से व्यथित थे। यह तो हमें बाद में पता चला कि वह राक्षस कौन था और जानकी बाबू उसके पुनर्जीवन की आशंका से क्यों व्यथित थे? उस रात जब हम बिना कुछ समझे बूझे लौटने लगे तो जानकी बाबू ने हाथ पकडक़र रोक लिया और कहा,‘अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई, पता नहीं पूरी होगी भी या नहीं। फिलहाल ये डायरी तुम ले जाओ। पढ़ लोगे तो समझ जाओगे कि यह बूढ़ा मरने को इतना उतावला क्यों है?’
मैंने डायरी ले ली और चुपचाप चला आया। सुबह उठा तो सुना कि जानकी बाबू अपने घर में मरे पाए गए। सचमुच यह खबर सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। कारण कि उस रात जानकी बाबू से मिलने वाला अंतिम व्यक्ति शायद मैं ही था। पुलिस कभी भी मेरा दरवाजा खटखटा सकती थी। इस कदर अफरातफरी मची कि खयाल ही नहीं रहा कि जानकी बाबू की डायरी मेरे पास पड़ी है। इस डायरी को पढऩे का समय भी हमें तब मिला जब हम तमाम पुलिसिया झंझटों से बरी हुए। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए क्या यह कहना पर्याप्त न होगा कि पुलिस को कइयों पर शक था। आस-पड़ोस से लेकर दूध वाला, धोबी, कामवाली बाई...कोई भी तो नहीं बचा था उन शक्की निगाहों से। मगर जब कुछ नहीं मिला तो हारकर जानकी बाबू की मौत को आत्महत्या मान लिया गया। हालांकि अंत तक पुलिस यह भी नहीं बता पाई कि अगर यह आत्महत्या ही थी तो आखिर हुई कैसे? न तो जानकी बाबू के शरीर पर कोई खरोंच का निशान था और न उन्होंने फांसी का फंदा ही लटकाया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट भी कुछ ऊलजुलूल सी बातों के सिवाय कुछ खास नहीं कर पाई। हालाँकि इन ऊलजुलूल सी बातों में ही जानकी बाबू की मौत के सूत्र थे तथापि पुलिस उन सूत्रों को पकडऩे में असफल रही या हो सकता है कि इन बेकार की बातों की जरूरत ही न समझी गई हो। खैर...
जानकी बाबू की डायरी में एक क्रमवार कहानी थी और उस कहानी में थी एक क्रमवार डायरी। पिछले दो सालों से जानकी बाबू की मानसिक हालत का अंदाजा इस कहानीनुमा डायरी से लगाया जा सकता था। पहले पेज 1987 की कोई तारीख थी। लिखा था-‘आज अचानक सावित्री की याद आ गई। सड़क से गुजरते हुए खयाल आया कि पास की झाड़ी में एक अकेला फूल पड़ा है...चंपा का। स्मृति पचास साल पहले घिसटती चली गई जब चंपा के फूल की सफेदी मन में प्रेम की पवित्रता भर देती थी। सावित्री को देखकर चंपा की याद आती और चंपा को देखकर सावित्री की...श्वेत धवल बादलों पर मन मयूर उड़ा करता था तब।’
इसके बाद डायरी के पांच पेज खाली थे। छठे पर लिखा था-‘पिछले पांच दिनों से अंदर की व्यथा लगातार गहरी होती जा रही है। बार-बार बचपन में सुनी दुखी राजा की कहानी याद आती है...राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका व्यथित कर रही है। अब जीना संभव नहीं और मरना और भी मुश्किल। स्मृतियाँ लगातार पीछे मुड़ रही हैं...कैनवस पर बने चित्र खंड-खंड हो रहे हैं और जिंदगी को रेशा-रेशा बुनने की ताकत हाथों से चुकती जा रही है। यह क्या होता जा रहा है मुझे? क्या यह आने वाली मौत की धमक है या...। सावित्री कहा करती थी कि जिनमें जीने का जज्बा होता है वे कभी नहीं मरते मगर मरने की इच्छा ढोता यह अभिशप्त जीवन न जीने देता है, न मरने। एक-एक कर सब साथ छोड़ते जा रहे हैं...सारे मित्र, हितैषी, सारे सपने! बोलता हूँ तो लगता है कि शब्द पराए हैं। फिर बोलना, बोलना नहीं रहता, आत्मालाप हो जाता है। इस अंत समय में जब इच्छाओं का अंत हो जाना चाहिए, वे बढ़ती ही जा रही हैं। बीते जीवन को लेकर मन में नित नवीन संभावनाएं भी उठती हैं। बीते जीवन का रोना है-ऐसा न होता तो कैसा होता? काश कि वैसा होता। शादी कर ली होती तो आज जिंदगी क्या होती? सोचता हूँ तो मन भ्रमित हो जाता है। अब वैसा रोमांटिक भाव भी नहीं रहा। उस वक्त तो मन पर चरम आदर्श का मुलम्मा चढ़ा था। सपने थे कि आंखों के सामने दिन में भी लहराते हुए लगते। और फिर जब क्रांतियां जगहँसाई बन गईं तब भ्रम टूटा। क्षत्रिय कुल गोत्र में उत्पन्न जानकी प्रसाद सिंह तुम मान क्यों नहीं लेते कि पूर्वजों की कीर्ति पताका फहराने का जीवट तुममें नहीं था...तुम एक हारे हुए राजा की तरह आगे युद्ध न करने की कीमत पर महज पेंशनयाफ्ता होकर रह गए।...’
फिर अगले पेज पर लाल रंग की स्याही से लिखा था-‘जीने के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जो जीवन को प्रेरणा देता रहे...कोई सपना...कोई आदर्श। मगर देखता हूँ कि इधर हर चीज बिछलकर टूट रही है। जिस जवानी से कभी प्रेरणा लेता था, उसकी बातें भी अब समझ से बाहर होती जा रही हैं। रोज नए-नए शब्द जो कभी हमने सुने ही नहीं थे, आंखों के आगे छाते जा रहे हैं। मन जाने किस मायालोक में पहुँच गया...समझ नहीं आता।’ इस प्रकार पृष्ठ दर पृष्ठ जानकी प्रसाद सिंह की कहानी आगे बढ़ रही थी। यह एक ऐसी कहानी थी जिसमें कोई उतार-चढ़ाव नहीं था। सावित्री नामक जिस चरित्र का जगह-जगह जिक्र था, उसके बारे में भी कहानी में कोई पूर्व सूचना नहीं थी सिवाय इसके कि सावित्री के साथ जानकी बाबू ने एक बार संभोग किया था। कहानी में एक अजीब अंतर्विरोध यह भी था कि सावित्री के लिए जानकी बाबू घृणा और प्रेम का इजहार लगभग साथ-साथ कर रहे थे। ‘सावित्री जवान थी और मैं उससे प्रेरणा लेता था...’ जैसे वाक्य डायरी में कई जगह बिखरे हुए थे। सच पूछिए तो जानकी बाबू की यह प्रेरणास्रोत सावित्री एक वेश्या थी। वेश्या और प्रेरणास्रोत? बात कुछ अटपटी है लेकिन यह सच था क्योंकि सावित्री एक मंझी हुई वेश्या थी।
यह उस समय की बात है जब जानकी बाबू किशोर वय के थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे थे। डायरी में खोजबीन से पता चला कि उस समय जानकी बाबू कभी नेहरू की तरह बोलते तो कभी गांधी की तरह। बात-बात में राष्ट्र, स्वतंत्रता और स्वाभिमान उनके चिर-परिचित जुमले हो गए थे। घर पर एक बड़ी कोठी थी, जमीन-जायदाद थी, नौकर-चाकर और कारिंदों की तो खैर कोई कमी ही न थी। एक खास सामंती ठसक के बीच जानकी बाबू का बचपन बीता था। संस्कार थे कि छुड़ाये नहीं छूटते। खादी के वस्त्रों के बीच भी स्वर्णखचित अंगवस्त्रम का खयाल आता। उस समय भी उनके घर में एक हाथी था और पिता बताया करते थे कि दादा ने मरते वक्त घर पर पांच हाथी छोड़े थे। हाथी, घोड़े, तलवार और कोड़ों की दुनिया से निकलकर किस तरह से एक किशोर खादी की दुनिया में आया, यह एक लंबी कहानी है। उस संघर्ष के समय में ही शायद कभी जानकी बाबू की सावित्री से मुलाकात हुई होगी। जानकी बाबू द्वारा सुनाए उस मिथक के अनुसार यहां हम अटकलें ही लगा सकते हैं कि शायद सावित्री किसी बड़े घर की बिटिया रही हो, राजकुमारी सी लगती हो, फिर किसी कारणवश वेश्या बन गई हो। या हो सकता है कि वह वेश्या ही हो। अपने अहम की तुष्टि के लिए जानकी बाबू ने उसे राजकुमारी का दर्जा दे दिया हो। जो हो-इसमें एक शब्द कॉमन है-‘वेश्या’ जिसका जिक्र सावित्री के लिए जानकी बाबू कई बार अपनी डायरी में कर चुके थे। तो जानकी बाबू का सावित्री के साथ ठीक उसी दिन संभोग हुआ जिस दिन दिल्ली के वायसराय हाउस में वायसराय लार्ड इरविन ने प्रवेश किया था। (साभार: जानकी बाबू की डायरी)। पुराने जमाने में जब कोई राजा अपने नए महल में प्रवेश करता था तो जनता खुशियाँ मनाती थी। वायसराय लार्ड इरविन के गृह प्रवेश के समय जानकी बाबू खुशियाँ तो न मना सके...हाँ, सावित्री के साथ संभोग जरूर किया। इस घटना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-‘गुस्से से खून खौल रहा था। शिराओं में उत्तप्त रक्त का प्रवाह एक अजीब हलचल-भरी उत्तेजना पैदा कर रहा था। मन करता था कि एक झटके में सब नष्ट-भ्रष्ट कर दूँ। सावित्री को बाहों में लेकर जब मैंने उस विध्वंसक प्रक्रिया को जानना चाहा तो पाया कि मेरा गुस्सा नपुंसक है।’ इस नपुंसक गुस्से के साथ जानकी बाबू एक तरफ सावित्री में चंपा के फूल की धवल पवित्रता का पान करते तो दूसरी तरफ उसी शरीर भयानक दुर्गंध का अहसास भी उन्हें कचोटता रहता। मगर ये सब बातें गौण थीं। जानकी बाबू की मौत के असली कारण दूसरे थे।
जानकी बाबू जब मरे तो उनके हाथ में एक छड़ी थी। जैसा कि कहा जाता है-‘अंधे की लाठी’(एकमात्र सहारा) ठीक उसी तरह यह छड़ी उनका एकमात्र सहारा थी। जवानी में यह कभी भांजने के काम आती थी। बुढ़ापे में तो हमने उसे सहारे के रूप में ही देखा। जानकी बाबू से बात करते समय लगता कि देश, दर्शन, समाज और संस्कृति सभी कुछ जैसे उनकी छड़ी के सहारे ही खड़े हैं। जब वह छड़ी हवा में घूमती तो लगता कि दुनिया शेषनाग के फन पर नहीं बल्कि जानकी बाबू की छड़ी के सहारे ही टिकी है। अपने बारे में इस तरह के जाने कितने भ्रम उन्होंने पाल रखे थे। डायरी के ही किसी पृष्ठ पर लिखा था कि वे सावित्री के प्रेम में जब पड़े तब सारी दुनिया उन्हें अपने आस-पास घूमती हुई सी लगती। सावित्री के बौद्धिक तेज से वे कई बार सम्मोहित भी हुए...कई बार आहत भी। एक वेश्या के बौद्धिक तेज ने उन्हें इस कदर अभिभूत कर रखा था कि बस, पूछिए मत! उसके शरीर से खेलते हुए भी उन्हें यही लगता जैसे वे किसी रहस्यमय डाकिनी के संसर्ग में हैं। वैसे, सावित्री कुछ थी भी ऐसी। उसका कमरा एक आम वेश्या की तरह इत्र-फुलेल से सराबोर नहीं रहता था और न ही ग्राहकों से ज्यादा लपड़-झपड़ होती थी। उसके कुछ खास ही ग्राहक थे जो उसके मुरीद भी थे। उसके इन ग्राहकों/मुरीदों के बारे में भी जानकी बाबू के बड़े दुरुस्त विचार थे। उन्होंने लिखा था-‘ये अक्खड़-फक्कड़ से लोग जब आते तब सावित्री खुशी से खिल जाती थी। ये अजीब लोग थे। न कभी दारू पीते, न प्यार-मोहब्बत की सस्ती बातें करते। ये हमेशा कुछ अल्लम-गल्लम बतियाते जो उस वक्त तक मेरी समझ में नहीं आता था।’
एक बार जानकी बाबू ने सावित्री के कमरे में बारूद और कुछ तमंचे देखे थे। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और जब सावित्री से पूछा तो उसने हँसकर टाल दिया। सावित्री को चंपा के फूल बहुत पसंद थे और जानकी बाबू रोज उसके लिए चंपा के फूल की एक माला ले जाया करते थे। यह रोज का क्रम था। इसमें व्यवधान तब पड़ा जब एक दिन सावित्री ने जानकी बाबू से कमल के फूल की माँग कर डाली।
यह भी एक पुराना तरीका था कि गुरुदक्षिणा में शिष्य वही कुछ देने को बाध्य होता जिसकी गुरु इच्छा करता। सो जानकी बाबू कमल के फूल की तलाश में निकल पड़े और चार दिन बाद जब जानकी बाबू को कमल का फूल मिला तब उन्होंने सावित्री के घर की राह पकड़ी। और लीजिए साहब, कहानी में यहाँ से एक नया मोड़ आ गया। जानकी बाबू के अनुसार जब वे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक चिह्न यानी कमल का फूल लिए हुए सावित्री के घर गए तो देखा कि बारूद के एक भयानक विस्फोट से सावित्री का शरीर तार-तार हो चला है। खून के धब्बे दीवारों पर उस हादसे का बयान दे रहे थे। जानकी बाबू ने किसी तरह खुद को संभाला और कहा,‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। उस वक्त उनके हाथ में कमल का फूल था और उसी से उन्होंने सावित्री को श्रद्धांजलि दी। इस घटना पर जानकी बाबू ने अपनी डायरी में लिखा, ‘कीचड़ में ही कमल खिलता है।’
जो होना था, हो चुका। सावित्री मर गई और जानकी बाबू को पागल कर गई। जानकी बाबू पागल हो गए और शहर छोडक़र क्रांतिकारी हो गए। कभी इस शहर तो कभी उस शहर दर-दर भटकते जानकी बाबू ने उस दौर में कई खतरनाक कारनामे अंजाम दिए थे। गांधी जी से उनका मोहभंग हो चुका था और देश का एक बड़ा तबका जल्द से जल्द अपने सपनों को साकार करने की उतावली में था। जानकी बाबू ने एक कुशल योद्धा की तरह इस युद्ध में भाग लिया और बहुत जल्द अपने लोगों के बीच हीरो बन गए। एक नहीं, कई-कई बार जानकी बाबू मौत के मुँह से बाहर आए थे। मगर उनका गर्म खून था कि कभी हार ही न मानता। फिर देश स्वतंत्र हो गया। अपनी सरकारें आईं। एक लंबे समय तक जानकी बाबू गुमनाम रहे। शायद यह गुमनामी का वही दौर था जब जानकी बाबू दुनिया भर की किताबें चाटी थीं। उस समय सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के संबंध में सारे देश में एक भ्रम फैला हुआ था। लोग यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सुभाष बोस मर भी सकते हैं। गली मोहल्लों में अक्सर यह बात उठती कि सुभाष बाबू मरे नहीं, बल्कि अंग्रेजी सरकार को चकमा देकर कहीं गायब हो गए हैं। सही समय पर वे वापस आएंगे और देश को अंग्रेजी पि_ुओं से बचाएँगे। सुभाष बाबू के बारे में यह अफवाह और जानकी बाबू का वह गुमनामी जीवन लगभग एक ही समय की दो प्रमुख घटनाएँ थीं। इन दोनों घटनाओं के बीच का सूत्र यह था कि जानकी बाबू की कद-काठी कुछ-कुछ सुभाष बाबू की तरह ही लगती थी और लोग उन्हें अक्सर सुभाष बाबू का ही रूप समझ लेते। उन दिनों जानकी बाबू अयोध्या में एक कुटिया बनाकर रहते थे। दाढ़ी बढ़ा ली थी और हमेशा एक रामनामी दुपट्टा ओढ़े रहते। जानकी बाबू लिखते हैं कि उन्होंने करीब बीस वर्ष तक लोगों की इस आशावादिता का सम्मान किया और अपने बारे में तमाम तरह की अफवाहें सुनते रहे।
फिर एक दिन की बात-जानकी बाबू सरयू के किनारे खड़े थे। सूर्य अस्ताचल में था। चारों ओर एक अभूतपूर्व शांति बिखरी हुई थी, सिवाय एक बाँसुरी की धुन के जो रह-रहकर उनके कानों तक आती और लौट जाती। मंत्रमुग्ध से जानकी बाबू इस बांसुरी की धुन में खोए रहे। जब चेतना लौटी तो पाया कि उनके शांत पड़े खून में फिर से गरमी आ गई है। उन्होंने उस बाँसुरी वादक की खोज की तो पाया कि सरयू किनारे एक बुढिय़ा हाथ में बाँसुरी लिए अकेली बैठी है। जानकी बाबू को फिर अचानक सावित्री की याद आई और देखा कि उस बुढिय़ा के चेहरे में सावित्री का चेहरा लहलहा रहा है।
बिना किसी सामान्य शिष्टाचार के जानकी बाबू ने जब उससे कहा कि बहन तुम्हारी बाँसुरी में पहली बार मुझे प्यार के नहीं, घृणा के स्वर सुनाई दिए तो बुढिय़ा बोली कि भैया, ये बाँसुरी एक युद्ध का तुमुलघोष है। जानकी बाबू हतप्रभ उसे देखते रहे और बुढ़िया अंतर्ध्यान हो गई। जानकी बाबू ने लिखा है कि इसके बाद उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और काशी आकर बाँसुरी बजाना सीखने लगे। वर्षों तक जानकी बाबू बाँसुरी सीखते रहे मगर कभी भी उन्हें वह स्वर पकड़ में नहीं आया जो उस बुढ़िया ने बजाया था। कहते हैं कि बाँसुरी की ईजाद कृष्ण ने की थी और इसके जरिए प्रेम का अपना संदेश दिया था। जानकी बाबू ने भी बाँसुरी का उपयोग किया और युद्ध का संदेश दिया।
वे जब भी बाँसुरी बजाते तो उन्हें लगता कि दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी कोने में विद्रोह का बिगुल बज उठा है। वे खुश होते और फिर दूने जोश से बाँसुरी बजाते। जानकी बाबू को अपने जीवन में दो चीजों से विशेष प्रेम था। एक तो पीतल की मूँठ वाली छड़ी, दूसरा उनकी बाँसुरी। छड़ी भीतर से खोखली थी और जानकी बाबू अपनी बाँसुरी को छड़ी के खोखल के भीतर ही छुपा कर रखते थे मानो वह कोई अवैध हथियार हो। (जानकी बाबू के अंतिम वक्त में भी यह बाँसुरी उनकी छड़ी के खोखल में ही थी)। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘जब रोम जलता था तो नीरो बाँसुरी बजाता था। मैं भी बजाता हूँ क्योंकि दुनिया में कहीं न कहीं तो यह आग जलनी ही चाहिए।’ तो इस तरह अपनी अंतिम साँस तक जानकी बाबू बाँसुरी बजाते रहे और जलते हुए रोम को अपना आशीर्वाद देते रहे। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘दुनिया जैसी है उसे वैसे ही नहीं होना है। चीजों को बदलना होगा। चीजें बदलती भी हैं। मगर सवाल बदलाव के हथियारों का है। सारी दुनिया अपने-अपने हथियारों के लिए लड़ रही है।’ इस लड़ाई में जानकी बाबू अपने हथियार को कितना सुरक्षित रखते थे, यह तो जाहिर हो ही गया। अब दूसरी बात कि लड़ते हुए जानकी बाबू ने आत्महत्या क्यों की और किस तरह की? तो जानकी बाबू की हत्या या आत्महत्या का किस्सा कुछ इस तरह है:
उस रात जब जानकी बाबू मानव क्लोन के आविष्कार से हतप्रभ थे और निराशा के उस दौर में मुझे दु:खी राजा की कहानी सुना रहे थे, ठीक और ठीक उसी रात एक घटना घटी। जानकी बाबू अपने कमरे में बैठे जीवन और मृत्यु की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे। उनके हाथ में जापानी यौगिक क्रियाओं की एक पुस्तक थी। अपने गुमनामी के दौर में जानकी बाबू ने इस तरह की यौगिक क्रियाओं का खासा अध्ययन किया था और उनका व्यावहारिक प्रयोग भी। सिर्फ एक हाराकीरी ही थी जिसका उन्होंने कभी कोई प्रयोग नहीं किया, हमेशा विचार ही करते रहे। उन्होंने सुना था कि हाराकीरी करने वाला आदमी मरता नहीं, सिर्फ शरीर छोड़ता है। अपने तमाम कर्मों की स्मृति के साथ सही समय पर वह नए शरीर में प्रवेश करता है। उसकी यात्रा फिर वहीं से शुरू होती है जहां से उसने छोड़ी थी। जानकी बाबू ने लिखा-‘मैं कर्म बंधन से मुक्ति नहीं चाहता। अभी मुझे बाँसुरी के उस स्वर को पकड़ऩा है जो उस बुढ़िया ने सरयू किनारे बजाया था।’ और फिर जानकी बाबू उस छड़ी के खोखल से अपनी बांसुरी निकाल कर बजाने लगे जो उनके हाथ में थी। यह रात के नौ बजे का समय था। लोग अपने अपने घरों में दुबक चुके थे। जानकी बाबू की बाँसुरी की धुन ने जैसे उन सबको एकाएक सोते से जगा दिया। कुछ खीझे, कुछ बौखलाए, कुछ ने शराब का सहारा लिया तो कुछ टीवी की हाई वाल्यूम पर सब कुछ भूलने का प्रयास करने लगे। कुछ ऐसे भी थे जो गुस्से से झींकते जानकी बाबू का दरवाजा पीटने लगे। जानकी बाबू ने उस वक्त लिखा-‘लगता है मानव क्लोन आ गए हैं। लड़ाई अब अपने अंतिम दौर में है।’
दरवाजा पीटते लोगों का शोर जब ज्यादा बढ़ गया तब जानकी बाबू उठे। दरवाजा खोला तो देखा कि बीसियों तमतमाए चेहरे उनका स्वागत कर रहे हैं। जानकी बाबू को उन सब चेहरों में धुँधलाता हुआ सावित्री का चेहरा भी दिखाई दिया। जानकी बाबू इससे पहले कुछ कहते कि लोगों ने उनके हाथों से बाँसुरी छीन ली और उसके दो टुकड़े कर दिए। काफी देर तक लोग बड़बड़ाते रहे और जब बड़बड़ाते हुए गए तब जानकी बाबू ने टूटी हुई बांसुरी के टुकड़े उठाए और फिर उन्हें अपनी छड़ी के खोखल में सहेज कर रख लिया। इस बार उन्होंने उसे किसी हथियार के रूप में नहीं बल्कि किसी पुरातात्विक स्मृति चिह्न के रूप में सहेजा था।
मैं शायद इस घटना के बाद ही उनसे मिला था। अपनी डायरी में उन्होंने जो अंतिम बात लिखी उसका कुल सार यही था कि क्या आदमी को अपनी जान लेने का अधिकार है? यह एक गंभीर दार्शनिक सवाल था जिसे वे मानव क्लोनों की मायावी दुनिया के बीच से पूछ रहे थे। उन्होंने लिखा कि क्लोन भी लड़ाई का एक हथियार होगा जो अंतत: दुनिया की तमाम तमाम बाँसुरियों को तोड़ देगा। फिर न जलता हुआ रोम होगा, न बाँसुरी बजाने वाला नीरो...।
जानकी बाबू ने उस रात अपने नाभि प्रदेश के नीचे किसी निश्चित बिंदु पर सुई चुभोकर हाराकीरी की थी। अंतिम समय तक उनका यह विश्वास बरकरार रहा कि उन्हें फिर आना है मानव क्लोनों की इस दुनिया में और बाँसुरी की उस धुन को पकडऩा है जो बुढ़िया ने सरयू के किनारे बजाई थी। इसके बाद जानकी बाबू ने कांट का वह प्रसिद्ध वाक्य लिखा कि ‘वस्तु स्वलक्षण अज्ञेय है।’
जानकी बाबू मर गए मगर हम सबको एक गहरा अपराधबोध दे गए। मैं आज भी सोचता हूँ कि उनकी इस हत्या या आत्महत्या का जिम्मेदार कौन है? इधर सुनने में आया है कि सरकार सुभाष बाबू की अस्थियाँ जापान से अपने देश लाने की तैयारियां कर रही है। अब सचमुच सुभाष बाबू के बारे में प्रचलित वे तमाम अफवाहें खत्म हो चली हैं जिनमें यह विश्वास था कि सुभाष बाबू मर नहीं सकते। वे छिपे हैं। सही समय पर वे फिर आएँगे और...।

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