हम बहुत देर तक ऐसे हँसते रहे थे जैसे कोई हफ़्तों का भूखा देर तक खाना खाता रहे। वह मुझसे एक डेढ़ इंच लम्बी होगी। हम आमने सामने सीधे खड़े होते तो मैं सीधी गर्दन करके उसके होठों को नहीं चूम पाता। वह अक्सर मुझ पर हल्की सी झुक जाती थी। मुझे लगता था कि वह मुझ पर हल्की सी छा जाती है। वैसे उस रात हमने एक दूसरे को नहीं चूमा। हमने बातें की और हँसते रहे। मुझे भूख लगी थी, रात बहुत थी, वह दिल्ली थी और वह हीरोइन बनना चाहती थी। वैसे दिल्ली न भी होती तो भी वह हीरोइन ही बनना चाहती। उसने मेरे लिए मैगी बनाई और अपने लिए सिर्फ़ चाय। उसने कहा कि तुम्हारे किचन में कॉकरोच हैं। मैंने कहा कि मैं लेखक बनना चाहता हूं। उसने कहा कि लेखक बनना चाहना तो ऐसा है कि जिस क्षण चाहो, उससे अगले क्षण कागज़ और पेन उठाकर लेखक बन सकते हो। मैंने कहा कि यह इतना आसान नहीं है। जैसे किचन में कॉकरोच हैं, वैसे कलेजे में भी हैं। हम हँसे।
कुछ देर बाद उसने मुझसे कहा कि मुझे स्टॉक मार्केट या फिल्मों पर लिखना चाहिए। दोनों का बड़ा बाज़ार है। मुझे लगा कि ‘स्टॉक मार्केट का बड़ा मार्केट’ कहना तो वैसा ही है, जैसे कहना कि इंडिया गेट का बड़ा गेट है या पंजाबी बाग का बड़ा बाग है। यह मैंने उसे बताया तो उसने कहा कि मेरा दिमाग गणित में बेहतर चल सकता था। उसने मुस्कुराते हुए कहा कि इंजीनियरिंग का भी बड़ा बाज़ार है। उसका दूर के रिश्ते का एक भाई अमेरिका में इंजीनियर था। मैं उससे कई बार कह चुका था कि मुझे भाइयों और इंजीनियरों से चिढ़ है। यह हम दोनों को एक साथ याद आया और हम हँसे।
फिर वह पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेट गई। मैं लकड़ी की कुर्सी पर बैठकर मैगी खा रहा था। उसने कहा कि मुझे कुछ काँटे खरीद लेने चाहिए, ताकि मैगी खाने में सहूलियत रहे। मैंने कहा कि यहाँ आसपास छोटी दुकानें नहीं हैं और बड़ी दुकानों में घुसने पर मुझे डर और असुरक्षा का सा अहसास होता है। इसीलिए मैंने एक हफ़्ते से दाढ़ी भी नहीं बनाई है। मेरे ब्लेड ख़त्म हो चुके हैं और आसपास कोई छोटी दुकान नहीं है। उसने पूछा कि क्या मैं उदास हूं?
मैंने कहा, नहीं और हम हँसे।
वह शुक्रवार था। मेरा रूममेट विकास अपने घर चला गया था। हफ़्ते के उन दो दिनों में ही मुझे वह कमरा अपने कमरे जैसा लगता था। जब तक आप इतने आज़ाद न हों कि नंगे होकर बिस्तर पर सो सकें, आपका अपना घर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम से ज़रा भी बेहतर है, ऐसा मुझे नहीं लगता।
- मुझे संख्याओं से भी डर लगता है। डर भी नहीं, कुछ लगता है कि अंकों से दूर भागने का मन करता है....और तुम कहती हो कि मैं गणित में अच्छा रहता...
- मैं किसी फ़िल्म स्कूल में जाना चाहती थी।
- स्कूल कैसे भी हों, आदमी को बर्बाद ही करते हैं।
- कभी कभी मुझे यह भी लगता है कि किसी दिन पेट पालने के लिए मुझे शादियों के डीजे में नाचना पड़ जाएगा।
- तुम फ़िल्मों में हीरोइन बनना चाहती हो या डांसर?
- तुम बहुत लॉजिकल हो...तुम्हें मैथ्स ही पढ़ना चाहिए था।
- मैं अंग्रेज़ी में लिखना चाहता हूं, लेकिन मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती।
- क्यों?
- अब नहीं आती तो नहीं आती...
- मैं पूछ रही हूं कि अंग्रेज़ी में क्यों लिखना चाहते हो?
- तुम डीजे में क्यों नाचना चाहती हो?
- ऐसा मैं चाहती नहीं ....और मैं नाचूंगी भी नहीं।
- आज मेरा जन्मदिन है।
वह चौंक गई।
- सात तारीख है आज?
- चलो तुम्हें इतना तो याद है कि मैं सात तारीख को पैदा हुआ था।
- सॉरी...मैं भूल गई। सुबह तक याद था मुझे...और तुमसे मिलते ही भूल गई। सॉरी...हाँ? हैप्पी बर्थडे...
- वैसे आज तेईस तारीख है...
मैं मुस्कुराया। उसने तकिया मुझ पर फेंक कर मारा और चिल्लाई। फिर उसने मेज पर से एक किताब उठा ली और मुझसे पीठ फेरकर पढ़ने लगी। मैंने उससे कहा कि हीरोइनों को बेवकूफ़ होना चाहिए और किताबें नहीं पढ़नी चाहिए। उसने तुरंत मेरी बात मान ली और किताब वापस मेज पर फेंक दी।
उसने कहा कि फ़िल्मों में इतना सम्मोहन होता है कि कई बार वह कोई फ़िल्म देखते देखते उसे पॉज करके बहुत तीव्रता से हीरोइन बनना चाहने लगती है। फिर वह डायरी लिखने लगती है, जो और भी बेचैन कर देने वाला अनुभव होता है। तब उसे साँस लेने में भी तकलीफ़ होती है और वह उठकर खुली हवा के लिए छत पर चली जाती है।
वह दिल्ली थी और मैं उससे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता था। वह फ़िल्मों और ज़िन्दगी के बारे में बात करना चाहती थी। वह तब्बू और किसी कोंकणा के बारे में बात करती रही। कुछ देर बाद रुककर उसने फिर पूछा कि क्या मैं उदास हूं?
मैं उठकर टेरेस पर टहलने लगा जैसे वह टेरेस ही था और हमारे ऊपर पंखा लगी छत नहीं, आसमान था। मुझे आकाश से एक ख़ास किस्म का मोह था। हमने तय किया कि इंसान को ज़्यादा नाजुक नहीं होना चाहिए।
उसने कहा- तुम टीवी खरीद लो।
- मेरे पास पैसे नहीं हैं...और होते, तो भी शायद मैं कोई किताब खरीदता और मिठाइयाँ।
- तुम मुझे एक विचित्र तरह से विकर्षित करते हो।
मैं हँसा।
- क्या दिल्ली में लड़कियाँ वाकई शराब पीती हैं?
- जैसे तुम्हें मालूम नहीं।
- मैं दिल्ली की किसी लड़की को नहीं जानता।
और एक उदासी हमारे बीच के पलंग के उभरे हुए कोने पर पसर गई। हमने सोचा कि हमें उदास नहीं होना चाहिए। हम रोज़ यही निश्चय करते थे। ख़ुश रहने के ढेरों फ़ायदे मुझे जुबानी याद थे।
- कल मेरा एक ऑडिशन है. कनॉट प्लेस में।
- मैं चाहता हूं कि तुम्हें छोड़ने जाऊँ, लेकिन मेरे पास बाइक नहीं है।
उसने आँखें बन्द कर ली। उस पल मैं उसके होठों को छूना चाहता था।
- तुम कौनसी किताब खरीदते?
उसने आँखें खोलकर पूछा।
- तुम्हें भी रात में डर लगता है?
- किससे?
- अँधेरे से...
वह उठकर खिड़की तक गई और बाहर के जगमगाते अँधेरे को देखने लगी। सड़क पर गाड़ियाँ सरपट दौड़ रही थी। मैं बैठ गया था।
- नहीं लगता।
- मुझे भी नहीं लगता...
- फिर तुमने पूछा क्यूं?
- तुमने कभी रात में तितलियाँ देखी हैं?
- नहीं...
- उन्हें लगता होगा। तभी तो रात में नहीं उड़ती।
- तुम्हें क्या मैं तितली जैसी लगती हूं?
- कभी कभी गौरैया जैसी भी।
वह खनखनाकर हँसी। उसकी माँ ऐसे ही हँसती थी। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। उसने मेरी ओर देखा। मेरा उठकर दरवाज़े तक जाने का मन नहीं था। जो भी था, वह दो-तीन मिनट तक खड़ा रहा और लौट गया। तब तक हम चुप रहे। हमने सीढ़ियों पर पैरों के लौटने की आवाज़ सुनी। आवाज़ पैरों की थी, लेकिन दिमाग तक यही सन्देश गया कि कोई आदमी लौटा है। वह कुछ और भी हो सकता था। आदमी सोचने पर कुछ विशेष मन में नहीं आता। आँख, नाक, कान, सिर, हाथ, पैर ही याद आते हैं। जाने क्यों ऐसा लगता है कि ‘आदमी’ शब्द सोचने पर कुछ और चित्र मन में बनना चाहिए। यह सोचना वैसे ठीक नहीं है।
लौटने की ध्वनि आने की ध्वनि से ठीक उल्टी होती है। इन्हें नवजात शिशु भी अलग अलग पहचान सकता है। बहुत लोग हैं, जिनका आना मुझे अच्छा लगता है। लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसका लौट जाना मुझे अच्छा लगता हो। ‘लौट जाना’ मुझे ‘रोना’ का पर्यायवाची लगता है। जब भी कोई मुझसे मिलने आता है, मैं यह सोचकर काँप जाता हूं कि कुछ देर या कुछ दिन बाद वह वापस चला जाएगा। दरवाज़े से लौटते हुए गाय, कुत्ते और भिखारी की भी मुझे बहुत देर तक याद आती रहती है। मेरे भीतर लौटकर चले गए सजीवों निर्जीवों की सैंकड़ों खुशबुएँ बसी हुई हैं, जो पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए कभी कभी मैं चाहता हूं कि कोई मुझसे मिलने न आए और न ही मैं किसी से मिलने जाऊँ। कभी कभी मैं दरवाज़ा भी नहीं खोलता।
- एक वक़्त था, जब मैं भी एक्टर बनना चाहता था।
- मुझे पता है।
- किसने बताया?
- तुम हमेशा ऐसे बोलने की कोशिश करते हो, जैसे कैमरे के सामने बोल रहे हो। तुम गलतियाँ नहीं करना चाहते।
मुझे अच्छा लगा कि वह मुझ पर इतना ध्यान देती है। मैं नहीं जानता था कि यह उसने ख़ास मेरे बारे में ही बोला है या किसी किताब में पढ़ी हुई बात दोहराई है। यह मैं जानना भी नहीं चाहता था।
- इतनी रात को दरवाज़े पर कौन होगा?
- कोई भी हो सकता है। भगवान भी...
- मुझे नहीं लगता कि यहाँ लड़कियाँ तुमसे मिलने आती होंगी।
- मुझे भी नहीं लगता।
- तुम बोर नहीं होते?
- हाँ, हो जाता हूं। अपने आप से ऊबने लगा हूं।
- तुम्हें कुछ नया करना चाहिए। कुछ और नहीं तो शादी ही...नहीं तो तुम मर जाओगे।
- मैं दिल्ली में नहीं मरना चाहता।
- हे भगवान! क्या क्या बातें करने लगे हम! हमें यह सब नहीं बोलना चाहिए।
उसने ‘टच वुड’ बुदबुदाते हुए मेरी कुर्सी छुई। मुझे लगा कि इस परम्परा का गलत ज़गह उपयोग किया गया है। मेरे ख़याल से ‘टच वुड’ नज़र न लगने के लिए बोला जाता है। उसने माफ़ी माँगने की तरह मेरे गालों को भी छुआ। तभी दरवाज़े पर फिर से खटखट हुई। दरवाज़े पर आहट होते ही पूरे कमरे में एक बेचैन सी शांति फैल जाती थी। हम बिना हिले डुले बैठे रहे। दरवाज़ा फिर से बजा। अब वह उठकर चल ही दी। वह पुराना शीशम का दरवाज़ा था, जो खुलते और बन्द होते हुए बहुत आवाज़ करता था।
टिफिन वाला लड़का खड़ा था। उसने हरे रंग का डिब्बा पकड़ा दिया। वह लेकर अन्दर आ गई। लड़का फिर भी वहीं खड़ा रहा। वह नेपाल के किसी छोटे से कस्बे का था और अपने पिता के साथ दिल्ली आ गया था। एक दिन मैंने उससे पूछा था कि वह कब से अपने घर नहीं गया? उसने कहा था, तीन साल। मुझे बुरा लगा था। मुझे अपने घर की याद भी आई थी। मैं हमेशा से ऐसा लावारिस नहीं था। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। हम इकट्ठे खाना खाते थे और जल्दी सो जाते थे। माँ के पास अपने बचपन से लेकर तब तक की बहुत सारी बातें होती थी जो वह बार बार हमें बताती रहती थी। हमने आँगन में कुछ सब्जियाँ उगा रखी थी। हमारे घर में एटलस की एक साइकिल थी, जिसकी चेन बहुत जल्दी जल्दी उतर जाती थी। राजू को भी (उसका सही नाम मुझे नहीं याद) अपने घर के बाल्टी, चम्मच, कनस्तर और भगोने ऐसे ही याद आते होंगे। वह सुन्दर हँसता था और कम बोलता था। नेपाल में अस्थिरता थी और गरीबी भी। दिल्ली सबको खपा लेती थी और सबमें खप जाती थी।
वह डिब्बा लेकर मुझ तक आई तो लड़के ने कहा, “पैसे?”
मैं उठकर खूंटी पर टँगी जींस तक गया और उसकी पिछली जेब में से बटुआ निकाला।
- खुल्ले नहीं हैं यार। कल ले लेना।
वह चुपचाप खड़ा होकर उम्मीद भरी नज़रों से मुझे देखता रहा।
कुछ देर बाद बोला- मैडम डाँटेगी...
मुझे निर्दयी खुशी सी हुई। हर कोई किसी न किसी से डरता है, मैंने सोचा।
- कितने देने हैं इसे?
- तुम दोगी?
- हाँ।
- चालीस।
लड़का खुश हुआ। वह पैसे देकर दरवाज़ा बन्द कर आई। उसने फिर से दरवाज़ा खटखटाया। इस बार मैंने खोला।
- भैया, कल दो टिफिन आएँगे?
वह खिड़की के पास खड़ी थी। मैंने उसकी ओर देखा। वह बाहर देख रही थी।
- जैसा भी होगा, कल फ़ोन कर दूंगा।
- ठीक है।
वह चला गया। मैं आकर फिर कुर्सी पर बैठ गया।
- तुम सीपी से यहीं लौटोगी ना कल?
मैंने बोलने से पहले दिमाग में शब्द चुने थे। कल से पहले ‘ना’ लगाना बहुत ज़रूरी लगा था। ‘लौटकर आना’ भी ‘लौटकर जाने’ का बिल्कुल उल्टा था और सुखद भी। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
- तुमने बताया नहीं कि पैसे होते तो तुम कौनसी किताब खरीदते?
उसने पलटकर पूछा।
- शायद अज्ञेय की कोई किताब।
वह चुप रही। मैंने पूछा- तुमने सुना है अज्ञेय का नाम?
- नहीं सुना।
जिन चीजों के बारे में वह नहीं जानती थी, उनके बारे में बात करने पर मुझे अपराधबोध सा होता था।
- कल फ़िल्म का ऑडिशन है?
- हाँ, लेकिन मुझे नहीं लेंगे।
- क्यों?
- उन्हें सुन्दर लड़की चाहिए।
वह मुस्कुराते हुए मुझ तक आ गई थी। वह मुझसे अपनी प्रशंसा करवाना चाहती थी। उस रात वह दूसरी बार था, जब मेरा उसके होठ छूने का मन हुआ। उससे तिनका भर भी कम नहीं, ज्यादा नहीं।
- नहीं, मैं तुम्हारी तारीफ़ नहीं कर सकता। मैं कहना चाहता हूं कि यह कमरा नहीं, झील है और तुम कमल हो और मैं डूब गया हूं। लेकिन मैं नहीं कहूंगा।
- तुम सच में डूब गए हो?
- हाँ, माथे तक।
- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?
- इस कमरे का किराया तीन हज़ार है। यह छोटा सा कमरा, जो झील है और वह रसोई, जिसमें कॉकरोच हैं।
- तुम्हें साँस लेने में तकलीफ़ होती है?
- तुम बार बार क्यों पूछती हो?
- तुम बीमार लगते हो...
- ऐसा मेरी दाढ़ी के कारण लगता होगा।
उसने मेरे माथे पर हाथ रखकर देखा। उसका हाथ गर्म था। मैंने आँखें बन्द कर ली। मैं चिल्लाना चाहता था।
वह धीरे से बोली- यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है।
- वैसे मैं रोऊँगा नहीं, लेकिन रोने लगूं तो मुझे रोने देना।
- चलो तुम्हारे बचपन के बारे में बात करें।
मैंने कुछ लम्बी साँसें ली। वह मेरे माथे पर हाथ रखकर खड़ी थी। मैं बैठा था।
- तुम्हें भूख लगी होगी। टिफिन खोल लो।
- तुम्हें लेखक नहीं बनना चाहिए।
- मुझे भी ऐसा ही लगता है – बहुत देर बाद मैंने उसकी आँखों में देखकर कहा – काश बाहर धूप होती!
- तब क्या होता?
- तब रात नहीं होती और शोर होता, जिसके नीचे हम अपना दुख दबा देते।
- काश कि धूप को फेयर एंड लवली की तरह गालों पर मला जा सकता। मैं ख़ूब गोरी हो जाती।
- काश कि धूप के ब्लेड होते, जिनसे दाढ़ी बनाई जा सकती।
- काश धूप का काँच होता, जिसके घर बनते। मैं ऐसे ही घर में रहती।
- तुम जल जाती।
मैंने उसके दाएँ पैर की ओर देखा। एक रात उनके घर में आग लगी थी। उसके पैर की दो उंगलियों पर अब तक उसके निशान थे।
- और ब्लेड से तुम्हारे गाल नहीं जलते?
- ब्लेड को तो बर्फ़ में रखकर ठंडा भी किया जा सकता था।
- दुख बहुत है?
पूछते हुए वह माँ जैसी हो गई थी। उसने एक साड़ी पहन ली थी, जिसका पल्ला उसके सिर पर सरक आया था। मैं चुप रहा और मैंने अपना सिर माँ की छाती में छिपा लिया। मेरा भी एक घर था, जिसमें माँ थी, पापा थे, दीदी थी। फिर उस घर ने हम सबको बाहर निकाल फेंका था।
- मैं तुमसे दिल्ली की लड़कियों के बारे में बात करना चाहता हूं।
- हाँ करो...
उसने सहमति दी और फिर मैं कुछ भी न बोल पाया। मैं नहीं जानता था कि मैं दिल्ली की लड़कियों के बारे में क्या बात करना चाहता हूं? मुझे बस हरी, लाल, पीली होती ट्रैफ़िक लाइटें याद आ रही थी और वाहनों की भीड़। मेरी मोटरसाइकिल और पीछे की सीट पर बैठी एक लड़की। वह दोनों तरफ पैर करके बैठी थी। वह कभी कभी मेरे कंधे पर हाथ रख लेती थी। मेरी जेब में रखे मोबाइल पर लगे इयरफ़ोन उसके कानों में थे। वह गाने सुन रही थी। फिर लाइट हरी हो गई थी और हॉरनों का शोर। मैं भी चल पड़ा था। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा था। वही दिल्ली थी।
मुझे चुप देख उसने कहा कि हमें खाना खा लेना चाहिए। मैंने कहा कि मुझे भूख नहीं है।
- चलो बाहर सड़क पर घूम आते हैं।
- मुझे लगता है कि तुम एक बार यहाँ से बाहर चली गई तो वापस नहीं आओगी।
- तुम सनकी भी होते जा रहे हो।
- तुम समझदार होती जा रही हो। तुम्हें फ़िल्मों में नहीं जाना चाहिए। तुम थिएटर कर लो।
- थिएटर कोई नहीं देखता।
मैं हँसा।
- किताबें भी तो कोई नहीं पढ़ता। फिर ही हज़ारों लोग लिखते हैं।
मुझे हँसता देख उसे अच्छा लगा होगा। उसकी आँखें कुछ चमकने लगी थी या शायद यह मेरा वहम ही था। वह पलंग पर लेट गई और उसने आँखें बन्द कर लीं। मुझे लगा कि वह सोना चाहती है। मुझे उसके सोने से पहले लाइट ऑफ़ करनी थी और ‘गुड नाइट’ बोलना था। वह किसी भी क्षण सो सकती थी या हो सकता है कि सो भी गई हो। यह सोचकर मुझे गुस्सा आया। और ‘थिएटर कोई नहीं देखता’ – यह किसी का सोने से पहले का आखिरी डायलॉग कैसे हो सकता है? मेरा मानना है कि सोने या चले जाने से पहले बातों को ख़त्म करने वाली बातें कही जानी चाहिए। यह तो वैसा ही है कि कोई जाने से ठीक पहले कहे कि आज सोमवार है और तुरंत निकलकर चला जाए। यह तो जाने के अपमान जैसा है और सोमवार के भी। माँ तो और भी हद करती थी। माँ लेटे लेटे कुछ पूछती थी, जैसे- उनके घर क्या कर रहे थे तेरे पापा? – और जवाब सुनने से पहले ही सो जाती थी। जबकि मैं कोशिश करता हूं कि सोने से पहले किसी से बात कर रहा हूं तो ‘कल देखेंगे’ या ‘हाँ’ या ‘नहीं’ मेरा आखिरी डायलॉग हो। कहीं से चले आने से पहले मैं अक्सर ‘ठीक है’ बोलता हूं। चाहे कुछ भी ठीक न हो, फिर भी।
- तुम्हारे पति कैसे हैं?
- उनका नाम नवदीप है।
उसने आँखें खोल ली। मुझे तसल्ली हुई। मैंने मुस्कुराना चाहा।
- कैसा है नवदीप?
- अच्छे हैं। कम बोलते हैं और बहुत प्यार करते हैं।
- तुम्हारे पापा जैसे हैं फिर तो...
- उंहूं...पापा जैसे तो पापा ही थे बस।
- जिन दिनों तुम्हारी शादी हुई थी, मेरा शराब पीने का बहुत मन करता था।
- तुम मेरी शादी में आते तो मुफ़्त में जी भर के शराब पी सकते थे।
- क्या सच में दिल्ली की लड़कियाँ शराब पीती हैं?
- पूरे एक हज़ार कार्ड छपे थे।
मैं चुप रहा। वह मेरी ओर देखती रही। वह चाहती थी कि मुझे गुस्सा आए। मैं चाहता था तो भी गुस्सा नहीं आता था। एक कातरता मेरे पूरे अस्तित्व पर हावी रहती थी।
मैंने कहा- माँ कहती थी कि लड़कियों को कभी प्रेम नहीं करना चाहिए।
- क्यों?
- प्रेम उन्हें निष्ठुर बना देता है।
- और लड़कों को?
- लड़कों के बारे में माँ कुछ नहीं कहती थी – मैं रुका – लेकिन मुझे लगता है कि प्रेम लड़कों को असहाय बनाता है...और साथ ही हिंसक भी।
वह मेरे इस विश्लेषण पर हँसी। वह मुझे कुछ बेवकूफ समझती थी और यह मुझे भी अच्छा लगता था।
- तुम मुझे मार तो नहीं डालोगे?
- एक बार इस बारे में भी सोचा था।
वह चुप रही।
- बड़ा ज़मींदार होगा तुम्हारा नवदीप तो?
- आठ तो नौकर हैं घर में।
- और नौकरानियाँ?
- पाँच नौकर हैं, तीन नौकरानियाँ।
- तुम्हें नाम याद हैं इतने सारे नौकरों के?
- एक नौकर का नाम याद रखो, तो भी काम चल जाता है। ज़रूरी नहीं कि हर नौकर को उसके अलग नाम से ही पुकारा जाए। बिरजू कहकर चिल्लाओ तो जो भी नौकर आसपास हो, उसका फ़र्ज़ बनता है कि आए।
- यानी बिरजू का नाम याद है तुम्हें?
- नहीं, बिरजू उनमें से किसी का नाम नहीं है।
- बहुत सारे खेत होंगे ना?
- हाँ, इतने कि आसमान में उड़ने का मन करता है।
- सरसों के फूल देखकर तुम्हें मेरी याद नहीं आती?
- तीन ट्रेक्टर हैं उनके घर में।
- फिर तुम डीजे में क्यों नाचोगी?
इस प्रश्न पर उसका चेहरा उतर गया। वह खुश होना चाह रही थी। उसने कहा कि मैं बहुत बुरा हूं। मुझे बुरा लगा। मैंने कहा कि मैं छत पर जाना चाहता हूं, लेकिन मकान मालिक ने ज़ीने के दरवाज़े पर ताला लगा रखा है। मैंने उससे पूछा कि क्या मुझे उस ताले को तोड़ देना चाहिए? उसने कहा, नहीं। मैंने कहा कि मुझे डर लगता है कि किसी दिन कोई आसमान का ताला भी लगा देगा। इस बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। मैंने कहा कि लेखक बनना बहुत मुश्किल और अमानवीय काम है।
उसने पूछा- क्यों?
- आपको हर पंक्ति में चमत्कार करने की कोशिश करनी पड़ती है। आप चाहते हैं कि हर लाइन में कुछ नया कह दें, जो पहले कभी न कहा गया हो। जबकि ज़िन्दगी में ऐसा कहाँ होता है? मेरे कुल जीवन में तीन या चार बातें ही ऐसी हुई होंगी, जो कहीं और, किसी भी और के साथ नहीं हुई और पढ़ते हुए लोग यह उम्मीद करते हैं कि हर रोज़ कुछ नया पढ़ने को मिले। ऐसा चाहने से पहले वे अपनी नीरस ज़िन्दगियों की ओर देखते तक नहीं। कभी कभी लिखना आपको चूसने लगता है।
उसने चिंतित होकर कहा कि मुझे आज ही लिखना छोड़ देना चाहिए और विश्वास दिलाया कि मैं आठवीं तक के बच्चों को अच्छी तरह ट्यूशन पढ़ा सकता हूं। नवदीप का एक स्कूल भी था लेकिन उसने उसका ज़िक्र नहीं किया। वह ज़िक्र करती तो मैं अपनी नज़रों में और भी दयनीय हो जाता।
रात बहुत थी और आमतौर पर रातें बहुत डरावनी होती हैं। बहुत सारे खेत एक साथ देखकर क्या मेरा भी उड़ने का मन करेगा, मैं यह सोचता रहा। मैं नहीं सोच पाया। मुझे आम याद थे लेकिन मैं आम के पेड़ भूल चुका था।
- तुम्हें ट्यूशन ही पढ़ा लेना चाहिए।
उसने दुबारा यही बात कही।
- मैं एक कार खरीदना चाहता हूं।
- क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि उदास आदमी कार में बैठते ही खिलखिलाकर हँसने लगता होगा?
- यह मैं नहीं सोच पाता। कार में बैठकर कैसा लगता होगा, मैं नहीं जानता। कुछ महीने पहले तक मुझे यह भी पता नहीं था कि सोफे पर बैठकर कैसा लगता है?
- कौनसी कार खरीदोगे?
- सबकी तरह मैं कारों के नाम नहीं जानता और मुझे लगने लगा है कि मैं ज़िन्दगी भर कार नहीं खरीद पाऊँगा। खरीदना तो दूर, मैं बैठ भी नहीं पाऊँगा। तुम नहीं जानती कि यह लगना कैसा होता है?
- हाँ, मैं सच में नहीं जानती। मगर मैं जानती हूं कि तुम्हारे पापा का सपना था कि तुम एक लम्बी कार खरीदो जिसके पिछले शीशे पर तुम्हारा नाम लिखा हो।
वह मेरे पापा को मुझसे भी बेहतर जानती थी।
- अंग्रेज़ी में...
- हाँ, अंग्रेज़ी में।
फिर हमारे बीच अंग्रेज़ी के लहजे की चुप्पी रही। वह आधे डब्ल्यू के आकार में बैठी थी। उसके गले में लटके लॉकेट पर एन लिखा था। मैंने उसकी छाती पर रखा बी देखा। हमारे बीच सौ कोस का फ़ासला होगा क्यों कि अगले ही क्षण मैंने जब उस बी को छूना चाहा तो मेरे हाथ में हवा का एक टुकड़ा था। मैं बहुत देर तक दौड़ता रहा लेकिन उसे छू नहीं पाया।
- तुम दोनों साथ सोते हो?
- कौन दोनों?
- तुम और नवदीप...
- नहीं, वे पहले सो जाते हैं। मुझे कुछ देर में नींद आती है।
जिस ओर रसोई थी, उस ओर से छत का एक टुकड़ा हवा में उड़ गया। अब छत में रोशनदान था जिसमें से ऊपर जाया जा सकता था। शुक्र था कि बारिश नहीं हो रही थी। बारिश हो रही होती तो मैं उसके नीचे बाल्टी या तसला रख आता। छेद थाली के आकार का था। उसमें से रात टपक रही थी। मुझे लगा कि कुछ घंटों बाद इसमें से सुबह टपकने लगेगी। सुबह पानी जैसी थी जो किसी भी बर्तन में आ सकती थी। सुबह का आकार कटोरी, थाली या चम्मच जैसा भी हो सकता था। दवा की शीशी के ढक्कन जैसा भी! मेरे एक चाचा दवा के अभाव में मर गए थे। उन दिनों सुबहें बहुत थी लेकिन दवाओं की कमी थी। उन्हें रात भर दौरे पड़े थे और वे पागल हो जाने से तुरंत पहले मर गए थे। वे बी ए में पढ़ते थे और अच्छा गाते थे। उन्हें एक स्वस्थ लड़की से प्यार था। स्वस्थ लड़की का मानना था कि बीमार लड़के को बीमार लड़की से ही प्यार करना चाहिए। वे बीमार लड़की नहीं ढूंढ़ पाए थे और मरते नहीं, पागल हो जाते तो यह भी मुश्किल था कि पागल लड़की ढूंढ़ पाते। चुस्त और हट्टे कट्टे लड़कों के लिए प्रेम करना आसान था। हालांकि लड़कियाँ संवेदनशील और भोली थी और सबसे नर्म आवाज़ में बात करती थी।
वह बोली कि अब हमें खाना खा लेना चाहिए। हमने टिफिन खोलकर खाना खा लिया। मैं बीच बीच में छत के उस हिस्से को देखता रहा, जो उड़ गया था। हमारे खा चुकने के बाद किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मुझे गुस्सा आया कि कोई भूखा आया तो उसे क्या खिलाएँगे? कुछ देर पहले आ जाता तो हम दोनों एक एक रोटी कम खा लेते।
उसने पूछा- कौन होगा?
- मेरा रूममेट तो परसों आएगा।
- मुझे बार बार लगता है कि कहीं नवदीप न आया हो।
- उसके पास यह पता है? 378, गली नं 3?
वैसे पता बोलना ज़रूरी नहीं था।
- नहीं है। लेकिन कुछ भी हो सकता है। कुछ भी असम्भव नहीं है।
वह अपने आप में छिप गई। दूसरी बार बेचैन सी खटखट हुई तो मैंने दरवाज़ा खोला। उसमें तेल लगाने की ज़रूरत थी। विकास खड़ा था, मेरा रूममेट। उसके माथे पर पसीने की बूँदें थी और वह हाँफ रहा था। वह चार घंटे पहले घर जाने के लिए निकला था और प्रकाश की गति से भी आता-जाता तो भी इतनी जल्दी नहीं लौट सकता था। घर जाते ही वह पड़कर सो जाता है और कम से कम छ: सात घंटे में उठता है, ऐसा उसने मुझे बताया था। मैंने पूछा था कि क्या वह जाकर चाय भी नहीं पीता? उसने ‘नहीं’ कहा था।
मुझे टिफिन याद आया। मैंने वहीं खड़े खड़े उससे पूछा कि क्या उसने डिनर कर लिया है? उसने इनकार में गर्दन हिला दी। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैं दरवाज़े पर अड़कर खड़ा था। उसने मेरे सिर के ऊपर से झाँककर अन्दर देखा। वह कुछ सिमटकर डबल्यू से एन हो गई थी। वह अन्दर की ओर बढ़ा। मैंने हल्का सा प्रतिरोध किया, जो प्रतिरोध लगे भी और न भी लगे। बस इतना ही कि कल को लड़ाई हो तो वह यह न कह सके कि उस रात मैं उसे घर में नहीं घुसने दे रहा था और मैं चाहूं तो यह कह सकूं कि जब मैं एकांत चाहता था, वह जबरदस्ती घुस आया था। बात प्राइवेसी से ज़्यादा डेढ़ डेढ़ हज़ार रुपए की थी जो हम किराए के भरते थे। बिजली के तीन सौ रुपए अलग थे। मैं हट गया। वह अपना बैग उठाकर अन्दर आ गया। फिर वह ठिठककर खड़ा रहा। मुझे भय था कि वह उसे कॉलगर्ल न समझ ले। ऐसे गन्दे ख़याल के लिए मुझे अपने आप से घृणा भी हुई। उसका पलंग कमरे में ही था मगर वह उसे पार करके रसोई तक चला गया। शायद वह भी हमारे बीच में अचानक टपककर असहज महसूस कर रहा था। फिर गिलास में पानी डालने की आवाज़ हमें सुनी। वह एन बनी ही बैठी थी। पानी पीकर वह रसोई और कमरे के दरवाज़े पर आया और इशारे से मुझे बुलाया। मैं गया तो मुझे दूसरे कोने में ले जाकर मुस्कुरा कर बोला- मेरे पीछे से मज़े कर रहा है।
- देख छत उड़ गई है।
मैंने उसे उड़ी हुई छत दिखाई। वह चौंक गया। उसने कहा कि छत उड़ नहीं सकती। यह टुकड़ा टूटकर नीचे गिरा होगा, जो मैंने छिपा दिया होगा और अब उसे बहका रहा हूं। मैं कुछ नहीं बोला और वापस कमरे में आ गया।
- तू घर क्यों नहीं गया?
मैंने वहाँ से चिल्लाकर पूछा। वह असमंजस भरी नज़रों से मेरी ओर देख रही थी। जाने क्यों, यह पूछना मैं उसे सुनाना चाहता था।
- आज ट्रेन ही नहीं आई।
कहता हुआ वह भी कमरे में आ गया।
- ऐसा कैसे हो सकता है? ट्रेन निकल गई होगी।
- नहीं, उन्होंने कहा कि आज छुट्टी है।
’उन्होंने’ कोई भी हो सकते थे। मैंने नहीं पूछा कि किन्होंने कहा?
अब वह बोल पड़ी- छुट्टियों की स्पेशल रेलगाड़ियाँ तो चलती हैं लेकिन रेलगाड़ियों की छुट्टी तो कभी नहीं सुनी।
- उन्होंने कहा कि बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी बातें तो होती ही रहती हैं।
विकास की आवाज़ में अतिरिक्त मिठास आ गई थी। वह मुस्कुराई। मुझे खीझ हुई। मैं आकर कुर्सी पर बैठ गया। वह हमारी ओर चेहरा करके अपने पलंग पर बैठ गया। हम इस तरह थे कि मेरी पीठ और उसका चेहरा विकास की ओर थे। मैंने कुर्सी थोड़ी सी खिसका ली। अब मेरा चेहरा दीवार की ओर था और मेरे दायीं तरफ वह थी।
- चलो, कहीं घूम आते हैं।
- और मैं वापस न आई तो?
हाँ, यह डर तो मुझे था। मैंने बालकनी में चलने का प्रस्ताव रखा जो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वह अपनी मुस्कान और भाव भंगिमाओं को लेकर ज़्यादा सजग हो गई थी। मुझे लड़कियों की यह आदत बुरी लगती है कि वे आपके साथ एकांत में किसी और ढंग से पेश आती हैं और किसी तीसरे की उपस्थिति में किसी और ढंग से। मैं उड़ी हुई छत के नीचे से नहीं गुजरा। वह बेहिचक उसके नीचे से ही आई। वह मेरे पीछे थी। विकास वहीं बैठा रहा। मुझे ट्रेन की छुट्टी वाली बात सफेद झूठ लग रही थी।
बालकनी में पहुँचते ही मेरे मुँह से निकलने को हुआ कि मैं डर रहा था कि यह तुम्हें किराए की लड़की न समझ ले, लेकिन मैंने अपने आप को रोक लिया। नीचे सड़क पर दो कुत्ते लेटकर सो रहे थे। एक रिक्शेवाला खाली रिक्शा लेकर धीरे धीरे जा रहा था। मेरा एक बार रिक्शा चलाने का मन भी था। नीचे खड़े स्कूटर पर बैठे एक छोटे से पक्षी को देखकर मुझे लगा कि कोयल है। मैं कोयल को ठीक से नहीं पहचानता था, इसलिए हर अनजान पक्षी को देखकर कोयल होने का वहम होता था।
अब हम खड़े थे और वह मुझसे लम्बी थी। वह मुँडेर पर झुककर नीचे देखने लगी। उसके पास एक उम्मीद थी कि वह कल सुबह हीरोइन बन सकती है। मुझे दूर दूर तक अपना ऐसा कुछ बनना दिखाई नहीं देता था। हो सकता है कि मैं ज़िन्दगी भर कागज़-कलम लेकर बैठा सोचता रहूं और कुछ भी न लिख पाऊँ।
मैं पूछ बैठा- तुम्हें आइडिया है कि एक लड़की कितने में आती होगी?
- कैसी लड़की?
- सुन्दर लड़की, जो तुम्हारे नवदीप की तरह कम बोलती हो और बहुत प्यार करती हो।
- भला मुझे कैसे मालूम होगा?
- नवदीप से पूछ कर बताना।
- तुम उन्हें क्यों बीच में लाते हो?
मैं कुछ कहता, उससे पहले ही दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। विकास को उठकर खोल देना चाहिए था या नहीं खोलना था तो बैठे रहना चाहिए था। लेकिन वह उठकर मेरे पास आया और बोला कि मैं जाकर दरवाज़ा खोलूं। मैंने कहा कि मैं भी बराबर किराया देता हूं और नौकर नहीं हूं। मेरे भीतर यह उसके असमय लौट आने का गुस्सा था। उसने कहा कि उसके पैर में मोच आ गई है इसलिए वह नहीं जा सकता। मैंने पूछा कि फिर वह यहाँ तक कैसे आया? उसने कहा कि दरवाज़े की दिशा में चलने पर दर्द होता है। मुझे विश्वास नहीं हुआ क्योंकि कुछ देर पहले रसोई से अपने पलंग तक जाने में भी वह दरवाज़े की दिशा में ही चला था। उस समय वह लंगड़ा भी नहीं रहा था और न ही उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। और तो और, वह मुस्कुराया भी था। मैं भी अपनी ज़गह से नहीं हिला। दुबारा ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया गया तो वह ‘मैं खोल देती हूं’ कहकर दरवाज़े की दिशा में बढ़ी। “रहने दो”, मैंने कहा और चल दिया। विकास ने पीछे से कहा कि कोई उसे पूछे तो मैं कह दूं कि वह घर पर नहीं है। इस बार मैं गुस्से में था, इसलिए टूटी हुई छत के नीचे से बचकर चलना याद नहीं रहा। मैं उसके नीचे से गुज़रा तो सिर पर रात की दो तीन बूँदें गिरी। दरवाज़ा खोला तो सामने कोई नहीं था। मैंने बाहर निकलकर झाँका तो ज़ीने की ऊपर से तीसरी सीढ़ी पर दो सिपाही घात लगाकर बैठे थे। एक के हाथ में पिस्तौल थी। उसे देखकर बिना कुछ जाने समझे मैंने दोनों हाथ ऊपर कर दिए। अब वे बहादुरी से उठे और मुझ तक आए।
पिस्तौल वाले ने कहा- तो तुम हो विकास?
मैंने कहा- नहीं।
दूसरा बोला- इसकी दाढ़ी देखकर तो लगता है कि यही होगा।
मैंने कहा- विकास तो रोज़ शेव करता है। मैंने आज तक उसकी दाढ़ी ज़रा सी भी बढ़ी नहीं देखी।
पहला कुछ और रौब झाड़ता हुआ बोला- तो कहाँ है विकास?
मैंने ध्यान दिया कि वह हर वाक्य के आरम्भ में ‘तो’ ज़रूर बोलता है। मैंने कहा- तो वह यहाँ नहीं है।
पहला बोला- तो हम घर की तलाशी लेंगे।
दूसरे ने टोका- लेकिन साहब, वारंट नहीं है।
पहले को गुस्सा आया।
- तुम यार हमारी तरफ हो या इसकी तरफ? बहुत कानून झाड़ रहे हो।
वाकई मुझे ऐसे किसी नियम के बारे में नहीं पता था। मैंने धन्यवाद भरी नज़रों से दूसरे को देखा। वह झिड़की खाकर सकपका गया था। अजीब बात थी कि जिसके हाथों में पिस्तौल थी, वही साहब था और मेरी दृष्टि में पहला भी। बाहर चाँद था, जिसे देखकर मुझे धूप होने का भ्रम हुआ।
मैंने कहा- आप पिस्तौल छिपा लीजिए, मुझे रात में धूप दिखाई दे रही है।
दोनों सिपाहियों ने एक साथ सड़क की ओर देखा। वही रिक्शावाला, जो पिछली सड़क से खाली रिक्शा लेकर गया था, एक लड़की को बिठाकर ले जा रहा था। मैंने पिस्तौल वाले सिपाही से पूछा कि क्या दिल्ली रात में महिलाओं के लिए असुरक्षित है? यह मैंने उसी सुबह अख़बार में पढ़ा था। मुझे अख़बार की हर बात सच लगने लगती थी। सिपाही ने तुरंत कहा, बिल्कुल नहीं। मुझे विश्वास हो गया।
तभी एक लाल मोटरसाइकिल गुज़री, जिस पर एक लड़के के पीछे एक लड़की बैठी हुई थी। उसका टॉप पीछे से बार बार ऊपर उठ जाता था, जिसे एक हाथ से वह बार बार नीचे खींचती थी। यह देखकर दोनों सिपाही मुस्कुराए। पिस्तौल का भय न होता तो शायद मैं भी मुस्कुराता। वह लड़का लड़की को साइकिल के अगले डंडे पर बिठाकर ले जाता तो इतनी परेशानी नहीं होती। तब पैडल मारते हुए लड़के का पैर लड़की की कमर को ढक लेता। लड़की अधिक सुरक्षित महसूस करती। दिल्ली में कम साइकिलें थी, इसलिए अधिक असुरक्षा थी।
पहले सिपाही ने मुझसे मुख़ातिब होकर कहा- तो तुम नहीं बताओगे कि विकास कहाँ है?
मैंने कहा- बता दूँगा।
दूसरा बोला- जल्दी बताओ।
मैंने कहा- अन्दर है।
वे दोनों मुझे धकेलकर अन्दर घुस गए। मैं ठगा सा वहीं खड़ा रहा।
- ज़रा सी छत उड़ी हुई है। ध्यान से जाइएगा।
मैंने पीछे से चिल्लाकर कहा, जिस पर उन्होंने शायद ग़ौर नहीं किया।
मैं बालकनी में पहुँचा तो दूसरा सिपाही विकास का कॉलर पकड़कर खड़ा था। पहले सिपाही ने कुछ दूर से उस पर पिस्तौल तान रखी थी। उसे देख कर यह संदेह होता था कि कहीं पिस्तौल दूसरे सिपाही पर ही तो नहीं तानी गई है। वह एक कोने में खड़ी थी। उसे डर लगता था तो उसका इमली खाने का मन करता था। रात में इमली खोज कर लाना भी मुश्किल था। डर रात-दिन देखकर नहीं आता।
दूसरा सिपाही विकास को खींचकर ले जाने लगा तो मैंने हौले से पूछा- क्या किया है इसने?
विकास का चेहरा पसीने से तर था। पहला सिपाही, जिसकी पिस्तौल का निशाना खिंचते हुए विकास के साथ साथ घूम रहा था, बोला- इसने हत्या की है...पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर।
- नहीं साहब नहीं मैंने नहीं मारा कुछ मैंने छोड़ नहीं किया मुझे छोड़ दीजिए...
मैंने विकास को पहली बार इतना भयभीत देखा था। दूसरे सिपाही ने एक चाँटा मारा तो वह बिल्कुल चुप हो गया। वे उसे घसीटकर ले गए। मैं कुछ नहीं कर पाया। उनके जाने के बाद जब शांति छा गई तो वह धीरे से बोली- क्या तुम्हारे पास थोड़ी सी इमली होगी?
मैंने कहा- नहीं है।
कुछ रुककर वह फिर बोली- क्या सच में इसने किसी को मारा है?
- मुझे कैसे पता होगा?
- क्या ऐसा हो सकता है कि नवदीप भी ट्रेन से उतरकर इधर आ रहे हों और इसकी उनसे किसी बात पर झड़प हो गई है। तुम नहीं जानते कि वे कितनी छोटी छोटी बातों पर झगड़ने लगते हैं। एक बार बस में मेरे पास वाली सीट पर बैठे आदमी ने मुझसे बस इतना पूछ लिया था कि आप कहाँ जा रही हैं? ये दूसरी तरफ बैठे थे। इन्हें इतना गुस्सा आया कि पूछो मत। उस आदमी को जंगल के बीच में बस रुकवाकर उतरना पड़ा था। मुझे डर लग रहा है कि कहीं वे विकास से लड़ पड़े हों और इसने उन्हें...
- ऐसा नहीं हुआ होगा।
मैंने पूरे विश्वास से कहा जबकि मैं पूरी इच्छाशक्ति को समेटकर चाहना चाहता था कि ऐसा ही हुआ हो। वह मुझ पर इतना भरोसा भी नहीं करती थी लेकिन मेरा जवाब सुनकर उसके चेहरे का तनाव कुछ कम होता दिखा।
- तुम उसके घर फ़ोन कर दो।
- किसी के पिता या माँ या भाई-बहन को मैं यह कैसे बताऊँ कि इसने किसी की हत्या कर दी है जबकि हम सब जानते हैं कि हत्या की कम से कम सज़ा उम्रकैद है। हो सकता है कि फ़ोन सुनते सुनते कोई दिल का दौरा पड़ने से मर जाए और मुझ पर गैर-इरादतन हत्या का अभियोग लग जाए।
- हाँ, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। बेहतर है कि हम चिट्ठी लिखकर भेज दें। तुम्हें उसका पता याद है?
- वह तो मकान मालिक के रेंट एग्रीमेंट पर लिखा होगा।
- ठीक है, तुम उसे खोजो। मैं चिट्ठी लिखती हूं।
- लेकिन चिट्ठी पढ़कर भी तो कोई मर सकता है।
- नहीं, हम उसके ऊपर लिख देंगे कि कमज़ोर दिल वाले न खोलें। फ़ोन के ऊपर तो ऐसी वैधानिक चेतावनी नहीं लिख दकते ना।
- तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं फिर कहता हूं कि तुम्हें थिएटर करना चाहिए।
- पर तब तक पुलिसवाले उसे बहुत मारेंगे ना?
मैं सोच में पड़ गया। मुझे दुख हुआ। भले ही उसके अचानक आ जाने से मुझे कितना भी बुरा लगा हो, लेकिन उसके पिटने पर मुझे उससे कई गुना बुरा लगता। अब तक मैं सोच रहा था कि सब कुछ शादी-रिसेप्शन वाली मुम्बइया फ़िल्मों या बालहंस में छपने वाली बच्चों की कहानियों की तरह अच्छा अच्छा होगा। जब मेरे सामने पुलिसवाले खड़े थे, तब भी मेरी यही चेतना इतनी सक्रिय थी कि मैं चाँद और लड़कियों को देख पा रहा था। मेरे दिमाग में धुली हुई वर्दी अपने पति को पकड़ाती पुलिसवाले की पत्नी थी और घर लौटकर अपनी बच्ची के साथ खेलते हुए सिपाही का एक चित्र भी था। दोनों चित्रों में पुलिसवाले सभ्य भाषा में बात कर रहे थे। बल्कि पहले में तो वह चुप ही था और टूथब्रश दाँतों के बीच रखकर मुस्कुरा रहा था। मैंने भद्दी गालियों और तलवों पर पड़ते डंडों के बारे में अब तक कुछ नहीं सोचा था। अब सोचते ही मैं ज़मीन पर आया और मुझे बुरा लगा। ख़त पहुँचने में कम से कम एक सप्ताह लगता (मुझे ‘सप्ताह’ शब्द बहुत अच्छा लगने लगा था...वह मेरी तरह हफ़्ता नहीं, सप्ताह कहती थी) और वह भी डाकिये की भलमनसाहत पर निर्भर करता। तब तक पुलिस चाहती तो विकास को पीट पीटकर या किसी सुनसान सड़क पर गाड़ी से उतारकर नकली मुठभेड़ में मार सकती थी। हम कुछ नहीं कर सकते थे, इसलिए मैंने कहा- मुझे लग रहा है कि हम सपना देख रहे हैं।
उसने कहा, “हाँ मुझे भी...” और हमने आँखें खोल ली। हमें एक साथ चाँद दिखा। हमने तय किया कि बुरे सपनों के बीच में से अब से जल्दी जग जाया करेंगे। मैंने रसोई में झाँककर देखा। विकास का बैग रखा था। उसे देखकर मैंने आँखें बन्द कर ली और फिर सड़क की ओर देखते हुए खोली।
मुझे तुम बहुत याद आती हो। मेरी मेज पर एक गुलदस्ता रखा है जिसमें सरसों के पीले फूल हैं। मैं नहीं जानता कि जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, तब भी मुझे पीला रंग पसन्द आएगा या नहीं, लेकिन तुम्हारे कन्धे से लिपटा हुआ दो हज़ार दो मुझे बहुत याद आता है। मान लो कि फिर से एक सरकारी स्कूल हो जिसमें हम पढ़ते हों। मैं किसी भी तरह तुम्हारे बारे में बात करना चाहता हूं, उतनी ही सीधी-सपाट, जितनी तुम्हें समझ में आती हैं और अच्छी लगती हैं। मान लो कि सरकारी स्कूल हो, जिसमें हम हर दो घंटे बाद साथ साथ पानी पीने जाते हों। हम बिना कुछ बोले पास पास वाली टोंटियों पर झुककर पानी पीते हों और लौट आते हों। क्लास में शोर हो रहा हो और लौटकर हम भी उसमें शामिल हो जाते हों।
नहीं, इस तरह भी नहीं। मैं तुम्हारे हाथ पर अपना हाथ रखकर क्लास के बीचों बीच बैठे रहना चाहता हूं। मैं इस दृश्य के बीच में पेड़-पत्तों-नदी या आसमान को नहीं लाना चाहता। मैं बारिश के किसी दिन की बात कर रहा हूं। लम्बी गली में पानी भर गया है। बाज़ार जल्दी बन्द हो गया है। हम साढ़े पाँच के करीब अपने अपने घरों के लिए निकलते हैं। मान लो कि हम दोनों का एक एक घर है जिसमें हम अपने अपने परिवार के साथ रहते हैं। घर होने की कल्पना से चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। आजकल दिन कुछ ऐसे हैं कि मैं ज़्यादा मुस्कुराना अफ़ॉर्ड नहीं कर सकता। तुम अफ़ॉर्ड कर सको तो जी भर कर मुस्कुराना। इतना कि तुम्हारे शहर में बाढ़ आ जाए। ...और तुम ज़्यादा काम मत किया करो। बहुत थक जाती हो।
एक अपराधबोध मेरे अन्दर के कुएँ में उतरता चला गया। उससे अगले दिन जब विकास को पेशी के लिए अदालत में ले जाया जा रहा था, उसने भागने की कोशिश की और पीठ पर पुलिस की सरकारी गोली खाकर मर गया।
पापा के मरने के बाद दीदी को लगता रहा था कि मैं उन्हें जानबूझकर वक़्त पर अस्पताल नहीं ले गया। मैंने दीदी को एक दफ़ा यह भी कहते सुना कि पापा का ठीक इलाज़ होता तो शायद वे कुछ साल और जी जाते। अप्रत्यक्ष रूप से घर में यही कहा जाता रहा कि उनकी मौत के लिए मैं और मेरा नाकारा होना ज़िम्मेदार है। उनके घर छोड़ कर चले जाने के लिए भी माँ और दीदी को मैं ही दोषी लगता था। मैंने अपने पिता को मारा है, यह आरोप वर्षों तक दिन रात मुझे मथता रहा और अंतत: मेरे व्यक्तित्व में समा गया। उस रात भी ‘ऐसा ही कुछ फिर होगा’ सोचकर – और अगले दिन ऐसा हुआ भी – मैं अन्दर आ गया। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई थी।
मैंने कहा- हमें फ़ोन ही कर देना चाहिए, चाहे जो भी हो।
वह चुप रही। मैं उठकर अपना मोबाइल फ़ोन ढूंढ़ने लगा। वह एक किताब के बीच में रखा मिला, जैसे रोमांटिक कविताओं में किताब में गुलाब के सूखे हुए फूल मिला करते हैं। जाने कब से मैंने अपना फ़ोन नहीं देखा था। दो या तीन दिन हो गए होंगे। इतने समय से कोई कॉल भी नहीं आई थी। मुझे उस क्षण लगा कि मेरी ज़िन्दगी मोबाइल फ़ोन के बिना भी चल सकती है। वह बन्द पड़ा था। उसकी बैटरी ख़त्म हो चुकी थी। अब चार्जर ढूंढ़ना था। मैंने गद्दा उठाकर झाड़ा, किताबें फिर से टटोली लेकिन वह नहीं मिला। वह दीवार से पीठ टिकाकर खड़ी थी और मेरा खोजी अभियान देख रही थी। मैंने सोचा कि इससे अच्छा होता कि चार्जर मिल जाता और फ़ोन न मिलता। फ़ोन को तो मिस्ड कॉल मारकर भी ढूंढ़ा जा सकता था। लेकिन अगले ही पल मुझे याद आया कि यह और भी बुरा होता क्योंकि वह ऑफ़ पड़ा था।
- फ्रायड सही कहता था। मैंने ही पापा को मारा है।
मैं फिर कुर्सी पर था। वह दीवार से टेक लगाए ही खड़ी थी।
- वे बीमार थे पागल। तुमने कुछ नहीं किया।
- मुझे यकीन नहीं होता। क्या तुम फिर से यह बात कह सकती हो?
वह चुप मुझे देखती रही। उनका नौकर भी मुझे ऐसे ही चुपचाप देखता रहता था। पाँच साल पहले की बात होगी। हम तब स्कूल में पढ़ते थे। वह नहीं भी होती थी, तब भी मैं उनके घर चला जाता था। उस शाम भी नौकर ने मुझे बरामदे में बिठा दिया था और बरामदे के खम्भे से टिककर उसी तरह घूरता रहा था। बाथरूम का दरवाज़ा बरामदे में खुलता था। लकड़ी का दरवाज़ा था जिसमें ऊपर की तरफ एक हाथ जितनी ज़गह छूटी हुई थी और तीन चार उंगलियों जितनी नीचे भी। लकड़ी की तख्तियों के बीच झिर्रियाँ थी। नौकर ने कहा कि मौसी नहा रही हैं। उसकी मम्मी को वह मौसी ही कहता था और शुरु के कुछ दिनों तक मैं समझता रहा था कि वह उसका मौसेरा भाई है। उसकी मम्मी अपनी बहन के ससुराल से उसे लेकर आई थी।
मैं इस तरह बैठा था कि मेरा चेहरा बाथरूम की तरफ था। यह मुझे अटपटा सा लग रहा था लेकिन अपनी ज़गह बदलने का प्रयास स्थिति की असहजता को और भी स्पष्ट बना सकता था, इसलिए मैं बैठा रहा। बाल्टी में बर्तन का डूबना और फिर शरीर पर पानी का गिरना मुझे बार बार सुनता था। बीच में चूड़ियों की खनखनाहट भी सुनाई पड़ती थी। एक चित्र दिमाग में बनता था, जिसे मैं तुरंत रबड़ से मिटा देता था। एक रुपए वाली नटराज की नकली रबड़ जो दो तीन बार मिटाते ही काली पड़ जाती थी। बर्तन एक बार हाथ से छूटकर दरवाज़े के पास आकर गिरा। दरवाज़े के नीचे वाली खाली ज़गह में से मुझे उनका हाथ दिखा, जिसने बिजली की सी चपलता से पीतल का लोटा उठा लिया। भिंडी जैसी लम्बी लम्बी गोरी उंगलियाँ। मैं तब सत्रहवें साल में था।
शाम के चार-साढ़े चार बजे होंगे। वे अक्सर इसी वक़्त नहाती थी। वे कुछ देर बाद गुलाबी नाइटी में बाहर निकली। उनके निकलने से पहले मैंने उनका कपड़े पहनना भी सुना था। मैंने नमस्ते कहा और नज़रें झुका ली। उन्होंने पूछा कि क्या मैंने पानी वानी पिया? मैंने सिर झुकाए हुए ही इनकार में गर्दन हिलाई और ‘नहीं’ कहा। उन्होंने नौकर से पानी लाने के लिए कहा और मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गई।
- अरे, ऐसे सिर झुकाकर क्यों बैठे हो..लड़कियों की तरह?
मुझे मुस्कुराते हुए मज़बूरन अपना चेहरा ऊपर को करना पड़ा। उनके गाल टमाटर की तरह सुर्ख़ थे और भीगे हुए बाल कानों के ऊपर से होकर वहाँ तक लटक रहे थे, जहाँ उनकी पेंट की जेब होती, यदि उन्होंने पेंट पहन रखी होती। मैं कुछ क्षण तक अपलक देखता रहा।
- क्या हुआ?
उन्होंने पूछा।
- कुछ नहीं।
मैंने पलकें झपकाई और मुस्कुरा दिया।
नौकर ने पानी के गिलास लाकर रख दिए और रानी साहिबा के प्रहरी की तरह वहीं खड़ा रहा।
- तुम स्कूल नहीं गए आज?
- नहीं, माँ कुछ बीमार थी। इसलिए जल्दी आ गया।
- क्या हुआ माँ को?
- वही घुटनों का दर्द। कल शाम से ही बिस्तर पर लेटी हुई हैं।
- ओह!
उनके चेहरे पर एक सॉफिस्टिकेटेड सी चिंता आई और चली गई। मैं मेज पर रखी एक महिला पत्रिका उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा।
- तुम्हारा मन न लगता हो तो दो-चार मैगज़ीन लेते जाना। यहाँ तो रद्दी में ही पड़ी फिरती हैं।
मैं कुछ कह पाता, उससे पहले ही वे उठी और अन्दर से कुछ रंगीन ज़िल्द वाली पत्रिकाएँ लाकर मेरे सामने रख दी। वे उसी पत्रिका के अलग अलग अंक थे। सबसे ऊपर गर्भावस्था विशेषांक था जिसे मैंने नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की॥
- यह रहने दो।
मेरी कोशिश असफल रही क्योंकि अगले ही क्षण उन्होंने ऊपर वाली पत्रिका उठाकर अपनी गोद में रख ली और मुस्कुराती रही।
- शानो ने बताया कि तुम कविता भी लिखते हो। भई हमें भी सुनाओ कुछ।
वे प्यार से उसे शानो कहती थी। मुझे उस पर गुस्सा आया। मैंने अपनी कविताएँ उसे इस शर्त पर पढ़वाई थी कि वह किसी से भी न कहे, अपने बगीचे में लगी रात की रानी से भी नहीं।
- नहीं...बस ऐसे ही थोड़ा बहुत लिख लेता हूं।
मैं शर्मा सा गया था। उन्होंने नौकर को सब्ज़ियाँ लाने को कह दिया। वह चला गया।
- बचने की कोशिश मत करो। अब तो कुछ सुनाना ही पड़ेगा।
उनके बोलने में अब तक किशोरियों वाली चंचलता बची हुई थी।
- मुझे याद नहीं है आंटी। फिर कभी सुना दूंगा।
- कोई बहाना नहीं चलेगा।
हारकर मुझे कविता सुनानी ही पड़ी।
- जितनी याद है, उतनी सुना देता हूं।
- ठीक है।
धूप बुलाती है मुझको
और छाँव नहीं भाती उसको
मैं दिन भर चलता जाता हूं
इस धूप में जलता जाता हूं
कोई साथी तो आ जाए
मुझको थामे, छाँव दिलाए
शीर्षक मैंने कविता सुनाने के बाद बताया। धूप-छाँव।
- वाह! बहुत अच्छा लिखते हो। तुम्हारी उम्र में मैं भी लिखती थी। सुनोगे?
- हाँ, ज़रूर।
उन दिनों अपनी प्रशंसा सुनकर मेरी खुशी छिपाए नहीं छिपती थी। वे थोड़ी और तारीफ़ करती तो मैं उनका महाकाव्य तक सुनने को तैयार हो जाता। वे कमरे में गई और एक डायरी उठा लाई। पन्ने पलटने के दौरान मैंने देखा कि बहुत सजा कर लिखा गया था। मेरी लिखावट बहुत गन्दी थी और मैंने कोई डायरी भी नहीं बना रखी थी।
उन्होंने गाकर सुनाया।
ये मेरा हुस्न तेरी चाहत का दीवाना है
हर लम्हा अपने इश्क का अफसाना है
एक पल भी मैं जी नहीं सकती तेरे बिना
यही तेरे दिल को मेरे दिल का नज़राना है
- बहुत अच्छा है...सच में बहुत अच्छा है।
वे खुश हुई।
- शुक्रिया। एक और सुनो।
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
तेरा मेरा जन्मों जन्मों का नाता है
आकर लिपट जा तू गले से मेरे
मेरे दिल का रस्ता तेरे दिल तक जाता है
- वाह! क्या बात है!
- मैं शायरी ही लिखती थी। फिर सब छूट गया। कुछ साल बाद देखना, तुम्हारा भी छूट जाएगा।
उनकी गहरी काली आँखें थी और काली पुतलियों के चारों तरफ दूध सी शुद्ध सफेदी। मेरी माँ की आँखों के आसपास सलवटें पड़ गई थी और हर समय आँखें मिंची मिंची सी लगती थी। माँ के माथे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी थी। आंटी के माथे पर तीन लटें स्टाइल से बिखरी हुई थी। माँ का पेट थोड़ा निकलने लगा था। आंटी छरहरी थी और उम्र उन्हें छू भी नहीं गई थी। माँ पौनी बाँह के ब्लाउज पहनती थी और आंटी बड़े गले के स्लीवलेस। माँ ने सिनेमाहॉल में सिर्फ़ ‘हम आपके हैं कौन’ देखी थी और आंटी हर तीसरे हफ़्ते फ़िल्म देखने जाती थी।
जब हम छोटे थे तो उनके अन्दर वाले कमरे में घर-घर खेला करते थे। मैं उनके घर आता तो कभी कभी पापा मुझे छोड़ने आ जाते। हम कमरे के एक कोने में खाट को खड़ी करते और ऊपर से चादर ढककर छत बना लेते। वह हम दोनों का तिकोना घर होता था। (चार कोनों वाला घर उसने नवदीप के साथ बसाया) वह गुड़िया लाती और मैं पत्थर के टुकड़े। वह चुन्नी लाती और मैं काजल की खाली डिबिया में चीनी। अक्सर दोपहर होती थी लेकिन उस भीतर वाले कमरे में कम रोशनी ही रहती थी। पीछे की दीवार में एक खिड़की थी जो खेतों की तरफ खुलती थी। उसी के पास वाले कोने में हम घर बनाते थे। हम अपने घर को चादर ओढ़ा रहे होते या अन्दर बैठकर गाना गा रहे होते या गुत्थमगुत्था हो रहे होते, उसी बीच कभी धीरे से कमरे के दरवाज़े की बाहर वाली साँकल चढ़ जाती थी।
चार्जर उस रात नहीं मिला।
- अगर हम कहीं टहलने निकल गए होते तो शायद विकास बच जाता।
उसने कहा। वह मेरे पीछे झुककर मेरे दोनों कन्धों पर अपने हाथ रखे हुए थी। उसने अपनी शादी की एक फ़ोटो मुझे ईमेल से भेजी थी। उसमें वह इसी तरह नवदीप के कन्धों पर हाथ रखकर खड़ी थी।
- क्या वह आदमी भी बच जाता, जिसे उसने स्टेशन पर मारा है?
- मुझे लगता है कि पुलिस को कुछ गलतफ़हमी हुई है।
- तुम उसे जानती ही कितना हो? दस मिनट या हद से हद पन्द्रह मिनट?
- मैं तुम्हें भी कितना जानती हूं? कभी कभी लगता है कि बस तीन चार मिनट...
- कभी कभी लगता है कि तुम मुझे जानने समझने की एक्टिंग कर रही हो...और कभी कभी न जानने की। जैसे सब कुछ किसी सीन की रिहर्सल है...
- तुम चाहो तो मेरे सेल से फ़ोन कर सकते हो।
मैंने नहीं चाहा। मैं जैसा चाहता था, वैसा कई बार हो जाता था। जैसे उस रात मैंने चाहा कि सुबह के ऑडिशन में उसे चुन लिया जाए और वह चुन ली गई। डेढ़ साल बाद एक ऐसा दिन भी आया, जब देश भर के पत्रकारों के पास उसका नम्बर था और मेरे पास नहीं था।
माँ थोड़ी रुढ़िवादी थी और साथ ही अपराध-कथाओं वाली पत्रिकाएँ उसे बहुत पसन्द थी। हम दोनों भाई-बहनों को वह अच्छे संस्कार देना चाहती होगी, शायद इसलिए ऐसा साहित्य हमसे छिपाकर रखा जाता था। माँ की अपनी एक अलग दुनिया बन गई थी जिसमें उसके घरेलू नुस्खे, शक, वहम और बीमारियाँ थी। वह बहुत बीमार रही, लेकिन कभी किसी डॉक्टर के पास नहीं गई। छुटपन की मेरी जितनी भी यादें हैं, उनमें वह पापा के साथ झगड़ती हुई ही नज़र आती है। वे दोनों बिना बात के ही लड़ने लगते थे। कभी कभी देर रात में उनके झगड़ने से हमारी नींद टूट जाती थी, कभी रात के खाने के वक़्त माँ पापा को थाली लाकर पकड़ाती और पापा उसे दीवार पर दे मारते। अव्वल तो पापा माँ के लिए कभी कुछ खरीदकर लाए हों, मुझे याद नहीं पड़ता और एकाध बार लाए भी तो माँ ने उन साड़ियों के बदले बर्तन खरीद लिए। माँ ने हमेशा अपने मायके से लाया हुआ कपड़ा ही पहना। पापा हम दोनों भाई-बहनों को बहुत प्यार करते थे और मैं माँ को ज़्यादा प्यार करता था। दीदी शायद पापा के ज़्यादा करीब थी। माँ में रिश्तों के प्रति एक भयावह सी तटस्थता थी और वह एक सीमा से अधिक किसी को भी अपने नज़दीक नहीं आने देती थी। अपने बच्चों को भी नहीं। गठिया ने माँ को खाट पर ला बिठाया था, लेकिन मैंने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा। पापा सहायक डाकपाल थे और उन्होंने कभी शराब नहीं पी। फिर भी हमारे घर में एक तनाव इधर उधर डोलता रहता था। वह शायद सुबह सुबह आने वाले नल के पानी में घुल गया था, जो फिटकरी डालने पर भी तली में नहीं बैठता था।
उस शाम आंटी काफ़ी देर तक अपनी शेरो-शायरी सुनाती रही। मुझे याद नहीं कि मैंने ध्यान से कुछ सुना हो। मैं पूरे समय मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रहा। अब मुझे लगता है कि वे भी यही चाहती थी। नौकर सब्ज़ियाँ लेकर आया तो उन्होंने उसे दूध लाने भेज दिया।
अपनी डायरी बन्द करके वे बोली- अब तक तुम्हारी कविताओं में तुम्हारी उम्र शामिल नहीं हुई।
- मैं समझा नहीं।
मैं हँसा। वे खनखनाकर हँसी।
- इस उम्र की एक उमंग, थोड़ी सी आशिक़ी, थोड़ी शरारतें...यह सब तो होना ही चाहिए।
मैं वाकई लड़कियों की तरह लजा गया। माँ के मुँह से मैंने कभी आशिक़ी या इससे मिलता जुलता शब्द नहीं सुना था। वे माँ से छ: साथ साल ही छोटी होंगी, लेकिन बातों से बीस साल छोटी लगती थी।
एक उम्र के बाद कुछ औरतें उस अनुभवी हिरणी की तरह हो जाती हैं जिसका शेर का शिकार करने का मन होता है तो वह शेर का शिकार करके ही छोड़ती है। इस दौरान वह इस बात का भी बख़ूबी ध्यान रखती है कि घास और जंगल को उस पर बिल्कुल भी शक़ न हो और न ही शाकाहारी समाज में उस पर जीवहत्या का आरोप लगे। कोई फँसे तो वह शेर ही हो, हिरणी नहीं।
आप जानते हैं कि हिरणी शिकार कैसे करती है? मैं बताता हूं।
उसे अविश्वसनीय रूप से बहुत सारे चुटकुले याद होते हैं। वह आपको चुटकुले सुनाने लगती है। आपको मज़ा आता है। आप हँसते जाते हैं। आपकी उम्र की लड़कियाँ आपस में तो कुछ फुसफुसाकर ही ही करके हँसती हैं और आपके साथ हमेशा बच्चियों जैसी भोली भाली बातें करती हैं, इसलिए क्रमश: और अंतरंग विषयों पर आते वे चुटकुले आपको और भी अच्छे लगते हैं। आपको पन्द्रह सोलह साल की लड़कियों पर गुस्सा भी आता है और तरस भी। जो रहस्य आपके दिमाग को दिन-रात खाए जाते थे, उन पर से हल्का हल्का पर्दा उठने लगता है। हिरणी जानती है कि कहाँ रुक जाना है, तड़पाना है और कब फिर से शुरु होना है। शुरु शुरु में आपको लगता है कि आप सिर्फ़ सुन रहे हैं और बिल्कुल पाक साफ़ हैं और जिस पल भी चाहें, मैदान छोड़कर उस मासूम सी लड़की के पास जा सकते हैं जो अपने ननिहाल गई हुई है और कल सुबह लौट आएगी। आप सोचते हैं कि यह जी टी वी देखते देखते कुछ देर के लिए फैशन टी वी देखने जैसा है और आप जब चाहें, एक बटन दबाकर जी टी वी पर लौट सकते हैं। आप भूल जाते हैं कि आप उस लड़की की माँ के साथ बैठे हैं, जो रोज़ स्कूल में आधा लंच आपको देती है, जो आपकी सबसे अच्छी दोस्त है और जिससे आप प्यार करते हैं। इसी बीच हिरणी एक चुटकुला सुनाती है, जिसमें स्कूल के ड्रेस कंपीटिशन में एक लड़की बिना कपड़ों के पूरे शरीर पर चॉकलेट मलकर पहुँच जाती है और अपने आप को टाइटल देती है- मिंट विद अ होल। आप बहुत हँसते हैं। वह बस थोड़ा सा मुस्कुराती है और पढ़ाई-लिखाई की बातें करने लगती है। वह सचमुच जानती है कि उसे कहाँ रुकना है और आप जो अपने आप को बहुत समझदार मानते हैं, कुछ भी नहीं जानते। आप अनुरोध करते हैं कि वह कुछ और सुनाए। वह पूछती है कि क्या आप कुछ देखना चाहेंगे? आप हाँ हाँ हाँ करते हैं। आप उस शाम ही दुनिया की सब गहराइयाँ छान मारने के लिए उत्सुक हैं, बेताब हैं। वह आपको अन्दर के कमरे में ले जाती है, जिसकी पिछली दीवार में खेतों की तरफ खुलने वाली खिड़की है और जिसके कोने में आपका बरसों पुराना तिकोना घर है। लेकिन आपको कुछ याद नहीं है। वह आपको चिकने पन्नों और रंगीन चित्रों वाली एक किताब निकालकर दिखाने लगती है। अब आप पूरे पागल हो जाते हैं। आपकी नसों में ख़ून की ज़गह पिघला हुआ लोहा दौड़ने लगता है। आप शेर हों या गीदड़ हों या इंसान, आपको एक गुफा की ज़रूरत महसूस होती है और उसके लिए आप उस समय कुछ भी कर सकते हैं।
एक शाम अचानक आप अपनी चेतना और विवेक पाते हैं तो देखते हैं कि आप किसी और के घर के कमरे में लगभग नंगे लेटे हैं। कमरे में अँधेरा पसर रहा है, जिसने दीवारों पर टँगे चित्रों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। आपको खिड़की से बाहर दूर तक सरसों के काले होते खेत दिखाई देते हैं। वातावरण में ऐसी बोझिल उदासी है, जिसे केवल छोटे शहरों की अप्रैल की शामों में सात बजे के आसपास महसूस किया जा सकता है। आप अँधेरे में अपना चेहरा टटोलते हैं। आपके होठों के ऊपर हल्का हल्का रोयां आपकी उंगलियों को चिढ़ाता है। आपके नाक और कान कहीं गिर गए हैं। थोड़ी सी कोशिश के बाद आप उन्हें बिस्तर के नीचे से खोज निकालते हैं और पहन लेते हैं। चले जाने से पहले आप एक बार ज़ोर से चीखना चाहते हैं। पागलपन पाली चीख या जैसे कभी कभी बच्चा जनती हुई औरतें चीखती हैं। लेकिन आप एक सभ्य समाज में रहते हैं और इसलिए अश्लील नहीं चीख सकते। आप गलियारा, दरवाज़ा, सड़क, बिजलीघर और दो-तीन गलियाँ सधे कदमों से पार करते हुए अपने घर लौट आते हैं। आकर आप चाय पीते हैं और टीवी देखते हैं।
वह मुझसे कहती है- एक क्षण होता है, जिसमें हम अपनी मासूमियत सदा के लिए खो बैठते हैं। उससे पहले हम उसके बाद के समय की चाह में भाग रहे होते हैं और उसके बाद उससे पहले के समय की चाह में। उस एक पल की खूंटी पर हमारा पूरा जीवन टिका रहता है।
- क्या तुम प्रेम में विश्वास करती हो?
- मुझे नहीं पता।
वह रुआँसी हो जाती है। हम दोनों के बीच बचपन का एक धागा है, जिस पर हमारे बूँद बूँद आँसू निरंतर तैरते हैं। वह जब भी रोती है, उसे अपने पिता की याद आती है, जो फ़ौज में थे और बिना लड़ाई के मारे गए थे। कश्मीर की किसी बर्फीली पहाड़ी पर उनका पैर फिसला था और वे सैंकड़ों फीट गहरी खाई में जा गिरे थे। वह पाकिस्तान से नफ़रत नहीं करती।
मैं पूछना चाहता हूं कि उसकी ज़िन्दगी कौनसे क्षण की खूंटी पर झूल रही है, लेकिन नहीं पूछता। वह अपनी शादी से अगली सुबह तीन दिन के लिए नवदीप के साथ नैनीताल गई थी। उसके कुछ महीनों बाद जब मैं नैनीताल गया तो मेरा किसी झील में कूदकर आत्महत्या करने का मन होता था। पर्यटन स्थल मुझे इसीलिए अच्छे नहीं लगते क्योंकि वहाँ लोग हनीमून मनाने आते हैं। मैं पहाड़ों पर पलता तो निश्चित तौर पर अपराधी बनता। यह सोचकर मुझे विकास की याद आती है। वह तो लखनऊ में पला-बढ़ा है। शायद इसीलिए अब तक उसके प्रति मेरी सहानुभूति कुछ कम हो गई है।
यह आश्चर्यजनक है कि माँ को मुझमें और पापा में से किसी एक को चुनना होता तो वह पापा को ही चुनती। जबकि मुझे लगता है कि मैं उससे पापा की अपेक्षा कहीं ज़्यादा प्यार करता था। यह बात और है कि माँ को कभी ऐसे चुनाव का मौका नहीं मिला। उसे अपने जीवन में अक्सर लम्बी बहसों के नतीज़ों की सूचना भर दे दी गई। उसे कभी विकल्प नहीं दिए गए और बड़ी बात यह है कि उसने कभी शिद्दत से ऐसा चाहा भी नहीं।
अगली शाम पापा देर से घर आए। मैं उस दिन भी स्कूल नहीं गया था और दिन भर बिस्तर पर पड़ा सोता-जागता रहा था। पापा ने कहा कि आंटी को तेज बुखार है और चूंकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं है (नौकर, नौकर ही माने जाते हैं; पुरुष या स्त्री नहीं) इसलिए वे चाहते हैं कि मैं रात में उनके यहाँ सोऊँ। बाद में मुझे लगता रहा कि ऐसा आंटी ने ही उन्हें कहा होगा। वे मुझे देखना चाहती होंगी।
मैंने इनकार कर दिया। उन दिनों पापा मेरे प्रति रूखे होते जा रहे थे। फ्रायड ने कहा है कि मूलत: हर पुरुष अपने पिता का और हर स्त्री अपनी माता की शत्रु होती है। घोर अवसाद के दिनों में बहुत बार मुझे इसका उल्टा भी सच लगा है। हालांकि मेरा बचपन बहुत लाड़-दुलार में बीता, लेकिन ज्यों ज्यों मैं बालक से पुरुष होता गया, त्यों त्यों पिता मुझसे दूर होते गए (शायद माँ भी। क्या फ्रायड ने अधूरी बात कही थी या मुझमें जो स्त्री थी, माँ की उससे शत्रुता थी?)।
मेरे मना करने पर उन्हें बहुत गुस्सा आया। यूँ तो मैं हमेशा उनके घर जाने के लिए उतावला रहता था और आज जब उन्हें ज़रूरत है तो नहीं जा रहा हूं। उन्होंने फिर से कहा कि मुझे जाना चाहिए। मैंने फिर से मना किया। दीदी रसोई में प्याज काट रही थी। माँ चुपचाप अपनी खाट पर लेटी थी जैसे कुछ भी न सुनाई देता हो। वे बहुत पुराने साल थे जब पापा बाहर से आते ही माँ को बहुत सारी बातें बताते थे। तब माँ की पसन्द की सब्ज़ियाँ भी आती थी। वे उनकी शादी के बाद के एक-दो साल ही थी, जिन्हें और बहुत् से अच्छे समयों की तरह मैं कभी नहीं देख पाया।
फिर पापा ने मुझे ख़ूब डाँटा। आखिर मुझे जाना ही पड़ा।
वह उसी सुबह अपने ननिहाल से लौटी थी। वह वैसी ही थी- मासूम, चंचल और धुली धुली बर्फ सी। मैं सीधा उसके कमरे में गया। आंटी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थी। वे उसी गुलाबी नाइटी में थी और कहीं से भी बीमार नहीं लग रही थी। वे कनखियों से मुझे देखकर मुस्कुराई। मैं सत्रह साल का पाँच फीट सात इंच का लड़का हवा में उड़ते पत्ते सा कमज़ोर हो गया और गिरते-गिरते बचा। मैंने निश्चय किया कि एक दिन आएगा, एक अच्छा सा ख़ुशनुमा दिन, जब मैं उसे सब कुछ बता दूँगा और वह मुझे अपने सीने में भींच कर छिपा लेगी और उंगलियों से मेरे बाल सहलाएगी और समझाती रहेगी कि मैं इतना बुरा नहीं हूँ। एक सचमुच का दिन होगा, जब वह कहेगी कि अब सब कुछ ठीक हो गया है और दुनिया में ऐसा कोई भी दाग नहीं, जिसे धोया न जा सके। उस दिन मैं सचमुच बहुत रोऊँगा।
- तुम ऐसे लग रहे हो, जैसे दिन भर या तो सोते रहे हो या रोते रहे हो....और तुम जानते ही हो कि रोना तो मुझे कितना नापसन्द है।
वह मेरे घुसते ही बोली। उसकी हर चीज के बारे में एक राय थी और वह उसी पर अडिग रहती थी। आपकी बाँह कटकर आपके शरीर से अलग हो गई हो और उस समय सिर्फ़ वही आपके पास हो और आप दर्द के मारे रोने लगें तो वह गुस्से में आपको अकेला पटककर भी जा सकती थी। उसे कठोरता पसन्द थी जिसे वह आत्मबल कहती थी। उसे व्यावहारिकता पसन्द थी जिसे वह समझदार संवेदनशीलता कहती थी। मेरी बदकिस्मती कि मैं उसकी पसन्द का कुछ भी न बन पाया। उसकी फ़ेवरेट काजू कतली तक नहीं।
- मैं सोता रहा सारा दिन।
- फिर ठीक है।
वह हँसी। वह अख़बारों और पत्रिकाओं में से तस्वीरें काट काटकर अपने संग्रह में चिपका रही थी। उसे करीना कपूर भी पसन्द थी। मुझे उस रात वह एक अलग दृष्टिकोण से दिखाई पड़ रही थी जिसमें उसकी माँ का पास वाले कमरे में बैठकर मुस्कुराना भी शामिल था। मैंने चेक वाली शर्ट पहन रखी थी, जिसकी बाजुएँ चढ़ी हुई थी। मैं निम्नमध्यमवर्ग के कम बोलने वाले किशोरों जैसा लगता था और शायद था भी। वह बेफ़िक्र और आधुनिक थी। गर्दन और गालों पर गिरते उसके बाल, जो गर्मियों में उसे तकलीफ़ देते थे, मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वह चार्ट पर तस्वीरें चिपकाते चिपकाते एक हाथ से आदतन उन्हें पीछे करती थी तो मैं लगभग आह भरता था।
उस रात आग लग गई। मैं उसके कमरे में सोया था। वह और आंटी टीवी वाले कमरे में सोई थी और नौकर तारों की छाँव में ऑडोमॉस लगाकर सोया था। आग टीवी वाले कमरे में लगी। बाद में अनुमान लगाया गया कि खिड़की पर लगे लकड़ी के पल्लों ने सबसे पहले आग पकड़ी, जिन्होंने परदों को जलाया और फिर मेज पर रखी लालटेन ने अपने मिट्टी के तेल की शुद्धता का परिचय देते हुए उसे और भड़का दिया। मेरी आँख तब खुली जब वे दोनों बदहवास सी इधर-उधर दौड़ रही थी और नौकर आग-आग और पानी-पानी चिल्ला रहा था।
असल में आग हम सबकी ज़िन्दगी में लग गई थी। कोई शॉर्ट सर्किट नहीं हुआ था और न ही किसी बिल्ली ने कोई मोमबत्ती गिराई थी। इसलिए सबको ऐसा लगा कि आग किसी ने जानबूझकर लगाई है। आंटी का हाथ झुलस गया था और उसके पैर की दो उंगलियाँ। आंटी ने ही पापा से कहा होगा कि उन्हें मुझ पर शक़ है। पापा ने उस बात पर तुरंत भरोसा क्यों कर लिया, यह बताने के लिए मुझे अपने बचपन में लौटना होगा।
क्या मुझे लौटना चाहिए?
शायद नहीं, लेकिन तमाम प्रतिबन्धों के बावज़ूद मैं बार बार लौटूंगा।
तब पापा की घनी मूँछें थी और उनके सारे बाल काले थे। वे मुझे गोद में उठाकर चूमते थे तो मुझे उनकी मूँछें चुभती थी। मैं तब इतना ही बड़ा था कि कभी कभी सुबह और शाम में भेद नहीं कर पाता था। मुझे एक दृश्य याद आता है, जिसमें आंटी पापा की मूँछों को छू रही हैं। एक भारी हँसी की आवाज़ मेरे कानों में गूँजती है। एक दृश्य है, जिसमें पापा मेरे हाथ में बिस्किट का पैकेट थमाकर आंटी के साथ कहीं चले गए हैं। कहाँ गए हैं, यह मुझे याद नहीं आता। एक दृश्य में मैं गुलाब के फूलों के बीच सहमा सा अकेला खड़ा हूं। यह तो हमारी फैमिली एलबम में लगी एक फ़ोटो है, लेकिन फ़ोटो को पलटकर उस दिशा का दृश्य नहीं दिखाई देता जिधर कैमरा था। उसके लिए आपको मेरी आँखों में झाँककर देखना पड़ेगा। लेकिन क्लिक की आवाज़ के साथ ही मैं आँखें बन्द कर लेता हूं और जो मैं उस क्षण देख रहा था, वह कोई भी कभी नहीं देख पाता। एक और दृश्य है, जिसमें मेरी रंगबिरंगी बॉल लुढ़कती हुई दूसरे कमरे में चली जाती है। मैं उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। मेरे कमरे में घुसते ही आंटी हड़बड़ाकर पलंग से उठकर खड़ी हो जाती हैं। पापा पलंग पर ही बैठे हैं। मैं बॉल निकालने के लिए तेजी से पलंग के नीचे घुस जाता हूँ। बॉल के पास एक सफेद रंग का छोटा जालीदार कपड़ा गिरा पड़ा है, जिसकी एक तनी बॉल को छू रही है।
आग पर जल्दी ही काबू पा लिया गया था। आंटी के हाथ और उसके पैर पर जलने के स्थायी दाग के अलावा कोई बड़ा नुक्सान नहीं हुआ। पापा ने दोपहर को घर लौटते ही मुझे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा और एक बैग में अपने कपड़े भरकर आंटी के घर चले गए। उसके बाद वे कभी घर नहीं लौटे। माँ ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और कुछ महीनों बाद उनका तलाक़ भी आसानी से हो गया। दीदी ने माँ के पास रहना ही चुना। मैं कुछ नहीं बोला और उनके साथ ही रहा। हालांकि मुझे पूरा विश्वास है कि माँ को चुनने का मौका दिया जाता तो हम दोनों की बजाय वह पापा को ही चुनती।
जब पापा मरे तो वे मेरे पापा नहीं थे, इसलिए दुख भी कम होना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ रस्में या दस्तख़त रिश्तों की गहराई को ज़रा भी कम या ज़्यादा कर सकते हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता और सच में ऐसा नहीं लगता तो मुझे नवदीप से उसकी शादी पर भी दुखी नहीं होना चाहिए था। किंतु ऐसा भी नहीं हुआ। मैं ख़ुद अपनी मान्यताएँ और सिद्धांत नहीं जानता था। मुझे मौत पर भी दुख होता था और शादी पर भी।
हमारे परिवार का विघटन हम सबके लिए पूरी तरह अनापेक्षित नहीं था, लेकिन उसके होने का ढंग चौंका देने वाला था। उसका माध्यम भी मैं ही बना। पापा ने जैसे सिद्ध कर दिया कि आग मैंने ही लगाई है और उसी आग को बुझाने के लिए उन्होंने यह फ़ैसला किया है। उस एक रात के पीछे उन्होंने पन्द्रह बीस सालों तक हर रात अपना देर से लौटना छिपा कर रख दिया। साथ ही बाकी सदस्यों के लिए (दीदी और यहाँ तक कि माँ भी) उन्होंने अपने दिल में एक छोटा सा मधुर कोना हमेशा बचाकर रखा, लेकिन मुझसे वे कभी नहीं बोले। तब भी नहीं, जब उसकी शादी रुकवाने के लिए मैं तीन घंटे तक उनके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाता रहा। उन पर कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा। पहले वे अपने दफ़्तर की फाइलें देखते रहे, फिर आंटी के साथ बैठकर खाना खाया और फिर अख़बार पढ़ने लगे। उन्होंने मुझे डाँटने तक के लिए अपनी जुबान नहीं हिलाई। आंटी ने ज़रूर मुस्कुराकर एक बार खाने के लिए पूछा। वे मुझसे ऐसा बर्ताव कर रहे थे जैसे मैं उनका जन्मों पुराना दुश्मन हूं। वे ही हमारे रिश्ते को पिता-पुत्र के रिश्ते से उठाकर बराबरी के से रिश्ते पर ले आए थे, जिसमें एक दूसरे को क्रूरता से चोट पहुँचाई जा सकती थी और दूसरे को पीड़ा से कराहते देखकर हँसा जा सकता था।
स्कूल के हमारे आखिरी दिनों में, जब मेरे पिता उसके पिता जैसे कुछ हो गए थे, वह भी मुझसे कटी कटी रहने लगी थी। हम दोनों ही बहुत कम स्कूल जाते थे और आसपास के लड़के-लड़कियों की तीखी नज़रों से अनजान बनने का नाटक करते हुए अपनी सीट पर चुपचाप बैठे रहते थे। एक दिन पानी पीकर लौटते हुए उसने कहा कि वह चाहती है कि उसकी शादी ज़ल्द से ज़ल्द हो जाए।
मैंने कहा- तुम पढ़ने के बहाने भी तो इस घर से दूर जा सकती हो।
उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसकी शादी की रात मैं हारे हुए बाकी लड़कों की तरह दिल्ली भाग आया। दिल्ली की वह मुलाक़ात हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी। उसके बाद बहुत दिनों तक मुझे लगता रहा कि वह अज्ञेय की कोई किताब मुझे डाक से भेजेगी, लेकिन कुछ नहीं आया। ब्लेड या काँटे तक नहीं।
एक समय है, शेरो शायरी वाली शाम में नौकर के दूध लाने चले जाने के बाद का समय, जिसमें एक कमरा मेरे चारों तरफ चक्कर काटती हुई धरती की तरह घूम रहा है और मैं उस समय का सूर्य हूँ। स्मृतियाँ, कल्पनाएँ, डर और पश्चाताप- सब जुड़कर गड्डमड्ड हो जाते हैं। मैं सूरज हूँ और खिड़की के उस पार गहरा अँधेरा है, जिसे मैं मिटा नहीं सकता। जब घूमते हुए कमरे की वह सरियों वाली खिड़की मेरे सामने आती है तो अँधेरे में कुछ चमकता है। जैसे किसी लड़की ने पीले फूलों की कढ़ाई वाला हरा सूट पहन रखा हो और वह बस एक क्षण को दिखी हो और छिप गई हो। हो सकता है कि सड़क पर से गुजरते किसी वाहन की रोशनी सरसों के खेतों पर पड़ी हो और मुझे भ्रम ही हुआ हो, लेकिन वही एक क्षण है जो मेरा अतीत और भविष्य है। मैंने उसी नक्षत्र में जन्म लिया है और उसी में मर गया हूँ।
मेरे पास उसकी एक तस्वीर है जो उसने किसी मन्दिर के बरामदे में खड़े होकर खिंचवाई है। उसके पीछे पहाड़ हैं और उसने माथे पर लाल टीका लगा रखा है। वह उस समय भी मुझसे थोड़ी सी लम्बी होगी। वह ख़ुश लग रही है। मैं शीशा उठाकर अपना चेहरा देखता हूँ। अगर मेरे माथे पर भी लाल टीका होता...होता क्या, अभी लगाकर देखा जा सकता है। मैं ढूंढ़ता हूँ...कमरे में उथल पुथल मचाता हुआ...लेकिन मेरे कमरे में मेरे ख़ून के सिवा कुछ भी लाल नहीं होगा। अगले ही मिनट मेरी उंगली में गलती से चाकू चुभ जाता है। अब मैं माथे पर लाल टीका लगा लेता हूँ। उसकी आँखों पर चश्मा नहीं है। मैं भी अपना चश्मा उतार देता हूँ। यदि मेरे चेहरे पर भी थोड़ी ख़ुशी झलके...नहीं, उससे पहले मुझे दाढ़ी बनानी होगी। वह मेरा इकलौता ब्लेड है, जिससे मैं दाढ़ी बनाता हूं। अब मैं चेहरा धोता हूँ, इस तरह बचता हुआ कि माथे का टीका न धुल जाए। मैं चेहरा पोंछता हूँ और फिर शीशा उठाकर देखता हूँ। अब मैं अपने होठों पर थोड़ी सी ख़ुशी भी ला सकूँ तो क्या मैं उस जैसा दिखूँगा? क्या हम दोनों की नाक का पैनापन और घनी घनी भौंहें एक जैसी हैं?
क्या ऐसा हो सकता है? क्या ऐसा हुआ होगा?
कहानीकार- गौरव सोलंकी
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14 कहानीप्रेमियों का कहना है :
शीर्षक जितना आकर्षक है उतनी कहानी आकर्षक है. अंत तक कौतुहल बना रहता है
time pass article he
Any
फिलहाल मैं आपकी इस कहानी पर जल्दी में comment कर रहा हूँ और इतना ही कह सकता हूँ कि कहानी अच्छी है. क्या अच्छा है. यह मैं कहानी को दोबारा पढ़कर फिर से comment करूँगा तो बताऊंगा.
अनिनिमस जी मैं आप से इतना ही कहता हूँ कि इस तरह लुका छुपी करने से आपका का नाम तो छुप सकता है लेकिन मानसिकता नहीं. अगर कुछ ठीक नहीं लगा तो खुलकर शालीन शब्दों में कहें.
अच्छी कहानी है, गौरव के पास शब्दों का अधाह भंडार है जिनहें वे अपनी कल्पना शक्ति की सहायता से लगभग एक तिलिस्म की तरह छोटी छोटी घटनाओं को कहानी का रुप देते चलते है और अंत तक कहानी की लय को टूटनें नहीं देते।
बढ़िया रचना
आपकी लिखी कहानी हलके से नहीं पढ़ सकते ....इसमें ध्यान लगाना पड़ता है...मुझे कहानी पसंद आई
bahut din baad aisi kahani padhi jo kab ki padhi aur abhi tak saath hai. kehna to bahut kuchh chahta hoon bhasha ki baazigari par,kathya par aur andaze bayan par par kahunga sirf ek shabd----
ADBHUT
बहुत बहुत बढ़िया कहानी लगी. मुझे फिर वही बात नज़र आई. जो मैंने आपकी पिछली कहानियों में देखी है. शब्दों को बहुत अच्छी तरह से पिरोया गया है.
Gaurav jee apko bahut bahut badhai .....apki kahani se lagta hai ki aapne bahut observe kiya hai sahitya ko ....thanx for such a good language ....is kahani ka kathya kuch bhi nahi hai aur bhasha ne ise special bana diya hai ....bahut damdaar
Gaurav aapki kahaniyon mein ek kashish hoti hai, jo ant tak baand ke rakhti hai, kahani bahut lambi hai, par itni khoobsurat hai ki bas ise kahin bhi chhodne ka man nahi hua.
kuch baatein kahani mein bahut acchi lagi. jaise
"हम बहुत देर तक ऐसे हँसते रहे थे जैसे कोई हफ़्तों का भूखा देर तक खाना खाता रहे।"
‘लौट जाना’ मुझे ‘रोना’ का पर्यायवाची लगता है। जब भी कोई मुझसे मिलने आता है, मैं यह सोचकर काँप जाता हूं कि कुछ देर या कुछ दिन बाद वह वापस चला जाएगा
माँ कहती थी कि लड़कियों को कभी प्रेम नहीं करना चाहिए।
- क्यों?
- प्रेम उन्हें निष्ठुर बना देता है।
- और लड़कों को?
- लड़कों के बारे में माँ कुछ नहीं कहती थी – मैं रुका – लेकिन मुझे लगता है कि प्रेम लड़कों को असहाय बनाता है...और साथ ही हिंसक भी।
एक समय है, शेरो शायरी वाली शाम में नौकर के दूध लाने चले जाने के बाद का समय, जिसमें एक कमरा मेरे चारों तरफ चक्कर काटती हुई धरती की तरह घूम रहा है और मैं उस समय का सूर्य हूँ। स्मृतियाँ, कल्पनाएँ, डर और पश्चाताप- सब जुड़कर गड्डमड्ड हो जाते हैं। मैं सूरज हूँ और खिड़की के उस पार गहरा अँधेरा है, जिसे मैं मिटा नहीं सकता।
kalpana ki behtareen udaan aur shabdon ka umda chayan, kahani ki khoobsurati ko chaar chaand lagate hain.
upar quote ki gai lines aisi hain jo kaafi lambe antaral tak shayad smriti se na hatein, लौट जाना’ मुझे ‘रोना’ का पर्यायवाची लगता है। aur yeh to shayad kabhi nahi. shabdon ka bahut khoobsurati se prayog kiya hai, aapki har kahani ki tarah yeh bhi lajawaab rahi.
badhai.
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Regards
-Deep
gaurav ji kahani bahut achhi thi bas ye bata de ki ye yathharthh hai ya phir aapki kalpana sakti ki ek upaj waise bahut achhi thi
VIJAY
one of my friend referred me to read your articles, this story is good but don't you think that some or other way unnecessarily you stretched the story or other way round you stretched the family background of male character . Altogether it is good one
ऊन के धागों की तरह बुने दीखते रिश्तों के जाले, मन के गुढतम तहों की वीरानी रचते है| शिल्प का अदभुत प्रयोग ही दरसअल ये कहानी कहने का माद्दा रखता है| हालाँकि शब्दों का बेहतरीन प्रयोग शुरू में जैसी उठान लेता है, बाद में ढीला पड़ गया है, फिर भी कथ्य अपना आकार ले लेती है... मुझे कथ्य से राॅबीन शाॅ पुष्प (यहाँ चाहने से क्या होता है|) याद आते है तो कही-कही कथ्य और शिल्प मिलकर कुणाल सिंह (एक साइकिल कहानी)की याद दिलाते है|
कहानी गौरव सोलंकी से गंभीर उम्मीद और भरोसा जगाती है|
पढकर अंदर का पाठक तृप्त हुआ, इसके लिए हिन्दयुग्म और लेखक दोनों को साधुवाद|
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