Tuesday, April 21, 2009

बेहया- मनोज कुमार पाण्डेय की पहली कहानी

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार के माध्यम से प्रतिवर्ष कुछ नये रचनाकारों का प्रथम रचना-संग्रह प्रकाशित करता है। यह पुरस्कार गद्य व पद्य दोनों विधाओं में दिया जाता है। हम लम्बे समय से इस कोशिश में हैं कि इंटरनेट के पाठकों तक नवीन साहित्य-सृजन के उल्लेखनीय अध्याय पहुँच पायें। पद्य वर्ग में 7 संग्रह प्रकाशित हुए। जिसमें से आप इन दिनों हरे प्रकाश उपाध्याय के पहले कविता-संग्रह 'खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ' की चुनी हुई कविताएँ पढ़ रहे हैं। गद्य वर्ग में वर्ष 2008 के लिए 6 कहानी संग्रहों का प्रकाशन ज्ञानपीठ की ओर से किया गया। जिसमें विमल चंद्र पाण्डेय का कथा-संग्रह 'डर' को रु 50 हज़ार का नगद इनाम भी मिला। इस संग्रह की 12 कहानियों में से हमने आपको 11 कहानियाँ पढ़वा दी हैं। एक कहानी संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' हिन्द-युग्म के पंकज सुबीर का भी आया। इसकी भी दो कहानियाँ आप पढ़ और सुन भी चुके हैं। आज से हम तीसरे कहानी-संग्रह 'शहतूत' की कहानियों का प्रकाशन आरम्भ कर रहे हैं। यह युवा कहानीकार मनोज कुमार पाण्डेय का संग्रह है। आज पढ़ते हैं, पहली कहानी 'बेहया'-



बेहया


चित्र साभार- नितीश प्रियदर्शी
इधर बहुत दिनों बाद गांव लौटा हूँ। मेरे लिए गांव आने का मतलब है अपने बचपन में लौटना। बचपन, जहाँ अम्मा हैं, बाबू हैं, दीदी हैं, घर के बगल की गड़ही है, गड़ही में बेहया की हरी-भरी झाड़ी, झाड़ी किनारे डंडा लिए खड़ी आजी और उनके सामने थर-थर काँपता हुआ मैं। बचपन की सारी छवियां एक तरफ, और आजी की यह छवि दूसरी तरफ, आजी की यह छवि सब छवियों पर भारी पड़ती है।
कितना अच्छा लगता है जब कहीं किसी लेखक की स्वीकृति पढ़ता हूँ कि मैंने तो कहानी कहना अपनी दादी से सीखा। मैंने तो कहानी कहना अपनी नानी से सीखा। काश! मैं भी ऐसा कह सकता, पर मेरे बचपन में कहानियां थीं ही कहाँ, वहाँ तो कहानियों की जगह आजी के डंडे थे। बात-बात पर हमारी पीठ पर बरसते हुये। आज जब मैं आपसे अपनी बात कहने बैठा हूं तो सोचता हूं पहले इन डंडों के ऋण से ही मुक्त हो लूँ, नहीं तो न जाने कब तक यह मुझे परेशान करते रहेंगे।
मैं गड़ही के बगल में बैठा हूं। गड़ही में मुँह तक पानी भरा है। पानी में मछलियां फुदक रही हैं । अब गड़ही का पानी गर्मियों में भी नहीं सूखता होगा। शिवमूरत चाचा इसे फिर से भर देते होंगे। पर अभी पिछले साल तक इसमें मछली नहीं, बेहया था। गड़ही का पानी बरसात खत्म होते ही सूखने लगता था। तब गड़ही बेहया से भर जाती थी। बेहया से जो जगह बचती उसे हम भर देते। हम माने दीदी और मैं। हम वहाँ होते अपने अनोखे एकांत के साथ। हमारे चारों ओर होती बेहया की बड़ी-बड़ी पत्तियां, लाऊडस्पीकर जैसी बनावट के हल्के बैंगनी आभा लिए फूल। सब मिलाकर एक खूबसूरत झुरमुट। एक मुलायम हरी-भरी झाड़ी।
गर्मियों में हमारे छुपने की एकमात्र जगह यही मुलायम हरी-भरी झाड़ी होती। नीचे एक जाल-सा बुन गया था टहनियों का। हम उस पर लेटते, बैठते, खेलते, झूलते और जब पकड़े जाते तो यही टहनियां पड़तीं हमारी पीठ पर। सटाक-सटाक-सटाक। हमें कई बार लगता कि साला बेहया हमसे बदला ले रहा है अपने ऊपर उछलकूद मचाने का। पर हम थे कि अगला मौका मिलते ही फिर वहीं पहुँच जाते। उसी झुरमुट में। आजी कहती बेहया के बीच रह-रहकर हम भी बेहया हो गये हैं।
अम्मा, आजी को कभी फूटी आंख भी नहीं सुहाई। दीदी बताती पहले वह जब मर्जी होती अम्मा को पीट देतीं। पर एक बार जब ऐसे ही मौके पर बाबू, अम्मा और आजी के बीच में खड़े हो गये, तब से अम्मा तो मार खाने से बच गईं पर आजी ने जल्दी ही उन्हें प्रताड़ित करने का नया तरीका खोज निकाला अब आजी के निशाने पर दीदी और मैं आ गये। आजी हमें बुरी तरह पीटतीं और अम्मा पिटने से बचकर भी तड़पतीं। या फिर यह भी तो हो सकता है कि आजी हममें भी अम्मा को ही देखती रही हों। हमारे पिटने पर बाबू कुछ भी न कहते। उन्हें लगता इतना तो आजी का हक बनता ही था।
गर्मियों के दिन थे। मेरे स्कूल में रोज मलाईबरफ वाला भोंपू बजाता हुआ आता। मैं रोज-रोज रंगीन बरफ का जादू अपने दोस्तों के मुंह में घुलता हुआ देखता। मेरे मुंह मे पानी आ जाता कि ये जादू किसी भी तरह मेरे मुंह में घुल जाये। बस। बाबू या आजी से तो पैसे मांग नही सकता था और अम्मा के पास कभी पैसे होते ही नहीं थे। आजी के पास एक गुल्लक था। गुल्लक में थे बहुत सारे सिक्के। एक दिन मैंने चुपके से आजी की गुल्लक में से एक सिक्का निकाल लिया और फिर रोज-रोज रंगीन बरफ का ये जादू मेरे मुंह में भी घुलने लगा। अब मैं मलाई चाटता और मेरे दोस्त मुझे ललचाई नजरों से देखा करते। कभी पैसा खर्च हो जाने से बच जाता तो स्कूल से आते ही मैं बेहया की हरी-भरी झुरमुट के बीच घुस जाता और निकलता तो खाली हाथ।
आजी को एक दिन पता चल ही गया। फिर तो आजी खूब चिल्लाई। आय-हाय, आय-हाय कुलघाती-सटाक। सुअर के मूत- सटाक। नासपीटे धमसागाड़े-सटाक-सटाक। बस और भी खूब गालियां और खूब मार। पर आजी को अभी संतोष कहां हुआ था ! उनकी गुल्लक में चोरी उनकी निगाह में उनके आतंकी अनुशासन को चुनौती थी। आजी ने उस दिन खाना नहीं खाया। बाबू रात में आये तो आजी ने आते ही उनसे सारी बातें नमक-मिर्च लगाकर बता दी। बाबू ने मुझे पास बुलाया और पूछा कि मैंने पैसे का क्या किया? मैं कुछ नहीं बोला। बाबू ने दुबारा पूछा पैसे का क्या किया? मैंने जवाब दिया, मलाईबरफ खाई। फिर तो मैं खूब धुना गया। यहाँ कटा, वहाँ फटा। यहाँ सूजन, वहाँ दर्द। बाबू बार-बार चिल्ला रहे थे, और चोरी करोगे हूँऽ, मलाईबरफ खाओगे हूँऽ, लो खाओ और खाओ। बाबू के मोटे-मोटे मजबूत हाथ ऊपर पड़ते तो लगता कि चीख के साथ जान ही निकल जायेगी। इस चीख के साथ आंसू कभी नहीं निकले। रोना कभी नहीं आया। रोना तो आया दूसरे दिन जब मैं झाड़ियों में छुपाये हुए पैसे इकट्ठा कर रहा था।
पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था कि अम्मा डाँट भी देती तो मैं रोने लगता। दीदी से झगड़ा होता और दीदी कभी मार-वार देती तो मैं रोने लगता। भले ही दीदी को मैं भी पीट देता, पर रोता फिर भी। दीदी मुझे बैठकर बड़ी देर तक दुलारती-मनाती, पर आजी या बाबू के मारने पर चीखें निकलती, जिस्म पर यहां-वहां स्याह निशान उभर आते। कपड़ों सहित पूरा शरीर धूल-धूसरित हो जाता पर आंसू थे कि आते ही नहीं थे। बाबू-आजी थे कि इसे भी मेरी ढिठाई समझ लेते और मुझे और मार पड़ती। मैं आज तक नहीं समझ पाता कि मैं जो बात-बात पर रो पड़ता था, बाबू-आजी से इतनी मार खाकर भी कभी क्यों नहीं रोया। मेरे आंसू आखिर कहाँ गायब हो जाते थे। गायब भी हो जाते थे तो अगली बार दीदी या अम्मा के सामने फिर कैसे निकल आते थे, इतने आंसू कि कभी दीदी चाहती तो लोटा भर लेती। पता नहीं इन आंसुओं का भी क्या जादू था।
हमारा स्कूल घर के पास ही था और स्कूल के पांड़े पंडितजी का घर हमारे खेत के पास। वे अक्सर हमारे घर आ जाते तो आजी दुनिया-जहान की बातों के साथ-साथ हमारी शिकायतों का पुलिंदा भी खोल देतीं। आजी उन्हें बार-बार बतातीं कि हमारी हड्डी तो आजी की थी पर चमड़ा पांडे़ पंडितजी का। पांड़े पंडितजी के लिए इतना इशारा काफी होता और वे हमारा चमड़ा काट देते। आखिर उनको हमारे यहां रोज-रोज बैठना जो होता। दुनिया भर की सही-झूठ बातें करनी होतीं। सुर्ती-सुपाड़ी खानी होती और क्यारियों से हरी सब्जियाँ ले जानी होती। ऊपर से तुर्रा यह कि उनके लिए बेहया की टहनियां भी मुझे ही ले जानी होती। वे मुझे दिन भर पीटने का बहाना ढूंढ़ते रहते। मैं लगभग रोज पिटता पर आंसू वहां भी कभी नहीं आते थे।
इतने दिन बीत गये। पांड़े पंडितजी अभी भी वहीं पर हैं। हेडमास्टर हो गये हैं। अभी कल बाबू मेरे छुटके भाई अन्नू की शिकायत कर रहे थे कि कैसे उसने एक दिन पांडे़ पंडितजी की कुर्सी पलट दी और डंडा छीनकर भाग आया। मुझे हँसी आ गयी। मुझे अन्नू पर बहुत सारा लाड़ आया। क्या हुआ जो घर आकर उसे मार पड़ी होगी! क्या हुआ जो स्कूल में पांड़े पंडितजी ने मारा होगा। अन्नू ने खड़े रहकर पिटाई तो नहीं सही थी। मैं तो ऐसा करने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। कौन कहता है कि दिन बदलते नहीं हैं दिन जरूर बदलते हैं, बल्कि बदल रहे हैं, नहीं तो मजाल होती अन्नू की कि पांड़े पंडितजी की कुर्सी पलट दे।
पिछले दिनों बाबू मेरे लिए जो भी चिट्ठियां लिखते, सब में अन्नू की बदमाशियों का जिक्र होता। जब से मैं यहां आया बाबू कई बार मुझसे कह चुके हैं कि मैं अन्नू को थोड़ा समझाने की कोशिश करूं। बाबू को क्या पता कि जब मैं अन्नू की बदमाशियों के बारे में पढ़ता हूँ या सुनता हूं तो मेरे अंदर कैसी खुशी होती है। यही सब शरारतें और बदमाशियां तो मैं करना चाह रहा था अपने बचपन में, पर आजी के.........। अन्नू को देखना दरअसल अपने ही बदले हुए बचपन को देखना होता है। मैं अन्नू को अपने पास बुलाता हूँ और उसका गाल चूम लेता हूँ। इस अनायास प्यार से पहले तो वह सकुचाता है, फिर हँसने लगता है। कितनी प्यारी और निडर है उसकी हँसी। मैं उसके बिखरे हुए बालों को और बिखेर देता हूँ और कहता हूँ कि जाओ खेलो।
दरअसल अन्नू को कुछ सहूलियतें अपने आप ही मिल गई हैं। आजी के शरीर में अब पहले जैसा दम रहा नहीं कि दौड़ाकर पकड़ लें। आजी तो अब बैठे-बैठे अम्मा, बाबू, अन्नू सब पर बड़बड़ाती रहती हैं और भगवान से बार-बार अपने आपको उठा लेने की विनती करती रहती हैं। बुढ़ापे में कष्ट भला किसे नहीं होता पर आजी का सबसे बड़ा कष्ट यह है कि अब सब अपने मन की करते हैं, आजी से कुछ पूछा नहीं जाता। रहे पांड़े पंडितजी, तो उन्हें बच्चों को पीटने के लिए टहनियां ही कहां मिलती होंगी और अब भला हाथों को कौन कष्ट दे। इस गड़ही में तो बेहया बचा नहीं। शिवमूरत चाचा ने इसमें मछलियां पाल लीं। आसपास भी जहां बेहया होता था, वहां अब खेत बन गये हैं। धीरे-धीरे बेहया लोगों के मन से भी साफ हो जायेगा और तब बेहया होने की उपमा मिलनी बंद तो अभी तो बेहया बिल्कुल साफ, पर कल अगर बेहया की पत्तियों या फूलों में से कोई दवा ही निकल आये तब?
ऐसा भी नहीं है की बिल्कुल बेकार की चीज है बेहया। बाबा जिन्दा थे तो बेहया की मोटी-पतली टहनियां काट कर लाते और हंसिये से चीरकर धूप में सुखाने के लिए रख देते। यही बेहया चूल्हे में जलता और हम रोटी खाते। बाद के दिनों में जब हम गाय-भैंस लेकर चराने थोड़ा दूर निकल जाते तो यही बेहया हमारे लिए हॉकी की छड़ी बन जाता। मुझसे छोटा झुन्नू बेहया की इन्हीं सीधी-सादी टहनियों से कुएं के पास की नाली पर पुल बनाता। हम कभी गिर-पड़ जाते या आजी कभी ज्यादा ही पीट देतीं तो इसी बेहया के पत्ते हमारी सिंकाई में काम आते। एक अकेले बेहया की इतनी उपयोगिता कम तो नहीं थी, कि उसे इस तरह से साफ कर दिया जाय कि उसके लिए कहीं जगह ही न बचे।
जब बेहया था तो उसकी झुरमुट में हम गर्मियों में कच्चे आम सबसे छुप-छुपाकर पकने के लिए रख आते। दीदी, मैं और बाद में झुन्नू भी, उसमें छुपमछुपाई खेलते और हमारे साथ खेलती जलमुर्गी, बनमुर्गी, गौरैया, बुलबुल। इसी झुरमुट में दबे पांव बिल्ली आतीं, गिलहरी और चिड़ियों की तलाश में। आजी भी जब हमारी तलाश में आतीं तो दबे पांव ही आतीं।
गर्मियों में जब इस झुरमुट में मधुमक्खियां होतीं तो कई बार मैं चुपके से कटोरा और कंडी की आग लेकर उसमें घुस जाता और अपने लिए थोड़ी सी शहद निकाल लाता। जितनी शहद कटोरे में होती उसकी दुगुनी जमीन पर। पर मेरे लिए यह बहुत होती और दीदी को ललचाने के लिए भी। दीदी को मधुमक्खियों से जितना डर लगता शहद उतनी ही अच्छी लगती। शहद का लालच देकर दीदी से कोई बात मनवाई जा सकती थी।
एक बार जब मैं अकेले ही अपने छुपाये हुए आम ढूंढ़ रहा था, देखा आजी मुझे ढूंढती हुई इधर-उधर ताक रही हैं। मैं उनकी निगाहों में आने से बचता हुआ धीरे-धीरे पीछे की तरफ खिसक रहा था कि अचानक आजी ने देख लिया और मेरी तरफ बढ़ती हुई चिल्लाई-निकल बाहर, अभी बताती हूँ। मैं घबराकर भागने के लिए पीछे पलटा और पीली ततैयों के एक छत्ते से टकरा गया। ततैयों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया और डंक पर डंक मारने लगीं। मैं चिल्लाते हुए बाहर भागा। जब तक मैं गिरते-पड़ते बाहर आया, ततैयों के डंक के लाल-लाल निशान पूरे शरीर पर उभर आये थे। आजी बाहर डंडा लिए खड़ी थीं और मेरे ऊपर चिल्ला रहीं थीं। कुछ ततैयों ने उन्हें भी काट खाया था। मेरे बाहर निकलने भर की देर थी और आजी ने मेरे शरीर पर उभरे हुये निशानों को अपने डंडे से आपस में जोड़ दिया।
मेरा पूरा शरीर डंक और डंडे के जोर से सूज गया और इस बुरी तरह जकड़ गया कि मैं हाथ-पांव भी नहीं हिला पा रहा था। दर्द इतना था कि शरीर दर्द का समन्दर बन गया था ओर एक के बाद एक टीसती हुई लहरें उठ रहीं थीं। पर रोना तब भी नहीं आया। रोना तो तब आया जब अम्मा रात में कोठरी बंद कर गगरी के पानी से सिंकाई कर रही थीं। अचानक मुझे इतना रोना आया कि मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। अम्मा ने चुप-चुप करते हुए मुझे अपने आंचल में छुपा लिया। मेरा रोना था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। अम्मा मुझे चुप-चुप, चुप मेरे लाल करते हुये खुद सिसकने लगी। अम्मा सिसक रही थीं। अम्मा सिकाई कर रही थी। अम्मा दर्द कम करने के लिए मेरा पोर-पोर चूम रही थीं कि बाबू आ गये।
ऐसा पहली बार हुआ था कि बाबू सामने थे और मेरा रोना नहीं थमा। ऐसा भी पहली ही बार हुआ था कि बाबू ने मुझे प्यार से छुआ-सहलाया। पता नहीं क्यों मैं और जोर-जोर से रोने लगा। जैसे अंदर आंसुओं का कोई बांध था जो तेज आवाज के साथ टूट गया था। बाबू अचकचा से गये। उन्होंने मुझे अपने से चिपका लिया और जीवन में पहली बार मैंने बाबू के हथौड़े जैसे उन हाथों की कोमलता को महसूस किया जो गुस्से में मेरी पीठ पर पड़ते तो मेरी चीख से आस-पास की हवा तक कांप उठती। जब मेरा रोना थमा और हिचकियों के साथ मैंने अपना सिर ऊपर उठाया तो मुझे बाबू की आंखें नम दिखीं। शायद मेरे ही थोड़े से आंसू बाबू की आंखों में पहुंच गए हों या फिर यह मेरा भ्रम ही रहा हो, पर उस दिन के पहले मैं सोच भी नहीं सकता था कि बाबू की आंखें मेरे लिए भी नम हो सकती हैं। यह जादू जाने कैसे उस रात हो गया था। उससे भी बड़ा जादू यह हुआ कि उस रात के बाद बाबू ने मुझे शायद ही फिर कभी मारा हो। पता नहीं यह किस बात का असर था।

आज जब गड़ही में नहीं बचा बेहया, बेहया की जगह पानी में उछलती-तैरती मछलियां हैं। मैं मछलियों को उछलते हुए देख रहा हूं। मेरे मन में बचपन की अनेक स्मृतियां मछलियों सी ही उछल रही हैं। गड़ही में बेहया कहीं नहीं है पर बिना बेहया के कोई स्मृति बनती ही नहीं। कहीं मैं इसके झुरमुट में आम छुपा रहा हूं तो कभी यही बेहया मेरे जिस्म पर बरस रहा है। आज भी जब मैं खुले बदन होता हूं तो मुझे अपने समूचे जिस्म पर आजी के डंडों के अनगिनत निशान दिखाई पड़ते हैं। मेरे देखते-देखते वे उभर आते हैं और उनमें से लहू टपकने लगता हैं। पीड़ा से मेरा जिस्म ऐंठने लगता है।
इस पीड़ा से बचने के लिए मैं अनायास ही अन्नू की बदमाशियों को अपने बचपन के साथ गड्डमड्ड कर देता हूं। मेरे चेहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है। बेहया नहीं है तो क्या हुआ अन्नू ने अपने छुपने-छुपाने के लिए कई जगहें ढूँढ़ लीं हैं। वह जब कभी मेरी तरह अपना बचपन याद करेगा तो उसके जिस्म पर लहू टपकाते निशान नहीं उभरेंगे। उसकी आंखों में मछलियां तैरेंगी। क्या पता उसे पंडितजी की कुर्सी पलट देने की हिम्मत इन मछलियों से ही मिली हो।
~*~*~
मनोज कुमार पाण्डेय

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6 कहानीप्रेमियों का कहना है :

addictionofcinema का कहना है कि -

Manoj smritiyo ka wakai bahut sadhe dhang se istemal karte hai, sundar rachna ke liye badhai-vimal c. Pandey

Divya Narmada का कहना है कि -

सशक्त कहानी...अतीत को जीवंत करते शब्द चित्र आप बीती से लगते है...साधुवाद...

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मैं भी गाँव से हूँ मनोज भाई। एक दो-बार पापा द्वारा नदी में मुर्गा-मुर्गी का खेल खेलने के ऊपर जो मार खाई है, उसपर संस्मरण लिखने की कोशिश की है। मेरे से 3-4 साल बड़ा एक लड़का था डबलू। उसके पिता उसे बहुत मारते थे। अपने पिता के सामने वह शुरू में 1-2 बार रोया भी होगा, लेकिन उसके बाद कभी नहीं रोया। माँ के सामने ज़रूर रोता था। आपने मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ बनाई है। कहानी की भाषा बहुत सरल है, एक सिरे से दूसरे सिरे पर पाठक सहज ढंग से पहुँच जाता है।

शोभना चौरे का कहना है कि -

ganv ke bchpan ka jeevant varanan kiya hai .behya ko ham besharm ki jhadi khte hai .jab bhi bas ki ya tra ke doran raste me ye jhadiya aur un par khile jamuni rang ke fool dekhti to hmesha mere man me rhta is par kuch likhu par kbhi likh nhi pai .
aaj apki khani me ise pakar sntosh sa lga .
bhut achhi khani .
dhnywad.

New door of hopes का कहना है कि -

Mr. Manoj ye kahani mere bachapan se bahut milti hai.

bahut bahut shukriya mera bachapan yad dilane ke liye

प्रज्ञा पांडेय का कहना है कि -

bahut sashakt kahani ..

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