Monday, April 27, 2009

जीनकाठी - हरनोट की प्रतिनिधि कहानी

ए. आर. हरनोट की सबसे प्रसिद्ध कहानी

एस आर हरनोट हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध कथाकार हैं। हिमाचल की ग्राम्य विरासत, वहाँ की परम्परा, खूबियों-खामियों का कहानी के माध्यम विश्लेषण किया है हरनोट ने। पिछले दिनों इनकी कहानियों पर साहित्यालोचना के शिखर पुरूष नामवर सिंह ने दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में अपने विचार प्रस्तुत किये।

उन्होंने जिस कहानी का उल्लेख अपने वक्तव्य में किया, उस कहानी को बहुत से कहानी-मर्मज्ञ हरनोट की प्रतिनिधि कहानी मानते हैं। आज हम आपके समक्ष हरनोट की वही कहानी लेकर उपस्थित हैं। इससे पहले कहानी-कलश पर एस आर हरनोट की 'बेज़ुबान दोस्त' और 'एम डॉट कॉम' कहानियाँ पढ़ चुके हैं। बेज़ुबान दोस्त का ऑडियो संस्करण भी हिन्द-युग्म के पास उपलब्ध है।


जीनकाठी


भुंडा: पहाड़ी समाज का एक विचित्र, अद्भुत और रोमांचक उत्सव। पुराने समय में इसे हर बारह वर्ष के बाद मनाए जाने की परम्परा प्रचलित थी। लेकिन पहाड़ों में आज इसके आयोजन का कई कारणों से कोई निश्चित समय नहीं रहा है। इसमें 'बेड़ा' नामक एक पर्वतीय दलित जाति की विशेष सहभागिता और महत्व होता है। इस परिवार से एक व्यक्ति का चुनाव करके उसे यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे अस्थायी रूप से ब्राह्मण बना दिया जाता है। उत्सव के दिन देवता और ईश्वर की तरह उसकी पूजा होती है। इस धर्माचार के तहत ऊंची पहाड़ी से नीचे की ओर एक लम्बा रस्सा बांध दिया जाता है। बेड़ा अपनी जान की बाजी लगाता हुआ जीनकाठी पर बैठ कर इस रस्से पर सरकता हुआ नीचे आता है।
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सहज राम उर्फ सहजू अब दलित नहीं रह गया था।

उसे ठण्डे पानी से नहलाया गया। पूजा के उपरान्त सारे संस्कार ब्राह्मणों की तरह करवाए गए विधिवत यज्ञोपवीत धारण करवाया गया। अब वह नीच जाति का न रह कर ब्राह्मणों की तरह पवित्र हो गया था। लोग उसे देवता का रूप मानने लगे थे। एकाएक अछूत से पंडित बन गया था सहजू। अब उसे विशेष विधि-विधान का पालन भी करना था जिसमें एक समय खाना खाना, नख और केश न काटना तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना इत्यादि शामिल था। भोजन और कपड़े उसे मन्दिर की तरफ से मिलने शुरू हो गए थे। यहां तक कि आयोजन की अवधि तक उसके पूरे परिवार का खर्चा भी देवता कमेटी को ही उठाना था।

भुण्डा उत्सव के लिए अब विशेष रस्से का निर्माण किया जाना था।

लोग देवता के तमाम वाद्यों के साथ एक पहाड़ी पर सहजू को लेकर मूंज का घास काटने चले गए थे। पहले सहजू ने ही दराटी से घास काटने की परम्परा का निर्वाह किया था। इसके बाद सभी गावों वालों ने घास काटना शुरू कर दिया। जब पर्याप्त मात्रा में घास काट लिया गया तो सभी ने घास की गड्डियों को मन्दिर के प्रांगण में लाकर रख दिया। इसी घास से सहजू को भुण्डा के लिए रस्सा बनाना था। उत्सव स्थल का मुआयना किया गया तो कुल लम्बाई 500 मीटर की निकली। इतना ही लम्बा रस्सा बनना था। मजबूती के लिए उसकी मोटाई लगभग 25-30 सेंटीमीटर रखनी ज़रूरी थी।

सहजू को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर नहाना पड़ता था। पूजा-पाठ के पश्चात् वह मूंज के घास से रस्सा बनाने में जुट जाता। यह कार्य अत्यन्त ही पवित्र माना जाता। उस समय कोई दूसरा व्यक्ति न उसके सामने आता और न ही बात करता था। कोई भी रस्से को छू तक नहीं सकता था। यदि भूल से किसी ने ऐसा कर लिया तो वह अपवित्र माना जाता। तत्काल उस पर एक भेड़ की बलि चढ़ाई जाती और नया रस्सा बनाना आरम्भ करना पड़ता। रस्सा बनाते हुए सहजू के मन में तरह-तरह के खयाल आते रहते। वह सोचता कि उसका जो बुजुर्ग बरसों पहले भुंडा निभाते रस्से से गिर कर मर गया था उसने भी इसी तरह तिनका-तिनका घास के रेशे से मौत को बुना होगा। वह इन्हीं ख्यालों में दिन भर खोया रहता। उसकी पत्नी दूर बैठी उसे चुपचाप निहारती रहती। कई बार निगाहें सहजू के चेहरे पर टिक जाया करती। उसके चेहरे पर आते-जाते भाव को पढ़ने की कोशिश करती। कभी वहां मौत की परछाई रेंगती दिखती तो कभी अपार सम्पन्नता की लकीरें बनती-बिगड़ती नजर आतीं। अपने खाविंद को एक दलित से बाह्मण होने के सुख को भी ह उसके चेहरे और आंखों पर तलाशने लगती। लेकिन कभी-कभी वह चेहरा अपने पति का न लग कर एक पाखंडी या करयालची का जैसा लगता जिस पर जबरन ब्राह्मण का मुखौटा चढ़ा दिया गया हो और लोगों द्वारा अपने मनोरंजन के लिए उसे 'स्वांगी' बना दिया गया हो।

जब सहजू रस्से बनाने का काम बन्द करता तो गांव के लोग उनके पास आते-जाते रहते। उनसे इज्जत से बतियाते। घास कम होता देख फिर काट कर ले आते।
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हिमाचल प्रदेश के छोटे से गाँव चनावग (शिमला) में जन्मे कहानीकार एस आर हरनोट की १० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मूलतः कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण, इतिहास और शोध आदि पर लेखन। वर्ष २००३ का अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान (कथा यू के) तथा २००७ में हिमाचल राज्य अकादमी पुरस्कार। अन्य १० प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त। कई सम्पादित कहानी संग्रहों में कहानियाँ संग्रहित। हिन्दी विश्व कहानी कोश, कथा लंदन, कथा में गाँव, १९९७ की श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ, दस्तक, समय गवाह है और हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियाँ में कहानियाँ प्रकाशित। कथादेश के कथा विशेषांक-फरवरी-२००७ '१० वर्ष एक चयन' में कहानी 'जीनकाठी' संकलित। कहानी दारोश पर दिल्ली दूरदर्शन द्वारा 'इंडियन क्लासिक्स सीरिज के तहत' फिल्म का निर्माण। फोटोग्राफी में विशेष रूचि। हिमाचल के मेलों और त्यौहारों पर शोध ग्रन्थ पर कार्य। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम, रिट्स एनैक्सी, शिमला में सहायक महा प्रबंधक (सूचना एवं प्रसार) के पद पर कार्यरत
भुण्डा जैसे महा-उत्सव का आयोजन भगवान दत शर्मा के दिमाग की उपज थी। तहसीलदार के पद से शर्मा जी कुछ दिनों पूर्व ही सेवानिवृत हुए थे।

जिस दिन वे सेवानिवृत हुए, उन्होंने अपने गांव में पूरे ताम-झाम के साथ एक बड़ी धाम दी थी। इस सहभोज के लिए सगे-सम्बन्धियों के अतिरिक्त गांव-बेड़ और परगने तक से लोग बुलाए गए थे। दफतर से तो उनके नए-पुराने साथी आए ही थे, परन्तु अपने चुनाव क्षेत्र के विधायक को भी विशेष रूप से आमन्त्रित किया था। विधायक के साथ प्रशासन के सभी अधिकारीगण पधारे थे। गांव के देवता को भी बुलाया गया था। शर्मा जी जब अपने दफतर से गांव पहुंचे तो साथ दस-पन्द्रह छोटी-बड़ी गाड़ियां थीं। अंग्रेजी बाजे के साथ ढोल-नगाड़ा बजाने वाली पार्टी को बुलाना भी नहीं भूले थे। इससे जहां उन्होंने तहसीलदारी की ठीस बरकरार रखने की कोशिश की वहां लोगों के बीच अपनी छवि को एक धार्मिक दृष्टि देने का भी प्रयास किया था।

धाम में कई प्रकार के पकवान बनाए गए थे। कई तरह की शराबें उपलब्ध थीं। पांच बकरे भी काटे गए थे। लोगों ने इससे पहले कभी ऐसा जशन नहीं देखा था। इसीलिए इस कार्यक्रम की चर्चा काफी दिनों तक होती रही। शर्मा जी ने इतना बड़ा आयोजन करके एक साथ कई निशाने साधे थे। लेकिन ये सब उनके मन की बातें थीं जिसकी वे किसी को भी भनक नहीं लगने देना चाहते थे। वे जानते थे कि जिस ठाठ से उन्होंने नौकरी की है, सेवानिवृति के बाद वह ठसक कहां रहने वाली ? सभी कुर्सी को प्रणाम करते हैं। बाद में तो कोई कुत्ता भी नहीं पूछता। बैंक-बेलैंस भले ही लाखों में हो पर जब तक कोई कुर्सी का जुगाड़ न हो तो आदमी आदमी रहता ही कहां है। वेसे भी शर्मा जी तहसीलदार के पद से रिटायर हुए थे। पैसा खूब कमाया था। इज्जत-परतीत -खासी बटोरी थी। काम लोगों के बहुत किए। ऐसा नहीं कि वे दूध के धुले हुए थे। पर पैसा इस ढंग से बनाया कि अपने ऊपर कोई आंच तक न आने दी।

अट्ठावन साल की उम्र में भी भगवान दत शर्मा चालीस के आसपास ही लगते थे। अभी भी गाल लाल थे। झुर्रियों का कहीं नामोंनिशान न था। हालांकि बाल कई बरस पहले सफेद हो चुके थे लेकिन मेंहदी से उन्हें काले किए रखते थे। माथा काफी चौड़ा था। गोल चेहरा ठोडी तक आते-आते थोड़ा नुकीला था। हल्की मूंछे उन पर खूब जंचती थी। माथे पर चंदन और कुमकुम मिश्रित टीका वे हमेशा लगाए रखते। नौकरी में उन्होंने कभी टाई और कोट पहनना नहीं छोड़ा। कोट की जेब में टाई के रंग से मिलता रूमाल वे हमेशा रखते। इसीलिए ठाठबाठ देख कर उनके वरिष्ठ अफसरों का भीतर ही भीतर फुंके रहना स्वभाविक था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना लिबास बदल लिया था। अब फेरीदार पाजामे-कुरते के साथ वे नेहरूकट सदरी पहनते और जेब में बाहर झांकता लाल रूमाल सजा रहता। इस चमक-धमक से भी उनका व्यक्तित्व कुछ अलग हटकर ही लगता था।

शर्मा जी का परिवार गांव में सबसे सम्पन्न था। वे तीन भाई थे। तीन ही गांवों के मालिक। उन्हें बड़े जमींदार भी कहा जा सकता था। अपने परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएं और तीन पोतू-पोतियां थे। दो लड़कियों की शादी हो चुकी थी। छोटा लड़का बी0डी0ओ0 लग गया था। बड़ा कत्थे का ठेकेदार था। साथ जमींदारी भी संभालता था। पानी लगती ज़मीन थी। फसलों के साथ खूब सब्जियां होती थीं जिनसे अच्छी-खासी आमदनी थी। दो क्वालिस गाड़ियों के साथ दो ट्रक भी थे। गोरखों की एक लेबर लगातार खेती-बाड़ी के काम में लगी रहतीं।
पहला काम शर्मा जी ने देवता कमेटी में घुसने का किया था। कई दिनों तक देवता के कार्यक्रमों में आते-जाते रहे। लेकिन जब कमेटी में सरपंच के चुनाव हुए तो लोगों के पास उनसे बढ़िया विकल्प कोई नहीं था। सर्वसम्मति से सरपंच चुन लिए गए। यह उनके धार्मिक जीवन की शुरूआत थी। यहीं से वे ग्राम पंचायत की प्रधानी तक जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अभी से जुगाड़ भिड़ाने शुरू कर दिए थे। शर्मा जी अब कुछ ऐसा करना चाहते थे जिससे गांव-परगने में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के इलाकों में भी उनकी साख का डंका बजना शुरू हो जाए। उनकी खूब वाह-वाह हो और विधायक तथा मुख्य मन्त्री तक खूब पहुंच भी बन सके। देवता को इसका माध्यम् बनाने की उन्होंने सोची थी।

उनका पूरा गांव ब्राह्मणों का था। पांच गोत्रों के ब्राह्मण वहां रहते थे। इसे एक प्राचीन सांस्कृतिक गांव भी माना जाता था। कालान्तर से यहां बारह बरस के अन्तराल के बाद निरन्तर भुण्डा महोत्सव मनाया जाता रहा। गांव में कई प्राचीन मन्दिर अभी भी मौजूद थे। जिनका न केवल धार्मिक बल्कि पुरातात्विक महत्व भी था। गांव में चार-पांच परिवार दलितों के थे। उन्हीं में एक परिवार ''बेड़ा'' जाति का था जो भुण्डा में मुख्य भूमिका निभाया करता। लेकिन बरसों पहले उनके परिवार का एक सदस्य भुण्डा का रस्सा टूटने से मर गया था। शर्मा जी ने अपने दादा-पड़दादाओं से इस कथा को सुन रखा था जो मन में आज भी तरोताजा थी। जब बेड़ा को जीन-काठी पर बिठा कर रस्से पर छोड़ा गया तो कुछ दूरी पर वह रूक गई। बेड़ा बेचारा न आगे खिसक पाया न पीछे। रस्से में बाट पड़ गए थे। लोगों ने दोनों ओर से बहुत प्रयत्न किए कि बेड़ा की जीन-काठी आगे खिसक जाए लेकिन सभी प्रयत्न असफल हो गए। उन्होंने जब रस्से को जोर-जोर से लकड़ी के डंडों से पीटना शुरू किया तो रस्सा टूट गया। बेड़ा कई सौ फुट नीचे चट्टानों पर गिर पड़ा और मृत्यु हो गई। उस गांव और परगने के लिए वह दिन बड़े अनिष्ट का माना गया था। उसके बाद गांव में भयंकर महामारी फैल गई। गांव की आधी से ज्यादा जनसंख्या मौत के मुंह में चली गई। इसीलिए गावों के ब्राह्मणों ने बेड़ा के परिवार के साथ दूसरे दलितों को भी गांव से भगा दिया और सारे अनिष्ट का ठीकरा उन्हीं के सिर फोड़ डाला।
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अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए शर्मा जी को इससे बेहतर और कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा था। वे जानते थे कि उस हादसे के बाद गांव में कभी भुण्डा नहीं हो पाया था। हालाकि दूसरे गांवों में कभी-कभार बीस-चौबीस बरसों के अन्तराल से ही सी यह आयोजन होता ही रहा था। अपनी तहसीलदारी के रहते उन्होंने भी कई आयोजन करवाए थे। परम्पराएं उसी तरह निभाई जाती थीं लेकिन 'बेड़ा' को जितने लम्बे रस्से पर उतारा जाता उसके नीचे उतनी ही लम्बी जाली भी बिछा दी जाती थी। बेड़ा किसी कारण गिरे भी तो उसे तत्काल बचाया जा सकता था। कई जगह 'बेड़ा' जाति का कोई व्यक्ति उपलब्ध न होने पर लोग बकरे को ही जीन-काठी पर बांध कर छोड़ते थे।

शर्मा जी ने यह बात एक दिन देवता कमेटी के सदस्यों से की। सभी को उनकी बात खूब जची थी। देवता के गूर का विचार था कि उनके गांव पर अभी तक उस अनिष्ट का साया कायम है। वह तभी मिट सकता है जब गांव में भुण्डा का आयोजन किया जाए। इससे गांव पहले जैसा सम्पन्न और खुशहाल भी हो जाएगा। लेकिन बात लाखों रूपए के व्यय की थी। आज की महंगाई में इतना बड़ा आयोजन करना नामुमकिन था। इसका समाधान भी शर्मा जी ने ही निकाल दिया था। उन्होंने तत्काल एक लाख रूपए देवता कमेटी को दान देने का वादा कर दिया। इससे सभी सदस्यों का मनोबल बढ़ गया। दूसरा विकल्प यह निकाला गया कि देवता के पास जो बरसों का सोना-चांदी पड़ा है उसे अच्छी कीमत पर बेच दिया जाए। देवता का धन यदि देवता के ही काम आए तो इसमें बुरा भी क्या.......? इस बात पर सभी की सहमति बन गई थी।

अब समस्या ''बेड़ा'' को ढूंढने की थी। गांव में किसी को भी पता नहीं था कि बरसों पहले निकाले जाने के बाद वे लोग कहां जा कर बस गए थे। शर्मा जी ने ही इसका समाधान भी निकाला था। उन्होंने बेड़ा को तलाश करने और गांव में लाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। देवता कमेटी उनकी सक्रियता को देख कर बेहद प्रभावित थी। उन्हें खूब मान-प्रतिष्ठा भी मिलनी शुरू हो गई थी। देवता से लेकर गांव-परगने के कई दूसरे छोटे-बड़े काम अब उन्हीं के सलाह-मशविरे से होने लगे थे। यह सुख शर्मा जी को तहसीलदार की कुर्सी से कहीं बढ़ कर लगने लगा था।

शर्मा जी मन ही मन बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने आयोजन की पूरी रूप-रेखा अपने मन में तैयार कर ली थी। यह भी तय कर लिया था कि प्रदेश के मुख्य मन्त्री को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाए। गांव-बेड़ में जब देवता कमेटी के निर्णय का पता चला तो लोग हैरान-परेशान हो गए। इतने बड़े आयोजन के लिए वे तैयार नहीं थे। लेकिन शर्मा जी और कमेटी के अन्य सदस्यों ने उन्हें समझा-बुझा कर मना लिया था।.......फिर इतने बड़े पुण्य से वंचित भी कौन रहना चाहता था ?

शर्मा जी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बेड़ा' परिवार तलाशने की थी। 'बेड़ा' जाति के लोग दूर-दूर तक भी अब नहीं रहे थे। भीतर की बात यह थी कि जिस परिवार को अनिष्टकारी मानकर गांव से निकाला गया था उसी के सदस्य को लाना जरूरी था। गांव के बुजुर्गों और कुल पुरोहितों का मानना था कि गांव पर उन लोगों का अभिशाप अभी तक भी बैठा है। क्योकि जो 'बेड़ा' रस्से से गिर कर मरा था उसमें उसका तो कोई दोष नहीं था। इसलिए यदि उसी परिवार का कोई रस्से पर उतरे तो दो काम सफल हो जाएंगे। पहला कलंक और शाप से छुटकारा और दूसरा भुण्डा के सफल आयोजन से पुण्य ही पुण्यका फल।

शर्मा जी गांव के एक-दो लोगों को लेकर पहले विधायक जी के पास पहुंचे और इस सन्दर्भ में बात की।

'' देखो विधायक जी! हमारे गांव में लगभग डेढ़ सौ साल बाद भुण्डा होगा। मुख्य अतिथि तो आपको मुख्य मन्त्री जी ही लाने हैं। इससे आपका भी भला और हमारे साथ गांव का भी फायदा।''

शर्मा जी ने विनम्रतापूर्वक विधायक के आगे प्रस्ताव रखा था।

विधायक जी को तत्काल कुछ नहीं सूझ रहा था। उन्होंने भी अपने बुजुर्गों से 'बेड़ा' के रस्से पर से गिरने से हुई मौत की बात सुन रखी थी। वे खुद भी दलित वर्ग से थे। उनका चुनाव-क्षेत्र आरक्षित था। सिगरेट के कश लगाते हुए काफी देर मन ही मन में बैठकें करते रहे। उनका विचार बरसों पहले घटी घटना की तरफ चला गया। उसकी आड़ में उन्होंने अपने फायदे-नुकसान का हिसाब-किताब लगाया। दलितों की वोटों की तरफ एक सरसरी नजर दौड़ाई जो उन्हें पिछले चुनाव में बहुत कम मिले थे। दूसरी सबसे बड़ी बात उन्हें इस इलैक्ट्रॉनिक युग में अपनी पुरानी परम्पराओं के साथ अपने को जोड़ने की लगी। तीसरी जो मुख्य बात समझ में आई वह थी गांव से निष्काशित 'बेड़ा' और दलित परिवारों को पुन: इस बहाने सम्मान दिलाने की थी। यह अवसर उन्हें 'ऑल इन वन' जैसा लगा।

विधायक जी ने मन में खूब जोर का एक ठहाका लगाया लेकिन उसका भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर उतारते हुए कहने लगे,

''शर्मा जी! धन्य है आप। नौकरी करते हुए भी अपनी परम्पराएं मन में बचा रखी हैं। वरना रिटायरमैंन्ट के बाद तो लोग सठिया जाते हैं। कोई तो इस गम से परेशान होकर दो साल भी नहीं निकाल पाते। आपने तो इतना बड़ा बीड़ा उठाया है। बड़ी समाज सेवा है भई। मैं तो आपके साथ हूं। मेरे लिए आप जो सेवा दें, सिर माथे।''

शर्मा जी खुश हो गए। मन में कुल देवता को नमन किया। उसी के परताप से सब शुभ हो रहा है। पर दूसरे पल कुछ चिन्ताओं की रेखाएं अनायास चेहरे पर उमड़ी तो विधायक जी ने टोक दिया,

'' कुछ परेशान दिख रहे हैं शर्मा जी ? ''

'' नहीं...नहीं विधायक जी ऐसी बात नहीं है।''

'' भई मैं आपके साथ हूं। कुछ है तो नि:संकोच बताएं। ''

साथ दूसरा व्यक्ति बैठा था। उसने पहले विधायक जी के चेहरे पर नजर दी। फिर शर्मा जी की तरफ देखा। चिन्ता का उसी ने समाधान किया था।

'' परेशानी उस बेड़ा परिवार को तलाशने की है जिन्होंने गांव छोड़ दिया था। ''

विधायक जी ने सुना तो आंखें लाल हो गईं। मन अपमान से तिलमिला गया। जैसे बरसों पहले गांव से उन्हें ही निकाला गया हो। लेकिन पल भर में सहज हो लिए।

'' उनकी फिक्र आप क्यों करते हैं शर्मा जी। कागज लाइए पता मैं बता देता हूँ।....है तो बहुत दूर। लेकिन जब आप सभी ने इतने बड़े आयोजन की ठानी है तो दूरियां कैसी। हाँ थोड़ी-बहुत मान-मनौती तो करनी ही पड़ेगी । बात भले ही बरसों पहले की है पर बेइज्जती के जख्म तो सदा हरे ही रहते हैं न।''

शर्मा जी और उनके साथ बैठे दोनों आदमी थोड़ा झेंप गए। लेकिन शर्मा जी को सूत्र मिल गया था। झट से डायरी निकाली और विधायक जी के पास पकड़ा दी। उन्होंने सदरी की जेब से पेन निकाला और पता लिख दिया।

शर्मा जी ने डायरी वापिस पकड़ी और पता पढ़ते हुए टेलीफोन शब्द पर नजर पड़ी तो चौंक गए....,

'' टेलीफोन भी है ....? ''

विधायक जी अपना आपा खोते-खोते रह गए।

'' क्यों शर्मा जी इन लोगों के पास टेलीफोन या दूसरी सुविधाएं नहीं होनी चाहिए थी। ''

बात हृदय में सुई की तरह चुभी। पर संभल गए।

'' कैसी बात करते हैं विधायक जी। मेरा इरादा कोई ऐसा-वैसा थोड़े ही था। बस देख कर खुशी से चौंक गया था कि काम और आसान हो गया। ''

'' ऐसा मत करना शर्मा जी। फोन से बात मत करना। वरना बना-बनाया खेल बिगड़ेगा। मान-सम्मान से जाना उनके पास। कठिन काम है। अब आपकी तहसीलदारी देखनी है कि कितनी काम आती है।''

शर्मा जी को विधायक जी चुनौती देते दिखे थे। लेकिन काम अपना था, चुपचाप उठे और विधायक जी को प्रणाम करके निकल आए।
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जब दलित परिवार उस गांव से निकाले गए तो वे कई दिनों भूखे-नंगे भटकते रहे थे। उन्होंने मांग-मांग कर गुजारा किया था। कई सदस्य मर भी गए। बड़ी मशक्कत के बाद एक परिवार ने उनकी मदद की और उन्हें कुछ जमीन भी दे दी। मेहनत से उन्होंने अपना एक छोटा सा गांव बसा लिया। शर्मा जी ने तो कभी उस गांव का नाम तक नहीं सुना था।

गांव लौट कर देवता कमेटी से चर्चा हुई तो सभी खुश हो गए। शर्मा जी और कमेटी के दो अन्य कारदार तत्काल 'बेड़ा' को आमन्त्रित करने चल दिए। जहां तक सड़क थी वहां तक वे लोग गाड़ी से गए थे। लेकिन वहां से लगभग सात मील का चढ़ाई वाला रास्ता ''बेड़ा'' परिवार के गांव तक पहुंचता था। शर्मा जी को पैदल चलने की कतई आदत नहीं रही थी। तहसीलदारी में तो ऐसे रास्तों के लिए पहले से ही घोड़ा उपलब्ध रहता। लेकिन इस समय तो अपने पांव से ही काम चलाना पड़ा। जैसे-कैसे शाम ढलने से पहले वे वहां पहुंचे गए थे।

उसे गांव का नाम देना शर्मा जी को बेमानी लगा था। एक घाटी की ढलान की ओट में चार-पांच घर थे। अनघड़े पत्थरों से उनकी छतें छवाई गई थी। उनमें दो-तीन घर दो मंजिला थे। लेकिन थे साफ-सुथरे। नीचे और ऊपर की तरफ छोटे-छोटे खेत थे जिनमें गेहूं और जौ की फसल लहलहा रही थी। उन घरों के आंगन से एक चौड़ा रास्ता घासणी के बीचोबीच दूसरी तरफ कहीं गुम होता दिखाई दे रहा था। एक घर के पास पहुंचते ही दो-तीन कुत्तों ने उनका स्वागत किया। लेकिन तभी एक महिला आंगन में निकली और कुत्तों को चुप करवा दिया। उसने कुछ अपनी पहाड़ी बोली में कहा था लेकिन शर्मा जी उसे नहीं समझ सके। तभी भीतर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला तो शर्मा जी ने उससे बात शुरू कर दी। वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता था। जब यहां रह रहे बेड़ा परिवार के बारे में पूछा तो उसने घासणी के मध्य से आगे निकलती पगडंडी की तरफ इशारा कर दिया। वे उधर निकल चल दिए थे।

दूसरी तरफ पहुंचे तो उनकी नजर एक पक्के दो मंजिला मकान पर पड़ी। वे पगडंडी से नीचे उतरकर उस घर के आंगन में पहुंच गए।

एक बजुर्ग आंगन में बैठा तम्बाकू पी रहा था। उसने हल्की काली ऊन का कुरता-पाजामा पहन रखा था। सिर पर लाल रंग की गोलदार पहाड़ी टोपी थी। दाईं तरफ एक किल्टा रखा था जिसके भीतर दो बिल्ली के बच्चे खेल रहे थे। एक मेमना भीतर से भाग कर आता और किल्टे में सिर की डकेल मार कर फिर भीतर भाग जाता। किल्टा रेंग कर इधर आता तो वह बजुर्ग हल्का सा धक्का देकर उसे दूर कर लेता। सामने रखी टोकरी में कई सफेद-भूरी ऊन के फाहे रखे हुए थे। कश लेते हुए वह एक फाहा उठाता और तकली से कातने लग जाता। शर्मा जी की नजरें कुछ
पल उस तकली के साथ घूमती रही। पास ही एक दराट भी पड़ा था। शर्मा जी की नजरें उसके कान पर पड़ी। बड़े-बड़े सोने के बाले देख कर वह चौंक गए।

शर्मा जी कुछ पूछते, तभी एक आदमी भीतर से बाहर निकला। उसकी उम्र पैंतालीस के आसपास लग रही थी। अचानक पखलों को आंगन में देख कर ठिठक गया। शर्मा जी ने एक सांस में अपना परिचय दे दिया। गांव का नाम सुनते ही बुजुर्ग जोर से खांसा और कई पल खांसता रहा। खांसी कम हुई तो फटाफट किल्टा सीधा करके बिल्ली के बच्चों को उस के अन्दर कैद कर दिया। भीतर से खटर-पटर की आवाजें आती रहीं। तकली टोकरी में फैंक कर पास पड़े दराट पर दांया हाथ चला गया। उसने टेढ़ी गर्दन करके उन लोगों को सिर से पांव तक देखा। आंखों में खून तैर रहा था। गुस्से से पूरा शरीर कांपने लगा था। शर्मा जी ने सरसरी नजर उसके चेहरे पर डाली पर आंख मिलाने की हिम्मत न हुई। एक बार लगा कि वह बूढ़ा अपना हुक्का चिलम समेत उन पर फैंक देगा। या दराट लेकर पीछे ही दौड़ा आएगा। उसने एक साथ कई कश हुक्के की नड़ी से खींचे। शर्मा जी इस अप्रत्याशित गुड़गुडाहट के बीच जैसे फंस से गए थे।

उन्होंने डरते-डरते जैसे ही भुंडा की बात शुरू की वह बुजुर्ग हांपता हुआ खड़ा हो गया। देख कर ऐसा लग रहा था मानो उस पर किसी देवता की छाया आ गई हो। उसने जैसे ही दराट का वार शर्मा जी पर करना चाहा भीतर से आए आदमी ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसे मुश्किल से संभाला और खींचते हुए भीतर ले गया। अभी भी वह टेढ़ी गर्दन से पीछे देख रहा था। शर्मा जी और उनके साथियों की पांव तले की जमीन खिसक गई। मारे भय के वे घर के पिछवाड़े हो लिए।

भीतर कुछ देर उन लोगों की आपस में बोल-चाल होती रही जिसकी आवाजें शर्मा जी के कान में गर्म तेल की तरह पड़ती रही। उनके न तो वहां रूकते बन पा रहा था न जाते। आज शर्मा जी ने अपने को इतने विवश पाया जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। उन्हें भुंडा के आयोजन पर पानी फिरता नजर आने लगा। एक मन किया कि वहां से तत्काल खिसक लिया जाए। लेकिन मन पर स्वार्थ की परतें इतनी गहरा गईं थीं कि पांव पीछे मुड़ने के बजाए आंगन की तरफ सरकने लगे।

वह आदमी गुस्से में बाहर निकलते ही उन पर चिल्ला पड़ा,

'' यहां से चले जाएं आप लोग। क्या सोच रखा है। कैसे निकाला था हमारे बुजुर्गों को। सब जानते हैं। हम वहां दोबारा जलील होने जाएं......आप लोगों ने यह सोचा कैसे। हम बेवकूफ नहीं हैं। आज की बात होती तो बताते। हां।''

शर्मा जी एक पल के लिए सकते में आ गए। पर उसके खाली हाथ देख हिम्मत बटोर कर उसके सामने चले आए। अपनी गरज थी, दोनों हाथ जोड़ दिए,

'' देखो भाई! जो कुछ आपके साथ हुआ, उसमें हमारा क्या दोष...? हम उसके लिए आप सभी से माफी ही मांग सकते हैं। इसी खतिर आए भी हैं। आज जो चाहें आप सजा दे सकते हैं। भला-बुरा बोल सकते हैं। सब कुछ सर-माथे। हम ही नहीं सारा गांव उसके लिए शर्मिन्दा भी है। हम चाहते हैं कि आप भुंडा निभाए। हमारे साथ-साथ पुण्य के भागीदार भी बनें।''

'' तुम्हारे गांव के बुजुर्गों ने अच्छा नहीं किया था। सब कुछ उजाड़ दिया हमारा। आज किस मुंह से आप यहां आए। बाबा कुछ बीमार है। ठीक होते तो पता नहीं क्या कर देते.......हे भगवान!''

यह कहते-कहते उसने दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। जैसे कोई बड़ी अनहोनी टल गई हो।

शर्मा जी आगे बढ़े और आत्मीयता से उसके दोनों हाथ अपने हाथों में भर लिए। अति विनम्र और स्नेह से कहने लगे,

'' भाई ! मत समझो कि हम यहां अपनी मर्जी से आए हैं। यह देव आज्ञा है। हम कौन होते हैं। हमारी औकात ही क्या..? सभी उस देवता-ईश्वर की मर्जी है। हम तो आपके आगे हाथ ही जोड़ सकते हैं। आपके बुजुर्ग के पांव ही पड़ सकते हैं।''

शर्मा जी को अपने काम के लिए ''गधे को मामा' बोलने वाली कहावत इस वक्त बिल्कुल उचित जान पड़ रही थी।

देवता का वास्ता सुनकर वह थोड़ा सा सहज हुआ। कहा कुछ नहीं। उल्टे पांव भीतर लौट गया। दरवाजे पर पहुंचते ही एक लड़के ने उसे पानी का बड़ा सा डिब्बा पकड़ा दिया। उसने खड़े गले सारा पानी गटक लिया। शर्मा जी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्हें एक पल लगा कि किए-किराए पर पानी फिर गया है। भीतर वह बुजुर्ग जोर-जोर से अपनी बोली में गालियां बक रहा था। काफी देर बाद वह आदमी जब दोबारा बाहर आया तो हाथ में तीन प्लास्टिक की कुर्सियां थीं। शर्मा जी ने देखा तो जान में जान आई। कुर्सियां आंगन में पटका दीं।

अब तक इधर-उधर से कुछ मर्द और आरतें भी आंगन के उस तरफ इकट्ठे हो गए थे। पंडितों का उनके आगे इस तरह गिड़गिड़ाना सभी को अकल्पनीय लग रहा था।

वातावरण में भरी उमस जैसे हल्की हो गई। उसने तीनों को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। वे चुपचाप बैठ गए। फिर किल्टा उठाया। बिल्ली के दोनों बच्चे भाग खड़े हुए। ऊन की टोकरी और हुक्का एक किनारे रखते हुए अपना नाम बताने लगा,

'' मैं सहज राम.....घर में सहजू ही बोलते हैं। वो मेरे पिता जी.......सौ पार कर गए है।''

'' सौ पार......?''

शर्मा जी और दोनों कारदार स्तब्ध रह गए। बुजुर्ग इतनी उम्र का दिखता ही नहीं था।

सहज राम की बातचीत करने के ढंग से लग रहा था कि वह कुछ पढ़ा लिखा भी है। शर्मा जी लम्बी भूमिका नहीं बांधना चाहते थे। उन्होंने उससे सीधी बात की और पहले की घटना पर दोबारा अफसोस ही नहीं जताया बल्कि गांव और देवता की तरफ से माफी भी मांग ली थी। सहजू ने कुछ देर मन में विचार-विमर्श किया। फिर भीतर चला गया। बाहर खड़े लोग भी भीतर हो लिए। उन सभी की काफी देर खुसर-फुसर होती रही। काफी देर बाद बाहर आया और भूंडा में आने के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। शर्मा जी और उनके साथी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए। उन सभी का आभार जताया और वहां से खिसक लिए। तीनों के चेहरे पर इसका सुख तो झलक रहा था लेकिन मन पर पड़ी चोटें इतनी गहरी थीं कि सड़क तक किसी ने कोई बात ही नहीं की।
·

देर रात वे गांव पहुंचे थे। पर कोई भी रात भर सो न पाया था। सुबह जब देवता कमेटी के सदस्यों और लोगों को शर्मा जी ने बताया कि 'बेड़ा' मिल गया है तो सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसके बाद गांव के हर घर में भुण्डा उत्सव प्रवेश कर गया था। सभी तैयारियों में जुट गए थे। अपनी-अपनी तरह से सोचते-विचारते लोग जैसे-कैसे भी अपने खोए हुए पुण्य को फिर से कमाना चाहते थे। अपने घर-परिवार, पशु और खेती को विपत्तियों से सदा-सदा के लिए मुक्त कर देना चाहते थे।

भुण्डा उत्सव की प्रक्रियाएं प्रारम्भ हो गईं थीं। सबसे पहले गांव वालों की एक सभा बुलाई गई। सभा का आयोजन मुख्य देवता के मन्दिर के प्रांगण में हुआ था। मन्दिर के मुख्य द्वार के सामने लगभग डेढ़ मीटर ऊँचाई पर स्थित चौंतड़ा था। गांव के पंच और देवता के कारदार इसी पर बैठकर ऐसे कार्यक्रमों के निर्णय लिया करते थे। इस पर पंचो के बैठने के आसन बने थे जिनके पीछे ऊंचे पत्थर लगे थे। शर्मा जी सरपंच थे इसीलिए उनका स्थान मध्य में था। चारों तरफ दूसरे कारदार और मुखिए बैठ गए। गांव के लोग चौंतड़े के चारों तरफ नीचे बैठ गए थे। देवता के गूर के साथ बैठ कर पुरोहितों ने लम्बी बातचीत के बाद मुहूर्त और तिथियों को अन्तिम रूप दे दिया और सहजू को सर्वसम्मति से 'बेड़ा' नियुक्त कर लिया गया।

मुहूर्त के मुताबिक जब सहजू को शर्मा जी ने इस बारे बताया तो उसने एक शर्त यह रख दी कि रस्सा उतना ही लम्बा बनेगा जितना कि पिछले भुण्डे में उनके बुजुर्ग ने बनाया था। दूसरी शर्त यह थी कि रस्से के नीचे बचाव के लिए कोई जाली इत्यादि नहीं लगाई जाएगी। शर्मा जी के लिए यह शर्त काठ की तरह सिर पर पड़ी थी। उन्होंने तत्काल कुछ कहना ठीक नहीं समझा लेकिन यह बात परेशानी की तो थी ही। रस्से के नीचे बिना जाली लगाए यदि दोबारा वही हादसा हो गया तो किए किराए पर पानी फिर जाएगा। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई समाधान न सूझा तो सारी बात देवता के हवाले कर दी गई। पर 'बेड़ा' की शर्तें मानने के इलावा उनके पास कोई चारा भी न था।

अब सारा गांव भुंडा की तैयारियों में जुट गया था। देवता के पंचों ने गांव के लोगों के लिए कई कार्य निर्धारित कर दिए थे। साथ ही उत्सव के आयोजन के व्यय को देखते हुए प्रत्येक परिवार को पांच सौ रूपए और एक-एक मन चावल की जोड़ भी डाल दी गई थी। इसे लोगों ने स्वीकार कर लिया था। सभी अपने-अपने घरों की लिपाई-पुताई में लग गए थे। प्रत्येक घर में से एक सदस्य देवता कमेटी के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए नियुक्त कर लिया गया था। पूरे गांव के रास्ते साफ होने लगे थे। कोई बर्तन इकट्ठे करता, तो कोई जंगल से पत्ताों को लाकर पत्तालें बनाता तो कोई घर-घर जाकर निर्धारित जोड़ की उगराही करता रहता। शहर से रोज ही अब एक आध ट्क सामान का भी आ जाता जिसकी ढुलाई लोग मन्दिर तक मिलजुल कर करते।

भुण्डा के आयोजन की खबर जब इधर-उधर पहुंची तो प्रशासन के भी कान खड़े हो गए। हालांकि अभी देवता कमेटी की तरफ से कोई विधिवत निमन्त्रण नहीं निकला था लेकिन प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारियों ने वहां आना-जाना शुरू कर दिया था। कभी कोई प्रशासन का आदमी, कभी कोई पुलिस वाला तो कभी विधायक के चमचे पहुंचने लगे थे। शर्मा जी इस आयोजन के दूल्हा बन गए थे। सारे काम उनकी सलाह-मशविरे से हो रहे थे। उनकी आंखों में उज्जवल भविष्य के सपने तैरने लेगे थे। कुछ दिनों की सेवानिवृति ने जो ऊँघूपन उन्हें दिया था वह चेहरे पर बैठी रौनक ने भगा दिया था। उन्हें कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा था मानो वह नए-नए तहसीलदार बन गए हों।

कार्यक्रम के अनुसार नियुक्त किए गए लोग सहजू को लाने उसके गांव चले गए थे। उसे बाजे-गाजे के साथ गांव लाया गया था। साथ उसकी पत्नी और एक बच्चा भी था। जिस दिन सहजू बेड़ा को गांव लाया गया उस दिन से छ: माह बाद भुण्डा का आयोजन होना था। सहजू और उसके परिवार को मुख्य देवता के मन्दिर के एक कमरे में रखा गया था। यह सुखद आश्चर्य ही था कि जिन देवता के मन्दिर प्रांगण में आज भी किसी दलित को नहीं जाने दिया जाता, सहजू 'बेड़ा' और उसके बच्चे देवता के मन्दिर में वास करने लगे थे।


जैसे-जैसे उत्सव के दिन नजदीक आते गए रस्सा लम्बा होता गया। जिस रोज रस्सा पूरा हुआ सहजू और उसकी पत्नी उसे एकटक देखते रहे......मानो रस्सा पूरा न होकर जीवन ही सम्पूर्ण हो चला हो। अपने हाथों से मौत का सामान तैयार करने का दर्द उन दोनों के मन में बसा था। लेकिन भुण्डा जैसे कालान्तर से चले आ रहे महोत्सव में एक दलित से देवता बनने का सुख भी मौजूद था। यह सुख उस मौत के एहसास से कहीं बड़ा था। शायद उससे भी कहीं ज्यादा था बरसों से निर्वासित जीवन जीने के बाद पुन: मिलता आदर। ब्राह्मणों की बैंठ और देव-पंक्ति में मिला उच्च स्थान का क्षणिक अपितु अविस्मरणीय आनन्द।

रस्से को पूर्ण निर्मित देख कर देवता के कारदारों ने निर्धारित स्थान पर बने हवन कुण्ड को खोल दिया था। मुहूर्त के मुताबिक अब आग लाने की रस्म अदायगी थी। हवन जलाने के लिए आग केवल क्रौष्टु ब्राह्मण(कृष्ण गौत्र) के घर से ही लाई जानी थी। गांव में एक शास्त्री जी इस गौत्र से थे। देवता के कारदार और अन्य लोग कुछ सुनारों के साथ आधी रात को बाजा-बजंतर लिए उसके घर पहुंच गए। उनके साथ एक तांबे की अंगीठी और एक मेढा(नर भेड़) भी थे। कई विधि-विधानों के तहत् देवदार के वृक्ष की लकड़ी जलाकर आग तैयार की गई और उसे तांबे की अंगीठी में डाल दिया गया। अंगीठी को सुनारों ने मेढा के सिर पर रख दिया और उसे लेकर वापिस लौट आए।

बेचारा मेढा ढोल-नगाड़ों और पारम्परिक वाद्य संगीत के बीच कई पल अग्नि-वाहक बना रहा। सभी उसकी सेवा में जुटे थे। वह उस दौरान षायद सहजू की तरह अपने आप को भी ब्राह्मणों से ज्यादा सम्मानित समझ बैठा होगा। जैसे ही हवनकुंड के पास लोग पहुंचे तो आग की अंगीठी उसके सिर पर से उतार कर कुंड में रख दी गई और तत्काल उस पर उसकी बलि दे दी गई।

अग्नि प्रज्जवलित कर दी गई थी। हवन कुण्ड पर यज्ञेश्वरी देवी की प्रतिमा का निर्माण किया गया। उसकी प्राण-प्रतिष्ठता हुई। मेढे की जान लेकर......। अब यहां भुण्डे के अन्तिम दिन तक हवन चलना था।

अब मुख्य देवता की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाला जाना था जो कि धर्माचार का एक अहम हिस्सा था। देवता की मूर्ति एक गुफा मन्दिर में प्रतिष्ठित रहती थी जिसे केवल भुण्डा जैसे विशाल आयोजन में ही बाहर निकाला जाता था। इसके साथ कई अन्य छोटी मूर्तियां और सामान भी होता था। दैनिक पूजा और दूसरे अनुष्ठानों एवं जातराओं इत्यादि के लिए देवता की एक अन्य मूर्ति नीचे की मंजिल में रखी होती थी। लोग जानते थे कि पिछले भुण्डा के दौरान मन्दिर के किवाड़ बन्द कर दिए गए थे। इसीलिए लोगों की उत्सुकता अब कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। देव मूर्ति को निकालने का कार्य हर कोई नहीं कर सकता था। विधिनुसार यह काम उस गांव के एक ब्राह्मण को तीन सुनारों के साथ करना था। इन तीनों के सिर भीतर जाने से पूर्व मूंड दिए गए थे और उनके मुंह में परजतने (पंचरत्न) भी डाल दिए गए थे। वस्त्र के नाम पर उनके शरीर से कफन का कपड़ा लिपटा दिया गया था। वे अन्धेरे में ही भीतर गए थे और जिस के हाथ जो मूर्ति और दूसरी सुसंगत वस्तुएं लगीं उन्हें बाहर उठा कर ले आए थे।

देवता के गूर ने जैसे ही मूर्ति के दर्शन किए वह सकते में पड़ गया। वह नकली मूर्ति थी। किसी सस्ती धातु की इस मूर्ति को मूल रूप दे दिया गया था। गूर के सिवाए किसी को यह पता नहीं लग पाया कि वह मूर्ति असली नहीं थी। श्रध्दा और अपार आस्था में रत लोग देवता का जयकारा कर रहे थे।........ असली मूर्ति की कुछ सालों पूर्व मन्दिर से चोरी हो गई थी। देवता की वह प्रतिमा बेशक़ीमती धातु की बनी थी जिसके माथे पर एक हीरा जड़ा था। जब वह बाहर धूप में रखी होती तो उसके मुख से पसीने जैसा तरल पदार्थ निकलने लगता और नीचे रखी कटोरी भर जाती। उसे चरणामृत के रूप में लोगों में बांट दिया जाता था जिसे लोग बड़ी श्रध्दा से ग्रहण करते थे। उसकी कीमत भी करोड़ों में आंकी जाती थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि जो मूर्ति आज उनके समक्ष मौजूद है, वह नकली है..?

गूर अभी तक स्तब्ध खड़ा था। उसने पुन: उन लोगों को भीतर भेजा लेकिन वे पुन: खाली हाथ लौट आए थे। गूर में तत्काल देव छाया ने प्रवेश कर लिया। उसकी हालत देखने वाली थी। पूरा शरीर कांप उठा था। चेहरा काला और डरावना हो गया था। आंखों में खून तैरने लगा था। इस तरह का आक्रोश पंचों ने कभी नहीं देखा था। यह किसी अनहोनी का संकेत था। लेकिन यहां ''पंचो के मुंह में परमेशवर'' की कहावत चरितार्थ होने लगी। सभी पंच,कारदार और देवता कमेटी के सदस्य हाथ जोड़ कर यही विनती कर रहे थे कि जैसे-कैसे इस आयोजन का निपटारा देव-कृपा से हो जाए। बाद में देवता की जो भी आज्ञा होगी वह सिर-माथे। मुश्किल से काफी देर बाद गूर से देव छाया चली कई। सब कुछ शांत हो गया तो गूर ने केवल सरपंच शर्मा जी से ही बात की। इस बात को सुन कर वे हैरान-परेशान हो गए। उन दोनों ने इस बात की भनक किसी को भी न लगने का तत्काल निर्णय ले लिया। यदि इस बात का खुलासा हो जाता तो इतने बडे आयोजन पर पानी फिर गया होता।

उत्सव के पहले दिन लोग वाद्यों के साथ मुख्य देवता के मन्दिर स्थल से निकले। सभी छोटे-बड़े मन्दिरों में जाकर एक-एक दिया जलाते रहे और देवी-देवताओं को उत्सव के लिए आमन्त्रित करते चले गए। बाहर से आमन्त्रित देवतागण भी पधारने शुरू हो गए थे जिनका धूम-धाम से स्वागत किया गया।

दूसरे दिन सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित हुए। देव-कलशों को गोल दायरे में रख दिया गया था। बीच में गांव की मुख्य देवी का कलश था। अब क्रौष्टू ब्राह्मण ने पुराण पढ़ना शुरू कर दिया था। उसके पास एक पुरानी हस्तलिखित पुस्तिका थी जिससे मंत्र पढ़ कर वह सभी देवताओं का स्वागत कर रहा था। देवता के मंदिर की दूसरी मंजिल पर स्थित कमरे के फर्श पर देवता के एक कारदार ने इसी बीच देवदार के वृक्ष का एक चित्र सिंदूर से बना दिया था और अब सारे कलश उस चित्र पर प्रतिष्ठित कर दिए गए थे।

तीसरा दिन जल यात्रा का था। उस दिन वरूण देवता की पूजा होनी थी। गावों की महिलाएं पारम्परिक परिधानों में तड़के ही मन्दिर के प्रांगण में पहुंच गई। वे वहीं से आ रही थी जहां सहजू और उसकी पत्नी को ठहराया गया था। सभी उन्हें सिर झुका कर प्रणाम कर रही थीं। सहजू की पत्नी के लिए यह भी एक सुखद आश्चर्य जैसा ही था। वह जानती थी कि उनकी जाति की अस्सी साल की बुढ़िया को भी ब्राह्मणों की दस साल की लड़की के पास मत्था टेकना पड़ता है। लेकिन आज उससे उल्टा था। वह कई बार मन ही मन हँस लेती थी। लेकिन रस्से पर जैसे ही उसकी नजर जाती वह कांपने लग जाती। जैसे मौत का एक भयानक राक्षस रस्से में लिपट गया हो जो कभी भी उसके पति को झपट कर खा लेगा। कभी तो उसे रस्से के बाटों में असंख्य भेड़िए रेंगते नजर आते जैसे वह रस्सा न हो कर जंगल के बीहड़ की कोई टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी हो और उस पर वे दौड़ते उनकी ओर चले आ रहे हों।

उन औरतों के सुन्दर पहनावे ने उसके मन में कुछ क्षणों के लिए रंगीनियां भर दी थीं। उसी पल मन्दिर से ढोल, नगारा, शहनाई, करनाल, रणसिंघा आदि वाद्य-यंत्रों के संगीत के साथ देवताओं के पूजारियों, ब्राह्मणो, गूरों और नर्तकों का जलूस निकला। उसमें सजी-संवरी नौ ब्राह्मण कन्याएं भी थी। उनके सिर पर लाल कलश थे। जुलूस पूर्व दिशा की ओर एक बांवड़ी की तरफ चल दिया था। वहां पहुंच कर उन कलशों को ताजा जल से भर दिया गया। विधिवत पूजन हुआ और उन्हें यथावत् कन्याओं के सिर पर रख कर वापिस मन्दिर लाया गया।

भुण्डा के आखरी दिन से पूर्व मूल मन्दिर और गांव को प्रेतात्माओं से सुरक्षित करना था ताकि उत्सव में कोई अपशकुन न हो। भूत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न न कर सकें। देवताओं के गूरों ने मिल कर इस विधि-विधान को पूरा किया था। वे अपने-अपने देवता के सामने हाथों में एक विशेष पात्र लिए खड़े हो गए थे। वे पूजा करते हुए अर्ध-नग्न अवस्था में काफी देर मन्त्रोच्चारण करते रहे। फिर उनमें देव छाया प्रवेश कर गई थी। देवताओं के वाद्य-यन्त्र भी बजने शुरू हो गए। मुख्य देवता के गूर को लोगों ने अपने कन्धे पर उठा लिया था। उसी के दिशा निर्देश में अब सब कार्य होने लगे थे। शेष बचे गूर और लोगों का जुलूस पीछे-पीछे चल रहा था। गांव के बाहर का चक्कर काटा गया। जुलूस में कई बंदूकधारी बंदूके चला रहे थे। जगह-जगह बकरों के सिर धड़ से अलग हो रहे थे। पगडंडियां उनके खून से सराबोर हो रही थी। परिक्रमा पूरी हुई तो जुलूस वापिस मन्दिर लौट आया और वहां हवन शुरू हो गया। यह तांत्रिक विधि थी। देवता का गूर मन्दिर की छत पर चढ़ गया था। वह चारों दिशाओं में घूम रहा था। मन्दिर के चारों कोनों पर एक-एक मशालची तैनात था। हर कोने पर एक-एक बकरे की बलि दी गई। गूर छत से नीचे उतरा तो महमान देवताओं के गूर मन्त्रोच्चारण के साथ अपनी मूल अवस्था में लौट आए।

यह शिखफेर प्रक्रिया थी। सहजू ने अपनी पत्नी को बताया था।.....अब यहां से सारी प्रेतात्माएं भाग गई हैं और भुण्डा के कार्य में कोई भी विघ्न नहीं डाल सकता। लेकिन वह पति के मुख की ओर कई पल टकटकी लगाए देखती रही। पता नहीं कितने प्रश्न उसके मन में जागे थे जिन्हे वह सहजू से पूछना चाहती थी।.....पूछना चाहती थी कि भुण्डा के बाद देवता क्यों न उन्हें ब्राह्मण ही बना रहने दें ? फिर क्यों वे अछूत हो जाएं ? क्यों एक अछूत को कुछ दिनों के लिए देवता की तरह पूजा जाए......और यदि दुर्भाग्य से उसके पति की रस्से से गिरकर मौत हो जाए तो कौन सा देवता जिनके नाम पर अभी-अभी असंख्य मेढों और बकरों की बलि प्रेतों और भूतों को भगाने के लिए दी गयी है.....उसके पति को बचा देगा ...... ? ऐसे कितने ही प्रश्न थे जो उसके मस्तिष्क में कौंध रहे थे लेकिन वह थी कि किसी न किसी तरह अपनी जिज्ञासाओं को दबाए चुपचाप बैठी रही। भय से कांपती हुई। जैसे सारे भूतों और प्रेतात्माओं ने उसके भीतर घुस कर आश्रय ले लिया हो।

सहजू ने अपनी पत्नी के मन में उग रहे प्रश्नों को पढ़ लिया था। पर उनके उत्तर उसके पास नहीं थे। मन पर एक भारीपन लदा था......शायद ऐसे ही अनगिनत प्रश्नोंको लेकर जिनका कोई तसल्लीबख्श जवाब नहीं था....? वह उनके उत्तर भी पूछता तो किस से पूछता ? कोई कारदार, देवता का गूर या खुद देवता भी शायद उनके उत्तर न दे पाते। उसे आज ये सारीर की सारी क्रियाएं बिल्कुल ढोंग लगने लगी थीं।
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रात को सहजू और उसकी पत्नी नहीं सो पाए। न एक दूसरे से किसी ने कुछ बात की। अपनी-अपनी उधेड़-बुन में दोनों लगे रहे। सहजू के मन में भय तो था ही पर खुशी भी कम नहीं थी। अपने दादा-पड़दादाओं को वह बार-बार याद कर रहा था जो न जाने पितर-देवता बन कर कहां-कहां प्रतिष्ठापित होंगे।........ भुण्डा में उसका इस तरह 'बेड़ा' बन कर उतरना बरसों पहले खोए हुए मान को दोबारा हासिल करना भी था।

सुबह हुई। भुण्डा का आज अन्तिम और मुख्य दिन था। सहजू के ब्राह्मणत्व का आखरी दिन।

दोनों तड़के-तड़के उठ गए थे। मुहूर्त के अनुसार निश्चित समय पर रस्से की विधिवत पूजा की गई। सहजू ने अपने हाथों से रस्सा खश जाति के राजपूतों को सौंप दिया। उन्होंने रस्से को कन्धे पर अत्यन्त सावधानी से उठाया ताकि उसका कोई भाग जमीन से स्पर्श न करे। फिर बांवड़ी के पास ले जा कर खूब भिगोते रहे। पूरी तरह से भीगने के पश्चात् उसे पहले ही की तरह ही कन्धे पर उठा लिया गया। रस्से का वजन दुगुना हो गया था। कड़ी मशक्कत के बाद खशों ने रस्से को भुण्डा-आयोजन के मूल स्थान पर पहुंचाया था। वहां ढांक के सिरे पर एक खम्भा गाड़ा गया था जिसमें रस्से का एक सिरा मजबूती से बांध दिया गया। ढांक की ऊंचाई बहुत थी। नीचे देखने पर आंखे पथरा जाती थीं। दूसरे सिरे को पहाड़ से नीचे फैंक दिया गया। नीचे खड़े लोगों ने उसे तत्काल पकड़ लिया और वहां गड़ाए दूसरे खम्बे में खींच कर बांध दिया। सहजू की शर्त रस्से के नीचे जाली न लगाने की मान ली गई थी। फिर भी किसी दुर्घटना की आशंका से निपटने के लिए पहाड़ी के नीचे लम्बी कतार में पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात कर दिए गए थे।

बेड़े के रूप में सहजू का देवता की तरफ से विशेष स्नान हुआ और यज्ञोपवीत धारण करवाकर उसे शुध्द ब्राह्मण बना दिया गया। उसे पगड़ी और एक सफेद लम्बा चोगानुमा कुर्ता पहनाया गया था। उसकी विशेष पूजा होने लगी थी। देवता ही की तरह। जैसे वह कोई मनुष्य न होकर एक घड़ी के लिए ईश्वर का अवतार बन गया हो। अब समय मुख्य उत्सव में शामिल होने का आ गया था। एक कारदार भीतर गया और अत्यन्त आदर से उसे अपनी पीठ पर उठा कर मंदिर से बाहर ले आया।

सहजू की पत्नी को पति से अलग होना था। यह बिछोह का दर्दनाक समय था। उसे भी मन्दिर की तरफ से पहनने के लिए नए कपड़े दिए गए थे। ये वस्त्र सफेद रंग के थे......विधवा का लिबास। उसे गांव की कई औरतों ने घेर रखा था। न चाहते हुए भी उस बेचारी को होते पति से विधवा बनना पड़ा था। मन नहीं मान रहा था लेकिन भुण्डा की रस्मों ने उसे असहाय बना दिया था। औरतों ने उसके बाल खोल दिए। कलाइयों की चूड़ियां उतार दीं। मांग से सिंदूर पोंछ दिया गया। माथे की बिंदिया भी छीन ली गई। सुहागिन से विधवा बनने तक के वे क्षण अति दुखदायी थे। जब सुहाग की प्रतीक ये चीजें उसके बदन से उतारी जा रही थीं तो उसे ऐसा लगा था जैसे कलेजे के टुकड़े किए जा रहे हो। वह बच्चे को साथ लेकर उस स्थान के लिए लोगों के साथ चल पड़ी जहां रस्से का दूसरा सिरा बांधा गया था। बच्चा यह सबकुछ विस्मित होकर देख रहा था। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है...? उसके बापू को इस तरह उठा कर कहां ले जा रहे हैं...?

पुरोहितों ने अब संकल्प पढ़ने शुरू कर दिए थे। ये उसी तरह थे जैसे किसी बलिदान के अवसर पर पढ़े जाते है। वाद्ययन्त्रों पर वही संगीत बज रहा था जो शवयात्रा पर बजाया जाता था। वातावरण मेें इस संगीत ने एक अजीब सी मायूसी पैदा कर दी थी। चारों तरफ एक घड़ी के लिए घोर उदासी छा गई थी। यह नजारा कुछ-कुछ वैसा ही था जैसे किसी घर से मृत्यु ने किसी अपने को छीन लिया हो। माहौल अत्यन्त गमगीन होने लगा था। मूल स्थान तक पहुंचते-पहुंचते कई जगह सहजू पर कफन की तरह कपड़ा ओढ़ाया गया और उसके मुंह में परजतना डाल दिया गया।

समारोह की शोभा बढ़ाने के लिए मुख्य मन्त्री पहुंच गए थे। विधायक और प्रशासन के कई अधिकारी भी उनके साथ थे। उन सब के लिए पहाड़ की ढलान पर एक ओर मंच बनाया गया था ताकि वे सब उस सम्भावित नरबलि का नजारा ले सकें। शर्मा जी ने उनकी आव-भगत में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी।

शर्मा जी की नजर इस बीच एक पालकी पर पड़ी। उसके साथ कुछ लोग भी चल रहे थे। पहले उनकी समझ में कुछ नहीं आया। पालकी नजदीक पहुंच गईं। उसमें एक बुजुर्ग बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। शर्मा जी को पहचानते ज्यादा समय नहीं लगा। यह वही सहजू का पिता था जिसका सामना सहजू के आंगन में पहले ही हो चुका था। उसके साथ उस गांव के तमाम लोग भी थे। शर्मा जी स्तब्ध रह गए। अब पांव पीटने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सहजू के गांव के लोग इस शान से उत्सव में पधार जाएंगे। समक्ष एकाएक कई प्रश्न खड़े हो गए। पर उनके उत्तर कहां से आते....? मुंह बांध कर बैठना ही उचित जान पड़ा। शर्मा जी कुछ कारदारों को साथ लेकर उनके पास गए और बनावटी अपनापन दिखाकर उन्हें उसी मंच के साथ बिठा दिया जहां मुख्यमन्त्री बैठे थे। पालकी में एक दलित का इस तरह पधारना न तो शर्मा जी पचा पा रहे थे और न ही गांव के दूसरे लोग। क्योंकि पालकी में बैठने का अधिकार तो वे लोग अपना ही मानते आए हैं। शर्मा जी वहां से झटपट खिसक लिए और खम्भे के पास जा कर खड़े हो गए, जहां सहजू को भुंडा के रस्से पर से सरकते हुए पहुंचना था।

सहजू की घरवाली चुपचाप डरी-सहमी रस्से के अन्तिम छोर के पास बैठी, एकत्र उन सभी देवताओं से अपने पति की ज़िन्दगी मांग रही थी जिन्होंने पिछली रात उस गांव को भूत-प्रेतों और दुष्ट आत्माओं से निवृत्त किया था। उसका मन विचलित होने लगा था। एक मन करता कि इस लिबास को उतार कर जला दे और पति के पास जा कर विनती करे कि हमें नहीं बनना है देवता। न बनना है भगवान। हम जैसे हैं वैसे ही रहना चाहते हैं। हम बिना मान-प्रतिष्ठा के भी अपने छोटे से परिवार में सुखी हैं। ईश्वर न करे कि रस्सा टूट जाए.........? इतना भर सोच कर वह जमीन पर गिर पड़ी थी। पास खड़ी औरतों ने उसे न संभाला होता तो उसका सिर चट्टान से टकरा जाता। शर्मा जी उसकी स्थिति देखकर घबरा गए थे। उन्होंने तुरन्त पानी के छींटे उसके चेहरे पर मारने शुरू कर दिए। कुछ देर बाद जब उसे होश आया तो उनकी जान में जान आई।........... एक सुहागिन को इस पल अपने पति के जीते जी एक विधवा होने के तीखे दर्द और अथाह वेदना से गुजरना पड़ रहा था।

सहजू जब खम्बे के पास पहुंचा तो निगाह तराईयों से उतरती अपनी पत्नी के पास चली गई। वे तमाम वेदनाएं उसने अपने भीतर महसूस कीं जिसे उसकी पत्नी सुहागिन से विधवा बन कर सह रही थीं। आंखें छलछला गई। मन में एक तीखी टीस उठी जो सुई की तरह नसों में चुभती रही। यह चुभन असहनीय थी। सहजू को एक पल लगा कि उसकी सासें जीन-काठी पर बैठने से पूर्व ही निकल जाएगी। जैसे-कैसे अपने को सम्भाला और हजारों लोगों की उमड़ती भीड़ के बीच उसका ध्यान चला गया।............हजारों आंखें उसी की ओर ताक रही थीं। उन आंखों में एक याचना थी। लालच था। उसकी ज़िन्दगी के लिए दुआएं भी थीं लेकिन उस जीवन के साथ सभी का अपना-अपना स्वार्थ निहित था। सारी प्रार्थनाएं केवल अपने लिए थीं। वे आंखें उसे अपने लिए ज़िन्दा रखना चाहती थीं ताकि उनका जीवन सुखमय हो। घर-परिवार में खुशहाली आए। जमीन-जायदाद और पशु-धन सलामत रहे। उन पर किसी तरह के अनिष्ट की छाया तक न पड़े। सभी का ध्यान रस्से पर से नीचे सरकते सहजू पर था। उसकी पत्नी के भीतर जो अथाह दर्द और भयानक भय पसरा था उसका न कोई प्रतिवादी चश्मदीद गवाह था और न कोई उसके आंसुओं को पोंछने वाला। ...........एक महान और तथाकथित जन-स्वार्थ की पूर्ति का उत्सव था वह....?

.................एक घड़ी के लिए तो सहजू को यह भी लगा कि वह आज दुनिया का सबसे बड़ा और धनवान आदमी है जिसके आगे ब्राह्मण और ठाकुर तो क्या देवता तक भी पुण्य की भीख मांग रहे हैं।

शर्मा जी तो आज अपने आप को सबसे प्रतिष्ठित और व्यस्त आदमी समझ रहे थे। हर जगह उन्हीं का बोल-बाला था। सहजू की पत्नी के बिल्कुल साथ खड़े थे शर्मा जी। वे भी लोगों के साथ उनकी दुआओं में शामिल थे लेकिन उनकी एक-दो दुआएं कुछ अलग ही थीं। वह दुआएं मांग रहे थे गांव को कलंक से छुटकारा पाने की और साथ अपने यश और प्रतिष्ठा की जिसके सहारे उन्हें आगामी राजनीति में प्रवेश पाना था। मन में और भी कई विचार कौंध रहे थे। उनकी इच्छा थी कि जैसे ही 'बेड़ा' नीचे सही सलामत पहुंचे, वे उसे सबसे पहले उठाकर अपने चूल्हे के पास ले जाएं ताकि उन्हें अपने ऊपर लगे कलंक, अनिष्ट, भूत-प्रेत आदि की छाया से सबसे पहले छुटकारा मिल सके। साथ ही अपने परिवार के लिए पहला आशीर्वाद भी लेना चाहते थे। वह जानते थे कि 'बेड़ा' आज के दिन देवता और भगवान के समान होता है और उसका घर के भीतर प्रवेश अति शुभ होता है। वह सबसे पहले इस पुण्य के भागीदार बनना चाहते थे। गांव के दूसरे सवर्णो की भी यही इच्छा थी।

सहजू ने ईश्वर को प्रणाम किया। अपने इष्ट देवता को याद किया और अपने पिता को नमन किया। उस पितर को स्मरण किया जो इसी आयोजन में वर्षों पहले रस्से से गिर कर मौत के मुंह में चला गया था। फिर रस्से को हिला दिया। अब जीन-काठी पकड़ी और टिका कर रस्से पर बांध दी। इसे सहजू ने स्वयं बनाया था। उसके दोनों तरफ रेत की बोरियां टिका दी गर्इं थीं ताकि बराबर भार रहे। सहजू के लिए वह सचमुच की घोड़ी थी जिस पर सवार होकर उसे मौत का एक लम्बा और खतरनारक सफर तय करना था। गांव का कलंक धोना था और लोगों के पुण्य का भागीदार बनना था.....एक अछूत होकर नहीं बल्कि ब्राह्मण, देवता और भगवान बन कर। उसके मन में कई तरह के ख्याल आने लगे थे। वह सोच रहा था कि उसकी यह दुर्लभ 'बेड़ा' जाति एक जीन-काठी ही तो है जिसका इस्तेमाल अपनी स्वार्थपूर्ति और तमाम पुण्य के भागीदार बनने के लिए शर्मा या उस जैसे तमाम उच्च वर्ग के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। इसके एवज उस अछूत को क्या मिलेगा........? सिर्फ कुछ क्षणों का ब्राह्मणत्व........और देवत्व। ........वह जोर से हंसा और जीन-काठी पर बैठ कर रस्से से नीचे सरक गया..........हाथ में एक सफेद रूमाल को लहराता हुआ। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह आसमान से धरती पर उतर रहा हो। मध्य में पहुंच कर वह थोड़ा घबरा भी गया। एक बार जरा सा संतुलन बिगड़ गया था, पर उसने अपने आप को संभाल लिया। अन्यथा इतनी ऊंचाई से गिर कर वह कहां बच पाता...? देवता के वाद्य पूरे जोश और ताल में बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह देवमय हो गया था। लेकिन उन वाद्यों के बीच एक पल के लिए सहजू की पत्नी की सांसे रूक गई थीं......।

सहजू जैसे ही दूसरे खम्बें के नजदीक पहुंचा उसने चलती हुई जीन काठी रोक दी और रस्से पर मजबूती से बैठ गया। वह ऊंचाई से जितनी तेजी से नीचे आया था उस रफ्तार को रोकना कतई संभव नहीं था। परन्तु उसने जिस तरह संयत रह कर अपने आप को रस्से पर रोका था वह आश्चर्यजनक था। एक पल के लिए जैसे सब कुछ ठहर गया था। सभी उपस्थित जनों के दिलों की धड़कनें ही रूक गईं थीं। बाजा-बजंतर भी चुप हो गया था। एक गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसर गया था। शर्मा जी के साथ सभी कारदार और लोगों के मन में किसी अनहोनी ने जन्म ले लिया। ........दोबारा कोई बड़ा अनिष्ठ तो नहीं होने वाला....? सहजू बिल्कुल सुरक्षित था लेकिन उसकी काठी नहीं चल रही थी। देवता के कारदार और गूर शर्मा जी के साथ खम्बे के पास एकत्रित हो गए थे। शर्मा जी एकाएक जोर से चिल्लाए,

''सहजू ! तुम्हारी मंजिल आ गई है। नीचे उतर जाओ।''

यही अन्य लोगों ने भी दोहराया था।

लेकिन सहजू अभी भी चुपचाप था। जैसे कुछ सुना ही न हो। भीतर बहुत कुछ फूट रहा था। टूट रहा था। उस टूटन की किरचों ने उसे भीतर ही भीतर आहत कर दिया था। शर्मा जी ने हाथ जोड़ दिए और गिड़गिड़ाते हुए सहजू को नीचे उतर जाने का निवेदन करते रहे। सभी कारदारों और गांव के ब्राह्मणों ने भी हाथ जोड़ रखे थे। लेकिन सहजू नहीं उतरा। उसके मन में बहुत बड़ा तूफान उमड़ पड़ा था। उसे लगा कि वह सहजू बेड़ा नहीं बल्कि किसी सरकस का नर्तक भर है, जिसे जैसा चाहा नचा दिया। खेल खत्म हुआ तो उसका अस्तित्व भी समाप्त। जो लोग आज उसकी जय जयकार कर रहे है कल वही उसकी परछाई से भी दूर भागेंगे। फिर न कोई सम्मान और न ही कोई इज्जत-परतीत। उसे शर्मा जी और देवता के तमाम कारदारों के साथ सारे ब्राह्मण उस पल शैतान की तरह लग रहे थे जैसे वह स्वयं उनके पल्ले पड़ गया हो और उनके हाथों की कठपुतली हो। जहां वह रस्से पर रूका था वहीं तक सब कुछ था। देवता भी और भगवान भी। सम्मान और प्रतिष्ठा भी। इज्जत और परतीत भी। नीचे उतरते वह फिर वही दलित.......नीच.......अछूत। हाथ खाली के खाली। उसका मन आक्रोश से भरता जा रहा था।.......उसने भीड़ में एक नजर दौड़ाई। सामने से पालकी में उसके पिता आ रहे थे। दोनों हाथ ऊपर उठाए हुए.....जैसे उन्हें आज सब कुछ मिल गया हो। उसने पिता की आंखों में अपनी विजय की चकाचौंध तो देखी लेकिन उसके पीछे छिपे दर्द और अपमान को भी सचमुच पढ़ लिया।

सहजू की नजर अब उस तरफ गईं जहां दलितों के परिवार खड़े थे। वहीं से सबसे ज्यादा जय जयकार की आवाजें गूंज रही थी। उनके मन साफ थे। मन की आवाजें थीं वो जिनमें सहजू को कोई स्वार्थ नजर नहीं आया। हां, उनके कपड़े फटे हुए थे। कुछ औरतों की छातियां फटे कुरतों के बीच से बाहर झांक रही थी। उनके बाल बेतरतीबी से उलझे हुए थे। फूलदार रिब्बनों की जगह उनमें घास और पत्तियां फंसी थीं। उनके साथ उनके बच्चे भी थे। नंगी टांगे। बदन पर महज एक लम्बा सा फटा कुरता। छालों से रिसते पांव। आंखों में अथाह दर्द।.........सहजू को अपने देवत्व पर शर्म आ गई।

उसके कानों में फिर अवाजें गूंजी........

''शाबाश सहजू! शाबाश! नीचे आ जाओ। तुम आज भुंडा के सबसे बड़े देवता हो।''

इस बार वह जोर से हंस दिया।

'' कैसा देवता......? कौन सा देवता। मैं तो एक अछूत हूं। कठपुतली मात्र हूं। सारे पुण्य तो तुम सभी के लिए हैं। अपने स्वार्थ के लिए ऊंचे लोगों ने भी क्या-क्या परपंच रचे हैं...?.....जानते हो शर्मा जी, मैं इस घड़ी तो सबसे बड़ा पंडित हूं। देवता हूं और सभी का ईश्वर। लेकिन नीचे उतरते ही मैं सहजू अछूत......और तुम सभी उच्च कुल के पंडित और ठाकुर। तुम्हारे जो ये देवता आज मेरी विजय पर नाच रहे हैं, मुझे भगवान मान रहे हैं, कल इन्हें मेरी परछाई से भी दोष लगने लगेगा। अपवित्र हो जाएंगे ये !!''

शर्मा की बोलती बन्द हो गई थी। कभी नहीं सोचा था कि सहजू के दिमाग में कुछ और भी चल रहा है। उसकी बाते मन में सुई की तरह चुभ गईं। अब वह झटपट इस स्थिति से उबरना चाहते थे। अपने को सहज करते हुए गिड़गिड़ाए,

'' ऐसा मत सोचो सहजू,! तुम्हारे बिना इतना बड़ा आयोजन कैसे सम्पन्न होता। तुम आज हमारे सब कुछ हो।

सहजू ठहाके लगाने लगा,

''केवल आज ही न शर्मा जी.......कल....?''

शर्मा जी सकपका गए। स्थिति भांपने में उन्हें देर नहीं लगी। सीधी बात पर आ पहुंचे।

'' ऐसा मत कहो सहजू। भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बोलो तुम्हे क्या चाहिए..? आज तो वह समय है कि जिस चीज में भी तुम हाथ लगाओगे वह तुम्हारी हो जाएगी।''

'' सोच लो शर्मा जी!''

'' सहजू! इसमें दो राय नहीं हो सकती। आज के दिन तो तुम हमारे भगवान हो। बोलो तो....।''

'' हमारी जमीन लौटा दो शर्मा जी। हम यहीं बसना चाहते है। इसी गांव में, जहां से आप लोगों ने हमारे पूर्वजों को भगाया था।''

शर्मा जी को जैसे काठ मार गया। कलेजा मुंह को आने लगा। एक मन किया कि इस नीच की औलाद को इसकी असली औकात दिखा दूं कि अपने से ऊंचे लोगों से किस तरह बात की जाती है......? लेकिन समय की नजाकत को भांपते हुए लहू का घूंट पी गए। रूमाल से उन्होनें माथे का पसीना कई बार पोंछा। यह ख्याल पूरे आयोजन के दौरान किसी के भी मन में नहीं आया था कि सहजू ऐसा भी कर सकता है। लेकिन आज तो कोई उसको कुछ नहीं कह सकता। वह जहां चाहे जा सकता है। जिस वस्तु को चाहे मांग सकता है। शर्मा जी के साथ कारदार और जो गूर खड़े थे उन्होंने आंखों-आंखों में बातें की। सहजू को निराश करना उचित नहीं समझा था। मजबूरन शर्मा जी को हां कहनी पड़ी।........सहजू जानता था कि इस अवसर पर दिया धन या जमीन कोई दूसरा नहीं ले सकता। उसने जीन काठी को हल्का सा खींचा और सरकता नीचे उतर आया। चारों तरफ अब लोगों ने उसकी जय जयकार करनी शुरू कर दी थी। सभी देवताओं के वाद्य बज रहे थे। वातावरण पूरी तरह संगीतमय हो गया था।

समारोह में उपस्थित लोगों ने आज तो सचमुच महा पुण्य कमा लिया पर शर्मा जी, उनके साथी कारदार तथा उस गांव के लोगों के लिए यह उत्सव मायूसी लेकर आया था। उन्होंने कभी नहीं चाहा था कि श्रेष्ठ ब्राह्मणों के इस गांव में फिर कोई दलित पसर जाए। लेकिन अब तो सहजू को भुंडा के अवसर पर सभी देवताओं को साक्षी मान कर जमीन देने की जुबान भी दे दी गई थी। उनका विश्वास था कि अपनी बात से मुकर जाना गांव और लोगों पर फिर किसी आफत के आने का बायस बन सकता है। मगर इसके बावजूद भी वे लोग इस बात को पचा नहीं पा रहे थे। सहजू बेड़ा को अपने-अपने घर ले जाने के उनके सपने भी अब टूट गए थे। सभी को जैसे सांप सूंघ गया हो।

उत्सव अब पूरे यौवन पर था। चारों तरफ का माहौल उमंगों से भर गया। पर शर्मा जी के भीतर एक सन्नाटा पसर गया था। लोग उनके पास आकर बधाई दे रहे थे। इस आयोजन की सफलता के लिए उनकी तारीफ कर रहे थे। लेकिन उनका मन विचलित था। जैसे यह भुंडा नहीं किसी विनाशोत्सव का आयोजन हुआ हो। उनकी स्थिति विचित्र हो गई थी। मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। कोई जब पास आता तो वे हंस देते। चला जाता तो अजीब सी हरकतें करने लगते.......कभी कुछ गाने लगते तो कभी नाचना शुरू कर देते। बिल्कुल पागलों जैसी हरकतें करने लगे थे।......मानो गांव से देवताओं द्वारा भगाए गए भूत-प्रेत सब के सब उनके भीतर नाचने लगे हो। शर्मा जी की इस हालत को देख कर देवता के कारदार, गुर और गांव के दूसरे लोग परेशान हो गए थे। उन्होंने शर्मा जी को घेर लिया था।

तभी मुख्यमन्त्री और विधायक उनके पास पहुंचे। शर्मा जी की पीठ थपथपा कर कहने लेगे,

'' भई शर्मा जी मान गए आपको। इतना बड़ा आयोजन तो आप ही करवा सकते थे। सांप भी मर गया और लाठी भी सलामत। आपने हमारी तो एक बड़ी दुविधा ही मिटा दी। क्या नाम था इस बेड़ा का......? हां, सहजू......सहज राम। क्यों विधायक जी यही था न...........उसने तो कमाल कर दिखाया.........हमें तो लोकसभा के लिए कोई दलित मिल ही नहीं रहा था.........भई शर्मा जी कमाल कर दिया आपने।''

यह कहते हुए मुख्यमन्त्री और विधायक वहां से निकल लिए। पर शर्मा जी उनकी बात सुन कर बुत की तरह खड़े रह गए थे। काटो तो खून नहीं। जैसे कोई जोर का तमाचा मुंह पर जड़ कर निकल गया हो। जो कुछ रही सही कसर थी वह भी जाती रही।

सहजू को लोगों ने अपने कंधे पर उठा लिया था। वह, उसकी पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्य खुशी-खुशी लोगों से ईनाम के पैसे और जेवर इकट्ठे करने में मशग़ूल थे।

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5 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Divya Narmada का कहना है कि -

premchand aur himanshu shrivastav kee parampara men zameen se judee sashakt kahanee.

निर्मला कपिला का कहना है कि -

bahut badia kahani hai maine pehale bhi padh rakhi hai abhar
mera kahani blog bhi dekhen dhanyavad
www.veeranchalgatha.blogspot.com

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

हरनोट जी,

कहानी जातिपाति की जटिलताओं को बहुत बारीकी से चित्रित करती है। हमारे समाज हर जगह यह 'भुंडा' के विभिन्न रूपों में विद्यमान हैं।

Fakeer Mohammad Ghosee का कहना है कि -

Bahut Badhiya Kahani Hai. Par kuch Jyada Lambi ho gai hai.

aruna का कहना है कि -

kahani bahut achchhi hai... vishay umada hai!

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