Friday, January 25, 2008

आज़ादी

तीसरी दस्तक पर प्रतिरोध की हल्की सी ध्वनि के साथ दरवाज़ा खुला। वह रात के कपड़ों में थी, उसके बाल खुले थे और उन पर पानी की बूंदें मोतियों की तरह चमक रही थीं। उसके चेहरे पर शांति थी, जैसी अक्सर तूफान के बाद ही होती है।
- मैं राघव हूं। आपके पड़ोस में रहता हूं।
वह उसे देखती रही।
- भाईसाहब घर में हैं?
- नहीं
कहकर उसने दरवाज़े पर से हाथ हटा लिए, जो पहले अवरोध बनकर दोनों किवाड़ों को पकड़े हुए थे।
- क्या मैं अन्दर आ सकता हूं?
वह मुस्कुरा दी और बिना कुछ कहे मुड़कर भीतर की ओर चल दी। राघव भी उसके पीछे-पीछे घर के अन्दर आ गया। दरवाज़ा अधखुला रहा।
- मैं चाय बना रही थी। पियोगे तुम?
वह रसोई में घुसते हुए बोली।
राघव हल्का सा चौंका और बिना कुछ कहे रसोई के पास ही खड़ा रहा। रसोई में से बर्तनों के खड़कने की, पानी के गिरने की और लाइटर के जलने की आवाज़ बारी-बारी से आई और उस दौरान वह दीवारों पर लगे मॉडर्न आर्ट के विशालकाय चित्रों को देखता रहा।
एक मिनट बाद जब वह बाहर निकली तो वह वहीं खड़ा एक पेंटिंग को निहार रहा था।
- आराम से बैठ जाओ। ये सब यूं कुछ मिनटों में नहीं समझ पाओगे।
उसने एक कुर्सी खिसकाकर उसके आगे कर दी। वह बैठ गया।
- ये सब आपने बनाए हैं?
- तुम्हें लगता है कि मैं इन्हें बना सकती हूं?
वह बिना बात के खिलखिला पड़ी। राघव हैरानी से उसे देखता रहा।
- फिर किसने बनाए हैं?
- पीड़ा ने। मैं तो केवल माध्यम बनी हूं।
उसके नज़रें, जो अब तक राघव की नज़रों से मिल रही थीं, अब हटकर एक चित्र पर जा गड़ी थी। राघव चाहकर भी उसकी आँखों के भाव नहीं पढ़ पाया।
- मैं एक काम से आया था।
- बेचारा काम! अब नहीं रहा?
उसने अफ़सोस के साथ पूछा तो राघव मुस्कुराए बिना नहीं रह सका।
- मतलब मैं एक काम से आया हूँ।
- कहो।
- मतलब काम दो हैं....
- दोनों कहो।
- आप बहुत सुन्दर हैं...उस पीड़ा जितनी ही सुन्दर।
वह कुर्सी पर बैठा था। वह रसोई के दरवाज़े पर खड़ी थी। उन चित्रों की बहुत बार प्रशंसा की गई थी और उस चित्रकार की भी बहुत बार प्रशंसा की गई थी, लेकिन पीड़ा की प्रशंसा पहली बार हुई थी।
पीड़ा हल्की सी मुस्कुराई। बिल्कुल सामने वाली पेंटिंग पर एक नीली सी रेखा अपने आप ही खिंच गई। अन्दर चाय उफनती रही।
- मैं कभी भी, कुछ भी कह देता हूं। धीरे-धीरे आपको मेरी आदत पड़ जाएगी।
वह रसोई में चली गई। कुछ चाय आस-पास बिखर गई थी।
- यही काम था तुम्हें?
उसने गैस बन्द करते हुए कहा। अन्दर जाकर ही जैसे उसने अपना स्वर वापस पाया था।
- नहीं, यह काम नहीं है। दो काम हैं, एक बहाना है और एक काम।
- बहाना क्या है?
- आज रात जागरण है। माँ ने कहा है कि आपके यहाँ भी कह दूं।
- और काम क्या है?
वह चाय लेकर बाहर आ गई थी।
- एक अजनबी आपके घर में आकर कहता है कि वो आपका पड़ोसी है और आप यकीन कर लेती हैं, उसे चाय पिलाती हैं। मैं आपको लूटकर चला जाऊं तो?
- मैं जानती हूं तुम्हें।
- कैसे?
- तुम अपने चौबारे पर बाँसुरी बजाते हो ना?
वह मुस्कुराया।
- तुम्हें सुनना अच्छा लगता है।
- कब से सुन रही हैं आप?
- महीना भर हो गया होगा।
राघव ने चाय का कप उठा लिया। वह ट्रे लिए रसोई में चली गई और अपना कप लेकर फिर बाहर आ गई। राघव की नज़रें उसी के साथ घूमती रहीं।
- काम क्या है?
वह बाहर आते ही बोली।
- मुझे पेंटिंग सिखाएंगी आप?
उसने चाय की एक घूँट भरी और कुछ क्षण शून्य में ताकती रही।
- मैं आपसे चित्रकारी सीखना चाहता हूं। मुझे कागज़ पर ज़िन्दगी उकेरना सिखाएँगी?
- मैं अब पेंटिंग नहीं करती। मुझे इज़ाज़त नहीं है। उसने चाय का कप रसोई की खिड़की में रख दिया। राघव के होठ कुछ हिले, लेकिन उसका चेहरा देखकर वह कुछ बोल नहीं पाया।
- मेरे पति को ये सब पसन्द नहीं है।
उसने राघव की आँखों में आँखें डालकर देखते हुए कहा। प्रतिबन्ध जिस आक्रोश को जन्म देता है, वह इतना ही आत्मविश्वास लिए होता है, जितना उसकी आँखों में था।
- मेरी माँ को भी मेरी बाँसुरी पसन्द नहीं है। मैं अगर इसे छिपाकर न रखूं तो माँ उसे चूल्हे में फूंक देगी।
राघव ने चाय की आखिरी घूँट भरी और कप नीचे रख दिया।
उसकी इस बात पर वह मुस्कुरा उठी और उसने खिड़की में रखा अपना कप उठा लिया।
- तुम बच्चे हो अभी। सब बंदिशें एक सी नहीं होती।
- जो आपको अच्छा लगता है, उसे करने से रोकने का हक़ किसी को भी नहीं है
- तुम औरत होते तो इन बातों का अर्थ बेहतर समझ पाते।
- मुझे भी अपने संगीत के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ता है। रोज ताने मिलते हैं खाने के साथ...
- काश...मुझे भी रोकने वाली माँ होती, पति नहीं।
उसने एक ठंडी साँस ली।
- मैं कुछ नहीं जानता। मुझे तो आपसे ही सीखना है।
वह खड़ा होते हुए बोला। उसका स्वर हल्का सा गिड़गिड़ाने लगा था, जैसे वह न सिखाती तो वह कभी न सीख पाता।
वह कुछ नहीं बोली। अपने मौन के उत्तर में उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करती रही।
- जागरण में आएँगी, तब मुझे वक़्त बता दीजिएगा।
कहकर वह चल दिया। दो कदम चलकर वह रुका और एकदम से मुड़कर बोला- मेरे आने से पहले आप रो रही थी?
- नहीं...नहा रही थी।
- आपकी आँखें बहुत मुँहफट हैं। इन्हें भी कुछ दुनियादारी सिखा दीजिए।
कहकर वह चला गया। वह रसोई के दरवाज़े से लगी खड़ी रही। तभी बिजली आ गई और बरामदे का पंखा तेज आवाज़ करता हुआ घूमने लगा। हवा से नीली रेखा वाला चित्र दीवार से उतरकर नीचे कुर्सी के पास आ गिरा।

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वह दरी पर औरतों के साथ सबसे पीछे बैठी थी। बहुत शोर था- कुछ भजनों का और बहुत सा बातों का। राघव चुपके से आकर उसकी बगल में बैठ गया। वहाँ लगभग अँधेरा ही था।
- आप मुझे टाइम बताने वाली थी...
उसने बैठते हुए कहा तो वह कुछ चौंक सा गई और अजनबियों की तरह उसे घूरती रही। फिर एकदम से मुस्कुरा दी।
- तुम तो एकदम पीछे ही पड़ गए हो।
- यही समझ लीजिए।
- मैंने कहा था न...मैंने छोड़ दिया है।
इस बार वह मुस्कुराया।
- आपको मना करना होता तो आप यहाँ आती?
वह उसकी आँखों में देखता रहा। उसने असहज होकर दृष्टि हटा ली और सामने सजे हुए स्टेज को ही देखती रही।
- मैं आज़ाद नहीं हूं राघव। तुम समझते क्यों नहीं?
- ठीक है, आपका वक़्त लिया, उसके लिए माफ़ी चाहूंगा।
वह उठकर चल दिया।
- राघव...
उसने दबे स्वर में पुकारा, लेकिन वह सुन नहीं पाया। वह उठी और तेजी से कदम बढ़ाते हुए उसके सामने पहुंचकर रुक गई।
- अपने आप को समझते क्या हो तुम?
वह खामोश खड़ा रहा। केवल उसकी आँखें हँसी।
- ग्यारह बजे आ सकते हो?
- मैं दिनभर खाली हूँ...
राघव के हाथ स्वचालित से उसके हाथों को छूने के लिए बढ़े और अधर में ही थम गए। उसके हाथ काँपे, लेकिन वह तुरंत ही पलटकर घर के दरवाजे से बाहर निकल गई।
बाहर बिजली के खंभे पर शॉर्ट-सर्किट हुआ और तेज आवाज और चिंगारियों के साथ पूरी गली की बिजली उड़ गई। माता का जागरण बीच में ही रुक गया।
- ओए राघव.....जनरेटर चलाओ भई...
कोई ऊँचा पुरुष स्वर भीतर से सुनाई दिया। राघव अविचल वहीं खड़ा रहा। अँधेरे ने उसके चेहरे के भाव भी ढक लिए थे।

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- बहुत देर लगा दी अदिति तुमने....और ये लाइट भी चली गई है।
सिद्धार्थ उसके इंतज़ार में घर के बाहर वाले फाटक पर कुहनी टिकाए खड़ा था। वह बिना कुछ कहे तेज कदमों से अन्दर आ गई। सिद्धार्थ भी फाटक बन्द करके उसके पीछे-पीछे आ गया।
- घर में मोमबत्ती तक नहीं मिली मुझे...
- फ्रिज़ के ऊपर ही तो रखी थी। ढूंढ़ोगे, तभी तो कुछ मिलेगा।
अदिति ने फ्रिज़ पर से उठाकर मोमबत्ती जलाई और उसे लेकर रसोई में चली गई। सिद्धार्थ आँगन में चहलकदमी करता रहा।
- खाना खा लिया तुमने?
- हाँ, भूख लगी थी। तुम्हारे बिना ही खाना पड़ा।
अदिति ने दूध का भगोना गैस पर चढ़ा दिया।
- तुम भी खा लो...
- नहीं, मुझे भूख नहीं है।
- क्या हुआ?
- बस यूं ही...मन नहीं है।
- मैं बैड पर हूँ - वह चलता हुआ कुछ क्षण रुका और साथ ही उसके शब्द भी – तुम दूध गर्म करके आ जाओ।
अँधेरा कुछ और घना हो गया था।
पड़ोस के घर में जनरेटर चल गया था और शोर कानों को तकलीफ़ देने लगा था।
- आज अन्दर के कमरे में सोते हैं। इस कमरे में तो नींद आएगी नहीं।
वह भीतर से चिल्लाकर बोला। अदिति चुपचाप अपना काम निपटाती रही...........

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- कलाकार तो बहुत आज़ाद किस्म के होते हैं। आप इतने बंधनों में क्यों बँधी हैं?
- तुम्हारी घड़ी बहुत सुन्दर है....एक बार दिखाना...
अदिति ने हाथ आगे बढ़ाया और राघव ने घड़ी उतारकर उसके असंतुलित, अस्थिर हाथों में रख दी।
- कैसा टाइम है...दोनों सुइयाँ मिलने को हैं। एक पल को मिलेंगी और फिर दूर चल देंगी।
राघव ने गर्दन आगे को बढ़ाकर समय देखा। ग्यारह बजकर पचपन मिनट हुए थे।
- आपने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया...
- हाँ... – उसे जैसे कुछ याद आया हो – तुम मेरी किस्म पूछ रहे थे शायद?
उस क्षण राघव को जाने क्यों उस पर बहुत तरस आया।
- नहीं, छोड़िए।
एक निरर्थक मुस्कान अदिति के होठों पर दौड़ गई। कुछ पल वह घड़ी में उलझी रही और फिर अस्थिर हाथों ने घड़ी उसके मालिक के हाथों में दे दी।


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............अन्दर का वह कमरा छोटे बल्ब की हरी रोशनी से अपने आप को प्र्काशमय होने की दिलासा दे रहा था, लेकिन दीवारों और छत से रिसता अँधेरा बार-बार कमरे का चेहरा गीला कर देता था।
- तुम बहुत सुन्दर हो अदिति।
सिद्धार्थ ने फुसफुसाते हुए कहा। उसके होठ फिसलते हुए अदिति की गर्दन के निचले हिस्से पर पहुँच गए थे।
- तुम्हें मैं रात में ही सुन्दर क्यों लगती हूँ?
अदिति व्यंग्य से मुस्कुराकर बोली। उसकी स्थिर आँखें छत पर थीं।
व्यंग्य अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचा। लक्ष्य फिसलकर और नीचे गिरने लगा था। अब अँधेरा रिसकर फ़र्श पर टपकता था तो छपाक की आवाज़ आती थी।
- कभी कभी सोचता हूँ कि तुम न होती तो मैं कितना प्यासा रह जाता...
- कोई और होती...
उसकी दृष्टि छत पर ही रही। उसका शेष शरीर उसके नियंत्रण में नहीं था।
- हाँ....- वह फिसलता रहा – मगर सोचो कि कोई औरत न होती तो ?
- तो....
- तो क्या होता अदिति?
- तो तुम सब को जीतने के लिए हिमालय न मिलते, सजाने के लिए पुतले न मिलते और लड़ने के लिए खूबसूरत मैदान...
छत अब आँखों में आ गई थी। दुनिया भर में हिमालय जीते जा रहे थे, रण-क्षेत्र कदमों तले कुचले जा रहे थे, सजे हुए पुतलों की मुट्ठियाँ भिंची हुई थीं और आँखों की पुतलियों में पत्थर की छत चुन दी गई थी।
- लड़कियों में दिमाग साला होना ही नहीं चाहिए। - पसीने से भीगे हुए सिद्धार्थ के जिस्म से आवाज़ आई – इस वक़्त भी कितना सोचती हो....तुम इंटेलेक्चुअल लड़कियाँ...
वह कुछ नहीं बोली।
कम्बख़्त भूख भी रोज लगती है और जब लगती है, तो यह नहीं देखा जाता कि भोजन में क्या है और वह प्यार से दिया गया है, भीख में मिला है या जेल का खाना है। अदिति भी पत्थर होकर खाने लगी। उसकी आँखें भरी रहीं। बाहर लाउड-स्पीकर पर माँ दुर्गा की प्रशस्ति में भजन गाया जा रहा था।


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- मैं तुम्हें नहीं सिखा सकती।
वह उठकर खड़ी हो गई। राघव हाथ में घड़ी लिए बैठा रहा।
- क्यों?
- तुम भी जानते हो कि कला सिखाई नहीं जा सकती।
- हाँ, जानता तो हूँ।
- फिर मेरे पास क्यों आए?
राघव भी उठकर उसके सामने खड़ा हो गया। दाहिने हाथ ने बिना कुछ सोचे घड़ी नीचे गिरा दी और अदिति का हाथ पकड़ लिया। घड़ी खनखनाती हुई पास की सीढ़ियों से होती हुई नीचे जा गिरी। स्पर्श से अदिति के पूरे शरीर में अज्ञात लहर दौड़ी और लहर ने आँखों में चुने हुए पत्थर को चकनाचूर कर दिया।
- तुमने बुलाया क्यों...
राघव का स्वर दृढ़ था और प्रश्न में प्रश्नचिन्ह नहीं था।
- तुम्हारी घड़ी टूट गई है।
दोनों की पलकें फिर भी नहीं झपकीं।
- तुमने बुलाया क्यों।
दोनों इस तरह खड़े थे कि उनकी एक ही परछाई बन रही थी। उसी परछाई के आखिरी सिरे से वह अर्द्ध-चन्द्राकार जीना नीचे उतरता था। बाईस सीढ़ियों वाले जीने की आखिरी सीढ़ी से बाईं तरफ लगभग पन्द्रह कदम वाला एक गलियारा पार करके लोहे के छोटे फाटक से पहले लकड़ी का मुख्य दरवाज़ा था।
दुर्भाग्यवश वह दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं था।
हल्की आवाज़ के साथ दरवाजा खुला। ऊपर की एक परछाई के चार कान वह ध्वनि नहीं सुन पाए। गलियारे में बिछे कालीन में स्वत: ही हल्की सी सलवट पड़ गई। चमचमाते हुए काले जूते अन्दर घुसे। सहमा हुआ कालीन और कोई प्रतिक्रिया नहीं कर सका। नीली लकीर वाली पेंटिंग में एक और लकीर खिंच गई- सफेद रंग की।
जूते रसोई के दरवाजे तक गए, फिर अन्दर के कमरे तक और फिर वापस लौटकर बरामदे में खड़े हो गए।
उस दिन कोई सब्ज़ी नहीं जली, कोई दूध नहीं उफना और किसी बिल्ली ने दौड़ते हुए कुछ नहीं गिराया कि अदिति चौंककर दौड़ी हुई नीचे आती। उस घर का हर सामान और उस चारदीवारी के भीतर की हर घटना जैसे अपने मालिक के साथ मिलकर वह मौन षड्यंत्र रच रहे थे।
- मैं आज़ाद होना चाहती हूँ राघव। यह कैद मुझे मार डालेगी।
वह फूटकर उसके सीने से चिपट गई थी और उसकी आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे।
राघव कुछ नहीं बोल पाया।
- मैं जाने क्या बनना चाहती थी और ये क्या बना दी गई हूँ.....मैं अपने....इस अपने घर में कठपुतली हूँ....
राघव उसका कंधा सहलाने लगा।
- मैं शोकेस में रखी गुड़िया हूँ, जिसे रात को बाहर निकाला जाता है....वेश्या बनाने के लिए...
जूते कुछ देर स्थिर रहे। सिद्धार्थ की नज़र सीढ़ियों के पास पड़ी टूटी हुई घड़ी पर गई। उसने झुककर घड़ी उठा ली और कुछ पल तक उसे उलट-पलटकर देखता रहा। फिर वह धीरे धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
चमड़े के वे जूते, जिन्हें उसी सुबह अदिति ने रगड़ रगड़कर चमकाया था, उस दिन गूंगे हो गए थे।
वह सत्रहवीं सीढ़ी पर था, जब उसने अपनी पत्नी को एक अनजान युवक के सीने से लगकर सुबकते हुए देखा। वह कुछ बोलता, उससे पहले ही उसकी पत्नी की भरी हुई आँखों ने उसे देख लिया था।
अगले ही क्षण उसकी पुतलियाँ गोल गोल घूमने लगीं. फिर पलकें बन्द हुईं और वह राघव के शरीर के सहारे खड़ी कच्ची दीवार की तरह ढह गई। राघव भी संभल नहीं पाया। उसने अपना संतुलन बनाकर नीचे गिरी हुई अदिति को झिंझोड़ते हुए जीने की तरफ देखा तो अठारहवीं सीढ़ी पर सिद्धार्थ था।


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बहुत साल पहले बारह साल की एक लड़की थी। उसकी एक ‘गुड़िया’ जैसी सुन्दर माँ थी। बहुत संस्कारों वाली और धार्मिक माँ थी। पूरा दिन पूजा-पाठ में लगी रहती थी। उसकी आवाज़ भी बहुत अच्छी थी, लेकिन तब उसे सुबह-शाम आरती ही गाने की अनुमति थी। भगवान कृष्ण की उस भक्तिन को कभी किसी ने खिलखिलाकर हँसते हुए नहीं देखा था।
उस दिन वह बारह साल की लड़की दुर्भाग्यवश स्कूल से जल्दी लौट आई थी। उस दिन भी एक छोटे से शहर के एक घर का सब सामान और हर घटना षड्यंत्र रच रहे थे। उस दिन भी दरवाज़ा खुला छूट गया था। लड़की के स्कूल यूनिफॉर्म वाले सफेद जूते भी उस दिन गूंगे हो गए थे। जाने क्या सोचकर उस दिन लड़की और दिनों की तरह ‘माँ-माँ’ चिल्लाकर घर में नहीं घुसी थी।
वह लड़की भी दौड़कर सीढ़ियाँ चढ़कर छर पर पहुँची तो बिल्कुल ऐसा ही एक दृश्य था। हाँ, बारह साल की लड़की को वह कुछ अधिक भयानक लगा था।
बेटी को देखने के बाद माँ के मुँह से झाग निकलने लगे थे और वह भी उसी तरह जमीन पर ढह गई थी।
अंतर केवल यह था कि उसकी माँ उसके बाद नहीं उठी थी और अदिति को आधे घंटे बाद होश आ गया।


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- सिद्धार्थ, प्लीज़ कुछ बोलो। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई....माफ़ कर दो मुझे।
रात हो गई थी। सिद्धार्थ बैड के एक छोर पर बैठा टी.वी. देख रहा था और दूसरे छोर पर बैठी अदिति गिड़गिड़ा रही थी।
- फिर कभी ऐसा नहीं होगा सिद्धार्थ। एक बार माफ़ कर दो मुझे।
सिद्धार्थ ने चैनल बदल लिया। अदिति क कपड़े अस्त-व्यस्त थे और वह रोए जा रही थी।
- चौबीस घंटे से भी ज्यादा हो गए हैं और तुम मुझसे एक शब्द भी नहीं बोले हो...
सिद्धार्थ ने टी.वी. बन्द कर दिया और उसकी ओर देखा। अदिति की आँखों में आशा जगी और उसने एक हाथ से अपना चेहरा जरा सा पोंछ लिया।
सिद्धार्थ को भूख लगने लगी थी और जब भूख लगती है तो यह नहीं देखा जाता कि भोजन प्यार से मिला है या.........
उसने रोती हुई अदिति को एक बाँह पकड़कर अपनी ओर खींच लिया। उसके बाद अदिति बिल्कुल नहीं रोई। सिद्धार्थ उसके बाद भी एक भी शब्द नहीं बोला, लेकिन देर तक भूख मिटाता रहा। वह उसके सोने तक भोजन बनी रही।
उसके सोने के कुछ देर बाद पास लेटी अदिति को फिर दौरा पड़ा। मुँह से झाग निकलने लगे, पुतलियाँ घूमने लगीं और फिर स्थिर हो गई। कुछ मिनट तक वह बेहोश रही।
फिर धीरे-धीरे उसकी पलकें खुलीं। वह चौंककर बैठ गई और उसने अपने आस-पास देखा। कोई सोया हुआ था, जिससे वह सबसे अधिक घृणा करती थी। था कौन, यह उसे याद नहीं आया। उसे यह भी याद नहीं आया कि वह कौन थी। उसे केवल यही पता था कि उसकी बगल में जो आदमी सो रहा है, वह उसका दुश्मन है। उसे लगा कि वह सालों से पिंजरे में बन्द है और पिंजरे का मालिक चैन से सो रहा है। वह यंत्रवत उठी और उसके स्वचालित कदम रसोई की ओर बढ़ गए।




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बहुत साल पहले एक बारह साल की लड़की की माँ असमय ही मर गई थी। कुछ दिन बाद लड़की को माँ के बक्से से कुछ चिट्ठियाँ मिली थीं। सब की सब किसी कृष्ण के नाम थीं। कुछ में उलाहने ही उलाहने थे, कुछ में फरमाइशें ही फ़रमाइशें, लेकिन सब में बहुत सारा प्यार जरूर था।
कृष्ण कौन था, वह बारह साल की लड़की नहीं जान पाई थी, लेकिन उन खतों के एक-एक शब्द में अपनी माँ की बेचैनी वह पहचान गई थी। उसे लगने लगा था कि उसके भीतर भी वही बेचैनी कहीं छिपी बैठी है और उसका बाद का जीवन, उसी घटनाक्रम के अपने साथ दोहराव की प्रतीक्षा में बीता।
बेचैनी वही थी, लेकिन परिणाम कुछ और निकला...

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राघव ने शाम को ही गली की सब ट्यूबलाइटों के तार काट दिए थे। वह जब अपने घर की दीवार फाँदकर गली में कूदा तो कोई नहीं था। उसने अँधेरे में अपने आस-पास देखा और सधे हुए कदमों से अदिति के घर की ओर बढ़ गया।
लेकिन अँधेरे की बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं। वह जब लोहे के फाटक और लकड़ी के दरवाजे वाले उस घर की सामने की दीवार फाँदकर भीतर कूद रहा था तो उसी रात की किन्हीं दो आँखों ने उसे देख लिया।
वह जब भीतर कूदा तो कई बातें एक साथ हुईं। बाहर वाली दो आँखें घर के और नजदीक आ गईं। आसमान बिल्कुल साफ था, लेकिन अचानक बिजली चमकने का भ्रम हुआ। पक्षियों का कोई झुंड तेज आवाज करता हुआ ऊपर से गुजर गया। बरामदे में लगी हुई सब पेंटिंग एक क्षण में नीचे आ गिरीं। गलियारे में बिछा कालीन गोल-गोल घूमकर सिमटता हुआ एक कोने में जाकर छिप गया। रसोईघर ने महसूस किया कि उसकी लोहे की बड़ी छुरी उसके पास नहीं है।
राघव कूदा तो अन्दर के कमरे में बैड पर पड़े सिद्धार्थ की छाती पर बैठी अदिति उसे बिल्कुल सामने दिखी। उसी क्षण उन सब घटनाओं के साथ अदिति ने वह दस इंच लम्बी, हल्का सा जंग लगी छुरी अपने तृप्त पति के गले में उतार दी। गला चिरता चला गया। वह छटपटाया, लेकिन तुरंत हुए दूसरे वार के बाद शांत हो गया। राघव जड़ हो गया था।
अदिति कुछ क्षण तक उसकी छाती पर बैठी रही। फिर उसने छुरी फेंक दी और उतरकर धीरे-धीरे कदम रखती हुई बाहर बरामदे तक आ गई। राघव जड़ ही बना हुआ था, जब अदिति की सपाट नज़र उस पर पड़ी।
- मैंने अपनी आज़ादी छीन ली राघव।
वह वहीं से ऊँचे स्वर में बोली और फिर गश खाकर नीचे गिर पड़ी।
जब उसे होश आया तो राघव दीवार से पीठ टिकाकर उसके सामने बैठा था और उसकी ओर ही देख रहा था। वह चौंककर उठने लगी, लेकिन शरीर में शक्ति न होने से उठ नहीं पाई। नीचे गिरने की वज़ह से माथा भी दो जगह से सूज गया था। उसने बोलने का प्रयास किया, लेकिन मुँह से स्वर नहीं निकला। उसने हाथ से जीभ को छुआ और एक दर्द की तीखी लहर उसके शरीर में दौड़ गई। जीभ पर कटने का निशान था। उसने एक ठंडी साँस भरकर आस-पास देखा।
बरामदे में टंगी हुई सब पेंटिंग नीचे गिरी हुई थीं। वह फटी-फटी आँखों से इधर-उधर देखती रही, फिर बहुत कोशिश करके बोली।
- तुम यहाँ कैसे....और मैं....यहाँ....सब...ये...कैसे?
वह चुप रहा। वह फटी-फटी आँखों से उसके भावहीन चेहरे को देखती रही।
अब उसने गर्दन घुमाई। अन्दर खून से सना सिद्धार्थ का शरीर दिखाई दिया। वह जोर से चिल्लाई और पूरी शक्ति लगाकर खड़ी हो गई। फिर उसने भय और अविश्वास से राघव की ओर देखा। वह वैसा ही भावहीन होकर उसे देख रहा था। वह डरकर पीछे हट गई और पीछे की दीवार से जा लगी। उसने फिर अन्दर की ओर दृष्टि घुमाई और घबराकर आँखें बन्द कर लीं।
तभी दरवाजे की घंटी बजी।
- त..त..तुमने.....ये क्यों किया राघव?
उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे। प्रश्न सुनकर पत्थर बने राघव की आँखें भी रोने लगीं। वह फिर भी चुप ही रहा।
- मुझे पाने के लिए?
वह दर्द के बावज़ूद बोलती ही रही।
- कोई और भी तरीका हो सकता था ना...
अदिति ने आँखें खोल ली थीं।
बाहर से लोग दरवाज़ा पीटने लगे थे। शोर सुनकर ऐसा लग रहा था कि कम से कम दस-बीस तो होंगे ही।
राघव कुछ नहीं बोला। उसे देख देखकर रोता ही रहा।

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जब भीड़ घर में घुसी तो वे दोनों बरामदे में आमने सामने बैठकर रो रहे थे। अन्दर बेरहमी से मारे गए सिद्धार्थ की लाश पड़ी थी और कमरे के दरवाजे पर खून से सनी छुरी थी।
कुछ लोग कहते हैं कि राघव ने सिद्धार्थ की हत्या का आरोप वहीं स्वीकार कर लिया था और कुछ कहते हैं कि वह एक शब्द भी नहीं बोला था।
कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार बिना नाम, चेहरे और पहचान वाली भीड़ ने उसे वहीं पीट-पीटकर मार डाला और कुछ के अनुसार उसने पहले से जहर खा रखा था और भीड़ ने उसे छुआ तक नहीं। पुलिस द्वारा करवाए गए पोस्टमॉर्टम की रिपॉर्ट में भी यही आया कि उसने कुछ जहरीला पदार्थ खा रखा था।
छुरी पर भी उसकी उंगलियों के निशान मिले।
हाँ, यह सब जानते हैं कि अदिति ने उसके बाद अपनी कला से देश-विदेश में बहुत नाम कमाया। लेकिन यह केवल राघव ही जानता था कि उस रात अदिति के कपड़ों पर से खून के छींटे और छुरी पर से उंगलियों के निशान अँधेरे में कहाँ खो गए।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि घटनास्थल पर एक कागज़ मिला था, जिस पर लिखा था- कभी-कभी किसी की आज़ादी के लिए किसी और को कुर्बानी देनी पड़ती है।
कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं मिला था।

Wednesday, January 23, 2008

मीठी नींद

अभी तक यही अटका है तू ...क्या वह मेज मैं साफ करूँगा ?

चल जल्दी से जा वहाँ । ग्राहक खड़ा है। पहले मेज साफ कर, फ़िर यह बर्तन धोना ।

पिंटू जल्दी से वहाँ से उठा और भागा कपड़ा ले कर मेज साफ करने को।

ठंड के मारे हाथ नही चल रहे थे, उस पर पतली सी एक कमीज़, जिसकी आस्तीन बार- बार नीचे आ कर काम करते वक्त गीली हो गई थी ...पर काम तो करना था न ,नही तो यह जालिम मालिक फ़िर से पैसे काट लेगा ..इसको तो पैसे काटने के बहाने चाहिए।


पिंटू जैसे बच्चों की यह रोज़ की कहानी है। .इसके जैसे कितने बच्चे यूं बाल मजदूरी करते हैं। तडके सूरज उगने से लेकर रात को देर तक ..गलियाँ खाते हुए ..बड़े हो जाते हैं।

पिंटू यही गांव के करीब एक ढाबा था वहाँ काम करता था ...पढने का बेहद शौक था ..पर जिस परिवार में जन्म लिया था वहाँ काम ही पढ़ाई थी। बीमार माँ का इलाज ..शराबी बाप का कहर बचपन को कहीं वक्त से पहले ही अलविदा कह गया था।

यदि पढने की वह सोचे भी तो परिवार का क्या होगा बीमार माँ और छोटी सी बहन जो सिर्फ़ अभी ४ साल की है। .कभी उसने भी अच्छे दिन देखे थे। .तब उसके पापा शराब नही पीते थे ..बस जम के मेहनत करते।

माँ भी तब दो चार घरों में काम कर के कुछ पैसे ले आती थी। .कभी- कभी वह भी अपनी माँ के साथ उन बड़े घरों में चला जाता था। उसकी भोली सी सूरत देख कर कभी- कभी कोई कोठी की मालकिन अपने बच्चो के टूटे- फूटे खिलौने या कुछ पुराने कपड़े दे देती थी। पर उसकी निगाह तब भी रंग- बिरंगी तस्वीरों वाली किताबों पर अटकी रहती थी ...फ़िर न जाने धीरे- धीरे सब बदलने लगा। पापा उसके पी कर माँ पर हाथ उठाने लगे और माँ लगातार बीमार .अभी वह ८ साल भी नही हुआ था कि पापा की शराब के नशे में एक एक्सीडेंट में मौत हो गई और उसके सपनों ने तो पहले ही दम तोड़ना शुरू कर दिया था।

अरे! कहाँ गुम हो गया है .??.कहीं भी खड़ा- खड़ा सो जाता है। .चल इधर मर ...जल्दी से- यह २ नम्बर मेज पर चाय और बिस्किट दे कर आ ..मालिक की आवाज़ सुन कर वह अपनी सोच से बाहर आ गया और जल्दी से उस तरफ़ भागा !

वह भी सुबह का भूखा है- बिस्किट देख कर पिंटू को याद आया। .ज्यूँ सुबह से उठ कर रात के २ बजे तक काम में लगता है, तो फ़िर होश कहाँ रहता है ..और आज तो माँ की दवा भी खत्म है।


सही मूड देख कर आज ही मालिक से पैसे की बात करता हूँ ..सोच कर वह जल्दी- जल्दी हाथ चलाने लगा। आज काम में कोई ढील नही देगा ..मालिक को खुश कर देगा।


शाम को काम कुछ खत्म हुआ तो वह डरता- डरता मालिक के पास गया।

क्या है बे ..क्यों खड़ा है यहाँ?


आज कुछ पैसे मिल जाते मालिक ..

एक भद्दी सी गाली उसके मालिक ने मुहं से निकाली और कहा- नही है अभी कुछ पैसे .भाग यहाँ से- अभी काम कर।


दे दो न --माँ बहुत बीमार है- .उसकी दवा लानी है।


अभी चुप- चाप से काम कर नही तो एक लात दूंगा। समझा कुछ।


वह भीगी आँखे लिए वहाँ से हट गया ,,दिन ही बुरे चल रहे हैं।

बिट्टू भी उसके साथ वहीं ढाबे में काम करता था। उस से कुछ बड़ा था और वह भी उसकी तरह ही यूं हालात का मारा था ..वह तो उस से भी ज्यादा मेहनत करता था ..सुबह उठ कर अखबार बाँटना और कभी- कभी फुरसत मिलने पर कुछ और काम भी दो पैसे के लिए कर लेता था.।

कुछ दिन ५ बजे जाग कर अखबार भी बाँटा था बिट्टू के साथ, पर वह पैसे भी यूं ही देखते- देखते खत्म हो गए ...और सुबह इतनी जल्दी जाग कर फ़िर देर तक काम भी नही हो पाता। मुनिया भी कल कैसे दूध के लिए जिद कर रही थी ...और माँ भी रोती आंखो से जैसे कह रही थी कि यह उमर तेरी इतनी काम करने की नही है। पर क्या करे वह ..लगता है कल फ़िर सुबह जल्दी उठाना ही होगा। यह मालिक तो पैसे नही देगा ....एक लम्बी गहरी साँस ले के वह फ़िर से काम में जुट गया।

रात को जा कर उसने बिट्टू से कहा कि सुबह वह भी उसके साथ फ़िर से अखबार के लिए चलेगा।

सुबह उठा तो जैसे सारा शरीर टूट रहा था ..पर नही आज माँ की दवा नही आई तो माँ कि तबियत और बिगड़ सकती है ..रात भर भी वह अपनी खांसी को दबा के सोने के कोशिश करती रही है ...वह उठा और कुछ देर में में बिट्टू के पास पहुँच गया ..बिट्टू ने जैसे ही उसका हाथ पकड़ा साथ चलने के लिए ..तो कहा अरे ! तुझे तो बहुत तेज बुखार है ..तू कैसे यह करेगा? आज तो ठंड भी बहुत है ..तू रहने दे ..आज। .नही नही-.आज यह काम करना बहुत जरुरी है ..नही तो माँ की दवा नही आ पायेगी ..वो ढाबे के मालिक का क्या भरोसा फ़िर आज पैसे न दे और अभी १ तारीख के आने में बहुत देर हैं ..घर में कुछ खाने को भी नही है .तू चल मैं अभी कुछ देर में ठीक हो जाऊंगा।


सुबह के अखबार बाँट कर कुछ पैसे हाथ में आए ..तो चाय पीने की इच्छा जाग गई ...चलो ढाबे में जा कर देखता हूँ ..क्या पता चाय आज मालिक ही पिला दे और ये पैसे बच जाएं . वह बिट्टू के साथ ढाबे पहुँचा और काम में जुट गया शरीर जवाब दे रहा था ...पर जैसे तैसे उसने काम करना शुरू किया .बिट्टू ने उसकी हालत देख कर कहा भी कि आज यहाँ काम रहने दे, तबियत ठीक नही है तेरी, पर मालिक तो छुट्टी के नाम पर ही बिदक उठता है ..नही- नही मैं काम कर लूँगा, तू चिंता न कर। .बिट्टू भी क्या कर सकता था? चाहे उससे कुछ बड़ा था, पर था तो बच्चा ही न ...
अभी एक मेज पर चाय दे रहा था कि जोर से चक्कर आ गया। उस मेज पर बेठे व्यक्ति ने जैसे ही उसको पकड़ा कि न गिरे वह जमीन पर ..तो वह जैसे चौक गया ..अरे इसको तो बहुत तेज बुखार है ..तुम इसके मालिक हो या कसाई? इतनी छोटी सी उमर में इतना काम करवाते हो और यह इतना बीमार है तब भी तरस नही आता तुम्हे इस पर? ...मैं अभी तुम्हारी शिकायत करता हूँ.पुलिस से। .जानते हो आज कल बाल मजदूरी एक अपराध है? ..मैं कई दिन से तुम्हारे ढाबे पर आ रहा हूँ ..देखता हूँ कि तुम इस से बहुत काम लेते हो।

यह सुनकर ढाबे का मालिक डर गया ..उसने पिंटू को झूठे प्यार से देखते हुए कहा - तबियत ठीक नही थी तो नही आना था रे ....
वो मालिक पैसे ..माँ घर में बहुत बीमार है ...दवा लानी थी ...उस ने बहुत मुश्किल से बोला ।..
उसकी साँस अब जैसे उखड़ने लगी थी। ...हाँ -हाँ देता हूँ ..जब तक वह अन्दर से पैसे लाता पिंटू बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा ..उसको गिरते देख वह व्यक्ति जो उसके लिए उसके मालिक से लड़ रहा था ..उसके पास भागकर पहुँचा, पर तब तक देर हो चुकी थी।.एक मासूम बचपन और मौत की मीठी सी नींद में सो चुका था और उस से कुछ दूर खड़ा बिट्टू मूक और असहाय नज़रों से सब देख रहा था !!

Thursday, January 10, 2008

दहेज़ (लघुकथा)

विश्व कप हॉकी के लिए भारतीय टीम का चयन किया जा चुका है। देश छोड़ने से पहले सारे खिलाड़ियों को अपने-अपने परिजनों से मिल आने के लिए दो दिनों की छुट्टी दी गई। रंजीत भी अपने घरवालों से मिलने गया। घर पहुँचने पर उसकी ख़ुशी तब दुगनी हो गई, जब उसने वहाँ अपनी दीदी और डेढ़ वर्षीय भांजे आदित्य को भी पाया।

रंजीत को इस विश्व कप के सरप्राइज पैकेज के रूप में आंका गया है। उन्नीस वर्षीय सेन्ट्रल फार्वड रंजीत के ही नेतृत्व में एक वर्ष पूर्व जूनियर विश्व कप का ख़िताब हमारी झोली में आया था। हाल के तमाम सीरिजों में उसका प्रर्दशन सर्वश्रेष्ठ रहा है।

दो दिनों बाद, तमाम अख़बारों की सुर्ख़ियाँ थी कि प्रैकि्टस के दौरान ‘काफ मसल्स’ खींच जाने के कारण घायल रंजीत की जगह अनुभवी सेन्ट्रल फार्वड रमेश टिर्की अन्तिम ग्यारह में शामिल।

शहर की ख़ुशी पर इस परिवर्त्तन से कोई आंच नहीं पड़ी, क्योंकि दोनों खिलाड़ी इसी मिट्टी की उपज थे। हुआ बस इतना भर था, कि एक भाई ने अपनी बहन की ख़ुशहाली के लिए दहेज की शायद आख़िरी क़िस्त अदा की थी।

कथाकार- अभिषेक पाटनी