Friday, November 30, 2007

कहानी - दो जीवन समांतर

कहानी
दो जीवन समांतर

कहानी
दो जीवन - समान्तर


- हैलो, क्या मैं इस नम्बर पर दीप्ति जी से बात कर सकता हूं?
- हां, मैं मिसेज धवन ही बात कर रही हूं.
- लेकिन मुझे तो दीप्ति जी से बात करनी है.
- कहा न, मैं ही मिसेज दीप्ति धवन हूं. कहिये, क्या कर सकती हूं मैं आपके लिए?
- कैसी हो?
- मैं ठीक हूं, लेकिन आप कौन?
- पहचानो.. ..
- देखिये, मैं पहचान नहीं पा रही हूं. पहले आप अपना नाम बताइये और बताइये, क्या काम है मुझसे?
- काम है भी ओर नहीं भी
- देखिये, आप पहेलियां मत बुझाइये. अगर आप अपना नाम और काम नहीं बताते तो मैं फोन रखती हूं.
- यह ग़ज़ब मत करना डियर, मेरे पास रुपये का और सिक्का नहीं है.
- बहुत बेशरम हैं आप. आप को मालूम नहीं है, आप किससे बात कर रहे हैं.
- मालूम है तभी तो छूट ले रहा हूं, वरना दीप्ति के गुस्से को मुझसे बेहतर और कौन जानता है.
- मिस्टर, आप जो भी हें, बहुत बदतमीज हें. मैं फोन रख रही हूं.
- अगर मैं अपनी शराफत का परिचय दे दूं तो?
- तो मुंह से बोलिये तो सही. क्यों मेरा दिमाग खराब किये जा रहे हैं.
- यार, एक बार तो कोशिश कर देखो, शायद कोई भूला भटका अपना ही हो इस तरफ.
- मैं नहीं पहचान पा रही हूं आवाज़. आप ही बताइये.
- अच्छा, एक हिंट देता हूं, शायद बात बन जाये.
- बोलिये.
- आज से बीस बरस पहले 1979 की दिसम्बर की एक सर्द शाम देश की राजधानी दिल्ली में कनॉट प्लेस में रीगल के पास शाम छः बजे आपने किसी भले आदमी को मिलने का टाइम दिया था.
- ओह गॉड, तो ये आप हैं जनाब. आज.. अचानक.. इतने बरसों के बाद?
- जी हां, यह खाकसार आज भी बीस साल से वहीं खड़ा आपका इंतज़ार कर रहा है.
- बनो मत, पहले तो तुम मुझे ये बताओ, तुम्हें मेरा ये नम्बर कहां से मिला ? इस ऑफिस में यह मेरा चौथा ही दिन है औटर तुमने.. ..
- हो गये मैडम के सवाल शुरू. पहले तो तुम्हीं बताओ, तब वहां आयी क्यों नहीं थी, मैं पूरे ढाई घंटे इंतज़ार करता रहा था. हमने तय किया था, वह हमारी आखिरी मुलाकात होगी, इसके बावज़ूद .. ...
- तुम्हारा बुद्धूपना ज़रा भी कम नहीं हुआ. अब मुझे इतने बरस बाद याद थोड़े ही है कि कब, कहां और क्यों नहीं आयी थी. ये बताओ, बोल कहां से रहे हो और कहां रहे इतने दिन.
- बाप रे, तुम दिनों की बात कर रही हो. जनाब, इस बात को बीस बरस बीत चुके हैं. पूरे सात हज़ार तीन सौ दिन से भी ज्यादा.
- होंगे. ये बताओ, कैसे हो, कहां हो, कितने हो?
- और ये भी पूछ लो क्यों हो.
- नहीं, यह नहीं पूछूंगी. मुझे पता है तुम्हारे होने की वज़ह तो तुम्हें खुद भी नहीं मालूम.
- बात करने का तुम्हारा तरीका ज़रा भी नहीं बदला.
- मैं क्या जानूं. ये बताओ इतने बरस बाद आज अचानक हमारी याद कैसे आ गयी? तुमने बताया नहीं, मेरा ये नम्बर कहां से लिया?
- ऐसा है दीप्ति, बेशक मैं तुम्हारे इस महानगर में कभी नहीं रहा. वैसे बीच बीच में आता रहा हूं, लेकिन मुझें लगातार तुम्हारे बारे में पता रहा. कहां हो, कैसी हो, कब कब औटर कहां कहां पोस्टिंग रही और कब कब प्रोमोशन हुए. बल्कि चाहो तो तुम्हारी सारी फॉरेन ट्रिप्स की भी फेहरिस्त सुना दूं. तुम्हारे दोनों बच्चों के नाम, कक्षाएं और हाबीज़ तक गिना दूं, बस, यही मत पूछना, केसे खबरें मिलती रहीं तुम्हारी.
- बाप रे, तुम तो युनिवर्सिटी में पढ़ाते थे. ये इंटैलिजेंस सर्विस कब से ज्वाइन कर ली? कब से चल रही थी हमारी ये जासूसी?
- ये जासूसी नहीं थी डीयर, महज अपनी एक ख़ास दोस्त की तरक्की की सीढ़ियों को और ऊपर जाते देखने की सहज जिज्ञासा थी. तुम्हारी हर तरक्की से मेरा सीना थोड़ा और चौड़ा हो जाता था, बल्कि आगे भी होता रहेगा.
- लेकिन कभी खोज खबर तो नहीं ली हमारी.
- हमेशा चाहता रहा. जब भी चाहा, रुकावटें तुम्हारी तरफ से ही रहीं. बल्कि मैं तो ज़िंदगी भर के लिए तुम्हारी सलामती का कान्ट्रैक्ट लेना चाहता था, तुम्हीं पीछे हट गयीं. तुम्हीं नहीं चाहती थीं कि तुम्हारी खोज खबर लूं, बल्कि टाइम दे कर भी नहीं आती थीं. कई साल पहले, शायद तुम्हारी पहली ही पोस्टिंग वाले ऑफिस में बधाई देने गया था तो डेढ घंटे तक रिसेप्शन पर बिठाये रखा था तुमने, फिर भी मिलने नहीं आयी थीं. मुझे ही पता है कितना खराब लगा था मुझे कि मैं अचानक तुम्हारे लिए इतना पराया हो गया कि .. .. तुम्हें आमने सामने मिल कर इतनी बड़ी सफलता की बधाई भी नहीं दे सकता.
- तुम सब कुछ तो जानते थे. मैं उन दिनों एक दम नर्वस ब्रेक डाउन की हालत तक जा पहुची थी. उन दिनों प्रोबेशन पर थी, एकदम नये माहौल, नयी जिम्मेवारियों से एडजस्ट कर पाने का संकट, घर के तनाव, उधर ससुराल वालों की अकड़ और ऊपर से तुम्हारी हालत, तुम्हारे पागल कर देने वाले बुलावे. मैं ही जानती हूं, मैंने शुरू के वे दो एक साल कैसे गुज़ारे थे. कितनी मुश्किल से खुद को संभाले रहती थी कि किसी भी मोर्चे पर कमज़ोर न पड़ जाऊं.
- मैं इन्हीं वज़हों से तुमसे मिलना चाहता रहा कि किसी तरह तुम्हारा हौसला बनाये रखूं . कुछ बेहतर राह सुझा सकूं और मज़े की बात कि तुम भी इन्हीं वज़हों से मिलने से कतराती रही. आखिर हम दो दोस्तों की तरह तो मिल ही सकते थे.
- तुम्हारे चाहने में ही कोई कमी रह गयी होगी .
- रहने भी दो. उन दिनों हमारे कैलिबर का तुम्हें चाहने वाला शहर भर में नहीं था. यह बात उन दिनों तुम भी मानती थीं.
- और अब?
- अब भी इम्तहान ले लो. इतनी दूर से भी तुम्हारी पूरी खोज खबर रखते हैं. देख लो, बीस बरस बाद ही सही, मिलने आये हैं. फोन भी हमीं कर रहे हैं.
- लेकिन हो कहां ? मुझे तो तुम्हारी रत्ती भर भी खबर नहीं मिली कभी.
- खबरें चाहने से मिला करती हैं. वैसे मैं अब भी वहीं, उसी विभाग में वही सब कुछ पढ़ा रहा हूं जहां कभी तुम मेरे साथ पढ़ाया करती थी. कभी आना हुआ उस तरफ तुम्हारा?
- वेसे तो कई बार आयी लेकिन.. ..
- लेकिन हमेशा डरती रही, कहीं मुझसे आमना सामना न हो जाये,
- नहीं वो बात नहीं थी. दरअसल, मैं किस मुंह से तुम्हारे सामने आती. बाद में भी कई बार लगता रहा, काफी हद तक मैं खुद ही उन सारी स्थितियों की जिम्मेवार थी. उस वक्त थोड़ी हिम्मत दिखायी होती तो.. ...
- तो क्या होता?
- होता क्या, मिस्टर धवन के बच्चों के पोतड़े धोने के बजाये तुम्हारे बच्चों के पोतड़े धोती.
- तो क्या ये सारी जद्दोजहद बच्चों के पोतड़े धुलवाने के लिए होती है.
- दुनिया भर की शादीशुदा औरतों का अनुभव तो यही कहता है.
- तुम्हारा खुद का अनुभव क्या कहता है?
- मैं दुनिया से बाहर तो नहीं .
- विश्वास तो नहीं होता कि एक आइ ए एस अधिकारी को भी बच्चों के पोतड़े धोने पड़ते हैं.
- श्रीमान जी, आइ ए एस हो या आइ पी एस, जब औरत शादी करती है तो उसकी पहली भूमिका बीवी और मां की हो जाती है. उसे पहले यही भूमिकाएं अदा करनी ही होती हैं, तभी ऑफिस के लिए निकल पाती है. तुम्हीं बताओ, अगर तुम्हारे साथ पढ़ाती रहती, मेरा मतलब, वहां रहती या तुमसे रिश्ता बन पाता तो क्या इन कामों से मुझे कोई छूट मिल सकती थी.
- बिलकुल मैं तुमसे ऐसा कोई काम न कराता. बताओ, जब तुम मेरे कमरे में आती थी तो कॉफी कौन बनाता था?
- रहने भी दो. दो एक बार कॉफी बना कर क्या पिला दी, जैसे ज़िंदगी भर सुनाने के लिए एक किस्सा बना दिया.
- अच्‍छा एक बात बताओ, अभी भी तुम्हारा चश्मा नाक से बार बार सरकता है या टाइट करा लिया है.
- नहीं, मेरी नाक अभी भी वैसी ही है, चाहे जितने मंहगे चश्मे खरीदो, फिसलते ही हैं.
- पुरानी नकचड़ी जो ठहरी.
- बताऊं क्या?
- कसम ले लो, तुम्हारी नाक के नखरे तो जगजाहिर थे.
- लेकिन तुम्हारी नाक से तो कम ही. जब देखो, गंगा जमुना की अविरल धारा बहती ही रहती थी. वैसे तुम्हारे जुकाम का अब क्या हाल है?
- वैसा ही है.
- कुछ लेते क्यों नहीं.
- तुम्हें पता तो है, दवा लो तो जुकाम सात दिन में जाता है और दवा न लो तो एक हफ्ते में. ऐसे में दवा लेने का क्या मतलब.
- जनम जात कंजूस ठहरे तुम. जुकाम तुम्हारा होता था और रुमाल मेरे शहीद होते थे. लगता तो नहीं तुम्हारी कंजूसी में अब भी कोई कमी आयी होगी. तुमसे शादी की होती तो मुझे तो भूखा ही मार डालते.
- रहने भी दो. हमेशा मेरी प्लेट के समोसे भी खा जाया करती थी.
- बड़े आये समोसे खिलाने वाले. आर्डर खुद देते थे औटर पैसे मुझसे निकलवाते थे.
- अच्छा, बाइ द वे, क्या तुम्हारी मम्मी ने उस दिन मेरे वापिस आने के बाद वाकई ज़हर खा लिया था या यह सब एक नाटक था, तुम्हें ब्लैकमेल करने का. मुझसे तुम्हें दूर रखने का रामबाण उपाय?
- अब छोड़ो उन सारी बातों को. अब तो मम्मी ही नहीं रही हैं इस दुनिया में .
- ओह सॉरी, मुझे पता नहीं था. और कौन कौन हैं घर में.
- तुम तो जासूसी करते रहे हो. पता ही होगा.
- नहीं, वो बात नहीं है. तुम्हारे ही श्रीमुख से सुनना चाहता हूं.
- बड़ी लड़की अनन्या का एमबीए का दूसरा साल है. उससे छोटा लड़का है दीपंकर. आइआइटी में इंजीनियरिंग कर रहा है.
- और मिस्टर धवन कहां हैं आजकल?
- आजकल वर्ल्ड बैंक में डेप्युटेशन पर हैं.
- खुश तो हो?
- बेकार सवाल है.
- क्यों?
- पहली बात तो, किसी भी शादीशुदा औरत से यह सवाल नहीं पूछा जाता चाहे वह आपके कितनी भी करीब क्यों न हो. और दूसरे, शादी के बीस साल बाद इस सवाल का वैसे भी कोई मतलब नहीं रह जाता. तब हम सुख दुख नहीं देखते. यही देखते हैं कि पति पत्नी ने इस बीच एक दूसरे की अच्छी बुरी आदतों के साथ कितना एडजस्ट करने की आदत डाल ली है. तुम अपनी कहो, क्या तुम्हारी कहानी इससे अलग है?
- कहने लायक है ही कहां मेरे पास कुछ.
- क्यों, सुना तो था, मेरी शादी के साल के भर बाद ही शहर के भीड़ भरे बाज़ारों से तुम्हारी भी बारात निकली थी और तुम एक चांद की प्यारी दुल्हन को ब्याह कर लाये थे. कैसी है वो तुम्हारी चद्रमुखी.
- अब कहां की चद्रमुखी और कैसी चद्रमुखी.
- क्या मतलब?
- मेरी शादी एक बहुत बड़ा हादसा थी. सिर्फ दो ढाई महीने चली.
- ऐसा क्या हो गया था?
- उसके शादी के पहले से अपने जीजाजी से अफेयर थे. उसकी शादी ही इसी सोच के तहत की गयी थी कि उसकी बहन का घर उजड़ने से बच जाये. लेकिन वह शादी के बाद भी छुप छुप कर कर उनसे मिलने उनके शहर जाती रही थी. मैंने भी उसे बहुत समझाया था, लेकिन सब बेकार. इधर उधर मैंने तलाक की अर्जी दी थी और उधर उसकी दीदी ने खुदकुशी की थी. दो परिवार एक ही दिन उजड़े थे.
- ओह, मुझे बिलकुल पता नहीं था कि तुम इतने भीषण हादसे से गुज़रे हो. कहां है वो आजकल.
- शुरू शुरू में तो सरेआम जीजा के घर जा बैठी थी. बाद में पता चला था, पागल वागल हो गयी थी. क्या तुम्हें सचमुच नहीं पता था?
- सच कह रही हूं. सिर्फ तुम्हारी शादी की ही खबर मिली थी. मुझे अच्छा लगा था कि तुम्हें मेरे बाद बहुत दिन तक अकेला नहीं रहना पड़ा था. लेकिन मुझे यह अहसास तक नहीं था कि तुम्हारे साथ यह हादसा भी हो चुका है. फिर घर नहीं बसाया? बच्चे वगैरह?
- मेरे हिस्से में दो ही हादसे लिखे थे. न प्रेम सफल होगा न विवाह. तीसरे हादसे की तो लकीरें ही नहीं हैं मेरे हाथ में.
- .. .. .. ..
- हैलो
- हुंम.. .. ...
- चुप क्यों हो गयीं?
- कुछ सोच रही थी.
- क्या?
- यही कि कई बार हमें ऐसे गुनाहों की सज़ा क्यों मिलती है जो हमने किये ही नहीं होते. किसी एक की गलती या ज़िद से कितने परिवार टूट बिखर जाते हैं.
- जाने दो दीप्ति, अगर ये चीजें मेरे हिस्से में लिखी थीं तो मैं उनसे बच ही कैसे सकता था. खैर, ये बताओ तुमसे मुलाकात हो सकती है. यूं ही, थोड़ी देर के लिए. यूं समझो, तुम्हें अरसे बाद एक बार फिर पहले की तरह जी भर कर देखना चाहता हूं.
- नहीं.. ..
- क्यों ?
- नहीं, बस नहीं.
- दीप्ति, तुम्हें भी पता है, अब मैं न तो तुम्हारी ज़िंदगी में आ सकता हूं और न ही तुम मुझे ले कर किसी भी तरह का मोह या भरम ही पाल सकती हो. मेरे तो कोई भी भरम कभी थे ही नहीं. वैसे भी इन सारी चीज़ों से अरसा पहले बहुत ऊपर उठ चुका हूं .
- शायद इसी वज़ह से मैं न मिलना चाहूं.
- क्या हम दो परिचितों की तरह एक कप काफी के लिए भी नहीं मिल सकते.
- नहीं.
- इसकी वज़ह जान सकता हूं.
- मुझे पता है और शायद तुम भी जानते हो, हम आज भी सिर्फ दो दोस्तों की तरह नहीं मिल पायेंगे. हो ही नहीं पायेगा. यह एक बार मिल कर सिर्फ एक कप कॉफी पीना ही नहीं होगा. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानती हूं. तुम बेशक अपने आप को संभाल ले जाओ, इतने बड़े हादसे से खुद को इतने बरसों से हुए ही हो. लेकिन मैं आज भी बहुत कमज़ोर पड़ जाउंगी. खुद को संभालना मेरे लिए हमेशा बहुत मुश्किल होता है.
- मैं तुम्हें कत्तई कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगा.
- यही तो मैं नहीं चाहती कि मुझे खुद को संभालने के लिए तुम्हारे कंधे की ज़रूरत पड़े.
- अगर मैं बिना बताये सीधे ही तुम्हारे ऑफिस में चला आता तो?
- हमारे ऑफिस में पहले रिसेप्शन पर अपना नाम पता और आने का मकसद बताना पड़ता है. फिर हमसे पूछा जाता है कि मुलाकाती को अंदर आने देना है या नहीं.
- ठीक भी है. आप ठहरी इतने बड़े मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रुतबे वाली वरिष्ठ अधिकारी और मैं ठहरा एक फटीचर मास्टर. अब हर कोई ऐरा गैरा तो .. ..
- बस करो प्लीज. मुझे गलत मत समझो. इसमें कुछ भी ऑफिशियल नहीं है. ऐसा नहीं है कि मैंने इस बीच तुम्हें याद न किया हो या तुम्हें मिस न किया हो. बल्कि मेरी ज़िंदगी का एक बेहतरीन दौर तुम्हारे साथ ही गुज़रा है. ज़िंदगी के सबसे अर्थपूर्ण दिन तो शायद वही रहे थे. आइएएस की तैयारियों से लेकर नितांत अकेलेपन के पलों में मैंने हमेशा तुम्हें अपने आस पास पाया था. सच कहूं तो अब भी मैं तुमसे कहीं न कहीं जुड़ाव महसूस करती हूं, बेशक उसे कोई नाम न दे पाऊं या उसे फिर से जोड़ने, जीने की हिम्मत न जुटा पाऊं. संस्कार इज़ाजत नहीं देंगे. हैलो .. ... सुन रहे हो न?
- हां हां .. .. बोलती चलो.
- लेकिन अब इतने बरसों के बाद इस तरह मैं तुम्हारा सामना नहीं कर पाउंगी. मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज़.
- ठीक है नहीं मिलते. आमने सामने न सही, तुम्हें दूर पास से देखने का तो हक है मुझे. मैं भी जरा देखूं, तुम्हारा चश्मा अब भी फिसलता क्यों है. पहले की तरह उसे ऊपर बेशक न कर पाऊं, कम से कम देख तो लूं . और हमारी दोस्त ज्वांइट सेक्रेटरी बनने के बाद कैसे लगती है, यह भी तो देखें.
- कम से कम सिर पर सींग तो नहीं होते उनके.
- देखने मैं क्या हर्ज़ है?
- जब मुझे सचमुच तुम्हारी ज़रूरत थी या तुम्हें कैसे भी करके मिलने आना चाहिये था तब तो तुमने कभी परवाह नहीं की और अब.. ...
- इस बात को जाने दो कि मैं मिलने के लिए सचमुच सीरियस था या नहीं, सच तो यह है कि एक बार तुम्हारी शादी यह तय हो जाने के बाद तुमने खुद ही तो एक झटके से सारे संबंध काट लिये थे.
- झूठ मत बोलो, मैं शादी के बाद भी तुमसे मिलने आयी थी.
- हां, अपना मंगल सूत्र और शादी की चूड़ियां दिखाने कि अब मैं तुम्हारी दीप्ति नहीं मिसेज धवन हूं. किसी और की ब्याहता.
- मुझे गाली तो मत दो. तुम्हें सब कुछ पता तो था और तुमने सब कुछ ज्यों का त्यों स्वीकार कर भी कर लिया था जैसे मैं तुम्हारे लिए कुछ थी ही नहीं.
- स्वीकार न करता तो क्या करता. मेरे प्रस्ताव के जवाब में तुम्हारी मम्मी का ज़हर खाने का वो नाटक और तुम्हारा एकदम सरंडर कर देना, मेरा तो क्या, किसी का भी दिल पिघला देता .
- तुम एक बार तो अपनी मर्दानगी दिखाते. मैं भी कह सकती कि मेरा चयन गलत नहीं है.
- क्या फिल्मी स्टाइल में तुम्हारा अपहरण करता या मजनूं की तरह तुम्हारी चौखट पर सिर पटक पटक कर जान दे देता.
- अब तुम ये गड़े मुरदे कहां से खोदने लग गये. क्या बीस बरस बात यही सब याद दिलाने के लिए फोन किया है.
- मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. तुम्हीं ने.. ...
- तुम कोई और बात भी तो कर सकते हो.
- करने को तो इतनी बातें हैं, बीस बरस पहले की, बीस बरस के दौरान की और अब की लेकिन कितना अच्छा लगता, आमने सामने बैठ कर बात कर सकते. लेकिन मैं उसके लिए तुम्हें मज़बूर नहीं करूंगा.
- ज़िद मत करो. अब मैं सिर्फ़ तुम्हारी दीप्ति ही तो नहीं हूं. सारी बातें .. देखनी.. ..
- तो फिर ठीक है. सी यू सून. रखता हूं फोन.
- मिलने के ख्वाब तो छोड़ ही दो श्रीमान. एनी वे, सो नाइस ऑफ यू फार कॉलिंग ऑफ्टर सच एं लाँग पीरियड. इट वाज ए प्लीजेंट सरप्राइज़. तुमसे बातें करते करते वक्त का पता ही नहीं चला. मुझे अभी एक अर्जेंट मीटिंग में जाना है. उसके पेपर्स भी देखने हैं. लेकिन तुम तो कह रहे थे, एक रुपये का और सिक्का नहीं है तुम्हारे पास. पिछले बीस मिनट से तुम पीसीओ से तो बात नहीं कर रहे. वैसे बोल कहां से रहे हो.
- उसे जाने दो. वैसे मुझे भी एक अर्जेंट मीटिंग के लिए निकलना है.
- तो क्या किसी मीटिंग के सिलसिले में आये हो यहां?
- हां, आया तो उसी के लिए था. सोचा इस बहाने तुमसे भी . ...
- कहां है तुम्हारी मीटिंग?
- ठीक उसी जगह जहां तुम्हारी मीटिंग है.
- क्या मतलब?
- मतलब साफ है डीयर, तुम्हारे ही विभाग ने हमारी युनिवर्सिटी के नॉन कॉनवेन्शनल एनर्जी रिसोर्सेज के प्रोजैक्ट पर बात करने के लिए हमारी टीम को बुलवाया है. इसमें महत्वपूर्ण खबर सिर्फ इतनी ही है कि यह प्रोजैक्ट मेरे ही अधीन चल रहा है. यह तो यहीं आकर पता चला कि अब तुम ही इस केस को डील करोगी और.. .. .. .
- ओह गॉड. आइ जस्ट कांट बिलीव. अब क्या होगा. तुमने पहले क्यों नहीं बताया. इतनी देर से मुझे बुद्धू बना रहे थे और.. ...
- रिलैक्स डीयर, रिलैक्स. तुम्हें बिलकुल भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. मैं वहां यही जतलाउंगा, तुमसे ज़िंदगी में पहली और आखिरी बार मिल रहा हूं. बस, एक ही बात का ख्याल रखना, अपना चश्मा टाइट करके ही मीटिंग में आना.
- यू चीट.. ...
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यह कहानी कई बार रेडियो से प्रसारित हो चुकी है। नाट्य-रूपांतरण भी हुआ है। कहानी-कार्यशाला की दृष्टि से इसे प्रकाशित किया जा रहा है। -- संपादक

Tuesday, November 27, 2007

लाश..

रोज देखता था उस लडकी को। सुबह हुई नहीं कि हाँस्टल की पिछली दीवार से लगे कूडे के ढेर में जानें क्या खोजती, ढूंढ़ती, बीनती मिलती। उसके घुटनों से लम्बा उसका बोरा पीठ पर लदा होता। अभी उम्र ही क्या होगी? ज्यादा से ज्यादा आठ वर्ष, किंतु जिन्दगी पीठ पर लदे पहाड़ से कम नहीं। उसका चेहरा उसके कपडो की तरह मटमैला नही था। हल्का गेहुँआपन लिये गोल, आँखें अंदर को धँसी-छोटी-छोटी। मैने अनुभव किया कि वह लडकी जानती ही नहीं हँसी किसे कहते हैं। टीन के ड़ब्बे, प्लास्टिक, पोलीथीन, कागज, अखबार यहाँ तक कि सिगरेट की डिबियों को वह उठा, झाड कर अपनें बोरे में भर लेती।....। हाँस्टल का ये कोना कभी साफ रहा हो मैने नही देखा। चपरासी हर कमरे का कचरा झाड कर यहीं पटक जाता है। उस लडकी के लिये कुबेर का खजाना था ये कोना।....।बचपन यानी कि तितली हो जाना, खिलखिलाना, कूदना, सपने बुनना और जगमग आँखों से आकाश के सारे तारे लूट लेना...पर एसा बचपन! सच, पहली बार देखा। नहीं, उसमें बचपन था ही कहाँ? वह लडकी आठ वर्ष की अधेड थी। कुछ दिनों से उसके साथ एक बच्ची आनें लगी थी, हाथ थामें। उसकी छोटी बहन होगी, शायद। पाँच साल की भी न थी। यहाँ पहुँचते ही वह एक कोने में खडी हो जाती और अपनी दीदी को कबाड बीनते देखा करती । नि:शब्द। बचपना उसके बचपन में भी नहीं दीखा।

सुबह जल्दी उठ जाने के बावजूद स्ट्डी टेबल पर कभी नहीं बैठा। छ्त पर हवा सुहानी लगती थी और मै टूथब्रश मुँह में दबाये घंटे भर दाँतो में इधर उधर करता रहता। सुबह सुबह और सोचता भी क्या? फिर दिमाग खाली भी नहीं रहता शायद इसीलिये कई बार मैने उस लड्की को अपनी सोच में कुलबुलाते पाया था। मुझे बेचैन कर देती थीं उसकी बेहद खामोश आँखें।....और अब यह छोटी...मैं उनकी आँखों में बचपन तलाशता और पाता आँखों के कोरों पर कीचड और भीतर मुर्दनी। बचपन को यह कैसा लकवा? अब कल ही तो वह मशहूर गज़ल सुन रहा था – “ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी”, मेरे तो सारे रोये जैसे रो उठे थे। दिल कोई कस कर दबा रहा हो जैसी स्थिति हो गई थी। सोचता हूँ क्या कभी ये लड़कियाँ समझ सकेंगी इस गजल का अर्थ?....। बोरा खचाखच भर चुका था। लडकी नें दोंनो हाथों से उठा कर वजन सा लिया, फिर एक झटका दोनो हाथों से बोरे को दिया और उसे कंधे से धकेल कर पीठ पर लाद लिया। छोटी नें बहन की फ्राक का एक सिरा थामा और दोनों चल पडीं। सूरज से चिंगारिया निकलनी शुरू हो चुकी थीं और बीच कुछ नीला सा गोल गोल घूमने लगा था। मैनें दादू की चाय की दूकान पर नजर डाली, दादू व्यस्त था। सुबह पाँच बजे ही वह दूकान खोल लेता है और फिर रात्रि नौ बजे तक....पूरा कोल्हू का बैल है वह। मैं भी कुल्ला कर, पानी मुँह और आँखों में डाल, नीचे उतर आया। बाथरूम में अभी पानी नहीं आ रहा था सोचा तब तक एक कप चाय ही सही।

“गोपाल चाय पिला यार” मैने दादू के लडके से कहा। गोपाल यंत्रवत ले आया। इस बीच मैने दादू को ईशारा कर दिया था – “एक फुल, कडी, स्पेशल”। गोपाल के हाँथ से मैने पानी लिया और देखा वह फिर मशीन हो गया है। सामने की बैंच पर जूठन पडी थी, कही से कर्कश आवाज आयी - “कपडा मार’’ और गोपाल बेंच साफ करने लगा। दादू चिल्लाया- ‘’गोपाल पीछे लडका ‘मन’ को दो हाफ चाय दे के आ’’ गोपाल ने दादू के हाँथ से दो ग्लास ले लिये। मेरी चाय बनने में देर थी। दादू मुझसे बेहद परेशान रहता है। सुबह मै कड़ी चाय पीना पसंद करता हूँ, वह भी खालिस दूध की। दादू कई बार टिप्पणी कर चुका है ‘’इतना पत्ती में मै चार जन को चाय पिलाता’’ और कई बार दबा प्रतिरोध भी “इतना कडा चाय पीने से काला हो जायेगा’’।मै दादू की झल्लाहट पर मजाक जड देता हूँ ‘’कौन सा लडकी हूँ दादू कि काला हो जाने से फर्क पडेगा?’’। दादू को भी क्या फर्क पडता है, मेरी चाय का वैसे भी वह तीन रूपया चार्ज करता है। “गोपाल’’ दादू नें फिर आवाज दी, “राजू को चाय दे के आओ’’। गोपाल ने चाय मुझको थमा दी।

आज सुबह से ही दिमाग जानें क्या क्या सोच रहा था और अब.....मैं सर झटक कर अपनी चेतना बटोरनें लगा कि अभी आखिर सोच क्या रहा था मैं...शायद गोपाल के बारे में..वही आठ वर्ष की उम्र, दादू का अपना बेटा....एक बाल मजदूर। “दादू!! तुम गोपाल को पढ़नें क्यों नहीं भेजते?’’ मैने पूछा। “जायेगा अभी टेम नही हुआ” दादू नें अपनी उफनती चाय को स्टोव से उतारते हुए कहा। हाँ! ग्यारह बजे से गोपाल दुकान में नहीं रहता, मुझे याद आया। तब तक चटर्जी काम करता है। दादू नें काम पर रखा है इसे। तपन नाम है पर चटर्जी ही सभी पुकारते हैं.....ये नही पढ़ता। पढेगा तो पैसे नहीं मिलेगे, पैसे नहीं मिलेंगे तो खायेगा क्या? इस तरह के उत्तर उसने मुझे कई बार दिये थे किंतु अपने घर के विषय में कभी नहीं बताया। चंचल है यह लडका। दादू के तो नाकों चने चबवाता रहता है। जब चटर्जी की जरूरत हो चटर्जी गायब। पता चला मैदान में पतंग उडा रहा है। दादू दुकान से चिल्लाता है, और भागता हुआ आता है चटर्जी-क्या काम है? सपाट सा उसका प्रश्न और दादू गालियों का भंडार उस पर खोल देता। मैनें चटर्जी को अपने बचपन के लिये लडते पाया है। उसे दादू की गालियों की परवाह नहीं वेतन कट जानें की परवाह नहीं। परवाह है तो पतंग की, जिसकी डोर में धार नहीं है। इसी कारण तो झबलू की पतंग को बार बार, उलझा कर भी काट नहीं पा रहा। उसे परवह है तो उन सारे कंचो की जिन्हें कल हार गया था। उसे परवह है तो गुल्ली और डंडे’ की क्योकी ‘गिल्ली में पर्याप्त उछाल नहीं है। उसने दादू की मिल्कियत को खुली चुनौती दे रखी है, पीटना है तो पीट लो...। मेरी चाय खत्म हो चुकी थी, गोपाल के हाँथों में ग्लास थमा मै अपने कक्ष की ओर लौटा। डर था कि पानी आ गया होगा, कहीं बाथरूम में भीड न हो गई हो।

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लडकी नें शराब की खाली बोतल उठाई और बोरे में डालने से पूर्व एसी निगाहों से देखा जैसे अभी पटक कर फोड डालेगी। किंतु...शराब भले ही जहर हो, ये बोतल तो उसकी रोटी है, लडकी नें बोतल को बोरे में डाल लिया। उसकी इस गतिविधी नें मेरी कल्पना पैनी कर दी थी...शायद बाप शराबी हो, बच्चियों को मारता पीटता हो, कमाई पी कर उडा देता हो...और..और...मैं अपनी कल्पना में स्वत:संवेदित होने लगा। छ्त से थोडा झुक कर देखा। छोटी, चुपचाप खडी थी। “ए लड़की!! तुम्हारा नाम क्या है” मैने पुकारा। बड़ी के हाँथ कुछ उठाते उठाते रूक गये, उसने झुके हुए ही उपर देखा। मुझे छोटी से मुखातिब देख वह पुन: कार्य में लग गई। “ए लडकी” मैने छोटी को पुन: पुकारा। छोटी ने उपर तो देखा लेकिन सहमी आँखों से। मुझे लगा जैसे मेरे शब्दों में मिठास नहीं और इसीलिये बच्ची सहम गई। “तुम्हारा नाम क्या है?” पूरी मृदुता मैनें आवाज में भरी। छोटी नि:शब्द रही। मैं.....मैं उसके सहम जानें का उत्तर स्वयं से पूछ रहा था। मुझे छोटी पर गुस्सा नहीं आया।......। अभी कुछ दिनों पूर्व ही किसी दोस्त से बहस में मैने दलीलों पर दलीलें दी थीं कि बचपन चाहे निम्न वर्ग का, मध्यम या उच्च वर्ग का, बचपन तो बचपन ही होता है। एक तर्क मुझे मिला “कभी अनाथालय गये हो?”। इस दलील पर यद्यपि मुझे निरुत्तर हो जाना चाहिये था, तथापि मैने जाने किन किन तर्कों से यह वाद- विवाद जीता था।....शायद अपने इसी खोखलेपन से डरा था मैं? दाँतों में घूमता ब्रश अनायास रुक गया। अनाथालय तो बहुत दूर है, मेरे सामने, मेरे रोज की अनुभव-ये दो लडकियाँ। किस बचपन से तुलना करुं और कैसे बचपन से? इनको तो किसी कुत्ते के पिल्ले के बचपन सा सुख भी प्राप्त नहीं...बेचारे....ब्रश दाँतों के इर्द गिर्द फिर घूमने लगा। बोरा भर चुका था और लडकियाँ जाने लगीं। मैं उन्हें जाते देखता रहा। बोझ कंधे पर लादे बडी, जिसकी फ्राक का एक सिरा पकडे छोटी।

मन-मस्तिष्क इतना बोझिल हो गया था कि चाय पीना आवश्यक हो गया। दादू को मैने हाँथ से इशारा किया “एक फुल कडी स्पेशल”। लडकियाँ दादू की दूकान के सामने ही बोझा कंधे से उतार सुस्ता रही थीं। “गोपाल” मैंने आवाज दी। “जा दोनों को हाफ चाय दे कर आना” मैने इशारा किया। गोपाल मेरे चेहरे में दृष्टि टिका कर खडा रहा। “जा दे के आ” मैने आदेश के स्वर में कहा। गोपाल नें अब दादू की ओर देखा। दादू नें दो हाफ गोपाल को थमा दिये। गोपाल फिर भी झिझका, पर हार कर गया ही। “ले” गोपाल नें मोटे स्वर में बडी को कहा। बडी नें दादू की ओर देखा। दादू व्यस्त था। मैंने देखा एक आश्चर्य की रेखा उसके चेहरे पर उभरी, उसकी नज़र मुझपर पडी। “ले लो-ले लो” मैंने आग्रह सूचक शब्दों में कहा। बडी नें दोनों हाँथों में ग्लास थामें फिर छोटी को एक थमा दिया। उसने अजीब सी निगाहों से मुझे देखा, शायद कृतज्ञता थी।

जगदलपुर को पूरी तरह शहर तो नहीं कहा जा सकता। किंतु बस्तर जैसे क्षेत्र के लिये यह जिले का मुख्यालय, शहर से कम भी नहीं। अगरसिंह के साथ मैटिनी शो जा रहा था। अनुपमा चौक पर बहुत भीड थी। “क्या हुआ भाई साहब” मैंने वहीं खडे एक व्यक्ति से पूछा। “एक्सीडेंट” एक शब्द में उसने स्थिति स्पष्ट कर दी। जिज्ञासावश मैं भीड में अपने लिये जगह बनाने लगा। अचानक चौंक उठा...”अरे यह तो वही...वो....वही लडकी है”। “कौन” अगर सिंह नें प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा। “अपने हॉस्टल के पास कबाड बीनने आती है रोज” मेरे स्वर में घबराहट थी और अगरसिंह की आँखों में अचरज। बडी, सडक पर पडी थी। सर फट गया था और खून बिखरा हुआ था। एक सफेद कार जिसके अगले हिस्से पर खून लगा था, वहाँ खडी थी। ड्राईवर कोई धन्नासेठ था जो रूमाल से अपना पसीना पोंछ रहा था।....। मैंने हमेशा देखा है दुर्घटनाओं में ड्राईवर भीड के हाँथ लगा तो भीड उसे अधमरा कर ही मानती है पर....धन्नासेठ के कपडे मँहगी सफारी के थे। टाईपिन भी सोने की नज़र आ रही थी, भला भीड उसे हाँथ कैसे लगा सकती थी? मेरे मन में गुस्से का गुबार सा उठा कि उसका मुँह ही नोंच डालूं या...या...या....मैंने आश्चर्य से देखा, उसनें नें एक निगाह लाश पर डाली फिर वापस अपनी कार में बैठा और चलता बना। मैने कार का नम्बर नोट किया। “चल न यार पिक्चर छूट जायेगी” अगर सिंह नें मेरा हाँथ पकड कर खींचा। “छोड मैं नहीं देखूंगा” मैंने जवाब दिया। मैं उस छोटी लडकी को देख रहा था जो रोये जा रही थी। मेरी पलकों के कोरों पर नमीं बैठने लगी। “तू भी यार छोटी छोटी बातों पर रो डालता है” अगर नें टिप्पणी की। मुझे महसूस हुआ शायद सचमुच.....। वर्ना क्या भीड इसी तरह खामोश रहती? हमें क्या लेना देना की मनोवृत्ति। किसी को भी क्या लेना देना? सडक दुर्घटना में एक मौत हुई बस। फिर ये कुत्ते से बदतर मौत? लाश लावारिस पडी रही। छोटी के रोने की आवाज मेरे कानों में सूईयाँ चुभाने लगी। मैं क्या करता? मैं क्या कर सकता था?...मुझे क्या करना चाहिये था?....?....? ये प्रश्न आज तक अपने आप से दोहराता रहा हूँ। उस क्षण मैं स्वयं को बिखरा बिखरा महसूस कर रहा था, सडक पर बिखरे कबाड की तरह।

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मैं मुँह धोता टहल रहा था, जानता था, अब कबाड बीनने कोई नही आयेगा। फिर भी अनायास छत से झाँक लेता...। रात भर ठीक से सो नहीं सका था।....और सचमुच सप्ताह भर कोई नहीं आया। कबाड जमा होता रहा, होता रहा और आज......आज, छोटी कबाड बीन रही थी। मैंने देखा, फिर देखा, फिर देखा...उसके घुटनों से बडा उसका बोरा। पीठ पर वही सब कुछ - डब्बे, बोतल, सिगरेट के पैकेट, पोलीथीन...। शराब की बोतल उसके हाँथों में थी। छोटी नें बहुत शांत आँखों से देखा, फिर उसे बोरे में डाल लिया। मैं उसके चेहरे में आये हर भाव पढ जाना चाहता था, निराशा हुई मुझे। बोरा भर गया था। छोटी नें वजन लेने के लिये हाँथों से बोरे को खींचा...नहीं बहुत भारी था। उसने पुन: यत्न किया। उससे नहीं उठा। मैनें देखा छोटी नें बोरा खोल भीतर से शराब की बोतल निकाल निकाल फेंक दी। बोरा कंधे पर उठाया और चल पडी, बिलकुल भाव शून्य।....। तभी मैंने देखा वही सफेद कार सामने फर्राटे से निकली और आज खून के एक छींटे उस पर न थे। एक भी नहीं....। मैं देख रहा था एक लाश आहिस्ता आहिस्ता, कंधे पर पहाड़ ढोए जा रही है। फिर मैंने महसूस लिया कि मैं कभी ज़िन्दा था ही नहीं।

राजीव रंजन प्रसाद
27.05.1992

Friday, November 23, 2007

उम्र का एक पड़ाव

उम्र का एक पड़ाव ऐसा आ जाता है, जब बच्चे अपने में व्यस्त ,पति को बात करने की फ़ुरसत नही और घर की लक्ष्मी यदि ख़ुद को व्यस्त ना रखे तो डिप्रेशन की शिकार हो जाती है । अब आप कहेंगे की भला आज की नारी के पास वक़्त कहाँ है डिप्रेशन में जाने का, हर जगह तो उसने ख़ुद को व्यस्त कर रखा है। पर अभी भी आधी से ज्यादा ऐसी गृहलक्ष्मियाँ हैं जो उम्र के 40-45 साल तक आते आते अजीब मनःस्थिति में पहुँच जाती हैं । गृहशोभा , मेरी सहेली कब तक पढ़े और सास बहू सीरियल… वो भी कोई कब तक झेले । सोचते सोचते मीना इस कमरे से दूसरे कमरे में व्यर्थ ही सामान को इधर से उधर करती जा रही थी।

पड़ोस में रहने वाली अपनी हमउम्र का हाल वो देख चुकी थी। पति अत्यधिक बाहर टूर पर , बच्चे अपने में मस्त कुछ करने को जैसे कुछ बचा ही नही । उसके इर्द गिर्द तेज़ी से घूमती ज़िंदगी के पहिए जैसे अचानक से थम से गए .. पति कहता आख़िर तुम्हे दुख किस चीज़ का है, खाओ पीओ अपना मस्त रहो, शॉपिंग करो घर को सजाओ और ख़ुश रहो मुझे भी रहने दो, पर वो यह सब भी किस के लिए करे । शॉपिंग करे पर घर आ के कोई देखने वाला भी तो हो, अपने कुकिंग का शौक पूरा करे पर कोई खाने वाला भी तो हो। उसका मर्ज़ धीरे धीरे ब ढ़ता गया और उसके पति समझ नही पाए.. बात पहले मानसिक उलझनो में उलझी और धीरे धीरे मेंटल हॉस्पिटल तक पहुँच गयी। उसकी स्थिति को याद करते करते मीना के रोंगटे खड़े हो गए। क्या वो ख़ुद ऐसी ही स्थिति में नही जा रही है। उसने ख़ुद को आईने में देखा अस्तव्यस्त कपड़े बिखरे बाल। आँखो के बीचे काले गड्ढे वो आज ख़ुद को देख के सोचने लगी क्या यही वही मीना है? जिसके सुंदरता के चर्चे मायके ससुराल सब जगह होते थे.. नहीं नहीं मुझे कुछ करना होगा.. अपने लिए जीना होगा। मैं अपनी पड़ोसन वाली स्थिति में नही जा सकती हूँ । यह सोचते सोचते वो बाहर बरामदे में आ गयी। तभी उसको पड़ोस में रहने वाली अनु दिखी वो 23 - 24 साल की लड़की थी। अभी पढ़ रही थी कॉलेज में एम् .ए कर रही थी। साथ साथ किसी एन जी ओ में काम भी करती थी । वो शाम को अक्सर मीना के पास आ जाती और उसको अपने साथ चलने को कहती। साथ में …. वह अक्सर मीना को कहती कि आप इतनी सुंदर हो कुछ तैयार हो के रहा करो, अपना ध्यान रखा करो पर मीना अक्सर यह बात टाल जाती कि किस के लिए सजे और ख़ुद को संवारे । पति को देखने तक की फ़ुरसत नही है और न यह कहने की मीना तुम सुंदर हो.. पर आज उसने उसकी बात को गंभीरता से सोचा और फिर अनु को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम उस दिन कुछ सोशल वर्क के लिए कह रही थी ना… । अब बताओ कि क्या करना होगा .?

".सच आंटी आप करेंगी ? आपको भी वहाँ बहुत अच्छा लगेगा और उन नन्हे मासूम बच्चों का जीवन भी सुधार जाएगा वक़्त भी काट जाएगा.." अनु को ख़ुश देख के मीना भी ख़ुश हो गयी

अब वो अपने पति कपिल के जाने के बाद उसके साथ उन स्लॅम एरिया में बच्चों को पढ़ाने निकल जाती.. और अगले दिन बच्चों को क्या सिखाना है, ड्राइंग में, कौन सी कहानी में बच्चो को ज्यादा आनंद आएगा बस अब इसी उधेड़ बुन में दिन बीत जाता.. । घर के काम यथावत हो रहे थे कपिल को सब कुछ अपना समय पर मिल रहा था पर एक परिवर्तन वो अब मीना में देखने लग गया था कि हर वक़्त उसके इर्द गिर्द नाचने वाली मीना अब टेबल पर खाना लगा के उसको आवाज़ लगा देती और उसको सब मिल गया है यह देख के अपने काम में व्यस्त हो जाती हर वक़्त चि ड़चिड़ी रहने वाली मीना अब ख़ुश रहने लगी थी। अक्सर साथ वाली अनु के साथ ना जाने क्या उसकी बाते होती रहती .. और दोनों खूब जोर जोर से हंसती रहती । कुछ कुछ उसको उलझन भी होती थी कि अब हर वक़्त वो उसके चारों तरफ़ नहीं नाचती है.. । पर कुछ सोच के फिर चुप हो जाता कि चलो उसका सिर तो नही खाती अब।

एक दिन अनु और वो शॉपिंग के लिए गए। बच्चो के लिए रंग, किताबे और कई चीज़े ख़रीदने के बाद अनु मीना को जबरदस्ती साड़ी की दुकान पर ले गयी और बोली क्या आंटी अभी आप इतनी बूढ़ी नही हुई है की यह फीके मट्मेले से रंग पहने। उसने मीना के लिए एक गुलाबी रंग की बॉर्डर वाली साड़ी पंसंद की और भी जम के शॉपिंग के बाद वो मीना को ब्यूटी पार्लर ले गयी.. मीना तो अब ख़ुद को नयी राह पर चलने के लिए कर तैयार चुकी थी। और जब वो वहाँ से निकली तो जैसे उनकी उम्र आधी हो गयी थी। घर आ के उसने नयी साड़ी पहनी और आईने में ख़ुद को निहारा... तो वो ख़ुद को भी जैसे पहचान नहीं पाई तभी बाहर कार की आवाज़ आई और घंटी बजी।

कपिल घर आ गया था। उसने दरवाज़ा खोला तो कपिल देखता रह गया .. उसके सामने जो मीना खड़ी थी उसको देख के वो ठगा सा खड़ा रह गया .. हल्की गुलाबी साड़ी, करीने से बंधे बॉल संवारे हुए चेहरे पर हल्का मेकअप ,सफ़ेद पतली सी सफ़ेद मोती की माला, कजराई आँखो में एक चमक थी... कपिल को यूँ हैरान देख के मीना मुस्करा दी.. और शर्मा के नज़रे झुका ली.. कपिल बोला कि मीना तुम सच में आज बहुत खूबसूरत लग रही हो... मीना ने तुनक के कहा कि पहले तो कभी नही कहा आपने। कपिल ने मुस्करा के जवाब दिया कि तुम मुझे हमेशा ही खूबसूरत लगी हो । पर आज तुम्हारी आँखो की चमक ने और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तितव ने तुम्हारी सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं। मैं ही गलत था जो तुम्हे समझ नहीं पाया। सच में अब जा के तुम्हारी इस अकेलेपन की समस्या और कुछ कर गुज़रने वाले जज़्बे को समझ पाया हूँ तुम यूँ ही आगे ब ढ़ो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। मीना सुन के मुस्करा दी अब उस को अपने जीवन की मंज़िल की राह और उस पर चलने का होंसला साफ़ साफ दिखने लगा था ।

Monday, November 19, 2007

सफ़र

शाम थी, धुंधलका था, शान्ति थी पर इन सबका कोई मतलब नहीं था। मन में कोई स्पष्ट विचार नहीं रुक पा रहा था, रुक रहे थे तो सिर्फ़ गुंजलके,आशंकाएं और परेशानियां। बार-बार लगता था जैसे बारिश हो रही है पर ध्यान देने पर पता चलता कि कब की रुक चुकी है। बारिश से धुले घर और उनसे निकली अशोक की डालियां सुंदर लग रही थीं पर॰॰॰॰॰। कष्टों की परतों की चिकनाई ऐसी हो जाती है कि हर सुखद दृश्य फिसल-फिसल जाता है। और वाकई ऐसे सुंदर दृश्य हैं भी॰॰॰॰॰? बड़ी-बड़ी चमचमाती रोड लाइटें, बड़ी-बड़ी इमारतें और उन में चमकती रोशनियां। उनकी ऊंचाइयां सड़क पर चलते लोगों को कितना बौना बना देती हैं यह एहसास सबको होता है या सिर्फ़ उनको जो चलते वक़्त ऊपर देखते हैं ?

ऊंची-ऊंची रिहाइशी इमारतों में,माचिस के डिब्बों सी दीखती खिड़कियों में कितनी ही परेशानियां भेस बदल कर रहती हैं। होर्डिंग में दिखती ख़ूबसूरत लड़कियों की मुस्कान के पीछे भी ज़रूर कोई अनाभिव्यक्त कष्ट होगा जो ये हमेशा मुस्कराती रहती हैं। हर ख़ूबसूरत शै के पीछे अनेक दुख हैं। मां भी तो कितनी ख़ूबसूरत है पर उसके साथ चिपके हैं उसके आदि दुख जिसके बिना उसके चेहरे की कल्पना करने पर सिर्फ़ गोल ख़ाली आकृतियां दिखती हैं।

´´ अब मैं बचूंगी नहीं। ´´ आगे के शब्द सुनने के लिए वह वहीं नहीं रुका रह पाया। संवाद वही थे पर न जाने क्यों अब इनमें सच्चाई की धमक सुनाई देने लगी थी, आज सबसे ज़्यादा,सबसे ख़ौफ़नाक। पहले हताशा हुआ करती थी अब मौत के सामने थक कर किया गया आत्मसमर्ण॰॰॰॰॰॰।

´´ मुझे खोने से डर मत। जैसे मेरे होने की आदत पड़ी है वैसे मुझे खोने का भी अभ्यास हो जाएगा तुझे धीरे-धीरे। ´´ वह यह सोच कर कांप उठता था कि क्या यह धीरे-धीरे उतना ही धीरे-धीरे होगा जितना उसके होने की आदत॰॰॰॰॰॰॰?॰॰॰॰॰॰॰यदि ऐसा हुआ तो धीरे-धीरे मरता जाएगा वह जैसे उसके होने की आदत के साथ धीरे-धीरे जीता चला गया था।

कभी-कभी उसे लगता जैसे वह बचपन से ही दुखों और बीमारियों में रहने के लिए अभिशप्त है। अच्छे दुर्लभ दिन थोड़े से सपनों की तरह याद आते,जब वह मां के बक्से में देखता। पुरानी चिट्ठियां, छोटे हो गए उसके कुछ कपड़े, कुछ पुरानी तस्वीरें जिसमें सब मुस्कुराते दिखते,मां की एक पुरानी लाल साड़ी, कुछ डॉक्टरी रिपोर्टें, एकाध डायरियां और न जाने क्या क्या तो भरा था मां के उस अंधेरे कुएंनुमा बक्से में। जब वह उसमें झांककर देखता तो देखते-देखते काफी दूर निकल आता॰॰॰॰॰॰सालों पीछे तक। वह अपने खेतों में पहुंच जाता, जहां पिता अस्पष्ट आवाज़ में कोई गीत गाते हल चलाते रहते और मां दूर से पोटली में खाना लेकर आती दिखती। पूरा दृश्य उसके बचपन की ड्राइंग का पुस्तिका के सुखी परिवार वाले दृश्य जैसा लगता। वहां से वापस आने में उसे बहुत देर लगती। कई बार रास्ता भटकने के बाद जब वह संदूक से सिर उठाता तो पाता कि उसके चेहरे पर अचानक कांटेदार झाड़ियों की तरह पिता की दाढ़ी उग आई है।

इस घर के सभी कोनों में मां के बसने से पहले कहीं-कहीं पिता भी थे। एक दम तोड़ती चारपाई पर एक गुम होती सच्चाई की तरह जो शायद भीतर ही भीतर कहीं ये सोचते थे कि एक दिन उपर वाला उन्हें इस असाध्य बीमारी से छुटकारा दे देगा। उनकी बरसों की पूजा अर्चना और भक्ति से प्रसन्न होकर उनका जीवन बख़्श देगा ताकि वह अपने छोटे से परिवार को सुखी रख सकें। फिर वह इसी शहर में, सारे खेत उनके इलाज में बिक जाने के विकल्प में, एक और साथ वाला कमरा किराए पर लेकर रह जाएंगे, उसके साथ सटे रसोईघर को मिलाकर। कुछ महीने स्वास्थ्य लाभ लेकर बगल वाली फैक्ट्री में मज़दूरी कर लेंगे। धीरे-धीरे कुछ पैसे बचा कर एक छोटा सा घर ख़रीद लेने का नंगा स्वप्न एक भयावह परछाईं की तरह उनकी आंखों में तैरता रहता था। वह इस तरह के स्वप्नों से बहुत डरता था। जो स्वप्न आंखों में रहते हैं वे पूरे हो सकते हैं,जो चेहरे पर तैरने लगते हैं वे कभी पूरे नहीं होते। वे सुनहले होकर भी डरावने होते हैं। स्वप्न देखने वालों के काल होते हैं। उनकी छाया काली होती है।

पिता के बचने का विश्वास तो था। पिता को विश्वास था अपनी कठोर पूजा पर,उसे विश्वास था खेत का आख़िरी टुकड़ा बेच कर लाए गए उन नोटों पर, उन दवाइयों के ढेर पर, जिसकी गंध की वजह से उसे अपना घर किसी खैराती अस्पताल के अहाते सा लगता। यह विश्वास तब दरकने लगता जब पिता को खांसी आने लगती। बोलते-बोलते आती और वह उसे दबाने की कोशिश करने लगते। इस कोशिश में उनकी आंखें बाहर निकल आतीं और माथे पर असंख्य रेखाएं बन जातीं। चेहरा पीला हो जाता। वह शायद उसे हिम्मत दिलाने के लिए अपनी सिलसिलेवार खांसी रोकते पर इस दयनीय प्रयास से वह डर जाता और सनसे कटा रहता ताकि उन्हें कम बोलना पड़े या वह खुलकर खांस सकें।

पिता ने ख़ामोश होने से पहले भी एक निश्फल पूजा की थी। अंत समय में किसी चमत्कार की उम्मीद में उन्होंने आंखें बन्द कीं तो उनके चेहरे पर एक छोटे से घर का नक्सा झिलमिला रहा था। उसने महसूस किया कि यह उसका कोई जाना पहचाना घर है॰॰॰॰॰बहुत क़रीब से देखा हुआ। उसने डरते-डरते भीतर झांका। पिता बिल्कुल स्वस्थ बैठे मां से बातें कर रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से हंसकर, बिना खांसी। उसे झांकते देखकर उन्होंने उसे हंसते हुए अंदर बुलाया। उसके अंदर जाने पर हमेशा से विपरीत पिता ने गले लगाया और उसे कहा कि वह उससे बहुत प्रेम करते हैं। वह रोने लगा और उसने भी उन्हें बहुत सारा अनाभिव्यक्त प्रेम करने की हामी भरी। जब वह उस घर से बाहर निकला तो उसे लगा कि पिता एक कमज़ोर पीली सी मुस्कराहट मुस्कराएं हों, उस घर को दिखाने की खुशी में। वह घर जो सिर्फ़ उनके चेहरे पर था और जिसमें उन पर पिता होने का कोई दबाव नहीं था। वह पिता के चेहरे से उस घर को साफ करने लगा जैसे किसी पुरानी आलमारी के जाले साफ कर रहा हो। चेहरे से वह तैरता घर साफ कर देने के बाद पिता का चेहरा बहुत विदारक हो गया था, खांसी रोकने के प्रयास में बहुत विकृत।

मां शायद इसलिए नहीं रोई थी कि सारे आंसू वही बहाता रहा था। कई दिनों तक। मां में बहुत हिम्मत थी। वह हमेशा समझाती,´´कमज़ोर मत बन। हिम्मत रख।´´ वह मां के चेहरे पर भी कुछ तैरता हुआ ढूंढ़ता था, घर या कोई सपना, पर वहां सिर्फ़ हिम्मत हुआ करती थी,अपार हिम्मत और एक छोटी सी आशा, बुझती हुई उम्मीद।

´´ मुझे वह लड़की बहुत पसन्द है। तू जल्दी से उससे शादी कर ले ताकि मेरी आंखों को बन्द होने से पहले तृप्ति मिल जाए। ´´ वह थोड़ा शरमा जाता। मां के बक्से में चांदी का एक कड़ा भी था जो सारी बिकती जाती चीज़ों के बीच भी अपना अस्तित्व क़ायम रखे था, मां की जिजीविषा की तरह।

मां ऐसी बातें करती तो कई भागों में बंट जाती थी, कई कोनों में। एक कोने में खाने की व्यवस्था के लिए पड़ोसियों के कपड़े सिलती हुई, कहीं उसकी पढ़ाई के लिए ढेर सारी साड़ियां बिखेरे उनमें फॉल लगाती हुई, कहीं थोक में ढेर सारे मोती लाकर बच्चों के लिए माला बनाती। उसके कई रूप थे। कहीं स्पष्ट, कहीं धुंधले। उन रूपों में सबसे स्पष्ट उसे पता नहीं बरसों पहले का वह रूप क्यों दिखता था जिसमें वह रंगीन साड़ी पहने ईश्वर की मूर्ति के आगे दिया जलाती छोटी सी घण्टी बजाती और सुनाती हर बार की सुनाई गई ईश्वर की महिमा का बखान करती वही कहानियां जिनपर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ।

पूरी पूजा के दौरान वह हाथ जोड़े बैठे रहता। मां आरती करती और वह मां के चेहरे को निर्निमेष देखता रहता। उसे ईश्वर की सारी गढ़ी हुई कहानियों पर विश्वास होने लगता। मां के चेहरे पर दिए की लौ का तेज उतर आता।

ऐसा ही तेज उस लड़की के चेहरे पर भी था जो उसके साथ पढ़ती थी। उसने ग़ौर किया था कि मंदिर की मूर्तियों के सामने हाथ जोड़ कर आंखें बन्द करते समय उसके चेहरे पर मां जैसा तेज उभर आता है। दोनों कॉलेज की छुट्टी के बाद साथ-साथ घूमते उस सुनसान रास्ते पर निकल जाते जहां क़ब्रिस्तान था और हवा चलने पर सर सर की आवाज़ आती थी। लड़की ने एक दिन चलते-चलते उसका हाथ पकड़ लिया था और उसके कंधे पर सिर रख दिया था। उसकी आंखों में पता नहीं क्यों नमी सी छा गई थी और लड़की का चेहरा पानी में देखे जा रहे दृश्य सा लगा था।

´´ तुम्हारे साथ मुझे बहुत अच्छा लगता है। ´´ लड़की का सिर फिर से उसके कंधे पर टिक गया था।
´´ तुम मेरी मां जैसी लगती हो। ´´ वह बोलते हुए समय के जालों में उलझ कर कहीं दूर चला गया था। लड़की ने इस भ्रम के निवारण के लिए कि यह बात उसने उसी से कही है या किसी और से,सिर उठाकर देखा और हंस कर कहा था, ´´ तुम पागल हो। ´´ उस दिन वह बहुत खुश था।

लड़की हाथ देखना जानती थी। उसकी हथेलियों को जब वह अपनी हथेलियों में भर लेती तो उसकी आंखें बड़ी परेशान होतीं। वह कभी इधर उधर देखतीं,कभी लड़की की आंखों से मिल जातीं और कभी दूर कहीं क्षितिज पर टंग जातीं।

´´ तुम किसी से बहुत प्यार करते हो। ´´ वह रेखाओं में देखती हुई बोली।

´´ मैं॰॰॰॰॰॰॰॰वो॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। ´´ उसकी आँखें क्षितिज पर टंग गईं।

´´ पर तुम्हारी रेखाएं बता रही हैं कि तुमने उसे अभी बताया नहीं है। है न॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰? ´´

´´ हां॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। "

´´ तो बता दो उसे। तुम्हार लकीरें बता रही हैं कि वह लड़की भी तुमसे प्यार करती है।"

वह पाता कि दूर क्षितिज पर जहां उसकी आंखें टंगी हैं, वहां डूबते सूरज की लालिमा लेकर एक चेहरा बन रहा है जो उसे देखकर मुस्करा रहा है। उस चेहरे पर ढेर सारी रेखाएं हैं जो उसके हाथों की रेखाएं हैं। वह कुछ पलों के लिए अपनी हथेलियों से अपने चेहरे को ढक लेता और पाता कि उसकी आंखें कुछ नम सी हो गई हैं।

´´ मेरा बेटा बहुत भावुक है। ´´ मां अक्सर आने जाने वालों और परिचितों, पड़ोसियों को बताती। वह सुनकर थोड़ा दुखी होता।

´´ तुम बहुत भावुक हो। भावुक लोग कमज़ोर हो जाते हैं। तुम हिम्मती बनो। ´´ वह मां की इच्छाओं के अनुरूप बनना चाहता था। वह मां को बहुत प्रेम करता था।

वह उस लड़की से भी प्रेम करने लगा था। वह उसके साथ देर तक बैठा रहता और उसकी बातें सुनता। लड़की उन दिनों कुछ ज़्यादा बातें करने लगी थी।

"मां की तबियत बिगड़ती ही जा रही है। सारी दवाइयां बेअसर हो रही हैं। मैं उसके बिना नहीं रह सकता। ´´

ऐसी बातें सुनकर लड़की बोलना बंद कर उसका सिर अपने कंधे पर टिका लेती और उसके घुंघराले बालों में उंगलियां फेरने लगती। एक पेड़ की डाल नीचे झुककर गुलाब के पौधे को सहलाने लगती जिसके आस-पास ढेर सारी तितलियां उड़ रही होतीं। वह लड़की के मौन में और अपने बालों में उड़ रही उंगलियों में सुनता,`` तुम घबराओ मत। मैं हूं न तुम्हारे साथ। ``

`` मैंने नौकरी खोजने की कितनी कोशिशें कीं॰॰॰॰॰॰॰॰। अब कुछ कमा कर मां को कुछ सुख देना चाहता हूं। उसने अपनी पूरी ज़िंदगी मेरे लिए होम कर दी पर मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की। `` वह अपने मौन के ज़रिये लड़की के मौन से संवाद करता।

`` तुम अपनी लड़ाई में हमेशा मुझे अपने साथ पाओगे। `` लड़की उसके मौन का जवाब अपनी आंखों से देती। वह भी एक ग़रीब परिवार से थी और कठिन हालात में अपनी पढ़ाई जारी रखे थी। उसे अपना और लड़की का दुख एक बिरादरी का लगता।

उस दिन उनके एक सहपाठी का राजस्व सेवा में चयन हो गया था और वह जाने से पहले सबको कुछ न कुछ उपहार दे रहा था। उसे एक क्रूर उपहार के रूप में चमड़े का एक सुंदर बटुआ मिला। लड़की के लिए सहपाठी ने जेब से सोने की एक शानदार चेन निकाली और उसके गले में पहनाते हुए कहा था, `` इसे मंगलसूत्र मानना और मेरे लौटने तक मेरा प्रेम सम्भाल कर रखना। `` लड़की ने एकबारगी उससे नज़रें मिलाईं और फिर चेन की तरफ देखने लगी थी। सहपाठी ने भरपूर प्यार से उसके चेहरे पर हाथ फिराते हुए कहा, `` अपना ध्यान रखना। ``

" और तुम भी अपना। `` लड़की बोली थी।

वह कुछ देर तक उस कब्रिस्तान में अकेला बैठा रहा था जहां हवा चलने पर सर-सर की आवाज़ आती थी। रोना नहीं चाहता था क्योंकि उसे हिम्मती बनना था। लड़की से उसने कुछ नहीं कहा क्योंकि वह मौन की भाषा का कायल था। शब्दों में उसे कभी कोई ख़ास वज़न महसूस नहीं होता था।

`` जाने दे। भूलने की कोशिश कर उसे। तुझे चाहने वाली बहुत लड़कियां आएंगीं। तू हीरा है। उसे याद कर एक आंसू भी मत बहाना। तुझे कमज़ोर नहीं होना। `` मां कितनी हिम्मती है,उसे आश्चर्य होता। वह कमज़ोर नहीं बनना चाहता था। उस लड़की के बारे में सोचकर वह एक बार भी नहीं रोया।

`` मेरे मर जाने पर घबराना मत, हिम्मत से काम लेना। बगल से पड़ोसियों को तुरंत बुलवा लेना। मुझे चारपाई से नीचे उतार कर तुरंत चारपाई उल्टी करके खड़ी कर देना। फिर सोचना कि किन-किन रिश्तेदारों को उसी समय बताना है और किसे बाद में। घबराना बिल्कुल नहीं। अब तू बच्चा नहीं है। रोना तो बिल्कुल मत।

"वह यूं ही निरुद्देश्य टहलते उंची-उंची इमारतों से अपने बौनेपन को नापता जब घर पहुंचा तो घर में घुप्प अंधेरा था। उसने मां को आवाज़ दी, `` मां,मोमबत्ती बुझ गई क्या ?``

ज़ाहिर है मोमबत्ती बुझ चुकी थी पर कोई आवाज़ न पाकर उसने माचिस टटोलते हुए फिर पुकारा, `` मां॰॰॰॰॰ये मोमबत्ती कैसे बुझ गई मां ?``

उसने दूसरी मोमबत्ती जलाई। पहली गल कर ख़त्म हो गई थी। शायद वह सड़कों पर देर तक घूमता रहा था।

`` मां॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰माँ••••••••। `` उसने कई बार पुकारते चिल्लाते लगभग मां को झिंझोड़ दिया पर पूरा कमरा निश्चल था सिर्फ़ मोमबत्ती की लौ को छोड़कर जो बाहर से आती हवा से हिल रही थी।

`` मांSSSSSSSSSSSSS॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰। `` वह हताश सा ज़मीन पर ढेर हो चुका था। आंखों में नमी सी आ गई थी और सारे दृश्य पानी में डूब कर देखे जैसे लग रहे थे। एक झटके में सैकड़ों दृश्य आकर चले गए और आंखों के सामने अंधेरा छा गया। लगा जैसे पेट में कुछ खौलते-खौलते कलेजे तक आ गया है और यदि उसने मुंह खोला तो झटके से बाहर आ जाएगा। कुछ भी हो, उसे रोना नहीं था। उसे मज़बूत बनना था। वह बच्चा नहीं था। धीरे से उठा और मां के बक्से की टेक लगा कर खड़ा हो गया। मां को कमज़ोरों से घृणा थी। उसे पड़ोसियों को बुलवाना था। मां को नीचे उतरवाना था। चारपाई को उल्टा खड़ा करना था। रिश्तेदारों को सूचित करना था। उसे बहुत कुछ करना था पर उसे रोना नहीं था। उसे मज़बूत बनना था। वह धीरे-धीरे अपने कमज़ोर मन पर क़ाबू कर रहा था। उसने जबड़े भींच कर एक लम्बी सांस ली और मां की बात रखते हुए अपने आप को कुछ देर में संयत कर लिया। यह वाकई मुश्किल था पर उसने थोड़ी देर में खुद को बड़ा बना लिया।

`` सुन बेटा। ज़रा एक गिलास पानी दे देना। `` मां के बोलने पर वह अचानक चिहुंक उठा था और बाहर से आती हवा से मोमबत्ती की लौ इतनी तेज़ी से कांपी थी मानो बुझ जाएगी।

`` मां॰॰॰॰॰॰॰॰॰तु॰॰॰॰तुम॰॰॰॰मैं॰॰॰॰॰॰॰॰॰मुझे॰॰॰॰॰॰। `` उसे पता नहीं चल पा रहा था कि वह भ्रम में है या यथार्थ में।

`` इस स्थिति में कभी-कभी ऐसा हो जाता है रे। ऐसी बेहोशी जैसी नींद आती है कि॰॰॰॰॰॰॰॰॰। पानी दे और मेरी दवाइयां भी उठा देना। ``

वह पानी और दवाइयां देकर खटिए के पास बैठ गया। उसकी आंखें तेज़ी से झपक रही थीं और जबड़े भिंचते जा रहे थे। होंठ तिरछे होने लगे थे और वह सीधे रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा था। मां ने थोड़ा पानी पहले पिया। दवाई खोलकर खाते हुए मां ने ऐसे ही पूछ लिया, `` क्या हुआ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰? ऐसे क्या देख रहा है ? ``

बदले में वह खटिए की पाट से सिर टिकाकर छोटे बच्चे की तरह रोने लगा।

Monday, November 12, 2007

प्रेम कहानी

एक बहुत पुरानी बात है और बहुत नई भी। एक काले रंग का शहर था, जो रात को जल्दी सो जाता था और सुबह मुँहअंधेरे उठ जाता था। उसमें एक लड़का रहता था और एक लड़की भी।

लड़की साँवली सी थी और चंचल भी। बचपन में अक्सर सभी चंचल होते हैं, मगर लड़का नहीं था। लड़का बहुत सोचता था, बहुत गंभीर रहता था। उसे पता नहीं चला कि उसके स्कूल में पढ़ने वाली उसकी हमउम्र एक लड़की उसे देखने के लिए दिनभर बहाने ढूंढ़ती है और उसी के बारे में सोचती रहती है। लड़का पढ़ने में बहुत होशियार था और बोलने में भी। लड़की चंचल थी, लेकिन बोलती कम थी।

लड़के के मन में स्त्री जाति के प्रति दुराग्रह सा था। और भी कम उम्र में दो-तीन बार लड़कियों के साथ खेल-खेल में हुए झगड़े ही इसके लिए उत्तरदायी थे या कोई जन्मजात भावना इसके पीछे थी, यह कोई नहीं जानता था। दुराग्रह कम न होने का एक कारण यह भी था कि उसने होश संभालते ही स्वयं को लड़कियों से दूर रखना शुरु कर दिया था। तो लड़की को उसका दुराग्रह, कटा-कटा रहना और गंभीर रहना ही अच्छा लगने लगा। लड़का तो अनभिज्ञ था, सो एक दिन लड़की ने ही बात का आरंभ करना चाहा। वह लड़के की तरह बोलने में चतुर नहीं थी, इसलिए कई दिन तक तय नहीं कर पाई कि क्या बोले? उसने दूसरा रास्ता चुना।

वे दोनों छठी कक्षा में पढ़ते थे। स्कूल की छुट्टी के बाद लड़का जब अपने दोस्त के साथ घर के लिए निकलता था तो लड़की उसके पीछे रहती थी। दो-तीन सौ बच्चों की भीड़ में लड़की का काम और भी आसान हो जाता था। लड़की का घर पहले आता था- स्कूल से करीब सौ मीटर दूर। उस बीच में लड़की, लड़के की पीठ पर टँगे बस्ते पर चॉक से टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियाँ बना दिया करती थी और फिर मुस्कुराकर अपनी गली की ओर मुड़ जाती थी।

लड़का रोज शाम को घर पहुँचकर अपने बस्ते पर बनी सफेद रेखाएँ देखता और उन्हें साफ करते हुए अपराधी का अनुमान लगाने का प्रयास करता। उसके शक की उंगली कई लड़कों पर जाती, लेकिन किसी लड़की पर कभी नहीं।

एक सप्ताह तक लड़की भीड़ का फायदा उठाती रही और लड़का अपराधी को नहीं पहचान सका। सोमवार को उसे एक तरीका सूझा। उसने अपने दोस्त को पीछे कुछ दूरी पर रहने और अपनी तरफ देखते रहने को कहा। लड़की चंचल थी, मगर चतुर नहीं। उसके दोस्त ने उसे पहचान लिया।

पता चलते ही लड़के के मन का दुराग्रह और मजबूत हो गया और उसने बदला लेने की ठानी। अब छुट्टी के समय वह और उसका दोस्त सबसे अंत में स्कूल से निकलते और लड़की के पीछे रहते। मौका देखकर लड़का, लड़की के बस्ते पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच देता।

लड़की द्वारा बनाई गई रेखाएँ और आकृतियाँ मधुरता लिए होती थीं, जबकि लड़के द्वारा खींची रेखाएँ बहुत कठोर थीं।

लेकिन लड़का प्रतिशोध नहीं ले पाया। अब लड़की जानबूझकर उससे आगे रहती थी और अपनी गली आने पर मुस्कुराकर मुड़ जाती थी। अगली सुबह जब वह कक्षा में आती तो बस्ते पर वे आड़ी-तिरछी रेखाएँ बनी रहती थीं। उसने उन्हें एक दिन भी साफ नहीं किया। घर जाकर सबसे पहले अपना बस्ता उतारती और उसे दौड़कर छत पर ले जाती। वहाँ कोई नहीं होता था। फिर बस्ते को सामने रखती और उसे तब तक देखती रहती, जब तक कि कोई उसे बुलाने न आ जाता।

पाँच दिन तक जब लड़की के बस्ते पर बनी रेखाएँ और गली में मुड़ते समय की उसकी मुस्कुराहट बढ़ती ही गई तो लड़के ने रेखाएँ खींचना बन्द कर दिया। उसका प्रतिशोध का भाव खो गया था और अब उसके मन में लड़की की मुस्कान का राज जानने की जिज्ञासा पनपने लगी। शनिवार की शाम को वह इसी उलझन में घर लौटा और लड़की मुस्कुराती हुई लौटी, इस बात से अनजान कि आज उसके बस्ते पर लड़के की उंगलियाँ नहीं थिरकी हैं।

लड़की पीठ से बस्ता उतारकर दौड़ी दौड़ी छत पर गई और एक कोने में आराम से बैठकर बस्ता सामने रखा। उसे देखते ही उसका चेहरा उतर गया। उसने घुमा-फिरा कर पूरा बस्ता देखा। चॉक का एक भी नया निशान नहीं था। वह मुँह लटकाए बैठी रही और सोचती रही। वह लड़के जितनी गंभीर हो गई थी।

थोड़ी देर बाद माँ ने आवाज दी- दूध पी ले।
वह वहीं बैठी रही।
पाँच मिनट बाद फिर से आवाज आई- आजा, दूध पी ले।
वह नहीं हिली।
अब उसकी माँ ऊपर आई और उसका हाथ पकड़कर नीचे ले गई।
उस रात को लड़की सबसे अंत में सोई। बिस्तर पर अपनी माँ की बगल में लेटी-लेटी जाने क्या-क्या सोचती रही।
लड़का भी अपने घर में सबसे अंत में सोया। वह सोचता रहा कि लड़की की खुशी और चंचलता रोज बढ़ती ही क्यों जा रही थी? स्त्री जाति के लिए जो भाव उसके मन में पहले से थे, वे इसका उत्तर नहीं दे पाए। जब वह सोया तो उसके मन में लड़की के लिए एक मधुर कोना बनने लगा था, जो सुबह तक और बड़ा हो गया था।
लड़का अगले दिन किसी कारण से स्कूल नहीं जा पाया। उदास लड़की की नज़रें पूरा दिन उसे ही खोजती रहीं। आधी छुट्टी में उसका टिफ़िन नहीं खुला और वह सब लड़कियों से दूर एकांत में बैठी रही। शाम को स्कूल से लौटते हुए जब वह अपनी गली में मुड़ी तो उसके चेहरे पर हर दिन वाली मुस्कान नहीं थी।
- आज खाना क्यों नहीं खाया?
उसकी माँ ने पूछा।
वह उस दिन दौड़कर छत पर भी नहीं गई थी। माँ के प्रश्न का उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
- तेरी तबियत तो ठीक है? माँ ने लाड़ से उसकी कलाई पकड़ते हुए कहा।
वह चुप रही। उसका मन किया कि जोर से रोने लगे, मगर वह रोई नहीं। वह रोई तब, जब माँ के लाख मनाने पर भी उसने रात का खाना नहीं खाया और माँ ने गुस्से में उसे थप्पड़ मारा।
- शायद मैं रोने का बहाना ढूंढ़ रही थी।
लड़की अपनी माँ की बगल में लेटी-लेटी सोचती रही।

उस एक दिन में लड़के के मन की जिज्ञासा भी बढ़ गई और उस मधुर कोने का आकार भी। वह अगले दिन स्कूल गया तो रास्ते भर लड़की के बारे में ही सोचता रहा। लड़की गुमसुम हुई अपनी सीट पर बैठी थी। लड़के ने पीछे से जाकर उसका कंधा थपथपाया।
- तू उदास क्यों है?
वह बातें बनाने में वाकई होशियार था। लड़की ने पलटकर उसे अपने पीछे खड़ा देखा तो एकदम से उसकी आँखें मुस्कुराने लगीं। वह बोली नहीं।
- मैं तेरे बस्ते पर चॉक चलाता था।
उसने लड़की के बस्ते पर बनी हुई सफेद रेखाओं की ओर इशारा करते हुए कहा।
- क्यों?
लड़की भी वाकई चंचल थी, हालांकि बोलती कम थी। अब उसकी आँखों की मुस्कान चेहरे पर भी आ गई थी।
- क्योंकि पहले तू चलाती थी।
उसकी बात सुनकर लड़की खिलखिलाकर हँस दी। लड़के को भी उसका हँसना अच्छा लगा। उसके चेहरे पर भी एक गर्वीली मुस्कान आ गई।
-आज आधी छुट्टी में मेरे साथ खाना खाएगी?
लड़की ने तुरंत स्वीकृति में गर्दन हिला दी। खाना खाते हुए लड़की को लगा कि लड़का उतना भी गंभीर नहीं है, जितना दिखता है। लड़की उसकी हर बात पर मुस्कुराती रही।

दस दिन बाद लड़के ने रात में एक सपना देखा। वह एक पेड़ के पास लड़की के साथ बैठा था और बाकी सपना वह समझ नहीं पाया। सुबह उठा तो उसे लगा कि इतना प्यारा सपना उसने पहले कभी नहीं देखा था।
- कल रात मैंने सपने में तुझे देखा।
अगले दिन वह आधी छुट्टी में लड़की को बता रहा था।
लड़की फिर मुस्कुराने लगी।
- मेरा मन करता है कि मैं सारा दिन तेरे साथ ही बैठी रहूँ।
- मेरा भी...
आधी छुट्टी ख़त्म होने से पहले ही वे दोनों स्कूल के पीछे के मैदान में आकर एक पेड़ के पीछे छिप गए। दोनों के चेहरों पर मुस्कान थी।
- तू फ़िल्म देखती है?
थोड़ी देर बाद लड़के ने पूछा। तब तक कक्षाएँ शुरु हो चुकी थीं।
- हाँ...
लड़की के चेहरे की मुस्कान बढ़ गई थी।
- उसमें जैसे होता है ना...
लड़का कुछ सोचकर रुक गया।
- क्या होता है?
लड़की के स्वर में आत्मीयता और जिज्ञासा थी।
लड़का कुछ क्षण वैसे ही खड़ा रहा, फिर अप्रत्याशित ढंग से उसने लड़की का गाल चूम लिया। बिल्कुल बालसुलभ चुम्बन था वह, जो केवल बच्चों के कोष में ही होता है- बहुत निर्मल और प्यारा।
लड़की इससे घबराकर एकदम से दो कदम पीछे हट गई और स्तब्ध सी होकर लड़के को देखती रही। इस प्रतिक्रिया से लड़के के मन में अपराधबोध सा आ गया और उसके चेहरे की मुस्कान चली गई। लड़की ठिठककर वहीं खड़ी रही और उसे एक अपरिचित की तरह देखती रही।
- तू बहुत गन्दा है।
लड़का नहीं समझ पाया कि उसके शब्दों में घृणा ही थी या कुछ और था?
लड़की की आँखें भर आई थीं। लड़का कुछ न कह सका, उसे देखता रहा।
- तू सच में बहुत गन्दा है।
लड़की ने फिर कहा और दौड़ती हुई क्लास की तरफ चली गई। लड़के ने दूर से देखा कि वह दौड़ते-दौड़ते एक हाथ से अपने आँसू भी पोंछ रही थी।
दोपहर भर लड़का उसी पेड़ के नीचे बैठकर अपने आप को अपराधी की तरह कोसता रहा।
रात को अपनी माँ के साथ बिस्तर पर लेटी हुई लड़की ने माँ से पूछा- मम्मी, गन्दे बच्चे अच्छे नहीं होते?
उसकी माँ हँस दी।
- बेटा, जो गन्दा होता है, वह अच्छा नहीं हो सकता।
- कोई गन्दा क्यों होता है?
- तू सो जा अब।
माँ ने करवट बदल ली थी। लड़की फिर देर से सो पाई।

अगले पूरे दिन बरसात होती रही। लड़की स्कूल नहीं गई। लड़का गया, लेकिन वह और दिनों की अपेक्षा अधिक गंभीर था। उसकी आँखें दिनभर लड़की को खोजती रहीं, लेकिन अमावस की रात में चाँद ढूंढ़ना संभव नहीं था।
शाम तक उसका अपराधबोध चरम पर पहुँच गया। उसके बाद का छुट्टियों का एक हफ़्ता उसके लिए एक साल की तरह बीता और उसके बाद का एक-एक साल, जन्मों की तरह....
और लड़की?
लड़की के पिता का तबादला हो गया था। छुट्टियों के दौरान एक सुबह वह उदास लड़की अपने परिवार के साथ उस काले शहर को छोड़कर चली गई।
कोई उम्मीद नहीं छोड़ी गई, कोई संदेश नहीं छोड़ा गया। लेकिन बेशर्म काला शहर उसके बाद भी जल्दी सो जाता था और मुँहअंधेरे जग जाता था। केवल वह एक लड़का देर से सोने और जल्दी जगने लगा था।
- तू बहुत गन्दा है।
लड़का इस वाक्य को सुनने के लिए और लड़की इस वाक्य को दोहराने के लिए वर्षों तड़पती रही। लड़का काले रंग के शहर में और लड़की सफेद रंग के शहर में...
पेड़, स्कूल, बस्ते और गली, सबका रंग खून सा लाल हो गया था।


सात साल गुजर गए।
लड़का काले शहर को छोड़कर होस्टल जा रहा था। ट्रेन के उस डिब्बे में कम ही लोग थे। लड़का चुप बैठा उस ट्रेन से बहुत दूर कुछ सोच रहा था। उसकी आँखें अब धुंधली सी हो गई थीं। ऐसा लगता था, जैसे हर समय आँसू तैरते रहते हों। अचानक उसे कुछ याद आया। अपनी सीट के नीचे रखा अपना बैग उसने बाहर निकाला और उसे खोलकर एक छोटा सा स्कूल बैग बाहर निकाल लिया।

बैग पुराना पड़ चुका था और उस पर सफेद रेखाओं के कुछ फीके से निशान थे। लड़का उसे हाथ में लेकर देखता रहा। कोई भाव उसके गंभीर चेहरे से बाहर नहीं आ पाया। आँखें कुछ ज्यादा धुंधली लगने लगी थीं।
कुछ क्षण बाद जैसे ही वह उस स्कूल बैग को फिर से बैग में रखने लगा, एक मीठी सी आवाज़ कानों में पड़ी।
- तुम बहुत गन्दे हो।
काले शहर में एकदम से बादल छा गए थे और तेज बारिश शुरु हो गई थी। एक स्कूल के मैदान में खड़ा एक पेड़ तेज हवा में उड़ने को तैयार था। एक गली का मोड़ तेजी से दौड़ने लगा था। रद्दी की दुकान पर पड़ा हुआ एक टिफ़िन बॉक्स लुढ़कता हुआ दूसरे से जा टकराया था। एक मकान की छत अपने आसमान से कुछ कह रही थी।
लड़के ने चेहरा उठाकर देखा। सामने एक लड़की बैठी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें उसके होठों के साथ मुस्कुरा रही थीं।
- क्या?
- तुम बहुत गन्दे हो।
उसकी मुस्कान बढ़ गई थी। लड़का कुछ पल चुप रहा। उसे लगा कि यदि वह बोला तो अपनी बात कहने के लिए उसे हज़ारों शब्द एक साथ बोलने पड़ेंगे।
उसका चेहरा अब उतना गंभीर नहीं लग रहा था, न ही आँखें उतनी धुंधली लग रही थीं।
- तुम अब भी उतना ही कम बोलते हो?
लड़के की आँखों से अश्रुधार बह निकली। लड़की के पास बैठा एक आठ-नौ साल का बच्चा लड़के को घूर-घूरकर देखता रहा। फिर उसने प्रश्नात्मक दृष्टि लड़की पर डाली। लड़की की बड़ी-बड़ी आँखें अपनी जगह पर नहीं थीं। वे अपने चेहरे से छूटकर आसमान में कुछ ढूंढ़ रही थीं।
- कहाँ थी तुम?
लड़का बहुत कोशिश करके बोल पाया।
लड़की अपने पास बैठे बच्चे को लक्ष्य करके बोली- अभी एक बहुत बड़ा मन्दिर आएगा। तू डिब्बे के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जा। उसके आगे हाथ जोड़कर जो भी माँगो, मिल जाता है।
बच्चा कुछ न समझ पाने की मुद्रा में उसे देखता रहा और फिर धीरे से उठकर चल दिया। जाते-जाते उसने आँसुओं से भीगे चेहरे वाले लड़के की ओर भी देखा।
- कहाँ थी तुम?
लड़का अब बेचैनी से बोला
- इसी दुनिया में थी।
वह बाहर देखने लगी थी।
- कोई ऐसे चला जाता है क्या? बिना कोई आस छोड़े....
- हाँ...
- जानती हो.... लड़का कहता-कहता रुक गया।
काले शहर में बारिश थमने लगी थी। पेड़ ने अनिश्चित भविष्य के डर से अपने पंख सिकोड़ लिए थे। गली के मोड़ के कदम पीछे हटने लगे थे। रद्दी की दुकान का शटर अपने आप ही बन्द होने लगा था। आसमान से एक बूँद मकान की छत पर टपकी।
लड़की अपनी खुली हुई हथेली और उसमें खारे आँसू की बूँद को देखती रही और फिर हथेली होठों से लगाकर पी गई। उसकी आँखें उसके चेहरे पर लौट आई थीं और उस दृश्य को कैद कर लेने के लिए बन्द हो गई थीं।
- जानती हो, मैं कितने महीनों तक शाम को लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखता था कि तुम आओ और बेफ़िक्र होकर चॉक चला सको...
- जानते हो, मैंने अपने घर में वैसा ही एक नीम का पेड़ लगाया था। सोचती थी कि किसी दिन जब मैं घर लौटूँगी, तुम उसके नीचे वैसे ही खड़े मिलोगे...
अंत तक आते-आते लड़की ने जोर से आँखें मींच लीं।
- कहाँ जा रही हो अब?
लड़की ने धीरे से आँखें खोलीं और मुस्कुराने का असफल प्रयास किया।
- तुम कहाँ जा रहे हो?
- होस्टल... लड़की चुप होकर बाहर की ओर देखती रही।
- कहाँ जा रही हो तुम?
इस बार लड़के के स्वर में बेबसी आ गई थी।
- क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं कहीं भी जाऊँ?
लड़की अब उसकी ओर देखती हुई बोली। पेड़ पर बैठी एक चिड़िया बारिश थमने पर उड़ी और गीले पंखों के कारण वहीं गिर पड़ी।
- उसे फ़र्क पड़ता है, जो सात साल तक इस आग में जलता रहा कि तुम उसकी एक छोटी सी गलती के कारण बिना कुछ कहे चली गई थी।
- तुम्हें अब तक याद है?
- भूल जाता तो अब रो रहा होता? आँसुओं भरा चेहरा हँसकर बोला।
- मैं नादान था तब।
- मैं भी.... कहकर लड़की उसके पास आकर बैठ गई।
- वह मेरा छोटा भाई है।
लड़की ने डिब्बे के दरवाजे पर खड़े बच्चे की ओर इशारा करते हुए कहा। बच्चा उस मन्दिर की राह देख रहा था, जो कभी बना ही नहीं था।
- तुम अब और भी सुन्दर हो गई हो।
- तुम्हारी आँखें अब और भी उदास लगने लगी हैं। ऐसा लगता है, जैसे सालों से जाग रहे हो।
दो आँखें, दो आँखों से जा मिली थीं।
- इतना पढ़ने लगे हो क्या?
कहकर खिड़की की तरफ वाली दो आँखें, दूसरी दो आँखों से छूट गईं और उत्तर की प्रतीक्षा में बाहर के भागते मैदानों में भटकने लगीं।
- नहीं...पढ़ाई में फिर मन नहीं लगा। अब सबने कहा कि किसी और शहर में चला जा। घरवालों ने होस्टल में भेज दिया।
कहते-कहते लड़के को काला शहर याद आ गया।
- बारिश के दिनों में वहाँ की गलियों में अब भी घुटनों तक पानी भर जाता है?
उस प्रश्न के लिए लड़की की आँखों में वही पुरानी चंचलता लौट आई थी।
- कई बरसों से बारिश ही नहीं हुई।
- ऐसा लगता है कि तुम बहुत दिनों से बहुत अकेले हो।
लड़की की आवाज में बेचैनी आ गई थी।
- मुझे भी लगता है....
- घर पर सब कैसे हैं?
- घर पर सब अच्छे हैं.....और मैं अकेला!
.....मैं अकेला क्यों हूँ?
खिड़की से दूर वाली दो आँखों में बच्चों सी मासूम जिज्ञासा थी। लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसके हाथ पर अपना एक हाथ धीरे से रख दिया और उसकी बेचैनी को पढ़ने की कोशिश करती रही।
- कहाँ जा रही हो तुम?
बेचैनी पढ़े जाने की सीमा में नहीं थी।
- तुम किसी को ढूंढ़ लो, अपना साथ देने के लिए...
- कहाँ जा रही हो?
- तुम आओगे?
लड़का कुछ नहीं बोला। लड़की की हथेली थोड़ा दूर होने लगी तो लड़के ने उसे फिर थाम लिया।
- हमें मिलना होगा तो इसी तरह फिर मिल जाएँगे....और नहीं मिलना होगा तो....
- मैं उस मन्दिर से कोई उम्मीद नहीं रखता।
लड़के ने दरवाजे की ओर देखते हुए कहा।
- मेरा विश्वास है भगवान में।
लड़की की हथेली का दबाव विश्वास से बढ़ गया था। ट्रेन रुक गई। बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया।
- चलो दीदी, उतरना है।
लड़की ने हाथ अलग किया, एक गहरी साँस ली और विश्वास की डोर थामकर अपने भाई के साथ उतर गई। ट्रेन चलने को थी। लड़के ने बैग उठाया और सफेद शहर के उस भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर उतर गया। लड़की ने पीछे मुड़कर देखा। पूरा आसमान एक घर की छत पर उतर आया था।


- तुम फिर इस तरह बैठे हो....
लड़की ने कमरे में घुसते ही उसे देखकर कहा। लड़का उस छोटे से कमरे के एक कोने में दीवार से पीठ टिकाकर जमीन पर बैठा था। लड़की की आवाज सुनकर, उसने सिर उठाकर देखा और हल्का सा मुस्कुरा दिया।
- मैं बहुत देर से उस मकड़ी को देख रहा हूँ। उसने इतना बड़ा जाल बुन दिया और...और मैं यहाँ खाली बैठा हूँ- उसे देखता हुआ....
वह छत की ओर देखते हुए बोला।
- मुझे डर लगता है कि तुम पागल न हो जाओ।
लड़की उसके बिल्कुल सामने आकर खड़ी हो गई थी।
- मुझे भी लगता है...
उसकी आवाज़ में चिंता नहीं थी, केवल खालीपन था। लड़की ने उसे उठाने के लिए अपना हाथ आगे किया। लड़के ने हाथ थाम लिया।
- कोई देख तो नहीं लेगा?
लड़के ने उसकी आँखों में उसी खालीपन से देखते हुए कहा।
- सब बाहर गए हैं।
लड़का उसके हाथ का सहारा लेकर खड़ा हो गया।
- भूख लगी है।
लड़के ने इस तरह से कहा, जैसे बच्चा माँ से कहता है।
- मैं लाती हूँ कुछ।
लड़के का दर्द, जाती हुई लड़की की आँखों में प्रतिबिम्बित हो रहा था। जब लड़की थाली लेकर लौटी तो लड़का वहीं खड़ा हुआ छत की ओर देख रहा था। उसे देखकर लड़का कुर्सी पर बैठ गया। लड़की ने एक स्टूल सरकाकर थाली उस पर रख दी।
- जल्दी खा लो...
इससे पहले कि कोई आ जाए। लड़के ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा था। उसका हाथ कुछ क्षण तक हवा में रहा और फिर उसने टुकड़ा वापस थाली में रख दिया।
- हम चोरी कर रहे हैं क्या?
उसके स्वर में कुछ था कि छत पर दौड़ती हुई मकड़ी रुक गई।
- हाँ, छिपकर कोई भी काम करना चोरी ही होता है।
लड़की ने भी उसी तरह कहा, जैसे माँ बच्चे को समझा रही हो।
- फिर मैं नहीं खाऊँगा।
- कब तक भूखे रहोगे?
लड़की ने निवेदन के स्वर में कहा। उसकी चंचलता तो वर्षों पहले ही समाप्त हो गई थी।
- जब बिना चोरी का खाने को मिले।
- अच्छा, यह चोरी का नहीं है। अब खा लो प्लीज़।
लड़का आज्ञा मानकर खाने लगा। लड़की उसके पास खड़ी होकर उसका चेहरा निहारती रही। एक रोटी खाकर वह रुक गया।
फिर कुछ सोचकर बोला- कब तक खिलाती रहोगी मुझे? कब तक चोरी करके पैसे लाती रहोगी मेरे लिए?
- जब तक मैं रहूंगी....
लड़की दूसरी ओर देखने लगी थी।
- मैंने तो कुछ भी नहीं किया तुम्हारे लिए। बोझ बनकर यहाँ पड़ा रहता हूँ दिनभर...
लड़की ने उसके होठों पर हाथ रख दिया और अगले ही क्षण रोने लगी।
- प्लीज़, तुम मत रुलाया करो मुझे। कुछ मत बोला करो।
वह रोते हुए बोली। लड़का उसे देखता रहा। उसे देखकर लगता था कि वह कमज़ोर काठ हो गया है।
कुछ पल बाद लड़की अपने आप ही चुप हो गई।
- अच्छा ये बताओ कि कल कौनसी कविता लिखी?
लड़की दुपट्टे से अपने आँसू पोंछते हुए बोली।
- कल कुछ नहीं लिखा और....
वह कहता-कहता रुक गया।
- और क्या?
रोने से लड़की का चेहरा लाल हो गया था। लड़के ने कमरे में ही एक तरफ इशारा किया। राख का एक बड़ा सा ढेर था और कुछ अधजले कागज़ के टुकड़े हवा में इधर-उधर उड़ रहे थे।
लड़की एक गहरी साँस लेकर धम्म से खाट पर बैठ गई और उस ढेर की ओर देखती रही।
- ये क्यों किया तुमने?
- माँ की याद आ रही थी। कुछ और तो था नहीं मेरे वश में, केवल ये कविताएँ थीं। अपनी कविताएँ जला देने का दर्द वह माँ ही समझ सकती थी, जिसे अपने बच्चे की हत्या करनी पड़ी हो। बाकी कोई कहता कि वह उस दर्द को महसूस कर सकता है, तो झूठ कहता।
- तुम घर क्यों नहीं चले जाते? चार साल से घरवालों को कोई ख़बर भी नहीं दी। वह उसके दोनों हाथ, अपने हाथों के बीच में पकड़कर प्यार से बोली।
- तब जाता तो वे तुमसे दूर किसी होस्टल में भेज देते और तब नहीं गया तो अब कैसे जाऊँ? उन्होंने सोचा होगा कि कहीं मर गया हूँ।
काले शहर ने एक ठण्डी साँस भरी।
- इतना प्यार क्यों करते हो कि जीना मुश्किल हो जाए?
- तुम रोज़ खाना क्यों लाती हो कि जीना पड़े?
- क्योंकि तुम्हें खिलाए बिना नहीं खा सकती।
- जब मैं नहीं रहूँगा तो क्या करोगी?
लड़के की धुंधली आँखों का रंग मटमैला हो गया था। इस बार ऐसा बोलने पर लड़की ने उसके होठों पर हाथ नहीं रखा।
- मेरे कारण तुम्हारी ज़िन्दगी बर्बाद हो गई है....
- बर्बाद कहाँ हुई? अभी तो तुम हो। जब नहीं रहोगी, तब पूछना....
लड़के के चेहरे पर बहुत वेदना से भरी हुई मुस्कुराहट दौड़ गई।
- तुम घर लौट जाओ प्लीज़।
- तुम रह पाओगी?
- न भी रह पाऊँ तो क्या रहूंगी नहीं?
- मैं तो जी भी नहीं पाऊँगा।
- हम साथ न रह सकें तो भी मेरे लिए जीते रहना।
लड़की ने उसके हाथों को और कसकर पकड़ लिया था।
- मैं चलती हूँ अब।
वह हाथ छोड़कर खड़ी हो गई। लड़का कुछ नहीं बोला, सिर झुकाए कुर्सी पर बैठा रहा।
लग रहा था कि कमजोर काठ भीतर से जल रहा है। लड़की चल दी। दरवाजे पर पहुँचकर कुछ क्षण रुकी।
- पापा मेरे लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं। और चली गई। ...............
कोई जाए, मगर यूँ सारी उम्मीदें साथ लेकर न चला जाए। थाली की दाल-रोटी, कमरे की दीवारों और फ़र्श के गले जा लगीं। अधजले कागज़ के टुकड़े पूरे जला दिए गए। भरी दुपहरी में कमरा अँधेरा हो गया और उम्मीद के आखिरी जुगनू को ‘पापा’ नाम को कोई जीव निगल गया।
...............कोई जाए, मगर यूँ किसी का जीवन साथ लेकर न जाए।


कमरे के एक दरवाजे पर खड़ी एक लड़की ने एक बार भीतर झाँका और फिर बाहर धीमे-धीमे टहलने लगी।
- भगवान के लिए कुछ बोलो। तुम्हारी चुप्पी नहीं सही जाती। वह बड़े से आईने के सामने कुर्सी पर बैठी थी। बदन पर भारी-भरकम चमचमाते कपड़ों और गहनों का बोझ था और दिल पर उससे ज्यादा....
वह उसके कदमों के पास चुपचाप बैठा रहा। उसके आँसू लड़की के पैरों पर बार-बार गिरते थे। लड़की के आँसू दुल्हन के कपड़ों में बीच में ही कहीं खो जाते थे, जैसे दुल्हन के सपने...
- और मत रोओ...सारा मेकअप खराब हो जाएगा।
पास खड़ी छोटे बालों वाली मोटी औरत ने रुमाल से उसका चेहरा हल्के से पोंछ दिया और फिर एक ब्रश उठाकर चेहरे पर रंग पोतने लगी। लड़का बोला नहीं, लड़की के पैरों पर गिरते उसके आँसुओं की गति बढ़ गई। लड़की का मन किया कि आँसुओं से सारा मेकअप धो डाले, ऐसे कि वो फिर कभी न चढ़ पाए और सब कपड़े इस तरह फाड़कर कहीं फेंक दे कि वैसे कपड़े फिर कभी न सिल पाएँ।
लड़के ने झुककर लड़की के पैरों को चूम लिया और उन्हें चूमता हुआ भी रोता रहा। छोटे बालों वाली औरत आश्चर्य से उसे देखने लगी थी। लड़की सामने आईने में अपने आप को देखती रही। आँसुओं से फिर मेकअप बिगड़ने लगा।
तभी लड़के की धुंधली होती आँखों में उसके पैरों पर लगी मेंहदी चुभी और वह चौंककर इस तरह दूर हट गया, जैसे कुछ याद आ गया हो।
मोटी औरत फिर उसी निर्लिप्त भाव से अपने काम में लग गई, जैसे उसे कुछ सुनता न हो, कुछ दिखता न हो।
- मैं आज कुछ नहीं कहूँगा। मैं अब कभी कुछ नहीं कहूँगा।
बिलखते हुए वह बोला। कमरे में आने के बाद यह उसके मुँह से निकली हुई पहली बात थी।
लड़की अपने आप को रोक नहीं पाई और अपने चेहरे पर से मोटी औरत का हाथ झटककर कुर्सी से उठकर लड़के के सामने बैठ गई और उसके माथे और आँसुओं से भरे चेहरे को बेतहाशा चूमने लगी।
लड़का बिलखता रहा, जैसे आसमान से आग बरसकर उसे चूमती हो।
एक बड़े से हॉल के बीचोंबीच फव्वारा था। मेहमान आने लगे थे। एक सजी-धजी सुन्दर औरत एकटक उस फव्वारे को ही देख रही थी। उसकी आँखों में हल्का सा पानी तैर गया।
- क्या हुआ?
एक आदमी ने उसके कन्धे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा।
- कुछ नहीं....
वह उसकी ओर देखकर मुस्कुराई। आँखों में तैरते पानी ने मुस्कुराने से साफ मना कर दिया।
- हमारी शादी को याद कर रही हो?
- हाँ....
लेकिन आँखों ने झूठ बोलने से भी मना कर दिया। भीतर कहीं पीड़ा के फव्वारे फूट पड़े थे।
कुछ क्षण बाद लड़की संभल गई और उसके चेहरे से दूर हट गई। फिर उसे देखकर कुछ पल तक रोती रही और रोती-रोती ही अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई।
लड़के का रोना बहुत कम हो गया था। मोटी औरत फिर अपना काम करने लगी।
- जब आखिरी बार सोया था तो सपने में एक गली दिखी थी, जिसके सब घर जल गए थे। एक नीम का पेड़ दिखा....कह रहा था कि वो मर रहा है....
लड़के की आवाज़ बहुत दूर से आती लग रही थी। अब वह रो नहीं रहा था।
- मुझे याद मत करना, मेरी कसम है तुम्हें।
लड़की काँपते हुए स्वर में बोली और कसम अगले ही क्षण टूटकर खनखनाती हुई बिखर गई।
हॉल में तेज आवाज़ में संगीत बज रहा था। फव्वारे के पास खड़ी उस औरत ने संगीत और रंग-बिरंगे चेहरों में स्वयं को खोने का प्रयास किया, लेकिन नाकाम रही। उसका पति किसी परिचित को देखकर उससे मिलने चला गया।

उसके दिल में गूंज रहा था- हमारी शादी को याद कर रही हो? और उसके मन में आया कि ये फव्वारे समन्दर बन जाएँ और वह डूब मरे।
- रोओ मत, टाइम नहीं है बार-बार मेकअप करने का।
मोटी औरत ने कड़े शब्दों में कहा तो लड़की कुछ धीमी आवाज़ में रोने लगी। हालांकि आँसुओं की गति कम नहीं हुई।
- यह भी दिखा कि आकाश से दर्द बरस रहा है और उस शहर की सब गलियाँ घुटनों तक भर गई हैं....
लड़के की आवाज़ भर्रा गई थी। वह बहुत कमज़ोर हो गया था और रोने से और भी कमज़ोर लगने लगा था।
- मैं उसके साथ रह लूँगी, जी लूँगी, सो भी लूँगी, लेकिन तुम्हारे सिवा कभी किसी से प्यार नहीं करूँगी....
यदि देवियाँ वरदान देती होंगी तो बिल्कुल उसी तरह देती होंगी, जिस तरह लड़की बोल रही थी।
इस कथन पर मोटी औरत ने रुककर उसके चेहरे को ध्यान से देखा, फिर लिपस्टिक उठाई और उसके काँपते हुए होठों पर लगाने लगी।
- याद है, हमारी शादी में तुम्हारी वज़ह से कितनी देर हो गई थी? तुम्हारे मेकअप के चक्कर में सब फेरों के लिए एक घण्टा इंतज़ार करते रहे थे।
उसका पति फिर उसके पास आकर खड़ा हो गया था। इस बार वह मुस्कुरा भी नहीं पाई। उसे लगा कि चारों ओर मातम के गीत गाए जा रहे हैं। फव्वारों के गिरने की आवाज़, लहरों की गर्जना बनकर उसके दिमाग से टकरा रही थी। ऐसे में वह क्यों मुस्कुराती और कैसे मुस्कुरा पाती?
- दीदी, बारात आ गई है। सब कह रहे हैं कि जल्दी करो।
दरवाजे पर खड़ी लड़की चिल्लाकर बोली। छोटे बालों वाली औरत ने उसी क्षण अपना काम ख़त्म किया और संतोष की साँस ली। दरवाजे वाली लड़की भी भीतर आ गई और मंत्रमुग्ध सी होकर दुल्हन को देखती रही।
मोटी औरत और दरवाज़े वाली लड़की ने सहारा देकर उसे कुर्सी से उठाया और लेकर बाहर की और चल दीं।
- कब मिलोगी? पास बैठी लाश ने जैसे अंतिम शब्द कहे थे। इस पर दोनों ने घूमकर उसे देखा और रुक गईं। लड़की अब रो नहीं रही थी, न ही उसने लड़के की ओर देखा।
- कभी नहीं।
और चल दी।
फव्वारे के सामने खड़ी औरत को दिखने लगा कि कोई समन्दर की ओर बढ़ा ही जा रहा है। उसका शरीर लहरों से नहीं डरता, बढ़ा ही जा रहा है....और वह धीरे-धीरे डूबता जाता है, बचने के लिए कोई प्रयास नहीं करता।
कमरे की लाश एक ओर को लुढ़क गई। फव्वारे के पास खड़ी औरत गश खाकर गिर पड़ी। संगीत बजता रहा।


- तुम बहुत गन्दे हो मामा।
मेरा दस साल का भांजा मुझसे कहता है।
- क्यों?
- पूरी कहानी क्यों नहीं सुनाते? हमेशा अधूरी छोड़ देते हो।
- .............
- और न ही ये बताया है कि लड़के-लड़की का नाम क्या था? कौन थे वे?
मेरे पास कोई उत्तर नहीं होता। मैं मुस्कुराने की कोशिश करता हूँ, शायद नहीं मुस्कुरा पाता। वह जिज्ञासा से मेरी ओर देखता रहता है और मैं डायरी बन्द करके रख देता हूँ।
‘तुम बहुत गन्दे हो...’ बहुत देर तक वातावरण में गूँजता रहता है।

Friday, November 9, 2007

कपोत- कथा

दिन निकलते ही गुटर-गूं ।
मेरी देखा-देखी वो भी करती गुटर -गूं ।
रोज़ की यही दिनचर्या ।
महीनों से साथ हैं हम--मैं और वो ।

मैने फिर करी--गुटर गूं ।
बोली नहीं ।
दिल तेज़ी से धड़कने लगा मेरा। क्या हुआ ? बोलती क्यों नहीं?
सहेज कर चोंच मारी, हिली पर बोली अब भी नहीं ।
कपोत ने आँखों मे थोड़ा ज़्यादा लाड़ भरा और सहलाते हुए चोंच से छुआ,"गुटर-गुटर कपोती! बोलती क्यों नहीं?"
ब-मुश्किल कपोती ने चोंच खोली,"गुटर--सारी रात नींद नही आई। सर दर्द कर रहा है मेरा। "
कपोत हँस कर चहका,"ऐसा क्या? मुझे तो आ गई थी नींद ।
मानिनी बन गयी कपोती,"तुम्हे क्या? बैठते ही आँख बंद कर लेते हो"
"पर तू ये तो बता-सोयी क्यों नहीं?"

कपोती रुआंसी हो गयी,"क्या बताउं?,सारी रात बगल वाले शर्मा ने बम फोड़े,पटाखे छोड़े,खूब रेडियो बजाया ज़ोर -ज़ोर से।"
कपोत ने हामी मे सर हिलाया,"हां ,तैयारी कर तो रहा था कुछ शाम से " ।
कपोती गुस्सा गयी, "ऐसा भी क्या,आठ सुर्री तो सर को छूती सी निकल गयीं",उलाहना मारा,"हिले तक नहीं तुम तो गुटर-गूं"।
नहीं-ऐसा तो नहीं--पर तू ज़रा जल्दी परेशान हो जाती है",कपोत ने लाड़ जताया-गूं--गूं--गूं ।


कपोती की दिल की भड़ांस निकली नहीं,”सारी रात नहीं माना शर्मा—भड़ाभड़,भड़ा भड़-ये सुर्री, ये बम गोले ये आतिशबाज़ी—हे भगवान , सुनो गुटर! दीवाली तो नहीं थी आज”।
कपोत हँसा ,"अरे पगली! दिवाली क्या अकेले शर्मा की होती ? अभी तो सरदर्द हुआ है, तब तो मर ही जाती—अभी तो गर्मी चल रही है,दिवाली मे देर है अभी”।

कपोती रुआंसी हो गयी, "पता नहीं— इंसानों के त्योहार पर तो खुद को समझा भी ले। पर यहां तो रोज़ ही कुछ ना कुछ होता रहे है -- गुटर गूं—--धुएं-धक्कड़ से आँख तो खराब हो ही गयी”—फिर कुछ सोचती सी बोली ,"ए गुटर चलो-गांव वापस चलें –यहां से दूर”
“ दूर—हूं", फिर जैसे कुछ कौंध गया,”पर-फिर बच्ची अम्मा--?”
कपोती झटका सा खाकर उठ बैठी ।
आँख सामने वाली बालकनी पर टिक गयी ।

आज सुबह से बच्ची अम्मा नहीं दिखाई दीं—क्यों?

सामने वाली बालकनी मे बच्ची अम्मा रहती हैं ।
65 साल की बच्ची अम्मा से 6 महीने पहले रिश्ता बंधा कपोत-कपोती का । अम्मा सुबह-सुबह 6 बजते ही बालकनी मे आ बैठतीं । आरामकुर्सी पर आगे-पीछे हिलती रहती । बोबले मुंह से गुनगुनाती रहतीं ।
एक दिन दोनों ने देखा-अम्मा की बालकनी मे एक छींका लटका है । छींके पर मिट्टी की थाली और थाली मे पीतल का कटोरा । थाली मे बाजरे के दाने और कटोरे मे साफ़ सुथरा पानी ।
अम्मा हिल- हिल कर गुनगुना रही थी ।
दो दिन हो गये दोनो को देखते -देखते । कपोत-कपोती ने छींके की तरफ़ एक भी उड़ान नही भरी । कपोती से रहा नहीं गया,"गुटर गुटर -छींके पर दाना-पानी है"।
कपोत ने शंका ज़ाहिर की,"गूं- कहीं फंदा भी हुआ तो-?"
"बावले हो", कपोती ने शंका निवारण की "फंदे दूसरी जात के कपोतों के लिये डाले जाते है। हम तो जंगली हैं । हमे कोई फंदे मे रखकर क्या करेगा?"
"पर तू देखले कपोती--?"
"गूं-गूं- गुटर--मैं भी औरत हूं , और वो भी । मैं उनके भाव समझती हूं । वो हमसे बात करना चाहती हैं । चल गुटर--अम्मा के छींके पर चलें"।
उस दिन कपोत- कपोती ने पहली उड़ान भरी- बालकनी मे --डरते डरते ।
पल भर रुक कर ही छींके पर दूसरी उड़ान ली । कमान सी आधे गोले मे, कुछ ज़्यादा देर रुके ।
फिर तो ठिकाना ही बन गया छींका ।
बस , सोने के लिये ही आते थे लाला गनपत पंसारी की बरसाती की गुमटी मे बने आले पर ।


अचानक हंसी छूट गयी कपोत की । अम्मा की बालकनी पर दूसरा ही दिन था । दोनो कपोत --कलरव मे तल्लीन--गुटर इधर, फुदक ऊधर, गुटर --गूं--गूं--गुटर ।
तभी अम्मा बोली थीं,"कब्बु! मेरा नाम बच्ची है"।
तुझे याद है ना कपोती ?
मैने हंस कर कहाथा- गुटर -गुटर मां! बच्ची तो बच्चे को कहते हैं, आप तो बड़ी हो । फिर बच्ची--?"
अम्मा हंसी- पोपली पोपली- चश्मा संभाला और बोली,"'मैं सारी उम्र बच्चा ही बने रहना चाहती हूं कब्बु कब्बी! इसलिये नाम भी बच्ची ही रख लिया --समझे?"
"पर माँ" कपोती बोली थी,"ये बगल मे लकड़ी सी क्यों लगा रखी है माँ?
"अपाहिज हूं ना--, बस तुम दोनो को उड़ता देख कर मेरे पांवों पर चलने का सपना पूरा होता सा लगता है ।"
"ओहो, जाओ उड़ो, फुदको, बातें ना बनाओ दोनों--दाना पानी ले लो",बच्ची अम्मा प्यार से गुस्सा गयी ।

पर आज--?
आज अम्मा नहीं हैं ।
कहां ढूंढें?, कैसेढूंढें?
भटकते भटकते , खोजते- खोजते दूर निकल गये दोनो ।
कपोती की तबीयत तो शर्मा के बम-पटाखों से ही ख़राब थी । ऊपर से अम्मा से ना मिल पाने का दुख ।
उड़ते रहे --लगातार ।
छंगा की हवेली गये । मौला खान की मज़ार देखी । चौक बज़ार, घंटाघर, चकलेश्वर मंदिर की बुर्जी--
कहां नहीं गये ।
भटकते- भटकते कपोत- कपोती के डैने थकने लगे । सारा शहर -धुआं ही धुआं- कहीं शादी के जनरेटर का धुआं । कहीं सल्लु हलवाई की कढाही से निकलता धुआं और गंध, कहीं लाउड-स्पीकर की चिल्लाहट, ओटो-टेम्पो से निकलती डीज़ल-पेट्रोल की बदबू, कहीं गफ़तमल की फ़ेकटरी का धुआं-- पटाखे-आतिशबाज़ी, नदी मे बहता गंद, बदबू और धुआं, जहां भी देखो-वहां ।

हे राम !ना साफ़ हवा, ना सुथरा पानी ।
अरे इंसानों ! हम पखेरुओं के भले का कोई तो सोचो । हम भी सांस लेते हैं। प्राण हमारे भी हैं । आँखें परिंदों की भी दुखती हैं । कान फटते हैं।
पर कपोती! जब ये अपना ही भला नहीं कर पाते , तो हमारा क्या सोचेंगे?
ऊपर से बच्ची अम्मा का भी पता नहीं चला- दाना पानी भी नहीं आज तो.कपोती!
अरे , हम कहां आ गये उड़ते उड़ते, पहचानी सी जगह है।
कपोती चहकी, गुटर --गुटर गूं--ये तो अपनी गली मे आ गये , अम्मा की बालकनी सामने दिख रही है ।
परिंदे- पखेरुओं को इंसान के दिल से राह होती है ।
कोई लाड़ करने वाला होना चाहिये --बस ।
कपोती ने उड़ान लेते हुए चोंच मारी,"पट्टी बाँध कर भी उड़ा दो , जाओगे तब भी बालकनी की तरफ़,--हूं -गांव जायेंगे ये --दिल्ली से दूर..

अहा--अहा-अहा, अम्मा की बालकनी,छींका,दाना,कटोरे मे पानी ।
गुटर- गूं,गुटर-गूं,गुटर गुटर -गूं ।
ये फुदक ये फुदक ,वो फुदकी
पर अम्मा बालकनी मे तो अब भी नहीं है ।
आवाज़ आ रही है कहीं से,"कब्बु-कब्बी आ गये दोनो । "
दोनो ने टेढी आँख कर के कमरे के अंदर झांका--बिस्तर पर लेटी है अम्मा ।
रहा नहीं गया । तीन फ़िट कूदे और कमरे के दरवाज़े मे जाकर बैठ गये फ़र्श पर ।
देखते रहे दोनो अम्मा की तरफ़ -जैसे पूछ रहे हों,"बिस्तर मे क्यों अम्मा?"
बच्ची अम्मा समझ गयी । टूटी -टूटी आवाज़ मे समझाने लगी धीरे-धीरे--
"शर्मे के बमों के धुएं से दम घुट गया- सांस नहीं आया रात भर । भड़ाभड़ की आवाज़ से दिल घबरा गया । कब्बु दिल की मरीज़ हूं ना?"

कपोत- कपोती लुटे ठगे से सुनते रहे,निरीह से देखते रहे।
ऐसे ही दुख से कपोती भी तो दुखी रही है रात भर ।
पखेरु और इंसान का दर्द एक सा ही है,सांझा है।
कब और कैसे समझोगे शर्मा जी,सुलेमान मियां,सरदार विचित्तर सिंह जी और तुम भी विलिअम जौन।
सबसे ही कह रहा हूं -कपोत ने सवाल जड़ दिया।
कपोती से रहा नहीं गया,"क्योंजी , समाप्त हो गयी क्या तुम्हारी कथा?"
कपोत चुप सा हो गया,"पता नहीं कपोती, इंसान ज़्यादा समझदार है -वो ही बोले-------गुटर-गूं,गुटर-गूं"

-प्रवीण पंडित--

Sunday, November 4, 2007

एक नयी दिशा

इस नगर की सड़कों पर से गुजरने वाले जन समूह की एक इकाई मैं भी हूँ। यहाँ, इन्ही गलियों और सड़कों पर विचरण करते हुये मुझे एक अन्तराल हो चुका है । अतः मेरे लिये सब पुराना लगने लगा है । नवीनता की कोई अनुभूति नहीं । रोज – रोज वही सड़कें, वही गलियाँ, उन पर लटकते हुये पोस्टर, सभी पुराने से पड़ ग़ये हैं ।

संकरी गली से निकल कर चौराहा और वहाँ तैनात यातायात सुरक्षा कर्मचारी, उसकी सफेद ड्रेस, लाल पगड़ी, यह सब देखना भी मेरी दिनचर्या का अंग बन चुका है । कुछ देर तक चौराहे पर खड़े होकर हाथ उठा देना, आने जाने वाले वाहनों को आधे अधूरे मन से नियन्त्रित करना और फिर पास वाली पान की दुकान पर बैठ कर गप्पें लगाना. कर्तव्य पालन की भावना संभवतः गपशप करने में ही निहित है । जब भी उधर से गुजरता हूँ , पुलिस विभाग की इस अकर्मण्यता पर सहज ही कष्ट होता है । इस विभाग में कितने ही कर्मचारी हैं जो मात्र स्वयं की सर्वांगीण सुरक्षा में रात दिन सन्नद्ध रहते हैं। इनकी इसी स्वनिष्ठा का स्वाद थाने में किसी भी कार्य से गये हुये व्यक्ति को निश्चित रूप से चखना पड़ता है । इन सभी के सहयोग के लिये एक वर्ग सदैव ही प्रस्तुत रहता है । ये लोग अपने-अपने क्षेत्र के बेताज बादशाह होते हैं । आखिर थानेदार के कृपा पात्र जो ठहरे । थाने के आस - पास मँडराने वाले इस विशिष्ट वर्ग का पेशा प्रायः परम्परागत होता है । राजनीतिकों और पुलिस के बीच ये सेतु, किसी भी मामले को थाने के बाहर ही रफा-दफा करने के लिये रेट बता देते हैं । शेष इने-गिने कर्मचारी जो इस विभाग द्वारा देश एवं समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं । उन्हें प्रायः निराशा ही हाथ लगती है । इस विभाग में अधिकांश लोग उन्हें उपहास के योग्य मानते हैं ।

ऐसे ही इस नगर में भ्रष्टाचार के प्रहरियों से रक्षित एवं आतंक के निविड़ में असुरक्षा की संपूर्ण भावना को संजोये हुये, मैं प्रातः उठते ही जल्दी-जल्दी तैयार होता हूँ । कहीं देर ना हो जाय यह सोचकर जैसे तैसे भोजन करता हूँ । भोजन का पर्याय मेरे जैसे स्तर पर प्रायः खिचड़ी ही होता है । हाँ मैं सौभाग्यशाली हूँ, जो कभी–कभी इसमें ही सब्जी आदि डालकर बना लेता हूँ अन्यथा आजादी के इतने दिनों बाद स्वराज में भी करोड़ों लोगों को प्रतिदिन भोजन नसीब नहीं होता है । सप्ताह में कई दिन भूखे पेट सोना अब तक उनकी नियति बना हुआ है.

गली से निकलते निकलते ही साढ़े नौ बज जाता है । लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ तेजी से चल देता हूं । चौराहा पार करते ही रिक्शेवाला आवाज देता है ।
' रिक्शा बाबूजी ? ’
' नहीं भाई ' का संक्षिप्त उत्तर मैं बिना रूके ही दे देता हूँ । उसकी निराश ऑंखें दूर तक मेरा पीछा करती हैं ।

चौराहा पार हो चुका है । सामने डाक्टर भानु का नर्सिंग होम है । रोगियों के रिश्तेदारों को घुड़कती -हड़काती नर्से इधर-उधर आ जा रही हैं । डाक्टर भानु को देखते ही मैं नमस्कार करता हूँ ।
' नमस्ते बेटा ' का सम्बोधन मुझे बहुत अच्छा लगता है । डाक्टर भानु मुझे कुछ दिनों से ही जानते हैं । जब मेरी माँ गम्भीर रूप से बीमार हो गयी थी । मैं उन्हें इलाज के लिये यहीं लाया था । उन दिनों यह नसिँग होम लगभग निर्माणाधीन अवस्था में था । आज यहां कितना कुछ है । इतनी अल्पावधि में इसकी प्रगति के पीछे लोग अनेकों बाते कहते हैं ।
सोचते – सोचते ही मार्ग समाप्त हो गया है । कालेज के मेन गेट पर भेंट होती है साइकिल स्टैण्ड के चपरासी से ।
' आज साइकिल नहीं लाये ?
' नहीं, मेरी नहीं थी, जिसकी थी ले गया ।
उत्तर देकर मैं आगे बढ ज़ाता हूँ । कालेज कम्पाउण्ड में एक आम का बाग है । सारे विद्यार्थी उसे आम्रपाली कहते हैं ।
आम्रपाली में पडी बेन्चों पर आर्ट सेक्शन के विद्यार्थी बैठे हुये हैं । विज्ञान का कोई विद्यार्थी वहाँ नहीं होगा क्योंकि प्रोफेसर कटियार क्लास में पहुँच चुके हैं । लो आज भी पाँच मिनट लेट हो ही गया ।

यह पीरियड खाली है । बाहर मैदान में जाकर बैठ जाता हूँ । सुनहली धूप फैली हुयी है घास पर, बाग के ऊपर, खेतों पर, धूप का यह अनन्त विस्तार । सूर्य के दूसरी ओर देखता हूँ । स्वच्छ नीलिमा युक्त आकाश पर रूई के श्वेत गोलों की तरह छिटके हुये बादल - -- लगता है किसी ने ढेर सारी कपास धुनकर फैला दी हो । दूर तक फैली हुयी हरियाली । शरद् ॠतु में हरियाली ऑंखों को कितनी सुखद लगती है ? मैं बचपन से ही प्रकृति- प्रेमी रहा हूँ ।

' बन्धु यहाँ किसी सब्जेक्ट पर रिसर्च हो रही है क्या ?
आवाज सुनकर तन्द्रा भंग हो जाती है । सिर उठाकर सामने देखता हूँ । महीप मुस्कराता हुआ चला आ रहा है ।
तुम कहाँ थे भाई.. क्लास में तो नहीं.. ?' मैं पूछता हूँ ।
' यार क्लास ही आ रहा था तब तक वह मिल गयी ' महीप मेरे पास ही घास पर बैठता हुआ उत्तर देता है ।
' वह …! वह कौन ? ' मैं प्रश्न सूचक दृष्टि से उसकी ओर देखता हूँ ।
'अरे वही बी ए फाइनल की मिस अमिता' महीप थोडा झेंपता हुआ बताता है ।
' अच्छा तो तुम बी ए में चलने वाले उपन्यास 'अमिता' के बारे में कह रहे हो ' मैं मजाक में कहता हूँ. और फिर हम दोनों हॅसने लगते हैं ।

छुट्टी हो चुकी है । महीप बालीवाल खेलने के लिये आग्रह करता है । बड़ी मुश्किल से पीछा छुडा सका हँ ।
' यार वह देखो टेपरिकार्डर आ रहा है ' दूर से आते हुये सुनील को देखकर महीप कहता है ।
' तुम बैठकर सुनो मैं चला ' महीप खिसकना चाहता है ।
' तुम भी कभी- कभी सुन लिया करो यार ' मैं महीप को पकड़ता हुआ कहता हूँ । वैसे मैं जानता हूँ महीप क्यों सुनील से भागता है ।
' अच्छा तो मिस्टर मजनूँ की दास्ताने लैला आज आप सुन रहे हैं ? सुनील सदा की भाँति महीप को चिढ़ाते हुये दूर से ही हाँक लगाता है ।
' आओ यार ! तुम भी सुनाओ क्या हाल है' मैं उसे सम्बोधित करता हूँ.
' अपना क्या हम तो सदा ही मस्त रहते हैं. बस रोना है तो मेरे यार तुम्हारी सूरत पर. जब देखो दार्शनिकों की तरह सोचते ही नजर आते हैं. बैठे यहाँ हैं दिमाग किसी दूसरे लोक की घास चर रहा होता है. मै तो कहता हूँ … '
' बस बस यार तुमने तो मेरा पूरा पीरियाडिक क्लासीफिकेशन ही कर डाला ' मैं सुनील की बात काटते हुये कहता हूँ और हम सब हँसने लगते हैं.
' अच्छा तो मैं चलता हूँ फील्ड में, तुम मेरी साइकिल लेते जाना ' महीप साइकिल की चाबी मुझे देते हुये कहता है.
' और तुम' मैं महीप से पूछता हूँ.
' खेलने के बाद पैदल आ जाऊंगा '
' मिस अमिता के साथ ' मैं चुटकी लेता हूँ.
और इसके साथ ही एक बार पुनः हँसी का झोंका सा आता है. सब खिलखिलाकर हँसने लगते हैं. बिल्कुल बच्चों जैसी निश्छल हँसी.

साईकिल लेकर चल पडा हूँ. बाग में इस समय छात्र छात्राओं की भीड़ है. कुछ छात्रों के क्लास इसी समय से प्रारम्भ होने वाले हैं. अतः वे क्लास प्रारंभ होने से पहले बाग में पडी बेन्चों पर बैठे हैं. कुल मिलाकर एक मेला सा लगा है. सभी चञ्चल चित्त प्रसन्न मन. सम्भवतः इन्हीं छात्रों की चपल भीड़ में कुछ मेरे जैसे अकेलेपन से सराबोर अन्य भी एक दो छात्र हों. हो सकता है वे समस्याओं की श्रृंखलाओं से जूझ रहे हों. इसी के फलस्वरूप उन्हें अकेलापन लगता हो. किन्तु मैं मेरी तो ऐसी कोई भी समस्या नहीं है. फिर क्यों मन इतना उदास, अकेला सा लगता है. मैं कभी भी स्थायी रूप से कुछ दिनों तक प्रसन्नचित्त नहीं रहा हूँ. छात्रों के समूह में जब सब जी खोलकर हँस रहे होते हैं, मैं देख रहा होता हूँ शून्य के उस पार अंतरिक्ष में बिलकुल अपना अस्तित्व भूलकर. कभी-कभार किसी के टोक देने पर मानो सोता सा जागता हूँ. … और फिर उनकी बातचीत हँसी मजाक के लम्बे सिलसिले में हॅसता भी हूँ मगर एक फीकी सी हँसी. एक ठण्डी सी लहर, उदासी का एक झोंका ताड़ जाते हैं सारे साथी और फलस्वरूप सबके सब एकदम से ठहर जाते हैं. एक सन्नाटा छा जाता है. सबको यकायक अपनी ओर ताकते देख‚ मैं टोकता हूँ.

' अरे ! क्या हो गया.... सब चुप कैसे हो गये ?'
' चुप क्या यार..!, तुम भी पूरे दार्शनिक हो. कभी कुछ बोलो भी क्यों ठण्डी आहें भरा करते हो प्यारे ' सुनील स्नेह युक्त नाराजी से कहता है.
' मुझे तो इनका मामला भी कुछ पुराना सा लगता है यार '
' और अब इनके पास ठण्डी आहें ही शेष हैं ' सुभाष की बात को महीप पूरा करता है.

इस बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं. उनकी इस हँसी में मेरा भी स्वर होता है. थोडी देर के लिये उनके इस मजाक पर मैं भी प्रसन्न चित्त हो जाता हूँ. सोचते- सोचते ही आ गया हूँ नदी के पुल पर. थोडी देर के लिये रूक जाता हूँ. पुल की रेलिंग के सहारे टिक कर नदी के बीचो बीच देख रहा हूँ. पानी के बहते हुये प्रवाह से मन खोने लगता है. उदासी की एक और अनुभूति. तत्काल सिर को झटका देकर मैं विचारों से मुक्त होने का प्रयास करते हुये चल देता हूँ और तेजी से.

भोजन कर चुका हूँ. गाँधी पार्क की ओर चल पडा हूँ. शाम का अँधेरा घिरने लगा है. सड़कों पर कुहासा छाता जा रहा है. सड़कों पर भीड़ भी कम होने लगी है. पड़ोस में ही अमरूदों के बाग पर अभी-अभी सूर्यास्त हुआ है. सूर्यास्त की लाली अब तक आसमान में छायी है. जाड़े क़ी ॠतु अभी प्रारम्भ ही हुयी है, फलतः बहुत ठण्ड नहीं होती है. हाँ सड़कें अवश्य सूर्यास्त होते ही सुनसान होने लगती हैं. आवश्यक कार्य के अतिरिक्त कोई भी बाहर नहीं निकलता है. पता नहीं क्यों मैं नियमित रूप से यन्त्रचालित सा होकर चला आता हूँ यहाँ. यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है. मैं स्वयं भी जानना चाहता हँ अपनी उदासी के कारण को. मैं क्यों इतना उदास रहा करता हूँ. एक यक्षप्रश्न सा मेरे मन में उठता है. क्या दुख मुझे खाये जा रहा है.

' क्यों इतने उदास रहते हो ' अपने अंतरमन से मैं प्रश्न करता हूँ.
' पता नहीं यों ही ' अंतर के दूसर कोने से स्वर उभरता है.
' कभी सोचा है कि इस यों ही का क्या प्रभाव पडा है तुम्हारे ऊपर '
'………' दूसरा अंतस निरूत्तर रह जाता है.

एक अजीब सी कशमकश से मैं तिलमिला उठता हूँ. सोचता हूँ जो लोग कल तक मुझे आदर्श बताते थे. दूसरों को मुझसे प्रेरणा लेने को कहते थे. आज जब मैं समाज का कुछ कार्य नहीं कर रहा हूँ तो रास्ता चलते हुये मुँह फेर लेते हैं. क्या समाज को मात्र कार्यरत कार्यकर्ता से ही स्नेह होता है. लगता है मेरी उदासी का हल भी यहीं कहीं आसपास में ही है.

पार्क की बत्तियाँ जल चकी हैं. पश्चिम की ओर पास में ही नदी का किनारा. संगमरमर का सुन्दर चबूतरा और उस पर स्थापित गाँधी जी की धवल मूर्ति. पास में ही बैठने के लिये बेञ्चें बनी हुयी हैं. मूर्ति के बिलकुल पास वाली बेञ्च पर बैठ जाता हूँ. पश्चिम की ओर क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा अब तक छायी हुयी है. उसके नीचे रात्रि की कालिमा का साम्राज्य है. ऐसी ही अर्न्तद्वन्द की कई अंधेरी परतें मेरे मष्तिष्क में भी छायी हुयी हैं. नदी के किनारे-किनारे फैक्ट्रियों की चिमनियाँ दूर तक फैली हैं. नगर में सड़कों के किनारे जलती हुयी बत्तियाँ रोशनी के धब्बों की लम्बी चमकती हुयी रेखाओं जैसी प्रतीत होती हैं. सारा नगर यहाँ से एक सुन्दर दृश्यचित्र की भाँति अनुभूत होता है. मैंने कई बार यहीं पार्क में साँध्यबेला एवं रात्रि के इन चित्रों को कैनवास पर उतारने का प्रयास किया है. बचपन की एक घटना याद आती है. तब मैं बहुत छोटा था. पिताजी के साथ खेतों पर गया था. वहां काम कर रहे मजदूर एवं चारो ओर फैले पलाशवन की हरी पट्टियों को देखकर मैं मन्त्रमुग्ध था. चारो ओर फैले दृश्यो में ध्यानमग्न देखकर पिताजी ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर पूछा.

' क्या देख रहे हो बेटा '
कुछ न समझापाने की बेबसी से मैंने अपना हाथ जंगल की ओर उठा दिया.
' कैसा लगता है ' पिताजी ने पुनः पूछा था.
' अच्छा बहुत अच्छा ' बालसुलभ संकोच के साथ मैं बड़ी कठिनाई से बोला.
' क्या चित्रकार या कवि बनेगा रे ' पिताजी मुझे चूमते हुये प्यार से बोले. और मैंने उनके कन्धे से अपना सिर टिका दिया.

उसके बाद चल पड़ा था समय का एक लम्बा सिलसिला. गांव की अमराइयों में बिना भवन के चलने वाले प्राथमिक विद्यालय से होते हुये मैं पड़ोस के कस्बे से हाईस्कूल करके इस नगर में आ गया था. पिताजी जो क्रान्तिकारी रह चुके थे. धीरे धीरे वृद्ध होने लगे थे. उन दिनों मैं इण्टरमीडियेट के प्रथम वर्ष में था जब अविनाश के सम्पर्क में आया. वह एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता थे. पिताजी से प्रोत्साहन और अनुमति मिलने पर मैंने भी उस संस्था के कार्यक्रम आदि में रूचि लेना प्रारम्भ किया. धीरे धीरे अविनाश से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गयी थी. वह मित्रता कब अंतरंगता में परिवर्तित हो गयी‚ पता ही नहीं चला. अब वह अविनाश दादा से मेरे अनुदा बन गये थे.

यह मेरा इण्टरमीडियेट का अंतिम वर्ष था. मैं परीक्षा की तैयारी में रात दिन जुटा हुआ था. उसी समय देश में आपात स्थिति की घोषणा कर दी गयी. सारा देश मानों सकते में आ गया था. कोई कुछ समझ पाता, उससे पहले ही अधिकतर राजनेता रातोंरात बन्दी बना लिये गये. जो बच गये उन्होंने सबसे पहले भूमिगत होना उचित समझा. सामाजिक संस्थाओं पर रोक और प्रेस पर सेंसर लगा दी गयी थी. प्रारम्भ में यह सब अप्रत्याशित सा लगा. बाद में लोगों के मन में कायरता का भाव आने लगा. प्रायः यह सुना जाता हमें क्या करना सरकार कुछ भी करे. हमें अपने कार्य से कार्य होना चाहिये. और फिर हम कर भी क्या सकते हैं. चारो ओर मानों आतंक का साम्राज्य छा गया था. सरकार की बुराई करने का जोखिम कोई नहीं लेना चाहता था. सत्तारूढ दल के लोग अपने प्रतिद्वन्दियों को ठिकाने लगाने में जुट गये थे. जो भी मँह खोलता सीधे मीसा अथवा डी आई आर में धर लिया जाता.

इधर अनुदा से काफी दिनों से भेंट नहीं हुयी थी. हाँ इतना अवश्य पता चला था कि वह सामाजिक संस्था भी प्रतिबंधित कर दी गयी थी जिसके लिये अनुदा कार्य करते थे. फलस्वरूप उसके कार्यकर्ताओं को भी भूमिगत होना पडा था. दो चार सदस्यों से अनुदा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा श्वास भी मत निकालो. कहीं किसी ने सुन लिया तो पड़ ज़ाओगे सारी उम्र भर के लिये जेल के चक्कर में. सरकारी आतंक के कारण कोई बात तक नहीं करना चाहता था. किन्तु मुझे तो अनुदा से मिलना था. किसी ने कुछ भी ठीक न बताया था. हाँ इतना अवश्य पता लगा था कि पुलिस उनकी खोजबीन कर रही है. सम्भवतः गिरफ्तार भी हो गये हों. क्योंकि उन दिनों गिरफ्तारियाँ चुपचाप होतीं थीं. अखबार प्रतिबन्धित होने के कारण समाचार भी प्रकाशित नहीं होते थे. कई अखबारों के सम्पादक जेल में डाले जा चुके थे और उनके कार्यालयों पर ताला पड़ ग़या था. मैं सारे प्रयासों के उपरान्त भी अनुदा की कोई खबर न पा सका था. अन्त में उदास मन से चुपचाप परीक्षा की तैयारी में जुट गया.

आस पास ही कहीं बांसुरी का स्वर मुखरित होना प्रारम्भ हुआ है. मेरी तन्द्रा भंग हो जाती है. सान्ध्य बेला की लालिमा एवं रात्रि का तम अब श्वेत धवल चाँदनी में परिवर्तित हो चुके हैं. नदी में कोई नाविक धीरे धीरे नाव खेता हुआ आ रहा है. आह बाँसुरी भी क्या गजब की होती है. और वह भी चाँदनी रात में नदी के किनारे. इसी के साथ मैं उच्छ्श्वास लेता हूँ. अनुदा भी बाँसुरी बहुत अच्छी बजाया करते थे. उनकी बाँसुरी बजा करती और हम सब चुपचाप सुना करते थे. मुझे अच्छी तरह से याद है कि एक बार यहीं पार्क में अनुदा और मैं टहलते हुये आ गये थे. उस दिन इसी बेंच पर बड़ी देर तक बैठे हुये चन्द्रमा की प्रच्छाया को नदी की लहरों से संघर्ष करते हुये देखते रहे और फिर वह बोले.

' देख रे! चन्द्रमा की यह छाया हमारा राष्ट्र है. नदी की लहरें अंग्रेजों से विरासत में मिली हमारे देश की समस्यायें हैं. खण्डित आजादी पाकर हमारा राष्ट्र आज इसी तरह जूझ रहा है भुखमरी, भ्रष्टाचार और अंतर्राष्ट्रीय भिखारीपन से. देश के बँटवारे से उपजी कलह और फूट का दंश आज भी हमारे समाज को डस रहा है '
' वह सब छोड़ो दादा, फिलहाल बाँसुरी सुनाओ ' मैंने उस पल उनकी गंभीर बातों में कोई रूचि न लेते हुये कहा.
' अरे बुद्धू.... बाँसुरी यहाँ कहाँ ' उन्होने भी गाम्भीर्य से बाहर आते हुये कहा.
' ये रही ' कहते हुये मैंने अपने साथ लायी बाँसुरी उनके आगे करदी. दादा से सुनने और सीखने की जिज्ञासा से मैं उन दिनों बांसुरी हर पल अपने साथ रखता. प्रायः दादा से छिपाकर.
' तुम इसे इसीलिये साथ लाये थे ' दादा ने बांसुरी मेरे हाथ से लेते हुये कहा.
' जी हाँ लेकिन अब सुनाइये फटाफट ' मैं बच्चों जैसा अधीर होने लगा था.
' इतने बड़े हो गये हो और बच्चों जैसा स्वभाव नहीं बदला. मालुम है तुम्हारी आयु में चन्द्रशेखर आजाद का चिन्तन क्या था'
' नहीं मालुम दादा. किन्तु वह सब फिर कभी‚ इस पल तो बस बाँसुरी की बात कीजिये '
और वह हँस पडे थे मेरी मुद्रा देखकर और हम बेन्च से उठकर छतरीदार चबूतरे पर आकर बैठ गये थे. दादा ने खम्भे से पीठ टिकाकर बाँसुरी बजाना प्रारम्भ किया. उनकी अंगुलियां बांसुरी पर बडी तेजी से उठ गिर रही थीं. और वातावरण में मुखरित हो उठा था मेरा प्रिय गीत

ज्योति जला निज प्राण की
बाती गढ बलिदान की‚
आओ हम सब चलें उतारें
मॉ की पावन आरती
भारत माँ की आरती

बांसुरी की स्वर लहरियां नगर के दक्षिणी पश्चिमी छोर पर बने इस पार्क में गूंज उठी थीं. गांधी चबूतरे से नदी के तट तक जाने वाली सीढियों पर एकाध नाव वालों को छोड़क़र सन्नाटा ही था. दादा बांसुरी बजाते-बजाते तन्मय हो गये थे. मैं भी कुछ देर तक बांसुरी का आनन्द उठाते हुये ठण्डी फर्श पर आराम से लेट गया था. उस दिन अनुदा बडी देर तक बांसुरी बजाते रहे. सम्भवतः उनका ध्यानमग्न होने का एवं चिन्तन करने का यही तरीका था. जब उन्होंने बांसुरी बजाना बन्द किया तो मुझे फर्श पर खर्राटे भरते हुये पाया था. आज इस पल वह सब स्मरण करके हृदय में एक भावावेग अनुभव करता हूँ और पुनः सोचने लगता हूँ.

उस दिन कालेज से अपने कमरे पर वापस लौट रहा था. सूचना कार्यालय के पीछे वाली सड़क से अभी गली में मुडा ही था कि एक क्लीनशेव्ड सूटेड-बूटेड युवक भी लम्बे कदमों से लपक कर मेरे साथ चलने लगा. मैने कोई विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी. किन्तु मुझे तब आश्चर्य हुआ जब मेरा रहने का मकान पास आने पर‚ मेरे साथ ही वह भी रूक गया.

' किससे मिलना है आपको ' मैंने सहज जिज्ञासा के साथ पूछा.
' पहले चुपचाप अन्दर चलो फिर बात करते हैं ' उसने हाथ से कमरे की ओर संकेत किया.
आवाज सुनकर मैं मानो तन्द्रा से जागा था.
'अरे ...! दादा आप.. !! ' और मैने शीघ्रता से अन्दर आते ही कमरे का दरवाजा उढ़का दिया. मुझे अब तक अवाक् खडे देखकर उन्होंने कहा
' जल्दी से कुछ खाने का प्रबन्ध करो. कई दिन से खाली पेट हूँ. कुछ खा सकता इसका अवसर ही नहीं मिला '
' ओह हाँ' मैं अब भी विस्मित था.
' जी अभी कुछ करता हूँ. लेकिन यह हुलिया और आपकी वह मूछें और कुर्ता-धोती कहां गये. मैं तो बिलकुल ही नहीं पहचान पाया.' मन में बहुत सारे सवाल थे जिनका उत्तर जानने को बहुत उत्सुक था.
' पहले खाने की व्यवस्था करो. धीरे धीरे सब पता चल जायेगा ' उन्होंने समझाने की मुद्रा में कहा.

उस दिन खाने के उपरान्त दादा वहीं सो गये थे. उनका शरीर थकान से शिथिल था. मेरे बहुत पूछने पर उन्होंने केवल इतना ही बताया था कि उनसे वरिष्ठ कार्यकर्ता पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये थे. संगठन की सारी व्यवस्था का भार इस समय उनके कन्धों पर था.

' माँ 'भारती' के लिये कुछ करने का साहस है ' पहली बार उन्होंने मुझसे सवाल किया‚ अन्यथा अबतक तो वह मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर स्वयं ही थे.
' मैं क्या कर सकता हूँ ' मैंने उनका मुंह ताकते हुये प्रतिप्रश्न पूछा.
' तुम… एक छात्र.... छात्र-शक्ति ही आज वह सर्वोच्च शक्ति है जो सारे देश से इस तमस को मिटा सकती है. भूल गये शहीद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद सब छात्र ही थे जब उन सभी ने देश के स्वाभिमान एवं स्वतन्त्रता के लिये अपना जीवन दाँव पर लगा दिया. आज उसी समय के क्रान्तिकारी वयोवद्व जयप्रकाश नारायण जी ने छात्रों का फिर आह्वान किया है. उन्होंने कहा है कि छात्रों को राष्ट्र की इस भयानक त्रासदी से संघर्ष करने के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने का समय फिर आ गया है ' दादा का चेहरा आवेग से तमतमा उठा था. वह धारा-प्रवाह बोले जा रहे थे.
'छात्र-शक्ति आज भी सारे देश को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है. आवश्यकता है उसे सही दिशा की. मैं समझता हूँ जयप्रकाश जी ने आह्वान तो कर ही दिया है '
' किन्तु मैं व्यक्तिगत रूप से क्या कर सकता हूँ ' मैंने उन्हें टोका.
' समय आने दो सब पता चल जायेगा. बस साहस और उत्साह बनाये रखो. तब तक पूरे मन से पढायी करो और परीक्षा की तैयारी करो ' दादा ने कहा था.

अगली प्रातः मुँह अंधेरे ही वह जाने के लिये तैयार हो गये थे. उन्होंने मुझसे स्टेशन तक चलने के लिये कहा.
' इतनी सुबह आप कहां जायेंगे ' मैंने रास्ते में पूछा
' आवश्यकता पड़ने पर ही कोई बात बतायी जा सकती है. दादा ने चेतावनी देते हुये कहा.
' किसी बात को जब तक आज्ञा न हो जानने की चेष्टा मत करो. जितना आदेश उतना ही कार्य करने की आवश्यकता है. पूर्ण अनुशासन से ही आज हमारे कार्य की सफलता सम्भव है ' पुनः समझाते हुये बोले.
' पूरा मन लगाकर परीक्षा में प्रथम आने का प्रयास करो. मैं यथानुसार तुमसे स्वयं सम्पर्क करता रहूँगा. अच्छा अब तुम जाओ' ऐसा कहकर उन्होंने मुझे स्टेशन के बीच रास्ते से ही लौटा दिया और वह स्टेशन की ओर बढ ग़ये थे. मैंने भी पहली बार दादा के साथ स्टेशन तक चलने का कोई आग्रह नहीं किया. बहुत दिनों बाद पता चला कि उन्हें कहीं जाना ही नहीं था. स्टेशन तक जाना उनका पुलिस से बचने का एक तरीका था. वहां तक जाकर वह सुरक्षित रास्ते से अपने गुप्त अड्डे पर लौट आया करते थे. यदि कोई उनका पीछा भी करता तो उन्हें बाहर गया हुआ समझता. इस प्रकार वह निर्विघ्न होकर कार्य करते रहते.

नदी का जल कल कल करता हुआ बह रहा है. और धीरे धीरे वह कल कल बदल जाती है एक सामूहिक गीत में. हम सब बैठे हुये गा रहे हैं

यह कल कल छल छल बहती
क्या कहती गंगा धारा‚
युग युग से बहता आया
यह पुण्य प्रवाह….

गीत समाप्त हो चुका है. परस्पर नमस्कार करके हम सब लेट जाते हैं. ठण्डी हवा का झोंका आता है और सभी अपने अपने कम्बल में सिमटना पा्ररम्भ कर देते हैं. ठण्डी हवाओं का एक एक झोंका हमारे शरीरों में सैकड़ों बर्छियां जैसी चुभोता हुआ निकलता है. जेल में वितरित कम्बल पर्याप्त नहीं हैं. इस कडाके की ठण्ड से निबटने के लिये. और फिर इन कम्बलों में पहले से ही मौजूद मानव परोपजीवी खटमल और चीलर भी हमें रक्तदान कर‚ पुण्य कमाने का भरपूर अवसर देते हैं. जेल का वार्डन शाम को हम लोगों के साथ नींद को नहीं बन्द कर पाता है. शायद नींद के लिये जेल की बैरकों में अब कोई जगह ही नहीं बची है. सारी बैरक में लेटने के लिये पंक्तिबद्ध सीमेण्ट की कब्रें जैसी बनी हुयी हैं. उन पर लेटे हुये हम सब सम्भवतः दफनायी हुयी रूह जैसे लगते हैं. ऐसा लगता है मानों कब्रिस्तान में कोई रूहानी सम्मेलन हो रहा हो. अपनी इस उपमा पर मैं बरबस ही मुस्करा उठता हूँ. मुझे जेल आये हुये आज चौथा दिन है. हम सब लोग अपने सौभाग्य को सराह रहे हैं जो माँ भारती की आपात स्थिति से पुनः स्वतंत्रता के लिये संघर्षरत हैं.कौन भला अपनी माँ को दासता के बन्धनों में जकड़ा हुआ देख सकता है. मुझे इस बात पर भी गर्व की अनुभूति होती है कि मेरे पिता देश की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के लिये आगे बढे थे. आज उनके ही पदचिन्हों का अनुसरण मैंने भी किया था. पिताजी मुझसे जेल में मिलने नहीं आये. हाँ उनका संदेश अवश्य बडे भैया के माध्यम से मिला. ''मुझे तुमसे ऐसी ही अपेक्षा थी. कुछ भी हो किन्तु निजी स्वार्थ के लिये सम्पूर्ण राष्ट्र को एक बार पुनः अंधेरी सुरंग में ढकेलने वाली सरकार से माफी नहीं मांगना'' यह संदेश सुनाते हुये भैया की ऑंखे भरभरा आयीं थीं.

अभी-अभी जेलर आया है. वह बता रहा है कि अनुदा भी पकड़े जा चके हैं. मुझपर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. हमारी मनोवृत्तियाँ बदल चुकी हैं. दादा के आते ही हम सब ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया था. शायद उनके आने और मिलने से मुझे अच्छा नहीं लगा था. आन्दोलन जारी रहने के लिये उनका बाहर होना बहुत आवश्यक था. लेकिन हमारे ग्रुप का सत्याग्रह सफल होने से पुलिस बौखला उठी थी. उसे अनुदा के द्वारा आंदोलन के जारी रहने का पता चल चुका था. अतः उसने अविनाश दादा को पकड़ने का एक जोरदार अभियान छेड़ दिया था. अंततः एक दिन किसी मुखबिर की सूचना पर दादा पुलिस की गिरफ्त में आ ही गये थे.

ओस पड़ने से स्वेटर गीला हो चुका है. मैं बेन्च पर से उठकर छतदार चबूतरे पर बैठ जाता हूँ. सम्भवतः रात्रि अभी अधिक नहीं हुयी होगी. जाड़ों में लोग जल्दी ही सोने के लिये चले जाते हैं. फलतः सन्नाटा छाया हुआ है. मैं पुनः खो जाता हूँ वैचारिक झंझावातों में.

बार्षिक परीक्षा के लिये सशर्त जमानत मिली.परीक्षा के दिवस छोड़क़र नगर से चालीस किलोमीटर की परिधि में प्रवेश निषिद्ध. जेल से बाहर आते ही कार्य में जुट जाने का निर्देश मिला. अविनाश दादा का दायित्व अब विजय भैया के पास था. भूमिगत रूप से आंदोलन चलाने में उन्हें मानों महारथ हासिल थी. अब उनसे वही स्नेह और मार्गदर्शन प्राप्त होने लगा था. उनके निर्देशानसार ही जुट गया था छात्र-शक्ति को संगठित करने में. परीक्षा देनी थी और भूमिगत रूप से आंदोलन भी सक्रिय रखना था. मेरे लिये यही निर्देश था. पुलिस की आंखो में चकमा देना अब कठिन था क्योंकि वह सब मुझे पहचानते थे. इतना ही नहीं वरन् परीक्षा वाले दिवस तो वह मेरा पीछा बस स्टैण्ड तक करते. लेकिन जेल में रहते हुये हमारी सारी रूप रेखा पहले ही बन चुकी थी. स्वयं को गुप्त रखते हुये कार्य करना अब मेरे लिये उतना कठिन नहीं था. क्योंकि जितना पुलिस मुझे पहचानती थी उतना ही मैं भी उन्हें पहचानता था. विशिष्ट व्यक्तियों के गुप्त कार्यक्रम होने पर यह बहुत उपयोगी होता था. सादे कपड़ों में पुलिस का कोई व्यक्ति आस पास तो नहीं है‚ यह देखना अब मेरा दायित्व था. जैसे तैसे परीक्षा समाप्त हुयी. उसके उपरान्त मुझे दूसरे स्थान पर कार्य करने का निर्देश मिला. नये स्थान पर पुलिस के पहचानने का संकट समाप्त हो गया था.

शनैः शनैः काल चक्र ने पलटा खाया था. हम लोग आंदोलन बन्द करके जनजागरण अभियान में पूरी शक्ति से जुट गये थे. सारा दिन सड़क के मुख्य मार्ग को छोड़कर पैदल या अन्यान्य सवारियों से किसी भी परिचय के सहारे गांव गांव टिकते हुये रात्रि में अपनी बात लोगों के कानों में डालते हुये, प्रातः मुँह अधेरे उस गांव से निकल जाते थे. बाद में अगले दिन पता चलता कि पुलिस ने छापा मारा. इस तरह लुका छिपी का खेल कब तक चलेगा मालुम नहीं था. सम्भवतः स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला आंदोलन था जब लगभग सभी बड़े नेता जेल में बन्द थे. निचले एवं मध्यम स्तर के कार्यकर्ता स्वविवेक से अपना सर्वस्व भूल कर यज्ञ की समिधा सदृश, राष्ट्रीय स्वतंत्रता हेतु हुत हो रहे थे.

उसी समय मानवता को त्राण मिलने का एक रास्ता निकला. सरकार के किसी चाटुकार ने यह सलाह दी कि इस समय चुनाव कराने से सरकार भारी बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में वापस आ सकती है. तत्कालीन मदांध सरकार ने आंदोलन के दबाब और जनता में फैले विरोध से मुक्त होने के लिये ऐसा विश्वास करके चुनाव का निर्णय ले लिया. कहते हैं जब सियार की मौत होती है तो वह शहर की ओर भागता है. शायद इस कहावत का परिवर्तन चुनाव के बाद इस प्रकार हुआ था कि अलोकप्रिय शासन की जब मौत होती है तो वह जनता की तरफ यानी चुनाव की तरफ भागता है. चुनावों में सत्तारूढ दल की बुरी तरह पराजय हुयी थी. सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ ग़यी थी.

इसी के साथ पूरे देश में राजनीतिक कायाकल्प हो गया था. कल तक जो जेल में बन्द थे आज सरकार में शामिल होने के लिये वार्ता कर रहे थे. सत्तारूढ दल के सभी चाटुकारों ने अपनी निष्ठा रातोंरात बदल दी थी. अब वे सभी जीते हुये नेताओं के परचम पकड़े हुये सबसे आगे की पंक्ति में थे. सभी बड़े नेताओं का आग्रह लोकनायक जयप्रकाश जी से सरकार में आने का था जिसे उन्होंने बड़ी विनम्रता किन्तु दृढता के साथ ठुकरा दिया था. सच ही है जिन्हें जनजन के हृदय में स्वयमेव ही स्थान मिला हो उन्हें किसी अन्य स्थान पर बैठने की आवश्यकता कदापि नहीं.
अस्तु अनुदा भी जेल से छूटकर आ गये थे. वह बुरी तरह से अस्वस्थ थे. स्वस्थ होते ही उन्हें संगठन के कार्य से अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया. इस बीच मेरे पिताजी का भी देहान्त हो गया था. आर्थिक दायित्व का राक्षस मेरे सामने मुंह बाये खडा था. पढायी चौपट हो चुकी थी. और इसी के साथ प्रारम्भ हुयी थी मेरे अकेलेपन की अनुभूति. मुझे लग रहा था कि कहीं कुछ खो गया है. अकेलेपन के इसी अहसास से मैं स्वयं में ही सिमटने लगा था. प्रायः अनुभव करता कि अब मैं अप्रासंगिक हो गया हूँ. जहां भी जाता लोग सत्ता के गलियारों की बात करते मिलते. नयी सरकार ने छह महीने तक जेल में रहने वाले लोगों को स्वतंत्रता सेनानी का स्थान देने की घोषणा कर‚ अपने दायित्व की इतिश्री मानली. राजनीतिक आपाधापी के नये दौर में वास्तविक एवं जुझारू उन कार्यकर्ताओं को वह भी भूल गयी जिन्होंने अपना वर्तमान और भविष्य दोनों राष्ट्रयज्ञ में हुत कर दिया था. ये वह स्वाभिमानी लोग थे जो अपने लिये प्रमाण पत्र जुटाना अपमान समझते थे. अपने राष्ट्र के लिये उन्होंने निस्वार्थ भाव से तन मन धन और जीवन बिना किसी भय संकोच के अबिलम्ब झोंक दिया था. वहीं पर जिन लोगों ने आपात स्थिति में भूमिगत होकर जूझ रहे कार्यकर्ताओं के लिये अपने दरवाजे भी बन्द कर लिये थे‚ अब नयी सरकार के सर्वेसर्वा थे. बडे नेताओं की गणेश परिक्रमा करने वाले इन लोगों को राजनीति के गलियारों की अच्छी जानकारी थी. जेल से निकले अधिकान्श नेताओं का रिश्ता भी उन्हीं लोगों से था जो आपात स्थिति में चूहे की तरह बिल में जा घुसे थे अथवा माफीनामें जेब में लिये घूमते रहे थे.

ऐसे माहौल में राजनीति की उठापटक से बेखबर मैं एक छात्र‚ दिशाहीन सा रेगिस्तान में खडा था. मुझे समझ नहीं आ रहा था यहां से जाना कहां है. मैंने एक दिन उन सज्जन से मिलने के लिये पत्र लिखा, जो आपात स्थिति में मेरी वजह से कई बार जेल जाने से बाल बाल बचे थे. बहुत आभार और मित्र भाव मानते थे उन दिनों. आज की सरकार में वरिष्ठ मन्त्री थे. उत्तर मन्त्री जी के सहायक से मिला कि मन्त्री जी जब भी राजधानी में होते हैं प्रातः जनता दरबार में सभी से मिलते हैं. आगे मैंने जाने और उनसे मिलने की आवश्यकता ही नहीं अनुभव की. उन्हीं दिनों बडे भैया ने एक दुकान में कुछ कार्य करना प्रारम्भ किया और मुझसे उनके शब्दों में ‘नेतागीरी’ का चक्कर छोड़ दुबारा पढ़ायी करने को कहा. तबसे पढ़ायी चल रही है किन्तु मैं हर पल अपने को छला सा ठगा सा दिशाहीन पाता हूँ. सोचता हूँ क्या है दिशा मेरे जैसे युवकों की. क्या यही है हमारा भारत जिसके लिये लोकनायक ने हमारा आह्वान किया था. आज स्वतंत्रता की सुखद अनभूति का अर्थ किसके लिये है मुझ जैसे जनसाधारण को या रातोंरात पाला बदलने वाले सत्ता के गलियारों में काई की तरह चिपके हुये‚ गणेश परिक्रमा करने में चतुर नेताओं को ... ?

सोचते-सोचते मन खिन्न हो उठा है. रात्रि बहुत हो चुकी है शायद. चलना चाहिये सोचकर उठता हूँ. तभी….
'आतू…. अतुलेश' कानों में स्वर पड़ता है. मैं चौंक कर पार्क की अंधेरी वीथी की ओर देखने का प्रयास करता हूँ. उधर से आती छाया ने भी शायद मुझे देख लिया है. लम्बे डग भरते हुये देखकर मैं उन्हें पहचान लेता हूँ. किन्तु आज मैं सदा की भांति चिल्लाकर उनका स्वागत नहीं करता हूँ. बस चुपचाप खड़ा रहता हूँ. अपलक उन्हें निहारता रहता हूँ. दादा आगे बढक़र मेरा कन्धा पकड़ कर हिलाते हैं.

'क्यों क्या हो गया तुझे' और वह प्यार से कन्धा थपथपाने लगते हैं.
'दादा' मैं भर्राये कण्ठ से बडी मुश्किल से बोल पाता हूँ.
' मैं नयी जगह पहुंचा ही था कि विजय जी का पत्र तेरे बारे में, विस्तार से मिला. अभी थोडी देर पहले ही ट्रेन से पहुंचा हूँ. मुझे मालुम था तू यदि अपने कमरे पर नहीं होगा तो यहीं मिलेगा. और फिर यह स्थान तो आपात स्थिति के हमारे कई गुप्त ठिकानों में से एक है ' वह बताने लगते हैं.
' क्या हो गया..? तू कुछ बोलता क्यों नहीं. हो जाय बांसुरी ' उनका ध्यान फिर मेरी चुप्पी पर जाता है.
' नहीं दादा अब बहुत रात हो गयी है ' मैं ठण्डे मन से उत्तर देता हूँ.
' अच्छा एक बात सुनेगा तू ' वह ध्यान से मेरा चेहरा देखते हुये कहते हैं.
' जी ' मैं उनकी ओर निर्भाव देखता हूँ.
'मुझे संगठन की ओर से वापस यहीं कार्य करने का निर्देश मिला है '
' ओह दादा सच' मैं इस अप्रत्याशित प्रसन्नता को अपने स्वर में मिला हुआ पाता हूँ.
' तो फिर हो जाय बांसुरी ' मैं अतिउत्साहित हो उठता हूँ.
' नहीं रे वह तो मैंने तुझे उत्साहित करने के लिये कहा था. अन्यथा बांसुरी नहीं है मेरे पास. मैंने काफी दिनों से बजाना ही छोड़ दिया है' जीवन में पहली बार अपने आदर्श अनुदा को नैराश्य के भाव में देखता हूँ.
' चलें आतू कल से बहुत कार्य है. जुट जाना है ' वह आगे बढ लेते हैं.
' अब क्या दादा अब तो अपनी सरकार है. अब कौन सा पहले की तरह जन जागरण करना है या पुलिस से लुका छिपी करनी है' मैं सहज भाव से कहता हूँ.
' नहीं रे राष्ट्रकार्य कभी समाप्त नहीं होता. बस कार्य के सन्दर्भ बदल जाते हैं. मात्र सरकार बदलने से कुछ नहीं होगा. जब तक लोगों का चिन्तन नहीं बदलेगा सारी सम्स्यायें वैसी की वैसी रहेंगी ' दादा का उत्तर है.
' तो फिर हमने संघर्ष क्यों किया' मैं जिज्ञासा प्रकट करता हूँ.
' तब देश के लोकतांत्रिक अस्तित्व को खतरा था. आज देश की सारी व्यवस्था को भ्रष्ट लोगों द्वारा स्थापित राजनीतिक मूल्यों एवं परंपराओं से खतरा है' दादा अब गंभीर हो चले हैं.
' तो इस नयी लडाई में मेरा क्या हिस्सा होगा' मैं पूछता हूँ.
' अपनी शिक्षा संपूर्ण करना ताकि तुम आत्मिक रूप से जाग्रत होकर इस देश को नयी दिशा दे सको ' मैं दादा की ओर ध्यान से देखता हूँ. किन्तु लम्बे ड़ग भरते हुये वह अवस्थातीत लगते हैं.
' आज पुनः छात्र शक्ति का ही आह्वान करना होगा. भ्रष्ट राजनीति के इस कीचड़ को अपने पौरूष से वही मुक्त कर सकती है ' दादा अपने आप से बातें करते हुये आगे बढे ज़ा रहे हैं.

उनकी चाल में तेजी आ गयी है. ऐसा लगता है कि अदृश्य लक्ष्य तक पहुँचने की शीघ्रता में वह दौडे चले जा रहे हैं. उनका अनुसरण करते हुये मैं स्वयं में अपूर्व ऊर्जा का अनुभव कर रहा हूँ. लगता है रेगिस्तान की मरीचिका में भटकते हुये मुझे एक नयी दिशा मिल गयी है. एक मरूद्यान का स्पष्ट बिम्ब मेरे सामने है. वह दूर प्रतीत होकर भी अब अप्राप्य नहीं लगता है.