दिन निकलते ही गुटर-गूं ।
मेरी देखा-देखी वो भी करती गुटर -गूं ।
रोज़ की यही दिनचर्या ।
महीनों से साथ हैं हम--मैं और वो ।
मैने फिर करी--गुटर गूं ।
बोली नहीं ।
दिल तेज़ी से धड़कने लगा मेरा। क्या हुआ ? बोलती क्यों नहीं?
सहेज कर चोंच मारी, हिली पर बोली अब भी नहीं ।
कपोत ने आँखों मे थोड़ा ज़्यादा लाड़ भरा और सहलाते हुए चोंच से छुआ,"गुटर-गुटर कपोती! बोलती क्यों नहीं?"
ब-मुश्किल कपोती ने चोंच खोली,"गुटर--सारी रात नींद नही आई। सर दर्द कर रहा है मेरा। "
कपोत हँस कर चहका,"ऐसा क्या? मुझे तो आ गई थी नींद ।
मानिनी बन गयी कपोती,"तुम्हे क्या? बैठते ही आँख बंद कर लेते हो"
"पर तू ये तो बता-सोयी क्यों नहीं?"
कपोती रुआंसी हो गयी,"क्या बताउं?,सारी रात बगल वाले शर्मा ने बम फोड़े,पटाखे छोड़े,खूब रेडियो बजाया ज़ोर -ज़ोर से।"
कपोत ने हामी मे सर हिलाया,"हां ,तैयारी कर तो रहा था कुछ शाम से " ।
कपोती गुस्सा गयी, "ऐसा भी क्या,आठ सुर्री तो सर को छूती सी निकल गयीं",उलाहना मारा,"हिले तक नहीं तुम तो गुटर-गूं"।
नहीं-ऐसा तो नहीं--पर तू ज़रा जल्दी परेशान हो जाती है",कपोत ने लाड़ जताया-गूं--गूं--गूं ।
कपोती की दिल की भड़ांस निकली नहीं,”सारी रात नहीं माना शर्मा—भड़ाभड़,भड़ा भड़-ये सुर्री, ये बम गोले ये आतिशबाज़ी—हे भगवान , सुनो गुटर! दीवाली तो नहीं थी आज”।
कपोत हँसा ,"अरे पगली! दिवाली क्या अकेले शर्मा की होती ? अभी तो सरदर्द हुआ है, तब तो मर ही जाती—अभी तो गर्मी चल रही है,दिवाली मे देर है अभी”।
कपोती रुआंसी हो गयी, "पता नहीं— इंसानों के त्योहार पर तो खुद को समझा भी ले। पर यहां तो रोज़ ही कुछ ना कुछ होता रहे है -- गुटर गूं—--धुएं-धक्कड़ से आँख तो खराब हो ही गयी”—फिर कुछ सोचती सी बोली ,"ए गुटर चलो-गांव वापस चलें –यहां से दूर”
“ दूर—हूं", फिर जैसे कुछ कौंध गया,”पर-फिर बच्ची अम्मा--?”
कपोती झटका सा खाकर उठ बैठी ।
आँख सामने वाली बालकनी पर टिक गयी ।
आज सुबह से बच्ची अम्मा नहीं दिखाई दीं—क्यों?
सामने वाली बालकनी मे बच्ची अम्मा रहती हैं ।
65 साल की बच्ची अम्मा से 6 महीने पहले रिश्ता बंधा कपोत-कपोती का । अम्मा सुबह-सुबह 6 बजते ही बालकनी मे आ बैठतीं । आरामकुर्सी पर आगे-पीछे हिलती रहती । बोबले मुंह से गुनगुनाती रहतीं ।
एक दिन दोनों ने देखा-अम्मा की बालकनी मे एक छींका लटका है । छींके पर मिट्टी की थाली और थाली मे पीतल का कटोरा । थाली मे बाजरे के दाने और कटोरे मे साफ़ सुथरा पानी ।
अम्मा हिल- हिल कर गुनगुना रही थी ।
दो दिन हो गये दोनो को देखते -देखते । कपोत-कपोती ने छींके की तरफ़ एक भी उड़ान नही भरी । कपोती से रहा नहीं गया,"गुटर गुटर -छींके पर दाना-पानी है"।
कपोत ने शंका ज़ाहिर की,"गूं- कहीं फंदा भी हुआ तो-?"
"बावले हो", कपोती ने शंका निवारण की "फंदे दूसरी जात के कपोतों के लिये डाले जाते है। हम तो जंगली हैं । हमे कोई फंदे मे रखकर क्या करेगा?"
"पर तू देखले कपोती--?"
"गूं-गूं- गुटर--मैं भी औरत हूं , और वो भी । मैं उनके भाव समझती हूं । वो हमसे बात करना चाहती हैं । चल गुटर--अम्मा के छींके पर चलें"।
उस दिन कपोत- कपोती ने पहली उड़ान भरी- बालकनी मे --डरते डरते ।
पल भर रुक कर ही छींके पर दूसरी उड़ान ली । कमान सी आधे गोले मे, कुछ ज़्यादा देर रुके ।
फिर तो ठिकाना ही बन गया छींका ।
बस , सोने के लिये ही आते थे लाला गनपत पंसारी की बरसाती की गुमटी मे बने आले पर ।
अचानक हंसी छूट गयी कपोत की । अम्मा की बालकनी पर दूसरा ही दिन था । दोनो कपोत --कलरव मे तल्लीन--गुटर इधर, फुदक ऊधर, गुटर --गूं--गूं--गुटर ।
तभी अम्मा बोली थीं,"कब्बु! मेरा नाम बच्ची है"।
तुझे याद है ना कपोती ?
मैने हंस कर कहाथा- गुटर -गुटर मां! बच्ची तो बच्चे को कहते हैं, आप तो बड़ी हो । फिर बच्ची--?"
अम्मा हंसी- पोपली पोपली- चश्मा संभाला और बोली,"'मैं सारी उम्र बच्चा ही बने रहना चाहती हूं कब्बु कब्बी! इसलिये नाम भी बच्ची ही रख लिया --समझे?"
"पर माँ" कपोती बोली थी,"ये बगल मे लकड़ी सी क्यों लगा रखी है माँ?
"अपाहिज हूं ना--, बस तुम दोनो को उड़ता देख कर मेरे पांवों पर चलने का सपना पूरा होता सा लगता है ।"
"ओहो, जाओ उड़ो, फुदको, बातें ना बनाओ दोनों--दाना पानी ले लो",बच्ची अम्मा प्यार से गुस्सा गयी ।
पर आज--?
आज अम्मा नहीं हैं ।
कहां ढूंढें?, कैसेढूंढें?
भटकते भटकते , खोजते- खोजते दूर निकल गये दोनो ।
कपोती की तबीयत तो शर्मा के बम-पटाखों से ही ख़राब थी । ऊपर से अम्मा से ना मिल पाने का दुख ।
उड़ते रहे --लगातार ।
छंगा की हवेली गये । मौला खान की मज़ार देखी । चौक बज़ार, घंटाघर, चकलेश्वर मंदिर की बुर्जी--
कहां नहीं गये ।
भटकते- भटकते कपोत- कपोती के डैने थकने लगे । सारा शहर -धुआं ही धुआं- कहीं शादी के जनरेटर का धुआं । कहीं सल्लु हलवाई की कढाही से निकलता धुआं और गंध, कहीं लाउड-स्पीकर की चिल्लाहट, ओटो-टेम्पो से निकलती डीज़ल-पेट्रोल की बदबू, कहीं गफ़तमल की फ़ेकटरी का धुआं-- पटाखे-आतिशबाज़ी, नदी मे बहता गंद, बदबू और धुआं, जहां भी देखो-वहां ।
हे राम !ना साफ़ हवा, ना सुथरा पानी ।
अरे इंसानों ! हम पखेरुओं के भले का कोई तो सोचो । हम भी सांस लेते हैं। प्राण हमारे भी हैं । आँखें परिंदों की भी दुखती हैं । कान फटते हैं।
पर कपोती! जब ये अपना ही भला नहीं कर पाते , तो हमारा क्या सोचेंगे?
ऊपर से बच्ची अम्मा का भी पता नहीं चला- दाना पानी भी नहीं आज तो.कपोती!
अरे , हम कहां आ गये उड़ते उड़ते, पहचानी सी जगह है।
कपोती चहकी, गुटर --गुटर गूं--ये तो अपनी गली मे आ गये , अम्मा की बालकनी सामने दिख रही है ।
परिंदे- पखेरुओं को इंसान के दिल से राह होती है ।
कोई लाड़ करने वाला होना चाहिये --बस ।
कपोती ने उड़ान लेते हुए चोंच मारी,"पट्टी बाँध कर भी उड़ा दो , जाओगे तब भी बालकनी की तरफ़,--हूं -गांव जायेंगे ये --दिल्ली से दूर..
अहा--अहा-अहा, अम्मा की बालकनी,छींका,दाना,कटोरे मे पानी ।
गुटर- गूं,गुटर-गूं,गुटर गुटर -गूं ।
ये फुदक ये फुदक ,वो फुदकी
पर अम्मा बालकनी मे तो अब भी नहीं है ।
आवाज़ आ रही है कहीं से,"कब्बु-कब्बी आ गये दोनो । "
दोनो ने टेढी आँख कर के कमरे के अंदर झांका--बिस्तर पर लेटी है अम्मा ।
रहा नहीं गया । तीन फ़िट कूदे और कमरे के दरवाज़े मे जाकर बैठ गये फ़र्श पर ।
देखते रहे दोनो अम्मा की तरफ़ -जैसे पूछ रहे हों,"बिस्तर मे क्यों अम्मा?"
बच्ची अम्मा समझ गयी । टूटी -टूटी आवाज़ मे समझाने लगी धीरे-धीरे--
"शर्मे के बमों के धुएं से दम घुट गया- सांस नहीं आया रात भर । भड़ाभड़ की आवाज़ से दिल घबरा गया । कब्बु दिल की मरीज़ हूं ना?"
कपोत- कपोती लुटे ठगे से सुनते रहे,निरीह से देखते रहे।
ऐसे ही दुख से कपोती भी तो दुखी रही है रात भर ।
पखेरु और इंसान का दर्द एक सा ही है,सांझा है।
कब और कैसे समझोगे शर्मा जी,सुलेमान मियां,सरदार विचित्तर सिंह जी और तुम भी विलिअम जौन।
सबसे ही कह रहा हूं -कपोत ने सवाल जड़ दिया।
कपोती से रहा नहीं गया,"क्योंजी , समाप्त हो गयी क्या तुम्हारी कथा?"
कपोत चुप सा हो गया,"पता नहीं कपोती, इंसान ज़्यादा समझदार है -वो ही बोले-------गुटर-गूं,गुटर-गूं"
-प्रवीण पंडित--
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7 कहानीप्रेमियों का कहना है :
सही कहा प्रवीण जी
...... इंसान ज़्यादा समझदार है -वो ही बोले-------गुटर-गूं,गुटर-गूं"
इंसान जो अपने सर्वग्य होने के दंभ से सहज एवं सरल प्राकृतिक जीवन से स्वयं ही दूर होकर विनाश के कगार पर बढ़ता चला जा रहा है
अत्यंत सामयिक प्रस्तुति
प्रवीण भाई..
बहुत ही समयानुकूल व सटीक प्रस्तुति है.. कबूतर-कबूतरी के माध्यम से हजारों प्रश्न उठाये..पता नहीं कब समझेगा इंसान .
बहुत सराहनीय सजीव प्रस्तुति
प्रवीण जी
कथा पढ़कर बहुत मज़ा आया । कुछ देर तक मैं भी गुटर गूँ करती रही । पक्षियों के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को बहुत सुन्दर रूप में उभारा है । कथा की शैली नवीन है और रोवक भी । बधाई स्वीकारें ।
वर्तमान पर प्रहार करने का माध्यम आपने नायाब सा चुना है। कथा की सबसे ख़ास बात है कि आपने पक्षियों के मनोविज्ञान को ऐसा पकड़ा है कि वो कहीं भी बनावटी नहीं लगती।
प्रवीण जी,
अवकाशोपरांत हिन्द युग्म पर जैसे ही सक्रिय हुआ, आपकी कहानी नें मन हरा कर दिया। पात्र इतने सटीक हैं कि आदमी और प्रकृति का साँझा दर्द अपनी गुटर गूं में इस सहजता से बयाँ कर देते हैं कि बात गहरे मन में उतरती है। प्रयोग की दृष्टि से भी रचना अनूठी है।
बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
*** राजीव रंजन प्रसाद
सशक्त प्रस्तुति !
प्रवीण जी मैंने ज्यादा कहानीं नहीं पढी इसीलिए टिप्पणियां करने से बचता हूँ पर आपकी कहानी की शैली ने विवश कर दिया !
सब कुछ आकर्षक है और एक विशेष बात जो मैंने नोट की वह यह की प्रेमचन्दजी की कहानियों में जिस तरह अपनी बात को सच बताने के लिए कुछ-कुछ अंतराल पर मानव स्वभाव को दर्शाने वाली बातों या ऐसा कहें की सूक्तियों का प्रयोग होता रहा है वैसा ही कुछ इस कहानी के अन्तिम अंश में देखने को मिला|ऐसे स्थलों से कहानी की शोभा बढ़ जाती है| जैसे की..
"पखेरु और इंसान का दर्द एक सा ही है,सांझा है।"
"परिंदे- पखेरुओं को इंसान के दिल से राह होती है ।कोई लाड़ करने वाला होना चाहिये --बस ।"
छंगा की हवेली,मौला खान की मज़ार,चौक बज़ार, घंटाघर,चकलेश्वर मंदिर की बुर्जी सब कुछ देखे-देखे से प्रतीत हो रहें हैं तो यह आपकी शैली का कमाल ही है!
अंत में दिए सन्देश के बारे में क्या कहूं ?
बस बधाई स्वीकार कीजिए....
mene bhi pyar kiya hi seme is kahani ki tarah hi es kahani ko padate ro pad........ sanju
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