Sunday, November 4, 2007

एक नयी दिशा

इस नगर की सड़कों पर से गुजरने वाले जन समूह की एक इकाई मैं भी हूँ। यहाँ, इन्ही गलियों और सड़कों पर विचरण करते हुये मुझे एक अन्तराल हो चुका है । अतः मेरे लिये सब पुराना लगने लगा है । नवीनता की कोई अनुभूति नहीं । रोज – रोज वही सड़कें, वही गलियाँ, उन पर लटकते हुये पोस्टर, सभी पुराने से पड़ ग़ये हैं ।

संकरी गली से निकल कर चौराहा और वहाँ तैनात यातायात सुरक्षा कर्मचारी, उसकी सफेद ड्रेस, लाल पगड़ी, यह सब देखना भी मेरी दिनचर्या का अंग बन चुका है । कुछ देर तक चौराहे पर खड़े होकर हाथ उठा देना, आने जाने वाले वाहनों को आधे अधूरे मन से नियन्त्रित करना और फिर पास वाली पान की दुकान पर बैठ कर गप्पें लगाना. कर्तव्य पालन की भावना संभवतः गपशप करने में ही निहित है । जब भी उधर से गुजरता हूँ , पुलिस विभाग की इस अकर्मण्यता पर सहज ही कष्ट होता है । इस विभाग में कितने ही कर्मचारी हैं जो मात्र स्वयं की सर्वांगीण सुरक्षा में रात दिन सन्नद्ध रहते हैं। इनकी इसी स्वनिष्ठा का स्वाद थाने में किसी भी कार्य से गये हुये व्यक्ति को निश्चित रूप से चखना पड़ता है । इन सभी के सहयोग के लिये एक वर्ग सदैव ही प्रस्तुत रहता है । ये लोग अपने-अपने क्षेत्र के बेताज बादशाह होते हैं । आखिर थानेदार के कृपा पात्र जो ठहरे । थाने के आस - पास मँडराने वाले इस विशिष्ट वर्ग का पेशा प्रायः परम्परागत होता है । राजनीतिकों और पुलिस के बीच ये सेतु, किसी भी मामले को थाने के बाहर ही रफा-दफा करने के लिये रेट बता देते हैं । शेष इने-गिने कर्मचारी जो इस विभाग द्वारा देश एवं समाज के लिये कुछ करना चाहते हैं । उन्हें प्रायः निराशा ही हाथ लगती है । इस विभाग में अधिकांश लोग उन्हें उपहास के योग्य मानते हैं ।

ऐसे ही इस नगर में भ्रष्टाचार के प्रहरियों से रक्षित एवं आतंक के निविड़ में असुरक्षा की संपूर्ण भावना को संजोये हुये, मैं प्रातः उठते ही जल्दी-जल्दी तैयार होता हूँ । कहीं देर ना हो जाय यह सोचकर जैसे तैसे भोजन करता हूँ । भोजन का पर्याय मेरे जैसे स्तर पर प्रायः खिचड़ी ही होता है । हाँ मैं सौभाग्यशाली हूँ, जो कभी–कभी इसमें ही सब्जी आदि डालकर बना लेता हूँ अन्यथा आजादी के इतने दिनों बाद स्वराज में भी करोड़ों लोगों को प्रतिदिन भोजन नसीब नहीं होता है । सप्ताह में कई दिन भूखे पेट सोना अब तक उनकी नियति बना हुआ है.

गली से निकलते निकलते ही साढ़े नौ बज जाता है । लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ तेजी से चल देता हूं । चौराहा पार करते ही रिक्शेवाला आवाज देता है ।
' रिक्शा बाबूजी ? ’
' नहीं भाई ' का संक्षिप्त उत्तर मैं बिना रूके ही दे देता हूँ । उसकी निराश ऑंखें दूर तक मेरा पीछा करती हैं ।

चौराहा पार हो चुका है । सामने डाक्टर भानु का नर्सिंग होम है । रोगियों के रिश्तेदारों को घुड़कती -हड़काती नर्से इधर-उधर आ जा रही हैं । डाक्टर भानु को देखते ही मैं नमस्कार करता हूँ ।
' नमस्ते बेटा ' का सम्बोधन मुझे बहुत अच्छा लगता है । डाक्टर भानु मुझे कुछ दिनों से ही जानते हैं । जब मेरी माँ गम्भीर रूप से बीमार हो गयी थी । मैं उन्हें इलाज के लिये यहीं लाया था । उन दिनों यह नसिँग होम लगभग निर्माणाधीन अवस्था में था । आज यहां कितना कुछ है । इतनी अल्पावधि में इसकी प्रगति के पीछे लोग अनेकों बाते कहते हैं ।
सोचते – सोचते ही मार्ग समाप्त हो गया है । कालेज के मेन गेट पर भेंट होती है साइकिल स्टैण्ड के चपरासी से ।
' आज साइकिल नहीं लाये ?
' नहीं, मेरी नहीं थी, जिसकी थी ले गया ।
उत्तर देकर मैं आगे बढ ज़ाता हूँ । कालेज कम्पाउण्ड में एक आम का बाग है । सारे विद्यार्थी उसे आम्रपाली कहते हैं ।
आम्रपाली में पडी बेन्चों पर आर्ट सेक्शन के विद्यार्थी बैठे हुये हैं । विज्ञान का कोई विद्यार्थी वहाँ नहीं होगा क्योंकि प्रोफेसर कटियार क्लास में पहुँच चुके हैं । लो आज भी पाँच मिनट लेट हो ही गया ।

यह पीरियड खाली है । बाहर मैदान में जाकर बैठ जाता हूँ । सुनहली धूप फैली हुयी है घास पर, बाग के ऊपर, खेतों पर, धूप का यह अनन्त विस्तार । सूर्य के दूसरी ओर देखता हूँ । स्वच्छ नीलिमा युक्त आकाश पर रूई के श्वेत गोलों की तरह छिटके हुये बादल - -- लगता है किसी ने ढेर सारी कपास धुनकर फैला दी हो । दूर तक फैली हुयी हरियाली । शरद् ॠतु में हरियाली ऑंखों को कितनी सुखद लगती है ? मैं बचपन से ही प्रकृति- प्रेमी रहा हूँ ।

' बन्धु यहाँ किसी सब्जेक्ट पर रिसर्च हो रही है क्या ?
आवाज सुनकर तन्द्रा भंग हो जाती है । सिर उठाकर सामने देखता हूँ । महीप मुस्कराता हुआ चला आ रहा है ।
तुम कहाँ थे भाई.. क्लास में तो नहीं.. ?' मैं पूछता हूँ ।
' यार क्लास ही आ रहा था तब तक वह मिल गयी ' महीप मेरे पास ही घास पर बैठता हुआ उत्तर देता है ।
' वह …! वह कौन ? ' मैं प्रश्न सूचक दृष्टि से उसकी ओर देखता हूँ ।
'अरे वही बी ए फाइनल की मिस अमिता' महीप थोडा झेंपता हुआ बताता है ।
' अच्छा तो तुम बी ए में चलने वाले उपन्यास 'अमिता' के बारे में कह रहे हो ' मैं मजाक में कहता हूँ. और फिर हम दोनों हॅसने लगते हैं ।

छुट्टी हो चुकी है । महीप बालीवाल खेलने के लिये आग्रह करता है । बड़ी मुश्किल से पीछा छुडा सका हँ ।
' यार वह देखो टेपरिकार्डर आ रहा है ' दूर से आते हुये सुनील को देखकर महीप कहता है ।
' तुम बैठकर सुनो मैं चला ' महीप खिसकना चाहता है ।
' तुम भी कभी- कभी सुन लिया करो यार ' मैं महीप को पकड़ता हुआ कहता हूँ । वैसे मैं जानता हूँ महीप क्यों सुनील से भागता है ।
' अच्छा तो मिस्टर मजनूँ की दास्ताने लैला आज आप सुन रहे हैं ? सुनील सदा की भाँति महीप को चिढ़ाते हुये दूर से ही हाँक लगाता है ।
' आओ यार ! तुम भी सुनाओ क्या हाल है' मैं उसे सम्बोधित करता हूँ.
' अपना क्या हम तो सदा ही मस्त रहते हैं. बस रोना है तो मेरे यार तुम्हारी सूरत पर. जब देखो दार्शनिकों की तरह सोचते ही नजर आते हैं. बैठे यहाँ हैं दिमाग किसी दूसरे लोक की घास चर रहा होता है. मै तो कहता हूँ … '
' बस बस यार तुमने तो मेरा पूरा पीरियाडिक क्लासीफिकेशन ही कर डाला ' मैं सुनील की बात काटते हुये कहता हूँ और हम सब हँसने लगते हैं.
' अच्छा तो मैं चलता हूँ फील्ड में, तुम मेरी साइकिल लेते जाना ' महीप साइकिल की चाबी मुझे देते हुये कहता है.
' और तुम' मैं महीप से पूछता हूँ.
' खेलने के बाद पैदल आ जाऊंगा '
' मिस अमिता के साथ ' मैं चुटकी लेता हूँ.
और इसके साथ ही एक बार पुनः हँसी का झोंका सा आता है. सब खिलखिलाकर हँसने लगते हैं. बिल्कुल बच्चों जैसी निश्छल हँसी.

साईकिल लेकर चल पडा हूँ. बाग में इस समय छात्र छात्राओं की भीड़ है. कुछ छात्रों के क्लास इसी समय से प्रारम्भ होने वाले हैं. अतः वे क्लास प्रारंभ होने से पहले बाग में पडी बेन्चों पर बैठे हैं. कुल मिलाकर एक मेला सा लगा है. सभी चञ्चल चित्त प्रसन्न मन. सम्भवतः इन्हीं छात्रों की चपल भीड़ में कुछ मेरे जैसे अकेलेपन से सराबोर अन्य भी एक दो छात्र हों. हो सकता है वे समस्याओं की श्रृंखलाओं से जूझ रहे हों. इसी के फलस्वरूप उन्हें अकेलापन लगता हो. किन्तु मैं मेरी तो ऐसी कोई भी समस्या नहीं है. फिर क्यों मन इतना उदास, अकेला सा लगता है. मैं कभी भी स्थायी रूप से कुछ दिनों तक प्रसन्नचित्त नहीं रहा हूँ. छात्रों के समूह में जब सब जी खोलकर हँस रहे होते हैं, मैं देख रहा होता हूँ शून्य के उस पार अंतरिक्ष में बिलकुल अपना अस्तित्व भूलकर. कभी-कभार किसी के टोक देने पर मानो सोता सा जागता हूँ. … और फिर उनकी बातचीत हँसी मजाक के लम्बे सिलसिले में हॅसता भी हूँ मगर एक फीकी सी हँसी. एक ठण्डी सी लहर, उदासी का एक झोंका ताड़ जाते हैं सारे साथी और फलस्वरूप सबके सब एकदम से ठहर जाते हैं. एक सन्नाटा छा जाता है. सबको यकायक अपनी ओर ताकते देख‚ मैं टोकता हूँ.

' अरे ! क्या हो गया.... सब चुप कैसे हो गये ?'
' चुप क्या यार..!, तुम भी पूरे दार्शनिक हो. कभी कुछ बोलो भी क्यों ठण्डी आहें भरा करते हो प्यारे ' सुनील स्नेह युक्त नाराजी से कहता है.
' मुझे तो इनका मामला भी कुछ पुराना सा लगता है यार '
' और अब इनके पास ठण्डी आहें ही शेष हैं ' सुभाष की बात को महीप पूरा करता है.

इस बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं. उनकी इस हँसी में मेरा भी स्वर होता है. थोडी देर के लिये उनके इस मजाक पर मैं भी प्रसन्न चित्त हो जाता हूँ. सोचते- सोचते ही आ गया हूँ नदी के पुल पर. थोडी देर के लिये रूक जाता हूँ. पुल की रेलिंग के सहारे टिक कर नदी के बीचो बीच देख रहा हूँ. पानी के बहते हुये प्रवाह से मन खोने लगता है. उदासी की एक और अनुभूति. तत्काल सिर को झटका देकर मैं विचारों से मुक्त होने का प्रयास करते हुये चल देता हूँ और तेजी से.

भोजन कर चुका हूँ. गाँधी पार्क की ओर चल पडा हूँ. शाम का अँधेरा घिरने लगा है. सड़कों पर कुहासा छाता जा रहा है. सड़कों पर भीड़ भी कम होने लगी है. पड़ोस में ही अमरूदों के बाग पर अभी-अभी सूर्यास्त हुआ है. सूर्यास्त की लाली अब तक आसमान में छायी है. जाड़े क़ी ॠतु अभी प्रारम्भ ही हुयी है, फलतः बहुत ठण्ड नहीं होती है. हाँ सड़कें अवश्य सूर्यास्त होते ही सुनसान होने लगती हैं. आवश्यक कार्य के अतिरिक्त कोई भी बाहर नहीं निकलता है. पता नहीं क्यों मैं नियमित रूप से यन्त्रचालित सा होकर चला आता हूँ यहाँ. यह स्थान मुझे बहुत प्रिय है. मैं स्वयं भी जानना चाहता हँ अपनी उदासी के कारण को. मैं क्यों इतना उदास रहा करता हूँ. एक यक्षप्रश्न सा मेरे मन में उठता है. क्या दुख मुझे खाये जा रहा है.

' क्यों इतने उदास रहते हो ' अपने अंतरमन से मैं प्रश्न करता हूँ.
' पता नहीं यों ही ' अंतर के दूसर कोने से स्वर उभरता है.
' कभी सोचा है कि इस यों ही का क्या प्रभाव पडा है तुम्हारे ऊपर '
'………' दूसरा अंतस निरूत्तर रह जाता है.

एक अजीब सी कशमकश से मैं तिलमिला उठता हूँ. सोचता हूँ जो लोग कल तक मुझे आदर्श बताते थे. दूसरों को मुझसे प्रेरणा लेने को कहते थे. आज जब मैं समाज का कुछ कार्य नहीं कर रहा हूँ तो रास्ता चलते हुये मुँह फेर लेते हैं. क्या समाज को मात्र कार्यरत कार्यकर्ता से ही स्नेह होता है. लगता है मेरी उदासी का हल भी यहीं कहीं आसपास में ही है.

पार्क की बत्तियाँ जल चकी हैं. पश्चिम की ओर पास में ही नदी का किनारा. संगमरमर का सुन्दर चबूतरा और उस पर स्थापित गाँधी जी की धवल मूर्ति. पास में ही बैठने के लिये बेञ्चें बनी हुयी हैं. मूर्ति के बिलकुल पास वाली बेञ्च पर बैठ जाता हूँ. पश्चिम की ओर क्षितिज पर सूर्यास्त की लालिमा अब तक छायी हुयी है. उसके नीचे रात्रि की कालिमा का साम्राज्य है. ऐसी ही अर्न्तद्वन्द की कई अंधेरी परतें मेरे मष्तिष्क में भी छायी हुयी हैं. नदी के किनारे-किनारे फैक्ट्रियों की चिमनियाँ दूर तक फैली हैं. नगर में सड़कों के किनारे जलती हुयी बत्तियाँ रोशनी के धब्बों की लम्बी चमकती हुयी रेखाओं जैसी प्रतीत होती हैं. सारा नगर यहाँ से एक सुन्दर दृश्यचित्र की भाँति अनुभूत होता है. मैंने कई बार यहीं पार्क में साँध्यबेला एवं रात्रि के इन चित्रों को कैनवास पर उतारने का प्रयास किया है. बचपन की एक घटना याद आती है. तब मैं बहुत छोटा था. पिताजी के साथ खेतों पर गया था. वहां काम कर रहे मजदूर एवं चारो ओर फैले पलाशवन की हरी पट्टियों को देखकर मैं मन्त्रमुग्ध था. चारो ओर फैले दृश्यो में ध्यानमग्न देखकर पिताजी ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर पूछा.

' क्या देख रहे हो बेटा '
कुछ न समझापाने की बेबसी से मैंने अपना हाथ जंगल की ओर उठा दिया.
' कैसा लगता है ' पिताजी ने पुनः पूछा था.
' अच्छा बहुत अच्छा ' बालसुलभ संकोच के साथ मैं बड़ी कठिनाई से बोला.
' क्या चित्रकार या कवि बनेगा रे ' पिताजी मुझे चूमते हुये प्यार से बोले. और मैंने उनके कन्धे से अपना सिर टिका दिया.

उसके बाद चल पड़ा था समय का एक लम्बा सिलसिला. गांव की अमराइयों में बिना भवन के चलने वाले प्राथमिक विद्यालय से होते हुये मैं पड़ोस के कस्बे से हाईस्कूल करके इस नगर में आ गया था. पिताजी जो क्रान्तिकारी रह चुके थे. धीरे धीरे वृद्ध होने लगे थे. उन दिनों मैं इण्टरमीडियेट के प्रथम वर्ष में था जब अविनाश के सम्पर्क में आया. वह एक सामाजिक संस्था के कार्यकर्ता थे. पिताजी से प्रोत्साहन और अनुमति मिलने पर मैंने भी उस संस्था के कार्यक्रम आदि में रूचि लेना प्रारम्भ किया. धीरे धीरे अविनाश से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गयी थी. वह मित्रता कब अंतरंगता में परिवर्तित हो गयी‚ पता ही नहीं चला. अब वह अविनाश दादा से मेरे अनुदा बन गये थे.

यह मेरा इण्टरमीडियेट का अंतिम वर्ष था. मैं परीक्षा की तैयारी में रात दिन जुटा हुआ था. उसी समय देश में आपात स्थिति की घोषणा कर दी गयी. सारा देश मानों सकते में आ गया था. कोई कुछ समझ पाता, उससे पहले ही अधिकतर राजनेता रातोंरात बन्दी बना लिये गये. जो बच गये उन्होंने सबसे पहले भूमिगत होना उचित समझा. सामाजिक संस्थाओं पर रोक और प्रेस पर सेंसर लगा दी गयी थी. प्रारम्भ में यह सब अप्रत्याशित सा लगा. बाद में लोगों के मन में कायरता का भाव आने लगा. प्रायः यह सुना जाता हमें क्या करना सरकार कुछ भी करे. हमें अपने कार्य से कार्य होना चाहिये. और फिर हम कर भी क्या सकते हैं. चारो ओर मानों आतंक का साम्राज्य छा गया था. सरकार की बुराई करने का जोखिम कोई नहीं लेना चाहता था. सत्तारूढ दल के लोग अपने प्रतिद्वन्दियों को ठिकाने लगाने में जुट गये थे. जो भी मँह खोलता सीधे मीसा अथवा डी आई आर में धर लिया जाता.

इधर अनुदा से काफी दिनों से भेंट नहीं हुयी थी. हाँ इतना अवश्य पता चला था कि वह सामाजिक संस्था भी प्रतिबंधित कर दी गयी थी जिसके लिये अनुदा कार्य करते थे. फलस्वरूप उसके कार्यकर्ताओं को भी भूमिगत होना पडा था. दो चार सदस्यों से अनुदा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा श्वास भी मत निकालो. कहीं किसी ने सुन लिया तो पड़ ज़ाओगे सारी उम्र भर के लिये जेल के चक्कर में. सरकारी आतंक के कारण कोई बात तक नहीं करना चाहता था. किन्तु मुझे तो अनुदा से मिलना था. किसी ने कुछ भी ठीक न बताया था. हाँ इतना अवश्य पता लगा था कि पुलिस उनकी खोजबीन कर रही है. सम्भवतः गिरफ्तार भी हो गये हों. क्योंकि उन दिनों गिरफ्तारियाँ चुपचाप होतीं थीं. अखबार प्रतिबन्धित होने के कारण समाचार भी प्रकाशित नहीं होते थे. कई अखबारों के सम्पादक जेल में डाले जा चुके थे और उनके कार्यालयों पर ताला पड़ ग़या था. मैं सारे प्रयासों के उपरान्त भी अनुदा की कोई खबर न पा सका था. अन्त में उदास मन से चुपचाप परीक्षा की तैयारी में जुट गया.

आस पास ही कहीं बांसुरी का स्वर मुखरित होना प्रारम्भ हुआ है. मेरी तन्द्रा भंग हो जाती है. सान्ध्य बेला की लालिमा एवं रात्रि का तम अब श्वेत धवल चाँदनी में परिवर्तित हो चुके हैं. नदी में कोई नाविक धीरे धीरे नाव खेता हुआ आ रहा है. आह बाँसुरी भी क्या गजब की होती है. और वह भी चाँदनी रात में नदी के किनारे. इसी के साथ मैं उच्छ्श्वास लेता हूँ. अनुदा भी बाँसुरी बहुत अच्छी बजाया करते थे. उनकी बाँसुरी बजा करती और हम सब चुपचाप सुना करते थे. मुझे अच्छी तरह से याद है कि एक बार यहीं पार्क में अनुदा और मैं टहलते हुये आ गये थे. उस दिन इसी बेंच पर बड़ी देर तक बैठे हुये चन्द्रमा की प्रच्छाया को नदी की लहरों से संघर्ष करते हुये देखते रहे और फिर वह बोले.

' देख रे! चन्द्रमा की यह छाया हमारा राष्ट्र है. नदी की लहरें अंग्रेजों से विरासत में मिली हमारे देश की समस्यायें हैं. खण्डित आजादी पाकर हमारा राष्ट्र आज इसी तरह जूझ रहा है भुखमरी, भ्रष्टाचार और अंतर्राष्ट्रीय भिखारीपन से. देश के बँटवारे से उपजी कलह और फूट का दंश आज भी हमारे समाज को डस रहा है '
' वह सब छोड़ो दादा, फिलहाल बाँसुरी सुनाओ ' मैंने उस पल उनकी गंभीर बातों में कोई रूचि न लेते हुये कहा.
' अरे बुद्धू.... बाँसुरी यहाँ कहाँ ' उन्होने भी गाम्भीर्य से बाहर आते हुये कहा.
' ये रही ' कहते हुये मैंने अपने साथ लायी बाँसुरी उनके आगे करदी. दादा से सुनने और सीखने की जिज्ञासा से मैं उन दिनों बांसुरी हर पल अपने साथ रखता. प्रायः दादा से छिपाकर.
' तुम इसे इसीलिये साथ लाये थे ' दादा ने बांसुरी मेरे हाथ से लेते हुये कहा.
' जी हाँ लेकिन अब सुनाइये फटाफट ' मैं बच्चों जैसा अधीर होने लगा था.
' इतने बड़े हो गये हो और बच्चों जैसा स्वभाव नहीं बदला. मालुम है तुम्हारी आयु में चन्द्रशेखर आजाद का चिन्तन क्या था'
' नहीं मालुम दादा. किन्तु वह सब फिर कभी‚ इस पल तो बस बाँसुरी की बात कीजिये '
और वह हँस पडे थे मेरी मुद्रा देखकर और हम बेन्च से उठकर छतरीदार चबूतरे पर आकर बैठ गये थे. दादा ने खम्भे से पीठ टिकाकर बाँसुरी बजाना प्रारम्भ किया. उनकी अंगुलियां बांसुरी पर बडी तेजी से उठ गिर रही थीं. और वातावरण में मुखरित हो उठा था मेरा प्रिय गीत

ज्योति जला निज प्राण की
बाती गढ बलिदान की‚
आओ हम सब चलें उतारें
मॉ की पावन आरती
भारत माँ की आरती

बांसुरी की स्वर लहरियां नगर के दक्षिणी पश्चिमी छोर पर बने इस पार्क में गूंज उठी थीं. गांधी चबूतरे से नदी के तट तक जाने वाली सीढियों पर एकाध नाव वालों को छोड़क़र सन्नाटा ही था. दादा बांसुरी बजाते-बजाते तन्मय हो गये थे. मैं भी कुछ देर तक बांसुरी का आनन्द उठाते हुये ठण्डी फर्श पर आराम से लेट गया था. उस दिन अनुदा बडी देर तक बांसुरी बजाते रहे. सम्भवतः उनका ध्यानमग्न होने का एवं चिन्तन करने का यही तरीका था. जब उन्होंने बांसुरी बजाना बन्द किया तो मुझे फर्श पर खर्राटे भरते हुये पाया था. आज इस पल वह सब स्मरण करके हृदय में एक भावावेग अनुभव करता हूँ और पुनः सोचने लगता हूँ.

उस दिन कालेज से अपने कमरे पर वापस लौट रहा था. सूचना कार्यालय के पीछे वाली सड़क से अभी गली में मुडा ही था कि एक क्लीनशेव्ड सूटेड-बूटेड युवक भी लम्बे कदमों से लपक कर मेरे साथ चलने लगा. मैने कोई विशेष ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी. किन्तु मुझे तब आश्चर्य हुआ जब मेरा रहने का मकान पास आने पर‚ मेरे साथ ही वह भी रूक गया.

' किससे मिलना है आपको ' मैंने सहज जिज्ञासा के साथ पूछा.
' पहले चुपचाप अन्दर चलो फिर बात करते हैं ' उसने हाथ से कमरे की ओर संकेत किया.
आवाज सुनकर मैं मानो तन्द्रा से जागा था.
'अरे ...! दादा आप.. !! ' और मैने शीघ्रता से अन्दर आते ही कमरे का दरवाजा उढ़का दिया. मुझे अब तक अवाक् खडे देखकर उन्होंने कहा
' जल्दी से कुछ खाने का प्रबन्ध करो. कई दिन से खाली पेट हूँ. कुछ खा सकता इसका अवसर ही नहीं मिला '
' ओह हाँ' मैं अब भी विस्मित था.
' जी अभी कुछ करता हूँ. लेकिन यह हुलिया और आपकी वह मूछें और कुर्ता-धोती कहां गये. मैं तो बिलकुल ही नहीं पहचान पाया.' मन में बहुत सारे सवाल थे जिनका उत्तर जानने को बहुत उत्सुक था.
' पहले खाने की व्यवस्था करो. धीरे धीरे सब पता चल जायेगा ' उन्होंने समझाने की मुद्रा में कहा.

उस दिन खाने के उपरान्त दादा वहीं सो गये थे. उनका शरीर थकान से शिथिल था. मेरे बहुत पूछने पर उन्होंने केवल इतना ही बताया था कि उनसे वरिष्ठ कार्यकर्ता पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये थे. संगठन की सारी व्यवस्था का भार इस समय उनके कन्धों पर था.

' माँ 'भारती' के लिये कुछ करने का साहस है ' पहली बार उन्होंने मुझसे सवाल किया‚ अन्यथा अबतक तो वह मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर स्वयं ही थे.
' मैं क्या कर सकता हूँ ' मैंने उनका मुंह ताकते हुये प्रतिप्रश्न पूछा.
' तुम… एक छात्र.... छात्र-शक्ति ही आज वह सर्वोच्च शक्ति है जो सारे देश से इस तमस को मिटा सकती है. भूल गये शहीद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद सब छात्र ही थे जब उन सभी ने देश के स्वाभिमान एवं स्वतन्त्रता के लिये अपना जीवन दाँव पर लगा दिया. आज उसी समय के क्रान्तिकारी वयोवद्व जयप्रकाश नारायण जी ने छात्रों का फिर आह्वान किया है. उन्होंने कहा है कि छात्रों को राष्ट्र की इस भयानक त्रासदी से संघर्ष करने के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने का समय फिर आ गया है ' दादा का चेहरा आवेग से तमतमा उठा था. वह धारा-प्रवाह बोले जा रहे थे.
'छात्र-शक्ति आज भी सारे देश को परिवर्तित करने की क्षमता रखती है. आवश्यकता है उसे सही दिशा की. मैं समझता हूँ जयप्रकाश जी ने आह्वान तो कर ही दिया है '
' किन्तु मैं व्यक्तिगत रूप से क्या कर सकता हूँ ' मैंने उन्हें टोका.
' समय आने दो सब पता चल जायेगा. बस साहस और उत्साह बनाये रखो. तब तक पूरे मन से पढायी करो और परीक्षा की तैयारी करो ' दादा ने कहा था.

अगली प्रातः मुँह अंधेरे ही वह जाने के लिये तैयार हो गये थे. उन्होंने मुझसे स्टेशन तक चलने के लिये कहा.
' इतनी सुबह आप कहां जायेंगे ' मैंने रास्ते में पूछा
' आवश्यकता पड़ने पर ही कोई बात बतायी जा सकती है. दादा ने चेतावनी देते हुये कहा.
' किसी बात को जब तक आज्ञा न हो जानने की चेष्टा मत करो. जितना आदेश उतना ही कार्य करने की आवश्यकता है. पूर्ण अनुशासन से ही आज हमारे कार्य की सफलता सम्भव है ' पुनः समझाते हुये बोले.
' पूरा मन लगाकर परीक्षा में प्रथम आने का प्रयास करो. मैं यथानुसार तुमसे स्वयं सम्पर्क करता रहूँगा. अच्छा अब तुम जाओ' ऐसा कहकर उन्होंने मुझे स्टेशन के बीच रास्ते से ही लौटा दिया और वह स्टेशन की ओर बढ ग़ये थे. मैंने भी पहली बार दादा के साथ स्टेशन तक चलने का कोई आग्रह नहीं किया. बहुत दिनों बाद पता चला कि उन्हें कहीं जाना ही नहीं था. स्टेशन तक जाना उनका पुलिस से बचने का एक तरीका था. वहां तक जाकर वह सुरक्षित रास्ते से अपने गुप्त अड्डे पर लौट आया करते थे. यदि कोई उनका पीछा भी करता तो उन्हें बाहर गया हुआ समझता. इस प्रकार वह निर्विघ्न होकर कार्य करते रहते.

नदी का जल कल कल करता हुआ बह रहा है. और धीरे धीरे वह कल कल बदल जाती है एक सामूहिक गीत में. हम सब बैठे हुये गा रहे हैं

यह कल कल छल छल बहती
क्या कहती गंगा धारा‚
युग युग से बहता आया
यह पुण्य प्रवाह….

गीत समाप्त हो चुका है. परस्पर नमस्कार करके हम सब लेट जाते हैं. ठण्डी हवा का झोंका आता है और सभी अपने अपने कम्बल में सिमटना पा्ररम्भ कर देते हैं. ठण्डी हवाओं का एक एक झोंका हमारे शरीरों में सैकड़ों बर्छियां जैसी चुभोता हुआ निकलता है. जेल में वितरित कम्बल पर्याप्त नहीं हैं. इस कडाके की ठण्ड से निबटने के लिये. और फिर इन कम्बलों में पहले से ही मौजूद मानव परोपजीवी खटमल और चीलर भी हमें रक्तदान कर‚ पुण्य कमाने का भरपूर अवसर देते हैं. जेल का वार्डन शाम को हम लोगों के साथ नींद को नहीं बन्द कर पाता है. शायद नींद के लिये जेल की बैरकों में अब कोई जगह ही नहीं बची है. सारी बैरक में लेटने के लिये पंक्तिबद्ध सीमेण्ट की कब्रें जैसी बनी हुयी हैं. उन पर लेटे हुये हम सब सम्भवतः दफनायी हुयी रूह जैसे लगते हैं. ऐसा लगता है मानों कब्रिस्तान में कोई रूहानी सम्मेलन हो रहा हो. अपनी इस उपमा पर मैं बरबस ही मुस्करा उठता हूँ. मुझे जेल आये हुये आज चौथा दिन है. हम सब लोग अपने सौभाग्य को सराह रहे हैं जो माँ भारती की आपात स्थिति से पुनः स्वतंत्रता के लिये संघर्षरत हैं.कौन भला अपनी माँ को दासता के बन्धनों में जकड़ा हुआ देख सकता है. मुझे इस बात पर भी गर्व की अनुभूति होती है कि मेरे पिता देश की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के लिये आगे बढे थे. आज उनके ही पदचिन्हों का अनुसरण मैंने भी किया था. पिताजी मुझसे जेल में मिलने नहीं आये. हाँ उनका संदेश अवश्य बडे भैया के माध्यम से मिला. ''मुझे तुमसे ऐसी ही अपेक्षा थी. कुछ भी हो किन्तु निजी स्वार्थ के लिये सम्पूर्ण राष्ट्र को एक बार पुनः अंधेरी सुरंग में ढकेलने वाली सरकार से माफी नहीं मांगना'' यह संदेश सुनाते हुये भैया की ऑंखे भरभरा आयीं थीं.

अभी-अभी जेलर आया है. वह बता रहा है कि अनुदा भी पकड़े जा चके हैं. मुझपर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. हमारी मनोवृत्तियाँ बदल चुकी हैं. दादा के आते ही हम सब ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया था. शायद उनके आने और मिलने से मुझे अच्छा नहीं लगा था. आन्दोलन जारी रहने के लिये उनका बाहर होना बहुत आवश्यक था. लेकिन हमारे ग्रुप का सत्याग्रह सफल होने से पुलिस बौखला उठी थी. उसे अनुदा के द्वारा आंदोलन के जारी रहने का पता चल चुका था. अतः उसने अविनाश दादा को पकड़ने का एक जोरदार अभियान छेड़ दिया था. अंततः एक दिन किसी मुखबिर की सूचना पर दादा पुलिस की गिरफ्त में आ ही गये थे.

ओस पड़ने से स्वेटर गीला हो चुका है. मैं बेन्च पर से उठकर छतदार चबूतरे पर बैठ जाता हूँ. सम्भवतः रात्रि अभी अधिक नहीं हुयी होगी. जाड़ों में लोग जल्दी ही सोने के लिये चले जाते हैं. फलतः सन्नाटा छाया हुआ है. मैं पुनः खो जाता हूँ वैचारिक झंझावातों में.

बार्षिक परीक्षा के लिये सशर्त जमानत मिली.परीक्षा के दिवस छोड़क़र नगर से चालीस किलोमीटर की परिधि में प्रवेश निषिद्ध. जेल से बाहर आते ही कार्य में जुट जाने का निर्देश मिला. अविनाश दादा का दायित्व अब विजय भैया के पास था. भूमिगत रूप से आंदोलन चलाने में उन्हें मानों महारथ हासिल थी. अब उनसे वही स्नेह और मार्गदर्शन प्राप्त होने लगा था. उनके निर्देशानसार ही जुट गया था छात्र-शक्ति को संगठित करने में. परीक्षा देनी थी और भूमिगत रूप से आंदोलन भी सक्रिय रखना था. मेरे लिये यही निर्देश था. पुलिस की आंखो में चकमा देना अब कठिन था क्योंकि वह सब मुझे पहचानते थे. इतना ही नहीं वरन् परीक्षा वाले दिवस तो वह मेरा पीछा बस स्टैण्ड तक करते. लेकिन जेल में रहते हुये हमारी सारी रूप रेखा पहले ही बन चुकी थी. स्वयं को गुप्त रखते हुये कार्य करना अब मेरे लिये उतना कठिन नहीं था. क्योंकि जितना पुलिस मुझे पहचानती थी उतना ही मैं भी उन्हें पहचानता था. विशिष्ट व्यक्तियों के गुप्त कार्यक्रम होने पर यह बहुत उपयोगी होता था. सादे कपड़ों में पुलिस का कोई व्यक्ति आस पास तो नहीं है‚ यह देखना अब मेरा दायित्व था. जैसे तैसे परीक्षा समाप्त हुयी. उसके उपरान्त मुझे दूसरे स्थान पर कार्य करने का निर्देश मिला. नये स्थान पर पुलिस के पहचानने का संकट समाप्त हो गया था.

शनैः शनैः काल चक्र ने पलटा खाया था. हम लोग आंदोलन बन्द करके जनजागरण अभियान में पूरी शक्ति से जुट गये थे. सारा दिन सड़क के मुख्य मार्ग को छोड़कर पैदल या अन्यान्य सवारियों से किसी भी परिचय के सहारे गांव गांव टिकते हुये रात्रि में अपनी बात लोगों के कानों में डालते हुये, प्रातः मुँह अधेरे उस गांव से निकल जाते थे. बाद में अगले दिन पता चलता कि पुलिस ने छापा मारा. इस तरह लुका छिपी का खेल कब तक चलेगा मालुम नहीं था. सम्भवतः स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला आंदोलन था जब लगभग सभी बड़े नेता जेल में बन्द थे. निचले एवं मध्यम स्तर के कार्यकर्ता स्वविवेक से अपना सर्वस्व भूल कर यज्ञ की समिधा सदृश, राष्ट्रीय स्वतंत्रता हेतु हुत हो रहे थे.

उसी समय मानवता को त्राण मिलने का एक रास्ता निकला. सरकार के किसी चाटुकार ने यह सलाह दी कि इस समय चुनाव कराने से सरकार भारी बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में वापस आ सकती है. तत्कालीन मदांध सरकार ने आंदोलन के दबाब और जनता में फैले विरोध से मुक्त होने के लिये ऐसा विश्वास करके चुनाव का निर्णय ले लिया. कहते हैं जब सियार की मौत होती है तो वह शहर की ओर भागता है. शायद इस कहावत का परिवर्तन चुनाव के बाद इस प्रकार हुआ था कि अलोकप्रिय शासन की जब मौत होती है तो वह जनता की तरफ यानी चुनाव की तरफ भागता है. चुनावों में सत्तारूढ दल की बुरी तरह पराजय हुयी थी. सारे देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ ग़यी थी.

इसी के साथ पूरे देश में राजनीतिक कायाकल्प हो गया था. कल तक जो जेल में बन्द थे आज सरकार में शामिल होने के लिये वार्ता कर रहे थे. सत्तारूढ दल के सभी चाटुकारों ने अपनी निष्ठा रातोंरात बदल दी थी. अब वे सभी जीते हुये नेताओं के परचम पकड़े हुये सबसे आगे की पंक्ति में थे. सभी बड़े नेताओं का आग्रह लोकनायक जयप्रकाश जी से सरकार में आने का था जिसे उन्होंने बड़ी विनम्रता किन्तु दृढता के साथ ठुकरा दिया था. सच ही है जिन्हें जनजन के हृदय में स्वयमेव ही स्थान मिला हो उन्हें किसी अन्य स्थान पर बैठने की आवश्यकता कदापि नहीं.
अस्तु अनुदा भी जेल से छूटकर आ गये थे. वह बुरी तरह से अस्वस्थ थे. स्वस्थ होते ही उन्हें संगठन के कार्य से अन्यत्र स्थानान्तरित कर दिया गया. इस बीच मेरे पिताजी का भी देहान्त हो गया था. आर्थिक दायित्व का राक्षस मेरे सामने मुंह बाये खडा था. पढायी चौपट हो चुकी थी. और इसी के साथ प्रारम्भ हुयी थी मेरे अकेलेपन की अनुभूति. मुझे लग रहा था कि कहीं कुछ खो गया है. अकेलेपन के इसी अहसास से मैं स्वयं में ही सिमटने लगा था. प्रायः अनुभव करता कि अब मैं अप्रासंगिक हो गया हूँ. जहां भी जाता लोग सत्ता के गलियारों की बात करते मिलते. नयी सरकार ने छह महीने तक जेल में रहने वाले लोगों को स्वतंत्रता सेनानी का स्थान देने की घोषणा कर‚ अपने दायित्व की इतिश्री मानली. राजनीतिक आपाधापी के नये दौर में वास्तविक एवं जुझारू उन कार्यकर्ताओं को वह भी भूल गयी जिन्होंने अपना वर्तमान और भविष्य दोनों राष्ट्रयज्ञ में हुत कर दिया था. ये वह स्वाभिमानी लोग थे जो अपने लिये प्रमाण पत्र जुटाना अपमान समझते थे. अपने राष्ट्र के लिये उन्होंने निस्वार्थ भाव से तन मन धन और जीवन बिना किसी भय संकोच के अबिलम्ब झोंक दिया था. वहीं पर जिन लोगों ने आपात स्थिति में भूमिगत होकर जूझ रहे कार्यकर्ताओं के लिये अपने दरवाजे भी बन्द कर लिये थे‚ अब नयी सरकार के सर्वेसर्वा थे. बडे नेताओं की गणेश परिक्रमा करने वाले इन लोगों को राजनीति के गलियारों की अच्छी जानकारी थी. जेल से निकले अधिकान्श नेताओं का रिश्ता भी उन्हीं लोगों से था जो आपात स्थिति में चूहे की तरह बिल में जा घुसे थे अथवा माफीनामें जेब में लिये घूमते रहे थे.

ऐसे माहौल में राजनीति की उठापटक से बेखबर मैं एक छात्र‚ दिशाहीन सा रेगिस्तान में खडा था. मुझे समझ नहीं आ रहा था यहां से जाना कहां है. मैंने एक दिन उन सज्जन से मिलने के लिये पत्र लिखा, जो आपात स्थिति में मेरी वजह से कई बार जेल जाने से बाल बाल बचे थे. बहुत आभार और मित्र भाव मानते थे उन दिनों. आज की सरकार में वरिष्ठ मन्त्री थे. उत्तर मन्त्री जी के सहायक से मिला कि मन्त्री जी जब भी राजधानी में होते हैं प्रातः जनता दरबार में सभी से मिलते हैं. आगे मैंने जाने और उनसे मिलने की आवश्यकता ही नहीं अनुभव की. उन्हीं दिनों बडे भैया ने एक दुकान में कुछ कार्य करना प्रारम्भ किया और मुझसे उनके शब्दों में ‘नेतागीरी’ का चक्कर छोड़ दुबारा पढ़ायी करने को कहा. तबसे पढ़ायी चल रही है किन्तु मैं हर पल अपने को छला सा ठगा सा दिशाहीन पाता हूँ. सोचता हूँ क्या है दिशा मेरे जैसे युवकों की. क्या यही है हमारा भारत जिसके लिये लोकनायक ने हमारा आह्वान किया था. आज स्वतंत्रता की सुखद अनभूति का अर्थ किसके लिये है मुझ जैसे जनसाधारण को या रातोंरात पाला बदलने वाले सत्ता के गलियारों में काई की तरह चिपके हुये‚ गणेश परिक्रमा करने में चतुर नेताओं को ... ?

सोचते-सोचते मन खिन्न हो उठा है. रात्रि बहुत हो चुकी है शायद. चलना चाहिये सोचकर उठता हूँ. तभी….
'आतू…. अतुलेश' कानों में स्वर पड़ता है. मैं चौंक कर पार्क की अंधेरी वीथी की ओर देखने का प्रयास करता हूँ. उधर से आती छाया ने भी शायद मुझे देख लिया है. लम्बे डग भरते हुये देखकर मैं उन्हें पहचान लेता हूँ. किन्तु आज मैं सदा की भांति चिल्लाकर उनका स्वागत नहीं करता हूँ. बस चुपचाप खड़ा रहता हूँ. अपलक उन्हें निहारता रहता हूँ. दादा आगे बढक़र मेरा कन्धा पकड़ कर हिलाते हैं.

'क्यों क्या हो गया तुझे' और वह प्यार से कन्धा थपथपाने लगते हैं.
'दादा' मैं भर्राये कण्ठ से बडी मुश्किल से बोल पाता हूँ.
' मैं नयी जगह पहुंचा ही था कि विजय जी का पत्र तेरे बारे में, विस्तार से मिला. अभी थोडी देर पहले ही ट्रेन से पहुंचा हूँ. मुझे मालुम था तू यदि अपने कमरे पर नहीं होगा तो यहीं मिलेगा. और फिर यह स्थान तो आपात स्थिति के हमारे कई गुप्त ठिकानों में से एक है ' वह बताने लगते हैं.
' क्या हो गया..? तू कुछ बोलता क्यों नहीं. हो जाय बांसुरी ' उनका ध्यान फिर मेरी चुप्पी पर जाता है.
' नहीं दादा अब बहुत रात हो गयी है ' मैं ठण्डे मन से उत्तर देता हूँ.
' अच्छा एक बात सुनेगा तू ' वह ध्यान से मेरा चेहरा देखते हुये कहते हैं.
' जी ' मैं उनकी ओर निर्भाव देखता हूँ.
'मुझे संगठन की ओर से वापस यहीं कार्य करने का निर्देश मिला है '
' ओह दादा सच' मैं इस अप्रत्याशित प्रसन्नता को अपने स्वर में मिला हुआ पाता हूँ.
' तो फिर हो जाय बांसुरी ' मैं अतिउत्साहित हो उठता हूँ.
' नहीं रे वह तो मैंने तुझे उत्साहित करने के लिये कहा था. अन्यथा बांसुरी नहीं है मेरे पास. मैंने काफी दिनों से बजाना ही छोड़ दिया है' जीवन में पहली बार अपने आदर्श अनुदा को नैराश्य के भाव में देखता हूँ.
' चलें आतू कल से बहुत कार्य है. जुट जाना है ' वह आगे बढ लेते हैं.
' अब क्या दादा अब तो अपनी सरकार है. अब कौन सा पहले की तरह जन जागरण करना है या पुलिस से लुका छिपी करनी है' मैं सहज भाव से कहता हूँ.
' नहीं रे राष्ट्रकार्य कभी समाप्त नहीं होता. बस कार्य के सन्दर्भ बदल जाते हैं. मात्र सरकार बदलने से कुछ नहीं होगा. जब तक लोगों का चिन्तन नहीं बदलेगा सारी सम्स्यायें वैसी की वैसी रहेंगी ' दादा का उत्तर है.
' तो फिर हमने संघर्ष क्यों किया' मैं जिज्ञासा प्रकट करता हूँ.
' तब देश के लोकतांत्रिक अस्तित्व को खतरा था. आज देश की सारी व्यवस्था को भ्रष्ट लोगों द्वारा स्थापित राजनीतिक मूल्यों एवं परंपराओं से खतरा है' दादा अब गंभीर हो चले हैं.
' तो इस नयी लडाई में मेरा क्या हिस्सा होगा' मैं पूछता हूँ.
' अपनी शिक्षा संपूर्ण करना ताकि तुम आत्मिक रूप से जाग्रत होकर इस देश को नयी दिशा दे सको ' मैं दादा की ओर ध्यान से देखता हूँ. किन्तु लम्बे ड़ग भरते हुये वह अवस्थातीत लगते हैं.
' आज पुनः छात्र शक्ति का ही आह्वान करना होगा. भ्रष्ट राजनीति के इस कीचड़ को अपने पौरूष से वही मुक्त कर सकती है ' दादा अपने आप से बातें करते हुये आगे बढे ज़ा रहे हैं.

उनकी चाल में तेजी आ गयी है. ऐसा लगता है कि अदृश्य लक्ष्य तक पहुँचने की शीघ्रता में वह दौडे चले जा रहे हैं. उनका अनुसरण करते हुये मैं स्वयं में अपूर्व ऊर्जा का अनुभव कर रहा हूँ. लगता है रेगिस्तान की मरीचिका में भटकते हुये मुझे एक नयी दिशा मिल गयी है. एक मरूद्यान का स्पष्ट बिम्ब मेरे सामने है. वह दूर प्रतीत होकर भी अब अप्राप्य नहीं लगता है.

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12 कहानीप्रेमियों का कहना है :

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
मेरे पास शब्द नहीं हैं । यह कथा है या इतिहास ? एक गौरव शाली इतिहास । यह वर्णन रोमांचित करने वाला
है । मैने भी इस सब के बारे में काफी कुछ पढ़ा और सुना था लेकिन आज उसका साकार रूप देखकर गद् -गद्
हूँ । माँ भारती अपने ऐसे सपूतों पर गर्व करती है । आपकी यह निष्ठा और देश -भक्ति को नमन ।

Gopal Kumar Azad का कहना है कि -

नमस्कार श्रीकांत जी
आपने बहुत ही अच्छी और प्रेरक कहानी लिखी है मै आपका हार्दिक धन्यवाद करना चाहता हूँ
मै एक सामाजिक संस्था में काम करता हूँ और आपके इस कहानी को पढ़ने के बाद मुझे और भी कुछ करने की जिज्ञासा हुयी है वैसे मैंने बहुत सरे क्रांतिकारी किताबे पढी हैं फिर भी आपकी कहानी मुझे बहुत पसंद आयी मै आपका दिल से धन्यवाद करना चाहता hun और एक बार आपसे मिलना चाहता हूँ
जय हिंद
गोपाल 09210837795

रंजू भाटिया का कहना है कि -

श्री कान्त जी आपकी कहानी बहुत पसंद आई ....दो किस्तों में पढी :) पर इसको पूरा पढ़ना बहुत अच्छा लगा पढ़ के कुछ कर गुजरने का जोश भर उठता है ...आपकी कलम यूं ही लिखती रहे यही दुआ है ..शुभकामना के साथ
रंजू

विश्व दीपक का कहना है कि -

श्रीकांत जी, मैंने आपकी कहानी एक हीं साँस में पढ ली। बिना पूरा किये हुए रहा नहीं गया। सच में आपने एक ऎतिहासिक कहानी लिखी है।मुझे लग रहा है कि आप धीरे-धीरे रंग में आ रहे हैं। आपसे और भी ऎसी कहानियों की उम्मीद रहेगी।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

श्रीकांत जी,

जल्दबाजी में टिप्पणी कर रहा हूँ चूंकि एसी जगह पर हूँ जहाँ किसी तरह से नेट से और अंतरजाल से जु सका हूँ अत्: क्षमा करेंगे| इस कहानी का संदेश साफ है वह है - मार्गदर्शन| आज की उर्जावत किंतु दिशाहीन नयी पीढी को| यह संदेश जिसने आत्मसात कर लिया उसनें मशान थाम ली समझें..बधाई इस रचना के लिये|

*** राजीव रंजन प्रसाद

RAVI KANT का कहना है कि -

श्रीकान्त जी,
कहानी अंत तक पाठक को बाँधे रखती है और साथ ही साथ अपना संदेश देने में भी सफ़ल है। बधाई।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

श्रीकांत जी,
कहानी एक पूरे दौर को पूरी तरह बयान करती है। बीच में हल्की सी बिखर भी गई है, पर इतनी बातों को एक साथ समेटना आसान भी तो नहीं था।
एक वैचारिक और सामजिक उद्देश्य लिए कहानी लिखने के लिए धन्यवाद।

कथाकार का कहना है कि -

अच्‍छी और मार्मिक कहानी. मुझे अपने अतीत की याद दिला गयी

praveen pandit का कहना है कि -

श्रीकांत जी!
एक संपूर्ण काल-खंड से होकर गुज़र गया मैं।
वलवला सा उठा,ऊर्जित होने का सहज सा अनुभव हुआ।
विस्तृत आकाश चाहिये ही था,ऐसा कथासार बिंदु मे समेटना निश्चय ही दुष्कर है।कहानी के फैलाव से शिकायत नहीं की जा सकती।
विधा कोई भी हो, आपको पढना सुखद है।

प्रवीण पंडित

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कहानी मध्य में जिस तरह की अकलात्मक विस्तार के साथ आगे बढ़ती है वो कुछ-कुछ इतिहास के शिक्षिकों द्वारा ली जाने वाली कक्षाओं की याद दिलाती है। साहित्यकार का एक बहुत बड़ा उद्देश्य यह भी हो कि अपने संदेश इतनी सहजता से पाठकों में अध्यारोपित करे कि उन्हें आत्मसात करना पाठकों को नैसर्गिक सचाई लगे। यह कहानी किसी क्रांतिकारी का बयान है। हम जैसे नवयुवकों में ऊर्जा भरने का आपका प्रयास प्रसंशनीय है।

अभिषेक पाटनी का कहना है कि -

ek sansmaran ko kahani ki tarah wistar shayad aagami pidhi ko sandesh dene ke uddesya se likhi gai maloom padati hai...prayas sarvottam hai...kintoo fan, follower ho jayein aisa is daur me mumkin nahi..aaj ke yuvaon ko har chiz ke peechhe ek wazah wah bhi thhos wazah (Materialistic gains)chahiye....yakinan naye daur ki maang naye raaston ki hai jisase ek saath do ya adhik udessyon ki purti ho to thik anyathaa swa-laabh pahale ho, aisee maansikataa haawee rahati hai..kripya ise samajhate hue naye rasaton kee jugat karani hogi aur yadi kahaanee ka uddeshya sachmuch aisa kuchh hai to main uplabdh hoon naye rastoon ke parikalpna wa prayog ke liye....waise kahaani me itihasbodh haawee hai sandesh bahut sankshipta sa rah gaya hai..bawajood iske ek achchhi kahanee

अभिषेक पाटनी का कहना है कि -

ek sansmaran ko kahani ki tarah wistar shayad aagami pidhi ko sandesh dene ke uddesya ko dhyan me rakh kar diya gaya maloom padata hai...prayas sarvottam hai...kintoo fan, follower ho jayein aisa is daur me mumkin nahi..aaj ke yuvaon ko har chiz ke peechhe ek wazah wah bhi thhos wazah (Materialistic gains)chahiye....yakinan naye daur ki maang naye raaston ki hai jisase ek saath do ya adhik udessyon ki purti ho to thik anyathaa swa-laabh pahale ho, aisee maansikataa haawee rahati hai..kripya ise samajhate hue naye rasaton kee jugat karani hogi aur yadi kahaanee ka uddeshya sachmuch aisa kuchh hai to main uplabdh hoon naye rastoon ke parikalpna wa prayog ke liye....waise kahaani me itihasbodh haawee hai sandesh bahut sankshipta sa rah gaya hai..bawajood iske ek achchhi kahanee

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