Monday, June 21, 2010

एक बूढ़े की मौत- शशिभूषण द्विवेदी

कहानी-प्रेमियो,

बहुत दिनों से हिन्द-युग्म का कहानी-कलश मंच अनियमित रूप से अपडेट होता रहा। लेकिन पिछले कुछ महीनों से हम आप सबके लिए कुछ ख़ास की तैयारी में थे। आज से हम हर सोमवार किसी युवा कथाकार की एक कहानी प्रकाशित करेंगे। इसके अंतर्गत हम चर्चित युवा कथाकारों की कहानियों के अलावा बिलकुल नये कहानीकारों की कहानियाँ भी प्रकाशित करेंगे।

शुरुआती कहानी के तौर पर प्रसिद्ध युवा कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की कहानी 'एक बूढ़े की मौत' प्रकाशित कर रहे हैं।


एक बूढ़े की मौत


कहानी लिखने के लिए कहानी ढूँढऩी पड़ती है। पता नहीं, यह कितना सच है मगर अब तक हर कहानी लेखक ने मुझसे यही कहा है कि कहानी लिखना खासा मुश्किल काम है। कभी कभी मुझे भी ऐसा ही लगता है, कारण कि जो चीज हमारे सबसे ज्यादा निकट होती है वही इतनी दूर होती है कि हम उसके बारे में कोई निर्णय नहीं ले पाते। मगर यहाँ निर्णय किसे करना था? हम तो उस दिन एक अदद कहानी की तलाश में थे। एक ऐसी कहानी जो सिर्फ कहानी हो और कुछ नहीं...हाँ, कई बार ऐसा होता है कि कहानी उपन्यास भी हो जाती है, कविता भी और...खैर, जाने दीजिए, हम क्यों बेवजह कहानी का पुराण खोलें। सौ बात की एक बात यही कि कहानी कभी विशुद्ध कहानी नहीं होती, बहुत कुछ होती है। इस ‘बुहत कुछ’ के बीच ही हमें एक कहानी तलाशनी थी। कहानी का विषय था-‘एक बुड्ढा मर गया’। अब भला बताइए कि ये भी कोई विषय हुआ? बुड्ढे तो मरते ही रहते हैं। उनका क्या!
मगर नहीं-बात इतनी आसानी से टालना उस वक्त हमारे बस में नहीं था। रह-रह कर एक ही बात दिमाग में आती कि आखिर बुड्ढा मरा क्यों? ‘बुड्ढे मरते ही क्यों हैं?’ जैसे मूर्खतापूर्ण सवाल भी तब हमारे जेहन में कौंध रहे थे। इस बीच बूढ़ों की मौत के संबंध में कई संभावनाएँ भी हमने ब्यौरेवार खोज निकालीं। मसलन-बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है जो धीरे-धीरे शरीर और मन मस्तिष्क को क्षीण करता जाता है। अंतत: मौत की त्रासद नियति ही उसका सार्थक उपचार है। या बुढ़ापा जवानी की गलतियों का नतीजा होता है परिणामस्वरूप मौत उसका पलायन बिंदु...।
एक संभावना और थी जो कि बंबइया हिंदी फिल्मों से उठाई गई थी यानी बुढ़ापे में आदमी नकारा हो जाता है, बच्चे उसे घर से निकाल देते हैं और वह आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठा लेता है। संभावनाएँ अपार थीं, उतनी ही जितनी कि आसमान में तारे होते हैं और हम इन तमाम संभावनाओं से रू-ब-रू होते हुए एक से एक शानदार बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोल रहे थे। आप यकीन नहीं करेंगे-इस बीच हमने इतने बूढ़ों की जन्मपत्रियां खोलीं कि एकबारगी तो हमें शक ही हो गया कि हिंदुस्तान कहीं बूढ़ों का ही देश तो नहीं। एक ढूँढ़ो तो हजार मिलते हैं और फिर जवानी में बुढ़ापा और बुढ़ापे में जवानी के किस्से भी यहाँ कम नहीं।
कुल मिलाकर कहानी लिखने के लिए सारे हालात कन्फ्यूजन पैदा करने वाले थे। ऐसे में बाबू जानकी प्रसाद सिंह से मिलना एक सुखद संयोग ही कहा जाएगा...हालाँकि यह दुखद भी कम नहीं था लेकिन वह दूसरा किस्सा है, फिलहाल छोड़िए उसे...।
लेखक परिचय- शशिभूषण द्विवेदी
शशिभूषण द्विवेदी हिन्दी कहानी के चर्चित युवा कथाकारों में से एक हैं। शशिभूषण का एकमात्र कहानी-संग्रह 'ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं। इसी संग्रह के लिए लेखक को युवा लेखकों को दिये जाने वाले सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नवलेखन पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।
संपर्क- 405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/53, सेक्टर-5, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) फोन: 9582403770
तो जिस अस्पष्ट से बूढ़े की अब तक हमने कल्पना की थी, जानकी बाबू ठीक उससे विपरीत चुस्त-दुरुस्त और सुलझे हुए इंसान थे। फिर जैसी आज के बूढ़े से अपेक्षा की जाती है ठीक वैसे ही सूट-बूट की तमाम आधुनिकता से लैस जानकी बाबू सत्तर-पचहत्तर की उम्र में भी खासे जवान दिखते थे। जिस सधी हुई राजसी चाल से वे चलते उसे देखकर लगता जैसे पुराने राजवंशों का इतिहास एकाएक पलटी मारकर आज के उत्तर आधुनिक युग में पहुँच गया है। हालांकि यह बीसवीं सदी का अंत था और सारा देश इक्कीसवीं सदी में जाने को तैयार था तब भी सदी के अधिकतर बूढ़े अभी तक अठारहवीं सदी से आगे नहीं बढ़े थे। उनके चेहरों की झुर्रियां सदियों के फासले की गवाह थीं। ऐसे में जानकी बाबू झंडू च्वनप्रास के विज्ञापन के बूढ़े नायक की तरह हमारे सामने अवतरित हुए। अपने वंश और कुलगोत्र के बारे में एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि ‘विशुद्ध क्षत्रियों के कुल में जन्मा, वत्स गोत्र में उत्पन्न एक अविवाहित कुमार हूँ मैं...।’ अगर कुमार हैं तो अविवाहित होंगे ही मगर इन दो शब्दों पर उनके विशेष जोर ने हमारे सामने कई अनुत्तरित सवाल छोड़ दिए थे। उस वक्त हमने सोचा कि ठाकुर साहब अब शायद अपने अखंडित ब्रह्मचर्य की कथा कहेंगे। मगर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा...सिर्फ शून्य में ताकते रहे। यह जानकी बाबू की आदतों में शुमार था कि जरा-सा असहज होने पर वे झटपट विषयांतर कर देते या फिर शून्य में ताकने लगते। वे काफी पढ़े-लिखे थे और अच्छी अंग्रेजी बोल लेते थे। शायद इसीलिए जब कभी अपनी बात कहते तो बात में दम लाने के लिए किसी न किसी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक या लेखक का नाम जरूर लेते। ‘फलाँ लेखक ने भी यही कहा है’ वाला भाव उनकी बातचीत का स्थाई भाव था। वैसे जानकी बाबू बोलते कम ही थे, इतना कम कि कई बार तो लोग उन्हें गूंगा या बहरा तक समझ लेते।
इतनी सब खासियतों के बावजूद जानकी बाबू अकेले थे। हालाँकि अपने अकेलेपन का दुखड़ा उन्होंने कभी किसी के सामने नहीं रोया फिर भी लोग मानते थे कि वे अकेले हैं और अकेलापन उन्हें सालता है। नाते रिश्तेदार और मित्रों से कटे जानकी बाबू की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती जब वे उठकर नहाते धोते, पूजा पाठ करते और फिर घूमने निकल जाते। प्रात: भ्रमण का यह शौक उन्हें कब से लगा, कोई नहीं जानता लेकिन हाँ, लोगों ने जब से उन्हें घूमते देखा है पीतल की मूँठ वाली खूबसूरत छड़ी हमेशा साथ देखी है। एक तरह से यह छड़ी जानकी बाबू की पहचान थी क्योंकि जानकी बाबू जिस सुबह अपने कमरे में मरे हुए पाये गए तब भी यह छड़ी उनके हाथ में ही थी।
इस छड़ी का प्रयोग भी वे किसी तलवार की तरह ही करते थे। कभी कभी राह चलते कुत्ते जब उन्हें घेर लेते तो उन्हें लगता जैसे दुश्मनों ने उन पर हमला कर दिया हो और वे चक्रव्यूह में फँस गए हों...फौरन उनकी तलवार यानी पीतल की मूठ वाली छड़ी सक्रिय हो जाती। ऐसे अनेक किस्से जानकी बाबू के साथ जुड़े थे। इस तरह के किस्सों के पीछे मूल भाव यही था कि ठाकुर साहब आज भी खुद को मध्यकालीन राजवंशों का एक कुलदीपक ही मानते थे। हर वक्त उन्हें यही शक रहता कि कहीं न कहीं, कोई न कोई उनके खिलाफ षडयंत्र कर रहा है। हमारा खयाल है कि अपनी शादी भी उन्होंने इसीलिए नहीं की वरना जानकी बाबू में कमी क्या थी! खैर, यह हमारा एक कयास ही है। इस संबंध में हमारी उनसे कोई विशेष बात नहीं हुई।
जानकी बाबू की मौत के ठीक एक दिन पहले मैं उनसे मिला था। गजब का उत्साह था उनमें उस दिन। शायद यह खबर उन तक पहुंच चुकी थी कि सुदूर अमेरिका के किसी भूभाग में एक विलक्षण चेतनाशील वैज्ञानिक ने मानव क्लोन का आविष्कार कर लिया है। क्लोनिंग की मोटी मोटी जानकारी भी अब तक जानकी बाबू को हस्तगत हो चुकी थी। अखबारों की कटिंग और पत्रिकाओं का पुलिंदा लिए जानकी बाबू उस दिन अपनी स्टडी में बैठे कुछ सोच रहे थे। सोच क्या रहे थे, शून्य में ताक रहे थे जैसी कि उनकी आदत थी। हमारे यूं अचानक पहुंच जाने से भी उनकी मुद्रा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। सिर्फ उनके हाथों ने कुछ हरकत की और एक तरह से हमें बैठने का इशारा कर दिया।
याद नहीं हम कितनी देर तक यूं ही बैठे रहे...कभी मेज पर पड़े कागजों को उठाते, पढ़ते, कभी जानकी बाबू को देखते। हमने देखा कि उस वक्त जानकी बाबू के चेहरे पर एक गहरी उदासी छायी हुई थी। अचानक उनके मुख से कुछ अस्फुट से शब्द हवा में लहराने लगे। ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे...’ सूक्ति से उठने वाले आरोह-अवरोह के बीच उनकी आवाज जैसे काँप रही थी। चेहरे का भाव कुछ ऐसा था कि ढूँढऩे वाले उसमें करुणा भी ढूँढ़ लेते, भय भी, साहस भी...और किसी सीमा तक भविष्य भी।
‘नाभिकीय अंतरण विधि के द्वारा शरीर की किसी कोशिका के नाभिक को यांत्रिक रूप से निकालकर तत्पश्चात नाभिक रहित अंडाणु में प्रतिस्थापित कर हल्की विद्युत तरंगे प्रवाहित करो। कोशिका तीव्र विभाजन होगा, फिर तीव्र विकसित अंडाणु को माँ के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दो। लो, तैयार हो गया क्लोन...।’ हल्की वेदनामय मुस्कान के साथ जानकी बाबू ने कहा। उन्हें जैसे यह अहसास ही नहीं था कि मैं भी वहां बैठा हूँ। उनकी नजरें शून्य में अटकी हुई थीं और पूरे राजसी अंदाज में जानकी बाबू की वाणी कमरे के कोने कोने में गूंज रही थी। उनके हाथों की गति वाणी की लयात्मकता के साथ जैसे एकाकार हो गई। मैं कुछ पूछना ही चाह रहा था कि जानकी बाबू अचानक फुर्ती से मेरी ओर मुड़े और एक जड़ नजर के साथ मुझे घूरने लगे। उनकी इस नजर में एक सम्मोहन था, एक जादू। मुझे लगा जैसे मेरे शरीर की त्वचा पारदर्शी हो चुकी है और जानकी बाबू की जड़ नजरें उसके आर-पार देख रहीं हैं। हृदय की धड़क़न एकाएक बढ़ गई और शरीर में रक्त का प्रवाह असंतुलित हो उठा। एक पल को तो लगा जैसे साँस ही रुक जाएगी मगर जल्द ही खुद को व्यवस्थित करते हुए मैंने जानकी बाबू से पूछ ही लिया कि आखिर उनकी बेचैनी का राज क्या है?
‘राज!’ वे धीरे से मुस्कराए-‘जानते हो जिंदगी में मृत्यु का आना कितना जरूरी है...।’
‘हूँ’ मैंने अनचाहे हामी भरी।
‘नहीं, तुम कुछ नहीं जानते। उस फूल को देखो और मेरी बात ध्यान से सुनो।’ जानकी बाबू ने गमले में लगे एक गुलाब के फूल की ओर इशारा किया और एक गहरी साँस छोड़ी। (यहाँ जानकी बाबू ने शायद महाकवि टेनीसन का संदर्भ दिया था जिनका कहना था कि यदि मैं फूल को उसके स्वयं में जान जाऊँ तो जान जाऊंगा कि मनुष्य क्या है और ईश्वर क्या है।)
जैसे कोई आदमी पहाड़ की चोटी से छलाँग लगाने को तैयार हो और अपनी बीती जिंदगी पर अफसोस कर रहा हो, ठीक वैसे ही जानकी बाबू की हर साँस जिंदगी के प्रति गहन प्रेम और विरक्ति की सूचना एक साथ थी। मैं उनकी ठहरी हुई जड़ आँखें देख रहा था और वे बोल रहे थे...लगातार।
‘बचपन में हम एक किस्सा सुना करते थे। एक राजा था, एक रानी। उनकी सुंदर-सी एक बिटिया थी, बिल्कुल फूल जैसी कोमल। राजा धर्मात्मा था और प्रजा सुखी। प्रजा सुखी हो या दुखी, राजा तो हर हाल में दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो ही जाता है। मगर यहाँ राजा प्रसिद्ध था तो प्रजा भी सुखी थी। प्रजा और राजा के सुख का यह आलम था कि पड़ोसी राज्य का दुखी राजा इसी बात से दुखी रहता। होता है...ऐसा भी होता है। अक्सर लोग दूसरों के सुख से ही दुखी होते हैं। तो पड़ोसी राजा तमाम सुखों के बीच भी दुखी था। उसका यह दुख तब और घना हुआ जब उसने सुखी और प्रसिद्ध राजा की सुंदर फूल सी बिटिया को देखा। पड़ोसी और दु:खी राजा तमाम जुगत लगाकर भी जब सुखी राजा की फूल सी बिटिया को न पा सका तब उसने अपने दुख के चरम पर आकर आत्महत्या कर ली। दुखी राजा मर गया मगर उसका दुख जिंदा रहा और उसने एक राक्षस का अवतार लिया। यह राक्षस इतना तेज और ताकतवर था कि बड़ी बड़ी फौज भी उसका सामना करने से डरती थी। वह बार बार मारा जाता फिर बार बार जी जाता। उसके जीने-मरने की यह कहानी बरसों तक चलती रही। इस बीच वह सुखी राजा भी मर गया और उसकी फूल सी बिटिया भी। कहते हैं कि एक बार एक ऋषि से उसका झगड़ा हुआ और ऋषि ने उसे भस्म हो जाने का शाप दे दिया। राक्षस भस्म तो हो गया मगर उसकी आत्मा कलपती रही। यह कलपती आत्मा लंबे समय तक किसी शरीर में न रह पाने के लिए आज भी अभिशप्त है। मौत तो सबको आती है न बाबू, सो वह राक्षस हर रोज न जाने कहाँ-कहाँ मरता रहता है...मगर अब?’ जानकी बाबू एकाएक खामोश हो गए। उनकी यह अनर्गल सी बिना किसी संदर्भ की कहानी मुझे बड़ी अटपटी लगी। (हालाँकि यहाँ भी उन्होंने प्रसिद्ध दार्शनिक सात्र्र का संदर्भ दिया था और कहा था कि आदमी स्वतंत्र है किसी भी स्थिति में। वह अपना निर्माता और स्रष्टा स्वयं ही है।) मगर उस वक्त जानकी बाबू की इस कहानी में से मैं कुछ ठोस और भौतिक तत्व निकालना चाहता था, सो मैंने कि क्या कभी जानकी बाबू भी किसी फूल सी राजकुमारी को चाहते थे? हो सकता है कि वह राजकुमारी किसी कारणवश उन्हें न मिल पाई हो और उनका प्रेम किसी अंधे मोड़ पर आकर आत्महत्या कर बैठा हो। कुल मिलाकर उस वक्त यही अनुमान लगाया जा सकता था कि जानकी बाबू का मृत प्रेम उसके बाद विध्वंसक हो गया और राक्षस के प्रतीक में इस कहानी में जीने लगा। जो हो, जानकी बाबू अपनी रौ में बहे चले जा रहे थे। कहने लगे, ‘महाशय, जीवन के बाद पुनर्जीवन होता है या नहीं-मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतना तो निश्चित है कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी होता है।’
‘क्यों?’ मैंने पूछा। फिर मुझे अपने ही सवाल पर शर्म भी आई, कारण कि कई बार नैराश्य के चरम क्षणों में मैं भी इस बात का हामी हुआ हूं कि इस जीवन का खत्म होना जरूरी है। लेकिन यह अच्छा ही हुआ कि जानकी बाबू ने मेरा ‘क्यों’ नहीं सुना वरना मुझे और जाने क्या क्या सुनना पड़ता।
उस रात की बात का कुल लब्बोलुआब यही था कि जानकी बाबू अपने कथा नायक राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका से व्यथित थे। यह तो हमें बाद में पता चला कि वह राक्षस कौन था और जानकी बाबू उसके पुनर्जीवन की आशंका से क्यों व्यथित थे? उस रात जब हम बिना कुछ समझे बूझे लौटने लगे तो जानकी बाबू ने हाथ पकडक़र रोक लिया और कहा,‘अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई, पता नहीं पूरी होगी भी या नहीं। फिलहाल ये डायरी तुम ले जाओ। पढ़ लोगे तो समझ जाओगे कि यह बूढ़ा मरने को इतना उतावला क्यों है?’
मैंने डायरी ले ली और चुपचाप चला आया। सुबह उठा तो सुना कि जानकी बाबू अपने घर में मरे पाए गए। सचमुच यह खबर सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। कारण कि उस रात जानकी बाबू से मिलने वाला अंतिम व्यक्ति शायद मैं ही था। पुलिस कभी भी मेरा दरवाजा खटखटा सकती थी। इस कदर अफरातफरी मची कि खयाल ही नहीं रहा कि जानकी बाबू की डायरी मेरे पास पड़ी है। इस डायरी को पढऩे का समय भी हमें तब मिला जब हम तमाम पुलिसिया झंझटों से बरी हुए। ज्यादा विस्तार में न जाते हुए क्या यह कहना पर्याप्त न होगा कि पुलिस को कइयों पर शक था। आस-पड़ोस से लेकर दूध वाला, धोबी, कामवाली बाई...कोई भी तो नहीं बचा था उन शक्की निगाहों से। मगर जब कुछ नहीं मिला तो हारकर जानकी बाबू की मौत को आत्महत्या मान लिया गया। हालांकि अंत तक पुलिस यह भी नहीं बता पाई कि अगर यह आत्महत्या ही थी तो आखिर हुई कैसे? न तो जानकी बाबू के शरीर पर कोई खरोंच का निशान था और न उन्होंने फांसी का फंदा ही लटकाया था। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट भी कुछ ऊलजुलूल सी बातों के सिवाय कुछ खास नहीं कर पाई। हालाँकि इन ऊलजुलूल सी बातों में ही जानकी बाबू की मौत के सूत्र थे तथापि पुलिस उन सूत्रों को पकडऩे में असफल रही या हो सकता है कि इन बेकार की बातों की जरूरत ही न समझी गई हो। खैर...
जानकी बाबू की डायरी में एक क्रमवार कहानी थी और उस कहानी में थी एक क्रमवार डायरी। पिछले दो सालों से जानकी बाबू की मानसिक हालत का अंदाजा इस कहानीनुमा डायरी से लगाया जा सकता था। पहले पेज 1987 की कोई तारीख थी। लिखा था-‘आज अचानक सावित्री की याद आ गई। सड़क से गुजरते हुए खयाल आया कि पास की झाड़ी में एक अकेला फूल पड़ा है...चंपा का। स्मृति पचास साल पहले घिसटती चली गई जब चंपा के फूल की सफेदी मन में प्रेम की पवित्रता भर देती थी। सावित्री को देखकर चंपा की याद आती और चंपा को देखकर सावित्री की...श्वेत धवल बादलों पर मन मयूर उड़ा करता था तब।’
इसके बाद डायरी के पांच पेज खाली थे। छठे पर लिखा था-‘पिछले पांच दिनों से अंदर की व्यथा लगातार गहरी होती जा रही है। बार-बार बचपन में सुनी दुखी राजा की कहानी याद आती है...राक्षस के पुनर्जीवन की आशंका व्यथित कर रही है। अब जीना संभव नहीं और मरना और भी मुश्किल। स्मृतियाँ लगातार पीछे मुड़ रही हैं...कैनवस पर बने चित्र खंड-खंड हो रहे हैं और जिंदगी को रेशा-रेशा बुनने की ताकत हाथों से चुकती जा रही है। यह क्या होता जा रहा है मुझे? क्या यह आने वाली मौत की धमक है या...। सावित्री कहा करती थी कि जिनमें जीने का जज्बा होता है वे कभी नहीं मरते मगर मरने की इच्छा ढोता यह अभिशप्त जीवन न जीने देता है, न मरने। एक-एक कर सब साथ छोड़ते जा रहे हैं...सारे मित्र, हितैषी, सारे सपने! बोलता हूँ तो लगता है कि शब्द पराए हैं। फिर बोलना, बोलना नहीं रहता, आत्मालाप हो जाता है। इस अंत समय में जब इच्छाओं का अंत हो जाना चाहिए, वे बढ़ती ही जा रही हैं। बीते जीवन को लेकर मन में नित नवीन संभावनाएं भी उठती हैं। बीते जीवन का रोना है-ऐसा न होता तो कैसा होता? काश कि वैसा होता। शादी कर ली होती तो आज जिंदगी क्या होती? सोचता हूँ तो मन भ्रमित हो जाता है। अब वैसा रोमांटिक भाव भी नहीं रहा। उस वक्त तो मन पर चरम आदर्श का मुलम्मा चढ़ा था। सपने थे कि आंखों के सामने दिन में भी लहराते हुए लगते। और फिर जब क्रांतियां जगहँसाई बन गईं तब भ्रम टूटा। क्षत्रिय कुल गोत्र में उत्पन्न जानकी प्रसाद सिंह तुम मान क्यों नहीं लेते कि पूर्वजों की कीर्ति पताका फहराने का जीवट तुममें नहीं था...तुम एक हारे हुए राजा की तरह आगे युद्ध न करने की कीमत पर महज पेंशनयाफ्ता होकर रह गए।...’
फिर अगले पेज पर लाल रंग की स्याही से लिखा था-‘जीने के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए जो जीवन को प्रेरणा देता रहे...कोई सपना...कोई आदर्श। मगर देखता हूँ कि इधर हर चीज बिछलकर टूट रही है। जिस जवानी से कभी प्रेरणा लेता था, उसकी बातें भी अब समझ से बाहर होती जा रही हैं। रोज नए-नए शब्द जो कभी हमने सुने ही नहीं थे, आंखों के आगे छाते जा रहे हैं। मन जाने किस मायालोक में पहुँच गया...समझ नहीं आता।’ इस प्रकार पृष्ठ दर पृष्ठ जानकी प्रसाद सिंह की कहानी आगे बढ़ रही थी। यह एक ऐसी कहानी थी जिसमें कोई उतार-चढ़ाव नहीं था। सावित्री नामक जिस चरित्र का जगह-जगह जिक्र था, उसके बारे में भी कहानी में कोई पूर्व सूचना नहीं थी सिवाय इसके कि सावित्री के साथ जानकी बाबू ने एक बार संभोग किया था। कहानी में एक अजीब अंतर्विरोध यह भी था कि सावित्री के लिए जानकी बाबू घृणा और प्रेम का इजहार लगभग साथ-साथ कर रहे थे। ‘सावित्री जवान थी और मैं उससे प्रेरणा लेता था...’ जैसे वाक्य डायरी में कई जगह बिखरे हुए थे। सच पूछिए तो जानकी बाबू की यह प्रेरणास्रोत सावित्री एक वेश्या थी। वेश्या और प्रेरणास्रोत? बात कुछ अटपटी है लेकिन यह सच था क्योंकि सावित्री एक मंझी हुई वेश्या थी।
यह उस समय की बात है जब जानकी बाबू किशोर वय के थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे थे। डायरी में खोजबीन से पता चला कि उस समय जानकी बाबू कभी नेहरू की तरह बोलते तो कभी गांधी की तरह। बात-बात में राष्ट्र, स्वतंत्रता और स्वाभिमान उनके चिर-परिचित जुमले हो गए थे। घर पर एक बड़ी कोठी थी, जमीन-जायदाद थी, नौकर-चाकर और कारिंदों की तो खैर कोई कमी ही न थी। एक खास सामंती ठसक के बीच जानकी बाबू का बचपन बीता था। संस्कार थे कि छुड़ाये नहीं छूटते। खादी के वस्त्रों के बीच भी स्वर्णखचित अंगवस्त्रम का खयाल आता। उस समय भी उनके घर में एक हाथी था और पिता बताया करते थे कि दादा ने मरते वक्त घर पर पांच हाथी छोड़े थे। हाथी, घोड़े, तलवार और कोड़ों की दुनिया से निकलकर किस तरह से एक किशोर खादी की दुनिया में आया, यह एक लंबी कहानी है। उस संघर्ष के समय में ही शायद कभी जानकी बाबू की सावित्री से मुलाकात हुई होगी। जानकी बाबू द्वारा सुनाए उस मिथक के अनुसार यहां हम अटकलें ही लगा सकते हैं कि शायद सावित्री किसी बड़े घर की बिटिया रही हो, राजकुमारी सी लगती हो, फिर किसी कारणवश वेश्या बन गई हो। या हो सकता है कि वह वेश्या ही हो। अपने अहम की तुष्टि के लिए जानकी बाबू ने उसे राजकुमारी का दर्जा दे दिया हो। जो हो-इसमें एक शब्द कॉमन है-‘वेश्या’ जिसका जिक्र सावित्री के लिए जानकी बाबू कई बार अपनी डायरी में कर चुके थे। तो जानकी बाबू का सावित्री के साथ ठीक उसी दिन संभोग हुआ जिस दिन दिल्ली के वायसराय हाउस में वायसराय लार्ड इरविन ने प्रवेश किया था। (साभार: जानकी बाबू की डायरी)। पुराने जमाने में जब कोई राजा अपने नए महल में प्रवेश करता था तो जनता खुशियाँ मनाती थी। वायसराय लार्ड इरविन के गृह प्रवेश के समय जानकी बाबू खुशियाँ तो न मना सके...हाँ, सावित्री के साथ संभोग जरूर किया। इस घटना का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-‘गुस्से से खून खौल रहा था। शिराओं में उत्तप्त रक्त का प्रवाह एक अजीब हलचल-भरी उत्तेजना पैदा कर रहा था। मन करता था कि एक झटके में सब नष्ट-भ्रष्ट कर दूँ। सावित्री को बाहों में लेकर जब मैंने उस विध्वंसक प्रक्रिया को जानना चाहा तो पाया कि मेरा गुस्सा नपुंसक है।’ इस नपुंसक गुस्से के साथ जानकी बाबू एक तरफ सावित्री में चंपा के फूल की धवल पवित्रता का पान करते तो दूसरी तरफ उसी शरीर भयानक दुर्गंध का अहसास भी उन्हें कचोटता रहता। मगर ये सब बातें गौण थीं। जानकी बाबू की मौत के असली कारण दूसरे थे।
जानकी बाबू जब मरे तो उनके हाथ में एक छड़ी थी। जैसा कि कहा जाता है-‘अंधे की लाठी’(एकमात्र सहारा) ठीक उसी तरह यह छड़ी उनका एकमात्र सहारा थी। जवानी में यह कभी भांजने के काम आती थी। बुढ़ापे में तो हमने उसे सहारे के रूप में ही देखा। जानकी बाबू से बात करते समय लगता कि देश, दर्शन, समाज और संस्कृति सभी कुछ जैसे उनकी छड़ी के सहारे ही खड़े हैं। जब वह छड़ी हवा में घूमती तो लगता कि दुनिया शेषनाग के फन पर नहीं बल्कि जानकी बाबू की छड़ी के सहारे ही टिकी है। अपने बारे में इस तरह के जाने कितने भ्रम उन्होंने पाल रखे थे। डायरी के ही किसी पृष्ठ पर लिखा था कि वे सावित्री के प्रेम में जब पड़े तब सारी दुनिया उन्हें अपने आस-पास घूमती हुई सी लगती। सावित्री के बौद्धिक तेज से वे कई बार सम्मोहित भी हुए...कई बार आहत भी। एक वेश्या के बौद्धिक तेज ने उन्हें इस कदर अभिभूत कर रखा था कि बस, पूछिए मत! उसके शरीर से खेलते हुए भी उन्हें यही लगता जैसे वे किसी रहस्यमय डाकिनी के संसर्ग में हैं। वैसे, सावित्री कुछ थी भी ऐसी। उसका कमरा एक आम वेश्या की तरह इत्र-फुलेल से सराबोर नहीं रहता था और न ही ग्राहकों से ज्यादा लपड़-झपड़ होती थी। उसके कुछ खास ही ग्राहक थे जो उसके मुरीद भी थे। उसके इन ग्राहकों/मुरीदों के बारे में भी जानकी बाबू के बड़े दुरुस्त विचार थे। उन्होंने लिखा था-‘ये अक्खड़-फक्कड़ से लोग जब आते तब सावित्री खुशी से खिल जाती थी। ये अजीब लोग थे। न कभी दारू पीते, न प्यार-मोहब्बत की सस्ती बातें करते। ये हमेशा कुछ अल्लम-गल्लम बतियाते जो उस वक्त तक मेरी समझ में नहीं आता था।’
एक बार जानकी बाबू ने सावित्री के कमरे में बारूद और कुछ तमंचे देखे थे। उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और जब सावित्री से पूछा तो उसने हँसकर टाल दिया। सावित्री को चंपा के फूल बहुत पसंद थे और जानकी बाबू रोज उसके लिए चंपा के फूल की एक माला ले जाया करते थे। यह रोज का क्रम था। इसमें व्यवधान तब पड़ा जब एक दिन सावित्री ने जानकी बाबू से कमल के फूल की माँग कर डाली।
यह भी एक पुराना तरीका था कि गुरुदक्षिणा में शिष्य वही कुछ देने को बाध्य होता जिसकी गुरु इच्छा करता। सो जानकी बाबू कमल के फूल की तलाश में निकल पड़े और चार दिन बाद जब जानकी बाबू को कमल का फूल मिला तब उन्होंने सावित्री के घर की राह पकड़ी। और लीजिए साहब, कहानी में यहाँ से एक नया मोड़ आ गया। जानकी बाबू के अनुसार जब वे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक चिह्न यानी कमल का फूल लिए हुए सावित्री के घर गए तो देखा कि बारूद के एक भयानक विस्फोट से सावित्री का शरीर तार-तार हो चला है। खून के धब्बे दीवारों पर उस हादसे का बयान दे रहे थे। जानकी बाबू ने किसी तरह खुद को संभाला और कहा,‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। उस वक्त उनके हाथ में कमल का फूल था और उसी से उन्होंने सावित्री को श्रद्धांजलि दी। इस घटना पर जानकी बाबू ने अपनी डायरी में लिखा, ‘कीचड़ में ही कमल खिलता है।’
जो होना था, हो चुका। सावित्री मर गई और जानकी बाबू को पागल कर गई। जानकी बाबू पागल हो गए और शहर छोडक़र क्रांतिकारी हो गए। कभी इस शहर तो कभी उस शहर दर-दर भटकते जानकी बाबू ने उस दौर में कई खतरनाक कारनामे अंजाम दिए थे। गांधी जी से उनका मोहभंग हो चुका था और देश का एक बड़ा तबका जल्द से जल्द अपने सपनों को साकार करने की उतावली में था। जानकी बाबू ने एक कुशल योद्धा की तरह इस युद्ध में भाग लिया और बहुत जल्द अपने लोगों के बीच हीरो बन गए। एक नहीं, कई-कई बार जानकी बाबू मौत के मुँह से बाहर आए थे। मगर उनका गर्म खून था कि कभी हार ही न मानता। फिर देश स्वतंत्र हो गया। अपनी सरकारें आईं। एक लंबे समय तक जानकी बाबू गुमनाम रहे। शायद यह गुमनामी का वही दौर था जब जानकी बाबू दुनिया भर की किताबें चाटी थीं। उस समय सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के संबंध में सारे देश में एक भ्रम फैला हुआ था। लोग यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि सुभाष बोस मर भी सकते हैं। गली मोहल्लों में अक्सर यह बात उठती कि सुभाष बाबू मरे नहीं, बल्कि अंग्रेजी सरकार को चकमा देकर कहीं गायब हो गए हैं। सही समय पर वे वापस आएंगे और देश को अंग्रेजी पि_ुओं से बचाएँगे। सुभाष बाबू के बारे में यह अफवाह और जानकी बाबू का वह गुमनामी जीवन लगभग एक ही समय की दो प्रमुख घटनाएँ थीं। इन दोनों घटनाओं के बीच का सूत्र यह था कि जानकी बाबू की कद-काठी कुछ-कुछ सुभाष बाबू की तरह ही लगती थी और लोग उन्हें अक्सर सुभाष बाबू का ही रूप समझ लेते। उन दिनों जानकी बाबू अयोध्या में एक कुटिया बनाकर रहते थे। दाढ़ी बढ़ा ली थी और हमेशा एक रामनामी दुपट्टा ओढ़े रहते। जानकी बाबू लिखते हैं कि उन्होंने करीब बीस वर्ष तक लोगों की इस आशावादिता का सम्मान किया और अपने बारे में तमाम तरह की अफवाहें सुनते रहे।
फिर एक दिन की बात-जानकी बाबू सरयू के किनारे खड़े थे। सूर्य अस्ताचल में था। चारों ओर एक अभूतपूर्व शांति बिखरी हुई थी, सिवाय एक बाँसुरी की धुन के जो रह-रहकर उनके कानों तक आती और लौट जाती। मंत्रमुग्ध से जानकी बाबू इस बांसुरी की धुन में खोए रहे। जब चेतना लौटी तो पाया कि उनके शांत पड़े खून में फिर से गरमी आ गई है। उन्होंने उस बाँसुरी वादक की खोज की तो पाया कि सरयू किनारे एक बुढिय़ा हाथ में बाँसुरी लिए अकेली बैठी है। जानकी बाबू को फिर अचानक सावित्री की याद आई और देखा कि उस बुढिय़ा के चेहरे में सावित्री का चेहरा लहलहा रहा है।
बिना किसी सामान्य शिष्टाचार के जानकी बाबू ने जब उससे कहा कि बहन तुम्हारी बाँसुरी में पहली बार मुझे प्यार के नहीं, घृणा के स्वर सुनाई दिए तो बुढिय़ा बोली कि भैया, ये बाँसुरी एक युद्ध का तुमुलघोष है। जानकी बाबू हतप्रभ उसे देखते रहे और बुढ़िया अंतर्ध्यान हो गई। जानकी बाबू ने लिखा है कि इसके बाद उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और काशी आकर बाँसुरी बजाना सीखने लगे। वर्षों तक जानकी बाबू बाँसुरी सीखते रहे मगर कभी भी उन्हें वह स्वर पकड़ में नहीं आया जो उस बुढ़िया ने बजाया था। कहते हैं कि बाँसुरी की ईजाद कृष्ण ने की थी और इसके जरिए प्रेम का अपना संदेश दिया था। जानकी बाबू ने भी बाँसुरी का उपयोग किया और युद्ध का संदेश दिया।
वे जब भी बाँसुरी बजाते तो उन्हें लगता कि दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी कोने में विद्रोह का बिगुल बज उठा है। वे खुश होते और फिर दूने जोश से बाँसुरी बजाते। जानकी बाबू को अपने जीवन में दो चीजों से विशेष प्रेम था। एक तो पीतल की मूँठ वाली छड़ी, दूसरा उनकी बाँसुरी। छड़ी भीतर से खोखली थी और जानकी बाबू अपनी बाँसुरी को छड़ी के खोखल के भीतर ही छुपा कर रखते थे मानो वह कोई अवैध हथियार हो। (जानकी बाबू के अंतिम वक्त में भी यह बाँसुरी उनकी छड़ी के खोखल में ही थी)। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘जब रोम जलता था तो नीरो बाँसुरी बजाता था। मैं भी बजाता हूँ क्योंकि दुनिया में कहीं न कहीं तो यह आग जलनी ही चाहिए।’ तो इस तरह अपनी अंतिम साँस तक जानकी बाबू बाँसुरी बजाते रहे और जलते हुए रोम को अपना आशीर्वाद देते रहे। जानकी बाबू ने लिखा कि ‘दुनिया जैसी है उसे वैसे ही नहीं होना है। चीजों को बदलना होगा। चीजें बदलती भी हैं। मगर सवाल बदलाव के हथियारों का है। सारी दुनिया अपने-अपने हथियारों के लिए लड़ रही है।’ इस लड़ाई में जानकी बाबू अपने हथियार को कितना सुरक्षित रखते थे, यह तो जाहिर हो ही गया। अब दूसरी बात कि लड़ते हुए जानकी बाबू ने आत्महत्या क्यों की और किस तरह की? तो जानकी बाबू की हत्या या आत्महत्या का किस्सा कुछ इस तरह है:
उस रात जब जानकी बाबू मानव क्लोन के आविष्कार से हतप्रभ थे और निराशा के उस दौर में मुझे दु:खी राजा की कहानी सुना रहे थे, ठीक और ठीक उसी रात एक घटना घटी। जानकी बाबू अपने कमरे में बैठे जीवन और मृत्यु की संभावनाओं पर विचार कर रहे थे। उनके हाथ में जापानी यौगिक क्रियाओं की एक पुस्तक थी। अपने गुमनामी के दौर में जानकी बाबू ने इस तरह की यौगिक क्रियाओं का खासा अध्ययन किया था और उनका व्यावहारिक प्रयोग भी। सिर्फ एक हाराकीरी ही थी जिसका उन्होंने कभी कोई प्रयोग नहीं किया, हमेशा विचार ही करते रहे। उन्होंने सुना था कि हाराकीरी करने वाला आदमी मरता नहीं, सिर्फ शरीर छोड़ता है। अपने तमाम कर्मों की स्मृति के साथ सही समय पर वह नए शरीर में प्रवेश करता है। उसकी यात्रा फिर वहीं से शुरू होती है जहां से उसने छोड़ी थी। जानकी बाबू ने लिखा-‘मैं कर्म बंधन से मुक्ति नहीं चाहता। अभी मुझे बाँसुरी के उस स्वर को पकड़ऩा है जो उस बुढ़िया ने सरयू किनारे बजाया था।’ और फिर जानकी बाबू उस छड़ी के खोखल से अपनी बांसुरी निकाल कर बजाने लगे जो उनके हाथ में थी। यह रात के नौ बजे का समय था। लोग अपने अपने घरों में दुबक चुके थे। जानकी बाबू की बाँसुरी की धुन ने जैसे उन सबको एकाएक सोते से जगा दिया। कुछ खीझे, कुछ बौखलाए, कुछ ने शराब का सहारा लिया तो कुछ टीवी की हाई वाल्यूम पर सब कुछ भूलने का प्रयास करने लगे। कुछ ऐसे भी थे जो गुस्से से झींकते जानकी बाबू का दरवाजा पीटने लगे। जानकी बाबू ने उस वक्त लिखा-‘लगता है मानव क्लोन आ गए हैं। लड़ाई अब अपने अंतिम दौर में है।’
दरवाजा पीटते लोगों का शोर जब ज्यादा बढ़ गया तब जानकी बाबू उठे। दरवाजा खोला तो देखा कि बीसियों तमतमाए चेहरे उनका स्वागत कर रहे हैं। जानकी बाबू को उन सब चेहरों में धुँधलाता हुआ सावित्री का चेहरा भी दिखाई दिया। जानकी बाबू इससे पहले कुछ कहते कि लोगों ने उनके हाथों से बाँसुरी छीन ली और उसके दो टुकड़े कर दिए। काफी देर तक लोग बड़बड़ाते रहे और जब बड़बड़ाते हुए गए तब जानकी बाबू ने टूटी हुई बांसुरी के टुकड़े उठाए और फिर उन्हें अपनी छड़ी के खोखल में सहेज कर रख लिया। इस बार उन्होंने उसे किसी हथियार के रूप में नहीं बल्कि किसी पुरातात्विक स्मृति चिह्न के रूप में सहेजा था।
मैं शायद इस घटना के बाद ही उनसे मिला था। अपनी डायरी में उन्होंने जो अंतिम बात लिखी उसका कुल सार यही था कि क्या आदमी को अपनी जान लेने का अधिकार है? यह एक गंभीर दार्शनिक सवाल था जिसे वे मानव क्लोनों की मायावी दुनिया के बीच से पूछ रहे थे। उन्होंने लिखा कि क्लोन भी लड़ाई का एक हथियार होगा जो अंतत: दुनिया की तमाम तमाम बाँसुरियों को तोड़ देगा। फिर न जलता हुआ रोम होगा, न बाँसुरी बजाने वाला नीरो...।
जानकी बाबू ने उस रात अपने नाभि प्रदेश के नीचे किसी निश्चित बिंदु पर सुई चुभोकर हाराकीरी की थी। अंतिम समय तक उनका यह विश्वास बरकरार रहा कि उन्हें फिर आना है मानव क्लोनों की इस दुनिया में और बाँसुरी की उस धुन को पकडऩा है जो बुढ़िया ने सरयू के किनारे बजाई थी। इसके बाद जानकी बाबू ने कांट का वह प्रसिद्ध वाक्य लिखा कि ‘वस्तु स्वलक्षण अज्ञेय है।’
जानकी बाबू मर गए मगर हम सबको एक गहरा अपराधबोध दे गए। मैं आज भी सोचता हूँ कि उनकी इस हत्या या आत्महत्या का जिम्मेदार कौन है? इधर सुनने में आया है कि सरकार सुभाष बाबू की अस्थियाँ जापान से अपने देश लाने की तैयारियां कर रही है। अब सचमुच सुभाष बाबू के बारे में प्रचलित वे तमाम अफवाहें खत्म हो चली हैं जिनमें यह विश्वास था कि सुभाष बाबू मर नहीं सकते। वे छिपे हैं। सही समय पर वे फिर आएँगे और...।

405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/५3, सेक्टर-५, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद (गाजियाबाद) फोन: 9५७24037६0

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11 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

aaj somvaar hai, mai nai kahanee ka intjar kar raha hoon.sampadak ji sun rahe hai

Anonymous का कहना है कि -

kahani bahut achi hai.

Anonymous का कहना है कि -

really good story liked it

Unknown का कहना है कि -

it is Meaningful story.

bhawna mehra का कहना है कि -

kahani ko padte samay, padne wala usi mai hi gum ho jata hai aur ek ajeed sachhai ko svekar karta hai

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“हाराकीरी करने वाला आदमी मरता नहीं, सिर्फ शरीर छोड़ता है। अपने तमाम कर्मों की स्मृति के साथ सही समय पर वह नए शरीर में प्रवेश करता है। उसकी यात्रा फिर वहीं से शुरू होती है जहां से उसने छोड़ी थी। जानकी बाबू ने लिखा-‘मैं कर्म बंधन से मुक्ति नहीं चाहता। अभी मुझे बाँसुरी के उस स्वर को पकड़ऩा है जो उस बुढ़िया ने सरयू किनारे बजाया था।’ और फिर जानकी बाबू उस छड़ी के खोखल से अपनी बांसुरी निकाल कर बजाने लगे जो उनके हाथ में थी।“ आपका अफसाना वाकई काबिले तारीफ है. ऐसा प्रतीत होता है कि आप जानकी बाबू को बहुत करीब से जानते हैं. असलियत क्या है ये तो भगवान ही जाने मगर आपकी मंज़रकशी और जानकी बाबू के किरदार के बारे में आपके खयालात तो ऐसा ही इशारा करते हैं. इस खूबसूरत लफ्फाजी के लिए आप बधाई के पात्र हैं. कहानी खत्म होने पर भी ज़ेहन में सवालात का सिलसिला चलता रहता है जो इसकी दास्तान खुद बयाँ करती है. बहुत बहुत साधुवाद!
अश्विनी कुमार रॉय

Anonymous का कहना है कि -

kahani maan ko chu gayi

सतीश का कहना है कि -

वाह क्या कहानी है, पढने के बाद अच्छा लग रहाहै, हाराकीरी विधि के सुनाने के बाद मन में कई सवाल है.

Narendra Choudhary का कहना है कि -

Bahut achieve lagi dost........

Unknown का कहना है कि -

Aji saahab maza aa gaya. Bahut aanand aaya.

Vinit का कहना है कि -

Kahani Kalash jindabad.

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