Wednesday, May 12, 2010

क्रास रोड्स- प्रताप सहगल

लेखक परिचय- प्रताप सहगल
10 मई 1945, झंग, पश्चिम पंजाब (अब पाकिस्तान में) में जन्मे प्रताप सहगल हिन्दी के चर्चित कवि, नाटकार, कहानीकार और आलोचक हैं। लेखक के कई कविता-संग्रह, नाटक, आलोचना-पुस्तकें, एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। प्रताप सहगल ने बहुत सी पुस्तकों का संपादन भी किया है। प्रताप सहगल के नाटकों पर आधारित बहुत सी रेडियो धारावाहिकों का प्रसारण हुआ है। वर्तमान में ज़ाकिर हुसैन स्नातकोत्तर (सांध्य) महाविद्यालय (दि॰वि॰) के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं।
सम्पर्क: एफ-101, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली-110027, फोन- 011-25100565, 9810638563,
ईमेल- partapsehgal@gmail.com
मेज पर सामने रखे मोबाइल की ‘टिऊँ टिऊँ’ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। आदत के मुताबिक अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए मैंने अपने हाथ के अखबार को एक तरफ़ रखा और मोबाइल पर आया संदेश खोलकर पढ़ने लगा। यह एक आकस्मिक धक्का देने वाला संदेश था। मोबाइल पर अक्सर बैंक, निवेश करवाने वाली वंपनियाँ, रियल एस्टेट या फिर नए साल या दीवाली के मौके संदेश आते हैं। यह जानते हुए भी कि ज्यादातर आने वाले संदेश हमारे लिए व्यर्थ होते हैं, हम उन्हें बिना पढ़े अपने मोबाइल पटल से नहीं हटाते लेकिन यह संदेश परेशान करने वाला था। मोबाइल के संदेश पटल पर 'मि॰ वेंकटरमण पासेस अवे ... क्रिमेशन एट थ्री पी॰ एम॰ एट निगम बोध घाट' पढ़कर धक्का इसीलिए लगा कि मैं इस संदेश की उम्मीद नहीं कर रहा था। संदेश मेरी एक महिला सहकर्मी संजना कौल ने भेजा था।
मेरा मन था कि मैं क्रिमेशन में शामिल होऊँ, लेकिन दाएँ पाँव के टखने की हड्डी टूट जाने की वजह से प्लास्टर चढ़ा हुआ था और डॉक्टर ने छह हफ्तों के लिए पूरे आराम की सख्त हिदायत दे रखी थी। मन विचलित होने लगा। वेंकटरमण मेरे पुराने सहकर्मी थे, लेकिन उससे पहले वे मेरे शिक्षक भी रहे थे। यूँ अब वो रिटायर्ड ज़िदगी जी रहे थे, लेकिन कभी-कभी फोन पर या कॉलेज के किसी समारोह में उनसे बात होती रहती थी। यह बात सभी जानते थे कि उनका मुझ पर बड़ा स्नेह था और मैं भी उनसे एक आदर भाव वाला रिश्ता रखता था। इसलिए क्रिमेशन ग्राउंड में मेरी अनुपस्थिति का नोटिस लिया जाएगा। पर मैं क्या करता। कॉलेज में यह भी तो सभी जानते थे न कि मैं लंबी मैडिकल लीव पर हूँ।
मैंने संजना को फोन मिलाया। दो घंटी बजने के बाद उधर से मधुर आवाज़ सुनाई दी - "हलो"
"अंजना! मैं अरुण ... आपका मैसेज ... कुछ पता है यह कैसे ..."
"हाँ, कुछ ... कुछ ... दरअसल मुझे तो मि॰ अमरनाथ का फोन आया था, उन्होंने बताया कि ही हैज़ कमिटेड सुएसाइड"
यह मेरे लिए दूसरा धक्का था। अप्रत्याशित और पहले धक्के से भी तेज़ -"क्या आत्महत्या ... लेकिन वे तो ऐसे न थे ... आत्महत्या की कोई वजह ...."
"यह तो मुझे पता नहीं .... बस इतना पता है कि वे सुबह ही घूमने निकले और फिर सनराइज़ के साथ ही उनकी कटी हुई बाडी मिली रेल की पटरी पर ...."
"सो सैड ...."
"पर मि॰ अमरनाथ शायद कुछ बता सकें" उधर से संजना ने कहा।
"ओ॰ के॰ करता हूँ उनसे बात" कहकर मैंने फ़ोन बंद कर दिया।
मि॰ अमरनाथ और वेंकटरमण दोनों ही अंग्रेजी विभाग में थे। दोनों ने लगभग एक साथ कालिज में नौकरी शुरू की थी और साथ-साथ ही सेवा-निवृत्त भी हुए थे। दोनों को पढ़ने का खूब शौक था और गप्पबाज़ी का भी। दोनों घनिष्ठ मित्र बने और जीवन-पर्यंत उनमें गहरी छनती रही। मेरे मन में परेशानकुन उत्सुकता तैर रही थी। मैंने मि॰ अमरनाथ को फ़ोन मिलाया। उधर से ‘हलो’ बहुत धीरे से सुनाई दी।
"मैं अरुण बोल रहा हूँ"
"अच्छा ...." दो-चार क्षण का अंतराल और फिर आवाज़ थोड़ी तेज़ हुई ... हाँ.... पता चला होगा"
"जी, इसीलिए ... संजना का मैसेज था .... पर यह सब हुआ कैसे?"
"अब कैसे तो पता नहीं, बट ही वाज़ फ़ीलिंग डिस्टर्ब फार दि लास्ट सो मैनी डेज़"
"आत्महत्या की कोई तो वजह होगी न"
"मि॰ अरुण" अमरनाथ ने बात करने की अपनी आदत के मुताबिक एक छोटा सा पाज़ लिया और फिर कहा "वज़ह तो होगी ... पर क्या .... कई बार होता है न कि बेवजह ही कुछ या फिर आपको जो वजह लगती है, वह दूसरे को नहीं लगती या फिर बेवजह में से कोई वजह ढूँढ़ने की कोशिश की जाती है ... यू नो ... सब अपना-अपना माइन्डसैट है"
"जी, कोई सुएसाइड नोट?" मैंने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की।
"एक नहीं, कई पखचयाँ मिली हैं उनकी पैंट की जेब से ... लगता है वे कई दिनों से तैयारी कर रहे थे", अमरनाथ ने कहा।
"क्या लिखा है उन पखचयों में" मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी।
"आई डोन्ट नो, वो सब उनके बेटे के पास हैं ... या शायद पुलिस के पास ... आई रीयली डोन्ट नो ... अब ही वाज़ डिस्टर्ब ... एक्चुअली ही वाज़ नाट हैप्पी विद दि मैरिज ऑफ हिज़ सन .... यू नो .... इन्टरकास्ट मैरिज तो थी बट ... वो समझते थे कि उनकी बहू सुंदर नहीं है .... एकदम ब्लैक ... यू नो ...." अमरनाथ बता रहे थे।
"मि॰ वेंकटरमण एण्ड सो कलर काँशस .... पर वे तो जाति, रंग, नस्ल इन सब बातों का विरोध करते थे न" यह कहने के साथ मेरे सामने स्टाफ रूम में होती गप्पबाशी के दृश्य तैरने लगे।
स्टाफ रूम के एक हिस्से में वेंकटरमण, अमरनाथ, शाम मोहन, समनानी और सोहन शर्मा बैठे थे। सोहन शर्मा को छोड़ सभी अंग्रेज़ी विभाग में ही पढ़ाते थे। सोहन शर्मा पढ़ाते तो संस्कृत थे, लेकिन संस्कृत की अपेक्षा उनकी रुचि अंग्रेज़ी, इतिहास आदि दूसरे विषयों में ज्यादा थी। अंग्रेज़ी भाषा पर वे अतिरिक्त रूप से मुग्ध रहते, इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ा रहे शिक्षकों के साथ उनकी गहरी छनती। अंग्रेज़ी में आई नई से नई किताब पढ़ना, किसी शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर लंबी बहसें करना उनका शगल था। मैं भी कभी-कभी उनकी सोहबत का मज़ा लेता और लाभ भी।
आज मि॰ वेंकटरमण के निधन की खबर पाते ही न जाने कितने-कितने स्मृति-खण्ड फ्रेम-दर-फ्रेम आँखों के सामने नाचने लगे और अंततः मन एक स्मृति-खण्ड पर आकर केंद्रित हो गया।
बहस इधर-उधर चक्कर काटती हुई आत्महत्या जैसे गंभीर मसले पर केंद्रित हो गई थी। मुझे अपनी ओर आते देखकर मि॰ वेंकटरमण ने ‘आओ’ कहकर सीधा प्रश्न मेरी ओर दागा -"व्हाट डू यू थिंक आफ सुएसाइड अरुण?"
मैं इस सवाल के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। मि॰ वेंकटरमण से बात करना मुझे अच्छा तो लगता था, लेकिन एक शिष्यत्व-नुमा संकोच भी मन को घेर लेता था। मि॰ वेंकटरमण फर्राटेदार अंग्रेज़ी इतनी तेज़ रफ्तार के साथ बोलते थे कि जब तक आप पहला शब्द पकड़ें, वे दसवें शब्द पर होते थे। हॉकी की कमेंट्री सुनते हुए मैंने तेज हिंदी या अंग्रेज़ी बोलते कमेंटेटरों को सुना था, लेकिन मि॰ वेंकटरमण की अंग्रेज़ी बोलने की स्पीड को जस्टीफाई करने के लिए हॉकी या फुटबाल से भी कोई तेज़ रफ़्तार खेल का आविष्कार करने की ज़रूरत थी। उनकी इसी अंग्रेज़ी का मुझ पर अपने छात्र-जीवन से रौब ग़ालिब होता। वे भी मुझे स्नेह के साथ हमेशा अंग्रेज़ी में ही एम॰ए॰ करने की सलाह देते और मैं एम॰ए॰ कर बैठा हिंदी में। वे कुछ वक्त मुझसे खफा भी रहे, लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया और अब मैं उन्हीं का सहकर्मी था।
मैंने उनके सामने ही पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा- "नो वे ...."
हालाँकि मैं एक बार गहरे डिप्रैशन का शिकार हो चुका था। मेरे सामने शिमला-यात्रा का स्मृति-खंड तेज़ी से तैर गया। गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए मैंने शिमला से थोड़ा पहले ही तारादेवी में एक गैस्ट हाउस बुक करवा लिया था। मैं, मेरी पत्नी और हमारा एक बच्चा। पूरा एक महीना वहीं बिताने का कार्यक्रम था लेकिन तीसरे दिन ही एक्पोज़र ने ऐसा पकड़ा कि ठण्ड लगने के साथ ही नीचे से झरना फूट गया। तब तक मैंने हिल डायरिया का नाम भी नहीं सुना था। अगले दो दिनों में मेरी तबियत इतनी बिगड़ी कि पहाड़ से नीचे उतरना ही ठीक लगा। हिल डायरिया मैदानी आदमी को हो जाए तो फिर पता नहीं वह ठीक होने में कितना वक्त लेगा। वही मेरे साथ हुआ। इतना भयानक कि मैं धीरे-धीरे गहरे डिप्रैशन में चला गया और मुक्ति के लिए बार बार-बार आत्महत्या करने की ही सोचने लगा। यहाँ होम्योपैथी काम आई और कुछ दिनों में ही स्वस्थ होकर आज मैं यह कहने योग्य हो गया था- "आत्महत्या कायरता है"
"व्हाट आर यू टाकिंग- इट नीड्स लाट ऑफ करेज टू कमिट सुएसाइड" ऐसा शाम मोहन ने कहा।
"नो.... नो... आई विल गो विद अरुण" मि॰ वेंकटरमण बोल रहे थे- "एण्ड आई विल आलसो गो विद जान स्टुअर्ट मिल वैन ही सेश दैट सुएसाइड विल डिप्राइव अ पर्सन टू मेक फरदर चाएसेस ... सो इन माई व्यू टू कमिट सुएसाइट शुड बी प्रीवेन्टेड रादर दैन बी ग्लोरीफाईड"
"अरे कौन कमबख्त ज़िन्दा रहना चाहता है आज के जमाने में ... सो मच ऑफ ह्यूमिलेशन वन हैज़ टू फेस ..... " शाम मोहन ने बात आगे बढ़ाई।
"इसका मतलब तो यही हुआ न कि आज ज़िंदा रहने के लिए कहीं ज़्यादा साहस और हिम्मत की ज़रूरत है" अरुण ने कहा।
"मैं तो सोचता हूँ कि लाइफ अगर अनलिवेबल हो जाए तो इट्स बैटर टू एण्ड इट" यह हल्का-सा स्वर मि॰ अमरनाथ का था।
"यानी आप कोई बीच का रास्ता निकाल रहे हैं, पर मि॰ अमरनाथ, किसकी लाइफ कितनी अनलिवेबल हो गई है ... हू वुड डिसाइड दैट" अरुण ने कहा ।
"यस ... यस .... दैट इज़ दि पाइन्ट .... एन्डयोरैन्स लेवल ...."
"सभी के अलग-अलग हैं" बात काटते हुए मि॰ सोहन शर्मा बोले- "जिसकी लाइफ है, उसी को सोचने दो न, उसने उसके साथ क्या बर्ताव करना है।"
"दैन व्हाट अबाउट सोशल रिपान्सिबिलिटी" अभी तक खामोश बैठे समनानी ने अपनी उपस्थिति दर्ज की- "लिसन वैन कान्ट आर्गयूज़ दैट ही हू कंटैम्पलेट्स सुएसाइड शुड आस्क हिमसैल्फ वैदर हिज़ एक्शन कैन बी कंसिसटैन्ट विद दि आइडिया ऑफ ह्यूमैनिटि एज़ एन एण्ड इटसैल्फ"
"मुझे तो सुएसाइड का आइडिया ही एब्सर्ड लगता है" मि॰ अमरनाथ बोले
"है, क्या हमारी लाइफ ही एब्सर्ड नहीं है?" शाम मोहन ने कहा
अब सोहन शर्मा की बारी थी- "देखिए अब लाइफ एब्सर्ड है, यह मानकर ही लोग यथार्थ को भ्रम में बदल देते हैं या धर्म की शरण लेते हैं, या जंगलों में भाग जाते हैं ... यह तो कोई तरीका नहीं है ज़िंदगी की एब्सर्डिटी को फेस करने का ... आई मीन आप लाईफ को पेशनिटिली गले लागकर उसे एक मीनिंग भी दे सकते हैं"
"व्हाट मीनिंग ... माई फुट ... अरे जिए जा रहे है कि हम मर नहीं सकते ... बस .. " शाम मोहन के स्वर में थोड़ी तुर्शी आ गई थी। मि॰ वेंकटरमण बोले- "बट आई थिंक अवर इंडियन फिलासिकी गिव्स अस दि आंसर यह ज़िंदगी हमें ईश्वर ने दी है, वही उसे ले सकता है ... हमें क्या हक है उसे खत्म करने का ... आत्महत्या पाप है, यही बात है जो दुनिया को बचाकर रखती है"
सोहन शर्मा- "यह पाप-पुण्य तो बाद की बात है, पहली बात है आदमी की जिजीविषा ... अपने अहं का विस्तार देखने की अद्दम्य ललक ...."
इसी तरह से अपनी-अपनी राय देने के लिए कोई रूसो का, कोई डेविड ह्यूम का, कोई कामू और सार्त्रा का तो कोई वेदान्त और गीता का सहारा ले रहा था। इसी बहस के अंत में मि॰ वेंकटरमण ने ही तो कहा था "टू कमिट सुएसाइड, आई विल हैव टू गो मैड"
इस जुमले का ध्यान आते ही मैं अपने वर्तमान में लौट आया और खुद से पूछने लगा कि क्या मि॰ वेंकटरमण सचमुच पागल हो गए थे? क्या मैं अपने डिप्रैशन के दिनों में पागल होता-होता बचा था? इन सवालों के जवाब मेरे पास ही नहीं थे तो किसी ओर के पास कैसे हो सकते थे। लेकिन यह सवाल बार-बार मेरे मन को मथने लगा कि अगर कार्य-कारण शृंखला का कोई संबंध है तो फिर इस आत्महत्या का कोई कारण तो होना चाहिए।
कारण? सोचकर मेरे मन में और ही तरह-तरह की उथल पुथल होने लगी। किसी घटना-दुर्घटना का कारण जो हम देख या समझ रहे होते हैं, क्या सचमुच वही कारण होता है। दृश्य कारण के पीछे छिपे अदृश्य कारण क्या कभी हमारी पकड़ में आता है? न आए लेकिन एक दृश्य कारण तो पकड़ में आना चाहिए। ज़रूरी भी है ... तभी न हम उस कारण को कारण मानकर मन पर अपनी जिज्ञासा के जवाब की चादर डालकर तब तक संतुष्ट रहते हैं, जब तक कोई और झकझोर देने वाली घटना-दुर्घटना न हो जाए।
इस सारी उहापोह के बीच ही मन बार-बार विचलित होकर मि॰ वेंकटरमण की जेब से निकली पर्चियों की इबारतों को पढ़ना चाहता था।
दो दिन बाद मैंने फिर मि॰ अमरनाथ को फोन मिलाया। उधर से वही परिचित हल्की आवाज़ - हलो
"हलो सर, अरुण हेयर"
"हाँ, बोलो अरुण"
"सर दो दिन से परेशान हूँ मैं ... कोई वजह पता चली"
"हाँ, कुछ-कुछ, दरअसल दो दिन हम पुलिस के चक्कर ही काटते रहे, बड़ी मुश्किल से केस बंद करवाया है।"
"वो कैसे?"
"एक एक्सीडेंट यू नो ... मेरा एक दोस्त है डी सी पी ... मुश्किल तो हुई ... बट ... हो गया" फिर एक पाज़ के बाद "हाउ इज़ योर फुट?"
"मैं तो बैड पर ही हूँ ... क्रिमेशन में भी नहीं आ सका।"
"डज़न्ट मैटर ... दरअसल मि॰ वेंकटरमण ... यू नो ... थोड़े अल्ट्रा सेंसेटिव पर्सन थे वो अपने बेटे की शादी से खुश नहीं थे।"
"हाँ, आपने पहले भी बताया"
"पर उनकी बहू को बच्चा होने वाला था न ... तो पता नहीं उन्हें क्या डर सता रहा था। कहते थे उसका काम्प्लैक्शन भी फेयर नहीं होगा।"
"सो ... सो, व्हाट ... वो खुद भी कोई बहुत फेयर नहीं थे"
"हाँ, पर पता नहीं उनके मन में यह एक डर बुरी तरह से पसर गया था"
"इतनी मामूली सी बात आत्महत्या की वजह तो नहीं बन सकती"
"यस आई डू एग्री विद यू अरुण? पर कहीं एक-एक करके कई बातें जुड़ती चली जाती हैं ... अपनी डाटर-इन-लॉ से भी कुछ परेशान रहते थे ... बेटा भी शायद ध्यान नहीं रखता होगा ... अब क्या पता किसी के घर में रोज-रोज क्या घट रहा है ... यू नो ... एक आदमी को मामूली लगने वाली बात दूसरे के लिए बहुत ही इम्पार्टटेन्ट हो जाती है ... यू नो ... लास्ट ईयर हमारे कालिज में ही एक लड़की ने सिर्फ इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि उसके ब्वाय-प्रेंफड ने उसे गुस्से में कह दिया था ‘मरना है तो मर जा, मेरा पीछा छोड़’ अब यह भी कोई वजह है मरने की ... यू नो बस हो जाता है।"
"पर आपने बताया का कई पखचयाँ थीं उनका जेब में"
"हाँ थी तो, पर वह सब पूछना मुझे ठीक नहीं लगा, उनका बेटा एकदम चुप है ... आई रियली डोन्ट नो ... बट जो इम्पार्टेन्ट रीज़न मुझे लगा, वही ..."
"अच्छा नहीं लगा, यह बड़ी ग़लत मिसाल पेश की है उन्होंने"
"व्हाट शुड आई से, डिप्रैशन में भी थे वो, यू नो दो-तीन साल से इलाज भी करवा रहे थे ... उस इलाज से भी वे तंग आ चुके थे।"
मैंने भी कुछ दिन सायक्रियाट्रिस्ट के चक्कर काटे थे और उनकी दवाओं ने मुझे करीब-करीब अधमरा-सा कर दिया था, उनके प्रति मेरे मन में गहरी वितृष्णा भरी हुई थी। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने कहा-
"यह सायकियाट्रिस्ट भी न ... पूछिए मत ... पर वे तो कुछ पूजा-पाठ भी करते थे न ..."
"सब करते थे ... कहीं भी चैन नहीं ... गीता के बड़े भक्त, पर वो भी काम नहीं आई"
"मैं बहुत डिस्टर्ब हूँ"
"ओ कम आन अरुण! यू आर यंग, एनर्जेटिक, थिंकिंग माइंड, डोन्ट गैट डिस्टर्ब"
"जी... राइट सर, फोन रखता हूँ" कहकर मैंने फोन बंद कर दिया।
प्लास्टर चढ़े पाँव को देखा। पिछले तीन हफ्तों से मैं बिस्तर पर ही था। जीवन में सक्रियता का स्थान निष्क्रियता ने ले लिया था। शरीर निष्क्रिय हो जाए तो अक्सर मन अतिरिक्त रूप से सक्रिय हो जाता है। वही मेरे साथ हो रहा था, पिछले दिनों की कुछ तकलीफदेह बातों ने एक बाड़े का रूप ले लिया और उस बाड़े में बंद घूम रहा था मन। कितनी ज़िल्लत, अपमान झेलना पड़ा था मुझे, जब मैं वो सब करते हुए पकड़ा गया, जो करते हुए मुझे पकड़ा नहीं जाना चाहिए था। बाड़े में घूमती बातें किरचों की तरह चुभ रही थीं। अंतश्चेतना के गह्वर तक को काटती हुईं। मि॰ वेंकटरमण की आत्महत्या ने मेरे सामने डिप्रैशन के द्वार फिर से खोल दिए थे। मैं फिर एक बार डिप्रैशन की चपेट में आ रहा था। मि॰ वेंकटरमण ने ठीक किया या ग़लत, इस सवाल से ज़्यादा मुझे यह बातें परेशान कर रही थीं कि यहाँ से मेरे पाँव किस ओर उठेंगे और उन पखचयों की इबारतें क्या थीं? उन्हीं से खुल सकता था उनकी आत्महत्या का रहस्य तो क्या मैं खुद आत्महत्या करने की कोई वजह गढ़ रहा था? मैंने चाहा उनके बेटे से बात करूँ लेकिन आशंकित करने वाला कोई अदृश्य हाथ मुझे रोकता था। रोकता रहा और मैंने फोन मिला कर बिना बात किये काट दिया।

तभी मन के किसी कोने से एक और महीन सी रेखा शक्ल अख्तियार करने लगी। दो स्थितियाँ कभी भी एक सी नहीं हो सकतीं ... तब मैं मि॰ वेंकटरमण के हालात को अपने पर क्यों ओढ़ रहा हूँ ... मुझे तो अपना जीवन जीना है, अपनी तरह से जीना है। अपमान ज़िल्लत तो मन की स्थितियाँ होती हैं - कभी ओढ़ी हुईं, कभी गढ़ी हुईं ... अब्सोल्यूट टर्म्स में वे स्थितियाँ क्या हैं? आज से दस-बीस या पचास बरस बाद ही उनका कोई महत्त्व भी होगा? तब क्यों बनूँ हाइपर सेंसेटिव, जीवन तो जीने के लिए है। जीने के बहुत कारण हैं मेरे पास। मरने के लिए उनसे कोई बड़ा कारण होना चाहिए। सोचते-सोचते मैं दार्शनिकता के खोल में घुसने लगा - क्या जीवन का अर्थ मृत्यु है? जीवन तो विकास है ... मृत्यु जीवन कैसे हो सकती है ... तो क्या मृत्यु एक विराम है, अर्द्धविराम या पूर्ण विराम। सभी पदार्थों का विखंडित हो जाना, उनका फिर किसी रूपाकार में परिवर्तित हो जाना - यही तो है विकास। मृत्‍यु का विकास तो हो ही नहीं सकता। विकास तो जीवन का ही है। मैं हूँ, जीवन है। मैं नहीं हूँ - तब भी जीवन है - तब मैं हूँ या नहीं? यह प्रश्‍न ही निरर्थक हो जाता है। तब क्‍या आत्‍महंता और अन्‍यों में कोई अंतर नहीं? आत्‍महंता होना साहस है तो फिर सभी साहसी क्‍यों न बनें? तब जीवन? तब यह समाज? तब मैं?
मुझे अपने सवालों के जवाब नहीं मिल रहे थे। अपने लिए ही नहीं तो दूसरों के सवालों के जवाब में कैसे तैयार कर सकता हूँ, लेकिन बार-बार मन के किसी कोने से मुझे यही सुनाई देता है कि आत्‍महत्‍या संघर्षों से मुक्‍ति का आसान रास्‍ता है। संघर्षों का सामना न कर पाना कायरता है ... तब आत्‍महत्‍या क्‍या है? शायद वो कायरता का ही शिखर-बिंदु है। अपमान, ज़लालत कहीं न कहीं, किसी न किसी शक्‍ल में, सबका इनसे सामना होता है - इसके बावजूद लड़ना, संघर्ष करना, जीवन जीने के लिए कहीं ज्यादा साहस की ज़रूरत है, बजाय मरने के। इसलिए अपने मन में बार-बार आत्‍महत्‍या करने का विचार आने के बावजूद मैंने फिलहाल जिंदा रहने का ही फैसला किया है- टू मेक फर्दर चाएसेस ... शायद।

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4 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

i felt the story is all about Aruns internal feeling and the state of depression that he was facing due to his facing due to a loneliness, being at home after fracture and with the new came about Dr. venkatraman. it reveals how human mind thinks and how it goes to a level when he cant come out of its own boundaries,the boundaries of thoughts and if he be able to come out every thing will go right..........else one cant say KISKO KAUN SI BAAT KAB IMPORTANT LAG JAYE, AUR WO HO KUCH BHI NAHI..........
A nice story which can bound people to read till last.for few it is with interest to get the reason of suicide till last. and for few it is the way t live the state of a mind and enjoy it.

thanks you Pratap ji

Unknown का कहना है कि -

cross road padh kar bahut preshan hoon. aatmhatya ko lekar itna sundar vishleshan mainen pahle kabhi nahin padha. aapne yah kahani kahani kalash mein lagakar mujh jaise pathhkon par bad upkar kiya hai.

तेजेन्द्र शर्मा का कहना है कि -

My problem is that I personally know Mr. Venkatraman, Amarnath, Shyam Mohan, Arun And Sharma. I have myself been a student of all of them. Merey liye kahani kewal kahani nahin hai uss bahut zayada hai. Partap Sir has beautifully projected his own dilemma through Venkat Sir. I actually read the whole story in 15 mts flat. I had the advantage of giving a tone to each dialogue since I knew how each character used to speak in real life. Partap Sir congrats for a good story.

Vinit का कहना है कि -

Maine to jitni bhi kahaniyan kahani kalas mein padi hai sab bahot hi behtreen tarike se likhi hai. Mein bahot khush hoo ki likhne wale laikh mein bhi jeewan dal detein hain.

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