Monday, February 25, 2008

एक लड़की जो नदी बन गई

- सो जाओ तुम।
- नींद नहीं आती।
- लो, पानी पी लो और फिर मुँह ढक कर लेटे रहो। अपने आप आ जाएगी नींद।
- नहीं आती...
- कुछ मत सोचो या फिर राम का नाम जपते रहो, आ जाएगी।
कुछ मिनट बीत गए।
- अब फ़ोन किसे कर रहे हो इतनी रात को?
- राम को।
- ये राम कौन है?
- जिसका नाम जपने को तुमने कहा था।
उसने फ़ोन मेरे हाथ से छीन लिया। मैं विवश सा होकर लेटा रहा।
- कहाँ है निवेदिता?मैं बैठ गया और बेचैनी से इधर-उधर देखने लगा। मैंने कम्बल उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया और बैड की दराजें खोल खोलकर टटोलने लगा।

- तुम्हें पता है कि पागलपन की शुरुआत ऐसे ही होती है?
वह झल्लाकर बोली।
- मुझे कुछ नहीं पता...
- तुम चुप होकर लेट नहीं सकते?
मैं चुप होकर लेटा रहा लेकिन कुछ क्षण बाद लगने लगा कि मैं एक मैदान में पड़ा हूं और एक भीड़ मुझे कुचलती हुई जा रही है। मेरे शरीर से खून नहीं निकल रहा। टीन के पुतले की तरह अपने ऊपर पड़े हर कदम से मैं विकृत होता जा रहा हूँ।
- मेरा दम घुट रहा है...
मैंने उसका नाम भी पुकारना चाहा, लेकिन भूल गया।
- अब तुमसे इतनी दूर आकर लेट गई हूं फिर भी सोने नहीं दे रहे।
- सच में मेरा दम घुट रहा है निवेदिता।
- यह निवेदिता कौन है?
वह चौंककर बोली और उठकर बैठ गई।
- तुम कौन हो?
- हे भगवान...
वह बिस्तर से उठकर मेरे पास आई और मेरे माथे पर हाथ रखा।
- बुखार भी नहीं है।
- मेरा दम घुट रहा है...
- मैं खिड़कियाँ खोल देती हूं।
- कोई दरवाजा भी खोलो ना। उसने कहा था कि वो आएगी।
- कौन?
वह फिर झल्ला गई।
- पता नहीं कौन!
मैं सब कुछ भूलने लगा था।
- मैं डॉक्टर को फ़ोन करती हूं। मुझे तुम्हारी हालत देखकर डर लग रहा है।
- सुनो, वह आए तो मुझे जगा देना। वह हमेशा मुझे सोता देखकर लौट जाती है।
- हाँ, जगा दूँगी, लेकिन तुम सोओ तो।
उसकी आवाज में चिंता झलक रही थी। उसने मेरे बिस्तर के बिल्कुल सामने वाली खिड़की खोल दी। ठंडी हवा का एक झोंका आया और जैसे ही उसने मेरे चेहरे को छुआ, मैं मुस्कुरा दिया। मेरी मुस्कान से उसकी चिंता और बढ़ गई लगती थी।
- अब दम नहीं घुट रहा।
मैंने गहरी साँस लेते हुए कहा। वह मेरे सिरहाने आकर बैठ गई और मेरा माथा सहलाने लगी। खिड़की में से पूर्णिमा का चाँद दिखाई दे रहा था।
- तुम्हें चाँद बहुत अच्छा लगता है ना? मैं कल सुबह तोड़कर ला दूँगा।
- मैंने कब कहा कि मुझे चाँद अच्छा लगता है?
अबकी बार वह प्यार से बोली। अब तक उसके स्वर में चिंता तो स्थायी रूप से घुल गई थी।
- तुम निवेदिता नहीं हो क्या?
मैंने अपने माथे पर रखा उसका हाथ पकड़ लिया था और गर्दन ऊपर उठाकर उसे पहचानने का प्रयास कर रहा था।
- मैं तुम्हारी पत्नी हूं शांतनु और मेरा नाम शालिनी है। अब याद आया कुछ?
उसका स्वर हल्का सा ऊँचा हो गया था और माथे पर नीले रंग की नसें और मुखर हो गई थीं। मैंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, लेकिन कुछ याद नहीं आया। केवल एक नाम गूँजता रहा- निवेदिता।
- कहाँ है निवेदिता?
मैं बैठ गया और बेचैनी से इधर-उधर देखने लगा। मैंने कम्बल उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया और बैड की दराजें खोल खोलकर टटोलने लगा।
शालिनी घबराकर उठ गई और सामने मेज पर रखा मोबाइल फ़ोन उठाकर ले आई। उसने कोई नम्बर मिलाया और उस दौरान मैंने अपने नीचे बिछी चादर भी उतार फेंकी।
- कहाँ है निवेदिता?
मैं चिल्लाने लगा था।
- डॉक्टर साहब, मैं शालिनी बोल रही हूँ। आप अभी घर आ सकते हैं? इन्हे कुछ हो गया है।
वह एक साँस में बोल गई। मुझे उसके घबराए हुए चेहरे को देखकर दया आई, लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया।
- कहाँ है मेरी निवेदिता?
मैं चिल्लाता रहा।


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बहुत दिन से कुछ अच्छा पढ़ा ही नहीं। बंगाल में अच्छे लेखक मिलने मुश्किल हुए जा रहे हैं।
साहित्य की चर्चा के साथ वह मेरी हथेली पर अपनी हथेली रखकर मन ही मन उंगलियों की तुलना भी कर रही थी।
- एक नया है, किंतु दम बहुत है। तुम्हें भी शायद पसन्द आए!
- कौन?
पीपल के उस पेड़ के नीचे बिछे हरे पीले पत्तों पर मैं लेटा हुआ था और वह मेरे सीने पर सिर रखकर लेटी थी।
- शरत है...शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय। महेन्द्र का मित्र है।
- आजकल जिसे देखो, साहित्य लिखने लगता है।
कहते ही उसके चेहरे पर एक बड़ा सा पत्ता आ गिरा और वह किशोरियों की तरह खिलखिला उठी।
नहीं निवेद, यह अलग है। मैंने कल ही उसका एक उपन्यास पढ़ा। तुम्हें लाकर दूंगा तो तुम वर्षों तक मुझे धन्यवाद दोगी।
- बहुत देखे हैं तुम्हारे शरत भरत...
वह शरारत भरे अन्दाज में मुस्कुराती हुई उठकर बैठ गई।
यदि शरत नहीं पढ़ना तो मेरी तरह हिन्दी भी पढ़ने लगो।
मुझे भी उसे चिढ़ाना आता था।
- नहीं जी, मुझे तो अपनी बांग्ला ही प्यारी है और अपना बंगाल।
- और मुझे अपना भारत।
मैं भी मुस्कुराता हुआ उठकर बैठ गया।
- महेन्द्र यही तो सिखाता रहता है तुम्हें।
उसकी नाक पर तितली सा खूबसूरत गुस्सा आकर बैठ गया था।
- अरे, क्या बुरा सिखाता है? हम देश की स्वतंत्रता की बात ही तो करते हैं।
दिखावे की उस तितली के रंग बदलते थे तो मेरे चेहरे पर भी इन्द्रधनुष सा खिल जाता था।
- मेरा देश तो बंगाल है। मैं न कभी तुम्हारे भारत में गई हूं और न ही उसे पहचानती हूं।
- निवेद....
- क्या है?
वह अपनी नाराज़गी जताते हुए धीरे से बोली। अब वह मेरी ओर ही देख रही थी।
- तुम जब रूठती हो तो तुम्हारे गाल कश्मीर के सेबों जितने लाल हो जाते हैं।
उसने लाख कोशिश की, लेकिन अपनी मुस्कान दबा नहीं पाई।
- चलो हटो, मैं तुमसे बात नहीं करती।
उसने मुझे धकेलने के लिए हाथ बढ़ाया, जो मैंने पकड़ लिया।
- अब छोड़ो मेरा हाथ और जाकर संभालो अपना भारत।
- पगली, भारत और बंगाल कभी अलग थोड़े ही होंगे।
मैंने सुबह की धूप जैसा खिला हुआ उसका हाथ चूम लिया। वह मुस्कुरा दी।
हाँ याद आया..वो बकबक पंडित है न...
वह कहते कहते रुक गई क्योंकि मैं हैरीसन रोड के उस पंडित के नामकरण पर जोर से हँस पड़ा था।
- तुम हँस रहे हो? कल बहुत बकवास कर रहा था वह...
वह फिर रुक गई। छोटी सी बड़ी बातों पर जिस तरह बच्चों और लड़कियों की आँखें फैल जाती हैं, उसकी आँखें वैसे ही फैल गई थीं।
- हुगली जैसी आँखें हैं तुम्हारी निवेद।
- वह कह रहा था कि एक दिन बंगाल के टुकड़े हो जाएंगे और तुम्हारे भारत के भी।
- कुछ भी बकता है तुम्हारा बकबक पंडित।
- मुझे भी लगता है कि वह पागल हो गया है। कल ऐसी ही हरकतें कर रहा था।
- किसकी तस्वीर है शालिनी?मैं था कि कोई भी प्रश्न अपने पास नहीं रख पा रहा था।- महात्मा गाँधी की है....और तुम कहते हो तो उतारकर रख देती हूँ। बस तुम कुछ मत बोलो। मुझे बहुत फ़िक्र हो रही है।

- पागल तो मैं भी हो गया हूं तुम्हारे लिए। मेरी चिंता नहीं करती तुम...
- करती तो हूँ.....
उसने अपने होठ हथेली पर रखे और मेरी बन्द मुट्ठी खोलकर उसमें थमा दिए। कलकत्ता का वह पार्क देर तक अपने सौभाग्य को सराहता रहा।


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- सच कहो कि तुम्हारा नाम....तुम्हारा नाम..
- शालिनी।
- हाँ, सच बताओ...तुम्हारा नाम शालिनी ही है...निवेदिता नहीं?
वह अपना सिर पकड़कर बैठ गई और रोने लगी।
- तुम्हें क्या हुआ है शांतनु? प्लीज़ कुछ मत बोलो।
मैं छत से लटके पंखे को देखता रहा। मुझे डर सा भी लगने लगा था।
- वे भारत के टुकड़े कर देंगे और बंगाल के भी।
वह रोती रही और मैं चुप न रह सका।
- शालिनी...
मुझे लगा कि मैंने पहली बार उसे उसके नाम से पुकारा था। उसे कैसा लगा होगा, मैं नहीं जानता।
- शालिनी, सामने वह तस्वीर किसकी है?
एक चश्मे वाले गंजे आदमी की तस्वीर खिड़की के ठीक ऊपर लगी थी और सारी दुनिया के बेचैन प्रश्न जैसे मुझमें ही समा गए थे।
उसने रोते-रोते सिर उठाकर खिड़की की ओर देखा और फिर और जोर जोर से सुबकने लगी।
- किसकी तस्वीर है शालिनी?
मैं था कि कोई भी प्रश्न अपने पास नहीं रख पा रहा था।
- महात्मा गाँधी की है....और तुम कहते हो तो उतारकर रख देती हूँ। बस तुम कुछ मत बोलो। मुझे बहुत फ़िक्र हो रही है।
कहते-कहते वह खिड़की तक गई। उसने उचककर तस्वीर उतार ली और फिर मेरी बगल में आकर बैठ गई। वह अब भी रो रही थी और मुझे उस पर दया आ रही थी।
- अब कुछ नहीं बोलूंगा। तुम मत रोओ।
मैंने उसकी बाँह पकड़कर बच्चों की तरह हिलाते हुए कहा।
कुछ देर में उसने उसने रोना बन्द कर दिया और ठण्डे पानी में डुबो-डुबोकर मेरे माथे पर पट्टियाँ रखने लगी। मैंने उसके लिए अपनी सारी बेचैनी और जिज्ञासा दबा दी थी।
- निवेद...निवेद...निवेद...
कुछ देर बाद मैं फिर बुदबुदाने लगा था। मेरी आँखें बन्द थीं। तभी दरवाजे पर आहट हुई।
- डॉक्टर आ गए।
मैंने आँखें खोलीं तो शालिनी दरवाजे की तरफ़ दौड़ रही थी।
डॉक्टर जब घर के अन्दर दाखिल हुआ तो मैं जाने क्यों, अपने आप ही चिल्ला पड़ा।
- निवेदिताSSSSS


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मैं निवेदिता के छोटे भाई की साथ उसके घर के अन्दर घुसा। उसके घर में एक अलग ही तरह की सौम्यता बिखरी हुई थी, जो मैंने पहले कहीं भी महसूस नहीं की थी।
एक अधेड़ औरत दरवाजे के पास ही धूप में बैठकर चावल में से कंकड़ बीन रही थी। मुझे लगा कि उसकी माँ होंगी। मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। वे मुझे देखकर चावल छोड़कर खड़ी हो गईं और मुझे रास्ता दिखाते हुए भीतर की ओर चल दीं। मेरा चमड़े का बैग उसके भाई के हाथ में था।
उसका कमरा घर का सबसे आखिरी कमरा था। उसमें से एक दरवाज़ा पिछली गली में खुलता था, जिस पर पीतल का बड़ा सा ताला चढ़ा हुआ था। वह लकड़ी के एक चौड़े तख़्त पर चादर ओढ़कर लेटी थी।
- उठ निवेद, डॉक्टर साहब आए हैं।
- कमाल हो तुम...- तुमसे मिलने के लिए इतना भी नहीं कर सकती क्या?उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था और उसकी लाल हुई आँखें जैसे मेरी आँखों में आ गई थीं।

उसकी माँ ने कमरे में घुसते ही कहा। पीछे पीछे मैंने और उसके भाई ने भी कमरे में प्रवेश किया। वह सच में उसी तरह पड़ी थी, जैसे हफ़्तों से बीमार चल रही हो।
- तुम तो अभिनय के लिए ही बनी हो निवेद। सरोजिनी में जान डाल देती हो।
एक दिन कालीघट पर बैठे हुए मैंने उससे कहा था। उन दिनों हम ज्योतिरिन्द्र बाबू के ‘सरोजिनी’ का मंचन कर रहे थे। बंगाल थियेटर में दिन भर रहने के बाद हम दोनों शाम को कालीघाट की सीढ़ियों पर बैठ जाया करते थे।
- नहीं शांतनु, मैं तो बंगाल के लिए बनी हूं, अपनी धरती को स्वतंत्र करवाने के लिए।
और तब मैं उसकी आँखों में वही आग देखा करता था, जिसमें मेवाड़ की बेटी सरोजिनी अपनी मिट्टी की मर्यादा बचाने के लिए जल गई थी।
अपनी माँ की आवाज सुनकर उसने आँखें खोलकर हमारी ओर देखा और धीरे-धीरे उठकर बैठ गई। उसके बाल उलझे हुए थे, आँखें लाल थीं और चेहरा उतरा हुआ था। उसका भाई तख़्त पर बैग रखकर चला गया। उसकी माँ ने मेरे लिए कुर्सी आगे कर दी। मैं कुर्सी खिसकाकर बैठ गया।
- कल शाम से बुखार में तप रही है डॉक्टर साहब।
उसकी माँ चिंतित स्वर में बोली तो उसने अपने चेहरे को और भी मायूस बना लिया। मैंने उसके माथे पर हाथ रखा। वह वाकई तप रही थी।
- यह सब कैसे किया?
उसकी माँ मेरे लिए पानी लाने गई तो मैंने हौले से पूछा।
- वो तुम छोड़ो। बुखार करने के बहुत तरीके हैं मेरे पास।
कहकर उसने अपनी चादर के अन्दर हाथ डाला और दो प्याज बाहर निकाले। मैं मुस्कुरा दिया।
- कमाल हो तुम...
- तुमसे मिलने के लिए इतना भी नहीं कर सकती क्या?
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था और उसकी लाल हुई आँखें जैसे मेरी आँखों में आ गई थीं।
तभी उसकी माँ पानी लेकर आ गईं। उसने जल्दी से प्याज फिर से छिपा लिए और मैंने उसका हाथ इस तरह पकड़ लिया, जैसे नब्ज़ देख रहा हूं।
- इन्हें बुखार है। आप कुछ पानी गर्म करके ले आइए। मैं दवा दे देता हूं।
मैंने बैग खोलकर दो-तीन शीशी निकाल ली।
- यह क्या ले आए हो तुम?
माँ के जाते ही उसकी चंचलता लौट आती थी।
- मेरे पास भी दवा बनाने के बहुत तरीके हैं।
मैं फिर मुस्कुरा दिया।
- बताओ ना। छोटू को थोड़ी मिठाई देकर तुम्हें डॉक्टर क्या बनवा दिया, अपने आप को डॉक्टर ही समझने लगे।
उसमें एक कमी थी। प्रश्न पूछने के बाद उत्तर सुनने के लिए बहुत उतावली हो जाती थी।
- पगली, यह तो बताशे पीस कर लाया हूं।
उसने आँखों ही आँखों में मेरी होशियारी को दाद दी। वैसे मेरी प्रशंसा वह कम ही करती थी और मैं उसके सामने अपनी तारीफ़ों के पुल बाँधता रहता था। वह चिढ़ जाती थी और ऐसे में वह और भी प्यारी लगती थी।
खैर....
- किसी काम से बुलवाया क्या?
मैं थोड़ा गंभीर हो गया।
- हाँ, महेन्द्र का तार आया है।
मैं और गंभीर हो गया। महेन्द्र तभी तार करता था, जब बहुत आवश्यक काम हो। इस बार संगठन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण आदेश आने वाला था।
- क्या लिखा है? मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था...
उसकी लाल आँखों में खून दौड़ रहा था।
- एक इंस्पेक्टर को मारना है।
मेरी आँखें फैल गई थीं। शायद उसकी आँखों ने तार पढ़ने के बाद यही प्रतिक्रिया दी हो।
- लेकिन क्यों? हमारे संगठन ने तो कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया – मैं कुछ रुका – न ही हत्या का।
- हाँ, नहीं लिया। लेकिन यही स्मिथ पंजाब में आठ क्रांतिकारियों की हत्या करके आया है।
मैं कुछ देर सोचता रहा। वह मेरे चेहरे पर आँखें गड़ाए रही।
- लेकिन...
- क्योंकि पंजाब को चोट लगेगी तो दर्द बंगाल को भी होगा।
वह मेरे बोलने से पहले ही मेरे मन की बात समझ जाती थी।
- तुमने तो अपना देश ही बदल लिया निवेद।
मैं मुस्कुरा उठा।
- मेरा शांतनु भारत का होगा तो क्या मुझे बंगाल में सिमटकर चैन मिल पाएगा?
गर्म पानी आ गया था। मैंने बताशे उसमें उड़ेल दिए और सारी मिठास अपनी मीठी निवेदिता को पिला दी।
मेरी प्यारी निवेदिता! इतनी सी उम्र में कितनी चिंताएं थीं उसके पास। मेरा मन किया कि चिल्लाकर घोषणा कर दूं कि हम आज़ाद हैं निवेद, लेकिन झूठ गले में ही कहीं फँसकर रह गया और मैं अपने आँसू छिपाने को उठकर चल दिया।
उसकी माँ पीछे से कुछ कहती रहीं, लेकिन मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। मैं भीतर ही भीतर चिल्लाता रहा।



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- कोई यह गीत बन्द करवाओSSS
मैं बिस्तर से उछल पड़ा। ऊँची आवाज में सुनाई दे रहे उस गीत से मेरे कान फटे जा रहे थे। डॉक्टर दौड़ कर मुझ तक आया और मेरी हालत देखकर विस्मित सा खड़ा रहा। शालिनी ने दौड़कर मुझे अपनी छाती में भींच लिया। मैं ज़िद कर रहे बालक की तरह छटपटाता रहा।
- कोई यह गीत बन्द करवाओSSS
- कौनसा गीत शांतनु?
वह बहुत प्यार से बोली।
- आमार शोनार बांग्ला आमार शोनार बांग्ला....
मैं अपनी ही धुन में बहुत विकृत स्वर में वही गीत जोर-जोर से गाने लगा ताकि मुझे कुछ और न सुनाई पड़े। मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली थी।
- आमि तोमाके भालोबाशि....
और मैं रुक नहीं सका, प्रतिक्रिया में वही गीत गाता रहा, जिसे मैं बन्द करवाना चाह रहा था।
- चिरदिन तोमार आकाश...
मैं साथ-साथ गा रहा था और रो रहा था।
- यह क्या है डॉक्टर साहब? यह तो बंगाली लग रही है ।
शालिनी ने घबराकर डॉक्टर से पूछ। मुझे सब सुन रहा था- अपनी आवाज, शालिनी की आवाज और तेज आवाज में बज रहा गीत भी।
- यह बन्द करवाओ शालिनी....
मैंने उसे और कसकर जकड़ लिया था।
- क्या शांतनु? कोई गाना नहीं गा रहा कहीं भी।
- आप बंगाली हैं?
डॉक्टर उससे पूछ रहा था और मैं गाता रहा।
- मोरि हाय, हाय रे....
- नहीं, पंजाबी हैं हम तो।
- आमि नयन जले भाशि....
मैं गाए जा रहा था।
- चुप हो जाओ शांतनु।
अब वह चिल्लाकर बोली। मैं चुप हो गया। वह मेरे चेहरे के आँसू पोंछने लगी। मैं हल्का हल्का सुबकता रहा।
- इन्हें बंगाली आती है?
मैंने रोना बन्द कर दिया और अपलक डॉक्टर को देखता रहा। मेरे पास उत्तर था, लेकिन मैं दे न पाया।
शालिनी ही बोली- नहीं, हमारे घर में तो किसी को भी बंगाली नहीं आती। लेकिन ये गा क्या रहे हैं?
- यह बांग्लादेश का राष्ट्रगान है।
डॉक्टर चिंतित स्वर में बोला और मैं उसका अर्थ नहीं समझ पाया।
कभी कभी साधारण से कथन समझ में नहीं आते।


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एक बार की बात है। तब पश्चिमी और पूर्वी बंगाल दुनिया के नक्शे पर नहीं थे। एक बहुत बड़ा राज्य था बंगाल, जिसमें से बाद में असम, उड़ीसा, बिहार, बांग्लादेश, पश्चिमी बंगाल और भी न जाने क्या क्या बना। उसी बंगाल के एक शहर कलकत्ता की तंग गलियों में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। नियमों परम्पराओं के पक्के उस ब्राह्मण परिवार में एक स्वतंत्र सी लड़की थी....निवेदिता।
असल में वह ऐसा दौर था, जब कोई किसी से प्यार नहीं करता था। कुछ लोग देश से प्यार करते थे, लेकिन वह भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से प्रेम का ही प्रतिबिम्ब था। माँएं अपने बच्चों की थालियों से रोटियाँ चुरा चुराकर खाती थीं। पिता अपने काम से लौटते ही बच्चों को पीटने लगते थे और सुबह तक पीटते रहते थे। भाई अपनी बहनों से नहीं बोलते थे और कई सालों तक श्रावण मास में पूर्णिमा नहीं आई थी।

और फिर बंगाल के कुछ लोग बेचैन होने लगे। उन्हें लगने लगा कि कुछ और लोग सोने की रोटियाँ खा रहे हैं या हीरे मोतियों के पलंग पर सो रहे हैं। समुद्र पार से आए अंग्रेज़ भी बहुत बेचैन नस्ल के थे। बीसवीं सदी के आरंभ में बंगाल को दो हिस्सों में बाँटने की बात चली और लोग अपने ही लोगों के साथ लड़ाई-लड़ाई खेलने लगे। उस समय निवेदिता उन्नीस साल की थी।
कुछ लोग कहते हैं कि प्यार एक बार ही होता है। लेकिन उन्नीस साल की निवेदिता को दो प्यार एक साथ हुए, अपने बंगाल से और मुझसे। कुछ लोगों को पागलपन की हद तक प्यार करना बहुत अच्छा लगता है। मेरी निवेदिता भी उनमें से एक थी। रंगमंच ने हमें मिलवाया था। हम युवाओं का एक संगठन थे, जो बाहर से सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था थी और अन्दर से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए बेचैन योद्धा।
वगैरह वगैरह....
इस तरह से कहानी सब कहते हैं। मैं भी वही कहानी कह सकता था, जो बार-बार लिखी जा चुकी है। लेकिन चूंकि मैं सच जानता हूं, इसलिए सब कुछ कहूंगा, एक एक बात कहूंगा।
असल में वह ऐसा दौर था, जब कोई किसी से प्यार नहीं करता था। कुछ लोग देश से प्यार करते थे, लेकिन वह भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से प्रेम का ही प्रतिबिम्ब था। माँएं अपने बच्चों की थालियों से रोटियाँ चुरा चुराकर खाती थीं। पिता अपने काम से लौटते ही बच्चों को पीटने लगते थे और सुबह तक पीटते रहते थे। भाई अपनी बहनों से नहीं बोलते थे और कई सालों तक श्रावण मास में पूर्णिमा नहीं आई थी। कहने को तो कुछ लोग प्रेमियों या प्रेमिकाओं से प्यार करते थे। लेकिन उन दिनों बागों में कोयलों ने कूकना बन्द कर दिया था, पपीहों ने गाना बन्द कर दिया था, वर्षों से किसी ने चाँदनी में चकोर को नहीं देखा था और यहाँ तक कि किसी नदी के पानी में किसी को अपनी छाया भी नहीं दिखाई देती थी, किसी आईने में किसी को अपना अक़्स नहीं दिखाई देता था। सजने संवरने के लिए लोग एक दूसरे की आँखों का उसी तरह इस्तेमाल करते थे, जैसे एक दूसरे का इस्तेमाल करते थे। लेकिन सबकी आँखें भी बिल्कुल पारदर्शी हो गई थीं, जिनमें रगें ही दिखती थीं और उनमें बहता खून।
बारह सौ साल पहले एक विद्वान ने लिखा था कि ये लक्षण उस स्थान पर प्रेम के घोर अभाव के हैं। सच में, बंगाल में उन दिनों कहीं प्यार नहीं था....या था तो सारा प्यार मेरी निवेदिता के छोटे से मन में समा गया था और यह बात मैंने अपने मन से नहीं गढ़ी है। कालीघाट पर एक दिन मैं उसके साथ था तो मैंने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा था।
.................हम युवाओं का एक संगठन थे, जो बेचैन थे....किसलिए, यह मैं भी नहीं जानता। और यदि हम किसी से प्यार करते होते तो सब नदियों का पानी उन दिनों कोरे कागज जैसा नहीं हो जाता।
निवेदिता बंगाल से अधिक प्यार करती थी या मुझसे, यह मैंने भी कभी नहीं पूछा।
और ऐसे अप्रेम के माहौल में एक दिन वह मेरे घर आ पहुंची। उस दिन आसमान के बादलों ने मिलकर पूरी धरती पर अँधेरा कर दिया था।
अँग्रेज़ी सरकार के मौसम विभाग ने बाद में बताया कि उस दिन पूरे शहर में पानी की जगह अंगारों की बारिश हुई। वह मुझ तक जीवित कैसे पहुंची, यह सोचकर मुझे बाद में भी अचरज होता रहा।
दरवाजा खोलते ही वह मेरे गले लग गई। उसका पूरा शरीर लाल था। शायद अंगारे छूकर निकल गए हों!
- शांतनु, अब हम देर नहीं कर सकते।
मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। वह मेरे पलंग पर बैठी थी।
- क्या हुआ?
मैं बादलों से हुए उस अँधेरे की गहराई का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा था।
- स्मिथ का काम आज ही पूरा करना होगा।
वह छुईमुई जैसी दिखने वाली लड़की जाने कहाँ से इतनी हिम्मत ले आती थी।
- मुझे तुम्हारी चिंता है निवेद।
वह मुस्कुरा दी।
- कहते नहीं तो क्या मैं नहीं जानती कि तुम्हें मेरी चिंता है?
- स्मिथ को मुझ पर छोड़ दो। तुम कल तक यहाँ से नहीं निकलोगी।
उस अंगारों वाली शाम में उसे बचाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। मुझे याद नहीं कि हुगली में मेरी छाया दिखाई देती थी या नहीं....
- नहीं, महेन्द्र ने यह काम मुझे सौंपा है।
- मैं तुम्हें नहीं खो सकता निवेद....
और मैं उस कथन के बाद बिल्कुल खाली हो गया था।
- तो हम दोनों चलते हैं।
वह बहुत देर बाद बोली। तब, जब मुझे लगने लगा था कि वह नहीं बोलेगी तो वह अपने मन के सारे प्यार को समेटकर बोली थी।
मैं पुरुष नहीं होता तो उस क्षण रो देता। मैं उससे अधिक प्यार करता था या देश से, यह मैंने स्वयं से भी कभी नहीं पूछा।
रात होने लगी थी। कुछ देर बाद बरसात भी थम गई।
- शहरयार हमारे लिए खतरा है।
अब वह खिड़की पर थी और मैं पलंग पर बैठा था।
मुझे नहीं मालूम कि कितने लोग जानते होंगे, लेकिन शहरयार ही था, जिसने पहली बार मुसलमानों को अलग बंगाल की माँग से जोड़ा था और पूर्वी बंगाल का पूरा आंदोलन धर्म के रंग में रंग गया था।
मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद भी उसने कुछ कहा, जो मुझे याद नहीं। मेरे मन में तो उस शाम आशंकाएँ ही गरज बरस रही थीं।
और कुछ देर बाद मैं लोहे के उस जंग लगे पलंग पर, जिस पर बड़े बड़े पीले फूलों वाली चादर बिछी हुई थी और जो हरे रंग वाली दीवार से सटकर बिछा हुआ था, उसी जंग लगे पलंग पर मैं सो गया। मैं, जो वैसे देर तक जागता रहता था, उस शाम जाने क्यों, जाने कैसे सो गया!
वैसे भी प्यार करने वाले लोग बहुत झूठे होते हैं। वे जितने वचन देते हैं, उससे ज्यादा तोड़ देते हैं।
मुझे और निवेदिता को उस रात साथ जाना था, लेकिन मैं सो गया। वह अकेली चली गई।
बाद में मेरे कमरे ने मुझे बताया कि वह खिड़की के पास खड़ी होकर देर तक सोचती रही थी। फिर वह उस अँधेरी रात में बाहर चली गई। मैं सोता रहा।
मैं, जिसे उस रात स्मिथ को मारने के लिए निवेदिता के साथ जाना था, लापरवाह होकर सोता रहा।
वह कुछ देर बाद लौटी। मेरे घर के दरवाजे पर खड़ी होकर वह देर तक मुझे प्यार से देखती रही। मेरी अभागी पलकें फिर भी नहीं खुलीं। उसने भी मुझे नहीं जगाया।
वे, जिनके प्रतिबिम्ब पानी में दिखाई देते हैं, वे, जो प्यार करते हैं, अक्सर वचन तोड़ देते हैं।
और वह मेरे घर के दरवाजे पर बाहर से पीतल का वही ताला लगाकर चली गई, जो उसके कमरे के पिछले दरवाजे पर लगा हुआ था। पीतल का वह ताला निवेदिता अपने साथ क्यों लाई थी, मैं नहीं जानता।
मैं ऐसे सोता रहा, जैसे उस शाम जो शरबत उसने मुझे पिलाया था, उसमें किसी ने अफीम मिला दी हो।


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शहरयार सच में खतरा था। उसके सैंकड़ों भक्त थे। उस रात वह स्मिथ के बंगले पर ही था। अब मैं वे बातें भी बता रहा हूं जो मेरी निवेदिता ने ही देखी लेकिन मुझे लगता है कि मैं भी वहीं था।
स्मिथ और शहरयार उस बंगले के लॉन में बैठकर उस रात शराब पी रहे थे। निवेदिता वहाँ पहुंची तो उसके हाथ में राँची की बनी हुई एक स्वदेशी पिस्तौल थी। उसने उनके सामने पहुंचकर पिस्तौल तान दी।
उस क्षण क्या सोच रही होगी निवेद?
उसकी साड़ी के पल्लू से मेरे घर के दरवाजे पर लगे हुए ताले की चाबी बंधी हुई थी। निवेद उस घर में सो रहे ‘शांतनु’ को सोच रही होगी।
निवेद बंगाल में हँसते-गाते-झूमते-खेलते बच्चों को सोच रही होगी।
निवेद भारत को सोच रही होगी।
हाँ, निवेद बंगाल को नहीं, भारत को सोच रही थी।
उसने पहली गोली शहरयार पर चलाई। राँची की उस स्वदेशी पिस्तौल से दूसरी गोली नहीं निकली।
कुछ साल बाद बंगाल जब टुकड़े टुकड़े हो गया तो उसमें से बिहार भी बना। हैरीसन रोड वाला बकबक पंडित बिहारी था। उस रात के पन्द्रह साल बाद जब वह डाकुओं के एक हमले में मरा तो उसने अपने आखिरी क्षणों में भविष्यवाणी की थी कि एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे और बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा.....
बकबक पंडित की कितनी भविष्यवाणियाँ सच हुईं और कितनी झूठ, इस पर कभी शोध नहीं किया गया लेकिन राँची की वह पिस्तौल शायद उसी बेकार होने की परम्परा का आरंभ थी। निवेदिता ने शहरयार को मार दिया, लेकिन वह स्मिथ को नहीं मार पाई।
उस दिन पूर्णिमा थी। आकाश तब तक साफ हो गया था। निवेदिता ने तीन बार कोशिश की और फिर पिस्तौल फेंक दी। अंग्रेज़ी सरकार के काले सिपाहियों ने उसे घेर लिया था। स्मिथ का नशा उतर गया था और वह अपनी कुर्सी के पीछे छिपा बैठा था। शहरयार लहूलुहान होकर ज़मीन पर पड़ा था।
निवेदिता ने अपने हाथ फैला लिए और अपना गर्वीला चौड़ा उजला माथा उठाकर पूरे चाँद की ओर देखा।
उसे चाँद बहुत प्यारा था। वह बहुत बार रात-रात भर छत पर लेटी चाँद को ही देखती रहती थी।
- तुम कहो तो किसी रात चाँद तोड़ लाऊँ तुम्हारे लिए।
मेरी बातें उसके कानों में गूँज उठीं और वह आँखें बन्द करके मुस्कुरा दी।
उसे पकड़ लिया गया। मैं अफीम पीकर सोता रहा।
गलियों में कुत्ते इतने रोए कि लगने लगा, महाभारत के युद्ध का आर्त्तनाद वहाँ सुनाई दे रहा है। सड़कों पर काली बिल्लियों की कतारें लग गईं और वे सुबह तक एक एक करके हुगली में कूदकर आत्महत्या करती रहीं। कलकत्ता के आसपास के सब खेतों में आग लग गई और आसमान के आँसू भी अनवरत बरसते रहे। न आग बुझी, न आँसू थमे।



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उस रात चाँद आधी रात को ही बुझ गया था। आकाश इतना रोया कि बंगाल में एक महीने तक बाढ़ आई रही। गलियों में कुत्ते इतने रोए कि लगने लगा, महाभारत के युद्ध का आर्त्तनाद वहाँ सुनाई दे रहा है। सड़कों पर काली बिल्लियों की कतारें लग गईं और वे सुबह तक एक एक करके हुगली में कूदकर आत्महत्या करती रहीं। कलकत्ता के आसपास के सब खेतों में आग लग गई और आसमान के आँसू भी अनवरत बरसते रहे। न आग बुझी, न आँसू थमे। सब घरों, पुस्तकालयों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों की अलमारियों और मेजों से सारी किताबें निकलकर सड़कों पर आ गईं अपने पन्ने फाड़ने लगीं। उस रात कोई किताब साबुत नहीं बची थी। बाद में कलकत्ता वाले पूरा साहित्य कहाँ से लाए, यह मैं नहीं जानता। कलकत्ता की सब घड़ियाँ टूट गईं और जो दो-चार नहीं टूट पाईं, उनकी सुइंयाँ पीछे को दौड़ने लगीं। इतना अँधेरा हो गया कि सब बच्चे नींद से जग गए और जोर-जोर से रोने लगे।
लेकिन सिर्फ़ बच्चे जगे। बाकी सब मेरी तरह अफीम पीकर सोते रहे। मैं अगली सुबह उठा और फिर जब तक जिया, एक क्षण के लिए भी आँखें नहीं मींच सका। पागलपन और अनिद्रा का एक पहाड़ जैसा साल गुजारकर मैं मर गया।
नहीं नहीं, मैं और घुमा-फिराकर नहीं कहूंगा। मुझे साफ-साफ कहना ही होगा, चाहे वह सच कितना भी भयानक हो, चाहे वे शब्द कितने भी कठोर हों, चाहे वह सच आज तक किसी जुबान ने कहा हो और किसी कान ने न सुना हो।
उस रात मेरी निवेदिता का बलात्कार हुआ और फिर उसे गोली मार दी गई।

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- हैरीसन रोड कलकत्ता की पहली सड़क थी, जिस पर बिजली से रोशनी की गई थी। 1890 था शायद वह। जगदीश चन्द्र बसु ने उसके लिए बहुत काम किया था....
डॉक्टर नशे की कुछ गोलियाँ देकर चला गया था, लेकिन वे मुझ पर कोई असर नहीं कर पाईं। मैं बड़बड़ाता रहा और बेचारी शालिनी मेरा सिर अपनी गोद में रखकर रोती रही। अब वह मुझे चुप रहने को भी नहीं कह रही थी और मैं किसी अज्ञात अंतर्वेदना से पीड़ित होकर कुछ भी बड़बड़ाए जा रहा था।
शालिनी ने फिर से मोबाइल फ़ोन उठाया। उस पर अंग्रेज़ी में ‘नोकिया’ लिखा हुआ था। मुझे केवल ‘एन’ ही दिखता रहा।
- उस रात हुगली गायब हो गई थी शालिनी....और फिर निवेदिता ही वह नदी बन गई थी, जिसमें डूबकर बिल्लियों ने आत्महत्या की....
- मम्मी, शांतनु पागलों जैसी बातें कर रहे हैं।
वह रोते-रोते ही फ़ोन पर बोली।
- कुछ भी कहे जा रहे हैं। आप किसी निवेदिता को जानती हैं?
मै जानता हूं कि उधर से उत्तर नकारात्मक ही आया होगा।
- और भी न जाने क्या क्या...कलकत्ता, हैरीसन रोड, हुगली....
उसने अपनी नर्म हथेली से मेरी घबराहट से फैली हुई आँखें बन्द कर दीं। मुझे लगा कि मैं अन्धा हो गया हूं।
- क्या? पिछला जन्म?
वह चौंककर बोली। अब मुझे उधर की आवाज़ भी सुनने लगी थी। उधर से कोई बुजुर्ग महिला बोल रही थीं।
- इसे पहले भी ऐसे दौरे पड़े हैं, लेकिन तब निवेदिता का नाम तो नहीं लेता था।
- लेकिन मम्मी, मुझे तो कभी किसी ने कुछ भी नहीं बताया।
मैंने अपने अन्धेपन में भी अनुमान लगाया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई होंगी।
- तब तो यह छ: सात साल का ही था। उसके बाद कभी कुछ नहीं हुआ।
- लेकिन मैं ये पुनर्जन्म जैसी चीजें नहीं मानती। यह कोई मानसिक रोग है। हम इसका इलाज़ करवाएंगे....
वह काँपते स्वर में बोल रही थी। उधर से पहले उन बुजुर्ग महिला का लम्बा मौन और फिर दृढ़ स्वर सुनाई दिया- यह हैरीसन वैरीसन कैसे जानेगा बेटी? आखिर छ; साल का बच्चा कैसे जानता था.....और वह सड़क तो बहुत पुरानी है। उसका नाम भी बदल गया है अब। हमने उस वक़्त भी पता किया था....आज़ादी के बाद उसका नाम महात्मा गाँधी रोड कर दिया गया है....
- मैं नहीं मानती। यह आपका वहम है मम्मी....
उसने फ़ोन काट दिया।
मेरी अन्धी आँखों को लगा कि एक सफेद मखमली दुपट्टा उन्हें सहला रहा है। मैं अपने शरीर की पूरी शक्ति इकट्ठी करके चिल्लाया- निवेदिताSSSS
और बहरा हो गया।

Saturday, February 23, 2008

मम्मी के सपने ..

उफ्फ्फ्फ़ !!!"पापा जी इसको इस वक्त यह राजकुमारी की कहानी मत सुनाओ !! इसके दिमाग में फ़िर यही घूमता रहेगा ,इतनी मुश्किल से अभी इसको परीक्षा के लिए याद करवाया है ..आप यह पेपर लो इस में इसके जी .के कुछ सवाल हैं खेलते खेलते इसको वही रिवीजन करवाओ !! ""पेपर अपने ससुर को दे कर वह सनी को थपथपा के वहाँ से जाने लगी तो सन्नी बोला "मम्मा प्लीज़ सुनाने दो न कहानी ...बस थोडी सी सुन के फ़िर रिवीजन कर लूँगा ..""

हाँ ..हाँ बहू इतना बच्चे के पीछे नही पड़ते ..अभी तो पढ़ कर उठा है .थोडी देर इसके दिमाग को फ्रेश होने दो .फ़िर इसको जी .के भी पढ़ा दूंगा!

"नही नही "पापा जी आप इसको यही करवाए बस ..यह अभी नही समझेगा तो इसका भविष्य बेकार है बिल्कुल .वह सामने वाले राधा जी की बेटी को देखिये उसके हाथ से तो किताब छूटती नही और एक यह है कि कह कह के इसको पढाना पढता है!

मैंने नेट चालू किया है वहाँ से से भी देखूं कोई नई जानकारी मिलती है तो प्रिंट आउट ले लेती हूँ उसके ...यह कह कर वह सन्नी को घूरती हुई वहाँ से चली गई ..!!

और सन्नी बेचारा फ़िर से जी. के प्रश्न सुनाने में लग गया ...अलका के ससुर माथा पकड के बैठ गए और सोचने लगे कि यह बहू भी हद कर देती है ...पूरा घर लगा है सन्नी को पढाने में अभी छठी कक्षा का ही तो छात्र है पर जब देखो "किताब -किताब और पढ़ाई " ...अरे भाई बच्चो का चहुँमुखी विकास होना चाहिए ...पर कौन समझाए इनको ..!!

उधर सन्नी दादा जी को सोच में डूबा देख वहाँ से भाग के खेल में लग गया ..उसका बस चलता तो वह सारा दिन उड़ती चिडिया के संग उड़ता रहता .पर मम्मी से तो कोई भी पंगा नही लेता ..पापा ही है जो कभी कभी मम्मी को कहते हैं कि इतना पीछे मत पढ़ा करो यूं ..यूं भी भला कहीं पढ़ाई होती है ...पर न जी ..मम्मी कब सुनने वाली हैं ..उनके सपने तो आसमान को छूते हैं !!!

सन्नीईईईई !!!!!!!तू फ़िर खेल में लग गया ..हे भगवान! मैं क्या करूँ इस लड़के का ..?? इधर आ ....देख मैंने तेरे सारे नोट बना दिए हैं जी. के कम्पीटिशन की बहुत सी जानकारी आज मुझे नेट से मिल गई है, मैंने सब एक जगह कर दी है ..बस अब तू ध्यान से इसको पढ़ ..."

और उधर सन्नी बेचारा हैरान परेशान उन नोट्स को देख रहा था कि इनको कैसे दिमाग में घुसाए ? यह मम्मी तो मुझे न जाने क्या बनाना चाहती है ...उसको नोट्स एक बहुत भयंकर राक्षस से दिख रहे थे ....जो उसको चारों तरफ़ से घेरे हुए न जाने किसी दूसरी ही दुनिया के नज़र आ रहे थे .पर उसको इनो याद करना ही होगा नहीं तो
आफत आ जायेगी ..और वह उनको रटने की कोशिश में फ़िर से जुट गया !

इधर अलका सोच रही थी कि अभी तक तो उसका बेटा बिल्कुल उसके कहे अनुसार चल रहा है वह ख़ुद पढाती है ,उसका सारा काम नियम से करवाती है . समय से पोष्टिक खाना ,उठाना सब समय से हो रहा है ..अभी यह समय है उसको इसी सांचे में ढालने का ...आज कल तो १००% मार्क्स आने चाहिए हर चीज में .तभी आगे बढ़ा जा सकता है ..और मेरा सन्नी किसी से कम नही रहेगा ...!!इसको मैंने पहले स्कूल लेवल पर फ़िर नेशनल लेवल पर और फ़िर इंटरनेशनल लेवल पर लाना है और वह ख्यालो में ही सन्नी को उन ऊँचाइयों को छूते देख रही थी जहाँ वह देखना चाहती थी !!


परीक्षा के मारे घर भर में जैसे आफत थी ..हर कोई सन्नी को ज्ञान बंटता रहता और वह बेचारा सन्नी सोचता कि यदि वह फर्स्ट नही आया तो न जाने क्या होगा उसका ..और उसकी मम्मी के सपनो का ..यही सोचते सोचते उसकी हालत ख़राब होती जा रही रही थी ..न भूख लग रही थी और सोना तो वह जैसे भूल ही चुका था ,दिमाग की नसे ऐसे की जैसे अभी बाहर आ जायेगी..

परीक्षा में दो दिन थे बस अब ..शाम को पापा आए तो उन्हें रोज़ की तरह सन्नी उछलता कूदता नज़र नही आया ..उसके दादा जी भी कुछ चिंतित से दिखे ..कुछ भांप कर उन्होंने अलका को आवाज़ लगाई कि आज यह शान्ति कैसे हैं और सन्नी कहाँ है ?

"अपने कमरे में है " परसों से उसके पेपर शुरू हैं न ,तो कुछ नर्वस सा है ..अलका बोली

अरे ..नही बहू मुझे तो दोपहर से उसका बदन गर्म लग रहा है ..दादा जी चिंतित हो कर बोले

नही ..नही पापा जी आपको वहम है ..वह बस कुछ नर्वस है ..आप उसको अब बुखार है कह के सिर पर मत चढाओ !!

अरे मुझे देखने दो ..पापा यह कहते हुए सन्नी के कमरे में आ गए ..सन्नी को हाथ लगाया तो वाकई में उसको तेज बुखार था
तुम भी न बच्चे के पीछे हाथ धो के पड़ जाती हो ..कर लेगा पढ़ाई भी ..और जल्दी से डॉ को फ़ोन लगाया ..उधर सन्नी बुखार में बडबड़ा रहा था कि क्या वह फर्स्ट अब आ पायेगा ..विज्ञान कोई ऐसा चमत्कार नही कर सकता क्या ????????

Friday, February 22, 2008

समय के शिल्प में एक प्रेम का कथ्य

लड़का बार-बार लड़की का फोन मिला रहा था कि यह खुशखबरी सबसे पहले उसे सुना सके पर उसका फोन बिज़ी था। आज एक लम्बे समय के बाद लड़का खुश था।

´´ मैं हमेशा लड़की बने रहना चाहती हूं। ´´ लड़की अक्सर तब कहती जब सुरमई शाम उसके बालों में खो चुकी होती और लड़का उसके बालों में उसे ढूंढ रहा होता। जगह कोई भी हो सकती थी, लड़के के घर का टेरेस या किसी पब्लिक पार्क का कोई कोना।
बदले में अक्सर लड़के के चेहरे पर एक नटखट मुस्कान उतर आती और वह झुककर लड़की के कान में कुछ कहता कि लड़की का चेहरा शर्म से लाल हो जाता। वह तुनक जाती और थोड़ा मान मनौवल करने पर मान जाती। इस बार जब वह बातों को सिरा लेकर दौड़ती तो लड़का उसे ढीला छोड़ देता।
´´ और तुम हमेशा लड़के बने रहो। ´´ यह वाक्य भी उन दिनों उसका पसंदीदा था।
´´ देखो, अमूमन मैं ऐसा कहता नहीं हूं। ´´ लड़का उन दिनों अमूमन हर बात की शुरूआत में ऐसा ही कहता था। ´´ पर जैसा तुम सोचती हो दुनिया वैसे नहीं चलती। हर लड़की फिल्मों,गीतों,कहानियों, कविताओं और सैर सपाटों से आगे जाकर कुछ जिम्मेदारियां लेती है जैसे शादी,फिर बच्चे, फिर उनकी परवरिश।´´
´´ नहीं, मैं नहीं चाहती कि मैं खूसट औरतों की तरह चालीस में जाउं तो मेरे आस पास जेब खर्च के लिए सिर खाने वाले टीनेजर बच्चे हों और मैं समय निकाल कर टीवी के सड़े सास बहू वाले धारावाहिक देखूं। मेरा बदन थुलथुल हो जाए ओर मैं कोई कविता सुनूं तो कुछ देर अपना सिर खुजलाउं फिर किचेन में जाकर छौंकन बघारन करूं। मैं बूढ़ी होने पर भी इतनी क्षमता चाहती हूं कि कविताएं पढ़ और समझ सकूं। ´´
ये एक कठिन निर्णय के दिन थे जिसमें लड़का कभी खुद को मज़बूत पाता तो कभी लड़की को। लड़का परेशान और विचलित होने पर ज़िंदगी पर कविताएं लिखता जैसे लडकी के साथ लम्बा समय बिताने पर बादलों, नदियों और पहाड़ों के बहाने लड़की पर लिखा करता था। लड़की उसकी कविताओं की प्रथम श्रोता थी और प्राय: अंतिम भी। चूंकि कविताओं की प्रेरणा लड़की थी, उसका हर भाव कविता में दर्ज़ होता।
लड़की एक धैर्यवान और अच्छी श्रोता थी। जिस दिन कोई कविता लड़की को बहुत ज्यादा पसंद आ जाती वह लड़के के लिए एक सुनहरे मौके की तरह होता। वह चुम्बन से भी आगे जा सकता था और लड़की ना नुकुर नहीं करती थी।
लड़की कविताओं को किसी पत्रिका में छपवाने के लिए ज़िद करती ताकि वह दुनिया को बता सके कि वह कितनी ऊँची चीज़ है। लड़का हर बार मना कर देता। वह कहता कि लड़की के कान उसके लिए हर पत्रिका से बढ़ कर हैं जिसकी प्रतिक्रिया वह उसकी आंखों में देख लिया करता है। कान की तुलना उसे खासी बायोलॉजिकल और अनरोमाण्टिक लगती पर अचानक में उसे कोई और बेहतर उपमा सूझती नहीं थी।
लड़की यूं तो तुनकमिज़ाज़ नहीं थी पर लड़के के सामने खूब दुलराती और छोटी बातों पर भी अक्सर तुनक कर मुंह फुला लेती। लड़का बाधाओं में से अवसर ढूंढ़ निकालने में अभ्यस्त हो गया था। लड़की एक दो बार सॉरी बोलने पर नहीं मानती तो वह उसे पीछे से अचानक उसे पकड़ लेता और उसकी सुराहीदार गर्दन ( हांलांकि यह उपमा भी उसे खासी इंफेक्शन वाली लगती थी क्योंकि उसे अपने कमरे में रखी सुराही याद आ जाती) पर अपने होंठ रख कर बोलता, ´´ सॉरी.........।´´ इस युक्ति से लड़की दस में से नौ मर्तबा मान जाती।
लड़का बहुत कोशिशों के बावजूद बारोज़गार नहीं हो पाया। लड़की बहुत विरोधों के बावजूद अपने घरवालों को अपनी शादी तय करने से नहीं रोक पायी।
दोनों सच्चे प्रेमियों ने साथ आत्महत्या करने की सोची। ऊँचाई से नदी में कूद कर मरने में लड़की रज़ामंद थी पर लड़का उंचाई से खौफ़ खाता था। लड़के को हाथ पकड़ कर ट्रेन के सामने कूद जाने का विचार खासा रोमांचक लगा पर लड़की इससे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती थी। वह ऐसी मौत नहीं मरना चाहती थी जिसमें शरीर क्षत-विक्षत हो जाए।
´´ फांसी लगाकर.......?´´ लड़के ने काफी सोच विचार कर पूछा।
´´ उंहूं..... उसके लिए ऐसा कमरा चाहिए जिसमें दो कमरे हों।´´
लड़के की नज़र में कोई ऐसा कमरा नहीं था। था भी तो उन दोनों को उसमें मरने की सहूलियत नहीं मिलने वाली थी।
´´ आग......?´ लड़की ने प्रस्ताव दिया।
´´ और तुम्हारा चेहरा....?´´ प्रस्ताव वापस।
दोनों चुप हो गए। समन्दर की लहरें दोनों के पांवों को छूकर वापस जा रही थीं। भुने हुए चने खत्म हो गए तो लड़के ने लिफ़ाफ़ा फेंक दिया और टॉपिक भी बदल गया। लड़का उन दिनों ग़म, जाम और ज़िंदगी पर दर्दभरी कविताएं लिख रहा था। लड़की सुनती और एक दर्दभरी और निरर्थक मुस्कान बिखेरती। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें उन दिनों हमेशा पनियायी रहने के कारण और भी बड़ी लगने लगी थीं। जैसे उसे आने वाले वक्त में खूब आँसू खर्च करने हों, लड़की उन दिनों सारे आंसू बचाने लगी थी।
इन सब घटनाओं के कुछ समय पहले तक लड़के के दोस्त अगर लड़की के बारे में कुछ अश्लील, जो उन दिनों उनका प्रिय काम था, बातें करते तो लड़का अपने दोस्तों पर हाथ तक उठा देता। कुछ दोस्त अगर थोड़े गंभीर तरीके से उसे और लड़की को लेकर मांसलता की बात, जिसे वह ऐसी-वैसी बात कहता था, करते तो वह गंभीर हो जाता और शून्य में घूरता हुआ कहता, ´´ मैं उससे सच्चा प्रेम करता हूं। उसे कभी इस नज़र से नहीं देखता।´´
यह कहते हुए उसके चेहरे पर रात की ओस में धुली पत्तियों का ताज़ापन और तेज उतर आता। दोस्त उसे अपनी विराट्ता में लघु (कभी-कभी तो वह उन्हें वासना में डूबे कीड़े तक कह डालता) लगते। प्रेम उसके लिए गुलाब की सुगन्धि की तरह था। वह जब भी लड़की की हथेलियों को चूमता तो खुद को देवदूत महसूस करता। कुछ अनुभवी दोस्तों ने उसे सलाह दी कि वह लड़की के होंठ चूमे। वह हिचकिचाता था। वह होंठ चूमना चाहता था पर पहल करने से खौफ़ खाता था। होंठों को चूमना उसे आंखों को चूमने से ज्यादा उत्साहजनक लगता था और इसमें शारीरिक संबंध बनाने जैसी भौतिकता भी नज़र नहीं आती। शेष इतिहास रह गया।
जो दिन उसने लड़की के होंठ चूमने के लिए चुना वह एक अनोखा दिन था और उसकी शाम और भी अनोखी थी। अपने कमरे के मद्धम अंधेरे में जब उसने एक लंबी अंदरूनी जद्दोजहद के बाद लड़की को चूमना शुरू किया तो लड़की आश्चर्यजनक रूप से उससे ज्यादा उत्साहजनक तरीके से उसका साथ देने लगी। फिर उसके हाथ ऐसी-ऐसी हरकतें करने लगे जिसका खाका खींचने पर उसके दोस्त उससे मार तक खा जाया करते थे। कुछ देर में वह दोनों वह सब कुछ कर रहे थे जो उसकी नज़र में प्रेम की महानता के आगे क्षणिक आनंद की संज्ञा पाता था पर इसमें अपूर्व सुख था।
लड़के के जीवन और कमरे में पहली बार दो देहों की जुगलबंदी का मधुर संगीत बज रहा था।
खुद को देवदूत मानने वाला लड़का उस दिन के बाद से अचानक खुद को एक इंसान मानने लगा, एक ज़िम्मेदार इंसान। अचानक बैठे-बैठे मुस्करा देता और अक्सर समझदारों की तरह दुनियादारी की बातें करता। दोस्त उसे नादान और भोले बच्चे लगते और जिन बातों पर पहले दोस्तों पर कुढ़ता चिल्लाता था, उन पर लजीली मुस्कराहट बिखेरता। बच्चों का रोना उसे अब उबाउ नहीं लगता। युगल गीतों में एक अजीब सा रस मिलता और किसी दूसरी भी लड़की को देखने पर लड़की की ही याद आने लगती।
लड़का किशोर लड़कों को बाप की नजर से देखने लगा हालांकि उम्र का अन्तर अधिकतम 7-8 वर्ष ही होता। कमसिन किशोरियों को बच्ची कहने लगा। जबकि उसके कई दोस्त अभी भी किशोरियों को देखते हुए मन के घोड़े खुले छोड़ देते थें और वह खुद भी कुछ समय पहले तक कई चुनिंदा किशोरियों को प्रेम की उच्छृंखल कल्पनाओं के चश्मे से देखा करता था।
देहों के मिलन की वर्जना एक बार टूटी तो टूटती गई। लड़का आदमी से धीरे-धीरे पति हो गया और लड़की पत्नी हालांकि शादी अभी दूर की कौड़ी थी। दोनों आपस में अपने नितांत रहस्यमय और गोपनीय कोने खोलने लगे। लड़का लड़की की शारीरिक समस्याओं के लिए चिंतित रहता और उसकी माहवारी की तिथि उसे हमेशा याद रहती। लड़की मोटा होने का कोई न कोई नुस्खा लड़के को रोज़ बताती और अच्छी सेहत के लिए सुबह जल्दी उठने की सलाह देती। जिन बातों को छिपाकर लड़का लड़की के सामने स्मार्ट बना रहता था, उसे अब बिना हिचक लड़की से बाँटता। लड़की भी। लड़का उसे बताता कि उसके बाल आजकल बहुत तेजी से झड़ रहे हैं और उसे डर है कि कहीं वह बहुत जल्दी टकला न हो जाए। लड़की उसे बताती कि आजकल उसकी गैस बहुत परेशान कर रही है और पिछला दाँत सड़ गया है जिससे बदबू आ रही है।
उन दोनों की एक अदृश्य दुनिया थी, सुंदर, निश्चिंत और निश्छल। इस बदसूरत, भयग्रस्त और चालबाज़ी की दुनिया के बिल्कुल समानांतर। वहां भी सब कुछ वैसा ही था जैसा यहां चलता है, सिर्फ कुछ मुख्तसर से फ़र्क थे। यहां भरोसा था, उम्मीद थी और सपने थे। भाषा में शब्द कम और खामोशियाँ ज्यादा थीं। उनकी दुनिया में वे दो ही थे और बिना किसी और की ज़रूरत के पूरी तौर पर मुकम्मल थे।
जब लड़की की शादी तय होने लगी तो लड़के ने कई जन्म लिए। उसकी सबसे कीमती चीज़ उससे छीनी जा रही थी और वह असहाय था। मरने से पहले भागना तय हुआ पर लड़की शुरूआती रज़ामंदी देकर पीछे हट गई।
´´ मैं इतना गिरा और स्वार्थी क़दम नहीं उठा सकती।´´
लड़का भी आश्वस्त हुआ। जब से उसने भागना तय किया था, उपयुक्त शहर/जगह के बारे में सोच कर दिमाग की नसें फटी जा रही थीं। खाली और फटी जेब जीभ निकाल कर उससे पूछती, ´´दो दिन,चार दिन, उसके बाद क्या ?´´
मगर लड़की उसके लिए जीने का एकमात्र संबल थी। उसके बिना वह कैसे जीएगा ? उसका वज़न उसकी लम्बाई के हिसाब से काफी से कम है, फिर भी लड़की उससे प्रेम करती है। उसकी शक्ल और नैन-नक्श औसत से भी बहुत नीचे हैं, फिर भी लड़की उसे चूमती है। उसके बाल तेजी से झड़ रहे हैं और वह अठाइस का होकर भी बेरोज़गार है, फिर भी लड़की उसके साथ हमबिस्तर होती है। वह लड़की के साथ बहुत खुश है। लड़की उसके साथ बहुत संतुष्ट है।
लड़का उन दिनों बुद्धू सा नज़र आने लगा था। उसे हर वक्त लगता कि कोई चमत्कार होगा और वे दोनों इस जाल से निकलने का रास्ता पा लेंगे। अक्सर उसे यह भी लगता कि लड़की कोई रास्ता अंतत: इजाद कर लेगी जिससे दोनों एक हो सकेंगे।
मगर उनकी दुनिया की तुलना में इस दुनिया में विकल्प कम थे। इस कारण आशाएं कम थीं, स्वप्न कम थे और खुशियाँ कम थीं।
दुख ज्यादा थे। लड़की की मां बुरी तरह बीमार पड़ गई। इस प्रेम को बलिदान करने के निर्णय ने जितना लड़के को तोड़ा उससे कहीं ज्यादा लड़की को। लड़की ने कहीं न कहीं एक मरी सी उम्मीद बचा रखी थी कि लड़का एक दिन अचानक आकर कहेगा कि मेरी नौकरी लग गई है। क्यों न हम यहां से कहीं दूर भाग चलें।
जब शादी की तिथि निश्चित हो गई तो दोनों ही अचानक शिथिल पड़ गए। लड़का दिन भर कमरे में निढाल पड़ा रहता और लड़की शादी के माहौल में भी मौका निकाल, बहाना बना लड़के के कमरे पर भाग आती। फिर दोनों एक दूसरे से इस तरह चिपकते मानो कभी अलग नहीं होंगे। दो देहों के मधुर संगीत के साथ दो आवाज़ों का रोना भी शामिल होता। लड़की लड़के को चुप कराती, लड़का लड़की को और इस सम्मलित प्रयास में दोनों के रोने की आवाज़ें मिलकर खासी बेसुरी सुनाई देतीं।
´´ मैं शादी के बाद तुम्हारे बच्चे की मां बनना चाहती हूं।´´ लड़की ने एक दिन रोते-रोते कहा। दोनों एक दूसरे में खोए थे।
लड़का चौंक गया। लड़की उसे कितना चाहती है। वह उसका मुंह चूमने और सिर थपकने लगा जैसे सांत्वना दे रहा हो।
´´ नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी। शादी मेरी चाहे जिससे हो रही है, प्रेम मैं हमेशा तुमसे करती रहूंगी। इस प्रेम की याद के लिए प्लीज़...... मेरा पहला बच्चा तुम्हारा होगा।´´ लड़की बेतहाशा रो रही थी।
लड़का उसे चुप कराने लगा।
´´ शादी के बाद हमारा न मिलना ही ठीक होगा। मैं चाहूंगा कि तुम एक आदर्श और वफ़ादार पत्नी बनो, साथ ही एक आदर्श माँ।´´ लड़के को आश्चर्य हुआ कि उसने यह सब कैसे कहा। वह ऐसा कुछ कहना बिल्कुल नहीं चाहता था।
´´ तुम्हारे जैसे अच्छे सब क्यों नहीं होते ?´´ कह कर रोती लड़की ने उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में भर लिया और ताबड़तोड़ चूमने लगी।
´´क्योंकि तुम्हारे जैसे भोले और प्यारे सब नहीं होते।´´ और लड़का भी इस संवाद के साथ उसका साथ देने लगा।
जिस दिन लड़की के घर बारात आई, लड़के के कमरे पर घटाएं आईं और टूट कर बरसीं। लड़का अपने एक क़रीबी दोस्त के साथ, जो लड़की की शादी तय होने के बाद से और भी क़रीबी हो गया था, रात भर शराब पीता रहा और रोता रहा। दोस्त उसे रात भर समझाता रहा कि रात के बाद सवेरा होता है, किसी की वजह से ज़िंदगी खत्म नहीं होती, गिर कर उठना ही ज़िंदगी है वग़ैरह वग़ैरह।
लड़का कई दिनों तक अवसाद में रहा। जब वह सुबह उठता तो उसे लगता जैसे उसका कोई करीबी अभी थोड़ी देर पहले मर गया हो। अक्सर रोने लगता। दोस्त कमर कस कर उसके दुख को दूर करने में जुट गया था, कुछ अजीब प्रयासों से। उसने लड़के की तीन-चार कविताएं कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेज दी और लड़के के पहले प्रेम कैमरा जो पिछले कुछ वर्षों से दूसरा हो गया था, से उसे जोड़ने की जुगतें भिड़ा रहा था।
शादी के कुछ दिनों बाद लड़के के मोबाइल पर लड़की को फोन आया। लड़के की आंखें फैल गईं। उसने कांपते हाथों से फोन उठाया।
दूसरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं आई।
लड़का भी काफी देर तक चुप रहा।
´´ कुछ बोलते क्यों नहीं ?´´ लड़की की धीमी आवाज़ आई।
´´ क्या बोलूं ?´´ लड़के की आवाज़ में ग़ुस्सा, दर्द और शिकायतें मिली थीं।
´´ यही पूछ लो कि मैं कैसी हूं ?´´
´´ कैसी हो ?´´
´´ ठीक हूं। और तुम...?´´
´´ मैं....? मैं तुम्हारे बिना....................। मैंने कभी सोचा नहीं........................। पूरी दुनिया मेरे लिए.......................।´´ लड़का दो-तीन ऐसे वाक्य बोल कर रोने लगा जिन्हें आपस में जोड़ने पर कोई अर्थ नहीं निकलता था।
´´ चुप.....चुप चुप हो जाओ जानूँ..... प्लीज़। तुम्हें मेरी कसम।´´ लड़की उसे यूं चुप कराने लगी गोया उसकी मां हो।
लड़का कोशिश करके संयत हुआ। लड़की ने समझाया, ´´ देखो, ऐसे नहीं चलेगा। मैं भी उतनी ही कमज़ोर हूं जितने तुम। तुम ऐसे करोगे तो मेरा क्या होगा ? मुझे भी यहां का अजनबीपन खाए जा रहा है पर मैंने खुद को संभाला हुआ है। तुम भी प्लीज़ खुश रहने की कोशिश करो। ´´
´´ आई लव यू।´´ लड़का यह तब बोलता था जब वह बहुत कुछ कहना चाहता था पर सारी भावनाएं एक में गुंथ जाती थीं और वह कुछ नहीं कह पाता था।
´´ आई लव यू टू डार्लिंग।´´ लड़की ने कहा और लड़के को अच्छा लगा। लड़की अब भी उसकी ही है।
उसने फिर एक बार लड़की का फोन ट्राइ किया। फोन अब भी बिज़ी था।
लड़की शुरू-शुरू में तो बहुत फोन करती थी पर धीरे-धीरे फोनों की संख्या घटने लगी। कुछ परिवर्तन भी आए। पहले लड़की अपनी ससुराल और पति के विषय में लड़के को कुछ नहीं बताती थी पर अब बातों में ज्यादा हिस्सा ये ही घेरते।
´´ जानते हो ये कविताएं बिल्कुल नहीं समझ पाते लिखना तो बहुत दूर की बात है। इंजिनियर लोग तो इसे बेकार की चीज़ मानते हैं.......... टाइम पास।´´ और वह हंसने लगी। लड़के को बुरा लगा। वह गुमसुम सा हो गया। लड़की समझ गयी।
´´ तुम लिखते रहोगे न मुझ पर कविताएं............?´´ लड़की पूछ रही थी।
´´ हां, एक लिखी है नई........... सुनाऊँ ?´´ लड़के ने पूछा।
´´ हां हां।´´ लड़की उत्साहित हो गयी।
´´मैं तुम्हें अब याद नहीं करता।
सचमुच !
शायद तुम्हें विश्वास न हो
पर अब मैं तुम्हें याद नहीं करता।
हर रात बिस्तर पर दिख जाती हैं वे सरसराती बांहें
जो कसना चाहती हैं
मेरे बदन के इर्दगिर्द
अक्सर नज़र आते हैं वे लरजते होंठ
जे देते हैं तुझे कई जन्म जीने की ताक़त
तकिए पर पड़ ही जाती है नज़र
उन आंखों में
जो निमिष भर देखकर मेरी तरफ
झुक जाती हैं लाज से
कंपकंपाते कुचों पर पड़ ही जाती है दृष्टि
जिनका स्पर्श है सागर की लहरों सा
चिहुंकाने वाला
सचमुच !
वियोग के इन क्षणों में मैं तुम्हें याद नहीं करता
क्योंकि इन दिनों
तुम पहले से भी पास हो मेरे
हर दिन, हर क्षण।

लड़की पूरी कविता खत्म होने से पहले ही रोने लगी। धीरे-धीरे, सुबकने की तरह। ´´ तुम बहुत दुखी हो न ? तुम्हें मेरी कसम। तुम खुश रहने की कोशिश करो। हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं, इस बात को स्वीकार करना होगा तुम्हें। यह मेरे लिए भी उतना ही कष्टकारक है जितना तुम्हारे लिए। किसी अच्छी लड़की से शादी कर लो। अपनी खुशी ढूंढ़ लो ताकि मुझे कुछ सुकून मिले।´´
ऐसा लड़की अक्सर कहती क्योंकि लड़का अक्सर ऐसी ही बातें करता।
लड़के ने एक बार लड़की से मिलने आने की इच्छा व्यक्त की।
´´ नहीं। हम अब न मिलें तो ही ठीक होगा। तुमने ही तो कहा था ना ?´´
लड़के को लगा कि वह लड़की को याद दिलाए कि उसने क्या कहा था शादी के पहले पर चुप रहा। हर फोन में लड़की लड़के से सिर्फ़ एक बात कहती कि वह खुश रहे और अपनी खुशी खोजने की कोशिश करे।
लड़का ऐसी कोई कोशिश नहीं कर रहा था। उसे कोई लड़की अब तक पसंद नहीं आई थी और किसी लड़की की तरफ देखने की इच्छा नहीं होती थी। सारी लड़कियां उसकी छवि के सामने कमज़ोर लगतीं।
इन दिनों लड़के का दोस्त काफी सहायक सिद्ध हुआ। उसने अपने जुगाड़ों का एड़ी चोटी को जोर लगाते हुए लड़के के लिए एक काम का जुगाड़ कर दिया जिसे नौकरी क़तई नहीं कहा जा सकता था। इसमें एक भी पैसा नहीं मिलना था पर काम सीखने का मौका था। लड़का सोचता था कि अब वह यह काम नहीं कर सकेगा। पर दोस्त के ज़ोर देने पर जाने लगा। दोस्त लड़के का पुराना रोग जानता था। यह एक ऐसी संस्था थी जो सामाजिक मुद्दों पर वृत्तचित्र और लघुफिल्में बनाती थी। निर्देशक बनना लड़के का तब का स्वप्न था जब उसकी वय के लोग निर्देशक नाम के प्राणी का नाम तक नहीं जानते थे। लड़के को काम में मज़ा आने लगा। एक अच्छी लघु फ़िल्म बन रही थी और लड़का बतौर निर्देशक के सहयोगी काम करने लगा।
काम चलता रहा। लड़की के फोन आते रहे। वह खुश रहने की कोशिश करता रहा और कुछ अधूरापन महसूस करता रहा।
यह एक ऐसा दिन था जो उसे न जाने क्यों उस दिन की याद दिला गया जब उसने पहली बार अपने कमरे में लड़की को अनावृत्त किया था। वह एक अंधेरे काले कमरे में बैठा था। भरे-पूरे सन्नाटे में सामने के बड़े पर्दे पर फ़िल्म चल रही थी और सभी सांसे रोके उसे देख रहे थे। जब फ़िल्म खत्म हुई तो काले पर्दे पर कई नामों के बाद उसका भी नाम उभरा। बतौर निर्देशन सहयोग। वह कुछ देर तक पर्दे पर देखता रहा और उसकी आंखों से दो बूंद आंसू निकल कर उसकी हथेलियों पर जा गिरे। सबने एक सुर में निर्देशक को बधाई देना शुरू कर दिया था कि निर्देशक अचानक मुड़ा और उसने लड़के का हाथ थामते हुए कहा, ´´ मुझसे ज्यादा बधाई का हक़दार यह है।´´ जब वह प्रफुल्लित मुद्रा में घर लौटा तो पाया कि एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका घर पर उसका इंतज़ार कर रही है जिसमें उसकी कविताएं छपी हैं।
लड़की का फोन बहुत देर से इंगेज था। लड़के ने हार कर मोबाइल एक तरफ रख दिया और फिल्म के बारे में सोचने लगा। उसने पाया कि आज क़रीब आठ महीने बाद उसके पास सोचने को कुछ ऐसा है जिसमें लड़की शामिल नहीं है फिर भी वह उसके विषय में सोच कर आनंदित हो सकता है। वह खुश है। उसने अपनी खुशी खोज ली है। कम से कम उस रास्ते पर चल तो पड़ा है। यह बात लड़की को बतानी बहुत ज़रूरी है।
अचानक उसका मोबाइल बजा। लड़की थी। उसने लपक कर फोन उठाया।
´´ क्या हुआ ? तुम इतने उतावले क्यों हो जाते हो ?´´ लड़की ने कोमल आवाज़ में पूछा।
´´ मैं..... तुमसे कुछ बताना चाहता हूं।´´ लड़के की आवाज़ का उत्साह अलग से महसूस किया जा सकता था। लड़की ने भी किया।
´´ क्या........... क्या हुआ ? तुम ठीक तो हो न जानूँ ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ?´´ लड़की ने चिंतित स्वर में पूछा।
´´ हां डीयर, मैं बिल्कुल ठीक हूं और आज बहुत खुश हूँ बहुत खुश। जानती हो क्या वजह है मेरी खुशी की..............?´´ लड़का बहुत तेज़ आवाज़ में चीखा।
´´ कुछ भी हो, तुम इतनी तेज़ आवाज़ में क्यों चीख रहे हो ? जानते हो यह घर है, तुम्हारी आवाज़ बाहर तक जा सकती है।´´
लड़की की नाराज़गी पर लड़का सहम गया। ´´ मैं आज बहुत ख़ुश हूं जानूँ। तुम हमेशा कहती थी न कि खुश रहने की कोशिश करो। अपनी खुशी ढूंढ़ो। मिल गई मुझे। मैं बहुत खुश हूं डार्लिंग। पूछो क्यों........?´´ लड़का फिर भी अपने उत्साह पर काबू नहीं पा पाया था।
लड़की अचानक उखड़ गयी।
´´ठीक है पर पहले तुम ज़रा बोलने की तमीज़ सीखो। मैंने कितनी बार तुम्हें कहा है कि मुझे अब जानूँ मत बुलाया करो। मैं सिखाती सिखाती मर जाऊँगी पर तुम नहीं सीखने वाले। रखो फोन, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी।´´
फोन कट गया। लड़का हतप्रभ था। उसे समझ में नही आया कि अचानक उससे क्या ग़लती हो गयी।

कहानीकार- विमल चंद्र पाण्डेय

Friday, February 1, 2008

छूटे हुए घर

वे महिलाएं अपनी जिंदग़ी के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही थीं। वे बेहद चिड़चिड़ी हो गई थीं और हमेशा शिकायत के मूड में रहतीं। इन दिनों उनके पास बातचीत का सिर्फ एक ही टॉपिक था। इस विषय के अलावा वे न तो कुछ कहना चाहतीं, न सुनना। वे मौके या जगह की भी परवाह नहीं करती थीं, न यह देखती कि कोई उनका दुखड़ा सुनने के लिए तैयार भी है या नहीं। बस, उन्हें, ज़रा-सी शह मिली नहीं कि उनके दर्दभरे गीत शुरू हो जाते। वे अपना दुखड़ा न भी सुना रही होतीं, तब भी लगता, वे बिसूर तो ज़रूर ही रही थीं।
इन रोने-धोने की वज़ह से उनकी सेहत खराब होने लगी थी। वे ज्यादा बूढ़ी, थकी-थकी-सी और चुक गई-सी लगने लगी थीं। उनके जीवन से बचा-खुचा रस भी विदा लेने लगा था और वे जैसे-तैसे दिन गुज़ार रही थीं। कुछ तो सचमुच ही बीमार हो गई थीं। अगर वे खुद बीमार नहीं थीं तो उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य बीमार हो गया था और वे उसी की चिंता में घुली जा रही थीं।
उनमें से अधिकतर की उग्र चालीस से पचास के बीच थी और वे मेनोपॉज के भीषण बेचैनी वाले कठिन दौर से गुज़र रही थीं, या किसी भी दिन उस दौर में जा सकती थीं। इस वज़ह से भी उनकी तकलीफें और बढ़ कई थीं। वे असहाय थीं। लाचार थीं। खुद को शोषित और पीड़ित तो वे मानती ही थीं। कुल मिलाकर उनके लिए ये बेहद तकलीफ भरे दिन थे।
वैसे वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। वे सब की सब अच्छे घरों से आती थीं। पढ़ी-लिखी थीं। उनके स्कूल-कॉलेज जाने वाले बच्चे थे। रुतबे वाले पति थे। घर-बार थे। उनमें से कुछ के तो महानगर में खुद के फ्लैट्स भी थे। गाड़ियां थीं। उनके पास सुख-सुविधा का सारा सामान था। अच्छे-अछे अगने और ढेर सारी साड़ियां थीं। वे हर दृष्टि से भरपूर जीवन जी रही थीं। वे सब-की-सब अच्छा कमा रही थीं। कुछ का वेतन तो `कोई फोर फीगर' से बढ़कर `फाइव' फीगर तक पहुंचा था। और यही अच्छा कमाना उनके लिए अभिशाप बन गया था। वैसे देखा जाए तो उनके साथ कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी कि वे सब-की-सब सदमा लगा बैठतीं या जिंदग़ी से इतनी बेज़ार हो जातीं। लेकिन वे अपनी ज़िंदगा की पहली बड़ी परीक्षा में ही फेल हो गई थीं और उनकी यह हालत हो गई थी।
दरअसल वे सब-की-सब एक बहुत बड़े और महत्वपूर्ण संस्थान से जुड़ी हुई थीं। कुछ तो बहुत वरिष्ठ पदों पर भी कार्य कर रही थीं। इस संस्थान का प्रधान कार्यालय एक ऐसे महानगर में था, जिसमें वैसे तो ढेरों समस्याएं थीं, लेकिन वहां रहने वाले उस महानगर को बेहद प्यार करते थे। यह महानगर उनकी शिराओं में बहता था। उनकी सांस-सांस में रचा-बसा था। इस संस्थान की शाखाएं सभी प्रदेशों की राजधानियों में थीं। संस्थान में काम करना गर्व की बात माना जाता था, क्योंकि वहां बेतहाशा सुविधाएं थीं और वहां नौकरी का मतलब सुशी जीवन की गारंटी हुआ करता था। महानगर में स्थापित इस प्रधान कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों में महाओं का अनुपात अन्य केंद्रों की तुलना में बहुत अधिक था। यह अनुपात भी एक मायने में उनके लिए अभिशाप बन गया था।
उनकी खुद की निगाह में, यह अभिशाप था-उनका ट्रंसफर। हालांकि इस ट्रंसफर में कूछ भी नया या गलत नहीं था। संस्थान के नियम और ज़रूरतें ही ऐसी थीं। ये ट्रंसफर अरसे से होते आ रहे थे और हर बरस होते ही थे। जो अधिकारी सीधी भर्ती से आते थे, जिनमें अक्सर लड़कियां भी होती थीं, वे इन स्थानांतरणों को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे, क्योंकि वे जानते थे, कैरियर की सीढ़ी लगातार चढ़ते रहने के लिए पांच-सात ट्रंसफर तो देखने ही होंगे। फिर उनकी उम्र भी कम होती थी। वे कुछ भी कर गुज़रने के जोश से लबालब भरे होते। लेकिन समस्या उन अधिकारियों की होती जो संस्थान में ही पंद्रह-बीस बरस की नौकरी करने के बाद अधिकारी बनते थे। इनमें से भी महिलाओं के साथ ज्यादा समस्याएं होतीं। ट्रंसफर की बारी आते-आते वे उम्र के चार दशक पार कर चुकी होती। घर-बार सैठिल कर चुकी होतीं। जीवन में स्थायित्व आ चुका होता। बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुंचने को होते। लड़कियां होतीं तो वे उपनी उम्र के सबसे नाजुक मोड़ पर होतीं, जहां उन्हें पिता की नहीं, मां की ही ज़रूरत होती। उम्र के ये दौर ही उनके लिए अभिशाप बन कर आए थे।
पिछले दो-तीन बरसों से संयोग कुछ ऐसा बन रहा था कि इन दिनों जितने भी ट्रंसफर हुए, हर सूची में इस महानगर की महिलाएं ही अधिक रहीं, जिन्हें वरिष्ठता क्रम से बाहर भेजा जाना था। अलबत्ता, इन महिलाओं के साथ संस्थान ने इतना लिहाज ज़रूर किया था कि उन्हें निकटतक प्रदेश की राजधानी में ही भेजा था, जहां से वे रातभर की यात्रा करके आ-जा सकती थीं। उनकी तुलना में उनके पुरुष सहकर्मी दूर-दूर के केंद्रो पर भेजे गए थे। इसके बावजूद ये महिलाएं खुद को अभिशप्त मान रही थीं।
ये अभिशप्त महिलाएं हर तरफ से घिर गई थीं। एक तरफ घर-बार था। पढ़ने और महंगी जींस पहनने वाले लड़के थे। सपने देखने वाली जवान होती लड़कियां थीं, जिन्हें लगातार अपनी मांओं की ज़रूरत थी और दूसरी तरफ इन सबकी बेतहाशा बढ़ चुकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी करते रने की ज़रूरत थी। उनमें से कुछ ही महिलाएं ऐसी थीं जो, आदतवश, वक्त गुज़ारने के लिए नौकरी कर रही थीं। वे बहुत अच्‍छे घरों से थीं और नौकरी न करके भी अपना स्तर बनाए रख सकती थीं। बल्कि नौकरी करके वे जितना कमाती थीं, नौकरी के लिए खुद को सजाने-संवारने में उससे कहीं अधिक खर्च कर डालती थीं। कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पति छोटी-मोटी या प्राइवेट नौकरी में थे और घर इन महिलाओं के वेतन से ही चल रहे थे। अगर नहीं भी चल रहे थे, तो भी उनकी अतिरिक्त और अच्छी-खासी आमदनी से उनके परिवार जिस तरह की सुख-सुविधाओं के आदी हो चुके थे, उन्हें त्यागने की वे लोग सोच भी नहीं सकते थे। कुछ महिलाओं ने कर्जे लेकर मकान बनवा लिये थे, या गाड़ी वगैरह खरीद ली थी, जिसकी किस्तें चुकाने के लिए उनका नौकरी करते रहना ज़रूरी था। उनकी यह मज़बूरी थी कि वे अगर नौकरी छोड़ना भी चाहतीं तो भी उनका परिवार उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं देता था।
निश्चित तारीख को उन्हें रिलीव कर दिया गया था। जो हैसियत वाली थीं और शौकिया नौकरी कर रही थींए उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। कुछ ऐसी भी थीं जो इस उम्र में अकेली रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं, या जिन्हें डर था, उनके बिना उनका घर-बार टूट-बिखर जाएगा, उनके सामने भी नौकरी छोड़ने के अलावा और कोई रास्ता न था। कुछ घबरा कर बीमारी की छुट्टी पर चली गई थीं, तो कुछ सचमुच बीमार पड़ गई थीं। लेकिन उन्हें भी कभी न कभी तो ठीक होना ही था और नए केंद्रों पर ज्वाइन भी करना ही था।
अधिकतर महिलाओं के सामने समस्या यह थी कि वे कभी अकेली घर से बाहर निकली ही नहीं थीं। चार-पांच साल तक घर से अलग रहने की सोच-सोच कर उनकी रूह कांप रही थी। अधिकतर परिवारों की हालत ऐसी थी कि वे बच्चों को, परिवार को, नौकरीशुदा पति को, सास-ससुर को अपने साथ नहीं ले जा सकती थीं, या वे खुद इस पक्ष में नहीं थीं कि उनकी वजह से चार-पांच बरस के लिए पूरी गृहस्थी उजाड़ी जाए। वे गहरे असमंजस में थीं। ज्यादातर घरों में कई-कई दिन तक सलाह-मशविरे चलते रहे थे। आगा-पीछा सोचा गया था और अंतत: नये केंद्र पर ड्यूटी ज्वाइन कर ली गई थी। उन्होंने सोचा था-पहले जाएंगी तो पहले लौटेंगी। रो-धो कर बाकी महिलाएं भी वहां पहुंची थीं।
यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई थी। वे एक तरह से बेघर हो गई थीं। यहां उन्हें नये सिरे से गृहस्भी जमानी थी। अपनी पहचान बनानी थी और अगले कई बरस तक अपने बिछुड़े परिवार के लिए ऐशो-आराम जुटाते रहने के लिए अकेले खटना था। संस्थान उन्हें यह सुविधा देता था कि जब तक उन्हें नये केंद्र पर रहने की जगह उपलब्ध नहीं करा दी जाती, वे दो महीने तक संस्थान के खर्चे पर किसी स्तरीय होटल में ठहर सकती थीं, लेकिन उनमें से कोई भी होटल में नहीं ठहरी थी। अकेली कैसे ठहर सकती थीं। कभी ठहरी ही नहीं थीं। सबने उन्हीं महिलाओं के यहां डेरे डाले थे, जो उनसे पहले यहां आ चुकी थीं और जिन्हें फ्लैट मिल चुके थे। दर असल, वे आयी ही उनके सहारे थीं कि चलो, कोई तो है अपना कहने को।
वे शुरू-शुरू में आधी-अधूरी तैयारी के साथ आयी थीं। संस्थान के फिलहाल कुछ को रहने के लिए सजे-सजाए सिंगल रूम दे दिये थे और कुछ के हिस्से में शेयरिंग आवास की सुविधा आई थी, जहां एक-एक फ्लैट में तीन-तीन, चार-चार महिलाएंं नाम-मात्र के किराये पर रह सकती थीं। तभी अचानक उन सबमें यह परिवर्तन आया था। इसे संयोग माना जाए या दुर्घटना, लेकिन जो कुछ हुआ था, उस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता था। ये मैच्योर और समझदार महिलाएं, जो संस्थान में बड़े-बड़े फैसले लिया करती थीं, अकेले के बलबूते पर विभाग तक संभालती थीं, अचानक लड़ने लगी थीं। शिकायतें करने लगी थीं। जिन महिलाओं के हिस्से में सिंगल रूम आए थे, उन्हें शिकायत थी-हम कभी अकेली नहीं रही हैं। हमें डर लगता है। हमें शेयरिंग आवास दिया जाए। जिन्हें शेयरिंग आवास दिया गया था, उन्हें अपनी पार्टनर पसंद नहीं थीं। वे कभी एनसीसी के कैंपों में नहीं गई थीं। न कभी ट्रैकिंग वगैरह में ही गई थीं। उन्हें शेयर करने की आदत नहीं थी। न कमरा, न रोजमर्रा की चीज़ें और नही प्रायवेसी। उन्होंने आज तक राज किया था अपने-अपने घरों में, बच्चों, पतियों पर, नौकरों पर। वहां वे मालकिन हुआ करती थीं और पूरी व्यवस्था, सेटिंग और मूवमेंट पर पूरा नियंत्रण रखती थीं। वहां सब कुछ उनकी इच्छानुसार हुआ करता था। लेकिन इस ट्रंसफर ने उनकी हैसियत, राजपाट और नियंत्रण का दायरा एक ही झटके में बिस्तर भर की जगह में सीमित कर दिया था। यहां उन्हें सब कुछ शेयर करते रहना था-किचन, ड्राइंगरूम, बाथरूम, यहां तक कि बर्तन भी। यहां हुकुम चलाने या सैट करने जैसा कुछ भी नहीं था। यहां न परिवार के साथ शाम की चाय थी, न पति के साथ खुसुर-पुसुर। यहां कोई उनके आदेश पर एक गिलास पानी या चाय लोने वाला नहीं था, क्योंकि वे सब की सब वरिष्ठ अधिकारी थीं, सहकर्मी थीं। हमउम्र थीं। वे यहां एक-दूसरे के जूठे बर्तन मांजने तो कत्तई नहीं आई थीं। शुरू-शुरू में उन्होंने कुछ समझौते भी किए। जिसके साथ भी ठहराया गया, ठहर गईं। मिल-जुलकर सामान भल ले आईं। एक सब्जी बना लेती, तो दूसरी फटाफट चपातियां बेल देती। तीसरी इस बीच सलाद बना देती। चाय के बर्तन धो देतीं। फिलहाल उनका पहला मकसद था-कम से कम खर्च में खुद गुज़ारा करके महानगर में अपने परिवार के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे भेजना। यहां आ जाने के बाद उन्हें बीच-बीच में की जाने वाली रेलयात्राओं और एसटीडी फोनों के लिए भी अतिरिक्त पैसे बचाने ही थे।
वैसे भी वे अकेले या बिना परिवार के होटलों में खाना खाने नहीं जाती थीं, बेशक शहर में अच्छे होटलों की कोई कमी नहीं थी और शहर के लाग बेहद शरीफ थे। वे अकेली औरत को दखकर लार नहीं टपकाते थे। अगर लोग शरीफ न भी होते तो भी कम से कम इन भद्र महिलाओं को, जिनकी उम्र चालीस से पचास के बीच थी और जो आजकल उदास-उदास रहा करती थीं, उनसे कोई खतरा नहीं हो सकता था। हालांकि इन महिलाओं ने अपना सारा जीवन देश के आधुनिकतम कहे जाने वाले महानगर में बिताया था, फिर भी वे पहले घरेलू महिलाएं थीं और बाद में आधुनिक। इसीलिए कभी-कभार होटल से खाना पैक करवा कर ले आती थीं। इसी में उन्हें सुभीता रहता था।
तो अभी जिक्र हुआ था इन महिलाओं का अचानक आम औरतों में बदल जाने का। अब सचमुच ये महिलाएं शक्की, झगड़ालू और नाक-भौं सिकोड़ने वाली हो गई थीं, जिनकी नाक पर हर समय गुस्सा घरा रहता था। वैसे भी उन्होंने कभी ज़िंदगी में शेयर नहीं किया था, मिल-जुलकर नहीं रही थीं और कभी झुकी नहीं थीं। अब मामूली-सी बात को लेकर भी वे अपनी पार्टनरों से लड़ पड़तीं। बेशक यह लड़ना सार्वजनिक नल पर होने वाले लड़ने के स्तर तक नहीं उतरा था फिर भी गुबार तो निकाला जाता ही था। वे अब इस बात पर भी आपस में बोलना छोड़ सकती थीं कि वे चप्पल पहन कर रसोई में चली आती हैं... जब मैं अखबार पढ़ रही होती हूं तो ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाकर आरती करती हैं... चाय के अपने जूठे कप कहीं भी छोड़ देती हैं... बाथरूम... गंदे बालों से भरी गंदी कंघी..., वाशबेसिन... वगैरह... वगैरह...। ऑफिस में बीसियों कर्मचारियों पर नियंत्रण करने वाली और महत्वपूर्ण फैसले लेने वाली महिलाएं अब इस बात पर भी लड़ लेती थीं कि ड्राइंगरूम में घूम रहा तिलचट्टा कौर मारे या देर रात या अल सुबह दरवाजे की घंटी बजने पर दरवाजा कौन खोले, या फिर रोज सुबह दूध कौन ले। कई बार खर्च शेयर करने को लेकर भी पंजे लड़ जाते। ये और ऐसी ढेरों बातें थीं जिनकी वजह से इस खूबसूरत, हरे-भरे, शालीन लोगों वाले फाश इलाके में रहने वाली ये भद्र महिलाएंं अपनी सुबह खराब करती थीं, दोपहर भर कुढ़ती रहती थीं। बेहद खूबसूरत शामों को, जब मौसम को देखकर किसी का भी मन खिल उठना चाहिए, वे या तो अपने डेरे पर आने से कतरातीं या सांझ ढले अपने-अपने दरवाजे बंद कर लेतीं। रात के वक्त जब सारा शहर उत्सव के मूड में होता, देर रात तक आवारागर्दी करता, शुशियां बांटता रहता, वे बिसूरते हुए करवटें बदलती रहती थीं।
सुबह उठते समय आम तौर पर सभी पार्टनरों के चेहरों पर मुर्दनगी छायी होती और उनके सामने मनहूस चेहरों को देखते हुए एक और मनहूस दिन काटने के लिए होता। वे भारी मन से ऑफिस पहुंचतीं। वहां मन की यह भड़ास लंच टाइम में दैनिक किस्तों में अलग-अलग मेजों पर निकलती। एक ही फ्लैट शेयर करने वाली महिलाएं एक ही मेज पर कभी नहीं बैठतीं। कई बार वे पहले ही फोन पर तय कर लेतीं, आज किसे अपनी रामकहानी सुनानी है। हर महिला को ही कुछ न कुछ कना होता। उनमें से हरेक को श्रोताओं की ज़रूरत होती। अजीब हालत हो जाती। सभी बोलना चाहतीं। सुने कौन। उन मेजों पर बैठे पुरूष सहकर्मियों की अजीब हालत होती। उनके सामने ही ये भद्र महिलाएं अपनी ही सहकर्मियों, सखियों, दिन-रात की, खाने-पीने की साथिनों की छीछालेदर करतीं। उनके बखिए उधेड़तीं। सब की सब कोई माकूल सा कंधा तलाशते ही रोने लगतीं।
कई बार ऐसा भी होता कि वे आपस में सलाह-मशविरा करके अपने पार्टनर बदलने का फैसला कर लेतीं। ऑफिस में कह-सुनकर कागज़ी कार्रवाई करवा लेतीं। कुछ दिन तो नयी पार्टनरों के साथी ठीक-ठाक चलता, फिर वहां भी वही पुरानी रागिनी छिड़ जाती। फ्लैट बदले जा सकते थे। पार्टनर बदले जा सकते थे, लेकिन जो जीज़ कोई नहीं बदल सकता था, वह था उनका खुद का स्वभाव, जिसके बारे में उनमें से कोई भी नहीं जानता था कि उसे बदल देने भर से सारी समस्याएं खुद-ब-शुद सुलझ जाया करती हैं। वे खुद को बदलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं।
इनकी तुलना में कुछ र्साभाग्यशाली महिलाएं ऐसी भी थीं जिन्हें वरिष्ठताक्रम से पूरा फ्लैट मिल गया था। लेकिन खुश वे भी नहीं थीं। जिन्हें ये फ्लैट लीज़ पर लेकर दिए गए थे, उन्हें भी ढेरों शिकायतें थीं-फ्लैट दूर है... गंदा है... पड़ोस खराब है... धूप बहुत आती है... धूप नहीं आती... ग्राउंड फ्लोर पर है... नहीं है... सुरक्षित नहीं है। लड़-झगड़ कर अपने लिए अलग फ्लैट ले लेने के बाद भी वे वहां अकेली नहीं रहती थीं। उन्हें डर लगता था। महंगा भी पड़ता था। अकेले वक्त भी नहीं गुज़रता था। यहां उन्हें एक सुविधा ज़रूर थी कि अपनी मर्जी से पार्टनर रख और बदल सकती थीं। इसके बावजूद खुश वे भी नहीं थीं।
इनकी तुलना में कुछेक महिलाओं ने इन सारी समस्याओं का एक अलग ही हल खोज लिया था। व अपने एकाध बच्चे को अपने साथ ले आई थीं और वहीं उसका एडमिशन करवा दिया था। उनके लिए कुछ हद तक जीवन र्साक बन गया था। वक्त तो अच्छी तरह गुजरता ही था, यह तसल्ली भी रहती कि बच्चे को अपनी निगरानी में पाल-पोस रही हैं।
ये अकेली, परिवार से बिछ़ुड़ी महिलाएं महानगर जाने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं। छुट्टियों की सूची मिलते ही वे साल भर का शेड्यूल बना लेतीं, कब-कब जाया जा सकता है। किसी नेता वगैरह के मरने पर होने वाली छुट्टी उनके लिए बोनस की तरह होती। कुछ तो बिला नागा हर शनिवार की रात की गाड़ी से जातीं, दिन भर वहां खटतीं, घर-परिवार की पटरी से उतरी गाड़ी संवारतीं और रात की ट्रेन से लौट आतीं। उनके पास हर वक्त अगले कई हफ्तों के आने-जाने के कन्फर्म टिकट होते।
कई बार वे एक दिन के लिए जातीं और महीनों नहीं लौटती थीं। बीमार पड़ जातीं या बीमारी की छुट्टी ले लेतीं। ऐसे में उनकी कन्फर्म टिकटों पर उनकी हमउम्र सहेलियां यात्रा करतीं। उनके छुट्टी पर बेठ जाने से ऑफिस के कामकाज का नुकसान होता था, लेकिन वे परवाह नहीं करती थीं। उनका कहना था-हमारी ही कौन परवाह करता है। इन महिलाओं में कुछ ऐसी भी थीं जिन्होंने विवाह नहीं किया था और महानगर में अकेली रहती आई थीं। वे भी बिला नागा महानगर आती-जाती रहतीं, क्योंकि महानगर उनकी हर धड़कन में इतना रचा-बसा था कि उसे बार-बार देखे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था। जब तक वे वहां जाकर वहां की हवा की सांस नहीं ले लेतीं थीं, उन्हें ऊर्जा नहीं मिलती थी।
कुछ ऐसी भी रहीं जिन्होंने यहां आने के बाद परिस्थितियों से घबरा कर नौकरी छोड़ दी थी, जबकि कुछ इर इंतज़ार में थीं कि कब वे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवश्यक वर्ष पूरे करें और घर बैठें। जो यहां कई बरस पहले आई थीं, वे किसी भी दिन लौटने की आस लगाए बैठी थीं। वे हर दिन प्रधार कार्यालय से आने वाली डाक का इंतज़ार करतीं। उनकी हालत लेट चल रही ट्रेन के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर बैठे यात्रियों जैसी थी। वे अरसे से आधे घंटे के नोटिस पर शहर छोड़ने की तैयारी किए बैठी थीं। इंतजार था कि खत्म नहीं होता था।
उधर कुछ महिलाओं के यहां चले आने से उनके घर-परिवार वाले गंभीर रूप से बीमार हो गए थे या दिल हार बैठे थे। ऐसी महिलाओं को एक विशेष मामले के रूप में, एक वर्ष के लिए उन्हीं के खर्च पर वापस भिजवा दिया जाता था। यह अवधि बढ़ाई नहीं जाती थी, अलबत्ता, उस हालत में कम ज़रूर कर दी जाती थी, जब मरीज ही उससे पहले चल दे। यानी महिलाओं का विशेष मामले पर लौटने का आधार ही न रहे। संस्थान इसी लिखित शर्त पर उन्हें भेजता था। इसी के साथ एक और शर्त नत्थी कर दी जाती थी कि साल भर बाद, या उससे पहले, जैसी भी स्थिति हो, उन्हें किसी और केंद्र पर भी भेजा जा सकता था। सशर्त वापसी का लाभ उठाने में आमतौर पर महिलाएं डरती थीं। हां, अगर उन्होंने ठान ही लिया हो कि साल भर बाद नौकरी छोड़नी है, तो वे किसी न किसी तिमड़म से किसी की बीमारी का बहाना लेकर एक बरस के लिए लौट आतीं और जब बाद में उन्हें कहीं और भेजा जाता तो वे नौकरी छोड़ देती थीं। इस तरह वे अपने परिवार के पास एक बरस पहले पहुंच जाती थीं।
कुल मिलाकर ये सारी भद्र महिलाएं बहुत मुश्किल से अपने दिन गुज़ार रही थीं। यह शहर बेहद शूबसूरत था, सांस्कृतिक गतिविधियों की कोई कमी नहीं थी। अच्छे पुस्ताकालय थी, घूमने-फिरने की जगहें थीं, लेकिन चूंकि उन्हें लगातार अपने बिछ़ुड़े घर की याद आती रहती थी, उन्हें यहां कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उन्होंनक अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ घर और परिवार ही जाना था, इसलिए वे लिखने, पढ़ने, घूमने या जीने जैसा कुछ सोच ही नहीं पाती थीं। उन्होंने इतने बरसों में इस शहर को ढंग से देखा भी नहीं था, क्योंकि उनकी आंखों के आगे हर वक्त महानगर और उसमें अपना परिवास झिलमिलाता नज़र आता रहता था। वैसे तो इस बात पर भी बहस की जा सकती थी कि उन्होंने अपना महानगर ही मितना देशा या जाना था। छुट्टी के दिन उनके लिए बहुत भारी गुज़रते थे। कुछ भी तो करने के लिए नहीं होता था। अगर शेयरिंग पार्टनरों से बातचीत बंद हो तो और भी तकलीफ़ होती थी। दिन गुजरे नहीं गुज़रता था। कभी-कभार ही ऐसा हो पाता था कि वे मनमुटाव भुलाकर, मिलजुल कर खाने का प्रोग्राम बनाएं, या कहीं शॉपिंग पर जाएंं। वैसे वे एक-दूसरे से मिलने दूसरे फ्लैटों में भी चली जाती थीं।
उनमें से कुछ को संस्थान के काम से आसपास के शहरों में निरीक्षण के लिए जाने की ज़रूरत पड़ती थी। कभी-कभी ये निरीक्षण इस तरह के पिछड़े या दूरदराज के इलाकों में होते, जहां रहने-खाने की तकलीफ होती। ऐसे निरीक्षणों पर जाने से वे भरसक बचतीं। कभी पूरी टीम में अकेली महिला होने के बहाने से, तो कभी किसी अन्य कारण से। ऐन वक्त पर उनके मना कर देने से या बीमारी की छुट्टी लेकर बैठ जाने से निरीक्षण का सारा शेड्यूल बिगड़ जाता। लेकिन अगर निरीक्षण के लिए महानगर की दिशा में जाना होता तो वे हर हाल में टीम में अपना नाम शामिल करवाने की जुगत भिड़ातीं। लल्लो-चप्पो करतीं। अगर निरीक्षण लंबा हुआ तो बीच की छुट्टियों में या रविवार को, दो-तीन घंटे की यात्रा करके चुपचाप महानगर होकर आया जा सकता था। विपरीत दिशा में कोई जाना न चाहती और महानगर की दिशा के लिए मारा-मारी होती।
वे हमेशा अफवाहों से घिरी रहतीं, एक-एक से उनकी सच्चाई के बारे में पूछती फिरतीं। कभी खबर उड़ा देतीं-नयी ट्रांसफर पालिसी आ रही है तो कभी कहतीं-गोल्डर हैंड शेक स्कीम आ रही है, जिसमें संस्थान इच्छुक कर्मचारियों को ढेर सारा रुपया देकर सेवानिवृत्ति करेगा। महानगर के प्रधान कार्यालय से कोई भी वरिष्ठ अधिकारी आता तो वे उससे मुलाकात के लिए समय ज़रूर मांगतीं। अपने दुखड़े रोतीं... जवान लड़कियां... गिड़ते बच्चे... पति बीमार... शदियां...पढ़ाई... खुद की बीमारी... `मेनोपॉज'। ज्यादा रोना वे `इसी' का रोतीं। एक बार तो एक वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें मुलाकात का समय तो दिया, लेकिन साफ-साफ कह दिया था-आपके पास वापस जाने के लिए `मेनोपॉज' के अलावा और कोई कारण हो तो बताएं। सिर्फ इसी वजह से तो आपको ट्रांसफर नहीं किया जा सकता।
सबके चेहरे एकदम काले पड़ गए थे और सबकी सब बिना एक भी शब्द बोले केबिन से बाहर आ गई थीं। बाद में पता चला था-प्रधान कार्यालय में इन महिलाओं ने स्थानांतरण के लिए जितने भी आवेदन भेजे थे, सब में प्रमुख रूप से `इसी' वजह से होने वाली तकलीफों का बखान किया गया था।
यहां रहते हुए इन लोगों के साथ कुछ दुर्घटनाएं भी हो गई थीं। इससे इनके हौसले और मंद हो गए थे। एक महिला कॉलेज जाने वाली अपनी अति सुंदर लड़की को साथ लेकर आयी थी कि कामकाजी पति अकेले उसका ख्याल नहीं रख पाएंगे। एक-दो साल तक सब ठी चलता रहा था। मां-बेटी एक दूसरे का सहारा बनी रही थीं। बेटी ने मां से अपने से सहपाठी का जिक्र किया था। उससे मिलवाया भी था, लेकिन विजातीय और बेरोजगार लड़के को मां ने पहली ही नज़र में ठुकरा दिया था। बेटी को चेताया भी था-उससे मेल-जोल न रखे।
इधर मां एक ट्रेनिंग पर बाहर गई, उधर लड़की ने उसी लड़के से ब्याह रचाया, चाबी पड़ोस में दी और हनीमून पर निकल गई।
मां को इतना सदमा लगा था कि वह नौकरी ही छोड़ गई थी। जिसके लिए सब कुछ कर रही थी वही दगा दे गई, अब किसके लिए कमाना-धमाना। पति की निगाहों में कसूरवार भी वही बनी थी कि लड़की को संभाल नहीं पाई।
एक अन्य महिला अधिकारी के पति का महानगर में चक्कर चलने लगा था। इससे पहले कि मामला कोई निर्णयक मोड़ लेता, वह बोरिया-बिस्तर समेट कर लौट गई थी और वहां से इस्तीफा भेज दिया था। इन दो-एक मामलों से ये महिलाएं काफी विचलित हो गई थीं।
ऐसा नहीं था कि लगभग इन्हीं कारणों से अपना परिवार पीछे छोड़कर आए उनके पुरुष सहकर्मी उनसे कम परेशान थे। तकलीफें उन्हें भी होती थीं। लेकिन वे अपनी तकलीफों का इतना सार्वजनिक नहीं करते थे कि उनके प्रति बेचारगी का भाव उपजे। वैसे उनके पास खुद को भुलाए रखने या व्यस्त रहने के जरिए भी ज्यादा थे। उनके पास ताश थे, खाना और पीना था, फिल्में थीं। ब्लू पिल्में थीं। घूमना-फिरना था। किताबें थीं। ठहाके थे और बहसें थीं। वे कभी भी किसी भी दोस्त के घर जाकर महफिल जमा सकते थे। वहां रात गुज़ार सकते थे। देर तक सड़कों पर आवारागर्दी कर सकते थे। इन सब कामों में उनकी ईगो कभी आड़े नहीं आती थी।
कई बार वे अपनी महिला सहकर्मियों को छेड़ते-जिन चीज़ों पर आपका बस नहीं हैं, उसके लिए क्यों अपनी सेहत खराब कर रही हैं। तनाव में रहने से क्या जल्दी ट्रंसफर हो लाएगा। वे उन्हें समझाते भी और उन पर हंसते भी थे-हमें ही देख लो। परिवार से अलग हैं तो भी खा-पी रहे हैं। हर वक्त मस्ती के मूड में रहते हैं। कभी चुपके से अपने घर जाकर तो देखो तुम्हारे पति और बच्चे तुम लोगों के बिना कितना सहज और खुला-खुला महसूस कर रहे होंगे, बल्कि आप लोगों के वहां पहुंचने पर बाल-बच्चे पूछते होंगे-आप कितने दिन की छुट्टी पर आई हैं, लेकिन उन पर इन सीरी बातों का कोई असर नहीं होता था। उनका एक ही जवाब रहता-आप पुरुष हैं। हम लेडीज की तकलीफ कैसे समझेंगे। आपके साथ इतनी जिम्मेदारियां होतीं तो पता चलता।
बहरहाल ये बहसें चलती रहती थीं। एक के बाद एक बरस बीतते रहते थे। जैसे-जैसे उनके घर से दूर रहने की अवधि बढ़ती जा रही थी, ये महिलाएं घर की चिंता में और दुबली होती जा रही थीं। घर जो पीछे छूट गया था, लेकिन दिलो-दिमाग में लगातार बना रहता था। वे उसे दूर से ही जकड़े हुए थीं। वे वहां जल्द-से-जल्द पहुंच कर उसे अपने नियंत्रण में ले लेना चाहती थीं। उनके लिए एक-एक पल भारी पड़ रहा था।
दूसरी तरफ, उनकी गैर-मौजूदगी में आमतौर पर घरों को कुछ भी नहीं हुआ था। न दीवारें दरकी थीं, न किसी के सिर पर छत ही गिरी थी। सभी घर जस के तस खड़े थे, बल्कि पहले की तुलना में आत्मनिर्भर और हर लिहाज से मजबूत। इन बरसों में पढ़ने वाले बच्चे कॉलेजों में जा पहुंचे थे या नौकरी वगैरह पर भी लग गए थे, शादियां भी कई बच्चों की हुई थीं इस बीच। अमूमन सभी घर इन महिलाओं की गैर-मौजूदगी में, लेकिन उनसे मिलने वाले पैसों की मदद से, कुछ भी `मिस' नहीं करते थे, वे परिस्थितियों के अनुमूल जीवन जीने लगे थे। उन घरों को इन महिलाओं-जो पत्नी, मां, बेटी, बहरन, कुछ भी हो सकती थीं, की ज़रूरत तो थी, लेकिन ये अब उन लोगों की दिनचर्या का, आदत का हिस्सा नहीं रही थीं। वे इनके लिए परेशान होते थे लेकिन व्याकुल नहीं होते थे।
वक्त गुज़रता रहा था। तभी एक दिन दो समाचार सुनने को मिले थे। एक शुभ और दुसरा खराब। अच्छी खबर यह थी कि एक लंबे अरसे के बाद से सारी महिलाएं स्थानांतरित होकर महानगर वापस लौट रही थीं।
दूसरी, उदास कर देने वाली खबर यह थी कि उनके स्थान पर लगभग उतनी ही महिलाएं स्थानांतरित होकर बाहर जा रही थीं। इस बार, पास और दूर के सभी केंद्र पर।