- नींद नहीं आती।
- लो, पानी पी लो और फिर मुँह ढक कर लेटे रहो। अपने आप आ जाएगी नींद।
- नहीं आती...
- कुछ मत सोचो या फिर राम का नाम जपते रहो, आ जाएगी।
कुछ मिनट बीत गए।
- अब फ़ोन किसे कर रहे हो इतनी रात को?
- राम को।
- ये राम कौन है?
- जिसका नाम जपने को तुमने कहा था।
उसने फ़ोन मेरे हाथ से छीन लिया। मैं विवश सा होकर लेटा रहा।
- कहाँ है निवेदिता?मैं बैठ गया और बेचैनी से इधर-उधर देखने लगा। मैंने कम्बल उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया और बैड की दराजें खोल खोलकर टटोलने लगा।
- तुम्हें पता है कि पागलपन की शुरुआत ऐसे ही होती है?
वह झल्लाकर बोली।
- मुझे कुछ नहीं पता...
- तुम चुप होकर लेट नहीं सकते?
मैं चुप होकर लेटा रहा लेकिन कुछ क्षण बाद लगने लगा कि मैं एक मैदान में पड़ा हूं और एक भीड़ मुझे कुचलती हुई जा रही है। मेरे शरीर से खून नहीं निकल रहा। टीन के पुतले की तरह अपने ऊपर पड़े हर कदम से मैं विकृत होता जा रहा हूँ।
- मेरा दम घुट रहा है...
मैंने उसका नाम भी पुकारना चाहा, लेकिन भूल गया।
- अब तुमसे इतनी दूर आकर लेट गई हूं फिर भी सोने नहीं दे रहे।
- सच में मेरा दम घुट रहा है निवेदिता।
- यह निवेदिता कौन है?
वह चौंककर बोली और उठकर बैठ गई।
- तुम कौन हो?
- हे भगवान...
वह बिस्तर से उठकर मेरे पास आई और मेरे माथे पर हाथ रखा।
- बुखार भी नहीं है।
- मेरा दम घुट रहा है...
- मैं खिड़कियाँ खोल देती हूं।
- कोई दरवाजा भी खोलो ना। उसने कहा था कि वो आएगी।
- कौन?
वह फिर झल्ला गई।
- पता नहीं कौन!
मैं सब कुछ भूलने लगा था।
- मैं डॉक्टर को फ़ोन करती हूं। मुझे तुम्हारी हालत देखकर डर लग रहा है।
- सुनो, वह आए तो मुझे जगा देना। वह हमेशा मुझे सोता देखकर लौट जाती है।
- हाँ, जगा दूँगी, लेकिन तुम सोओ तो।
उसकी आवाज में चिंता झलक रही थी। उसने मेरे बिस्तर के बिल्कुल सामने वाली खिड़की खोल दी। ठंडी हवा का एक झोंका आया और जैसे ही उसने मेरे चेहरे को छुआ, मैं मुस्कुरा दिया। मेरी मुस्कान से उसकी चिंता और बढ़ गई लगती थी।
- अब दम नहीं घुट रहा।
मैंने गहरी साँस लेते हुए कहा। वह मेरे सिरहाने आकर बैठ गई और मेरा माथा सहलाने लगी। खिड़की में से पूर्णिमा का चाँद दिखाई दे रहा था।
- तुम्हें चाँद बहुत अच्छा लगता है ना? मैं कल सुबह तोड़कर ला दूँगा।
- मैंने कब कहा कि मुझे चाँद अच्छा लगता है?
अबकी बार वह प्यार से बोली। अब तक उसके स्वर में चिंता तो स्थायी रूप से घुल गई थी।
- तुम निवेदिता नहीं हो क्या?
मैंने अपने माथे पर रखा उसका हाथ पकड़ लिया था और गर्दन ऊपर उठाकर उसे पहचानने का प्रयास कर रहा था।
- मैं तुम्हारी पत्नी हूं शांतनु और मेरा नाम शालिनी है। अब याद आया कुछ?
उसका स्वर हल्का सा ऊँचा हो गया था और माथे पर नीले रंग की नसें और मुखर हो गई थीं। मैंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, लेकिन कुछ याद नहीं आया। केवल एक नाम गूँजता रहा- निवेदिता।
- कहाँ है निवेदिता?
मैं बैठ गया और बेचैनी से इधर-उधर देखने लगा। मैंने कम्बल उतारकर फ़र्श पर फेंक दिया और बैड की दराजें खोल खोलकर टटोलने लगा।
शालिनी घबराकर उठ गई और सामने मेज पर रखा मोबाइल फ़ोन उठाकर ले आई। उसने कोई नम्बर मिलाया और उस दौरान मैंने अपने नीचे बिछी चादर भी उतार फेंकी।
- कहाँ है निवेदिता?
मैं चिल्लाने लगा था।
- डॉक्टर साहब, मैं शालिनी बोल रही हूँ। आप अभी घर आ सकते हैं? इन्हे कुछ हो गया है।
वह एक साँस में बोल गई। मुझे उसके घबराए हुए चेहरे को देखकर दया आई, लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया।
- कहाँ है मेरी निवेदिता?
मैं चिल्लाता रहा।
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बहुत दिन से कुछ अच्छा पढ़ा ही नहीं। बंगाल में अच्छे लेखक मिलने मुश्किल हुए जा रहे हैं।
साहित्य की चर्चा के साथ वह मेरी हथेली पर अपनी हथेली रखकर मन ही मन उंगलियों की तुलना भी कर रही थी।
- एक नया है, किंतु दम बहुत है। तुम्हें भी शायद पसन्द आए!
- कौन?
पीपल के उस पेड़ के नीचे बिछे हरे पीले पत्तों पर मैं लेटा हुआ था और वह मेरे सीने पर सिर रखकर लेटी थी।
- शरत है...शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय। महेन्द्र का मित्र है।
- आजकल जिसे देखो, साहित्य लिखने लगता है।
कहते ही उसके चेहरे पर एक बड़ा सा पत्ता आ गिरा और वह किशोरियों की तरह खिलखिला उठी।
नहीं निवेद, यह अलग है। मैंने कल ही उसका एक उपन्यास पढ़ा। तुम्हें लाकर दूंगा तो तुम वर्षों तक मुझे धन्यवाद दोगी।
- बहुत देखे हैं तुम्हारे शरत भरत...
वह शरारत भरे अन्दाज में मुस्कुराती हुई उठकर बैठ गई।
यदि शरत नहीं पढ़ना तो मेरी तरह हिन्दी भी पढ़ने लगो।
मुझे भी उसे चिढ़ाना आता था।
- नहीं जी, मुझे तो अपनी बांग्ला ही प्यारी है और अपना बंगाल।
- और मुझे अपना भारत।
मैं भी मुस्कुराता हुआ उठकर बैठ गया।
- महेन्द्र यही तो सिखाता रहता है तुम्हें।
उसकी नाक पर तितली सा खूबसूरत गुस्सा आकर बैठ गया था।
- अरे, क्या बुरा सिखाता है? हम देश की स्वतंत्रता की बात ही तो करते हैं।
दिखावे की उस तितली के रंग बदलते थे तो मेरे चेहरे पर भी इन्द्रधनुष सा खिल जाता था।
- मेरा देश तो बंगाल है। मैं न कभी तुम्हारे भारत में गई हूं और न ही उसे पहचानती हूं।
- निवेद....
- क्या है?
वह अपनी नाराज़गी जताते हुए धीरे से बोली। अब वह मेरी ओर ही देख रही थी।
- तुम जब रूठती हो तो तुम्हारे गाल कश्मीर के सेबों जितने लाल हो जाते हैं।
उसने लाख कोशिश की, लेकिन अपनी मुस्कान दबा नहीं पाई।
- चलो हटो, मैं तुमसे बात नहीं करती।
उसने मुझे धकेलने के लिए हाथ बढ़ाया, जो मैंने पकड़ लिया।
- अब छोड़ो मेरा हाथ और जाकर संभालो अपना भारत।
- पगली, भारत और बंगाल कभी अलग थोड़े ही होंगे।
मैंने सुबह की धूप जैसा खिला हुआ उसका हाथ चूम लिया। वह मुस्कुरा दी।
हाँ याद आया..वो बकबक पंडित है न...
वह कहते कहते रुक गई क्योंकि मैं हैरीसन रोड के उस पंडित के नामकरण पर जोर से हँस पड़ा था।
- तुम हँस रहे हो? कल बहुत बकवास कर रहा था वह...
वह फिर रुक गई। छोटी सी बड़ी बातों पर जिस तरह बच्चों और लड़कियों की आँखें फैल जाती हैं, उसकी आँखें वैसे ही फैल गई थीं।
- हुगली जैसी आँखें हैं तुम्हारी निवेद।
- वह कह रहा था कि एक दिन बंगाल के टुकड़े हो जाएंगे और तुम्हारे भारत के भी।
- कुछ भी बकता है तुम्हारा बकबक पंडित।
- मुझे भी लगता है कि वह पागल हो गया है। कल ऐसी ही हरकतें कर रहा था।
- किसकी तस्वीर है शालिनी?मैं था कि कोई भी प्रश्न अपने पास नहीं रख पा रहा था।- महात्मा गाँधी की है....और तुम कहते हो तो उतारकर रख देती हूँ। बस तुम कुछ मत बोलो। मुझे बहुत फ़िक्र हो रही है।
- पागल तो मैं भी हो गया हूं तुम्हारे लिए। मेरी चिंता नहीं करती तुम...
- करती तो हूँ.....
उसने अपने होठ हथेली पर रखे और मेरी बन्द मुट्ठी खोलकर उसमें थमा दिए। कलकत्ता का वह पार्क देर तक अपने सौभाग्य को सराहता रहा।
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- सच कहो कि तुम्हारा नाम....तुम्हारा नाम..
- शालिनी।
- हाँ, सच बताओ...तुम्हारा नाम शालिनी ही है...निवेदिता नहीं?
वह अपना सिर पकड़कर बैठ गई और रोने लगी।
- तुम्हें क्या हुआ है शांतनु? प्लीज़ कुछ मत बोलो।
मैं छत से लटके पंखे को देखता रहा। मुझे डर सा भी लगने लगा था।
- वे भारत के टुकड़े कर देंगे और बंगाल के भी।
वह रोती रही और मैं चुप न रह सका।
- शालिनी...
मुझे लगा कि मैंने पहली बार उसे उसके नाम से पुकारा था। उसे कैसा लगा होगा, मैं नहीं जानता।
- शालिनी, सामने वह तस्वीर किसकी है?
एक चश्मे वाले गंजे आदमी की तस्वीर खिड़की के ठीक ऊपर लगी थी और सारी दुनिया के बेचैन प्रश्न जैसे मुझमें ही समा गए थे।
उसने रोते-रोते सिर उठाकर खिड़की की ओर देखा और फिर और जोर जोर से सुबकने लगी।
- किसकी तस्वीर है शालिनी?
मैं था कि कोई भी प्रश्न अपने पास नहीं रख पा रहा था।
- महात्मा गाँधी की है....और तुम कहते हो तो उतारकर रख देती हूँ। बस तुम कुछ मत बोलो। मुझे बहुत फ़िक्र हो रही है।
कहते-कहते वह खिड़की तक गई। उसने उचककर तस्वीर उतार ली और फिर मेरी बगल में आकर बैठ गई। वह अब भी रो रही थी और मुझे उस पर दया आ रही थी।
- अब कुछ नहीं बोलूंगा। तुम मत रोओ।
मैंने उसकी बाँह पकड़कर बच्चों की तरह हिलाते हुए कहा।
कुछ देर में उसने उसने रोना बन्द कर दिया और ठण्डे पानी में डुबो-डुबोकर मेरे माथे पर पट्टियाँ रखने लगी। मैंने उसके लिए अपनी सारी बेचैनी और जिज्ञासा दबा दी थी।
- निवेद...निवेद...निवेद...
कुछ देर बाद मैं फिर बुदबुदाने लगा था। मेरी आँखें बन्द थीं। तभी दरवाजे पर आहट हुई।
- डॉक्टर आ गए।
मैंने आँखें खोलीं तो शालिनी दरवाजे की तरफ़ दौड़ रही थी।
डॉक्टर जब घर के अन्दर दाखिल हुआ तो मैं जाने क्यों, अपने आप ही चिल्ला पड़ा।
- निवेदिताSSSSS
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मैं निवेदिता के छोटे भाई की साथ उसके घर के अन्दर घुसा। उसके घर में एक अलग ही तरह की सौम्यता बिखरी हुई थी, जो मैंने पहले कहीं भी महसूस नहीं की थी।
एक अधेड़ औरत दरवाजे के पास ही धूप में बैठकर चावल में से कंकड़ बीन रही थी। मुझे लगा कि उसकी माँ होंगी। मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। वे मुझे देखकर चावल छोड़कर खड़ी हो गईं और मुझे रास्ता दिखाते हुए भीतर की ओर चल दीं। मेरा चमड़े का बैग उसके भाई के हाथ में था।
उसका कमरा घर का सबसे आखिरी कमरा था। उसमें से एक दरवाज़ा पिछली गली में खुलता था, जिस पर पीतल का बड़ा सा ताला चढ़ा हुआ था। वह लकड़ी के एक चौड़े तख़्त पर चादर ओढ़कर लेटी थी।
- उठ निवेद, डॉक्टर साहब आए हैं।
- कमाल हो तुम...- तुमसे मिलने के लिए इतना भी नहीं कर सकती क्या?उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था और उसकी लाल हुई आँखें जैसे मेरी आँखों में आ गई थीं।
उसकी माँ ने कमरे में घुसते ही कहा। पीछे पीछे मैंने और उसके भाई ने भी कमरे में प्रवेश किया। वह सच में उसी तरह पड़ी थी, जैसे हफ़्तों से बीमार चल रही हो।
- तुम तो अभिनय के लिए ही बनी हो निवेद। सरोजिनी में जान डाल देती हो।
एक दिन कालीघट पर बैठे हुए मैंने उससे कहा था। उन दिनों हम ज्योतिरिन्द्र बाबू के ‘सरोजिनी’ का मंचन कर रहे थे। बंगाल थियेटर में दिन भर रहने के बाद हम दोनों शाम को कालीघाट की सीढ़ियों पर बैठ जाया करते थे।
- नहीं शांतनु, मैं तो बंगाल के लिए बनी हूं, अपनी धरती को स्वतंत्र करवाने के लिए।
और तब मैं उसकी आँखों में वही आग देखा करता था, जिसमें मेवाड़ की बेटी सरोजिनी अपनी मिट्टी की मर्यादा बचाने के लिए जल गई थी।
अपनी माँ की आवाज सुनकर उसने आँखें खोलकर हमारी ओर देखा और धीरे-धीरे उठकर बैठ गई। उसके बाल उलझे हुए थे, आँखें लाल थीं और चेहरा उतरा हुआ था। उसका भाई तख़्त पर बैग रखकर चला गया। उसकी माँ ने मेरे लिए कुर्सी आगे कर दी। मैं कुर्सी खिसकाकर बैठ गया।
- कल शाम से बुखार में तप रही है डॉक्टर साहब।
उसकी माँ चिंतित स्वर में बोली तो उसने अपने चेहरे को और भी मायूस बना लिया। मैंने उसके माथे पर हाथ रखा। वह वाकई तप रही थी।
- यह सब कैसे किया?
उसकी माँ मेरे लिए पानी लाने गई तो मैंने हौले से पूछा।
- वो तुम छोड़ो। बुखार करने के बहुत तरीके हैं मेरे पास।
कहकर उसने अपनी चादर के अन्दर हाथ डाला और दो प्याज बाहर निकाले। मैं मुस्कुरा दिया।
- कमाल हो तुम...
- तुमसे मिलने के लिए इतना भी नहीं कर सकती क्या?
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था और उसकी लाल हुई आँखें जैसे मेरी आँखों में आ गई थीं।
तभी उसकी माँ पानी लेकर आ गईं। उसने जल्दी से प्याज फिर से छिपा लिए और मैंने उसका हाथ इस तरह पकड़ लिया, जैसे नब्ज़ देख रहा हूं।
- इन्हें बुखार है। आप कुछ पानी गर्म करके ले आइए। मैं दवा दे देता हूं।
मैंने बैग खोलकर दो-तीन शीशी निकाल ली।
- यह क्या ले आए हो तुम?
माँ के जाते ही उसकी चंचलता लौट आती थी।
- मेरे पास भी दवा बनाने के बहुत तरीके हैं।
मैं फिर मुस्कुरा दिया।
- बताओ ना। छोटू को थोड़ी मिठाई देकर तुम्हें डॉक्टर क्या बनवा दिया, अपने आप को डॉक्टर ही समझने लगे।
उसमें एक कमी थी। प्रश्न पूछने के बाद उत्तर सुनने के लिए बहुत उतावली हो जाती थी।
- पगली, यह तो बताशे पीस कर लाया हूं।
उसने आँखों ही आँखों में मेरी होशियारी को दाद दी। वैसे मेरी प्रशंसा वह कम ही करती थी और मैं उसके सामने अपनी तारीफ़ों के पुल बाँधता रहता था। वह चिढ़ जाती थी और ऐसे में वह और भी प्यारी लगती थी।
खैर....
- किसी काम से बुलवाया क्या?
मैं थोड़ा गंभीर हो गया।
- हाँ, महेन्द्र का तार आया है।
मैं और गंभीर हो गया। महेन्द्र तभी तार करता था, जब बहुत आवश्यक काम हो। इस बार संगठन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण आदेश आने वाला था।
- क्या लिखा है? मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था...
उसकी लाल आँखों में खून दौड़ रहा था।
- एक इंस्पेक्टर को मारना है।
मेरी आँखें फैल गई थीं। शायद उसकी आँखों ने तार पढ़ने के बाद यही प्रतिक्रिया दी हो।
- लेकिन क्यों? हमारे संगठन ने तो कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया – मैं कुछ रुका – न ही हत्या का।
- हाँ, नहीं लिया। लेकिन यही स्मिथ पंजाब में आठ क्रांतिकारियों की हत्या करके आया है।
मैं कुछ देर सोचता रहा। वह मेरे चेहरे पर आँखें गड़ाए रही।
- लेकिन...
- क्योंकि पंजाब को चोट लगेगी तो दर्द बंगाल को भी होगा।
वह मेरे बोलने से पहले ही मेरे मन की बात समझ जाती थी।
- तुमने तो अपना देश ही बदल लिया निवेद।
मैं मुस्कुरा उठा।
- मेरा शांतनु भारत का होगा तो क्या मुझे बंगाल में सिमटकर चैन मिल पाएगा?
गर्म पानी आ गया था। मैंने बताशे उसमें उड़ेल दिए और सारी मिठास अपनी मीठी निवेदिता को पिला दी।
मेरी प्यारी निवेदिता! इतनी सी उम्र में कितनी चिंताएं थीं उसके पास। मेरा मन किया कि चिल्लाकर घोषणा कर दूं कि हम आज़ाद हैं निवेद, लेकिन झूठ गले में ही कहीं फँसकर रह गया और मैं अपने आँसू छिपाने को उठकर चल दिया।
उसकी माँ पीछे से कुछ कहती रहीं, लेकिन मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया। मैं भीतर ही भीतर चिल्लाता रहा।
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- कोई यह गीत बन्द करवाओSSS
मैं बिस्तर से उछल पड़ा। ऊँची आवाज में सुनाई दे रहे उस गीत से मेरे कान फटे जा रहे थे। डॉक्टर दौड़ कर मुझ तक आया और मेरी हालत देखकर विस्मित सा खड़ा रहा। शालिनी ने दौड़कर मुझे अपनी छाती में भींच लिया। मैं ज़िद कर रहे बालक की तरह छटपटाता रहा।
- कोई यह गीत बन्द करवाओSSS
- कौनसा गीत शांतनु?
वह बहुत प्यार से बोली।
- आमार शोनार बांग्ला आमार शोनार बांग्ला....
मैं अपनी ही धुन में बहुत विकृत स्वर में वही गीत जोर-जोर से गाने लगा ताकि मुझे कुछ और न सुनाई पड़े। मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली थी।
- आमि तोमाके भालोबाशि....
और मैं रुक नहीं सका, प्रतिक्रिया में वही गीत गाता रहा, जिसे मैं बन्द करवाना चाह रहा था।
- चिरदिन तोमार आकाश...
मैं साथ-साथ गा रहा था और रो रहा था।
- यह क्या है डॉक्टर साहब? यह तो बंगाली लग रही है ।
शालिनी ने घबराकर डॉक्टर से पूछ। मुझे सब सुन रहा था- अपनी आवाज, शालिनी की आवाज और तेज आवाज में बज रहा गीत भी।
- यह बन्द करवाओ शालिनी....
मैंने उसे और कसकर जकड़ लिया था।
- क्या शांतनु? कोई गाना नहीं गा रहा कहीं भी।
- आप बंगाली हैं?
डॉक्टर उससे पूछ रहा था और मैं गाता रहा।
- मोरि हाय, हाय रे....
- नहीं, पंजाबी हैं हम तो।
- आमि नयन जले भाशि....
मैं गाए जा रहा था।
- चुप हो जाओ शांतनु।
अब वह चिल्लाकर बोली। मैं चुप हो गया। वह मेरे चेहरे के आँसू पोंछने लगी। मैं हल्का हल्का सुबकता रहा।
- इन्हें बंगाली आती है?
मैंने रोना बन्द कर दिया और अपलक डॉक्टर को देखता रहा। मेरे पास उत्तर था, लेकिन मैं दे न पाया।
शालिनी ही बोली- नहीं, हमारे घर में तो किसी को भी बंगाली नहीं आती। लेकिन ये गा क्या रहे हैं?
- यह बांग्लादेश का राष्ट्रगान है।
डॉक्टर चिंतित स्वर में बोला और मैं उसका अर्थ नहीं समझ पाया।
कभी कभी साधारण से कथन समझ में नहीं आते।
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एक बार की बात है। तब पश्चिमी और पूर्वी बंगाल दुनिया के नक्शे पर नहीं थे। एक बहुत बड़ा राज्य था बंगाल, जिसमें से बाद में असम, उड़ीसा, बिहार, बांग्लादेश, पश्चिमी बंगाल और भी न जाने क्या क्या बना। उसी बंगाल के एक शहर कलकत्ता की तंग गलियों में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। नियमों परम्पराओं के पक्के उस ब्राह्मण परिवार में एक स्वतंत्र सी लड़की थी....निवेदिता।
असल में वह ऐसा दौर था, जब कोई किसी से प्यार नहीं करता था। कुछ लोग देश से प्यार करते थे, लेकिन वह भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से प्रेम का ही प्रतिबिम्ब था। माँएं अपने बच्चों की थालियों से रोटियाँ चुरा चुराकर खाती थीं। पिता अपने काम से लौटते ही बच्चों को पीटने लगते थे और सुबह तक पीटते रहते थे। भाई अपनी बहनों से नहीं बोलते थे और कई सालों तक श्रावण मास में पूर्णिमा नहीं आई थी।
और फिर बंगाल के कुछ लोग बेचैन होने लगे। उन्हें लगने लगा कि कुछ और लोग सोने की रोटियाँ खा रहे हैं या हीरे मोतियों के पलंग पर सो रहे हैं। समुद्र पार से आए अंग्रेज़ भी बहुत बेचैन नस्ल के थे। बीसवीं सदी के आरंभ में बंगाल को दो हिस्सों में बाँटने की बात चली और लोग अपने ही लोगों के साथ लड़ाई-लड़ाई खेलने लगे। उस समय निवेदिता उन्नीस साल की थी।
कुछ लोग कहते हैं कि प्यार एक बार ही होता है। लेकिन उन्नीस साल की निवेदिता को दो प्यार एक साथ हुए, अपने बंगाल से और मुझसे। कुछ लोगों को पागलपन की हद तक प्यार करना बहुत अच्छा लगता है। मेरी निवेदिता भी उनमें से एक थी। रंगमंच ने हमें मिलवाया था। हम युवाओं का एक संगठन थे, जो बाहर से सामाजिक और सांस्कृतिक संस्था थी और अन्दर से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए बेचैन योद्धा।
वगैरह वगैरह....
इस तरह से कहानी सब कहते हैं। मैं भी वही कहानी कह सकता था, जो बार-बार लिखी जा चुकी है। लेकिन चूंकि मैं सच जानता हूं, इसलिए सब कुछ कहूंगा, एक एक बात कहूंगा।
असल में वह ऐसा दौर था, जब कोई किसी से प्यार नहीं करता था। कुछ लोग देश से प्यार करते थे, लेकिन वह भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से प्रेम का ही प्रतिबिम्ब था। माँएं अपने बच्चों की थालियों से रोटियाँ चुरा चुराकर खाती थीं। पिता अपने काम से लौटते ही बच्चों को पीटने लगते थे और सुबह तक पीटते रहते थे। भाई अपनी बहनों से नहीं बोलते थे और कई सालों तक श्रावण मास में पूर्णिमा नहीं आई थी। कहने को तो कुछ लोग प्रेमियों या प्रेमिकाओं से प्यार करते थे। लेकिन उन दिनों बागों में कोयलों ने कूकना बन्द कर दिया था, पपीहों ने गाना बन्द कर दिया था, वर्षों से किसी ने चाँदनी में चकोर को नहीं देखा था और यहाँ तक कि किसी नदी के पानी में किसी को अपनी छाया भी नहीं दिखाई देती थी, किसी आईने में किसी को अपना अक़्स नहीं दिखाई देता था। सजने संवरने के लिए लोग एक दूसरे की आँखों का उसी तरह इस्तेमाल करते थे, जैसे एक दूसरे का इस्तेमाल करते थे। लेकिन सबकी आँखें भी बिल्कुल पारदर्शी हो गई थीं, जिनमें रगें ही दिखती थीं और उनमें बहता खून।
बारह सौ साल पहले एक विद्वान ने लिखा था कि ये लक्षण उस स्थान पर प्रेम के घोर अभाव के हैं। सच में, बंगाल में उन दिनों कहीं प्यार नहीं था....या था तो सारा प्यार मेरी निवेदिता के छोटे से मन में समा गया था और यह बात मैंने अपने मन से नहीं गढ़ी है। कालीघाट पर एक दिन मैं उसके साथ था तो मैंने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा था।
.................हम युवाओं का एक संगठन थे, जो बेचैन थे....किसलिए, यह मैं भी नहीं जानता। और यदि हम किसी से प्यार करते होते तो सब नदियों का पानी उन दिनों कोरे कागज जैसा नहीं हो जाता।
निवेदिता बंगाल से अधिक प्यार करती थी या मुझसे, यह मैंने भी कभी नहीं पूछा।
और ऐसे अप्रेम के माहौल में एक दिन वह मेरे घर आ पहुंची। उस दिन आसमान के बादलों ने मिलकर पूरी धरती पर अँधेरा कर दिया था।
अँग्रेज़ी सरकार के मौसम विभाग ने बाद में बताया कि उस दिन पूरे शहर में पानी की जगह अंगारों की बारिश हुई। वह मुझ तक जीवित कैसे पहुंची, यह सोचकर मुझे बाद में भी अचरज होता रहा।
दरवाजा खोलते ही वह मेरे गले लग गई। उसका पूरा शरीर लाल था। शायद अंगारे छूकर निकल गए हों!
- शांतनु, अब हम देर नहीं कर सकते।
मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। वह मेरे पलंग पर बैठी थी।
- क्या हुआ?
मैं बादलों से हुए उस अँधेरे की गहराई का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा था।
- स्मिथ का काम आज ही पूरा करना होगा।
वह छुईमुई जैसी दिखने वाली लड़की जाने कहाँ से इतनी हिम्मत ले आती थी।
- मुझे तुम्हारी चिंता है निवेद।
वह मुस्कुरा दी।
- कहते नहीं तो क्या मैं नहीं जानती कि तुम्हें मेरी चिंता है?
- स्मिथ को मुझ पर छोड़ दो। तुम कल तक यहाँ से नहीं निकलोगी।
उस अंगारों वाली शाम में उसे बचाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। मुझे याद नहीं कि हुगली में मेरी छाया दिखाई देती थी या नहीं....
- नहीं, महेन्द्र ने यह काम मुझे सौंपा है।
- मैं तुम्हें नहीं खो सकता निवेद....
और मैं उस कथन के बाद बिल्कुल खाली हो गया था।
- तो हम दोनों चलते हैं।
वह बहुत देर बाद बोली। तब, जब मुझे लगने लगा था कि वह नहीं बोलेगी तो वह अपने मन के सारे प्यार को समेटकर बोली थी।
मैं पुरुष नहीं होता तो उस क्षण रो देता। मैं उससे अधिक प्यार करता था या देश से, यह मैंने स्वयं से भी कभी नहीं पूछा।
रात होने लगी थी। कुछ देर बाद बरसात भी थम गई।
- शहरयार हमारे लिए खतरा है।
अब वह खिड़की पर थी और मैं पलंग पर बैठा था।
मुझे नहीं मालूम कि कितने लोग जानते होंगे, लेकिन शहरयार ही था, जिसने पहली बार मुसलमानों को अलग बंगाल की माँग से जोड़ा था और पूर्वी बंगाल का पूरा आंदोलन धर्म के रंग में रंग गया था।
मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद भी उसने कुछ कहा, जो मुझे याद नहीं। मेरे मन में तो उस शाम आशंकाएँ ही गरज बरस रही थीं।
और कुछ देर बाद मैं लोहे के उस जंग लगे पलंग पर, जिस पर बड़े बड़े पीले फूलों वाली चादर बिछी हुई थी और जो हरे रंग वाली दीवार से सटकर बिछा हुआ था, उसी जंग लगे पलंग पर मैं सो गया। मैं, जो वैसे देर तक जागता रहता था, उस शाम जाने क्यों, जाने कैसे सो गया!
वैसे भी प्यार करने वाले लोग बहुत झूठे होते हैं। वे जितने वचन देते हैं, उससे ज्यादा तोड़ देते हैं।
मुझे और निवेदिता को उस रात साथ जाना था, लेकिन मैं सो गया। वह अकेली चली गई।
बाद में मेरे कमरे ने मुझे बताया कि वह खिड़की के पास खड़ी होकर देर तक सोचती रही थी। फिर वह उस अँधेरी रात में बाहर चली गई। मैं सोता रहा।
मैं, जिसे उस रात स्मिथ को मारने के लिए निवेदिता के साथ जाना था, लापरवाह होकर सोता रहा।
वह कुछ देर बाद लौटी। मेरे घर के दरवाजे पर खड़ी होकर वह देर तक मुझे प्यार से देखती रही। मेरी अभागी पलकें फिर भी नहीं खुलीं। उसने भी मुझे नहीं जगाया।
वे, जिनके प्रतिबिम्ब पानी में दिखाई देते हैं, वे, जो प्यार करते हैं, अक्सर वचन तोड़ देते हैं।
और वह मेरे घर के दरवाजे पर बाहर से पीतल का वही ताला लगाकर चली गई, जो उसके कमरे के पिछले दरवाजे पर लगा हुआ था। पीतल का वह ताला निवेदिता अपने साथ क्यों लाई थी, मैं नहीं जानता।
मैं ऐसे सोता रहा, जैसे उस शाम जो शरबत उसने मुझे पिलाया था, उसमें किसी ने अफीम मिला दी हो।
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शहरयार सच में खतरा था। उसके सैंकड़ों भक्त थे। उस रात वह स्मिथ के बंगले पर ही था। अब मैं वे बातें भी बता रहा हूं जो मेरी निवेदिता ने ही देखी लेकिन मुझे लगता है कि मैं भी वहीं था।
स्मिथ और शहरयार उस बंगले के लॉन में बैठकर उस रात शराब पी रहे थे। निवेदिता वहाँ पहुंची तो उसके हाथ में राँची की बनी हुई एक स्वदेशी पिस्तौल थी। उसने उनके सामने पहुंचकर पिस्तौल तान दी।
उस क्षण क्या सोच रही होगी निवेद?
उसकी साड़ी के पल्लू से मेरे घर के दरवाजे पर लगे हुए ताले की चाबी बंधी हुई थी। निवेद उस घर में सो रहे ‘शांतनु’ को सोच रही होगी।
निवेद बंगाल में हँसते-गाते-झूमते-खेलते बच्चों को सोच रही होगी।
निवेद भारत को सोच रही होगी।
हाँ, निवेद बंगाल को नहीं, भारत को सोच रही थी।
उसने पहली गोली शहरयार पर चलाई। राँची की उस स्वदेशी पिस्तौल से दूसरी गोली नहीं निकली।
कुछ साल बाद बंगाल जब टुकड़े टुकड़े हो गया तो उसमें से बिहार भी बना। हैरीसन रोड वाला बकबक पंडित बिहारी था। उस रात के पन्द्रह साल बाद जब वह डाकुओं के एक हमले में मरा तो उसने अपने आखिरी क्षणों में भविष्यवाणी की थी कि एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे और बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा.....
बकबक पंडित की कितनी भविष्यवाणियाँ सच हुईं और कितनी झूठ, इस पर कभी शोध नहीं किया गया लेकिन राँची की वह पिस्तौल शायद उसी बेकार होने की परम्परा का आरंभ थी। निवेदिता ने शहरयार को मार दिया, लेकिन वह स्मिथ को नहीं मार पाई।
उस दिन पूर्णिमा थी। आकाश तब तक साफ हो गया था। निवेदिता ने तीन बार कोशिश की और फिर पिस्तौल फेंक दी। अंग्रेज़ी सरकार के काले सिपाहियों ने उसे घेर लिया था। स्मिथ का नशा उतर गया था और वह अपनी कुर्सी के पीछे छिपा बैठा था। शहरयार लहूलुहान होकर ज़मीन पर पड़ा था।
निवेदिता ने अपने हाथ फैला लिए और अपना गर्वीला चौड़ा उजला माथा उठाकर पूरे चाँद की ओर देखा।
उसे चाँद बहुत प्यारा था। वह बहुत बार रात-रात भर छत पर लेटी चाँद को ही देखती रहती थी।
- तुम कहो तो किसी रात चाँद तोड़ लाऊँ तुम्हारे लिए।
मेरी बातें उसके कानों में गूँज उठीं और वह आँखें बन्द करके मुस्कुरा दी।
उसे पकड़ लिया गया। मैं अफीम पीकर सोता रहा।
गलियों में कुत्ते इतने रोए कि लगने लगा, महाभारत के युद्ध का आर्त्तनाद वहाँ सुनाई दे रहा है। सड़कों पर काली बिल्लियों की कतारें लग गईं और वे सुबह तक एक एक करके हुगली में कूदकर आत्महत्या करती रहीं। कलकत्ता के आसपास के सब खेतों में आग लग गई और आसमान के आँसू भी अनवरत बरसते रहे। न आग बुझी, न आँसू थमे।
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उस रात चाँद आधी रात को ही बुझ गया था। आकाश इतना रोया कि बंगाल में एक महीने तक बाढ़ आई रही। गलियों में कुत्ते इतने रोए कि लगने लगा, महाभारत के युद्ध का आर्त्तनाद वहाँ सुनाई दे रहा है। सड़कों पर काली बिल्लियों की कतारें लग गईं और वे सुबह तक एक एक करके हुगली में कूदकर आत्महत्या करती रहीं। कलकत्ता के आसपास के सब खेतों में आग लग गई और आसमान के आँसू भी अनवरत बरसते रहे। न आग बुझी, न आँसू थमे। सब घरों, पुस्तकालयों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों की अलमारियों और मेजों से सारी किताबें निकलकर सड़कों पर आ गईं अपने पन्ने फाड़ने लगीं। उस रात कोई किताब साबुत नहीं बची थी। बाद में कलकत्ता वाले पूरा साहित्य कहाँ से लाए, यह मैं नहीं जानता। कलकत्ता की सब घड़ियाँ टूट गईं और जो दो-चार नहीं टूट पाईं, उनकी सुइंयाँ पीछे को दौड़ने लगीं। इतना अँधेरा हो गया कि सब बच्चे नींद से जग गए और जोर-जोर से रोने लगे।
लेकिन सिर्फ़ बच्चे जगे। बाकी सब मेरी तरह अफीम पीकर सोते रहे। मैं अगली सुबह उठा और फिर जब तक जिया, एक क्षण के लिए भी आँखें नहीं मींच सका। पागलपन और अनिद्रा का एक पहाड़ जैसा साल गुजारकर मैं मर गया।
नहीं नहीं, मैं और घुमा-फिराकर नहीं कहूंगा। मुझे साफ-साफ कहना ही होगा, चाहे वह सच कितना भी भयानक हो, चाहे वे शब्द कितने भी कठोर हों, चाहे वह सच आज तक किसी जुबान ने कहा हो और किसी कान ने न सुना हो।
उस रात मेरी निवेदिता का बलात्कार हुआ और फिर उसे गोली मार दी गई।
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- हैरीसन रोड कलकत्ता की पहली सड़क थी, जिस पर बिजली से रोशनी की गई थी। 1890 था शायद वह। जगदीश चन्द्र बसु ने उसके लिए बहुत काम किया था....
डॉक्टर नशे की कुछ गोलियाँ देकर चला गया था, लेकिन वे मुझ पर कोई असर नहीं कर पाईं। मैं बड़बड़ाता रहा और बेचारी शालिनी मेरा सिर अपनी गोद में रखकर रोती रही। अब वह मुझे चुप रहने को भी नहीं कह रही थी और मैं किसी अज्ञात अंतर्वेदना से पीड़ित होकर कुछ भी बड़बड़ाए जा रहा था।
शालिनी ने फिर से मोबाइल फ़ोन उठाया। उस पर अंग्रेज़ी में ‘नोकिया’ लिखा हुआ था। मुझे केवल ‘एन’ ही दिखता रहा।
- उस रात हुगली गायब हो गई थी शालिनी....और फिर निवेदिता ही वह नदी बन गई थी, जिसमें डूबकर बिल्लियों ने आत्महत्या की....
- मम्मी, शांतनु पागलों जैसी बातें कर रहे हैं।
वह रोते-रोते ही फ़ोन पर बोली।
- कुछ भी कहे जा रहे हैं। आप किसी निवेदिता को जानती हैं?
मै जानता हूं कि उधर से उत्तर नकारात्मक ही आया होगा।
- और भी न जाने क्या क्या...कलकत्ता, हैरीसन रोड, हुगली....
उसने अपनी नर्म हथेली से मेरी घबराहट से फैली हुई आँखें बन्द कर दीं। मुझे लगा कि मैं अन्धा हो गया हूं।
- क्या? पिछला जन्म?
वह चौंककर बोली। अब मुझे उधर की आवाज़ भी सुनने लगी थी। उधर से कोई बुजुर्ग महिला बोल रही थीं।
- इसे पहले भी ऐसे दौरे पड़े हैं, लेकिन तब निवेदिता का नाम तो नहीं लेता था।
- लेकिन मम्मी, मुझे तो कभी किसी ने कुछ भी नहीं बताया।
मैंने अपने अन्धेपन में भी अनुमान लगाया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई होंगी।
- तब तो यह छ: सात साल का ही था। उसके बाद कभी कुछ नहीं हुआ।
- लेकिन मैं ये पुनर्जन्म जैसी चीजें नहीं मानती। यह कोई मानसिक रोग है। हम इसका इलाज़ करवाएंगे....
वह काँपते स्वर में बोल रही थी। उधर से पहले उन बुजुर्ग महिला का लम्बा मौन और फिर दृढ़ स्वर सुनाई दिया- यह हैरीसन वैरीसन कैसे जानेगा बेटी? आखिर छ; साल का बच्चा कैसे जानता था.....और वह सड़क तो बहुत पुरानी है। उसका नाम भी बदल गया है अब। हमने उस वक़्त भी पता किया था....आज़ादी के बाद उसका नाम महात्मा गाँधी रोड कर दिया गया है....
- मैं नहीं मानती। यह आपका वहम है मम्मी....
उसने फ़ोन काट दिया।
मेरी अन्धी आँखों को लगा कि एक सफेद मखमली दुपट्टा उन्हें सहला रहा है। मैं अपने शरीर की पूरी शक्ति इकट्ठी करके चिल्लाया- निवेदिताSSSS
और बहरा हो गया।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
24 कहानीप्रेमियों का कहना है :
बहुत करुण और कई सवालों को अपने मे समेटे , एक बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी"
Regards
"क्योंकि पंजाब को चोट लगेगी तो दर्द बंगाल को भी होगा।
वह मेरे बोलने से पहले ही मेरे मन की बात समझ जाती थी।
- तुमने तो अपना देश ही बदल लिया निवेद।"
काफी प्रासंगिक कहानी है आपकी ,गौरव जी.
तुम्हारी सबसे बेहतरीन कहानी.....
उस रात चाँद आधी रात को ही बुझ गया था। आकाश इतना रोया कि बंगाल में एक महीने तक बाढ़ आई रही। गलियों में कुत्ते इतने रोए कि लगने लगा, महाभारत के युद्ध का आर्त्तनाद वहाँ सुनाई दे रहा है। सड़कों पर काली बिल्लियों की कतारें लग गईं और वे सुबह तक एक एक करके हुगली में कूदकर आत्महत्या करती रहीं। कलकत्ता के आसपास के सब खेतों में आग लग गई और आसमान के आँसू भी अनवरत बरसते रहे। न आग बुझी, न आँसू थमे। सब घरों, पुस्तकालयों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों की अलमारियों और मेजों से सारी किताबें निकलकर सड़कों पर आ गईं अपने पन्ने फाड़ने लगीं। उस रात कोई किताब साबुत नहीं बची थी। बाद में कलकत्ता वाले पूरा साहित्य कहाँ से लाए, यह मैं नहीं जानता। कलकत्ता की सब घड़ियाँ टूट गईं और जो दो-चार नहीं टूट पाईं, उनकी सुइंयाँ पीछे को दौड़ने लगीं। इतना अँधेरा हो गया कि सब बच्चे नींद से जग गए और जोर-जोर से रोने लगे।
लेकिन सिर्फ़ बच्चे जगे। बाकी सब मेरी तरह अफीम पीकर सोते रहे।
इस पीडा की अभिव्यक्ति मे तुम खरे उतरे...
pata nahi tum itna gahara kaise soch lete ho.....it is mind blowing.....
after reding it i kept thinking for few minutes....which happens rare.....
gud creation.....
सच में गौरव जी कहानी कहूँ इसे या किताब..
एक दम लाजवाब.. मार्मिकता, कोतूहलता, करुणता, आक्रोश, जघन्यता, क्या कुछ नही हैं..
बहुत ही बढिया..
लाजवाब गौरव भाई,ऐसे ही नही सब कहते हैं,गौरव जी आप हमारे युग्म के गौरव हैं,मर्म का इतना बेहतरीन ताना बना,इतने प्रासंगिक तौर पे,शुभ्नाल्ला
ऐसे ही लगे रही गौरव भाई
आलोक सिंह "साहिल"
गौरव जी!
आपने जो लिखा है उसमें भावुकता है,संवेदनशीलता है,दर्द भी है। पर शिल्प की दृष्टि से इस कहानी में बहुत गुंजाइश बचती है।आप उस दौर को ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। बंगाल में उग्रराष्ट्रवाद बंगाल विभाजन के बाद से उभरता है। मैने आप की सारी कहानी तो नहीं पढ़ी पर जितनी पढ़ी है, मैने महसूस किया है कि आप कहानी को भावुकता के सहारे आगे बढ़ाते हैं शुरू से अंत तक। जबकि मेरा मानना है कि कोई भी कहानी एक पुरा दौर होती है,कहानी लिखते समय कहानीकार का ये धर्म बनता है कि वो बिना किसी पुर्वाग्रह के उस पूरे दौर को प्रस्तुत करे बिना खुद प्रस्तुत हुए चाहे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।
इस बार की कहानी कुछ अलग लगी। पर इसमे भी प्रेम की भावना साफ देखने को मिलती है। कुल मिलाकर मन को छू जाने वाली कहानी।
कहानी को पसन्द करने के लिए आपका आभार।
मेरा उद्देश्य सिर्फ़ निवेदिता या उसके प्रेम की कहानी कहना नहीं, बल्कि उस दौर की और बंगाल की कहानी कहना भी था।
मनीष जी, आपने कहा कि-
आप उस दौर को ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। बंगाल में उग्रराष्ट्रवाद बंगाल विभाजन के बाद से उभरता है।
एक तो बात यह कि उग्र राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद में बहुत अंतर है। बंग विभाजन से पहले भी राष्ट्रवादी संगठन और उसके लिए काम करने वाले लोग थे। आप तो यह कहना चाह रहे हैं कि एक दिन अचानक राष्ट्रवादी विचारधारा शुरु हुई। व्यापक रूप में यह अवश्य बाद में फैली है, लेकिन इसका समर्थन करने वाले लोग हमेशा से थे।
एक और बात- लिखते समय मेरे मन में पूर्वाग्रह नहीं रहे। एक एक बात उस दौर का सच ही है, चाहे वह खुलकर न कहा गया हो।
आप कहानी पूरी पढ़िए। मैंने लिखा भी है- इस तरह से कहानी सब कहते हैं। मैं भी वही कहानी कह सकता था, जो बार-बार लिखी जा चुकी है। लेकिन चूंकि मैं सच जानता हूं, इसलिए सब कुछ कहूंगा, एक एक बात कहूंगा।
आप सब का एक बार फिर से धन्यवाद।
बेहतरीन कहानी, जितनी प्रशंशा की जाये कम है,बधाई
इस कहानी के बाद कहानी कलश का स्तर काफी बढ़ गया है.
गौरव हिन्दयुग्म का 'गौरव 'है इस में दो राय नहीं.
मैं आश्चर्य में हूँ कि एक युवक जो की विज्ञान का विद्यार्थी है उसका लेखन इतना परिपक्व कैसे हो सकता है. इंजीनीयरिंग की पढ़ाई के साथ साथ इतनी लम्बी कहानी लिखने का समय तुम्हें कैसे मिल पाता है?
इस स्तर की कहानियाँ पहले कादम्बनी वगैरह में पढने को मिलती थीं.
हर पहलू से कहानी बहुत अच्छी है.
शुभकामनाएं.
गौरव भाई,
अल्पना जी की बात से सहमत हूँ। मैं पेशे से इंजीनियर हूँ। पढ़ने का समय तो मैं निकाल लेता हूँ। कोशिश रहती है कि हिंदयुग्म की सारी रचनायें पढ़ी जायें। पर कवितायें व लेख लिखने का समय कभी कभार ही निकाल पाता हूँ। शायद महीने में ३-४ बार। आप कैसे समय निकाल लेते हो, ये समझना पड़ेगा। शायद इसी को टाइम मैनेजमैंट कहते हैं, हमें भी सिखायें।
मुझे अफसोस रहेगा कि मैं पुस्तक मेले में आप से नहीं मिल पाया।
कहानी की बात करूँ, तो मैंने बंगाल पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, पर उस प्रेम कहानी पर दिया जिसने मुझे साँस रोक कर पढ़ने पर मजबूर किया। दर्द महसूस कराया और कुछ पंक्तियों ने तो रौंगटे खड़े कर दिये।
"नहीं नहीं, मैं और घुमा-फिराकर नहीं कहूंगा। मुझे साफ-साफ कहना ही होगा, चाहे वह सच कितना भी भयानक हो, चाहे वे शब्द कितने भी कठोर हों, चाहे वह सच आज तक किसी जुबान ने कहा हो और किसी कान ने न सुना हो।
उस रात मेरी निवेदिता का बलात्कार हुआ और फिर उसे गोली मार दी गई"
अल्पना जी और तपन जी,
इस समय को निकालने के लिये बहुत बार समस्या आती है, लेकिन जब आप दिल से कुछ चाहें तो वक़्त भी मिल ही जाता है।
जहाँ तक मिलने का सवाल है। फिर कभी मिल लेंगे। :)
गौरव! यूँ मुझे तारीफ़ करने की आदत नहीं है मगर कभी कभी मज़बूर हो जाता हूँ, जैसे कि तुम्हारी इस कहानी ने कर दिया है. अच्छी कहानी के लिये बधाई!
गौरव!
आपकी यह कहानी आपकी पूर्व कहानियों से ज्यादा आगे है। आपकी लेखनी में शिल्पगत विशेषताएँ बढ़ती जा रही हैं। मैं आपकी कहानी को ट्रेन में यात्रा के दौरान पढ़ने के लिए प्रिंट करके ले गया था। १२ पृष्ठों की कहानी को देखकर लगा कि शायद पढ़ने में कष्ट हो लेकिन १२ मिनट से कम में खत्म हो गई और रात भर इस कहानी का असर मेरे मन-मष्तिस्क पर रहा। आप कहानीकार के रूप में भी सफल हैं।
behad achchha bhai ye kahani to ab bhi hai ab to bharat bharat nahi raha bhai vo bharat jise ek karne ke paryash me jane kitni jaane gayi use aajkal ke neta apna bank ballance ore vote ke liye hajaro tukdo me bantne ko tyaar hai. hindustaan ke har kone ke liye ab shayad passport and visa lagvane padenge
kahani behad achchhi hai
गौरव
यह ! कहानी बहुत बिलंब से पढ़ पाया हूँ. मानव मन के अंतर्द्वंद पर जो अधिकार तुम कर चुके हो उस पर संभवतः ...... आगे कुछ नहीं कहूँगा
स्नेह शुभकामना
Jalan ho rahi hai aapse, kash men bhi is tarah soch sakta, to aapkee tarah sapnon ka anand le pata.
kya kahun. kahani padhi to comments die bina nahi rah paya. bas kewal ek line ki taareef hei, vo ye ki -bas dil khush kar dia.. bahut time baad aisi kahani padhne mili.
keep it up man.. :)
इक कहानी जब तक आपको घंटो तक सोचने पर मजबूर न कर दे, उसमें दम नहीं ऐसा कहते हैं .. आपकी कहानी घंटों नहीं दिनों सोचने पर मजबूर करती है, शरतचंद्र की कहानियों की नायिका की तरह आपकी नायिका में कुछ कर दिखने का जूनून, पवित्र प्रेम, और बहुत बारीकी से दिखाया बंगाल का हाल कहानी को बहुत मजबूत बनाते हैं.
खूबसूरत कहानी के लिए बधाई.
शैलेश जी के कहने पर आपकी कहानी पढना सफल रहा. शुक्रिया
..
दीप
कहानी के अंत मैं में खुद से सिर्फ इतना ही कह पायी :Brilliant ;
नहीं जानती की बंगाल क्या इतना ही अँधेरा था ,या उससे कम या कुछ ज्यादा ही ....
लेकिन जिस तरह से मेरा परिचय उस अंधकार से आपने करवाया, वो अद्भूत था....
mr.gourav,
your story 'ak ldki jo ndi ban gi'is very interesting.it maka me imotional and sentimentel.
you are great and best story writer.this is a best story i am wordless.
mr.gourav,
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