Saturday, March 1, 2008

कहानी - डर

(ये कहानी दूरदर्शन पर मंजू सिंह के लोकप्रिय धारावाहिक कार्यक्रम एक और कहानी में एक घंटे की फिल्‍म के रूप में दिखायी गयी थी. इसकी सीडी अनुरोध पर अपलब्‍ध करायी जा सकती है- सूरज प्रकाश)

शारदा काम पर लौट आयी है। गोद में महीने भर का बच्चा लिये। दरवाजा मिसेज रस्तोगी ने खोला। उसे देखते ही खुश हो गयीं, ''बधाई हो शारदा। अच्छा हुआ तू आ गयी। तू जो ल़ड़की लगा गयी थी थी, वह तो एकदम चोट्टी थी। नागे भी कितने करती थी। देखूं तो सही, कैसा है तेरा बेटा?''
उन्होंने देखा, शारदा जचगी के बाद और निखर आयी है। वैसे देखने में एकदम बदसूरत और काली है, लेकिन उसकी चमकती आंखें, मेहनती, कसा हुआ शरीर और मस्त चाल देखने के बाद उसकी बदसूरती पर ध्यान नहीं जाता।
इससे पहले कि शारदा अंदर आकर कप़ड़े में लिपटे अपने बच्चे का मुंह मिसेज रस्तोगी को दिखाए, उन्होंने उसे टोका, ''ठहर जरा, खाली हाथ बच्चे का मुंह नहीं देखते। पहले कुछ शगुन ले आऊं।'' कहती हुई वे भीतर चली गयीं। ड्राइंग रूम में उनके लौटने तक शारदा ने बच्चे को कालीन पर लिटा दिया है और स्टीरियो पर फड़कते गानों का एक कैसेट चढ़ा दिया है। पूछ रही है-''साहब कैसे हैं, प्रिया मेम साब कैसी हैं, संदीप बाबू कैसे हैं, आपके घुटनों का दर्द कैसा है अब?'' बच्चे को गुदगुदाते हुए शारदा पिछले डेढ़-दो महीने का हिसाब-किताब ले-दे रही है।
ज्यों ही मिसेज रस्तोगी ने बच्चे का मुंह देखा, सकपका कर एकदम पीछे हट गयीं,''यह कैसे हो सकता है!'' सांस एकदम तेज हो गयी। माथे पर पसीना आ गया। उन्होंने शारदा की तरफ देखा, वह अपने बच्चे में मस्त है। सोफे का सहारा लेकर वे वहीं बैठ गयीं। मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। ''यह क्या हो गया! कैसे हो गया! शारदा का बच्चा और...'' उनके दिल को कुछ-कुछ होने लगा। ''भला इस बच्चे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है? वही गोल चेहरा, नीली आंखें, चिबक पर काला मस्सा!'' शारदा तो एकदम काली-कलूटी है और उसके पहले दो बच्चे भी शक्ल में अपनी मां पर गए हैं। उसके मरद को भी देखा है उन्होंने, शारदा से उन्नीस-बीस ही है! तो... तो... फिर क्या यह बच्चा उनका अपना पोता है? शारदा से... इस काली-कलूटी नौकरानी से? शादीशुदा, दो बच्चों की मां से... जो घर-घर जूठे बर्तन मांजती फिरती है उससे... वे आगे सोच नहीं पायीं। एक बार फिर शारदा की तरफ देखा। उसका ध्यान अभी भी बच्चे की तरफ है। अपने राजा मुन्ना की बातें बताऐ जा रही है। वे वहां और बैठ नहीं पायीं। बच्चे के ऊपर शगुन के पैसे रखकर बधाई के शब्द बुदबुदा कर भीतर चली गयीं। यह क्या हो गया? संदीप तो... संदीप तो... उन्हें कैसे पता नहीं चला संदीप इस नौकरानी से... उन्हें कभी शक भी नहीं हुआ और मामला इतना आगे... उनका सिर घूमने लगा है।
शारदा घर भर में घूमती फिर रही है। कह रही है-''उस लड़की ने तो घर बहुत गंदा कर छोड़ा है। मैं चार दिन में ही इसे पहले जैसा चमका दूंगी।'' चाय बनायी है उसने। एक कप उनके आगे रख दिया है। वे तेज नज़रों से शारदा की तरफ देखती हैं। नये मातृत्व से उसका चेहरा दिपदिपा रहा है। पूछना चाहती हैं - शब्द होठों तक आकर साथ छोड़ देते हैं। शारदा लगातार बोले जा रही है, ''मेरा राजा मुन्ना तो लाखों में एक है। मैं इसे बहुत बड़ा आदमी बनाऊंगी। बिलकुल तंग नहीं करता। पहले वाले बच्चों ने कित्ता सताया था मुझे।'' मिसेज रस्तोगी को कुछ सुनाई नहीं दे रहा। शारदा के शब्द हथौड़े की ठक...ठक... की तरह बज रहे हैं दिमाग पर। पथराई आंखों से देख रही हैं वे। उन्होंने एकाध बार शारदा को हाथ के इशारे से चुप करना चाहा, लेकिन ऐसा भी नहीं कर पायीं।
शारदा रसोई में चाय के बर्तन धोने गयी तो वे चुपके से जाकर एक बार फिर बच्चे को देख आयीं ''शक की कोई गुंजाइश नहीं है। उसकी नीली आंखें और गोरा रंग सारा किस्सा बयान कर रहे हैं।'' वे एक पल उसे देखती रह गयीं। हाथ आगे भी बढ़े उसे गोद में उठाने के लिए - आखिर अपना खून है - लेकिन सकपका कर पीछे खींच लिये। तेजी से अपने कमरे में लौट आयीं। उन्हें हल्की सी झलक मिली - शारदा संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी है। तो क्या...शारदा कहीं इस बच्चे को लेकर इस घर में घुसने का ख्वाब तो नहीं देख रही? क्या कर डाला है संदीप तूने! कुछ तो आगा-पीछा सोचा होता! हाथ-पांव ढीले पड़ने लगे हैं उनके। वे इंतज़ार करने लगीं-शारदा जल्दी चली जाए। उनकी रुलाई रोके नहीं रुक रही।
चाय पीकर चली गयी है शारदा, ''काम करने कल से आऊंगी। अभी तो बाकी घरों में भी बताना है। सभी तो कंटाल गए हैं उस लड़की से।''
तो इसका यह मतलब हुआ, अभी घंटे भर में पूरी कॉलोनी को खबर हो जाएगी कि शारदा जिस तीसरे बच्चे को गोद में लिये घर-घर बधाइयां बटोरती फिर रही है, वह प्रोफेसर वीडी रस्तोगी के होनहार सपूत संदीप रस्तोगी का है। कॉलोनी के जिस घर में भी वह जाएगी, वहीं बच्चे के कुल-वंश का पन्ना खुलकर सबके सामने आ जाएगा। सभी उसकी जन्म-पत्री बांचने लगेंगी। क्या करें, प्रोफेसर साहब को फोन करें। लेकिन वे तो तीन बजे तक ही आ पाएंगे। प्रिया को फोन पर बताएं! वह बेचारी घबरा जाएगी सुनकर। क्या करें! वे बौराई-सी घर भर के चक्कर काटती फिर रही हैं। क्या कर डाला संदीप ने। कहीं का न छोड़ा। अब कॉलोनी में बात फैलने में घंटा भर भी न लगेगा। सब थू-थू करेंगे। रिश्तेदारी है। कैंपस है। प्रिया का ऑफिस है। बातें बिना परों के सब जगह पहुंच जाएंगी। नासपीटी को यही घर मिला था बरबाद करने के लिए ! मुझे क्या पता था, इतनी बड़ी आफत पाल रही हूं। हाय-हाय करतीं वे रोये जा रही हैं।

प्रोफेसर साहब के आते ही मिसेज रस्तोगी ने अपने सीने पर रखा पत्थर उठा कर उनके सीने पर रख दिया। सन्न रह गए वे। छी: इतनी घटिया पसंद संदीप की। ऐसी कौन-सी आग लगी हुई थी जवानी को। मुंह से बोलते तो सही जनाब। प्रिया के लिए रिश्ता ढूंढ़ने से पहले उसी के लिए लड़की देखते। जल्दी ही कुछ करना होगा। बात प्रिया की होने वाली ससुराल तक भी पहुंच सकती है। अभी तो बात भी पक्की नहीं हुई है। वे भी परेशानी की चादर ओढ़कर बैठ गए हैं। सोच रहे हैं-क्या करें। अगर यह सब सच है तो संदीप के कानपुर लौटने से पहले कुछ करना होगा। शारदा को ही यहां से हटाना होगा। उसका क्या है। कहीं भी झोपड़ी खड़ी कर लेगी। चार पैसे कमा लेगी। लेकिन यहां तो जो भी शारदा की गोद में इस बच्चे को देखेगा, हमारे खानदान पर हंसेगा। इतने बरसों में जो इज्ज़त बनायी है, उसकी गठरी उठाए - उठाए शारदा घर-घर घूमती फिरेगी। मुंह पर कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन सब मज़े लेंगे। क्या करें!
पूछा उन्होंने, ''क्या कहती हो, कुछ पैसे-वैसे लेकर वह यहां से चली जाएगी क्या? क्या करता है उसका मरद?''
''करता क्या है। सारा दिन दारू पी के पड़ा रहता है। जब वह काम पर जाती है तो पीछे बच्चों को संभालता है। सुना है कहीं माली-वाली है। पता नहीं यहां से जाने के लिए तैयार होगी भी या नहीं।'' तभी मिसेज रस्तोगी ने पूछा,''क्या यह नहीं हो सकता, आजकल ही में उससे बच्चा लेकर दूर किसी अनाथालय में रखवा दिया जाए। पर उसके लिए भी पता नहीं मानती है या नहीं?''
''कैसा था उसका रुख?''
''बहुत इतरा रही थी। सबके हाल-चाल पूछ रही थी, जैसे सबकी सगी वही हो। भीतर संदीप के कमरे में उसकी फोटो के आगे खड़ी थी। सुनो जी, मुझे तो एक और भी डर लगा रहा है,'' उन्होंने शंका जताई,''उसके लक्षण तो ठीक नहीं लगते। कहीं घर की मालकिन बनने के ख्वाब न देख रही हो?''
''तुम इतनी दूर की मत सोचो। इतना आसान नहीं है घर में घुस जाना। क्या तुम्हें पूरा विश्वास है, बच्चे की शक्ल संदीप से मिलती है!'' उन्होंने फिर आश्वस्त होना चाहा।
''अब मैं आपको क्या बताऊं, कल खुद देख लेना अपनी आंखों से'' वे फिर बिसूरने लगीं, ''लेकिन जो भी करना है, जल्दी करो।''

तीनों रात भर सो नहीं पाए। मिसेज रस्तोगी को तो रात भर खटका लगता रहा। वह आ गई है, एक हाथ में बच्चा और दूसरे हाथ में कपड़ों की पोटली लिये। उसने जबरदस्ती संदीप के कमरे पर कब्जा कर लिया है। उन्हें घर से बाहर धकेल दिया है। प्रिया पर भी वह हुक्म चला रही है। खुद मालकिन बनकर वह घर भर को सता रही है। संदीप भी हाथ बांधे एक तरफ खड़ा है। रात भर उन्हें बुरे-बुरे ख्याल आते रहे। सभी कॉलोनी वाले बधाई देने आ रहे हैं। खूब हंस रहे हैं, मज़ाक कर रहे हैं। हिजड़ों की फौज आ गयी है दरवाजे पर नाचने के लिए। बख्शीश लिये बिना टल नहीं रही। वे रात भर उठती-बैठती रोती-कलपती रहीं।
उधर प्रोफेसर रस्तोगी रात भर करवटें बदलते रहे। ज़िंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव देखे थे। लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ था कि पूरे खानदान की इज्ज़त ही दांव पर लग गयी हो, और वे कुछ न कर पा रहे हों।
प्रिया तो सोच-सोचकर जैसे पागल हुई जा रही है। कैसे सामना करेगी सबकी निगाह का। बात ससुराल भी पहुंचेगी ही। ज़िंदगी भर के लिए उनके पीहर को नीचा दिखाने के लिए उन लोगों को एक बहाना मिल जाएगा। फिर ऑफिस है, लोग हैं। सभी कुरेदेंगे। जैसे-तैसे सुबह हुई। वह आयी। उसी आत्मविश्वास के साथ लापरवाही वाला अंदाज़ लिये। बच्चा गोद में। उसके आते ही सबका रक्त चाप बढ़ गया। सभी खुद को पूरी तरह व्यस्त दिखाने लगे। प्रिया एक किताब लेकर बैठ गयी। प्रोफेसर साहब कुछ फाइलें लेकर स्टडी में घुस गए। मिसेज रस्तोगी अपने जोड़ों के दर्द को लेकर हाय, हाय करती बेडरूम में जा लेटीं।
पहले तो उसके लिए दरवाजा खोलने के लिए भी कोई नहीं आया। दो-तीन बार उसने लगातार बेल बजायी तो प्रिया उठी। दोनों की आंखें मिलीं। शारदा मुस्कराईं-''कैसी हैं मेम साब!'' प्रिया बिना कुछ बोले एक तरफ हो गयी। कुछ कह ही न पायी। शारदा धड़धड़ाती हुई अंदर चली आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। स्टीरियो चलाया। ए.सी. ऑन कर दिया। फिर चाय बनाने रसोई की तरफ बढ़ गयी। इतनी देर सबकी सांस थमी रही। किसी की हिम्मत न हुई, उसे रोके-टोके। जैसे सब उसी की गिरफ्त में हों। प्रिया उस पर सबसे ज्यादा चिल्लाया करती थी। कोई उसकी चीज़ों को, खास कर स्टीरियो को हाथ लगाए - वह कत्तई बरदाश्त नहीं कर सकती थी। आज प्रिया बेबस-सी देख रही है। और शारदा के पीछे-पीछे कामों में मीनमेख निकालती घूमने वाली श्रीमती रस्तोगी - वे भी बिलकुल शांत हैं। तीनों दम साधे व्यस्तता का नाटक कर रहे हैं। घर भर में स्टीरियो की आवाज गूंज रही है। किसी की हिम्मत नहीं हो रही, उसको बंद कर दे।
बड़ी तेजी से काम निपटाए जा रही है शारदा। बीच-बीच में आकर अपने राजा मुन्ने को भी देख लेती है। घर के कामों के साथ-साथ उसे दूध पिलाना, उसके पोतड़े बदलना सब कुछ चल रहा है। जब वह गुसलखाने में कपड़े धोने गयी तो मिसेज रस्तोगी लपककर उठीं और प्रिया और प्रोफेसर साहब को ड्राइंग रूम में ले आयीं।
''ओह! यह तो सचमुच संदीप पर गया है। बहुत प्यारा बच्चा है।'' प्रोफेसर साहब के हाथ भी उसे उठाने के लिए कसमसाने लगे। बड़ी मुश्किल से खुद को रोका उन्होंने। प्रिया की रुलाई फूट पड़ी। मिसेज रस्तोगी को चक्कर आ गया। वे वहीं लुढ़क गयीं। दोनों किसी तरह उन्हें उठा कर बेडरूम तक ले गए।
जब तक वह घर में रही, सिर्फ उसी की मौजूदगी महसूस की जाती रही। बाकी तीनों काठ बने रहे। एकदम चुप। गुमसुम। मातमी उदासी ओढ़े बैठे रहे। आज प्रिया ने भी महसूस किया, उसकी निगाहें बार-बार संदीप के कमरे की तरफ उठ रही हैं। उसने संदीप का कमरा खूब अच्छी तरह झाड़ा-पोंछा। सबसे ज्यादा वक्त उसने उसी कमरे में लगाया। प्रिया ने खुद को मन-ही-मन इसके लिए तैयार भी कर लिया कि अगर शारदा संदीप के बारे में कुछ पूछती है, तो वह उसे तुरंत घेर लेगी। लेकिन शारदा ने ऐसी कोई उतावली नहीं दिखायी। ढाई-तीन घंटे तक इन तीनों को बंधक बनाए रखने के बाद वह छम... छम... करती चली गयी।
उसके जाते ही तीनों सिर जोड़कर बैठ गए हैं। पहली समस्या तो यही है कि उससे कुबूलवाया कैसे जाए। संदीप से तो बाद में भी निपट लेंगे। पहले इसका जल्दी कुछ किया जाए। अब तक तो पूरी कॉलोनी को खबर हो चुकी होगी। यह तो तय कर ही लिया गया है कि फिलहाल संदीप को कानपुर में ही कुछ दिन रहने के लिए फोन कर दिया जाए। संदीप का आना इसलिए भी ठीक नहीं है कि कहीं उसी ने शारदा का पक्ष ले लिया तो ग़ज़ब हो जाएगा। उसे फोन पर इस बारे में कुछ भी न बताया जाए।
अगर शारदा कबूल नहीं भी करती, तो भी पहले तो यही करना है, उसे कुछ दे-दिलाकर यहां से हमेशा से चले जाने के लिए कहा जाए - आज या कल में ही। नहीं आती तो उससे बच्चा लेकर किसी अनाथालय में देने की कोशिश की जाए। कोई तीसरी तरकीब वे नहीं सोच पाए। हां, अगर वह घर में घुसने की कोई कोशिश करती है, तब तो साफ जाहिर हो जाएगा कि उसकी पहले से ही यही नियत थी और इसलिए उसने संदीप को फंसाया। उस हालत में तो उससे निपटना आसान हो जाएगा। जनमत उन्हीं की तरफ होगा।
बात अटक गई है - फिलहाल कॉलोनी वालों की निगाह का सामना कैसे करें? बाहर आना-जाना कम ही किया जा सकता है, एकदम बंद तो नहीं। लोगों को कुछ बात रकने को मसाला चाहिए। चटकारे लेंगे। थू-थू करेंगे। अगर सब कुछ ऐसे ही चलने दिया गया तो बच्चा कल बड़ा होगा, इन्हीं गली-मोहल्लों में खेलेगा। किस-किस का मुंह बंद करते फिरेंगे?

शाम तक वे तीनों सिर्फ सोचते रहे, कुछ भी तय नहीं कर पाए। अब सीधे-सीधे तो शारदा से यह नहीं कहा जा सकता - देख, तूने हमारे संदीप के साथ रंग-रेलियां मनायीं। मौज की। किसने किसकों फंसाया, भूल जा। लेकिन तुम दोनों की बेवकूफियों का नतीजा अब सामने है। देखो, हम ठहरे इज्ज़तदार आदमी। बेशक यह हमारे बेटे से हुआ है लेकिन इस बच्चे की यहां मौजूदगी से हमारी इज्ज़त को बट्टा लग रहा है, इसलिए तू इसे अपने बसे-बसाए जीवन और रोजी-रोटी के आसरे को लेकर यहां से हमेशा के लिए दफा हो जा।
कौन कहता यह सब? उनकी तो शारदा के सामने आने की हिम्मत नहीं हुई, उसकी मस्ती और लापरवाही को भी वे झेल नहीं पा रहे।
शाम को वह फिर आयी। सबको फिर लकवा मार गया। दिन की सारी योजनाएंं धरी रह गईं। बच्चे को उसी तरह कालीन पर लिटाना, स्टीरियो चलाना, घर भर में गुनगुनाते घूमना, बच्चे की ढेरों बातें बताना, उसे दूध पिलाना, किसी न किसी बहाने संदीप के कमरे में जाना सब कुछ चलता रहा। एक नाटक की तरह वह अकेली अपना पार्ट अदा करती रही। बाकी तीनों मूक दर्शक बने रहे। न उसने संदीप के बारे में पूछा, न किसी को बात करने का मौका मिला।
एक बार फिर वह हाथ से निकल गयी। उसके जाते ही फिर तीनों के सिर जुड़ गए - आखिर चाहती क्या है? एक तरफ तो इस घर को अपना घर समझ कर घर भर की चीज़ें इस्तेमाल करने लगी है तो दूसरी तरफ किसी किस्म की कोई मांग नहीं। जिक्र नहीं। घर भर को एक जकड़न में बांध रखा है उसने। काम छुड़वाने के लिए भी कैसे कहा जाए। बात करने का कोई सिरा तो हाथ लगे। दोनों बार उससे किसी ने बात नहीं की, लेकिन उसे परवाह ही नहीं। वह अपने बच्चे में ही मस्त है।
कॉलोनी में सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। दो-एक औरतें बहाने से घर भी आयीं। शारदा का जिक्र भी छेड़ा। उसके वापस आने से आराम हो गया है, लेकिन वही बात नहीं कही, जिसके लिए आयीं थीं। कुछेक औरतों ने सीधे ही शारदा को कुरेदने की कोशिश की, लेकिन उसने साफ इनक़ार कर दिया है। लोग हंसते हैं - उसके मना करने से क्या है, कोई भी बता सकता है-उसकी रगों में किसका खून दौड़ रहा है। वह किसी के भी मज़ाक का जवाब नहीं देती। टाल जाती है।
अब वह पहले की तरह गंदे कपड़ों में नहीं आती। बच्चे को एकदम साफ रखती है। अपनी हैसियत से महंगे कपड़े पहनाती है। उसके पहले दोनों बच्चे उसके साथ कभी नहीं देखे गए, लेकिन तीसरा हरदम उसकी गोद में रहता है। कुछ घरों में उसे बच्चे के लिए पुराने कपड़े देने की कोशिश की गई तो उसने लेने से सफ इनकार कर दिया। पहले यही शारदा अपने लिए और बच्चों के लिए सब कुछ मांग लिया करती थी।

तीसरे दिन सुबह जाकर कुछ बात बनी। बनी नहीं बिगड़ गयी। उस समय प्रोफेसर साहब घर पर नहीं थे। वह आयी। बच्चे को कालीन पर लिटाया। ज्यों ही स्टीरियो चलाने के लिए मुड़ी, प्रिया एकदम बरस पड़ी-''हटा इसे यहां से। रोज़-रोज़ कालीन पर लिटा देती है। खराब होता है यह।''
इससे पहले कि शारदा पलट कर कुछ कहे, प्रिया ने एक और फरमान जारी कर दिया,''और खबरदार जो आज से मेरे स्टीरियो को हाथ लगाया। ढंग से काम करना है तो कर वरना और कोई घर देख।'
शारदा एकदम ठिठकी खड़ी रह गर्यी। उसे शायद इसकी उम्मीद नहीं थी। उसने बच्चे को उठाया और एक कोने में बैठ गयी। मौका सही लगा मिसेज रस्तोगी को भी। वे भी मैदान में आ गयीं-''बता कब से फंसा रख है तूने संदीप को? बोल!''
''क्या मतलब?'' शारदा बमकी, ''किसने किसको फंसा रखा है?''
''तो फिर तेरे इस छोकरे की शक्ल संदीप से कैसे मिल रही है?'' बहुत रोकने पर भी उनकी आवाज भर्रा ही गयी है।
''मुझे क्या पता?'' शारदा ने लापरवाही से कहा।
''तुझे पता नहीं तो फिर किसे पता होगा? पता नहीं कहां-कहां मुंह मारती फिरती है। हमारे सीधे-सादे लड़के को फंसा लिया है। हमें कहीं का न छोड़ा।''
शारदा एकदम खड़ी हो गयी - ''खबरदार मेमसाब, जो मेरे चरित्तर के बारे में कुछ ऐसा-वैसा कहा तो, इत्ती देर से मैं चुपचाप सुन रही हूं और आप बोले जा रही हैं। मैं अपने काम से काम रखती हूं। फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती।''
''फालतू लफड़ों में नहीं पड़ती तो बता तू कि बच्चों की शक्ल यूं ही किसी से कैसे मिल जाती है?'' अब कमान प्रिया ने संभाल ली है।
''मुझे क्या पता। आपको काम छुड़वाना हो तो वैसे बोल देयो। मैं अभी छोड़के चली जाती। पर मेरे कू फालतू बोलने का नईं।'' यह कहते हुए उसने बच्चे को उठाया और एकदम बाहर निकल गई।
एक पल को तो मां-बेटी दोनों सकते में आ गयीं। यह क्या हो गया? फिर राहत की सांस भी ली। अब कम-से-कम हर वक्त छाती पर तो सवार नहीं रहेगी। एक दुविधा जरूर खड़ी हो गयी है। उससे संवाद की जो स्थिति पैदा हुई थी, वह एकदम हाथ से निकल गयी। इतनी मुश्किल से हाथ आया मौका दोनों ने खो दिया। अब न तो उससे यह ही कहा जा सकता है कि कॉलोनी छोड़ के चली जा और न ही उससे बच्चा मांगा जा सकता है। उसके तेवर देखकर तो यही लगता है -आसानी से हाथ धरने नहीं देगी। अलबत्ता, यह साफ हो गया कि इस घर में घुसपैठ करने का उसका कोई इरादा नहीं है।
जब प्रोफेसर साहब को पूरी बात पता चली तो वे झल्लाए, ''तुम लोगों को ज़रा-सा भी सब्र नहीं था? जान-बूझकर पूरी बाजी उलट दी है। उसने अगर अपनी मर्ज़ी से काम पर आना बंद कर दिया तो उसे कुछ कहने-सुनने का हमारा कोई हक ही नहीं रहेगा।''
शारदा ने वाकई काम पर आना बंद कर दिया है। बाकी घरों में उसी मुस्तैदी से बच्चे को लिये-लिये घूम रही है। भीतर-ही-भीतर चल रही सुगबुगाहट अब और मुखर हो गयी है। लोगों को अब पूरा विश्वास होने लगा है।
बहुत सोच-समझकर और अपने आप को हर तरह से तैयार करके प्रोफेसर रस्तोगी रात के अंधेरे में शारदा की झोंपड़ी में गए हैं। इतने पैसे ले कर, जितने शारदा दस सालों में भी न कमा सके। लेकिन शारदा पैसे देखते ही भड़क गयी, ''किस बात के पैसे? जब काम करती थी, पैसे लेती थी। मेहनत-मजूरी करती हूं। करती रहूंगी। मैं क्यों जाऊं यहां से? कहां जाऊं?''
प्रोफसर साहब ने जब उसके तेवर देखे तो एक और चारा डाला - इतने पैसे और ले लो और यह बच्चा हमें दे दो। हमेशा के लिए। यह सुनते ही शारदा इतने ज़ोर से चिल्लायी कि सारी बस्ती सुन ले-''साफ-साफ सुन लो साब - यह बच्चा मेरा है। सिर्फ मेरा। मैं इसे किसी कीमत पर नहीं दूंगी। समझे। अगर आप लोगों को शक है कि यह संदीप बाबू का है तो आप जाकर उन्हीं से क्यों नहीं पूछते? कहां छुपा रखा है उन्हें?'' दनदनाती हुई वह अपनी झोंपड़ी में घुस गयी।
प्रोफेसर साहब पूरी तरह टूटे हुए, अंधेरे में ठोकरें खाते हुए वापस लौट रहे हैं। सोच रहे हैं - कल-परसों में ही घर बदलकर किसी और कॉलोनी में रहने चले जाएंगे।

*****

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

11 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

मजा आ गया सर जी,पिछली बार के बरक्स इस बार काफी कुछ था आनंद देने वास्ते
आलोक सिंह "साहिल"

शोभा का कहना है कि -

सूरज जी
यथार्थ के धरातल पर खड़ी सुन्दर कथा के लिए बधाई

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही अच्छी कहानी लगी यह सूरज जी आपकी !!

Unknown का कहना है कि -

आपकी कहानियाँ पढ़ने के बाद प्रायः निशब्द कर देती हैं. इस लिए वाह या आह कहने के लिए स्वर ही नहीं निकल पाता ..... इसी क्रम में यह भी खूब रही, चरित्रहीन तो वोही है जो समाज में आर्थिक विपन्नता की निचली सीढियों पर बैठा है. अतः सुविधा सम्पन्न प्रोफेसर के बेटे के चरित्र पर उंगली उठाने का तो कोई सामाजिक नियम ही नहीं है. अतः यही सही होता आया है ...... तब तक... जब तक कोई नारी मुख्य पात्र की तरह साहस न कर ले. ..और तब तो तथाकथित सफेदपोश परिवारों के बड़े बड़े स्तम्भ भी इसी तरह उखड जायेंगे ..... अत्यंत आनंद हुआ इस कहानी को पढ़कर

anju का कहना है कि -

kahani acchi hai suraj ji aapki
vastivaka bhi jhalakti hai
end mein dukh bhi hua

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर कहानी ..

बहुत बहुत बधाई..

विश्व दीपक का कहना है कि -

सूरज जी,
जिस भांति यह कहानी अपने पत्ते खोलती है, मज़ा और भी बढता जाता है। अंत तक मुझे लग रहा था कि पूरे परिवार को गलतफहमी है बस, लेकिन अंत जानकर आश्चर्य, दु:ख, खुशी सारे के सारे भाव एक-साथ आ गये।

एक अच्छी कहानी के लिए बधाई स्वीकारें\

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Kuwait Gem का कहना है कि -

सूरज प्रकाश कहानी विधा को नया शिल्प या यू कहू की कहानी कहने की कला जो इनके पास है,उसने नये पाठको को कहानी या साहित्य से जोडा है.इसके लिए सूरज मेरे गुरु है.
भवदीय,
चंद्रपाल

स्वास्तिक माथुर का कहना है कि -

आपकी कहानी पड़ कर के अन्त मे धनाडय वर्ग की मानसिकिता का बोध होता है अतः आप बधाई के पात्र है

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आदरणीय सूरज जी,

कहानी तो बहुत पहले ही पढ ली थी और कई बार पढी। एसा मनोवैज्ञानिक कथानक कि बस कथाकार के लिये कोई प्रतिक्रिया नहीं बन पाती...आपकी कलम का कोई जवाब नहीं।

*** राजीव रंजन प्रसाद

kavita verma का कहना है कि -

bahut khoobsurati se likhi gayee ek rochak kahani ..

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)