Wednesday, March 5, 2008

बाल ठीक है ना! (कहानी- द्वारा अभिषेक पाटनी)

श्वेता अपना प्रेजेन्टेशन दे रही है। वह दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक प्रतिष्ठित संस्था में एमबीए आख़िरी सेमेस्टर की छात्रा है। यह प्रेजेन्टेशन एक्सटर्नल मार्किंग के लिए है और उसे पता है कि कंटेंट से ज़्यादा लुक मैटर करता है। धारा-प्रवाह इंग्लिश में प्रेजेन्टेशन दे रही श्वेता के बाल खुले हुए कंधों तक फैले हैं, आँखों में काजल है, चेहरे पर हल्का मेक-अप है, भौहें उसने आज ही ठीक करवाए हैं। मैरून कलर के शर्ट और ब्लैक ट्रॉउजर्स में उसका गोरा रंग निखर आया है।
बाहर से आए एक्सटर्नल्स उसके प्रेजेन्टेशंस को ध्यान से सुन रहे हैं। प्रोजेक्टर के आख़िरी स्लाईड पर अंग्रेजी में थैंक्स उभरा और उसने ऑडिटोरियम में बैठे सहपाठियों-फैकेल्टीज से पूछा – एनी क्योश्चंस रिगार्डिंग एनी आस्पेक्ट ऑफ मर्जर एंड एक्युजिशन (कंपनी के समन्वय और खरीद से जुड़ा कोई प्रश्न किसी को पूछना है)? थोड़ी देर तक हॉल में ख़ामोशी रही, एक्सटर्नल्स में से एक ने कहा – नो क्योश्चंस, दैट्स ग्रेट, थैंक यू श्वेता कम बैक (कोई प्रश्न नहीं, बहुत अच्छा, धन्यवाद श्वेता चले आओ)। श्वेता लौटती है। तालियाँ बजती हैं।
श्वेता वापस आकर गरिमा के बगल में बैठती है। गरिमा उससे कहती है – गुड प्रेजेन्टेशन। श्वेता कहती है – थैंक्स । श्वेता अपने खुले बाल को लपेट कर जुड़ा बनाती है और उस पर हेयरपिन लगाती है। थोड़ी देर बाद वह अपने बगल में बैठी गरिमा से धीमे आवाज़ में पूछती है – बाल ठीक है न ? गरिमा उसकी ओर देखते हुए सिर हिलाकर सकारात्मक जवाब देती है।
मंच पर अभी भी किसी छात्र का प्रेजेंटेशन चल रहा है। लेकिन, श्वेता अपने प्रेजेंटेशन के बाद मानसिक रूप से निश्चिंत हो चुकी है, आखिर यह फाइनल प्रेजेंटेशन जो था। वह चुपचाप बैठी है लेकिन उसकी सोच अपने मुंह से निकले आखिरी वाक्य पर ही अटकी है – बाल ठीक है ना!
वह महसूस करती है, आजकल इस वाक्य का इस्तेमाल वह ज्यादा कर रही है।
सप्ताह में तीन से चार बार उपेन्द्र के साथ तो लाँग ड्राइव पर जाना हो ही जाता है। फिर, हर बार घर लौटते समय वह अपने बाल ठीक करने के बाद उससे पूछ ही लेती है – बाल ठीक है ना! हर बार उपेन्द्र उसे निहारता हुआ कुछ जवाब नहीं दे पाता है। हर बार वह हँस पड़ती है। ऑडिटोरियम में बैठी श्वेता को यह सोच गुदगुदा गया। वह मन ही मन मुस्कुरा उठी......।
परसों उपेन्द्र के साथ बिताया गया पूरा दिन व पूरी रात उसकी आँखों के सामने तैर गया। गेस्ट हाउस में अगली सुबह बेड से उठते साथ ही वह घर जाने के लिए तैयार होने लगी थी। कमरे में शायद ड्रेसिंग टेबल भी था पर वह बाल ठीक करने के बाद उपेन्द्र से ही पूछी थी कि बाल ठीक है ना! और, बिस्तर में पड़ा उपेन्द्र, जो उसे तैयार होते एकटक देख रहा था , ने शायद पहली बार उसके इस प्रश्न का जवाब बोलकर दिया था – ‘नहीं, बिल्कुल ठीक नहीं है...इधर आओ फिर से ठीक कर दूँ’। इस जवाब पर उसके मुँह से खुद-ब-खुद निकल जवाब था – धत्! इस बार इस सोच ने तो उसे रोमांचित ही कर दिया था।
उपेन्द्र उसका सबसे अच्छा दोस्त है और वह उससे शादी भी करना चाहता है लेकिन श्वेता को कारपोरेट वर्ल्ड में एक मुकाम हासिल करना है। इसलिए वह उपेन्द्र से शादी के लिए कभी नहीं कहती है। वह अपना ख्वाब पूरा करने में लगी है। क्योंकि उसे पता है उस जैसी एम्बीसीयस लड़की के लिए जीना आसान नहीं तो बहुत मुश्किल भी नहीं।
पर इस वक्त न जाने क्यों न चाहते हुए भी एक के बाद एक कई घटनाएँ श्वेता की खुली आँखों में तैर रहे हैं। एक नन्हा-सा कथन – बाल ठीक है ना!...श्वेता को अतीत में खींच ले जाना चाहता हो जैसे।
यूँ तो उसके पापा के लिए मार्च का महीना तनाव भरा रहता है। पर जब वह ग्रेजुएशन सेकेंड इयर में थी उस वक्त जरा-सी चूक उन्हें जेल पहुँचा सकती थी। घर से सटे गेस्ट हाउस में ऑडिट ऑफिसर्स ने पुराने कॉन्ट्रैक्ट और नये कॉन्ट्रैक्ट पर बवाल मचाया हुआ था। पापा घबराए-बौखलाए जब घर लौटे तो ममा हर बार की तरह फाईल से कुछ पेपर्स निकाल कर गेस्ट हाउस की ओर जाने लगी। पापा ने बुझे आवाज में बताया कि वे लोग नये कॉन्ट्रैक्ट की जिद कर रहे हैं। ममा चुप रहती थीं, चुप रहीं। फिर थोड़ी देर बाद वे फाईल से एक दूसरा पेपर निकालकर श्वेता को गेस्ट हाउस में ठहरे दोनों ऑफिसर्स को दे आने को कहा। पापा ने कहा – ‘बिन्नी, रात के दस बजे हैं लड़की को भेज रही हो’। ममा ने कहा – ‘दस बज रहे हैं तो क्या हमारी बेटी दिल्ली में पली-बढ़ी है, हमारी तरह इंदौर-सूरत में नहीं’।
खैर वह पेपर्स लेकर गेस्ट हाउस गई। दोनों ऑफिसर्स अभी भी सूट में ही थे। उनमें से एक ने श्वेता से पेपर ले लिया, दूसरे ने उसे कोल्ड ड्रिंक दी। फिर दोनों बड़े गौर से पेपर्स का मुआयना करने लगे। श्वेता को क्या हुआ कुछ याद नहीं, पर सुबह जगने पर उसने खुद को गेस्ट हाउस में ही पाया। वह हड़बड़ा कर उठी और बाहर जाने लगी। गेस्ट हाउस के ड्राइंग रूम में दोनों ऑफिसर्स वैसे ही सूट पहने बैठे थे। उनमें से एक ने श्वेता को कहा – ‘ए लड़की अपने बाल तो ठीक कर ले’। और वह लपकते हुए अपने घर की ओर भागी थी। घर पर हर कुछ नॉर्मल था। पापा ऑफिस जा चुके थे, ममा घर के कामों में लगी थी। पापा कुछ दिनों तक देर रात लौटते रहे। लेकिन उसके बर्थडे पर जब उन्होंने एक सैन्ट्रो कार गिफ्ट किया फिर सब कुछ पहले जैसा हो गया। हर साल ऑडिट के पेपर्स अब वही ले जाया करती है। लेकिन अब वह खुद ही पूछ बैठती है – बाल ठीक है ना!

अभिषेक पाटनी

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16 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

अच्छा लगा,बाल ठीक हैं,हा हा हा....
लंबे दिनों बाद कहानी लेकर आए,अच्छा लगा
आलोक सिंह "साहिल"

Dr. Zakir Ali Rajnish का कहना है कि -

इस प्यारी की कहानी के लिए मेरी ओर से बहुत-बहुत बधाई।

आनंद का कहना है कि -

अच्‍छी बड़ी रोचक थी पर एकाएक जैसे उठाकर पटक दिया हो। अंत बड़ा अप्रत्‍याशित था। - आनंद

seema gupta का कहना है कि -

आपकी कहानी एक गहरा भेद छुपाये हुए है, स्वेता का पपेर्स लाकर जाना और अगले दिन सुबह वापस आना , और उनका येकेहना की "ऐ लडकी अपने बाल तो ठीक कर ले" कहानी को एक ऐसे मोड़ पर ले जातें है, जहाँ सारी कहानी का कथ्य छुपा है. बेशक लडकी को कुछ याद नही मगर "ये शब्द की अपने बाल ठीक कर ले" कहीं ना कहीं उसके मानस पट पर उस रात के हादसे के रूप मे अंकित हो जातें है और वो हर समय उसको याद रहतें हैं और वो हर जगह सचेत रहने की कोशिश करती है .
कहानी बहुत अच्छी और भावपूर्ण है और समझने के योग्य है, अच्छा लगा पढ़ कर.
Regards

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अभिषेक जी,

वास्तव में कहानी एक बहुत बड़ा रहस्य छुपाये हुए हैं..
कम शब्दों के गहरी बात और फिर उन गहराइयों का उथलापन आज के समयानुकूल

विश्व दीपक का कहना है कि -

अभिषेक जी,
अंत सच में अप्रत्याशित था।लेकिन चूँकि कहानी का शीर्षक हीं था कि " बाल ठीक है ना" और रचनाकार कोई और नहीं वरन आप थे , तब उम्मीद तो थी हीं कि कुछ न कुछ अलग जरूर होगा।

हर साल आडिट के पेपर लेकर वो हीं जाती है,यह वाक्य ज्यादा गंभीर है।

एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें!

-विश्व दीपक ’तन्हा’

anju का कहना है कि -

अभिषेक जी कहानी अच्छी है
एवं रह्स्म्यी लगती है
काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है
जेसा की आपने ऐसा शीर्षक दिया बाल ठीक है न तो उसके अनुसार ही लिखा गया है कम शब्दों में आपने एक ही पंक्ति में अंत में बहुत बड़ी बात कह दी
बहुत सुंदर

स्वास्तिक माथुर का कहना है कि -

आपकी कहानी अन्त मै जाकर एक अजीब सा अनुभव कराती है जो तारीफ योग्य है,

Unknown का कहना है कि -

अभिषेक जी !

कहानी यद्यपि बिलंब से आज पढ़ पाया परन्तु यह कोई रहस्यमयी कहानी नहीं है अपितु आज के हाई प्रोफाइल गवर्नमेंट सिस्टम के नग्न स्वरूप का ही चिठ्ठा है. हाँ इसमें अति यही है कि आपने कलगर्ल के द्वारा तहलका डॉट काम की सच्ची कहानी का दूसरा ही स्वरुप प्रस्तुत किया है
बहुत ही संयमित और कहानी शिल्प के वस्त्रों से ढकी नग्न सचाई ......
सुंदर .... शुभकामनाएं

addictionofcinema का कहना है कि -

bahut gehri baat hai abhishek ji kahani me. ek gehri aur chhone wali baat ko jis sehaj dhang se apne uthaya hai usase apke andar ki sambhavna ka pata chal raha hai.
achchi rachna ke liye badhai.

Vimal C. Pandey

Unknown का कहना है कि -

Saamajik mulyon ke patan ki isse jivant aur maarmik gaatha bhala kya ho sakti hai. SAch hai, Sapne qurbaani maangte hain.

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

अभिषेक जी,

आपकी लघुकथा बेहतरीन है और "बाल ठीक है" के प्रतीक के साथ बहुत गहरी चोट करने में सक्षम है। बधाई स्वीकारें।

*** राजीव रंजन प्रसाद

mona का कहना है कि -

The story depicts the evil in today's so called modern society where some people can go to any heights to achieve success. Will such success and wealth be of any use?? Will such a person be able to answer one's consciousness?

Anyhow the way the story revolves around a small phrase "बाल ठीक है न" is appreciable keeping in mind why and when certain things happen. Only a very able writer can say many things in few words with such deep impact on one's mind. The craft of the story is awesome and praiseworthy.

Amaresh Jha का कहना है कि -

किसी भी कीमत पर कुछ भी हासिल कर लेने की महानगरीय संस्कृति कहानी में साफ झलक रही है...हिंदुस्तान आज जिस मोड़ पर खड़ा है...वहां कुछ लोगों को ये कहानी सदमा पहुंचा सकती है...लेकिन जो लोग अपनी मौजूदा जरूरतों को सामाजिक मूल्यों और पारंपरिक मर्यादाओं से ज्यादा तरजीह देते हैं...जिनके लिए जिंदगी की बेहतरी का मतलब सिर्रफ बेहतर लाइफस्टाइल होता है...उनके लिए ये बातें मायने नहीं रखतीं...कहानीकार को मौजूदा महानगरीय परिवेश की बेहतर समझ है...

Act to achieve your goals instead of just thinking and waiting for the right time.... का कहना है कि -

सबसे पहले ये लेख पढ़कर लगता है...कि आप श्वेता को खूब नजदीक से जानते है...तभी अंदर की सारी बातें पता है...और आपने जिस ढंग से इस कहानी को पेश किया....वो काबिले तारिफ है...शब्दों का बहुत प्यारा इस्तेमाल किया गया है...और इनडायरेक्ट वे में आपने लड़की की सारी पोल खोल दी...लेकिन क्या इस पोस्ट से लड़की बदनाम नहीं हुई होगी ?...

अभिषेक पाटनी का कहना है कि -

अरे रिपोर्टर साहब...मेरी ये कहानी...काल्पनिक चरित्रों से गढ़ी गई है...आप तो इसे सच बनाने पर तुले हैं...

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