Wednesday, March 19, 2008

वह बकबक पंडित बिहारी था...

४ सितम्बर १९८७
सीकर
राजस्थान


-पिताजी! सारा सामान मैने रख दिया है।
-अच्छा! और हाँ, वो भगवान महावीर की तस्वीर भी रख लेना साथ में। रास्ते भर उनका साथ रहेगा तो सफर बढिया कटेगा।
-जी पिताजी!
सुधा पिताजी के साथ जा तो रही थी, लेकिन उसका मन अभी भी पूरी तरह से तैयार नहीं हुआ था।
-क्या सोच रही हो?
-कुछ नहीं।

कुछ देर बाद...

-इधर आओ। मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ।

सुधा की निगाहें खिड़की के बाहर टिकी हुई थीं। इसलिए आलोक बाबू की बातों पर उसने ध्यान नहीं दिया।

-अरे! इधर आओ तो......
-हाँ..हाँ....आती हूँ।

आलोक बाबू ने भारत पर्यटन की एक चित्र पुस्तिका हाथ में थामी हुई थी। एक चित्र की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा-
-यह देखो.....यह जल मंदिर है......। कहते हैं कि भगवान महावीर ने अपनी अंतिम साँस यहीं ली थी। उनके महापरिनिर्वाण के बाद उन्हें यहीं जलाया गया था। उनकी अस्थियों की राख पाने के लिए उनके श्रद्धालुओं ने इस जगह की मिट्टी खोद डाली। श्रद्धालुओं की संख्या इतनी ज्यादा थी कि मिट्टी निकाले जाने के बाद यहाँ तालाब बन गया। जल मंदिर उसी तालाब के बीच बनाया गया था।
-जी! अच्छी कहानी है।
- ऎसा नहीं कहते बेटा। वे तीर्थंकर थे। वे गुरू थे। हम सब के गुरू.......यह तो इतिहास है......कोई मनगढंत कहानी नहीं।
-जी!

सुधा के चेहरे पर कोई भी भाव न था।

-तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है? समझ गया..........क्लासेस मिस होंगे इसकी चिंता है। अरे....कुछ दिनों की हीं तो बात है। वैसे भी कभी-कभी अपने रोजमर्रा के काम से समय निकाल कर कुछ अच्छा करना चाहिए....कुछ पुण्य करना चाहिए और इससे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है!
-जी!
-ठीक है जाओ....कल अहले सुबह हीं निकलना है...कुछ खाना-वाना तैयार कर लो।

सुधा अपने कमरे में चली गई। उसकी निगाह फिर से खिड़की के बाहर एक दरवाजे पर अटक गई।
कुछ देर बाद आलोक बाबू सुधा के कमरे में आए।

-अच्छा बेटा! देखो , मैं भी कितना भुलक्कड़ हूँ। कल निकलना है.....और अभी तक मैने रास्ते की सही जानकारी नहीं ली है। पटना से आगे किस तरह जाना है, वो तो पता हीं नहीं।
-हूँ......
सुधा ने उपस्थिति दर्शाई।
-अब घर में तो कोई नौकर है नहीं। सब को छुट्टी दे दी है। सोचता हूँ कि मैं खुद हीं अंचल से मिल आऊँ। उसे सब पता होगा। सामने हीं उसका घर है, ज्यादा दूर तो है नहीं..............और थोड़ा व्यायाम भी हो जाएगा।

अंचल का नाम सुनते हीं सुधा के चेहरे की रंगत ने करवट बदली।

-पिताजी! आप क्यों जाएँगें। मैं हीं पूछ आती हूँ। वैसे भी उनकी बहन मेरे साथ पढती है, क्लास नोट्स के बारे में मुझे उससे बात भी करनी है।
-तुम जाओगी! अच्छा जाओ। और हाँ, अगर वो ना हुआ तो उसकी बहन से कह देना कि वो आते हीं मुझसे मिले। कह देना कि बहुत जरूरी काम है।
-जी पिताजी।

सुधा की निगाह अब खिड़की से निकलकर अंचल के दरवाजे के अंदर जा चुकी थी।

कुछ देर बाद सुधा रूआँसा-सा मुँह ले कर आलोक बाबू के पास लौट आई।
-क्या हुआ बेटा?
-वो सुबह किसी "देवराला" गाँव के लिए निकले थे , अभी तक वापस नहीं लौटे हैं।
-ठीक है। तुमने उसकी बहन से कह दिया है ना।
-जी हाँ।
-आ जाएगा वो...............पत्रकार है.......यह सब तो लगा हीं रहता है........चलो कोई बात नहीं, रात में हीं जानकारी ले लेंगे।

रात हो चली थी। सुधा की निगाहों ने चाँदनी का रूप ले लिया था। ऎसा लगता था कि चाँद सुधा के घर की खिड़की से अंचल के रौशनदान में झाँक रहा हो। पूनम की रात थी, लेकिन न जाने क्यों अंचल के कमरे में अभी भी अंधेरे ने घर किया हुआ था।

रात के दस बजे आलोक बाबू को दरवाजे पर किसी की ऊँगलियों की आहट सुनाई पड़ी।
-कौन है?
-जी मैं अंचल......।
-अच्छा....अंचल.....रूको..........मैं दरवाजा खोलता हूँ।

आलोक बाबू ने कमरे की बत्ती जला दी। आहिस्ते से दरवाजा खोला ताकि सुधा जाग न जाए।
-आ जाओ..... अंदर आ जाओ।

अंचल के चेहरे पर आक्रोश के भाव थे, लेकिन आलोक बाबू की इस पर नज़र नहीं गई।
-बैठो। कुछ पूछना था तुमसे , इसलिए बुलाया।
-जी!
-काफी रात हो गई है, खाना खाकर हीं आए होगे। कुछ चाय, पानी मँगा दूँ?
-नहीं । इच्छा नहीं है। आप कहिये, किसलिए याद किया।

अंचल चेहरे से ,जितना हो सके, सहज दिखने की कोशिश कर रहा था।
-नहीं......कुछ तो लेना हीं होगा। आप हमारे घर पहली बार आए हो।
सुधा उठकर सामने आ गई थी।
- हाँ, हाँ, बेटा, चाय-बिस्किट ले आओ।

थोड़ी देर में नास्ता लेकर सुधा आ गई।
चाय में बिस्किट डालते हुए अंचल ने पूछा-
-तो कल सुबह आप जा रहे हैं बाहर।
-हाँ, इसीलिए तो बुलाया था, कल सुबह हम दोनों बिहार जा रहे हैं। सालों से तमन्ना थी कि भगवान महावीर के मोक्षस्थल के दर्शन किए जाए। मुँह अंधेरे हीं पावापुरी के लिए निकलना है हमें। अब पटना तक का टिकट तो ले लिया है। आगे किस तरह जाना है, वही जानना था। तुम जानते हीं हो कि बिहार में जाना हीं बहुत खतरनाक है और वो भी जब रूट की जानकारी न हो , कोई पहचान न हो, तब तो अंधे कुँए में कूदने जैसा खतरा है।.......
- मैं कभी नहीं गया।....... अंचल ने बात काटते हुए कहा।
- अरे! नहीं गए लेकिन तुम्हारा अपना घर तो वहीं है ना..........वो क्या कहते हैं पुश्तैनी मकान।
-जी था कभी, किसी दौर में...........अब नहीं है। और वैसे भी मेरे पिताजी वहाँ से आए थे , मैं नहीं।

अंचल ने चाय का प्याला टेबल पर रख दिया । आलोक बाबू अभी तक चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। सुधा वहीं खड़ी अंचल को एकटक निहारे जा रही थी।

-जड़ को नकारने से पत्तियाँ अपना वजूद नहीं पा लेती ना......वजूद तो जड़ का हीं होता है। तुम्हारे पिता बिहार के थे, इस नाते तुम भी वहीं के हुए।
-इन बातों को उठाने से क्या फायदा!
-फायदा तो कुछ नहीं है। बस कुछ स्वार्थ है मेरा। ..........आलोक बाबू ने हल्की-सी मुस्कान छेड़ी।
- हमारे आस-पास के किसी भी बिहारी से हमारी कोई खासी पहचान है नहीं ।........जोड़-घटाव करके हम तुम्हें हीं जानते हैं बस। अब अगर तुमसे कुछ सहायता मिल जाती तो पुण्य कमाने में हमें आसानी होती और हमारे पुण्य का एक छोटा हिस्सा तुम्हारे नाम हो जाता।
-पुण्य!!!!
-हाँ पुण्य........
-आलोक बाबू......पड़ोसी के नाते मेरा फर्ज बनता है कि मैं आपकी सहायता करूं......लेकिन अफसोस कि मैं ऎसा नहीं कर सकता।
-क्यों?
-कौन-सा कारण बताऊँ.......वह जो मुझसे जुड़ा है या वह जो मेरे पिता जी से जुड़ा है।
-पिता जी से?...........चलो कोई भी बता दो।
-पहला कारण तो यह है कि मैं कभी पटना या पावापुरी नहीं गया , इसलिए बता नहीं सकता। और अगर कुछ पता भी है......जो कि कभी-कभार "राजस्थान पत्रिका" में दूसरे पत्रकार दोस्तों के आलेख पढने से पता चला हैं, अरे......आपको पता तो है ना कि मैं "राजस्थान पत्रिका " में एक पत्रकार हूँ.....पता हीं होगा......तो जो भी कुछ मुझे पता है , वो मैं दूसरे कारण से आपको नहीं बता सकता।

आलोक बाबू और सुधा अंचल को हीं देखे जा रहे थे। आलोक बाबू की चाय की चुस्कियाँ समाप्त हो चुकी थीं। उन्होंने चाय का कप टेबल पर रख दिया। सुधा को इशारे से ट्रे अंदर ले जाने को कहा। सुधा प्लेट और ट्रे लेकर रसोई में चली गई।

-मैं कुछ समझा नहीं। दूसरा कारण ......मतलब कि तुम्हारे पिताजी के कारण ................
- शायद हाँ......
-लेकिन तुम्हारे पिताजी से हमारे परिवार के तो अच्छे ताल्लुकात थे। हम दोनों की अच्छी-खासी जमती थी।
-छोड़िये ........पूरानी बातों को याद करने से कुछ नहीं मिलने वाला। रात ज्यादा हो गई है। मैं जाता हूँ । मान लीजिएगा कि आपके पास का एक और बिहारी आपके भरोसे का पात्र न हो सका। उसने धोखा दिया आपको।
-अरे.....कैसी बातें करते हो! बिना कारण हीं नाराज हो रहे हो।
- बिना कारण हीं...........?
- तो और क्या.......तुमसे कभी कोई बहस नहीं हुई.......तुम्हारे पिताजी मेरे अच्छे दोस्त थे......तो कारण कहाँ है?
- "बकबक पंडित" यह विशेषण तो आपको याद हीं होगा?
- हाँ..........हमारे समूह में पंडित श्रीधर को हम इसी नाम से पुकारते थे। उसे बोलने का शौक था...........अच्छा बोलता था..............कुछ वेद , पुराण रटे हुए थे......हमेशा सुनाया करता था।
- बस इतना हीं?
- और क्या!!
- पिताजी के मौत के बाद इस मोहल्ले में आपकी कुछ पंक्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुई थीं। याद है आपको?
-क्या?

-"......वह बकबक पंडित बिहारी था। उसने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे और बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा.....उसकी यह भविष्यवाणी उसी पर सच हुई। भरोसे का पात्र ना रहा वो......"

आलोक बाबू जितना हो सके,मुद्दे से बचने की कोशिश कर रहे थे।

-मैंने ऎसा नहीं कहा था कभी।
-सच!!!!!! चलो, आप बिहारी नहीं हैं ना....आप पर तो भरोसा करना हीं पड़ेगा।
- हाँ, कहा था लेकिन इतनी बातें नहीं कही थीं।
- तो क्या कहा था?
- भविष्यवाणी तुम्हारे पिता ने हीं की थी। उसी ने कहा था कि सब बर्बाद हो जाएगा......और कहो......क्या गलत कहा था उसने .......सब तो बर्बाद हो हीं गया है। और वैसे भी तुम्हें इतना बुरा लग रहा है तो इसमें तुम्हारे पिता का हीं दोष है, बिहारी होने के बावजूद उसने ऎसी बातें कहीं थीं।
-पूरी बात? मतलब कि आपने कुछ नहीं जोड़ा है इसमें.......आपका कोई दोष नहीं।
-कुछ नहीं जोड़ा.........
-और वो भरोसेमंद वाली बात......भरोसा की बात? वो आपने नहीं कही थी?
-नहीं............ हाँ , कही थी, और सच कहा था मैने।

आलोक बाबू पूरे रंग में आ चुके थे।

- तो मान लूँ कि यह सच है। मान लूँ कि मेरे पिताजी धोखेबाज थे। अपने पिता पर लगे आरोप मान लूँ?
-सच जानोगे तो मानना पड़ेगा हीं। इसलिए मैं कोशिश कर रहा था कि यह बात यहाँ तक ना पहुँचे। जितना हो सके, पुरानी बातों और यादों को भूलने का प्रयत्न किया है मैने। लेकिन तुमने वो बात छेड़ हीं दी.....। कभी-कभी अतीत का अक्स डरावना होता है , जानते हो तुम्हारे पिता की मौत कैसे हुई थी? सुन सकोगे.......उसने आत्महत्या की था। वह पूरे मोहल्ले का दोषी था, मोहल्ले के और धर्म के विधि-विधान का विरोध किया था उसने। मोहल्ले के लोगों का आक्रोश वह सह नहीं सका , इसलिए उसने शर्म से आत्महत्या कर ली। ऎसा था तुम्हारा पिता........ऎसा था तुम्हारा पिता!!!!!!!!

सुधा के आँखों में आँसू उतर चुका था। अपने दुपट्टे से वह उसे पोछने का असफल प्रयास करने लगी। माहौल में एक मुर्दानगी-सी छाई हुई थी।

-सच!!! यही सच है?
अंचल ने लाशों का जखीरा हटाते हुए कहा।

-सच जानते हैं आप?........सच मानते हैं आप?........सच कहूँ तो आप .जानते हैं, लेकिन मानते नहीं।
-क्या कहना चाहते हो तुम?
-आप १९७० से पहले जैन धर्म मानते थे?

आलोक बाबू निरूत्तर थे।

-नहीं मानते थे। आपने उसी साल के बाद अपना धर्म, अपनी मान्यताएँ बदली थीं। है ना?

सुधा आश्चर्य से कभी अंचल को तो कभी आलोक बाबू को निहार रही थी। माहौल ने कब यू-टर्न लिया , इसका अंदाजा किसी को न था।

- आपको पता है न कि १९६६-६७ में बिहार में भयंकाल अकाल पड़ा था।
- पिता जी मुजफ्फरपुर के एक छोटे से गाँव में रहते थे। गाँव का नाम याद नहीं........और नाम महत्वपूर्ण भी नहीं यहाँ। जाति से ब्राह्मण थे, सो यजमानी करते थे, पांडित्य हीं एक अकेला पेशा था । कहते हैं कि पंडित श्रीधर यानि कि मेरे पिता जी वेद, पुराण , उपनिषदों के अच्छे जानकार थे। तब भी वह साधारण जिंदगी जीते थे। भरण-पोषण के लिए इससे ज्यादा किसी भी चीज की जरूरत न थी, न माँ को और न हीं पिता जी को और न हीं हम दो भाई-बहनों को।

आलोक बाबू को गड़े मुर्द उखाड़ने की न हीं कोई इच्छा थी और न कोई मंशा.......लेकिन अब यह मजबूरी हो चली थी।

-सुन रहे हैं ना?
सुधा ने हामी भर दी। आलोक बाबू ने इशारे से उसे डाँटा। सुधा ने नजरें झुका ली।

-तो हाँ, अकाल के वक्त पूरा का पूरा गाँव खाली हो गया। पिताजी को भी घर छोड़कर भागना पड़ा। कहते हैं कि विदेशों से सहायता ली गई थी......लेकिन पेट पानी माँगता है , पैसा नहीं......।.बिहार की उस समय ऎसी हालत हो गई थी कि कोई ऎरा-गैरा भी यह भविष्यवाणी कर देता कि "एक दिन बिहार में सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। सब आदमी, फसलें, सड़कें, शहर और हथियार बेकार हो जाएंगे।" लोग जीने को तरस रहे थे , फसलें , सड़को , शहर या हथियार की किसे परवाह थी। भूखा आदमी बेकार हीं होता है। इसमें नई बात क्या थी। गलती यह हुई कि यह बात वेद , पुराण के जानकार पंडित श्रीधर ने कही थी। तब तो सारा दोष उसी पर मढा जाना था।

-मैने तो यही कहा था।
आलोक बाबू ने चुटकी ली।

-हाँ, आपने हीं कहा था। भविष्यवाणी के आगे की सारी बातें आपने हीं कही थी। "बेकारी के उस दौर में कोई बिहार और बिहारियों का भरोसा नहीं करेगा....." यह पंक्ति आपके हीं दिमाग की उपज थी। पिताजी ने ऎसा कभी नहीं कहा था। एक इंसान, जो कि अपना घर छोड़कर कहीं और जीने आया है, उसे बदनाम करना बहुत हीं आसान होता है आलोक बाबू।

-हूँ!!!
आलोक बाबू ने झल्लाकर कहा।

-अच्छा यह बताईये कि वह कौन थी?
-वह कौन?
-जिसके लिए मेरे पिताजी ने मोहल्ले के और आपके पुराने धर्म के नियमों का विरोध किया था, जिसके लिए आपने जैन धर्म अपना लिया था।
-कोई नहीं थी..........
-आपकी भाभी थी ना?
-भाभी!
-हाँ, आपकी भाभी..................भूल गए क्या? अपने भैया , माँ, बहन सभी को भूल गए क्या?
-मेरा कोई बड़ा भाई नहीं था, कोई भाभी नहीं थी मेरी।

सामने की दीवार पर बेसुध लटकी घड़ी की सूईयाँ डर कर सिमट गई थीं। रात के १२ बारह बज गए थे शायद। आलोक बाबू एकटक उन्हीं सूईयों को देख रहे थे।मालूम होता था कि वह १६ साल पहले की यादों को वक्त की घड़ी से मिटाना चाह रहे थे।

-पिताजी!!!!!!
सुधा ने अपने कानों पर शंका जाहिर की ।

-यहाँ आए मेरे पिता जी को ४ साल हो चुके थे। आपके घर उनका अच्छा आना जाना था। आपके बड़े भाई फौज में थे। उसी समय पाकिस्तान से लड़ाई चल रही थी।

-सब झूठ है।
- तो एक कहानी समझ कर हीं सुनते रहिए। जो हो चुका है ,वह अब इतिहास है, दुहराया नहीं जा सकता। कुछ उसे नकारने की कोशिश करते हैं.....................सफल भी होते हैं, १६ सालों से आप भी सफल होते आ रहे हैं।
-हूँ!!!
- राजस्थान बार्डर पर थे आपके भाई। हिम्मती थे, कई बंकर नष्ट किये थे उन्होंने। पर अफसोस शहीद हो गए। अरे अफसोस क्या..........शहीद हुए थे वो, हमें गर्व हैं उन पर।

सुधा साँसें रोके सब सुन रही थी।

-असली कहानी यहीं शुरू होती है। "बकबक पंडित श्रीधर" की गलतियाँ और छल अब हीं सब के सामने आने वाले थे।
अंचल ने "गलतियों और छल" पर विशेष जोर दिया , ताकि बात का भारीपन पता चले।

-आपके भाई और भाभी की कोई संतान न थी। आपके भाई की मौत के बाद आप सब ने जो निकृष्ट काम किया, उसके सामने दुनिया का कोई भी पाप छोटा है। आप सब अपराधी थे और सारा अपराध एक निरपराध "बकबक पंडित" पर डाल दिया गया था। जानती हो सुधा..............................

सुधा ने पहली मर्त्तबा अंचल के मुँह से अपना नाम सुना , लेकिन दु:ख और आश्चर्य इस एक पल की खुशी पर हावी हो चला था। आँखे सूजी हीं रही, लब खामोश हीं रहे।

-जानती हो सुधा.........आलोक बाबू ने अपने आँखों के सामने अपने भाई की लाश के साथ अपनी भाभी की जिंदा लाश जलाई थी, सती किया था उसे।

हवा में जमे आहों के सारे बर्फ एक-एककर टूटने लगे। खामोशियाँ शोर मचाने लगी। सुधा बहरी हो चली थी। अंचल को विश्वास था कि आलोक बाबू इस बार भी उसकी बात काटेंगे, लेकिन ऎसा नहीं हुआ, वे चुपचाप जमीं को निहारते रहे।

-और वो "बकबक पंडित" उस दिन भी बकबक करता रहा। माँ कहती है कि पिता जी राजा राममोहन राय के बहुत बड़े भक्त थे। कभी-कभार तो माँ को शक होता था कि कहीं राजा राममोहन राय ने उनके पति के रूप में पुनर्जन्म तो नहीं लिया है। ब्रह्म समाज, विधवा विवाह न जाने कैसी-कैसी बातें वे किया करते थे। उस दिन भी यहाँ के प्रकांड विद्वानों के सामने "बकबक पंडित" चालू रहा। न जाने कौन-कौन-से वेद , पुराण खंगाल डाले गए।

-आलोक बाबू, याद है...... आपके बड़े भाई की चिता सजी हुई थी, आपकी भाभी अपने पति के लाश के सामने विलाप कर रही थी , सारा का सारा मोहल्ला , सारी जमात जमा थी वहाँ।
-आपकी माँ ने अपनी बहू को सांत्वना देते हुए कहा था कि " पति के मृत्यु के बाद पत्नी का कर्तव्य बनता है कि वह अपने सतीत्व की रक्षा करे, और अपने पति के साथ चिता में प्रविष्ठ हो जाए"। उन्होंने कहा कि यह पंक्ति "विष्णु स्मृति" की है। आपको अंदेशा भी था कि आपकी भाभी पर तब क्या बीती रही थी? आपको क्यों अंदेशा होने लगा,क्यों कष्ट होने लगा.............आप भी तो यही चाहते थे कि विधवा घर में ना रहे, आपके बेटी पर उसकी छाया न पड़े। सच कहा न मैने???

आलोक बाबू कुछ भी कहने की हालत में न थे। सुधा भी अब तक जिंदा लाश हो चुकी थी.....उसके कान पर जमे बर्फ पिघल चुके थे.....। वहीं आँखों पर आँसू की चादर पड़ी थी। कुछ देर पहले तक की बहरी सुधा अब गूँगी थी।

- उस विधवा को जबरन घसीट कर चिता तक ले जाया गया। उसके हाँथ-पाँव सुन्न पड़ गए थे। उसके चारों और औरतें गीत गा रही थीं , सारे मर्द अपनी मर्दानगी पर फूले न समा रहे थे। मर्द................हा हा हा हा...............वहाँ कोई मर्द था तो बस एक वह "बकबक पंडित" । शरीर से कमजोर था , इसलिए लड़ नहीं सकता था, इसलिए उसने शास्त्रार्थ शुरू कर दिए।

-यहाँ के विद्वानों ने कहा:

इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु |
अनश्रवो.अनमीवाः सुरत्ना रोहन्तु जनयोयोनिमग्ने ||

यानि की विधवा को सज कर , बिना किसी मोह के और आँसू त्याग कर आग में प्रविष्ठ होना चाहिए।

-बकबक पंडित ने ऋगवेद पढ रखा था। वह जानता था कि वेद की यह ॠचा मौलिक नहीं है। उसने मौलिक ऋचा सुनाई।

इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु |
अनश्रवो.अनमीवाः सुरत्ना रोहन्तु जनयोयोनिमग्रे ||

यानि की सभी पत्नियों को सज कर, बिना किसी मोह के और आँसू त्याग कर नए घर में प्रवेश करना चाहिए। इसमें कहीं भी विधवा और आग का संबंध नहीं बताया गया था।

उसने ॠगवेद की दूसरी ऋचा भी सुना डाली, जिसमें कहा गया था कि "उठो, जिसके बगल में तुम लेटी हो, वह मर चुका है । जाओ , तुम जीवित संसार में वापस लौट जाओ।"

उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि |
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सम्बभूथ ||


-प्रकांड विद्वानो ने उसकी एक न मानी। "बकबक पंडित" तरह-तरह से अपना पक्ष रखता रहा, ताकि एक विधवा की जान बचाई जा सके। उसने हर एक ग्रंथ की बातें वहाँ उड़ेल डाली, लेकिन किसी पर कुछ भी असर न हुआ। कोई भी उसकी मानने को तैयार न था। वह "बकबक पंडित" हार चुका था। अंत में उस विधवा को उसके पति के साथ जला दिया गया। सारा समाज न जाने किस जश्न में डूब गया।

-सुधा? आलोक बाबू?
-सुन रहे हैं ना?
-आलोक बाबू.......इसमें मेरे पिताजी का क्या दोष था?
आलोक बाबू की आँखों पर मवादभरे घाव उभर पड़े थे। ऎसा लगता कि किसी भी क्षण वह फूट पड़ेगा।

-जश्न खत्म होने के बाद अब "बकबक पंडित" के स्वागत की बारी थी। पूरा मोहल्ला उन्हें हीन निगाहों से देख रहा था। प्रकांड विद्वानो ने "बकबक पंडित" से शास्त्रार्थ को अपने अपमान की तरह लिया । उन्होंने पूरे जमात में "बकबक पंडित" के खिलाफ नफरत की भावना फैला डाली। सबसे कहा गया कि "सती प्रथा जैसी पावन प्रथा को इस नीच ने नीचा दिखाया है। अब पूरे इलाके में सती का प्रकोप तांडव करेगा.....पूरे प्रदेश में अकाल, सूखा जैसी घटनाएँ होंगी। यह नीच जब बिहार में था तो वहाँ भी अकाल आया था.....यह किसी भी प्रदेश, किसी भी जमात के लिए शुभ नहीं है....इसका तिरस्कार करो"

-रात भर पंडित श्रीधर का अपमान किया गया। उन्हें नंगा घुमाया गया......उन्हें गौमाँस खिलाया गया, शराब पिलाई गई......

-आलोक बाबू? सुन रहे हैं?
-हूँ......
आलोक बाबू की बँधी-सी आवाज कुछ क्षण के लिए बाहर आई।

-पंडित श्रीधर मेरे पिता थे..........मेरे पिता ।
अंचल की आवाज अब बैठ चुकी थी। आँसू आस्तीन तक आ चुका था। फिर भी अंचल चुप ना हुआ........ पत्थर पर प्रहार करता रहा।

-आप हीं कहिए आलोक बाबू.....आलोक बाबू.........ऎसा होने के बाद कौन इंसान जिंदा रह सकता है। हाँ, मेरे पिताजी ने आत्महत्या कर ली थी............छप्पर पर रस्सी डाल उस पर लटक गए थे, लेकिन वो कायर नहीं थे....कायर नहीं थे वो....कायर नहीं थे वो।

अंचल चीख पड़ा। डरकर खिड़की पर बैठे पंछी उड़ भागे । नक्षत्र जल्दीबाजी में आ गए, अदला बदली करने लगे । चाँद को सुबह होने की चिंता सताने लगी। आसमान रोने लगा........बारिश होने लगी।

कोई कुछ नहीं बोला.......बस घड़ी की सूईयों और हवा के सुबकने की आवाज आती रही।

थोड़ी देर बाद अंचल ने हीं मौन तोड़ा।

-आलोक बाबू, आप तो समझदार निकले । दो जान लेने के बाद आपने अपना धर्म हीं बदल डाला। बेटी की चिंता सताने लगी। कहीं इसे भी सती न किया जाए।

आलोक बाबू सुन कर रो पड़े।

-कोई बात नहीं।............ चलिए, मैं चलता हूँ। आपकी सहायता न कर सका, इसके लिए माफी चाहता हूँ। जाइए, सो जाइए। सुबह-सुबह हीं आपको पावापुरी के लिए निकलना है ना। हाँ, अगर मेरी जरूरत पड़ी तो मुझे बुला लीजिएगा, स्टेशन जाते वक्त पटना से पावापुरी का रूट समझा दूँगा।

रात के दो बज चुके थे। अंचल आलोक बाबू के यहाँ से निकलकर अपने घर लौट आया। उसने अपनी बहन को आवाज दी । वह सो चुकी थी। दरवाजे पर दो-तीन ठोकर के बाद अंदर से आवाज आई:

-कौन है?
- मै.....भैया!
-अच्छा भैया.......रुको खोलती हूँ।

उसकी बहन ने दरवाजा खोला।

-खाना खाओगे।
-नहीं भूख नहीं है। जाओ तुम सो जाओ।
-कुछ तो खा लो.....सुबह से भूखे हो......सुधा ने कुछ खिलाया क्या?
-कितना बोलती हो! बोला ना, जाओ , सो जाओ। मुझे नहीं खाना...........नहीं खाना। जाओ!!!!

उसकी बहन रो पड़ी। रोते-रोते अपने कमरे में चली गई।
वह भी अपने कमरे में चला गया। रात भर दोनों के कमरों से रोने की आवाज आती रही।

सितम्बर १९८७


अगले दिन अंचल , आलोक बाबू और सुधा को स्टेशन छोड़ने गया। रास्ते भर केवल अंचल हीं बोलता रहा। उसने उन दोनों को पूरे बिहार की जानकारी दे दी। वे दोनों मौन होकर सुने जा रहे थे। बस वे तीनों हीं जानते थे कि अंचल "बकबक" कर रहा था या कुछ और । स्टेशन पर दोनों को अंचल ने विदा किया और लौटते समय सीधे "राजस्थान पत्रिका " के कार्यालय पहुँच गया।

उसने चपरासी को कह दिया कि किसी को भी उसके केबिन में नहीं आने दिया जाए। दिन भर वह कोई रिपोर्ट तैयार करता रहा......फिर एडीटिंग , प्रूफ रीडिग.....और भी कई प्रोसिजर चलते रहे। अंत में वह रिपोर्ट प्रीटिग के लिए भेज दी गई।


सितम्बर १९८७

राजस्थान पत्रिका की रिपोर्ट :

"गत सितम्बर को सीकर जिले के देवराला गाँव में गीत कँवर नाम की एक विधवा को सती कर दिया गया। समाज का कहना है कि वह विधवा स्वयं हीं अपने पति के साथ मृत्यु-शैय्या पर जाना चाहती थी। लेकिन सच क्या है , वह वही जान सकता है, जिसने कभी इसे महसूस किया है। एक साधारण इंसान छोटी-सी तिल्ली की जलन नहीं सह सकता तो कोई विधवा जिंदा जलाया जाना कैसे स्वीकार कर सकती है। कोई भी वेद, पुराण या उपनिषद इस प्रथा को सही नहीं ठहरा सकता और अगर कोई ठहराता है तो वह पूज्य नहीं
सच मैने अपनी आँखों से देखा है।सच.....एक भयावह सच।
एक "बकबक पंडित" फिर से शास्त्रार्थ को तैयार है। "

दिन भर यह रिपोर्ट आग की तरह पूरे राजस्थान में फैलती रही।
इतिहास स्वयं को दुहराने को आतुर था ।

देवराला के कुछ प्रकांड विद्वान अपना अपमान अनुभव करने लगे थे। हवाएँ साँप ढोने लगी थीं, सारे मर्दों को अपनी मर्दानगी का अहसास होने लगा था, स्त्रियों को अपने गीतों के सुर खोने का भान होने लगा था।

१४ सितम्बर १९८७
सीकर
राजस्थान

आलोक बाबू और सुधा पावापुरी , राजगीर और नालंदा के दर्शन कर वापस आ गए थे। हमेशा की तरह सुधा की निगाहें अंचल के दरवाजे पर टिकी थी। कुछ देर बाद अंचल की पागल हो चुकी माँ अपने कपड़े चबाते बाहर निकली। अंचल की बहन उसे घसीटते हुए अंदर ले गई। वह बस एक हीं चीज दुहरा रही थी।

- बकबक पंडित........एक और बकबक पंडित.....एक और बिहारी बकबक पंडित................मर गया ना वो भी...................एक और मौत.........भैया..................

कहकर वह वहीं गिर पड़ी।

इस बार दो नहीं छह मौते हुई थीं.....
वह विधवा, अंचल, अंचल की माँ, उसकी बहन, सुधा और आलोक बाबू।

-विश्व दीपकतन्हा

यह कहानी एक वास्तविक घटना से प्रेरित है दिनांक और जगह के नाम सही रखे गए हैं, बाकी सब काल्पनिक है।
उस वास्तविक घटना का लिक यहाँ है।

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23 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

Ant to dukhdayee hai lekin kash aishe patrkaar sachmuch me hote.

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

वाह वाह वाह

एक खूब परिपक्व कहानी, जिसे दिल की आँच पर सेका गया है। अब तुम्हारे सामने इतने ऊँचे स्तर को बरकरार रखने की ज़िम्मेदारी आ जाएगी। ;)
लगे रहो

amrendra kumar का कहना है कि -

bahut achhi kahani hai.. VD Bhai. Kahani ka flow bahut hin bahiya hai. Far far better than your first one.

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुबह पढ़नी शुरू की थी .कोई काम आ जाने से बीच में रह गई ..अभी फ्री होते ही इसको पढ़ा ..बहुत ही सुंदर और दिल को छू लेने वाली कहानी है ...बहुत बहुत बधाई इतनी सधी हुई कहानी लिखने के लिए :)

anju का कहना है कि -

तनहा जी आपने बहुत बडिया तरीके से कहानी को दर्शाया है
वास्तविकता झलकती है और है भी वास्तव
जगह और धर्म का उल्लेख इतिहास को दर्शता है
बहुत ही बडिया कहानी है
बधाई आपको

विशेष रूप से यह पैराग्राफ
आलोक बाबू कुछ भी कहने की हालत में न थे। सुधा भी अब तक जिंदा लाश हो चुकी थी.....उसके कान पर जमे बर्फ पिघल चुके थे.....। वहीं आँखों पर आँसू की चादर पड़ी थी। कुछ देर पहले तक की बहरी सुधा अब गूँगी थी।
कितनी सुंदर प्रस्तुति

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

ओह ! तन्हा जी..

क्या कहूँ इस पर.. सच में कुछ कुप्रथायें बिना किसी मूल के पता नही कहाँ से पैदा हो जातीं है..

और समाज बिना सोचे बिचारे शान समझता है..

बहुत ही मार्मिक चित्रण है कहानी में.

बहुत बहुत बधाई

Sajeev का कहना है कि -

तनहा जी बहुत दिनों तक इस कहानी की गूँज रहेगी मेरे मन में.....सहज भाषा और गहरे भाव.....

Unknown का कहना है कि -

Excellent!!!!!!

U hv evolved way ahead!!!!!

i guess Best soo faar!!!!

Hats off to u!!!!!!

U ROCKKK

Anonymous का कहना है कि -

Yaar bus Dil Paseej gaya tumhaari kahaani padhkar....Keep up the good work

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही सरल भाषा में गंभीर बात छुपी है इस कहानी में , शायद ऐसी रचनाएं समाज की बुराई से लड़ने में सहायक हों, कहा भी गया है की कलम की ताकत तलवार से ज़्यादा है . बहुत -बहुत बधाई तन्हा जी , कृपया अपनी लेखनी की धार को इसी तरह तेज़ रखें . जब ये घटना घटी थी , तब मैं स्कूल में पड़ती थी पर आज भी उसे याद करके सिहर जाती हूँ , न जाने मनुष्य मनुष्यता को क्यों भूल जाता है ?
पूजा अनिल

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही सरल भाषा में गंभीर बात छुपी है इस कहानी में , शायद ऐसी रचनाएं समाज की बुराई से लड़ने में सहायक हों, कहा भी गया है की कलम की ताकत तलवार से ज़्यादा है . बहुत -बहुत बधाई तन्हा जी , कृपया अपनी लेखनी की धार को इसी तरह तेज़ रखें . जब ये घटना घटी थी , तब मैं स्कूल में पड़ती थी पर आज भी उसे याद करके सिहर जाती हूँ , न जाने मनुष्य मनुष्यता को क्यों भूल जाता है ?
पूजा अनिल

Pitambar का कहना है कि -

Hey VD bhai itne achchhe comment aa rahe hain ab ismein main to sagar ke samne ek chhota aag ki tili najar aaunga ... jo hua so hua ab aap un baton ko nikal kar pathakon par itna julm kyon kar rahe hain ek to aapne 6 logon ko maar diye uske baad kitne reader mar gaye honge uski koi ginti nahi... mana ki samaj mein buraiyan hain bahot saari par humare samaj mein itni achchhaiyan hai idhar aapka dhyan lekhan ke waqt kyon nahi jaata hai ... aur agar aapka AIM hai samaj ki buraiyon ko mitana hai to aap apne lekhan mein kuchh achchha sujhao dijiye jo har koi kar sake...
par aapke kahani ka theme jo bhi ho aapka language aur aapke sochne ka dhang waqai kaabile taarif hai ...
i wish u all the best ... keep it up

ajit singh का कहना है कि -

VD bhai ne sateepratha jaisee vidroop samajik burai ki dhoomil ho chuki tasweer ko fir se humare manaspatal per chitrit kar dala hai ..
aaj bhi bahut saree samajik kureetiyan humare samaj me vyapt hain.samay ke sath inke swaroop me pariwartan matra hua hai .. humare beech aaj bhi kitne bakbak pandit hain ,jinhe satya ka sath dene keke liye tathakathikt samajik purohit bali pe chadha dete hain.aam aadami mookdarshak bana tamasha dekhta hai ..
bakbak pandit ki hatya ke liye samaj ka har aam jan utna hi jimmedar hai jitna ki pakhandee purohit ..vishwadeepak bhai ki is rachna me mujhe kahin na kahin is baat ki peeda jarooor dikhti hai.Aaj vd bahi ki is rachna ko sakshi mante hue mai samast pathkon ka aahwan karna chahunga ki wo samaj me vyapt kureetiyon ke virudhh chot karne me bakbak pandit ka yathasambhav sahyog karen..
aaj sateeprath samapt ho chuki hai,kintu aur bhi doosre atyachar aaj bhi samaj me vyapt hain.
aam janta ko digbhramit kar apna ullu seedha karne me aaj bhi anginat log lage hue hain.aaj ka bhartiya samaj dishabhram ki sthiti me hai.rajneta junta ko bahkakar kshanik swarthpoorti ke liye samajik sauhard ko nasht karne me laga hai .
mai maharashtra me shivsena ke mukhiya bala thakrey dwara chalaye ja rahe kutsit (gande) abhiyan ko isee nazariye se dekhta hun ..
BHARAT mata ki akhandata aur akshunnta roopi lavanyamayee vadhu ko thakrey jaise kitne hi tuchche neta agni ki chita me bhasma karne me lage hain..aur sara samaj mookdarshak bana hua hai ..
gareeb majdooro per aakraman kar ye apni bahaduri dikhane me lage hain..
aaj samay hai ki rastra ke in tathakathit thekedaron se junta digbhramit hone se bache.
jis tareh purohiton ne vedon ki galat vyakhya kar satya ki haty akar dali thi ..aaj bhi wahi ho raha hai ..logon ke chehre aur name badal chuka hai kewal ,aaj poori junt ako gumrah kiya ja raha hai .aaj bhi utni hi bhayawah sthiti hai ..
atah Bharat mata ke veer putron ko sinhanad ker navjagaran aarambh karna hoga ...aaj samay hai dhyan karne ki ,aatmavishleshan ki .sankeerna mansaik dayron se nikal kar aage sochne ki .
Aaj samay hai bharat bankar sochne ki .BH= VIDYA,RAT= LEEN
JO VIDYA ME Leen ho wahi bharat hai ,arthat satya aur gyan ke khoj me tapar rahta hai jo ,wahi bharat hai .BHARAT naam me hi sara stya nihit hai .
JAI BHARAT ,JAI BHARTEEYA.

ajit singh का कहना है कि -

Vd bhai ki rachna "वह बकबक पंडित बिहारी था..."
ke title ko dekh kar unke under kahin na kahin ek sainik chhupa nazar aata hai . Jo garreb bihari mazddoron per ho rahe atyachar ke khilaf veer kshtriya ki tareh sinhand kar khada hai .anyatah is title ka aucitya is rachna ke liye kuchh logon ko asambaddha jaan parega..
bhartiya akhandata pe ho rahe chot se peedit tanha ji ki rachna ka title aaj bharat me har kamzor varga ke samman ki raksha ke liye unke sath khada dikh raha hai..

ye sara spashtikaran main isliye de raha hun ki kuchh log is title ko kshetrawad ke nazariye se na dekhen..

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

तन्हा जी, ऐसी कहानी कभी कभी ही पढ़ने को मिलती है। हिन्दयुग्म पर प्रकाशित बेहतरीन कहानियों में से एक। पहले पता नहीं लगा कि सती प्रथा से इसका कोई लेना देना है या नहीं। फिर बकबक पंडित की मौत पढ़कर मन में गुस्सा आता है और फिर अंत....उसके बारे में जो भी कहूँ कम है।

Anchal का कहना है कि -

Pehle to kahaani ka mukhya paatra banaane ke bahut bahut dhanyawaad. Sorry ,bahut late read kiya...
bahut accchi kahaaani....Mein aap mein ek mahaan lekhak Dekh raha hoon...Aaapki soch is kahaani mein ubhar ka aayi....samaj ki kureeti sati prathaa ko bahut hi acche dhang se ujaagar kiya aapne. Aapki Agli rachna ka intzaar hai ...dhanyawaad is kahaani ke liye :)

प्रभात शारदा का कहना है कि -

Excellent....Hats off to you

Someone should try to have a print of this story in local newspapers and magazines, specially in those areas where this problem still persists. This effort will defiantly give enlightenment in the old thoughts and gives a setback to those ill-thinking people which want to maintain such things for just their own selfishness.

An great creation...in an extraordinary way.

Anonymous का कहना है कि -

amazing...wow
.tanha bhai,
अ fully matured story.what i can say,plz retain this fantastic initiation.
best ऑफ़ luck
alok singh "sahil"

विपुल का कहना है कि -

लेखनी को नमन| तन्हा जी मैं कहानियों पर कमेंट करने से बचता हूँ क्योंकि मैं इस बारे मैं कुछ नहीं जानता| बहुत ही कम कहानियाँ पढ़ी हैं मैने..
पर जितनी भी पढ़ीं है उनमें आपकी यह रचना सचमुच बहुत अच्छी लगी| एक रचनाकार का धर्म निभाया है आपने..
कहानी कई स्थानों पर बड़ी मार्मिक हो जाती है और वो वेदना पाठकों को भी महसूस होती है ! यही कहानी की सफलता है |
सार्थक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई !

"राज" का कहना है कि -

दीपक!!
ये जो रचना आपने की है..मुझे नही लगता की कोइ भी इंसान शुरुआत में ऐसी रचना कर सकता है...पूरी कहानी मे कही कोइ भूल नज़र नही आ रही....इतनी परिपक्वता से आपने इस कहानी को प्रस्तूत किया है....बहुत ही सरल भाषा और शैली का प्रयोग करके कफ़ी बातों पर प्रकाश डाला है...सती-प्रथा और उसके प्रभाव को भी बखुबी लिखा है...

आशा करते है की आप हम पठकों को भविष्य में भी ऐसी रचनायें पढ्ने के लिये देते रहेगें....
शुभकामनायें!!!!

रणधीर...

Smart Indian का कहना है कि -

बहुत ही उत्कृष्ट कहानी है. इस देश को बचाने के लिए एक नहीं हजारों बकबक पंडितों को सामने आना पडेगा. ह्रदय से बधाई स्वीकारें और ऐसे ही लिखते रहें! शुभकामनाएं!

Infinite Thoughts का कहना है कि -

waah waah ...
kaafi dino baad ek achi kahani padi..

Anonymous का कहना है कि -

Man, really want to know how can you be that smart, lol...great read, thanks.

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