सतीश (विजय से): क्या बात है? बड़े दिन से ऑफ़िस नहीं आया?
विजय: यार मेरे बेटे की तबियत काफ़ी खराब चल रही है। डॉक्टरों के चक्कर और बड़े अस्पतालों के बिल भर भर के मैं परेशान हो चुका हूँ।
सतीश: ओह! अब कैसी तबियत है? पैसे की कमी हो तो कहना। जितना बन पड़ेगा सब दोस्त मिल कर करेंगे।
विजय: कैसी बात कर रहे हो भाई! आज कल मैडीक्लेम का जमाना है। सारा पैसा वही कम्पनी तो भर रही है। साठ हजार तक तो कम्पनी दे ही चुकी है। आराम से बड़े अस्पताल में इलाज करवा रहा हूँ।
सतीश: अरे वाह! कमाल है यार... पैसे की चिन्ता ही नहीं। और अस्पताल वाले भी तो मैडीक्लेम के नाम पर मुँह माँगा पैसा माँगते हैं। चलो बढ़िया है.. ध्यान रखना अपने बेटे का.. चलता हूँ..
विजय: ठीक है भाई...
कुछ दिनों बाद....
सतीश: यार विजय.. वो अपना अमित है न? उसके घर में नौकरानी की बेटी को कैंसर बता दिया है...
विजय: अच्छा!! तो अब?
सतीश: अमित कह रहा है कि यदि अभी ठीक नहीं हुआ तो शायद न बच पाये। इलाज के लिये दस हजार चाहिएँ। इसलिये सभी से थोड़ा बहुत जो बन पाये वो इकट्ठा कर रहा है...चाहें पचास रूपये ही क्यों न हों।
विजय: यार ये क्या बेकार के पचड़े में पड़ जाते हो तुम लोग भी... सब बेकार की बातें...मैं चलता हूँ।
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2 कहानीप्रेमियों का कहना है :
touched the heart .............why is this true, bitter truth .
samvedna bahut hi achhi kahani lagi.
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