Monday, July 6, 2009

पत्‍नी का चेहरा- मनोज कुमार पाण्डेय

इन दिनों आप पढ़ रहे हैं युवा कहानीकार मनोज कुमार पाण्डेय की कहानियाँ। इस कड़ी में अब तक आप 'बेहया' और 'खाल' पढ़ चुके हैं। आज पढ़िए अगली कहानी-


पत्‍नी का चेहरा



छुट्टी का दिन, मैं और मेरी पत्नी दोनों के लिए अलग-अलग मतलब लेकर आता है। दोनों अपने-अपने कारणों से छुट्टी का इन्तजार करते हैं।
मैं इसलिये कि छुट्टी का दिन मुझे अपने तरीके से जीने का एक दिन देता है। छुट्टी मतलब दिन भर की आरामतलबी मतलब जितने बजे तक मर्जी हो सोना या सोना भी नहीं बस ऐसे ही पसरे रहना। पत्रिकायें पलटते हुये दिन गुजार देना। कोई उपन्यास पढ़ जाना। कुछ लिखने की कोशिश करना या फिर कुछ ना लिखने की कोशिश करना या कोई कोशिश ही ना करना। मतलब यह कि सब कुछ अपनी मर्जी का, किसी का कोई दबाव नहीं।
पत्नी का मायका और ससुराल दोनों गाँव में है, सो जब कभी पत्नी गाँव में होती है और हमारी बिटिया, जहिर है कि अमूमन उसके साथ ही होती है तो ऐसे दिनों में जब छुट्टी का कोई दिन पड़ता है तो मैं सब्जियों से लेकर दूध तक पहले से ही खरीद कर फ्रिज में रख देता हूं कि किसी भी संभावित वजह से मुझे कमरे के बाहर न निकलना पड़े ऐसे दिनों में मकान के गेट के बाहर कदम रखना भी कई बार मेरे लिए लाहौलविलाकुव्वत होता है। कई बार बेचारा अखबार दिन-दिन भर कमरे के बाहर अपने उठाये जाने का इन्तजार करता, पड़ा रह जाता है तो कई बार यह भी हुआ है कि अखबार का अक्षर-अक्षर चाट गया हूं। तो छुट्टी बोले तो अपने मूड या मनमर्जी से चलने का एक दिन कुछ भी करने या कुछ भी न करने का एक दिन। कुछ भी सोचने या कुछ भी न सोचने का एक दिन।
जबकि मेरी पत्नी के लिए छुट्टी का दिन और ही मतलब लेकर आता है। मेरे ऑफिस में रहने का समय है ग्यारह से छः। जहाँ मैं रहता हूं वहां से ऑफिस पहूंचने में आधा घण्टा लगता है। आधा घण्टा सुबह आधा घण्टा शाम वह भी तब जब आटो महाराज की समय पर कृपा हो जाय नहीं तो यह एक घण्टा कई बार बढ़कर दो घण्टे में बदल जाता है। तो सुबह का समय उठने अखबार देखने दूधसूध लाने, बेटी को तैयार कर स्कूल ले जाने और उसके बाद ऑफिस जाने की तैयारी में बीतता है और शाम साढ़े छः सात तक घर पहुँचने के बाद कहीं बाहर निकलने की कोई इच्छा दूरदूर तक नहीं बचती। रात का खाना खाने के बाद भी बाहर निकलने का मन नहीं करता, मेरी बढ़ती हुई तोंद देखकर जिसके लिए कई शुभचिन्तकों ने खास तौर पर सलाह दी है। आम भारतीय सर्वहारा युवाओं की तरह मैं भी पूरी तरह कुपोषण का षिकार रहा हूँ सो कभी आँख भारी लगती है तो कभी सिर। कभी तलवों में जलन होने लगती है तो कभी घुटना तकलीफ देने लगता है। कब्ज तो खैर सदाबहार है ही। जाहिर है कि पत्नी से ज्यादा मेरे शरीर की इस सदा बिगड़ी घड़ी के बारे में भला कौन जानेगा। सो मेरी प्यारी पत्नी हफ्ते के छः दिन कमरे से बाहर निकलने की सारी आकांक्षाओं को दबाये पड़ी रहती है और क......क......क...... के सीरियल या बातबात पर आंसू बहाने और गाना गाने वाली फिल्मों में अपने आपको गुम कर देती है। मगर इस बीच छुट्टी के दिन की अपनी योजनायें भी वह चुपके-चुपके बनाती रहती है कि छुट्टी के दिन यह करेगें छुट्टी के दिन वह करेगें। छुट्टी के दिन यहाँ जायेगें छुट्टी के दिन वहाँ जायेगें और इसके लिए धीरे-धीरे मुझे भी तैयार करने की कोशिश में लगी रहती है। एकदम अभिधा में कहें तो जहाँ मेरे लिए छुट्टी का मतलब होता है घर में रहना, वहीं मेरी पत्नी के लिए छुट्टी का मतलब होता है- बाहर जाना। कायदे से देखें तो इन दोनों बातों में कोई अन्तर नहीं है। हम दोनों ही जीवन के रोजमर्रेपन से मुक्ति चाहते हैं पर मुष्किल यह है कि हमारी जीवनस्थिति में एक की मुक्ति दूसरे की मुक्ति में बाधक बनने लगती है।

ऐसे में हममें टकराव होना एकदम लाजिमी है पर हम दोनों होशियार हैं, एक दूसरे को बखूबी समझते हैं, प्रेम करते हैं सो अमूमन यह टकराव हम दोनों किसी तरह टाल जाते हैं और बीच का कोई रास्ता निकाल लेते हैं। यह बीच का रास्ता कुछ ऐसा होता है कि दोनों की पसन्द का आधाआधा दिन। जैसे कि दिन के पहले दो पहर वह मेरे किसी काम पर कोई टिप्पणी नहीं करेगी, मेरी जो भी मर्जी होगी, जैसी भी मर्जी होगी, मैं करता रहुँगा। मान लो मेरा उसी को बाहों में लिए पड़े रहने का मन है तो भी। बीच में टोकना फाउल माना जाता है। और दूसरे दो पहर मैं अपने आपको पूरी तरह से उसकी इच्छाओं के हवाले कर देता हूँ। कोई सिनेमा, नाटक, पार्क, चिड़ियाघर, उसकी कोई सहेली, कोई दूर-पास की रिष्तेदारी, यूं ही बेकार घूमें जाने या कोई खास फूल तलाष करने से लेकर नदी नहाने तक कुछ भी हो सकता है, बस शर्त यही है कि यह कुछ भी हर हाल में घर के बाहर होना चाहिये।

मेरे लिए घर एक स्वर्ग है जहाँ आकर मैं दुनियावी जंजालों से एकदम मुक्त हो जाना चाहता हूं। किसी भी तरह की बाहरी तकलीफ या तनाव से मुक्ति, अपनों के साथ, अपनों की गोद में। पर पत्नी के लिए यही घर एक कैद है, कैद-ए-बामशक्कत। वह सुबह से लेकर शाम तक अनेक दृश्य-अदृश्य कामों में लगातार जुटी रहती है। मैंने कई बार कोशिश की, कि उसका हाथ बंटा लिया करूँ। मैं कुछ करता हूं तो वह मना करती है पर ऐसे दिनों में वह ज्यादा खुष नजर आती है और बातबात पर मुझे अपने प्यार से सराबोर किये रहती है। मैं भी दिन भर उसका साथी होने के प्यार भरे एहसास से भरा रहता हूं पर किसी न किसी वजह से यह क्रम टूट ही जाता है और फिर टूटता ही चला जाता है बल्कि ये कहूं तो ज्यादा ठीक होगा कि कायदे से यह क्रम कभी बन ही नही पाया। हमेशा बनने के पहले ही बिखर जाता हैं पत्नी के दिल में जो भी हो पर इन सब बातों के लिए उसने अपनी नाराजगी कभी नही जताई। उसकी नाराजगी कि वजहें हमेशा दूसरी होती हैं।
तो यह ऐसे ही छुट्टी का एक दिन था। पत्नी सुबह से ही बहुत खुश थी। मैं सुबह उठा तो अचानक मैने पाया कि मेरी किताबों पर बहुत धूल-गर्द जमा हो गई थी। मैं सुबह से ही किताबें साफ करने में जुटा था और इस बीच मेरी बेटी आकर कई बार मेरी पीठ पर लद चुकी थी। पत्नी कई बार आकर मुझे चूम चुकी थी। मैं ऐसे ही एक किताब के पन्ने पलट रहा था और वह पीछे से लिपटी हुई थी कि मोबाइल बज उठा। मोबाइल कोने में मेज पर पड़ा था। मैने उधर देखा ही था कि पत्नी बोल पड़ी किसी का भी हो बजने दो मत उठाओ’ और उसने मुझे और जोर से कस लिया। इस सब के बीच मोबाइल एक बार बजकर शान्त हो गया पर तुरन्त ही फिर बज उठा। मैने कहा कि देखें तो किसका फोन है, उठाऊंगा नहीं और उसके मना करते-करते मैं फोन तक आ गया। बाॅस का फोन था।
बॉस विशुद्ध बॉस होता तो मैं फोन नहीं ही उठाता पर हमारे बीच बेहद आत्मीय रिश्ते हैं। वह हमारी परेशानियों में शरीक हैं और मैं उसकी दिल से इज्जत करता हूं सो फोन रिसीव न करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। मैने फोन उठाया और बोला, हाँ सर बताइये। बॉस ने कहा कि एक पार्टी से आज का ही अप्वाइन्टमेन्ट फिक्स हो गया है और इस जरूरी अप्वाइन्टमेन्ट में मुझे भी बॉस के साथ रहना है। मैं कुछ कह पाता इसके पहले ही बॉस ने फोन काट दिया। मेरे मुंह का जायका बिगड़ गया। यूं तो बॉस ने यह भी पूछा था कि मैं कहीं और व्यस्त तो नहीं हूं और यह भी कि ज्यादा से ज्यादा दो घण्टे में काम हो जायेगा, पर मैं सामने वाली पार्टी को बाॅस से बेहतर जानता था। आज तक वह कभी भी तयषुदा समय बीत जाने के दो-तीन घण्टे बाद ही आई थी। ऐसी किसी भी देरी पर जब हम उन्हें फोन करते तो अमूमन उधर से फोन ही नहीं उठता था और हम ऑफिस में बैठे कसमसाते रहते क्योंकि उनके देर से आने का सीधा मतलब हमारा ऑफिस में देर तक बैठना होता। सामने वाली पार्टी ऐसी थी कि देर से आने में उसे अपना महत्वपूर्ण होना लगता था। हम इस पार्टी से परेशान थे और बॉस से अपनी आपत्ति कई बार मीठे स्वरों में दर्ज करा चुके थे पर हर बार बॉस का एक ही जवाब होता कि क्या करें इसका कोई विकल्प भी तो नहीं मिलता और यह बात पूरी तरह सच थी। हमने उन कामों के लिए जिन्हें सामने वाली पार्टी हमारे लिए करती थी, कई पार्टियों को आजमाया था पर उतने परफेक्षन के साथ कोई और नहीं कर सका और कीमत भी अधिक चुकानी पड़ी। दरअसल हम छोटे शहर में होने की विकल्पहीनता के षिकार थे। हम दिल्ली या मुम्बई में होते तो ऐसे लोगों को जिनमें प्रोफेशनल एथिक्स नाम की कोई चीज नहीं थी, हमने अपनी लिस्ट से कब का बाहर कर दिया होता पर यहाँ हमारे पास कोई विकल्प नहीं था।
यूं तो बॉस ठीक ही है। वह हमारी सुविधाओं का भी थोड़ा बहुत ध्यान रखता है। हमारे रिश्ते भी ऐसे हंसी-मजाक भरे हैं कि बहुत बार लगता ही नहीं कि हम बॉस और मातहत हैं। पर छुट्टी के मामले में हमारा बॉस बहुत सख्त है। हालांकि जब हमें जरूरत होती है छुट्टियां हमें मिल ही जाती हैं पर मुश्किल ये है कि यह छुट्टियां जिस खास जरूरत के लिए ली जाती हैं उसी में काम आ जाती हैं और आप इस बात के लिए तो छुट्टी मांगने से रहे कि आपको अपनी प्यारी पत्नी के साथ नाटक या सिनेमा देखने जाना है याकि मौसम बूंदाबांदी वाला है और आप बस अपनी जान के साथ हाथों में हाथ डाल के भीगना और भीतर तक भीग जाना चाहते हैं, काम नहीं करना चाहते। याकि ठंड का समय है और आप दिन भर धूप का मजा लेते हुये अलसाये से पड़े रहना चाहते हैं याकि...............
तो बॉस के साथ मेरी बातचीत खत्म होती इसके पहले ही पत्नी कोपभवन में जा बैठी। बातचीत खत्म होते ही तुरन्त मैं उसके पास पहुंचा और उसे समझाने की कोशिश की कि देखो बस थोड़ी देर की बात है, मैं जाऊंगा और आ जाऊंगा आना-जाना मिलाकर मुष्किल से तीन-साढ़े तीन घण्टे लगेंगे। मैं यूं गया और यूं आया। तुम तैयार रहना, आज हम वेव्स में फिल्म देखेंगे। पत्नी ने गुस्से से मुझे देखा और मुंह फेर लिया। मेरे मन में आया कि मैं पत्नी का चेहरा अपनी तरफ घुमाऊं और चूम लूं पर ऐसा करने के परिणाम खतरनाक हो सकते थे और मेरे पास खतरों से खेलने का समय नहीं था। मैंने कहा, जान मुझ पर भरोसा रखो। एक दिन हमारे पास खूब समय होगा और दूनिया भर की खुशियाँ हमारे पास होंगी। हम हमेशा, साथ रहेंगे, खूब प्यार करेंगे और खूब खुश रहेंगे कहते हूए मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखा। पीठ बर्फ की तरह ठंडी थी पर मेरे पास पीठ पर ध्यान देने का भी समय नहीं था। मैं नहाने के लिए झटपट बाथरूम में घुस गया। बाथरूम में पानी आंसुओं की तरह गुनगुना था। जल्दी ही मैं बाथरूम से बाहर निकला और कपड़े पहनने लगा। पत्नी को बाय किया तो उसने न जाने कैसी आँखों से मुझे देखा। उन आँखों में क्या था यह तो मैं नहीं समझ सका पर उनमें ऐसा कुछ जरूर था जिसका सामना करने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। मैने नजरें घुमाई, बैग उठाया, फिर से बाय-बाय कहा, बिटिया का गाल थपथपाया और किसी तरह के जवाब का इन्तजार किये बगैर बाहर निकल आया। बाहर धूप शरीर के पोर-पोर में सुइयाँ चुभो रही थी।
ऑफिस में हमेशा की तरह जब सामने वाली पार्टी आई तब तक हम बॉस के साथ उस मुद्दे को कई बार डिस्कस कर चुके थे और बॉस एक के बाद एक दसियों सिगरेट फूंक गया था। हालांकि हमें यह भी पता था कि हम कितना भी डिस्कस क्यों न कर लें सामने वाली पार्टी उसमें कोई न कोई कमी जरूर निकालेगी और बदले में अपनी तरफ से कोई सुझाव पेश करेगी। यह उसके चरित्र का स्थायी हिस्सा था। पार्टी ने दो बजे का समय दिया था और जब हम अपना काम करके बाहर निकले तब तक छः बजकर सात मिनट हो रह चुके थे। बाहर निकलकर मैंने एक सिगरेट सुलगाई और ऑटो स्टैण्ड की तरफ चलते हुये, अपने आपको पत्नी की छुट्टी बर्बाद करने का दोषी मानता हुआ, उसका सामना करने की हिम्मत जुटाने लगा।
दरअसल उसकी पिछली छुट्टी भी ऐसे ही इधर-उधर में बर्बाद हो चुकी थी। आप जो भी समझें पर छुट्टी के दिन मैं किसी को घर बुलाने से बचता हूं। पर मेरा एक बहुत प्यारा बचपनी दोस्त शहर में था और मैने उसे लंच के लिए बुला लिया था। अब मैं क्या करूं जो मुझे पहले से पता नहीं था कि इधर उसके लंच का समय चार बजे होता था। वह आया तो हम बहुत सारी नयी-पुरानी बातों में डूब गये। हमने एक लम्बा समय साथ बिताया था। एक दूसरे के साथ न जाने कितनी फिल्में देखी थी, नाटक देखे थे, बदलाव के बड़े-बड़े सपने देखे थे तो उन सपनांे के बारे में, हमारे दूसरे बहुत सारे साझा दोस्तों के बारे में, एक दूसरे के बारे में कहना-सुनना हमें बहुत अच्छा लग रहा था। उसका कहने का उत्साह मुझे सुनने के लिए उत्सुक बना रहा था। मेरी उत्सुकता उसे और भी वाचाल बना रही थी। हम दोनों एक दूसरे में इतने डूबे कि समय की खबर ही नहीं लगी। जब पत्नी आई और उसने चाय के बारे में पूछा तो अचानक मेरी नजर घड़ी पर पड़ी। साढे़ सात बज रहे थे। मैने पत्नी की तरफ देखा, उसकी आँखें बेचैनी में इधर-उधर घूम रहीं थीं। मेरा दोस्त अचानक से अस्त-व्यस्त हो गया। उसने कहा कि उसे तो किसी से छः बजे ही मिलना था पर उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा। वह तुरन्त ही अपने मोबाइल पर फोन मिलाने लगा और पांच मिनट बाद मैं उससे हाथ मिलाते हुये उसे विदा कर रहा था ।
ऐसे ही उसके पहले के छुट्टी वाले दिन पर मेरे गाँव का एक लड़का आ धमका था। उसकी हमारे शहर में कोई परीक्षा थी। परीक्षा देने के बाद वह पूरी निश्चिन्तता में आकर जम गया था और हम संकोच में उससे कुछ भी नहीं कह पाये थे। पत्नी ने इन दोनों मौकों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की लेकिन मुझे पता है, वह इतनी जल्दी प्रतिक्रिया नहीं जाहिर करती पर जब जाहिर करती है तो एक आवेग में पिछली न जाने कितनी चीजें निकलती चली आती हैं यूं तो कई बार वह उन पिछली घटनाओं का जिक्र तक नहीं करती जो उसे मथ रही होती हैं पर उस समय आप उसे देखें तो बिना बताये ही समझ जायेंगे कि यह गुस्सा एक दिन का तो हो ही नही सकता। याकि इसके पीछे कोई एक बात नहीं हो सकती। और मैं ........... जब भी मेरी पत्नी मुझ पर इस तरह गुस्सा होती है तो मैं इस एहसास से पस्त हो जाता हूं कि पत्नी के इस गुस्से के पीछे पति के रूप में मेरी कितनी असफलतायें छुपी हुई हैं।
घर पहुँचते-पहुँचते सात बज चुके थे। मैं काफी देर तक बेल बजाता रहा। एक लंबी किर्र-किर्र के बाद दरवाजा खुला। यह मेरी बेटी थी जो अपनी कुर्सी पर खड़ी होकर सिटकिनी खोल रही थी। उसने मुझे देखा और मुस्कुराई, मम्मी देखो पापा आ गये। मैने उसके होठों पर उंगली रख दी और उसे चुप रहने का इषारा किया तो उसने सवालिया निगाहों से मेरी तरफ देखा। वह थोड़ा मायूस लग रही थी। मैने उसे गोद में उठा लिया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और भीतर तक भीग गया। बाहर मेरा जो जीवन है वह इतना नीरस और बेतुका है कि कोई तुक की बात मिली नहीं कोई अलग एहसास हुआ नहीं कि भीग-भीग जाता हूं। हालांकि इस तरह बारबार का भीगना मुझे बेहद लिजलिजा लगता है कि बारबार रोनेरोने को हो आयें और आंसू का एक कतरा भी न निकले। ऐसे मौकों पर मैं और भी फंसा-फंसा महसूस करने लगता हूं। इससे अच्छा तो यही है कि किसी दिन रूलाई ही आ जाय। एक बार ऐसा सोचने भर की देर थी मैं बारबार रूलाई का इन्तजार करने लगा। फिर मैने सोचा कि किसी छुट्टी के दिन कायदे से रोऊंगा पर छुट्टी तो छुट्टी है जब मिलती है तो करने को बहुत से जरूरी काम होते हैं।

भीतर बेडरूम में अंधेरा था। मैने स्विच ऑन किया, ट्यूब जली फिर भी अंधेरा कायम रहा। पत्नी मुंह दूसरी तरफ किये सिर तक चादर ओढ़े पड़ी हुई थी। मैने उसे डरते-डरते छुआ और उसका चेहरा अपनी तरफ घुमाने की कोषिष की। पत्नी ने मेरा हाथ झटक दिया और बोली, मुझे छूने की कोषिष मत करना। जाओ ऑफिस जाओ। काम करो। दोस्तों के साथ मजे करो। मैं तुम्हारी कौन हूं।

मैने कहा तुम मेरी जिन्दगी हो तुम मेरी सांस हो तुम मेरा प्यार हो तुम मेरी हसरत हो तुम मेरे जीवन की खुष्बू हो तुम मेरा सपना हो तुम मेरी जन्नत हो तुम मेरी तमन्ना हो तुम मेरा दिल हो तुम मेरी जान हो तुम मेरी प्रेमिका हो तुम मेरी पत्नी हो। मैं उसे खुश देखना चाहता था। मैं उसे चहकता हुआ देखना चाहता था पर न तो वह खुश हुई और न ही चहकी। वह बड़े ध्यान से मेरे चेहरे की तरफ देख रही थी। मैने उसकी आँखों में देखा और डर गया। मुझे लगा कि उसे मेरी आँखों में एक तरह की बेचारगी दिख रही है। वह बेचारगी से बेइंतिहा नफरत करती है। मैने अपने जबड़े को ढीला करने की कोशिश की ताकि सहज दिख सकूं। खुद मुझे बेचारा दिखना पसन्द नहीं है और पत्नी के सामने तो बिल्कुल भी नहीं पर मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर के किस कोने से यह भाव आता है और चेहरे पर आकर अपना काम कर जाता है।
मैं चुपचाप सहज होने की कोशिश करने लगा। बेटी जैसे सबकुछ समझकर ही टेलीविजन में डूब गई। पत्नी ने जैसे सबकुछ समझकर ही दूसरी तरफ मुंह फेर लिया। मुझे थोड़ी राहत मिली और मैं थोड़ा सहज हो आया। मैं पत्नी की गोद में सिर रखकर उसे देखने लगा। वह कहीं और देख रही थी और इस तरह से चुप थी जैसे आसमान में तारे चुप दिखाई देते हैं। मैने धीरे से उसके हाथ पर अपना हाथ रखा। हाथ ठंडा था। मैने धीरे-धीरे उसके हाथों को सहलाया। हाथ कांपे तक नहीं फिर मैं देर तक उसके हाथों को चुपचाप सहलाता रहा, फिर मैने कहा, तुम मेरी पत्नी हो मैं तुम्हारा पति हूँ हमें एक दूसरे की मुष्किल को समझना चाहिये। तुम जानती हो कि मैं तुम्हे कितना प्यार करता हूँ तुम्हारी खुशी मेरे लिए मेरे जीवन में क्या है पर हम दोनों को रहने कि लिए घर चाहिये। घर घर बना रहे इसके लिए काम चाहिये। काम की अपनी शर्तें होती हैं। हम यह काम नहीं करेंगें तो कोई और काम करना पड़ेगा पर काम के बिना काम कैसे चलेगा। वह लगातार दूर देख रही थी लेकिन मैने उसके हाथों में एक हरारत महसूस की।

मैने कहा देखो थोड़े पैसे इकट्ठे हो जायें फिर हम मिलकर कोई काम करेंगे। तुम मेरी बॉस बन जाना फिर मैं देखूंगा कि तुम मुझे कितनी छुट्टियां देती हो। लेकिन अभी से जान लो कि ऑफिस टाइम में नो लव नो रोमांस नहीं तो हमारा धन्धा बैठ जायेगा। हम मिलकर रहेंगे। हम खूब खुश रहेंगे। तब तक हमारी बेटी भी थोड़ी बड़ी हो जायेगी। सोचो और तब तक तुम चाहो तो अपने लिए भी कोई काम ढूंढ़ सकती हो जिससे तुम्हारी घर में बन्द रहने की तकलीफ दूर हो जायेगी।

पत्नी के हाथ कांपे उसने मेरा माथा सहलाया और फिर कुछ इस तरह मुझे सहलाने लगी जैसे सदियों से वह यही कर रही हो। इस सहलाने में पता नहीं क्या था कि मैं रोने लगा। पत्नी ने मुझे चुप कराने की कोई कोशिश नहीं की। बस चुपचाप मुझसे लिपटी हुई मुझे सहलाती रही। उसके ठंडे हाथ धीरे-धीरे गर्म होते जा रहे थे। उसने मुझे अपने में इस तरह समेट लिया जैसे मैं उसी के जिस्म का एक हिस्सा होऊं और मेरा अलग से कोई अस्तित्व ही न हो बस एक रूलाई को छोड़कर जो रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
और इस बीच हमारी समझदार बिटिया ने टेलिविजन का वॉल्यूम तेज कर दिया था।

कहानीकार- मनोज कुमार पाण्डेय

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15 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Disha का कहना है कि -

ज्यादातर पुरुष पत्नियों को चक-चक करने वाली आदि आदि फिकरों से नवाजते है.लेकिन साथ ही पत्नियों की भावनाओं को सम्मान दिया गया है.आपकी कहानी में काफी अपनापन है.
बहुत ही बढिया

Disha का कहना है कि -

ज्यादातर पुरुष पत्नियों को चक-चक करने वाली आदि आदि फिकरों से नवाजते है.लेकिन आपकी कहानी में काफी अपनापन है.
साथ ही पत्नियों की भावनाओं को सम्मान दिया गया है.बहुत ही बढिया

Shamikh Faraz का कहना है कि -

जैसे मैं उसी के जिस्म का एक हिस्सा होऊं और मेरा अलग से कोई अस्तित्व ही न हो बस एक रूलाई को छोड़कर जो रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
और इस बीच हमारी समझदार बिटिया ने टेलिविजन का वॉल्यूम तेज कर दिया था।


कहानी का अंत बहुत सुन्दर है.

शोभना चौरे का कहना है कि -

aaj ki vystta ko rekhankit karti khani.

Manju Gupta का कहना है कि -

अंत सुखांत है.कहानी रोचक है

Anonymous का कहना है कि -

kahani bahut achi lagi bhavnauo ko vyakt karke pati patni ka chutti bitane ka tarika,acha laga .........................kamana

Pratyush का कहना है कि -

कहानी पढ कर लगा ही नही कि ये अक कहानी है, ऐस लगा जैसे कोइ मेरे जीवन मे झान्क गया है और जो कुछ भी उसने देखा बस उसे बयान कर रहा है...अत्यन्त सजीव चित्रण...
और बात यह कि, ये विचार की आधा दिन मै अपने तरह से जियु और आधा तुम्हारे...ये मुझे बहुत अच्छा लगा...मेरी दो दिनो कि छुट्टी होती है, मै अक दिन खुद के हिसाब से और अक दिन पत्नी के हिसाब से बीताउन्गा. :-)...धन्यवद..

vickyindian का कहना है कि -

aap ki kahani me kahne ka nayapan hai jo aaj ki vyast jindgi ke beech ghut te riston ki juban ban gaya hai.lekin aap ki kahaniyon me jo lagatar eksaarpan aata ja raha hai, wo chahe "jeens"kahani ho ya ki "behya" nischit roop se pathkon ko nirash karne wala hai.
baki sabhi kahaniya thik lagin.

Shashi का कहना है कि -

great story filled my eyes with tears
sonal

Unkomon का कहना है कि -

Koi meri tarah bhi sochata hai.

Anonymous का कहना है कि -

aapki kahani har khar ki kahani hai .bahut achi lagi pati patni ke man ke bhaw ki kafhi achi pakar hai kahani me.ye kahani man ka hissa ban jaati hai .paathak isme khosa jata hai.

Anonymous का कहना है कि -

bahut pyaari kahani hai....

Parineeta का कहना है कि -

आपकी कहानी पढकर लगा की काश मैं अपने पति को ये कहानी पढ़ा सकती | उन्हें जरूर पसंद आएगी ...शायद अपनी सी ही लगे |आपने जैसे हममे से ना जाने कितनों के जीवन का यथार्थ सामने रख दिया है | बहुत अच्छा लिखा है |

Anonymous का कहना है कि -

bahut accha G humko bhi rona aa gaya

Sanjay Saroj "Raj" का कहना है कि -

Pandey Ji yah kahani aapki hi nahi apitu har aam insaan ki kahani hai. lekin ise kahani se jyada yatharth kahna mere liye adhik uchit hoga, kyonki yah kahani mere jeevan se puri tarah mel khati hai

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