Monday, March 16, 2009

ईस्ट इंडिया कंपनी

आज हम प्रकाशित कर रहे हैं युवा कहानीकार पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' की शीर्षक कहानी। यह कहानी संग्रह विगत १४ मार्च २००९ को दिल्ली के हिन्दी भवन सभागार में विमोचित हुआ। उस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग आप यहाँ सुन सकते हैं। इस किताब का लोकार्पण आप अपने हाथों भी ऑनलाइन तरीके से कर सकते हैं, साथ में अनुराग शर्मा की आवाज़ में इस कहानी को सुन भी सकते हैं। यहाँ जायें। पंकज सुबीर के इस कहानी-संग्रह को भारतीय ज्ञानपीठ ने अनुशंसा के साथ प्रकाशित किया है। निर्णायक मंडली में स्वमान्य धन्य आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह भी थे, जिन्हें इस कहानी का शीर्षक इतना पसंद आया कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान उन्होंने इस कहानी को पूरा सुना। आप भी पढ़िए॰॰॰॰


ईस्ट इंडिया कंपनी


वे कुल जमा नौ थे, इसमें अगर दो बच्चों को भी जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या ग्यारह हो जाती है। हालांकि वैसे तो पूरा रेल का सामान्य श्रेणी का डब्बा यात्रियों से ठसाठस भरा था, लेकिन उसके हिस्से में वे कुल ग्यारह थे, एक तरफ बैठे हुए पाँच और दूसरी तरफ चार एवं साथ में दो बच्चे। इन ग्यारह में उसे अपनी मनपसंद खिड़की के पास की जगह मिल गई थी, एक बार उसे रेल में खिड़की के पास स्थान मिल जाए तो फिर उसे डब्बे के अंदर की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रहता, उसका मन बाहर तेजी से दौड़ रहे खेतों खलिहानों, नदी, तालाबों, बिजली टेलिफोन के खंभों, और पर्वत मालाओं के साथ दौड़ने लगता है और साथ में ताल मिलाने लगती है रेल की पटरियों पर थाप दे रही पहियों की आवाज ''सटक सटक -पटक पटक-पटक पटक'' ,''सटक सटक-पटक पटक-पटक पटक .........।''
आज उसे पहले पहल तो खिड़की के पास स्थान नहीं मिला था, लेकिन अचानक ही खिड़की के पास बैठे भद्र महाशय से टीसी की कुछ चर्चा हुई और वे अपना सामान उठाकर टीसी के साथ चले गए, वैसे भी वे तथा उनका लकदक कर रहा सामान दोनों ही सामान्य श्रेणी के डब्बे में कुछ असहज लग रहे थे। कदाचित उच्च श्रेणी में आरक्षण न मिल पाने के कारण वे यहां बैठ गए थे, गरीब लोगों के भारत से अवसर मिलते ही वे अपने वाले अमीर लोगों के भारत में चले गए, अपने हिस्से की खिड़की एक गरीब को देकर। उनके वहां से हटते ही उसने बिजली की फुर्ती से खिड़की के पास कब्जा कर लिया, खिड़की के पास बैठते ही उसे लगा कि अब यात्रा कितनी ही लंबी हो जाए कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि खिड़कियों के उस पार के एक पूरे संसार के साथ अब वो जुड़ गया है, यात्रा की यायावरता अब पूरी पकृति के साथ जुड़कर गतिमान होगी।
तो वे कुल जमा ग्यारह थे कुछ घंटों के लिए मजबूरीवश बना एक सर्वथा अपरिचित लोगों का समाज, इस समाज में न कोई किसी के भूत के बारे में जानता है, न भविष्य के, केवल वर्तमान के कुछ घंटों को काटने के लिए ये समाज बना है। खिड़की के पास आसन जमाने के काफी देर बाद वो डब्बे के अंदर आया, यहां आने से मतलब मानसिक रूप से अंदर आना है। बाहर की प्रकृति को छोड़ वो अंदर आया, तब उसे ये दस लोग दिखाई दिये, जो उसके समेत कुल ग्यारह थे और उपर वर्णित समाज की रचना कर रहे थे।
सामने की सीट पर कोने में छोटा परिवार सुखी परिवार विराजमान था, अत्यंत युवा ग्रामीण पति पत्नी और उनकी दो छोटी छोटी बेटियां, ये बेटियां इस बात का प्रमाण थीं कि यह परिवार अधिक दिनों तक छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं रहेगा। अगर दो बेटे होते तब शायद यह रह लेता, परंतु पति पत्नी की अत्याधिक युवावस्था और दो बेटियां, छोटा परिवार सुखी परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थीं। इन चार के बाद सीट पर एक महिला अपनी युवा बेटी को लेकर बैठी थी, लड़की क्योंकि युवा थी, इसलिए जाहिर है खिड़की के समीप बैठी थी उसके ठीक सामने। मां बेटी दोनों ही खाते पीते घर की होने की बात को अपनी चर्बी के द्वारा सिद्ध करने का पूर्ण प्रयास कर रही थी। यह था उसका विपक्षी दल का बेन्च अर्थात उसके ठीक सामने की सीट पर विराजमान उसके हिस्से का आधा समाज।
अब उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों पर नजर डाली इस अवलोकन के दौरान उसे लगा कि विपक्ष की ओर नजर डालना बहुत आसान है, आंखें उठाओ और देख लो, लेकिन अपने पक्ष को देखने के लिए बाकायदा प्रयास करना पड़ता है,बात वही सप्रयास और अप्रयास वाली है। अपनी बेंच के लोगों में स्वंय को छोड़कर उसने बाकी लोगों को देखा, विपक्ष की और जब उसने देखा था तो कहीं कोई भी प्रतिक्रिया नहीं हुई थी, किंतु जब गरदन घुमा कर कुछ झुककर उसने अपने पक्ष में बैठे लोगों को देखा तो उन लोगों में विशेषकर महिलाओं में प्रतिक्रिया उनकी आंखों में साफ दिखाई दी, कुछ इस प्रकार की ,कि देखो कैसे घूर रहा है।
खैर इस देखने दिखाने की प्रक्रिया में जो कुछ नजर आया वो इस प्रकार था उसके ठीक पास दो महिलाऐं बैठी थीं, और उनके पास फिर एक महिला थी और फिर एक पुरूष बैठा था। अब इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि तीन महिलाएं और एक पुरूष बैठा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं कहा जा रहा क्योंकि दो महिलाएँ एक साथ थीं और तीसरी महिला और चौथा पुरूष एक साथ, जैसा उनके वार्तालाप से पता चल रहा था। उसके ठीक पास की दो महिलाएँ पारंपरिक भारतीय महिलाऐं थीं, जो संभवत: निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से संबंधित थीं, पारंपरिक इसलिए क्योंकि उनकी बातचीत में पात्र भले ही रह रह कर बदल रहे थे लेकिन विषय एक ही था ''निंदा'', और यह निंदा पूरी शिद्दत के साथ और पूरी ईमानदारी के साथ की जा रही थी, हालांकि कभी कभी यह निंदा निहायत कानाफूसी वाले स्तर पर पहुंच जाती थी, शायद उन महिलाओं का यह मानना था कि भले रेल के डब्बे की दीवारें हों या घर की दीवारें, दीवारें तो दीवारें हैं, और उनके कान होते ही हैं।
इन दो महिलाओं के उस तरफ जो पुरूष और महिला थे वे वास्तव में दो वृद्ध थे, एक सरदार जी और उनकी पत्नी, सरदार जी पूर्ण पारंपरिक वेशभूषा में थे और ऊपर एक कृपाण भी लटकाए हुए थे। पत्नी उनसे कुछ अधिक वृद्ध थी या फिर बीमार थी, ऐसा इसलिए क्योंकि सरदार जी थोड़ी थोड़ी देर बाद स्वयं उठकर नीचे फर्श पर बैठ जाते थे, और उन दो लोगों वाले स्थान पर उनकी पत्नी अधलेटी हो जाती थी। ऐसा रह रहकर हो रहा था ।
पूर्ण सिंहावलोकन करने के पश्चात उसने पुन: सामने नजर डाली तो उसके ठीक सामने बैठी लड़की उससे नजर मिलते ही बिला वजह ही शर्मा गई। कुछ लड़कियों के साथ यही समस्या होती है, एक ठीक ठाक सा पुरूष जो थोड़ी दूर से देखने पर युवक होने का भ्रम उत्पन्न करता हो, उसकी उपस्थिति मात्र से ही इन्हें कुछ कुछ होने लगता है। स्थिति यह हो गई कि कुछ ही देर में उसे ''कनखियों से देखना'', ''दुपट्टा मुंह में दबाना'', ''पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद कर लजाना'' जैसी घोर दुर्लभ घटनाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का सौभाग्य मिल गया। यद्यपि ट्रेन के उस घोर मरूस्थली फर्श पर कुरेदने जैसा कुछ नहीं था, फिर भी महिलाऐं परंपराओं का पालन करने में अधिक विश्वास करती हैं, अब परंपरा पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने की है तो कुरेदना है।
उधर कोने का छोटा परिवार सुखी परिवार अपने आचरण से स्पष्ट कर रहा था कि अब यह छोटा परिवार यात्रा समाप्त होने के कुछ समय पश्चात ही छोटे परिवार का दायरा तोड़ देगा। यद्यपि दो बच्चियों के कारण दोनों खासे परेशान नजर आ रहे थे।
तो इस तरह दोदो के चार समूहों में ग्यारह सदस्यीय दल चर्चारत था, और इन सबके बीच एक बिला वजह की चर्चा उसके और सामने वाली लड़की के बीच भी हो रही थी, हालांकि यह चर्चा निगाहों से होने वाली चर्चा थी और पूर्णत: एकतरफा थी। और इसी एकतरफा चर्चा के कारण वो पुन: खिड़की से बाहर निकल गया और एक बार फिर नदी ,तालाब ,पेड़ ,पहाड़ों के साथ दौड़ने लगा। अच्छा होता है खिड़की के पास बैठना क्योंकि खिड़की के पास बैठने वाले को यही एक बड़ी सुविधा होती है, अगर डिब्बे या बस के अंदर का माहौल किसी व्यक्ति विशेष अथवा घटना विशेष के कारण रूकने योग्य न हो रहा हो, तो शारिरिक रूप से अंदर उपस्थित रहकर मानसिक रूप से बाहर निकला जा सकता है जो वो अभी कर रहा है।
काफी देर तक वो खिड़की के बाहर दौड़ता रहा तब तक जब तक बाहर अंधेरे ने नदी पर्वत तालाबों को लील नहीं लिया और बाहर दौड़ना उसके लिये पूर्णत: असहज नहीं हो गया। घना अंधकार बाहर फैला और वो अंदर लौट आया, अंदर आकर उसे पहली तसल्ली यह मिली कि उसका मूक साथी अपनी मां के कंधे पर सिर टिकाए सोने या संभवत: ऊँघने की स्थिति में आ चुका था, बाकी सब कुछ पूर्ववत था, हाँ एक लगभग अधेड़ उम्र के स्त्री पुरूष जो केवल इसलिए पति पत्नी कहे जा सकते थे क्योंकि ट्रेन भारत में थी, वे दोनों जहां दोनो सीटें खत्म होती हैं ठीक उस स्थान पर आकर खड़े हो गए थे। पति पूर्णत: पारंपरिक भारतीय अधेड़ था ,जिसके सर के बाल विलुप्त हो गए थे और पेट तोंद नामक निर्जीव वस्तु में परिवर्तित हो चुका था। पत्नी उससे भी ज्यादा भारतीय नजर आ रही थी।
पति की आंखों में कुछ पा लेने के लिए आतुरता नजर आ रही थी। उसने देखा कोने वाले सरदारजी की पत्नी फिलहाल लेटी हुई है, और सरदार जी सीट से नीचे बैठे ऊँघने वाली मुद्रा में नजर आ रहे थे। नवागत खड़े खड़ाए दंपति की निगाहें अधलेटी सरदारनी के द्वारा घेरे गए स्थान पर टिकी हुई थी, अगर सरदारजी पास नहीं बैठे होते तो निश्चत रूप से वे अभी तक सरदारनी को उठा चुके होते। रात काफी हो चुकी थी लेकिन पब्लिक डब्बे में क्या रात और क्या दिन, क्योंकि बैठे बैठे ऊँघना ही था, और वो भी लोहे की सख्त सीटों पर। उसे केवल एक बात का डर था कि उसके ठीक सामने की ऊँघ टूट न जाए, नहीं तो फिर उसे कुरेदना लजाना झेलना पड़ेगा,क्योंकि अंधेरे मे खिड़की से बाहर भी तो नहीं जा सकता।
सरदारनी अचानक कुछ कराही और उठ कर बैठ गई, सरदाजी को इस बात का पता नहीं चल पाया कि सरदारनी उठ कर बैठ गई है वे पूर्ववत ऊँघते रहे, सरदारनी को शायद कम दिखता है वह उठकर चुपचाप बैठ गई बस एक बार दुपट्टे को संभाल कर सर ढंक लिया। सरदारनी के उठते ही खड़े पति पत्नी के बीच कुछ ऐसा हुआ जिसे फिल्मी भाषा में आंखो ही आंखों में इशारा हो गया कहा जा सकता है। इस बात को केवल उसी ने देखा कि खड़े पति ने भोंहों को ऊपर उचका कर गर्दन को सामने खींच कर सरदारनी के बैठ जाने से बने रिक्त स्थान की और इशारा किया, और जवाब मे खड़ी पत्नी ने गिरगिट की तरह तीन बार स्वीकृति मे सिर हिलाकर पति के हाथों से बैग ले लिया यह पूरा घटनाक्रम उसके लिए दिलचस्प हो गया था, उसे अब डिब्बे के अंदर भी मज़ा आ रहा था।
हाथों मे बैग लेकर खड़ी पत्नी कुछ देर तक खड़ी रही, फिर बिल्ली की तरह दबे पांव उस रिक्त स्थान की और बढ़ी, दबे पांव बढ़ने का कारण शायद यही था कि सरदारजी की नींद न खुल जाए क्योंकि उस स्थिति में सरदारजी उस स्थान के पहले हकदार होने के कारण बैठ जाते। लेकिन खड़ी पत्नी का साथ आज किस्मत दे रही थी, वह अपना बैग और लगभग बैग सा ही ठसा ठसाया शरीर लेकर उस रिक्त स्थान पर बैठ गई, अर्थात अब उसे बैठी पत्नी कहा जा सकता था। खड़ी पत्नी के बैठते ही उसकी सीट पर हल्की सी हलचल हुई, यह हलचल सरदारनी की तरफ से नहीं हुई क्योंकि उन्हें तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था, यह हलचल उसके ठीक पास बैठी दोनों पारंपरिक महिलाओं की और से हुई।
ये दोनों महिलाऐं अभी भी ऊँघ-ऊँघ कर निंदा में लगी हुई थीं रात हो जाने के कारण निंदा के विषय भी नींद या रात से संबंधित हो गए थे, मसलन फलानी को नौ बजे से ही नींद आने लगती है या फलानी सुबह के आठ बजे तक सोती रहती है। इन्ही दोनों महिलाओं का यह निंदा का पारंपरिक कार्य तीसरी महिला अर्थात खड़ी पत्नी के ठीक पास आकर बैठते ही कुछ देर के लिए रुक गया। निंदा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि प्रेम गली अति सांकरी जामे तीन महिला न समाए, जो कनफुसियाना, फुसफुसियाना दो महिलाओं के बीच मजा देता है,वह मजा तीन में कहाँ? यही कारण था शायद कि दोनों महिलाओं के बीच का वार्तालाप खड़ी पत्नी के बैठी पत्नी मे बदलते ही थम गया ,और दोनों कनखियों से बैठी पत्नी की और देख रही थीं।
इसी बीच सरदार जी की ऊँघ अवस्था समाप्त हो गई, उन्होंने उठकर जैसे ही अपने स्थान पर उक्त महिला को बैठे देखा तो तुरंत बोले ''औ भैणजी इत्थे तो मैं बैठा था'' महिला ने तुरंत अपने पति की और देखा, अधेड़ पति ने तुरंत सरदारजी को जवाब दिया ''सरदारजी महिला हैं कब तक खड़ी रहतीं, आप तो अच्छे बैठे ही हो नीचे।'' सरदारजी वयोवृध्द होने के साथ विनम्र भी थे, और फिर महिला के बैठने पर आपत्ति कैसे दर्ज कराते। कुछ नहीं बोले मुड़कर सरदारनी से कुछ पूछने लगे, खड़ा पति और बैठी पत्नी दोनों मुस्कुरा रहे थे। उसने विरोध दर्ज कराना चाहा फिर सोचा जाने दो अपना क्या गया जगह तो सरदारजी की गई।
कुछ देर तक उसने खिड़की के बाहर अंधेरे में आंखे फाड़कर देखने का प्रयास किया लेकिन बाहर कुछ सूझ ही नहीं रहा था । वह पुन: अंदर आ गया उसके ठीक सामने अभी भी ऊँघ का माहौल था वह भी ऊँघने लगा। काफी देर तक वह ऊँघता रहा उसकी इस निर्विघ्न ऊँघ के पीछे कई कारण थे जैसे कि उसके ठीक सामने कि निगाह चर्चाओं का ऊँघ जाना, छोटा परिवार सुखी परिवार की पारिवारिक चेष्टाओं का थम जाना और ठीक पास के निंदा पुराण का भी ऊँघ जाना। काफी देर बाद जब उसकी आंखें थोड़ी खुलीं तो उसने देखा कि सारे सहयात्री ऊँघ वाली अवस्था से निंद्रा वाली अवस्था में प्रवेश कर चुके हैं, उसके समेत केवल पांच लोग ही जाग रहे हैं, सरदारजी, सरदारनी, बैठी पत्नी और खड़ा पति। बैठी पत्नी अपने खड़े पति की चिंता में जाग रही थी और सरदारजी, सरदारनी के कारण जाग रहे थे, अर्थात् भारतीय दांम्पत्य जीवन का अनूठा उदाहरण दोनों युगल बने हुए थे।
सरदारनी को बैठे रहने में परेशानी हो रही थी शायद इसीलिये वे बार बार पहलू बदल रही थीं । पहले वो थोड़ी-थोड़ी देर बाद अधलेटी हो जाती थीं लेकिन खड़ी महिला के बैठी होने के बाद अधलेटे होने की जगह समाप्त हो गई थी। पत्नी को परेशान देख सरदारजी ने धीरे से पूछा ''की हुआ वीरांवालिए लेटना है? '' सरदारनी को कुछ समझ नहीं पड़ा वो चुपचाप बैठी रही। सरदारजी सरदारनी की पीड़ा समझ कर भी चुप रहे। इसी बीच उसने देखा कि बैठी पत्नी और खड़े पति के बीच पुन: कुछ आंखो ही आंखो में इशारा टाइप की चीज़ हुई। जिसके होने के बाद बैठी पत्नी के मुख पर कुछ इंच लंबी मुस्कुराहट फैल गई।
बैठी पत्नी ने आवाज में विनम्रता घोलते हुए सरदारजी से पूछा ''क्या बात है भाई साहब भाभी जी से बैठते नहीं बन रहा है क्या?'' सरदारजी ने सोचा शायद ऐसा सीट खाली करने के उद्देश्य से पूछा जा रहा है, इसलिए तुरंत जवाब दिया ''हां भैणजी तबीयत खराब है, ज्यादा देर बैठ नहीं पाती।'' बैठी पत्नी ने कहा ''अब तो सब सो ही गए हैं मेरे पास एक मोटी दरी है, आप उसे दोनो सीटों के बीच बिछा कर इनको वहां लिटा दो, यहां इन्हें परेशानी हो रही है।'' इतना कहकर वो अपने खड़े पति की और मुख़ातिब होते हुए बोली ''सुनिये आप ही थोड़ी जगह बनाकर ये दरी बिछा दीजिये, भाईसाहब बिचारे अकेले हैं'' स्वयं ही सलाह देकर उसकी स्वीकृति भी स्वयं देकर उसने बेग से दरी निकालकर पति की और बढ़ा दी, पति ने आज्ञाकारी बच्चे की तरह दरी हाथ में ली और दोनों सीटों के बीच रखे सामान को सीटों के नीचे सरकाते हुए दरी को बिछा दिया।
दरी बिछते ही बैठी पत्नी ने तुरंत सरदारजी का बैग लेकर उसे दरी के एक सिरे पर तकिये की तरह रख दिया और सरदारजी से बोली ''लीजिए भाईसाहब भाभीजी को यहां लिटा दीजीए यहां उन्हें आराम मिल जाएगा'' सरदारजी ने उठ कर सरदारनी का हाथ पकड़ कर उठा लिया, और नीचे बिछी दरी पर लिटाने लगे, इन सब में खड़ा पति भी सहयोग प्रदान कर रहा था। सरदारनी के लेटते ही खड़ा पति भी तुरंत सरदारनी के उठने से रिक्त हुए रिक्त स्थान पर बैठकर बैठा पति हो गया, सरदारजी ने उसे बैठते हुए देखा लेकिन कुछ न बोले बोलते भी कैसे, उन लोगों की दरी पर ही तो सरदारनी को लिटाया है। सरदारजी ने सरदारनी के पैरों के पास थोड़ी जगह बनाई और वहीं नीचे बैठ गये,बैठी पत्नी ने सरदारजी से कहा ''यहां भाभीजी आराम से सुबह तक सो सकेंगी।'' उत्तर में सरदारजी ने विनम्रता से केवल सर हिला दिया।
रात काफी बीत चुकी थी ट्रेन पूरी रफ्तार से भाग रही थी ,उसे याद आया बचपन में इतिहास के शिक्षक बार बार उसे समझाते थे कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई, फिर धीरे धीरे भारत में फैली और अंतत: पूरे भारत पर कब्जा कर लिया, तब उसे समझ नहीं आता था कि ऐसा कैसे हो सकता है, इतिहास का वो सबक आज जाकर उसे समझ में आया कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने किस तरह भारत पर कब्जा किया होगा =। उसने बैठी पत्नी और ताजा ताजा बैठे पति की और देखा उसे लगा वे दोनो यूनियन जैक में बदल गए हैं वह धीरे से मुस्कुराया और आंखें बंद कर ऊँघने लगा। बाकी यात्रियों के साथ अब बैठा पति तथा बैठी पत्नी और सरदारजी एवं सरदारनी भी ऊँघने से निंद्रा की और बढ़ रहे थे क्योंकी अब सभी संतुष्ट हो गए थे। यूनियन जैक सीट पर लहरा रहा था, और भारत नीचे दरी पर सो रहा था वह भी धीरे धीरे सो गया।

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8 कहानीप्रेमियों का कहना है :

दर्पण साह का कहना है कि -

kuch hisse to adbhoot hain:

'गरीब लोगों के भारत से अवसर मिलते ही वे अपने वाले अमीर लोगों के भारत में चले गए.....'
;
'यात्रा की यायावरता अब पूरी पकृति के साथ जुड़कर गतिमान होगी।'
;
' ये बेटियां इस बात का प्रमाण थीं कि यह परिवार अधिक दिनों तक छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं रहेगा। ';
'लेकिन अपने पक्ष को देखने के लिए बाकायदा प्रयास करना पड़ता है,बात वही सप्रयास और अप्रयास वाली है।'
;
'पारंपरिक इसलिए क्योंकि उनकी बातचीत में पात्र भले ही रह रह कर बदल रहे थे लेकिन विषय एक ही था ''निंदा'', '
;''कनखियों से देखना'', ''दुपट्टा मुंह में दबाना'', ''पैर के अंगूठे से जमीन कुरेद कर लजाना''
;'अब यह छोटा परिवार यात्रा समाप्त होने के कुछ समय पश्चात ही छोटे परिवार का दायरा तोड़ देगा। ';

निंदा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि प्रेम गली अति सांकरी जामे तीन महिला न समाए (ise ninda gali bhi keh sakte hai...)

"यूनियन जैक सीट पर लहरा रहा था, और भारत नीचे दरी पर सो रहा था वह भी धीरे धीरे सो गया।"

...wah wah jaise jaise kahani apni pariniti ko pahuchti hai...
...sanketik chitran saaf ho jaate hain aur nepthya se ati aawaz bhi....

दिनेशराय द्विवेदी का कहना है कि -

बहुत सुंदर कथा है। आप ने उस प्रक्रिया को दोहरा दिया है जो पिछले दो दशकों से एक बार फिर भारत में दोहराई गई और अभी तक जारी है। अब मंदी में हम उस का कष्ट झेल रहे हैं। आजादी के बाद के सालों में अनेक मंदियाँ आई और चली गई। भारत पर पहले कभी उन का असर नहीं पड़ा। शायद यह कहानी लोगों को कुछ समझा सके।

गौतम राजऋषि का कहना है कि -

हिंदी-युग्म का शुक्रिया कि इतने बेहतरीन कहानी को पढ़ने का मौका दिया यहाँ अंतरजाल पर। यूं इस किताब की मेरी अपनी प्रति तो अभी आती ही होगी मेरे पास वाले दुकान में, किंतु अभी उत्सुकत वश श्रद्धेय सुबीर जी की इस कहानी को पढ़ने का लोभ रोक न पाया।
अद्‍भुत शिल्प में सजी ये कहानी। उत्सुकता को पंक्ति-दर पंक्ति बढ़ाते हुये....पाठक सोचता रहता है कि ये शिर्षक "इस्ट इंडिया कंपनी" क्यों है...और अंत का खुलासा कहानीकार के लिये स्वयमेव नत-मस्तक करवा देता है पाठकों को।
व्यंग्य-कटाक्ष हकीकत से सजे-संवरे तमाम उक्तियां....कि सुबीर जी की चुस्त कलम के तिलिस्म में पहले से जकड़ा हुआ ये मन और-और जकड़ता चला जाता है।
सोचता हूँ बस लिखता चला जाऊँ, कुछ यूं चढ़ा है जादू गुरू जी का...!!!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` का कहना है कि -

पँकज भाई को अनेकोँ शुभ कामनाएँ
मुझे शीर्ष कहानी
बहुत पसँद आई ..
चित्र खीँच दिया है जैसे -
हम भी डीब्बेबँद यात्रियोँ के साथ
बँधे हुए
भविष्य की ओर
अग्रसर हो रहे हैँ
काश भूतकाल के पाठ से सबक ले कर
वर्तमान को सफल बना पायेँ ..
कथा ने सचेत किया है ..
आगे प्रजातँत्र ज़िँदाबाद !!
तिरँगा लहराना भाई !!
युनियन जैक को,
उसीके टापु पर फहराने दीजियेगा ..

सरदार दम्पत्ति की विवशता और सज्जनता,
आम भारतीय का प्रतिबिम्ब है -
नमन उन्हेँ ...
- लावण्या

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

पंकज जी,

आपने बहुत ही मनोवैज्ञानिक कहानी लिखी है। हमारी मानसिकता, हमारी आदतें जो हमारी कमज़ोरी हैं पर चोट करती है आपकी कहानी।

अगली कहानी के इंतज़ार में।

addictionofcinema का कहना है कि -

Bahut achhi kahani k liye pankaj ji ko badhai, halanki pankaj ji ki kitab mere pas hai,kai kahaniyan padh li hain par shirshak kahani yugm pe padhne ko mili. Pankaj ki kahaniyo ka sukshma vyangya kahani ko aur marak bnata hai, badhai- vimal c. Pandey

Dr. Amar Jyoti का कहना है कि -

निम्नमध्यवर्गीय सोच और मानसिकता पर करारा व्यंग!बधाई

शोभना चौरे का कहना है कि -

is ak khani me pure bhart ko bdi kushlta se smet diya hai subeerji ne .
aur ant ,ant kyo ?ye to shuruat thi hmari .
man ko jhkjhor kar rkh diya .am bhartiy ke sath aam bhartiyo ki mansikta khti adbhut khani.
shubkamnaye

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