‘अवलोकितेश्वर’ नाम इन्हें इनके पिताजी ने दिया था। दो पुत्रियों के बाद इनका जन्म हुआ था। परिवार संयुक्त होने की वज़ह से तथा वंश में अट्ठारह वर्षों के बाद पुत्र की पैदाईश ने परिवार को उत्सव के लिए भले ही पुख़्ता वज़हें दे दी हों किन्तु, परिवार के पुरोहित ने इनके जन्म को इनके पिता के लिए अशुभ बताया तथा जन्म के तीसरे वर्ष को सर्वाधिक घातक। माताजी चिन्तित रहने लगी, चिन्ता जायज़ भी थी चूँकि पिताजी बचपन से ही शारीरिक रूप से कमजोर रहे व साथ ही दिल के मरीज थे।
डेढ़ वर्ष बाद ही घर में एक बार फिर पुत्र की किलकारियाँ गूँजी। इस बार पिताजी ने कुल-पुरोहित से कुण्डली वगैरह नहीं बनवाई पर जन्मोत्सव विधिवत् किया। सशंकित माताजी को कुल-पुरोहित की बातें हमेशा याद रही, यह बात संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों पर जाहिर हो चुकी थी, भले ही डेढ़ वर्ष का अबोध तब तक न समझ पाया था। जिस बच्चे के जन्म पर भव्य उत्सव हुआ था, वह उपेक्षित रहने लगा और शिशु ऱूप में दूसरे पुत्र को ज़्यादा तरज़ीह दी जाने लगी।
गुजरते समय के साथ शंका से जन्मी उपेक्षा ने, पिताजी को छोड़, पूरे परिवार की आदत का शक्ल अख़्तियार कर लिया था। घर में किसी को बीमारी होती, सारा दोष अबोध के सिर लगता – परिवार का पैतृक व्यवसाय बिखराव के कगार पर आया, दोषारोपण अबोध पर – सांझा चूल्हा टूट गया, दोष अबोध के माथे लगा। ख़ैर, पिताजी चौथे-पाँचवे-छठे क्या दसवें वर्ष तक सकुशल रहे। लेकिन, अवलोकितेश्वर शायद उतने अबोध नहीं। दुनिया भर की उपेक्षाओं ने (माँ अपने आप में एक दुनिया होती है) उसे समय से पहले बड़ा बना रहा था। सगी माता का व्यवहार सौतेलों को दहला देने जैसा होता। बड़ा बेटा सरकारी स्कूल जाता तो छोटा पब्लिक।
ग्यारहवें वर्ष पिताजी बीमार पडे़ और बीमार रहने लगे। फिर भी पैतृक व्यवसाय से नियमित आय आती रही। घर में अवलोकितेश्वर के अलावे दो बड़ी बहनें व एक छोटा भाई था पर, सबसे बड़ा पहाड़ टूटा था, उन्हीं के ऊपर। जो भी हो, समय उनके लिए तेजी से गुजर रहा था या इसे यूँ कहें कि वे तेजी से बडे हो रहे थे। पिताजी के मदद के बहाने वे प्रिंटिंग के पैतृक व्यवसाय से जुड़े रहते। घर पर अन्य सदस्यों के लिए ज़िन्दगी सामान्य थी।
अवलोकितेश्वर दसवीं बोर्ड की परीक्षा दे रहे थे उसी दौरान पिताजी चल बसे। बड़े लड़के होने के कारण परिवार के भरण-पोषण का गुरू दायित्व उन पर आना था, आया भी। वह पीछे नहीं हटे। पढ़ने की उत्कट इच्छा भी थी, सामाजिकता भी। पिताजी के जाने के साथ एक सच्चा दोस्त-हमदर्द सब चला गया था। प्रिंटिंग के जमे व्यवसाय को भी किशोर संरक्षक का साथ रास आने लगा, हालात सामान्य होते गए।
मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी उतीर्ण हुए अवलोकितेश्वर ने घर में बिना किसी को बताए पत्राचार माध्यम से इन्टरमीडिएट में दाखिला ले लिया। और, इच्छा के विरूद्ध कला विषयों में ही सही, पर आगे की पढ़ाई जारी रखी। इस बीच, छिटपुट रचनाएँ लिखकर छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में भेजने लगे। परिवार में माँ ने बड़ी बहन की शादी तय कर डाली। सारे दायित्व का सकुशल निर्वहन करते हुए उन्होंने इन्टरमीडिएट कला की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उतीर्ण कर ली। छोटा भाई चन्दन भी उसी वर्ष अंग्रेजी माध्यम से मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उतीर्ण किया, माँ ने मुहल्ले में मिठाइयाँ बँटवाया। शहर के नामी स्कूल में बारहवीं की पढ़ाई के लिए उनका दाखिला करवाया, विज्ञान शाखा में।
अवलोकितेश्वर ने पुनः बिना किसी को बताए पत्राचार से ही स्नातक के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। घर की स्थिति सामान्य करने की कोशिश करते हुए वे दुकान में ही खाली समय में पढ़ते-नोट्स बनाते। इधर, चन्दन ने इन्टरमीडिएट, विज्ञान से प्रथम श्रेणी
में उतीर्ण कर ली।
माँ के सामने दो बड़े कार्य थे, दूसरी बेटी का ब्याह और चन्दन को इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए भेजना। उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस बेचने का निर्णय लिया, चूँकि सारी जमा-पूँजी तो बड़ी बेटी के ब्याह में ही ख़र्च हो गया था। प्रेस बिक गया। दूसरी बेटी का विवाह हो गया और चन्दन चले गए इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। घर में बच गए अवलोकितेश्वर और माँ। स्नातक का आख़िरी साल था, मुश्किलें मानों हर रोज अपना क़द बढ़ाने पर तुली थीं। बहुत कठिनाई से परीक्षा दे पाए किन्तु, उतीर्ण हुए प्रथम श्रेणी में ही।
अब समस्या थी आमदनी के निश्चित स्रोत की क्योंकि विवाह में ख़र्चे के बाद इन्जीनियरिंग के पढ़ाई के ख़र्च के साथ दो आदमी का गुजारा मुश्किल था। उन्होंने दिल्ली जाने की इज़ाज़त ली और दिल्ली आकर एक समाचार-पत्र में अस्थाई नौकरी कर ली। साथ ही, एक बार फिर पत्राचार से पत्रकारिता की पढ़ाई करने लगे। हर महीने वे माँ को ख़र्च के लिए पैसे भेजने लगे। माँ ने इन्हें कभी न चिट्ठी लिखी, न कभी बुलाया। बहनों को भी ये ख़ुद फोन करके कुशल-क्षेम पूछा करते। बीच-बीच में छुट्टी लेकर कई बार घर भी गए।
संयोग से पत्रकारिता की पढ़ाई समाप्त होते ही एक प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में उप-सम्पादक की स्थाई नौकरी मिल गई। छोटे भाई चन्दन की इन्जीनियरिंग की पढ़ाई भी समाप्त होने को थी। जिस दिन इन्होंने अपनी नौकरी लगने की ख़बर देने को माँ को फोन किया पता चला कि चन्दन ने किसी सहपाठी से विवाह कर लिया और वे लोग स्थाई रूप से विदेश जा रहे थे। ख़बर के बदले ख़बर, दोनों तरफ़ ख़ुशी थी, अप्रत्याशा थी। कौन कितना ख़ुश था राम जाने पर, अवलोकितेश्वर ने सहजता बनाए रखी।
हर महीने वे नियम से माँ को ख़र्चे के लिए पैसे भेजते और उनकी कुशलता की जानकारी लेते।
मैं इनके घर के सामने वाले घर में रहती थी और एक अत्यन्त साधारण (निम्नमध्यमवर्गीय) घर की लड़की थी। अवलोकितेश्वर तरक्की करते हुए सम्मानजनक स्थिति में पहुँच चुके थे। एक दिन ख़ुद ही मेरे पिताजी से मिलने आए और मुझसे विवाह का प्रस्ताव रख डाला। मेरे पिताजी बिना मेहनत के एक उच्च-मध्यमवर्गीय दामाद पाकर निहाल थे, मैं ठगी-सी।
हमारा विवाह हुआ। इनके घर से शायद कोई नजदीकी नहीं आया था (माँ भी नहीं),कुछ दूर-दराज़ के रिश्तेदार ज़रूर आए थे। विवाह के बाद भी ये अपनी तरफ से सभी को फोन करते, मिलते रहते। मुझे अपने घर भी ले गए – माँ से मिलवाया – बहनों-जीजाओं से मिलवाया। हर जगह हमारा सामान्य-सा स्वागत हुआ पर, इनका उत्साह कम नहीं था भले ही व्यक्तित्व अत्यन्त गम्भीर था। उस वक़्त मुझे लगा था कि बड़े घरों में लोग भी बहुत गम्भीर क़िस्म के होते हैं।
समय गुजरा, हमारे भी दो बच्चे हुए – मैत्रेय और नेहल। इस दौरान चन्दन कभी भी भारत नहीं आए। हमारे बच्चे बड़े होने लगे। जितनी चाहते-इच्छाएँ अवलोकितेश्वर ने अधूरे रख छोड़े थे, सब इन दोनों के माध्यम से पूरे करने लगे। अपने कहानी-काव्य-निबंध संकलनों के प्रकाशन से मिलने वाले राशि को वे मेरे नाम जमा करवाते। हर महीने वे नियम से माँ को ख़र्चे के लिए पैसे भेजते और उनकी कुशलता की जानकारी लेते।
देखते-देखते हमारे बच्चे भी बारी-बारी बारहवीं की परीक्षा विज्ञान विषयों से उतीर्ण कर ली। दोनों को ही इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के लिए इन्होंने रीजनल कॉलेजों में डलवा दिया। इन्होंने शायद ही कभी अपने अतीत या अपने परिवार के विषय में कोई बात मुझसे की हो। किसी महीने कुछ आर्थिक तंगी के कारण मैंने इन्हें काफी हल्के ढ़ंग से माँ को कुछ कम पैसे भेजने को की बात कही इस तर्क के साथ कि उनके दूसरे बच्चे भी तो हैं। अपने आदत के मुताबिक़ ये न तो खीझे, न गुस्साए, बस उठे और जाकर सबसे पहले माँ को पैसे भेज आए। उस रात मुझे उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे उन्हें अच्छे-बुरे हर तरह के रचना व संग्रह के एवज में रॉयल्टी मिलती है, वैसे ही उनकी माँ भी उनके द्वारा रॉयल्टी की अधिकारिणी है। हमारे बच्चों ने भी शायद पिता की सीख ली हो ! ख़ैर, माताजी की ज़िन्दगी तक वे बिना कोताही बरते इस को जारी रखा।
इनके कविताओं-कहानियों में मुझे अर्द्धनग्न-रूँआसे-विखण्डित पात्रों की आत्माएँ जरूर झाँकती नज़र आती थी। किन्तु, इस लेखक की मानसिक युद्धों व अतीत के झंझावातों की कहानियों से मैं अब तक अपरिचित थी। अचानक एक दिन इनको दफ़्तर में ही दिल का दौरा पड़ा। इन्हें इनके सह-कर्मियों ने अस्पताल पहुँचाकर मुझे फोन किया। हमारे दोनों बच्चे बाहर थे, मैं बेतहाशा अस्पताल पहुँची। डॉक्टरों ने इन्हें ख़तरे से बाहर बताया तब मेरी जान में जान लौटी। चूँकि, पहला और हल्का दौरा था अतः डॉक्टरों ने एहतियात के साथ दूसरे दिन ही घर जाने की इज़ाज़त दे दी। अगले कुछ दिन पूरे आराम की सलाह दी गई थी।
उन्हीं दिनों मैंने पहली बार चट्टान को पिघलते देखा – आसमान से व्यक्तित्व की बिखराहट देखी और लगा कि इनके ही किसी कहानी या काव्य का कोई पात्र सजीव हो उठा हो। दोनों बच्चे घर आए हुए थे। कई दिनों तक स्याह की ओट से सूरज चिपका रहा। घर में ख़ामोशी पसरी रही। कई वर्षों-दशकों तक चुप रहता आया एक शख़्स शायद पहली बार कुछ बोला-बरसा और कई दिनों तक बिना रूके, फिर हम उन्हें सुनते रहे। छठे दिन रात में इन्हें दूसरा और अन्तिम दौरा पड़ा। पर, इन पाँच रातों में हम तीनों ने उनके साथ पाँच दशकों की बेतरतीब ज़िन्दगी जी ली थी। किसी की आँख में कुछ बचा ही नहीं था – न आँसू – न नींद – न ख़्वाब !
आज इनकी तेरहवीं थी। और, मैं इन्हें दिए वादे के कारण अपनी डायरी लेकर लिखने बैठ गई हूँ। वादा क्या कहूँ ? जीवन जीने के बिल्कुल नायाब तरीके इन्होंने मुझे सिखाए थे, बताए थे। कभी-कभी तो मैं हैरान रह जाती इनकी दार्शनिकता में पगी बातों से, किन्तु, वे अक्षरशः व्यवहारिक और ग्राह्य भी हुआ करती थी। ख़ैर, इन्होंने ही मुझे सिखाया था कि जब भी रोने का जी करे — कोई बेतहाशा याद आए – कोई चिन्ता तक़लीफ दे तो मन के समस्त भावों को लिखने लग जाओ। इससे न सिर्फ अन्दर की बेचैनी समाप्त होगी बल्कि नए रास्ते भी कदाचित् सूझ जाएंगें। बेवक़्त रोने को अनुचित भी मानते थे, वज़ह चाहे जितने भी गम्भीर हो। मुझसे तो इन्होंने जाते-जाते तक यही वादा करवाया कि न मैं उन्हें याद करके रोऊँ और न ही किसी की आश्रिता होऊँ। जब तक जीऊँ, स्व-निर्भर रहूँ और उनके लिखे क़िताबों से मिलने वाले रॉयल्टी से अपना व अपने सामाजिक दायित्व पूरी करती रहूँ।
कहानीकार- अभिषेक पाटनी
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15 कहानीप्रेमियों का कहना है :
अभिषेक जी ,
कहानी लेखन में अभी तक आपको बहुत मेहनत करने कि जरूरत है ,जिस व्यक्तित्व को आप इस कहानी के जरिये बहुत ऊँचा व्यक्तित्व दिखाना चाहते हैं वो वैसा नहीं बन पाया है , कहानी में कुछ जगहों पर व्याकरण दोष भी है , जैसे कि,- "दुनिया भर की उपेक्षाओं ने (माँ अपने आप में एक दुनिया होती है) उसे समय से पहले बड़ा बना रहा था।",जो कि, "उसे समय से पहले बड़ा बना दिया था" , ऐसा होना चाहिए था , अन्य कुछ जगहों पर भी छोटे छोटे दोष हैं, जिन्हें सुधारा जा सकता है. आप प्रतिभाशाली रचनाकार हैं , आपकी अन्य रचनाएं भी मैंने पढी हैं , थोड़ा सा ज्यादा ध्यान देकर लिखेंगे तो बहुत अच्छी कहानी लिख सकते हैं .
वैसे कहानी का भाव बहुत अच्छा है , पुरातन और अंधविश्वासी कुरीतियों को आपने बखूबी मुद्दा बनाया है और नायक का त्याग एवं सहनशीलता भी उल्लेखनीय है , लगे रहिये , बहुत सी शुभकामनाएँ
^^पूजा अनिल
अच्छी कोशिश है...लगे रहिए..
अच्छा है कहानी....और बेहतर हो सकती थी! मुद्दा बहुत सशक्त है इसमें!
अभिषेक जी इस से पहले मैंने आपकी एक कहानी पढी है " बाल ठीक है न " , उसके मुकाबले मी यह कहानी कमजोर लगी ,जैसा विषय वस्तु था और जैसी भूमिका बाँधी थी उससे लगा की आप सामाजिक कुरीति की तरफ़ इशारा कर रहे है लेकिन फ़िर अपने विषय से भटक गए ,यह कहानी बहुत अच्छी हो सकती थी ......सीमा सचदेव
कहानी भले ही कहानी के कारकों के दृष्टिकोण से कमजोर है परंतु बेहद सशक्त मुद्दा है और प्रेरणादायी भी..
लिखते रहें..
बहुत ही सशक्त विषयवस्तु को चित्रित किया है,
आलोक सिंह "साहिल"
अभिषेक जी
क्या कहूँ ? पूरी कहानी इक ही साँस में पढ़ गई। दिल में इक पीड़ा जग गईॉ कुछ लोग सारा जीवन कितना सार्थक और सुन्दर जीते है । एक सच्चे और परोपकारी व्यक्तित्व से परिचय कराने के लिए धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई।
अभिषेकपाटनी की कहानी royalti पढी .
मन द्रवित हो गया ,एक बच्चे की अनजानी पीड़ा को आत्मसात करते हुए कहानी को आख़िर तक पढने की उत्सुकता बनाये रखने मे ही लेखक का लिखना सिद्ध होता है. एक दिन अभिषेक जरूर सफल होंगे ,उनको बहुत बधाई. अंत मे सबसे अच्छा ये कहना कि मन कि पीड़ा को लिखकर व्यक्त करना सबसे sashakta maadhyam है. sabke लिए ये एक अच्छा संदेश hae ..
लेखिका+sahityakar
alka madhusoodan patel
अभिषेक जी की यह कहानी दरअसल ऐसे लगती है जैसे उन्होंने उपन्यास लिखना चाहा हो पर केवल उसका सारांश लिख कर उसे कहानी कह दिया हो. कहानी में एक अच्छा उपन्यास बनने की पूरी क्षमता है. एक निरंतर संघर्ष शील नायक की प्रेरणादायक संघर्षयात्रा है जिस में वे अंत तक टूटे नहीं. पर भाषा की अपरिपक्वता के होते उन्हें अभी उपन्यास के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए. इस कहानी में कहीं भी कोई dialogue नहीं है. केवल एक जगह dialogue जैसा कुछ लगता है. पर लेखक यह जानते होंगे की लेखन एक जीवन भर की तपस्या है तथा परिश्रम कर के वे एक मुकम्मल कहानी लिख सकते हैं. उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं है वरन कहानी विधा की पूरी समझ पैदा करने की ज़रूरत है. आशा है लेखक मेरी किसी बात का बुरा नहीं मानेंगे.
कहानी रायल्टी एक अच्छे आधार की कहानी है. उपन्यास का आधार बन सकती है. कहानीकार विचार कर ले. -सन्तोष गौड राष्ट्रप्रेमी
Ossam
namo guanshiyin pusa...Lima Perù
kahani ko bhawanatmak lahaje se aur adhik sunder banane ki kosis karani chahiye. lagata hai abhisek ji ne ek bar me hi likhkar fir dubara koi prayas nahi kiya. punah punah padhane se bahut kuch paya ja sakta hai. waise kahani ka plot sahi hai.
kishore kumar jain guwahati assam
I feel that the story is very nice. The way the emotions of a child who has not been given enough love and care, have been described.....leaves a long lasting impression on one's heart. Despite of the fact that there has been no fault of the prime character in this story, who is good at heart, has good values and principles for life, he was deprived of what he deserved. The person who best understood the child was his father. It is so difficult to cope up with the loss of someone who really cares for and understands a person. I felt very sad to read about how a small child was always deprived of the love of people he loved the most.
अवलोकितेश्वर jis tarah apni saari pareshaniyoon ke bavjood, apni padai nai chhodta hai aur kaam ke saath saath ache se padta bhi hai...........bahut acha laga pad kar. अवलोकितेश्वर ka व्यक्तित्व itna strong hai.....grt.
Last para was the best I believe. Crying is not the solution to any problem though sometimes we feel good after crying. Life has to go on....we have to find a way no matter what the situation be. One way of getting distracted from disturbing thoughts has been suggested as writing. One should always find a way to come out of depressing thoughts.....grt work.
Lovely lines....जब तक जीऊँ, स्व-निर्भर रहूँ
I feel the story has very sweet emotions.
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