"लघुकथा हमेशा कड़वी और तल्ख़ क्यों होती है?"
"क्यूं कोई स्नेहसिक्त, प्रणय में डूबी, हृदय के तारों को झंकृत करती, छोटी सी, मीठी सी लघुप्रेम कथा नहीं लिखता?"
"लघुकथा के पास इतना समय नहीं होता कि वह फालतू के तानेबाने में अपना समय जाया करें। जो कुछ कहना है सीधे स्पष्ट शब्दों में कहा, मर्म पर चोट की और नमस्ते।"
"मन की मिठास को सब सांद्र रुप में हृदय की गहराइयों में संजों कर रखना चाहते है। दूसरी तरफ कड़वाहट को शीघ्र और अधिकाधिक बांट कर विरल कर देना चाहते हैं। अपने अंदर की कटुता से त्वरित निवृत होने की कला ही लघुकथा है।"
"ना, लघुकथा तो गद्यशिशु होती है, कोई लाग लपेट नहीं सीधी सच्ची बात कही और चुप।"
लघुकथा विषय पर साहित्यिक गोष्ठी चरम पर थी। अण्डाकार बड़ी सी मेज के किनारों पर बैठे नगर के प्रबुद्ध साहित्यकारों के मुख से स्वर्णजड़ित उक्तियां झर रही थीं।
गोष्ठी समापन पर सभी अल्पाहार हेतु बगल के छोटे हॉल में चले गये ।
ओजपूर्ण स्वर भिनभिनाहट में बदल गये ।
सभी अब ख़ुद को कद्दावर और दूसरों को बौना करने के प्रयास में लग गये।
अभी भी अलंकृत भाषा का ही प्रयोग किया जा रहा था, बस अलंकार बदल गये थे ।
-विनय के जोशी
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8 कहानीप्रेमियों का कहना है :
आप की लघुकथा की लघुकथा ,वाकई बेहतरीन है , अद्भुत प्रयोग है
इस कथा में में कथा ही धुन्दती रह गई.
लेखन की आपकी शैली ने "परिंदे" पुस्तक की याद दिला दी..
बेहतरीन!
परदे के बाहर और परदे के अंदर की बातों में विरोधाभास को आपने बड़ी हीं खूबसूरती से दर्शाया है।
बधाई स्वीकारें।
अच्छी है...
वाह!क्या बात कही आपने!आपकी बात से मुझे बिहारी जी का एक दोहा याद आ गया-कहत नटत,रीझत,खिलत ,मिळत खिलत,लाजियत, भरे भौंन में करत नैनंन ही सो बात....जो गागर में सागर भर देते थे!
बेहतरीन......
नवीनता भरे इस प्रयोग को आगे भी पढ़ना चाहूंगी.
मुझे विकलांग- चेतना पर लघुकथा चाहिए क्योंकि मुझे एक शोध आलेख लिखना है । आप लोगों का प्रयास स्तुत्य है । मैं भी एक साहित्यकार हूँ । मेरी रुचि संस्कृत विषय में अधिक है ।
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