Monday, November 3, 2008

10 मार्च ,1998 : इतिश्री

आज से हम निखिल सचान की धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैंबंद' का प्रकाशन आरंभ कर रहे हैं। कथाकार के अनुसार यह कहानी नहीं अपितु आरव की डायरी के कुछ यहाँ-वहाँ के पन्ने हैं, जिसे लेखक ने फाड़ लिया है और हम तक पहुँचा रहा है, तारीख के साथ॰॰॰


नीली छतरी के अवतल सिरे के दूसरी ओर एक सनकी कहानीकार रहता है , हर इंसान के हिस्से एक कहानी और उसके जिम्मे एक कथावस्तु . जब वो कथावस्तु एक ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है कि आदि और अंत में मेल जोड़ पाना असंम्भव सा लगने लगे तो लिखने वाला उसकी इतिश्री कर देता है . कलम की नोक तोड़ दी जाती है और हर संभव आशा की इतिश्री को हम दुनिया वाले , अपनी सहूलियत के लिए मौत के नाम से संबोधित करने लग जाते हैं . इसे यम का मुष्टिनाद भी कह सकते हैं ,सब कुछ पा लेने की त्वरा का मध्यांतर भी कह सकते हैं और चाहें तो कुछ ना भी कहें , क्योंकि मौत को ग्लैमराइज़ करने के उपक्रम को ग़ालिबों के हिस्से छोड़ के छुट्टी पाई जाए तो बेहतर होता है .
आरव , चारू ,आई और बाबा के इस घर में उसी मौत को ग्लैमराइज़ करने का किस्सा जिया जा रहा था , कौन कौन जी रहा था ये तो पक्का नहीं हैं लेकिन कौन नहीं जी पाया था ये ज़रूर पक्का हो गया था . बाथरूम में आई की शरीर पड़ा था , अच्छे से जला हुआ , अच्छे से भुना हुआ ...हर तरफ़ से बखूबी- बराबर. आई काठ की मूरत बनी हुई गीले फ़र्श पर पड़ी हुई थी , काठ किसी पुराने नीम की , काले-कत्थई रंग की . बाथरूम की सफ़ेद दीवारों पर धुएं की कम पकी काली स्याही ऐसे लग रही थी जैसे किसी बिना धैर्य वाले अनाड़ी चित्रकार ने शौकिया ,कूची से काली रेखाएं किसी कल्पित प्रेमिका के बालों की झाईं की कल्पना में उकेर दी हों . आरव कौतूहल में उसके शरीर को खुरच कर पूरे घटनाक्रम की वास्तविकता को पक्का कर लेना चाहता था लेकिन आई के शरीर से इतनी बास आ रही थी कि उसके आस पास जा पाने का फ़ितूर भी किसी के दिमाग़ को छू नहीं पाया .
अब तक यही कोई सौ लोग आरव और चारू के छोटे से घर के और भी छोटे कमरे में इकट्ठा हो चुके थे , गोष्ठी जारी थी , वक्ता बदले जा रहे थे . एक मोहतर्मा का कहना था कि आई बेचारी बहुत हिम्मत वाली थी क्योंकि आग को बर्दाश्त कर पाने कि हिम्मत अच्छे अच्छों में नहीं होती , अगली ने प्रतिरोध किया कि पागल औरत को हिम्मत की क्या ज़रूरत , दिमाग का नशा है , जब चाहे चढ़ जाए , बता के थोड़ी चढ़ेगा .
'बेचारी ने बहुत झेला , चार साल बाद अस्पताल से छुट्टी पाकर बच्चों का मुह देखने आ पाईं और ये सब ...' वो आगे और बोलना चाहती थी लेकिन रोने और चिंघाढ़ने में ज़रा व्यस्त हो गई .
'आरव के बाबा को फ़कीर और झाड़-फ़ूंक में पड़ना ही नहीं चाहिए था , आज के पढे़ लिखे मनई की बुद्धि जब फ़िर जाए तो कोई का कर सकत है , पड़ी रहीं बेचारी राजस्थान में तिरुपति जी के दरबार में और कम्बखत टी.बी. ने पकड़ कर ली मजबूत , अब का बताया जाए ? 'वो भी आगे नहीं बोल सकी...शायद उसी समस्या से !
लेकिन उसकी बात के मंतव्य को आगे और मजबूत बनाती हुई एक चालीस साल की महिला छींक की तरह दाखिल हुई और आते ही उन्होंने अपना फ़ैसला सुनाना उचित समझा-
'अरे क्या होगा अब इन बच्चों का ..? बेचारों की ज़िंदगी में तो कुछ बचा ही नहीं ...अरे बर्बाद हो गए बेचारे , हाए रे! उमर ही क्या ठहरी दोनों की ..अरे वो तो चली गईं आग में खुद को स्वाहा कर के बिचारी और ये बच्चे बिचारे ...' और इतना कहते हुए उसने आरव को अपने पास खींचा और चारू को गोद में लिटा कर उसके ऊपर भयावह शकलों के अलग अलग एपिसोड नचाने शुरू कर दिए . उसके रोने का अलग अलग असर हुआ . महिलाओं की मंडली के विधवा विलाप को जैसे जीवनदान सा मिल गया हो ...रोने पीटने का शोर कम कम से तीन गुना तो हुआ होगा . नौ बरस की चारू को अब जा कर मालूम पड़ा की मौके की गंभीरता क्या है या शायद ना भी मालूम पड़ा हो पर वो डर कर इतना रोई जितना जान कर नहीं रो पाई थी .
लेकिन आरव अभी भी अपने पहले आंसू को देख पाने का इंतज़ार कर रहा था . सात बरस की उमर में वो क्या हो चुका था उसे भी नहीं पता था , बाबा को भी नहीं पता था पर वो ऐसे लोगों के सामने अपनी दरिद्रता और सारी दुनिया लुट जाने का प्रदर्शन नहीं होने देना चाहता था जिन्हें आई और उसके बच्चों की याद तब ही आई जब उसका शरीर पुराने नीम की काठ में तब्दील हो चुका था . आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि वो चारू और बाबा को ये समझा सकता कि अभी भी जीवन का अंत नहीं हुआ है और आई ने जिस उम्मीद में खुदक़ुशी की उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी वो बाकी तीन लोगों के कंधों पर बिना बताए टांग कर चली गई थी .आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि कहानीकार को ये पता चल सके कि उसकी कहानी के नए नए ट्विस्ट में गज़ब की संवेदनशीलता थी और आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि चार साल में उसने सीख लिआ था कि आंसू बहाना दुनिया का सबसे वाहियात काम है .
बाथरूम की खिड़की अभी भी धुआं उगल रही थी जैसे वो कोई निशान अपनें में रखना ही ना चाहती हो , बिजली के तार रह रह कर ऐसे जलने लगते थे जैसे तड़का मारा जा रहा हो या फ़िर तेल के छींटे दिए जा रहे हों . लेकिन आई सब बातों से अनभिग्य बेजान पड़ी थी . इस बात से अंजान कि वो पागल थी , इस बात से अंजान कि वो बेचारी थी , इस बात से अंजान कि कानूनन उससे एक ज़ुर्म हो चुका था और इस बात से भी अंजान कि उसके किए की आलोचनाएं और समीक्षाएं करने में बाहर खड़े क्रिटिक इतने ज्यादा बिजी थे कि वो ये देख पाते कि आरव और चारू जूतों के रैक के पास किसी खिलौने के तरह सजाकर रख दिए गए थे . घर में भीड़ बढ़ती जा रही थी और रैक के आसपास जूते भी .
आगन्तुकों में कुछ ऐसे चेहरे भी थे जो कहीं से भी आमन्त्रित तो नहीं लगते थे , उनका तिरस्कार ही हो सकता था और , स्वागत तो कतई नहीं . ये चेहरे खाकी वर्दी वालों के थे . उनमें से ओहदे में प्रथम और ऐसे मौके पर दुस्साहस कर सकने का साहस रखने वाली एक खाकी वर्दी आरव की ओर बढ़ी ,रुकी और फ़िर किसी कोने की फ़िराक में दिग्भ्रमित सी हुई , कोना ढूंढकर फ़िर वापस आई , आरव की ओर . दरसल वह कोने को लाल रंगने गया था क्योंकि पान चबाते हुए बात करना बद्तमीज़ी समझा जाता और पोलिस को इन सब चीज़ों का ख़याल रखना पड़ता है , वह हिन्दुस्तान का सबसे संवेदनशील महकमा जो है .
'क्या हुआ आज ? '
'जी? '
'मैंने पूछा क्या हुआ आज ? '
उसने सवाल में थोड़ा मोडिफ़िकेशन तो किया पर आरव ने जवाब में नहीं . पुन: वही-
'जी?'
'अरे जब तुम्हारी आई ने आग लगाई तब तुम्हारे बाबा कहां थे ? '
'वो आफ़िस गए थे .'
बगल में खड़ी खाकी वर्दी ने साफ़ साफ़ नोट किया ....' वो...आफ़िस...गए...थे...'
'बाबा और आई के बीच कोई लड़ाई ? '
'जी नहीं '
ये भी नोट किया गया ,साफ़ साफ़. 'कोई..लड़ाई..नहीं '
वही दोनों सवाल चारू से भी दोहराए गए और जवाब भी .
चार सवाल , चार जवाब और मामला ख़तम .
अगले दिन अख़बार में लिखा गया -
'जल निगम में काम करने वाले एक क्लर्क की अधेड़ उम्र की पत्नी ने बीमारी से तंग आकर , आग जलाकर आत्महत्या कर ली . पोलिस ने आपसी कलह से इंकार किया है और प्रथम मर्तबा यह दहेज हत्या का मामला भी नहीं नजर आता . '
-स्थानीय संवाददाता- जालौन
मामला सच में ख़तम , आरव और चारू को अगले ही दिन उनके गांव भेज दिया गया , उस सब से बहुत दूर... कम से कम भौगोलिक द्रष्टि से बहुत दूर .

क्रमशः....

लेखक- निखिल सचान

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4 कहानीप्रेमियों का कहना है :

दीपाली का कहना है कि -

बहुत ही भावनात्मक और सुंदर कहानी..पुरी कहानी आरम्भ से लेकर अंत तक अपने में बांधे रखती है.शुरुवात बहुत ही अच्छा लगा.

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अच्छी लगी कहानी।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

निखिल जी,

आपका अंदाज़ मुझे बेहद पसंद आया। यह शैली यदि आप आने वाली कड़ियों में बरकरार रखते हैं तो सच मानिए, लोग इसके दीवाने हो जायेंगे।

Anonymous का कहना है कि -

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