Thursday, November 6, 2008

14 जुलाई 1998 : मिट्टी के असबाब

इन दिनों आप पढ़ रहे हैं युवा कथाकार निखिल सचान द्वारा रचित धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैबंद'। इसे निखिल आरव की ज़िंदगी की डायरी से फ़ाड़े हुए कुछ पन्ने मानते है और कहते हैं कि उसे बिना बताए जितने पन्ने निकाल सका, आप तक पहुंचा रहा हूँ, तारीख के साथ॰॰॰॰

इस कथा का प्रथम भाग '10 मार्च ,1998 : इतिश्री' पढ़ चुके हैं। पढ़िए दूसरी कड़ी॰॰॰



१४ जुलाई १९९८ : मिट्टी के असबाब


कोरी स्लेटों पर नए अध्याय लिखे जा रहे थे , कहानियां नहीं . पुराने लिखे मिटाए जा चुके थे .सफ़ेद खड़िया का धुंधलका स्लेटों से पूरी तरह गया नहीं था लेकिन उस पर नई इबारत के नए हस्ताक्षर उभरने लगे थे . आरव की स्लेट पर कुछ कम और चारू की स्लेट पर थोड़े ज्यादा साफ़ , क्योंकि आरव की स्लेट की लकड़ी थोड़ी ज्यादा चीमड़ हो गई थी . सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .
नए दोस्त बनाए जा रहे थे...
नये बंधन कच्ची पुआलों से कसे जा रहे थे...
छाती भर के दम भर सांस लेना सीखा जा रहा था ...
इस प्रकरण में एक आध बार ही दम फ़ूला होगा लेकिन कुल मिलाकर ,ऊपर वाले की अदालत से मामला बाइज़्ज़त बरी हो चुका था.
चेतराम , भूरा, मेले, प्रिंसी और शीबू ने आरव और चारू के खोले स्कूल में दाखिला ले लिया था . गांव में वैसे तो एक प्राइमरी पाठशाला हुआ करती थी लेकिन गांव वालों की उस पर श्रद्धा बस इतने भर की थी ,कि उसमें गोबर के उपले ,धान की बोरियां और कर्बी के गट्ठर ही जमा किये जाते थे .सुबह १० बजते ही गिने गिनाए पांच विद्यार्थी या तो नहा धोकर स्कूल आ चुके होते थे या फ़िर नहाने का उपक्रम कर के . क्योंकि इंटरवल में बाजरे का रोटला तभी दिया जाता था जब चारू इस बात से संतुष्ट हो लेती थी कि स्कूल के छात्र सदाचार के बेसिक्स अपने दिमाग में बिठा चुके हैं या नहीं . खेल अजीब था लेकिन जैसा भी था ,अच्छा था .
चारू को उनके नामों से चिढ़ थी, चेतराम , भूरा..ये भी कोई नाम हैं ?
इसलिए उसने अपने बनाए रजिस्टर में उनके नए नाम ही लिखे हुए थे , बाकी सब तो ठीक था लेकिन प्रिंसी को इस बात से खास खीझ उठती थी कि चारू ने उसका नाम रजिस्टर में 'प्रिया' लिख रखा था . दरसल चारू जालौन के अपने स्कूल में अपना नाम प्रिया ही रखना चाहती थी क्योंकि उस समय हर फ़िल्म में हीरोइन का नाम यही हुआ करता था . आई ने उसे कभी भी अपना नाम बदलने की इज़ाज़त नहीं दी थी फ़िर भी अपनी सहूलियत और अपना मन रखने के लिए नए लोगों को वो अपना नाम प्रिया ही बताती थी .
अधिकतर क्लास लेने का जिम्मा चारू के हिस्से ही था . आरव भी कुछ कुछ बातें बताया करता था...मसलन बात करने का लहज़ा , चलने फ़िरने का और पहनने का . अब सभी लड़के अपना ऊनी स्वेटर अपनी पतलून में दबा कर पहनते थे और ऊपर से कपड़े की बेल्ट . क्योंकि आरव का कहना था कि ढीले ढाले कपड़े , ढीले ढाले इंसान ही पहनते हैं.
वैसे तो क्लास में पढ़ाने के लिए रोज रोज नया कुछ नहीं था इसलिए वही सारी बातें दोहराई जाती थीं ...जैसे नाक में उंगली करना एक बुरी आदत है और शौच जाने के बाद हांथ धुलना अनिवार्य होता है ,आंख में अंजन- दांत में मंजन ...वही सब बातें .चेतराम पिछली कक्षा की बातें दोहराते हुए , नाक में उंगली डाल कर बताता था कि नाक में उंगली डालना एक बुरी आदत होती है . दरसल ये उसकी घबराहट की वज़ह से होता था पर चारू को लगता था कि वो उसकी सिखाई हुई बातों का मज़ाक बना रहा है.आज फ़िर उसे बाजरे का रोटला नहीं दिया गया , फ़िर भी वो एक होनहार विद्यार्थी था , इसमें कोई संदेह नहीं था .
आरव ,चारू के माध्यम से अपने आप को यकीन दिला रहा था कि इस उलझे हुए लोगों की और भी उलझी हुई दुनियां में उसका भी एक सुलझा हुआ अस्तित्व है . उसने अपने दिमाग में पक्क्का कर लिया था कि बजाय उचित-अनुचित और सही-गलत के फ़ेर में पड़ने के , वह चारू की कल्पना की दुनिया के लिए नए वितान खींचेगा . आरव चारू से छोटा था लेकिन हर तरह से उसका बड़ा भाई बन बैठा था . चारू ईश्वर से बातें करती थी , आई के दुपट्टे से बातियाती थी और मिट्टी के खिलौनों से भी . आरव उसकी हर एक चीज़ से खुश था , सिवाय इसके कि उस ईश्वर में उसका विश्वास टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था जिसने उन दोनों की दुनिया को , एक बड़ी सी बाहरी दुनिया के मंच पर ,समय से पहले प्रदर्शन के लिए ला कर अनाथ रख छोड़ा . नन्हें कलाकार तमाशबीनों की भीड़ में बिना किसी स्क्रिप्ट के खड़े थे..
खैर ....ज़िन्दगी भी व्यस्त थी और उसे जीने वाले भी ...
मंतव्य अलग-अलग थे...
और गंतव्य भी .
आज चारू ने अपने स्कूल में छुट्टी की घोषणा कर रखी थी . छुट्टी की कोई ख़ास वजह नहीं थी पर ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया गया था कि वो स्कूल ही क्या जिसमें समय समय पर छुट्टियां ही ना होती हों, आखिर ओरिजनैलिटी नाम की भी तो कोई चीज़ होती है ना .
आज का खेल दूसरे दिनों के खेल से भिन्न था .आरव और चारू मिट्टी के बड़े ढ़ेले को लकड़ी की मूठ से कूटने में लगे थे . बीच बीच में उचित अनुपात में पानी डाला जाता था और फ़िर से कुटाई . कोशिश यह थी कि मिट्टी का एक घर बनाया जा सके और उसमें सारे खिलौने महफ़ूज़ रखे जा सकें . गारा बन चुका था और नन्हें मिस्त्री दोनों हंथेलियों से एक कल्पना को आकार दे रहे थे . गारे में लाल गेरू मिलाया गया था ताकि रंगों की गुंजाइश भी पूरी की जा सके .
चारू की मिट्टी की घुंघराली लट उसके माथे पर पेंडुलम की तरह नाच नाच कर सारे मामले पर गंभीरता से नज़र बनाए हुए थी .पेंडुलम ने देखा -एक बड़ा सा आंगन , आंगन से बड़े दो कमरे ,लकड़ी का ट्रैक्टर,खटिया और छोटा मोटा जरूरी असबाब ... चारू को घर में कुछ कमी नज़र आई , उसने पेंडुलम को कान के पीछे सहूलियत से लटकाकर कहा ,
'बाथरूम तो बनाना भूल ही गए '
आरव ने कातर निगाहों से उसकी ओर देखा ...
आई...बाथरूम..और नीम की काठ..
आरव से कुछ कहा नहीं गया , क्योंकि चारू से कुछ सुना नहीं जाता
लेकिन गुंजाइश को पूरी तरह दरकिनार भी नहीं किया जा सकता था इसलिए बिना कहा सुनी के दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि बाथरूम तो बनाया जाएगा पर उसमें दरवाज़े नहीं होंगे क्योंकि दरवाज़े तोड़ने में बहुत वक्त लगता है...
ख़ैर ..घर बनाया गया और उसमें खिलौने भी रखे गए .
सब मिट्टी के , पूरा घर भी मिट्टी का , और रहने वाले गुड्डे गुड़िया भी मिट्टी के क्योंकि मिट्टी आग नहीं पकड़ती .
अपना काम पूरा करके हेडमास्टर चारू को झपकी आ गई ..
और आरव को भी ....
उसने देखा कि..
वो मैदान में खेल रहा था , क्या ? ..कुछ ठीक से दिख नहीं रहा था पर किसी गेंद से . आई ने उसे आवाज़ दी ..
'आरव..'
'आरव..'
'हां मां ?'
'बेटा तुझसे कुछ बात करनी है , घर आ जा ..'
'आता हूं मां , बस ५ मिनट मां '
'आई ने ५ मिनट की गुंजाएश पर गौर किया , संभव नहीं था , क्योंकि ५ मिनट में उसकी हिम्मत टूट सकती थी . बहुत मुश्किल में उसने फ़ैसला किया था कि अब वो बाबा , चारू और आरव पर बोझ नहीं बन सकती है . घर का २-३ लाख रुपया , खुशी , सुकून और बाकी वैसा ही बहुत कुछ पिछले ५ वर्षों में उसकी बीमारी की भेंट चढ़ाया जा चुका था. वो तंग आ गई थी ऐसे शरीर से जिससे वो आरव और चारू को गले ना लगा सके , टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है' उसकी छाती दिन भर घुर घुर की आवाज़ करती रहती थी और नसों में सिवाय इंजेक्शन के लिक्विड के और कुछ भी नहीं दौड़ता था .टोटकों के नाम पर बाहों पर गरम चिमटे से बनाए हुए त्रिशूल के निशान थे.हर महीने वैसा ही नया त्रिशूल उसकी बांह पर दाग दिया जाता था.मान्यताएं अलग अलग थीं और भोले मानव मन को ठगने के तरीके अलग अलग,दवाएं अलग अलग,दुआएं अलग अलग ...पता नहीं कौन सी चीज़ काम कर जाती...कुल मिलाकर डाक्टरों से लेकर नीम-हकीमों तक सबने आई के शरीर और अस्तित्व का तमाशा बना दिया था .आई ने खुद से पूछा कि क्या वो इंतजार कर सकती है ?
आई ने खुद को कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि इंतजार करके वो करती भी क्या ?
आरव आ भी जाता तो उसको गले कैसे लगाती ..टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है....
बची खुची जो कुछ भी तथाकथित शक्ति थी,इकट्ठा की,स्टोर-रूम की ओर गई,थोड़ी सी खटर पटर के बाद एक पुराना कनस्तर उठाया और बाथरूम में गई ...
आई गीली फ़र्श और सूखी दीवार का सहारा लेकर बैठी थी .
एक-चौथाई , आधा, तीन-चौथाए और फ़िर पूरा ..किश्तों में उड़ेला गया .इस दौरान उसके हांथ एक बार भी नहीं कांपे , हां वो खांसी जरूर थी इसलिए तीली बार बार बुझ जाती थी .आखिरकार तीली जली और आई ने उसे अपनी साड़ी के पल्लू से मिलवा दिया .
आरव दौड़ते हुए घर में घुसा , पानी का गिलास खोजा ...
एक-चौथाई पिया...फ़िर आधा ...तीन चौथाई और फ़िर पूरा गिलास ..
आई का शरीर उसके साहस के तंदूर में भुनना शुरु हो गया था .बांह का त्रिशूल भी भुना , घुर-घुराने वाली छाती भी .साथ में आरव और चारू को अंतिम बार गले लगा लेने की लालसा भी कच्ची कच्ची ही जल उठी .
आरव गरम तवे पर पानी की छींटे मारने की छन छनाहट सुन सकता था . उसे लगा कि बिजली के तार ने आग पकड़ ली है और फ़िर सात बरस के बालक से जितनी कोशिश हो सकी उतनी ताकत लगा कर बाथरूम का दरवाज़ा तोड़ने लगा....
....
आरव की झपकी टूटी ...
सामने मिट्टी का बाथरूम था , आई नदारद थी , ना मिट्टी की और ना ही नीम की जली काठ की .आरव गठरी बना हांफ़ रहा था , पसीने से सीली गठरी .
...पुरानी याद ..पुराना भय और पुराना अपराध-बोध का पसीना ..
काश वह ५ मिनट पहले आई से मिलने आ गया होता ...
यह अपराध बोध आरव को सिर से पैर तक पिछले तीन महीने से खाए जा रहा था . वो अखिरी बार आई के पास क्यों नहीं था . आई क्या सोचती होगी उसके बारे में .कुछ सोचती भी होगी या नहीं भी ? आई का आरव कटघरें में अपनी ही खिलाफ़त और अपनी ही वक़ालत खुद ही कर रहा था , मुद्दई, वादी ,प्रतिवादी सब कुछ वही था .अपना गवाह भी वही , मुंसिफ़ भी वही...तमाशबीनों की भीड़ के बीचों-बीच अपराधी आरव हांफ़ता हुआ खड़ा था ,पसीने से तर-बतर .
तीन महीने से मामला मुल्तवी ही नहीं , कोई बाइज़्ज़त बरी भी नहीं हुआ
हर बार मुकदमा सुनने के लिए पिछली बार से ज्यादा तमाशबीन जुटे होते थे
आरव अपने कटघरे को लांघ कर बाहर आया ..
पानी की बाल्टी उठाई, दबे पांव , चारू को भनक होने दिए बिना मिट्टी के घर तक पहुंचा और पूरी बाल्टी अपने और चारू के घर पर उलट दी ..
बाथरूम बुरी तरह से रौंद दिया गया , कोई गुंजाइश नहीं रखनी थी ..
उसे अगले दिन चारू से झूठ बोलना पड़ा कि कल रात बहुत बारिश हुई है
हेडमास्टर चारू पर कोई असर नहीं हुआ . उसकी क्लास का वक्त हो चुका था , टीचर जैसी दिख सके इसलिए उसने आई का दुपट्टा दोनों कंधों पर वी के आकार में डाला और अपनी कल्पना की ऐनक नाक पर टिका कर स्कूल की ओर निकल गई .
आरव उसके विश्वास पर ठगा सा खड़ा था ....
एक और अपराध-बोध के साथ ..
सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .

क्रमशः......

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2 कहानीप्रेमियों का कहना है :

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

भाई, बहुत खूब, यह इंतज़ार बड़ा भारी पड़ेगा। इस कड़ी के कुछेक अंशों में पहली कड़ी वाली बात नहीं है, लेकिन कहानी/उपन्यास लेखन तो श्रमसाध्य है। बाद में दुबारा सम्पादन भी होगा। डायरी के फटे पन्नों में बहुत सी सच्चाइयों छुपाकर लाये हैं आप।

दीपाली का कहना है कि -

सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .

बहुत अच्छी कहानी....अपने पिछले अंक से जोड़े रखती है.......

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