किसी व्यक्ति का जो कुछ सबसे अपना होता है, वह है उसका अपना व्यक्तित्व। व्यक्तित्व ही मनुष्य में एक व्यक्ति होने का बोध जागृत करता है। सामान्यतया, व्यक्तित्व से आशय उस व्यक्ति-विशेष के भौतिक आकार-प्रकार, रहन-सहन, वेश-भूषा आदि से समझा जाता है, परन्तु दर्शनशास्त्र में इसकी परिभाषा वृहद् है। दर्शनशास्त्र के अनुसार :
Personality can be defined as a dynamic and organized set of characteristics possessed by a person that uniquely influences his or her cognitions, motivations, and behaviors in various situations.1
उपर्युक्त परिभाषा से यह स्वतः स्पष्ट है की व्यक्तित्व की परिधि में न मात्र व्यक्ति का बाह्य वरन् अंतर्मन भी आता है। व्यक्ति-मन तथा उससे निर्मित व्यक्तित्व के मूल में तीन महत्त्वपूर्ण उपादान होते हैं यथानाम- The id, The ego और The superego। यह id बाह्य परिवेश से अचेत अतृप्त कामनाओं की शीघ्रातिशीघ्र परितुष्टि चाहता है। ego id की उन इच्छाओं को पहले आवश्यकता के आलोक में तदुपरांत बाह्य जगत् के यथार्थ के प्रकाश में देखता है। अंततः superego ego पर नैतिकता तथा सामाजिक मर्यादाओं को अंतर्निविष्ट कर विवश करता है कि id की कामना न मात्र वास्तविक हो अपितु नैतिक भी हो। यह superego ही व्यक्तित्व के विकास एवं पोषण पर नियंत्रण रखता है। और इस तरह पैतृक संस्कार और सामजिक आदर्श की ही अभिव्यक्ति हमारे व्यक्तित्व के माध्यम से दृष्ट होता है।2
वस्तुतः मनोविश्लेषण के अंतर्गत मुख्यतया उपर्युक्त विवेचन ही होता है। मनोविश्लेषण का समास विग्रह है- मन का विश्लेषण। मनोविश्लेषण की परिभाषा देते हुए Sir Sigmund Freud लिखते हैं:
Psychoanalysis is the name
of a procedure for the investigation of mental processes, which are almost inaccessible in any way.
of a method (based upon that investigation) for the treatment of neurotic disorders and
of a collection of psychological information obtained along those lines, which is gradually being accumulated into a new scientific discipline.3
यह मनोविश्लेषण वस्तुतः मन के तीन अनुभागों, चेतन, अचेतन और अवचेतन, में से अवचेतन की व्याख्या है। वह सब कुछ, जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा अनुस्यूत होता है, छंटनी कर हमारी आवश्यकतानुसार इन तीन अनुभागों में पँहुचा दिया जाता है। चेतन मन दृश्य होता है हमारे क्रिया-व्यवहार से। परन्तु, अवचेतन मन, जिसके बारे में कहा जाता है कि मानव मन जल में अधडूबे पत्थर की तरह है, जिसका वह भाग जो सरलता से दृश्य होता है चेतन है और अदृश्य डूबा भाग अवचेतन मन है4, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे चेतन मन को और इस तरह हमारे क्रिया- व्यवहारों को प्रभावित करता है।
कहानियों में पात्रों के इन्हीं क्रिया- व्यवहारों के माध्यम से मनोविश्लेषण किया जाता है। कहानियों में मनोविश्लेषण तीन स्तरों पर होता है यथा- कहानी के पात्रों का मनोविश्लेषण तटस्थ होकर, कहानीकार के जीवन के विश्लेषण के द्वारा पात्रों के मन का विश्लेषण और पाठकों के अंतर्मन तथा मानसिकता के माध्यम से कथा सूत्रों का विवेचन तथा घटनाओं का विश्लेषण। एक सफल मनोविश्लेषणापेक्ष कहानी के कहानीकार की सफलता इसमें होती है कि वह पाठकों को शब्दों और घटनाओं के माध्यम से कहानी में अन्तर्निहित कर दे किंतु पाठक तथापि उन घटनाओं को तटस्थ होकर देख सके।
हिन्दी कहानी जब प्रसाद और प्रेमचंद रूपी दो ध्रुवों पर सिमट रही थी, ऐसे ही में उनके समानान्तर जैनेन्द्र कुमार ने एक अनूठी शैली को अपनी कहानियों में जगह दी। ऐसा नहीं है कि यह शैली और विषय-वस्तु सर्वथा नवीन था। कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने भी इसी ओर इशारा किया था –
"सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।"5
परन्तु जैनेन्द्र ने मानो हिन्दी-कहानी जगत् में क्रान्ति ही ला दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की –
"मैं किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता, जो मात्र लौकिक हो, जो सम्पूर्णता से शारीरिक धरातल पर ही रहता हो, सबके भीतर ह्रदय है, जो सपने देखता है। सबके भीतर आत्मा है, जो जगती रहती है, जिसे शास्त्र छोटा नहीं, आग जलाती नहीं। सबके भीतर वह है जो अलौकिक है। मैं वह स्थल नहीं जानता जहाँ 'अलौकिक' न हो। कहाँ वह कण है, जहाँ परमात्मा का निवास नहीं है? इसलिए आलोचक से मैं कहता हूँ कि जो अलौकिक है, वह भी कहानी तुम्हारी ही है, तुमसे अलग नहीं है। रोज के जीवन में काम आने वाली, तुम्हारे जाने पहचाने व्यक्तियों का हवाला नहीं तो क्या, उन कहानियों में तो वह 'अलौकिक' है, जो तुम्हारे भीतर अधिक तहों में बैठा हुआ है। जो और भी घनिष्ठ और नित्य रूप में तुम्हारा अपना है।"6
वस्तुतः जैनेन्द्र समाज की लघुतम इकाई व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व को ही चित्रित करते हैं। उनका व्यक्ति 'जयराज न होकर प्रियराज अथवा बलराज हो सकता है' या फ़िर 'वह सुनयना भी हो सकती है, सुलोचना भी हो सकती है'। उस व्यक्ति के मन में कई इच्छाएं होती हैं, जिन्हें नैतिकता और पैतृक संस्कारों के कारण दबा दबा पड़ता है। परन्तु वह उन कामनाओं को मिथकीय भगवान शंकर की तरह पूरी तरह नहीं दबा पाता। जैनेन्द्र के यहाँ सभी मूल्य और नियम उस व्यक्ति विशेष का नितांत वैयक्तिक हो जाता है। उनके पात्रों में ऐसे ही विचार दृष्टिगोचर होता है।
'खेल' के मनोहर और सुरी के क्रिया-व्यापार बालकोचित होते हुए भी प्रौढ़ लगते हैं। 'खेल' में मनोहर और सुरी दो ही पात्र हैं। जो घटना है, वह इन्हीं दो बच्चों के आपसी नोक-झोंक, कलह, मान-मनौवल तक सीमित है। मनोहर द्वारा जान-बूझकर किसी के भाड़ को तोड़ देना किसी भी नटखट बालक की सहज वृत्ति हो सकती है, पर वह भाड़ था सुरी का। उसने जान-बूझकर भाड़ तोड़ा तो अवश्य, परन्तु उसके मन में सुरी के हृदय को कष्ट पहुँचाने की कतई इच्छा न थी। वह तो मात्र चाहता था कि वह उसके प्रति उदासीन न रहे। सुरी तो आरम्भ से ही उससे उदासीन अपना भाड़ बनाने में मग्न थी। सुरी के नाराज़ होने पर मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति द्रष्टव्य है -
"सुरी, मनोहर तेरे पीछे खडा है। वह बड़ा दुष्ट है। बोल मत, पर उसपर रेत क्यों नहीं फेंक देती! उसे एक थप्पड़ लगा - वह अब कभी कसूर नहीं करेगा। "7
'व्याज कोप का रूप' दिखाती सुरी उसके कसूर की सज़ा मुक़र्रर करती है कि उसे वैसा ही भाड़ बना कर दिया जाए, जैसा कि उसने बनाया था। भाड़ बना और सुरी का 'स्त्रीत्व', जिसे पुरूष मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति ने व्यथित किया था, उसे पुनर्निर्मित भाड़ पर लात जमाकर अक्षुण्ण रखा और मनोहर द्वारा क्षमा-याचना करने से लज्जित सुरी ने उस लजा के बंधन को काट दिया।सुरी का उपर्युक्त क्रिया-व्यवहार उसके संस्कारों में पितृसत्तात्मकता का प्रभाव मात्र था। वह पितृसत्ता जो नारियों में हीनताबोध जगाता है। 'पत्नी' की सुनंदा और 'रुकिया बुढ़िया' की रुक्मनी इसी पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ही परिणाम हैं। यद्यपि जैनेन्द्र का मानना है –
विवाह से व्यक्ति रुकता है। ... विवाह का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्रेम के निमित्त से उसकी सृष्टि है। 8
तथापि उनके पात्रों में प्रायः वैवाहिक संबंधों का खुलकर और भरपूर प्रयोग मिलता है। रुक्मनी, सुनंदा, सुदर्शना या फ़िर त्रिवेणी सभी वैवाहिक सम्बन्धों में आबद्ध है परन्तु सतीत्व की मर्यादा का वहाँ वे नहीं करतीं वरन सतीत्व को अपने अनुसार ढाल लेती हैं। वे भी सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त की 'उत्तरा' की भाँति इसी निम्नलिखित तथाकथित संस्कारों को ढोती है –
“जो सहचरी का पद मुझे तुमने दया कर था दिया
वह था तुम्हारा इसलिए प्राणेश तुमने ले लिया
लेकिन तुम्हारी अनुचरी का जो पुण्यपद मुझको मिला
है छीन सकना तो कठिन, सकता नहीं कोई हिला॥”
भले इन प्रानेशों में लाखों ऐब थे, पर वे इनके पूज्य थे। अपने स्थायी स्वार्थ की कुर्बानी देकर अपने दक्षिणांगों को तुष्ट करती थीं। उनका मानना था कि "उनका काम तो सेवा है"9। सुनंदा के साथ कालिंदीचरण जब कभी करूँ दशा में प्रार्थना करता था, 'स्त्रीत्व' को ठेस पंहुचती थी। उसके प्रति जब भी दींन-हीन सा कुछ चाहता था तो उसे लगता था कि वह 'गैर' है। ऐसा नहीं है कि सुनंदा में यशपाल के 'करवा का व्रत' की नायिका की भाँति विद्रोह के भाव नहीं आते, पर उन भावों का प्रकाशन मुखर न होकर मूक है। जैनेन्द्र की पत्नी में भारतीय परम्परा की वही स्वाभाविकता है जो कभी द्विवेदी युगीन साहित्य में था। सुनंदा ऐसी भारतीय नारी है, जो सामाजिक विषमताओं के तहत सांस्कारिकता, नैतिकता और मर्यादा का बोझ ढोती चलती है। यही कारण है कि 'रुकिया बुढ़िया' में दीना या 'पत्नी' में कलिन्दीचरण जब भी कभी कटु व्यवहार करता तो क्रमशः रुक्मनी और सुनंदा में आक्रोश की एक चिंगारी भड़क उठती, परन्तु उस चिंगारी के भयंकर ज्वाला में तब्दील होने से पहले ही भारतीयता रूपी ढेर सारा पानी डालकर सदा के लिए सुला देती थीं।
जैनेन्द्र की कहानियों में अभावग्रस्तता एक बहुत बड़ा मसला बनकर पाठकों के सामने उपस्थित होता है। यह अभाव उनके पात्रों में एक मानसिक ग्रंथि का निर्माण करता है। द्रष्टव्य है कि स्वयं जैनेन्द्र का जीवन बड़े अभावों में रहा। इनकी कहानियों के पात्रों का अभाव न मात्र आर्थिक वरन मानसिक और जैविक भी है। सुनंदा जैसे पात्रों में जहाँ मातृत्व का अभाव है तो 'मास्टरजी' की नायिका जैसों में जैविक। उनकी कई कहानियों में पात्र-पात्रा अपने जैविक, मानसिक अथवा दोनों अभावों को मिटाने के निमित्त विवाहेतर सम्बन्ध बनाते हैं। 'एक रात' की शादी-शुदा सुदर्शना अपने पति को छोड़कर चल देती है जयराज से मिलने। स्टेशन पर वे एक-दूसरे के काफ़ी क़रीब होते हैं। जयराज के जीवन का अभाव भी उसके सान्निध्य में मानों पट सा जाता है। एक-दूसरे के स्पर्श से मानों दोनों को आनंद की प्राप्ति हो जाती है। 'त्रिवेनी' के घर में आया अतिथि, जो उसका विवाह-पूर्व का प्रेमी था, से बात कर संवेदना के धरातल पर एकदम तरो-ताज़ा हो जाती है। परन्तु उस भारतीय नारी को उसकी तथाकथित दायरों का एहसास होता है और वह निश्चय करती है –
"रात को जब पति आएँगे, मैं उनसे क्षमा माँगकर अपने आँसुओं से उनका सब क्रोध बहा दूँगी।"10
यही नहीं 'मास्टर जी' की नायिका तो अपने प्रौढ़ पति को छोड़कर अपने ही घरेलू युवा नौकर के साथ भाग जाती है। सामाजिक सन्दर्भों में इन पात्रों के क्रिया-व्यापार भले ही अनैतिक एवं अमर्यादित लगें, जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में सहज ही सुलभ हैं। इन पात्रों की मानसिकता के मूल में जैनेन्द्र का निम्नलिखित दर्शन दृष्टिगोचर होता है –
“बहुत पहले की बात है। ... पाप-पुण्य की रेखा का उदय न हुआ था। कुछ निषिद्ध न था, न विधेय। ... विवाह न था और परस्पर सम्बन्धों में नातों का आरोप न था। स्त्री माता, बहन, पुत्री, पत्नी न थी; वह मात्र मादा थी और पुरूष नर।”11
‘पाजेब’ कहानी का आशुतोष उस भूल को स्वीकार करता है, या यूँ कहें करवाया जाता है, जो उसने किया ही नहीं था। उसकी इस मानसिकता के पीछे भी उसका अवचेतन काम कर रहा है। उसने अनुभवों से इतना तो अवश्य जान लिया होगा की झूठ कह लेने से संकट टल जाती है, या चापलूसी करने से मनचाही वास्तु मिल जाती है। कोई भी जन्मजात अपराधी नहीं होता। अपने परिवेश अनुभवों से उसका व्यक्तित्व गठित होता है। बालक के क्षेत्र में नकारात्मकता उसके भीतर अपराध को पनपने का मौका देता है। कहानीकार आशु के बहाने मध्यवर्गीय मानसिकता की बनावट और बुनावट से पाठकों का परिचय करा देते हैं।
'मास्टर जी' का प्रौढ़ मास्टर अपनी पत्नी से पुत्रीवत स्नेह रखता है। मास्टर का ऐसा व्यवहार भले ही असामान्य प्रतीत हो, असहज नहीं है। जैसा की कहानी कहती है, उनका विवाह तब हुआ था जब वह बाला थी और मास्टर युवा। उस समय उसके मन में भी जैविक इच्छा अवश्य रही होगी, परन्तु उम्र और उम्रानुरूप परिपक्वता में वह कम ही थी। अतः यह सम्भव है की मास्टर का व्यवहार उसके प्रति पुत्रीवत हो गया हो। यही उसकी प्रौढावस्था तक उसके साथ रही हो । परंतु उस लडकी की जैविक इच्छा का क्या? अतः वह अपने ही समवयस्क युवा नौकर के साथ भाग गयी। मास्टर इससे दुखी तो हुआ, परंतु उसके लौट आने पर दुगुना खुश। उसके आने पर मिठाईयाँ बाँटना उसके इसी मनोभाव का परिचायक है।
“बहुतेरा पढने-लिखने के बाद और माँ के बहुत कहने-सुनने पर भी रामेश्वर को कमाने की चिंता न हुई, तो माँ हार मानकर रह गयी। रामेश्वर की बाल-सुलभ प्रकृति चाहती थी की रुपये का अभाव तो न रहे; पर कमाना भी न पड़े।”12
उपर्युक्त समस्या न मात्र रामेश्वर की वरन वर्तमान युग के प्रायः सभी सद्यः-शिक्षितों की। ऐसे में उनपर दवाब बढ़ता है और रामेश्वर तो फोटोग्राफर बन गया, पर आज एक ग्रंथि के रूप में मस्तिष्क में घर कर जाती है। आज होने वाले अधिकाँश आत्महत्याओं के पीछे यही वज़ह है।
'जाह्नवी' कहानी में प्रेम में टूटी हुई अक स्त्री की मानसिक दशा की अभिव्यक्ति है। किंतु यह अभिव्यक्ति एक अनुकूल परिवेश बिम्ब के माध्यम से है। कथावाचक पात्र का छत पर उड़ते हुए कौओं के बीच घिरे जाह्नवी रोटियों के टुकड़े का फेंकते हुए गाना, प्रेम में पगी भावनाओं की करुण काव्यात्मक अभिवक्ति है।13 तो वहीँ 'बाहुबली' में अजेय होने का गर्व दर्प में बदलकर एक ग्रंथि के रूप में अपना बसेरा कर लेता हैऔर तपश्चार्योपरांत भी उसे शान्ति तथा ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।
मनोविश्लेषणसिद्ध इस कथाकार ने Freud प्रदत्त मनोविश्लेषण को सिद्धांत रूप में ग्रहण तो किया, पर पूर्णतया नहीं। वरन् इन्होंने इसमें भारतीय मीशा और दर्शन का समाहार कर लिया। इनके पात्रों में एक भारतीय आत्मा बस्ती है। परवर्ती काल में इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय ने जैनेन्द्र की परम्परा को ही आगे बढाया और जैनेन्द्र के रंग में रंगकर मनोविश्लेषण की कहानियाँ जैनेंद्रमय हो गयीं।
संदर्भः
1. http://en.wikipedia.org/wiki/Personality_psychology
2. Carver, C., & Scheier, M. (2004). "Perspectives on Personality" (5th ed.). Boston: Pearson
3. पृष्ठ सं॰- 131, "15, Historical and expository works on Psychoanalysis"- Sir Sigmund Freud
4. पृष्ठ सं॰- 95, "समकालीन विचारधाराएँ और साहित्य"- डॉ॰ राजेन्द्र मिश्र
5. पृष्ठ सं॰- 36, "कुछ विचार"- प्रेमचन्द
6. "एक रात' की भूमिका- जैनेन्द्र
7. पृष्ठ सं॰- 45, कहानी 'खेल', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
8. पृष्ठ सं॰- 147, कहानी 'ध्रुवयात्रा', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
9. कहानी 'पत्नी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
10. पृष्ठ सं॰- 141, कहानी 'त्रिवेनी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
11. पृष्ठ सं॰- 124, कहानी 'बाहुबली', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
12. पृष्ठ सं॰- 29, कहानी 'फोटोग्राफी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
13. 'हिन्दी कहानी- अन्तरंग पहचान' - रामदरश मिश्र
चतुरानन झा,
शिक्षार्थी,
उत्तर बंग विश्वविद्यालय,
राजा राममोहनपुर,
पिन-734430
जिला-दार्जिलिंग
(पश्चिम बंगाल)
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6 कहानीप्रेमियों का कहना है :
जैनेन्द्र की केवल पाजेब ही पढ़ी है वो भी बहुत बचपन में...लेखक की जो पंक्तियाँ यहाँ दी गयीं हैं उन्हें पढ़कर जरूर इच्छा हो रही है पढने की..बहरहाल विस्तार से समझाने के लिए धन्यवाद...!
जैनेन्द्र पर यह आलेख देखकर आश्चर्य हुआ. जयवर्धन का रचनाकार अब हिन्दी जगत के नयी पीढी के लिए प्रायः अपरिचित है. आलेख के साथ जैनेन्द्र जी का चित्र तथा संक्षिप्त परिचय सोने में सुहागा होता. आपने कहानियो का विश्लेष्ण अच्छा किया है उपन्यासों पर भी लिखिए. अंगरेजी उद्धरण पाद टिप्पणी में तथा उनका हिन्दी अर्थ मूल लेख में हो तो बेहतर होता. अच्छ्स प्रयास हेतु साधुवाद.
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