Wednesday, December 24, 2008

मटमैले लबादे वाला सान्ताक्लोज़

आज ऑफिस से ही उमा को फोन कर दिया है हमेशा की तरह| पुरानी हिदायतें जो बरसों से दोहराता आ रहा हूँ, फिर समझा दी हैं के बच्चों की जुराबें खूब अच्छे से धोकर जैसे भी हो रात तक सुखा ले| टॉफी-चाकलेट वगैरह मैं ख़ुद ही लेता आऊंगा| आज क्रिसमस है ना? उनके बहुत छुटपन से ही सांताक्लोज़ के नाम से और बहुत से पिताओं की तरह मैं भी उनकी मासूम कल्पना को उड़ान देता रहा हूँ| सुबह दोनों पूछते है आपस में एक दूसरे से कि क्या रात को उसने किसी सान्ताक्लोज जैसी चीज का घर में आना महसूस किया था या नहीं| पर हमेशा की तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते और अपनी अपनी चाकलेट और टॉफी खाने जुट जाते हैं बगैर पेस्ट किए| कभी भी तो ये सोचना नहीं चाहते के रात को थका-हारा इनका बाप ही ये सब अपने मटमैले से लबादे में से निकाल कर ठूंसता होगा उस दिन की स्पेशल से धुली जुराबों में| इनकी कल्पना में तो आज भी वो ही सुर्ख लाल लबादे वाला सांता क्लॉज बसा है| पहले तो हम भी इस बैठक में शामिल होते थे, इनकी कल्पनाओं में अपने भी रंग भरने के लिए ....हाँ रात को कुछ आवाज सी सुनी तो थी पर दिखा कुछ नहीं था, सांता क्लोज ही रहा होगा और भला इत्ती रात में कौन आएगा तुम लोगों के लिए ये गिफ्ट लेकर| पर अब भीतर उदासीनता सी हो गयी है इस ड्रामे के प्रति| अब ये बचपना ही चिंता का कारण हो गया है| आख़िर आठवीं-दसवीं क्लास के बच्चों का सान्ताक्लोज से क्या काम| क्या अब इन्हें थोड़ा समझदार नहीं हो जाना चाहिए? टॉफी-चाकलेट तो यूँ भी खाते रहते हैं पर क्या आज के दिन ये उतावलापन शोभा देता है इतने बड़े बच्चों को? जीवन की बाकी सच्चाइयों को किस उमर में जानना शुरू करेंगे फिर| अब तो ध्यान जब तब इनके साथ के और बच्चों पर जाने लगा है| अकल भी अब मसरूफ रहती है जिस्मानी उठान और समझ के बीच ताल मेल बैठाने में| कभी इनके स्कूल का कोई और बच्चा घर आ जाता है तो आँखें ख्यालों के साथ मिलकर उसकी समझदानी का साइज़ समझने बैठ जाती है| पता नहीं स्कूल में ये लोग सांताक्लाज के बारे कोई बात करते हैं या नहीं? हो सकता है के इन दिनों पड़ रही छुट्टियों के कारण इस विषय पर चर्चा न हो पाती हो ...वरना इतने बड़े बच्चे और ऐसी बचकानी..| कई बार चाहा है के ख़ुद ही इन्हें रूबरू करा दूँ सच्चाई से पर जाने क्यूं ये भरम इस तरह नहीं तोड़ना चाहता| इनके विकास को लेकर मन का ज्वार-भाटा बढ़ता ही जाता है| अखबारों में निगाहें अब बाल-मनोचिकित्सकों के लेख ही तलाशती रहती हैं| आई क्यू., ई क्यू. ऐसे 'क्यूं' वैसे 'क्यूँ' कुछ समझ नहीं पाता| कद के साथ बढ़ता बचपना दो तीन साल से हताशा को और बढ़ा ही रहा है| कई बार ख़ुद को दोषी पाता हूँ कि शायद मैं ही स्वार्थवश बाल्यावस्था को समुचित रूप से....| हमेशा जुराबों से चाकलेट निकालते समय मेरी आँखें इनके चेहरे पर गड़ी होती हैं, बस एक नज़र इनकी बेएतबारी की दिख जाए तो कुछ सुकून मिले, कभी तो एहसास कराएँ मुझे बड़े होने का| कैसे जानें के मटमैले लबादे वाला इनका सांताक्लाज अब कैसा बेसब्र है इनकी उम्र का भेद जानने को|

आज तो आफिस में ही काफ़ी देर हो गयी है| बाहर आया तो देखा के बाज़ार भी बंद हो चला है| इलाके की बत्ती भी जाने कब से गुल है| चाल काफ़ी तेज हो चली है, निगाहें तेजी से दायें-बाएँ किसी खुली दूकान को तलाश रही हैं....दिल बैठ रहा है ..अब कि शायद आँगन में टंगी चक-दक धुली सफ़ेद जुराबें बस टंगी ही रह जायेंगी...क्या ऐसे टूटेगा मासूमों का भरम ...क्या गुजरेगी बेचारों पर...? बेबस सा आख़िर में आफिस के उस अर्जेंट काम को ही कोसने लगा हूँ| इसके अलावा और कर भी क्या सकता है एक मटमैले लबादे वाला| सुबह उसे एक अलग ही रूप लिए जगना होगा अब की बार| मन के भीतर किसी छोटे से कोने मैं इसकी भी रिहर्सल चल रही है| इन सब के बीच नज़र में किसी थकी हुई सी लालटेन की धुंधलाती रौशनी आ गयी है| मुझ से भी ज्यादा थका सा लग रहा कोई दूकानदार अपनी दूकान बढ़ाने को तैयार है शायद "ज़रा एक मिनट ठहरो......!!" कहता हुआ थका हारा सान्ताक्लोज दौड़ पडा है इस आखिरी उम्मीद की तरफ़| इसी उम्मीद से तो बच्चों का वो भरम बरकरार रह सकता है जिसे वो कब से तोड़ना चाहता है| जल्दी से जेब से पैसे निकाले और उखड़ी साँसों पे लगाम लगाते हुए दोनों बच्चों के फेवरिट ब्रांड याद करके बता दिए हैं| दूकानदार किलसने के बजाय खुश है| और एक वो है के आफिस से निकलते-निकलते एक अर्जेंट काम के आने पे कितना खीझ रहा था| बमुश्किल दस-पन्द्रह कदम दौड़ने पर ही साँसें कैसी उखड़ चली हैं| दुकानदार ने सामान निकाल कर काउंटर पर सजा दिया है| चॉकलेट के गोल्डन कलर के रैपर कुछ ज़्यादा ही पीलापन लिए चमक रहे हैं| शायद लालटेन की रौशनी की इन्हें भी मेरी तरह आदत नहीं है| मैंने सामान उठा कर लबादे में छुपाया और घर की तरफ़ बढ़ गया| तेज़ रफ़्तार चाल अब बेफिक्र सी चहल कदमी में तब्दील हो गई है| अब कोई ज़ल्दी नहीं है बल्कि अच्छा है कि बच्चे सोये हुए ही मिलें|
मेरा अंदाज़ा सही निकला | दोनों बच्चे नींद की गहरी आगोश में सोये हैं.....एकदम निश्छल, शांत....दीन-दुनिया से बेफिक्र| मैं और उमा खुले आँगन में आ गए हैं, बाहर से कमरे की चिटकनी लगा दी है ताकि किसी बच्चे की आँख खुल भी जाए तो हमारी इस चोरी का पता न चल सके| मोमबत्ती जला कर हमने धुली जुराबों में बच्चों की पसंद के अनुसार सौगातें जचा-जचा कर रखना शुरू किया| जुराबों में हल्का सीलापन अब भी है जो की रात भर आँगन में टंगे-टंगे और बढ़ जाएगा मगर रैपर बंद चीज़ों का क्या बिगड़ता है|
सुबह आँखें लगभग पूरे परिवार की एक साथ ही खुली| दोनों बच्चों ने भरपूर उतावलेपन से अपनी-अपनी रजाइयां फेंक दी और कुण्डी खोल के खुले आँगन में लपक लिए बगैर जाड़े की परवाह किए| दोनों जोशीले तार में लटकी-उलझी अपनी-अपनी जुराबें खींच रहे हैं भले ही उधडती-फटती रहें, उनकी बला से| उन्हें क्या फर्क पड़ता है| उन्हें तो बस सांताक्लोज के तोहफों से मतलब है हमेशा की तरह| बेकरारी पूरे शबाब पर है .....चक-दक जुराबों में तले तक पैबस्त उपहारों को उंगलिया सरका सरका के पट्टीदार दहानों से उगलवाया जा रहा है| सान्ताक्लोज की नेमतें सोफे पर टपक रही हैं मगर आज बच्चे इन्हें अजीब सी नज़रों से देख रहे हैं| जाने उपहारों में आज ऐसा क्या खुल गया है कि इनके चेहरे पर उत्साह के रंग मायूसी में बदल गए| सबसे पहले तो ज़रूरत से ज्यादा पीलापन लिए गोल्डन कलर की जांच हुई और फिर पारखी नजरें प्रोडक्ट की स्पेलिंग चेक करती हुई नीचे लिखा अस्पष्ट मैनुफक्चारिंग एड्रेस समझने लगीं| मेरे कुछ समझ पाने से पहले ही दोनों अपनी अजीब सी शक्लें बनाते हुए और भी ज्यादा बचपने में भर गए ........

"पापू....!! ये क्या ले आए......?...डुप्लीकेट है सारा कुछ..!! ये टॉफी भी ...."
"हाँ .. पापू..! मेरे वाला भी बेकार है एकदम से ...!!"
"आप भी ज्यादा ही सीधे हो ..बस..कोई भी आपको बेवकूफ बना दे...हाँ नहीं तो .."
"आज के बाद उस दूकान पे आप ...!!!!"

बच्चे अचानक संभल गए| गोल-गोल आँखें मटकाती दो शक्लें, दांतों के तले दबी जीभ.. | इस अचानक की पर्दाफाशी से मैं भी हैरान हूँ | दोनों दबी-दबी मुस्कान लिए, मुझसे आँखें बचाते हुए अपनी-अपनी चाकलेट का ज़रूरत से ज्यादा पीला रैपर उतार रहे हैं| एक बार फिर नजरें उठ कर मिली हैं और अब कमरे में ठहाके फूट चले हैं....बच्चों के मस्ती भरे और हमारे छलछलाई आंखों से..!!
बच्चे अभी छोटे हैं शायद ..हमारा ये भरम टूट चुका है..बिलंग्नी पर टंगे मटमैले लबादे से कहीं कोई सुर्ख लाल रंग भी झांकता दिख रहा है..|

कहानी व चित्र- मनु बे-तख्खल्लुस

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12 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Vinaykant Joshi का कहना है कि -

मनु जी,
बहुत ही गहरे भाव लिए कहानी | जितना पढ़ने समझने में आता है उससे भी कही अधिक गहरी | माँ बच्चो के भावपूर्ण संबंध पर तो साहित्य भरा पड़ा है | लेकिन पिता बच्चो का सम्बन्ध भी कही कम नही है | इस सम्बन्ध में नमी का आभाव होने से तनिक शुष्क परिलक्षित होता है, पर क्या करे ? रोते हुए पिता प्रेरणा के स्रोत नही होते |
आपकी कहानी से प्रेरित हो मैंने एक कविता / शब्दचित्र लिखा है कल प्रेषित करूंगा |
बधाई |
सादर,
विनय

Anonymous का कहना है कि -

पिता की दुविधा उसका बच्चों से रिश्ता और उसकी सोच को बहुत सुंदर तरीके से लिखा है .कहानी पढ़ के मन भरी होरहा था पर अन्त के माहौल को खुशनुमा कर दिया
vinay ji aap ki kavita ka intjar rahega
बहुत खूब
सादर
रचना

Anonymous का कहना है कि -

पढी कहानी सलिल ने, मन को भाई खूब.
मनु के मन ने मनु-कथा, लिख दी सचमुच डूब.
पिता प्रेम की मूर्ति है, मान ममता का रूप.
जब तक सिर पर छाँव हो, बच्चे रहते भूप.
मेरा भी उपहार ले, आए सांताक्लास.
आम शेष को दे 'सलिल', मुझको दे कुछ खास.
कथ्य कहानी का सबल, भाषा सहज-सुबोध.
पाठक मन से जुड़ सके, तनिक नहीं अवरोध.
कथाकार की सफलता, पाठक को ले जोड़.
ख़त्म कहानी कर सका, देकर रोचक मोड़.
'सलिल' कहानी छोड़ती, अंतर्मन पर छाप.
बढ़कर भी बच्चे रहें, बच्चा चाहें आप,

Divya Narmada का कहना है कि -

पढी कहानी सलिल ने, मन को भाई खूब.
मनु के मन ने मनु-कथा, लिख दी सचमुच डूब.

पिता प्रेम की मूर्ति है, मान ममता का रूप.
जब तक सिर पर छाँव हो, बच्चे रहते भूप.

मेरा भी उपहार ले, आए सांताक्लास.
आम शेष को दे 'सलिल', मुझको दे कुछ खास.

कथ्य कहानी का सबल, भाषा सहज-सुबोध.
पाठक मन से जुड़ सके, तनिक नहीं अवरोध.

कथाकार की सफलता, पाठक को ले जोड़.
ख़त्म कहानी कर सका, देकर रोचक मोड़.

'सलिल' कहानी छोड़ती, अंतर्मन पर छाप.
बढ़कर भी बच्चे रहें, बच्चा चाहें आप,

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का कहना है कि -

अब नहीं उनको मुझपर यक़ीं
मेरे बच्चे बडे हो गये.


मनु भाई
!
बहुत अच्छे
.

सलिल जी को भी नमस्कार

द्विज

Prakash Badal का कहना है कि -

भाई मनु जी,

आज क्रिसमिस के दिन आपकी रचना पढी,


वाकेइ आपने बहुत अच्ची कहानी लिखी है और वही बच्चे, जिन्हें हम बच्चा समझते हैं हमें इस बात का अहसास करा देते हैं कि अब वे बड़े हो गए हैं और हमसे ज़्यादा जानते हैं। बच्चों का यही ख्याल कि वो अब बड़े हो गए हैं, तब अच्छा नहीं होता जब वे मां बाप को ही छोटा समझने लगते है। बढिया कहानी के लिए आपको बधाई।

neelam का कहना है कि -

मनु जी प्रशंसा के लिए शब्द ही नही मिल रहे हैं |
इस मौके पर इस अतुलनीय तोहफे के लिए पूरा हिन्दयुग्म की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करती हूँ

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मनु जी,

यह कहानी मुझे बहुत पसंद आई। आप अंत तक सस्पेंस बनाये रखते हैं। यहाँ तक कि जब बच्चे पिता को बुरा-भला कहते हैं तो लगता है कि चॉकलेट की जगह कोई बम तो नहीं है, कुछ और तो नहीं है। यह तो बिलकुल नहीं समझा था कि आप उन्हें समझदार बता देंगे। बहुत-बहुत बधाई।

Riya Sharma का कहना है कि -

माता पिता की नज़रों मैं
ताउम्र रहने वाले बच्चे
जल्दी ही
समझदार और
बड़े हो जाते हैं आज .

बहुत सुंदर प्रवाह लिए हुवे थी दास्ताँ मनु जी

Pooja Anil का कहना है कि -

मनु जी,

बहुत ही अच्छी लगी यह कहानी , सरल और सरस . अंत की खिलखिलाहट ने हमारे होंठों पर भी मुस्कान बिखेर दी . बहुत खूब.

पूजा अनिल

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही लाजवाब कहानी.मजा आ गया.
आलोक सिंह "साहिल"

स्वप्न मञ्जूषा का कहना है कि -

wahhhh !!

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