विमल चंद्र पाण्डेय युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। गौरतलब है कि विमल चंद्र पाण्डेय को इनके पहले कहानी-संग्रह 'डर' के लिए वर्ष
2008 का नवलेखन पुरस्कार मिला। कहानी-कलश इन कहानी-संग्रह की प्रत्येक कहानी को इंटरनेट के पाठकों तक पहुँचाने को वचनबद्ध है। अब इस कहानी संग्रह की 11 कहानियाँ (
उसके बादल,
सिगरेट,
एक शून्य शाश्वत,
वह जो नहीं,
सोमनाथ का टाइम टेबल,
डर,
चश्मे,
'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं',
स्वेटर,
रंगमंच और
सफ़र ) प्रकाशित की जा चुकी है। अब पढ़िए इस संग्रह की अंतिम कहानी
'जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी'
जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानीकहानी शुरू करने से पहले बता दूं, यह एक निखालिस प्रेम कहानी है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कोई तत्व ज़बर्दस्ती अतिक्रमण करके इस प्रेम कहानी का हिस्सा न बने। यह आपको अच्छी लगे, इसके लिये मैं जान लड़ा दूंगा। शृंगार रस की ज़्यादा गुंजाइश न होने के बावजूद मैं वादा करता हूं कि जहां भी मौका मिलेगा, तबीयत से प्रयोग करूंगा।
प्रेम कहानी कमसिन नायक-नायिका की नहीं है। ख़सरे की तरह प्रेम जीवन में एक बार ज़रूर होता है और नायक का अट्ठाइस साल की उमर में यह पहला प्रेम है। उमर ज़्यादा होने के कारण इस प्रेम में कथित रूप से ठंडी हवा के झोंकें नहीं हैं, बल्कि प्रेम बुझी आग में चिंगारी की तरह मौजूद है। वैसे आजकल के प्रेम में ठंडी हवा के झोंके होते भी हैं या नहीं, यह शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है। लुब्बेलुआब यह है कि यह मेरी पहली प्रेम कहानी है और इसे आप पसंद करें, इसके लिये मैं इसे सुंदर और रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा। आइये, कहानी की शुरूआत मुख्य पात्रों के परिचय से करते हैं।
सर्वप्रथम नायक का परिचय। नायक का नाम कृष्ण मुरारी है। प्रेम कहानियों के हिसाब से यह नाम बहुत ग़ैर-रूमानी और ग़ैर-परंपरागत है पर नायक की मजबूरी है कि अब नाम के साथ कुछ नहीं किया जा सकता। मुझे आभास है कि पाठकों के लिये प्रेम कहानी के नाम पर यह एक निहायत ही भौंडा मज़ाक है पर नायक की तरह मैं भी मजबूर हूं। नायक का मुंगेर से दिल्ली (वाया बनारस, परास्नातक बी.एच.यू. से) पदार्पण पत्रकारिता की पढ़ाई के सिलसिले में हुआ है। मुंगेर में उसे अपने नाम का उतना मलाल नहीं था, पर दिल्ली आकर उसे नामों की सार्थकता का बोध हुआ है और उसने इस दिशा में ठोस क़दम उठाये हैं। शुरू में ही उसने उन मक्कार दोस्तों को ख़ूब चाय पिलायी है जो खाकर थाली में छेद करने के लिये कुख्यात हैं। यानी जिसके साथ ज़्यादा रहेंगे, जिसका ज़्यादा ख़र्च करायेंगे, उसी के नाम को बिगाड़ देंगे। इसके पीछे नायक का मंतव्य यह था कि इस भक्तिकालीन नाम को जितना बिगाड़ कर पेश करेंगे, वह मौजूदा स्थिति से बेहतर ही होगा। शुरू में नायक का नाम मुर्री हुआ, फिर मुर्रू। वह निराश हुआ और कुछ दोस्तों को नयी रिलीज फ़िल्म ’किसना’ दिखाने ले गया। कुछ काइंया दोस्त नायक की मंशा भांप गये और नायक से बीयर बर्गर का भोज लेते हुये उसका नामकरण ’किसना’ कर दिया, हालांकि ज़्यादातर नमकहराम उसे मुर्रू ही बुलाते हैं। नायक बहुत उत्साह या भीषण दुख में ( जो प्रायः दारू पीने के बाद प्रकट होता है) अंग्रेज़ी बोलने लगता है। शायद अधिकतर पूरबियों की तरह अंग्रेज़ी उसका भी इनफ्रियॉरिटी कांप्लेक्स है। उसके कमरे से रेन एण्ड मार्टिन कृत ग्रामर और नॉर्मन लुइस द्वारा रचित ’वर्ड पॉवर मेड इज़ी’ इज़ी वे में बरामद की जा सकती है। नायक का सेंस ऑव ह्यूमर अच्छा है।
नायिका भी नायक के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है। नायक की तुलना में नायिका का नाम साहित्यिक सौंदर्य लिये हुये है और उसमें प्रेम की भी प्रबल संभावनाएं हैं। उसका नाम वेदिका है और उसकी आवाज़ बड़ी प्यारी है। वह मूल रूप से बनारस की रहने वाली है और पिछले चार-पांच वर्षों से मयपरिवार दिल्ली के पास नोएडा में रह रही है। स्नातक की पढ़ाई उसने यहीं से की है। चार-पांच वर्षों के अथक प्रयास से उसने बनारस का कस्बाई चोला उतार दिया है और दिल्ली के ’ओ शिट’ चोले में घुस चुकी है। यह दीगर बात है कि कभी-कभी उसका हाथ बाहर रह जाता है और कभी पैर। गो उसे उम्मीद है कि वह जल्दी ही पूरी तरह दिल्ली वाली यानी ’डेलहाइट’ हो जायेगी। (उसके बाद वह क्या करेगी, यह उससे किसी ने पूछा नहीं है।) बस थोड़ी सी कसर रह जाती है जब वह संस्कारों से ग्रस्त होकर जींस-टॉप पर दुपट्टा या दुपट्टानुमा कोई चीज़ टांगकर चली आती है भले ही वह फ़ैशन से बहुत बाहर की चीज़ हो।
नायक का एक मित्र भी है जिसका परिचय आवश्यक है। यह पात्र नायक के सबसे क़रीब है। नाम है विमल पांडे। वह भी बनारस से आया है। एक ही शहर का होने के कारण नायिका से उसकी अच्छी दोस्ती हो गयी है। यह कहानियाँ लिखता है। कहानियाँ इसलिये लिखता है क्योंकि और कोई काम करना, ख़ास तौर पर मेहनत वाला, करना इसके वश का नहीं है (उम्र अठाइस साल, वज़न चौवालिस किलोग्राम)। कम बोलता है, क्योंकि जब ज़्यादा बोलता है तो अनर्गल बोलने लगता है। जब कहानियां पत्रिकाओं से बिना छपे लौट आती हैं तो किसी से चर्चा भी नहीं करता, पर जब दस वापस लौटने के बाद एक किसी टुच्ची पत्रिका ( कृप्या संपादकगण अन्यथा न लें ) में छप जाती है तो वह पत्रिका पूरे कॉलेज में दिखाता है और अपने मित्रों को पढ़वाता रहता है, ख़ास तौर पर लड़कियों को। जब कोई लड़की उसके सामने ही कहानी पढ़ने लगती है, तो वह निर्विकार सा चेहरे पर यह भाव लिये सिगरेट पीता रहता है कि ऐसी कहानियां तो वह चुटकियों में लिख सकता है, पर साला वक़्त किसके पास है। कहानी ख़त्म होने से पहले ही कहता है- ’’पढ़के किताब दे देना, अभी निधि ज़िद कर रही थी घर ले जाने की।’’ मित्रों के बीच अक्सर ऊँची-ऊँची फेंकता रहता है। बातों में अक्सर ज़बरदस्ती ब्रेख़्त, नेरुदा, काफ़्का, सात्रर और दिदेरो आदि का ज़िक्र ले आता है। मित्रों को बल भर आतंकित करता रहता है। चूंकि उन्होंने पत्रिकाओं में इसके नाम और चित्र देखे हैं, इसलिये चुप रहते हैं। हमेशा अपनी आज़ादख़याली की दुहाई देता रहता है। अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और स्वभाव पर इसे गर्व है। ब्राह्मण होने के बावजूद अपने बीफ़ खाने का वर्णन गर्व से करता है (इसे पता है कि क्रांतिकारी कहलाने के लिये और कुछ करो या नहीं, पहले अपना धर्म तो भ्रष्ट कर ही डालो)। कई स्तरों पर मित्रों में इसका आतंक व्याप्त है। कुछ आतंकित मित्रों ने इसका नाम साहित्यकार रख दिया है और कुछ मूर्ख तो यहां तक कहते हैं कि विमल नींद में भी लिख देगा तो सही ही होगा। यही मूर्ख इसकी ताक़त हैं। नायक के नाम के विषय में इसका मत है कि इस नाम के साथ नायक को अध्यापक बनना चाहिये न कि पत्रकार।
तो कथा शुरू होती है दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर के लॉन से। पत्रकारिता का यह कोर्स पूरे दो वर्ष का है, जिसे पूरा कर लेने के बाद नौकरी मिलने की रही-सही संभावना भी समाप्त हो जाती है। पर चूंकि अभी यह इनका प्रथम सेमेस्टर है, इन्हें न इस सच्चाई का पता है न ये जानना चाहते हैं।
पहले सेमेस्टर का दूसरा महीना ख़त्म होने को है। सभी का आपस में परिचय ताज़ा-ताज़ा है। कुछ आनंद जैसे छात्र हैं जिन्होंने प्रवेश लेते ही कन्या फांसने के एकसूत्री कार्यक्रम पर परिश्रम करना शुरू कर दिया है।
लॉन में आठ-दस लोग बैठे हैं। सभी आपस में धीरे-धीरे खुल रहे हैं। लड़कों में नायक कृष्ण मुरारी, नायक का मित्र विमल, विभव, आनंद, शशि, झा जी और लड़कियों में रजनी, शीतल, बबली और निधि वग़ैरह बैठी हैं। झा जी क़रीब अड़तीस वर्ष के प्रौढ़ हैं जो विवाह न होने के कारण लड़के कहे जाते हैं। इस कोर्स के लिये उम्र की संभवतः अधिकतम कोई सीमा नहीं है और न्यूनतम सीमा इक्कीस वर्ष है। इसलिये विद्यार्थियों में शीतल, बबली, सुंदर और नरेंदर जैसे बच्चों से लेकर झा जी जैसे बुज़ुर्ग भी हैं। इनके आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद हो चुके हैं और दाढ़ी भी बहुमत की ओर जा रही है। इनका इंफ्रास्ट्रक्चर देखकर लगता है कि अब ये हमेशा लड़के ही रहेंगे। आप हिंदी साहित्य से एम.ए. हैं और बोरियत की हद तक शरीफ़ हैं। ख़ास तौर पर लड़कियों से बात करते समय चुतियापे की हद तक सौम्य एवं भद्र बन जाते हैं। सभी विद्यार्थी इनका बहुत सम्मान करते हैं और इन्हें इनके पूरे नाम से न पुकार कर झा जी कहते हैं ( वैसे ज़्यादातर को इनका पूरा नाम पता ही नहीं है, इनकी सौम्यता और गरिष्ठता देखकर लगता है कि बचपन से ही इनका नाम झा जी ही है)। ये कहीं अनुवादक की नौकरी भी करते हैं, इसलिये चाय अक्सर ये ही पिलाते हैं। जब झुंड में कोई लड़की भी मौजूद हो, तक झा जी से चाय की फ़रमाइश की जाती है और ये सहर्ष हाथ बटुये पर ले जाते हैं। यदि साक्षात् किसी लड़की ने फ़रमाइश की हो तो झा जी प्रायः समोसे भी मंगा ही लेते हैं। अभी झा जी जाने के लिये उठ खड़े हुये हैं।
’’ अब मैं चलूंगा।’’
’’ अरे झा जी, बैठिये न।’’ एक की ज़िद।
’’ कार्यालय जाने को विलंब हो रहा है।’’
’’ झा जी, पांच-दस मिनट बैठिये, फिर मैं भी चलूंगा। मुझे भी उधर ही जाना है।’’ एक का प्रस्ताव।
’’ आप लोग बैठें। मुझे अनुमति दें।’’ झा जी का निश्चय पक्का है।
ठीक इसी समय नायिका की एण्ट्री होती है। नीली जींस और सफ़ेद कुरते पर उसने काला दुपट्टा बेपरवाही से फेंक रखा है। वह आती है, एक नज़र सबकी ख़ाली हो चुकी चाय की प्यालियों पर डालती है और एक नज़र जाने को तत्पर झा जी पर। उसके दोनों हाथ जुड़ जाते हैं और जलतरंग सी आवाज़ आती है।
’’नमस्कार झा जी। जा रहे हैं ? हमें चाय नहीं पिलायेंगे ?’’
झा जी इस वार से बच नहीं पाते।
’’ क्यों नहीं वेदिका, बैठो।’’ झा जी आधे दिन की तनख्वाह प्रत्यक्ष कटती देखते हुये भारी क़दमों से चाय लाने चले जाते हैं। इस क्षण उसके मन में एक अजीब प्रश्न कौंधता है कि चाय की खोज किसने की।
पाठकों, इस क्षण को ध्यान से पकड़िये। यही वह क्षण है जब नायक के मन की प्रेमकली खिल कर फूल बनती है। नायक नायिका पर बुरी तरह आसक्त होता है। नायिका नायक के बगल में बैठने को उद्यत होती है और उससे मुस्करा कर कहती है, ’’ मुरारी जी, ज़रा खिसकिये।’’
नायक बेहाल, नायक निढाल, नायक हलाल। मुरारी जी, मुरारी जी, मुरारी जी, यह शब्द उसे इतना प्रिय लग रहा है कि उसे विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही सड़ेला नाम है जिसे बदलने के वह सपने देखा करता है। इसके बाद वहां कुछ और उल्लेखनीय नहीं हुआ। क्या आप होने वाली घटना का इंतज़ार कर रहे हैं ? साहेबान, घटना होकर ख़त्म हो चुकी है। यह मुख़्तसर सी घटना और यह एक पंक्ति से भी छोटा संवाद ’’मुरारी जी, ज़रा खिसकिये’’ ऐतिहासिक महत्व पा चुका है। इस घटना के बाद ही सभी सहपाठियों ने मुरारी जी यानी नायक के हाव-भाव में क्रांतिकारी और हाहाकारी परिवर्तन देखा है। कुछ क़रीबियों, जैसे नायक के मित्र विमल का, जो नायक की हर पीड़ा से परिचित है, कहना है कि ’’मुरारी जी ज़रा खिसकिये’’ वाली घटना के बाद से मुरारी जी ज़रा के बजाय बहुत ज़्यादा खिसक गये हैं।
नायक पांडव नगर में रहता है जो यमुना पार पड़ता है और बिहारियों का गढ़ कहा जाता है। पांडव नगर में घुसने पर पहले-पहल नायक को मुग़ालता हो जाता था कि वह मुंगेर के बेलन बाज़ार में घुस रहा है। यहां जो दिल्लीवासी हैं वे भी यहां के बिहारियों से आक्रांत हैं। नायक कुछ समय पहले तक अपने मुहल्ले में हुयी एक घटना के कारण उदास था। उसके मकान के सामने वाले मकान में एक लड़की रहती है, जिसे शुरू-शुरू में नायक लाइन मारा करता था और विकल्पहीनता की स्थिति में ख़ूबसूरत कहा करता था। एक दिन सुबह-सुबह न जाने किस बात पर लड़की का अपनी मां से झगड़ा हो गया और मां-बेटी झगड़ते-झगड़ते गली में निकल आयीं। नायक उस समय अपनी बालकॅनी में खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था और बेरोज़गारी के बाद युवाओं की सबसे ज्वलंत समस्या क़ब्ज़ पर चिंतन करते हुये प्रेशर बना रहा था। लड़की की मां चिल्ला कर लड़की को गालियां दे रही थी। लड़की भी नहले पर दहला फेंक रही थी। लड़की ने अचानक ज़ोर से चिल्ला कर अपनी मां से कहा, ’’ गौर से सुन ले, अब जो तूने मुझे गालियाँ दीं तो मैं किसी बिहारी के साथ भाग जाऊँगी, हाँ।’’
मां बेटी के ब्रह्मास्त्र से पराजित होकर चुप हो गयी और अंदर चली गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि भाग जाना गौण धमकी थी और बिहारी के साथ भाग जाना मुख्य धमकी। मां के अंदर जाने के बाद लड़की ने नायक की ओर एक क़ातिल मुस्कान फेंकी और वह भी अंदर चली गयी। नायक का सुबह-सुबह सिगरेट का ज़ायका बिगड़ गया। उसने सिगरेट फेंकी और लैट्रिन में चला गया।
नायक इस घटना के बाद कई दिनों तक विरक्त सा रहा पर क्लास में जब उसका सबसे परिचय हुआ तो उसकी निगाहें नायिका पर अटक गयीं। उसने नायिका से बात करने की बहुतेरी कोशिशें की पर नहीं कर पाया। इसी बीच वह ’’खिसकिये’’ वाली घटना हो गयी।
नायक अब अपने मित्र विमल से नायिका का दिल जीतने की तरक़ीब जानना चाह रहा है। उसका मानना है कि साहित्यकार होने के नाते विमल के पास नायिका का दिल जीतने का कोई तरीक़ा ज़रूर होगा। विमल की समस्या इधर दूसरी है। अधिकांशतः साहित्यिक पत्रिकाओं में लेखक के परिचय के साथ चित्र छापने का भी प्रावधान है। उसके अब तक जो फोटो छपे हैं, उसमें उसका पिचका बदरंग चेहरा और उड़े-उड़े खिचड़ी बाल पहले दिख रहे हैं (फोटो वैसी ही खिंच गयी है जैसा वह है)। उसकी इच्छा एक सुंदर फोटो खिंचवा कर अगली कहानी के साथ भेजने की है, जो कि असंभव है क्योंकि परिचय के साथ केवल और केवल लेखक की ही फोटो छापने का नियम है।
समस्या की वजह यह है कि उसकी कहानी पढ़ कर तो उसे एक भी पाठक ने आज तक प्रशंसा पत्र नहीं लिखा और उसे महात्वाकांक्षा है पाठिकाओं के कोमल, नरम, पुचकारते पत्रों की। तो उसकी समस्या भी नायक से कम विकराल नहीं है पर वह नायक की सहायता के लिये सहर्ष तैयार हो जाता है क्योंकि नायक अभी-अभी कैंटीन से चाय और समोसे लेकर आया है। इस मामले में वह ज़रूर साहित्यकार है। जिसका खाता है, उसका गाता भले न हो, उसकी सहायता के लिसे ज़रूर तत्पर रहता है।
चूंकि यह सत्य गाथा कहानी के रूप में प्रस्तुत की जा रही है न कि उपन्यास के रूप में, इसलिये हर जगह वार्तालाप के मुख्य और संपादित अंश ही दिये जा रहे हैं। प्रस्तुत हैं वार्तालाप के मुख्य अंश।
’’मुझे आजकल रातों को नींद नहीं आती।’’ नायक की गंभीर समस्या।
’’ घर से पैसे नहीं आये क्या ?’’ साहित्यकार का वाज़िब प्रश्न।
’’ नहीं, वह बात नहीं है। हर समय उसी का ख़याल आता रहता है।’’ नायक का रहस्योद्घाटन।
विमल गंभीर होकर सोचने लगता है। गंभीर होकर सोचने के लिये गंभीर दिखना भी पड़ता है। इसे ध्यान में रखते हुये विमल एक सिगरेट भी सुलगा लेता है। एक हाथ में चाय और दूसरे हाथ में सिगरेट लेकर शून्य में देखने लगता है (बीच में उसने कुशलता से समोसे का भी संयोजन कर लिया है)। समोसा खाता है, चाय सुड़कता है, कश लगाता है और शून्य में घूरता हुआ कुछ सोचता है। सिगरेट आधी से ज्यादा ख़त्म हो गयी है पर विमल अभी तक कुछ बोला नहीं है। नायक व्यग्र कि अब इतनी सिगरेट तो उसे मिलनी ही चाहिये पर वह ख़तरा नही उठाना नहीं चाहता। क्या पता सिगरेट ख़त्म होने से ठीक पहले कोई आयडिया आ जाय। बहुत से साहित्यकार एक से एक क्रातिंकारी विचार, कहानियाँ और कवितायें शून्य में ही घूर कर पैदा करते हैं, नायक यह बात भली-भांति जानता है।
आख़िर विमल अंतिम कश लेकर सिगरेट दूर फेंकता है। नायक सिगरेट की दिशा में गर्दन घुमाता है और सिगरेट को गिरकर सुलगते देखता रहता है। साले ने एक कश भी नहीं लगाने दिया। ख़ैर अब किसी क्रांतिकारी विचार के लिये विमल की ओर देखता है।
’’ मेरा ख़याल है कि अब हमें फ्रीलांसिंग के लिये कुछ अच्छे अख़बारों में बात करनी चाहिये।’’ विमल का क्रांतिकारी विचार।
नायक क्रोध से भन्ना उठा है। विश्वविद्यालय की शब्दावलि के अनुसार कहें तो उसकी सुलग गयी है। वह गालियों से नवाज़ते हुये विमल को चाय पीने से पहले का छिड़ा हुआ मुद्दा याद दिलाता है। विमल भूल जाने के लिये क्षमायाचना करता फिर से सोचने लगता है। वह गंभीर होकर सोचना चाहता है कि नायक झपट कर सिगरेट जला लेता है और ख़ुद पीने लगता है। अब दोनों अलग-अलग शून्यों की तरफ देख रहे हैं और समस्या पर विचार कर रहे हैं। विमल बीच-बीच में कनखियों से नायक के हाथ की तरफ देख ले रहा है कि सिगरेट आधी रह जाय तो वह मांग ले और गंभीर से गंभीरतर होकर सोच सके। वैसे उसे पता है ऐसी समस्याओं में गंभीरतर हो कर सोचने से काम नहीं बनता बल्कि गंभीरतम होकर सोचना पड़ता है। और सिगरेट के साथ भी कोई भला गंभीरतम होकर सोच सकता है। कभी नहीं।
तो गंभीरतम होकर सोचने के लिये दोनों अपने मित्र शशि के कमरे पर पहुँचते हैं। शशि और विभव क्रमशः बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं और हरिनगर में एक शानदार कमरा लेकर रहते हैं। इनके मकान मालिक दिल्ली के मकान मालिकों के विपरीत बहुत अच्छे और उदार दुर्लभ किस्म के जीव हैं। कमरे के साथ टेबल कुर्सी, पंखा ओर बिस्तरा उन्होंने फोकट में दे रखा है। कमरा बहुत अच्छा, सुविधायुक्त और हवादार है। वरना विभव और शशि पूरी दिल्ली में अच्छा कमरा खोजते-खोजते अवसाद से इतना भर गये थे कि ख़ाली कमरों के बाहर लगे टु लेट के बोर्ड पर टु और लेट के बीच आई लिख कर अपनी निराशा दूर करते थे।
कमरे पर सभी एकमत से सहमत हैं कि नायक की समस्या का समाधान होना इस समय सबसे ज़रूरी है। तो आज की रात पीते हुये विचारणीय ज्वलंत मुद्दा न तो इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण है न सेंसेक्स चढ़ने के पीछे की वजह बल्कि नायक की प्रेम पीड़ा सब पर भारी है।
तो उस रात छक कर पीने के बाद नायक कृष्ण मुरारी के प्रेम पर व्यापक चर्चा हुयी और उसी रात यह रहस्योद्घाटन हुआ कि नायक का मित्र शशि भी क्लास की एक सुंदर छात्रा निधि पर जी जान से मर मिटा है। ध्यातव्य है कि यह वही निधि है जो न्यूज़ रायटिंग की कक्षा में एण्टी करप्शन ब्यूरो को गैर भ्रष्टाचारी विभाग लिखकर अध्यापक का विशेष आकर्षण और कक्षा में अपार ख्याति अर्जित कर चुकी है। वह खोजी पत्रकार बनना चाहती है क्योंकि उसके दादा खोजी पत्रकार थे और पिता भी। अपनी ख़ानदानी पत्रकारिता पर उसे गर्व है।
यदि आप जानना चाहते हैं कि उस रात क्या-क्या बातें हुयी तो आपको निराशा होगी। मेरा मक़सद रोज़ की लंबी चौड़ी बातें सुनाकर आपको बोर करना नहीं है। उस रात पीने के बाद तीनों में गहरी छनी और महसूस किया कि पीने के बाद वे ज़्यादा विद्वतापूर्ण तरीके से समस्याओं का विश्लेषण कर पा रहे हैं फलतः वे हर दो-तीन दिन पर समस्याओं का विश्लेषण कर उनका समाधान निकालने लगे। न गंभीर समस्याओं की कमी थी न धन की। धन विमल और नायक के लिये समस्या हो सकती है शशि के लिये नहीं। शशि के पूज्य पिताजी लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता हैं और उसके घर से पैसे तकिये के खोल में भर के आते हैं। तो तीनों ने पीकर ’’प्रेम में सफलता कैसे पायें’’ नामक गोष्ठी को घंटों चलाया। तीनों, यानी नायक, शशि और विमल। यहाँ यह बताना भूल जाने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ कि विभव नहीं पीता। उसका कहना यह है कि जिस दिन वह इस लायक हो जायेगा कि रोज़ ब्लैक डॉग का ख़र्च वहन कर सके, उस दिन पीना शुरू करेगा। (न पीने वालों के तर्क पीने वालों के तर्कों से कमज़ोर थोड़े ही होते हैं।)। पीने के बाद उस रात क्या बातें हुयीं, यह जानने के लिये किसी भी एक रात की बातचीत देख लीजिये, चित्त शांत हो जायेगा। चूंकि बिल्कुल यही तस्वीर दूसरे सेमेस्टर तक खिंच आयी यानी नायक-नायिका की बातचीत औपरचारिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पायी, इसलिये पेश है दूसरा सेमेस्टर ख़त्म होने के कुछ दिनों पहले की दारू पीने के बाद चली गोष्ठी के मुख्य एवम यथासंभव संपादित अंश।
पहला आधा घंटा
शशि: यार मुरारी, कब तक आंखों ही आंखों में बातें करते रहोगे? अब उसको बता दो।
नायक: यार, उसके सामने जाते ही जबान बंद हो जाती है।
विमल: अरे यार, डरना क्या, एक बार प्रपोज तो करो उसे। जो होगा, देखा जायेगा।
शशि: अच्छा, उसने हां कर दी तो......?
नायकः (मुस्कराहट ऐसी, जैसे हाँ कर दी हो) तो क्या......? प्यार को अंजाम तक पहुँचायेंगे। कोर्स खत्म होते ही किसी बढ़िया चैनल में नौकरी ज्वाइन कर लूंगा....फिर शादी।
दूसरा आधा घंटा
नायक: आइ लव हर हिक्... वेरी मच यार।
विमलः तो बताओ उसे हिक्... यह काम तो तुम्हीं करोगे हिक्... कोई दूसरा थोड़ी....।
नायक: एवरी नाइट आइ सेंड हिक्.... एस एम एस टु हर... इन विच आइ राइट दैट आइ हिक्... लव यू बट...
शशि: बट क्या, भोसड़ी वाले... हिक्... (शशि अक्सर पीकर आपे से बाहर होने लगता है)।
यहां विभव का हस्तक्षेप होता है। इन पीने वालों के बीच इस न पीने वाले का काम यही है कि वह बाउंड्री वॉल तोड़ने वालों को डांटकर सीमा में रखे। कोई गालियां देने या मार-झगड़े में न पड़े। पीने के बाद सब उससे डरते भी हैं। वह डांट कर कड़े शब्दों में चेतावनी देता है, ’’ शशि, संसदीय भाषा का प्रयोग मत करो। यह संसद नहीं है। अगल-बगल शरीफ लोग भी रहते हैं।’’
विमलः बट क्या यार हिक्.....थोड़ा नमकीन हिक्..... इधर करना।
नायकः बट फेल्ड.....माई मोबाइल शोज दैट मैसेज सेण्डिंग फेल्ड................।
तीसरा आधा घंटा
शशिः यार निधि भी मुझे हिक्.... बहुत पसंद करती .......है हिक्।
नायकः एवरी नाइट हिक्..........आइ सेंड....हिक्.........टु हर......हिक्.......बट फेल्ड हिक्.....।
विमलः बी बोल्ड......हिक् बोथ ऑफ यू।...........एक-एक हिक् लाल....गुलाब हिक् लो.....और हिक् कह दो......आइ लव हिक् यू.......शशि मेरा थोड़ा लार्ज बनाना हिक्....।
शशिः केवल मैं ही नहीं.........हिक्.......उसे नहीं चाहता। वह भी मुझे हिक् चाहती है। आज उसने मुझसे.......पूछा हिक्.......कि आज तारीख क्या है........हिक्...?
नायकः एवरी नाइट हिक्.........आइ.....सेंड हिक्........बट फेल्ड....।
विमलः फिल्म दिखाने हिक्........ले जाओ........हिक्.......दोनों को और दिल की बात हिक् कह दो......। थोड़ा हिक्......नमकीन इधर करना....।
शशिः मुझसे ही तारीख हिक्........क्यों पूछी.......और लोग भी तो....हिक् थे वहां.....हिक् हिक्।
नायकः एवरी नाइट हिक्........आइ सेंड...हिक्....बट फेल्ड....।
विमलः प्रपोज हर........हिक्। मेरा हिक्........थोड़ा लार्ज बनाना......यार।
शशिः मुझसे हिक्.......ही क्यों हिक्.....? शी........हिक् लव्स मी....हिक् मी।
नायकः एवरी नाइट.........आइ हिक्.....बट फेल्ड......।
ये बातचीत के मुख्य अंश आपके सामने हैं। क्या केवल बातचीत सुनकर आप यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि तीनों में से लेखक कौन है? ख़ैर उसका कहानी से कोई सरकार नहीं। आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि निधि ने आगे वाली पंक्ति से सिर घुमाकर पीछे की तीसरी पंक्ति में बैठी बबली से समय पूछा था जो ठीक शशि के पीछे बैठी थी और शशि प्रसन्नता से इतना फूल उठे थे कि छाती फटते-फटते बची थी। भरसक सौम्य मुस्कराहट (जो कि बहुत अश्लील लगी थी) चेहरे पर लाकर बोले थे- नौ अप्रैल। रही नायक के मोबाइल से नायिका के नंबर पर मैसेज न पहुंचने की समस्या, तो पता नहीं यह हरकत वह रोज़ क्यों करता है। शायद उसे यक़ीन है कि सच्चे प्यार में चमत्कार भी हो सकते हैं, वरना उसे अच्छी तरह पता है कि एम टी एन एल के लैंड लाइन फोन पर मैसेज पहुंचे, यह सुविधा अभी प्रकाश में नहीं आयी है, अस्तु।
अब चलते हैं तीसरे सेमेस्टर में। नायक के घर से आजकल फोन बहुत ज़्यादा आ रहे हैं। नायक आजकल रोज़ अपने पिता से बात करता है। बात क्या करता है, दोनों सुपरहिट सार्वभौमिक फ़िल्म ’बाप और बेटा’ के सुपरहिट संवादों का अभ्यास करते हैं।
बाप- पढ़ाई कैसी चल रही है?
बेटाः जी, अच्छी चल रही है।
बापः पैसे हैं या ख़त्म हो गये हैं?
बेटाः ’जी अभी हैं’ या ’जी ख़त्म हो गये, भेज दीजीये’।
बापः ये कोर्स पूरा करने पर नौकरी तो मिल जायेगी न?
बेटाः हाँ, हाँ, दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम ही काफी है।
बापः चैनल में या अख़बार में...........?
बेटाः उहूं, अख़बार में कौन जाना चाहता है अब?.......चैनल में।
बापः चलो, जल्दी किसी अच्छे चैनल में नौकरी लग जाये तो तुम्हारी शादी कर दी जाये।
बेटाः अभीऽऽऽऽऽऽऽऽऽ कहां शादी....?
बापः अरेऽऽऽऽऽ अब उमर सरक रही है बेटा.....।
लगभग रोज़ उनके संवादाभ्यास यही पर समाप्त हो जा रहे हैं। नायक अपनी शादी के बारे में सोचकर चिंतित हो जा रहा है। जब चिंतित हो जा रहा है, तो रात का मित्रों के साथ शराब पीने लग रहा है। जब पी रहा है, तो नायिका के लैंड लाइन पर अपने मोबाइल से ’आइ लव यू’ के मैसेज भेजने लग रहा है.........बट फेल्ड।
एक और अति महत्वपूर्ण घटनाक्रम के दौरान नायक के मित्र विभव का यह परदाफाश हुआ है कि वह शादीशुदा है और उसकी पत्नी गांव में रहती है। इस बार विभव जब गांव गया था तो पत्नी से समागम के दौरान उसे शीघ्र स्खलन की समस्या का सामना करना पड़ा। हर बार पत्नी के फॉर्म में आने से पहले विभव बाबू आउट हो चुके होते थे। इस समस्या से बचने के लिये उन्होंने बुज़ुर्गों के कहे अनुसार समागम करते हुये किसी और विषय पर ध्यान लगाने की पद्धति अपनायी और ’आज की पत्रकारिता’ पर गहन चिंतन करते हुये सेक्स करने लगे। मगर ऐसा करते ही समस्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी।
यहां आने के बाद उसकी समस्या ने बड़ा अजीबोग़रीब रूप ले लिया है। पत्रकारिता के विषय में चर्चा होते ही पत्नी की निर्वसन देह आंखों के सामने नाचने लगती है। आज की पत्रकारिता पर विचार करते ही निवर्सन देहों का झुंड कल्पना में कल्पनातीत ढंग से विचरण करने लगता है, जिसका ख़ामियाजा वह कई बार सपनों में भुगत चुका है।
नायक की आयु के हिसाब से उसके प्रेम का ढंग निहायत ही बचकाना है। यह संकोचपूर्ण अभिव्यक्ति-अनाभिव्यक्ति उन किशोरों के पहले प्रेम के लिये (या भूमंडलीकरण के कठिन दौर को देखते हुये ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे प्रेम के लिये) मान्य होती है, जिनकी मूछें उगने के प्रथम चरण में होती हैं। हालांकि अब प्रेम इन सब बातों से इतना ऊपर उठ चुका है कि अब प्रेम में पड़ने के लिये मूंछें उगने की अघोषित शर्त बेमानी हो चुकी है। मगर नायक के बचकाने प्रेम और उसकी मिली-जुली हरकतों वाला उसका समूह इसके बावजूद बुद्धिजीवियों का समूह कहा जाता है। अट्ठाइस-उन्तीस की उमर होने के बावजूद अगर वे पढ़ाई कर रहे हैं और इसके लिये बाक़ायदा घर से पैसे भी खींच रहे हैं तो यह उनकी बुद्धि का ही कमाल है, जिसके बल पर वे जी रहे हैं (बुद्धि$जीवी = बुद्धिजीवी)। मित्रों द्वारा बुद्धिजीवी संबोधन दिये जाने के गहरे कारण हैं। वैसे कक्षा के कुछ डेलहाइट जो जन्म से लेकर आज तक दिल्ली से बाहर नहीं गये, (गये भी तो सोनीपत या गुड़गांव) इस समूह को ’बिहारी समूह’ कहते हैं, जबकि विमल, विभव और आनंद क्रमशः बनारस, कानपुर और भोपाल से हैं। इन महात्माओं के लिये दिल्ली छोड़कर पूरा हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार है।
कारण से पहले संक्षिप्त इतिहास। नायक हो, नायक का मित्र विमल, विभव या शशि, सबने स्नातक होते ही ढेर सारे सपने पाल लिये थे। इन सपनों को वे अपना ख़ून पिलाकर पाल रहे थे और स्नातक होते ही वे आई आई एम से प्रबंधन का डिप्लोमा लेने के लिये चिंताजनक रूप से गंभीर हो गये थे। किसी को एक ही प्रयास में औकात पता चल गयी और किसी की आंखें खुलने में दो प्रयास लगे। बकौल नायक, उसकी रीज़निंग थोड़ी कमज़ोर थी और साली अंग्रेज़ी ने धोखा दे दिया वरना अहमदाबाद या बंगलौर नहीं तो इंदौर तो कहीं नहीं गया था। इसके बाद बकौल विभव, वह भौतिकतावादी महत्वकांक्षाओं से बाहर निकल आया। इस दौरान वह देश की नकारात्मक परिस्थितियों से दो-चार हुआ और ठीक इसी दौरान उसके मन में देश के लिये कुछ करने का जज़्बा जागा। इसी के थोड़ा आगे-पीछे सबने प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तैयारी की और देश सेवा के इस रास्ते में प्रतिद्वंदिता और संघर्ष ज़्यादा पाने पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर देश सेवा करने की सोची। ईश्वर की लीला देखिये कि ये टकराये भी तो देश की राजधानी में जहां से देश की सेवा करना कितना आसान है। (आपस में बहुत कम समय में इनकी इतनी बनने लगी कि इतनी मिलती-जुलती कहानियाँ देखकर इन्हें आश्चर्य हुआ कि ये अकेली मेधा नहीं हैं जिनकी प्रतिभा को नहीं पहचाना गया)। लुब्बेलुआब ये कि प्रशासनिक सेवा के बारे में कुछ समय के लिये गंभीर होने के कारण इनका सामान्य ज्ञान कक्षा के अन्य बच्चों से काफी अच्छा है और वे इनकी बौद्धिक चर्चायें सुनकर दहशत में रहते हैं।
विमल की कहानी पढ़कर एक पाठिका ने उसे प्रशंसा पत्र भेजा है। प्रशंसा पत्र क्या, छोटा-मोटा प्रेम पत्र है। कहानी के बारे में सिर्फ़ एक वाक्य लिखा हुआ है- आपकी कहानी अच्छी लगी। विमल के भीतर का लेखक उत्साहित होकर जानना चाहता है-कौन सी कहानी, किस पत्रिका में पढ़ी, कहानी में क्या अच्छा लगा, क्या बुरा, लेकिन आगे कुछ नहीं लिखा है। अलबत्ता शेर बहुत लिखे हैं- ’’लिखती हूं ख़ून से स्याही न समझना, मरती हूं तुम्हारी याद में ज़िंदा न समझना।’’ यह शेर ख़त्म होते ही लाइन खींचकर दूसरा शेर लिखा है-’’पत्र मेरा जा रहा है दिल के तार-तार से, पसंद अगर ना हो तो फाड़ देना प्यार से’’। फिर तीसरा-’’दोस्ती करते हैं ये लोग कसम खाते हैं, प्यार हमसे करते हैं गले किसी और को लगाते हैं।’’ विमल औचक ही भौंचक हो गया है। किससे दोस्ती, किसकी कसम, किसे गले लगाया, ये कौन पाठिका है यार, ऊपर से मात्रा की इतनी ग़लतियां..........। विमल का मूड हत्थे से उखड़ गया है। सारा कार्ड ’’चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल’ के शायर के शाहकारों से भरा हुआ है। ले-देकर यही एक प्रशंसक का पत्र आया है जिसकी चर्चा इसने न किसी से की है न करेगा।
तीसरे सेमेस्टर की यही कुछ घटनायें हैं। कुछ प्रक्रियायें भी हुयी हैं, जैसे नायक-नायिका की बातचीत अब कुछ हद तक अनौपचारिक स्तर पर आ चुकी है। शशि ने अपना प्रेम प्रस्ताव निधि के सामने रख दिया है जो अभी तक पारित नहीं हुआ है। आनंद ने कक्षा की ही एक छात्रा शीतल को फांस लिया है और दोनों हर शाम एक साथ शीतल पेय पीते आनंद करते देखे जा रहे हैं। विभव को किसी ने, उसके तर्कों से उबकर, ब्लैक डॉग पिलाने का कलेजा दिखा दिया था और अब उसका यह कहना है कि वह पीना तब शुरू करेगा जब रोज़ शैंपेन का ख़र्च वहन करने लायक हो जायेगा। झा जी आजकल इस ग्रुप के पास नहीं फटकते, जबकि भावी खोजी पत्रकारों का यह ग्रुप उनको खोजी कुत्तों की तरह सूंघता फिरता है। वैसे झा जी पत्रकारिता का क्षेत्र छोड़ने के विषय में कहते सुने गये हैं क्योंकि उनकी अतिशुद्ध हिंदी के कारण उन्हें हिंदी अख़बारों में नौकरी मिलने में बड़ी बाधा आ रही है।
चौथा सेमेस्टर आ गया है। सभी एकाएक बड़े हो गये हैं। सबको अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास है। मस्ती करने के दिन अब चले गये। अब नौकरी ढूंढ़ना शुरू कर दो। अब सीरियस हो जाओ। कहीं इंटर्नशिप के लिये प्रयास करो। ऐसे जुमले ग्रुप में क्या पूरी कक्षा में तैरने लगे हैं। पत्रकारिता पाठ्यक्रमों का अलिखित नियम सभी जानते हैं कि पाठ्यक्रम समाप्त होने से पहले-पहले कहीं व्यवस्थित हो गये तो ठीक वरना पाठ्यक्रम समाप्त करके आप खाली बैठे हैं तो संभावनाएं धीरे-धीरे शून्य होती जाती हैं।
चौथे सेमेस्टर में ग्रुप एक चैनल द्वारा संवाददाता के पद के लिये आयोजित साक्षात्कार में शिरकत करके लौटा है। साक्षात्कार में नायक से पूछे गये प्रश्नों में से कुछ निम्नलिखित हैं-
प्रश्न- अच्छा, तो आपकी रुचि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में है? यह बताइये, अमरीका से जो रक्षा समझौता हो रहा है, उसमें क्या-क्या शामिल है ?
नायक ने ख़ुश होकर उत्तर दिया। विषय पर उसकी पूरी पकड़ है।
प्रश्न- अगर यह रक्षा समझौता हुआ तो बोलिविया से हमारे संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?
नायक ने कुछ उत्तर दिया पर विषय पर उसकी पकड़ ढीली हो रही है।
प्रश्न- इथोपिया और इरिट्रया में खराब संबंधों की वजह क्या है?
नायक ने कुछ उत्तर तो ज़रूर दिया पर समझ लिया कि मामला पहुंच से बाहर जा रहा है।
प्रश्न- अच्छा, यदि इथोपिया में हमास जैसा संगठन होता और इरिट्रिया में एडवर्ड सइद होते तो स्थिति कैसी होती? पचास शब्दों में लिख कर बताइये।
मामला ख़त्म। नायक जानता है चैनलों में नौकरी के लिये ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरत है अच्छी यानी मिश्रित अशुद्ध भाषा और स्वच्छ उच्चारण की। नायक का व्यक्तित्व तो अच्छा है, पर भाषा और उच्चारण उसे मार दे रहे हैं। भाषा का बिहारी टच उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। साक्षात्कार देकर निकलते समय चैनल के एक प्रकांड पत्रकार से नायक की मुलाक़ात हो गयी। नायक ने जब उससे इथोपिया और इरिट्रिया के ख़राब संबंधों की वजह तस्दीक करनी चाही तो वह सिगरेट सुलगाते हुये दार्शनिक अंदाज़ में बोला, ’’ इथोपिया देश का नाम तो मैंने सुना है, पर यह इरिट्रिया कहां हैं बंधु?’’
लगे हाथ विमल के साक्षात्कार के भी कुछ अंश देख लेते हैं।
प्रश्नः अच्छा, तो आप कहानियां लिखते हैं....बहुत अच्छे। आप तो साहित्य के आदमी हैं, आपका पत्रकारिता में क्या काम?
कोई उत्तर नहीं।
प्रश्न (जो कि प्रश्न नहीं विचार है)- क्या आपको पता नहीं कि साहित्य में रुचि पत्रकारिता के लिये विष के समान है?
कोई उत्तर नहीं (हालांकि उत्तर था विमल के पास, पर आत्मविश्वास नहीं था)
प्रश्नः किन पत्रिकाओं में छपी हैं आपकी कहानियाँ?
उत्तर बहुत ही बुझे मन से दिया गया।
प्रश्नः कोई फ़ायदा नहीं होता पाण्डेजी, इनमें लिखने से। वहां आप बड़े लेखक भी बन जाएंगे तो भी यहां छोटा सा टीवी पत्रकार बनने के लिये आपको नाक रगड़नी पड़ेगी। अरे, कौन जानता है आपको लिखने की वजह से पाण्डेजी......?
उत्तर तो कोई नहीं पर जातिसूचक शब्द वाकई अपमानजनक होते हैं (भले ही क्यों होते हैं इसका संतोषजनक उत्तर विमल ढूंढ़ नहीं पा रहा), यह विमल को बड़ी शिद्दत से महसूस हुआ है। जानने का ज़िक्र आते ही उसे उस पाठिका द्वारा भेजा गया कार्ड याद आ गया है और उसका रहा-सहा मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया है।
प्रश्नः अच्छा आप चिली में चुनावों की पूरी प्रक्रिया को समझाते हुये पिछले पांच राष्ट्रपतियों के नाम बताइये।
उत्तरः जी, मुझे ठीक से पता नहीं।
प्रतिक्रियाः तो, छीलो। (ऐसा साक्षात्कारकर्ता ने मुंह से नहीं भाव-भंगिमाओं से कहा)
ऐसा नहीं कि वहां किसी की नौकरी लगी ही नहीं। निधि को एंकर की नौकरी उसी चैनल में लग गयी। दस दिन के भीतर ही उसका बुलावा आ गया। चूंकि वह बारोज़गार हो गयी है, उत्सुकतावश उससे पूछे गये दो-चार प्रश्न भी देख लेते हैं।
प्रश्नः जर्मनी के चांसलर कौन हैं?
उत्तरः सॉरी सर, आइ डोंट नो। (प्रश्नकर्ता की ओर ऐसी निगाहों से देखते जैसे वह उत्तर के लिये विकल्प देगा)
प्रश्नः अच्छा बताइए, अमरीका के राष्ट्रपति कौन हैं?
उत्तरः सर क्लिंटन। सॉरी-सॉरी जॉर्ज बुश।
प्रश्नः यू.पी.ए.का अध्यक्ष कौन है?
उत्तरः सोनिया गांधी, आइ थिंक।
प्रश्नः श्योर ?
उत्तरः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह।
प्रश्नः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह?
उत्तरः मनमोहन सिंह।
प्रश्नः आपको पूरा विश्वास है?
उत्तरः यस सर, आयम श्योर।
प्रश्नः हंड्रेड परसेंट श्योर?
उत्तरः यस्सर, हंड्रेड परसेंट श्योर।
प्रश्नकर्ताः वेरी गुड, आपका यह उत्तर तो सही नहीं है, पर आपका आत्मविश्वास क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। यदि संवाददाता का पद न मिले तो क्या आप एंकर की नौकरी करना चाहेंगी?
उत्तरः या सर, श्योर।
तो निधि शर्मा, जिनकी लम्बाई पांच फीट सात इंच है, जो काफी ख़ूबसूरत हैं और जिनकी आवाज़ बहुत मधुर है, आजकल उस चैनल में एंकर हैं। ग्रुप में नौकरी की बात करें तो कुछ दिन बाद एक चमत्कार की तरह आनंद की भी कॉल आ गयी। इसके पीछे की राजनीति यह है कि आनंद किसी सत्तारूढ़ केंद्रीय मंत्री के नाम का पत्र लेकर साक्षात्कार में आया था। एक, अणे मार्ग और दस जनपथ के मधुर संबंधों का उसने पूरा लाभ उठाया और नायक व उसका पूरा ग्रुप उसकी सफलता से उत्साहित व प्रसन्न है। नायक अपनी कमज़ोरी जानता है। वह आनंद के लिये मित्र धर्म के कारण प्रसन्न है वरना अपनी असफलता उसे ख़ुश नहीं होने दे रही है। निधि का चयन भी उसे खिन्न कर गया है। जिस रात निधि का चयन हुआ, नायक दारू पीकर कहते सुना गया- एंकर.................हुंह, यही वो एंकर होती हैं जो संवाददाता द्वारा यह सूचना दिये जाने पर कि जगुआर दुर्घटनाग्रस्त हो गया है, सवाल पूछती हैं हमारे दर्शक जानना चाहते हैं उसमें कितने यात्री सवार थे?
कुछ भी हो, नायक निराश नहीं है। हाल ही में उसे साक्षात्कार वाले दिन नायिका के पास बैठ अंतरंगता से बातें करते देखा गया है। पास जाने पर पता चला कि दोनों इंटरव्यू कला पर चर्चा कर रहे थे। नायिका का भी साक्षात्कार अच्छा नहीं रहा। ख़ैर, अभी तो मंज़िलें और भी हैं। राज़ की बात यह है कि नायक ईश्वर से अपनी नौकरी के लिये प्रार्थना नहीं करता, उसकी विनती है कि नायिका को जल्दी नौकरी मिल जाये, क्योंकि नायिका नौकरी के लिये बहुत परेशान है। अपने पर पता नहीं कैसे उसे विश्वास है कि जब भी वह नौकरी के लिये गंभीर हो जायेगा, नौकरी मिल जायेगी। बल्कि कुछ लोगों ने उसे यह तक कहते हुये सुना है कि अगर उसका किसी चैनल से बुलावा आया और एक ही स्थान हो तो वह ख़ुद नहीं जायेगा बल्कि नायिका को भेज देगा। (इसी पर बनारस में एक कहावत प्रचलित है-गांड़ी में गू नाहीं, नौ सियार के नेवता)
इसी बीच उसे पता चला कि निधि को नौकरी ऐसे ही नहीं मिल गयी, उसने बहुत तगड़ा जैक लगवाया था।
’’ये जैक क्या होता है बे?’’ नायक ने बस में खड़े-खड़े आनंद से पूछा था।
’’भक्साले, जैक नहीं जानते? अबे जुगाड़, सोर्स, पउआ, भौकाल............अबे पैरवी यार। जैसे मैंने करवायी थी।’’ आनंद ने समझाया।
’जैक’ के इतने सारे पर्यायवाची सुनकर नायक को यह शब्द भगवान कृष्ण के अनंत नामों की तरह सुहावना और चमत्कारिक लगा, पर इसके विषय में थोड़ा सोचते ही यह शब्द भगवान शंकर के अनंत नामों की तरह ख़तरनाक और प्रलयंकारी लगने लगा।
’’बिना जैक के किसी का कुछ उखड़ने वाला नहीं है बे।’’ आनंद ने कड़े शब्दों में फ़ैसला सुना दिया था और तभी सामने स्पीड ब्रेकर आ गया था और नायक का सिर बस की छत से जा टकराया था।
चौथा सेमेस्टर समाप्ति की ओर अग्रसर है। सभी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में चक्कर काटते नज़र आने लगे हैं। नायक-नायिका थोड़ा और निकट आ गये हैं पर निकटता देखकर अंधा भी बता देगा कि इसमें प्रेम नहीं दोस्ती का ही तत्व है। नायिका हर बार नायक को अभिवादन करते हुये मुस्कराती है और नायक हर बार पीछे देखकर आश्वस्त हो लेता है। नायक का अमर और पवित्र प्रेम जो समय की आंच पाकर और पवित्र हो गया है, उसके चेहरे से दिखायी नहीं देता। जब नायिका आसपास बैठी होती है, चेहरे से वह उतना ही मूर्ख और निरीह दिखायी देता है, जितना पहले सेमेस्टर में, जब वह अपना प्रेम छिपाकर रखता था। अब उसका प्रेम छिपा नहीं है। पूरी क्लास को पता है। कारण हैं विमल और विभव। दोनों बड़े मुंहफट किस्म के इंसान हैं और खुलेआम नायक का नाम लेकर नायिका को छेड़ते रहते हैं। उनकी मंशा ये है कि नायिका के मन में नायक के लिये प्रेम अंकुर फूटें, पर म़ज़ाक ज़्यादा हो जाने पर नायिका गुस्से में कहती है, ’’ये क्या स्टूपिड सी हरकतें करते रहते हो तुम लोग? विमल तो राइटर है, पर विभव तुम भी...?’’ विमल समझ जाता है कि चूंकि वह राइटर है, लिचड़ई पर उसका तो हक है, पर विभव की छेड़खानी से ग़लत असर पड़ सकता है। आजकल वह अकेला ही नायिका के मन में नायक के प्रति प्यार जगाने की कोशिश कर रहा है।
दो दिन बाद नायिका का जन्मदिन है। पिछली बार तो जन्मदिन बीतने के बाद नायक को पता चला था और उसी दिन यह तारीख उसके मानस पटल पर जम गयी थी जिसे ईमेल आई डी बनाते समय नायक ने पासवर्ड बनाया था। नायिका किताबों की बड़ी शौकीन है, इसलिये उपहार में किताब ही दी जाएगी पर कौन सी? विभव बहुत मेहनत से विमल की बातों से अंदाज़ा लगाकर बताता है कि नायिका को गोर्की की मदर देनी चाहिये। दरअसल नायिका को हिंदी के लेखकों के आत्मविश्वास के बारे में पता नहीं है। वह यह मानकर कि विमल लेखक है तो ज़रूर बहुत पढ़ता होगा, उससे दुनिया भर की किताबों के बारे में बताती रहती है। जिसे पढ़ने की ज़हमत वह कभी नहीं उठायेगा क्योंकि ऐसी तो वह जब चाहे तब लिख दे। तो इधर नायिका मदर पढ़ने की इच्छा जता रही थी। नायक दरियागंज से मदर खरीदता है, सुंदर सी पैकिंग कराता है और एक लाल गुलाब के साथ समय से पहले कॉलेज पहुंच जाता है। भले ही आज नायिका का जन्मदिन हो, वह आयेगी अपने नियत समय पर ही। तब तक नायक कैण्टीन के बाहर खड़ा होकर चाय पीते हुये समय काट सकता है।
कैण्टीन के सामने वही रोज़ का मंज़र है। कुछ झुण्ड खड़े हैं और चाय नाश्ते के साथ अपने मित्रों से गपशप कर रहे हैं। जिस झुण्ड में लड़कियां ज़्यादा हैं उसमें से चिड़ियों के चहचहाने की अवाज़ें आ रही हैं। कुछ अध्यापक भी खड़े हैं। इनमें से कुछ को नायक पहचानता है। ये हिन्दी विभाग के अध्यापक हैं जो अपने छात्रों के सौजन्य से चाय पी रहे हैं और बदले में उन्हें ’राम की शक्तिपूजा’ में हनुमान के अतिमानवीय कार्यों की व्यंजना समझा रहे हैं। कुछ के चेहरों से टपकती बेचारगी देखकर लगता है कि यदि छात्र कुछ नाश्ता भी करा दें तो ये ’अंधेरे में’ के काव्यगत वातावारण को मूर्त बनाने वाले अंधेरे की पूरी पोल खोल कर रख दें ( पर समस्या यह है कि ये शोधछात्र न होकर साधारण छात्र हैं इसलिये गुरू वंदना मौखिक ज़्यादा है)। इसी समय नायिका का गुलाबी रंग के कपड़ों (जिसके बारे में मिथक है कि यह लड़कियों का पसंदीदा रंग होता है और जिसे देखकर नायक ने उसी दिन जनपथ से तीन गुलाबी टी शर्टें खरीदीं) में आगमन होता है और नायक का ध्यान अध्यापकों से हट कर इधर आकर्षित होता है।
जन्मदिन की ढेरों बधाइयाँ। सब ने नायिका को मुबारकबाद दी है। जन्मदिन मुबारक हो वेदिका। थैंक्यू मुरारी। अब नायक कृष्ण मुरारी नायिका वेदिका को गोर्की कृत ’मदर’ उपहार में देने ला रहा है। कैसा अर्थवान उपहार है यह? कैसा महान प्रेम है यह? इस प्रेम में एक महाकाव्य पनप सकता है बशर्ते यह प्रेम सफ़ल हो जाय.....आमीन। नायक के आगे बढ़ते ही शॉट फ़्रीज़ हो गया है। सबकी निगाहें नायक पर हैं। नायक जैसे चांद पर क़दम उठा रहा है। उसका भार छठवां हिस्सा ही बच रहा है।
यह तुम्हारे लिये वेदिका। नहीं, नहीं मैं नहीं ले सकती। नायक थोड़ा निराश हो गया है। साहित्यकार मित्र दिमाग लगाता है। रख लो वदिका, तुम्हारी फ़ेवरिट किताब है। नहीं विमल प्लीज़ सॉरी। नायिका तैयार नहीं है, उसे डर है उपहार रख लेने पर उसकी तरफ़ से प्रेम की स्वीकृति मान ली जाएगी। अरे रख लो, हम सबने मिलकर ख़रीदा है, विभव का मास्टरमाइंड। मिलकर ख़रीदा है वाला हथियार काम कर गया है। ओके थैंक्यू। नायक फूल देता है, लाल गुलाब। थैंक्यू मुरारी। नायिका फूल लेकर सूंघती है। नायक अति प्रसन्न है। फूल सूंघना मतलब नायक की विजय। वह ख़ुशी ज़ाहिर करना चाह रहा है पर नायिका के सामने नहीं, कहीं दूर जाकर। वह विमल को लेकर लाइब्रेरी के सामने वाले झंखाड़ की तरफ़ जाता है जहां ’कॉलेज के सौ मीटर के दायरे में तम्बाकूजनित पदार्थ न बिकने का आदेश’ पारित होने के बाद से सिगरेट भी मिलने लगी है। दोनों झंखाड़ में घुसकर सिगरेट ख़रीदते हैं और सुलगाकर देर तक बातें करते रहते हैं। इस समय नौकरी-फौकरी जैसी वाहियात बात किसी के दिमाग़ में दूर-दूर तक नहीं है।
नायक कॉलेज से निकलता है तो ऐसा लगता है उसे थोड़ा-थोड़ा नशा हो आया हो। नायिका ने जाते वक़्त नायक को दुबारा थैंक्यू कहा है और उसे एक चाबी का रिंग उपहार में दिया है। अब वह इस चाबी रिंग का क्या करेगा? पूछिये मत, वह इस समय उसके लिये दुनिया की सबसे क़ीमती वस्तु है। हो सकता है वह एक कार ख़रीदे और उसकी चाबी इस रिंग में लगा दे या फिर एक बंगला ख़रीद ले और उसकी चाबी इस रिंग में फंसा दे। कुछ भी.....कुछ भी.....कुछ भी।
रास्ते से गुज़रते हुये वह 392 नम्बर की बस देखकर रुक जाता है (इसी नम्बर की बस से नायिका रोज़ अपने घर नोएडा जाती है)। सभी मित्र उसे रुका देख रुक जाते हैं। वह बस को इस क़दर प्यार से देखता है गोया इससे कुचल कर जान दे देगा। यही सवाल पूछने पर वह अंग्रेज़ी में जवाब देता है कि इस बस से कुचल कर वह सीधा स्वर्ग पहुंचेगा। अंग्रेज़ी में..........? पर अंग्रेज़ी तो नायक दारू पीने के बाद बोलता है, नशे में। ये दूसरा नशा है पाठकों। ये इतनी जल्दी नहीं उतरने वाला जितनी जल्दी दारू वाला उतरता है। ये प्रेम का नशा है।
यहां से प्रेम कहानी में एक दुखद मोड़ आता है जो हर सफल प्रेम कहानी के लिये आवश्यक है। मुझे आशा है मेरी प्रेम कहानी भी एक दुखद मोड़ से गुज़रकर सुखद परिणति को प्राप्त कर एक सुपरहिट कहानी बनेगी। मैं दावे से कह सकता हूं कि आप इस कहानी को पढ़ने के बाद मेरे लेखन के कायल हो जायेंगे और मैं प्रेम कहानी विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो जाऊँगा।
नायक ने उसी रात नायिका को फोन किया। शाबाश नायक। सभी मित्रों की ओर से उसे फ़िल्म देखने के लिये आमंत्रित किया पर नायिका ने उसे दूसरी ही ख़ुशख़बरी सुना दी। उसने एक चैनल में साक्षात्कार दिया था, वहां से उसका बुलावा आया है, साथ ही कल शाम उसे शादी के लिये लोग देखने आ रहे हैं। नायक दहल गया। अभी तो प्रेम धीरे-धीरे परवान चढ़ना शुरू हुआ था, अभी इतना बड़ा झटका........? क्या नायिका ने उसे संकेत किया है कि.......? क्या नायिका भी उससे........? क्या........? क्या........?
सभी ने मिलकर चर्चा की। काफी देर चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि नायक जल्दी से जल्दी किसी समाचार चैनल में नौकरी पकड़े और अपने पिता को घिसे-पिटे संवादों से इतर नये संवाद दे। नायक को आनन-फानन में नौकरी पाना बहुत ज़रूरी है ताकि आगे की कार्रवाई की जा सके। नायक एक आनोखे जोश से भर गया है।
सभी मित्रों ने एक-एक करके सभी समाचार चैनलों के दफ़तर जाना शुरू कर दिया है। हर जगह आवेदन पत्र मुख्य द्वार पर ही जमा कर लिये जाते हैं। जमा कौन करता है, जानना चाहते हैं तो दिल थाम के बैठिये। इन भावी पत्रकारों के आवेदन मुख्य द्वार पर तैनात गेटकीपर लेता है। वे कुछ निराश हुये। एक चैनल ऑफिस के गेटकीपर ने तो ये दया भी नहीं दिखायी।
’आप लोग एप्लीकेशन कूरियर से भेजिये, बाइ हैण्ड नहीं लिया जायेगा।’’ उसने खैनी मलते हुये फ़रमान सुनाया।
’अच्छा, यहां हो सकता है हमारा ?’’ नायक ने पूछा था। हैरानी होती है सोचकर कि नायक कुछ समय पहले तक इतना अपरिपक्व था कि ऐसे प्रश्न पूछता था।
’जैक-वैक होगा तो हो ही जायेगा।’’ गेटकीपर मुस्करा कर बताता है।
जैक, जैक, जैक.......हर जगह जैक। नायक आवेदन करता रहा और हर जगह से बुलावे का इंतज़ार करता रहा। कहीं से कोई बुलावा नहीं आया जैसे किसी अंधे कुएं में पत्थर फेंका गया हो। सभी इंतज़ार में थे कि बुलावा आयेगा पर नायक के पास वक़्त नहीं। ठीक है, उसकी कुछ कमज़ोरियां हैं, उसका कोई जैक भी नहीं, पर चैनल में ही जाना कोई ज़रूरी तो नहीं। वह प्रिण्ट की पत्रकारिता करेगा जो कि असली पत्रकारिता होती है (ऐसा उसके उन सीनियरों ने बताया है जो हर चैनल से दुत्कारे जाने के बाद प्रिण्ट में काम कर रहे हैं।)
नायक ने पहले राष्ट्रीय स्तर के अख़बरों की खाक छानी फिर राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं की। सवाल वही था, यदि कोई जैक हो, किसी मंत्री-वंत्री से सोर्स लगाओ तो बात बने। नायक हैरान था। मीडिया में तो उसने सुना था अभी बहुत मौके हैं। रोज़ नये चैनल खुल रहे हैं, अख़बार छप रहे हैं, पत्रिकाएं निकल रही हैं, फिर ये हर जगह जैक...........? बिहार से आये नायक और यूपी, एमपी से आये मित्रों के लिये इस बूमिंग इंडस्ट्री की हालत बहुत धक्का पहुंचाने वाली और स्वप्नतोड़ू थी।
नायक छोटे-छोटे क्षेत्रीय अखबारों के ऑफिस पुहंचने लगा। वह सच्चाई की ताक़त, दैनिक सच्चाई, झूठ को जला दो, सांध्य बारूद, दैनिक तोप जैसे अखबारों में भी गया जो प्रथम बार में धर्मेंद्र की हिंसात्मक फ़िल्मों के टाइटिल लगते थे। इन अख़बारों में उससे कहा गया कि वह दो महीना बिना पैसे लिये काम करे, दो महीने उसकी योग्यता को परखने के बाद कोई फ़ैसला लिया जायेगा। सांध्य सच्चाई और सनसनीखेज खुलासा जैसे चार पन्ने के अख़बारों में, जिनका दफ़्तर एक कमरे का था, उससे कोई सनसनीखेज खुलासा करके लाने को कहा गया। उसके सामने सबसे सनसनीखेज खुलासा यह हुआ कि हर हफ़्ते चार विज्ञापनों की व्यवस्था करने से इन अखबारों में नौकरी मिल जाती है। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, ये अख़बार पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मिशन मानकर काम कर रहे थे और इनके एक कमरे के छोटे दफ़्तरों में भी कई गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबू पराड़कर खैनी मलते या बीड़ी सुलगाते प्रायः दिख जाते थे।
वह ग़लती से कुछ ऐसे अख़बारों के ऑफ़िस भी चला गया जो किसी व्यक्ति ने अपने पड़ोसी से बदला लेने के लिये निकालना शुरू किया था। पड़ोसी के पास शायद कोई तोप रही होगी जिसके मुकाबले में यह अख़बार निकला होगा। इन अख़बारों में ऊपर ऐश्वर्य राय या रानी मुखर्जी सरीखी सुंदरियों की कम कपड़ों में मोहक तस्वीरें होतीं और नीचे बलात्कार की ख़बर एक डरावने शीर्षक के साथ होती। चित्र व शीर्षक का ख़बर से ऐसा सुंदर सामंजस्य बैठाया जाता कि एकबारगी तो रानी या ऐश्वर्य के बलात्कार होने का भ्रम हो जाता। अगले पृष्ठों पर अपने शत्रु पर ऐसी भाषा में कीचड़ उछाला गया होता जिसमें प्रूफ़ की बहुत गलतियां होतीं। यहां काम करने के लिये उपरोक्त शर्तों के साथ एक मौलिक शर्त यह भी थी कि हर रोज़ एक बलात्कार की ख़बर लेकर आओ। कोई ख़बर न हो तो ख़ुद बलात्कार करो और ख़बर बनाओ लेकिन अख़बार का नियम नहीं टूटना चाहिये। नायक धीरे-धीरे हताश होने लगा था। उसकी नाक के नीचे दुनिया में इतना अंधेर हो रहा है और वह कुछ नहीं कर सकता। उसे वौ नौकरियां याद आयीं जो उसने मात्र इसलिये ठुकरा दी थीं कि उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ पत्रकार ही बनना था।
ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं। नायक को बिल्कुल ऐसा ही लगा जब एक समाचार चैनल ने उसे इंटर्नशिप पर रख लिया। व्यवसायिक मण्डी ने शोषण का नया पर्यायवाची शब्द ढूंढ़ निकाला है, इंटर्नशिप। यह इंटर्नशिप भी उसे एक जैक लगाने पर मिली है। इंटर्नशिप के लिये बड़े नहीं छोटे जैकों की ज़रूरत होती है (कथा लिखे जाने तक सत्य तथ्य) जैसे प्रोडक्शन असिस्टेंट या संवददाता। नायक के दूर के एक भाई ने, जो काफी समय से इस चैनल में संवाददाता है, उसका जैक लगाया है। नायक अपने इस दूर के भाई का जो नायक के स्कूल के दिनों में अक्सर उससे ’गिलहरी नमक खाती है’ का संस्कृत अनुवाद पूछा करता था, इंटर्नशिप दिलवाने के तहेदिल से शुक्रगुज़ार है। नायक प्रसन्न था कि दो महीने की इंटर्नशिप के दौरान वह इतनी मेहनत करेगा कि चैनल वाले उसे निकाल ही नहीं सकेंगे बल्कि प्रभावित होकर नौकरी दे देंगे। वहां वह ऐसे कई लोगों से मिला जिनकी मेहनत देखकर चैनल उन्हें निकाल नहीं सका था और इंटर्नशिप दो महीने और बढ़ा दी गयी थी। कुछ अति मेहनती लोगों से चैनल दो-दो महीने पर तीन-चार बार प्रभावित हो चुका था। ख़ैर.........नायक ने पूरी हिम्मत से काम शुरू किया। हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-ख़ुदा।
क्या आपको भी लग रहा है कि प्रेम कहानी रास्ते से भटक गयी है, शुष्क और नीरस हो गयी है? क्षमा करें, सब कुछ इतनी जल्दी हो गया है कि मैं स्वयं हतप्रभ हूँ। ऐसे प्रश्न कहानी में आने ही नहीं चाहियें वरना मैंने देखा है कि एक समय ऐसा आता है जब पात्र इतने बेचैन हो जाते हैं कि कहानीकार की कलम की नोक से फिसल जाते हैं अपना प्रारब्ध ख़ुद लिखने लगते हैं। मैं निसंदेह आपका अपराधी हूं कि आपको विश्वास में लेकर इस प्रेम कथा का हिस्सा बनाया और इस समय मैं ही पूरी तरह नहीं अंदाज़ा लगा सकता कि आगे क्या होगा। पात्र मेरी पहुंच से बाहर हो गये हैं। वे क्या सोच रहे हैं, उनकी मनःस्थिति में कैसे बदलाव हो रहे हैं, शर्मिंदा हूं कि ये सब मैं नहीं पकड़ पा रहा हूं। फिर भी पात्र हैं तो मेरे सामने ही। आपको आश्वस्त करता हूं कि उनकी गतिविधियों को मिलाकर आपके समक्ष इस प्रेम कथा को पूरा तो करुंगा ही।
नायक आजकल बहुत परेशान है। इस चैनल में उससे कम से कम बारह घंटे काम लिया जाता है। सुबह नौ बजे पहुंचने के बाद वह रात नौ के बाद ही खाली हो पाता है। एक महीने पूरे होने को हैं और वह अपने दोस्तों के साथ एक बार भी फ़ुर्सत से नहीं बैठ पाया है (फ़ुर्सत से यानी मयबोतल) हालांकि बीच में मुलाकातें हुयी हैं। बातें भी हुयी हैं। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रेम से संबंधित कम बातें हुयी हैं। जिन तथ्यों के के इर्द-गिर्द बातें हुयी हैं उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं -
1. मीडिया (ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) में लड़कियां (ख़ासकर सुंदर लड़कियां) प्रतिभावान छात्रों के पेट पर रोज़ लात मार रहीं हैं।
2. मीडिया पूरे समाज पर नज़र रखता है। मीडिया की धांधलियों पर नज़र रखने के लिये कोई तगड़ा संगठन होना चाहिये।
3. चूंकि सत्ता का केंद्र दिल्ली है, यहां मीडिया में जगह पाना सबसे कठिन है।
4. यदि पत्रकारों पर स्टिंग ऑपरेशन किया जाये तो अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को भूमिगत होना पड़ेगा।
5. मीडिया में चमचागिरी और भाई-भतीजावाद सबसे ज़्यादा है।
6. मीडिया से आश्चर्यजनक रूप से उंचे पदों पर ज़्यादातर तथाकथित सवर्ण हैं जो भयंकर रूप से जातिवाद फैला रहे हैं।
7. पत्रकार बनने का मतलब सुंदर चेहरा और साफ़ आवाज़ बनकर ही क्यों रह गया है? हम पत्रकार बनना चाहते हैं, एंकर नहीं।
8. नायक ने नायिका को प्रपोज़ कर दिया है शालीन तरीके से, नायिका ने मना कर दिया है शालीन तरीके से, अब दोनों में बड़ी अच्छी दोस्ती पल्लवित हो रही है, शालीन तरीके से।
अंतिम तथ्य के बारे में जानकर नायक के मित्रों को भी आश्चर्य हुआ। नायक ने हिम्मत कर दी, इस पर तो उन्हें एक बार विश्वास भी हो जाय, पर इसके बाद भी दोनों की दोस्ती परवान चढ़ रही है, इस पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है। पर कहते हैं न कि प्रत्यक्षं किं प्रमाणं। उन्होंने देखा, सुना, महसूस किया और ईश्वर की लीला मानकर इसे स्वीकर कर लिया। हालांकि इसके बावजूद उसके सच्चे दोस्तों ने उसे विश्वास दिलाया कि इंकार ही इक़रार की पहली सीढ़ी है और अच्छी दोस्ती से ही प्यार की शुरूआत होती है। इसलिये नायक हिम्मत न हारे और अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद को प्राप्त कर के ही रहे।
इस बीच कई घटनायें हो चुकी हैं। कक्षा की तीन और लड़कियां नौकरी पा चुकी हैं। नायक के लिये एक अच्छी ख़बर यह है कि उसके क़रीबी मित्र शशि की मेधा और चाचा का जैक काम आया है उसे एक अच्छे चैनल में नौकरी मिल गयी है। यह शशि का आदर्श ’सबसे तेज़’ तो नही है पर इसके स्लोगन पर विश्वास करें तो यह भी कम तेज़ नहीं है और इसे सच दिखाने का जूनून है। मगर नायक यह सुन कर दुखी हुआ है कि शशि ने नौकरी पाते ही अपने उन उसूलों से समझौता कर लिया है जिनके कारण नायक उसकी बहुत इज़्जत करता था। आनंद को अपराध जैसी प्रमुख बीट दे दी गयी है और नायक पुनः यह जानकर दुखी हुआ है कि आनंद जिस हिम्मत से व्यवस्था की ख़ामियां दूर करने की बात करता था, उसकी जगह व्यवस्था की चाटुकारिता करने लगा है।
नायक को रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी कई घटनाओं का सामना करना पड़ा है जिसने उसे हिला कर रख दिया है। उस दिन एक नृशंस बलात्कार की रिपोर्टिंग करने के बाद नायक सीधा विभव के कमरे पर चला आया। वह बहुत परेशान था। विभव और विमल पहले से ही मौजूद थे। शशि कुछ देर में आने वाला था और आनंद को फोन करके बुला लिया गया। मैकडॉवल का एक खंबा और एक अद्धा लाया गया। सभी पीने बैठे। नायक बहुत देर से ख़ामोश था। ख़ामोश तो विमल भी था पर नायक से कम। हर बार की तरह विभव को भी न्यौता दिया गया और उसने शैम्पेन वाला तर्क देकर मना कर दिया।
रात गहराने लगी है। आनंद ने फ़्रेंच कट दाढ़ी की नींव डाली है और रह-रह कर दाढ़ी पर हाथ फेर ले रहा है। सभी तीन-तीन पैग ले चुके हैं पर कोई कुछ बोल नहीं रहा हैं। घूम फिर कर बात गिलास में कम या ज़्यादा पानी डालने को लेकर हो रही है। विभव भयभीत है। उसे चिंता है कि कहीं यह तूफ़ान के पहले वाली शांति तो नहीं। वह बात शुरू करने के लिये सबकी ओर देख कर कहता है, ’’एक बात पता है तुम लोगों को? विमल की एक अख़बार में नौकरी लग गयी है।’’
सभी आश्चर्य से विभव की ओर देखते हैं फिर विमल की ओर। विमल सकपका गया है। उसे उम्मीद नहीं थी कि विभव यह राज़ अचानक बता देगा जिसे वह सबसे छिपा रहा था। पर आख़िर ख़ुशी की बात वह सबसे छिपा ही क्यों रहा है?
’’ किस अख़बार में?’’ शशि पूछता है।
विमल चुप।
’’ किस अख़बार में बे?’’
विमल चुप जैसे बताने और न बताने में से निर्णय ले रहा हो।
’’ कौन सा अख़बार पकड़ा है लेखक महोदय?’’ नायक का कटाक्ष।
’’.............पांचजन्य।’’ विमल के जवाब से सन्नाटा छा गया है। सभी उसे ध्यान से देख रहे हैं कि यह वही विमल है या दूसरा।
’’ सारी आइडियोलॉजी हिक्.............गांड़ में घुस गयी साले।’’ और ये शशि हुआ आपे से बाहर।
’’ ऐ..........संसदीय भाषा नहीं। संसद में नहीं मेरे कमरे में बैठे हो।’’ विभव की फटकार।
’’ क्या करता.......? छोटे बड़े, हर चैनल, हर अख़बार में गया। सब जगह मादरचोद एक ही समस्या.......। जैक लगाओ, जैक लगाओ...हिक् अरे नहीं है मेरा हिक् जैक..........तो क्या करूं ? कहीं न कही हिक् तो...समझौता करना ही पड़ेगा हिक्.....। मेरे पिताजी अब पैसे नहीं भेज सकते हिक्........। उनकी पेंशन घर के लिये ही हिक्.......कम पड़ रही है। मैं घर का हिक्.....बड़ा बेटा हूं..........आइडियोलॉजी का क्या हिक् अचार....डालूंगा। ये कम से कम हिक् ढाई हज़ार तो हिक्.......दे रहे हैं। तीन महीने मेरा काम देखेंगे.........हिक्....पसंद आया तो स्थायी नियुक्ति कर पांच हज़ार कर देंगे....हिक् हिक्।’’ विमल ने बोलना बंद कर दिया है। ऐसा लगता है थोड़ी देर और बोला तो रो पड़ेगा।
सभी ख़ामोश हो गये हैं। ऐसा लगता है वे काफी बातें बिना कहे ही समझ गये है। नायक की आंखों की कोरों की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। वे थोड़ी गीली हैं। दो पैग और ख़त्म हो चुके हैं। सन्नाटा क़ायम है।
’’ अच्छा मुर्रू.......ये बताओ.....मेरी दोनों तरफ की मूछों में क्या अंतर है ?’’ आनंद का परम चुतियापे वाला बेतुका सवाल सन्नाटे में देर तक तैरता रहता है। नायक कभी उस सवाल को देखता है, कभी आनंद को, बोलता कुछ नहीं।
’’ अरे यार हिक्..............यही अंतर है कि दाँयी वाली दाढ़ी में मिल गयी है और बांयी वाली नहीं मिली......हिक्।’’ आनंद ख़ुद अपने बेतुके सवाल का जवाब देता है और अंगूठे व तर्जनी से दोनों तरफ की मूंछों को खींच कर नीचे दाढ़ी की तरफ ले जाता है।
’’ तुमने लाठी चार्ज वाली घटना में हिक्...पीड़ित पक्ष को ही दोषी दिखा दिया..ऐसा क्यों आनंद ?’’ नायक का प्रश्न।
आनंद अवाक् है। वह इन्हीं मुद्दों से बचना चाह रहा था।
’’ क्या करूं यार......न्यूज़ एडीटर का यही ऑर्डर था।’’ आनंद के स्वर में हताशा है।
’’ तुम्हारी नौकरी दो साल के कांट्रैक्ट पर है ना? तुम्हें कोई हिक् निकाल...... थोड़े ही सकता है। सच्चाई को क्यों दबाया तुमने? हमने तय किया था कि मीडिया में आयेंगे तो इसकी गंदगियां साफ करेंगे और हिक्......तुम साले ख़ुद.....गंदगी का हिक् हिस्सा बन गये। साले, झूठे......यही करने आये थे हम इस लाइन में............?’’
आनंद चुप है। शशि हस्तक्षेप करता है।
’’ जाने दो यार मुर्रू। टीवी पत्रकारिता में हिक्...यह सब चलता है हिक्....। हम अकेले क्या कर हिक् ......सकते हैं?’’
’’ क्या जाने दो.......क्या जाने दो........क्या चलता है हिक् ? तुम साले दिखाते हो कि हिक्......पुलिस एक्सीडेंट के तुरंत बाद पहुंची थी जबकि.....हिक्.....पुलिस पैसे लेकर बाद में पहुची थी। भोसड़ी के....बिकने लगे हो तुम लोग हिक्........बिकने लगे हो। यार विभव.......मैं नहीं कर सकता हिक्........ऐसी गंदी पत्रकारिता........।’’
विभव उसके पास आता है। उसे लगता है नायक ने बहुत ज़्यादा पी ली है। वह पत्रकारिता के संदर्भ में एक वाक्य कहता है जो उस दिन के बाद से दक्षिण परिसर के इतिहास में एक कोटेशन की तरह से प्रयोग किया जाता है।
’’ जाने दो मुरारी। आज की पत्रकारिता को शीघ्रपतन की बीमारी हो गयी है।’’ विभव ने अपनी समस्या अब तक किसी को नही बतायी। पर इसका पत्रकारिता के पतन से क्या ताल्लुक....?
’’ क्या हुआ यार, तुम रो क्यों रहे हो ?’’ विभव नायक की गीली आंखें देख लेता है।
’’ मैं तंग आ गया हूं विभव.......। कभी कत्ल.......कभी बलात्कार....मगर हिक् कहीं सही रिपोर्टिंग नहीं। हर जगह वही टीआरपी की लिचड़ई.....। मैं जान गया हूं यार.........मैं भोसड़ी का पत्रकार बनने के हिक्..... लायक ही नही हूं। मैं हिक् बहुत कमज़ोर इंसान हूं यार। आज हम एक बलात्कार हिक् की....रिपोर्टिंग करने गये थे.......। लड़की और उसके घरवाले कैमरे के सामने नहीं आना चाहते थे और हिक्...हम लोगों ने उससे ऐसे-ऐसे हिक् सवाल पूछे कि वह हिक् हिक्.......। यार हम लोगों ने उसका हिक् दुबारा बलात्कार......हिक् कर दिया और हिक् उसे प्रसारित भी हिक् किया। बड़े बलात्कारी तो...हिक् हम हैं यार। मैं बहुत कमज़ोर हूं यार......हिक्। मुझसे नहीं हिक् होगी......ऐसी पत्रकारिता।’’
’’ जाने दो मुरारी, दुनिया में बहुत गंदगी है। तुम यह क्षेत्र ही छोड़ देना। पर इसमें रोने वाली क्या बात है ?’’
’’ रो कौन रहा है साले.....चूतिया हो क्या ? मुझे तो बस गुस्सा आ रहा है।’’ नायक सामान्य दिखने की कोशिश में बहुत असामान्य दिखने लगा है। वह बहुत देर तक कुछ न कुछ बकता रहता है। विभव चूंकि नहीं पीता, सबसे बाद में टुन्न होने वाले से सिर चटवाना उसकी मजबूरी है। नायक सबसे बाद में सोया, विभव उसके बाद।
अगली सुबह जब नायक सोकर उठा तो आनंद व शशि ऑफ़िस जा चुके थे। विभव चाय बना रहा था और विमल अख़बार पढ़ रहा था। उसका मूड अप्रत्याशित रूप से ताज़ा और अच्छा था।
’’क्यों मुर्रू, नौकरी नहीं करोगे चैनल वाली........?’’ विभव ने चाय छानते हुये हंसी उछाली। हंसी में एक सवाल लिपटा था।
’’वाकई नहीं , कल रात मैं सीरियस था। ये टीआरपी वाली गंदगी मुझसे नहीं झेली जायेगी। प्रिण्ट में कोई अच्छा अख़बार मिला तो........मगर पांचजन्य नहीं।’’ नायक ने सवाल पकड़ लिया और हंसी वापस विमल की तरफ उछाल दी। विमल भी हंसा।
’’अगर अख़बार न मिला तो.......?’’ विभव ने चाय थमाते हुये पूछा।
’’तो क्या, टीचिंग लाइन में मेरे बहुत से दोस्त हैं। मास्टर डिग्री किस दिन काम आयेगी ? कहीं किसी प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा लूंगा पर विचारधारा से समझौता..........कभी नहीं।’’ अंतिम लाइन बोलते हुये नायक फिर विमल की ओर देखकर हंसा है।
’’कोई नयी कहानी लिखी है इधर लेखक महोदय ?’’ नायक पूछता है।
’’अब मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है।’’ विमल का इतना कहना है कि नायक ज़ोरों से हंसने लगा है- ’’अबे शुरू कब की थीं जो बंद कर दीं ? साले चार कहानियां क्या छप गयीं, चले हैं लेखक की झांट बनने।’’
दोनों हंसते हैं। विभव बाथरूम में घुस गया है। दोनों तैयार होकर अपने-अपने ठिकानों के लिये निकल जाते हैं। विभव भी किसी जैक के जुगाड़ में निकल लेता है। कहानी ख़त्म।
मुझे कहानी को जारी रखने में वाकई कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि यह प्रेम कहानी जिस ख़ूबसूरती से मैं ख़त्म करना चाहता था, वह अब संभव नहीं। कहानी मेरे हाथों से फिसल चुकी है। सभी पात्र मेरी बनायी लीक को तोड़ कर जाने कहां-कहां भटकने लगे हैं। पर चूंकि आपके मन में नायक की नौकरी और प्रेम के विषय में थोड़ी बहुत जिज्ञासा ज़रूर है, इसलिये मैं थोड़े बहुत तथ्य बता कर आपकी जिज्ञासा तो शांत कर ही दूं हालांकि कहानी के सफल होने के अवसर तो अब डूब ही गये हैं।
देखिये प्रेम प्रसंग का तो ऐसा है कि लड़के वाले नायिका को पसंद कर चुके हैं। नायक को जब यह बात पता चली तो वह हल्के से मुस्कराया। आप विक्रम की तरह इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते रहिये कि नायक क्यों मुस्कराया। क्या उसे किसी पीपल बरगद के नीचे बैठकर जीवन के सत्य का पता चल गया है? क्या जीवन के थपेड़ों ने उसकी समझ को अचानक बहुत प्रौढ़ कर दिया है? क्या यह प्रेम नहीं आकर्षण मात्र था? क्या...........? क्या............?
रही बात नौकरी की तो आजकल मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसी को काम तो आसानी से मिलता नहीं, ऐसे में कोई भला मिला मिलाया काम छोड़ता है? पर नायक चूंकि नायक है, वह छोड़ सकता है। सचमुच हिंदी फ़िल्में देखकर आपकी आदतें बहुत बिगड़ गयी हैं और अपेक्षाएं बहुत अवास्तविक हो गयी हैं। नायक टीआरपी की लड़ाई में मानवता भूल चुके इन चैनलों में काम करने में घुटन महसूस करता है, पर वह ये क्षेत्र ही छोड़ देगा, इसमें मुझे संदेह है। और क्या यह सही होगा कि अव्यवस्था और अराजकता की वजह से इंसान पलायन की राह पकड़ ले ? क्या इसकी जगह ये ठीक नहीं होगा कि नायक वहीं बना रहे, कुछ स्वयं को बदले और कुद व्यवस्था को बदलने का प्रयास करे। अपनी भावुकता को थोड़ा कम करे और सच्चाई के लिये लड़े। मैं वाकई कहानी को यहीं ख़त्म कर देना चाहता था क्योंकि इतना लम्बा लेक्चर देने के बावजूद मुझे यह अंदाज़ा नहीं कि नायक आगे क्या करेगा। पर कहानी सिर्फ़ आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं कि आपको ये प्रेम कहानी थोड़ी तो पसंद आये वरना मेरी पूरी मेहनत बेकार जायेगी।
कहानी चूंकि आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं, यह आपको थोड़ी पसंद आये, यह दबाव भी मुझ पर है, इसलिये यह स्वाभाविक है कि कहानी का यह अंश ऊपर से थोपा हुआ लगे, पर इसे असली अंश मानना ज़रूरी भी नहीं। यह मैं नहीं लिख रहा हूं, आप वही देख रहे हैं जो देखना चाहते हैं, वरना कोई लेखक अपने नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ दिखा कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा ?
कुछ महीनों बाद नायक अचानक कनॉट प्लेस पर विमल से मिल रहा है। बीच की काफी सारी औपचारिक बातें आपसे इजाज़त लेकर काट देता हूं।
विमल- तो क्या चैनल छोड़ दिया? तुम्हारी नौकरी तो दो महीने बाद स्थायी हो गयी थी न?
नायक (मुस्कराते हुये)- हां, हो गयी थी, पर छोड़ दी।
विमल- यार तुम्हारे हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। अब क्या कर रहे हो? ( इसी बीच विमल ने शीतल पेय की दो बोतलें ख़रीद ली हैं)
नायक- एक डिग्री कॉलेज में अस्थाई तौर पर पढ़ा रहा हूं। तुम्हीं कहते थे न कि मेरा नाम अध्यापक बनने के लिये सर्वोत्तम है। ( नायक ने अपनी बोतल नायिका के दिये हुये चाबीरिंग से खोली है जिसके पीछे ओपनर लगा है और रिंग विमल की ओर बढ़ा दिया है)
विमल (उसी रिंग से बोतल खोलते हुये)- बहुत अच्छे यार। कितने पैसे मिल जाते हैं?
नायक - लगभग नौ हज़ार।
विमल ( उसकी आंखें इतनी फैल गयी हैं कि पुतलियां बाहर चू जाने का ख़तरा हो गया है) नौऽऽऽऽऽऽऽऽऽ हज़ार????
नायक (मुस्कराते हुये)- पूरा कैश नहीं। साढ़े चार हज़ार तनख़्वाह है और लगभग उतने की ही इज़्ज़त। दिन भर लड़के-लड़कियां सर-सर कहके प्रणाम करते रहते हैं। तुम क्या कर रहे हो? पांचजन्य में ही हो? कहानियां फिर से लिखनी शुरू कर दो। एक से एक घूरहू कतवारू हाथ पांव मार रहे हैं। तुम भी हाथ पांव मारते रहा करो।
विमल (अब मुस्कराने की बारी उसकी है)- पांचजन्य छोड़ दिया गुरू। एक साप्ताहिक लोकल अख़बार पकड़ा है और दो ट्यूशन्स। कहानी तो लिख ही रहा हूं। उसके बिना जी ही नहीं सकता। बल्कि तुम्हें जानकर ख़ुशी होगी कि आजकल जो कहानी लिख रहा हूं वह अपने मतलब हमारे जीवन के ऊपर है।
नायक- सच ? छप जाय तो पढ़वाना।
विमल- हाँ, हाँ बिल्कुल। अच्छा वेदिका की शादी तय हो रही थी। क्या हुआ ?
नायक - हां, दो महीने बाद है। कार्ड पहुंचाने का ज़िम्मा मेरा ही होगा। उसने पहले ही कह दिया है। हम अच्छे दोस्त हैं आख़िर.......।
विमल (हंसते हुये)- यानी साले, तुम्हारा प्रेम असफल और अधूरा ही रह गया?
नायक (उससे भी तेज़ हंसते हुये)- अरे तुम्हीं तो कहा करते हो कि असफल प्रेम ही जीवित रहता है। लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, हीर-रांझा की तरह शायद मुरारी-वेदिका का नाम भी.........।
दोनों हंसते हैं। उसके बाद दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गये होंगे।
अब शायद आपको अच्छा लगा होगा। ओह.......अब भी नहीं। मैं पहले ही समझ गया था कि पूरी कहानी पढ़ने के बाद आप यही कहेंगे- छछेः, ये भी कोई प्रेम कहानी है?