Monday, June 29, 2009

उस रात की गंध - धीरेन्द्र अस्थाना

कहानी को समर्पित अंतर्राष्ट्रीय सम्मान कथा (यू॰के॰) से सम्मानित कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना की एक कहानी 'उस धूसर सन्नाटे में' आप पढ़ चुके हैं। अभी मुश्किल से 15 दिनों पहले धीरेन्द्र के नवीनतम उपन्यास 'देश निकाला' का लोकार्पण मुम्बई में सम्पन्न हुआ। आज पढ़िए धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी 'उस रात की गंध'.


उस रात की गंध


लड़की मेरी आंखों में किसी अश्लील इच्छा की तरह नाच रही थी।
‘पेट्रोल भरवा लें।‘ कह कर कमल ने अपनी लाल मारुति जुहू बीच जाने वाली सड़क के किनारे बने पेट्रोल पंप पर रोक दी थी और दरवाजा खोल कर बाहर उतर गया था।
शहर में अभी-अभी दाखिल हुए किसी अजनबी के कौतुहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर थिर थीं कि उन नजरों में एक टैक्सी उभर आई। टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और वह लड़की बाहर निकली। उसने बिल चुकाया और पर्स बंद किया। टैक्सी आगे बढ़ गई। लड़की पीछे रह गई।
यह लड़की है? विस्मय मेरी आंख से कोहरे सा टपकने लगा।
मैं कार से बाहर आ गया।
कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह निःशब्द और गतिहीन। कार की छत बताती थी कि कोहरा गिरने लगा है। मैंने घड़ी देखी। रात के साढ़े दस बजने जा रहे थे।
रात के साढ़े दस बजे मैं कोहरे में चुपचाप भीगती लड़की को देखने लगा। घुटनों से बहुत बहुत ऊपर रह गया सफेद स्कर्ट और गले से बहुत-बहुत नीचे चला आया सफेद टॉप पहने वह लड़की उसे गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रौशनी की तरह चमक रही थी। अपनी सुडौल, चिकनी और आकर्षक टांगों को वह जिस लयात्मक अंदाज में एक दूसरे से छुआ रही थी उसे देख कोई भी फिसल पड़ने को आतुर हो सकता था।
जैसे कि मैं। लेकिन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन सा खिंचने को था, कमल गाड़ी में आ बैठा। न सिर्फ आ बैठा बल्कि उसने गाड़ी भी स्टार्ट कर दी।
मैं चुपचाप कमल के बगल में आ बैठा और तंद्रिल आवाज में बोला, ‘लड़की देखी?‘
‘लिफ्ट चाहती है।‘ कमल ने लापरवाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा।
‘पर यह अभी अभी टैक्सी से उतरी है।‘ मैंने प्रतिवाद किया।
‘लिफ्ट के ही लिए।‘ कमल ने किसी अनुभवी गाइड की तरह किसी ऐतिहासिक इमारत के महत्वपूर्ण लगते तथ्य के मामूलीपन को उद्घाटित करने वाले अंदाज में बताया और गाड़ी सड़क पर ले आया।
‘अरे, तो उसे लिफ्ट दो न यार!‘ मैंने चिरौरी सी की।
जुहू बीच जाने वाली सड़क पर कमल ने अपनी लाल मारुति सर्र से आगे बढ़ा दी और लड़की के बगल से निकल गया। मेरी आंखों के हिस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल आए। मैंने पीछे मुड़ कर देखा-लड़की जल्दी में नहीं थी और किसी-किसी कार को देख लिफ्ट के लिए अपना हाथ लहरा देती थी।
‘अपन लिफ्ट दे देते तो...‘ मेरे शब्द अफसोस की तरह उभर रहे थे।
‘माई डियर! रात के साढ़े दस बजे इस सुनसान सड़क पर, टैक्सी से उतर कर यह जो हसीन परी लिफ्ट मांगने खड़ी है न, यह अपुन को खलास भी करने को सकता। क्या?‘ कमल मवालियों की तरह मुस्कराया।
अपने पसंदीदा पॉइंट पर पहुंच कर कमल ने गाड़ी रोकी।
दुकानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट निर्जन था। समुद्र वापस जा रहा था।
‘दो गिलास मिलेंगे?‘ कमल ने एक दुकानदार से पूछा।
‘नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पन ठंडा चलेगा। दूर...समंदर में जा के पीने का।‘ दुकानदार ने रटा-रटाया सा जवाब दिया। उस जवाब में लेकिन एक टूटता सा दुख और साबुत सी चिढ़ भी शामिल थी।
‘क्या हुआ?‘ कमल चकित रह गया। ‘पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेवड़े कहां चले गए?‘
‘पुलिस रेड मारता अब्बी। धंधा खराब कर दिया साला लोक।‘ दुकानदार ने सूचना दी और दुकान के पट बंद करने लगा। बाकी दुकानें भी बुझ रही थीं।
‘कमाल है?‘ कमल बुदबुदाया, ‘अभी छह महीने पहले तक शहर के इंटलैक्चुअल यहीं बैठे रहते थे। वो, उस जगह। वहां एक दुकान थी। चलो।‘ कमल मुड़ गया, ‘पाम ग्रोव वाले तट पर चलते हैं।‘
हम फिर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था कि आज देर रात तक मस्ती मारेंगे, अगले दिन इतवार था-दोनों का अवकाश। फिर, हम करीब महीने भर बाद मिल रहे थे-अपनी-अपनी व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे कि अपनी-अपनी बदहवासी और बेचैनी को समुद्र में डुबो दिया जाए आज की रात। समुद्र किनारे शराब पीने का कार्यक्रम इसीलिए बना था।
गाड़ी के रुकते ही दो-चार लड़के मंडराने लगे। कमल ने एक को बुलाया, ‘गिलास मिलेगा?‘
‘और?‘ लड़का व्यवसाय पर था।
‘दो सोडे, चार अंडे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।‘ कमल ने आदेश प्रसारित कर दिया।
थोड़ी ही दूरी पर पुलिस चैकी थी, भय की तरह लेकिन मारुति की भव्यता उस भय के ऊपर थी। सारा सामान आ गया था। हमने अपना डीएसपी का हाफ खोल लिया था।
दूर तक कई कारें एक दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं-मयखानों की शक्ल में। किसी किसी कार की पिछली सीट पर कोई नवयौवना अलमस्त सी पड़ी थी-प्रतीक्षा में।
सड़क पर भी कितना निजी है जीवन। मैं सोच रहा था और देख रहा था। देख रहा था और शहर के प्यार में डूब रहा था। आइ लव बांबे। मैं बुदबुदाया। किसी दुआ को दोहराने की तरह और सिगरेट सुलगाने लगा। हवा में ठंडक बढ़ गई थी।
कमल को एक फिलीस्तीनी कहानी याद आ गई थी, जिसका अधेड़ नायक अपने युवा साथी से कहता है -‘तुम अभी कमसिन हो याकूब, लेकिन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे कि सब औरतें एक जैसी होती हैं, कि आखिरकार उनमें कोई फर्क नहीं होता। इस बात को मत सुनना क्योंकि यह झूठ है। हरेक औरत का अपना स्वाद और अपनी खुशबू होती है।‘
‘पर यह सच नहीं है यार।‘ कमल कह रहा था, ‘इस मारुति की पिछली सीट पर कई औरतें लेटी हैं, लेकिन जब वे रुपयों को पर्स में ठूँसती हुई, हंसकर निकलती हैं, तो एक ही जैसी गंध छोड़ जाती हैं। बीवी की गंध हो सकता है, कुछ अलग होती हो। क्या खयाल है तुम्हारा?‘
मुझे अनुभव नहीं था। चुप रहा। बीवी के नाम से मेरी स्मृति में अचानक अपनी पत्नी कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी-इस इंतजार में कि एक दिन मुझे यहां रहने के लिए कायदे का घर मिल जाएगा और तब वह भी यहां चली आएगी। अपना यह दुख याद आते ही शहर के प्रति मेरा प्यार क्रमशः बुझने लगा।
हमारा डीएसपी का हाफ खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याद आई। गाड़ी बंद कर हमने पैसे चुकाए तो सर्विस करने वाला छोकरा बायीं आंख दबा कर बोला, ‘माल मंगता है?‘
‘नहीं!‘ कमल ने इनकार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट रहा था। लड़का अभी तक चिपका हुआ था।
‘छोकरी जोरदार है सेठ। दोनों का खाली सौ रुपए।‘
‘नई बोला तो?‘ कमल ने छोकरे को डपट दिया। तट निर्जन हो चला था। परिवार अपने अपने ठिकानों पर लौट गए थे। दूर...कोई अकेला बैठा दुख सा जाग रहा था।
‘जुहू भी उजड़ गया स्साला।‘ कमल ने हवा में गाली उछाली और हल्का होने के लिए दीवार की तरफ चला गया-निपट अंधकार में।
तभी वह औरत सामने आ गई। बददुआ की तरह।
‘लेटना मांगता है?‘ वह पूछ रही थी।
एक क्वार्टर शराब मेरे जिस्म में जा चुकी थी। फिर भी मुझे झुरझुरी सी चढ़ गई।
वह औरत मेरी मां की उम्र की थी। पूरी नहीं तो करीब-करीब।
रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गवाही में, उस औरत के सामने मैंने शर्म की तरह छुपने की कोशिश की लेकिन तुरंत ही धर लिया गया।
मेरी शर्म को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़ अपने वक्ष पर रखते हुए वह फुसफुसायी, ‘एकदम कड़क है। खाली दस रुपिया देना। क्या? अपुन को खाना खाने का।‘
‘वो...उधर मेरा दोस्त है।‘ मैं हकलाने लगा।
‘वांदा नईं। दोनों ईच चलेगा।‘
‘शटअप।‘ सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा-कार की तरफ। कार की बॉडी से लग कर मैं हांफने लगा-रौशनी में। पीछे, समुद्री अंधेरे में वह औरत अकेली छूट गई थी-हतप्रभ। शायद आहत भी। औरत की गंध मेरे पीछे-पीछे आई थी। मैंने अपनी हथेली को नाक के पास ला कर सूंघा-उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी।
‘क्या हुआ?‘ कमल आ गया था।
‘कुछ नहीं।‘ मैंने थका-थका सा जवाब दिया, ‘मुझे घर ले चलो। आई...आई हेट दिस सिटी। कितनी गरीबी है यहां।‘
‘चलो, कहीं शराब पीते हैं।‘ कमल मुस्कराने लगा था।

×××

तीन फुट ऊंचे, संगमरमर के फर्श पर, बहुत कम कपड़ों में, चीखते आर्केस्ट्रा के बीच वह लड़की हँस-हँस कर नाच रही थी। बीच-बीच में कोई दस-बीस या पचास का नोट दिखाता था और लड़की उस ऊंचे, गोल फर्श से नीचे उतर लहराती हुई नोट पकड़ने के लिए लपक जाती थी। कोई नोट उसके वक्ष में ठूंस देता था, कोई होठों में दबा कर होठों से ही लेने का आग्रह करता था और नोट बड़ा हो तो लड़की एक या दो सैकेंड के लिए गोद में भी बैठ जाती थी। उत्तेजना वहां शर्म पर भारी थी और वीभत्स मुस्कराहटों के उस बनैले परिदृश्य में सहानुभूति या संवेदना का एक भी कतरा शेष नहीं बचा था। पैसे के दावानल में लड़की सूखे बांस सी जल रही थी।
उस जले बांस की गंध से कमरे का मौसम लगातार बोझिल और कसैला होता जा रहा था। मैं उठ खड़ा हुआ। ‘नीचे बैठेंगे।‘ मैंने अल्टीमेटम सा दिया।
‘क्यों?‘
‘मुझे लगता है, लड़की मेरी धमनियों में विलाप की तरह उतर रही है।‘
‘शरीफ बोले तो? चुगद!‘ कमल ने कहकहा उछाला और हम सीढ़ियां उतरने लगे।
नीचे वाले हाॅल का एक अंधेरा कोना हमने तेजी से थाम लिया, जहां से अभी अभी कोई उठा था-दिन भर की थकान, चिढ़, नफरत और क्रोध को मेज पर छोड़कर-घर जाने के लिए।
मुझे घर याद आ गया। घर यानी मालाड के एक सस्ते गैस्ट हाउस का दस बाई दस का वह उदास कमरा जहां मैं अपनी आक्रामक और तीखी रातों से दो-चार होता था। मुझे लगा, मेरी चिट्ठी आई होगी वहां, जिसमें पत्नी ने फिर पूछा होगा कि ‘घर कब तक मिल रहा है यहां?‘
मैं फिर बार में लौट आया। हमारी मेज पर जो लड़की शराब सर्व कर रही थी, वह खासी आकर्षक थी। इस अंधेरे कोने में भी उसकी सांवली दमक कौंध कौंध जाती थी।
डीएसपी के दो लार्ज हमारी मेज पर रख कर, उनमें सोडा डाल वह मुस्कराई, ‘खाने को?‘
‘बाॅइल्ड एग‘, कमल ने उसके उभारों की तरफ इशारा किया।
‘धत्त।‘ वह शर्मा गयी और काउंटर की तरफ चली गई।
‘धांसू है न?‘ कमल ने अपनी मुट्ठी मेरी पीठ पर मार दी।
‘हां। चेहरे में कशिश है।‘ मैं एक बड़ा सिप लेने के बाद सिगरेट सुलगा रहा था।
‘सिर्फ चेहरे में?‘ कमल खिलखिला दिया।
मुझे ताज्जुब हुआ। हर समय खिलखिलाना इसका स्वभाव है या इसके भीतरी दुख बहुत नुकीले हो चुके हैं? मैंने फिर एक बड़ा सिप लिया और बगल वाली मेज को देखने लगा जहां एक खूबसूरत सा लड़का गिलास हाथ में थामे अपने भीतर उतर गया था। किसी और मेज पर शराब सर्व करती एक लड़की बीच बीच में उसे थपथपा देती थी और वह चैंक कर अपने भीतर से निकल आता था। लड़की की थपथपाहट में जो अवसाद ग्रस्त आत्मीयता थी उसे महसूस कर लगता था कि लड़का ग्राहक नहीं है। इस लड़के में जीवन में कोई पक्का सा, गाढ़ा सा दुख है। मैंने सोचा।
‘इस बार में कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।‘ कमल के भीतर सोया गाइड जागने लगा, ‘फाइट सीन ऊपर होते हैं, सैड सीन नीचे।‘
‘हम दुखी दृश्य के हिस्से हैं?‘ मैंने पूछा और कमल फिर खिलखिलाने लगा।
शराब खत्म होते ही लड़की फिर आ गई।
‘रिपीट।‘ कमल ने कहा, ‘बॉइल्ड एग का क्या हुआ?‘
‘धत्त।‘ लड़की फिर इठलाई और चली गई।
उसके बाद मैं ध्वस्त हो गया। मैंने कश लिया और लड़की का इंतजार करने लगा।
लड़की फिर आई। वह दो लार्ज पैग लाई थी। बॉइल्ड एग उसके पीछे-पीछे एक पुरुष वेटर दे गया।
अंडों पर नमक छिड़कते समय वह मुस्करा रही थी। सहसा मुझसे उसकी आंख मिली।
‘अंडे खाओगी?‘ मैंने पूछा।
मैंनेे ऐसा क्यों पूछा होगा? मैंने सोचा। मैं भीतर से किसी किस्म के अश्लील उत्साह से भरा हुआ नहीं था। तो फिर?
तभी लड़की ने अपनी गर्दन ‘हां‘ में हिलायी, मेरे भीतर एक गुमनाम, अजाना सा सुख तिर आया।
‘ले लो।‘ मैंने कहा।
उसने एक नजर काउंटर की तरफ देखा फिर चुपके से दो पीस उठाकर मुंह में डाल लिए। अंडे चबा कर वह बोली, ‘यहां का चिली चिकन बहुत टेस्टी है, मंगवाऊ?‘
‘मंगवा लो।‘ जवाब कमल ने दिया, ‘बहुत अच्छी हिंदी बोलती हो। यूपी की हो?‘
लड़की ने जवाब नहीं दिया। तेजी से लौट गई। मुझे लगा, कमल ने शायद उसके किसी रहस्य पर उंगली रख दी है।
चिली चिकन के पीछे पीछे वह फिर आई। इस बार अपनी साड़ी की किसी तह में छिपा कर वह एक कांच का गिलास भी लाई थी।
‘थोड़ी सी दो न?‘ उसने मेरी आंखों में देखते हुए बड़े अधिकार और मान भरे स्वर में कहा। उसके शब्दों की आंच में मेरा मन तपने लगा। मुझे लगा, मैं इस लड़की के तमाम रहस्यों को पा लूंगा। मैंने काउंटर की तरफ देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। दरअसल उस वक्त मैं लड़की को तमाम तरह की आपदाओं से बचाने की इच्छा से भर उठा था। अपनी सारी शराब उसके गिलास में डाल कर मैं बोला, ‘मेरे लिए एक और लाना।‘
एक सांस में पूरी शराब गटक कर और चिकन का एक टुकड़ा चबा कर वह मेरे लिए शराब लेने चली गई। उसका खाली गिलास मेज पर रह गया। मैं चोरों की तरह, गिलास पर छूटे रह गए उसके हांेठ अपने रूमाल से उठाने लगा।
‘भावुक हो रहे हो।‘ कमल ने टोका। मैंने चैंक कर देखा, वह गंभीर था।
हमारे दो लार्ज खत्म करने तक, हमारे खाते में वह भी दो लार्ज खत्म कर चुकी थी। मैंने ‘रिपीट‘ कहा तो वह बोली, ‘मैं अब नहीं लूंगी। आप तो चले जाएंगे। मुझे अभी नौकरी करनी है।‘
मेरा नशा उतर गया। धीमे शब्दों में उच्चारी गयी उसकी चीख बार के उस नीम अंधेरे में कराह की तरह कांप रही थी।
‘तुम्हारा पति नहीं है?‘ मैंने नकारत्मक सवाल से शुरूआत की, शायद इसलिए कि वह कुंआरी लड़की का जिस्म नहीं था, न उसकी महक ही कुंवारी थी।
‘मर गया।‘ वह संक्षिप्त हो गई-कटु भी। मानो पति का मर जाना किसी विश्वासघात सा हो।
‘इस धंधे में क्यों आ गई?‘ मेरे मुंह से निकल पड़ा। हालांकि यह पूछते ही मैं समझ गया कि मुझसे एक नंगी और अपमानजनक शुरूआत हो चुकी है।
‘क्या करती मैं?‘ वह क्रोधित होने के बजाय रूआंसी हो गई, ‘शुरू में बर्तन मांजे थे मैंने, कपड़े भी धोए थे अपने मकान मालिक के यहां। देखो, मेरे हाथ देखो।‘ उसने अपनी दोनों हथेलियां मेरी हथलियों पर रगड़ दीं। उसकी हथेलियां खुरदुरी थीं-कटी फटी।
‘इन हथेलियों का गम नहीं था मुझे जब आदमी ही नहीं रहा तो...‘ वह अपने अतीत के अंधेरे में खड़ी खुल रही थी, ‘बर्तन मांज कर जीवन काट लेती मैं लेकिन वहां भी तो...‘ उसने अपने होठ काट लिए। उसे याद आ गया था कि वह ‘नौकरी‘ पर है और रोने के लिए नहीं, हंसने के लिए रखी गई है।
‘और पीने का?...‘ वह पेशेवर हो गई। कठोर भी।
‘मैं तुम्हारे हाथ चूम सकता हूं?‘ मैंने पूछा।
‘हुंह।‘ लड़की ने इतनी तीखी उपेक्षा के साथ कहा कि मेरी भावुकता चटख गई। लगा कि एक लार्ज और पीना चाहिए।
अपमान का दंश और शराब की इच्छा लिए, लेकिन मैं उठ खड़ा हुआ और कमल का हाथ थाम बाहर चला आया। पीछे, अंधेरे कोने वाली मेज पर, चिली चिकन की खाली प्लेट के नीचे सौ-सौ के तीन नोट देर तक फड़फड़ाते रहे-उस लड़की की तरह।
बाहर आकर गाड़ी के भीतर घुसने पर मैंने पाया-उस लड़की की गंध भी मेरे साथ चली आई है। मैंने अपनी हथेलियां देखीं-लड़की मेरी हथेलियों पर पसरी हुई थी।

×××

पता नहीं कहां कहां के चक्कर काटते हुए जब हम रुके तो मारुति खार स्टेशन के बाहर खड़ी थी। रात का सवा बज रहा था।
कह नहीं सकता कि रात भर बाहर रहने का कार्यक्रम तय करने के बावजूद हम स्टेशन पर क्यों आ गए थे। शायद मैं थक गया था। या शायद घबरा गया था। या फिर शायद अपने कमरे के एकांत में पहुंच कर चुपचाप रोना चाहता था। जो भी हो, हम स्टेशन के बाहर थे-एक-दूसरे से विदा होने का दर्द थामे।
उसी समय कमल के ठीक बगल में, खिड़की के बाहर, एक आकृति उभर आई। वह एक दीन-हीन बुढ़िया थी। बदतमीज होंठों से निकली भद्दी गाली की तरह वह हमारे सामने उपस्थित हो गई थी और गंदे इशारे करने लगी थी।
मुझे उबकाई आने लगी।
‘क्या चाहिए?‘ कमल ने हंस कर पूछा।
‘चार रुपए।‘
‘एकदम चार। क्यों भला?‘
‘दारू पीने का है, दो मेरे वास्ते, दो उसके वास्ते,‘ बुढ़िया ने एक अंधेरे कोने की तरफ इशारा किया।
‘वौ कौन?‘ कमल पूछ रहा था।
‘छक्का है। मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने इशारे से भी बताया कि उसका साथी हिजड़ा है।
‘बच्चा नहीं तेरे को?‘ कमल ने पूछा।
‘हैं न!‘ बुढ़िया की आंखें चमकने लगीं, ‘लड़की है। उसकी शादी हो गई माहीम की झोंपड़पट्टी में। लड़का चला गया अपनी घरवाली को लेकर। धारावी में धंधा है उसका।‘
‘तेरे को सड़क पर छोड़ गए?‘ मेरी ऊब के भीतर एक कौतुहल ने जन्म लिया, ‘पति क्या हुआ तेरा?‘
‘बुड्ढा परसोईं मरेला है। पी के कट गया फास्ट से, उधर दादर में। अब्बी मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने फिर अपने साथी की तरफ इशारा किया और पिंड छुड़ाती सी बोली, ‘अब्बी चार रुपिया दे न! ‘
‘तेरा घर नहीं है?‘ कमल ने पर्स निकाल कर चार रुपए बाहर निकाले।
‘अख्खा बंबई तो अपना झोंपड़पट्टी है।‘ बुढ़िया ने ऐसे अभिमान में भर कर कहा कि उसके जीवट पर मैं चैंक उठा। कमल के हाथ से रुपए छीन बुढ़िया अपने साथी की तरफ फिसल गई, जो एक झोंपड़ी के पास खड़ा था-प्रतीक्षातुर।
मैं पेशाब करने उतरा। झोंपड़ी किनारे अंधेरे में मैं हल्का होने लगा।
झोंपड़ी के भीतर बुढ़िया और उसका साथी कच्ची शराब खरीद कर पी रहे थे। बुढ़िया अपने साथी से कह रही थी, ‘खाली पीली रौब नईं मारने का। अपुन भी तेरे को पिला सकता, क्या? ओ कार वाले सेठ ने दिया। रात रात भर कार में घूमता साला लोक, रहने को घर नईं साला लोक के पास और अपनु से पूछता, तेरे को सड़क पे छोड़ गए क्या?‘ बुढ़िया मेरा मजाक उड़ा रही थी।
दारू गटक कर दोनों एक दूसरे के गले में बांहें डाले, झूमते हुए झोंपड़ी के बाहर आ रहे थे।
‘थू!‘ बुढ़िया ने सड़क पर ढेर सा बलगम थूक दिया और कड़वाहट से बोली, ‘चार रुपिया दे के साला सोचता कि अपुन को खरीद लिया।‘
मैं अभी तक अंधेरे में था, हतप्रभ। मारुति को अभी तक खड़े देख बुढ़िया ठिठकी फिर अपने साथी से बोली, ‘वो देख गाड़ी अब्बी भी खड़ेला है। मैं तेरे को बोली न, घर नईं साला लोक के पास।‘
‘सच्ची बोली रे तू।‘ बुढ़िया के साथी ने सहमति जतायी और दोनों हंसते हुए दूसरी तरफ निकल गए।
कलेजा चाक हो चुका था। खून से लथ-पथ मैं मारुति की तरफ बढ़ा। बाहर खड़े खड़े ही मैंने अपना निर्जीव हाथ कमल के हाथ में दिया और फिर तेजी से दौड़ पड़ा प्लेटफार्म की तरफ।
‘क्या हुआ? सुनो!‘ कमल चिल्लाया मगर तब तक मैं ट्रेन के पायदान पर लटक गया था।
सीट पर बैठ कर अपनी उनींदी और आहत आंखें मैंने छत पर चिपका दीं। और यह देख कर डर गया कि ट्रेन की छत से बुढ़िया की गंध लटकी हुई थी।
मैंने घबरा कर अपनी हथेलियां देखीं-अब वहां बुढ़िया नाच रही थी।
(रचनाकाल: मार्च 1991)

Monday, June 15, 2009

पीर पराई - विभा रानी

छापक पेड़ छिहुलिया त' पतवन धन बन हो
रामा तेही तर ठाढि़ हरिनिया त' मन अति अनमन हो

हिरणी का कलेजा कसक उठा - तो आज हमारे बालक का अंतिम विदाई है। आज के बाद हमारा बालक हमारा नहीं रह जाएगा। उसका मन चीत्कार कर उठा -"बचवा रे s s s s।" उसकी चीत्कार पूरे जंगल में सन्नाटा पसार गई- भांय-भायं जैसा अजीब सन्नाटा। चीखें भी मौन को इसतरह बढ़ाती हैं, यह उलटबांसी उसकी समझ में नहीं आई। अपनी चीख से वह खुद ही तनिक सहम सी गई। इधर उसके चीत्कार से जंगल के हरे-भरे पेड़ मौलकर (मुर्झाकर) अपनी पत्तियों की नोकें नीची कर बैठे- "सुन री बहिनी, हम इतना ही कर सकते हैं। तेरे सोग के भागीदार बने हैं, मगर इससे जि़यादे की औकात नहीं।" कल-कल बहती नदियों ने अपनी किलोलें रोक दीं और बर्फ़ जैसी हो गई- ठंढी, बेजान, निस्पन्द। मन्द समीर यूँ स्थिर हो गया, जैसे हिरणी उनके आगे बढ़ने के रास्ते में साक्षात आ गिरी हो, जिसे लांघकर जाना उसके बस में नहीं।

विभा रानी (लेखक- एक्टर- सामाजिक कार्यकर्ता)

बहुआयामी प्रतिभा की धनी विभा रानी राष्ट्रीय स्तर की हिन्दी व मौथिली की लेखिका, अनुवादक, थिएटर एक्टर, पत्रकार हैं, जिनकी दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं व रचनाएं कई किताबों में संकलित हैं। इन्होंने मैथिली के 3 साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों की 4 किताबें "कन्यादान" (हरिमोहन झा), "राजा पोखरे में कितनी मछलियां" (प्रभास कुमार चौधरी), "बिल टेलर की डायरी" व "पटाक्षेप" (लिली रे) हिन्दी में अनूदित की हैं। समकालीन विषयों, फ़िल्म, महिला व बाल विषयों पर गंभीर लेखन इनकी प्रकृति रही है। रेडियो की स्वीकृत आवाज़ के साथ इन्होंने फ़िल्म्स डिविजन के लिए डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में, टीवी सीरियल्स लिखे व वॉयस ओवर के काम किए हैं। मिथिला के 'लोक' पर गहराई से काम करते हुए 2 लोक कथाओं की पुस्तकों "मिथिला की लोक कथाएं" व "गोनू झा के किस्से" के प्रकाशन के साथ साथ मिथिला के रीति-रिवाज, लोक गीतों, खान-पान आदि का वृहत खज़ाना इनके पास है। हिन्दी में इनके दो कहानी संग्रह "बन्द कमरे का कोरस" व "चल खुसरो घर आपने" तथा मैथिली में एक कहानी संग्रह "खोह स' निकसइत" है। इनका लिखा नाटक 'दूसरा आदमी, दूसरी औरत' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह भारंगम में प्रस्तुत किया जा चुका है। नाटक 'पीर पराई' का मंचन, 'विवेचना', जबलपुर द्वारा देश भर में किया जा रहा है। अन्य नाटक 'ऐ प्रिये तेरे लिए' का मंचन मुंबई व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम' का मंचन फ़िनलैंड व राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव, रायपुर में होने के बाद अभी मुंबई में किया जा रहा है। 'आओ तनिक प्रेम करें' को 'मोहन राकेश सम्मान' से सम्मानित किया गया तथा इसका मंचन श्रीराम सेंटर, नई दिल्ली में किया गया। "अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो" को भी 'मोहन राकेश सम्मान' के लिए चयनित किया गया। ये दोनों नाटक पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हैं। मौथिली में लिखे नाटक "भाग रौ" और "मदद करू संतोषी माता" हैं।

विभा ने 'दुलारीबाई', 'सावधान पुरुरवा', 'पोस्टर', 'कसाईबाड़ा', जैसे नाटकों के साथ-साथ फ़िल्म 'धधक' व टेली -फ़िल्म 'चिट्ठी' में काम किया है। नाटक 'मि. जिन्ना' व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम', 'बालचन्दा' (एकपात्रीय नाटक) इनकी ताज़ातरीन प्रस्तुतियां हैं।

'एक बेहतर विश्व- कल के लिए' की परिकल्पना के साथ विभा 'अवितोको' नामक बहुउद्देश्यीय संस्था के साथ जुड़ी हुई हैं, जिसका अटूट विश्वास 'थिएटर व आर्ट- सभी के लिए' पर है। 'रंग जीवन' के दर्शन के साथ कला, रंगमंच, साहित्य व संस्कृति के माध्यम से समाज के 'विशेष' वर्ग, यथा, जेल, वृद्धाश्रम, अनाथालय, 'विशेष' बच्चों के बालगृहों आदि के बीच सार्थक हस्तक्षेप किया है। यहां ये नियमित थिएटर व पेंटिंग वर्कशॉप करती हैं। इनके अलावा कॉर्पोरेट जगत से लेकर मुख्य धारा के लोगों व बच्चों के लिए कला व रंगमंच के माध्यम से विविध विकासात्मक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं।

प्रतिष्ठित 'कथा अवार्ड' सहित कई पुरस्कार, जैसे, घनश्यामदास साहित्य सम्मान, डॉ. माहेश्वरी सिंह 'महेश' सम्मान, 'मोहन राकेश सम्मान' के अलावा इंडियन ऑयल के 'विमेन अचीवर अवार्ड' व दो बार 'सर्वोत्तम सुझाव' सम्मान विभा के हिस्से में हैं।

सामाजिक व साहित्यिक परिदृश्य पर काम करते हुए विभा मानती हैं- "मैं अपने चरित्र इस समाज से ही लेती हूं। ये सभी वास्तविक लोग हैं, जिन्हें मैं अपनी कल्पना के साहारे एक नए रूप में ढालती हूं। लेकिन एक दिन मुझे लगा कि इन चरित्रों को अपनी कथाओं आदि में लेने और उन पर अच्छी-अच्छी कहानियां लिखने के अलावा मैं इनकी जिन्दगी में कुछ भी सार्थक योगदान नहीं कर रही हूं। इसका मतलब कि मैं भी इनका किसी न किसी रूप में शोषण ही कर रही हं। इस सोच ने मुझे बेतरह हिला दिया। इनके जीवन में एक सकारात्मक रुख ला पाने के प्रयासों पर मैं गंभीरता से सोचने लगी। जब भी मैं किसी व्यक्ति को कठिन परिस्थिति में देखती हूं, मैं अपने बचपन में चली जाती हूं। जब मैंने इन लोगों के हालात में खुद को देखने की कोशिश की तो मुझे लगा कि मैं भी इनमें से ही एक हूं। और इस तरह से 'अवितोको' का जन्म हुआ। आज मुझे इस बात का संतोष है कि मैं अपने चरित्रों के सुख दुख की साझीदार हूं और इनसे भी बढकर यह कि इनके चेहरे पर पल दो पल की खुशी ला सकने में मैं भी तनिक सफ़ल हुई हूं।"
पड़ोसवाले हिरण अपने घर से बार-बार झांके, उझके- ये क्या हो रहा है, बहिनी के साथ? आजतक तो कभी उसे इसतरह से विकल नहीं देखा। वह तनिक और पास गया, तनिक और पास, तनिक और पास। ये लो, अब तो वह उसके इतने नजदीक पहुंच गया कि उसके तन और मन के पार भी पहुंच कर देख सकता है। हिरणी थी बड़ी बेचैन। कभी पैर उठाकर उचक-उचककर कहीं देखती तो कभी थस्स् से बैठ जाती, जैसे निराशा के गहरे सागर में समा गई हो, जहां से ऊपर आने के कोई आसार नहीं, कोई लक्षण नहीं। आँसू थे कि खड़ी हो या बैठी, लगातार भादो के पावस की तरह झहर रहे थे - झर- झर। घटा घुमड़े बादल की तरह- झिमिर-झिमिर, टिपिर-टिपिर। काली- काली घटा जैसा ही सोक थोक के थोक उसके हिरदे मे डेरा जमाए चला जा रहा था।

हिरण सोच में पड़ गया। आजतक उसने हिरणी को कभी भी यूँ इसतरह से विकल नहीं देखा था, जैसे कोई उसका नाक-मुंह बंद कर उसे सांस लेने से ही रोक रहा हो- ऊं..ऊं..गों..गों..। उसकी बेचैनी उसके शरीर के एक-एक अंग से तेज गर्मी के कारण छूटते पसीने की धार की तरह फूट रही थी। गले से ऐसी घरघराहट निकल रही थी, जौसे अखंड काल से वह प्यासी हो और उसके कंठ में पानी की एक बूंद तक डालनेवाला कोई न हो। उसकी पथराई सी आँखों में दर्द का ऐसा गुबार था कि उसे देख पत्थर भी पसीज जाए और सुमेरू पर्वत भी भहराकर खंड-खंड होकर दरक जाए।
"काहे बहिनी! काहे इतनी बेकल हो, जैसे कोई तुम्हारा हिरदय तुम्हारी देह से नोंचकर लिए जा रहा हो या आँखों में कील ठोंककर उसकी ज्योति हरे जा रहा हो। कहो बहिनी! अपने दिल का संताप हमसे भी कहो। यूं उसे अपने दिल में बन्द करके मत रखो। कहने सुनने से जी हल्का हो जाता है।"

हिरणी कुछ न बोली। बोले भी क्या? बोलना- बतियाना तो सुख की बेला में सोभता है। इस कुघड़ी में जब अपनी ही सांस की आवाज़ मेघ के गरजन जैसी लगने लगे, वैसे में कंठ से कैसे कोई बकार फ़ूटे। बस, लंबी सांस खींचकर वह रह गई। मगर उसकी उस लंबी सांस में जैसे वेदना की गाढ़ी, मोटी लेई चिपक गई थी। बोली- भासा के रूप में बस, आँसू उसकी आंखों से टप-टप धरती पर गिरते रहे और धरती मैया उसे ममतामई मां की तरह अपने आँचल में समेटती रही- "बिटिया री, तू भी नारी, हम भी नारी। तू भी मैया, मैं भी महतारी। मैं ना समझूं तेरे हिरदे की पीर को तो और कौन समझेगा? चल, बहा ले जितना भी बहाना चाहती है अपने दुख का संताप। पर देख ले, मैं खुद ऐसी अभागन कि पूरे संसार की मैया होने के बाद भी नहीं हर सकती तेरा संताप। नहीं कर सकती तेरे दुख को दूर।
भैया हिरण एकदम से हिरणी के पास खड़ा था। हिरणी को सारा नज़ारा साक्षात दिखाई देने लगा। पूरी की पूरी अयोध्या हर्ष और उल्लास में डूबी हुई है। घर-घर ढोल, नगाड़े, बधावे बज रहे हैं। घर-घर खील, लड्डू, बताशे बँट रहे हैं। सभी नर-नारी तन पर नए-नए कपड़े, जेवर डाले इधर से उधर नाचते-गाते घूम रहे हैं।

कि आज रानी कौसल्या बनी महतारी
दसरथ देखे मुंहवा बलकवा के
मनवा मुदित खरे हंसी के फ़ुलकारी

बालवृन्द मस्ती और आनंद में झूम रहे हैं। पूरा नगर तोरण और बंदनवारों से इसतरह से ढंक गया है कि आकाश भी नहीं दिखाई पड़ रहा। सूरज की तेज रोशनी भी इन बंदनवारों की चादर तले से होकर नगर में पहुंचती है। लोग इधर-उधर घूमते हूए बधावा गा रहे हैं।

"चैत मासे राम के जनमवा हो रामा, चैत रे मासे
केही लुटावे, अन-धन सोनवाँ,
केही लुटावे कंगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।
दशरथ लुटावे अन-धन सोनवाँ,
कौशल्या लुटावे कँगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।"

इतना सोना-चाँदी, कामधेनु जैसी गाएँ, सोना उगलनेवाले खेत, जमीन सब कुछ कौशल्या दान कर रही हैं। आखिरकार रामलला जो आएँ हैं। और बात सिर्फ रामलला की ही कहाँ? दशरथ जी तो एक साथ चार-चार पुत्र पाने के आनंद सागर में हिलोरें ले रहे हैं। इस आनंद अमृत पान में वे भूल भी गए हैं श्रवणकुमार के वृद्ध और नेत्रहीन पिता का श्राप -"जिस पुत्र वियोग से आज मैं मर रहा हूं, वही पुत्र वियोग एक दिन तुम्हारे भी प्राण ले लेंगे।"
निस्संतान दशरथ तो प्रसन्न हो उठे। इस श्राप में भी उन्हें वरदान दिखाई दिया। पुत्र वियोग तो तब न, जब पुत्र प्राप्त होगा। इसका अर्थ - "पुत्र सुख है मेरे भाग्य में। मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी। हे पूज्यवर! आपका श्राप भी मेरे सर-आँखों पर!"

राजा दसरथ हैं मगनवां कि राम जी का हुआ है जनमवां
राम का जनमवां, लखन का जनमवां
भरत सत्रुघन भी संगवां कि राम जी का हुआ है जनमवां

परंतु, हिरणी ने तो कोई अपराध नहीं किया था। फिर उसे क्यों यह पुत्र वियोग? वह तो रोई थी, गिड़गिड़ाई थी कौशल्या रानी के पास जाकर -"रानी हे रानी! अब तो तुम भी पूतवाली हुई। तुम्हारी गोद हरी-भरी हुई। तुम्हारी छाती में भी दूध उतरा है। पूत का सुख क्या है, अब तो तुम भी जान रही हो। भगवान ने तुम्हारे साथ-साथ दोनों छोटी रानियों की कोख भी भर दी है। देखो तो, सारा नगर इस आनंद में डूबा हुआ है, एक मुझ अभागन को छोड़कर।"
"क्यों तुम्हें क्या हुआ हिरणी? क्या कोई व्याधा तुम्हारी जान के पीछे पड़ा है? कहो तो अपने उद्यान में रख दूं। वहाँ की नरम-नरम घास खाना, ठंढे, मीठे तालाब और सोते का पानी पीना। कहो तो, मँड़ई भी बनवा दूँगी। बस, उदास न हो। देखो, मेरे रामलला आए हुए हैं। आज इतने बड़े भोज का आयोजन हुआ है। दूर-दूर देशों के बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा-महाराजा पधारे हैं। तू काहे को सोग करती है हिरणी।"

"फिर से महारानी, अरज करती हूँ, अब तुम बेटेवाली हुई। अब तुम भी माँ बनी। एक माँ दूसरी माँ की पीड़ा को समझ सकती हैं। सारी अयोध्या में रामलला के आने की खुशी है। ऐसे में मैं पापिन किस मुंह से कहूं कि राम लला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है?"

"पहेलियाँ न बुझा हिरणी!" कौशल्या का स्वर कठोर हो गया। आँचल तले सोए रामलला को और अच्छी तरह से आँचल में समेटकर लगभग छुपा ही लिया उसे हिरणी की नजरों से।

राई जवांइन अम्मा न्यौंछे
देखियो हो कोई नज़री ना लागे

अब तो दिढौना लगाना और राई-जँवाईन से औंछना ही होगा। क्या जाने, नजर-गुजर लग गई हो इस डायन हिरणी की। कैसी बेसम्हार जीभवाली है कि कहती है, मेरा रामलला इसके सोग का कारण हैं। जी तो करता है, हिरणी तेरी यह खाल-खींचकर भूसा भरवा दूं। पर, नहीं, ऐसे शुभ और सुहाने मौके पर राजा दशरथ जी भी राज्य के कैदियों को छोड़ चुके हैं, प्राणडंद का सजा पाए कैदियों को जीवनदान दे चुके हैं। इसी मनभावन समय की सौंह, मैं तेरी जान नहीं लूंगी। लेना भी नहीं चाहती। पर हां, जानना जरूर चाहती हूं कि क्यों तूने ऐसा कहा कि मेरे रामलला तेरे सोग का कारण हैं।"

"रानी हे रानी! तू भी माता, मैं भी माता। राम जी का आगमन और मेरे बालक का आगमन - साथ-साथ, संग-संग। पर अपना -अपना नसीब कि तुम्हारे रामलला सोने के पालने में झूल रहे हैं और मेरा बालक तुम्हारी रसोई में पक रहा है। आज उसका माँस तुम्हारे मेहमानों को खिलाया जाएगा। रानी हे रानी, लोग कहते हैं, हिरण का माँस बड़ा मीठा होता है और उसमें भी बच्चा हिरण का तो और भी। उसी बच्चे हिरण की ताक में मेरा लाल धर लिया गया रानी! जो रामलला न आते तो आज मेरा बालक भी न बधाता। इसी से मैं बोली कि तुम्हारे रामलला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है।"

कौशल्या हंसी - भर देह हंसी। बालक राम का चेहरा आँचल के नीचे से निकालकर हिरणी के सामने कर दिया -"देख तो री हिरणी, कैसे अपरूप लग रहे हैं मेरे रामलला! इस साँवरी सूरत पर तो मैं सारा तिरलोक भी निछावर कर दूँ। रे हिरणी, तुझे नहीं मालूम क्या कि यह जो रामलला हैं, वो अयोध्या के राजा हैं- चक्रवर्ती महाराज। राजा और राज के सुख के लिए परजा को थोड़ा कष्ट, थोड़ा बलिदान तो करना ही पड़ता है न! और सुन री हिरणी, ये जो रामलला हैं न मेरे, वे सिरिफ हमारे पूत और अयोध्या के भावी राजा ही नहीं हैं। वे भगवान विष्णु के अवतार भी हैं-

भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला, कौसल्या हितकारी
हर्षित महतारी मुनि मनहारी, अद्भुत रूप निहारी
लोचन अभिरामा, तन घनस्यामा, निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी।

हिरणी रे! मैं तो साँचे कहूँ, डर गई थी, प्रसव के बाद नन्हे से, रूई जैसे नरम, चिक्कन बालक की जगह चक्र-सुदर्शन रूपधारी भगवान विष्णु! मैं तो बोल ही पड़ी थी रे -

"माता पुनि बोली सो मति डोली तजहू तात यह रूपा
कीजै सिसु लीला, अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा।"

तो ऐसे हैं मेरे श्रीरामलला! भक्तों के आराध्य, दुखियों के ताऱनहार! वे साक्षात भगवान हैं, विष्णु के अवतार! ऐसा-वैसा, साधारण बालक जुनि समझो। ई तो भगवान हुए री और भगवान के भोग लग गया तेरा बालक तो तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरे और तेरे बालक के जनम-जन्मान्तर सफल हो गए।

"वैष्णव जन को तेने कहिए पीर पराई जाने रे।
पर दुखे उपकार करे कोई, मन अभिमान न माने रे।"

हिरणी की आँखों से आँसू गिरते ही रहे, जबान बन्द हो गई। सचमुच! गरीब, दीन-हीन, लाचार परजा तो राजा, राज-काज और प्रभु काज के लिए ही होती है। ई तो सनातन सच है। आज रामलला आए तो मेरे संग-संग कितनी हिरणियों की गोदें सूनी हो गईं। रामलला न जनमते, कोई और जनमता। न बधाता मेरा बालक तो कोई और बध हो जाता। सुविधाभोगी समाज की सुविधा के हवन में किसी न किसी को तो हविष्य बनना ही पड़ता है। पर मैं क्या करूं? मैं तो आखिर को माँ हूं न! कैसे बिसार दूं अपने कलेजे के टुकड़े को? जो शिकारी पकड़कर ले जाता तो हाय मारकर रह जाती कि दैव बाम निकला। एक आस भी रहती कि बचवा शायद कहीं जीवित रह जाए। किसी सेठ साहूकार के बगीचे की शोभा बढ़ा रहा होगा, किसी कूद-फांदवाले के यहां तमाशा दिखा रहा होगा। कैद में ही सही, जीता तो रहेगा। माँ की आँखों के आगे उसका लाल बना रहे, इससे बढ़कर मां को और कौन सा सुख चाहिए।

हजार मन का बोझा मन पर उठाए हिरणी लौट आई। डग थे कि उठते न थे, लोर (आंसू) थे कि थमते न थे। भैया हिरण सब सुनकर अवाक था - "री बहिनी, साँच कही री बहिनी! हम गरीब, लाचार जात - कुछ नहीं कर सकते। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं री बहिनी। उठ, धीर धर बहिनी, क्या करेगी! नसीब का लिखा कहीं कोई मिटा सका है भला!"
पर हिरणी तो छटपट किए जा रही थी। चाह कर भी उससे धीरज धरा न जा रहा था। भैया हिरण तो अपनी समर्थ भर उसे समझा बुझा कर लौट गया था। मगर वह सारी रात उस खेमे के बाहर खड़ी रही, जहाँ उसके बालक को काटा गया था। कांय.. की एक महीन, बारीक आवाज हिरणी के कलेजे को तेज आरी से चीरती चली गई थी। आ..ह रे, मोरा बचवा रे..। मोरा बचवा चला गया रे .. रानी रे .. हम कइसे धीरज धरें रे .. वह बिलख-बिलखकर रोने लगी। पूरा जंगल जैसे उसके सोग में भागीदार हो रहा था। उसे फ़िर होश ना रहा कि कब पूरनमासी का चांद अपनी शीतल छांह समेटकर चला हया था और कब भास्कर दीनानाथ अपनी भोर की रोशनी के साथ जगत को उजियागर करने आ पहुंवे थे।

भोर के सूरज की तनिक तीखी चमक हिरणी पर पडी तो वह तनिक चेती। एक पल लगा उसे यह समझने बूझने में कि वह कहां है, किधर है। और इसका भान होते ही वह फिर भागी उसी खेमे की ओर। देखा, बचवा की खाल उतार कर माँस को पकने भेज दिया गया था। अब बाहर रस्सी पर वही खाल सूख रही थी। सूख रही खाल जब हिलती तो हिरणी को लगता कि उसका बालक उससे छुपा-छुपी का खेल खेल रहा है और उसे अपनी तुतली जबान में आवाज दे रहा है - मइया, आओ री! आओ ना री मइया! हे मइया, इधर, माई गे, उधर! हिरणी बेचैन, बेकल इधर-उधर ताकती। चारों दिशाओं में उसे अपने पूत की किलोल ही सुनाई दे रही थी। आवत हैं रे पूत। तोहरा लगे आवत हैं। हां, इधर..। ना उधर..। ना ना किधर? किधर है रे तू मोरा कलेजे का टुकड़ा रे..।

और हिरणी एकबार फिर से रानी कौसल्या की अरदास में थी। रानी रामलला को दूध पिला रही थी। हिरणी को देखते ही किलक उठी -"आओ रे हिरणी! भोज-भात जीमीं कि नहीं? अपने सभी भाई- भैयारी को लेकर आई थी कि नहीं? अच्छे से तो जीमे ना सभी? कौन कौन से पकवान खाए तुमने?"

"रानी हो रानी! राजा महराजा के लिए बने खीर पकवान मे हमरा क्या हिस्सा, क्या बखरा। वे खा लें तो समझो, हम जनता का पेट अइसे ही भर जाता है। हम तो हे रानी, फ़िर से एक अरदास लेकर आए हैं। इसके पहले भी हमने अरदास करी, पर तुमने हमरे अरदास पर कान न दिया और बचवा हमारा हमसे दूर चला गया। हमने कलेजे पर पत्थर धर लिया कि चलो, आखिर रामलला हैं तो सभी के लला। भगवान जुग जुग जीवित रखें उन्हें। चांद सूरज से भी जियादा पुन्न -परताप फ़ैले उनका। ..अब बहिनी! फिर से एक अरज ले के आई हूं। इसबार मत ठुकराना रानी! तुम्हें मेरी सौंह (सौगंध)!"

"बिना सुने जबान कइसे दे दूँ हिरणी? पानी में मछली और बिना पतवार की नाव का कोई भरोसा होता है क्या? जो बिना सुने जबान दे दिया और तुम्हारा कौल पूरा न कर पाई तो हत्या तो मेरे ही माथे चढ़ेगी न!"
"वो तो चढ़ चुकी रानी, उसी दिन, जिस दिन तूने मेरा बालक बध करवाया।" मगर हिरणी इसे बोली नहीं। मन में ही पचाकर रह गई। अभी तो भीख माँगने आई है। जो पहले ही नाराज कर दिया तो भीख की उम्मीद कैसे की जा सकेगी? वह बोली -"जो तुम्हारी आज्ञा रानी!" वह सर को जमीन तक टिका बैठी-

"मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी, मंसवा ते सिंझई रसोइया, खलरिया हमें देतिउ हो।"

"बचवा का मांस तो रसोई में पक गया रानी! अभी मैं उसकी खाल सूखती देख आई हूँ। तुम मुझे वही खाल दिला दो रानी। मैं उसमें भुस भरवाकर अपना बालक गढ़ लूँगी। बालक का वह रूप मेरी आँखों के आगे रहेगा तो मुझे भी लगेगा कि मेरा बचवा वैसे ही मेरे साथ है, जौसे तुम्हारे संग तुम्हारे रामलला हैं।"

"ये क्या माँग बौठी रे हिरणी!" कौशल्या फिर से बिगड़ उठी -"क्या एक पूत के लिए पूत-पूत रट लगाए बैठी है? अरे, तेरे जैसों के पूतों की औकात ही क्या? ढोर-डंगर की तरह तो जनमते हैं। कौन सा उसे चक्रवर्ती राजा होना है! एक पूत गया तो जाने दे। दूसरा बिया लेना (पैदा कर लेना) और रही बात खाल की तो वह तो नहीं मिलनेवाली। क्यों तो वो भी सुन ले।

"पेड़वा पर टाँगबे खलरिया, मड़ई में हम समुझब हो,
हरिनी खलरी के खंजड़ी मढ़ाइब त' राम मोरा खेलिहें नू हो।"

उस खाल से मेरे रामलला के लिए खंजड़ी बनेगी। नरम-मुलायम खाल की खंजड़ी। दूसरे जानवर तो होते हैं कठोर। उनके कठोर खाल से खंजड़ी बनेगी तो मेरे रामलला के नाजुक हाथ और तलहथी छिल न जाएंगे! इसीलिए.. इसीलिए मैंने कहा था हिरणी, कि कौल देने से पहले तेरी बात तो सुन लूं। मेरी कितनी फजीहत होती रे हिरणी! भगवान शंकर ने मेरी रक्षा की। जो तुझे कौल दे दिए होती तो आज तो मैं कहीं की ना रहती। सूर्यवंश की रानी का कॉल ऐसे ही चला जाता. शिव, शिव, शिव, शिव! किस भांति आपने बचा लिए मेरे प्राण? जो दे दी होती कौल तो कौन करता मेरे मर्यादा, मेरे धर्म की रक्षा? कितनी फजीहत होती कि चक्रवर्ती राजा दशरथ की रानी कौशल्या ने अपनी बात तोड़ दी। स्वर्ग में baiThe मेरे सूर्यवंशी पूर्वज राजा दिलीप, राजा अज के सर यह देखकर शर्म से झुक जाते कि उनकी पुत्रवधू ने नहीं रखी अपने कौल की मर्यादा और डुबा दिया उस कुल को गहरे रसातल में, जो वंश प्रसिद्ध है-

रघुकुल रीत सदा चलि आई,
प्राण जाए बरू बचन न जाई.

हे मेरे पूर्वज, मेरे पितामह, मेरे श्वसुर, बच गई आपकी बहू आपके कुल को कलंकित करने से । बचा ली मैंने वंश मर्यादा की परंपरा। देवें आशीष कि यूँ ही सदा रहे तत्व और धर्म का ज्ञान और कर सकूँ न्याय-अन्याय में भेद! तू जा अब, जा अब तू कि नहीं चाहती देखना अब मैं तेरा मुँह। याद रख कि परछाई भी न पड़ने पाए तेरी इस महल में, वरना सच कहती हूं कि उस दिन नहीं बच पाएगी तू मेरे क्रोध की अगन से। चल जा जल्दी, भाग . . . . . . "

फिर से नैनों में नीर का हहराता समुंदर और हृदय में दुख के काले गंभीर, भरे बादल जमाए हिरणी लौट आई। बेटे के बिना पूरा जंगल उसे काट खाने को दौड़ रहा था। सच! हम कमजोर, निर्बल, बेबस का कोई सुनवौया नहीं। न राजा, न रानी न देवता न पितर।

खंजड़ी बन गई। रामलला नन्हीं-नन्हीं हथेलियों की थाप से उसपर चोट करते। खंजड़ी की आवाज होती तो वे खुश होकर तालियाँ पीटते। ठेहुनिया दे-दे कर चलते रामलला को देख कौशल्या रानी निहाल हो-हो उठतीं-

ठुमुक चलत रामचन्द्र, बाजत पैजनियां
ठुमुकि ठुमुकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय
तात, मात गोद धाय, दसरथ की रनियां।

हवा के झोंकों के साथ-साथ खंजड़ी की अवाज दूर जंगल तक जाती। उस आवाज को सुनकर हिरणी का आकुल-व्याकुल मन क्रन्दन कर उठता।

"जब-जब बाजे ले खंजडि़या सबद अकनई हो
रामा, ठाढि़ ठेकुलिया के नीचा, मनहि मन झेखेले हो।"

"मोरा बचवा रे.. " न चाहते हुए भी हिरणी पुकार उठती; पर तुरंत ही मुंह दबा लेती। उसे डर लगता कि कहीं उसकी आवाज से रामलला के खेल में कोई बाधा न आ जाए और रानी उसका विलाप सुनकर फिर से क्रोधित न हो जाए। अभी कम से कम खंजड़ी की आवाज़ तो वह सुन पा रही है और इसी बहाने वह अपने पूत से मिल भी पा रही है। जो उसकी आवाज़ से रानी खिसिया जाए और उसे कैद मे डाल दे तो वह अपने बचवे के इस रूप से भी बार दी जाएगी।

समय बीतता गया, रामलला जवान हो गए। सीता कुँवरी वधू बनकर छम-छम पाजेब बजातीं पालकी से उतरीं। सीता को साथ-साथ उर्मिला, माडवी, श्रुँकीरती भी बहुरिया बन कर आई लक्ष्मण, भारत व् शत्रुघ्न के लिए. राम जी के राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी। सारी अयोध्या फिर से उसी दिनवाले आनंद और उत्सव में डूब गई, जिस दिन रामलला का जन्म हुआ था। हिरणी के अब कई पूत हो चुके थे मगर उस पूत की कसक अभी भी उसके कलेजे को टीसती रहती।

राज्याभिषेक की पूरी तैयारी हो गई कि देवी सरस्वती बाम हो गर्इं। वह मंथरा के माथे चढ़ बैठी और मंथरा ने कैकेयी के मन को फेर दिया कि बस! सारी की सारी अयोध्या श्मशान भूमि में बदल गई। राम का बनवास। केवल राम ही नहीं, संग में सिया सुकुमारी और सूर्य जैसे ओज वाला भाई लक्ष्मण भी. राम, सीता और लखन के बिना पूरी अयोध्या वैसे ही भांय-भांय करने लगी, जौसे पूत के बिना हिरणी को सारा जंगल ही भांय-भांय करता नजर आ रहा था।

राजा दशरथ शोग भवन में पड़े हुए जल से निकली मीन की तरह छटपटा रहे थे। उन्हें श्रवण कुमार के माँ-बाप की याद हो आई -"हाँ! आज शाप फलीभूत हुआ। पुत्र सुख के बाद अब पुत्र वियोग का दुख! करमगति टारै नहि टरै! सच!"
हिरणी रानी के महल के जंगले तक पहुंची, अंदर झांककर देखा - रानी अखरा (नंगी) जमीन पर लेटी हुई हैं। अरे? इत्ती बड़ी रानी और न पलंग, न गद्दा न पंखा न चँवर? सब है, पर रामजी नहीं और राम के बगैर कौशल्या रानी को कैसे ये सब भाए?

हिरणी अंदर चली गई और बोली -"रानी हे रानी! अब तो समझ गई न वियोग की पीड़ा। ऐसे ही मैं भी रोई थी। ऐसे ही कितनी माएं रोई होंगी। केलेजे की टूक बड़ी बेआबाज होती है रानी? समझी होती तो मेरी शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ होतीं । मगर अब तो मुझे तुमपर तरस आ रहा है रानी! सत्ता और ताकत के मोह में कमजोर और निर्बल को मत भूलो रानी, उन्हें देखो, सुनो, उनका ध्यान रखो। आखिरकार वे तुम्हारी रियाया हैं रानी और अपनी परजा का ख्याल जो राजा नहीं रखेगा, उसका कभी भी भला नहीं होगा रानी, कभी भी नहीं।"

रानी कौशल्या उठकर बैठ गई। बिटर-बिटर हिरणी को ताकती रही। फिर फफककर रो उठी। हिरणी की आँखों से भी आंसू की धार फूट पड़ी। आखिर को माँ थी, सो एक माँ होकर दूसरी माँ की पीर को कैसे न समझती? और इन दोनों की माई यानी धरती माई चुपचाप इन दोनों की पीर को अपने कलेजे में समेटने लगी। चुपचाप! बेआवाज! शायद वह भी इन दोनों की पीर को जान रही थी, समझ रही थी।

Monday, June 8, 2009

किस्सा नीलपरी का- गौरव सोलंकी

गौरव सोलंकी की गिनती हिन्दी के उभरते कहानीकारों में प्रमुखता से की जाती है। हिन्द-युग्म को नाज़ है कि इतना ऊर्जावान कलमकार बुनियाद से ही हिन्द-युग्म से जुड़ा हुआ है। कहानी-कलश पर अब तक इनकी 7 कहानियाँ (एक सुखांत प्रेमकथा, यहाँ वहाँ कहाँ, एक लड़की जो नदी बन गई, आज़ादी, प्रेम कहानी, शर्म और प्यासा) प्रकाशित हुई हैं। आज हम इनकी जो कहानी प्रकाशित कर रहे हैं उसका एक छोटा सा टुकड़ा 'तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?' तहलका-हिन्दी में प्रकाशित हुआ था और ख़ासा पढ़ा और सराहा गया था। वही कहानी पढ़िए साबूत रूप में 'किस्सा नीलपरी का'॰॰॰॰॰॰॰


किस्सा नीलपरी का


नीली आँखें

- तुम्हारी आँखें तो नीली नहीं हैं... मुझे याद पड़ता है कि हमारे बीच की पहली बात यही थी। उससे पहले वह तुनकमिजाज़ लड़की, जो अपने अक्खड़ जमींदारों के परिवार से हर सद्गुण विरासत में लेकर आई थी, मेरे लिए उतनी ही अपरिचित थी, जितनी उसके पीछे खड़ी चश्मे वाली लम्बी लड़की या उससे पीछे खड़ी मुस्कुराती हुई साँवली लड़की। मैं एक पत्रिका के लिए लेखकों की तलाश में था और वह एक कविता लेकर मेरे पास आई थी। डायरी में से जल्दबाज़ी में फाड़े गए उस पन्ने पर लाल स्याही से लिखे हुए नीलाक्षी पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी और मैं उसकी गहरी काली आँखों को देखकर अनायास ही पूछ बैठा था। वह भड़क गई थी- क्या बकवास है? उसका लहजा देखते ही मैंने तुरंत अपने कंधे उचकाकर और मुँह बिचकाकर सॉरी बोल दिया था, लेकिन वह मेरी उम्मीद पर खरा उतरते हुए बेअसर रहा था। - तुम यहाँ मुझे देखने के लिए बैठे हो या इन आर्टिकल्स को? - दोनों को... और इस जवाब पर तो वह आगबबूला हो गई थी। वह तब तक बोलती रही, जब तक पीछे वाली मुस्कुराती हुई साँवली लड़की उसे खींचकर नहीं ले गई। मैं चुपचाप उसे सुनता रहा था और उन सबके चले जाने के बाद देर तक हँसता ही रहा था। बहुत दिनों बाद मैं उतना हँसा था।

डायरी की कहानी - कविता की कहानी

चौपड़ बाज़ार का जो दरवाजा कोर्ट की तरफ़ खुलता था, उसी दरवाजे पर एक किताबों की दुकान थी- नेशनल बुक डिपो। उस दुकान के अन्दर स्टोर की तरह का एक कमरा था, जिसमें लम्बे समय तक न बिकने वाला सामान पटक दिया जाता था। दिसम्बर 2004 में आई वह डायरी भी ज़िद्दी थी कि दो साल तक बिकी ही नहीं और उस कमरे में डाल दी गई। उसके नीचे साहित्य की कई किताबें पड़ी थी और कुछ महीने बीतते बीतते उसके ऊपर का बोझ भी बढ़ने लगा।
बहुत बड़ी घटनाएँ भी छोटी छोटी बित्ते भर की घटनाओं की साँसें लेकर जीती हैं। एक लड़की को अपने शोध के लिए किसी नए और न बिकने वाले लेखक की किताब की तलाश थी। उसने नेशनल बुक डिपो के गल्ले पर बैठे रामानुज पाण्डे को अपनी इच्छा बताई और पाण्डे जी ने अपने आदेश की प्रतीक्षा में खड़े दीपक को स्टोर में से कुछ उठाकर लाने के लिए भेज दिया। वह तीन-चार किताबें उठाकर लाया और उनके बीच में वह डायरी भी आ गई, जिसके कवर पर सुनहरे अक्षरों में 2004 लिखा था। लड़की ने कविताओं की एक किताब चुन ली और मुस्कुरा दी। इस मुस्कान पर फ़िदा होकर रामानुज पाण्डे ने 2004 वाली वह डायरी उस किताब के साथ मुफ़्त भेंट कर दी।
मेरी वे कविताएँ नीलाक्षी को बहुत पसन्द आईं। अपने थीसिस के लिए उसने बाद में कोई और किताब खोज ली और मेरी किताब उसके बिस्तर के पास मेज पर रखी रहने लगी, जिसे वह सोने से पहले एक बार जरूर पलटकर देख लेती। उसी किताब की कुछ कविताओं को उसने अपनी डायरी में नोट कर लिया और एक दिन उन्हीं में से कोई पन्ना फाड़कर अपने नाम से छपवाने के लिए मेरे पास ले आई। वह मुझे नहीं जानती थी। मैं भी उसे नहीं जानता था। डायरी, कविता को और कविता, डायरी को हल्का हल्का पहचानने लगी थी।

अँधेरे की कहानी - माँ की कहानी

बहुत दिनों से मैंने और माँ ने साथ साथ कोई फ़िल्म नहीं देखी है। मैं टीवी ऑन कर देता हूं। माँ साथ में बुनाई का काम भी निपटा रही है।
कुछ देर से माँ ने एक बार भी टीवी की ओर नहीं देखा है। मुझे पता है कि माँ मुझसे कुछ कहना चाह रही है। - नीलाक्षी अच्छी लड़की नहीं है। माँ जैसे घोषणा कर देती है। मैं चुप रहता हूँ। - हो भी सकती है...पर लगती नहीं मुझे। वह अपनी बात सुधारकर बोलती है। माँ ने कभी नीलाक्षी को देखा नहीं है, माँ ने कभी फ़ोन पर भी उससे बात नहीं की है, लेकिन वह बार बार पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहती है। वह यह भी जानती है कि उसकी बात से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। बाहर अँधेरा है। मुझे नीलाक्षी की याद आती है। मेरा मन करता है कि मैं माँ के आरोप के विरोध में कुछ कहूं लेकिन मैं कुछ नहीं कह पाता। माँ फिर बोलती है- तेरे लायक नहीं है वो। मैं उठकर बाहर चला जाता हूं। आँगन में चमगादड़ घूम रहे हैं। वे कुछ बोलते हैं और लौटकर आती हुई आवाज़ से अन्दाज़ा लगाते हैं कि सामने कुछ है या नहीं। मेरा मन करता है कि मैं उनकी बातों के उत्तर में कुछ कहूं। बिना सुने गए लगातार बोलते रहना कितना हताश कर देता होगा ना? माँ अन्दर से आवाज़ लगाती है कि ब्रेक ख़त्म हो गया है। माँ मेरे साथ फ़िल्म देखना चाहती है लेकिन मेरा वहाँ जाने का मन नहीं करता। नीलाक्षी और कविता को छोड़कर मैं और माँ दुनिया के हर मसले पर बात करते हैं और जब भी इन दोनों में से किसी पर बात की जाती है तो हम दोनों में से कोई एक जरूर नाराज़ होता है। बाहर आसमान है, उसमें अँधेरा है, अँधेरे में चमगादड़ हैं, उनमें न सुना जाना है, उनमें हताशा है, हताशा में मैं हूँ, मुझमें माँ है, मुझमें नीलाक्षी भी है, मुझमें कविता भी है। माँ में एक भयावह सा खालीपन है। माँ आजकल दिनभर बुनती रहती है। माँ अकेली है।

किस्मत वाले हो तुम बुद्धू

- तुम सिख हो?
- तुम्हें नहीं पता?
मैं आँखें फाड़ फाड़कर उसे देख रहा था। हमारी पहली मुलाक़ात को तीन महीने होने को आए थे और मुझे उसका धर्म ही नहीं पता था। उसके बाद मेरे सामने रखी हुई कॉफ़ी ठंडी हो गई। उसके बाद शाम गहराने लगी। उसके बाद नैस्केफे की लाल छतरियों के नीचे बिछी कुर्सियों पर लोग घटने लगे। उसके बाद मेरा मोबाइल दो बार बजा। उसके बाद उसकी हेयरपिन खुल गई और उसके लम्बे बाल हवा में लहराते रहे। तब तक हम चुपचाप एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे।
मैंने फिर से पूछा- तुम सच में सरदार हो? - हाँ जी हाँ। उसके गालों में गड्ढे पड़ते थे। उसके गाल सेब की तरह लाल थे और चेहरे पर एक पवित्र सी कोमलता थी। उसकी आँखों में चमक थी और लम्बे बालों में उमंग। मुझे पहली बार लगा कि उसकी शख्सियत में सब कुछ तो सरदारनियों जैसा था, फिर मुझे अब तक यह अहसास क्यों नहीं हुआ? - बताया ही नहीं तुमने कभी... - इसमें बताने का क्या था? तुमने कभी बताया कि तुम उल्लू हो? वह मेरा हाथ पकड़ते हुए बोली। मैंने हाथ खींच लिया। - नाराज़ हो गए? मैंने मुँह बनाते हुए हाँ कह दिया। - रात रात भर जागोगे तो उल्लू ही कहूंगी ना। कहाँ से सीखा है आधी रात के बाद सोना और फिर दस बजे जगना? - माँ मत बनो तुम। दो-दो माँएं नहीं चाहिए मुझे। - किस्मत वाले हो तुम बुद्धू। - दो माँओं की आदत पड़ जाएगी तो बाद में तकलीफ़ होगी। - क्यों? - तुम तो किसी पगड़ी वाले सुखविन्दर बलजिन्दर से शादी करोगी ना... - मैं गौरव से शादी करूंगी जो मेरी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा। हमारी पहली मुलाकात को तीन महीने होने को आए थे। हमने साहित्य, सिनेमा और मोहब्बत के अलावा किसी विषय पर कभी बात भी नहीं की थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि उसे मीठा ज्यादा पसन्द है या नमकीन। उसके घर में कितने लोग हैं और उसका घर है कहाँ, यह भी मैं पूरे यकीन के साथ नहीं बता सकता था। मुझे उसकी राशि भी नहीं पता थी और जन्मदिन भी। लेकिन हाँ, मैं उससे प्यार करता था और बादलों के आसमान से काली हुई उस शाम में नीलाक्षी मुझे शादी का वचन भी दे चुकी थी। एक बेढंगा सा आम लड़का, जिसे दाढ़ी बनाना बहुत ऊबाऊ काम लगता हो, उसे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?

तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?

मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं? मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं? - मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है। - कहानी कब सुनाओगे? - तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
- चाय में लिखा है। - अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, दूसरी की। - मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं? - तुम सवाल बहुत पूछती हो। वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
मैं पूछता हूं, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
- मुझे नहीं पता... मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?” मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
- कंगूरे क्या होते हैं? अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?
वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।
वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं। उस पार मीठा अँधेरा है जो उसे कभी कभी तीखा लगता है। वह अपनी जुबान पर अँधेरे की हरी चरचरी मिर्च धर लेती है और जब उसे चबाती है तो हल्की हल्की सिसकारी भरती है। मैं उसे शक्कर कहता हूं तो वह शक्कर होकर खिलखिलाने लगती है।
कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है? मैं नहीं बताता।
फिर पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे बुरी लगती है? फिर वह कुछ पूछते पूछते भूल जाती है। फिर मैं कहता हूं , “नीलाक्षी.......” और फिर कुछ नहीं कहता।

डर के आगे

मैं सात साल का हूं। माँ ने मुझे पुजारियों के घर से दूध लाने को कहा है। वे मन्दिर में रहते हैं, शायद इसीलिए उनके घर को सब पुजारियों का घर कहते हैं। शिप्पी ने मुझे बताया है कि पुजारी भगवान नहीं होते। उसने उनके घर के एक बूढ़े को बीड़ी पीते देखा है और तब से उसकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई है। भगवान कौन होते हैं, यह पूछने पर वह उलझ जाती है और सोचने लगती है। शिप्पी मुझसे बड़ी है या बड़ी नहीं भी है तो भी उसे देखकर मुझे ऐसा ही लगता है। वह आधे गाल पर हाथ रखकर सोचती है तो मेरी नज़रों में और भी बड़ी हो जाती है।
मैं डोलू उठाकर चल देता हूं। इस बर्तन को हाथ में लेते ही झुलाते डुलाते हुए चलने का मन करता है, शायद इसीलिए इसे डोलू कहते हैं। शिप्पी अपने घर की देहरी पर बैठी है। मुझे अकेले जाते देख वह भी मेरे साथ हो लेती है। वह वादा करती है कि अगर मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा तो लौटने के बाद वह मुझे बैट बॉल खेलना सिखाएगी। मैं कहता हूं कि तब तक तो रात हो जाएगी और वह कहती है कि हाँ, अब दिन भी छोटे होने लगे हैं। मैं सिर उठाकर आसमान तक देखता हूं मगर मुझे कहीं दिन का चेहरा या पेट या पैर नहीं दिखाई देते।
उसने नया फ्रॉक पहन रखा है, जो उसके घुटनों से थोड़ा ऊँचा है। मैं उसे कहता हूं कि यह पुराना है, इसीलिए ऊँचा हो गया है। वह मेरे सामने पीठ करके खड़ी हो जाती है और पीछे चिपका हुआ स्टिकर दिखाकर बताती है कि यह उसने पहली बार पहना है। स्टिकर को छूने के प्रयास में उसके फ्रॉक का एक हुक खुल जाता है। अब वह चलती है तो एक कंधे पर फ्रॉक लटक सा जाता है। वह मुझसे आगे है। मैं उसे पकड़कर रोक लेता हूं और बताता हूं कि उसका एक हुक खुला है। वह बताती है कि उसे शर्म आ रही है। मुझे भला सा लगता है। वह मुझसे लम्बी है। उसका हुक लगाने के लिए मुझे तलवों के बल पर ऊँचा होना पड़ता है। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। मैं उसे बताता हूं कि पुजारियों के कुत्ते से मुझे बहुत डर लगता है। वह बताती है कि कुत्तों से कभी नज़र नहीं मिलानी चाहिए, नहीं तो वे गुस्सा हो जाते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि कुत्तों के आस पास कभी भागना नहीं चाहिए। यह मुझे माँ ने बताया था। माँ की याद आने पर मुझे लगता है कि हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, नहीं तो देर से लौटने पर माँ डाँटेगी।
रास्ते में सरकारी स्कूल के अन्दर से होकर जाना पड़ता है। स्कूल के सब कमरों पर ताले टँगे हैं, लेकिन एक कमरे का दरवाजा टूटा है, जिसमें से भीतर जाया जा सकता है। हम उधर से गुजरते हैं तो उस कमरे में कभी कभी आइस पाइस खेलते हैं। लेकिन आज जल्दी है, इसलिए हम सीधे निकल जाते हैं।
रामदेव जी का मन्दिर गाँव से बाहर है। उसके आस पास रेत के ऊँचे टीले शुरु हो जाते हैं, जिन पर लोटना और फिसलना मेरे और शिप्पी के प्रिय खेलों में से है। वह बाहर ही खड़ी रहती है। मैं जब घर के अन्दर से दूध लेकर आता हूँ तो वह ललचाई नज़रों से उन टीलों को देख रही है। मैं उसे बैट बॉल का वादा याद दिलाता हूं तो वह थोड़ी सी उदास होकर मेरे साथ लौट चलती है। दिन इतने छोटे हैं कि हमारे लौटते लौटते धुंधलका होने लगा है।
स्कूल के अन्दर वाली राह सुनसान है। हम दोनों हाथ पकड़कर चल रहे हैं। तभी पीछे किसी के पैरों की आहट सुनाई देने लगती है। मैं पीछे मुड़कर देखता हूं। नहीं, पहले शिप्पी देखती है कि पुजारियों का लड़का अतुल हमारे पीछे आ रहा है। वह फुसफुसाकर मुझसे कहती है कि उसे इसका नाम नहीं पता, लेकिन यह अच्छा लड़का नहीं है। वह अचानक काँपने लगी है। मैं भी मुड़कर देखता हूं कि वह सिगरेट के कश लगाता हुआ आ रहा है। मैं उसे रोज़ देखता हूँ, लेकिन आज मेरे मन में भी डर की एक लहर दौड़ जाती है। हम तेज तेज चलने लगते हैं और कुछ देर में लगभग दौड़ने लगते हैं। हम टूटे दरवाजे वाले कमरे के सामने हैं, जब वह हमारे सामने आ खड़ा होता है।
शिप्पी की उम्र आठ साल है। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उसने चौड़े घेरे का ऊँचा गुलाबी फ़्रॉक पहन रखा है। उसका हाथ मैंने कसकर पकड़ रखा है। अतुल हमसे पाँच-छ: साल बड़ा है। वह मेरे सिर पर हाथ फेरता है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेरे हाथ से शिप्पी का हाथ छुड़ा देता है। उसकी आँखों में आँसू आ गए हैं। वह बुरी तरह काँपने लगी है। मैं देख रहा हूं कि वह उसे खींचकर टूटे हुए दरवाज़े से कमरे के अन्दर ले गया है। मैं डरकर भाग लेता हूं और कुछ दूर जाकर फिर थमकर खड़ा हो जाता हूं। मैं बार-बार भागता हूँ और फिर लौट आता हूँ। उस ठंडी शाम में मैं पसीने से भीगा हुआ हूं। मुझे कुछ समझ नहीं आता। मेरा रोने का मन करता है, लेकिन डर के मारे मैं रो भी नहीं पाता। मेरे बड़े होने के बाद टीवी पर एक विज्ञापन आता है- डर के आगे जीत है... नहीं, डर के आगे जीत नहीं है। डर के आगे सरकारी स्कूल का एक कमरा है, जिसमें घुसते हुए अतुल का हाथ शिप्पी के ऊँचे फ्रॉक को और भी ऊँचा उठाता हुआ ऊपर तक चला जा रहा है। डर के आगे मेरा उस कमरे के बाहर अँधेरा होने तक खड़ा रहना और फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरकर जाते अतुल के बाद रोती बिलखती शिप्पी को देखते रहना है। डर के आगे घुप्प अँधेरा है, जिसके बाद मैं शिप्पी से कभी नहीं पूछता कि भगवान कौन होते हैं? डर के चार घंटे आगे शिप्पी का बिना किसी से कुछ कहे अपने बिस्तर पर सो जाना है।

चौदह का लड़का

मैं चौदह साल का हूं। चौदह का लड़का होना कुछ नहीं होने जैसा होता है। मैं लाख रोकता हूं लेकिन ठुड्डी पर बेतरतीब बाल निकलने लगे हैं। मैं बाल कटवाने जाता हूं तो नाई से दाढ़ी बनाने के लिए कहने में बहुत शर्म आती है। मैं हर बार यूं ही लौट आता हूं और बेतरतीबी अपने अंदाज़ से बढ़ती रहती है। मैं अब बच्चा नहीं हूं और बड़े भी मुझे अपने साथ नहीं बैठने देते। कुछ साल पहले तक साथ की जिन लड़कियों के साथ गुत्थमगुत्था होकर कुश्ती लड़ा करता था, वे अब सहमी सी रहती हैं और बचकर निकल जाती हैं। उन्हें बड़ी माना जाने लगा है, लेकिन चौदह के लड़के घर के सबसे उपेक्षित श्रेणी के सदस्य होते हैं, जिनके सिर पर सबका संदेह मंडराता रहता है। अब चड्डी पहनकर घर में घूमने पर माँ डाँट देती है। चौदह के लड़कों को लगता है कि नहाते हुए उनके चेहरे पर फूटने वाले मुँहासों जैसा ही कुछ है, जो उन्हें पता नहीं है और सबको लगता है कि उसके पता लगने के बाद वे बड़े हो गए हैं। उन्हें अवास्तविक और सम्मोहक से सपने दिखते हैं, जिन्हें वे कभी कभी सहन नहीं कर पाते। मैं हर सुबह अपने उन नशीले सपनों पर शर्मिन्दा होता हूं और अपने आप ही उपेक्षा की लकीर पर थोड़ा और जमकर बैठ जाता हूं।
दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। मुझे बताया नहीं जाता, लेकिन मुझे मालूम है। दीदी की शादी हो जाने के ख़याल से मुझे बहुत बुरा लगता है।
दीदी पूरियाँ तल रही है, दीदी दहीबड़े बना रही है, दीदी ने भौंहें बनवाई हैं, दीदी ने साड़ी पहनी है, दीदी रो रही है। दीदी जब अन्दर वाले कमरे से बर्तनों का नया सेट निकालने जाती है तो एक मिनट रुककर रो लेती है। दीदी पैन से अपनी हथेली पर कुछ लिखती है और फिर खुरचकर मिटा देती है। मैं पूछता हूं कि क्यों रोती हो तो वह मुझे झिड़क देती है और तेजी से बाहर निकल जाती है। माँ मुझे डाँटती है कि वह औरतों का कमरा है, मुझे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मैं माँ की नहीं सुनता और वहीं अँधेरे में पड़ा रहता हूं। माँ बड़ बड़ करती रहती है। फिर पुकार होती है कि बाज़ार से काजू लाने हैं, लेकिन मैं नहीं सुनता। बाहर गाड़ी आकर रुकती है। घर में भगदड़ मच जाती है। “अरे गौरव, मेरी चुन्नी तो लाना”, माँ चिल्लाती है और मैं सोचता रहता हूं कि दीदी क्यों रोती है?
माँ बाहर गई है और बाकी लड़कियाँ औरतें उसी अँधेरे कमरे में इकट्ठी हो गई हैं।
“गठीले बदन का है”, मौसी इस तरह कहती है कि दीदी की सब सहेलियाँ हँसने लगती हैं।
- क्या करता है?
- उससे क्या लेना? फिर हँसी। - हैंडसम है..
मेरी चचेरी बहन दीदी की बाँह पर चिकोटी काटती है। दीदी नहीं रोती। क्यों? - नाम क्या है लड़के का? कोई दरवाजे के बाहर से पूछता है।
- अतुल..... और ऐसा होता है कि कमरे की दीवारों पर राख पुतने लगती है, मेरे सिवा सब गायब होने लगते हैं। छत तड़ तड़ तड़ाक टूटती है और गिरने लगती है। लेटे हुए मुझे चाँद दिखाई देता है, जिस पर बैठकर शिप्पी चरखा कातती हुई सुबक सुबक कर रो रही है। उसका सूत सपनों के रंग का है- मटमैला। मैं शिप्पी को पुकारता हूं, लेकिन वह मुझसे बात नहीं करती। वह सूत पर लिखकर भेजती है-पूछती है कि मैं रात को कैसे सो जाता हूं? मैं हाथ जोड़ता हूं, पैर पड़ता हूं, बाल नोचता हूं, छाती पीटता हूं और शिप्पी नहीं सुनती।

मोटरसाइकिल और इंतज़ार की कहानी

यह एक बहुत बड़बोला सा दिन है, अपनी ऊँचाई से ज्यादा बड़ा। धूप देखकर ऐसा लगता है, जैसे चार सूरज एक साथ निकले हों। पार्क की सीमाओं का अतिक्रमण करते एक पेड़ की छाया में मैंने मोटरसाइकिल खड़ी कर दी है और उस पर बैठकर नीलाक्षी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। अब से पहले हम बिना एक दूसरे को मिलने का वक़्त दिए यहीं मिलते रहे हैं।
कुछ देर में मुझे लगने लगता है कि जैसे पूरी दुनिया मुझे इगनोर कर रही है। झाड़ू लगाता हुआ जमादार मुझे वहाँ से हटने के लिए नहीं कहता। उसे असुविधा होती है, लेकिन वह चुपचाप मोटरसाइकिल के पहियों के नीचे दबे हुए पत्ते भी बुहार ले जाता है। मैं पास से गुजरती हुई एक औरत से समय पूछता हूं और उसे नहीं सुनता। सड़क के उस पार लगे हुए होर्डिंग पर खड़ी हुई लिरिल वाली लड़की ने मेरी ओर से इस तरह मुँह फेर रखा है जैसे मुझे देखते ही होर्डिंग टूटकर गिर जाएगा। मैं जिस जगह खड़ा हूं, वहाँ रोज एक चायवाला खड़ा होता है। कल वह अपनी इसी जगह के लिए एक कार वाले से झगड़ बैठा था, लेकिन आज उसने अपनी रेहड़ी मुझसे दूर हटकर लगा ली है। मैं नीलाक्षी को फ़ोन करता हूं और मेरा फ़ोन उठाना जरूरी नहीं समझा जाता। उस बड़बोली दोपहर में मुझे लगने लगता है कि मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह ख़याल इतना तीखा है कि अकेला ही आत्महत्या करने पर मजबूर कर सकता है। मुझे जोरों से प्यास लगती है। मैं छटपटाने लगता हूँ। मैं माँ को फ़ोन करता हूँ कि वह मेरी कुछ कविताएँ ढूंढ़कर मुझे अभी सुनाए। मैं अपने अस्तित्व को महसूस करना चाहता हूं। मुझे अपने होने को देखने के लिए कुछ चाहिए, लेकिन माँ चिढ़ जाती है और जल्दी घर आने को कहकर फ़ोन काट देती है। इन दिनों मेरी आवाज़ के फ़ोन काटना बहुत बार होता है। मैं चाहता हूं कि गुलमोहर के उस पेड़ का कोई पत्ता मुझ पर गिरे और इस प्रयास में मैं उसके नीचे टहलने लगता हूं, लेकिन मुझे छुआ तक नहीं जाता। मुझे लगता है कि शायद मेरा नम्बर देखकर नीलाक्षी फ़ोन ना उठा रही हो। मैं कोई टेलीफ़ोन बूथ ढूंढ़ने के लिए चल देता हूं और हड़बड़ी में भूल जाता हूं कि दो हज़ार पाँच की उस हीरो होंडा पैशन मोटरसाइकिल में मैंने ‘एन’ के आकार के छल्ले में पिरोई हुई चाबी लगी छोड़ दी है। मैं भूल जाता हूं....नहीं, मुझे आभास भी नहीं है कि सामने फोटोग्राफ़र की दुकान पर बैठा बेरोज़गार रणवीर सिर्फ़ ताश ही नहीं खेल रहा। मैं भूल जाता हूं कि चाय की रेहड़ी वाला मुझे नहीं पहचानेगा और उसे कोई मोटरसाइकिल भी याद नहीं रहेगी। मैं भूल जाता हूं कि सामने लिरिल से नहा रही निर्जीव लड़की, लड़की नहीं बाज़ार है। मैं भूल जाता हूं कि जब पुलिसवाला पूछेगा तो मुझे अपनी बाइक का नम्बर भी याद नहीं होगा। मुझे मालूम नहीं है कि रणवीर के पास पैसे नहीं हैं और उसकी पत्नी मोटरसाइकिल लाने की ज़िद पर अड़ी है। जैसे ही नीलाक्षी फ़ोन उठाती है, मैं केबिन के काँच में से देखता हूं कि एक युवक, जिसके नाम रणवीर को मैं नहीं जानता, मेरी मोटरसाइकिल लेकर तेजी से जा रहा है। वह फ़ोन उठाकर भी कुछ नहीं बोलती। बोलती भी कैसे? जो नम्बर डायल हुआ है, वह नीलाक्षी का तो नहीं है। मैं भूल जाता हूं कि आखिर में जो 765 है, वह 865 तो नहीं है ....या 378 तो नहीं है....या 475 तो नहीं है... संख्याओं को याद न रख पाना मेरी पुरानी कमज़ोरी है और कोई नीलाक्षी भी है और उसको फ़ोन करना साँस लेने से भी ज़्यादा जरूरी है, रणवीर यह नहीं जानता। यदि जानता होता तो शायद सिर्फ़ मोटरसाइकिल लेकर जाता। हालांकि यह इन सब संभावनाओं को सोचने का वक़्त नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं।
मोटरसाइकिल का चोरी हो जाना एक आम सी घटना है, लेकिन उस पर रखे सेलफ़ोन का और उसमें रखे नम्बरों का उसके साथ चोरी हो जाना इतना आम नहीं है कि बरसों बाद एक दोपहर रोटी का कौर तोड़ते हुए अचानक उसे याद कर रो न पड़ूं।

नाम की कहानी (संदर्भ के लिए)

- नीलप्रीत.....ए की नाम होया बई? वह उसे छेड़ने के मूड में था लेकिन अपने नाम का मजाक उड़ाया जाना उसे भला नहीं लगा। वह खामोश रही। - तू कोई होर प्यारा जा नां रख लै.... - तू ही रख दे। वह तुनककर बोली तो उसने कुछ क्षण सोचा और फिर एक झटके में कह दिया- नीलाक्षी।
यूं कि उस की पहली प्रेमिका का नाम नीलाक्षी था जो एम बी बी एस करने रूस चली गई थी और जिसका नाम उसकी कलाई से थोड़ा ऊपर न पर छोटी इ की मात्रा के साथ गुदा हुआ था। यूं कि मेरी नीलाक्षी का नाम नीलप्रीत था और नीलप्रीत हँसते हँसते बनाना शेक पीते पीते नीलाक्षी हो गई थी। यह नेशनल बुक डिपो के पाण्डे जी से मुस्कान के बदले डायरी लेने से बहुत पहले की बात थी। लेकिन नीलप्रीत ने नीलाक्षी को हमेशा के लिए अपने माथे पर सजाकर रख लिया, जैसे उसने उसके दिए हुए बीसियों उपहार अपनी अलमारी में सजाकर रख लिए थे, जिनमें चॉकलेट के रैपर तक सँभालकर रखा जाना बहुत अचरज की बात थी। यूं कि जिस नाम से मैं उससे प्यार करता था, वह नाम भी किसी ने उसे गिफ़्ट में दिया था। लेकिन वह बताती थी कि जब वह चार दिन की थी और उसके बम्बईया बुआ और फूफा उसे देखने आए थे और उसके रंगीन फूफाजी ने नीले काँच के चश्मे के पीछे से उसे देखा था और उन्हें भ्रम हो गया था कि बच्ची की आँखें नीली हैं और उन्होंने घोषणा कर दी थी कि लड़की का नाम नीलाक्षी ही रखा जाएगा। फूफाजी जिस फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी में एक्टर कोऑर्डिनेटर थे, उसकी मालकिन का नाम नीलाक्षी था। तोम्स्क में मेडिकल पढ़ रही नीलाक्षी और बम्बई में फ़िल्म बना रही नीलाक्षी चाहे असल में हों या न हों, लेकिन अगर होंगी तो उन्हें प्रेम करने वाले लोग उनसे ही प्रेम करते होंगे, रागिनी या दीपशिखा से नहीं।
मैं किसी और के तोहफ़े में दिए हुए नाम की, किसी और की नीलाक्षी से प्रेम करता था।

भूल जाने वाली लड़कियाँ : लोहे सी याददाश्त वाली माँएं

वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे शताब्दी एक्सप्रेस के वातानुकूलित डिब्बों से चोरी चोरी झाँकते पानी में डूबी धान के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में अतीत के धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
दीदी आ गई थी। मेरी पाँच साल की भांजी दिनभर कहती फिरती थी कि उसकी मम्मी छोड़ दी गई है और इसी एक बात पर माँ उसे दस बार पीटती थी। वह कुछ देर रोती और फिर आँसू पोंछकर खेलने लगती और कुछ देर बाद कागज के गत्तों से अपनी गुड़िया का घर बनाती। सब कुछ भूलकर नानी को बुलाकर अपना घर दिखाती, माँ तारीफ़ करती, उसे पुचकारती और वह उस गुड़ियाघर का दरवाज़ा खटखटाते हुए अनजाने में यही बड़बड़ाने लगती। माँ की आँखों में प्याज कटने जैसे आँसू आ जाते और वह फिर से उस अबोध बच्ची को एक चाँटा लगा देती। डाँट-फटकार, चीख-पुकार और मान-मनौवल का यह सिलसिला घर में सारा दिन चलता।
कुछ दिन तक दीदी भी अचानक किसी भी बात पर रोना शुरु कर देती और फिर घंटों तकिए में मुँह छिपाए पड़ी रहती। लेकिन यह सब धीरे धीरे कम होने लगा। दीदी आस-पड़ोस में जाने लगी। फिर धीरे धीरे शादी से पहले के उन्हीं पुराने किस्सों में रस लेने लगी। एक दिन मैंने दीदी को हँस-हँस कर किसी पड़ोसन को यह बताते सुना कि शारदा को आए दो महीने हो गए हैं, लेकिन उसकी ससुराल वाले उसे लेने ही नहीं आ रहे। दीदी को आए छ: महीने हो गए थे और दीदी सचमुच हँसती थी। मेरा बचपन का दोस्त संदीप मुझे अब भी ख़त लिखता है। वह मनोवैज्ञानिक बन गया है और कभी कभी बिना प्रसंग के यूं ही बेसिरपैर की बातें लिखता रहता है। इस बार की चिट्ठी में उसने लिखा है कि लड़कियों के दिमाग में एक मीमक नाम का द्रव होता है, जिससे वे जल्दी भूल जाती हैं।
जैसे मैं ट्रेन में बैठा हूं। मेरे पास की दो सीटों पर दो लड़कियाँ बैठी हैं। वक़्त काटने के लिए वे बात करने लगती हैं। एक बताती है कि वह जे एन यू से मास कॉम पढ़ रही है। दूसरी बताती है कि वह सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है। फिर वे दोनों चूड़ीदार और पटियाला सलवार पर चर्चा करने लगती हैं। फिर दूसरी पहली को बताती है कि इंटरनेट पर एक ऑर्कुट नाम की साइट है जिसमें दोस्त बनाए जा सकते हैं, पुराने दोस्तों को ढूंढ़ा जा सकता है और फिर वह तुरुप के पत्ते की तरह भेद खोलने वाले स्वर में कहती है कि उसमें दूसरों की बातें भी पढ़ी जा सकती हैं। दूसरी कहती है कि वह भी जॉइन करेगी। फिर ट्रेन रुकती है और दोनों उतरकर अपने अपने घर चली जाती हैं। शाम होते होते दोनों एक दूसरे को भूल जाती हैं, ऐसे कि कुछ महीने बाद पहली लड़की जब एक न्यूज़ चैनल पर समाचार पढ़ रही है और दूसरी लड़की टीवी चलाकर मैगी खाते खाते ऑफ़िस के लिए तैयार हो रही है तो सब कुछ सामान्य है, कहीं कोई सुखद आश्चर्य नहीं, और मैं दोनों को कभी नहीं भूल पाता। जैसे नीलाक्षी किसी बात पर बहुत खुश है। मैं नैस्केफ़े की एक लाल छतरी के नीचे उसके सामने बैठकर उसकी आँखों में झाँक रहा हूँ। मेज पर उसकी उंगलियाँ ‘हमको हमीं से चुरा लो’ की धुन में थिरक रही हैं। मैं उससे प्यार करता हूँ और आज उसका मन अपनी चंचलता के चरम पर है। उसका किसी से हँसी ठट्ठा करने का मन है। उसका मन है कि वह कुछ अटपटा कहे, जो कहने से पहले उसे भी पता न हो। उसका बहुत मन है कि आज वह किसी से एक औचक सा झूठा वादा जरूर करे और ऐसे में मैं उसे मंच देता हूँ। वह अचानक कहती है कि वह गौरव से शादी करेगी, जो उसकी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा और अगले क्षण के बिल्कुल पहले ही वह भूल जाती है कि उसने क्या कहा है, जैसे नीलप्रीत भूल जाती है कि बचपन में उसे सब शिप्पी कहकर पुकारते थे। माँ को रह-रहकर जाने क्या याद आता है कि वह नीलाक्षी से मिले बिना ही मुझसे बार बार मौके-बेमौके कहती रहती है कि वह अच्छी लड़की नहीं है।

टोटे टोटे (टुकड़े टुकड़े)

- इसका क्या अर्थ होता है कि कोई अपने पीएचडी थीसिस के छठे पन्ने पर लिख दे- अंग्रेज़ी के पहले अक्षर ‘A’ को समर्पित? चायवाला चुप खड़ा रहा। मैं उस टेलीफ़ोन वाले केबिन से दौड़कर आया था और चीखने चिल्लाने, शोर मचाने या अपनी मोटर साइकिल के पीछे दौड़ते रहने की बजाय मैंने चायवाले से यही पूछा था। वह अचकचाकर मुझे देखने लगा था, लेकिन चुप। उसके बाद मैंने अपने मोबाइल के लिए जेबें टटोली थीं और वह रणवीर की शर्ट की बायीं जेब में था, इसलिए मुझे नहीं मिला और मैं पार्क की रेलिंग के सहारे ढह गया था।
उससे पहली शाम तक मुझ पर पंजाबी सीखने का जुनून सवार था। सब अख़बार हटवाकर मैंने घर में जगबाणी लगवा लिया था, जिसे न मैं पढ़ पाता था और न ही घर में कोई और। मैं लाइब्रेरी में जाकर सिर्फ़ पंजाबी की किताबें ढूंढ़ता, जो गिनती में बीस से ज्यादा नहीं होती। मैं उन्हें खोलकर बैठा रहता था और अक्षरों को चित्रों की तरह देखता रहता था। मुझे उस 2004 वाली डायरी में पंजाबी में लिखा पढ़ना था।
जहाँ उन किताबों की शेल्फ़ थी, वहाँ अमूमन कोई नहीं आता था। मैं भी वहाँ जाता था या ऐसा मुझे सिर्फ़ लगता ही था, मैं पक्के तौर पर नहीं बता सकता।
उस शाम भी मैं ऐसे कोने में बैठा था, जहाँ बिल्कुल मेरे सामने आए बिना मुझे नहीं देखा जा सकता था, लेकिन मैं पूरे हॉल को देख सकता था। और मैंने देखा कि उस कोने में, जहाँ उसके सिर को ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ लगभग छू ही रही थी, नीलाक्षी बेसुध हुई जा रही थी। वह और अतुल इस तरह साथ थे कि उन्हें अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता था। उनके होने में एक दूसरे के पृथक अस्तित्व को पी जाने, निगल जाने की बेचैनी थी। वह हवा जितनी हथेली हिलाकर उसके पार की हवा को महसूस कर सकती थी। उनके बीच नामों की अदलाबदली थी, बदलने के दौरान की दरमियान की शरारतें थीं, अपना हिस्सा पहले लेने की ज़िद थी, अपने चेहरे पर गिरी लट हटाने का उन्मादी आलस था, हटा देने का बेचैन आग्रह था, होठों के दुस्साहस पर रूठ कर उन्हीं में छिप जाना था, फिर से गलती करके मना लेने का आत्मविश्वास था, उस की काँपती हुई गर्दन पर वही निठल्ला सा तिल था, डेढ़ सौ साल पुरानी वही लाइब्रेरी थी, अतुल था और नीलाक्षी थी जो उसके लिए बार-बार नीलप्रीत हो जाती थी और वह उसे नीलाक्षी कर देता था।
मैंने देखा कि मैं दूध लेकर डोलू हिलाते हुए आ रहा हूं और जैसे ही मैं पुजारियों के घर से बाहर निकलता हूं, मेरे साथ चलने से पहले शिप्पी हवा में अपना दायां हाथ उठा देती है और उसके हाथ के लाख के कंगन बजते हैं। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। नहीं, शिप्पी की उम्र आठ साल है या आठ नहीं तो दस होगी...या ग्यारह। वह किसी को इशारा नहीं कर सकती। उसे मालूम भी नहीं होगा कि किसी को बुलाने के लिए बिना आवाज़ लगाए भी कुछ किया जा सकता है। वह दिनभर कंचे खेलती रही थी, इससे उसका हाथ दर्द करने लगा होगा और इसीलिए उसने हाथ ऊपर उठाया होगा। लेकिन अतुल पीछे क्यों आ रहा है? शिप्पी नहीं, मैं उसे पहले देखता हूं और डर सा जाता हूं। शिप्पी की उम्र ग्यारह है और मेरी सात। शिप्पी ने चौड़े घेरे का ऊँचा फ्रॉक पहन रखा है। आज शाम से ही ठंडी पछुआ हवा चल रही है। मुझे लगता है कि वह डरकर काँप रही है।
उसकी आँखों में रेत गिर गई है और वह हाथ से आँखें मसल रही है। मेरी आँखों में डर के आँसू हैं और उनके पार मुझे पूरी दुनिया में आँसू दिखाई देते हैं, शिप्पी की आँखों में भी।
मैं पक्का नहीं कह सकता कि उसे देखने के बाद शिप्पी ने मेरे कान में कुछ कहा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि जब वह उसे टूटे दरवाजे वाले कमरे में ले जा रहा था तो मैंने उसे रोते देखा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि आधे घंटे बाद जब अतुल उस कमरे से बाहर निकला तो मैं बाहर खड़ा था और उसने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि मैंने ज़मीन पर पड़ी हुई शिप्पी को रोते देखा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि चार घंटे तक मैं उसे चुप करवाने के लिए अपनी शर्ट भिगोता रहा था। मुझे कुछ याद नहीं है और मैं कुछ याद कर सकने की स्थिति में भी नहीं हूँ। अपनी लड़कियों जैसी खराब याददाश्त और सच को बताने की हिम्मत न जुटा पाने के लिए मैं हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता हूँ।
लेकिन मैंने साफ साफ देखा है कि चाँद खाली है। वहाँ किसी को फ़ुर्सत नहीं कि चरखा काते और मटमैले सूत पर कुछ लिखकर भेजे। जो चाँद को पढ़ना चाहते हैं, उन्हें उसकी शाश्वत शीतलता जला डालती है।
मैंने देखा कि सामने नीलाक्षी अकेली आराम से बैठकर शरतचन्द्र का ‘देवदास’ पढ़ रही है और मैं गुस्से से उठकर उसके पास जाता हूं और उस एकांत को भेदती हुई, लजाती हुई, मार डालती हुई गालियाँ बकने लगता हूं। मैं नाखूनों से उसका चेहरा नोचने लगता हूं और वह मुझसे बचती भी नहीं, पत्थर की तरह स्थिर बैठी रहती है। मैंने देखा कि लहूलुहान नीलाक्षी अपनी सफाई में या बचाव में कुछ भी नहीं कहती और कुछ देर बाद दिखती भी नहीं।
उसके बाद मैंने कभी नीलाक्षी को नहीं देखा। पक्का नहीं कह सकता कि उस शाम भी देखा था या नहीं। मैं रात तक वहीं ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ और ‘देवदास’ के बीच गुमसुम बैठा रहा था। मैं उससे प्रेम करता था। मैं दोहराता हूँ कि मैं उससे प्रेम करता था, लेकिन मुझे उसका घर नहीं मालूम था, उसके घरवालों का नहीं पता था। उसका दस अंकों का फ़ोन नम्बर ही मेरे लिए उस तक पहुँचने का इकलौता ज़रिया था और अगले दिन वह नम्बर मेरी मोटरसाइकिल के साथ चोरी हो गया था।
बिना किसी प्रसंग के एक बार फिर संदीप ने यूँ ही लिख दिया कि सब क्रिएटिव लोग मानसिक तौर पर कुछ असामान्य होते हैं। मैं अब उसकी चिट्ठियाँ नहीं पढ़ता। वह फ़ोन करता है तो मैं बात नहीं करता।

उसने कहा था...

उसने कहा था- तुम इस तरह लगातार आसमान को मत देखा करो... मैंने कहा था – क्यों?
उसने कहा था - वह तुमसे आँखें नहीं मिला पाता होगा। मैंने कहा था - उसका हुक ढीला थोड़े ही है...जो पलकें झुका लेगा तो खुलकर गिर जाएगा...
उसने कहा था – तुम्हारी आँखों में कुछ है.. मैंने कहा था - क्या? उसने कहा था - कुछ है कि तुम्हें देख कर बेचैनी होती है...
मैंने कहा था - झूठ मत बोलो। उसने कहा था - मैं तुमसे कभी झूठ नहीं बोलती... मैंने कहा था - मैं जानता हूं।
सर्दियाँ आ गई हैं, लेकिन माँ ने बुनना छोड़ दिया है। माँ अब खिली खिली सी रहती है। मेरी ज्यादा फ़िक्र करने लगी है। सुबह शाम मेरी पसंद का ही खाना बनाती है। मैं नहीं खाता तो उसने भी करेला खाना छोड़ दिया है। पिछले हफ़्ते माँ ने पहली बार मेरी किसी कविता की प्रशंसा की थी। आजकल वह मेरी कविताएँ पढ़ती है और उन पर बातें भी करती है। माँ में अचानक एक नई ऊर्जा आ गई है। घर के सब गद्दे लिहाफ़ वह फिर से भरवा रही है। रोज बाज़ार जाती है और घर को सजाने के लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है।
- संदीप का लेटर आया है। माँ बाहर से चिल्लाकर कहती है और मैं अनसुना कर देता हूं। माँ ख़त लेकर अन्दर आ गई है और उसने फाड़कर ख़त खोल लिया है। मैं माँ से कहना चाहता हूं कि दूसरों की चिट्ठियाँ नहीं पढ़नी चाहिए, लेकिन नहीं कहता। माँ कुछ पढ़कर मुस्कुराती है और सोचती है कि मैं उससे पूछूंगा कि क्यों मुस्कुरा रही हो, लेकिन मैं नहीं पूछता। रात हो गई है। मैं नए भरे लिहाफ़ में माँ के साथ बैठा हूं। अँधेरे में रहने वाली माँ अब कमरे में अँधेरा नहीं रहने देती। मैं मुँह ढककर लेट जाता हूं। माँ ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया है। माँ कहती है कि अब मुझे कुछ काम-धाम करने की सोचनी चाहिए और नीलाक्षी को भूल जाना चाहिए। अचानक एक पल के लिए मुझे लगता है कि नीलाक्षी कभी थी ही नहीं।
मैं ठहरे से स्वर में कहता हूं - मेरे पास नीलाक्षी की कोई तस्वीर भी नहीं है माँ....कि ढूंढ़ सकूं उसे। माँ नहीं बताती कि उसके पास शिप्पी की एक तस्वीर है।
मुझे अपना पहले वाला सेल नम्बर वापस मिल गया है। सुबह मैं अपने मोबाइल से पापा को एस एम एस करना सिखा रहा हूं। तभी मोबाइल बजता है। मोबाइल पापा के हाथ में है और वे नहीं जानते कि उन्होंने मैसेज डिलीट करने वाला बटन दबा दिया है। उस आधे सेकण्ड के अंतराल में मुझे मैसेज में कहीं NEEL दिखाई देता है। मैं जब तक पापा के हाथ से फ़ोन लेता हूं, वह मैसेज डिलीट हो चुका है।
मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ जाता हूं। पापा हकबकाकर मुझे देखते रहते हैं। वे नहीं जानते कि क्या हुआ है।
अन्दर से माँ कहती है – कल से पछुआ चल रही है....और इस साल जितनी सर्दी तो कभी नहीं पड़ी।
मैं टुकुर टुकुर आसमान को देखता रहता हूं।

-गौरव सोलंकी

Monday, June 1, 2009

जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी

विमल चंद्र पाण्डेय युवा पीढ़ी के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। गौरतलब है कि विमल चंद्र पाण्डेय को इनके पहले कहानी-संग्रह 'डर' के लिए वर्ष 2008 का नवलेखन पुरस्कार मिला। कहानी-कलश इन कहानी-संग्रह की प्रत्येक कहानी को इंटरनेट के पाठकों तक पहुँचाने को वचनबद्ध है। अब इस कहानी संग्रह की 11 कहानियाँ (उसके बादल, सिगरेट, एक शून्य शाश्वत, वह जो नहीं, सोमनाथ का टाइम टेबल, डर, चश्मे, 'मन्नन राय ग़ज़ब आदमी हैं', स्वेटर, रंगमंच और सफ़र ) प्रकाशित की जा चुकी है। अब पढ़िए इस संग्रह की अंतिम कहानी 'जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी'



जैक, जैक, जैक रूदाद-ए-नीरस प्रेम कहानी


कहानी शुरू करने से पहले बता दूं, यह एक निखालिस प्रेम कहानी है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कोई तत्व ज़बर्दस्ती अतिक्रमण करके इस प्रेम कहानी का हिस्सा न बने। यह आपको अच्छी लगे, इसके लिये मैं जान लड़ा दूंगा। शृंगार रस की ज़्यादा गुंजाइश न होने के बावजूद मैं वादा करता हूं कि जहां भी मौका मिलेगा, तबीयत से प्रयोग करूंगा।
प्रेम कहानी कमसिन नायक-नायिका की नहीं है। ख़सरे की तरह प्रेम जीवन में एक बार ज़रूर होता है और नायक का अट्ठाइस साल की उमर में यह पहला प्रेम है। उमर ज़्यादा होने के कारण इस प्रेम में कथित रूप से ठंडी हवा के झोंकें नहीं हैं, बल्कि प्रेम बुझी आग में चिंगारी की तरह मौजूद है। वैसे आजकल के प्रेम में ठंडी हवा के झोंके होते भी हैं या नहीं, यह शोध का दिलचस्प विषय हो सकता है। लुब्बेलुआब यह है कि यह मेरी पहली प्रेम कहानी है और इसे आप पसंद करें, इसके लिये मैं इसे सुंदर और रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा। आइये, कहानी की शुरूआत मुख्य पात्रों के परिचय से करते हैं।
सर्वप्रथम नायक का परिचय। नायक का नाम कृष्ण मुरारी है। प्रेम कहानियों के हिसाब से यह नाम बहुत ग़ैर-रूमानी और ग़ैर-परंपरागत है पर नायक की मजबूरी है कि अब नाम के साथ कुछ नहीं किया जा सकता। मुझे आभास है कि पाठकों के लिये प्रेम कहानी के नाम पर यह एक निहायत ही भौंडा मज़ाक है पर नायक की तरह मैं भी मजबूर हूं। नायक का मुंगेर से दिल्ली (वाया बनारस, परास्नातक बी.एच.यू. से) पदार्पण पत्रकारिता की पढ़ाई के सिलसिले में हुआ है। मुंगेर में उसे अपने नाम का उतना मलाल नहीं था, पर दिल्ली आकर उसे नामों की सार्थकता का बोध हुआ है और उसने इस दिशा में ठोस क़दम उठाये हैं। शुरू में ही उसने उन मक्कार दोस्तों को ख़ूब चाय पिलायी है जो खाकर थाली में छेद करने के लिये कुख्यात हैं। यानी जिसके साथ ज़्यादा रहेंगे, जिसका ज़्यादा ख़र्च करायेंगे, उसी के नाम को बिगाड़ देंगे। इसके पीछे नायक का मंतव्य यह था कि इस भक्तिकालीन नाम को जितना बिगाड़ कर पेश करेंगे, वह मौजूदा स्थिति से बेहतर ही होगा। शुरू में नायक का नाम मुर्री हुआ, फिर मुर्रू। वह निराश हुआ और कुछ दोस्तों को नयी रिलीज फ़िल्म ’किसना’ दिखाने ले गया। कुछ काइंया दोस्त नायक की मंशा भांप गये और नायक से बीयर बर्गर का भोज लेते हुये उसका नामकरण ’किसना’ कर दिया, हालांकि ज़्यादातर नमकहराम उसे मुर्रू ही बुलाते हैं। नायक बहुत उत्साह या भीषण दुख में ( जो प्रायः दारू पीने के बाद प्रकट होता है) अंग्रेज़ी बोलने लगता है। शायद अधिकतर पूरबियों की तरह अंग्रेज़ी उसका भी इनफ्रियॉरिटी कांप्लेक्स है। उसके कमरे से रेन एण्ड मार्टिन कृत ग्रामर और नॉर्मन लुइस द्वारा रचित ’वर्ड पॉवर मेड इज़ी’ इज़ी वे में बरामद की जा सकती है। नायक का सेंस ऑव ह्यूमर अच्छा है।
नायिका भी नायक के साथ पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है। नायक की तुलना में नायिका का नाम साहित्यिक सौंदर्य लिये हुये है और उसमें प्रेम की भी प्रबल संभावनाएं हैं। उसका नाम वेदिका है और उसकी आवाज़ बड़ी प्यारी है। वह मूल रूप से बनारस की रहने वाली है और पिछले चार-पांच वर्षों से मयपरिवार दिल्ली के पास नोएडा में रह रही है। स्नातक की पढ़ाई उसने यहीं से की है। चार-पांच वर्षों के अथक प्रयास से उसने बनारस का कस्बाई चोला उतार दिया है और दिल्ली के ’ओ शिट’ चोले में घुस चुकी है। यह दीगर बात है कि कभी-कभी उसका हाथ बाहर रह जाता है और कभी पैर। गो उसे उम्मीद है कि वह जल्दी ही पूरी तरह दिल्ली वाली यानी ’डेलहाइट’ हो जायेगी। (उसके बाद वह क्या करेगी, यह उससे किसी ने पूछा नहीं है।) बस थोड़ी सी कसर रह जाती है जब वह संस्कारों से ग्रस्त होकर जींस-टॉप पर दुपट्टा या दुपट्टानुमा कोई चीज़ टांगकर चली आती है भले ही वह फ़ैशन से बहुत बाहर की चीज़ हो।
नायक का एक मित्र भी है जिसका परिचय आवश्यक है। यह पात्र नायक के सबसे क़रीब है। नाम है विमल पांडे। वह भी बनारस से आया है। एक ही शहर का होने के कारण नायिका से उसकी अच्छी दोस्ती हो गयी है। यह कहानियाँ लिखता है। कहानियाँ इसलिये लिखता है क्योंकि और कोई काम करना, ख़ास तौर पर मेहनत वाला, करना इसके वश का नहीं है (उम्र अठाइस साल, वज़न चौवालिस किलोग्राम)। कम बोलता है, क्योंकि जब ज़्यादा बोलता है तो अनर्गल बोलने लगता है। जब कहानियां पत्रिकाओं से बिना छपे लौट आती हैं तो किसी से चर्चा भी नहीं करता, पर जब दस वापस लौटने के बाद एक किसी टुच्ची पत्रिका ( कृप्या संपादकगण अन्यथा न लें ) में छप जाती है तो वह पत्रिका पूरे कॉलेज में दिखाता है और अपने मित्रों को पढ़वाता रहता है, ख़ास तौर पर लड़कियों को। जब कोई लड़की उसके सामने ही कहानी पढ़ने लगती है, तो वह निर्विकार सा चेहरे पर यह भाव लिये सिगरेट पीता रहता है कि ऐसी कहानियां तो वह चुटकियों में लिख सकता है, पर साला वक़्त किसके पास है। कहानी ख़त्म होने से पहले ही कहता है- ’’पढ़के किताब दे देना, अभी निधि ज़िद कर रही थी घर ले जाने की।’’ मित्रों के बीच अक्सर ऊँची-ऊँची फेंकता रहता है। बातों में अक्सर ज़बरदस्ती ब्रेख़्त, नेरुदा, काफ़्का, सात्रर और दिदेरो आदि का ज़िक्र ले आता है। मित्रों को बल भर आतंकित करता रहता है। चूंकि उन्होंने पत्रिकाओं में इसके नाम और चित्र देखे हैं, इसलिये चुप रहते हैं। हमेशा अपनी आज़ादख़याली की दुहाई देता रहता है। अपनी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और स्वभाव पर इसे गर्व है। ब्राह्मण होने के बावजूद अपने बीफ़ खाने का वर्णन गर्व से करता है (इसे पता है कि क्रांतिकारी कहलाने के लिये और कुछ करो या नहीं, पहले अपना धर्म तो भ्रष्ट कर ही डालो)। कई स्तरों पर मित्रों में इसका आतंक व्याप्त है। कुछ आतंकित मित्रों ने इसका नाम साहित्यकार रख दिया है और कुछ मूर्ख तो यहां तक कहते हैं कि विमल नींद में भी लिख देगा तो सही ही होगा। यही मूर्ख इसकी ताक़त हैं। नायक के नाम के विषय में इसका मत है कि इस नाम के साथ नायक को अध्यापक बनना चाहिये न कि पत्रकार।
तो कथा शुरू होती है दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिणी परिसर के लॉन से। पत्रकारिता का यह कोर्स पूरे दो वर्ष का है, जिसे पूरा कर लेने के बाद नौकरी मिलने की रही-सही संभावना भी समाप्त हो जाती है। पर चूंकि अभी यह इनका प्रथम सेमेस्टर है, इन्हें न इस सच्चाई का पता है न ये जानना चाहते हैं।
पहले सेमेस्टर का दूसरा महीना ख़त्म होने को है। सभी का आपस में परिचय ताज़ा-ताज़ा है। कुछ आनंद जैसे छात्र हैं जिन्होंने प्रवेश लेते ही कन्या फांसने के एकसूत्री कार्यक्रम पर परिश्रम करना शुरू कर दिया है।
लॉन में आठ-दस लोग बैठे हैं। सभी आपस में धीरे-धीरे खुल रहे हैं। लड़कों में नायक कृष्ण मुरारी, नायक का मित्र विमल, विभव, आनंद, शशि, झा जी और लड़कियों में रजनी, शीतल, बबली और निधि वग़ैरह बैठी हैं। झा जी क़रीब अड़तीस वर्ष के प्रौढ़ हैं जो विवाह न होने के कारण लड़के कहे जाते हैं। इस कोर्स के लिये उम्र की संभवतः अधिकतम कोई सीमा नहीं है और न्यूनतम सीमा इक्कीस वर्ष है। इसलिये विद्यार्थियों में शीतल, बबली, सुंदर और नरेंदर जैसे बच्चों से लेकर झा जी जैसे बुज़ुर्ग भी हैं। इनके आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद हो चुके हैं और दाढ़ी भी बहुमत की ओर जा रही है। इनका इंफ्रास्ट्रक्चर देखकर लगता है कि अब ये हमेशा लड़के ही रहेंगे। आप हिंदी साहित्य से एम.ए. हैं और बोरियत की हद तक शरीफ़ हैं। ख़ास तौर पर लड़कियों से बात करते समय चुतियापे की हद तक सौम्य एवं भद्र बन जाते हैं। सभी विद्यार्थी इनका बहुत सम्मान करते हैं और इन्हें इनके पूरे नाम से न पुकार कर झा जी कहते हैं ( वैसे ज़्यादातर को इनका पूरा नाम पता ही नहीं है, इनकी सौम्यता और गरिष्ठता देखकर लगता है कि बचपन से ही इनका नाम झा जी ही है)। ये कहीं अनुवादक की नौकरी भी करते हैं, इसलिये चाय अक्सर ये ही पिलाते हैं। जब झुंड में कोई लड़की भी मौजूद हो, तक झा जी से चाय की फ़रमाइश की जाती है और ये सहर्ष हाथ बटुये पर ले जाते हैं। यदि साक्षात् किसी लड़की ने फ़रमाइश की हो तो झा जी प्रायः समोसे भी मंगा ही लेते हैं। अभी झा जी जाने के लिये उठ खड़े हुये हैं।
’’ अब मैं चलूंगा।’’
’’ अरे झा जी, बैठिये न।’’ एक की ज़िद।
’’ कार्यालय जाने को विलंब हो रहा है।’’
’’ झा जी, पांच-दस मिनट बैठिये, फिर मैं भी चलूंगा। मुझे भी उधर ही जाना है।’’ एक का प्रस्ताव।
’’ आप लोग बैठें। मुझे अनुमति दें।’’ झा जी का निश्चय पक्का है।
ठीक इसी समय नायिका की एण्ट्री होती है। नीली जींस और सफ़ेद कुरते पर उसने काला दुपट्टा बेपरवाही से फेंक रखा है। वह आती है, एक नज़र सबकी ख़ाली हो चुकी चाय की प्यालियों पर डालती है और एक नज़र जाने को तत्पर झा जी पर। उसके दोनों हाथ जुड़ जाते हैं और जलतरंग सी आवाज़ आती है।
’’नमस्कार झा जी। जा रहे हैं ? हमें चाय नहीं पिलायेंगे ?’’
झा जी इस वार से बच नहीं पाते।
’’ क्यों नहीं वेदिका, बैठो।’’ झा जी आधे दिन की तनख्वाह प्रत्यक्ष कटती देखते हुये भारी क़दमों से चाय लाने चले जाते हैं। इस क्षण उसके मन में एक अजीब प्रश्न कौंधता है कि चाय की खोज किसने की।
पाठकों, इस क्षण को ध्यान से पकड़िये। यही वह क्षण है जब नायक के मन की प्रेमकली खिल कर फूल बनती है। नायक नायिका पर बुरी तरह आसक्त होता है। नायिका नायक के बगल में बैठने को उद्यत होती है और उससे मुस्करा कर कहती है, ’’ मुरारी जी, ज़रा खिसकिये।’’
नायक बेहाल, नायक निढाल, नायक हलाल। मुरारी जी, मुरारी जी, मुरारी जी, यह शब्द उसे इतना प्रिय लग रहा है कि उसे विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही सड़ेला नाम है जिसे बदलने के वह सपने देखा करता है। इसके बाद वहां कुछ और उल्लेखनीय नहीं हुआ। क्या आप होने वाली घटना का इंतज़ार कर रहे हैं ? साहेबान, घटना होकर ख़त्म हो चुकी है। यह मुख़्तसर सी घटना और यह एक पंक्ति से भी छोटा संवाद ’’मुरारी जी, ज़रा खिसकिये’’ ऐतिहासिक महत्व पा चुका है। इस घटना के बाद ही सभी सहपाठियों ने मुरारी जी यानी नायक के हाव-भाव में क्रांतिकारी और हाहाकारी परिवर्तन देखा है। कुछ क़रीबियों, जैसे नायक के मित्र विमल का, जो नायक की हर पीड़ा से परिचित है, कहना है कि ’’मुरारी जी ज़रा खिसकिये’’ वाली घटना के बाद से मुरारी जी ज़रा के बजाय बहुत ज़्यादा खिसक गये हैं।
नायक पांडव नगर में रहता है जो यमुना पार पड़ता है और बिहारियों का गढ़ कहा जाता है। पांडव नगर में घुसने पर पहले-पहल नायक को मुग़ालता हो जाता था कि वह मुंगेर के बेलन बाज़ार में घुस रहा है। यहां जो दिल्लीवासी हैं वे भी यहां के बिहारियों से आक्रांत हैं। नायक कुछ समय पहले तक अपने मुहल्ले में हुयी एक घटना के कारण उदास था। उसके मकान के सामने वाले मकान में एक लड़की रहती है, जिसे शुरू-शुरू में नायक लाइन मारा करता था और विकल्पहीनता की स्थिति में ख़ूबसूरत कहा करता था। एक दिन सुबह-सुबह न जाने किस बात पर लड़की का अपनी मां से झगड़ा हो गया और मां-बेटी झगड़ते-झगड़ते गली में निकल आयीं। नायक उस समय अपनी बालकॅनी में खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था और बेरोज़गारी के बाद युवाओं की सबसे ज्वलंत समस्या क़ब्ज़ पर चिंतन करते हुये प्रेशर बना रहा था। लड़की की मां चिल्ला कर लड़की को गालियां दे रही थी। लड़की भी नहले पर दहला फेंक रही थी। लड़की ने अचानक ज़ोर से चिल्ला कर अपनी मां से कहा, ’’ गौर से सुन ले, अब जो तूने मुझे गालियाँ दीं तो मैं किसी बिहारी के साथ भाग जाऊँगी, हाँ।’’
मां बेटी के ब्रह्मास्त्र से पराजित होकर चुप हो गयी और अंदर चली गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि भाग जाना गौण धमकी थी और बिहारी के साथ भाग जाना मुख्य धमकी। मां के अंदर जाने के बाद लड़की ने नायक की ओर एक क़ातिल मुस्कान फेंकी और वह भी अंदर चली गयी। नायक का सुबह-सुबह सिगरेट का ज़ायका बिगड़ गया। उसने सिगरेट फेंकी और लैट्रिन में चला गया।
नायक इस घटना के बाद कई दिनों तक विरक्त सा रहा पर क्लास में जब उसका सबसे परिचय हुआ तो उसकी निगाहें नायिका पर अटक गयीं। उसने नायिका से बात करने की बहुतेरी कोशिशें की पर नहीं कर पाया। इसी बीच वह ’’खिसकिये’’ वाली घटना हो गयी।
नायक अब अपने मित्र विमल से नायिका का दिल जीतने की तरक़ीब जानना चाह रहा है। उसका मानना है कि साहित्यकार होने के नाते विमल के पास नायिका का दिल जीतने का कोई तरीक़ा ज़रूर होगा। विमल की समस्या इधर दूसरी है। अधिकांशतः साहित्यिक पत्रिकाओं में लेखक के परिचय के साथ चित्र छापने का भी प्रावधान है। उसके अब तक जो फोटो छपे हैं, उसमें उसका पिचका बदरंग चेहरा और उड़े-उड़े खिचड़ी बाल पहले दिख रहे हैं (फोटो वैसी ही खिंच गयी है जैसा वह है)। उसकी इच्छा एक सुंदर फोटो खिंचवा कर अगली कहानी के साथ भेजने की है, जो कि असंभव है क्योंकि परिचय के साथ केवल और केवल लेखक की ही फोटो छापने का नियम है।
समस्या की वजह यह है कि उसकी कहानी पढ़ कर तो उसे एक भी पाठक ने आज तक प्रशंसा पत्र नहीं लिखा और उसे महात्वाकांक्षा है पाठिकाओं के कोमल, नरम, पुचकारते पत्रों की। तो उसकी समस्या भी नायक से कम विकराल नहीं है पर वह नायक की सहायता के लिये सहर्ष तैयार हो जाता है क्योंकि नायक अभी-अभी कैंटीन से चाय और समोसे लेकर आया है। इस मामले में वह ज़रूर साहित्यकार है। जिसका खाता है, उसका गाता भले न हो, उसकी सहायता के लिसे ज़रूर तत्पर रहता है।
चूंकि यह सत्य गाथा कहानी के रूप में प्रस्तुत की जा रही है न कि उपन्यास के रूप में, इसलिये हर जगह वार्तालाप के मुख्य और संपादित अंश ही दिये जा रहे हैं। प्रस्तुत हैं वार्तालाप के मुख्य अंश।
’’मुझे आजकल रातों को नींद नहीं आती।’’ नायक की गंभीर समस्या।
’’ घर से पैसे नहीं आये क्या ?’’ साहित्यकार का वाज़िब प्रश्न।
’’ नहीं, वह बात नहीं है। हर समय उसी का ख़याल आता रहता है।’’ नायक का रहस्योद्घाटन।
विमल गंभीर होकर सोचने लगता है। गंभीर होकर सोचने के लिये गंभीर दिखना भी पड़ता है। इसे ध्यान में रखते हुये विमल एक सिगरेट भी सुलगा लेता है। एक हाथ में चाय और दूसरे हाथ में सिगरेट लेकर शून्य में देखने लगता है (बीच में उसने कुशलता से समोसे का भी संयोजन कर लिया है)। समोसा खाता है, चाय सुड़कता है, कश लगाता है और शून्य में घूरता हुआ कुछ सोचता है। सिगरेट आधी से ज्यादा ख़त्म हो गयी है पर विमल अभी तक कुछ बोला नहीं है। नायक व्यग्र कि अब इतनी सिगरेट तो उसे मिलनी ही चाहिये पर वह ख़तरा नही उठाना नहीं चाहता। क्या पता सिगरेट ख़त्म होने से ठीक पहले कोई आयडिया आ जाय। बहुत से साहित्यकार एक से एक क्रातिंकारी विचार, कहानियाँ और कवितायें शून्य में ही घूर कर पैदा करते हैं, नायक यह बात भली-भांति जानता है।
आख़िर विमल अंतिम कश लेकर सिगरेट दूर फेंकता है। नायक सिगरेट की दिशा में गर्दन घुमाता है और सिगरेट को गिरकर सुलगते देखता रहता है। साले ने एक कश भी नहीं लगाने दिया। ख़ैर अब किसी क्रांतिकारी विचार के लिये विमल की ओर देखता है।
’’ मेरा ख़याल है कि अब हमें फ्रीलांसिंग के लिये कुछ अच्छे अख़बारों में बात करनी चाहिये।’’ विमल का क्रांतिकारी विचार।
नायक क्रोध से भन्ना उठा है। विश्वविद्यालय की शब्दावलि के अनुसार कहें तो उसकी सुलग गयी है। वह गालियों से नवाज़ते हुये विमल को चाय पीने से पहले का छिड़ा हुआ मुद्दा याद दिलाता है। विमल भूल जाने के लिये क्षमायाचना करता फिर से सोचने लगता है। वह गंभीर होकर सोचना चाहता है कि नायक झपट कर सिगरेट जला लेता है और ख़ुद पीने लगता है। अब दोनों अलग-अलग शून्यों की तरफ देख रहे हैं और समस्या पर विचार कर रहे हैं। विमल बीच-बीच में कनखियों से नायक के हाथ की तरफ देख ले रहा है कि सिगरेट आधी रह जाय तो वह मांग ले और गंभीर से गंभीरतर होकर सोच सके। वैसे उसे पता है ऐसी समस्याओं में गंभीरतर हो कर सोचने से काम नहीं बनता बल्कि गंभीरतम होकर सोचना पड़ता है। और सिगरेट के साथ भी कोई भला गंभीरतम होकर सोच सकता है। कभी नहीं।
तो गंभीरतम होकर सोचने के लिये दोनों अपने मित्र शशि के कमरे पर पहुँचते हैं। शशि और विभव क्रमशः बिहार और उत्तर प्रदेश से हैं और हरिनगर में एक शानदार कमरा लेकर रहते हैं। इनके मकान मालिक दिल्ली के मकान मालिकों के विपरीत बहुत अच्छे और उदार दुर्लभ किस्म के जीव हैं। कमरे के साथ टेबल कुर्सी, पंखा ओर बिस्तरा उन्होंने फोकट में दे रखा है। कमरा बहुत अच्छा, सुविधायुक्त और हवादार है। वरना विभव और शशि पूरी दिल्ली में अच्छा कमरा खोजते-खोजते अवसाद से इतना भर गये थे कि ख़ाली कमरों के बाहर लगे टु लेट के बोर्ड पर टु और लेट के बीच आई लिख कर अपनी निराशा दूर करते थे।
कमरे पर सभी एकमत से सहमत हैं कि नायक की समस्या का समाधान होना इस समय सबसे ज़रूरी है। तो आज की रात पीते हुये विचारणीय ज्वलंत मुद्दा न तो इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण है न सेंसेक्स चढ़ने के पीछे की वजह बल्कि नायक की प्रेम पीड़ा सब पर भारी है।
तो उस रात छक कर पीने के बाद नायक कृष्ण मुरारी के प्रेम पर व्यापक चर्चा हुयी और उसी रात यह रहस्योद्घाटन हुआ कि नायक का मित्र शशि भी क्लास की एक सुंदर छात्रा निधि पर जी जान से मर मिटा है। ध्यातव्य है कि यह वही निधि है जो न्यूज़ रायटिंग की कक्षा में एण्टी करप्शन ब्यूरो को गैर भ्रष्टाचारी विभाग लिखकर अध्यापक का विशेष आकर्षण और कक्षा में अपार ख्याति अर्जित कर चुकी है। वह खोजी पत्रकार बनना चाहती है क्योंकि उसके दादा खोजी पत्रकार थे और पिता भी। अपनी ख़ानदानी पत्रकारिता पर उसे गर्व है।
यदि आप जानना चाहते हैं कि उस रात क्या-क्या बातें हुयी तो आपको निराशा होगी। मेरा मक़सद रोज़ की लंबी चौड़ी बातें सुनाकर आपको बोर करना नहीं है। उस रात पीने के बाद तीनों में गहरी छनी और महसूस किया कि पीने के बाद वे ज़्यादा विद्वतापूर्ण तरीके से समस्याओं का विश्लेषण कर पा रहे हैं फलतः वे हर दो-तीन दिन पर समस्याओं का विश्लेषण कर उनका समाधान निकालने लगे। न गंभीर समस्याओं की कमी थी न धन की। धन विमल और नायक के लिये समस्या हो सकती है शशि के लिये नहीं। शशि के पूज्य पिताजी लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता हैं और उसके घर से पैसे तकिये के खोल में भर के आते हैं। तो तीनों ने पीकर ’’प्रेम में सफलता कैसे पायें’’ नामक गोष्ठी को घंटों चलाया। तीनों, यानी नायक, शशि और विमल। यहाँ यह बताना भूल जाने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ कि विभव नहीं पीता। उसका कहना यह है कि जिस दिन वह इस लायक हो जायेगा कि रोज़ ब्लैक डॉग का ख़र्च वहन कर सके, उस दिन पीना शुरू करेगा। (न पीने वालों के तर्क पीने वालों के तर्कों से कमज़ोर थोड़े ही होते हैं।)। पीने के बाद उस रात क्या बातें हुयीं, यह जानने के लिये किसी भी एक रात की बातचीत देख लीजिये, चित्त शांत हो जायेगा। चूंकि बिल्कुल यही तस्वीर दूसरे सेमेस्टर तक खिंच आयी यानी नायक-नायिका की बातचीत औपरचारिक स्तर से आगे नहीं बढ़ पायी, इसलिये पेश है दूसरा सेमेस्टर ख़त्म होने के कुछ दिनों पहले की दारू पीने के बाद चली गोष्ठी के मुख्य एवम यथासंभव संपादित अंश।
पहला आधा घंटा
शशि: यार मुरारी, कब तक आंखों ही आंखों में बातें करते रहोगे? अब उसको बता दो।
नायक: यार, उसके सामने जाते ही जबान बंद हो जाती है।
विमल: अरे यार, डरना क्या, एक बार प्रपोज तो करो उसे। जो होगा, देखा जायेगा।
शशि: अच्छा, उसने हां कर दी तो......?
नायकः (मुस्कराहट ऐसी, जैसे हाँ कर दी हो) तो क्या......? प्यार को अंजाम तक पहुँचायेंगे। कोर्स खत्म होते ही किसी बढ़िया चैनल में नौकरी ज्वाइन कर लूंगा....फिर शादी।

दूसरा आधा घंटा
नायक: आइ लव हर हिक्... वेरी मच यार।
विमलः तो बताओ उसे हिक्... यह काम तो तुम्हीं करोगे हिक्... कोई दूसरा थोड़ी....।
नायक: एवरी नाइट आइ सेंड हिक्.... एस एम एस टु हर... इन विच आइ राइट दैट आइ हिक्... लव यू बट...
शशि: बट क्या, भोसड़ी वाले... हिक्... (शशि अक्सर पीकर आपे से बाहर होने लगता है)।
यहां विभव का हस्तक्षेप होता है। इन पीने वालों के बीच इस न पीने वाले का काम यही है कि वह बाउंड्री वॉल तोड़ने वालों को डांटकर सीमा में रखे। कोई गालियां देने या मार-झगड़े में न पड़े। पीने के बाद सब उससे डरते भी हैं। वह डांट कर कड़े शब्दों में चेतावनी देता है, ’’ शशि, संसदीय भाषा का प्रयोग मत करो। यह संसद नहीं है। अगल-बगल शरीफ लोग भी रहते हैं।’’
विमलः बट क्या यार हिक्.....थोड़ा नमकीन हिक्..... इधर करना।
नायकः बट फेल्ड.....माई मोबाइल शोज दैट मैसेज सेण्डिंग फेल्ड................।

तीसरा आधा घंटा
शशिः यार निधि भी मुझे हिक्.... बहुत पसंद करती .......है हिक्।
नायकः एवरी नाइट हिक्..........आइ सेंड....हिक्.........टु हर......हिक्.......बट फेल्ड हिक्.....।
विमलः बी बोल्ड......हिक् बोथ ऑफ यू।...........एक-एक हिक् लाल....गुलाब हिक् लो.....और हिक् कह दो......आइ लव हिक् यू.......शशि मेरा थोड़ा लार्ज बनाना हिक्....।
शशिः केवल मैं ही नहीं.........हिक्.......उसे नहीं चाहता। वह भी मुझे हिक् चाहती है। आज उसने मुझसे.......पूछा हिक्.......कि आज तारीख क्या है........हिक्...?
नायकः एवरी नाइट हिक्.........आइ.....सेंड हिक्........बट फेल्ड....।
विमलः फिल्म दिखाने हिक्........ले जाओ........हिक्.......दोनों को और दिल की बात हिक् कह दो......। थोड़ा हिक्......नमकीन इधर करना....।
शशिः मुझसे ही तारीख हिक्........क्यों पूछी.......और लोग भी तो....हिक् थे वहां.....हिक् हिक्।
नायकः एवरी नाइट हिक्........आइ सेंड...हिक्....बट फेल्ड....।
विमलः प्रपोज हर........हिक्। मेरा हिक्........थोड़ा लार्ज बनाना......यार।
शशिः मुझसे हिक्.......ही क्यों हिक्.....? शी........हिक् लव्स मी....हिक् मी।
नायकः एवरी नाइट.........आइ हिक्.....बट फेल्ड......।
ये बातचीत के मुख्य अंश आपके सामने हैं। क्या केवल बातचीत सुनकर आप यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि तीनों में से लेखक कौन है? ख़ैर उसका कहानी से कोई सरकार नहीं। आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि निधि ने आगे वाली पंक्ति से सिर घुमाकर पीछे की तीसरी पंक्ति में बैठी बबली से समय पूछा था जो ठीक शशि के पीछे बैठी थी और शशि प्रसन्नता से इतना फूल उठे थे कि छाती फटते-फटते बची थी। भरसक सौम्य मुस्कराहट (जो कि बहुत अश्लील लगी थी) चेहरे पर लाकर बोले थे- नौ अप्रैल। रही नायक के मोबाइल से नायिका के नंबर पर मैसेज न पहुंचने की समस्या, तो पता नहीं यह हरकत वह रोज़ क्यों करता है। शायद उसे यक़ीन है कि सच्चे प्यार में चमत्कार भी हो सकते हैं, वरना उसे अच्छी तरह पता है कि एम टी एन एल के लैंड लाइन फोन पर मैसेज पहुंचे, यह सुविधा अभी प्रकाश में नहीं आयी है, अस्तु।
अब चलते हैं तीसरे सेमेस्टर में। नायक के घर से आजकल फोन बहुत ज़्यादा आ रहे हैं। नायक आजकल रोज़ अपने पिता से बात करता है। बात क्या करता है, दोनों सुपरहिट सार्वभौमिक फ़िल्म ’बाप और बेटा’ के सुपरहिट संवादों का अभ्यास करते हैं।
बाप- पढ़ाई कैसी चल रही है?
बेटाः जी, अच्छी चल रही है।
बापः पैसे हैं या ख़त्म हो गये हैं?
बेटाः ’जी अभी हैं’ या ’जी ख़त्म हो गये, भेज दीजीये’।
बापः ये कोर्स पूरा करने पर नौकरी तो मिल जायेगी न?
बेटाः हाँ, हाँ, दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम ही काफी है।
बापः चैनल में या अख़बार में...........?
बेटाः उहूं, अख़बार में कौन जाना चाहता है अब?.......चैनल में।
बापः चलो, जल्दी किसी अच्छे चैनल में नौकरी लग जाये तो तुम्हारी शादी कर दी जाये।
बेटाः अभीऽऽऽऽऽऽऽऽऽ कहां शादी....?
बापः अरेऽऽऽऽऽ अब उमर सरक रही है बेटा.....।
लगभग रोज़ उनके संवादाभ्यास यही पर समाप्त हो जा रहे हैं। नायक अपनी शादी के बारे में सोचकर चिंतित हो जा रहा है। जब चिंतित हो जा रहा है, तो रात का मित्रों के साथ शराब पीने लग रहा है। जब पी रहा है, तो नायिका के लैंड लाइन पर अपने मोबाइल से ’आइ लव यू’ के मैसेज भेजने लग रहा है.........बट फेल्ड।
एक और अति महत्वपूर्ण घटनाक्रम के दौरान नायक के मित्र विभव का यह परदाफाश हुआ है कि वह शादीशुदा है और उसकी पत्नी गांव में रहती है। इस बार विभव जब गांव गया था तो पत्नी से समागम के दौरान उसे शीघ्र स्खलन की समस्या का सामना करना पड़ा। हर बार पत्नी के फॉर्म में आने से पहले विभव बाबू आउट हो चुके होते थे। इस समस्या से बचने के लिये उन्होंने बुज़ुर्गों के कहे अनुसार समागम करते हुये किसी और विषय पर ध्यान लगाने की पद्धति अपनायी और ’आज की पत्रकारिता’ पर गहन चिंतन करते हुये सेक्स करने लगे। मगर ऐसा करते ही समस्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ गयी।
यहां आने के बाद उसकी समस्या ने बड़ा अजीबोग़रीब रूप ले लिया है। पत्रकारिता के विषय में चर्चा होते ही पत्नी की निर्वसन देह आंखों के सामने नाचने लगती है। आज की पत्रकारिता पर विचार करते ही निवर्सन देहों का झुंड कल्पना में कल्पनातीत ढंग से विचरण करने लगता है, जिसका ख़ामियाजा वह कई बार सपनों में भुगत चुका है।
नायक की आयु के हिसाब से उसके प्रेम का ढंग निहायत ही बचकाना है। यह संकोचपूर्ण अभिव्यक्ति-अनाभिव्यक्ति उन किशोरों के पहले प्रेम के लिये (या भूमंडलीकरण के कठिन दौर को देखते हुये ज़्यादा से ज़्यादा दूसरे प्रेम के लिये) मान्य होती है, जिनकी मूछें उगने के प्रथम चरण में होती हैं। हालांकि अब प्रेम इन सब बातों से इतना ऊपर उठ चुका है कि अब प्रेम में पड़ने के लिये मूंछें उगने की अघोषित शर्त बेमानी हो चुकी है। मगर नायक के बचकाने प्रेम और उसकी मिली-जुली हरकतों वाला उसका समूह इसके बावजूद बुद्धिजीवियों का समूह कहा जाता है। अट्ठाइस-उन्तीस की उमर होने के बावजूद अगर वे पढ़ाई कर रहे हैं और इसके लिये बाक़ायदा घर से पैसे भी खींच रहे हैं तो यह उनकी बुद्धि का ही कमाल है, जिसके बल पर वे जी रहे हैं (बुद्धि$जीवी = बुद्धिजीवी)। मित्रों द्वारा बुद्धिजीवी संबोधन दिये जाने के गहरे कारण हैं। वैसे कक्षा के कुछ डेलहाइट जो जन्म से लेकर आज तक दिल्ली से बाहर नहीं गये, (गये भी तो सोनीपत या गुड़गांव) इस समूह को ’बिहारी समूह’ कहते हैं, जबकि विमल, विभव और आनंद क्रमशः बनारस, कानपुर और भोपाल से हैं। इन महात्माओं के लिये दिल्ली छोड़कर पूरा हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार है।
कारण से पहले संक्षिप्त इतिहास। नायक हो, नायक का मित्र विमल, विभव या शशि, सबने स्नातक होते ही ढेर सारे सपने पाल लिये थे। इन सपनों को वे अपना ख़ून पिलाकर पाल रहे थे और स्नातक होते ही वे आई आई एम से प्रबंधन का डिप्लोमा लेने के लिये चिंताजनक रूप से गंभीर हो गये थे। किसी को एक ही प्रयास में औकात पता चल गयी और किसी की आंखें खुलने में दो प्रयास लगे। बकौल नायक, उसकी रीज़निंग थोड़ी कमज़ोर थी और साली अंग्रेज़ी ने धोखा दे दिया वरना अहमदाबाद या बंगलौर नहीं तो इंदौर तो कहीं नहीं गया था। इसके बाद बकौल विभव, वह भौतिकतावादी महत्वकांक्षाओं से बाहर निकल आया। इस दौरान वह देश की नकारात्मक परिस्थितियों से दो-चार हुआ और ठीक इसी दौरान उसके मन में देश के लिये कुछ करने का जज़्बा जागा। इसी के थोड़ा आगे-पीछे सबने प्रशासनिक सेवाओं में जाने की तैयारी की और देश सेवा के इस रास्ते में प्रतिद्वंदिता और संघर्ष ज़्यादा पाने पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनकर देश सेवा करने की सोची। ईश्वर की लीला देखिये कि ये टकराये भी तो देश की राजधानी में जहां से देश की सेवा करना कितना आसान है। (आपस में बहुत कम समय में इनकी इतनी बनने लगी कि इतनी मिलती-जुलती कहानियाँ देखकर इन्हें आश्चर्य हुआ कि ये अकेली मेधा नहीं हैं जिनकी प्रतिभा को नहीं पहचाना गया)। लुब्बेलुआब ये कि प्रशासनिक सेवा के बारे में कुछ समय के लिये गंभीर होने के कारण इनका सामान्य ज्ञान कक्षा के अन्य बच्चों से काफी अच्छा है और वे इनकी बौद्धिक चर्चायें सुनकर दहशत में रहते हैं।
विमल की कहानी पढ़कर एक पाठिका ने उसे प्रशंसा पत्र भेजा है। प्रशंसा पत्र क्या, छोटा-मोटा प्रेम पत्र है। कहानी के बारे में सिर्फ़ एक वाक्य लिखा हुआ है- आपकी कहानी अच्छी लगी। विमल के भीतर का लेखक उत्साहित होकर जानना चाहता है-कौन सी कहानी, किस पत्रिका में पढ़ी, कहानी में क्या अच्छा लगा, क्या बुरा, लेकिन आगे कुछ नहीं लिखा है। अलबत्ता शेर बहुत लिखे हैं- ’’लिखती हूं ख़ून से स्याही न समझना, मरती हूं तुम्हारी याद में ज़िंदा न समझना।’’ यह शेर ख़त्म होते ही लाइन खींचकर दूसरा शेर लिखा है-’’पत्र मेरा जा रहा है दिल के तार-तार से, पसंद अगर ना हो तो फाड़ देना प्यार से’’। फिर तीसरा-’’दोस्ती करते हैं ये लोग कसम खाते हैं, प्यार हमसे करते हैं गले किसी और को लगाते हैं।’’ विमल औचक ही भौंचक हो गया है। किससे दोस्ती, किसकी कसम, किसे गले लगाया, ये कौन पाठिका है यार, ऊपर से मात्रा की इतनी ग़लतियां..........। विमल का मूड हत्थे से उखड़ गया है। सारा कार्ड ’’चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल’ के शायर के शाहकारों से भरा हुआ है। ले-देकर यही एक प्रशंसक का पत्र आया है जिसकी चर्चा इसने न किसी से की है न करेगा।
तीसरे सेमेस्टर की यही कुछ घटनायें हैं। कुछ प्रक्रियायें भी हुयी हैं, जैसे नायक-नायिका की बातचीत अब कुछ हद तक अनौपचारिक स्तर पर आ चुकी है। शशि ने अपना प्रेम प्रस्ताव निधि के सामने रख दिया है जो अभी तक पारित नहीं हुआ है। आनंद ने कक्षा की ही एक छात्रा शीतल को फांस लिया है और दोनों हर शाम एक साथ शीतल पेय पीते आनंद करते देखे जा रहे हैं। विभव को किसी ने, उसके तर्कों से उबकर, ब्लैक डॉग पिलाने का कलेजा दिखा दिया था और अब उसका यह कहना है कि वह पीना तब शुरू करेगा जब रोज़ शैंपेन का ख़र्च वहन करने लायक हो जायेगा। झा जी आजकल इस ग्रुप के पास नहीं फटकते, जबकि भावी खोजी पत्रकारों का यह ग्रुप उनको खोजी कुत्तों की तरह सूंघता फिरता है। वैसे झा जी पत्रकारिता का क्षेत्र छोड़ने के विषय में कहते सुने गये हैं क्योंकि उनकी अतिशुद्ध हिंदी के कारण उन्हें हिंदी अख़बारों में नौकरी मिलने में बड़ी बाधा आ रही है।
चौथा सेमेस्टर आ गया है। सभी एकाएक बड़े हो गये हैं। सबको अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास है। मस्ती करने के दिन अब चले गये। अब नौकरी ढूंढ़ना शुरू कर दो। अब सीरियस हो जाओ। कहीं इंटर्नशिप के लिये प्रयास करो। ऐसे जुमले ग्रुप में क्या पूरी कक्षा में तैरने लगे हैं। पत्रकारिता पाठ्यक्रमों का अलिखित नियम सभी जानते हैं कि पाठ्यक्रम समाप्त होने से पहले-पहले कहीं व्यवस्थित हो गये तो ठीक वरना पाठ्यक्रम समाप्त करके आप खाली बैठे हैं तो संभावनाएं धीरे-धीरे शून्य होती जाती हैं।
चौथे सेमेस्टर में ग्रुप एक चैनल द्वारा संवाददाता के पद के लिये आयोजित साक्षात्कार में शिरकत करके लौटा है। साक्षात्कार में नायक से पूछे गये प्रश्नों में से कुछ निम्नलिखित हैं-
प्रश्न- अच्छा, तो आपकी रुचि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में है? यह बताइये, अमरीका से जो रक्षा समझौता हो रहा है, उसमें क्या-क्या शामिल है ?
नायक ने ख़ुश होकर उत्तर दिया। विषय पर उसकी पूरी पकड़ है।
प्रश्न- अगर यह रक्षा समझौता हुआ तो बोलिविया से हमारे संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?
नायक ने कुछ उत्तर दिया पर विषय पर उसकी पकड़ ढीली हो रही है।
प्रश्न- इथोपिया और इरिट्रया में खराब संबंधों की वजह क्या है?
नायक ने कुछ उत्तर तो ज़रूर दिया पर समझ लिया कि मामला पहुंच से बाहर जा रहा है।
प्रश्न- अच्छा, यदि इथोपिया में हमास जैसा संगठन होता और इरिट्रिया में एडवर्ड सइद होते तो स्थिति कैसी होती? पचास शब्दों में लिख कर बताइये।
मामला ख़त्म। नायक जानता है चैनलों में नौकरी के लिये ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरत है अच्छी यानी मिश्रित अशुद्ध भाषा और स्वच्छ उच्चारण की। नायक का व्यक्तित्व तो अच्छा है, पर भाषा और उच्चारण उसे मार दे रहे हैं। भाषा का बिहारी टच उसका पीछा नहीं छोड़ रहा। साक्षात्कार देकर निकलते समय चैनल के एक प्रकांड पत्रकार से नायक की मुलाक़ात हो गयी। नायक ने जब उससे इथोपिया और इरिट्रिया के ख़राब संबंधों की वजह तस्दीक करनी चाही तो वह सिगरेट सुलगाते हुये दार्शनिक अंदाज़ में बोला, ’’ इथोपिया देश का नाम तो मैंने सुना है, पर यह इरिट्रिया कहां हैं बंधु?’’
लगे हाथ विमल के साक्षात्कार के भी कुछ अंश देख लेते हैं।
प्रश्नः अच्छा, तो आप कहानियां लिखते हैं....बहुत अच्छे। आप तो साहित्य के आदमी हैं, आपका पत्रकारिता में क्या काम?
कोई उत्तर नहीं।
प्रश्न (जो कि प्रश्न नहीं विचार है)- क्या आपको पता नहीं कि साहित्य में रुचि पत्रकारिता के लिये विष के समान है?
कोई उत्तर नहीं (हालांकि उत्तर था विमल के पास, पर आत्मविश्वास नहीं था)
प्रश्नः किन पत्रिकाओं में छपी हैं आपकी कहानियाँ?
उत्तर बहुत ही बुझे मन से दिया गया।
प्रश्नः कोई फ़ायदा नहीं होता पाण्डेजी, इनमें लिखने से। वहां आप बड़े लेखक भी बन जाएंगे तो भी यहां छोटा सा टीवी पत्रकार बनने के लिये आपको नाक रगड़नी पड़ेगी। अरे, कौन जानता है आपको लिखने की वजह से पाण्डेजी......?
उत्तर तो कोई नहीं पर जातिसूचक शब्द वाकई अपमानजनक होते हैं (भले ही क्यों होते हैं इसका संतोषजनक उत्तर विमल ढूंढ़ नहीं पा रहा), यह विमल को बड़ी शिद्दत से महसूस हुआ है। जानने का ज़िक्र आते ही उसे उस पाठिका द्वारा भेजा गया कार्ड याद आ गया है और उसका रहा-सहा मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया है।
प्रश्नः अच्छा आप चिली में चुनावों की पूरी प्रक्रिया को समझाते हुये पिछले पांच राष्ट्रपतियों के नाम बताइये।
उत्तरः जी, मुझे ठीक से पता नहीं।
प्रतिक्रियाः तो, छीलो। (ऐसा साक्षात्कारकर्ता ने मुंह से नहीं भाव-भंगिमाओं से कहा)
ऐसा नहीं कि वहां किसी की नौकरी लगी ही नहीं। निधि को एंकर की नौकरी उसी चैनल में लग गयी। दस दिन के भीतर ही उसका बुलावा आ गया। चूंकि वह बारोज़गार हो गयी है, उत्सुकतावश उससे पूछे गये दो-चार प्रश्न भी देख लेते हैं।
प्रश्नः जर्मनी के चांसलर कौन हैं?
उत्तरः सॉरी सर, आइ डोंट नो। (प्रश्नकर्ता की ओर ऐसी निगाहों से देखते जैसे वह उत्तर के लिये विकल्प देगा)
प्रश्नः अच्छा बताइए, अमरीका के राष्ट्रपति कौन हैं?
उत्तरः सर क्लिंटन। सॉरी-सॉरी जॉर्ज बुश।
प्रश्नः यू.पी.ए.का अध्यक्ष कौन है?
उत्तरः सोनिया गांधी, आइ थिंक।
प्रश्नः श्योर ?
उत्तरः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह।
प्रश्नः सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह?
उत्तरः मनमोहन सिंह।
प्रश्नः आपको पूरा विश्वास है?
उत्तरः यस सर, आयम श्योर।
प्रश्नः हंड्रेड परसेंट श्योर?
उत्तरः यस्सर, हंड्रेड परसेंट श्योर।
प्रश्नकर्ताः वेरी गुड, आपका यह उत्तर तो सही नहीं है, पर आपका आत्मविश्वास क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। यदि संवाददाता का पद न मिले तो क्या आप एंकर की नौकरी करना चाहेंगी?
उत्तरः या सर, श्योर।
तो निधि शर्मा, जिनकी लम्बाई पांच फीट सात इंच है, जो काफी ख़ूबसूरत हैं और जिनकी आवाज़ बहुत मधुर है, आजकल उस चैनल में एंकर हैं। ग्रुप में नौकरी की बात करें तो कुछ दिन बाद एक चमत्कार की तरह आनंद की भी कॉल आ गयी। इसके पीछे की राजनीति यह है कि आनंद किसी सत्तारूढ़ केंद्रीय मंत्री के नाम का पत्र लेकर साक्षात्कार में आया था। एक, अणे मार्ग और दस जनपथ के मधुर संबंधों का उसने पूरा लाभ उठाया और नायक व उसका पूरा ग्रुप उसकी सफलता से उत्साहित व प्रसन्न है। नायक अपनी कमज़ोरी जानता है। वह आनंद के लिये मित्र धर्म के कारण प्रसन्न है वरना अपनी असफलता उसे ख़ुश नहीं होने दे रही है। निधि का चयन भी उसे खिन्न कर गया है। जिस रात निधि का चयन हुआ, नायक दारू पीकर कहते सुना गया- एंकर.................हुंह, यही वो एंकर होती हैं जो संवाददाता द्वारा यह सूचना दिये जाने पर कि जगुआर दुर्घटनाग्रस्त हो गया है, सवाल पूछती हैं हमारे दर्शक जानना चाहते हैं उसमें कितने यात्री सवार थे?
कुछ भी हो, नायक निराश नहीं है। हाल ही में उसे साक्षात्कार वाले दिन नायिका के पास बैठ अंतरंगता से बातें करते देखा गया है। पास जाने पर पता चला कि दोनों इंटरव्यू कला पर चर्चा कर रहे थे। नायिका का भी साक्षात्कार अच्छा नहीं रहा। ख़ैर, अभी तो मंज़िलें और भी हैं। राज़ की बात यह है कि नायक ईश्वर से अपनी नौकरी के लिये प्रार्थना नहीं करता, उसकी विनती है कि नायिका को जल्दी नौकरी मिल जाये, क्योंकि नायिका नौकरी के लिये बहुत परेशान है। अपने पर पता नहीं कैसे उसे विश्वास है कि जब भी वह नौकरी के लिये गंभीर हो जायेगा, नौकरी मिल जायेगी। बल्कि कुछ लोगों ने उसे यह तक कहते हुये सुना है कि अगर उसका किसी चैनल से बुलावा आया और एक ही स्थान हो तो वह ख़ुद नहीं जायेगा बल्कि नायिका को भेज देगा। (इसी पर बनारस में एक कहावत प्रचलित है-गांड़ी में गू नाहीं, नौ सियार के नेवता)
इसी बीच उसे पता चला कि निधि को नौकरी ऐसे ही नहीं मिल गयी, उसने बहुत तगड़ा जैक लगवाया था।
’’ये जैक क्या होता है बे?’’ नायक ने बस में खड़े-खड़े आनंद से पूछा था।
’’भक्साले, जैक नहीं जानते? अबे जुगाड़, सोर्स, पउआ, भौकाल............अबे पैरवी यार। जैसे मैंने करवायी थी।’’ आनंद ने समझाया।
’जैक’ के इतने सारे पर्यायवाची सुनकर नायक को यह शब्द भगवान कृष्ण के अनंत नामों की तरह सुहावना और चमत्कारिक लगा, पर इसके विषय में थोड़ा सोचते ही यह शब्द भगवान शंकर के अनंत नामों की तरह ख़तरनाक और प्रलयंकारी लगने लगा।
’’बिना जैक के किसी का कुछ उखड़ने वाला नहीं है बे।’’ आनंद ने कड़े शब्दों में फ़ैसला सुना दिया था और तभी सामने स्पीड ब्रेकर आ गया था और नायक का सिर बस की छत से जा टकराया था।
चौथा सेमेस्टर समाप्ति की ओर अग्रसर है। सभी चैनलों और अख़बारों के दफ़्तरों में चक्कर काटते नज़र आने लगे हैं। नायक-नायिका थोड़ा और निकट आ गये हैं पर निकटता देखकर अंधा भी बता देगा कि इसमें प्रेम नहीं दोस्ती का ही तत्व है। नायिका हर बार नायक को अभिवादन करते हुये मुस्कराती है और नायक हर बार पीछे देखकर आश्वस्त हो लेता है। नायक का अमर और पवित्र प्रेम जो समय की आंच पाकर और पवित्र हो गया है, उसके चेहरे से दिखायी नहीं देता। जब नायिका आसपास बैठी होती है, चेहरे से वह उतना ही मूर्ख और निरीह दिखायी देता है, जितना पहले सेमेस्टर में, जब वह अपना प्रेम छिपाकर रखता था। अब उसका प्रेम छिपा नहीं है। पूरी क्लास को पता है। कारण हैं विमल और विभव। दोनों बड़े मुंहफट किस्म के इंसान हैं और खुलेआम नायक का नाम लेकर नायिका को छेड़ते रहते हैं। उनकी मंशा ये है कि नायिका के मन में नायक के लिये प्रेम अंकुर फूटें, पर म़ज़ाक ज़्यादा हो जाने पर नायिका गुस्से में कहती है, ’’ये क्या स्टूपिड सी हरकतें करते रहते हो तुम लोग? विमल तो राइटर है, पर विभव तुम भी...?’’ विमल समझ जाता है कि चूंकि वह राइटर है, लिचड़ई पर उसका तो हक है, पर विभव की छेड़खानी से ग़लत असर पड़ सकता है। आजकल वह अकेला ही नायिका के मन में नायक के प्रति प्यार जगाने की कोशिश कर रहा है।
दो दिन बाद नायिका का जन्मदिन है। पिछली बार तो जन्मदिन बीतने के बाद नायक को पता चला था और उसी दिन यह तारीख उसके मानस पटल पर जम गयी थी जिसे ईमेल आई डी बनाते समय नायक ने पासवर्ड बनाया था। नायिका किताबों की बड़ी शौकीन है, इसलिये उपहार में किताब ही दी जाएगी पर कौन सी? विभव बहुत मेहनत से विमल की बातों से अंदाज़ा लगाकर बताता है कि नायिका को गोर्की की मदर देनी चाहिये। दरअसल नायिका को हिंदी के लेखकों के आत्मविश्वास के बारे में पता नहीं है। वह यह मानकर कि विमल लेखक है तो ज़रूर बहुत पढ़ता होगा, उससे दुनिया भर की किताबों के बारे में बताती रहती है। जिसे पढ़ने की ज़हमत वह कभी नहीं उठायेगा क्योंकि ऐसी तो वह जब चाहे तब लिख दे। तो इधर नायिका मदर पढ़ने की इच्छा जता रही थी। नायक दरियागंज से मदर खरीदता है, सुंदर सी पैकिंग कराता है और एक लाल गुलाब के साथ समय से पहले कॉलेज पहुंच जाता है। भले ही आज नायिका का जन्मदिन हो, वह आयेगी अपने नियत समय पर ही। तब तक नायक कैण्टीन के बाहर खड़ा होकर चाय पीते हुये समय काट सकता है।
कैण्टीन के सामने वही रोज़ का मंज़र है। कुछ झुण्ड खड़े हैं और चाय नाश्ते के साथ अपने मित्रों से गपशप कर रहे हैं। जिस झुण्ड में लड़कियां ज़्यादा हैं उसमें से चिड़ियों के चहचहाने की अवाज़ें आ रही हैं। कुछ अध्यापक भी खड़े हैं। इनमें से कुछ को नायक पहचानता है। ये हिन्दी विभाग के अध्यापक हैं जो अपने छात्रों के सौजन्य से चाय पी रहे हैं और बदले में उन्हें ’राम की शक्तिपूजा’ में हनुमान के अतिमानवीय कार्यों की व्यंजना समझा रहे हैं। कुछ के चेहरों से टपकती बेचारगी देखकर लगता है कि यदि छात्र कुछ नाश्ता भी करा दें तो ये ’अंधेरे में’ के काव्यगत वातावारण को मूर्त बनाने वाले अंधेरे की पूरी पोल खोल कर रख दें ( पर समस्या यह है कि ये शोधछात्र न होकर साधारण छात्र हैं इसलिये गुरू वंदना मौखिक ज़्यादा है)। इसी समय नायिका का गुलाबी रंग के कपड़ों (जिसके बारे में मिथक है कि यह लड़कियों का पसंदीदा रंग होता है और जिसे देखकर नायक ने उसी दिन जनपथ से तीन गुलाबी टी शर्टें खरीदीं) में आगमन होता है और नायक का ध्यान अध्यापकों से हट कर इधर आकर्षित होता है।
जन्मदिन की ढेरों बधाइयाँ। सब ने नायिका को मुबारकबाद दी है। जन्मदिन मुबारक हो वेदिका। थैंक्यू मुरारी। अब नायक कृष्ण मुरारी नायिका वेदिका को गोर्की कृत ’मदर’ उपहार में देने ला रहा है। कैसा अर्थवान उपहार है यह? कैसा महान प्रेम है यह? इस प्रेम में एक महाकाव्य पनप सकता है बशर्ते यह प्रेम सफ़ल हो जाय.....आमीन। नायक के आगे बढ़ते ही शॉट फ़्रीज़ हो गया है। सबकी निगाहें नायक पर हैं। नायक जैसे चांद पर क़दम उठा रहा है। उसका भार छठवां हिस्सा ही बच रहा है।
यह तुम्हारे लिये वेदिका। नहीं, नहीं मैं नहीं ले सकती। नायक थोड़ा निराश हो गया है। साहित्यकार मित्र दिमाग लगाता है। रख लो वदिका, तुम्हारी फ़ेवरिट किताब है। नहीं विमल प्लीज़ सॉरी। नायिका तैयार नहीं है, उसे डर है उपहार रख लेने पर उसकी तरफ़ से प्रेम की स्वीकृति मान ली जाएगी। अरे रख लो, हम सबने मिलकर ख़रीदा है, विभव का मास्टरमाइंड। मिलकर ख़रीदा है वाला हथियार काम कर गया है। ओके थैंक्यू। नायक फूल देता है, लाल गुलाब। थैंक्यू मुरारी। नायिका फूल लेकर सूंघती है। नायक अति प्रसन्न है। फूल सूंघना मतलब नायक की विजय। वह ख़ुशी ज़ाहिर करना चाह रहा है पर नायिका के सामने नहीं, कहीं दूर जाकर। वह विमल को लेकर लाइब्रेरी के सामने वाले झंखाड़ की तरफ़ जाता है जहां ’कॉलेज के सौ मीटर के दायरे में तम्बाकूजनित पदार्थ न बिकने का आदेश’ पारित होने के बाद से सिगरेट भी मिलने लगी है। दोनों झंखाड़ में घुसकर सिगरेट ख़रीदते हैं और सुलगाकर देर तक बातें करते रहते हैं। इस समय नौकरी-फौकरी जैसी वाहियात बात किसी के दिमाग़ में दूर-दूर तक नहीं है।
नायक कॉलेज से निकलता है तो ऐसा लगता है उसे थोड़ा-थोड़ा नशा हो आया हो। नायिका ने जाते वक़्त नायक को दुबारा थैंक्यू कहा है और उसे एक चाबी का रिंग उपहार में दिया है। अब वह इस चाबी रिंग का क्या करेगा? पूछिये मत, वह इस समय उसके लिये दुनिया की सबसे क़ीमती वस्तु है। हो सकता है वह एक कार ख़रीदे और उसकी चाबी इस रिंग में लगा दे या फिर एक बंगला ख़रीद ले और उसकी चाबी इस रिंग में फंसा दे। कुछ भी.....कुछ भी.....कुछ भी।
रास्ते से गुज़रते हुये वह 392 नम्बर की बस देखकर रुक जाता है (इसी नम्बर की बस से नायिका रोज़ अपने घर नोएडा जाती है)। सभी मित्र उसे रुका देख रुक जाते हैं। वह बस को इस क़दर प्यार से देखता है गोया इससे कुचल कर जान दे देगा। यही सवाल पूछने पर वह अंग्रेज़ी में जवाब देता है कि इस बस से कुचल कर वह सीधा स्वर्ग पहुंचेगा। अंग्रेज़ी में..........? पर अंग्रेज़ी तो नायक दारू पीने के बाद बोलता है, नशे में। ये दूसरा नशा है पाठकों। ये इतनी जल्दी नहीं उतरने वाला जितनी जल्दी दारू वाला उतरता है। ये प्रेम का नशा है।
यहां से प्रेम कहानी में एक दुखद मोड़ आता है जो हर सफल प्रेम कहानी के लिये आवश्यक है। मुझे आशा है मेरी प्रेम कहानी भी एक दुखद मोड़ से गुज़रकर सुखद परिणति को प्राप्त कर एक सुपरहिट कहानी बनेगी। मैं दावे से कह सकता हूं कि आप इस कहानी को पढ़ने के बाद मेरे लेखन के कायल हो जायेंगे और मैं प्रेम कहानी विशेषज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हो जाऊँगा।
नायक ने उसी रात नायिका को फोन किया। शाबाश नायक। सभी मित्रों की ओर से उसे फ़िल्म देखने के लिये आमंत्रित किया पर नायिका ने उसे दूसरी ही ख़ुशख़बरी सुना दी। उसने एक चैनल में साक्षात्कार दिया था, वहां से उसका बुलावा आया है, साथ ही कल शाम उसे शादी के लिये लोग देखने आ रहे हैं। नायक दहल गया। अभी तो प्रेम धीरे-धीरे परवान चढ़ना शुरू हुआ था, अभी इतना बड़ा झटका........? क्या नायिका ने उसे संकेत किया है कि.......? क्या नायिका भी उससे........? क्या........? क्या........?
सभी ने मिलकर चर्चा की। काफी देर चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि नायक जल्दी से जल्दी किसी समाचार चैनल में नौकरी पकड़े और अपने पिता को घिसे-पिटे संवादों से इतर नये संवाद दे। नायक को आनन-फानन में नौकरी पाना बहुत ज़रूरी है ताकि आगे की कार्रवाई की जा सके। नायक एक आनोखे जोश से भर गया है।
सभी मित्रों ने एक-एक करके सभी समाचार चैनलों के दफ़तर जाना शुरू कर दिया है। हर जगह आवेदन पत्र मुख्य द्वार पर ही जमा कर लिये जाते हैं। जमा कौन करता है, जानना चाहते हैं तो दिल थाम के बैठिये। इन भावी पत्रकारों के आवेदन मुख्य द्वार पर तैनात गेटकीपर लेता है। वे कुछ निराश हुये। एक चैनल ऑफिस के गेटकीपर ने तो ये दया भी नहीं दिखायी।
’आप लोग एप्लीकेशन कूरियर से भेजिये, बाइ हैण्ड नहीं लिया जायेगा।’’ उसने खैनी मलते हुये फ़रमान सुनाया।
’अच्छा, यहां हो सकता है हमारा ?’’ नायक ने पूछा था। हैरानी होती है सोचकर कि नायक कुछ समय पहले तक इतना अपरिपक्व था कि ऐसे प्रश्न पूछता था।
’जैक-वैक होगा तो हो ही जायेगा।’’ गेटकीपर मुस्करा कर बताता है।
जैक, जैक, जैक.......हर जगह जैक। नायक आवेदन करता रहा और हर जगह से बुलावे का इंतज़ार करता रहा। कहीं से कोई बुलावा नहीं आया जैसे किसी अंधे कुएं में पत्थर फेंका गया हो। सभी इंतज़ार में थे कि बुलावा आयेगा पर नायक के पास वक़्त नहीं। ठीक है, उसकी कुछ कमज़ोरियां हैं, उसका कोई जैक भी नहीं, पर चैनल में ही जाना कोई ज़रूरी तो नहीं। वह प्रिण्ट की पत्रकारिता करेगा जो कि असली पत्रकारिता होती है (ऐसा उसके उन सीनियरों ने बताया है जो हर चैनल से दुत्कारे जाने के बाद प्रिण्ट में काम कर रहे हैं।)
नायक ने पहले राष्ट्रीय स्तर के अख़बरों की खाक छानी फिर राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं की। सवाल वही था, यदि कोई जैक हो, किसी मंत्री-वंत्री से सोर्स लगाओ तो बात बने। नायक हैरान था। मीडिया में तो उसने सुना था अभी बहुत मौके हैं। रोज़ नये चैनल खुल रहे हैं, अख़बार छप रहे हैं, पत्रिकाएं निकल रही हैं, फिर ये हर जगह जैक...........? बिहार से आये नायक और यूपी, एमपी से आये मित्रों के लिये इस बूमिंग इंडस्ट्री की हालत बहुत धक्का पहुंचाने वाली और स्वप्नतोड़ू थी।
नायक छोटे-छोटे क्षेत्रीय अखबारों के ऑफिस पुहंचने लगा। वह सच्चाई की ताक़त, दैनिक सच्चाई, झूठ को जला दो, सांध्य बारूद, दैनिक तोप जैसे अखबारों में भी गया जो प्रथम बार में धर्मेंद्र की हिंसात्मक फ़िल्मों के टाइटिल लगते थे। इन अख़बारों में उससे कहा गया कि वह दो महीना बिना पैसे लिये काम करे, दो महीने उसकी योग्यता को परखने के बाद कोई फ़ैसला लिया जायेगा। सांध्य सच्चाई और सनसनीखेज खुलासा जैसे चार पन्ने के अख़बारों में, जिनका दफ़्तर एक कमरे का था, उससे कोई सनसनीखेज खुलासा करके लाने को कहा गया। उसके सामने सबसे सनसनीखेज खुलासा यह हुआ कि हर हफ़्ते चार विज्ञापनों की व्यवस्था करने से इन अखबारों में नौकरी मिल जाती है। जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, ये अख़बार पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं मिशन मानकर काम कर रहे थे और इनके एक कमरे के छोटे दफ़्तरों में भी कई गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबू पराड़कर खैनी मलते या बीड़ी सुलगाते प्रायः दिख जाते थे।
वह ग़लती से कुछ ऐसे अख़बारों के ऑफ़िस भी चला गया जो किसी व्यक्ति ने अपने पड़ोसी से बदला लेने के लिये निकालना शुरू किया था। पड़ोसी के पास शायद कोई तोप रही होगी जिसके मुकाबले में यह अख़बार निकला होगा। इन अख़बारों में ऊपर ऐश्वर्य राय या रानी मुखर्जी सरीखी सुंदरियों की कम कपड़ों में मोहक तस्वीरें होतीं और नीचे बलात्कार की ख़बर एक डरावने शीर्षक के साथ होती। चित्र व शीर्षक का ख़बर से ऐसा सुंदर सामंजस्य बैठाया जाता कि एकबारगी तो रानी या ऐश्वर्य के बलात्कार होने का भ्रम हो जाता। अगले पृष्ठों पर अपने शत्रु पर ऐसी भाषा में कीचड़ उछाला गया होता जिसमें प्रूफ़ की बहुत गलतियां होतीं। यहां काम करने के लिये उपरोक्त शर्तों के साथ एक मौलिक शर्त यह भी थी कि हर रोज़ एक बलात्कार की ख़बर लेकर आओ। कोई ख़बर न हो तो ख़ुद बलात्कार करो और ख़बर बनाओ लेकिन अख़बार का नियम नहीं टूटना चाहिये। नायक धीरे-धीरे हताश होने लगा था। उसकी नाक के नीचे दुनिया में इतना अंधेर हो रहा है और वह कुछ नहीं कर सकता। उसे वौ नौकरियां याद आयीं जो उसने मात्र इसलिये ठुकरा दी थीं कि उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ पत्रकार ही बनना था।
ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं। नायक को बिल्कुल ऐसा ही लगा जब एक समाचार चैनल ने उसे इंटर्नशिप पर रख लिया। व्यवसायिक मण्डी ने शोषण का नया पर्यायवाची शब्द ढूंढ़ निकाला है, इंटर्नशिप। यह इंटर्नशिप भी उसे एक जैक लगाने पर मिली है। इंटर्नशिप के लिये बड़े नहीं छोटे जैकों की ज़रूरत होती है (कथा लिखे जाने तक सत्य तथ्य) जैसे प्रोडक्शन असिस्टेंट या संवददाता। नायक के दूर के एक भाई ने, जो काफी समय से इस चैनल में संवाददाता है, उसका जैक लगाया है। नायक अपने इस दूर के भाई का जो नायक के स्कूल के दिनों में अक्सर उससे ’गिलहरी नमक खाती है’ का संस्कृत अनुवाद पूछा करता था, इंटर्नशिप दिलवाने के तहेदिल से शुक्रगुज़ार है। नायक प्रसन्न था कि दो महीने की इंटर्नशिप के दौरान वह इतनी मेहनत करेगा कि चैनल वाले उसे निकाल ही नहीं सकेंगे बल्कि प्रभावित होकर नौकरी दे देंगे। वहां वह ऐसे कई लोगों से मिला जिनकी मेहनत देखकर चैनल उन्हें निकाल नहीं सका था और इंटर्नशिप दो महीने और बढ़ा दी गयी थी। कुछ अति मेहनती लोगों से चैनल दो-दो महीने पर तीन-चार बार प्रभावित हो चुका था। ख़ैर.........नायक ने पूरी हिम्मत से काम शुरू किया। हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-ख़ुदा।
क्या आपको भी लग रहा है कि प्रेम कहानी रास्ते से भटक गयी है, शुष्क और नीरस हो गयी है? क्षमा करें, सब कुछ इतनी जल्दी हो गया है कि मैं स्वयं हतप्रभ हूँ। ऐसे प्रश्न कहानी में आने ही नहीं चाहियें वरना मैंने देखा है कि एक समय ऐसा आता है जब पात्र इतने बेचैन हो जाते हैं कि कहानीकार की कलम की नोक से फिसल जाते हैं अपना प्रारब्ध ख़ुद लिखने लगते हैं। मैं निसंदेह आपका अपराधी हूं कि आपको विश्वास में लेकर इस प्रेम कथा का हिस्सा बनाया और इस समय मैं ही पूरी तरह नहीं अंदाज़ा लगा सकता कि आगे क्या होगा। पात्र मेरी पहुंच से बाहर हो गये हैं। वे क्या सोच रहे हैं, उनकी मनःस्थिति में कैसे बदलाव हो रहे हैं, शर्मिंदा हूं कि ये सब मैं नहीं पकड़ पा रहा हूं। फिर भी पात्र हैं तो मेरे सामने ही। आपको आश्वस्त करता हूं कि उनकी गतिविधियों को मिलाकर आपके समक्ष इस प्रेम कथा को पूरा तो करुंगा ही।
नायक आजकल बहुत परेशान है। इस चैनल में उससे कम से कम बारह घंटे काम लिया जाता है। सुबह नौ बजे पहुंचने के बाद वह रात नौ के बाद ही खाली हो पाता है। एक महीने पूरे होने को हैं और वह अपने दोस्तों के साथ एक बार भी फ़ुर्सत से नहीं बैठ पाया है (फ़ुर्सत से यानी मयबोतल) हालांकि बीच में मुलाकातें हुयी हैं। बातें भी हुयी हैं। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि प्रेम से संबंधित कम बातें हुयी हैं। जिन तथ्यों के के इर्द-गिर्द बातें हुयी हैं उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं -
1. मीडिया (ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) में लड़कियां (ख़ासकर सुंदर लड़कियां) प्रतिभावान छात्रों के पेट पर रोज़ लात मार रहीं हैं।
2. मीडिया पूरे समाज पर नज़र रखता है। मीडिया की धांधलियों पर नज़र रखने के लिये कोई तगड़ा संगठन होना चाहिये।
3. चूंकि सत्ता का केंद्र दिल्ली है, यहां मीडिया में जगह पाना सबसे कठिन है।
4. यदि पत्रकारों पर स्टिंग ऑपरेशन किया जाये तो अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को भूमिगत होना पड़ेगा।
5. मीडिया में चमचागिरी और भाई-भतीजावाद सबसे ज़्यादा है।
6. मीडिया से आश्चर्यजनक रूप से उंचे पदों पर ज़्यादातर तथाकथित सवर्ण हैं जो भयंकर रूप से जातिवाद फैला रहे हैं।
7. पत्रकार बनने का मतलब सुंदर चेहरा और साफ़ आवाज़ बनकर ही क्यों रह गया है? हम पत्रकार बनना चाहते हैं, एंकर नहीं।
8. नायक ने नायिका को प्रपोज़ कर दिया है शालीन तरीके से, नायिका ने मना कर दिया है शालीन तरीके से, अब दोनों में बड़ी अच्छी दोस्ती पल्लवित हो रही है, शालीन तरीके से।
अंतिम तथ्य के बारे में जानकर नायक के मित्रों को भी आश्चर्य हुआ। नायक ने हिम्मत कर दी, इस पर तो उन्हें एक बार विश्वास भी हो जाय, पर इसके बाद भी दोनों की दोस्ती परवान चढ़ रही है, इस पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है। पर कहते हैं न कि प्रत्यक्षं किं प्रमाणं। उन्होंने देखा, सुना, महसूस किया और ईश्वर की लीला मानकर इसे स्वीकर कर लिया। हालांकि इसके बावजूद उसके सच्चे दोस्तों ने उसे विश्वास दिलाया कि इंकार ही इक़रार की पहली सीढ़ी है और अच्छी दोस्ती से ही प्यार की शुरूआत होती है। इसलिये नायक हिम्मत न हारे और अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद को प्राप्त कर के ही रहे।
इस बीच कई घटनायें हो चुकी हैं। कक्षा की तीन और लड़कियां नौकरी पा चुकी हैं। नायक के लिये एक अच्छी ख़बर यह है कि उसके क़रीबी मित्र शशि की मेधा और चाचा का जैक काम आया है उसे एक अच्छे चैनल में नौकरी मिल गयी है। यह शशि का आदर्श ’सबसे तेज़’ तो नही है पर इसके स्लोगन पर विश्वास करें तो यह भी कम तेज़ नहीं है और इसे सच दिखाने का जूनून है। मगर नायक यह सुन कर दुखी हुआ है कि शशि ने नौकरी पाते ही अपने उन उसूलों से समझौता कर लिया है जिनके कारण नायक उसकी बहुत इज़्जत करता था। आनंद को अपराध जैसी प्रमुख बीट दे दी गयी है और नायक पुनः यह जानकर दुखी हुआ है कि आनंद जिस हिम्मत से व्यवस्था की ख़ामियां दूर करने की बात करता था, उसकी जगह व्यवस्था की चाटुकारिता करने लगा है।
नायक को रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी कई घटनाओं का सामना करना पड़ा है जिसने उसे हिला कर रख दिया है। उस दिन एक नृशंस बलात्कार की रिपोर्टिंग करने के बाद नायक सीधा विभव के कमरे पर चला आया। वह बहुत परेशान था। विभव और विमल पहले से ही मौजूद थे। शशि कुछ देर में आने वाला था और आनंद को फोन करके बुला लिया गया। मैकडॉवल का एक खंबा और एक अद्धा लाया गया। सभी पीने बैठे। नायक बहुत देर से ख़ामोश था। ख़ामोश तो विमल भी था पर नायक से कम। हर बार की तरह विभव को भी न्यौता दिया गया और उसने शैम्पेन वाला तर्क देकर मना कर दिया।
रात गहराने लगी है। आनंद ने फ़्रेंच कट दाढ़ी की नींव डाली है और रह-रह कर दाढ़ी पर हाथ फेर ले रहा है। सभी तीन-तीन पैग ले चुके हैं पर कोई कुछ बोल नहीं रहा हैं। घूम फिर कर बात गिलास में कम या ज़्यादा पानी डालने को लेकर हो रही है। विभव भयभीत है। उसे चिंता है कि कहीं यह तूफ़ान के पहले वाली शांति तो नहीं। वह बात शुरू करने के लिये सबकी ओर देख कर कहता है, ’’एक बात पता है तुम लोगों को? विमल की एक अख़बार में नौकरी लग गयी है।’’
सभी आश्चर्य से विभव की ओर देखते हैं फिर विमल की ओर। विमल सकपका गया है। उसे उम्मीद नहीं थी कि विभव यह राज़ अचानक बता देगा जिसे वह सबसे छिपा रहा था। पर आख़िर ख़ुशी की बात वह सबसे छिपा ही क्यों रहा है?
’’ किस अख़बार में?’’ शशि पूछता है।
विमल चुप।
’’ किस अख़बार में बे?’’
विमल चुप जैसे बताने और न बताने में से निर्णय ले रहा हो।
’’ कौन सा अख़बार पकड़ा है लेखक महोदय?’’ नायक का कटाक्ष।
’’.............पांचजन्य।’’ विमल के जवाब से सन्नाटा छा गया है। सभी उसे ध्यान से देख रहे हैं कि यह वही विमल है या दूसरा।
’’ सारी आइडियोलॉजी हिक्.............गांड़ में घुस गयी साले।’’ और ये शशि हुआ आपे से बाहर।
’’ ऐ..........संसदीय भाषा नहीं। संसद में नहीं मेरे कमरे में बैठे हो।’’ विभव की फटकार।
’’ क्या करता.......? छोटे बड़े, हर चैनल, हर अख़बार में गया। सब जगह मादरचोद एक ही समस्या.......। जैक लगाओ, जैक लगाओ...हिक् अरे नहीं है मेरा हिक् जैक..........तो क्या करूं ? कहीं न कही हिक् तो...समझौता करना ही पड़ेगा हिक्.....। मेरे पिताजी अब पैसे नहीं भेज सकते हिक्........। उनकी पेंशन घर के लिये ही हिक्.......कम पड़ रही है। मैं घर का हिक्.....बड़ा बेटा हूं..........आइडियोलॉजी का क्या हिक् अचार....डालूंगा। ये कम से कम हिक् ढाई हज़ार तो हिक्.......दे रहे हैं। तीन महीने मेरा काम देखेंगे.........हिक्....पसंद आया तो स्थायी नियुक्ति कर पांच हज़ार कर देंगे....हिक् हिक्।’’ विमल ने बोलना बंद कर दिया है। ऐसा लगता है थोड़ी देर और बोला तो रो पड़ेगा।
सभी ख़ामोश हो गये हैं। ऐसा लगता है वे काफी बातें बिना कहे ही समझ गये है। नायक की आंखों की कोरों की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। वे थोड़ी गीली हैं। दो पैग और ख़त्म हो चुके हैं। सन्नाटा क़ायम है।
’’ अच्छा मुर्रू.......ये बताओ.....मेरी दोनों तरफ की मूछों में क्या अंतर है ?’’ आनंद का परम चुतियापे वाला बेतुका सवाल सन्नाटे में देर तक तैरता रहता है। नायक कभी उस सवाल को देखता है, कभी आनंद को, बोलता कुछ नहीं।
’’ अरे यार हिक्..............यही अंतर है कि दाँयी वाली दाढ़ी में मिल गयी है और बांयी वाली नहीं मिली......हिक्।’’ आनंद ख़ुद अपने बेतुके सवाल का जवाब देता है और अंगूठे व तर्जनी से दोनों तरफ की मूंछों को खींच कर नीचे दाढ़ी की तरफ ले जाता है।
’’ तुमने लाठी चार्ज वाली घटना में हिक्...पीड़ित पक्ष को ही दोषी दिखा दिया..ऐसा क्यों आनंद ?’’ नायक का प्रश्न।
आनंद अवाक् है। वह इन्हीं मुद्दों से बचना चाह रहा था।
’’ क्या करूं यार......न्यूज़ एडीटर का यही ऑर्डर था।’’ आनंद के स्वर में हताशा है।
’’ तुम्हारी नौकरी दो साल के कांट्रैक्ट पर है ना? तुम्हें कोई हिक् निकाल...... थोड़े ही सकता है। सच्चाई को क्यों दबाया तुमने? हमने तय किया था कि मीडिया में आयेंगे तो इसकी गंदगियां साफ करेंगे और हिक्......तुम साले ख़ुद.....गंदगी का हिक् हिस्सा बन गये। साले, झूठे......यही करने आये थे हम इस लाइन में............?’’
आनंद चुप है। शशि हस्तक्षेप करता है।
’’ जाने दो यार मुर्रू। टीवी पत्रकारिता में हिक्...यह सब चलता है हिक्....। हम अकेले क्या कर हिक् ......सकते हैं?’’
’’ क्या जाने दो.......क्या जाने दो........क्या चलता है हिक् ? तुम साले दिखाते हो कि हिक्......पुलिस एक्सीडेंट के तुरंत बाद पहुंची थी जबकि.....हिक्.....पुलिस पैसे लेकर बाद में पहुची थी। भोसड़ी के....बिकने लगे हो तुम लोग हिक्........बिकने लगे हो। यार विभव.......मैं नहीं कर सकता हिक्........ऐसी गंदी पत्रकारिता........।’’
विभव उसके पास आता है। उसे लगता है नायक ने बहुत ज़्यादा पी ली है। वह पत्रकारिता के संदर्भ में एक वाक्य कहता है जो उस दिन के बाद से दक्षिण परिसर के इतिहास में एक कोटेशन की तरह से प्रयोग किया जाता है।
’’ जाने दो मुरारी। आज की पत्रकारिता को शीघ्रपतन की बीमारी हो गयी है।’’ विभव ने अपनी समस्या अब तक किसी को नही बतायी। पर इसका पत्रकारिता के पतन से क्या ताल्लुक....?
’’ क्या हुआ यार, तुम रो क्यों रहे हो ?’’ विभव नायक की गीली आंखें देख लेता है।
’’ मैं तंग आ गया हूं विभव.......। कभी कत्ल.......कभी बलात्कार....मगर हिक् कहीं सही रिपोर्टिंग नहीं। हर जगह वही टीआरपी की लिचड़ई.....। मैं जान गया हूं यार.........मैं भोसड़ी का पत्रकार बनने के हिक्..... लायक ही नही हूं। मैं हिक् बहुत कमज़ोर इंसान हूं यार। आज हम एक बलात्कार हिक् की....रिपोर्टिंग करने गये थे.......। लड़की और उसके घरवाले कैमरे के सामने नहीं आना चाहते थे और हिक्...हम लोगों ने उससे ऐसे-ऐसे हिक् सवाल पूछे कि वह हिक् हिक्.......। यार हम लोगों ने उसका हिक् दुबारा बलात्कार......हिक् कर दिया और हिक् उसे प्रसारित भी हिक् किया। बड़े बलात्कारी तो...हिक् हम हैं यार। मैं बहुत कमज़ोर हूं यार......हिक्। मुझसे नहीं हिक् होगी......ऐसी पत्रकारिता।’’
’’ जाने दो मुरारी, दुनिया में बहुत गंदगी है। तुम यह क्षेत्र ही छोड़ देना। पर इसमें रोने वाली क्या बात है ?’’
’’ रो कौन रहा है साले.....चूतिया हो क्या ? मुझे तो बस गुस्सा आ रहा है।’’ नायक सामान्य दिखने की कोशिश में बहुत असामान्य दिखने लगा है। वह बहुत देर तक कुछ न कुछ बकता रहता है। विभव चूंकि नहीं पीता, सबसे बाद में टुन्न होने वाले से सिर चटवाना उसकी मजबूरी है। नायक सबसे बाद में सोया, विभव उसके बाद।
अगली सुबह जब नायक सोकर उठा तो आनंद व शशि ऑफ़िस जा चुके थे। विभव चाय बना रहा था और विमल अख़बार पढ़ रहा था। उसका मूड अप्रत्याशित रूप से ताज़ा और अच्छा था।
’’क्यों मुर्रू, नौकरी नहीं करोगे चैनल वाली........?’’ विभव ने चाय छानते हुये हंसी उछाली। हंसी में एक सवाल लिपटा था।
’’वाकई नहीं , कल रात मैं सीरियस था। ये टीआरपी वाली गंदगी मुझसे नहीं झेली जायेगी। प्रिण्ट में कोई अच्छा अख़बार मिला तो........मगर पांचजन्य नहीं।’’ नायक ने सवाल पकड़ लिया और हंसी वापस विमल की तरफ उछाल दी। विमल भी हंसा।
’’अगर अख़बार न मिला तो.......?’’ विभव ने चाय थमाते हुये पूछा।
’’तो क्या, टीचिंग लाइन में मेरे बहुत से दोस्त हैं। मास्टर डिग्री किस दिन काम आयेगी ? कहीं किसी प्राइवेट कॉलेज में पढ़ा लूंगा पर विचारधारा से समझौता..........कभी नहीं।’’ अंतिम लाइन बोलते हुये नायक फिर विमल की ओर देखकर हंसा है।
’’कोई नयी कहानी लिखी है इधर लेखक महोदय ?’’ नायक पूछता है।
’’अब मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है।’’ विमल का इतना कहना है कि नायक ज़ोरों से हंसने लगा है- ’’अबे शुरू कब की थीं जो बंद कर दीं ? साले चार कहानियां क्या छप गयीं, चले हैं लेखक की झांट बनने।’’
दोनों हंसते हैं। विभव बाथरूम में घुस गया है। दोनों तैयार होकर अपने-अपने ठिकानों के लिये निकल जाते हैं। विभव भी किसी जैक के जुगाड़ में निकल लेता है। कहानी ख़त्म।
मुझे कहानी को जारी रखने में वाकई कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि यह प्रेम कहानी जिस ख़ूबसूरती से मैं ख़त्म करना चाहता था, वह अब संभव नहीं। कहानी मेरे हाथों से फिसल चुकी है। सभी पात्र मेरी बनायी लीक को तोड़ कर जाने कहां-कहां भटकने लगे हैं। पर चूंकि आपके मन में नायक की नौकरी और प्रेम के विषय में थोड़ी बहुत जिज्ञासा ज़रूर है, इसलिये मैं थोड़े बहुत तथ्य बता कर आपकी जिज्ञासा तो शांत कर ही दूं हालांकि कहानी के सफल होने के अवसर तो अब डूब ही गये हैं।
देखिये प्रेम प्रसंग का तो ऐसा है कि लड़के वाले नायिका को पसंद कर चुके हैं। नायक को जब यह बात पता चली तो वह हल्के से मुस्कराया। आप विक्रम की तरह इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते रहिये कि नायक क्यों मुस्कराया। क्या उसे किसी पीपल बरगद के नीचे बैठकर जीवन के सत्य का पता चल गया है? क्या जीवन के थपेड़ों ने उसकी समझ को अचानक बहुत प्रौढ़ कर दिया है? क्या यह प्रेम नहीं आकर्षण मात्र था? क्या...........? क्या............?
रही बात नौकरी की तो आजकल मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसी को काम तो आसानी से मिलता नहीं, ऐसे में कोई भला मिला मिलाया काम छोड़ता है? पर नायक चूंकि नायक है, वह छोड़ सकता है। सचमुच हिंदी फ़िल्में देखकर आपकी आदतें बहुत बिगड़ गयी हैं और अपेक्षाएं बहुत अवास्तविक हो गयी हैं। नायक टीआरपी की लड़ाई में मानवता भूल चुके इन चैनलों में काम करने में घुटन महसूस करता है, पर वह ये क्षेत्र ही छोड़ देगा, इसमें मुझे संदेह है। और क्या यह सही होगा कि अव्यवस्था और अराजकता की वजह से इंसान पलायन की राह पकड़ ले ? क्या इसकी जगह ये ठीक नहीं होगा कि नायक वहीं बना रहे, कुछ स्वयं को बदले और कुद व्यवस्था को बदलने का प्रयास करे। अपनी भावुकता को थोड़ा कम करे और सच्चाई के लिये लड़े। मैं वाकई कहानी को यहीं ख़त्म कर देना चाहता था क्योंकि इतना लम्बा लेक्चर देने के बावजूद मुझे यह अंदाज़ा नहीं कि नायक आगे क्या करेगा। पर कहानी सिर्फ़ आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं कि आपको ये प्रेम कहानी थोड़ी तो पसंद आये वरना मेरी पूरी मेहनत बेकार जायेगी।
कहानी चूंकि आपके लिये आगे बढ़ा रहा हूं, यह आपको थोड़ी पसंद आये, यह दबाव भी मुझ पर है, इसलिये यह स्वाभाविक है कि कहानी का यह अंश ऊपर से थोपा हुआ लगे, पर इसे असली अंश मानना ज़रूरी भी नहीं। यह मैं नहीं लिख रहा हूं, आप वही देख रहे हैं जो देखना चाहते हैं, वरना कोई लेखक अपने नायक को परिस्थितियों से हारता हुआ दिखा कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा ?
कुछ महीनों बाद नायक अचानक कनॉट प्लेस पर विमल से मिल रहा है। बीच की काफी सारी औपचारिक बातें आपसे इजाज़त लेकर काट देता हूं।
विमल- तो क्या चैनल छोड़ दिया? तुम्हारी नौकरी तो दो महीने बाद स्थायी हो गयी थी न?
नायक (मुस्कराते हुये)- हां, हो गयी थी, पर छोड़ दी।
विमल- यार तुम्हारे हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। अब क्या कर रहे हो? ( इसी बीच विमल ने शीतल पेय की दो बोतलें ख़रीद ली हैं)
नायक- एक डिग्री कॉलेज में अस्थाई तौर पर पढ़ा रहा हूं। तुम्हीं कहते थे न कि मेरा नाम अध्यापक बनने के लिये सर्वोत्तम है। ( नायक ने अपनी बोतल नायिका के दिये हुये चाबीरिंग से खोली है जिसके पीछे ओपनर लगा है और रिंग विमल की ओर बढ़ा दिया है)
विमल (उसी रिंग से बोतल खोलते हुये)- बहुत अच्छे यार। कितने पैसे मिल जाते हैं?
नायक - लगभग नौ हज़ार।
विमल ( उसकी आंखें इतनी फैल गयी हैं कि पुतलियां बाहर चू जाने का ख़तरा हो गया है) नौऽऽऽऽऽऽऽऽऽ हज़ार????
नायक (मुस्कराते हुये)- पूरा कैश नहीं। साढ़े चार हज़ार तनख़्वाह है और लगभग उतने की ही इज़्ज़त। दिन भर लड़के-लड़कियां सर-सर कहके प्रणाम करते रहते हैं। तुम क्या कर रहे हो? पांचजन्य में ही हो? कहानियां फिर से लिखनी शुरू कर दो। एक से एक घूरहू कतवारू हाथ पांव मार रहे हैं। तुम भी हाथ पांव मारते रहा करो।
विमल (अब मुस्कराने की बारी उसकी है)- पांचजन्य छोड़ दिया गुरू। एक साप्ताहिक लोकल अख़बार पकड़ा है और दो ट्यूशन्स। कहानी तो लिख ही रहा हूं। उसके बिना जी ही नहीं सकता। बल्कि तुम्हें जानकर ख़ुशी होगी कि आजकल जो कहानी लिख रहा हूं वह अपने मतलब हमारे जीवन के ऊपर है।
नायक- सच ? छप जाय तो पढ़वाना।
विमल- हाँ, हाँ बिल्कुल। अच्छा वेदिका की शादी तय हो रही थी। क्या हुआ ?
नायक - हां, दो महीने बाद है। कार्ड पहुंचाने का ज़िम्मा मेरा ही होगा। उसने पहले ही कह दिया है। हम अच्छे दोस्त हैं आख़िर.......।
विमल (हंसते हुये)- यानी साले, तुम्हारा प्रेम असफल और अधूरा ही रह गया?
नायक (उससे भी तेज़ हंसते हुये)- अरे तुम्हीं तो कहा करते हो कि असफल प्रेम ही जीवित रहता है। लैला-मजनूं, शीरी-फ़रहाद, हीर-रांझा की तरह शायद मुरारी-वेदिका का नाम भी.........।
दोनों हंसते हैं। उसके बाद दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गये होंगे।
अब शायद आपको अच्छा लगा होगा। ओह.......अब भी नहीं। मैं पहले ही समझ गया था कि पूरी कहानी पढ़ने के बाद आप यही कहेंगे- छछेः, ये भी कोई प्रेम कहानी है?