Monday, June 8, 2009

किस्सा नीलपरी का- गौरव सोलंकी

गौरव सोलंकी की गिनती हिन्दी के उभरते कहानीकारों में प्रमुखता से की जाती है। हिन्द-युग्म को नाज़ है कि इतना ऊर्जावान कलमकार बुनियाद से ही हिन्द-युग्म से जुड़ा हुआ है। कहानी-कलश पर अब तक इनकी 7 कहानियाँ (एक सुखांत प्रेमकथा, यहाँ वहाँ कहाँ, एक लड़की जो नदी बन गई, आज़ादी, प्रेम कहानी, शर्म और प्यासा) प्रकाशित हुई हैं। आज हम इनकी जो कहानी प्रकाशित कर रहे हैं उसका एक छोटा सा टुकड़ा 'तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?' तहलका-हिन्दी में प्रकाशित हुआ था और ख़ासा पढ़ा और सराहा गया था। वही कहानी पढ़िए साबूत रूप में 'किस्सा नीलपरी का'॰॰॰॰॰॰॰


किस्सा नीलपरी का


नीली आँखें

- तुम्हारी आँखें तो नीली नहीं हैं... मुझे याद पड़ता है कि हमारे बीच की पहली बात यही थी। उससे पहले वह तुनकमिजाज़ लड़की, जो अपने अक्खड़ जमींदारों के परिवार से हर सद्गुण विरासत में लेकर आई थी, मेरे लिए उतनी ही अपरिचित थी, जितनी उसके पीछे खड़ी चश्मे वाली लम्बी लड़की या उससे पीछे खड़ी मुस्कुराती हुई साँवली लड़की। मैं एक पत्रिका के लिए लेखकों की तलाश में था और वह एक कविता लेकर मेरे पास आई थी। डायरी में से जल्दबाज़ी में फाड़े गए उस पन्ने पर लाल स्याही से लिखे हुए नीलाक्षी पर मेरी नज़र सबसे पहले पड़ी थी और मैं उसकी गहरी काली आँखों को देखकर अनायास ही पूछ बैठा था। वह भड़क गई थी- क्या बकवास है? उसका लहजा देखते ही मैंने तुरंत अपने कंधे उचकाकर और मुँह बिचकाकर सॉरी बोल दिया था, लेकिन वह मेरी उम्मीद पर खरा उतरते हुए बेअसर रहा था। - तुम यहाँ मुझे देखने के लिए बैठे हो या इन आर्टिकल्स को? - दोनों को... और इस जवाब पर तो वह आगबबूला हो गई थी। वह तब तक बोलती रही, जब तक पीछे वाली मुस्कुराती हुई साँवली लड़की उसे खींचकर नहीं ले गई। मैं चुपचाप उसे सुनता रहा था और उन सबके चले जाने के बाद देर तक हँसता ही रहा था। बहुत दिनों बाद मैं उतना हँसा था।

डायरी की कहानी - कविता की कहानी

चौपड़ बाज़ार का जो दरवाजा कोर्ट की तरफ़ खुलता था, उसी दरवाजे पर एक किताबों की दुकान थी- नेशनल बुक डिपो। उस दुकान के अन्दर स्टोर की तरह का एक कमरा था, जिसमें लम्बे समय तक न बिकने वाला सामान पटक दिया जाता था। दिसम्बर 2004 में आई वह डायरी भी ज़िद्दी थी कि दो साल तक बिकी ही नहीं और उस कमरे में डाल दी गई। उसके नीचे साहित्य की कई किताबें पड़ी थी और कुछ महीने बीतते बीतते उसके ऊपर का बोझ भी बढ़ने लगा।
बहुत बड़ी घटनाएँ भी छोटी छोटी बित्ते भर की घटनाओं की साँसें लेकर जीती हैं। एक लड़की को अपने शोध के लिए किसी नए और न बिकने वाले लेखक की किताब की तलाश थी। उसने नेशनल बुक डिपो के गल्ले पर बैठे रामानुज पाण्डे को अपनी इच्छा बताई और पाण्डे जी ने अपने आदेश की प्रतीक्षा में खड़े दीपक को स्टोर में से कुछ उठाकर लाने के लिए भेज दिया। वह तीन-चार किताबें उठाकर लाया और उनके बीच में वह डायरी भी आ गई, जिसके कवर पर सुनहरे अक्षरों में 2004 लिखा था। लड़की ने कविताओं की एक किताब चुन ली और मुस्कुरा दी। इस मुस्कान पर फ़िदा होकर रामानुज पाण्डे ने 2004 वाली वह डायरी उस किताब के साथ मुफ़्त भेंट कर दी।
मेरी वे कविताएँ नीलाक्षी को बहुत पसन्द आईं। अपने थीसिस के लिए उसने बाद में कोई और किताब खोज ली और मेरी किताब उसके बिस्तर के पास मेज पर रखी रहने लगी, जिसे वह सोने से पहले एक बार जरूर पलटकर देख लेती। उसी किताब की कुछ कविताओं को उसने अपनी डायरी में नोट कर लिया और एक दिन उन्हीं में से कोई पन्ना फाड़कर अपने नाम से छपवाने के लिए मेरे पास ले आई। वह मुझे नहीं जानती थी। मैं भी उसे नहीं जानता था। डायरी, कविता को और कविता, डायरी को हल्का हल्का पहचानने लगी थी।

अँधेरे की कहानी - माँ की कहानी

बहुत दिनों से मैंने और माँ ने साथ साथ कोई फ़िल्म नहीं देखी है। मैं टीवी ऑन कर देता हूं। माँ साथ में बुनाई का काम भी निपटा रही है।
कुछ देर से माँ ने एक बार भी टीवी की ओर नहीं देखा है। मुझे पता है कि माँ मुझसे कुछ कहना चाह रही है। - नीलाक्षी अच्छी लड़की नहीं है। माँ जैसे घोषणा कर देती है। मैं चुप रहता हूँ। - हो भी सकती है...पर लगती नहीं मुझे। वह अपनी बात सुधारकर बोलती है। माँ ने कभी नीलाक्षी को देखा नहीं है, माँ ने कभी फ़ोन पर भी उससे बात नहीं की है, लेकिन वह बार बार पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहती है। वह यह भी जानती है कि उसकी बात से मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। बाहर अँधेरा है। मुझे नीलाक्षी की याद आती है। मेरा मन करता है कि मैं माँ के आरोप के विरोध में कुछ कहूं लेकिन मैं कुछ नहीं कह पाता। माँ फिर बोलती है- तेरे लायक नहीं है वो। मैं उठकर बाहर चला जाता हूं। आँगन में चमगादड़ घूम रहे हैं। वे कुछ बोलते हैं और लौटकर आती हुई आवाज़ से अन्दाज़ा लगाते हैं कि सामने कुछ है या नहीं। मेरा मन करता है कि मैं उनकी बातों के उत्तर में कुछ कहूं। बिना सुने गए लगातार बोलते रहना कितना हताश कर देता होगा ना? माँ अन्दर से आवाज़ लगाती है कि ब्रेक ख़त्म हो गया है। माँ मेरे साथ फ़िल्म देखना चाहती है लेकिन मेरा वहाँ जाने का मन नहीं करता। नीलाक्षी और कविता को छोड़कर मैं और माँ दुनिया के हर मसले पर बात करते हैं और जब भी इन दोनों में से किसी पर बात की जाती है तो हम दोनों में से कोई एक जरूर नाराज़ होता है। बाहर आसमान है, उसमें अँधेरा है, अँधेरे में चमगादड़ हैं, उनमें न सुना जाना है, उनमें हताशा है, हताशा में मैं हूँ, मुझमें माँ है, मुझमें नीलाक्षी भी है, मुझमें कविता भी है। माँ में एक भयावह सा खालीपन है। माँ आजकल दिनभर बुनती रहती है। माँ अकेली है।

किस्मत वाले हो तुम बुद्धू

- तुम सिख हो?
- तुम्हें नहीं पता?
मैं आँखें फाड़ फाड़कर उसे देख रहा था। हमारी पहली मुलाक़ात को तीन महीने होने को आए थे और मुझे उसका धर्म ही नहीं पता था। उसके बाद मेरे सामने रखी हुई कॉफ़ी ठंडी हो गई। उसके बाद शाम गहराने लगी। उसके बाद नैस्केफे की लाल छतरियों के नीचे बिछी कुर्सियों पर लोग घटने लगे। उसके बाद मेरा मोबाइल दो बार बजा। उसके बाद उसकी हेयरपिन खुल गई और उसके लम्बे बाल हवा में लहराते रहे। तब तक हम चुपचाप एक दूसरे को देखकर मुस्कुराते रहे।
मैंने फिर से पूछा- तुम सच में सरदार हो? - हाँ जी हाँ। उसके गालों में गड्ढे पड़ते थे। उसके गाल सेब की तरह लाल थे और चेहरे पर एक पवित्र सी कोमलता थी। उसकी आँखों में चमक थी और लम्बे बालों में उमंग। मुझे पहली बार लगा कि उसकी शख्सियत में सब कुछ तो सरदारनियों जैसा था, फिर मुझे अब तक यह अहसास क्यों नहीं हुआ? - बताया ही नहीं तुमने कभी... - इसमें बताने का क्या था? तुमने कभी बताया कि तुम उल्लू हो? वह मेरा हाथ पकड़ते हुए बोली। मैंने हाथ खींच लिया। - नाराज़ हो गए? मैंने मुँह बनाते हुए हाँ कह दिया। - रात रात भर जागोगे तो उल्लू ही कहूंगी ना। कहाँ से सीखा है आधी रात के बाद सोना और फिर दस बजे जगना? - माँ मत बनो तुम। दो-दो माँएं नहीं चाहिए मुझे। - किस्मत वाले हो तुम बुद्धू। - दो माँओं की आदत पड़ जाएगी तो बाद में तकलीफ़ होगी। - क्यों? - तुम तो किसी पगड़ी वाले सुखविन्दर बलजिन्दर से शादी करोगी ना... - मैं गौरव से शादी करूंगी जो मेरी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा। हमारी पहली मुलाकात को तीन महीने होने को आए थे। हमने साहित्य, सिनेमा और मोहब्बत के अलावा किसी विषय पर कभी बात भी नहीं की थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि उसे मीठा ज्यादा पसन्द है या नमकीन। उसके घर में कितने लोग हैं और उसका घर है कहाँ, यह भी मैं पूरे यकीन के साथ नहीं बता सकता था। मुझे उसकी राशि भी नहीं पता थी और जन्मदिन भी। लेकिन हाँ, मैं उससे प्यार करता था और बादलों के आसमान से काली हुई उस शाम में नीलाक्षी मुझे शादी का वचन भी दे चुकी थी। एक बेढंगा सा आम लड़का, जिसे दाढ़ी बनाना बहुत ऊबाऊ काम लगता हो, उसे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?

तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं?

मेरा मन है कि मैं उसे कहानी सुनाऊँ। मैं सबसे अच्छी कहानी सोचता हूं और फिर कहीं रखकर भूल जाता हूं। उसे भी मेरे बालों के साथ कम होती याददाश्त की आदत पड़ चुकी है। वह महज़ मुस्कुराती है।
फिर उसका मन करता है कि वह मेरे दाएँ कंधे से बात करे। वह उसके कान में कुछ कहती है और दोनों हँस पड़ते हैं। उसके कंधों तक बादल हैं। मैं उसके कंधों से नीचे नहीं देख पाता।
- सुप्रिया कहती है कि रोहित की बाँहों में मछलियाँ हैं। बाँहों में मछलियाँ कैसे होती हैं? बिना पानी के मरती नहीं? मैं मुस्कुरा देता हूं। मुस्कुराने के आखिरी क्षण में मुझे कहानी याद आ जाती है। वह कहती है कि उसे चाय पीनी है। मैं चाय बनाना सीख लेता हूं और बनाने लगता हूं। चीनी ख़त्म हो जाती है और वह पीती है तो मुझे भी ऐसा लगता है कि चीनी ख़त्म नहीं हुई थी।
- तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं? - मुझे तुम्हारे कंधों से नीचे देखना है। - कहानी कब सुनाओगे? - तुम्हें कैसे पता कि मुझे कहानी सुनानी है?
- चाय में लिखा है। - अपनी पहली प्रेमिका की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, दूसरी की। - मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाऊँ? - नहीं, छोटी साइकिल चलाने वाली बच्ची की। और कंगूरे क्या होते हैं? - तुम सवाल बहुत पूछती हो। वह नाराज़ हो जाती है। उसे याद आता है कि उसे पाँच बजे से पहले बैंक में पहुँचना है। ऐसा याद आते ही बजे हुए पाँच लौटकर साढ़े चार हो जाते हैं। मुझे घड़ी पर बहुत गुस्सा आता है। मैं उसके जाते ही सबसे पहले घड़ी को तोड़ूंगा।
मैं पूछता हूं, “सुप्रिया और रोहित के बीच क्या चल रहा है?”
- मुझे नहीं पता... मैं जानता हूं कि उसे पता है। उसे लगता है कि बैंक बन्द हो गया है। वह नहीं जाती। मैं घड़ी को पुचकारता हूँ। फिर मैं उसे एक महल की कहानी सुनाने लगता हूं। वह कहती है कि उसे क्रिकेट मैच की कहानी सुननी है। मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौनसी?” मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
उसके बालों में शोर है, उसके चेहरे पर उदासी है, उसकी गर्दन पर तिल है, उसके कंधों तक बादल हैं।
- कंगूरे क्या होते हैं? अबकी बार वह मेरे कंधों से पूछती है और उत्तर नहीं मिलता तो उनका चेहरा झिंझोड़ने लगती है।
मैं पूछता हूं - तुम्हें तैरना आता है?
वह कहती है कि उसे डूबना आता है।
मैं आखिर कह ही देता हूं कि मुझे घर की याद आ रही है, उस छोटे से रेतीले कस्बे की याद आ रही है। मैं फिर से जन्म लेकर उसी घर में बड़ा होना चाहता हूं। नहीं, बड़ा नहीं होना चाहता, उसी घर में बच्चा होकर रहना चाहता हूं। मुझे इतवार की शाम की चार बजे वाली फ़िल्म भी बहुत याद आती है। मुझे लोकसभा में वाजपेयी का भाषण भी बहुत याद आता है। मुझे हिन्दी में छपने वाली सर्वोत्तम बहुत याद आती है, उसकी याद में रोने का मन भी करता है। उसमें छपी ब्रायन लारा की जीवनी बहुत याद आती है। गर्मियों की बिना बिजली की दोपहर और काली आँधी बहुत याद आती है। वे आँधियाँ भी याद आती हैं, जो मैंने नहीं देखी लेकिन जो सुनते थे कि आदमियों को भी उड़ा कर ले जाती थी। अंग्रेज़ी की किताब की एक पोस्टमास्टर वाली कहानी बहुत याद आती है, जिसका नाम भी नहीं याद कि ढूंढ़ सकूं। मुझे गाँव के स्कूल का पहली क्लास वाला एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम भी याद नहीं और कस्बे के स्कूल का एक दोस्त याद आता है, जिसका नाम याद है, लेकिन गाँव नहीं याद। वह होस्टल में रहता था। उसने ‘ड्रैकुला’ देखकर उसकी कहानी मुझे सुनाई थी। उसकी शादी भी हो गई होगी...शायद बच्चे भी। वह अब भी वही हिन्दी अख़बार पढ़ता होगा, अब भी बोलते हुए आँखें तेजी से झिपझिपाता होगा। लड़कियों के होस्टल की छत पर रात में आने वाले भूतों की कहानियाँ भी याद आती हैं। दस दस रुपए की शर्त पर दो दिन तक खेले गए मैच याद आते हैं। शनिवार की शाम का ‘एक से बढ़कर एक’ याद आता है, सुनील शेट्टी का ‘क्या अदा क्या जलवे तेरे पारो’ याद आता है। शंभूदयाल सर बहुत याद आते हैं। उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम क्रिएटिव हो और मैं उसका मतलब जाने बिना ही खुश हो गया था। एक रद्दीवाला बूढ़ा याद आता है, जो रोज़ आकर रद्दी माँगने लगता था और मना करने पर डाँटता भी था। कहीं मर खप गया होगा अब तो।
वह कंगूरे भूल गई है और मेरे लिए डिस्प्रिन ले आई है। उसने बादल उतार दिए हैं। मैंने उन्हें संभालकर रख लिया है। बादलों से पानी लेकर मेरी बाँहों में मछलियाँ तैरने लगी हैं। हमने दीवार तोड़ दी है और उस पार के गाँव में चले गए हैं। उस पार मीठा अँधेरा है जो उसे कभी कभी तीखा लगता है। वह अपनी जुबान पर अँधेरे की हरी चरचरी मिर्च धर लेती है और जब उसे चबाती है तो हल्की हल्की सिसकारी भरती है। मैं उसे शक्कर कहता हूं तो वह शक्कर होकर खिलखिलाने लगती है।
कुछ देर बाद वह कहती है – मिट्टी के कंगूरों पर बैठे लड़के की कहानी सुनाओ।
मैं कहता हूं कि छोटी साइकिल चलाने वाली लड़की की सुनाऊँगा। वह पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे ज़्यादा पसन्द है? मैं नहीं बताता।
फिर पूछती है कि तुम्हें कौनसी कहानी सबसे बुरी लगती है? फिर वह कुछ पूछते पूछते भूल जाती है। फिर मैं कहता हूं , “नीलाक्षी.......” और फिर कुछ नहीं कहता।

डर के आगे

मैं सात साल का हूं। माँ ने मुझे पुजारियों के घर से दूध लाने को कहा है। वे मन्दिर में रहते हैं, शायद इसीलिए उनके घर को सब पुजारियों का घर कहते हैं। शिप्पी ने मुझे बताया है कि पुजारी भगवान नहीं होते। उसने उनके घर के एक बूढ़े को बीड़ी पीते देखा है और तब से उसकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई है। भगवान कौन होते हैं, यह पूछने पर वह उलझ जाती है और सोचने लगती है। शिप्पी मुझसे बड़ी है या बड़ी नहीं भी है तो भी उसे देखकर मुझे ऐसा ही लगता है। वह आधे गाल पर हाथ रखकर सोचती है तो मेरी नज़रों में और भी बड़ी हो जाती है।
मैं डोलू उठाकर चल देता हूं। इस बर्तन को हाथ में लेते ही झुलाते डुलाते हुए चलने का मन करता है, शायद इसीलिए इसे डोलू कहते हैं। शिप्पी अपने घर की देहरी पर बैठी है। मुझे अकेले जाते देख वह भी मेरे साथ हो लेती है। वह वादा करती है कि अगर मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा तो लौटने के बाद वह मुझे बैट बॉल खेलना सिखाएगी। मैं कहता हूं कि तब तक तो रात हो जाएगी और वह कहती है कि हाँ, अब दिन भी छोटे होने लगे हैं। मैं सिर उठाकर आसमान तक देखता हूं मगर मुझे कहीं दिन का चेहरा या पेट या पैर नहीं दिखाई देते।
उसने नया फ्रॉक पहन रखा है, जो उसके घुटनों से थोड़ा ऊँचा है। मैं उसे कहता हूं कि यह पुराना है, इसीलिए ऊँचा हो गया है। वह मेरे सामने पीठ करके खड़ी हो जाती है और पीछे चिपका हुआ स्टिकर दिखाकर बताती है कि यह उसने पहली बार पहना है। स्टिकर को छूने के प्रयास में उसके फ्रॉक का एक हुक खुल जाता है। अब वह चलती है तो एक कंधे पर फ्रॉक लटक सा जाता है। वह मुझसे आगे है। मैं उसे पकड़कर रोक लेता हूं और बताता हूं कि उसका एक हुक खुला है। वह बताती है कि उसे शर्म आ रही है। मुझे भला सा लगता है। वह मुझसे लम्बी है। उसका हुक लगाने के लिए मुझे तलवों के बल पर ऊँचा होना पड़ता है। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। मैं उसे बताता हूं कि पुजारियों के कुत्ते से मुझे बहुत डर लगता है। वह बताती है कि कुत्तों से कभी नज़र नहीं मिलानी चाहिए, नहीं तो वे गुस्सा हो जाते हैं। मैं उसे बताता हूँ कि कुत्तों के आस पास कभी भागना नहीं चाहिए। यह मुझे माँ ने बताया था। माँ की याद आने पर मुझे लगता है कि हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए, नहीं तो देर से लौटने पर माँ डाँटेगी।
रास्ते में सरकारी स्कूल के अन्दर से होकर जाना पड़ता है। स्कूल के सब कमरों पर ताले टँगे हैं, लेकिन एक कमरे का दरवाजा टूटा है, जिसमें से भीतर जाया जा सकता है। हम उधर से गुजरते हैं तो उस कमरे में कभी कभी आइस पाइस खेलते हैं। लेकिन आज जल्दी है, इसलिए हम सीधे निकल जाते हैं।
रामदेव जी का मन्दिर गाँव से बाहर है। उसके आस पास रेत के ऊँचे टीले शुरु हो जाते हैं, जिन पर लोटना और फिसलना मेरे और शिप्पी के प्रिय खेलों में से है। वह बाहर ही खड़ी रहती है। मैं जब घर के अन्दर से दूध लेकर आता हूँ तो वह ललचाई नज़रों से उन टीलों को देख रही है। मैं उसे बैट बॉल का वादा याद दिलाता हूं तो वह थोड़ी सी उदास होकर मेरे साथ लौट चलती है। दिन इतने छोटे हैं कि हमारे लौटते लौटते धुंधलका होने लगा है।
स्कूल के अन्दर वाली राह सुनसान है। हम दोनों हाथ पकड़कर चल रहे हैं। तभी पीछे किसी के पैरों की आहट सुनाई देने लगती है। मैं पीछे मुड़कर देखता हूं। नहीं, पहले शिप्पी देखती है कि पुजारियों का लड़का अतुल हमारे पीछे आ रहा है। वह फुसफुसाकर मुझसे कहती है कि उसे इसका नाम नहीं पता, लेकिन यह अच्छा लड़का नहीं है। वह अचानक काँपने लगी है। मैं भी मुड़कर देखता हूं कि वह सिगरेट के कश लगाता हुआ आ रहा है। मैं उसे रोज़ देखता हूँ, लेकिन आज मेरे मन में भी डर की एक लहर दौड़ जाती है। हम तेज तेज चलने लगते हैं और कुछ देर में लगभग दौड़ने लगते हैं। हम टूटे दरवाजे वाले कमरे के सामने हैं, जब वह हमारे सामने आ खड़ा होता है।
शिप्पी की उम्र आठ साल है। वह मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उसने चौड़े घेरे का ऊँचा गुलाबी फ़्रॉक पहन रखा है। उसका हाथ मैंने कसकर पकड़ रखा है। अतुल हमसे पाँच-छ: साल बड़ा है। वह मेरे सिर पर हाथ फेरता है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। फिर वह मेरे हाथ से शिप्पी का हाथ छुड़ा देता है। उसकी आँखों में आँसू आ गए हैं। वह बुरी तरह काँपने लगी है। मैं देख रहा हूं कि वह उसे खींचकर टूटे हुए दरवाज़े से कमरे के अन्दर ले गया है। मैं डरकर भाग लेता हूं और कुछ दूर जाकर फिर थमकर खड़ा हो जाता हूं। मैं बार-बार भागता हूँ और फिर लौट आता हूँ। उस ठंडी शाम में मैं पसीने से भीगा हुआ हूं। मुझे कुछ समझ नहीं आता। मेरा रोने का मन करता है, लेकिन डर के मारे मैं रो भी नहीं पाता। मेरे बड़े होने के बाद टीवी पर एक विज्ञापन आता है- डर के आगे जीत है... नहीं, डर के आगे जीत नहीं है। डर के आगे सरकारी स्कूल का एक कमरा है, जिसमें घुसते हुए अतुल का हाथ शिप्पी के ऊँचे फ्रॉक को और भी ऊँचा उठाता हुआ ऊपर तक चला जा रहा है। डर के आगे मेरा उस कमरे के बाहर अँधेरा होने तक खड़ा रहना और फिर मेरे सिर पर अपना हाथ फेरकर जाते अतुल के बाद रोती बिलखती शिप्पी को देखते रहना है। डर के आगे घुप्प अँधेरा है, जिसके बाद मैं शिप्पी से कभी नहीं पूछता कि भगवान कौन होते हैं? डर के चार घंटे आगे शिप्पी का बिना किसी से कुछ कहे अपने बिस्तर पर सो जाना है।

चौदह का लड़का

मैं चौदह साल का हूं। चौदह का लड़का होना कुछ नहीं होने जैसा होता है। मैं लाख रोकता हूं लेकिन ठुड्डी पर बेतरतीब बाल निकलने लगे हैं। मैं बाल कटवाने जाता हूं तो नाई से दाढ़ी बनाने के लिए कहने में बहुत शर्म आती है। मैं हर बार यूं ही लौट आता हूं और बेतरतीबी अपने अंदाज़ से बढ़ती रहती है। मैं अब बच्चा नहीं हूं और बड़े भी मुझे अपने साथ नहीं बैठने देते। कुछ साल पहले तक साथ की जिन लड़कियों के साथ गुत्थमगुत्था होकर कुश्ती लड़ा करता था, वे अब सहमी सी रहती हैं और बचकर निकल जाती हैं। उन्हें बड़ी माना जाने लगा है, लेकिन चौदह के लड़के घर के सबसे उपेक्षित श्रेणी के सदस्य होते हैं, जिनके सिर पर सबका संदेह मंडराता रहता है। अब चड्डी पहनकर घर में घूमने पर माँ डाँट देती है। चौदह के लड़कों को लगता है कि नहाते हुए उनके चेहरे पर फूटने वाले मुँहासों जैसा ही कुछ है, जो उन्हें पता नहीं है और सबको लगता है कि उसके पता लगने के बाद वे बड़े हो गए हैं। उन्हें अवास्तविक और सम्मोहक से सपने दिखते हैं, जिन्हें वे कभी कभी सहन नहीं कर पाते। मैं हर सुबह अपने उन नशीले सपनों पर शर्मिन्दा होता हूं और अपने आप ही उपेक्षा की लकीर पर थोड़ा और जमकर बैठ जाता हूं।
दीदी को देखने वाले आ रहे हैं। मुझे बताया नहीं जाता, लेकिन मुझे मालूम है। दीदी की शादी हो जाने के ख़याल से मुझे बहुत बुरा लगता है।
दीदी पूरियाँ तल रही है, दीदी दहीबड़े बना रही है, दीदी ने भौंहें बनवाई हैं, दीदी ने साड़ी पहनी है, दीदी रो रही है। दीदी जब अन्दर वाले कमरे से बर्तनों का नया सेट निकालने जाती है तो एक मिनट रुककर रो लेती है। दीदी पैन से अपनी हथेली पर कुछ लिखती है और फिर खुरचकर मिटा देती है। मैं पूछता हूं कि क्यों रोती हो तो वह मुझे झिड़क देती है और तेजी से बाहर निकल जाती है। माँ मुझे डाँटती है कि वह औरतों का कमरा है, मुझे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मैं माँ की नहीं सुनता और वहीं अँधेरे में पड़ा रहता हूं। माँ बड़ बड़ करती रहती है। फिर पुकार होती है कि बाज़ार से काजू लाने हैं, लेकिन मैं नहीं सुनता। बाहर गाड़ी आकर रुकती है। घर में भगदड़ मच जाती है। “अरे गौरव, मेरी चुन्नी तो लाना”, माँ चिल्लाती है और मैं सोचता रहता हूं कि दीदी क्यों रोती है?
माँ बाहर गई है और बाकी लड़कियाँ औरतें उसी अँधेरे कमरे में इकट्ठी हो गई हैं।
“गठीले बदन का है”, मौसी इस तरह कहती है कि दीदी की सब सहेलियाँ हँसने लगती हैं।
- क्या करता है?
- उससे क्या लेना? फिर हँसी। - हैंडसम है..
मेरी चचेरी बहन दीदी की बाँह पर चिकोटी काटती है। दीदी नहीं रोती। क्यों? - नाम क्या है लड़के का? कोई दरवाजे के बाहर से पूछता है।
- अतुल..... और ऐसा होता है कि कमरे की दीवारों पर राख पुतने लगती है, मेरे सिवा सब गायब होने लगते हैं। छत तड़ तड़ तड़ाक टूटती है और गिरने लगती है। लेटे हुए मुझे चाँद दिखाई देता है, जिस पर बैठकर शिप्पी चरखा कातती हुई सुबक सुबक कर रो रही है। उसका सूत सपनों के रंग का है- मटमैला। मैं शिप्पी को पुकारता हूं, लेकिन वह मुझसे बात नहीं करती। वह सूत पर लिखकर भेजती है-पूछती है कि मैं रात को कैसे सो जाता हूं? मैं हाथ जोड़ता हूं, पैर पड़ता हूं, बाल नोचता हूं, छाती पीटता हूं और शिप्पी नहीं सुनती।

मोटरसाइकिल और इंतज़ार की कहानी

यह एक बहुत बड़बोला सा दिन है, अपनी ऊँचाई से ज्यादा बड़ा। धूप देखकर ऐसा लगता है, जैसे चार सूरज एक साथ निकले हों। पार्क की सीमाओं का अतिक्रमण करते एक पेड़ की छाया में मैंने मोटरसाइकिल खड़ी कर दी है और उस पर बैठकर नीलाक्षी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। अब से पहले हम बिना एक दूसरे को मिलने का वक़्त दिए यहीं मिलते रहे हैं।
कुछ देर में मुझे लगने लगता है कि जैसे पूरी दुनिया मुझे इगनोर कर रही है। झाड़ू लगाता हुआ जमादार मुझे वहाँ से हटने के लिए नहीं कहता। उसे असुविधा होती है, लेकिन वह चुपचाप मोटरसाइकिल के पहियों के नीचे दबे हुए पत्ते भी बुहार ले जाता है। मैं पास से गुजरती हुई एक औरत से समय पूछता हूं और उसे नहीं सुनता। सड़क के उस पार लगे हुए होर्डिंग पर खड़ी हुई लिरिल वाली लड़की ने मेरी ओर से इस तरह मुँह फेर रखा है जैसे मुझे देखते ही होर्डिंग टूटकर गिर जाएगा। मैं जिस जगह खड़ा हूं, वहाँ रोज एक चायवाला खड़ा होता है। कल वह अपनी इसी जगह के लिए एक कार वाले से झगड़ बैठा था, लेकिन आज उसने अपनी रेहड़ी मुझसे दूर हटकर लगा ली है। मैं नीलाक्षी को फ़ोन करता हूं और मेरा फ़ोन उठाना जरूरी नहीं समझा जाता। उस बड़बोली दोपहर में मुझे लगने लगता है कि मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह ख़याल इतना तीखा है कि अकेला ही आत्महत्या करने पर मजबूर कर सकता है। मुझे जोरों से प्यास लगती है। मैं छटपटाने लगता हूँ। मैं माँ को फ़ोन करता हूँ कि वह मेरी कुछ कविताएँ ढूंढ़कर मुझे अभी सुनाए। मैं अपने अस्तित्व को महसूस करना चाहता हूं। मुझे अपने होने को देखने के लिए कुछ चाहिए, लेकिन माँ चिढ़ जाती है और जल्दी घर आने को कहकर फ़ोन काट देती है। इन दिनों मेरी आवाज़ के फ़ोन काटना बहुत बार होता है। मैं चाहता हूं कि गुलमोहर के उस पेड़ का कोई पत्ता मुझ पर गिरे और इस प्रयास में मैं उसके नीचे टहलने लगता हूं, लेकिन मुझे छुआ तक नहीं जाता। मुझे लगता है कि शायद मेरा नम्बर देखकर नीलाक्षी फ़ोन ना उठा रही हो। मैं कोई टेलीफ़ोन बूथ ढूंढ़ने के लिए चल देता हूं और हड़बड़ी में भूल जाता हूं कि दो हज़ार पाँच की उस हीरो होंडा पैशन मोटरसाइकिल में मैंने ‘एन’ के आकार के छल्ले में पिरोई हुई चाबी लगी छोड़ दी है। मैं भूल जाता हूं....नहीं, मुझे आभास भी नहीं है कि सामने फोटोग्राफ़र की दुकान पर बैठा बेरोज़गार रणवीर सिर्फ़ ताश ही नहीं खेल रहा। मैं भूल जाता हूं कि चाय की रेहड़ी वाला मुझे नहीं पहचानेगा और उसे कोई मोटरसाइकिल भी याद नहीं रहेगी। मैं भूल जाता हूं कि सामने लिरिल से नहा रही निर्जीव लड़की, लड़की नहीं बाज़ार है। मैं भूल जाता हूं कि जब पुलिसवाला पूछेगा तो मुझे अपनी बाइक का नम्बर भी याद नहीं होगा। मुझे मालूम नहीं है कि रणवीर के पास पैसे नहीं हैं और उसकी पत्नी मोटरसाइकिल लाने की ज़िद पर अड़ी है। जैसे ही नीलाक्षी फ़ोन उठाती है, मैं केबिन के काँच में से देखता हूं कि एक युवक, जिसके नाम रणवीर को मैं नहीं जानता, मेरी मोटरसाइकिल लेकर तेजी से जा रहा है। वह फ़ोन उठाकर भी कुछ नहीं बोलती। बोलती भी कैसे? जो नम्बर डायल हुआ है, वह नीलाक्षी का तो नहीं है। मैं भूल जाता हूं कि आखिर में जो 765 है, वह 865 तो नहीं है ....या 378 तो नहीं है....या 475 तो नहीं है... संख्याओं को याद न रख पाना मेरी पुरानी कमज़ोरी है और कोई नीलाक्षी भी है और उसको फ़ोन करना साँस लेने से भी ज़्यादा जरूरी है, रणवीर यह नहीं जानता। यदि जानता होता तो शायद सिर्फ़ मोटरसाइकिल लेकर जाता। हालांकि यह इन सब संभावनाओं को सोचने का वक़्त नहीं है, लेकिन मैं सोचता हूं।
मोटरसाइकिल का चोरी हो जाना एक आम सी घटना है, लेकिन उस पर रखे सेलफ़ोन का और उसमें रखे नम्बरों का उसके साथ चोरी हो जाना इतना आम नहीं है कि बरसों बाद एक दोपहर रोटी का कौर तोड़ते हुए अचानक उसे याद कर रो न पड़ूं।

नाम की कहानी (संदर्भ के लिए)

- नीलप्रीत.....ए की नाम होया बई? वह उसे छेड़ने के मूड में था लेकिन अपने नाम का मजाक उड़ाया जाना उसे भला नहीं लगा। वह खामोश रही। - तू कोई होर प्यारा जा नां रख लै.... - तू ही रख दे। वह तुनककर बोली तो उसने कुछ क्षण सोचा और फिर एक झटके में कह दिया- नीलाक्षी।
यूं कि उस की पहली प्रेमिका का नाम नीलाक्षी था जो एम बी बी एस करने रूस चली गई थी और जिसका नाम उसकी कलाई से थोड़ा ऊपर न पर छोटी इ की मात्रा के साथ गुदा हुआ था। यूं कि मेरी नीलाक्षी का नाम नीलप्रीत था और नीलप्रीत हँसते हँसते बनाना शेक पीते पीते नीलाक्षी हो गई थी। यह नेशनल बुक डिपो के पाण्डे जी से मुस्कान के बदले डायरी लेने से बहुत पहले की बात थी। लेकिन नीलप्रीत ने नीलाक्षी को हमेशा के लिए अपने माथे पर सजाकर रख लिया, जैसे उसने उसके दिए हुए बीसियों उपहार अपनी अलमारी में सजाकर रख लिए थे, जिनमें चॉकलेट के रैपर तक सँभालकर रखा जाना बहुत अचरज की बात थी। यूं कि जिस नाम से मैं उससे प्यार करता था, वह नाम भी किसी ने उसे गिफ़्ट में दिया था। लेकिन वह बताती थी कि जब वह चार दिन की थी और उसके बम्बईया बुआ और फूफा उसे देखने आए थे और उसके रंगीन फूफाजी ने नीले काँच के चश्मे के पीछे से उसे देखा था और उन्हें भ्रम हो गया था कि बच्ची की आँखें नीली हैं और उन्होंने घोषणा कर दी थी कि लड़की का नाम नीलाक्षी ही रखा जाएगा। फूफाजी जिस फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी में एक्टर कोऑर्डिनेटर थे, उसकी मालकिन का नाम नीलाक्षी था। तोम्स्क में मेडिकल पढ़ रही नीलाक्षी और बम्बई में फ़िल्म बना रही नीलाक्षी चाहे असल में हों या न हों, लेकिन अगर होंगी तो उन्हें प्रेम करने वाले लोग उनसे ही प्रेम करते होंगे, रागिनी या दीपशिखा से नहीं।
मैं किसी और के तोहफ़े में दिए हुए नाम की, किसी और की नीलाक्षी से प्रेम करता था।

भूल जाने वाली लड़कियाँ : लोहे सी याददाश्त वाली माँएं

वे नारंगी सपनों और लाल सुर्ख़ नारंगियों के दिन थे। वे शताब्दी एक्सप्रेस के वातानुकूलित डिब्बों से चोरी चोरी झाँकते पानी में डूबी धान के दिन थे। वे लम्बी गाड़ियों, ऊँची इमारतों और गाँधी की तस्वीर वाले कड़कड़ाते नोटों के दिन थे। वे अख़बारी वर्ग-पहेलियों और शॉपिंग करती सहेलियों के दिन थे। वे ‘राम जाता है’, ‘सीता गाती है’, ‘मोहन नहीं जाता’, ‘मोहन नहीं जाता’ के जुनूनी पढ़ाकू दिन थे। वे हफ़्ते भर सप्ताहांतों के दिन थे। वे उत्सवों के दिन थे, रतजगों के दिन थे, जश्न के दिन थे। वे कसरती बदन वाले जवान लड़कों और उंगलियों में अतीत के धुएँ के छल्ले पहने हुई नशीली नर्म लड़कियों के दिन थे।
वे डाबर हनी के दिन थे लेकिन जाने कैसे कस्बाई बरामदों में शहद के छत्ते अनवरत बढ़ते ही जाते थे और गाँवों में कंटीले कीकर के पत्ते भी। वे रतियाए हुए खूबसूरत दिन थे, लेकिन न जाने क्यों हमने अपने फेफड़ों में दहकते हुए ज्वालामुखी भर लिए थे कि हमारी साँसें पिघले सीसे की तरह गर्म थी, कि हमारी आँखों से लावा बरसता था, कि हमारे हाव-भाव दोस्ताना होते हुए भी भयभीत कर देने की सीमा तक आक्रामक थे, कि हम आवाज में रस घोलकर रूमानी होना चाहते थे तो भी हम शर्म से सिर नीचा कर देने वाली गालियाँ बकते थे।
दीदी आ गई थी। मेरी पाँच साल की भांजी दिनभर कहती फिरती थी कि उसकी मम्मी छोड़ दी गई है और इसी एक बात पर माँ उसे दस बार पीटती थी। वह कुछ देर रोती और फिर आँसू पोंछकर खेलने लगती और कुछ देर बाद कागज के गत्तों से अपनी गुड़िया का घर बनाती। सब कुछ भूलकर नानी को बुलाकर अपना घर दिखाती, माँ तारीफ़ करती, उसे पुचकारती और वह उस गुड़ियाघर का दरवाज़ा खटखटाते हुए अनजाने में यही बड़बड़ाने लगती। माँ की आँखों में प्याज कटने जैसे आँसू आ जाते और वह फिर से उस अबोध बच्ची को एक चाँटा लगा देती। डाँट-फटकार, चीख-पुकार और मान-मनौवल का यह सिलसिला घर में सारा दिन चलता।
कुछ दिन तक दीदी भी अचानक किसी भी बात पर रोना शुरु कर देती और फिर घंटों तकिए में मुँह छिपाए पड़ी रहती। लेकिन यह सब धीरे धीरे कम होने लगा। दीदी आस-पड़ोस में जाने लगी। फिर धीरे धीरे शादी से पहले के उन्हीं पुराने किस्सों में रस लेने लगी। एक दिन मैंने दीदी को हँस-हँस कर किसी पड़ोसन को यह बताते सुना कि शारदा को आए दो महीने हो गए हैं, लेकिन उसकी ससुराल वाले उसे लेने ही नहीं आ रहे। दीदी को आए छ: महीने हो गए थे और दीदी सचमुच हँसती थी। मेरा बचपन का दोस्त संदीप मुझे अब भी ख़त लिखता है। वह मनोवैज्ञानिक बन गया है और कभी कभी बिना प्रसंग के यूं ही बेसिरपैर की बातें लिखता रहता है। इस बार की चिट्ठी में उसने लिखा है कि लड़कियों के दिमाग में एक मीमक नाम का द्रव होता है, जिससे वे जल्दी भूल जाती हैं।
जैसे मैं ट्रेन में बैठा हूं। मेरे पास की दो सीटों पर दो लड़कियाँ बैठी हैं। वक़्त काटने के लिए वे बात करने लगती हैं। एक बताती है कि वह जे एन यू से मास कॉम पढ़ रही है। दूसरी बताती है कि वह सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है। फिर वे दोनों चूड़ीदार और पटियाला सलवार पर चर्चा करने लगती हैं। फिर दूसरी पहली को बताती है कि इंटरनेट पर एक ऑर्कुट नाम की साइट है जिसमें दोस्त बनाए जा सकते हैं, पुराने दोस्तों को ढूंढ़ा जा सकता है और फिर वह तुरुप के पत्ते की तरह भेद खोलने वाले स्वर में कहती है कि उसमें दूसरों की बातें भी पढ़ी जा सकती हैं। दूसरी कहती है कि वह भी जॉइन करेगी। फिर ट्रेन रुकती है और दोनों उतरकर अपने अपने घर चली जाती हैं। शाम होते होते दोनों एक दूसरे को भूल जाती हैं, ऐसे कि कुछ महीने बाद पहली लड़की जब एक न्यूज़ चैनल पर समाचार पढ़ रही है और दूसरी लड़की टीवी चलाकर मैगी खाते खाते ऑफ़िस के लिए तैयार हो रही है तो सब कुछ सामान्य है, कहीं कोई सुखद आश्चर्य नहीं, और मैं दोनों को कभी नहीं भूल पाता। जैसे नीलाक्षी किसी बात पर बहुत खुश है। मैं नैस्केफ़े की एक लाल छतरी के नीचे उसके सामने बैठकर उसकी आँखों में झाँक रहा हूँ। मेज पर उसकी उंगलियाँ ‘हमको हमीं से चुरा लो’ की धुन में थिरक रही हैं। मैं उससे प्यार करता हूँ और आज उसका मन अपनी चंचलता के चरम पर है। उसका किसी से हँसी ठट्ठा करने का मन है। उसका मन है कि वह कुछ अटपटा कहे, जो कहने से पहले उसे भी पता न हो। उसका बहुत मन है कि आज वह किसी से एक औचक सा झूठा वादा जरूर करे और ऐसे में मैं उसे मंच देता हूँ। वह अचानक कहती है कि वह गौरव से शादी करेगी, जो उसकी शादी की फ़िक्र में आधी रात के बाद सोता होगा और अगले क्षण के बिल्कुल पहले ही वह भूल जाती है कि उसने क्या कहा है, जैसे नीलप्रीत भूल जाती है कि बचपन में उसे सब शिप्पी कहकर पुकारते थे। माँ को रह-रहकर जाने क्या याद आता है कि वह नीलाक्षी से मिले बिना ही मुझसे बार बार मौके-बेमौके कहती रहती है कि वह अच्छी लड़की नहीं है।

टोटे टोटे (टुकड़े टुकड़े)

- इसका क्या अर्थ होता है कि कोई अपने पीएचडी थीसिस के छठे पन्ने पर लिख दे- अंग्रेज़ी के पहले अक्षर ‘A’ को समर्पित? चायवाला चुप खड़ा रहा। मैं उस टेलीफ़ोन वाले केबिन से दौड़कर आया था और चीखने चिल्लाने, शोर मचाने या अपनी मोटर साइकिल के पीछे दौड़ते रहने की बजाय मैंने चायवाले से यही पूछा था। वह अचकचाकर मुझे देखने लगा था, लेकिन चुप। उसके बाद मैंने अपने मोबाइल के लिए जेबें टटोली थीं और वह रणवीर की शर्ट की बायीं जेब में था, इसलिए मुझे नहीं मिला और मैं पार्क की रेलिंग के सहारे ढह गया था।
उससे पहली शाम तक मुझ पर पंजाबी सीखने का जुनून सवार था। सब अख़बार हटवाकर मैंने घर में जगबाणी लगवा लिया था, जिसे न मैं पढ़ पाता था और न ही घर में कोई और। मैं लाइब्रेरी में जाकर सिर्फ़ पंजाबी की किताबें ढूंढ़ता, जो गिनती में बीस से ज्यादा नहीं होती। मैं उन्हें खोलकर बैठा रहता था और अक्षरों को चित्रों की तरह देखता रहता था। मुझे उस 2004 वाली डायरी में पंजाबी में लिखा पढ़ना था।
जहाँ उन किताबों की शेल्फ़ थी, वहाँ अमूमन कोई नहीं आता था। मैं भी वहाँ जाता था या ऐसा मुझे सिर्फ़ लगता ही था, मैं पक्के तौर पर नहीं बता सकता।
उस शाम भी मैं ऐसे कोने में बैठा था, जहाँ बिल्कुल मेरे सामने आए बिना मुझे नहीं देखा जा सकता था, लेकिन मैं पूरे हॉल को देख सकता था। और मैंने देखा कि उस कोने में, जहाँ उसके सिर को ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ लगभग छू ही रही थी, नीलाक्षी बेसुध हुई जा रही थी। वह और अतुल इस तरह साथ थे कि उन्हें अलग अलग पहचाना नहीं जा सकता था। उनके होने में एक दूसरे के पृथक अस्तित्व को पी जाने, निगल जाने की बेचैनी थी। वह हवा जितनी हथेली हिलाकर उसके पार की हवा को महसूस कर सकती थी। उनके बीच नामों की अदलाबदली थी, बदलने के दौरान की दरमियान की शरारतें थीं, अपना हिस्सा पहले लेने की ज़िद थी, अपने चेहरे पर गिरी लट हटाने का उन्मादी आलस था, हटा देने का बेचैन आग्रह था, होठों के दुस्साहस पर रूठ कर उन्हीं में छिप जाना था, फिर से गलती करके मना लेने का आत्मविश्वास था, उस की काँपती हुई गर्दन पर वही निठल्ला सा तिल था, डेढ़ सौ साल पुरानी वही लाइब्रेरी थी, अतुल था और नीलाक्षी थी जो उसके लिए बार-बार नीलप्रीत हो जाती थी और वह उसे नीलाक्षी कर देता था।
मैंने देखा कि मैं दूध लेकर डोलू हिलाते हुए आ रहा हूं और जैसे ही मैं पुजारियों के घर से बाहर निकलता हूं, मेरे साथ चलने से पहले शिप्पी हवा में अपना दायां हाथ उठा देती है और उसके हाथ के लाख के कंगन बजते हैं। फिर हम साथ साथ चलने लगते हैं। नहीं, शिप्पी की उम्र आठ साल है या आठ नहीं तो दस होगी...या ग्यारह। वह किसी को इशारा नहीं कर सकती। उसे मालूम भी नहीं होगा कि किसी को बुलाने के लिए बिना आवाज़ लगाए भी कुछ किया जा सकता है। वह दिनभर कंचे खेलती रही थी, इससे उसका हाथ दर्द करने लगा होगा और इसीलिए उसने हाथ ऊपर उठाया होगा। लेकिन अतुल पीछे क्यों आ रहा है? शिप्पी नहीं, मैं उसे पहले देखता हूं और डर सा जाता हूं। शिप्पी की उम्र ग्यारह है और मेरी सात। शिप्पी ने चौड़े घेरे का ऊँचा फ्रॉक पहन रखा है। आज शाम से ही ठंडी पछुआ हवा चल रही है। मुझे लगता है कि वह डरकर काँप रही है।
उसकी आँखों में रेत गिर गई है और वह हाथ से आँखें मसल रही है। मेरी आँखों में डर के आँसू हैं और उनके पार मुझे पूरी दुनिया में आँसू दिखाई देते हैं, शिप्पी की आँखों में भी।
मैं पक्का नहीं कह सकता कि उसे देखने के बाद शिप्पी ने मेरे कान में कुछ कहा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि जब वह उसे टूटे दरवाजे वाले कमरे में ले जा रहा था तो मैंने उसे रोते देखा था या नहीं। मैं पक्का नहीं कह सकता कि आधे घंटे बाद जब अतुल उस कमरे से बाहर निकला तो मैं बाहर खड़ा था और उसने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि मैंने ज़मीन पर पड़ी हुई शिप्पी को रोते देखा था। मैं पक्का नहीं कह सकता कि चार घंटे तक मैं उसे चुप करवाने के लिए अपनी शर्ट भिगोता रहा था। मुझे कुछ याद नहीं है और मैं कुछ याद कर सकने की स्थिति में भी नहीं हूँ। अपनी लड़कियों जैसी खराब याददाश्त और सच को बताने की हिम्मत न जुटा पाने के लिए मैं हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता हूँ।
लेकिन मैंने साफ साफ देखा है कि चाँद खाली है। वहाँ किसी को फ़ुर्सत नहीं कि चरखा काते और मटमैले सूत पर कुछ लिखकर भेजे। जो चाँद को पढ़ना चाहते हैं, उन्हें उसकी शाश्वत शीतलता जला डालती है।
मैंने देखा कि सामने नीलाक्षी अकेली आराम से बैठकर शरतचन्द्र का ‘देवदास’ पढ़ रही है और मैं गुस्से से उठकर उसके पास जाता हूं और उस एकांत को भेदती हुई, लजाती हुई, मार डालती हुई गालियाँ बकने लगता हूं। मैं नाखूनों से उसका चेहरा नोचने लगता हूं और वह मुझसे बचती भी नहीं, पत्थर की तरह स्थिर बैठी रहती है। मैंने देखा कि लहूलुहान नीलाक्षी अपनी सफाई में या बचाव में कुछ भी नहीं कहती और कुछ देर बाद दिखती भी नहीं।
उसके बाद मैंने कभी नीलाक्षी को नहीं देखा। पक्का नहीं कह सकता कि उस शाम भी देखा था या नहीं। मैं रात तक वहीं ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ और ‘देवदास’ के बीच गुमसुम बैठा रहा था। मैं उससे प्रेम करता था। मैं दोहराता हूँ कि मैं उससे प्रेम करता था, लेकिन मुझे उसका घर नहीं मालूम था, उसके घरवालों का नहीं पता था। उसका दस अंकों का फ़ोन नम्बर ही मेरे लिए उस तक पहुँचने का इकलौता ज़रिया था और अगले दिन वह नम्बर मेरी मोटरसाइकिल के साथ चोरी हो गया था।
बिना किसी प्रसंग के एक बार फिर संदीप ने यूँ ही लिख दिया कि सब क्रिएटिव लोग मानसिक तौर पर कुछ असामान्य होते हैं। मैं अब उसकी चिट्ठियाँ नहीं पढ़ता। वह फ़ोन करता है तो मैं बात नहीं करता।

उसने कहा था...

उसने कहा था- तुम इस तरह लगातार आसमान को मत देखा करो... मैंने कहा था – क्यों?
उसने कहा था - वह तुमसे आँखें नहीं मिला पाता होगा। मैंने कहा था - उसका हुक ढीला थोड़े ही है...जो पलकें झुका लेगा तो खुलकर गिर जाएगा...
उसने कहा था – तुम्हारी आँखों में कुछ है.. मैंने कहा था - क्या? उसने कहा था - कुछ है कि तुम्हें देख कर बेचैनी होती है...
मैंने कहा था - झूठ मत बोलो। उसने कहा था - मैं तुमसे कभी झूठ नहीं बोलती... मैंने कहा था - मैं जानता हूं।
सर्दियाँ आ गई हैं, लेकिन माँ ने बुनना छोड़ दिया है। माँ अब खिली खिली सी रहती है। मेरी ज्यादा फ़िक्र करने लगी है। सुबह शाम मेरी पसंद का ही खाना बनाती है। मैं नहीं खाता तो उसने भी करेला खाना छोड़ दिया है। पिछले हफ़्ते माँ ने पहली बार मेरी किसी कविता की प्रशंसा की थी। आजकल वह मेरी कविताएँ पढ़ती है और उन पर बातें भी करती है। माँ में अचानक एक नई ऊर्जा आ गई है। घर के सब गद्दे लिहाफ़ वह फिर से भरवा रही है। रोज बाज़ार जाती है और घर को सजाने के लिए कुछ न कुछ खरीद लाती है।
- संदीप का लेटर आया है। माँ बाहर से चिल्लाकर कहती है और मैं अनसुना कर देता हूं। माँ ख़त लेकर अन्दर आ गई है और उसने फाड़कर ख़त खोल लिया है। मैं माँ से कहना चाहता हूं कि दूसरों की चिट्ठियाँ नहीं पढ़नी चाहिए, लेकिन नहीं कहता। माँ कुछ पढ़कर मुस्कुराती है और सोचती है कि मैं उससे पूछूंगा कि क्यों मुस्कुरा रही हो, लेकिन मैं नहीं पूछता। रात हो गई है। मैं नए भरे लिहाफ़ में माँ के साथ बैठा हूं। अँधेरे में रहने वाली माँ अब कमरे में अँधेरा नहीं रहने देती। मैं मुँह ढककर लेट जाता हूं। माँ ने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया है। माँ कहती है कि अब मुझे कुछ काम-धाम करने की सोचनी चाहिए और नीलाक्षी को भूल जाना चाहिए। अचानक एक पल के लिए मुझे लगता है कि नीलाक्षी कभी थी ही नहीं।
मैं ठहरे से स्वर में कहता हूं - मेरे पास नीलाक्षी की कोई तस्वीर भी नहीं है माँ....कि ढूंढ़ सकूं उसे। माँ नहीं बताती कि उसके पास शिप्पी की एक तस्वीर है।
मुझे अपना पहले वाला सेल नम्बर वापस मिल गया है। सुबह मैं अपने मोबाइल से पापा को एस एम एस करना सिखा रहा हूं। तभी मोबाइल बजता है। मोबाइल पापा के हाथ में है और वे नहीं जानते कि उन्होंने मैसेज डिलीट करने वाला बटन दबा दिया है। उस आधे सेकण्ड के अंतराल में मुझे मैसेज में कहीं NEEL दिखाई देता है। मैं जब तक पापा के हाथ से फ़ोन लेता हूं, वह मैसेज डिलीट हो चुका है।
मैं धम्म से फ़र्श पर बैठ जाता हूं। पापा हकबकाकर मुझे देखते रहते हैं। वे नहीं जानते कि क्या हुआ है।
अन्दर से माँ कहती है – कल से पछुआ चल रही है....और इस साल जितनी सर्दी तो कभी नहीं पड़ी।
मैं टुकुर टुकुर आसमान को देखता रहता हूं।

-गौरव सोलंकी

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7 कहानीप्रेमियों का कहना है :

rishi upadhyay का कहना है कि -

chhaa gaye tussi!!har baar toh vaah-vaah karne ko dil kartaa thaa...is baar nishshabd kar diyaa!

Manju Gupta का कहना है कि -

Solankie ji ki asafal prem kahani
safata ke tane-bane ke silp ko darshati hai.khani ki katavastu man ko aandolit kerti hai aur aagay kyaa hai ki utsukta banaye rakti hai.
Ek tarf tiin age ka manoveegyanik chitran hai dusari tarf didi ko deknebaalo ko marmspersie chitran hai.Rachana prasansnieya hai.
Manju Gupta.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

अभिनव और अद्भुत कहानी के लिए सोलंकी जी को धन्यवाद.

Pooja Anil का कहना है कि -

गौरव जी,

आपकी कल्पनाएँ पंख पसार कर नील परी की तरह आसमान की सैर करती हैं, जाने कहाँ- कहाँ से घूम- घाम कर कहानियाँ लिख लाती हैं .

अच्छी कहानी है. पर दर्द भरी है .

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मुझे लगता है कि कहानी लिखने के तौर पर आप बहुत परिपक्व होते जा रहे हैं। 'नीलाक्षी का कुछ कहना और गौरव का कुछ करना-कहना' में दीवार में एक खिड़की रहती थी के मास्टर जी और उनकी पत्नी के बीच के संवादों की झलक मिलती है, लेकिन जल्द ही मुझे आभास होता है कि आपका ऑब्ज़रवेशन उनसे अलग है और आपकी शैली में भी एक अलग किस्म की रोचकता और आकर्षण है। मेरे हिसाब से अलग-अलग कहानियों में यदि शैली में भी बदलाव किया जाय तो वह भी एक उदाहरण बनेगा कि गौरव की एक कहानी पढ़कर, दूसरी कहानी का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, या ऐसे कहें कि गौरव की कितनी भी कहानियाँ आपने पढ़ रखी हो, जब तक बताया न जाय आप यह नहीं कह सकते कि यह गौरव की ही कहानी है।

आपने कहानियों में स्मृतियों को भी बहुत रोचक ढंग से उकेरा है। आपको एक बार पढ़ने वाला हर पाठक दूसरी बार पढ़ने की लालसा रखेगा।

शोभना चौरे का कहना है कि -

rochkta liye huye kai chipi hui kdvi sachhai ko ujagar karti ytharthme jiti khni .
badhai

Rajesh Oza का कहना है कि -

Unique one.

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