Monday, June 15, 2009

पीर पराई - विभा रानी

छापक पेड़ छिहुलिया त' पतवन धन बन हो
रामा तेही तर ठाढि़ हरिनिया त' मन अति अनमन हो

हिरणी का कलेजा कसक उठा - तो आज हमारे बालक का अंतिम विदाई है। आज के बाद हमारा बालक हमारा नहीं रह जाएगा। उसका मन चीत्कार कर उठा -"बचवा रे s s s s।" उसकी चीत्कार पूरे जंगल में सन्नाटा पसार गई- भांय-भायं जैसा अजीब सन्नाटा। चीखें भी मौन को इसतरह बढ़ाती हैं, यह उलटबांसी उसकी समझ में नहीं आई। अपनी चीख से वह खुद ही तनिक सहम सी गई। इधर उसके चीत्कार से जंगल के हरे-भरे पेड़ मौलकर (मुर्झाकर) अपनी पत्तियों की नोकें नीची कर बैठे- "सुन री बहिनी, हम इतना ही कर सकते हैं। तेरे सोग के भागीदार बने हैं, मगर इससे जि़यादे की औकात नहीं।" कल-कल बहती नदियों ने अपनी किलोलें रोक दीं और बर्फ़ जैसी हो गई- ठंढी, बेजान, निस्पन्द। मन्द समीर यूँ स्थिर हो गया, जैसे हिरणी उनके आगे बढ़ने के रास्ते में साक्षात आ गिरी हो, जिसे लांघकर जाना उसके बस में नहीं।

विभा रानी (लेखक- एक्टर- सामाजिक कार्यकर्ता)

बहुआयामी प्रतिभा की धनी विभा रानी राष्ट्रीय स्तर की हिन्दी व मौथिली की लेखिका, अनुवादक, थिएटर एक्टर, पत्रकार हैं, जिनकी दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं व रचनाएं कई किताबों में संकलित हैं। इन्होंने मैथिली के 3 साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखकों की 4 किताबें "कन्यादान" (हरिमोहन झा), "राजा पोखरे में कितनी मछलियां" (प्रभास कुमार चौधरी), "बिल टेलर की डायरी" व "पटाक्षेप" (लिली रे) हिन्दी में अनूदित की हैं। समकालीन विषयों, फ़िल्म, महिला व बाल विषयों पर गंभीर लेखन इनकी प्रकृति रही है। रेडियो की स्वीकृत आवाज़ के साथ इन्होंने फ़िल्म्स डिविजन के लिए डॉक्यूमेंटरी फ़िल्में, टीवी सीरियल्स लिखे व वॉयस ओवर के काम किए हैं। मिथिला के 'लोक' पर गहराई से काम करते हुए 2 लोक कथाओं की पुस्तकों "मिथिला की लोक कथाएं" व "गोनू झा के किस्से" के प्रकाशन के साथ साथ मिथिला के रीति-रिवाज, लोक गीतों, खान-पान आदि का वृहत खज़ाना इनके पास है। हिन्दी में इनके दो कहानी संग्रह "बन्द कमरे का कोरस" व "चल खुसरो घर आपने" तथा मैथिली में एक कहानी संग्रह "खोह स' निकसइत" है। इनका लिखा नाटक 'दूसरा आदमी, दूसरी औरत' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अन्तर्राष्ट्रीय नाट्य समारोह भारंगम में प्रस्तुत किया जा चुका है। नाटक 'पीर पराई' का मंचन, 'विवेचना', जबलपुर द्वारा देश भर में किया जा रहा है। अन्य नाटक 'ऐ प्रिये तेरे लिए' का मंचन मुंबई व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम' का मंचन फ़िनलैंड व राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव, रायपुर में होने के बाद अभी मुंबई में किया जा रहा है। 'आओ तनिक प्रेम करें' को 'मोहन राकेश सम्मान' से सम्मानित किया गया तथा इसका मंचन श्रीराम सेंटर, नई दिल्ली में किया गया। "अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो" को भी 'मोहन राकेश सम्मान' के लिए चयनित किया गया। ये दोनों नाटक पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हैं। मौथिली में लिखे नाटक "भाग रौ" और "मदद करू संतोषी माता" हैं।

विभा ने 'दुलारीबाई', 'सावधान पुरुरवा', 'पोस्टर', 'कसाईबाड़ा', जैसे नाटकों के साथ-साथ फ़िल्म 'धधक' व टेली -फ़िल्म 'चिट्ठी' में काम किया है। नाटक 'मि. जिन्ना' व 'लाइफ़ इज नॉट अ ड्रीम', 'बालचन्दा' (एकपात्रीय नाटक) इनकी ताज़ातरीन प्रस्तुतियां हैं।

'एक बेहतर विश्व- कल के लिए' की परिकल्पना के साथ विभा 'अवितोको' नामक बहुउद्देश्यीय संस्था के साथ जुड़ी हुई हैं, जिसका अटूट विश्वास 'थिएटर व आर्ट- सभी के लिए' पर है। 'रंग जीवन' के दर्शन के साथ कला, रंगमंच, साहित्य व संस्कृति के माध्यम से समाज के 'विशेष' वर्ग, यथा, जेल, वृद्धाश्रम, अनाथालय, 'विशेष' बच्चों के बालगृहों आदि के बीच सार्थक हस्तक्षेप किया है। यहां ये नियमित थिएटर व पेंटिंग वर्कशॉप करती हैं। इनके अलावा कॉर्पोरेट जगत से लेकर मुख्य धारा के लोगों व बच्चों के लिए कला व रंगमंच के माध्यम से विविध विकासात्मक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करती हैं।

प्रतिष्ठित 'कथा अवार्ड' सहित कई पुरस्कार, जैसे, घनश्यामदास साहित्य सम्मान, डॉ. माहेश्वरी सिंह 'महेश' सम्मान, 'मोहन राकेश सम्मान' के अलावा इंडियन ऑयल के 'विमेन अचीवर अवार्ड' व दो बार 'सर्वोत्तम सुझाव' सम्मान विभा के हिस्से में हैं।

सामाजिक व साहित्यिक परिदृश्य पर काम करते हुए विभा मानती हैं- "मैं अपने चरित्र इस समाज से ही लेती हूं। ये सभी वास्तविक लोग हैं, जिन्हें मैं अपनी कल्पना के साहारे एक नए रूप में ढालती हूं। लेकिन एक दिन मुझे लगा कि इन चरित्रों को अपनी कथाओं आदि में लेने और उन पर अच्छी-अच्छी कहानियां लिखने के अलावा मैं इनकी जिन्दगी में कुछ भी सार्थक योगदान नहीं कर रही हूं। इसका मतलब कि मैं भी इनका किसी न किसी रूप में शोषण ही कर रही हं। इस सोच ने मुझे बेतरह हिला दिया। इनके जीवन में एक सकारात्मक रुख ला पाने के प्रयासों पर मैं गंभीरता से सोचने लगी। जब भी मैं किसी व्यक्ति को कठिन परिस्थिति में देखती हूं, मैं अपने बचपन में चली जाती हूं। जब मैंने इन लोगों के हालात में खुद को देखने की कोशिश की तो मुझे लगा कि मैं भी इनमें से ही एक हूं। और इस तरह से 'अवितोको' का जन्म हुआ। आज मुझे इस बात का संतोष है कि मैं अपने चरित्रों के सुख दुख की साझीदार हूं और इनसे भी बढकर यह कि इनके चेहरे पर पल दो पल की खुशी ला सकने में मैं भी तनिक सफ़ल हुई हूं।"
पड़ोसवाले हिरण अपने घर से बार-बार झांके, उझके- ये क्या हो रहा है, बहिनी के साथ? आजतक तो कभी उसे इसतरह से विकल नहीं देखा। वह तनिक और पास गया, तनिक और पास, तनिक और पास। ये लो, अब तो वह उसके इतने नजदीक पहुंच गया कि उसके तन और मन के पार भी पहुंच कर देख सकता है। हिरणी थी बड़ी बेचैन। कभी पैर उठाकर उचक-उचककर कहीं देखती तो कभी थस्स् से बैठ जाती, जैसे निराशा के गहरे सागर में समा गई हो, जहां से ऊपर आने के कोई आसार नहीं, कोई लक्षण नहीं। आँसू थे कि खड़ी हो या बैठी, लगातार भादो के पावस की तरह झहर रहे थे - झर- झर। घटा घुमड़े बादल की तरह- झिमिर-झिमिर, टिपिर-टिपिर। काली- काली घटा जैसा ही सोक थोक के थोक उसके हिरदे मे डेरा जमाए चला जा रहा था।

हिरण सोच में पड़ गया। आजतक उसने हिरणी को कभी भी यूँ इसतरह से विकल नहीं देखा था, जैसे कोई उसका नाक-मुंह बंद कर उसे सांस लेने से ही रोक रहा हो- ऊं..ऊं..गों..गों..। उसकी बेचैनी उसके शरीर के एक-एक अंग से तेज गर्मी के कारण छूटते पसीने की धार की तरह फूट रही थी। गले से ऐसी घरघराहट निकल रही थी, जौसे अखंड काल से वह प्यासी हो और उसके कंठ में पानी की एक बूंद तक डालनेवाला कोई न हो। उसकी पथराई सी आँखों में दर्द का ऐसा गुबार था कि उसे देख पत्थर भी पसीज जाए और सुमेरू पर्वत भी भहराकर खंड-खंड होकर दरक जाए।
"काहे बहिनी! काहे इतनी बेकल हो, जैसे कोई तुम्हारा हिरदय तुम्हारी देह से नोंचकर लिए जा रहा हो या आँखों में कील ठोंककर उसकी ज्योति हरे जा रहा हो। कहो बहिनी! अपने दिल का संताप हमसे भी कहो। यूं उसे अपने दिल में बन्द करके मत रखो। कहने सुनने से जी हल्का हो जाता है।"

हिरणी कुछ न बोली। बोले भी क्या? बोलना- बतियाना तो सुख की बेला में सोभता है। इस कुघड़ी में जब अपनी ही सांस की आवाज़ मेघ के गरजन जैसी लगने लगे, वैसे में कंठ से कैसे कोई बकार फ़ूटे। बस, लंबी सांस खींचकर वह रह गई। मगर उसकी उस लंबी सांस में जैसे वेदना की गाढ़ी, मोटी लेई चिपक गई थी। बोली- भासा के रूप में बस, आँसू उसकी आंखों से टप-टप धरती पर गिरते रहे और धरती मैया उसे ममतामई मां की तरह अपने आँचल में समेटती रही- "बिटिया री, तू भी नारी, हम भी नारी। तू भी मैया, मैं भी महतारी। मैं ना समझूं तेरे हिरदे की पीर को तो और कौन समझेगा? चल, बहा ले जितना भी बहाना चाहती है अपने दुख का संताप। पर देख ले, मैं खुद ऐसी अभागन कि पूरे संसार की मैया होने के बाद भी नहीं हर सकती तेरा संताप। नहीं कर सकती तेरे दुख को दूर।
भैया हिरण एकदम से हिरणी के पास खड़ा था। हिरणी को सारा नज़ारा साक्षात दिखाई देने लगा। पूरी की पूरी अयोध्या हर्ष और उल्लास में डूबी हुई है। घर-घर ढोल, नगाड़े, बधावे बज रहे हैं। घर-घर खील, लड्डू, बताशे बँट रहे हैं। सभी नर-नारी तन पर नए-नए कपड़े, जेवर डाले इधर से उधर नाचते-गाते घूम रहे हैं।

कि आज रानी कौसल्या बनी महतारी
दसरथ देखे मुंहवा बलकवा के
मनवा मुदित खरे हंसी के फ़ुलकारी

बालवृन्द मस्ती और आनंद में झूम रहे हैं। पूरा नगर तोरण और बंदनवारों से इसतरह से ढंक गया है कि आकाश भी नहीं दिखाई पड़ रहा। सूरज की तेज रोशनी भी इन बंदनवारों की चादर तले से होकर नगर में पहुंचती है। लोग इधर-उधर घूमते हूए बधावा गा रहे हैं।

"चैत मासे राम के जनमवा हो रामा, चैत रे मासे
केही लुटावे, अन-धन सोनवाँ,
केही लुटावे कंगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।
दशरथ लुटावे अन-धन सोनवाँ,
कौशल्या लुटावे कँगनवाँ हो रामा, चैत रे मासे।"

इतना सोना-चाँदी, कामधेनु जैसी गाएँ, सोना उगलनेवाले खेत, जमीन सब कुछ कौशल्या दान कर रही हैं। आखिरकार रामलला जो आएँ हैं। और बात सिर्फ रामलला की ही कहाँ? दशरथ जी तो एक साथ चार-चार पुत्र पाने के आनंद सागर में हिलोरें ले रहे हैं। इस आनंद अमृत पान में वे भूल भी गए हैं श्रवणकुमार के वृद्ध और नेत्रहीन पिता का श्राप -"जिस पुत्र वियोग से आज मैं मर रहा हूं, वही पुत्र वियोग एक दिन तुम्हारे भी प्राण ले लेंगे।"
निस्संतान दशरथ तो प्रसन्न हो उठे। इस श्राप में भी उन्हें वरदान दिखाई दिया। पुत्र वियोग तो तब न, जब पुत्र प्राप्त होगा। इसका अर्थ - "पुत्र सुख है मेरे भाग्य में। मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी। हे पूज्यवर! आपका श्राप भी मेरे सर-आँखों पर!"

राजा दसरथ हैं मगनवां कि राम जी का हुआ है जनमवां
राम का जनमवां, लखन का जनमवां
भरत सत्रुघन भी संगवां कि राम जी का हुआ है जनमवां

परंतु, हिरणी ने तो कोई अपराध नहीं किया था। फिर उसे क्यों यह पुत्र वियोग? वह तो रोई थी, गिड़गिड़ाई थी कौशल्या रानी के पास जाकर -"रानी हे रानी! अब तो तुम भी पूतवाली हुई। तुम्हारी गोद हरी-भरी हुई। तुम्हारी छाती में भी दूध उतरा है। पूत का सुख क्या है, अब तो तुम भी जान रही हो। भगवान ने तुम्हारे साथ-साथ दोनों छोटी रानियों की कोख भी भर दी है। देखो तो, सारा नगर इस आनंद में डूबा हुआ है, एक मुझ अभागन को छोड़कर।"
"क्यों तुम्हें क्या हुआ हिरणी? क्या कोई व्याधा तुम्हारी जान के पीछे पड़ा है? कहो तो अपने उद्यान में रख दूं। वहाँ की नरम-नरम घास खाना, ठंढे, मीठे तालाब और सोते का पानी पीना। कहो तो, मँड़ई भी बनवा दूँगी। बस, उदास न हो। देखो, मेरे रामलला आए हुए हैं। आज इतने बड़े भोज का आयोजन हुआ है। दूर-दूर देशों के बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा-महाराजा पधारे हैं। तू काहे को सोग करती है हिरणी।"

"फिर से महारानी, अरज करती हूँ, अब तुम बेटेवाली हुई। अब तुम भी माँ बनी। एक माँ दूसरी माँ की पीड़ा को समझ सकती हैं। सारी अयोध्या में रामलला के आने की खुशी है। ऐसे में मैं पापिन किस मुंह से कहूं कि राम लला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है?"

"पहेलियाँ न बुझा हिरणी!" कौशल्या का स्वर कठोर हो गया। आँचल तले सोए रामलला को और अच्छी तरह से आँचल में समेटकर लगभग छुपा ही लिया उसे हिरणी की नजरों से।

राई जवांइन अम्मा न्यौंछे
देखियो हो कोई नज़री ना लागे

अब तो दिढौना लगाना और राई-जँवाईन से औंछना ही होगा। क्या जाने, नजर-गुजर लग गई हो इस डायन हिरणी की। कैसी बेसम्हार जीभवाली है कि कहती है, मेरा रामलला इसके सोग का कारण हैं। जी तो करता है, हिरणी तेरी यह खाल-खींचकर भूसा भरवा दूं। पर, नहीं, ऐसे शुभ और सुहाने मौके पर राजा दशरथ जी भी राज्य के कैदियों को छोड़ चुके हैं, प्राणडंद का सजा पाए कैदियों को जीवनदान दे चुके हैं। इसी मनभावन समय की सौंह, मैं तेरी जान नहीं लूंगी। लेना भी नहीं चाहती। पर हां, जानना जरूर चाहती हूं कि क्यों तूने ऐसा कहा कि मेरे रामलला तेरे सोग का कारण हैं।"

"रानी हे रानी! तू भी माता, मैं भी माता। राम जी का आगमन और मेरे बालक का आगमन - साथ-साथ, संग-संग। पर अपना -अपना नसीब कि तुम्हारे रामलला सोने के पालने में झूल रहे हैं और मेरा बालक तुम्हारी रसोई में पक रहा है। आज उसका माँस तुम्हारे मेहमानों को खिलाया जाएगा। रानी हे रानी, लोग कहते हैं, हिरण का माँस बड़ा मीठा होता है और उसमें भी बच्चा हिरण का तो और भी। उसी बच्चे हिरण की ताक में मेरा लाल धर लिया गया रानी! जो रामलला न आते तो आज मेरा बालक भी न बधाता। इसी से मैं बोली कि तुम्हारे रामलला का आगमन ही मेरे सोग का कारण है।"

कौशल्या हंसी - भर देह हंसी। बालक राम का चेहरा आँचल के नीचे से निकालकर हिरणी के सामने कर दिया -"देख तो री हिरणी, कैसे अपरूप लग रहे हैं मेरे रामलला! इस साँवरी सूरत पर तो मैं सारा तिरलोक भी निछावर कर दूँ। रे हिरणी, तुझे नहीं मालूम क्या कि यह जो रामलला हैं, वो अयोध्या के राजा हैं- चक्रवर्ती महाराज। राजा और राज के सुख के लिए परजा को थोड़ा कष्ट, थोड़ा बलिदान तो करना ही पड़ता है न! और सुन री हिरणी, ये जो रामलला हैं न मेरे, वे सिरिफ हमारे पूत और अयोध्या के भावी राजा ही नहीं हैं। वे भगवान विष्णु के अवतार भी हैं-

भए प्रकट कृपाला, दीन दयाला, कौसल्या हितकारी
हर्षित महतारी मुनि मनहारी, अद्भुत रूप निहारी
लोचन अभिरामा, तन घनस्यामा, निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी।

हिरणी रे! मैं तो साँचे कहूँ, डर गई थी, प्रसव के बाद नन्हे से, रूई जैसे नरम, चिक्कन बालक की जगह चक्र-सुदर्शन रूपधारी भगवान विष्णु! मैं तो बोल ही पड़ी थी रे -

"माता पुनि बोली सो मति डोली तजहू तात यह रूपा
कीजै सिसु लीला, अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा।"

तो ऐसे हैं मेरे श्रीरामलला! भक्तों के आराध्य, दुखियों के ताऱनहार! वे साक्षात भगवान हैं, विष्णु के अवतार! ऐसा-वैसा, साधारण बालक जुनि समझो। ई तो भगवान हुए री और भगवान के भोग लग गया तेरा बालक तो तुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि तेरे और तेरे बालक के जनम-जन्मान्तर सफल हो गए।

"वैष्णव जन को तेने कहिए पीर पराई जाने रे।
पर दुखे उपकार करे कोई, मन अभिमान न माने रे।"

हिरणी की आँखों से आँसू गिरते ही रहे, जबान बन्द हो गई। सचमुच! गरीब, दीन-हीन, लाचार परजा तो राजा, राज-काज और प्रभु काज के लिए ही होती है। ई तो सनातन सच है। आज रामलला आए तो मेरे संग-संग कितनी हिरणियों की गोदें सूनी हो गईं। रामलला न जनमते, कोई और जनमता। न बधाता मेरा बालक तो कोई और बध हो जाता। सुविधाभोगी समाज की सुविधा के हवन में किसी न किसी को तो हविष्य बनना ही पड़ता है। पर मैं क्या करूं? मैं तो आखिर को माँ हूं न! कैसे बिसार दूं अपने कलेजे के टुकड़े को? जो शिकारी पकड़कर ले जाता तो हाय मारकर रह जाती कि दैव बाम निकला। एक आस भी रहती कि बचवा शायद कहीं जीवित रह जाए। किसी सेठ साहूकार के बगीचे की शोभा बढ़ा रहा होगा, किसी कूद-फांदवाले के यहां तमाशा दिखा रहा होगा। कैद में ही सही, जीता तो रहेगा। माँ की आँखों के आगे उसका लाल बना रहे, इससे बढ़कर मां को और कौन सा सुख चाहिए।

हजार मन का बोझा मन पर उठाए हिरणी लौट आई। डग थे कि उठते न थे, लोर (आंसू) थे कि थमते न थे। भैया हिरण सब सुनकर अवाक था - "री बहिनी, साँच कही री बहिनी! हम गरीब, लाचार जात - कुछ नहीं कर सकते। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं री बहिनी। उठ, धीर धर बहिनी, क्या करेगी! नसीब का लिखा कहीं कोई मिटा सका है भला!"
पर हिरणी तो छटपट किए जा रही थी। चाह कर भी उससे धीरज धरा न जा रहा था। भैया हिरण तो अपनी समर्थ भर उसे समझा बुझा कर लौट गया था। मगर वह सारी रात उस खेमे के बाहर खड़ी रही, जहाँ उसके बालक को काटा गया था। कांय.. की एक महीन, बारीक आवाज हिरणी के कलेजे को तेज आरी से चीरती चली गई थी। आ..ह रे, मोरा बचवा रे..। मोरा बचवा चला गया रे .. रानी रे .. हम कइसे धीरज धरें रे .. वह बिलख-बिलखकर रोने लगी। पूरा जंगल जैसे उसके सोग में भागीदार हो रहा था। उसे फ़िर होश ना रहा कि कब पूरनमासी का चांद अपनी शीतल छांह समेटकर चला हया था और कब भास्कर दीनानाथ अपनी भोर की रोशनी के साथ जगत को उजियागर करने आ पहुंवे थे।

भोर के सूरज की तनिक तीखी चमक हिरणी पर पडी तो वह तनिक चेती। एक पल लगा उसे यह समझने बूझने में कि वह कहां है, किधर है। और इसका भान होते ही वह फिर भागी उसी खेमे की ओर। देखा, बचवा की खाल उतार कर माँस को पकने भेज दिया गया था। अब बाहर रस्सी पर वही खाल सूख रही थी। सूख रही खाल जब हिलती तो हिरणी को लगता कि उसका बालक उससे छुपा-छुपी का खेल खेल रहा है और उसे अपनी तुतली जबान में आवाज दे रहा है - मइया, आओ री! आओ ना री मइया! हे मइया, इधर, माई गे, उधर! हिरणी बेचैन, बेकल इधर-उधर ताकती। चारों दिशाओं में उसे अपने पूत की किलोल ही सुनाई दे रही थी। आवत हैं रे पूत। तोहरा लगे आवत हैं। हां, इधर..। ना उधर..। ना ना किधर? किधर है रे तू मोरा कलेजे का टुकड़ा रे..।

और हिरणी एकबार फिर से रानी कौसल्या की अरदास में थी। रानी रामलला को दूध पिला रही थी। हिरणी को देखते ही किलक उठी -"आओ रे हिरणी! भोज-भात जीमीं कि नहीं? अपने सभी भाई- भैयारी को लेकर आई थी कि नहीं? अच्छे से तो जीमे ना सभी? कौन कौन से पकवान खाए तुमने?"

"रानी हो रानी! राजा महराजा के लिए बने खीर पकवान मे हमरा क्या हिस्सा, क्या बखरा। वे खा लें तो समझो, हम जनता का पेट अइसे ही भर जाता है। हम तो हे रानी, फ़िर से एक अरदास लेकर आए हैं। इसके पहले भी हमने अरदास करी, पर तुमने हमरे अरदास पर कान न दिया और बचवा हमारा हमसे दूर चला गया। हमने कलेजे पर पत्थर धर लिया कि चलो, आखिर रामलला हैं तो सभी के लला। भगवान जुग जुग जीवित रखें उन्हें। चांद सूरज से भी जियादा पुन्न -परताप फ़ैले उनका। ..अब बहिनी! फिर से एक अरज ले के आई हूं। इसबार मत ठुकराना रानी! तुम्हें मेरी सौंह (सौगंध)!"

"बिना सुने जबान कइसे दे दूँ हिरणी? पानी में मछली और बिना पतवार की नाव का कोई भरोसा होता है क्या? जो बिना सुने जबान दे दिया और तुम्हारा कौल पूरा न कर पाई तो हत्या तो मेरे ही माथे चढ़ेगी न!"
"वो तो चढ़ चुकी रानी, उसी दिन, जिस दिन तूने मेरा बालक बध करवाया।" मगर हिरणी इसे बोली नहीं। मन में ही पचाकर रह गई। अभी तो भीख माँगने आई है। जो पहले ही नाराज कर दिया तो भीख की उम्मीद कैसे की जा सकेगी? वह बोली -"जो तुम्हारी आज्ञा रानी!" वह सर को जमीन तक टिका बैठी-

"मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो
रानी, मंसवा ते सिंझई रसोइया, खलरिया हमें देतिउ हो।"

"बचवा का मांस तो रसोई में पक गया रानी! अभी मैं उसकी खाल सूखती देख आई हूँ। तुम मुझे वही खाल दिला दो रानी। मैं उसमें भुस भरवाकर अपना बालक गढ़ लूँगी। बालक का वह रूप मेरी आँखों के आगे रहेगा तो मुझे भी लगेगा कि मेरा बचवा वैसे ही मेरे साथ है, जौसे तुम्हारे संग तुम्हारे रामलला हैं।"

"ये क्या माँग बौठी रे हिरणी!" कौशल्या फिर से बिगड़ उठी -"क्या एक पूत के लिए पूत-पूत रट लगाए बैठी है? अरे, तेरे जैसों के पूतों की औकात ही क्या? ढोर-डंगर की तरह तो जनमते हैं। कौन सा उसे चक्रवर्ती राजा होना है! एक पूत गया तो जाने दे। दूसरा बिया लेना (पैदा कर लेना) और रही बात खाल की तो वह तो नहीं मिलनेवाली। क्यों तो वो भी सुन ले।

"पेड़वा पर टाँगबे खलरिया, मड़ई में हम समुझब हो,
हरिनी खलरी के खंजड़ी मढ़ाइब त' राम मोरा खेलिहें नू हो।"

उस खाल से मेरे रामलला के लिए खंजड़ी बनेगी। नरम-मुलायम खाल की खंजड़ी। दूसरे जानवर तो होते हैं कठोर। उनके कठोर खाल से खंजड़ी बनेगी तो मेरे रामलला के नाजुक हाथ और तलहथी छिल न जाएंगे! इसीलिए.. इसीलिए मैंने कहा था हिरणी, कि कौल देने से पहले तेरी बात तो सुन लूं। मेरी कितनी फजीहत होती रे हिरणी! भगवान शंकर ने मेरी रक्षा की। जो तुझे कौल दे दिए होती तो आज तो मैं कहीं की ना रहती। सूर्यवंश की रानी का कॉल ऐसे ही चला जाता. शिव, शिव, शिव, शिव! किस भांति आपने बचा लिए मेरे प्राण? जो दे दी होती कौल तो कौन करता मेरे मर्यादा, मेरे धर्म की रक्षा? कितनी फजीहत होती कि चक्रवर्ती राजा दशरथ की रानी कौशल्या ने अपनी बात तोड़ दी। स्वर्ग में baiThe मेरे सूर्यवंशी पूर्वज राजा दिलीप, राजा अज के सर यह देखकर शर्म से झुक जाते कि उनकी पुत्रवधू ने नहीं रखी अपने कौल की मर्यादा और डुबा दिया उस कुल को गहरे रसातल में, जो वंश प्रसिद्ध है-

रघुकुल रीत सदा चलि आई,
प्राण जाए बरू बचन न जाई.

हे मेरे पूर्वज, मेरे पितामह, मेरे श्वसुर, बच गई आपकी बहू आपके कुल को कलंकित करने से । बचा ली मैंने वंश मर्यादा की परंपरा। देवें आशीष कि यूँ ही सदा रहे तत्व और धर्म का ज्ञान और कर सकूँ न्याय-अन्याय में भेद! तू जा अब, जा अब तू कि नहीं चाहती देखना अब मैं तेरा मुँह। याद रख कि परछाई भी न पड़ने पाए तेरी इस महल में, वरना सच कहती हूं कि उस दिन नहीं बच पाएगी तू मेरे क्रोध की अगन से। चल जा जल्दी, भाग . . . . . . "

फिर से नैनों में नीर का हहराता समुंदर और हृदय में दुख के काले गंभीर, भरे बादल जमाए हिरणी लौट आई। बेटे के बिना पूरा जंगल उसे काट खाने को दौड़ रहा था। सच! हम कमजोर, निर्बल, बेबस का कोई सुनवौया नहीं। न राजा, न रानी न देवता न पितर।

खंजड़ी बन गई। रामलला नन्हीं-नन्हीं हथेलियों की थाप से उसपर चोट करते। खंजड़ी की आवाज होती तो वे खुश होकर तालियाँ पीटते। ठेहुनिया दे-दे कर चलते रामलला को देख कौशल्या रानी निहाल हो-हो उठतीं-

ठुमुक चलत रामचन्द्र, बाजत पैजनियां
ठुमुकि ठुमुकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय
तात, मात गोद धाय, दसरथ की रनियां।

हवा के झोंकों के साथ-साथ खंजड़ी की अवाज दूर जंगल तक जाती। उस आवाज को सुनकर हिरणी का आकुल-व्याकुल मन क्रन्दन कर उठता।

"जब-जब बाजे ले खंजडि़या सबद अकनई हो
रामा, ठाढि़ ठेकुलिया के नीचा, मनहि मन झेखेले हो।"

"मोरा बचवा रे.. " न चाहते हुए भी हिरणी पुकार उठती; पर तुरंत ही मुंह दबा लेती। उसे डर लगता कि कहीं उसकी आवाज से रामलला के खेल में कोई बाधा न आ जाए और रानी उसका विलाप सुनकर फिर से क्रोधित न हो जाए। अभी कम से कम खंजड़ी की आवाज़ तो वह सुन पा रही है और इसी बहाने वह अपने पूत से मिल भी पा रही है। जो उसकी आवाज़ से रानी खिसिया जाए और उसे कैद मे डाल दे तो वह अपने बचवे के इस रूप से भी बार दी जाएगी।

समय बीतता गया, रामलला जवान हो गए। सीता कुँवरी वधू बनकर छम-छम पाजेब बजातीं पालकी से उतरीं। सीता को साथ-साथ उर्मिला, माडवी, श्रुँकीरती भी बहुरिया बन कर आई लक्ष्मण, भारत व् शत्रुघ्न के लिए. राम जी के राज्याभिषेक की तैयारी होने लगी। सारी अयोध्या फिर से उसी दिनवाले आनंद और उत्सव में डूब गई, जिस दिन रामलला का जन्म हुआ था। हिरणी के अब कई पूत हो चुके थे मगर उस पूत की कसक अभी भी उसके कलेजे को टीसती रहती।

राज्याभिषेक की पूरी तैयारी हो गई कि देवी सरस्वती बाम हो गर्इं। वह मंथरा के माथे चढ़ बैठी और मंथरा ने कैकेयी के मन को फेर दिया कि बस! सारी की सारी अयोध्या श्मशान भूमि में बदल गई। राम का बनवास। केवल राम ही नहीं, संग में सिया सुकुमारी और सूर्य जैसे ओज वाला भाई लक्ष्मण भी. राम, सीता और लखन के बिना पूरी अयोध्या वैसे ही भांय-भांय करने लगी, जौसे पूत के बिना हिरणी को सारा जंगल ही भांय-भांय करता नजर आ रहा था।

राजा दशरथ शोग भवन में पड़े हुए जल से निकली मीन की तरह छटपटा रहे थे। उन्हें श्रवण कुमार के माँ-बाप की याद हो आई -"हाँ! आज शाप फलीभूत हुआ। पुत्र सुख के बाद अब पुत्र वियोग का दुख! करमगति टारै नहि टरै! सच!"
हिरणी रानी के महल के जंगले तक पहुंची, अंदर झांककर देखा - रानी अखरा (नंगी) जमीन पर लेटी हुई हैं। अरे? इत्ती बड़ी रानी और न पलंग, न गद्दा न पंखा न चँवर? सब है, पर रामजी नहीं और राम के बगैर कौशल्या रानी को कैसे ये सब भाए?

हिरणी अंदर चली गई और बोली -"रानी हे रानी! अब तो समझ गई न वियोग की पीड़ा। ऐसे ही मैं भी रोई थी। ऐसे ही कितनी माएं रोई होंगी। केलेजे की टूक बड़ी बेआबाज होती है रानी? समझी होती तो मेरी शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ होतीं । मगर अब तो मुझे तुमपर तरस आ रहा है रानी! सत्ता और ताकत के मोह में कमजोर और निर्बल को मत भूलो रानी, उन्हें देखो, सुनो, उनका ध्यान रखो। आखिरकार वे तुम्हारी रियाया हैं रानी और अपनी परजा का ख्याल जो राजा नहीं रखेगा, उसका कभी भी भला नहीं होगा रानी, कभी भी नहीं।"

रानी कौशल्या उठकर बैठ गई। बिटर-बिटर हिरणी को ताकती रही। फिर फफककर रो उठी। हिरणी की आँखों से भी आंसू की धार फूट पड़ी। आखिर को माँ थी, सो एक माँ होकर दूसरी माँ की पीर को कैसे न समझती? और इन दोनों की माई यानी धरती माई चुपचाप इन दोनों की पीर को अपने कलेजे में समेटने लगी। चुपचाप! बेआवाज! शायद वह भी इन दोनों की पीर को जान रही थी, समझ रही थी।

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13 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Science Bloggers Association का कहना है कि -

अरे वाह, इसी नाम की मेरी भी एक कहानी है। उसे हिन्‍दी सभी सीतापुर की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्‍कार मिला था। मेरी जिंदगी का पहला पुरस्‍कार।

कहानी अच्‍छी है, बधाई।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

रंजना का कहना है कि -

ह्रदय ऐसा द्रवित हुआ की आँखें बह चलीं....

प्रशंशा को शब्द कहाँ से लाऊं समझ नहीं पा रही......अद्वितीय कथा....अद्वितीय सीख...लाजवाब !!!! बहुत बहुत sundar !!!

कितना बड़ा सच कहा आपने......
सुविधाभोगी समाज की सुविधा के हवन में किसी न किसी को तो हविष्य बनना ही पड़ता है।

Manju Gupta का कहना है कि -

Sashakt,pravhahmayi khani ne "Ramayan" ki katha ko punah jivit kar diya.utsukta bara bar bani rahi.
Badhayi.

Manju Gupta.

addictionofcinema का कहना है कि -

Kahani ki sbse achhi bat ye hai ki iske sabhi drishya bade jivant ban pade hain. Sundar uddeshya,sundar kahani......badhai

Shamikh Faraz का कहना है कि -

"फिर से नैनों में नीर का हहराता समुंदर और हृदय में दुख के काले गंभीर, भरे बादल जमाए हिरणी लौट आई। बेटे के बिना पूरा जंगल उसे काट खाने को दौड़ रहा था। सच! हम कमजोर, निर्बल, बेबस का कोई सुनवौया नहीं। न राजा, न रानी न देवता न पितर।"

कहानी के डैलोग्स बहुत सुन्दर लिखे गए हैं.

vineeta का कहना है कि -

bahut hi bhavuk kahani hai. aankhon main ansu aa gye.

शोभना चौरे का कहना है कि -

मगर इससे जि़यादे की औकात नहीं।" कल-कल बहती नदियों ने अपनी किलोलें रोक दीं और बर्फ़ जैसी हो गई- ठंढी, बेजान, निस्पन्द। मन्द समीर यूँ स्थिर हो गया, जैसे हिरणी उनके आगे बढ़ने के रास्ते में साक्षात आ गिरी हो, जिसे लांघकर जाना उसके बस में नहीं।
putr viyog ke krndan ko sunkar prkrti bhi stbdh bhut marmik varnan.
pdhte pdhte torongte hi khde ho gye .
abharitni sundar rchna ke liye .

Jolly Uncle का कहना है कि -

I am also writing stories and articles for newspapers. Some of my articles are published online news magazine. You can view the same on the following link:

http://nvonews.com/author/joly/

If you may approve I would also like to send some interesting stories for your site.
Regards
Jolly
E-Mail: jollyuncle@yahoo.com

करण समस्तीपुरी का कहना है कि -

अद्भुत ! कलेजे को तार तार कर देने वाले संवाद से लैस यह भावनात्मक कहानी आपके साहित्य-कोष का मील स्तम्भ साबित होने की पूरी कूबत रखता है !!

Unknown का कहना है कि -

भावपूर्ण कहानी साथ-साथ लोक गीत व धुन इसे सबसे अलहदा बनाते हैं।

Unknown का कहना है कि -

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zackjach का कहना है कि -

플레이어가 게임을 포기하고, 베팅액의 절반을 돌려 받는 규칙이다. 게임을 포기하여 베팅금을 덜 잃게 하기 위해 사용되지만, 딜러가 블랙잭을 터뜨릴 경우에는 서렌더고 뭐고 선언권 자체가 없어지게 되기에 그대로 패배한다. 카지노에서 성행하고 클레오카지노 있는 블랙잭 게임을 이기기 위한 노력이 전세계적으로 경주되어 왔다. 본 논문에서는 하이 로우(high-low) true rely 기법 에 의거하여 게임을 유리하게 전개하기 위한 게임 전략을 선보인다. 켈리 기준이 왜 필요하며 그 기준에 의거한 베팅 전략을 강원랜드 블랙잭 규칙을 엄격히 적용하여 공격적 및 보수적인 베팅으로 구분하여 210만슈 이상 시뮬레이션을 수행하였다. 그 결과 공격적인 베팅이 이익면에서는 가장 유리하였으나 반면에 단기간의 위험도는 가장 크다는 사실을 알 수 있었다.

Anonymous का कहना है कि -

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