सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
उस पर लिखा हुआ वाक्य बुदबुदाते हुए लाल और सफेद रंग की उस डिबिया को मैंने फेंक दिया। वह शायद आगे बैठे किसी आदमी को जाकर लगी। उसने अँधेरे को लक्ष्य करके गाली दी। मैंने सिगरेट सुलगा ली।
- तुम यहाँ भी शुरु हो गए। बुझाओ इसे।
- भाईसाहब, यह सिगरेट बन्द कीजिए। आप नहीं जानते कि पब्लिक प्लेसेज़ में पीना गैरकानूनी है?
पीछे से कोई अकड़कर बोला। मैंने बाएं हाथ से अँधेरे में ही उसकी गर्दन पकड़ ली। दाएं हाथ की दो उंगलियों के बीच वह जलती रही।
- रिश, यह क्या नौटंकी है? छोड़ो इसे....
उसने झटककर मेरा हाथ अलग करवाया। वह आदमी चुप हो गया था। मैं सामने के रंगीन पर्दे को देखता हुआ फिर पीने लगा। वह मुझे झेलती रही।
कुछ मिनट बाद वह फिर बोली- कितनी बोरिंग फ़िल्म दिखाने लाए हो....और एक यह धुंआ बर्दाश्त करना पड़ रहा है। मैं और कुछ महीने तुम्हारी गर्लफ्रैंड रही तो अस्थमा हो जाएगा मुझे।
मैं सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा। वह हर दो-चार मिनट बाद इसी तरह बड़बड़ाती रही। आधा घंटा और बीत गया।
- अब पूरे हॉल में मैं और तुम ही बचे हैं। सब चले गए तुम्हारी इस ‘नो स्मोकिंग’ से पककर...और अब मैं भी जा रही हूं।
वह उठकर चल दी। मैंने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया। वह मेरे ऊपर आ गिरी और मैंने अपने खुरदरे होठ उसके नकली गुलाबी होठों पर रख दिए।
- तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही है। सिगरेट पियोगे तो मुझसे नहीं होगा यह....
वह कसमसाते हुए मेरी पकड़ से छूट कर चल दी।
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और सिगरेट का जलता हुआ सिरा उसकी हथेली से छुआकर उसकी मुट्ठी भींच दी। वह दर्द से बिलबिला उठी। फ़िल्म की आवाज़ की तरह ही उसकी चीख पूरे हॉल में गूंज गई।
उसने किसी तरह हाथ छुड़ाया और दौड़ती हुई चली गई। स्क्रीन पर कोई छिपा हुआ चेहरा गाता रहा- घूंट घूंट जल रहा हूं...पी रहा हूं पत्तियाँ..
मैंने अपनी हथेली में वही सिगरेट रखकर मुट्ठी बन्द कर ली। धुआं मेरी हथेली से होता हुआ आँखों तक पहुंचा और जलती हुई दो बूंदें गालों पर लुढ़क आईं।
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मैं अकेला जब उस थियेटर से बाहर निकला, तब तक सूरज छिप चुका था। मैंने एक ऑटो वाले को रोका और फिर भूल गया कि मुझे कहाँ जाना है। उसने मुझसे दो-तीन बार पूछा। मैं उसकी ओर ऐसे देखता रहा, जैसे वह वहाँ था ही नहीं। वह कुछ बड़बड़ाता हुआ चला गया। मैं चुपचाप कुछ देर वहीं खड़ा रहा। फिर मेरे कदम एक दिशा में चल दिए।
मैं जब शील के सामने बैठा था, उसके सिर के ऊपर लगी दीवार घड़ी में सात बजे थे। वह सब काम छोड़कर मेरा मौन सुनने के लिए बैठी रही। मैं ज्यादा देर तक उसके सामने नहीं बैठ पाया। कुछ देर बाद उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। सात बीस पर उसका मोबाइल बजा। मैंने उसके हाथ से फ़ोन लेकर काट दिया। वह चुप रही।
- एक सिगरेट पी लूं शील?
- नहीं...
वह उस कमरे में हमारे बीच पहला संवाद था। वह मेरे बालों में उंगलियाँ तैराने लगी थी।
- बाल कम हो रहे हैं तेरे। ज्यादा मत सोचा कर।
उसके स्पर्श में स्नेह था।
- कल रात मैं सोया उसके साथ....
- किसके?
स्नेह अब भी उतना ही था।
- उसी के...
मुझे नाम याद करने में कुछ क्षण लगे। उन दिनों मेरी याददाश्त तेजी से कम हो रही थी।
- निहाँ के साथ।
- तो?
उसने ऐसे कहा जैसे कुछ न हुआ हो। मैं ऐसे बता रहा था जैसे काँच की प्लेट तोड़कर माँ के सामने अपराध स्वीकार कर रहा हूं। अब माँ ने डाँटा भी नहीं तो आश्चर्य तो होता ही!
- तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे सब कुछ पहले से ही पता हो तुम्हें।
वह हँसी।
- मैं लड़कियों के कपड़े देखकर तुझे बता सकती हूं कि कितने दिन में सोएगी तेरे साथ।
मैं कुछ पल तक निहाँ का पहनावा याद करने की कोशिश करता रहा। मुझे कुछ याद नहीं आया। उसकी छवि दिमाग में बनती भी थी तो शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं होता था। मेरी याददाश्त सच में कमजोर हो रही थी।
आखिरकार मैंने प्रयास छोड़ दिया।
- मैं निहाँ से प्यार नहीं करता शील....चाहकर भी नहीं कर पाता। उसके चेहरे में रात भर वही दिखती रही मुझे...
- तो क्या हुआ?
- वह नाराज़ हो गई। बोली कि तुम्हारा मन नहीं करता। तुम मेरे साथ होते हुए भी साथ नहीं होते....
- तो ज़ाहिर न होने दिया कर कि कुछ और सोच रहा है।
अब वह मुझे नहीं सोचने की सलाह नहीं देती थी।
- मैं नहीं कर पाता ऐसा। सब कहते हैं कि वह मेरी आँखों में बैठी हुई है। जब भी आँखें खोलता हूं तो वही दिखाई पड़ती है।
शील ने अपने हाथों से पकड़कर मेरा चेहरा ऊपर को घुमाया और आँखें देखकर हल्का सा मुस्कुराई।
- सच कहते हैं सब। तू आँखें बदलवा ले।
- वह फिर मेरे माथे पर बैठ जाएगी.. कहीं और दिखने लगेगी।
- तो छिपाना सीख उसे।
- तुम तो कहती थी कि कोई और आएगी तो आसानी से भूल जाऊंगा उसे।
- सब तो भूल जाते हैं इस तरीके से...
कहकर उसने गहरी साँस ली।
- मैं सोता हूं, तब हर सपने में भी वही दिखती है शील। मुस्कुराती हुई मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती है, जैसे कभी गई ही न हो और मैं चौंककर जग जाता हूं और सुबह तक पड़ा पड़ा कुछ भी बड़बड़ाता रहता हूं....
- रात को रूठ गई निहाँ?
मेरे दिमाग में निहाँ की वही छवि फिर से घूम गई।
- आज उसे पिक्चर दिखाने भी ले गया, लेकिन और नाराज़ कर दिया उसे। जाने क्यों....मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था आज।
- मान जाएगी...
मुझे लगा कि उसने फिर कपड़ों से अनुमान लगाया है।
- मुझे नहीं मनाना। भाड़ में जाए निहाँ। मैं किसी और से प्यार कर ही नहीं सकता अब...
- भूल जा उसे रिश।
उसने न चाहते हुए भी वही पुरानी बात दोहराई। वह और कहती भी क्या?
- नहीं भूल पाता शील। तुम क्या सोचती हो कि मैं कोशिश नहीं करता? दिन भर काम में लगा रहता हूं कि एक पल की भी फुर्सत नहीं मिलती। रात को इतनी पीता हूं कि पैसे भी नहीं बचते, सुध भी नहीं रहती। लेकिन वो कम्बख़्त हर काम में याद रहती है और बेहोशी में भी.....। शील, वह डायन बनकर मुझसे चिपक गई है...
- प्यार भी करता है और डायन भी कहता है?
वह अपनी कोमल हथेलियों से मेरा बेचैन दिमाग सहलाकर मुझे सुकून देने की कोशिश करती रही। मैं उसकी गोद में पड़ा पड़ा बच्चों की तरह पैर जमीन पर पटक रहा था। उसने मुझे तड़पने दिया, जैसे वह हमेशा मुझे मेरे मन का सब कुछ करने देती थी।
फिर वह चाय बनाने चली गई। मैं सिगरेट फूंकने लगा। उसके कमरे की सफेद दीवारों पर धुआं जमने लगा। दीवारें फिर भी उजली ही रही।
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मैं....मैं, जो उस शाम पीतमपुरा के उजले कमरे में शील के आँचल को पकड़कर रो रहा था, अगली सुबह बहुत खुश था। निहाँ पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेटी थी। मैं मंत्रमुग्ध सा होकर उसे देख रहा था। आले में भगवान शिव की एक मूर्ति रखी थी, जिसकी बगल में रखी माचिस अगरबत्ती जलाने के लिए लाई गई थी और अब मेरी सिगरेट के काम ही आती थी। उस मूर्ति को मैंने पर्दा खिसकाकर ढक दिया।
निहाँ अपने नाम के बिल्कुल उलट थी। निहाँ का अर्थ है गुप्त, छिपा हुआ और मुझे नहीं लग रहा था कि कहीं कुछ छिपा हुआ था।
मैं बहुत खुश था।
- तुम वे पकाऊ फ़िल्में मत दिखाया करो रिश।
उसने अपनी मादक आवाज़ में रुक-रुककर वाक्य पूरा किया।
मैं उसे देखता रहा। सुबह से मैंने एक भी सिगरेट नहीं पी थी और न ही पीने का मन कर रहा था।
- और आज परसों की तरह कहीं खो मत जाना....
उसने हिदायतें पूरी की। मैं बिस्तर पर बिछ गया।
हम दोनों इतने करीब थे कि एक-दूसरे की साँसें अपनी साँसें समझ कर पी रहे थे। मुझे केवल उसकी आँखें ही दिखाई दे रही थी। उसे शायद मेरी पुतलियों में बैठी किसी और की छवि दिखाई दी हो। उसने आँखें बन्द कर लीं।
उस भरे-पूरे कमरे में, जिसमें मेरे कम से कम आठ जोड़ी कपड़े तह हुए लोहे की अलमारी में रखे थे, उसी कमरे में उसने मुझे पानी की तरह निर्वस्त्र कर दिया। मुझे लगा कि उसके शरीर पर तो कभी कोई आवरण था ही नहीं। वह जब भी याद आती थी, कपड़े कहाँ होते थे?
- तुम कभी मुझ पर भी कविता लिखो रिश....
वह उसी नशीले ढंग से बोली। मेरे दिमाग में जाने क्या आई कि मैंने उसकी सुराही जैसी सुन्दर गर्दन पर अपने दाँत गड़ा दिए। वह वैसे ही चीख उठी, जैसे पिछले दिन सिनेमा हॉल में चीखी थी। मैं उसे छोड़कर निढाल सा होकर एक तरफ पड़ गया।
उसकी गर्दन पर माँस उखड़ आया था और खून निकलने लगा था। उसने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर मारा और बाथरूम में चली गई। मैं हिला तक नहीं। मैं उस सामान से भरे हुए कमरे में नंगा होकर ऐसे लेटा रहा, जैसे सृष्टि का सारा नंगापन मुझे ही बयान करना हो।
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शील मेरी मौसी की बेटी थी। वह चौदह साल की उम्र में अकेली घर से भाग गई थी। पूरे परिवार में मैं ही था, जिसे उसने बताया था कि वह कहाँ है। बाकी किसी को कभी उसके होने या न होने की खबर नहीं मिली। उसने दिल्ली में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की और नौकरी करने लगी। एक फ्लैट किराए पर लेकर अब अकेली उसमें रहती थी।
उसने कभी नहीं बताया कि उसने घर क्यों छोड़ा। मेरी जानकारी में वह न किसी से प्रेम करती थी और न ही उसके मिलने-जुलने वालों में ज्यादा लोग थे। मैं ही था, जो वक़्त-बेवक़्त उसकी गोद में जाकर पड़ जाता था। कभी-कभी मैं सोचता था कि ऐसी ज़िन्दगी तो वह घर रहकर भी जी सकती थी। लेकिन शील सबसे अलग थी।
दिल्ली की भीड़ में मेरे लिए तो वह सब कुछ ही थी- माँ भी और सहेली भी। मेरी उलझी हुई कविताएँ उसके कानों में पहुँचती थी तो जैसे सुलझ जाती थी। मेरी बहुत सी कविताओं के मायने उसने मुझे समझाए।
उस शाम, जिसकी सुबह मैं बहुत खुश था, मैं शील को ज़िद करके अपने साथ निहाँ के घर ले गया। मैं जानता था कि मैंने बात को इतना बिगाड़ दिया है कि अकेला नहीं संभाल पाऊँगा। लेकिन उस शाम शील भी नहीं सँभाल पाई। मेरी एक और प्रेम-कहानी ख़त्म हो गई। मैं पीतमपुरा के उस साफ-सुथरे उजले कमरे में फिर रोता रहा, शराब पीता रहा और उसके कमरे में राख फैलाता रहा।
हर महीने-दो महीने में यही सिलसिला दोहराया जाता था। लड़कियाँ बदल जाती थीं, लेकिन मैं हर बार मिताली को याद करके रात भर रोता रहता था। सब कहते थे कि वह मेरी आँखों में ही बैठी हुई है। एक दिन मैं बाज़ार जाकर सात-आठ काले चश्मे खरीद लाया था, जिससे किसी को मेरी आँखों में वह ना दिखाई दे। लेकिन अजित ने एक दिन कहा था कि उसने मेरे चश्मे में किसी लड़की की परछाई देखी। उस दोपहर मैंने सब काले चश्मे भी तोड़कर फेंक दिए थे।
मैं वैसी हर रात शील के कमरे की दीवारों पर बुझी हुई सिगरेटों की कालिख से या उसके ड्रैसिंग टेबल की दराज में से काजल निकालकर ‘मिताली’ लिखता रहता था और अगली सुबह जब मैं उठता तो मेरी सिर उसकी गोद में ही होता था और वह सामने रखे लैपटॉप पर कुछ काम कर रही होती थी। सब दीवारें फिर वैसी ही सफेद होती थी और बहुत बार तो मुझे लगता था कि मैंने सपने में ही उन पर मिताली लिखा था।
शील कभी उदास नहीं होती थी। कम से कम मेरे सामने तो कभी नहीं। और मैं था कि अक्सर उसे अपनी उदासी सुनाता रहता था। कई दफ़ा मेरी उदास कविताएँ वह रात भर सुनती रहती और अपना स्नेह भरा हाथ मेरे माथे पर रखे रहती। जब मैं बोलता था तो वह बहुत कम बोलती थी और जब मैं चुप रहता था तो कभी-कभी उसमें वही चौदह साल की लड़की की मासूमियत लौट आती थी। मैं दिन भर उसके फ्लैट में बैठा रहता और वह दौड़-दौड़कर उसका एक एक कोना साफ करती रहती, सजाती रहती। फिर शाम को आइसक्रीम खाने की ज़िद करने लगती और मेरे पैसों से आइसक्रीम खाकर ही मानती। गर्मियों की किसी दोपहर उस पर फ़िल्म देखने का भूत सवार हो जाता तो वह मेरे कमरे से जबरदस्ती खींचकर मुझे ‘प्रिया’ तक ले जाती।
उसकी पसंद की हर चीज नियत थी। प्रिया में फ़िल्म देखती थी, इंडिया गेट पर पिकनिक मनाती थी, सरोजिनी नगर से शॉपिंग करती थी, बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खाती थी, नई सड़क की मिश्राजी वाली दुकान से किताबें खरीदती थी, ज्ञानी की हट्टी की आइसक्रीम खाती थी और किसी इतवार की शाम अचानक मुझे बुलाकर ले जाती और अपनी बिल्डिंग की छत पर जोर-जोर से रोती थी। मैं उसे देखता रहता।
एक दिन उसने कहा था - मैं तुम्हें इसलिए लाती हूं ताकि रोते-रोते कभी ऊपर से कूदने लगूं तो तुम मुझे थाम सको।
लेकिन शील कभी उदास नहीं होती थी। पन्द्रह मिनट के उस मर्मभेदी विलाप के बाद सीढ़ियों से उतरते हुए वह किसी नई फ़िल्म की चर्चा कर रही होती थी या मेरी नई गर्लफ्रैंड के किस्से चटखारे लेकर सुन रही होती थी। छत पर बिखरे हुए उसके आँसू ठगे से हमें उतरते हुए देखते रहते।
मैं भी मिताली से मिलने से पहले इतना उदास नहीं था।
मिताली वह थी, जिसकी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए मैं अपने कस्बे से सब कुछ छोड़-छाड़कर दिल्ली आ गया था। कई घंटे दिल्ली की सड़कों पर निरर्थक घूमने के बाद मैं शील के पास ही पहुँचा था। उसने मेरी आवाज़ सुनकर इतनी व्यग्रता से दरवाज़ा खोला जैसे वह वक़्त को रोककर मेरे पहुँचने से पहले ही मेरी प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़ी हो जाना चाहती हो।
कई दिन तक मैं उसके फ्लैट पर ही रहा। वह भी छुट्टी लेकर घर पर बैठ गई थी और दिन भर मेरी उसी कहानी को बार-बार सुनती रहती थी। प्रेम के विफल होने के बहुत दिनों बाद तक व्यक्ति बहुत नीरस कहानियाँ सुनाता रहता है और भविष्य की निराशाजनक संभावनाएं तलाशकर उन्हें बार-बार दोहराता रहता है। उन किस्सों को दोहराने की मेरी आवृत्ति हालांकि समय के साथ कम होती रही, लेकिन शील ने भी कभी एक क्षण के लिए भी मुझे सुनने से मना नहीं किया।
हाँ, मिताली ने शायद मुझ पर कोई टोटका कर रखा था। वह मेरी हल्की नीली आँखों में वैसे ही बैठी रही।
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कभी वह साइकिल चलाती और मैं पीछे बैठता था और कभी मैं साइकिल चलाता था और वह मेरे साथ साथ दौड़ती थी।
मैं साइकिल चला रहा था तो वह पंक्चर हो गई। मैं समझ नहीं पाया और उसे खींचने का यत्न करता रहा। पिछला टायर भी निरीह होकर घिसटता रहा। मेरी साँस फूलने लगी तो वह रुक गई और साइकिल का हैंडल पकड़कर मुझे भी रोक दिया। मैं गिरते-गिरते बचा।
- पंक्चर हो गई है....
अब मैं साइकिल से उतरा और खड़ा हो गया। वह साइकिल के आगे से घूमकर मेरी तरफ आई और मेरे हाथ से साइकिल ले ली।
मैंने प्रस्ताव रखा - इसे यहीं छोड़ देते हैं।
मेरी उम्र सात साल थी। वह मुझसे डेढ़-दो साल बड़ी रही होगी।
- पागल हो गया क्या? मैं ले चलती हूं खींचकर।
वह साइकिल लेकर आगे आगे चली। मैं उसका अनुसरण करता रहा। जेठ का महीना था। पाँच बजे होंगे, लेकिन गर्मी बहुत थी। उस धूल भरी पगडंडी पर थोड़ी दूर चलते ही हम दोनों पसीने में भीग गए। पास ही एक ट्यूबवैल दिखी।
मैंने दूसरा प्रस्ताव रखा- यहाँ बैठ जाते हैं।
इस बार वह मान गई। उसने धीरे से साइकिल को ज़मीन पर लिटा दिया और मुझे रास्ता दिखाती हुई ट्यूबवैल की ओर बढ़ी।
एक छोटी सी डिग्गी बनी हुई थी। उसमें पानी लगातार गिरने से शोर भी बहुत हो रहा था और बहते हुए पानी की गति भी बहुत थी। हम दोनों डिग्गी की मुंडेर पर आमने सामने बैठ गए और हमने उस बहते पानी में पैर लटका लिए। हम जामुन की छाँव में थे। बार बार हरे, काले और लाल जामुन हमारे बीच के पानी में गिरते थे और पानी के तेज प्रवाह के साथ ईख के खेतों में चले जाते थे। मेरी आँखें मछली बनकर उनके साथ-साथ कुछ दूर तक तैरती थी और फिर वापस डिग्गी में लौटकर नया साथी ढूंढ़ लेती थी।
- तुझे खाने हैं जामुन?
उसने अचानक पूछ लिया। मैं कुछ बोला नहीं, लेकिन मेरी आँखें चमक उठीं। वह मछलियों की बोली जानती थी। पल भर में उठी और उस पेड़ पर चढ़ गई। वह चुन-चुनकर जामुन तोड़कर फेंकती रही और मैं खाता रहा। मैं छक गया तो वह उतर आई।
- तू नहीं खाएगी?
- नहीं, मेरा पेट भर गया।
- तूने तो खाए ही नहीं...
- नहीं, अब भूख नहीं है।
वह हँस दी और फिर मेरे सामने पानी में पैर लटकाकर बैठ गई।
- तेरा चिड़िया बनने का मन नहीं करता?
- करता है...
- मेरा भी करता है पर डर लगता है कि चिड़िया बनकर दूर उड़ गई तो वापस कैसे आऊंगी?
- मैं ले आऊंगा तुझे।
मैंने कल्पना में पंख, घोंसला और आकाश बुन लिए थे।
- चल, चलते हैं।
वह मुझे धरती पर ले आई।
- रिश, तुझे पता है....किसी को कोई अच्छा लगने लगता है तो वह उसके साथ घर से भागकर कहीं दूर चला जाता है....चिड़िया की तरह...
वह उठकर चल दी थी। मैं आधी बात समझ पाया था और आधी नहीं। हैरान सा मैं भी गीले पैरों को धूल से बचाने का असफल प्रयास करते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिया।
- अच्छे कैसे लगते हैं?
मैंने पूछ ही लिया। इस पर वह मुड़कर रहस्यमयी तरीके से मुस्कुराई। वह उसी मुस्कान पर रुकना चाहती थी, लेकिन कच्ची उम्र के कारण थम नहीं पाई और हँसी फूट पड़ी।
- जैसे तेरी मम्मी को तेरे पापा अच्छे लगते हैं।
- पापा को मम्मी अच्छी नहीं लगती?
- लगती है बाबा....
वह फिर झूलती हुई सी चल दी।
- और मेरी मम्मी को तेरे पापा?
मैंने अगला प्रश्न पूछ लिया।
- छि, ऐसा नहीं कहते।
उसने पलटकर मुझे आँखें दिखाई। मैं कुछ क्षण चुप रहा। उस दौरान उसने लेटी हुई साइकिल को उठाकर खड़ा किया और हम साइकिल के साथ उसी धूल भरी पगडंडी पर फिर चलने लगे।
- तो फिर मम्मी पापा दूर क्यों नहीं गए?
- पता नहीं....
- क्या पता....हम दूर में ही रहते हों।
- हाँ, यह हो सकता है।
- तुझे दीदी कहा करूं?
- क्यों?
- मम्मी कहती है। डाँटती है।
- नहीं, कोई जरूरत नहीं है। शील ही कहा कर।
- ठीक है।
- तू भी मुझे बहुत अच्छा लगता है रिश।
मुझे लगा कि जामुनों के भीतर से लाली निकलकर मेरे गालों पर आ गई थी। मैं कुछ नहीं बोला।
- जो हम चिड़िया होते तो दूर से भी दूर चले जाते – वह बोलती रही – चलता तब तू?
मैंने हाँ में गर्दन हिला दी और हँसने लगा। वह भी हँसने लगी। सब हँसने लगे।
कुछ साल बाद चिड़िया अकेली उड़ गई। मैं गर्मी की वह शाम भूल गया।
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- अच्छा है कि तुमने कभी प्यार नहीं किया शील।
मैं उसकी बिल्डिंग की छत पर लेटकर सिगरेट फूंक रहा था। वह इधर-उधर घूम रही थी। वह कुछ नहीं बोली, घूमती रही।
- मुझे रोज लगता है कि मैं मिताली के बिना मर जाऊंगा और मरता भी नहीं....। वो हर पल मेरे साथ रहती है, मारती रहती है।
वह घूमती रही। तेज हवा से उसके बाल बार-बार उड़कर चेहरे पर आ जाते थे और वह दूसरी दिशा में मुड़ती थी, तो अपने आप ही हट जाते थे।
- प्यार में कुछ लोग तेरी तरह मुखर हो जाते हैं रिश....और कुछ मौन।
उस दिन इतवार था। वह मुझे अपनी बिल्डिंग की छत पर ले आई थी, लेकिन अब तक रोई नहीं थी। आकाश में कुछ घटाएँ छाई हुई थी। समय से पहले ही अँधेरा होने लगा था।
- मैं साला आज भी नहीं समझ पाता कि मिताली गई क्यों....
मैंने आधी सिगरेट जोर से जमीन पर मसल कर बुझा दी और बेचैन होकर बैठ गया।
- मिताली, मिताली, मिताली.........पागल हो जाऊंगी मैं सुन-सुनकर....
वह चिल्लाई। वह ऐसे चिल्लाई, जैसे किसी ने कुछ न कहा हो। उसके चिल्लाते ही इस तरह सन्नाटा हो गया, जैसे वह पहले से वहीं था। मैं उसकी इस प्रतिक्रिया पर कुछ देर भौचक्का सा होकर उसे देखता रहा। वह टहलती हुई रुक गई थी और अब उसकी आँखें चिल्ला रही थी। मेरी आँखें इतना शोर नहीं सुन पाईं। मैं आँखें बन्द करके लेट गया।
देर हो रही थी, लेकिन अँधेरा कम होने लगा था। घटाएँ छँटने लगी थी। पक्षियों के जो झुण्ड अपने घर लौट रहे थे, उस छत पर बैठकर शोर और खामोशी सुनने लगे थे। लेकिन वह ज्यादा देर तक वैसी नहीं रही।
वह मेरे पास आकर बैठ गई और मेरा सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया। मैंने आँखें खोलीं तो पक्षी जा चुके थे, अँधेरा फिर बढ़ने लगा था और बादल फिर छाने लगे थे।
- सॉरी रिश, न जाने क्या बोल दिया मैंने।
शील मुस्कुराकर पहले वाली शील ही बन गई थी। मैं चुप रहा। उसे पहचानने का यत्न करता रहा, खोजता रहा कि कौनसी शील सच्ची थी।
वह इतवार की शाम थी, लेकिन वह रोई नहीं। उसके आँसुओं को सोमवार के आने का इंतज़ार करना पड़ा।
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वह रात ऐसी थी, जैसी दूसरी कोई नहीं बनी थी। उस रात सड़क पर कुत्ते नहीं भौंक रहे थे। उस रात कभी अँधेरा हो जाता था और कभी उजाला। सूरजमुखी के फूल भी खिले थे और रात की रानी भी। असल में दिल्ली के बीचों बीच एक सफेद रेखा खिंची हुई थी, जिस पर कई मील चौड़ा और कई मील ऊँचा दर्पण रखा था। दर्पण के उत्तर में हम थे और दक्षिण में प्रतिबिम्ब या यह होगा कि दक्षिण में वास्तविकता होगी और उत्तर में हम प्रतिबिम्ब!
उधर दिन था, इधर रात थी और दोनों मिले-जुले लग रहे थे। इधर का कोयला उधर हीरा दिखाई दे रहा था और उधर का सोना इधर काली मिट्टी बनकर चमक रहा था। इधर कोई रोता था तो उधर ठहाके सुनाई पड़ते थे और बीच-बीच में सब कुछ एक ही हो जाता था। उस रात दिल्ली में काले-सफेद, सुन्दर-असुन्दर, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक को पहचानना असंभव था और कोई इन कसौटियों से किसी निष्कर्ष पर पहुँचता तो यकीनन गलत होता।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे जानते होंगे कि भारत की पहली ट्रेन मुम्बई से थाणे के बीच नहीं चली थी।
दुनिया की पहली रेलगाड़ी उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे बुढ़ाना और दिल्ली के बीच चली थी। उसका ज़िक्र किताबों में नहीं किया गया, इसके पीछे वही उत्तरदायी रहे होंगे, जिन्होंने उस रात भी दिल्ली में काले और सफेद को अलग-अलग करने की चेष्टा की थी।
उस रेलगाड़ी में ड्राइवर नहीं था। बुढ़ाना से एक चौदह साल की लड़की सदियों पहले उसमें दिल्ली आने के लिए चढ़ी थी और उसके दिल्ली में उतरते ही रेलगाड़ी भी गायब हो गई और उसका ज़िक्र भी। उसे इतनी प्यास लगी थी कि वह यमुना को पूरा पी गई, लेकिन उसकी प्यास नहीं बुझी। दिल्ली में त्राहि-त्राहि मच गई। राजा ने उसे ढूंढ़कर लाने का आदेश दिया। वह अकेली लड़की सदियों तक दिल्ली की तंग-परेशान-हैरान गलियों में भटकती रही और आखिरकार एक ऊँची इमारत की तीसरी मंजिल पर एक फ्लैट में आकर छिप गई। वह साँस भी नहीं लेती थी कि कोई कहीं सुन न ले। वह आह भी नहीं भरती थी कि कहीं किसी को उसकी तकलीफ़ देखकर शक न हो जाए। वह हँसती रहती थी क्योंकि दिल्ली में रोना अपराध था।
और उस दर्पण वाली रात, जब उधर एक लड़की सर्दी से ठिठुर रही थी तो शील गर्मी से बावली होने लगी। उधर की लड़की जब प्यार के ढेरों कम्बल ओढ़ रही थी, शील ने सब आवरण उतार फेंके। मैं उसके उसी कमरे में सो रहा था, जब वह मेरे ऊपर आ गिरी। शीशे में जो प्रतिबिम्ब दिख रहा था, उसमें लड़की ऊपर आकाश की ओर उठती जा रही थी। वह मुझे बेतहाशा चूम रही थी। शीशे वाली लड़की के होठों से फूल झड़ रहे थे।
मुझे नहीं मालूम कि मैं कितनी देर बाद जगा और शीशे वाली लड़की तब तक कितना ऊपर उठ चुकी थी, लेकिन इतना याद है कि आँख खुलते ही मैं चौंक गया और मैंने शील को धकेलकर ज़मीन पर फेंक दिया।
वह बहुत मासूम थी, भोली थी, निर्मल थी – शीशे के उधर भी और इधर भी।
अपने सच की दुनिया में मैंने उसे झटककर दूर फेंक दिया था और वह नीचे गिरी पड़ी थी। लेकिन मुझे याद है कि शीशे के उस पार शील देवी बन गई थी और उसकी पूजा की जा रही थी। पता नहीं, वह वर्तमान था, अतीत था अथवा भविष्य....कुछ था भी या नहीं....लेकिन वह दर्पण अगले ही क्षण टूट गया और श्रीकृष्ण की सूखी यमुना में जा गिरा।
शील अगले चौबीस घंटों में इतना रोई कि यमुना फिर से भर गई। जिन्होंने उस रात नैतिक और अनैतिक में भेद किया, उन सब को मरने के बाद कठोरतम नर्क मिला।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे इन बातों को बेहतर जानते होंगे। मैंने कभी इतिहास नहीं पढ़ा।
मैं रात के एक बजे आधे कपड़ों में उसके फ्लैट से निकल आया। वह पड़ी रही।
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और जैसे बीता हुआ समय लौट आता है, कमान से निकला हुआ तीर लौट आता है, जुबान से निकले हुए शब्द लौट आते हैं। वैसे ही एक दिन मिताली लौट आई।
उस दिन, जिस दिन मुझे पहली बार लगने लगा था कि वह अब कभी नहीं आएगी, वह लौट आई। इतने बड़े शहर में जैसे तैसे तलाश करके वह मेरे कमरे पर पहुँची थी।
दो साल में ही वह इतनी कमजोर हो गई थी, जितना कोई पूरी कोशिश करके भी कम से कम दस साल में हो पाता। उसके चेहरे पर स्थाई मायूसी सी छाई हुई थी, जो उसके स्वाभाविक गुलाबी रंग पर हावी हो गई थी। उसे देखकर मेरे मन में असीमित प्यार उमड़ना चाहिए था, लेकिन पहला भाव दया का आया।
वह, जो बिना कारण बताए मुझे छोड़ गई थी, मेरे दरवाजे पर खड़ी थी। मैंने न जाने का कारण पूछा था और न ही उस दिन लौट आने का कारण पूछा। वह इस तरह मेरे घर में आ गई, जैसे उसे मालूम हो कि इस पर सिर्फ़ उसका ही अधिकार है।
सिगरेट पीने से मेरे होठ काले पड़ने लगे थे, जिन्हें उसने कुछ क्षण के लिए गुलाबी कर दिया। मैं न रोया, न हँसा। कुल मिलाकर मैं उस समय को सहन नहीं कर पा रहा था। मैं उसे अपने कमरे में छोड़कर बाहर निकल गया और शाम तक इधर-उधर आवारा सा भटकता रहा। पिछले चार दिन से मैं शील के घर वाली घटना को सोचता हुआ अपने कमरे में ही पड़ा रहा था। शील रोज सुबह फ़ोन करती थी, लेकिन मैं काट देता था। मुझे लग रहा था कि मैं इतने तनाव के बीच पागल हो जाऊंगा, लेकिन पागल भी नहीं हो पाया था।
फिर भी मैं रात को कमरे पर लौटा तो बहुत खुश था। मिताली मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैं बहुत पीकर आया था और मुझे लग रहा था कि मैंने दुनिया की सब खुशियाँ पा ली हैं। दोपहर का सारा पागलपन और बेचैनी कहीं उड़ गए थे।
मैंने मौसी को फ़ोन कर दिया कि उनकी शील, जो वर्षों पहले खो गई थी, दिल्ली में है। वह लड़की, जो केवल मुझे बताकर दस साल पहले घर से भागी थी, मैंने उसके माँ बाप को उसका पता बता दिया।
मैं बहुत खुश था। वे भी बहुत खुश थे। मिताली भी खुश थी।
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- मैं तुमसे प्यार करती हूं रिश।
एक प्लास्टिक की टूटी हुई सी गुड़िया, जिसके गाल पहले कभी गुलाबी हुआ करते थे, मेरे सामने बैठी थी।
- मैं भी तुमसे प्यार करता हूं।
मैंने जो वर्षों पहले कहा था और वर्षों तक कहता रहा था, वह अपने में ‘भी’ जोड़कर कमरे में गूँज रहा था।
- हम शादी कर लेते हैं...
प्लास्टिक की गुड़िया मुस्कुराई।
- वो तो सब कर लेते हैं।
- हम इतना प्यार करेंगे कि सब पुरानी बातें भूल जाएँगे।
- सब भूल जाते हैं।
- मैं जानती थी कि तुम मेरा इंतज़ार करते रहोगे रिश....
- तुम बहुत कुछ जानती हो......। भगवान हो?
वह हँस कर आगे को झुकी। मैं उठकर खड़ा हो गया।
- तुम्हारा यही पागलपन तुम्हारी खासियत है रिश।
मैं हँसने लगा। इतना हँसा कि वह घबरा गई। फिर मैं खामोश हो गया। वह उसी तरह की बातें बोलती रही। मैं अपने कमरे में वे काले चश्मे ढूंढ़ता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरी आँखों पर मेरा नियंत्रण नहीं है। लेकिन चश्मे तो तोड़ दिए गए थे, वे नहीं मिले।
- बरसों से तुम्हारी कविताएँ नहीं सुनीं। आज रात भर सुनना चाहती हूं....
मैं उसे घंटों तक औरों की कविताएं सुनाता रहा। अपनी एक भी कविता सुनाने का मन नहीं किया। मुझे लगा कि वे उसके कानों में पड़ी तो मैली हो जाएँगी। कविता सुनते सुनते वह भावुक हो गई। मैं नहीं हुआ। फिर उसने मुझे चुप करवा दिया।
हम दोनों बिस्तर पर बिछ गए।
कुछ मिनट बाद वह मेरी आँखों में देखकर डर से चीख उठी और मुझे उसी तरह अपने ऊपर से धकेल दिया, जिस तरह मैंने शील को गिराया था। वह काँप रही थी।
- तुम्हारी आँखों में कोई लड़की है....
मैं गिरता-पड़ता उठा और सामने दीवार पर लगे शीशे के सामने जाकर खड़ा हो गया। मेरी मौसेरी बहन मेरी आँखों में थी। मैं खुद को बर्दाश्त नहीं कर पाया और कमरे से निकलकर भाग लिया।
नहीं, यह गलत है....
मैं भागता रहा....सुनसान सड़कों पर........कुछ पहचाने, कुछ अनजाने रास्तों पर.....
मैं अपने आप को दुनिया की सबसे गन्दी गालियाँ देता हुआ, चिल्लाता हुआ भागता रहा।
मेरे पीछे भी कोई नहीं भाग रहा था और मेरे आगे भी मुझ जैसा कोई नहीं था। मैं रात भर दौड़ता रहा। उन काले रास्तों पर मैं अकेला था।
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एक सुखांत!
अगली सुबह ऋषभ नाम का एक लड़का, जो रात भर दिल्ली की सड़कों पर दौड़ता रहा था, शील नामक एक लड़की के घर पहुँचा।
- तुम्हारे मम्मी-पापा पहुँचते ही होंगे।
वह सब समझ गई, जैसे पहले से ही जानती हो।
- मैं तुमसे प्यार करता हूँ....
इस बार दो लोग भागे। वे दोनों गहरी खाई में जा गिरे थे।
दर्पण में दिखाई दिया कि दो सुनहरे खूबसूरत पंछी उन्मुक्त होकर आसमान में उड़ रहे हैं।
उन दोनों ने दर्पण को सच समझा और बाकी सब ने खाई को.....
उस पर लिखा हुआ वाक्य बुदबुदाते हुए लाल और सफेद रंग की उस डिबिया को मैंने फेंक दिया। वह शायद आगे बैठे किसी आदमी को जाकर लगी। उसने अँधेरे को लक्ष्य करके गाली दी। मैंने सिगरेट सुलगा ली।
- तुम यहाँ भी शुरु हो गए। बुझाओ इसे।
- भाईसाहब, यह सिगरेट बन्द कीजिए। आप नहीं जानते कि पब्लिक प्लेसेज़ में पीना गैरकानूनी है?
पीछे से कोई अकड़कर बोला। मैंने बाएं हाथ से अँधेरे में ही उसकी गर्दन पकड़ ली। दाएं हाथ की दो उंगलियों के बीच वह जलती रही।
- रिश, यह क्या नौटंकी है? छोड़ो इसे....
उसने झटककर मेरा हाथ अलग करवाया। वह आदमी चुप हो गया था। मैं सामने के रंगीन पर्दे को देखता हुआ फिर पीने लगा। वह मुझे झेलती रही।
कुछ मिनट बाद वह फिर बोली- कितनी बोरिंग फ़िल्म दिखाने लाए हो....और एक यह धुंआ बर्दाश्त करना पड़ रहा है। मैं और कुछ महीने तुम्हारी गर्लफ्रैंड रही तो अस्थमा हो जाएगा मुझे।
मैं सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा। वह हर दो-चार मिनट बाद इसी तरह बड़बड़ाती रही। आधा घंटा और बीत गया।
- अब पूरे हॉल में मैं और तुम ही बचे हैं। सब चले गए तुम्हारी इस ‘नो स्मोकिंग’ से पककर...और अब मैं भी जा रही हूं।
वह उठकर चल दी। मैंने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया। वह मेरे ऊपर आ गिरी और मैंने अपने खुरदरे होठ उसके नकली गुलाबी होठों पर रख दिए।
- तुम्हारे मुँह से बदबू आ रही है। सिगरेट पियोगे तो मुझसे नहीं होगा यह....
वह कसमसाते हुए मेरी पकड़ से छूट कर चल दी।
मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और सिगरेट का जलता हुआ सिरा उसकी हथेली से छुआकर उसकी मुट्ठी भींच दी। वह दर्द से बिलबिला उठी। फ़िल्म की आवाज़ की तरह ही उसकी चीख पूरे हॉल में गूंज गई।
उसने किसी तरह हाथ छुड़ाया और दौड़ती हुई चली गई। स्क्रीन पर कोई छिपा हुआ चेहरा गाता रहा- घूंट घूंट जल रहा हूं...पी रहा हूं पत्तियाँ..
मैंने अपनी हथेली में वही सिगरेट रखकर मुट्ठी बन्द कर ली। धुआं मेरी हथेली से होता हुआ आँखों तक पहुंचा और जलती हुई दो बूंदें गालों पर लुढ़क आईं।
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मैं अकेला जब उस थियेटर से बाहर निकला, तब तक सूरज छिप चुका था। मैंने एक ऑटो वाले को रोका और फिर भूल गया कि मुझे कहाँ जाना है। उसने मुझसे दो-तीन बार पूछा। मैं उसकी ओर ऐसे देखता रहा, जैसे वह वहाँ था ही नहीं। वह कुछ बड़बड़ाता हुआ चला गया। मैं चुपचाप कुछ देर वहीं खड़ा रहा। फिर मेरे कदम एक दिशा में चल दिए।
मैं जब शील के सामने बैठा था, उसके सिर के ऊपर लगी दीवार घड़ी में सात बजे थे। वह सब काम छोड़कर मेरा मौन सुनने के लिए बैठी रही। मैं ज्यादा देर तक उसके सामने नहीं बैठ पाया। कुछ देर बाद उसकी गोद में सिर रखकर लेट गया। सात बीस पर उसका मोबाइल बजा। मैंने उसके हाथ से फ़ोन लेकर काट दिया। वह चुप रही।
- एक सिगरेट पी लूं शील?
- नहीं...
वह उस कमरे में हमारे बीच पहला संवाद था। वह मेरे बालों में उंगलियाँ तैराने लगी थी।
- बाल कम हो रहे हैं तेरे। ज्यादा मत सोचा कर।
उसके स्पर्श में स्नेह था।
- कल रात मैं सोया उसके साथ....
- किसके?
स्नेह अब भी उतना ही था।
- उसी के...
मुझे नाम याद करने में कुछ क्षण लगे। उन दिनों मेरी याददाश्त तेजी से कम हो रही थी।
- निहाँ के साथ।
- तो?
उसने ऐसे कहा जैसे कुछ न हुआ हो। मैं ऐसे बता रहा था जैसे काँच की प्लेट तोड़कर माँ के सामने अपराध स्वीकार कर रहा हूं। अब माँ ने डाँटा भी नहीं तो आश्चर्य तो होता ही!
- तुम तो ऐसे बोल रही हो, जैसे सब कुछ पहले से ही पता हो तुम्हें।
वह हँसी।
- मैं लड़कियों के कपड़े देखकर तुझे बता सकती हूं कि कितने दिन में सोएगी तेरे साथ।
मैं कुछ पल तक निहाँ का पहनावा याद करने की कोशिश करता रहा। मुझे कुछ याद नहीं आया। उसकी छवि दिमाग में बनती भी थी तो शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं होता था। मेरी याददाश्त सच में कमजोर हो रही थी।
आखिरकार मैंने प्रयास छोड़ दिया।
- मैं निहाँ से प्यार नहीं करता शील....चाहकर भी नहीं कर पाता। उसके चेहरे में रात भर वही दिखती रही मुझे...
- तो क्या हुआ?
- वह नाराज़ हो गई। बोली कि तुम्हारा मन नहीं करता। तुम मेरे साथ होते हुए भी साथ नहीं होते....
- तो ज़ाहिर न होने दिया कर कि कुछ और सोच रहा है।
अब वह मुझे नहीं सोचने की सलाह नहीं देती थी।
- मैं नहीं कर पाता ऐसा। सब कहते हैं कि वह मेरी आँखों में बैठी हुई है। जब भी आँखें खोलता हूं तो वही दिखाई पड़ती है।
शील ने अपने हाथों से पकड़कर मेरा चेहरा ऊपर को घुमाया और आँखें देखकर हल्का सा मुस्कुराई।
- सच कहते हैं सब। तू आँखें बदलवा ले।
- वह फिर मेरे माथे पर बैठ जाएगी.. कहीं और दिखने लगेगी।
- तो छिपाना सीख उसे।
- तुम तो कहती थी कि कोई और आएगी तो आसानी से भूल जाऊंगा उसे।
- सब तो भूल जाते हैं इस तरीके से...
कहकर उसने गहरी साँस ली।
- मैं सोता हूं, तब हर सपने में भी वही दिखती है शील। मुस्कुराती हुई मेरे सिरहाने आकर बैठ जाती है, जैसे कभी गई ही न हो और मैं चौंककर जग जाता हूं और सुबह तक पड़ा पड़ा कुछ भी बड़बड़ाता रहता हूं....
- रात को रूठ गई निहाँ?
मेरे दिमाग में निहाँ की वही छवि फिर से घूम गई।
- आज उसे पिक्चर दिखाने भी ले गया, लेकिन और नाराज़ कर दिया उसे। जाने क्यों....मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था आज।
- मान जाएगी...
मुझे लगा कि उसने फिर कपड़ों से अनुमान लगाया है।
- मुझे नहीं मनाना। भाड़ में जाए निहाँ। मैं किसी और से प्यार कर ही नहीं सकता अब...
- भूल जा उसे रिश।
उसने न चाहते हुए भी वही पुरानी बात दोहराई। वह और कहती भी क्या?
- नहीं भूल पाता शील। तुम क्या सोचती हो कि मैं कोशिश नहीं करता? दिन भर काम में लगा रहता हूं कि एक पल की भी फुर्सत नहीं मिलती। रात को इतनी पीता हूं कि पैसे भी नहीं बचते, सुध भी नहीं रहती। लेकिन वो कम्बख़्त हर काम में याद रहती है और बेहोशी में भी.....। शील, वह डायन बनकर मुझसे चिपक गई है...
- प्यार भी करता है और डायन भी कहता है?
वह अपनी कोमल हथेलियों से मेरा बेचैन दिमाग सहलाकर मुझे सुकून देने की कोशिश करती रही। मैं उसकी गोद में पड़ा पड़ा बच्चों की तरह पैर जमीन पर पटक रहा था। उसने मुझे तड़पने दिया, जैसे वह हमेशा मुझे मेरे मन का सब कुछ करने देती थी।
फिर वह चाय बनाने चली गई। मैं सिगरेट फूंकने लगा। उसके कमरे की सफेद दीवारों पर धुआं जमने लगा। दीवारें फिर भी उजली ही रही।
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मैं....मैं, जो उस शाम पीतमपुरा के उजले कमरे में शील के आँचल को पकड़कर रो रहा था, अगली सुबह बहुत खुश था। निहाँ पैर फैलाकर मेरे बिस्तर पर लेटी थी। मैं मंत्रमुग्ध सा होकर उसे देख रहा था। आले में भगवान शिव की एक मूर्ति रखी थी, जिसकी बगल में रखी माचिस अगरबत्ती जलाने के लिए लाई गई थी और अब मेरी सिगरेट के काम ही आती थी। उस मूर्ति को मैंने पर्दा खिसकाकर ढक दिया।
निहाँ अपने नाम के बिल्कुल उलट थी। निहाँ का अर्थ है गुप्त, छिपा हुआ और मुझे नहीं लग रहा था कि कहीं कुछ छिपा हुआ था।
मैं बहुत खुश था।
- तुम वे पकाऊ फ़िल्में मत दिखाया करो रिश।
उसने अपनी मादक आवाज़ में रुक-रुककर वाक्य पूरा किया।
मैं उसे देखता रहा। सुबह से मैंने एक भी सिगरेट नहीं पी थी और न ही पीने का मन कर रहा था।
- और आज परसों की तरह कहीं खो मत जाना....
उसने हिदायतें पूरी की। मैं बिस्तर पर बिछ गया।
हम दोनों इतने करीब थे कि एक-दूसरे की साँसें अपनी साँसें समझ कर पी रहे थे। मुझे केवल उसकी आँखें ही दिखाई दे रही थी। उसे शायद मेरी पुतलियों में बैठी किसी और की छवि दिखाई दी हो। उसने आँखें बन्द कर लीं।
उस भरे-पूरे कमरे में, जिसमें मेरे कम से कम आठ जोड़ी कपड़े तह हुए लोहे की अलमारी में रखे थे, उसी कमरे में उसने मुझे पानी की तरह निर्वस्त्र कर दिया। मुझे लगा कि उसके शरीर पर तो कभी कोई आवरण था ही नहीं। वह जब भी याद आती थी, कपड़े कहाँ होते थे?
- तुम कभी मुझ पर भी कविता लिखो रिश....
वह उसी नशीले ढंग से बोली। मेरे दिमाग में जाने क्या आई कि मैंने उसकी सुराही जैसी सुन्दर गर्दन पर अपने दाँत गड़ा दिए। वह वैसे ही चीख उठी, जैसे पिछले दिन सिनेमा हॉल में चीखी थी। मैं उसे छोड़कर निढाल सा होकर एक तरफ पड़ गया।
उसकी गर्दन पर माँस उखड़ आया था और खून निकलने लगा था। उसने एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर मारा और बाथरूम में चली गई। मैं हिला तक नहीं। मैं उस सामान से भरे हुए कमरे में नंगा होकर ऐसे लेटा रहा, जैसे सृष्टि का सारा नंगापन मुझे ही बयान करना हो।
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शील मेरी मौसी की बेटी थी। वह चौदह साल की उम्र में अकेली घर से भाग गई थी। पूरे परिवार में मैं ही था, जिसे उसने बताया था कि वह कहाँ है। बाकी किसी को कभी उसके होने या न होने की खबर नहीं मिली। उसने दिल्ली में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी की और नौकरी करने लगी। एक फ्लैट किराए पर लेकर अब अकेली उसमें रहती थी।
उसने कभी नहीं बताया कि उसने घर क्यों छोड़ा। मेरी जानकारी में वह न किसी से प्रेम करती थी और न ही उसके मिलने-जुलने वालों में ज्यादा लोग थे। मैं ही था, जो वक़्त-बेवक़्त उसकी गोद में जाकर पड़ जाता था। कभी-कभी मैं सोचता था कि ऐसी ज़िन्दगी तो वह घर रहकर भी जी सकती थी। लेकिन शील सबसे अलग थी।
दिल्ली की भीड़ में मेरे लिए तो वह सब कुछ ही थी- माँ भी और सहेली भी। मेरी उलझी हुई कविताएँ उसके कानों में पहुँचती थी तो जैसे सुलझ जाती थी। मेरी बहुत सी कविताओं के मायने उसने मुझे समझाए।
उस शाम, जिसकी सुबह मैं बहुत खुश था, मैं शील को ज़िद करके अपने साथ निहाँ के घर ले गया। मैं जानता था कि मैंने बात को इतना बिगाड़ दिया है कि अकेला नहीं संभाल पाऊँगा। लेकिन उस शाम शील भी नहीं सँभाल पाई। मेरी एक और प्रेम-कहानी ख़त्म हो गई। मैं पीतमपुरा के उस साफ-सुथरे उजले कमरे में फिर रोता रहा, शराब पीता रहा और उसके कमरे में राख फैलाता रहा।
हर महीने-दो महीने में यही सिलसिला दोहराया जाता था। लड़कियाँ बदल जाती थीं, लेकिन मैं हर बार मिताली को याद करके रात भर रोता रहता था। सब कहते थे कि वह मेरी आँखों में ही बैठी हुई है। एक दिन मैं बाज़ार जाकर सात-आठ काले चश्मे खरीद लाया था, जिससे किसी को मेरी आँखों में वह ना दिखाई दे। लेकिन अजित ने एक दिन कहा था कि उसने मेरे चश्मे में किसी लड़की की परछाई देखी। उस दोपहर मैंने सब काले चश्मे भी तोड़कर फेंक दिए थे।
मैं वैसी हर रात शील के कमरे की दीवारों पर बुझी हुई सिगरेटों की कालिख से या उसके ड्रैसिंग टेबल की दराज में से काजल निकालकर ‘मिताली’ लिखता रहता था और अगली सुबह जब मैं उठता तो मेरी सिर उसकी गोद में ही होता था और वह सामने रखे लैपटॉप पर कुछ काम कर रही होती थी। सब दीवारें फिर वैसी ही सफेद होती थी और बहुत बार तो मुझे लगता था कि मैंने सपने में ही उन पर मिताली लिखा था।
शील कभी उदास नहीं होती थी। कम से कम मेरे सामने तो कभी नहीं। और मैं था कि अक्सर उसे अपनी उदासी सुनाता रहता था। कई दफ़ा मेरी उदास कविताएँ वह रात भर सुनती रहती और अपना स्नेह भरा हाथ मेरे माथे पर रखे रहती। जब मैं बोलता था तो वह बहुत कम बोलती थी और जब मैं चुप रहता था तो कभी-कभी उसमें वही चौदह साल की लड़की की मासूमियत लौट आती थी। मैं दिन भर उसके फ्लैट में बैठा रहता और वह दौड़-दौड़कर उसका एक एक कोना साफ करती रहती, सजाती रहती। फिर शाम को आइसक्रीम खाने की ज़िद करने लगती और मेरे पैसों से आइसक्रीम खाकर ही मानती। गर्मियों की किसी दोपहर उस पर फ़िल्म देखने का भूत सवार हो जाता तो वह मेरे कमरे से जबरदस्ती खींचकर मुझे ‘प्रिया’ तक ले जाती।
उसकी पसंद की हर चीज नियत थी। प्रिया में फ़िल्म देखती थी, इंडिया गेट पर पिकनिक मनाती थी, सरोजिनी नगर से शॉपिंग करती थी, बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खाती थी, नई सड़क की मिश्राजी वाली दुकान से किताबें खरीदती थी, ज्ञानी की हट्टी की आइसक्रीम खाती थी और किसी इतवार की शाम अचानक मुझे बुलाकर ले जाती और अपनी बिल्डिंग की छत पर जोर-जोर से रोती थी। मैं उसे देखता रहता।
एक दिन उसने कहा था - मैं तुम्हें इसलिए लाती हूं ताकि रोते-रोते कभी ऊपर से कूदने लगूं तो तुम मुझे थाम सको।
लेकिन शील कभी उदास नहीं होती थी। पन्द्रह मिनट के उस मर्मभेदी विलाप के बाद सीढ़ियों से उतरते हुए वह किसी नई फ़िल्म की चर्चा कर रही होती थी या मेरी नई गर्लफ्रैंड के किस्से चटखारे लेकर सुन रही होती थी। छत पर बिखरे हुए उसके आँसू ठगे से हमें उतरते हुए देखते रहते।
मैं भी मिताली से मिलने से पहले इतना उदास नहीं था।
मिताली वह थी, जिसकी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए मैं अपने कस्बे से सब कुछ छोड़-छाड़कर दिल्ली आ गया था। कई घंटे दिल्ली की सड़कों पर निरर्थक घूमने के बाद मैं शील के पास ही पहुँचा था। उसने मेरी आवाज़ सुनकर इतनी व्यग्रता से दरवाज़ा खोला जैसे वह वक़्त को रोककर मेरे पहुँचने से पहले ही मेरी प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़ी हो जाना चाहती हो।
कई दिन तक मैं उसके फ्लैट पर ही रहा। वह भी छुट्टी लेकर घर पर बैठ गई थी और दिन भर मेरी उसी कहानी को बार-बार सुनती रहती थी। प्रेम के विफल होने के बहुत दिनों बाद तक व्यक्ति बहुत नीरस कहानियाँ सुनाता रहता है और भविष्य की निराशाजनक संभावनाएं तलाशकर उन्हें बार-बार दोहराता रहता है। उन किस्सों को दोहराने की मेरी आवृत्ति हालांकि समय के साथ कम होती रही, लेकिन शील ने भी कभी एक क्षण के लिए भी मुझे सुनने से मना नहीं किया।
हाँ, मिताली ने शायद मुझ पर कोई टोटका कर रखा था। वह मेरी हल्की नीली आँखों में वैसे ही बैठी रही।
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कभी वह साइकिल चलाती और मैं पीछे बैठता था और कभी मैं साइकिल चलाता था और वह मेरे साथ साथ दौड़ती थी।
मैं साइकिल चला रहा था तो वह पंक्चर हो गई। मैं समझ नहीं पाया और उसे खींचने का यत्न करता रहा। पिछला टायर भी निरीह होकर घिसटता रहा। मेरी साँस फूलने लगी तो वह रुक गई और साइकिल का हैंडल पकड़कर मुझे भी रोक दिया। मैं गिरते-गिरते बचा।
- पंक्चर हो गई है....
अब मैं साइकिल से उतरा और खड़ा हो गया। वह साइकिल के आगे से घूमकर मेरी तरफ आई और मेरे हाथ से साइकिल ले ली।
मैंने प्रस्ताव रखा - इसे यहीं छोड़ देते हैं।
मेरी उम्र सात साल थी। वह मुझसे डेढ़-दो साल बड़ी रही होगी।
- पागल हो गया क्या? मैं ले चलती हूं खींचकर।
वह साइकिल लेकर आगे आगे चली। मैं उसका अनुसरण करता रहा। जेठ का महीना था। पाँच बजे होंगे, लेकिन गर्मी बहुत थी। उस धूल भरी पगडंडी पर थोड़ी दूर चलते ही हम दोनों पसीने में भीग गए। पास ही एक ट्यूबवैल दिखी।
मैंने दूसरा प्रस्ताव रखा- यहाँ बैठ जाते हैं।
इस बार वह मान गई। उसने धीरे से साइकिल को ज़मीन पर लिटा दिया और मुझे रास्ता दिखाती हुई ट्यूबवैल की ओर बढ़ी।
एक छोटी सी डिग्गी बनी हुई थी। उसमें पानी लगातार गिरने से शोर भी बहुत हो रहा था और बहते हुए पानी की गति भी बहुत थी। हम दोनों डिग्गी की मुंडेर पर आमने सामने बैठ गए और हमने उस बहते पानी में पैर लटका लिए। हम जामुन की छाँव में थे। बार बार हरे, काले और लाल जामुन हमारे बीच के पानी में गिरते थे और पानी के तेज प्रवाह के साथ ईख के खेतों में चले जाते थे। मेरी आँखें मछली बनकर उनके साथ-साथ कुछ दूर तक तैरती थी और फिर वापस डिग्गी में लौटकर नया साथी ढूंढ़ लेती थी।
- तुझे खाने हैं जामुन?
उसने अचानक पूछ लिया। मैं कुछ बोला नहीं, लेकिन मेरी आँखें चमक उठीं। वह मछलियों की बोली जानती थी। पल भर में उठी और उस पेड़ पर चढ़ गई। वह चुन-चुनकर जामुन तोड़कर फेंकती रही और मैं खाता रहा। मैं छक गया तो वह उतर आई।
- तू नहीं खाएगी?
- नहीं, मेरा पेट भर गया।
- तूने तो खाए ही नहीं...
- नहीं, अब भूख नहीं है।
वह हँस दी और फिर मेरे सामने पानी में पैर लटकाकर बैठ गई।
- तेरा चिड़िया बनने का मन नहीं करता?
- करता है...
- मेरा भी करता है पर डर लगता है कि चिड़िया बनकर दूर उड़ गई तो वापस कैसे आऊंगी?
- मैं ले आऊंगा तुझे।
मैंने कल्पना में पंख, घोंसला और आकाश बुन लिए थे।
- चल, चलते हैं।
वह मुझे धरती पर ले आई।
- रिश, तुझे पता है....किसी को कोई अच्छा लगने लगता है तो वह उसके साथ घर से भागकर कहीं दूर चला जाता है....चिड़िया की तरह...
वह उठकर चल दी थी। मैं आधी बात समझ पाया था और आधी नहीं। हैरान सा मैं भी गीले पैरों को धूल से बचाने का असफल प्रयास करते हुए उसके पीछे-पीछे चल दिया।
- अच्छे कैसे लगते हैं?
मैंने पूछ ही लिया। इस पर वह मुड़कर रहस्यमयी तरीके से मुस्कुराई। वह उसी मुस्कान पर रुकना चाहती थी, लेकिन कच्ची उम्र के कारण थम नहीं पाई और हँसी फूट पड़ी।
- जैसे तेरी मम्मी को तेरे पापा अच्छे लगते हैं।
- पापा को मम्मी अच्छी नहीं लगती?
- लगती है बाबा....
वह फिर झूलती हुई सी चल दी।
- और मेरी मम्मी को तेरे पापा?
मैंने अगला प्रश्न पूछ लिया।
- छि, ऐसा नहीं कहते।
उसने पलटकर मुझे आँखें दिखाई। मैं कुछ क्षण चुप रहा। उस दौरान उसने लेटी हुई साइकिल को उठाकर खड़ा किया और हम साइकिल के साथ उसी धूल भरी पगडंडी पर फिर चलने लगे।
- तो फिर मम्मी पापा दूर क्यों नहीं गए?
- पता नहीं....
- क्या पता....हम दूर में ही रहते हों।
- हाँ, यह हो सकता है।
- तुझे दीदी कहा करूं?
- क्यों?
- मम्मी कहती है। डाँटती है।
- नहीं, कोई जरूरत नहीं है। शील ही कहा कर।
- ठीक है।
- तू भी मुझे बहुत अच्छा लगता है रिश।
मुझे लगा कि जामुनों के भीतर से लाली निकलकर मेरे गालों पर आ गई थी। मैं कुछ नहीं बोला।
- जो हम चिड़िया होते तो दूर से भी दूर चले जाते – वह बोलती रही – चलता तब तू?
मैंने हाँ में गर्दन हिला दी और हँसने लगा। वह भी हँसने लगी। सब हँसने लगे।
कुछ साल बाद चिड़िया अकेली उड़ गई। मैं गर्मी की वह शाम भूल गया।
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- अच्छा है कि तुमने कभी प्यार नहीं किया शील।
मैं उसकी बिल्डिंग की छत पर लेटकर सिगरेट फूंक रहा था। वह इधर-उधर घूम रही थी। वह कुछ नहीं बोली, घूमती रही।
- मुझे रोज लगता है कि मैं मिताली के बिना मर जाऊंगा और मरता भी नहीं....। वो हर पल मेरे साथ रहती है, मारती रहती है।
वह घूमती रही। तेज हवा से उसके बाल बार-बार उड़कर चेहरे पर आ जाते थे और वह दूसरी दिशा में मुड़ती थी, तो अपने आप ही हट जाते थे।
- प्यार में कुछ लोग तेरी तरह मुखर हो जाते हैं रिश....और कुछ मौन।
उस दिन इतवार था। वह मुझे अपनी बिल्डिंग की छत पर ले आई थी, लेकिन अब तक रोई नहीं थी। आकाश में कुछ घटाएँ छाई हुई थी। समय से पहले ही अँधेरा होने लगा था।
- मैं साला आज भी नहीं समझ पाता कि मिताली गई क्यों....
मैंने आधी सिगरेट जोर से जमीन पर मसल कर बुझा दी और बेचैन होकर बैठ गया।
- मिताली, मिताली, मिताली.........पागल हो जाऊंगी मैं सुन-सुनकर....
वह चिल्लाई। वह ऐसे चिल्लाई, जैसे किसी ने कुछ न कहा हो। उसके चिल्लाते ही इस तरह सन्नाटा हो गया, जैसे वह पहले से वहीं था। मैं उसकी इस प्रतिक्रिया पर कुछ देर भौचक्का सा होकर उसे देखता रहा। वह टहलती हुई रुक गई थी और अब उसकी आँखें चिल्ला रही थी। मेरी आँखें इतना शोर नहीं सुन पाईं। मैं आँखें बन्द करके लेट गया।
देर हो रही थी, लेकिन अँधेरा कम होने लगा था। घटाएँ छँटने लगी थी। पक्षियों के जो झुण्ड अपने घर लौट रहे थे, उस छत पर बैठकर शोर और खामोशी सुनने लगे थे। लेकिन वह ज्यादा देर तक वैसी नहीं रही।
वह मेरे पास आकर बैठ गई और मेरा सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया। मैंने आँखें खोलीं तो पक्षी जा चुके थे, अँधेरा फिर बढ़ने लगा था और बादल फिर छाने लगे थे।
- सॉरी रिश, न जाने क्या बोल दिया मैंने।
शील मुस्कुराकर पहले वाली शील ही बन गई थी। मैं चुप रहा। उसे पहचानने का यत्न करता रहा, खोजता रहा कि कौनसी शील सच्ची थी।
वह इतवार की शाम थी, लेकिन वह रोई नहीं। उसके आँसुओं को सोमवार के आने का इंतज़ार करना पड़ा।
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वह रात ऐसी थी, जैसी दूसरी कोई नहीं बनी थी। उस रात सड़क पर कुत्ते नहीं भौंक रहे थे। उस रात कभी अँधेरा हो जाता था और कभी उजाला। सूरजमुखी के फूल भी खिले थे और रात की रानी भी। असल में दिल्ली के बीचों बीच एक सफेद रेखा खिंची हुई थी, जिस पर कई मील चौड़ा और कई मील ऊँचा दर्पण रखा था। दर्पण के उत्तर में हम थे और दक्षिण में प्रतिबिम्ब या यह होगा कि दक्षिण में वास्तविकता होगी और उत्तर में हम प्रतिबिम्ब!
उधर दिन था, इधर रात थी और दोनों मिले-जुले लग रहे थे। इधर का कोयला उधर हीरा दिखाई दे रहा था और उधर का सोना इधर काली मिट्टी बनकर चमक रहा था। इधर कोई रोता था तो उधर ठहाके सुनाई पड़ते थे और बीच-बीच में सब कुछ एक ही हो जाता था। उस रात दिल्ली में काले-सफेद, सुन्दर-असुन्दर, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक को पहचानना असंभव था और कोई इन कसौटियों से किसी निष्कर्ष पर पहुँचता तो यकीनन गलत होता।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे जानते होंगे कि भारत की पहली ट्रेन मुम्बई से थाणे के बीच नहीं चली थी।
दुनिया की पहली रेलगाड़ी उत्तरप्रदेश के एक छोटे से कस्बे बुढ़ाना और दिल्ली के बीच चली थी। उसका ज़िक्र किताबों में नहीं किया गया, इसके पीछे वही उत्तरदायी रहे होंगे, जिन्होंने उस रात भी दिल्ली में काले और सफेद को अलग-अलग करने की चेष्टा की थी।
उस रेलगाड़ी में ड्राइवर नहीं था। बुढ़ाना से एक चौदह साल की लड़की सदियों पहले उसमें दिल्ली आने के लिए चढ़ी थी और उसके दिल्ली में उतरते ही रेलगाड़ी भी गायब हो गई और उसका ज़िक्र भी। उसे इतनी प्यास लगी थी कि वह यमुना को पूरा पी गई, लेकिन उसकी प्यास नहीं बुझी। दिल्ली में त्राहि-त्राहि मच गई। राजा ने उसे ढूंढ़कर लाने का आदेश दिया। वह अकेली लड़की सदियों तक दिल्ली की तंग-परेशान-हैरान गलियों में भटकती रही और आखिरकार एक ऊँची इमारत की तीसरी मंजिल पर एक फ्लैट में आकर छिप गई। वह साँस भी नहीं लेती थी कि कोई कहीं सुन न ले। वह आह भी नहीं भरती थी कि कहीं किसी को उसकी तकलीफ़ देखकर शक न हो जाए। वह हँसती रहती थी क्योंकि दिल्ली में रोना अपराध था।
और उस दर्पण वाली रात, जब उधर एक लड़की सर्दी से ठिठुर रही थी तो शील गर्मी से बावली होने लगी। उधर की लड़की जब प्यार के ढेरों कम्बल ओढ़ रही थी, शील ने सब आवरण उतार फेंके। मैं उसके उसी कमरे में सो रहा था, जब वह मेरे ऊपर आ गिरी। शीशे में जो प्रतिबिम्ब दिख रहा था, उसमें लड़की ऊपर आकाश की ओर उठती जा रही थी। वह मुझे बेतहाशा चूम रही थी। शीशे वाली लड़की के होठों से फूल झड़ रहे थे।
मुझे नहीं मालूम कि मैं कितनी देर बाद जगा और शीशे वाली लड़की तब तक कितना ऊपर उठ चुकी थी, लेकिन इतना याद है कि आँख खुलते ही मैं चौंक गया और मैंने शील को धकेलकर ज़मीन पर फेंक दिया।
वह बहुत मासूम थी, भोली थी, निर्मल थी – शीशे के उधर भी और इधर भी।
अपने सच की दुनिया में मैंने उसे झटककर दूर फेंक दिया था और वह नीचे गिरी पड़ी थी। लेकिन मुझे याद है कि शीशे के उस पार शील देवी बन गई थी और उसकी पूजा की जा रही थी। पता नहीं, वह वर्तमान था, अतीत था अथवा भविष्य....कुछ था भी या नहीं....लेकिन वह दर्पण अगले ही क्षण टूट गया और श्रीकृष्ण की सूखी यमुना में जा गिरा।
शील अगले चौबीस घंटों में इतना रोई कि यमुना फिर से भर गई। जिन्होंने उस रात नैतिक और अनैतिक में भेद किया, उन सब को मरने के बाद कठोरतम नर्क मिला।
जिन्होंने इतिहास पढ़ा है, वे इन बातों को बेहतर जानते होंगे। मैंने कभी इतिहास नहीं पढ़ा।
मैं रात के एक बजे आधे कपड़ों में उसके फ्लैट से निकल आया। वह पड़ी रही।
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और जैसे बीता हुआ समय लौट आता है, कमान से निकला हुआ तीर लौट आता है, जुबान से निकले हुए शब्द लौट आते हैं। वैसे ही एक दिन मिताली लौट आई।
उस दिन, जिस दिन मुझे पहली बार लगने लगा था कि वह अब कभी नहीं आएगी, वह लौट आई। इतने बड़े शहर में जैसे तैसे तलाश करके वह मेरे कमरे पर पहुँची थी।
दो साल में ही वह इतनी कमजोर हो गई थी, जितना कोई पूरी कोशिश करके भी कम से कम दस साल में हो पाता। उसके चेहरे पर स्थाई मायूसी सी छाई हुई थी, जो उसके स्वाभाविक गुलाबी रंग पर हावी हो गई थी। उसे देखकर मेरे मन में असीमित प्यार उमड़ना चाहिए था, लेकिन पहला भाव दया का आया।
वह, जो बिना कारण बताए मुझे छोड़ गई थी, मेरे दरवाजे पर खड़ी थी। मैंने न जाने का कारण पूछा था और न ही उस दिन लौट आने का कारण पूछा। वह इस तरह मेरे घर में आ गई, जैसे उसे मालूम हो कि इस पर सिर्फ़ उसका ही अधिकार है।
सिगरेट पीने से मेरे होठ काले पड़ने लगे थे, जिन्हें उसने कुछ क्षण के लिए गुलाबी कर दिया। मैं न रोया, न हँसा। कुल मिलाकर मैं उस समय को सहन नहीं कर पा रहा था। मैं उसे अपने कमरे में छोड़कर बाहर निकल गया और शाम तक इधर-उधर आवारा सा भटकता रहा। पिछले चार दिन से मैं शील के घर वाली घटना को सोचता हुआ अपने कमरे में ही पड़ा रहा था। शील रोज सुबह फ़ोन करती थी, लेकिन मैं काट देता था। मुझे लग रहा था कि मैं इतने तनाव के बीच पागल हो जाऊंगा, लेकिन पागल भी नहीं हो पाया था।
फिर भी मैं रात को कमरे पर लौटा तो बहुत खुश था। मिताली मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैं बहुत पीकर आया था और मुझे लग रहा था कि मैंने दुनिया की सब खुशियाँ पा ली हैं। दोपहर का सारा पागलपन और बेचैनी कहीं उड़ गए थे।
मैंने मौसी को फ़ोन कर दिया कि उनकी शील, जो वर्षों पहले खो गई थी, दिल्ली में है। वह लड़की, जो केवल मुझे बताकर दस साल पहले घर से भागी थी, मैंने उसके माँ बाप को उसका पता बता दिया।
मैं बहुत खुश था। वे भी बहुत खुश थे। मिताली भी खुश थी।
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- मैं तुमसे प्यार करती हूं रिश।
एक प्लास्टिक की टूटी हुई सी गुड़िया, जिसके गाल पहले कभी गुलाबी हुआ करते थे, मेरे सामने बैठी थी।
- मैं भी तुमसे प्यार करता हूं।
मैंने जो वर्षों पहले कहा था और वर्षों तक कहता रहा था, वह अपने में ‘भी’ जोड़कर कमरे में गूँज रहा था।
- हम शादी कर लेते हैं...
प्लास्टिक की गुड़िया मुस्कुराई।
- वो तो सब कर लेते हैं।
- हम इतना प्यार करेंगे कि सब पुरानी बातें भूल जाएँगे।
- सब भूल जाते हैं।
- मैं जानती थी कि तुम मेरा इंतज़ार करते रहोगे रिश....
- तुम बहुत कुछ जानती हो......। भगवान हो?
वह हँस कर आगे को झुकी। मैं उठकर खड़ा हो गया।
- तुम्हारा यही पागलपन तुम्हारी खासियत है रिश।
मैं हँसने लगा। इतना हँसा कि वह घबरा गई। फिर मैं खामोश हो गया। वह उसी तरह की बातें बोलती रही। मैं अपने कमरे में वे काले चश्मे ढूंढ़ता रहा। मुझे लग रहा था कि मेरी आँखों पर मेरा नियंत्रण नहीं है। लेकिन चश्मे तो तोड़ दिए गए थे, वे नहीं मिले।
- बरसों से तुम्हारी कविताएँ नहीं सुनीं। आज रात भर सुनना चाहती हूं....
मैं उसे घंटों तक औरों की कविताएं सुनाता रहा। अपनी एक भी कविता सुनाने का मन नहीं किया। मुझे लगा कि वे उसके कानों में पड़ी तो मैली हो जाएँगी। कविता सुनते सुनते वह भावुक हो गई। मैं नहीं हुआ। फिर उसने मुझे चुप करवा दिया।
हम दोनों बिस्तर पर बिछ गए।
कुछ मिनट बाद वह मेरी आँखों में देखकर डर से चीख उठी और मुझे उसी तरह अपने ऊपर से धकेल दिया, जिस तरह मैंने शील को गिराया था। वह काँप रही थी।
- तुम्हारी आँखों में कोई लड़की है....
मैं गिरता-पड़ता उठा और सामने दीवार पर लगे शीशे के सामने जाकर खड़ा हो गया। मेरी मौसेरी बहन मेरी आँखों में थी। मैं खुद को बर्दाश्त नहीं कर पाया और कमरे से निकलकर भाग लिया।
नहीं, यह गलत है....
मैं भागता रहा....सुनसान सड़कों पर........कुछ पहचाने, कुछ अनजाने रास्तों पर.....
मैं अपने आप को दुनिया की सबसे गन्दी गालियाँ देता हुआ, चिल्लाता हुआ भागता रहा।
मेरे पीछे भी कोई नहीं भाग रहा था और मेरे आगे भी मुझ जैसा कोई नहीं था। मैं रात भर दौड़ता रहा। उन काले रास्तों पर मैं अकेला था।
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एक सुखांत!
अगली सुबह ऋषभ नाम का एक लड़का, जो रात भर दिल्ली की सड़कों पर दौड़ता रहा था, शील नामक एक लड़की के घर पहुँचा।
- तुम्हारे मम्मी-पापा पहुँचते ही होंगे।
वह सब समझ गई, जैसे पहले से ही जानती हो।
- मैं तुमसे प्यार करता हूँ....
इस बार दो लोग भागे। वे दोनों गहरी खाई में जा गिरे थे।
दर्पण में दिखाई दिया कि दो सुनहरे खूबसूरत पंछी उन्मुक्त होकर आसमान में उड़ रहे हैं।
उन दोनों ने दर्पण को सच समझा और बाकी सब ने खाई को.....
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15 कहानीप्रेमियों का कहना है :
बडी लबी कहानी है भाई.
ACHCHI parantu lambi kahaani , padhate hue thodi boriyat to hoti hi hai aur lagta hai jaise yah parvaah chala nahi ,kadiyo ko jodane ka aur vishay-vastu ko kheenchane ka pryaas kiya gaya hai . bhaasha saral-sapashat hai , shailli bhi vishyanukool hai,paathak ke sabar ka imtihaan.....
Kahani achhi lagi ,,ek pyar key liye bhatktey maan ko achhey se dikhaney ka prayaas kiya hai,,badhaai sawikaar kery]]
Sachey pyar ki paribhasha ko na samjh paaney key karan phir bhi usi pyar ko paaney key liye ye maan yuunhi bhatakta rehta hai,,
गौरव भाई मैं हमेशा से आपकी लेखनी का दीवाना रहा हूँ.इस बार भी बिल्कुल वैसा ही कमल जैसा की हरबार आपसे उम्मीद करता हूँ,बेहतरीन.
आलोक सिंह "साहिल"
गौरव जी आप लिखते बहुत अच्छा हैं, कहानी का प्रवाह भी बनाए रखा है सिर्फ़ कहानी की लम्बाई थोडी ज्यादा हो गई है , जो कहानी को बोझिल करती है (आपकी लेखनी को नहीं ) शुभकामनाएँ
^^पूजा अनिल
Gaurav , i liked ur story ,nd i saw hw much dare u got ....tumne aise relation pr likha usually public baat nahi karti , digest nahi karti nd am agree wid ur story coz love dont see nythng...... its nothng new i heard some cousins got attracted each other ....nd in love. .......starting mey i lost in story ..it ws gong very interestng ....later thora confuse kr rahi thi .....no one had idea about dat kind of sukant endng :)..........who cares dats gud they left da home nd live happily atleast rish stopped smokng after gettng his love .......ooski eyes ka pyar :).......
keep it up .........write fearless.....tc ....love VijaYa .....
वाह भई वाह, क्या लिखा है.. मुझे जरा भी लम्बी प्रतीत नहीं हुई कहानी..
बहुत बहुत बधाई गौरव जी..
kahani lambi to hai aur S.H V. Agyeya
ki Shekhar ek Jivani se bahut prabhavit lagati hai. Shekhar ki Mauseri bahan "Saro" se ragatmak sambandh ki yaad aa jati hai
Kanur
व्यक्तिगत वासनाओं एवं कुंठाओं की अभिव्यक्ति सी लगती है यह कहानी. गौरव, सच कहता हूँ, यदि तुमने न लिखी होती तो पूरी नहीं पढता. फिर भी लगता है, क्यूं पढी!
इतनी अच्छी क्षणिकाएँ लिखते हो, फिर ये सब क्या है? इतना श्रम किस लिए?
क्षमा करना, पर स्वस्थ आलोचना भी शायद आवश्यक है.
शिशिर
गौरव!!!
हमारे समाज़ की समस्या यह है कि वह किसी भी बात को स्वीकार नहीं करना चाहता। शायद इसीलिए तुम्हें इस कहानी को लिखने में और तथाकथित सभ्य समाज द्वारा "अश्लील एवं वासनापूरित" का टैग दिए जाने से बचने में खासी मेहनत करनी पड़ी। मेरे अनुसार कहानी ना हीं अश्लील है और ना हीं "व्यक्तिगत वासनाओं एवं कुंठाओं की अभिव्यक्ति मात्र"। कहानी समाज का नंगा सच बयां करती है। और कहानी वही सम्पूर्ण एवं वास्तविक है,जो वास्तविकता को सबके सामने लाए।
मौसेरे भाई-बहन का प्रेम सही है या गलत, वह ना हीं गौरव सत्यापित करना चाहता है और ना हीं मैं।लेकिन कहानी का मख्य बिंदु यह है कि "यह होता है"।
दूसरी बात यह कि हिंदी साहित्य में वासना को भी एक रस माना गया है,बशर्ते कि वह एक दायरे में हो। अगर ऎसा नहीं होता तो "नख-शिख वर्णन,कामायनी, विद्यापति की रचनाएँ" इतनी प्रशंसनीय एवं स्वीकार्य नहीं होती। और जो दायरा माना गया है ,उसके बाहर तो मेरे अनुसार, गौरव भी नहीं गया। और मैं तो गौरव की इसलिए प्रशंसा करूँगा क्योंकि उसने उस रात की "संवेदनशील घटना" को बड़े हीं साहित्यिक एवं सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है ताकि कोई भी उस पर अश्लील एवं ओछा होने का आरोप न लगा सके।
गौरव!!!
सच कहना एवं सच को स्वीकारना हिम्मत की बात होती है। तुमने यह हिम्मत दिखाई है,ना कि खोखले सिद्धांतों का सहारा लेकर लेखनी को रोका है।
ऎसे हीं लिखते रहो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
कहानी जो उपन्यास हो गयी![बुरा न मानना]
बहुत लम्बी कहानी है गौरव -नेट पर एक साथ पढ़ नहीं पाई इसलिए कई दिन में पूरा किया है--इतनी सारी हिन्दी पढने का साहस [क्योंकि अब अरसे बाद हिन्दी के कहानियाँ पढने को मिली हैं-] इसलिए कर पाई क्योंकि कहानी का विषय बहुत अलग सा है-- और तुम्हारी अन्य कहानियो की तरह रोचकता बराबर बनी रही कि क्या होगा???
बस लिखते रहो---
kahani ki rochakta kahani ko bojhil hone bachati hai. padhkar achchha laga.
गौरव... तारीफ तो आपको काफी मिल चुकी है... इसलिए नहीं करूंगा। सबों के विपरीत कहूंगा कि कहानी थोड़ी और लंबी होती तो पढ़ने में और मन लगता... घिसे-पिटे लेखन से बिल्कुल अलग है.... बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ने लायक पढ़ा... संपर्क करना चाहता हूं... एक योजना है... दिल्ली में tv पत्रकारिता का नौकरी करता हूं।नंबर है.. 09899535372
mujhe yah story bhut achi lgi kunki lambi khani mujhe bhut psand hein meri class mein bchcho ko lambi stries bhut bekar lgti thi par jab mein unhe is story ke bare mein btaya toh unke bhi yeh stoory bhut achchi lga aasha hai ki aap aise ou khaniya net per dalenge .or mein unhe or utsah ke sath pdungi
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