Thursday, November 27, 2008

एम. डॉट. कॉम

मां ने आज तड़के कोई काम नहीं किया। न चूल्हे में आग जलाई, न आटा-छलीरा घोलकर गाय के लिए ‘खोरड़‘ ही बनाया। न बिल्ली की कटोरी में लस्सी उंडेली, न बाहर आंगन के पेड़ पर लगाए ‘पौ‘ में चिड़ियों को पानी ही भरा। अपनी बैटरी ली और बाहर निकलते-निकलते बीड़ी सुलगा ली। दराट लेना मां नहीं भूली थी। दरवाजा बंद किया और ताला लगा कर सीधी गोशाला के पास चली गई।

सुबह का समय मां के लिए ज्यादा व्यस्तताओं का हुआ करता था। जैसे ही उठती, आंगन में चिड़ियां चहचहाने लगती। बिल्ली दूध-लस्सी के लिए बावली हो जाती। गोशाला में पशु रंभाने लगते और मां रसोई से ही उनसे बतियाती रहती। परन्तु आज ऐसा कुछ नहीं था। खामोशी का सिलसिला दहलीज के भीतर से ही शुरू हो गया था। मां इन दिनों नए भजनों के कैसेट ‘कबीर अमृतवाणी‘ अपने टेपरिकार्डर में खूब सुना करती, लेकिन आज वह भी चुप था। बिल्ली ने भी मां को पहले जैसा तंग नहीं किया, चुपचाप एक कोने मे दुबकी रही। आंगन के पेड़ों पर एक भी चिड़िया नहीं थी। सभी पौ के इर्द-गिर्द चुपचाप बैठी थी।

मां ने गोशाला का दरवाजा खोला तो सिहर उठी। जैसे भीतर अंधेरे के सिवा कुछ भी न हो। मां ने बैटरी की रोशनी में इधर-उधर झांका। पशु उदास-खामोश खड़े थे। उनकी आंखें भीगी हुई थीं। मां ने रोशनी कोने में मरी पड़ी ताजा सुई भैंस पर डाली तो जैसे कलेजा मुंह को आ गया। आंखें छलछला गयीं। अपने चादरू से आंखें पोंछती बाहर आ गई और दरवाजा ओट दिया।

आंगन से पूरब की तरफ देखा। धूरें हल्की रोशनी से भरने लगी थीं। सर्दियों की सुबह वैसे भी देर से होती है। मां ने अंदाजा लगाया.....सात बज रहे होंगे। बैटरी की जरूरत नहीं समझी। उसे दरवाजे के ऊपर खाली जगह में रख दिया।

गांव में भैंस के अचानक मरने की खबर नहीं पहुंची थी, वरना इस वक्त तक गांव की औरतें अफसोस करने पहुंच जाती। मां ने किसी को भी नहीं बताया। वे चाहती तो गांव के किसी छोकरे को भी कह कर चमार को हांक लगवा लेती, लेकिन इस बार मां ने खुद जाना बेहतर समझा। जानती थी कि यदि किसी को भेज भी दिया तो सामने तो कुछ न बोलेगा, किन्तु मन में सौ गालियां देता रहेगा। अब पहले जैसा समय कहां रह गया ? गांव में शरम-लिहाज तो नाम की बची है। जो कुछ है भी वह दिखावे भर की। नई नस्ल के छोकरे-छल्ले तो मुंह पर ही बोल देते हैं। बड़े-बूढ़ों की लिहाज तक नहीं रखते। वैसे अब बुजुर्ग बचे ही कितने हैं ? मां अपने घर के भीतर ही झांकने लगती है.......कि खुद कितने बरसों से अकेली घरबार चला रही है, इतना बड़ा बारदाना। खेती बिन बाही अव्छी नहीं लगती। फिर सरीकों का गांव है, तरह-तरह की बातें बनाएंगे। भले ही ‘ब्वारी‘ या मजदूरी से ही चला रखी है, पर मजाल कि कोई उंगली उठा सके। पांच-सात पशु भी ओबरे में बन्धे ही हैं। कोई बोल नहीं सकता कि फलाणी विधुआ के अब घरबार खत्म होने लगा है।

दो बेटे हैं। पढ़ाए-लिखाए, अब गांव छोड़ दिया। दूर-पार नौकरी करते हैं। वहीं शादियां कर लीं। वहीं बाल-बच्च्चे भी हो गए। बहुएं तो गांव-घर की तरफ देखती तक नहीं। आकर करेगी भी क्या, मिट्टी-गोबर की बास लगती है। बेटे साल में एक-आध बार खबर-सार ले लेते हैं। वैसे मां के लिए सारी सुविधाएं जुटा रखी है। टेलीफून है। रंगीन टेलीविजन है। गैस है। दूध बिलाने की मशीन। टेपरिकार्डर है।.............मां यह सोचती-सोचती गांव के बस अड्डे तक पहुंच गयी। शुक्र है कि कोई मिला नहीं, नहीं तो सभी पूछते रहते कि आज तड़के-तड़के फलाणी कहां चली है।

अड्डे पर बस घरघरा रही थी। मां ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। पर वहां का नजारा देख कर दंग रह गई। सब कुछ कितना जल्दी बदल गया। मां को याद है कि जहां आज बस अड्डा बना है वहां कभी पानी की एक बड़ी कुफर हुआ करती थी। मां ही क्यों गांव के दूसरे लोग भी अपने पशुओं को चराकर यहीं पानी पिलाते। स्कूल के बच्चे उसके चारों तरफ बैठ कर तख्तियां धोया करते। जगह-जगह गाचणी के टुकड़ पड़े होते। दवात-कलम रखे होते। कोई कापी-किताब भूली रहती। नीली स्याही की कलमें गाद में कई जगह ठूंसी रहती। जिसने स्कूल भी न देखा हो उसे भी पता चल जाता कि गांव का स्कूल यहीं कहीं पास होगा। सामने एक पत्थरों की दीवार थी, जो पश्चिम का पानी रोकता था। उस पर बणे के छोटे-छोटे पेड़ थे। उनके बीच दीवाल में खाली जगह थी, जिसमें पाप देवताओं की पत्थर की प्रतिमांए रखी होती। मां ने कितनी बार यहां आकर पूजा की होगी। पितरों की मूर्तियां बनाकर रखी होंगी। पर आज यहां सब कुछ नदारद है, जैसे वक्त ने उन्हें लील लिया हो।

अब एक बड़ा सा मैदान है, जिस पर बस और ट्रकों के टायरों की अनगिनत रेखांए हैं। यहां न अब पानी है, न बच्चों की चहल-पहल। न ही कोई पशु भूला-भटका इस तरफ आता है। रेत, बजरी, सरिया और सिमैंट के कितने ही ट्रक यहां उतरे है, जो इसे धूल का समंदर बनाए रखते है।


मां पहले बस से आगे निकल गई थी। अचानक ठिठक गई। परसा चमार के घर का रास्ता सड़क से भी तो जाता है। सोचा कि लोग क्या कहेंगे....कि फलाणी मुंह के पास बस आते हुए भी पैदल जा रही है।..या उसके बेटे उसको पेसे ही न देते होंगे..? फिर समय भी तो बच जाएगा। जब तक मरी भैंस ओबरे से बाहर नहीं निकाली, न मां खुद रोटी खाएगी न पशुओं को ही घास-चारा डालेगी। चमार के हाथ से उसकी गति जितनी जल्दी हो उतना ही पुन्न। यह ख्याल आते वह मुड़ गई। फिर रूकी। कुरते की जेब में हाथ डाला, तीन-चार रूपए की चेंज थी। आकर बस में बैठ गई।

कुछ मिनटों बाद बस चल पड़ी।

पलक झपकते ही वह जगह आ गई जहां मां को उतरना था। खेतों से नीचे उतरी तो घर दिख गया। सोचा कि यहीं से हांक दे दे।.....पर क्या पता कोई हांक सुने भी कि नहीं, ख्याल करते हुए नीचे चल दी। कई बरसों पहले मां का एक बैल मरा था। शायद फिर खुद ही आई होगी। मां को यह भी याद नहीं कि परसा चमार उनके घर कब छमाही लेने आया था। पति जिंदा थे तो वह महीने में एक-आध चक्कर लगा लिया करता। वहीं रह जाता। रात भर गप्पें चलती रहती। खूब बातें होती। वह मां और उनके पति के जूते भी गांठ कर ले आता। गांठने-बनाने को ले भी जाता। पर कितने बरस हो गए, मां ने कभी जूते नहीं गंठवाए। जरूरत भी न पड़ी। अब तो प्लास्टिक का जमाना है। बीस-तीस रूपए में जूते मिल जाते हैं। आसान काम। इस मशीनी जमाने ने तो आदमी को आदमी से ही दूर कर दिया, सोचती-विचारती मां परसे के घर के आंगन में थी। घर देखा ता हैरान रह गयी। पहले तो कच्चा मकान था--मिट्टी-भीत का बना हुआ। ऊपर बेढंगे से छवाए खपरे हुआ करते थे। खेतों-खलिहानों तक चमड़े की बास पसरी होती। आज तो यहां वैसा कुछ भी नहीं। लगा कि वह कहीं गलत मकान में तो नहीं आ गई ? अभी सोच ही रही थी कि एक छोटी सी लड़की बाहर निकली। मां को देख कर ठिठक गई। मां ने पूछ लिया,

‘‘ मुन्नी! परसे रा घर यई है ?‘‘

उसने कोई जवाब नहीं दिया। शरमा कर उल्टे पांव भीतर चली गई।

कुछ देर बाद एक बुजुर्ग आया और दहलीज पर से बाहर गर्दन निकाली और झांकने लगा। पट्टृ की बुक्कल के बीच से उसका कूब निकल आया था। चेहरे पर घनी झुर्रियां....जैसे किसी बिन बाच के खेत में हल की फाटें दी हो। मां को देखा तो पहचान गया,

‘‘ अरे भाभी तू...?‘‘

कितनी आत्मीयता थी इस सम्बोधन में। मां का धीरज बढ़ा।

खड़े-खड़े ही राजी-खुशी हुई। परसा कहने लगा,

‘‘ आ जा..अंदर को चल, आज तो बड़ी ठंड है। म्हारे तो धूप बारह बजे से पैले नी आती।‘‘

यह कहते-कहते परसा अभी पीछे मुड़ा ही था कि मां ने रोक दिया,

‘‘ बैठणा नी है परसा। मेरी ताजी सुई हुई भैंस मर गई। पहला ही सू था।‘‘

गला भर आया था मां का। आंखों से पानी टपकने लगा।

परसा क्षणभर खड़ा रहा। फिर भीतर चला गया। मां को तस्सली हुई कि वह भीतर जाएगा, छुरी निकाल किलटे में डालकर बाहर आएगा और चल पड़ेगा। लेकिन जब वह दोबारा बाहर आया तो उसके एक हाथ में पटड़ा ओर दूसरे में आग की अंगीठी थी। मां को पटड़ा पकड़ाया और अंगीठी सामने रख दी। खुद भी उसी के पास बैठ गया। जेब से बीड़ी निकाली। एक मां को दी, दूसरी अंगीठी की आग में ठूंस कर सुलगा ली। मां ने भी ऐसा ही किया। दोनों पीने लग गए। कुछ देर गहरे कश लेते रहे। मां ने ही चुप्पी तोड़ी,

‘‘ तेरा बी कदी गांव की तरफ चक्कर ही नी लगा ?‘‘

‘‘ अब कहां चला जाता है भाभी। चढ़ाई में चलते दम फूलणे लगता है। फिर टांगे बी जबाब देणे लगी।‘‘

‘‘ पर साल-फसल पर बी तो नी आया तू। म्हारे पास ही कितणे सालों की छमाही हो गयी होगी।‘‘

परसे ने एक गहरी सांस ली। खंासता भी गया। चेहरे पर दर्द उतर आया।

‘‘ जाणे दे भाभी! पुराणी गलां। तैने रखी होगी इतणी ल्याहज, पर दूसरे तो सब नाक चिढ़ाते हैं। तुम्हारे जैसे थोड़े ही है सब। बामणों-कनैतों का गांव है। .........बड़ी साल पइले गया था। उस टेम बे जब भाई मरा था। लगे हाथ छमाही भी मांगणे चला गया। बामणों ने तो मना ही कर दिया। कहणे लगे कि परसा, अब जूते कौन बनाता-गंठाता है। बणे-बणाए मिल जाते हैं दूकानों में। तू तो जाणती है भाभी, काम के साथ ही आदमी की गरज होती है। फिर मुए को नी पूछता कोई!‘‘

यह कहते हुए उसने अंगीठी की आग को उंगलियों से ठीक किया। मां की बेचैनी बढ़ती चली गई। वह इस जल्दी में थी कि परसा बात मुकाए और चल दे। पर वह बोलता गया,

‘‘ पैले पुराणा वक्त था। दूकानें नी थी। सड़क नी थी। तब परसा बड़ा आदमी था। शादी-ब्याह म्हारे कंधों पर। पटियारी-पतली म्हारे जिम्मे। बूट तो परसे के ही होणे चाहिए। अब तो न कहार न चमार। टैम-टेम की बातें हैं भाभी।‘‘

चेहरे पर आक्रोश और खीज भर गई थी। मां चुपचाप देखती रही। पूछना चाहती थी कि इन बामणों-कनैतों के पशु कौन फैंकता है, पर पूछ ही न पाई। वह परसे से एक बार फिर चलने का अनुराध करने को हुई कि परसा फिर कहने लगा,

‘‘ माफ करियों भाभी, तू तो म्हारी आपणी घर की है। कोई बामण-कनैत आया होता तो आंगण में खड़े बी नी होणे देता।......अब म्हारे घर मे न कोई बूट-जोड़ा गांठता है, न पशु फैंकता है। बच्चे नी मानते। बड़ा तो शिमला में अफसर बण गया है। छोटा बस टेशन पर दूकान करता है।...तेरे को कैसे नी पता भाभी। ....मैं तो अब कहीं न आता न जाता।‘‘

मां सुन कर हैरान-परेशान हो गई। याद आया कि परसे का ठीया उधर कहीं होता था। वह आंगन के किनारे देखने लगी तो परसे ने बताया,

‘‘वो देख उधर, मेरा ठीया होता था। लड़कों को बथेरा समझाया कि मुए इसको तो रैहणे दो। पर कहां माने। अपणे काम से इतणी नफरत जैसे ये बामण म्हारे से करते है। तोड़ दिया उसको। सारा समान बी पता नहीं कहां फैंक दिया। वहां अब लैटरींग बणा दी।‘‘

कहते-कहते अंगीठी दोनों हाथों से ऊपर उठाकर हिला दी। अंगारे चमकने लगे। फिर उठ कर भीतर चल दिया। मां ने जब उस की आंखों में देखा था तो वे गीली थी। शायद अपनी विरासत के यूं खो जाने से मन भर आया होगा। भीतर जाते उसने पट्टु के छोर से आंखें पोंछी।

दरवाजे पर पांव रखते ही कुछ याद आया, वहीं से बोला,

‘‘ तू मेरे लड़के से कहियो, वो कुछ कर देगा।‘‘

मां की हालत देखने वाली थी। उसके न बैठे बनता था न वहां से आते। कोई मां का चेहरा देखता तो पसीज जाता। नजर फिर ठीए की तरफ गई। याद करने लगी कि जब वह यहां आती तो भीतर बैठ जाती। गांव के और भी कितने लोग परसे के आसपास बैठे रहते। उनमें बामण, कैनैत, कोली, चमार सब होते। न किसी को छू-न छोत। उस समय तो परसा, चमार नहीं बल्कि एक बड़ा कारीगर होता, मास्टर, उस्ताद होता।

वह छोटी सी लड़की फिर बाहर आई और भागती हुई शौचालय में चली गई। तपाक से दरवाजो बन्द किया। शौच की बास का भभका, हवा के झोंके के साथ मां के नाक में घुस गया। चादरू से मुंह-नाक ढक लिया। उठी और चल दी। सोचते हुए कि क्या करें, कहां जाएं। मन में एक आस बची थी कि परसे का लड़का कुछ करेगा।

सूरज काफी चढ़ आया था। घर अकेला था। पशु भूखे-प्यासे होंगे। मां लम्बे-लम्बे कदम देने लगी। बस अड्डे पर पहुंची, तब तक दुकानें खुल गयी थीं। मां देखने लगीं.....चाय की दूकान, आटा-चावल की दूकान, कपड़े की दूकान, सिगरेट बीड़ी की दूकान और नाई की दूकान। एक और दूकान पर नजर गई, जिसमें एक-दो छोटी मशीनें रखी थी। वहां बैठे लड़के को अम्मा नहीं जानती थी। बाकि सभी तो उसी गांव-बेड़ के थे।

उधर देख ही रही थी कि कानों में आवाज पडी़,

‘‘ ताई कहां थी तड़के-तड़के ?‘‘

मुड़ कर देखा तो बुधराम नाई था। झाड़ू लगाते उसने फिर कहा,

‘‘ताई ! आ जा न बैठ, चाय का घूँट लगा ले।‘‘

मां बैठना नहीं चाहती थी, पर सोचा कि बुधराम ही परसे के लड़के से बोल कर भैंस फिकवा दे। वह अन्दर जा कर बैठ गई और जल्दी-जल्दी सारी बात बता दी। मां के चेहरे से काफी परेशानी झलक रही थी। बुधराम ने सारी बात सुनी तो हल्का सा मुस्करा दिया, जैसे वह कोई समस्या ही न हो। उसने अपने बांए हाथ इशारा किया और मां को बताया कि बगल में ही उसकी दूकान है। झाड़ू बैंच के नीचे फैंका और बाहर निकल पड़ा। मां उसके पीछ-पीछे चल दी। दोनों दूकान पर पहुंचे। परसे के लड़के का नाम महेन्द्र था। मां को कुछ तसल्ली हुई। बताने का प्रयास भी किया था कि वह उसी के घर से आ रही है, पर महेन्द्र ने ध्यान ही न दिया। बुधराम ने ही मां को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। उसी ने बताया कि ताई की भैंस मर गई है। महेन्द्र ने मां का नाम पूछा और फिर कम्प्यूटर में कुछ ढूंढने लग गया। मां कुर्सी से उचक कर देखने लगी। स्क्रीन पर अक्षर भाग रहे थे। उसने अपनी घूमने वाली कुर्सी जब पीछे घुमाई तो मां बैठ गई। वह बताने लगा,

‘‘ माता जी आपका नाम हमारे पास नहीं है। न ही पशुओं की लिस्ट। पंडतों-ठाकुरों ने तो पहले ही अपना रजिसट्रैशन करवा दिया है। आप भी करवा लो।‘‘

मां की समझ में कुछ नहीं आया। आश्चर्य से बुधराम को देखने लगी। उसी ने मां को समझाया,

‘‘ ताई! देख उधर, गांव के जितने भी आदमी है, उनके नाम पशुओं के साथ लिखे हैं। वो देख मेरा बी नाम है...(उंगलीसे बताने लगा)। जब कोई पशु मरता है या पैदा होता है, इसमें दर्ज हो जाता है। फीस लगती है उसकी। अगर तेरा नाम होता, मिनट में ई-मेल करके महेन्द्र शहर से दो-चार आदमियों को बुला देता और शाम तक तेरी भैंस ओबरे से बाहर।‘‘

मां की चिन्ता बढ़ गई। हैरान -परेशान होकर पूछने लगी,

‘‘ पर बुधराम वो भैंस को कैसे फैंकेंगे ?‘‘

‘ ताई! वो लोग शहर से अपनी गाड़ी में आएगें। तेरी भैंस को ओबरे से बाहर निकालेंगे। ले जाएंगे। उसे काटेंगे, परर फैंकेंगे नहीं। जैसा म्हारे चमार करते हैं। मांस, हड्डियां, खाल सब अपने साथ लेते जाएंगे। न खेतों में गंदगी रही, न गिद्धों और कुत्तों का हुड़दंग।‘‘

मां का सिर चकरा गया। कुछ पल्ले नहीं पड़ा। उठी और बाहर निकलते-निकलते एक नजर बुधराम पर डाली, दूसरी महेन्द्र और उसकी मशीन पर। अब क्या करें, कुछ समझ नहीं आया।

सड़क पर आकर मां ने उस दूकान की तरफ फिर देखा। बड़े-बड़े अखरों में दूकान का नाम लिखा था.........एम॰ डॉट कॉम।

--एस॰ आर॰ हरनोट

Thursday, November 20, 2008

मनोविश्लेषण और जैनेन्द्र की कहानियाँ

किसी व्यक्ति का जो कुछ सबसे अपना होता है, वह है उसका अपना व्यक्तित्व। व्यक्तित्व ही मनुष्य में एक व्यक्ति होने का बोध जागृत करता है। सामान्यतया, व्यक्तित्व से आशय उस व्यक्ति-विशेष के भौतिक आकार-प्रकार, रहन-सहन, वेश-भूषा आदि से समझा जाता है, परन्तु दर्शनशास्त्र में इसकी परिभाषा वृहद् है। दर्शनशास्त्र के अनुसार :

Personality can be defined as a dynamic and organized set of characteristics possessed by a person that uniquely influences his or her cognitions, motivations, and behaviors in various situations.1

उपर्युक्त परिभाषा से यह स्वतः स्पष्ट है की व्यक्तित्व की परिधि में न मात्र व्यक्ति का बाह्य वरन् अंतर्मन भी आता है। व्यक्ति-मन तथा उससे निर्मित व्यक्तित्व के मूल में तीन महत्त्वपूर्ण उपादान होते हैं यथानाम- The id, The ego और The superego। यह id बाह्य परिवेश से अचेत अतृप्त कामनाओं की शीघ्रातिशीघ्र परितुष्टि चाहता है। ego id की उन इच्छाओं को पहले आवश्यकता के आलोक में तदुपरांत बाह्य जगत् के यथार्थ के प्रकाश में देखता है। अंततः superego ego पर नैतिकता तथा सामाजिक मर्यादाओं को अंतर्निविष्ट कर विवश करता है कि id की कामना न मात्र वास्तविक हो अपितु नैतिक भी हो। यह superego ही व्यक्तित्व के विकास एवं पोषण पर नियंत्रण रखता है। और इस तरह पैतृक संस्कार और सामजिक आदर्श की ही अभिव्यक्ति हमारे व्यक्तित्व के माध्यम से दृष्ट होता है।2

वस्तुतः मनोविश्लेषण के अंतर्गत मुख्यतया उपर्युक्त विवेचन ही होता है। मनोविश्लेषण का समास विग्रह है- मन का विश्लेषण। मनोविश्लेषण की परिभाषा देते हुए Sir Sigmund Freud लिखते हैं:

Psychoanalysis is the name

of a procedure for the investigation of mental processes, which are almost inaccessible in any way.
of a method (based upon that investigation) for the treatment of neurotic disorders and
of a collection of psychological information obtained along those lines, which is gradually being accumulated into a new scientific discipline.3

यह मनोविश्लेषण वस्तुतः मन के तीन अनुभागों, चेतन, अचेतन और अवचेतन, में से अवचेतन की व्याख्या है। वह सब कुछ, जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा अनुस्यूत होता है, छंटनी कर हमारी आवश्यकतानुसार इन तीन अनुभागों में पँहुचा दिया जाता है। चेतन मन दृश्य होता है हमारे क्रिया-व्यवहार से। परन्तु, अवचेतन मन, जिसके बारे में कहा जाता है कि मानव मन जल में अधडूबे पत्थर की तरह है, जिसका वह भाग जो सरलता से दृश्य होता है चेतन है और अदृश्य डूबा भाग अवचेतन मन है4, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे चेतन मन को और इस तरह हमारे क्रिया- व्यवहारों को प्रभावित करता है।

कहानियों में पात्रों के इन्हीं क्रिया- व्यवहारों के माध्यम से मनोविश्लेषण किया जाता है। कहानियों में मनोविश्लेषण तीन स्तरों पर होता है यथा- कहानी के पात्रों का मनोविश्लेषण तटस्थ होकर, कहानीकार के जीवन के विश्लेषण के द्वारा पात्रों के मन का विश्लेषण और पाठकों के अंतर्मन तथा मानसिकता के माध्यम से कथा सूत्रों का विवेचन तथा घटनाओं का विश्लेषण। एक सफल मनोविश्लेषणापेक्ष कहानी के कहानीकार की सफलता इसमें होती है कि वह पाठकों को शब्दों और घटनाओं के माध्यम से कहानी में अन्तर्निहित कर दे किंतु पाठक तथापि उन घटनाओं को तटस्थ होकर देख सके।

हिन्दी कहानी जब प्रसाद और प्रेमचंद रूपी दो ध्रुवों पर सिमट रही थी, ऐसे ही में उनके समानान्तर जैनेन्द्र कुमार ने एक अनूठी शैली को अपनी कहानियों में जगह दी। ऐसा नहीं है कि यह शैली और विषय-वस्तु सर्वथा नवीन था। कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने भी इसी ओर इशारा किया था –

"सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।"5

परन्तु जैनेन्द्र ने मानो हिन्दी-कहानी जगत् में क्रान्ति ही ला दी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की –

"मैं किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता, जो मात्र लौकिक हो, जो सम्पूर्णता से शारीरिक धरातल पर ही रहता हो, सबके भीतर ह्रदय है, जो सपने देखता है। सबके भीतर आत्मा है, जो जगती रहती है, जिसे शास्त्र छोटा नहीं, आग जलाती नहीं। सबके भीतर वह है जो अलौकिक है। मैं वह स्थल नहीं जानता जहाँ 'अलौकिक' न हो। कहाँ वह कण है, जहाँ परमात्मा का निवास नहीं है? इसलिए आलोचक से मैं कहता हूँ कि जो अलौकिक है, वह भी कहानी तुम्हारी ही है, तुमसे अलग नहीं है। रोज के जीवन में काम आने वाली, तुम्हारे जाने पहचाने व्यक्तियों का हवाला नहीं तो क्या, उन कहानियों में तो वह 'अलौकिक' है, जो तुम्हारे भीतर अधिक तहों में बैठा हुआ है। जो और भी घनिष्ठ और नित्य रूप में तुम्हारा अपना है।"6

वस्तुतः जैनेन्द्र समाज की लघुतम इकाई व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व को ही चित्रित करते हैं। उनका व्यक्ति 'जयराज न होकर प्रियराज अथवा बलराज हो सकता है' या फ़िर 'वह सुनयना भी हो सकती है, सुलोचना भी हो सकती है'। उस व्यक्ति के मन में कई इच्छाएं होती हैं, जिन्हें नैतिकता और पैतृक संस्कारों के कारण दबा दबा पड़ता है। परन्तु वह उन कामनाओं को मिथकीय भगवान शंकर की तरह पूरी तरह नहीं दबा पाता। जैनेन्द्र के यहाँ सभी मूल्य और नियम उस व्यक्ति विशेष का नितांत वैयक्तिक हो जाता है। उनके पात्रों में ऐसे ही विचार दृष्टिगोचर होता है।

'खेल' के मनोहर और सुरी के क्रिया-व्यापार बालकोचित होते हुए भी प्रौढ़ लगते हैं। 'खेल' में मनोहर और सुरी दो ही पात्र हैं। जो घटना है, वह इन्हीं दो बच्चों के आपसी नोक-झोंक, कलह, मान-मनौवल तक सीमित है। मनोहर द्वारा जान-बूझकर किसी के भाड़ को तोड़ देना किसी भी नटखट बालक की सहज वृत्ति हो सकती है, पर वह भाड़ था सुरी का। उसने जान-बूझकर भाड़ तोड़ा तो अवश्य, परन्तु उसके मन में सुरी के हृदय को कष्ट पहुँचाने की कतई इच्छा न थी। वह तो मात्र चाहता था कि वह उसके प्रति उदासीन न रहे। सुरी तो आरम्भ से ही उससे उदासीन अपना भाड़ बनाने में मग्न थी। सुरी के नाराज़ होने पर मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति द्रष्टव्य है -

"सुरी, मनोहर तेरे पीछे खडा है। वह बड़ा दुष्ट है। बोल मत, पर उसपर रेत क्यों नहीं फेंक देती! उसे एक थप्पड़ लगा - वह अब कभी कसूर नहीं करेगा। "7

'व्याज कोप का रूप' दिखाती सुरी उसके कसूर की सज़ा मुक़र्रर करती है कि उसे वैसा ही भाड़ बना कर दिया जाए, जैसा कि उसने बनाया था। भाड़ बना और सुरी का 'स्त्रीत्व', जिसे पुरूष मनोहर की ईमानदार स्वीकारोक्ति ने व्यथित किया था, उसे पुनर्निर्मित भाड़ पर लात जमाकर अक्षुण्ण रखा और मनोहर द्वारा क्षमा-याचना करने से लज्जित सुरी ने उस लजा के बंधन को काट दिया।सुरी का उपर्युक्त क्रिया-व्यवहार उसके संस्कारों में पितृसत्तात्मकता का प्रभाव मात्र था। वह पितृसत्ता जो नारियों में हीनताबोध जगाता है। 'पत्नी' की सुनंदा और 'रुकिया बुढ़िया' की रुक्मनी इसी पितृसत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ही परिणाम हैं। यद्यपि जैनेन्द्र का मानना है –

विवाह से व्यक्ति रुकता है। ... विवाह का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। प्रेम के निमित्त से उसकी सृष्टि है। 8

तथापि उनके पात्रों में प्रायः वैवाहिक संबंधों का खुलकर और भरपूर प्रयोग मिलता है। रुक्मनी, सुनंदा, सुदर्शना या फ़िर त्रिवेणी सभी वैवाहिक सम्बन्धों में आबद्ध है परन्तु सतीत्व की मर्यादा का वहाँ वे नहीं करतीं वरन सतीत्व को अपने अनुसार ढाल लेती हैं। वे भी सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त की 'उत्तरा' की भाँति इसी निम्नलिखित तथाकथित संस्कारों को ढोती है –

“जो सहचरी का पद मुझे तुमने दया कर था दिया

वह था तुम्हारा इसलिए प्राणेश तुमने ले लिया

लेकिन तुम्हारी अनुचरी का जो पुण्यपद मुझको मिला

है छीन सकना तो कठिन, सकता नहीं कोई हिला॥”

भले इन प्रानेशों में लाखों ऐब थे, पर वे इनके पूज्य थे। अपने स्थायी स्वार्थ की कुर्बानी देकर अपने दक्षिणांगों को तुष्ट करती थीं। उनका मानना था कि "उनका काम तो सेवा है"9
सुनंदा के साथ कालिंदीचरण जब कभी करूँ दशा में प्रार्थना करता था, 'स्त्रीत्व' को ठेस पंहुचती थी। उसके प्रति जब भी दींन-हीन सा कुछ चाहता था तो उसे लगता था कि वह 'गैर' है। ऐसा नहीं है कि सुनंदा में यशपाल के 'करवा का व्रत' की नायिका की भाँति विद्रोह के भाव नहीं आते, पर उन भावों का प्रकाशन मुखर न होकर मूक है। जैनेन्द्र की पत्नी में भारतीय परम्परा की वही स्वाभाविकता है जो कभी द्विवेदी युगीन साहित्य में था। सुनंदा ऐसी भारतीय नारी है, जो सामाजिक विषमताओं के तहत सांस्कारिकता, नैतिकता और मर्यादा का बोझ ढोती चलती है। यही कारण है कि 'रुकिया बुढ़िया' में दीना या 'पत्नी' में कलिन्दीचरण जब भी कभी कटु व्यवहार करता तो क्रमशः रुक्मनी और सुनंदा में आक्रोश की एक चिंगारी भड़क उठती, परन्तु उस चिंगारी के भयंकर ज्वाला में तब्दील होने से पहले ही भारतीयता रूपी ढेर सारा पानी डालकर सदा के लिए सुला देती थीं।

जैनेन्द्र की कहानियों में अभावग्रस्तता एक बहुत बड़ा मसला बनकर पाठकों के सामने उपस्थित होता है। यह अभाव उनके पात्रों में एक मानसिक ग्रंथि का निर्माण करता है। द्रष्टव्य है कि स्वयं जैनेन्द्र का जीवन बड़े अभावों में रहा। इनकी कहानियों के पात्रों का अभाव न मात्र आर्थिक वरन मानसिक और जैविक भी है। सुनंदा जैसे पात्रों में जहाँ मातृत्व का अभाव है तो 'मास्टरजी' की नायिका जैसों में जैविक। उनकी कई कहानियों में पात्र-पात्रा अपने जैविक, मानसिक अथवा दोनों अभावों को मिटाने के निमित्त विवाहेतर सम्बन्ध बनाते हैं। 'एक रात' की शादी-शुदा सुदर्शना अपने पति को छोड़कर चल देती है जयराज से मिलने। स्टेशन पर वे एक-दूसरे के काफ़ी क़रीब होते हैं। जयराज के जीवन का अभाव भी उसके सान्निध्य में मानों पट सा जाता है। एक-दूसरे के स्पर्श से मानों दोनों को आनंद की प्राप्ति हो जाती है। 'त्रिवेनी' के घर में आया अतिथि, जो उसका विवाह-पूर्व का प्रेमी था, से बात कर संवेदना के धरातल पर एकदम तरो-ताज़ा हो जाती है। परन्तु उस भारतीय नारी को उसकी तथाकथित दायरों का एहसास होता है और वह निश्चय करती है –

"रात को जब पति आएँगे, मैं उनसे क्षमा माँगकर अपने आँसुओं से उनका सब क्रोध बहा दूँगी।"10
यही नहीं 'मास्टर जी' की नायिका तो अपने प्रौढ़ पति को छोड़कर अपने ही घरेलू युवा नौकर के साथ भाग जाती है। सामाजिक सन्दर्भों में इन पात्रों के क्रिया-व्यापार भले ही अनैतिक एवं अमर्यादित लगें, जैनेन्द्र के कथा-साहित्य में सहज ही सुलभ हैं। इन पात्रों की मानसिकता के मूल में जैनेन्द्र का निम्नलिखित दर्शन दृष्टिगोचर होता है –

“बहुत पहले की बात है। ... पाप-पुण्य की रेखा का उदय न हुआ था। कुछ निषिद्ध न था, न विधेय। ... विवाह न था और परस्पर सम्बन्धों में नातों का आरोप न था। स्त्री माता, बहन, पुत्री, पत्नी न थी; वह मात्र मादा थी और पुरूष नर।”11

‘पाजेब’ कहानी का आशुतोष उस भूल को स्वीकार करता है, या यूँ कहें करवाया जाता है, जो उसने किया ही नहीं था। उसकी इस मानसिकता के पीछे भी उसका अवचेतन काम कर रहा है। उसने अनुभवों से इतना तो अवश्य जान लिया होगा की झूठ कह लेने से संकट टल जाती है, या चापलूसी करने से मनचाही वास्तु मिल जाती है। कोई भी जन्मजात अपराधी नहीं होता। अपने परिवेश अनुभवों से उसका व्यक्तित्व गठित होता है। बालक के क्षेत्र में नकारात्मकता उसके भीतर अपराध को पनपने का मौका देता है। कहानीकार आशु के बहाने मध्यवर्गीय मानसिकता की बनावट और बुनावट से पाठकों का परिचय करा देते हैं।

'मास्टर जी' का प्रौढ़ मास्टर अपनी पत्नी से पुत्रीवत स्नेह रखता है। मास्टर का ऐसा व्यवहार भले ही असामान्य प्रतीत हो, असहज नहीं है। जैसा की कहानी कहती है, उनका विवाह तब हुआ था जब वह बाला थी और मास्टर युवा। उस समय उसके मन में भी जैविक इच्छा अवश्य रही होगी, परन्तु उम्र और उम्रानुरूप परिपक्वता में वह कम ही थी। अतः यह सम्भव है की मास्टर का व्यवहार उसके प्रति पुत्रीवत हो गया हो। यही उसकी प्रौढावस्था तक उसके साथ रही हो । परंतु उस लडकी की जैविक इच्छा का क्या? अतः वह अपने ही समवयस्क युवा नौकर के साथ भाग गयी। मास्टर इससे दुखी तो हुआ, परंतु उसके लौट आने पर दुगुना खुश। उसके आने पर मिठाईयाँ बाँटना उसके इसी मनोभाव का परिचायक है।

“बहुतेरा पढने-लिखने के बाद और माँ के बहुत कहने-सुनने पर भी रामेश्वर को कमाने की चिंता न हुई, तो माँ हार मानकर रह गयी। रामेश्वर की बाल-सुलभ प्रकृति चाहती थी की रुपये का अभाव तो न रहे; पर कमाना भी न पड़े।”12

उपर्युक्त समस्या न मात्र रामेश्वर की वरन वर्तमान युग के प्रायः सभी सद्यः-शिक्षितों की। ऐसे में उनपर दवाब बढ़ता है और रामेश्वर तो फोटोग्राफर बन गया, पर आज एक ग्रंथि के रूप में मस्तिष्क में घर कर जाती है। आज होने वाले अधिकाँश आत्महत्याओं के पीछे यही वज़ह है।

'जाह्नवी' कहानी में प्रेम में टूटी हुई अक स्त्री की मानसिक दशा की अभिव्यक्ति है। किंतु यह अभिव्यक्ति एक अनुकूल परिवेश बिम्ब के माध्यम से है। कथावाचक पात्र का छत पर उड़ते हुए कौओं के बीच घिरे जाह्नवी रोटियों के टुकड़े का फेंकते हुए गाना, प्रेम में पगी भावनाओं की करुण काव्यात्मक अभिवक्ति है।13 तो वहीँ 'बाहुबली' में अजेय होने का गर्व दर्प में बदलकर एक ग्रंथि के रूप में अपना बसेरा कर लेता हैऔर तपश्चार्योपरांत भी उसे शान्ति तथा ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।

मनोविश्लेषणसिद्ध इस कथाकार ने Freud प्रदत्त मनोविश्लेषण को सिद्धांत रूप में ग्रहण तो किया, पर पूर्णतया नहीं। वरन् इन्होंने इसमें भारतीय मीशा और दर्शन का समाहार कर लिया। इनके पात्रों में एक भारतीय आत्मा बस्ती है। परवर्ती काल में इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय ने जैनेन्द्र की परम्परा को ही आगे बढाया और जैनेन्द्र के रंग में रंगकर मनोविश्लेषण की कहानियाँ जैनेंद्रमय हो गयीं।


संदर्भः
1. http://en.wikipedia.org/wiki/Personality_psychology
2. Carver, C., & Scheier, M. (2004). "Perspectives on Personality" (5th ed.). Boston: Pearson
3. पृष्ठ सं॰- 131, "15, Historical and expository works on Psychoanalysis"- Sir Sigmund Freud
4. पृष्ठ सं॰- 95, "समकालीन विचारधाराएँ और साहित्य"- डॉ॰ राजेन्द्र मिश्र
5. पृष्ठ सं॰- 36, "कुछ विचार"- प्रेमचन्द
6. "एक रात' की भूमिका- जैनेन्द्र
7. पृष्ठ सं॰- 45, कहानी 'खेल', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
8. पृष्ठ सं॰- 147, कहानी 'ध्रुवयात्रा', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
9. कहानी 'पत्नी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
10. पृष्ठ सं॰- 141, कहानी 'त्रिवेनी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
11. पृष्ठ सं॰- 124, कहानी 'बाहुबली', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
12. पृष्ठ सं॰- 29, कहानी 'फोटोग्राफी', 'जैनेन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ'- (संपादिका) डॉ॰ निर्मला जैन, पूर्वोदय प्रकाशन
13. 'हिन्दी कहानी- अन्तरंग पहचान' - रामदरश मिश्र


चतुरानन झा,
शिक्षार्थी,
उत्तर बंग विश्वविद्यालय,
राजा राममोहनपुर,
पिन-734430
जिला-दार्जिलिंग
(पश्चिम बंगाल)

Monday, November 17, 2008

चुनाव और चम्पा

इधर कुछ दिनों से उसके पति पर चुनाव का भूत सवार था, उठते-बैठते, खाते-पीते, जागते-सोते, नहाते-धोते, बस चुनाव। चुनाव भी क्या, झाड़ू पार्टी का भूत सवार था। झाड़ू पार्टी का बहुमत आएगा, झाडू पार्टी की सरकार बनेगी, क्योंकि झाड़ू पार्टी के प्रधान उनकी जाति के थे। चिड़िया पार्टी तो गई समझो, वह अक्सर गुनगुनाता फिरता था।
काना बाती कुर्र
चिड़िया उड़ गई फुर्र

उसे चिड़िया पार्टी पर काफी गुस्सा था। उनके हलके के विधायक चिड़िया पार्टी के थे और उन्हीं की शिकायत पर उसका तबादला यहां हुआ था। पति उसे पिछले तीन दिन से एक डम्मी मतपत्र दिखलाकर बार-बार समझा रहा था
कि झाड़ू पर मोहर कैसे लगानी है! कागज कैसे मोड़ना है! उसने तो जूते के खाली डिब्बे की मतपेटी बनाकर उसे दिखलाया था कि वोट कैसे डालनी है!
आज वे मतदान केन्द्र पर सबसे पहले पहुँच गए थे। फिर भी आधे घण्टे बाद ही उन्हें अन्दर बुलाया गया। चुनाव कर्मचारी उनकी उतावली पर हँस रहे थे। फिर उसका अँगूठा लगवाकर उसकी अंगुली पर निशान लगाया गया, उसका दिल कर रहा था कि अपनी ठुड्डी पर एक तिल बनवा ले, निशान लगाने वाले से।
पिछले चुनाव में उसकी भाभी ने अपने ऊपरी होठ पर एक तिल बनवाया था। हालाँकि उसका भाई बहुत गुस्साया था, इस बात पर। जब उसकी भाभी हँसती थी तो तिल मुलक-मुलक जाता था। उसकी भाभी तो मुँह भी कम धोती थी उन दिनों, तिल मिट जाने के डर से। पर वह लाज के मारे तिल न बनवा पाई। मर्द जाति का क्या भरोसा, क्या मान जाए क्या सोच ले!
अब उसके हाथ में असली का मतपत्रा था और वह सोच रही थी। यहाँ कालका जी आए उन्हें छह महीने ही तो हुए थे। वह राजस्थान के नीमका थाना की रहने वाली थी और पति महेन्द्रगढ़ जिले का। दोनों ही मरुस्थल के भाग थे। हरियाली के नाम पर खेजड़ी और बबूल बस। उसका पति वन विभाग में कुछ था। क्या था ? पता नहीं। कौन सर खपाई करे !
वह वन विभाग में था, इसकी जानकारी भी उसे यहीं आकर हुई जब वे फारेस्ट कालोनी के एक कमरे के क्वार्टर में रहने लगे। यहाँ आकर चम्पा, हाँ यही उसका नाम था न, बहुत खुश थी। यहीं उसे पता लगा कि चम्पा का फूल भी होता है और वो इतना सुन्दर और खुशबू वाला होता है। और तो और उसकी माँ, चमेली के नाम का फूल भी था, यहाँ। इतनी हरियाली, इतनी साफ-सुथरी आबो-हवा, इतना अच्छा मौसम, जिन्दगी में पहली बार मिला था, उसे। फिर सर्दियों में उसका पति उसे शिमला ले गया था। कितनी नरम-नरम रूई के फाहों जैसी बर्फ थी। देखकर पहले तो वह भौचक्क रह गई और फिर बहुत मजे ले लेकर बर्फ में खेलती रही थी। इतना खेली थी कि उसे निमोनिया हो गया था।
फिर यहाँ कोई काम-धाम भी तो नहीं था उसे। चौका-बर्तन और क्वार्टर के सामने की फुलवाड़ी में सारा दिन बीत जाता था। वहाँ सारा दिन ढोर-डंगर का काम, खेत खलिहान का काम और ऊपर से सास के न खत्म होने वाले ताने। फिर ढेर सारे ननद देवरों की भीड़ में, कभी पति से मुँह भरकर बात भी नहीं हो पाई थी, उसकी।
उसने मतपत्र मेज पर फैला दिया। हाय ! री दैया ! मरी झाडू तो सबसे ऊपर ही थी। उसने और निशान देखने शुरू किए। कश्ती, तीर कमान,। तीर कमान देखकर उसे रामलीला याद आई। उसे लगा चिड़िया उदास है, पतंग हाँ पतंग उसे हँसती नजर आई। साइकल, हवाई जहाज, हाथी सभी कितने अच्छे निशान थे और झाडू से तो सभी
अच्छे थे।
''अभी वह सोच ही रही थी कि निशान कहाँ लगाए? तभी वह बाबू जिसने उसे मतपत्र दिया था बोला-बीबी जल्दी करो और लोगों को भी वोट डालने हैं।''
उसने मोहर उठाई और मेज पर फैले मतपत्र पर झाडू को छोड़कर सब निशानों पर लगा दी और मोहर लगाते हुए वह कह रही थी कि चिड़िया जीते, साइकल जीते, कश्ती जीते पर झाड़ू न जीते।
झाड़ू को जितवाकर वह अपना संसार कैसे उजाड़ ले? हालांकि वह मन ही मन डर रही थी कि कहीं पति को पता न लग जाए।

--डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

Saturday, November 15, 2008

इतना नंगा आदमी (लघुकथा)

रेखाचित्र: मनु "बे-तक्ख्ल्लुस"

आज और दिनों की अपेक्षा मुख्य मार्ग वाले बाज़ार में कुछ ज्यादा ही भीड़ भड़क्का है | कुछ वार त्योहारों का सीज़न और कुछ साप्ताहिक सोम बाज़ार की वजह से | भीड़ में घिच -पिच के चलते हुए ऐसा लग रहा है जैसे किसी मशहूर मन्दिर में दर्शन के लिए लाइन में चल रहे हों | इतनी मंदी के दौर में भी हर कोई बेहिसाब खरीदारी को तत्पर | सड़क के दोनों तरफ़ बाज़ार लगा है | अजमल खान रोड पर मैं जैसे-तैसे धकेलता-धकियाता सरक रहा हूँ | भीड़ में चलना मुझे सदा से असुविधाजनक लगता है, पर क्या करें, मज़बूरी है | अचानक कुछ आगे खाली सी जगह दिख पड़ी | चार-छः कदम दूर पर एक पागल कहीं से भीड़ में आ घुसा है | एकदम नंग-धड़ंग, काला कलूटा, सूगला सा | साँसों में सड़ांध के डेरे, मुंह पर भिनकती मक्खियाँ, सिर में काटती जूएँ | इसीलिए यहाँ कुछ स्पेस दिख रहा है | अति सभ्य भीड़ इस अति विशिष्ट नागरिक से छिटककर कुछ दूर-दूर चल रही है |
पर मैं समय की नजाकत को समझते हुए उस पागल की ओर लपका और साथ हो लिया | हाँ! अब ठीक है | उसका उघड़ा तन मुझे शेषनाग की तरह सुरक्षित छाया प्रदान कर रहा है | मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ | हाँ! इतना नंगा आदमी कम से कम मानव बम तो नहीं हो सकता......|

नाम - मनु "बे-तक्ख्ल्लुस"
जन्म - २ मार्च १९६७
स्थान - नई दिल्ली
लेखन - जाने कब से
भाषा - हिन्दवी
संगीत - भारतीय शास्त्रीय संगीत
ग़ज़लें - मेंहदी हसन, गुलाम अली, बेगम अख्तर
रूचि- पेंटिंग, लेखन, संगीत सुनना
ब्लॉग - manu-uvaach.blogspot.com
ई-मेल - manu2367@gmail.com

Monday, November 10, 2008

अलंकार (लघुकथा)

"लघुकथा हमेशा कड़वी और तल्ख़ क्यों होती है?"

"क्यूं कोई स्नेहसिक्त, प्रणय में डूबी, हृदय के तारों को झंकृत करती, छोटी सी, मीठी सी लघुप्रेम कथा नहीं लिखता?"

"लघुकथा के पास इतना समय नहीं होता कि वह फालतू के तानेबाने में अपना समय जाया करें। जो कुछ कहना है सीधे स्पष्ट शब्दों में कहा, मर्म पर चोट की और नमस्ते।"

"मन की मिठास को सब सांद्र रुप में हृदय की गहराइयों में संजों कर रखना चाहते है। दूसरी तरफ कड़वाहट को शीघ्र और अधिकाधिक बांट कर विरल कर देना चाहते हैं। अपने अंदर की कटुता से त्वरित निवृत होने की कला ही लघुकथा है।"

"ना, लघुकथा तो गद्यशिशु होती है, कोई लाग लपेट नहीं सीधी सच्ची बात कही और चुप।"


लघुकथा विषय पर साहित्यिक गोष्ठी चरम पर थी। अण्डाकार बड़ी सी मेज के किनारों पर बैठे नगर के प्रबुद्ध साहित्यकारों के मुख से स्वर्णजड़ित उक्तियां झर रही थीं।

गोष्ठी समापन पर सभी अल्पाहार हेतु बगल के छोटे हॉल में चले गये ।

ओजपूर्ण स्वर भिनभिनाहट में बदल गये ।

सभी अब ख़ुद को कद्दावर और दूसरों को बौना करने के प्रयास में लग गये।

अभी भी अलंकृत भाषा का ही प्रयोग किया जा रहा था, बस अलंकार बदल गये थे ।

-विनय के जोशी

Thursday, November 6, 2008

14 जुलाई 1998 : मिट्टी के असबाब

इन दिनों आप पढ़ रहे हैं युवा कथाकार निखिल सचान द्वारा रचित धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैबंद'। इसे निखिल आरव की ज़िंदगी की डायरी से फ़ाड़े हुए कुछ पन्ने मानते है और कहते हैं कि उसे बिना बताए जितने पन्ने निकाल सका, आप तक पहुंचा रहा हूँ, तारीख के साथ॰॰॰॰

इस कथा का प्रथम भाग '10 मार्च ,1998 : इतिश्री' पढ़ चुके हैं। पढ़िए दूसरी कड़ी॰॰॰



१४ जुलाई १९९८ : मिट्टी के असबाब


कोरी स्लेटों पर नए अध्याय लिखे जा रहे थे , कहानियां नहीं . पुराने लिखे मिटाए जा चुके थे .सफ़ेद खड़िया का धुंधलका स्लेटों से पूरी तरह गया नहीं था लेकिन उस पर नई इबारत के नए हस्ताक्षर उभरने लगे थे . आरव की स्लेट पर कुछ कम और चारू की स्लेट पर थोड़े ज्यादा साफ़ , क्योंकि आरव की स्लेट की लकड़ी थोड़ी ज्यादा चीमड़ हो गई थी . सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .
नए दोस्त बनाए जा रहे थे...
नये बंधन कच्ची पुआलों से कसे जा रहे थे...
छाती भर के दम भर सांस लेना सीखा जा रहा था ...
इस प्रकरण में एक आध बार ही दम फ़ूला होगा लेकिन कुल मिलाकर ,ऊपर वाले की अदालत से मामला बाइज़्ज़त बरी हो चुका था.
चेतराम , भूरा, मेले, प्रिंसी और शीबू ने आरव और चारू के खोले स्कूल में दाखिला ले लिया था . गांव में वैसे तो एक प्राइमरी पाठशाला हुआ करती थी लेकिन गांव वालों की उस पर श्रद्धा बस इतने भर की थी ,कि उसमें गोबर के उपले ,धान की बोरियां और कर्बी के गट्ठर ही जमा किये जाते थे .सुबह १० बजते ही गिने गिनाए पांच विद्यार्थी या तो नहा धोकर स्कूल आ चुके होते थे या फ़िर नहाने का उपक्रम कर के . क्योंकि इंटरवल में बाजरे का रोटला तभी दिया जाता था जब चारू इस बात से संतुष्ट हो लेती थी कि स्कूल के छात्र सदाचार के बेसिक्स अपने दिमाग में बिठा चुके हैं या नहीं . खेल अजीब था लेकिन जैसा भी था ,अच्छा था .
चारू को उनके नामों से चिढ़ थी, चेतराम , भूरा..ये भी कोई नाम हैं ?
इसलिए उसने अपने बनाए रजिस्टर में उनके नए नाम ही लिखे हुए थे , बाकी सब तो ठीक था लेकिन प्रिंसी को इस बात से खास खीझ उठती थी कि चारू ने उसका नाम रजिस्टर में 'प्रिया' लिख रखा था . दरसल चारू जालौन के अपने स्कूल में अपना नाम प्रिया ही रखना चाहती थी क्योंकि उस समय हर फ़िल्म में हीरोइन का नाम यही हुआ करता था . आई ने उसे कभी भी अपना नाम बदलने की इज़ाज़त नहीं दी थी फ़िर भी अपनी सहूलियत और अपना मन रखने के लिए नए लोगों को वो अपना नाम प्रिया ही बताती थी .
अधिकतर क्लास लेने का जिम्मा चारू के हिस्से ही था . आरव भी कुछ कुछ बातें बताया करता था...मसलन बात करने का लहज़ा , चलने फ़िरने का और पहनने का . अब सभी लड़के अपना ऊनी स्वेटर अपनी पतलून में दबा कर पहनते थे और ऊपर से कपड़े की बेल्ट . क्योंकि आरव का कहना था कि ढीले ढाले कपड़े , ढीले ढाले इंसान ही पहनते हैं.
वैसे तो क्लास में पढ़ाने के लिए रोज रोज नया कुछ नहीं था इसलिए वही सारी बातें दोहराई जाती थीं ...जैसे नाक में उंगली करना एक बुरी आदत है और शौच जाने के बाद हांथ धुलना अनिवार्य होता है ,आंख में अंजन- दांत में मंजन ...वही सब बातें .चेतराम पिछली कक्षा की बातें दोहराते हुए , नाक में उंगली डाल कर बताता था कि नाक में उंगली डालना एक बुरी आदत होती है . दरसल ये उसकी घबराहट की वज़ह से होता था पर चारू को लगता था कि वो उसकी सिखाई हुई बातों का मज़ाक बना रहा है.आज फ़िर उसे बाजरे का रोटला नहीं दिया गया , फ़िर भी वो एक होनहार विद्यार्थी था , इसमें कोई संदेह नहीं था .
आरव ,चारू के माध्यम से अपने आप को यकीन दिला रहा था कि इस उलझे हुए लोगों की और भी उलझी हुई दुनियां में उसका भी एक सुलझा हुआ अस्तित्व है . उसने अपने दिमाग में पक्क्का कर लिया था कि बजाय उचित-अनुचित और सही-गलत के फ़ेर में पड़ने के , वह चारू की कल्पना की दुनिया के लिए नए वितान खींचेगा . आरव चारू से छोटा था लेकिन हर तरह से उसका बड़ा भाई बन बैठा था . चारू ईश्वर से बातें करती थी , आई के दुपट्टे से बातियाती थी और मिट्टी के खिलौनों से भी . आरव उसकी हर एक चीज़ से खुश था , सिवाय इसके कि उस ईश्वर में उसका विश्वास टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था जिसने उन दोनों की दुनिया को , एक बड़ी सी बाहरी दुनिया के मंच पर ,समय से पहले प्रदर्शन के लिए ला कर अनाथ रख छोड़ा . नन्हें कलाकार तमाशबीनों की भीड़ में बिना किसी स्क्रिप्ट के खड़े थे..
खैर ....ज़िन्दगी भी व्यस्त थी और उसे जीने वाले भी ...
मंतव्य अलग-अलग थे...
और गंतव्य भी .
आज चारू ने अपने स्कूल में छुट्टी की घोषणा कर रखी थी . छुट्टी की कोई ख़ास वजह नहीं थी पर ऐसा सिर्फ़ इसलिए किया गया था कि वो स्कूल ही क्या जिसमें समय समय पर छुट्टियां ही ना होती हों, आखिर ओरिजनैलिटी नाम की भी तो कोई चीज़ होती है ना .
आज का खेल दूसरे दिनों के खेल से भिन्न था .आरव और चारू मिट्टी के बड़े ढ़ेले को लकड़ी की मूठ से कूटने में लगे थे . बीच बीच में उचित अनुपात में पानी डाला जाता था और फ़िर से कुटाई . कोशिश यह थी कि मिट्टी का एक घर बनाया जा सके और उसमें सारे खिलौने महफ़ूज़ रखे जा सकें . गारा बन चुका था और नन्हें मिस्त्री दोनों हंथेलियों से एक कल्पना को आकार दे रहे थे . गारे में लाल गेरू मिलाया गया था ताकि रंगों की गुंजाइश भी पूरी की जा सके .
चारू की मिट्टी की घुंघराली लट उसके माथे पर पेंडुलम की तरह नाच नाच कर सारे मामले पर गंभीरता से नज़र बनाए हुए थी .पेंडुलम ने देखा -एक बड़ा सा आंगन , आंगन से बड़े दो कमरे ,लकड़ी का ट्रैक्टर,खटिया और छोटा मोटा जरूरी असबाब ... चारू को घर में कुछ कमी नज़र आई , उसने पेंडुलम को कान के पीछे सहूलियत से लटकाकर कहा ,
'बाथरूम तो बनाना भूल ही गए '
आरव ने कातर निगाहों से उसकी ओर देखा ...
आई...बाथरूम..और नीम की काठ..
आरव से कुछ कहा नहीं गया , क्योंकि चारू से कुछ सुना नहीं जाता
लेकिन गुंजाइश को पूरी तरह दरकिनार भी नहीं किया जा सकता था इसलिए बिना कहा सुनी के दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि बाथरूम तो बनाया जाएगा पर उसमें दरवाज़े नहीं होंगे क्योंकि दरवाज़े तोड़ने में बहुत वक्त लगता है...
ख़ैर ..घर बनाया गया और उसमें खिलौने भी रखे गए .
सब मिट्टी के , पूरा घर भी मिट्टी का , और रहने वाले गुड्डे गुड़िया भी मिट्टी के क्योंकि मिट्टी आग नहीं पकड़ती .
अपना काम पूरा करके हेडमास्टर चारू को झपकी आ गई ..
और आरव को भी ....
उसने देखा कि..
वो मैदान में खेल रहा था , क्या ? ..कुछ ठीक से दिख नहीं रहा था पर किसी गेंद से . आई ने उसे आवाज़ दी ..
'आरव..'
'आरव..'
'हां मां ?'
'बेटा तुझसे कुछ बात करनी है , घर आ जा ..'
'आता हूं मां , बस ५ मिनट मां '
'आई ने ५ मिनट की गुंजाएश पर गौर किया , संभव नहीं था , क्योंकि ५ मिनट में उसकी हिम्मत टूट सकती थी . बहुत मुश्किल में उसने फ़ैसला किया था कि अब वो बाबा , चारू और आरव पर बोझ नहीं बन सकती है . घर का २-३ लाख रुपया , खुशी , सुकून और बाकी वैसा ही बहुत कुछ पिछले ५ वर्षों में उसकी बीमारी की भेंट चढ़ाया जा चुका था. वो तंग आ गई थी ऐसे शरीर से जिससे वो आरव और चारू को गले ना लगा सके , टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है' उसकी छाती दिन भर घुर घुर की आवाज़ करती रहती थी और नसों में सिवाय इंजेक्शन के लिक्विड के और कुछ भी नहीं दौड़ता था .टोटकों के नाम पर बाहों पर गरम चिमटे से बनाए हुए त्रिशूल के निशान थे.हर महीने वैसा ही नया त्रिशूल उसकी बांह पर दाग दिया जाता था.मान्यताएं अलग अलग थीं और भोले मानव मन को ठगने के तरीके अलग अलग,दवाएं अलग अलग,दुआएं अलग अलग ...पता नहीं कौन सी चीज़ काम कर जाती...कुल मिलाकर डाक्टरों से लेकर नीम-हकीमों तक सबने आई के शरीर और अस्तित्व का तमाशा बना दिया था .आई ने खुद से पूछा कि क्या वो इंतजार कर सकती है ?
आई ने खुद को कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि इंतजार करके वो करती भी क्या ?
आरव आ भी जाता तो उसको गले कैसे लगाती ..टी.बी. आखिर छूत की बीमारी जो है....
बची खुची जो कुछ भी तथाकथित शक्ति थी,इकट्ठा की,स्टोर-रूम की ओर गई,थोड़ी सी खटर पटर के बाद एक पुराना कनस्तर उठाया और बाथरूम में गई ...
आई गीली फ़र्श और सूखी दीवार का सहारा लेकर बैठी थी .
एक-चौथाई , आधा, तीन-चौथाए और फ़िर पूरा ..किश्तों में उड़ेला गया .इस दौरान उसके हांथ एक बार भी नहीं कांपे , हां वो खांसी जरूर थी इसलिए तीली बार बार बुझ जाती थी .आखिरकार तीली जली और आई ने उसे अपनी साड़ी के पल्लू से मिलवा दिया .
आरव दौड़ते हुए घर में घुसा , पानी का गिलास खोजा ...
एक-चौथाई पिया...फ़िर आधा ...तीन चौथाई और फ़िर पूरा गिलास ..
आई का शरीर उसके साहस के तंदूर में भुनना शुरु हो गया था .बांह का त्रिशूल भी भुना , घुर-घुराने वाली छाती भी .साथ में आरव और चारू को अंतिम बार गले लगा लेने की लालसा भी कच्ची कच्ची ही जल उठी .
आरव गरम तवे पर पानी की छींटे मारने की छन छनाहट सुन सकता था . उसे लगा कि बिजली के तार ने आग पकड़ ली है और फ़िर सात बरस के बालक से जितनी कोशिश हो सकी उतनी ताकत लगा कर बाथरूम का दरवाज़ा तोड़ने लगा....
....
आरव की झपकी टूटी ...
सामने मिट्टी का बाथरूम था , आई नदारद थी , ना मिट्टी की और ना ही नीम की जली काठ की .आरव गठरी बना हांफ़ रहा था , पसीने से सीली गठरी .
...पुरानी याद ..पुराना भय और पुराना अपराध-बोध का पसीना ..
काश वह ५ मिनट पहले आई से मिलने आ गया होता ...
यह अपराध बोध आरव को सिर से पैर तक पिछले तीन महीने से खाए जा रहा था . वो अखिरी बार आई के पास क्यों नहीं था . आई क्या सोचती होगी उसके बारे में .कुछ सोचती भी होगी या नहीं भी ? आई का आरव कटघरें में अपनी ही खिलाफ़त और अपनी ही वक़ालत खुद ही कर रहा था , मुद्दई, वादी ,प्रतिवादी सब कुछ वही था .अपना गवाह भी वही , मुंसिफ़ भी वही...तमाशबीनों की भीड़ के बीचों-बीच अपराधी आरव हांफ़ता हुआ खड़ा था ,पसीने से तर-बतर .
तीन महीने से मामला मुल्तवी ही नहीं , कोई बाइज़्ज़त बरी भी नहीं हुआ
हर बार मुकदमा सुनने के लिए पिछली बार से ज्यादा तमाशबीन जुटे होते थे
आरव अपने कटघरे को लांघ कर बाहर आया ..
पानी की बाल्टी उठाई, दबे पांव , चारू को भनक होने दिए बिना मिट्टी के घर तक पहुंचा और पूरी बाल्टी अपने और चारू के घर पर उलट दी ..
बाथरूम बुरी तरह से रौंद दिया गया , कोई गुंजाइश नहीं रखनी थी ..
उसे अगले दिन चारू से झूठ बोलना पड़ा कि कल रात बहुत बारिश हुई है
हेडमास्टर चारू पर कोई असर नहीं हुआ . उसकी क्लास का वक्त हो चुका था , टीचर जैसी दिख सके इसलिए उसने आई का दुपट्टा दोनों कंधों पर वी के आकार में डाला और अपनी कल्पना की ऐनक नाक पर टिका कर स्कूल की ओर निकल गई .
आरव उसके विश्वास पर ठगा सा खड़ा था ....
एक और अपराध-बोध के साथ ..
सीलने के बाद का सूखना ऐसा ही हुआ करता है .सीली हुई लकडियों और जली हुई लकडियों के मिज़ाज़ में कुछ अधिक फ़र्क नहीं होता .

क्रमशः......

Monday, November 3, 2008

10 मार्च ,1998 : इतिश्री

आज से हम निखिल सचान की धारावाहिक कहानी 'चिंदियों के पैंबंद' का प्रकाशन आरंभ कर रहे हैं। कथाकार के अनुसार यह कहानी नहीं अपितु आरव की डायरी के कुछ यहाँ-वहाँ के पन्ने हैं, जिसे लेखक ने फाड़ लिया है और हम तक पहुँचा रहा है, तारीख के साथ॰॰॰


नीली छतरी के अवतल सिरे के दूसरी ओर एक सनकी कहानीकार रहता है , हर इंसान के हिस्से एक कहानी और उसके जिम्मे एक कथावस्तु . जब वो कथावस्तु एक ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है कि आदि और अंत में मेल जोड़ पाना असंम्भव सा लगने लगे तो लिखने वाला उसकी इतिश्री कर देता है . कलम की नोक तोड़ दी जाती है और हर संभव आशा की इतिश्री को हम दुनिया वाले , अपनी सहूलियत के लिए मौत के नाम से संबोधित करने लग जाते हैं . इसे यम का मुष्टिनाद भी कह सकते हैं ,सब कुछ पा लेने की त्वरा का मध्यांतर भी कह सकते हैं और चाहें तो कुछ ना भी कहें , क्योंकि मौत को ग्लैमराइज़ करने के उपक्रम को ग़ालिबों के हिस्से छोड़ के छुट्टी पाई जाए तो बेहतर होता है .
आरव , चारू ,आई और बाबा के इस घर में उसी मौत को ग्लैमराइज़ करने का किस्सा जिया जा रहा था , कौन कौन जी रहा था ये तो पक्का नहीं हैं लेकिन कौन नहीं जी पाया था ये ज़रूर पक्का हो गया था . बाथरूम में आई की शरीर पड़ा था , अच्छे से जला हुआ , अच्छे से भुना हुआ ...हर तरफ़ से बखूबी- बराबर. आई काठ की मूरत बनी हुई गीले फ़र्श पर पड़ी हुई थी , काठ किसी पुराने नीम की , काले-कत्थई रंग की . बाथरूम की सफ़ेद दीवारों पर धुएं की कम पकी काली स्याही ऐसे लग रही थी जैसे किसी बिना धैर्य वाले अनाड़ी चित्रकार ने शौकिया ,कूची से काली रेखाएं किसी कल्पित प्रेमिका के बालों की झाईं की कल्पना में उकेर दी हों . आरव कौतूहल में उसके शरीर को खुरच कर पूरे घटनाक्रम की वास्तविकता को पक्का कर लेना चाहता था लेकिन आई के शरीर से इतनी बास आ रही थी कि उसके आस पास जा पाने का फ़ितूर भी किसी के दिमाग़ को छू नहीं पाया .
अब तक यही कोई सौ लोग आरव और चारू के छोटे से घर के और भी छोटे कमरे में इकट्ठा हो चुके थे , गोष्ठी जारी थी , वक्ता बदले जा रहे थे . एक मोहतर्मा का कहना था कि आई बेचारी बहुत हिम्मत वाली थी क्योंकि आग को बर्दाश्त कर पाने कि हिम्मत अच्छे अच्छों में नहीं होती , अगली ने प्रतिरोध किया कि पागल औरत को हिम्मत की क्या ज़रूरत , दिमाग का नशा है , जब चाहे चढ़ जाए , बता के थोड़ी चढ़ेगा .
'बेचारी ने बहुत झेला , चार साल बाद अस्पताल से छुट्टी पाकर बच्चों का मुह देखने आ पाईं और ये सब ...' वो आगे और बोलना चाहती थी लेकिन रोने और चिंघाढ़ने में ज़रा व्यस्त हो गई .
'आरव के बाबा को फ़कीर और झाड़-फ़ूंक में पड़ना ही नहीं चाहिए था , आज के पढे़ लिखे मनई की बुद्धि जब फ़िर जाए तो कोई का कर सकत है , पड़ी रहीं बेचारी राजस्थान में तिरुपति जी के दरबार में और कम्बखत टी.बी. ने पकड़ कर ली मजबूत , अब का बताया जाए ? 'वो भी आगे नहीं बोल सकी...शायद उसी समस्या से !
लेकिन उसकी बात के मंतव्य को आगे और मजबूत बनाती हुई एक चालीस साल की महिला छींक की तरह दाखिल हुई और आते ही उन्होंने अपना फ़ैसला सुनाना उचित समझा-
'अरे क्या होगा अब इन बच्चों का ..? बेचारों की ज़िंदगी में तो कुछ बचा ही नहीं ...अरे बर्बाद हो गए बेचारे , हाए रे! उमर ही क्या ठहरी दोनों की ..अरे वो तो चली गईं आग में खुद को स्वाहा कर के बिचारी और ये बच्चे बिचारे ...' और इतना कहते हुए उसने आरव को अपने पास खींचा और चारू को गोद में लिटा कर उसके ऊपर भयावह शकलों के अलग अलग एपिसोड नचाने शुरू कर दिए . उसके रोने का अलग अलग असर हुआ . महिलाओं की मंडली के विधवा विलाप को जैसे जीवनदान सा मिल गया हो ...रोने पीटने का शोर कम कम से तीन गुना तो हुआ होगा . नौ बरस की चारू को अब जा कर मालूम पड़ा की मौके की गंभीरता क्या है या शायद ना भी मालूम पड़ा हो पर वो डर कर इतना रोई जितना जान कर नहीं रो पाई थी .
लेकिन आरव अभी भी अपने पहले आंसू को देख पाने का इंतज़ार कर रहा था . सात बरस की उमर में वो क्या हो चुका था उसे भी नहीं पता था , बाबा को भी नहीं पता था पर वो ऐसे लोगों के सामने अपनी दरिद्रता और सारी दुनिया लुट जाने का प्रदर्शन नहीं होने देना चाहता था जिन्हें आई और उसके बच्चों की याद तब ही आई जब उसका शरीर पुराने नीम की काठ में तब्दील हो चुका था . आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि वो चारू और बाबा को ये समझा सकता कि अभी भी जीवन का अंत नहीं हुआ है और आई ने जिस उम्मीद में खुदक़ुशी की उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी वो बाकी तीन लोगों के कंधों पर बिना बताए टांग कर चली गई थी .आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि कहानीकार को ये पता चल सके कि उसकी कहानी के नए नए ट्विस्ट में गज़ब की संवेदनशीलता थी और आरव इस लिए भी नहीं रोना चाहता था कि चार साल में उसने सीख लिआ था कि आंसू बहाना दुनिया का सबसे वाहियात काम है .
बाथरूम की खिड़की अभी भी धुआं उगल रही थी जैसे वो कोई निशान अपनें में रखना ही ना चाहती हो , बिजली के तार रह रह कर ऐसे जलने लगते थे जैसे तड़का मारा जा रहा हो या फ़िर तेल के छींटे दिए जा रहे हों . लेकिन आई सब बातों से अनभिग्य बेजान पड़ी थी . इस बात से अंजान कि वो पागल थी , इस बात से अंजान कि वो बेचारी थी , इस बात से अंजान कि कानूनन उससे एक ज़ुर्म हो चुका था और इस बात से भी अंजान कि उसके किए की आलोचनाएं और समीक्षाएं करने में बाहर खड़े क्रिटिक इतने ज्यादा बिजी थे कि वो ये देख पाते कि आरव और चारू जूतों के रैक के पास किसी खिलौने के तरह सजाकर रख दिए गए थे . घर में भीड़ बढ़ती जा रही थी और रैक के आसपास जूते भी .
आगन्तुकों में कुछ ऐसे चेहरे भी थे जो कहीं से भी आमन्त्रित तो नहीं लगते थे , उनका तिरस्कार ही हो सकता था और , स्वागत तो कतई नहीं . ये चेहरे खाकी वर्दी वालों के थे . उनमें से ओहदे में प्रथम और ऐसे मौके पर दुस्साहस कर सकने का साहस रखने वाली एक खाकी वर्दी आरव की ओर बढ़ी ,रुकी और फ़िर किसी कोने की फ़िराक में दिग्भ्रमित सी हुई , कोना ढूंढकर फ़िर वापस आई , आरव की ओर . दरसल वह कोने को लाल रंगने गया था क्योंकि पान चबाते हुए बात करना बद्तमीज़ी समझा जाता और पोलिस को इन सब चीज़ों का ख़याल रखना पड़ता है , वह हिन्दुस्तान का सबसे संवेदनशील महकमा जो है .
'क्या हुआ आज ? '
'जी? '
'मैंने पूछा क्या हुआ आज ? '
उसने सवाल में थोड़ा मोडिफ़िकेशन तो किया पर आरव ने जवाब में नहीं . पुन: वही-
'जी?'
'अरे जब तुम्हारी आई ने आग लगाई तब तुम्हारे बाबा कहां थे ? '
'वो आफ़िस गए थे .'
बगल में खड़ी खाकी वर्दी ने साफ़ साफ़ नोट किया ....' वो...आफ़िस...गए...थे...'
'बाबा और आई के बीच कोई लड़ाई ? '
'जी नहीं '
ये भी नोट किया गया ,साफ़ साफ़. 'कोई..लड़ाई..नहीं '
वही दोनों सवाल चारू से भी दोहराए गए और जवाब भी .
चार सवाल , चार जवाब और मामला ख़तम .
अगले दिन अख़बार में लिखा गया -
'जल निगम में काम करने वाले एक क्लर्क की अधेड़ उम्र की पत्नी ने बीमारी से तंग आकर , आग जलाकर आत्महत्या कर ली . पोलिस ने आपसी कलह से इंकार किया है और प्रथम मर्तबा यह दहेज हत्या का मामला भी नहीं नजर आता . '
-स्थानीय संवाददाता- जालौन
मामला सच में ख़तम , आरव और चारू को अगले ही दिन उनके गांव भेज दिया गया , उस सब से बहुत दूर... कम से कम भौगोलिक द्रष्टि से बहुत दूर .

क्रमशः....

लेखक- निखिल सचान