धत्! किसमत ही साली......उसने सडक पर पडे पत्थर को भरपूर लात मारी। हवा उसे डरा रही थी और पेट भीतर ही भीतर उमेठा जा रहा था। वह खामोश था, सोच शून्य।
भूख जब उसकी आँखों में उतरने लगी, पानी से निकाली गयी मछली हो गया वह। एक दम से दौडा और सामने की दूकान से समोसे उठा कर जितनी तेज हो सकता था भागा। तेज..और तेज..और तेज। चोर! चोर!! चिल्लाते दौड पडे लोग। जब भीड के हाँथ लगा तो अधमरा हो गया।तीन दिन से खाली था पेट। स्टेशन पर, बस अड्डे, घर-घर जा कर.....लोग तो भीख भी नहीं देते आज कल। लंगडा, लूल्हा, अंधा, कोढी हर मुद्रा आजमा आया था। धत्! किसमत ही साली......उसने सडक पर पडे पत्थर को भरपूर लात मारी। हवा उसे डरा रही थी और पेट भीतर ही भीतर उमेठा जा रहा था। वह खामोश था, सोच शून्य। निगाहें हर ओर कि कहीं कुछ मिल जाये, जूठा पत्तल ही सही। धूप तेज थी, सिर चकराने लगा। वह पेड के नीचे आ खडा हुआ। फिर दूर दीख पडते हैंडपंप से जैसे उसमे रक्त फिर चल पडा हो। वह तेजी से हेंड पंप की ओर लपका। हैंडल दबाई, उठाई...ओं..आँ...खटर..पटर...और गट गट गट....जितना पी सकता था, पी गया। थोडा सुकून मिला उसे।
”कल भी कुछ न मिला तो मर जायेगा वह” उसने सोचा। उसे कुछ न कुछ तो करना ही था। फिर अंधा, लंगडा, लूल्हा बन कर स्टेशन हो आये या फिर भीड भाड वाली सडक....उहूं, उसे बहुत जोर की भूख लगी थी और क्या पता कल भी किसमत खराब हुई तो? “चोरी???” एक दम से विचार कौंधा, फिर हाल ही में हुई पिटाई का दर्द महसूस होने लगा उसे, जिसे भूख नें जैसे भुला ही दिया था। नहीं नहीं चोरी नहीं...घबरा कर अपना विचार बदल देना चाहा उसने। लेकिन भूख!!!!....।
सामने ही कोई सरकारी कार्यालय था। शाम लगभग ढल चुकी थी इस लिये सुनसान भी। एक बूढा सा चौकीदार गेट के पास स्टूल लगाये तम्बाकू मल रहा था। उसने बहुत ही नीरस निगाह इस इमारत पर डाली। निगाहें इससे पूर्व कि सिमटतीं, इमारत पर ही ठहर गयीं, एक चमक थी अब उनमें। थोडी देर में रात हो जायेगी। चौकीदार कौन सा जाग कर रात भर ड्युटी देगा। उसने देखा घिरी हुई दीवार ज्यादा उँची न थी।.....।रात हुई। घुप्प संन्नाटे में झिंगुर चीख रहे थे। वह दीवार फाँद कर भीतर प्रविष्ठ हुआ। बहुत सधे पाँव। खिडकी से हो कर बडी ही सावधानी से लडकते हुए कुछ लाल-पीले तार नोच लिये, बल्ब निकाल लिया, होल्डर खोल लिया, और भी...काली रंग की उस पोलीथीन में जो कुछ डाल सका। रामदरस दस रुपये तो देगा ही इतने के, उसने सोचा। वह उतर ही रहा था कि.....”धप्प!!!!!”। पॉलीथीन हाँथ से छूटा और फिर जोर की आवाज़...कौन?? कौन है वहाँ?? चौकीदार के जूतों की आवाज नें सन्नाटा चीर दिया था। जब तक चौकीदार आता, दीवार फाँद चुका था वह। दीवार के उस ओर बहुत हार कर बैठा वह हाँफ रहा था...“किसमत ही साली....”।
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ऑफिस में हो हल्ला मचा हुआ था।
“अजी साहब वो तो मैंने देख लिया कहिये, वर्ना आज हम सब...” शर्मा जी गर्व से बता रहे थे।
” क्या हो गया है हमारे देश को शर्मा जी, एवरीवेयर आतंकवाद है। आपने पुलिस को फोन तो कर दिया न?” घबराये अंदाज़ में मिसेज मिश्रा बोलीं।
”मैनें बम को देखते ही कर दिया था जी, वो जी अब पुलिस तो आती ही होगी जी”। सुब्रमण्यम नें नाक का चश्मा ठीक करते हुए कहा।
“हाऊ स्वीट सुब्रमण्यम” मिस लिलि नें भरपूर मुस्कान दी और सुब्रमण्यम जी, घोडा हिनहिनाये सी हँसी हँस कर रह गये।
”क्या कहें बनवारी लगता है पतन होता जा रहा है दुनियाँ का। जहाँ देखो वही लूटमार, छीना झपटी, बम धमाके। अमां दहशत का आलम ये है कि हमने सुना था कि एक केला और दो सेव थैले में रख कर, बम और पिस्तौल बता कर हवाई जहाज का अपहरण कर लिया था किसी नें”। मिर्जा साहब नें गहरी स्वांस छोडते हुए कहा।
काले रंग की प्लास्टिक एक कोनें में देखी गयी थी, जिसमें से झाँकते कई तरह के तार उसे संदिग्घ बना रहे थे। ऑफिस में बम होनें की दहशत थी। कर्मचारी भीड बनाये सडक पर खडे थे। सारे बाज़ार में बम होने का तहलका, गर्मागर्म खबरों और अफवाहों से बाज़ार गर्म।“आपने सुना मिर्जा साहब, क्या ज़माना आ गया है” पान लगाते हुए बनवारी बोला।
”एक हमारा ज़माना था बनवारी, हमारे बाप-दादाओं का ज़माना था, अमन और सुकून की दुनियाँ थी और आज....”
“आदमी की तो कीमत ही नहीं रही। इतना खौफ फैला है कि जान तो हवा में लटकी होती है। सुबह घर से निकले तो क्या पता शाम तक घर लौट पायें भी या नहीं।“
“अजब अंधेरगर्दी है मियां। गलती हमारी गवरन्मेंट की है कि रोजगार तो देते नहीं ये लडकों को। अब लडके बंदूख न चलायें, बम न चलायें तो क्या करें?”
”वैसे मिर्जा साहब कितने बच्चे हैं आपके” बनवारी नें चुहुल से पूछा।
“खुदा के फज़ल से नौं लडकें हैं तीन लडकियाँ।“
“मिर्जा साहब, छ: घरों की संतान अकेले अपने घर में पालोगे तो क्या करेगी गवर्नमेंट”
”अमां बनवारी तुम मज़ाक न किया करो हमसे, अच्छा लाओ, एक पान और बनाओ। वैसे पता कैसे लगा कि बम रखा है” मिर्जा साहब बिगड गये।
”वो किरानी हैं शर्मा जी। इमानदार इतने कि भले कोई काम न करें आधा घंटे पहले ऑफिस आ जाते हैं। उन्होंने ही देखा।“
”क्या कहें बनवारी लगता है पतन होता जा रहा है दुनियाँ का। जहाँ देखो वही लूटमार, छीना झपटी, बम धमाके। अमां दहशत का आलम ये है कि हमने सुना था कि एक केला और दो सेव थैले में रख कर, बम और पिस्तौल बता कर हवाई जहाज का अपहरण कर लिया था किसी नें”। मिर्जा साहब नें गहरी स्वांस छोडते हुए कहा।
सायरन की आती हुई आवाज़ ने माहौल को और गंभीर बना दिया।
”लीजिये पुलिस आ गयी लगता है” बनवारी नें पान मिर्जा साहब को थमाते हुए कहा।
पुलिस की दसियों गाडियाँ आ कर रुकीं। धडाधड पुलिस वाले उतरने लगे। बम को निष्कृय करने के लिये एक पूरा दस्ता आया हुआ था। चारों ओर मोर्चा बँधा। अंतरिक्ष यात्रियों जैसी पोशाकें पहने दो लोग धीरे धीरे बढने लगे पॉलीथीन में लिपटे उस बम की ओर।...। माहौल जिज्ञासु, शांत। चारों ओर से आँखें पुलिस कार्यवाही की ओर।...। निकलता क्या? तार के लाल पीले टुकडे, होल्डर और वही सब कुछ जो पिछली रात...।
“शर्मा जी पूरे अंधे हैं आप, बेकार में....” मिसेज मिश्रा नें नाराजगी जाहिर की।
”और आप सुब्रमण्यम जी, कौवा कान ले कर जा रहा है सुना तो कौवे के पीछे भागने लगे। देख तो लेते आपके कान सलामत हैं या नहीं” मिस लिली बोलीं।
“बनवारी ये नौबत है देश की” एक दीर्ध नि:स्वांस भरी मिर्जा जी नें और जाने लगे।..।
*** राजीव रंजन प्रसाद
25.08.1993
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17 कहानीप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी
आपने समाज के दो वर्गों का चित्रण किया है । हमारे समाज की विषमता सचमुच आश्चर्य में
डाल देती है । कहानी विचार प्रधान है । एक सार्थक प्रयास के लिए बधाई ।
राजीव जी,
विचारों की स्पष्ट व प्रभावी अभिव्यक्ति है आप की कहानी. पेट की खातिर लाचार व्यक्ति और बात का बडतंग बनाते और शेखी बघारते लोगों का सजीव चित्रण.
राजीव जी!
कहानी भाव तथा कथ्य की दृष्टि से बहुत सुंदर है. कहानी के दोनों भाग आकर्षक बन पड़े हैं, परंतु दोनों में परस्पर कोई विशेष सम्बंध नहीं बन पाया है. इस कारण यह एक सम्पूर्ण कहानी की बज़ाय दो अलग-अलग लघुकथाओं सी अधिक प्रतीत होती है. आशा है कि अगली बार आप इसका प्रतिउत्तर एक बेहतरीन रचना से देंगे.
बहुत ही मार्मिक कहानी, दिल को छू गई! इस कहानी में आपने जो कुछ भी लिखा है वह कहीं भी काल्पनिक प्रतित नहीं होता।
लाचारी से अपराध का जन्म और बिना जानकारी के कुछ भी कह देने की व्यक्तियों में पनपती आदत से अफ़वाह का जन्म, इस कहानी के दो महत्वपूर्ण पहलू लगे।
एक उम्दा कहानी रचने के लिये बधाई!!!
बन्धुवर राजीव जी
कहानी बम बहुत ही सन्तुलित और सधी हुयी लगी. संवादों की अपने आप में सम्पूर्णता बहुत ही प्रभावित करता है. कहीं पर ऐसा नहीं लगता है कि कहानी पढी ज़ा रही है. सारा घटनाक्रम आंखों के सामने घटित होता हुआ लगने लगता है. मेरे विचार में यही इसकी शक्ति है. थोडी सी नाटकीयता और एक गम्भीर संदेश बधाई.
जबरदस्त....बधाई!!!
तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.
rajeev ji baki sabhi kathakaro ka samman karte hue kahna chahunga ki yeh kahani kalash ki ab tak ki sabse shandaar prastuti hai, do alag alag duniya, sab kirdaar ek doosare se alag magar fir bhi kitne sarthak roop se aapne kadi bithaiyi hai padh kar anand aa gaya badhai
राजीव जी,
देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। कहानी का प्लॉट ही ऐसा चुना आपने,जो पाठको को झकझोड़ डालती है और अपने इसी आस-पास के समाज के बारे मे सोचने को मजबूर करती है। प्रस्तुतीकरण का तरीका भी अनोखा था- वेदना और व्यंग्य का सामंजस्य।
पर ये दोनो धाराएँ अगर एक साथ बहती होती, तो और मजा आ जाता। अपने पहले के एक टिप्पणी से मै सहमत हूँ, कि ये दो अलग अलग- अपने आप मे सम्पूर्ण- लघुकथाओ का संकलन लग रहा है। एक बात का डर है मुझे कि निकट भविष्य मे ’कहानी-कलश’ पर भी इस नवीन प्रयोग का अनुकरण ना शुरू हो जाए। (वैसे भी ’हिन्द-युग्’ पर आजकल क्षणिकाओं की बाढ सी आ गई है[बुरा ना माने!(सभी रचनाकार मित्र)]और उसकी भी शुरूआत आपने ही की थी।)
इस प्रयोग मे यूँ तो कोई विशेष आपत्ति नही है, पर शायद मेरे ख्याल से कहानी की सार्थकता क्षणों/घटना-विशेष की अभिव्यक्ति मे नही,वरन उनके बीच तन्तु बुनने एवं जोड़ने मे सिद्ध होती है।
एक बात और- पहली लघुकथा मे काव्यात्मक शास्त्रियता और कमनीयता ज्यादा दिख रही है.... शायद मार्मिकता बढाने हेतु ऐसा किया गया हो! हाँ,दूसरी लघुकथा सचमुच एक परिपक्व लेखक की पैनी नजर को दर्शा रहा है।
कहानी कलश पर आगे आपसे ऐसी ही प्रासंगिक सशक्त कथानको का इंतजार रहेगा।
श्रवण
राजीव जी,पहले तो देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। आपने अपनी कहानी का जो विषय लिया है , वह बड़ा हीं सामयिक है। प्रस्तुतिकरण भावों के अनुरूप है। आपने देश की दो भीषण समस्याओं को एक सूत्र में जिस तरह से पिरोया है, पाठक उससे जुड़ जाता है।
आपकी अगली कहानी की प्रतीक्षा रहेगी।
बहुत ही मार्मिक कहानी..राजीव जी,.. दिल को छू गई...कहानी का जो विषय लिया है .. वह बड़ा आकर्षक है,अगली कहानी की प्रतीक्षा रहेगी...बधाई.
जब भूख लगी होती है, तो ज़िन्दा होता है सिर्फ पेट।
भूख जब उसकी आँखों में उतरने लगी, पानी से निकाली गयी मछली हो गया वह
लंगडा, लूल्हा, अंधा, कोढी हर मुद्रा आजमा आया था।
हैंडल दबाई, उठाई...ओं..आँ...खटर..पटर...और गट गट गट....जितना पी सकता था, पी गया।
वाह!
भूख को कितने सारे तरीकों से दिखाया है आपने...यह कुशलता काबिले-तारीफ है। यह पहला अंश बहुत मार्मिक लगा। दूसरा अंश हालांकि इससे पूरी तरह जुड़ा है और कहानी को सम्पूर्ण करता है, लेकिन मैं उससे उतना जुड़ नहीं पाया।
कहानी-कलश पर आपका स्वागत।
कहानी के दो अंक दो अलग अलग शैली में लिखे गये हैं जिससे यह कहानी अलग प्रभाव छोड रही है। दोनों अंको को ले कर जो चर्चा चल रही है वह दृश्टिकोण के कारण है। दोनों अंक तार और होल्डर की चोरी से जुडे है और भूख केन्द्रीय भाव है। कहानी यथार्थ से परिचित करा रही है।
दिल की कलम से
नाम आसमान पर लिख देंगे कसम से
गिराएंगे मिलकर बिजलियाँ
लिख लेख कविता कहानियाँ
हिन्दी छा जाए ऐसे
दुनियावाले दबालें दाँतो तले उगलियाँ ।
NishikantWorld
बढ़िया चित्रण!!
बधाई!!
पेट की भूख कितनी विकट होती है और वह आदमी से क्या क्या करवा सकती है, आपने अपनी कहानी के माध्यम से इसका सशक्त वर्णन किया है। एक अच्छी और दिल को छूने वाली कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई।
राजीव जी,
यह सच है कि प्रथम भाग हिला देने वाला है, लेकिन द्वितीय भाग उपसंहार है और ज़रूरी भी। जब दुनिया दुनियादारी की बात कर रही हो तो उसमें दर्द कहाँ होगा , वो तो होता ही है एक बनावटी चित्र। बढ़िया कहानी है।
श्रीकान्त जी आपकी कहानी बहुत अच्छी और बहुउद्देशीय लगी । बधाई
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