Friday, September 7, 2007

शर्त

अखिल ने दरवाजा खोला तो सौमित्र को सामने खडा पाया। सौमित्र की आँखों में अजीब सी चमक देखकर अखिल ताड गया कि साहब कोई बडी़ खुराफात कर के आए हैं।

"क्यों सौमित्र, आजकल आते नहीं हो बेटे?", अखबार पढते पढते अखिल के पिताजी ने पूछा.
"नमस्ते अंकल, क्या अंकल... आता तो हूँ, आता ही रहता हूँ।"
इतना कहते कहते ही सौमित्र ने अखिल को ले कर छत पर जाने की तैयारी करली थी और आँखों से ही उसे छत की तरफ चलने का इशारा भी कर रहा था।
"अखिल, ये कोई ऐसी वैसी हमेशा की तरह वाली बात नहीं है, अरे क्या बनाया है उसको ऊपरवाले ने, क्या बताऊँ अखिल", अब तक सौमित्र का हाथ उसके दिल पर पहुँच चुका था। दिल थाम के उसने बात आगे बढाई, " और उसकी आँखों के क्या कहने, एक बार जो देखे, घायल हो जाए, मेरी नज़रों के सामने से उसकी आँखे हटती ही नहीं दोस्त!"

इस छत ने इन दो यारों के कितने ही राज बडे ईमान के साथ दिल में पालें हैं। आज फिर से वही छत एक नई कहानी सुनने को मानो बेताब हो रही थी।

"अखिल, मेरे यार! आज खल्लास हो गए बोस!", सौमित्र अखिल को पकडकर बोला।
"तुझे एक साँवली लडकी दिखी", अखिल ने ज़रा भी उत्साहित ना होकर कहा। उसकी आँखों में कोई अचरज नजर नही आ रहा था।
"क्या ज्योतिषी हो भाई", सौमित्र ने अखिल कि तरफ हैरानी से देखकर कहा।
"सौमित्र, तुम्हे दिखाई देने वाली हर साँवली लडकी तुम पर ऐसा ही प्रभाव डाल कर जाती है, इस बात कि मुझे आदत हो गई है", अखिल ने गंभीर लहजे में कहा।
"अखिल, ये कोई ऐसी वैसी हमेशा की तरह वाली बात नहीं है, अरे क्या बनाया है उसको ऊपरवाले ने, क्या बताऊँ अखिल", अब तक सौमित्र का हाथ उसके दिल पर पहुँच चुका था। दिल थाम के उसने बात आगे बढाई, " और उसकी आँखों के क्या कहने, एक बार जो देखे, घायल हो जाए, मेरी नज़रों के सामने से उसकी आँखे हटती ही नहीं दोस्त!"

"सच्ची अखिल," कहकर सौमित्र एक हाथ हवा में उठाकर और आसमान कि तरफ देखकर अपने ही से कुछ कह रहा हो यों शुरू हो गया.

वो गई
उसकी नज़रें
रह गई

सुध बुध मेरी
उसकी धुन में
बह गई

वो गई
मुझ को मुझसे
ले गई

मीठा मीठा
दिल का दर्द
दे गई

"अब खुद जागोगे, या पानी लाना पडेगा", अखिल सौमित्र को हिला रहा था, मानो नींद से जगा रहा हो।
"जाओ, यार! तुम सब लोग बेदर्द हो! दिल का दर्द क्या समझोगे भला", अब सौमित्र गुस्सा होकर दिखा रहा था।
"अब हमने क्या किया है", अखिल पेरापेट की तरफ जाता हुआ बोला, "जाग गए होगे तो क्या हुआ, कैसे हुआ? कुछ बकोगे, तो पता चले"
सौमित्र फिर से अखिल के पास पहुँचा, पेरापेट से टेंक कर बताने लगा, "अलका स्टोर में दिखी"
"कैसी थी नहीं पूछूंगा, अकेली थी?", सौमित्र
"कैसी थी याने, हाय क्या आँखें थी यार..."
"ओए हेलो, कैसी थी पूछा ही नहीं है, वो मुझे पता चल चुका है, अकेली थी?"
"हाँ यार अकेली थी, उसने एक बार मेरी तरफ देखा भी था", सौमित्र ने आँखे बंद की मानो फिर उसका चेहरा याद कर रहा हो और फिर आसमान कि ओर देखने लगा।
"तो गई ना वो?"
"हाँ मगर माधव नगर में ही तो रहती है, अपने कालेज के रास्ते में ही तो पडता है घर उसका"

अब अखिल की चौंकने कि बारी थी, "तुझे कैसे पता के वो माधव नगर में रहती है?", उसने चिल्लाकर पुछा।
सौमित्र कहीं और देख रहा था, जैसे उसे कुछ सुनाई ही ना दिया हो।
"कम आन सौमित्र! तुमने लडकी का पीछा किया?"
"..."
"व्हाट! सौमित्र क्या हो गया है तुझे? तुमने एक लडकी का पीछा किया, आज तो हद हो गई"
"मेरी कोई गलती नहीं है", सौमित्र रोनी सी सूरत लेकर कहने लगा, "मै कोई गुंडे कि तरह उसका पीछा थोडे ना कर रहा था, उसके साथ स्टोर से बाहर निकला तो गाडी अपने आप ही उसके पीछे हो ली"
"अपने आप?", अखिल की आवाज़ अभी भी पैनी ही थी।
"हाँ यार, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, मुझे कुछ हो गया था। कुछ कर दिया था उसने।

सौमित्र को विदा करते समय अखिल यही सोच रहा था के कुछ ही दिनों में ये भी भूत उतर जाएगा, और गाडी फिर सीधे रास्ते पर आ जाएगी। मगर इस बार उसे सौमित्र बहुत बदला बदला सा लगा था। एक लडकी आदमी की जिन्दगी में इतना उथल पुथल मचा सकती है? अखिल इस बात को कभी मानने के लिये राजी नही होता। मगर अखिल को जो लग रहा था वैसा कुछ हुआ नहीं, क्योंके एक हफ्ते में ही सौमित्र उसे फिर छत पर ले आया।

आज सौमित्र बहुत खुश था। इतना खुश सौमित्र को अखिल ने कभी नही देखा था। बहोत अच्छा लग रहा था। हर सुख दुख में साथ रहने वाले मित्र को खुश देखने जैसा आनंद नहीं होता।
"क्या भाई, क्या चल रहा है?"
"उसने हाँ कह दिया", अखिल को यूँ लगा जैसे सौमित्र ये कहते हुए शरमा रहा था।
"हो ही नहीं सकता। अबे ऐसा भी कभी होता है। पूरी बात बताओ? अभी तो तूने देखा था, बात कब हुई? हाँ कैसे हुई?"
"अरे, अरे, सब बताता हूँ। वही बताने तो आया हूँ", उसे भी तो सब कुछ बताने की जल्दी थी।

"फिर कालेज जाते समय मैं उसके घर के पास से गुजरने लगा, उसका घर कालेज के रास्ते पर ही आता है ना"
"एक मिनट", अखिल बात बीच मे काट कर बोला, "मै भी नागपुर में ही रहता हूँ, माधव नगर कबसे तुम्हारे कालेज के रास्ते में आने लगा? ये तो बताओ ज़रा?"
"क्या यार, तुम्हे कैसे समझाऊँ। आजकल कही भी जाना हो तो उसका घर रास्ते में ही पडता है"
"ठीक है ठीक है, आगे...?"
"हाँ, फिर एक दो बार अलका स्टोर में भी उससे टकराना हुआ"
"अच्छा, अपने आप ही हुआ होगा, है ना?", अखिल खिल्ली वाले अंदाज में बोला।
"हाँ, हम सब समझते है, कान काट रहे हो", अब ज़रा बडी आवाज़ में सौमित्र ने बात पुरी की, "हाँ अपने आप ही हुआ ऐसा, अब आगे सुनना है या भविष्य वाणी ही करते रहोगे?"
"अच्छा भाई, आगे?"
"कल मैने अपनी सारी हिम्मत जुटाकर अलका स्टोर में उसे अपना कार्ड थमाया"
"तुम्हारा कैसा कार्ड?"
"अरे हमने वो शौकिया तौर पर नहीं छपवाये थें, वो.., उसी में से एक दे दिया"

"बढिया, प्रभू आपके चरण कहाँ है", कहकर अखिल सौमित्र के पाँव छूने या खींचने के लिये नीचे झुकता, इतने मे सौमित्र ने उसके दोनो कांधे अपने हाथों से पकड लिये और आगे कहने लगा, "मैने उसे कह दिया तुम मुझे अच्छी लगती हो, मुझे तुम्हारा जवाब चाहिये, सोचना और अगर हाँ में जवाब देना हो तो कल अलका स्टोर में मत आना, मैं समझ जाऊँगा तुम्हारी हाँ है, और अगर ना कहना हो तो अलका स्टोर में किसी भी बहाने चली आना"

"......", सन्नाटा.
दो मिनट कोई कुछ ना बोला. अखिल टकटकी लगाकर सिर्फ सौमित्र कि तरफ देखता रहा। सौमित्र चेहरे पर प्रश्नचिन्ह लिये अखिल को देखता रहा। और फिर अखिल से रहा नहीं गया और वो ठहाके लगा कर हँसने लगा।
"हो..हो..हो.. फिर बताओ फिर बताओ, तुमने क्या शर्त रखी?"
"मैने कहा, सोचो और तुम्हे अगर हाँ कहना हो तो अलका स्टोर में मत आना"
"एक मिनट, क्या? हाँ कहना हो तो अलका स्टोर में मत आना", अखिल की हँसी रूक ही नहीं रही थी, वो सौमित्र की शर्त दुहराने लगा, "हाँ कहना हो तो अलका स्टोर मे मत आना"
"हाँ के लिये मत आना", अखिल जैसे वही बात फिर से कहकर तसल्ली कर रहा हो के उसने वही सुना है।
"हाँ, और ना कहना हो तो कोई भी बहाना करके अलका स्टोर में कल आ जाना", सौमित्र ने शर्त पूरी कह के दिखाई।
सौमित्र दार्शनिक अंदाज़ में कहने लगा, हाथ ऊपर उठाकर गालों पर उंगली रखकर बोला, "मैने बहुत सोच समझ कर ये शर्त रखी थी। बहुत सोचा था मैने। रात रात सोचा था। सोते जागते सोचा था। मैने उसका हाँ कहना आसान कर दिया। अगर उसे ना कहना होता तो वो आज जरूर अलका स्टोर में कोई भी बहाना करके आती, वो नहीं आयी, उसने हाँ कह दी", उसका डाँस फिर चालू हो गया।

अखिल जब हँस हँस के थक गया तो रूक गया।
सौमित्र की तरफ देख कर बोला, " मेरे भोले बालम, आपने ऐसी उल्टी शर्त क्यों रखी?"

मगर...
सौमित्र अपनी ही धुन में सँवार था। अपनी ही बात कहता गया, " सुनो तो, आज जैसा तय था, उसे नहीं आना था और वो नहीं आई, क्या बताऊँ यार वो आई ही नही", अब सौमित्र के हाथ बल्ले बल्ले के एक्शन में लग गये थे।
"अखिल! मेरे दोस्त मेरे भाई। उसने मुझे हा कह दिया रे", सौमित्र अभी भी सपने में खोया हुआ लग रहा था।

"सौमित्र, मेरी तरफ देखो, तुमने ऐसी शर्त क्यों रखी, तुमने ऐसी उलटी शर्त क्यो रखी भाई मेरे?"
सौमित्र दार्शनिक अंदाज़ में कहने लगा, हाथ ऊपर उठाकर गालों पर उंगली रखकर बोला, "मैने बहुत सोच समझ कर ये शर्त रखी थी। बहुत सोचा था मैने। रात रात सोचा था। सोते जागते सोचा था। मैने उसका हाँ कहना आसान कर दिया। अगर उसे ना कहना होता तो वो आज जरूर अलका स्टोर में कोई भी बहाना करके आती, वो नहीं आयी, उसने हाँ कह दी", उसका डाँस फिर चालू हो गया।
अखिल को समझ में नहीं आ रहा था कि इस बीमार का इलाज कैसे किया जाए। एक तो हँस हँस के उसका दम निकल गया था। उसने कहा, "रुको, पहले मैं नीचे से गरम गरम काफी ले आता हूँ। फिर बात करेंगे।" और वो काफी बनाने के लिये निकल गया।

सौमित्र दिल थाम कर आसमान की तरफ देखता हुआ खडा रहा।

कॉफी के साथ अखिल एक दरी ले आया। सौमित्र के साथ नीचे दरी पर बैठ कर काफी सौमित्र को थमाकर अखिल ने कहना शुरू किया।
"देखो दोस्त, अब ज़रा ठंडे दिमाग से सुनो। देखो जिस लडकी का तुम से कोई रिश्ता नहीं वो तुम्हे ना कहने के लिये भी, तुम्हारे लिये सोच कर अलका स्टोर क्यों आयेगी? कोई क्यों तुम्हारे बारे में इतना सोचेगा जिसको ऐसा करने की कोई वजह ही नहीं है?"
"याने? ऐसा क्यों कह रहे हो?" सौमित्र समझने को तैयार ही नही था।
लग रहा था यूँ सौमित्र अपने हवा महल से निकलने को तैयार ही नहीं है। अब अखिल से रहा नहीं गया।
"सौमित्र, स्टाप ईट, स्टाप धिस स्टूपीडीटी एण्ड थिंक रेशनली, अबे कौन कहाँ की लडकी, जिससे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं तुम्हारे बारे में क्यों सोचेगी", अखिल जोर से उबल पडा।
"तुम किसकी तरफ हो? मेरे या लडकी के?", सौमित्र ने मजा़क उडाना चाहा।
अखिल ने आँखे जितनी बडी हो सकती थी, करके दिखाई।
"दिस इज नाट फेयर, उसे ना कहना होता तो वो आज अलका स्टोर आई होती", सौमित्र बच्चे की तरह मुँह बनाकर धीरे धीरे कह गया।
"सुनो मै हूँ वो लडकी," अखिल ने एक और तरीका अपनाना चाहा, "मुझे हाँ नही कहना, और मुझे नहीं आना अलका स्टोर में ना कहने के लिये. तुम कौन हो मेरे, जो मै इस बात का खयाल रखूँ के ना कहने के लिये मुझे कहीं जाना पडेगा। ना कहना है मुझे, ना कहना है, और आना भी नहीं है अलका स्टोर किसी आशिक की उलटी शर्त रखने के लिये, क्या कर लोगे?", अखिल जैसे सच में ही वो लडकी बन गया हो, उखड के दिखा रहा था।

अब सौमित्र भी चिढ़ गया। "आय डॊंन्ट एग्री विद यू।"
सौमित्र की आवाज सख़्त हो गई है। सौमित्र गुस्सा हो रहा है ये अखिल कि समझ में आ रहा था। उसे अच्छा भी लग रहा था। इससे ये पता चल रहा था कि सौमित्र को भी अखिल की बात अब जरा जरा समझ में आ रही है। फिर धीरे-धीरे सौमित्र ठंडा होता गया। मुरझा गया। उसकी बत्ती अब पूरी जल चुकी थी। अपनी शर्त की कमजोरी उसे समझ में आ गई थी। 'फिर मिलेंगे' कह कर बेचारा चला गया।

अखिल अकेला सोचता रहा। अब असे लग रहा था के उसने खामखा ही इतना उखड कर दिखाया। सोचने लगा "नहीं तो क्या, कुछ भी"
"कुछ भी शर्त रखना, और हा हो गई बोलके नाचने लगना, ये कोई बात थी"
मगर बहुत उदास होकर गया पठ्ठा। अखिल से भी रहा नही गया। उसने स्कूटर निकाला, माँ से कहा माँ जरा सौमित्र के घर हो आता हूँ और किक लगाई।

"नमस्ते आंटीजी, सौमित्र कहाँ है?" अखिल ने सौमित्र कि माताजी से पुछा।
"स्टडी में होगा बेटे", सौमित्र कि माँ ने रसोई से ही जवाब दिया।
साहब चुहे सा मुह बनाकर कोहनियाँ टेबल पर और सर उंगलियों में पकडकर बैठे थे।
"मुझसे बहुत गुस्सा हो, सारी यार", अखिल ने बात शुरू की।
"नही यार। मै ही पगला गया था।" अब सौमित्र पुरी तरह जमीन पे आ चुका था। " मै ही कुछ भी सोच बैठा।"
उसका चेहरा उदास, आँखे गीलीं हो गई थीं।
"जाने दो यार, भूल जाओ, चल फिल्म देखने चलेगा, सब भूल जायेंगे, मजे करेंगे", अखिल ने जुगत लगाई।
"हाँ, देखो तो अखबार में जरा, स्मृती में कौन सा लगा है आज?", सौमित्र सम्भलकर थोडा सा हसके बोला।

तभी फोन बज उठा।
अखिल पास मॆं था उसने उठाया।

"हेलो, कौन सौमित्र बात कर रहें हैं?", एक लडकी की आवाज़।
"नहीं उसका दोस्त अखिल, एक मिनट उसे अभी देता हूँ" ये कहते ही उसने फोन सौमित्र को दे दिया।
अखिल बार बार इशारे करके पुछ रहा था कौन है कौन है, सौमित्र ने धिरे से स्पीकर आन कर दिया, अब लडकी की आवाज सबको सुनाई देने लगी।
"...हाँ आपकी बहन की मै सहेली, बहुत सुना है आपके बारे में। और क्यों जनाब? आज अलका स्टोर में मै जैसे तय था नहीं आई, लेकिन आगे क्या ये तो आपने बताया ही नहीं?"

"..हेलो, हेलो" उधर फोने से आवाज आ ही रही थी, मगर इधर सौमित्र ने अखिल को बाहो में भर लिया था और वे दोनों उसी अवस्था में नाच रहे थे।

"हेलो हेलो सौमित्र जी आप हैं ना?"
इधर बिना संदल भांगडा चल रहा था।

तुषार जोशी, नागपुर

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14 कहानीप्रेमियों का कहना है :

Unknown का कहना है कि -

बन्धु तुषार जी
युवा मन पर पैनी पकड रखते हुये आपने फिर से मेरी नागपुरीय स्मृतियां ताजा करदीं आपके कथानक की यही विशेषता है कि संवाद के सहारे ही आप सारा ताना बाना बुनते हुये सामयिक पात्रो एवं परिवेश से परिचय करा देते हैं. हास्य का समावेश तथा निरंतरता मन को हल्का बनाये रखते हैं.
शुभकामनाओं सहित
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'

विश्व दीपक का कहना है कि -

तुषार जी,
प्रेम पर आपकी जबर्दस्त पकड़ मालूम पड़ती है।बड़ी हीं खूबसूरती एवं चंचलता से आप किरदारों को पेश करते हैं। पाठक पूरी तरह डूब जाता है आपकी कहानी में , मानो नायक वहीं हो। कहानी-कलश पर आपने प्रेम को जिन्दा रखा है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। कहीं ये आपकी अपनी कहानी तो नहीं :)

Tushar Joshi का कहना है कि -

श्रिकान्त जी,
आप को मेरी रचना से नागपुरीय यादें मिलतीं हैं इस बात कि मुझे खुशी है। कहानियाँ पढ़ते पढ़ते मुझे हमेशा ये लगता आया है के क्या हमारे नागपुर में कहानियाँ नहीं होती, तो क्यों लोग सिर्फ मुम्बई, दिल्ली के संदर्भ प्रयोग करते हैं। फिर समझ में आया अगर नागपुर का लेखक अपने नागपुर के संदर्भ प्रयोग करेगा, तभी ये होगा। फिर क्या था मैं अपनी कहानीयों में नागपुर के भरपूर संदर्भ प्रयोग में लाऊंगा।

आपका
तुषार

Tushar Joshi का कहना है कि -

तनहा जी,
धीरज रखें मेरी कहानी आते आते आयेगी, अभी तो आप मेरे आसपास की कहानियाँ पढ़िये।
आपको मेरी कहानी पसंद आयी इस बात मि मुझे बेहद खुशी है।

आपका
तुषार

Prof. Suresh Khedkar का कहना है कि -

Liked Tushar Joshi's "Shart". Congratulations to him.
Prof.(Er.) Suresh Khedkar, Nagpur

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

तुषार जी,

कहानी कोतूहल से ओतप्रोत है..
अंत तक बांधे रखती है.
मनोभाव सशक्त तरीके से दर्शाये है..
सचमुच काहानी सजीव बन पड़ी है..
कई बार सम्वाद पढते वक़्त आखें गीली भी हुयीं तो कई बार होठों पर खिंचाव महसूस किया

बधाई.....

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

वाह!

कहानी बहुत ही मजेदार है तुषारजी, भावनाओं से ओत-प्रोत, किशोर मन को बहुत ही सहजता से आपने चित्रित कर दिया है। मित्र के बीच का प्रेम-संबंध भी आपने अखिल एवं सौमित्र के माध्यम से अच्छे से प्रस्तुत किया है।

बधाई स्वीकार करें!

Sajeev का कहना है कि -

गिरी की बात से मैं भी सहमत हूँ तुषार जी, कहानियाँ ऐसी सरल ही होनी चहिये जिससे हर कोई अपने आप को जोड़ सके

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुंदर और सरल कहानी तुषार जी सीधा दिल से जुड़ गई .अच्छा लगा इसको पढना और इस से जुडना

बधाई

शुभकामनाओं सहित

रंजना

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

तुषार जी,
आपकी सीधी सादी, प्यारी कहानियाँ, जिनमें हल्का सा विनोद का पुट भी होता है, पढ़ने पर एक आराम और हल्कापन सा देती हैं।
भागदौड़ की ज़िन्दगी में पाठक आपकी कहानियाँ पढ़कर मुस्कुराते हैं, इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं।
बहुत बधाई।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आप कहानी-कलश पर विविधता बरकरार रखे हुए हैं। पढ़कर अपने पुराने दिन भी याद आ जाते हैं।

SahityaShilpi का कहना है कि -

तुषार जी!
बहुत ही खूबसूरत और प्यारी कहानी है. संवाद भी बहुत सधे हुये और जीवंत हैं. बधाई स्वीकारें!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

तुषार जी,

बेहद सुन्दरता है आपकी लेखनी में। दिमाग की आवश्यकता नहीं पढने के लिये दिल हो काफी है। आपके आसपास की कहानी तो मनिरम है...आपकी कहानी का भी इंतजार हो गया है।

:)

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous का कहना है कि -

bjhbj

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