पिछवाड़े का अहाता, कोठा, आंगन, दुबारी, गाय के चारे की खोर, नीम का पेड़ और दरवाज़े की कुइआं--पूरे माहौल मे एक दमघोंटु सन्नाटा पसर कर बैठ गया है। यही सन्नाटा मनजीत के शरीर के हर हिस्से मे घुसकर सांय-सांय करके फनफनाता रहता है और दिल-दिमाग़ तो उसके शरीर का हिस्सा रहा ही नहीं।
बीजी अब आंगन मे मंझी डालकर अकेले बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। बैठे-बैठे आँखें कभी नीम की फुनगी पर अटक कर रह जाती हैं और कभी चौबीसों घंटे बंद रहने वाले दरवाज़ों की झिरियों मे।
हिलकी बंध जाती हैं-बेआवाज़।
हरबंस-उसकी ननद - के सत्तरह साला लुनाई भरे मखनी चेहरे पर दहशत की काली-कुट्ट स्याही घिर आई है। आंखों के नीचे स्याह घेरे ऐसे चिपकते जा रहे हैं, जैसे ठंडे हो गये चूल्हे की काली राख लपेट दी हो।
शन्नो - मनजीत की चार साल की बेटी की चुलबुलाती कंचे सी आंखों मे कड़वा-कसैला धुआं सा भर गया है। मनजीत के घुटनों मे मुंह गढाये घंटों पड़ी रहती है शन्नो।
शन्नो को तो संभालना है ही, हरबंस की जवान होती उमंगों और बीजी की सत्तर साल की झुर्रियों को अपनी कमज़ोर पड़ती बाज़ुओं मे लपेटे, मनजीत इस कुनबे पर घुमड़ आये हादसों के बादलों को टुकुर-टुकुर देखती रहती है - निष्पलक।
मनजीत को स्याह रंग के अलावा कोई रंग नज़र नहीं आता - ना आसमान मे, ना ज़िंदगी मे।
13 जून का अखबार, ज्यों का त्यों, आंगन मे पड़ा है। लगता है, कई दिन से इस घर मे हवा फड़फड़ाई ही नहीं। आज सत्तरह है - हादसे को घटे पांच दिन। ये पांच दिन पांच सदियों की तरह उसकी पुतलियों को अपने नुकीले पंजों मे जकड़कर बैठ गये हैं।
मनजीत की निगाह अखबार की बड़ी खबर मे उलझकर रह गयी- "अखनौरी मे आतंकवादियों द्वारा हत्या की केवल एक घटना"
अखनौरी मे ही रहती है मनजीत।
हरजिंदर ने मंजी भीतर खिसका ली थी। मनजीत ने थाली लगायी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। हरबंस पूरा सा खोल भी नही पायी थी कि सनसनाती हुई तीन-चार गोलियां दरवाज़े से आयीं और लम्हा भी नहीं लगा कि हरजिंदर की क़द्दावर देह मंजी पर ही ढेर हो गयी। उसके सीने से निकले गर्म ख़ून की धार से ही गर्म चूल्हे की आग सूंSSS करके ठंडी होती चली गयी।
12 जून की वह काली कलूटी रात --हाSSय, मनजीत के कलेजे मे घुटा हुई सांस का बगुला भक्क से निकल जाता है। दबे पांव आयी थी वो रात और पांव तले की ज़मीन हिला कर बीजी के आबरुदार बुढापे, हरबंस की जवान उम्मीदों, शन्नो की चुलबुलाती शैतानियों और उस की अपनी ज़िंदगी के रंगीन अरमानों को खाक़ करके चली गयी।हये रब्बा! रातें इस तरह चैन फूंकने की लिये आनी हैं, तो ना आयें, सिकते तपते दिन क्या कम हैं जलाने के लिये? उस रात के बाद इस आँगन मे सुबह तो हुई ही नही।
12 जून की शाम हरजिंदर घर वापस आ चुका था। दो दिन - 12 और 13 की छुट्टियां थीं, कितने ही काम सोचे हुए थे उसने, चलो जी कुछ काम तो निपट गये आज।
बीजी का माता के दरबार मे मत्था टिकाने का मन था-सो उनका जम्मु के लिये रिज़र्वेशन हो गया, हरबंस के लिये कसौली कलां गया था -मुंडा तो ठीक-ठाक है, उम्मीद है शगुन की तारीख भी छेत्ती तय हो जानी है। और हां, शन्नो के स्कूल का फ़ारम भी भर गया। बस तेरह यानि कल सवेरे रेडिओ-स्टेशन जाके गीतों का कार्यक्रम दे देना है-वोही जी अमन-चैन,प्यार-मुहब्बत और धार्मिक एकता के गीत।
ओये फुद्दु! मनजीत की तो भूल ही गया, ना-ना, कल शाम इसको पिक्चर दिखानी ही दिखानी है, ज़रूर।
पिछले साल बैसाखी से पहले गदर दिखाई थी।
मरना थोड़े है हरजिंदर को मनजीत के हाथ।
चलो जी -ठीक है
हरबंस ने मंजी डाल दी वीर जी के लिये, शन्नो कंधों पर चढ बैठी।
मनजीत भी प्याज़ के दो परांठे और लस्सी का गिलास लेकर पीढी साथ ही डाल कर बैठ गयी, इस मक्खण से तय करले कि कल कौन सी पिक्चर दिखानी है इसने।
शाम ढल गयी,सर्दियों के दिनों मे दिन होते ही छटंकी बराबर हैं। कहलो शाम, रात ही घेर घोट कर बैठ जाती है शाम से।
हरजिंदर ने मंझी भीतर खिसका ली थी। मनजीत ने थाली लगायी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। हरबंस पूरा सा खोल भी नही पायी थी कि सनसनाती हुई तीन-चार गोलियां दरवाज़े से आयीं और लम्हा भी नहीं लगा कि हरजिंदर की क़द्दावर देह मंझी पर ही ढेर हो गयी। उसके सीने से निकले गर्म ख़ून की धार से ही गर्म चूल्हे की आग सूंSSS करके ठंडी होती चली गयी।
अगले दिन उसके बिलखते दरोदीवारों को केमरों मे क़ैद करके टीवी-पेपर वाले चले गये। ना घबराने के थोथे आश्वासन देकर पुलिस वाले भी चले गयेपहले पहुंचकर वोट पक्का करने की नियत से अलग-अलग पार्टी वाले आये और चले गये।
दहशत भरी आँखों से डरता-डराता आया आस-पड़ौस भी ग़मों को बांटने की नाकाम कोशिश करके चला गया। इन खिड़की- दीवारों को सिसकते पांच दिन हो गये।
आSSS ह,मनजीत की पोर-पोर टीसने लगी है।
हरजिंदर के अमन-प्यार के गीत उसके घर की चौखट और छाती मे बबूल बो गये। लेकिन वो तो प्यार बोता फिरता था। एक बार फिर मनजीत की दृष्टि अखबारी ख़बर के आख़िरी तीन शब्दों पर ठहर गयी-- केवल एक घटना। बीजी कराह रही हैं। मनजीत उनका माथा सहलाने लगती है। उनके बूढे सपनो के पूरा होने के दिन, मक्खन और मक्की की महकती रोटी से गढा उनके छह हाथ के सोणे पुत्तर को देखकर पुलकता कलेजा और बेटे के कंधों पर जाने की आख़िरी लालसा।
केवल एक घटना -- बीजी की हिलकियां बढ गयी हैं।
मनजीत की उंगलियां हरबंस के उलझे बालों मे सरसराते हुए ठिठक जाती हैं, डाक्टर बनने की तमन्ना लिये हरबंस का बल्लियों उछलता दिल। अपने प्यारे वीर की हर तमन्ना पूरी करने की उछाह, माखन की डली सी चिकनी देह अनगिन रंगीन सपनों की शहज़ादी, सरसों के बासंती फूलों सी लहलहाती उम्र।
बेटे की जवान लाश को देखकर मां के माथे पर गहराकर डबडबा आईं झुर्रियां, बहन की रेशमी राखी और परवान चढते सपनों पर भाई के सच्चे प्यार से वलवलाते ग़र्म खून के धब्बे, ज़रा सी बिटिया के झूले पर बैठकर ऊंची उड़ान लेते बचपन पर बाप की क़द्दावर शाख का टूट गिरना और जवान औरत की अगली-पिछली साधों के फलता-फूलता देखने की उछाह पर हमजोली के प्यार के गीतों का सुर्ख़ ख़ून, यह केवल एक घटना होती है क्या?
मनजीत के पहलू मे सर छिपाये सिसकने लगती है हरबंस और मनजीत सोचती रह जाती है -- केवल एक घटना।हरबंस की सिसकियों को रोकने का अबूझा प्रयास करती है मनजीत,"चुपकर बीबे! चुपकर"। नीम की सबसे निचली टहनी पर चढकर भी निम्बोलियां खाने का मन नहीं होता शन्नो का। गाय के थनों को मुंह लगाकर दूध का घूंट नही भर पाती अब वो। निक्की के संग इक्की-दुक्की भी अच्छी नही लगती। शन्नो के बचपन को घुन लग गया है। यह केवल एक घटना है क्या?मनजीत की आँखें डबडबा उठती हैं।
छह साल पहले ही अखनौरी की कुत्ते की टेढी दुम सी गलियां पार करके कुइंयां के पास उतरी उसकी डोली, कोठे मे हरजिंदर के संग गुप-चुप छुआ-छू, उठापटक, ठी-ठी, खी- खी, बीजी का ठाठें मारकर हंसना, लोहड़ी-बैसाखी पर इस घर के ठुमकते क़दम, प्यारी सी ननद के साथ चुहल भरी चिमगोइयां, उसकी तमन्नाओं को धार देता उसके भाई का जोश, शन्नो की पैदायश का तीखा-मीठा दर्द। दिलके सच्चे-कौल के पक्के-प्यार के गीतों के रसिया, जवान रग-पट्ठों वाले मर्द का संग, सपने, उछाह-उमंग, ख्वाबों के उड़नखटोले-और--और---और चार चार ज़िंदगियों को डंसता वीरान सन्नाटा, मासूमों के नाम आतंक का खूनी तोहफ़ा, गीतों को गोलियों का शृंगार, आS ह,मनजीत के कलेजे के कुएं से दर्द का लावा फूट पड़ा है।
अखबारों के आंकड़े--एक ख़बर और--
केवल एक घटना---?
ओहSSS--
बेटे की जवान ल्हाश को देखकर मां के माथे पर गहराकर डबडबा आईं झुर्रियां, बहन की रेशमी राखी और परवान चढते सपनों पर भाई के सच्चे प्यार से वलवलाते ग़र्म खून के धब्बे, ज़रा सी बिटिया के झूले पर बैठकरऊंची उड़ान लेते बचपन पर बाप की क़द्दावर शाख का टूट गिरना और जवान औरत की अगली-पिछली साधों के फलता-फूलता देखने की उछाह परहमजोली के प्यार के गीतों का सुर्ख़ ख़ून, यह केवल एक घटना होती है क्या?
मनजीत कौर के आँखों के पपोटे चट-चट चटख़ने लगे हैं। पलकों मे जैसे मुट्ठी भर सुलगती हुई राख भर गयी हैं। पुतलियों मे कीलें ठुक गयी हैं।
- प्रवीण पंडित
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14 कहानीप्रेमियों का कहना है :
प्रवीण जी
'केवल एक घटना' कहानी नहीं है. यह प्रश्नों का एक पिटारा है . वह प्रश्न जिनके उत्तर हम सभी को चाहिये. किन्तु जिन पर इनका उत्तर देने, ढूंढने का दायित्व है वह सत्ताखेल में लिप्त अपनी जूतमपैजार मे संलग्न हैं. " ..... कुइंयां के पास उतरी उसकी डोली, कोठे मे हरजिंदर के संग गुप-चुप छुआ-छू, उठापटक, ठी-ठी, खी- खी, बीजी का ठाठें मारकर हंसना, लोहड़ी-बैसाखी पर इस घर के ठुमकते क़दम, प्यारी सी ननद के साथ चुहल भरी चिमगोइयां, उसकी तमन्नाओं को धार देता उसके भाई का जोश, शन्नो की पैदायश का तीखा-मीठा दर्द। दिलके सच्चे-कौल के पक्के-प्यार के गीतों के रसिया, जवान रग-पट्ठों वाले मर्द का संग, सपने, उछाह-उमंग, ख्वाबों के उड़नखटोले-और--और---और चार चार ज़िंदगियों को डंसता वीरान सन्नाटा, मासूमों के नाम आतंक का खूनी तोहफ़ा, गीतों को गोलियों का शृंगार, आS ह,मनजीत के कलेजे के कुएं से दर्द का लावा फूट पड़ा है।
अखबारों के आंकड़े--एक ख़बर और--"
फलतः इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर समाज एवं राष्ट्र के प्रबुध्द वर्ग को स्वयं ही ढूंढना होगा. जबतक ऐसा नहीं होगा हमारे समाज की हर मनजीत की करूण पीडा 'केवल एक घटना' मात्र ही रहेगी
विषय वस्तु पर पाठक का ध्यानाकर्षण करने में आप निसंदेहः सफल हुये हैं. मेरी हार्दिक शुभकामनायें
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
एक अजीब सा भाव भर गयी .. ये केवल एक घटना.. सब्कुछ जीवंत था.. आंखों के सामने..मनजीत,बीजी,हरबंस,शन्नो..और हरजिंदर की लाश.. आंगन में पड़ा अख्बार..सहमे हुये दिल.. आंसू पीती हुयी आंखें.. सहमा हुआ बचपन..टूटे अरमान... एक नहीं कई सवाल कर गई .. ये केवल एक घटना...
केवल एक घटना---?दिल पर बहुत असर कर गई ...और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी
शुभकामनायें
सर्वप्रथम तो प्रविणजी जन्मदिवस की हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये। कहानी बहुत ही मार्मिक है, पंजाब के जिन-जिन किरदारों को लेकर आपने यह बुनी है, सब जीवंत हो उठे है। कहीं पर भी बनावटीपन नहीं लगा और यही बात आपको एक उच्चस्तरीय कथाकार बनाती है।
यह सच है कि जिस पर बितता है सिर्फ़ वही दर्द झेलता है, आपकी कहानी में भी यह बात सामने आई है, पड़ोसी की सांत्वना भी मात्र कुछ समय की होती है और बाकियों के मात्र आश्वासन!
आंतकवाद के मर्म को आप कहानी द्वारा आमजन तक पहूँचाने में कामयाब रहें है, बधाई!!!
एक घटना भी कितना प्रभावी होती है, यह इस कहानी से पता चलता है। एक अच्छी कहानी के लिए बधाई स्वीकारें।
प्रवीण जी,
जन्मदिन पर आपको बहुत बधाई।
आपने यह कहानी लिखते समय इस 'केवल एक घटना' को जिया है और यही कारण है कि आप सच को इतने करीब से प्रस्तुत कर पाए हैं।
मनजीत कौर के आँखों के पपोटे चट-चट चटख़ने लगे हैं। पलकों मे जैसे मुट्ठी भर सुलगती हुई राख भर गयी हैं। पुतलियों मे कीलें ठुक गयी हैं।
यही पंक्तियाँ आरंभ हैं और यही अंत और बीच में घटना अपना बयान खुद देती है। आप कहीं बीच में नहीं आते, यही आपकी सफलता है।
आपकी कहानियों की प्रतीक्षा रहा करेगी।
प्रवीण जी!
माफ़ कीजियेगा, कहानी पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं कर पाऊँगा. और शायद यही इस कहानी की सफलता है. हाँ, इतना कह सकता हूँ कि इसे पढ़कर कुछ अर्सा पहले पढ़ी कृशन चंदर जी की कहानियाँ याद आ गयीं.
कहानी पढ़ाने के लिये आभार!
प्रवीण जी..
बहुत क्षमाप्रार्थी हूँ विलंब से टिप्पणी करने के लिये। आपके रूप में हिन्द-युग्म के कहानी कलश खंड को बेहरतीन कथाकार मिला है।
शब्द प्रयोग और उनका सही प्रभाव आपकी कहानी दर्शाती है। चित्र खींचने वाले शब्द जैसे "चट-चट चटख़ने लगे", "पुतलियों मे कीलें ठुक गयी","शरीर के हर हिस्से मे घुसकर सांय-सांय करके फनफनाता रहता", "काली-कुट्ट स्याही", "हादसों के बादलों को टुकुर-टुकुर देखती रहती है - निष्पलक", "गुप-चुप छुआ-छू, उठापटक, ठी-ठी, खी- खी, बीजी का ठाठें मारकर हंसना",.................
प्रवीण जी कथानक बेहद सशक्त है। पीडा को जो बिम्ब आपने दिये हैं वह पाठक के भीतर पिघला शीशा उतारते हैं। मैं स्तब्ध हूँ....आप असाधारण कथाकार हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
एक प्रभावशाली और संवेदन शील कहानी के लिए बधाई । आपकी लेखनी बहुत कमाल करती है ।
एक-एक घटना का अति सुन्दर चित्रण किया है ।
प्रवीण जी ,
देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।दर-असल "केवल एक घटना" ने मुझे इतना झकझोर दिया था कि मैं टिप्पणी करने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। आज जब कुछ संभला हूँ तो टिप्पणी करने चला आया।
आतंकवाद की जिस घटना का आपने वर्णन किया है , वह एक वाचाल समस्या है और हमें मूक बना डालती है। औरों के लिए बस एक घटना हो, लेकिन जिस पर बीतती है, वही इसका दर्द जानता है।
और--और---और चार चार ज़िंदगियों को डंसता वीरान सन्नाटा, मासूमों के नाम आतंक का खूनी तोहफ़ा, गीतों को गोलियों का शृंगार, आS ह,मनजीत के कलेजे के कुएं से दर्द का लावा फूट पड़ा है।
दिल को छू गई। बधाई स्वीकारें।
सर्वप्रथम हिंद-युग्म परिवार का सदस्य बनकर सुख का अनुभव हो रहा है,इस सुख को आप के साथ बांटने आया हूं,स्वीकार कर लें।
आप सभी गुणी मित्र-वृंद की टिप्पणियां मेरे लेखन को रोशनी देंगी,इस साहस के साथ अब आप सबके साथ चलने का प्रयास करता रहूंगा।
चलते- चलते ,दो शब्द'घटना' के बारे मे--
हर कहानी सच हो ज़रूरी नही,लेकिन हर सच मे एक कहानी निहित होती है
'घटना ' को लिखते लिखते मेरा लेखक कभी बीजी बना तो कभी हरबंस या शन्नो या हरजिंदर।
मंजीत को तो वो आज भी महसूस करता है।
पसंद करने के लिये श्रेय आप सबकी गुणी दृष्टि को दिया जाना चाहिये।
प्रवीण पंडित
प्रवीण जी,
सर्वप्रथम हिन्द-युग्म परिवार में आपका स्वागत है।
मैं केवल इतना कह रहा हूँ कि मैंने इस कहानी को १५ बार से अधिक पढ़ा है। आजकल की कविताओं में इतनी कलात्मकता नहीं होती, जितनी की आपकी इस कहानी में है। कहानी-कलश के अन्य कथाकारों के लिए यह एक प्रेरणा है।
आपको जन्मदिवस की विलम्बित बधाइयाँ।
कहानी'.....
केवल एक कहानी नहीं है.
सब जीवंत
बहुत ही मार्मिक
दिल को छू गई।
और बहुत कुछ
सोचने पर मजबूर कर गई|
एक अच्छी ...,
संवेदन शील कहानी के लिए ....
बधाई
एक छुपे सच को कहानी के रूप में ढाला हुआ है। पीड़ा के जो भाव उभर के सामने आये, बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर गये...
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