सौ, दो सौ लाल-लाल आँखें और उनके हाथों में जीभ लपलपाती , प्यासी तलवारों का जखीरा।
- मुल्क हमारा, मिल्कियत हमारी -- तुम हीं कहते हो ना- यह मुल्क तुम्हारी माँ हैं। आज हम तुम्हारी माँ , बहनों की औकात बताने आए हैं। तुम सारे आदमजात , मर्द - हम सब तुम हिजड़ों के साथ कुछ नहीं करेंगे। साले, जियो सौ साल, मुल्क -मुल्क की रट लगाते रहो। मुल्क को माँ कहते रहो, बस तुम सब की अपनी माँ-बहनें आज के बाद नहीं रहेंगी।उनकी आबरू...................
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-दादा, एकदम सही कह रहे हैं आप , देश तो आप हीं का है । गाँधी बाबा जब गुजर रहे थे , तो उन्होंने इस देश की चाभी तो आप हीं के हाथों में दी थी ना। बस गड़बड़ यह है कि सारे ताले बदल दिये हैं हमने।
- दादा, क्यों बुढापे में अपनी जिंदगी को कोड़े मार रहे हैं। आराम से रहिए।
- अरे दादा, मंत्री जी ने आपके गाँव के लिए कुछ किया है तो कुछ लेंगे भी ना। रूपया, पैसा तो नहीं माँग रहे हैं । अब इनका पेट तो भर हीं जाता है, जो नहीं भरता, वही ले रहे हैं, तो बताईये इसमें कौन-सा हर्ज है।
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दोनों दृश्य रामेश्वर बाबू की निगाहों के सामने बारी-बारी से उपला रहे थे।अपनी हीं भावनाओं के दरिया में डूबत-उबरते , गिरते-संभलते वे एकाकी राह पर चलते रहे। बस-स्टैण्ड से उनका गाँव बस सौ फर्लांग की दूरी पर था। कुछ हीं देर में गाँव की देहरी आ गई। गाँव का शोर-गुल सुनते हीं उनका "भक" टूटा। जैसे हीं वो थोड़ा आगे बढे , एक पत्थर उनके सीने से जा लगा। फिर दो पत्थर, तीन गालियाँ , चार हाथ.....................
-मार दो बूढे को।मारो...मारो.....
- स्स्साला, खुद को मुखिया कहता है। इसने बेचकर रख दिया है हमें। हमेशा किसी-न-किसी को ले आता है हमें नोचने के लिए। माँ,बहन्न्न्न्न्न। स्स्स्साला। माँ, बहन की तो इसने बिक्री.......
फिर एक जूता, दो जूता...
"-माँ, बहन की तो इसने बिक्री......" --- रामेश्वर बाबू के दिल का घाव फूट पड़ा।
हुआ क्या है ,वे कुछ भी समझ न पा रहे थे । इन्हीं लोगों के लिए तो दशकों से वो सरकार से लड़ रहे हैं। कभी बाढ, कभी बेरोजगारी तो कभी भूखमरी की समस्याऍ लेकर हमेशा हीं वो मंत्री-संत्री के पास दौड़ा करते थे। हाँ, कुछ दिनों से वे बीमार चल रहे थे तो गाँव की हीं एक लड़की ने उनसे आग्रह किया था कि उसे जाने दिया जाए। वो लड़की पढी-लिखी भी थी।रामेश्वर बाबू ने उसे मना भी किया की मंत्री अच्छा आदमी नहीं , लेकिन.......। मंत्री की बुरी नज़र थी उस पर , यह जानने के बाद आज खुद वे मंत्री से शिकायत करने गए थे। उसे बेटी की तरह मानते थे वे , बेट्ट्ट्टी...........
- स्स्साला, मंत्री से इसकी मिली भगत है। हमें झांसे में लेकर हमारी बेटी को उसके पास भेजा था। मा...., बुढापे में हमारे गाँव पर हीं नज़र डाल दी इसने।
- मेरी बेटी , इसको अपना बाप मानती थी। इसने कहा और वो चल दी । और इस नरपिशाच ने अपनी बेटी को हीं खा लिया।
-नरपिशाच , है ये।
"नरपिशाच", "नरपिशाच"................ रामेश्वर बाबू की कानों के चदरे फटने लगे। चेहरे का खून कानों में टपक पड़ा। कान सुन्न..... "नरपिशाच" "नरपिशाच"..... हल्के-हल्के बहरापन गूंज रहा था।
- अर्रे सुनो मुनीसर, जाओ इसके घर से इसकी पोती को खींच कर लाओ। इसके नज़रों के सामने इसकी पोती का क्रिया-कर्म करते हैं , तब इसे समझ आएगा कि बेटी खोना क्या होता है।
"पोत्त्त्त्त्त्ती......... " , खून आँखों से निकल पड़ा।"नहीं, नहीं......... अब पोती नहीं........."।-रामेश्वर बाबू चीत्कार उठे।
मुनीसर उनके घर की तरफ बढ चुका था।
रामेश्वर बाबू को उनकी बेटी का रोता , बिलखता , चीखता चेहरा याद आ गया। उन्हें अपना पाप याद आ गया , जिसका शिला इन्हें आज मिल रहा है ।
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-मुखिया , हट जा हमारे सामने से।
- इन्हें छोड़ दो। ..... रामेश्वर बाबू गिरगिरा रहे थे।
पूरा गाँव शांत था। किसी में इतनी ताकत न थी, कि इन कसाईयों से कुछ कह सके। गाँव की सारी औरतों की आबरू अब इस अदने से इंसान के भरोसे हीं थी।
- मुझे मार दो। टुकड़े-टुकड़े कर दो मेरे , लेकिन इनको छोड़ दो। इन्हें तो देश से , धर्म से कोई लेना-देना भी नहीं है। गलती हमारी है। हमें सजा दो। मुझे मारो...मुझे..... हम सब मर्दों को मार दो। लेकिन हमारी माँ-बहनों को बख्श दो।
- मुखिया........ तुम सब को मार कर क्या मिलेगा। जो मिलेगा, इनसे मिलेगा..... ( एक अट्टहास गूंज पड़ा)
औरतों की चीखने-चिल्लाने की आवाज़ अट्टहास में गुम होती-सी लगी।
- चलो मुखिया, चलो तुम्हारी भी बात मान लेते हैं। .................. एक काम करो। हमें बस एक लड़की दे दो। सारे लोग उसी से गुजारा कर लेंगे। ( फिर से हँसी)
- मुखिया...... जल्दी करो।
- "म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्मेरी बेट्ट्ट्टी ले जाओ। " रामेश्वर बाबू धम्म से गिर पड़े।
-बाबूजी, बाबूजी , मैं हीं क्यों? बाबूजी................ बचा लो मुझे। बाबूजी................
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मुनीसर उनकी पोती को घसीटता हुआ बाहर ले आया।
"मैने इसी गाँव के लिए अपनी बेटी दे दी। और यही गाँव वाले मेरे घर से फिर एक बलि लेना चाह रहे हैं। अब पोती............... नहीं।"
-दादाजी........ दादाजी.......
"पोती...... नहीं।"
"दादद्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्द्दाजी................."
रामेश्वर बाबू की आँखें बंद हो चुकी थी। उन्हें एक के बाद अपनी बेटी और पोती का रोता-बिलखता चेहरा दिखने लगा।
"मुखिया"........ "बाबूजी"....... "पोती".......... "क्रिया-कर्म".......... "दादाजी"........."नरपिशाच"
रामेश्वर बाबू खुद में हीं डूबते चले गए। कान अब बहरे हो गए थे ....... कुछ देर में सब कुछ शांत हो गया। एक नरपिशाच ने अपनी अंतिम साँस ले ली।
-विश्व दीपक "तन्हा"
दूसरी कहानी
२०-९-२००७
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17 कहानीप्रेमियों का कहना है :
बलिदान !!! दो औरतों की बलि !!!
ये कहानी इस धारणा को प्रतिस्थित करती है कि
" भलाई का ज़माना नही रहा "
एक बूढ़ा जो पूरे गाँव कि खातिर अपनी बेटी कि बलि दे देता है , आज वही गाँव उस कि बेटी कि बलि चाहता है |
अच्छी कहानी , पैर ज़रा छ्छोटी है ....
कहानी का अंत इतना जल्दी ख़त्म करना ,पाठक को कहानी माइयन डूबने नही देता |
कहानी का हश्र अच्छा लगा |
शब्दावली आक्ची थी |
शब्द चितर्ात्मक शैली का प्रयोग किया जा सकता था |
बधाई वि दी भाई |
दीपक मुझे तुम्हारी यह कहानी बहुत पसंद आई
और इस के कई पहलू दिल को छू गए
इसकी शैली बहुत भावात्मक है अन्त तक कहानी बांधे रखती है
बलिदान दे के भी "नरपिशाच". कहलाना दिल को दहला गया
बहुत बहुत शुभकामना और बधाई !!
दीपक जी,
बहुत ही भावपूर्ण कहानी, कहानी पढते पढते सारे चित्र सामने उभर रहे थे,
लोगों की बीमार मानसिकता एवं बर्बरता को जहिर करती कहानी,
दिग्भ्रमित समाज का चित्रण वास्तव में लाता है आखों में पानी..
शुभकामनायें, बधाई
Achhi Kahani hai VD Bhai...
Badhi sweekar karen...
amzing story...upto what extent an illeterate boor can think you shown it..a real story of backward village...WELL DONE VD
main do baaten kehna chahunga..
1. yah chhoti si kahani do baaton ko bahut ache se dikhati hai.. hamare apno per aviswas ko..aur hamari napunsakta ko.. gaon me kisi ne bhi yah pata karne ki kosish nahi ki sachai kya hai.. lekin dusri baat yah ki kisi ne mantri per pathar maarne ki himmat nahi ki.. sab mukhiya per pathar maar kar balwan ban rahe the..
2. mujhe jyada mazaa aayega, agar aap kuch halki-fulki vyangyatmak kahaniyaan likhen.. ye ek chhoti si farmaish hai.. waise mujhe pata hai ki vyangya likhna aasan nahi lekin isse aapke rachnaon ko vistaar milega..
जिस प्रकार आपने कहानी के भावों द्वारा बाधें रखा है। वह बहुत उत्तम कोटि है जैसा कि कहानी में साथ -साथ लेचलने का गुण था वह बहुत ही भाया। मुझे जयशंकर प्रसाद की वह कहानी याद आ गई।
topic bahut achhi choose kiya hai aapne... bahut hi sensitive hai.. gaon ke situation ko achhi tarah se saamne rakkha hai.. par kuchh baatein kehna chahenge
"तुलसी की छाँव" ke baad "नरपिशाच", aisa lagta hai ki aap serious topics par hi likhna pasand karte hain.. achha hoga ki thoda different topics try karein..
doosri baat... ye short story nehi lag rahi.. this seems more of a article or an essay.. short story simple hoti hai, ye sach hai.. lekin uss simplicity mein bhi aap diversity la sakte hain... short story is not called so because of its physical length..
aur phir iska aant.. mukhiya chal basa.. uski poti ki kya halat huyi hogi ye pehle do ghatna se pata chal jaati hai.. lekin phir se.. kuchh bhi sochne ka avsaar nehi bachta.. there is nothing left to the imagination of the reader.. ek kahani khatm hone ke baad bhi jinda reh sakti hai.. lekin uske liye jo kahani padh rahe hain.. unke mann mein kahani ko asar karna chahiye..
ek suggestion.. short story improve karne ke liye aap Tagore ke kuchh kahaniyan padh sakte hain.. shayad usse aapki kahani ka quality aur bhi improve ho jaye..
neways.. keep it up.. badhai
अच्छी कहानी है विश्वदीपक भाई।
कहानी की मार्मिकता कहानी के साथ ख़त्म नहीं होती। बस कहानी थोड़ी विस्तृत होती तो प्रभाव उसी अनुपात में बढ़ जाता।
जहाँ तक ऐसी टिप्पणियों का प्रश्न है कि आप गंभीर ही लिख रहे हैं तो मेरा विचार है कि इसमें कुछ बुरा नहीं है। अच्छी गंभीर रचनाएँ लिखना बहुत मुश्किल है और यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो आप साहित्य में ऊपर की ओर ही जा रहे हैं।
कहानीकार का काम समाज का प्रतिबिम्ब दिखाना ही है और यदि समाज में क्लेश, पीड़ा और दुख अधिक हैं तो इसके लिए आईने को दोषी ठहराना सही नहीं है।
दीपक जी!!!
"नरपिशाच"
बहुत ही मार्मिक कहानी है।यार तुम्हारी दुसरी कहानी भी पहले की तरह बहुत अच्छी है।अब तुम कवि के साथ-साथ ....कहानीकार भी हो गये हो।
लगता है आप कहानी के माध्यम से कोई संदेश देना चाहते है.....आपकी पिछ्ली कहानी भी कुछ ऐसी ही थी...
कहानी का चित्रण बहुत अच्छा है...
पात्रों के नाम का चयन भी अच्छे से किया है आपने......
बहुत अच्छी लगी आपकी कहानी........
बधाई स्वीकारो!!!!
दीपक भाई
मुझे कहानियों की ज्यादा समझ नहीं , पर बस इतना जानता हूँ कि जो कहानी सोचने पर मजबूर करे वह अच्छी कहानी है। इसमें कथ्य भी है , संदेश भी और पाठक से जुड़ सकने वाला परिवेश भी ।
नरपिशाच एक मार्मिक और अच्छी कहानी है ।
प्रिय दीपक भाई,
कहानी पर थोड़ी और मेहनत की आवश्यकता है। भाव जितने उफान पर हैं आपकी कहानी मे,चरित्र उसके अनुरूप आ नही पाए। बहुत सारे गद्यांशों के संदर्भ या तो कहानी मे छूटे हुए थे या मुझे समझ मे नही आए। जैसे
"-दादा, एकदम सही कह रहे हैं आप , देश तो आप हीं का है । गाँधी बाबा जब गुजर रहे थे , तो उन्होंने इस देश की चाभी तो आप हीं के हाथों में दी थी ना। बस गड़बड़ यह है कि सारे ताले बदल दिये हैं हमने।"..... (जिस विषय पर शिकायत होनी थी, उससे कहीं भी तारतम्यता नही है!)
"मंत्री की बुरी नज़र थी उस पर , यह जानने के बाद आज खुद वे मंत्री से शिकायत करने गए थे। "
(अर्थ स्पष्ट नही हुआ।)
"चेहरे का खून कानों में टपक पड़ा। "
(बिम्ब की अवधारणा स्पष्ट नही हुई।)
"गलती हमारी है। हमें सजा दो।"
(किस गलती के बारे मे?)
हम सब कल्पनाकार हैं और कथ्य की विश्वसनीयता पर अंगुली उठाना तो पाप ही है!..... पर समाज हमारा वास्तविक है और अगर सामाजिक पहलुओं की हम बात करते हैं,तो थोड़े सच्चाई के इर्द-गिर्द वाला चरित्र हमे गढ़ना होगा।
एक बार इस कहानी के साथ पुनः बैठे दीपक भाई।
सस्नेह,
श्रवण
विश्वदीपक जी,
कथा के शब्द सशक्त हैं, नाटकीयता पर्याप्त है, पर कथा अपूर्ण भी है एवम् उद्देश्यहीन भी. किसी विसंगति का चित्र कुरूप एवम् विकृत चित्र खींच देना, गालियों का प्रयोग एवं भदेस शब्दों के प्रयोग से तथाकथित आधुनिकतावदी (एवम् प्रयोगवदी एवम् न जाने क्या-क्या वादी) लोगों की स्वीकृति (एवम् वाहवाही) हासिल कर लेना आपकी रचना को सार्थक नहीं बनायेगा.
आपकी कथा क्या समाज में पढ़ी जाने योग्य है? क्य वह व्यक्ति अथवा समाज के उत्थान का संदेश देती है? कहीं उसमें व्यक्त विसंगतियाँ आपका एवम् आपके पाठकों का मात्र फ़्रायडीय मनोरंजन तो नहीं कर रही हैं?
आपकी शब्दों पर पकड़ बताती है कि आपमें असीम संभावनायें हैं. उन्हें ऊर्ध्वगामी मार्ग पर चलायें.
महाशक्ति जी का कहना है - "मुझे जयशंकर प्रसाद की वह कहानी याद आ गई।..."
क्षमा चाहूँगा, पर प्रसाद की उदात्त कथाओं से इस कृति की तुलना प्रसाद जी का अपमान है, और मैं इसका विरोध किये बिना नहीं रह सका. अपरिपक्व प्रशंसा नवोदित रचनाकार का सर्वनाश किये बगैर नहीं रहती.
विश्वदीपक जी, कृपया यह न समझें कि मैं आपकी विरोधी बातें कर आपको अवमूल्यित करने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं आपको जिस मुकाम पर देखने की ख्वाहिश रखता हूँ वो यह नहीं है, इससे कहीं कहीं ऊँची एवम् सार्थक रचनात्मक उपलब्धियाँ आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं, मैं तो बस आपको उस राह पर देखना चाहता हूँ.
सादर, सस्नेह
शिशिर
तनहा जी,
आपने कथ्य को सशक्तता से कहा है और आपकी सोच आपके भीतर के उस कथाकार का हवाला देती है जो अपने परिवेश से विचलित है और चुप नहीं बैठना चाहता।
मैं इस कहानी के शिल्प से असंतुष्ट हूँ, कहानी जल्दबाजी में लिखी गयी प्रतीत होती है अथवा आपने लिखे जाने के पश्चात उसकी सही एडिटिंग नहीं की।
कई बार कहानी संक्षेपण ही नहीं माँगती कुछ दृश्यों को विस्तार से लिखे जाने पर ही वे दृश्य आँखों के आगे जीवित हो उठते हैं। इस कहानी में कई स्थानों पर एसी संभावनायें हैं।
आपकी अगली कथा-प्रस्तुति की प्रतीक्षा में..
*** राजीव रंजन प्रसाद
विश्वदीपक जी,
नरपिशाच कहानी को आपकी किसी अन्य रचना के परिप्रेक्षय में देखे बिना मैं भी शिशिर मित्तल जी एवं राजीव जी की प्रतिक्रिया के कई अंशों से सहमत हूं। साहित्यकार का दायित्व मात्र नग्न सत्य दिखाकर ही नहीं समाप्त हो जाता है। उसे पल-पल समाज की अनचाही विसंगतिऒं के साथ अपनी संवेदनात्मक जनित पीड़ा भोगते हुये उन सभी का उत्तर भी ढ़ूंढना पड़ता है। संभवतः यही दायित्व बोध एक साहित्यकार को सड़कछाप मनोरंजक पुस्तककार से अलग करता है। परन्तु मेरा मानना है कि आपकी यह संवेदना आने वाले साहित्यकार की प्रसव पीड़ा ही है। मैंने यह कहानी प्रकाशन के मात्र कुछ मिनट में ही पढ़ ली थी किन्तु टिप्पणी आज बिलम्ब से कर रहा हूं कृपया क्षमा करियेगा। सप्रेम आपका श्रीकान्त
तनहा जी!
लेखनी की संवेदनशीलता उच्चकोटि की है, संशय नहीं। आपके अंदर का कथा कार मैने सदैव जाग्रत पाया है।
सामाजिक विद्रूपता को मर्मस्पर्शी रूप से रखने का आपका प्रयास सराहनीय है।
किंतु,मेरा पाठक अंशतः असंतुष्ठ रह गया है कहीं।
आपके लेखन की असीम संभावनाओं की प्रतीक्षा मे हूं मैं।
चरैवेति।
प्रवीण पंडित
प्रवीण जी ने लिखा कि उनके अंदर का पाठक असंतुष्ट रह गया कहीं। मेरे भीतर का भी पाठक असंतुष्ट है। कहानी के कई संदर्भ समझ में नहीं आते, चरित्रों को आवश्यक विस्तार दिया जाना चाहिए। राजीव जी ने ठीक कहा कि भावना चरम पर है, मगर कहानी के मामले में उतना पर्याप्त नहीं है। कहानी जल्दी लिखने की प्रक्रिया नहीं है।
महाशक्ति जी को इसे पढ़कर जयशंकर प्रसाद की कौन सी कहानी याद आ सकती है, मैं समझ में नहीं आ रहा। सौभाग्य से मैंने उनका पूरा साहित्य पढ़ा है।
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