हँस हँस के उसका हाल बुरा हो रहा था। कीचड़ में पडे अरविंद को देख वो होना स्वाभाविक भी था। मगर असली मज़ा उठा रहे थे देखने वाले। लोगों को नजर आ रहे थे कीचड़ से सने दो बुत। निशा से हँसी रोकी नही जा रही थी। यूँ तो, वो भी कुछ कम कीचड़ में सनी नहीं थी।
कॉलेज के पहले दिन से, जबसे अरविंद ने निशा को देखा था, तभी से वो मर मिटा था। फिर उसने निशा से बात करने का कोई मौका जाने ना दिया। निशा से अब उसकी काफी अच्छी जमती थी। केमेस्ट्री प्रेक्टिकल्स, छोटे मोटे ट्रेक्स, कभी कभी कोई छोटा सा होटल ऐसे उनके दिन बढिया कट रहे थे। निशा सभी से सादगी से बात करती। मगर अरविंद के दिल का हाल अब तक उसे पता ना था।
अनिकेत को जब पता चला तो वो धम से उछल पड़ा। बोला "अरविंद! क्या कहते हो? सच?"
"नहीं मै एक नई फिल्म बना रहा हूँ और तुझे उसका प्लाट सुना रहा हूँ!", अरविंद का गुस्से से जवाब.
"अरे! गुस्सा क्यों हो रहे हो बाप!", अनिकेत बोल पडा, " तुझे क्या लगता है बिल्ली आँखे बंद कर के दूध पिये तो दुनिया को पता नहीं चलता? भाईसाब उसे देखते ही आपका मुँह यूँ खुल जाता है के उसके जाने तक बंद नही होता, पता है?"
"ओये, मुँह खुलता है ज़रा ज्यादा ही कह रहे हो", अब अरविंद, अनिकेत को पिटने के हिसाब से आगे बढने लगा, और उतने मे अनिकेत भाग खडा हुआ.
कहने लगा, "एक भी हाथ पडा ना बिंदू, तो केंटीन में जाकर सबके सामने दहाड लगाउँगा के सुनो सुनो बिंदू बाबू को प्रेम रोग हो गया है रे भैया!"
ये कहते कहते उसकी नज़र अरविंद के मुरझाए चेहरे पर पडी, और अरविंद को दोनो हाथ जोडे शरण आये भक्त की तरह सामने खडा देख वो चुप हो गया।
"ओये, अब क्या रो देगा पगले!", मैने सुना था प्यार में लोग बावलें हो जाते है मगर तुम्हारा हाल देख नहीं पा रहा हूँ रे।
"फिर क्या, यहाँ मेरी जान पर बनी है, उसे किस तरह बताऊँ समझ में नही आ रहा, और तुम्हे मज़ाक सुझ रहा है!", अरविंद बच्चो सा रुआँसा होकर फूट पडा।
"एक मिनट, तुझे राजेश पता है?", अनिकेत उछल पडा जैसे कुछ याद आ रहा हो।
"वो, सलोनी को पटाने वाला?", अरविंद को याद करना मुश्किल नही था क्योकि सलोनी कालेज की हिराईन थी।
"हाँ हाँ वही तो, मेरी एक दो बार बात हुई है उससे। लडकीयोँ के मामले में बाप है उस्ताद! शायरी तो ऐसे धडाधड फेंकता है, के क्या कहने। क्यों ना एक बार उससे सलाह मशवरा कर लें। कहो तो आज शाम ही मिल लेते हैं।", इस एक वाक्य के साथ अनिकेत ने मन ही मन में मुलाकात पक्की भी कर दी थी। अरविंद सर हिला कर हाँ कहता गया, दिल का दर्द जो जिने नहीं दे रहा था।
आज कालेज में जाते वक्त अरविंद का चेहरा खिला खिला था। आज राजेश से जो मिलना था, शाम को। हमेशा की तरह अरविंद, निशा, अनिकेत, पायल, सुधा सब के सब स्कूटर स्टेंड पर मिलकर इकठ्ठा जा रहे थे। हसी मज़ाक हमेशा की तरह चल रहा था। मगर आज अनिकेत की आँखों में नटखट भाव थे। वो बार बार अरविंद को देख देख गालों में हस रहा था। अरविंद सब समझ रहा था, मगर आँखे बडी करके वो अनिकेत को बस डाँट सकता था रोक नही सकता था। और उतने में किसी पत्थर से बेलेंस खोकर निशा धडाम से सामने वाले कीचड़ में सर से पाँव तक गिर पडी।
दो मिनट किसी को क्या हुआ पता ही ना चला। आस पास के लोगों में से आती हुई हँसी की किलकारियाँ अब नज़ारा समझा रही थीं। निशा को हाथ देकर उठाने के चक्कर में असली घोटाला हुआ अरविंद का और वो भी सर से पाँव तक कीचड़ में समा गया। ये लो, ये हो गया देखने वालों के लिये डबल मज़ा।
कीचड़ में सनकर रुँआसी सी हो गई निशा भी वो अरविंद का सहायता प्रकल्प देख हँसने लगी। अब उनका गुट और तमाम दर्शक देख रहे थें एक दूसरे की तरफ देखकर ठहाके लगाते हुए कीचड़ में सने दो बुत।
"क्या कमाल करते हो बिंदू",निशा हसते ह्सते कहने लगी, " ये कैसी सहायता लेकर आये जी?", अब वो किचड में सेटल हो चली थी।
"सहायता काहे की निशा?", अरविंद अचानक गंभीर हो गया, " तुम अचानक गिर गई और सब लोग तुम्हे देख हँसने लगे, मुझे नही पसंद आया। फिर क्या करता, तुम्हे निकालता भी तो कीचड़ से सना सत्य तो नहीं टाल सकता था। फिर एक ही उपाय बचा था निशा।"
अब अचंभित होने की निशा की बारी थी। " तो क्या तुम, ... तुम जान बुझ कर..." ऐसा कुछ बडबडाते हुए एक कीचड़ का गोला बना कर उसने अरविंद को दे मारा। शरमाई सी हँसते हँसते वो कालेज की तरफ भाग चली, बीच में पलटकर छोटे बच्चों की तरह अरविंद को उसने जीभ दिखाई और फिर मुडकर कालेज केंटीन की तरफ भाग चली।
वो कीचड़ का गोला सीधे अरविंद के दिल पर जा लगा। उसे एक हाथ से थाम कर वो अनिकेत को देख रहा था। अनिकेत ने हुश्श किया और कहने लगा चलो कीचड़ दिन मनाते है।
तुषार जोशी, नागपूर
कॉलेज के पहले दिन से, जबसे अरविंद ने निशा को देखा था, तभी से वो मर मिटा था। फिर उसने निशा से बात करने का कोई मौका जाने ना दिया। निशा से अब उसकी काफी अच्छी जमती थी। केमेस्ट्री प्रेक्टिकल्स, छोटे मोटे ट्रेक्स, कभी कभी कोई छोटा सा होटल ऐसे उनके दिन बढिया कट रहे थे। निशा सभी से सादगी से बात करती। मगर अरविंद के दिल का हाल अब तक उसे पता ना था।
अनिकेत को जब पता चला तो वो धम से उछल पड़ा। बोला "अरविंद! क्या कहते हो? सच?"
"नहीं मै एक नई फिल्म बना रहा हूँ और तुझे उसका प्लाट सुना रहा हूँ!", अरविंद का गुस्से से जवाब.
"अरे! गुस्सा क्यों हो रहे हो बाप!", अनिकेत बोल पडा, " तुझे क्या लगता है बिल्ली आँखे बंद कर के दूध पिये तो दुनिया को पता नहीं चलता? भाईसाब उसे देखते ही आपका मुँह यूँ खुल जाता है के उसके जाने तक बंद नही होता, पता है?"
"ओये, मुँह खुलता है ज़रा ज्यादा ही कह रहे हो", अब अरविंद, अनिकेत को पिटने के हिसाब से आगे बढने लगा, और उतने मे अनिकेत भाग खडा हुआ.
कहने लगा, "एक भी हाथ पडा ना बिंदू, तो केंटीन में जाकर सबके सामने दहाड लगाउँगा के सुनो सुनो बिंदू बाबू को प्रेम रोग हो गया है रे भैया!"
ये कहते कहते उसकी नज़र अरविंद के मुरझाए चेहरे पर पडी, और अरविंद को दोनो हाथ जोडे शरण आये भक्त की तरह सामने खडा देख वो चुप हो गया।
"ओये, अब क्या रो देगा पगले!", मैने सुना था प्यार में लोग बावलें हो जाते है मगर तुम्हारा हाल देख नहीं पा रहा हूँ रे।
"फिर क्या, यहाँ मेरी जान पर बनी है, उसे किस तरह बताऊँ समझ में नही आ रहा, और तुम्हे मज़ाक सुझ रहा है!", अरविंद बच्चो सा रुआँसा होकर फूट पडा।
"एक मिनट, तुझे राजेश पता है?", अनिकेत उछल पडा जैसे कुछ याद आ रहा हो।
"वो, सलोनी को पटाने वाला?", अरविंद को याद करना मुश्किल नही था क्योकि सलोनी कालेज की हिराईन थी।
"हाँ हाँ वही तो, मेरी एक दो बार बात हुई है उससे। लडकीयोँ के मामले में बाप है उस्ताद! शायरी तो ऐसे धडाधड फेंकता है, के क्या कहने। क्यों ना एक बार उससे सलाह मशवरा कर लें। कहो तो आज शाम ही मिल लेते हैं।", इस एक वाक्य के साथ अनिकेत ने मन ही मन में मुलाकात पक्की भी कर दी थी। अरविंद सर हिला कर हाँ कहता गया, दिल का दर्द जो जिने नहीं दे रहा था।
आज कालेज में जाते वक्त अरविंद का चेहरा खिला खिला था। आज राजेश से जो मिलना था, शाम को। हमेशा की तरह अरविंद, निशा, अनिकेत, पायल, सुधा सब के सब स्कूटर स्टेंड पर मिलकर इकठ्ठा जा रहे थे। हसी मज़ाक हमेशा की तरह चल रहा था। मगर आज अनिकेत की आँखों में नटखट भाव थे। वो बार बार अरविंद को देख देख गालों में हस रहा था। अरविंद सब समझ रहा था, मगर आँखे बडी करके वो अनिकेत को बस डाँट सकता था रोक नही सकता था। और उतने में किसी पत्थर से बेलेंस खोकर निशा धडाम से सामने वाले कीचड़ में सर से पाँव तक गिर पडी।
दो मिनट किसी को क्या हुआ पता ही ना चला। आस पास के लोगों में से आती हुई हँसी की किलकारियाँ अब नज़ारा समझा रही थीं। निशा को हाथ देकर उठाने के चक्कर में असली घोटाला हुआ अरविंद का और वो भी सर से पाँव तक कीचड़ में समा गया। ये लो, ये हो गया देखने वालों के लिये डबल मज़ा।
कीचड़ में सनकर रुँआसी सी हो गई निशा भी वो अरविंद का सहायता प्रकल्प देख हँसने लगी। अब उनका गुट और तमाम दर्शक देख रहे थें एक दूसरे की तरफ देखकर ठहाके लगाते हुए कीचड़ में सने दो बुत।
"क्या कमाल करते हो बिंदू",निशा हसते ह्सते कहने लगी, " ये कैसी सहायता लेकर आये जी?", अब वो किचड में सेटल हो चली थी।
"सहायता काहे की निशा?", अरविंद अचानक गंभीर हो गया, " तुम अचानक गिर गई और सब लोग तुम्हे देख हँसने लगे, मुझे नही पसंद आया। फिर क्या करता, तुम्हे निकालता भी तो कीचड़ से सना सत्य तो नहीं टाल सकता था। फिर एक ही उपाय बचा था निशा।"
अब अचंभित होने की निशा की बारी थी। " तो क्या तुम, ... तुम जान बुझ कर..." ऐसा कुछ बडबडाते हुए एक कीचड़ का गोला बना कर उसने अरविंद को दे मारा। शरमाई सी हँसते हँसते वो कालेज की तरफ भाग चली, बीच में पलटकर छोटे बच्चों की तरह अरविंद को उसने जीभ दिखाई और फिर मुडकर कालेज केंटीन की तरफ भाग चली।
वो कीचड़ का गोला सीधे अरविंद के दिल पर जा लगा। उसे एक हाथ से थाम कर वो अनिकेत को देख रहा था। अनिकेत ने हुश्श किया और कहने लगा चलो कीचड़ दिन मनाते है।
तुषार जोशी, नागपूर
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19 कहानीप्रेमियों का कहना है :
तुषार जी , आपने कहानी-कलश ब्लाग पर पहली कहानी डाली है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। प्रेम के मीठे कीचड़ में सनी आपकी कहानी अंदर तक गुदगुदा देती है। एक मधुर आभास हुआ इस कहानी को पढकर। आपसे आशाएँ बढ गई हैं। जल्द हीं एक और नई कहानी लेकर आईये, मैं इंतजार कर रहा हूँ ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
कहानी -कलश में पहली कहानी के लिए मुबारकबाद
सुंदर कहानी है अंत तक बाँधे रखती है...बधाई:)
तुषार जी पहली कहानी के लिये बधाई । अच्छी लगी मुस्कुराने का
दिल करता है पढ कर ।
Tusharji congratulations for your first published story on this blog...story is good contains pinch of laughter and nautiness
luv
Anu
सुंदर :)
क्या बात है तुषार जी!
पढ़कर एक मुस्कान फैल जाती है चेहरे पर। आपने कॉलेज के दिन याद दिला गये।
मजेदार कहानी!
तुषारजी, आपकी कविताओं की तरह कहानी भी गुदगुदाने वाली है ;)
बधाई!!!
तुषार जी
कहानी पढी । हिन्द युग्म में पहली कहानी के लिए बधाई ।
मैं कहानी पढ़ ही रही थी कि खत्म हो गई । शायद मैं कथा प्रवाह
में बह गई थी । शुभकामनाओं सहित
तुषार जी!
आज पता चला कि आप कविता के साथ साथ कहानियाँ भी बहुत अच्छी लिखते हैं. बधाई स्वीकारें.
सबसे पहले तॊ आप सब कॊ कहानी कलश शुरू करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद एवं साधूवाद।
सचमुच कहानी इतनी खूबसूरती के साथ लिखी गई है कि क्या कहें। ना सिर्फ यह अन्त तक बाधें रखती है अपितु मुस्कुराहट भी बिखेरती है। दिल की नब्ज टटॊलना तॊ कॊई आपसे सीखे।
तुषार जी,
सबकी तरह कहानी मुझे भी मुस्कुराहट दे गई। इस प्यारी सी नटखट कहानी के लिए बहुत धन्यवाद।
लिखते रहें।
क्या बात है… बहुत खुब…
कॉलेज के दिन याद आ गये सर… :)
कहानी जैसा कि सभी कह रहे है अंत तक बंधे रखती है...
और बहुत हल्की भी है पच जाती है जल्दी...........
रुलाती नही वरन् हसाती है...............
एक श्रेष्ठ रचना के लिए बधाई स्वीकार करे और आगे की रचनाओ के लिए.........................
शुभकामनाएँ
प्यारी सी कहानी,अच्छी लगी
pehle to kahani ke liyew badhai dena chunga.
good kahani acchi hai . jaha tak main smajhta hu isme abhi bhi kahi koi kami hai jo padne ko majbor to karti hai par fir bhi thoda kuch or jod diya hota to kafi accha lagta. bura mat mannna dost mujhe kami lagi to bol diya. kamiya ho or usko manna fir usko sudharna hi thik hota hai.
right
keep it up
तुषार जी कहानी बहुत अच्छी है । बधाई
तुषार जी,
कहानी कलश का आरंभ इस लघु-कथा से बेहतर क्या होता। आपने श्रीगणेश कर दिया है अपेक्षा है युग्म का यह प्रयास भी फलित हि।
सटीक कहानी, बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
Kahani-Kalash blog per pahali gudgudati kahani ke liye badhaai ho Tushar ji. keep it up.
बन्धु तुषार जी !
कहानी कलष का उदघाटन आपकी कहानी कीचड क़े साथ हुआ मुझे बहुत अच्छा लगा. नागपुर की तेलंगखेडी लेक के किनारे की कई वर्षो पूर्व पायी जाने वाली कीचड और पास के गाडेन की याद आयी. आज भी एल ए डी कालेज और अम्बाझरी के आस पास पाये जाने वाले पात्रों को आपने इस प्यारी सी लघुकथा में लपेट कर सभी पाठकों को हंसाते हुये, प्रेमाभिव्यक्ति के स्वस्थ स्वरूप से एक अच्छा संदेश दे डाला. सप्रेम
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
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