कहानी लिखने से पहले उसके गूढ तत्वों को समझना भी आवश्यक है। हिन्द-युग्म के मंच पर कहानी के स्वरूप, उसकी दशा और दिशा पर गंभीर चर्चायें हुईं किंतु मंच से जुडे कहानीकार अपनी लेखनी की धार और पैनी कर सकें तथा विधा की प्रामाणिक समझ भी विकसित करें, इस सोच के साथ कहानी पर एक लघु-कार्यशाला 24.11.2007 को राजीव रंजन प्रसाद के निवास पर सम्पन्न हुई।
( कहानीकार - सूरजप्रकाश जी)
सूरज प्रकाश जी को कहानी-कलश का नेतृत्व सौंपते हुए हिन्द-युग्म उनके अनुभवों का लाभ भी उठाना चाहता था। कथाकार और अनुवादक सूरज प्रकाश का लेखन बहुत विस्तृत है। उन्होंने कहानियों के अलावा दो उपन्यास “हादसों के बीच” और देस-बिराना” लिखें हैं। उनके कहानी संग्रह हैं “अधूरी तस्वीर” और “छूटे हुए घर”। सूरज प्रकाश जी नें गुजराती से सात तथा अंग्रेजी से पाँच पुस्तकों के अनुवाद किये हैं। ऎन फ्रेंक की डायरी, एनिमल फार्म, चारली चैपलिन की आत्मकथा तथा चार्ल्स डारविन की आत्मकथा उनकी कुछ उल्लेखनीय अनूदित कृतियाँ हैं। महाराष्ट्र राज्य अकादमी और गुजरात राज्य अकादमी के सम्मान प्राप्त कर चुके सूरजप्रकाश जी नें कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। कार्यशाला के ठीक पहले सूरजप्रकाश जी नें कहानी पर एक लिखित दस्तावेज भी प्रदान किया था जिन्हें ईमेल के माध्यम से सभी सदस्यों तक प्रेषित किया गया।
प्रेम चंद नें कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए लिखा है “ कहानी एसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है।उसके चरित्र, उसकी शैली तथा उसका कथाविन्यास सभी उसकी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव जीवन का संपूर्ण वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है, वह एसा रमणीक उद्यान नहीं जिसमें भाँति भाँति के फूल-बेल बूटे सजे हुए हैं, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है। कहानी की मूलभूत विषेशता पर प्रेमचंद का कहना है कि जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते (श्री मदनलाल की पुस्तक, “कलम का मजदूर: प्रेमचंद” पृष्ठ-266)। ड्रामाई पहलू का अर्थ है कोई सघन, केन्द्रित और तनावपूर्ण प्रसंग। इसी कारण कहानी में संक्षिप्तता, सघनता, और प्रभाव की एकदेशीय केन्द्रीयता, सृजनशील नीयम अथवा गुण माने गये हैं।
{(बायें से दायें) पहली पंक्ति:– रितु रंजन, अभिषेक पाटनी, शोभा महेन्द्रू, दूसरी पंक्ति:- शैलेष भारतवासी, सजीव सारथी, मनुज मेहता, अजय यादव, तीसरी पंक्ति:- निखिल आनंद गिरि, सूरजप्रकाश, राजीव रंजन प्रसाद, रंजना भाटिया, भूपेन्द्र राघव, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’}
कहानी के तत्वों पर लम्बी चर्चा से कार्यशाला को बोझिल न बनाते हुए सूरजप्रकाश जी सीधे ही अपने अनुभवों पर आधारित तथ्यों की चर्चा पर आ गये। उन्होनें कहानी पर जो कुछ कहा उसे विन्दुवार प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
• कहानी की पहली और आखिरी शर्त है उसकी पठनीयता। कहानी अगर खुद को पढ़वा नहीं ले जाती तो उस पर और काम करने की ज़रूरत है।
• कहानी की भाषा और शैली को ले कर हमेशा नये प्रयोग करते रहें लेकिन देखें कि कहीं शैली के प्रयोग के चक्कर में कहानी का दम ही न घुट जाये।
• अपनी शैली को दोहरायें नहीं बल्कि हर बार नये प्रयोग करें।
• कहानी लिखते समय अपनी विद्वता के साथ साथ पाठक के स्तर को भी ध्यान में रखें।
• कहानी ऐसी हो कि ज़रूरत पढ़ने पर उसे मुंह जुबानी सुना सकें या रेडियो आदि पर सुनाते समय उसे पढ़ते समय अटकें नहीं।
• मास्टर्स को खूब पढ़ें, ये देखने के लिए पढ़ें कि आखिर क्या है उनकी कहानियों में जो देश, काल और भाषा की सारी दूरियों के बावजूद हमारी स्मृति में बनी रहती हैं।
• अपने समकालीनों की रचनाओं को पढ़ें ताकि आपको पता चले कि आपके समकालीन अपने वक्त की सच्चाइयों को अपनी रचनाओं में किस तरह से उतारते हैं।
• नियमित लेखन की आदत डालें। चाहे ये लिखना डायरी हो या पत्र।
• सच्ची घटनाएं कभी भी अच्छी कहानियों का मसाला नहीं बनतीं। अगर ऐसा होता तो मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां और इस तरह की पत्रिकाएं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाएं होतीं।
• कहानियों में आये तथ्यों आदि की विश्वसनीयता की जांच कर लें तभी उन्हें लिखें।
• अपने पाठक को कभी भी बेवकूफ न समझें।
• खूब यात्राएं करें और अनुभव बटोरें। लेकिन सभी अनुभवों पर कहानियां लिखने की ज़रूरत नहीं होती। अनुभव जीवन का समृद्ध बनाने के लिए होते हैं।
• खूब लिखें लेकिन ज़रूरी नहीं कि सारा लिखा हुआ प्रकाशित हो ही।
• कहानी का शीर्षक ऐसा हो जो आपको कहानी पढ़ने के लिए प्रेरित करे।
• क्या लिखना है, ये जानने के साथ साथ ये जानना भी बेहद ज़रूरी है कि क्या नहीं लिखना है।
• नये लेखक को अपने आप में कथा नायक की असीम संभावनाएं नज़र आती हैं। इसलिए आम तौर पर हर लेखक का शुरुआती लेखन आत्म कथात्मक ही होता है। लेकिन वक्त बीतने के साथ अपने आप पर जितना कम लिखा जाये उतना बेहतर। आपके अनुभव जितने समृद्ध होंगे, आप उतने बेहतर रचनाकार बनेंगे।
• अपनी कहानी पर दूसरों की आलोचना के लिए तैयार रहें। अच्छे मित्र कभी भी आपका अहित नहीं चाहेंगे। शुरू शुरू में अपनी रचना की कटु आलोचना बेशक खराब लगे, दीर्घ काल में बेहद उपयोगी होती है।
• कहा जाता है कि पूरी दुनिया के साहित्य में गिने चुने विषयों पर ही कहानियों लिखी जाती हैं। लेखक का नजरिया, ट्रीटमेंट और उसकी सोच ही एक कहानी को दूसरी कहानी से अलग करती है।
• कहानी को अपने भीतर पूरी तरह से तैयार होने दें तभी उसे कागज पर लिखें. कहानी कागज पर उतरने से पहले हमारे भीतर पूरी तरह से लिखी जा चुकी होती है. उन्हीं पलों का इंतज़ार करें।
{(बायें से दायें) सूरजप्रकाश, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, राजीव रंजन प्रसाद, अंशुल गर्ग , सीमा कुमार , अजय यादव व निखिल आनंद गिरि }
{(बायें से दायें) पहली पंक्ति:–निखिल आनंद गिरि, अजय यादव, मोहिन्दर कुमार दूसरी पंक्ति:- अभिषेक पाटनी, शोभा महेन्द्रू , रंजना भाटिया}
अंत में सूरज प्रकाश जी नें अपनी एक कहानी सुना कर कार्यशाला को सार्थकता तथा मंत्रमुग्धता प्रदान की। सूरज प्रकाश जी ने युग्म के सभी सदस्यों को अपने द्वारा संपादित पुस्तक “कथा दशक” की एक प्रति भेट की जिसमें 1995 से 2004 के दौरान इंदु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त रचनाकारों की कहानियाँ प्रकाशित हैं।
{(बायें से दायें) सूरजप्रकाश, श्रीकांत मिश्र 'कांत, राजीव रंजन प्रसाद}
यह भी हर्ष का विषय था कि कथा-यूके (यूनाईटेड किंगडम में बसे दक्षिण एशियाई लेखको का समूह) द्वारा हिन्द-युग्म को 1000/- रुपये की सहयोग राशि प्रदान की गयी। हमारे प्रयासों को समर्थन देने के लिये हिन्द युग्म कथा (यू-के) का आभारी है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
प्रेम चंद नें कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए लिखा है “ कहानी एसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है।उसके चरित्र, उसकी शैली तथा उसका कथाविन्यास सभी उसकी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव जीवन का संपूर्ण वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है, वह एसा रमणीक उद्यान नहीं जिसमें भाँति भाँति के फूल-बेल बूटे सजे हुए हैं, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है। कहानी की मूलभूत विषेशता पर प्रेमचंद का कहना है कि जब तक वे किसी घटना या चरित्र में कोई ड्रामाई पहलू नहीं पहचान लेते तब तक कहानी नहीं लिखते (श्री मदनलाल की पुस्तक, “कलम का मजदूर: प्रेमचंद” पृष्ठ-266)। ड्रामाई पहलू का अर्थ है कोई सघन, केन्द्रित और तनावपूर्ण प्रसंग। इसी कारण कहानी में संक्षिप्तता, सघनता, और प्रभाव की एकदेशीय केन्द्रीयता, सृजनशील नीयम अथवा गुण माने गये हैं।
{(बायें से दायें) पहली पंक्ति:– रितु रंजन, अभिषेक पाटनी, शोभा महेन्द्रू, दूसरी पंक्ति:- शैलेष भारतवासी, सजीव सारथी, मनुज मेहता, अजय यादव, तीसरी पंक्ति:- निखिल आनंद गिरि, सूरजप्रकाश, राजीव रंजन प्रसाद, रंजना भाटिया, भूपेन्द्र राघव, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’}
कहानी के तत्वों पर लम्बी चर्चा से कार्यशाला को बोझिल न बनाते हुए सूरजप्रकाश जी सीधे ही अपने अनुभवों पर आधारित तथ्यों की चर्चा पर आ गये। उन्होनें कहानी पर जो कुछ कहा उसे विन्दुवार प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
• कहानी की पहली और आखिरी शर्त है उसकी पठनीयता। कहानी अगर खुद को पढ़वा नहीं ले जाती तो उस पर और काम करने की ज़रूरत है।
• कहानी की भाषा और शैली को ले कर हमेशा नये प्रयोग करते रहें लेकिन देखें कि कहीं शैली के प्रयोग के चक्कर में कहानी का दम ही न घुट जाये।
• अपनी शैली को दोहरायें नहीं बल्कि हर बार नये प्रयोग करें।
• कहानी लिखते समय अपनी विद्वता के साथ साथ पाठक के स्तर को भी ध्यान में रखें।
• कहानी ऐसी हो कि ज़रूरत पढ़ने पर उसे मुंह जुबानी सुना सकें या रेडियो आदि पर सुनाते समय उसे पढ़ते समय अटकें नहीं।
• मास्टर्स को खूब पढ़ें, ये देखने के लिए पढ़ें कि आखिर क्या है उनकी कहानियों में जो देश, काल और भाषा की सारी दूरियों के बावजूद हमारी स्मृति में बनी रहती हैं।
• अपने समकालीनों की रचनाओं को पढ़ें ताकि आपको पता चले कि आपके समकालीन अपने वक्त की सच्चाइयों को अपनी रचनाओं में किस तरह से उतारते हैं।
• नियमित लेखन की आदत डालें। चाहे ये लिखना डायरी हो या पत्र।
• सच्ची घटनाएं कभी भी अच्छी कहानियों का मसाला नहीं बनतीं। अगर ऐसा होता तो मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां और इस तरह की पत्रिकाएं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाएं होतीं।
• कहानियों में आये तथ्यों आदि की विश्वसनीयता की जांच कर लें तभी उन्हें लिखें।
• अपने पाठक को कभी भी बेवकूफ न समझें।
• खूब यात्राएं करें और अनुभव बटोरें। लेकिन सभी अनुभवों पर कहानियां लिखने की ज़रूरत नहीं होती। अनुभव जीवन का समृद्ध बनाने के लिए होते हैं।
• खूब लिखें लेकिन ज़रूरी नहीं कि सारा लिखा हुआ प्रकाशित हो ही।
• कहानी का शीर्षक ऐसा हो जो आपको कहानी पढ़ने के लिए प्रेरित करे।
• क्या लिखना है, ये जानने के साथ साथ ये जानना भी बेहद ज़रूरी है कि क्या नहीं लिखना है।
• नये लेखक को अपने आप में कथा नायक की असीम संभावनाएं नज़र आती हैं। इसलिए आम तौर पर हर लेखक का शुरुआती लेखन आत्म कथात्मक ही होता है। लेकिन वक्त बीतने के साथ अपने आप पर जितना कम लिखा जाये उतना बेहतर। आपके अनुभव जितने समृद्ध होंगे, आप उतने बेहतर रचनाकार बनेंगे।
• अपनी कहानी पर दूसरों की आलोचना के लिए तैयार रहें। अच्छे मित्र कभी भी आपका अहित नहीं चाहेंगे। शुरू शुरू में अपनी रचना की कटु आलोचना बेशक खराब लगे, दीर्घ काल में बेहद उपयोगी होती है।
• कहा जाता है कि पूरी दुनिया के साहित्य में गिने चुने विषयों पर ही कहानियों लिखी जाती हैं। लेखक का नजरिया, ट्रीटमेंट और उसकी सोच ही एक कहानी को दूसरी कहानी से अलग करती है।
• कहानी को अपने भीतर पूरी तरह से तैयार होने दें तभी उसे कागज पर लिखें. कहानी कागज पर उतरने से पहले हमारे भीतर पूरी तरह से लिखी जा चुकी होती है. उन्हीं पलों का इंतज़ार करें।
{(बायें से दायें) सूरजप्रकाश, श्रीकांत मिश्र ‘कांत’, राजीव रंजन प्रसाद, अंशुल गर्ग , सीमा कुमार , अजय यादव व निखिल आनंद गिरि }
{(बायें से दायें) पहली पंक्ति:–निखिल आनंद गिरि, अजय यादव, मोहिन्दर कुमार दूसरी पंक्ति:- अभिषेक पाटनी, शोभा महेन्द्रू , रंजना भाटिया}
अंत में सूरज प्रकाश जी नें अपनी एक कहानी सुना कर कार्यशाला को सार्थकता तथा मंत्रमुग्धता प्रदान की। सूरज प्रकाश जी ने युग्म के सभी सदस्यों को अपने द्वारा संपादित पुस्तक “कथा दशक” की एक प्रति भेट की जिसमें 1995 से 2004 के दौरान इंदु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त रचनाकारों की कहानियाँ प्रकाशित हैं।
{(बायें से दायें) सूरजप्रकाश, श्रीकांत मिश्र 'कांत, राजीव रंजन प्रसाद}
यह भी हर्ष का विषय था कि कथा-यूके (यूनाईटेड किंगडम में बसे दक्षिण एशियाई लेखको का समूह) द्वारा हिन्द-युग्म को 1000/- रुपये की सहयोग राशि प्रदान की गयी। हमारे प्रयासों को समर्थन देने के लिये हिन्द युग्म कथा (यू-के) का आभारी है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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4 कहानीप्रेमियों का कहना है :
वाह सचमुच इस अनुभव के बारे क्या कहा जाए. ..... वह कहानी वो किरदार, शयद कभी न भूल पाए हम,.....इस प्रस्तुति के लिए धन्येवाद और राजीव जी का ख़ास आभार जिनके कारन ये अनुभव प्राप्त हुआ
३५-४० मिनट लम्बी कहानी कब शुरू हुई और कब खत्म पता ही नहीं चला.. सब मन्त्र मुग्ध सुनते रहे.. एक जीवन्त पात्र के चारों और बुनी हुई कहानी अतयन्त रोचक थी... एक अलग अनुभव.. दौहराना चाहूंगा.
मेरे प्रिय निखिल भाई,आदरणीय सूरज जी,राजीव जी श्रीकांत जी,पटनी जी,रंजू जी,भारतवासी जी और अन्य तमाम साथियों और मित्रों जो लोग भी इस कार्यशाला में शरीक हुए,मुझे उन सबसे ढेरों शिकायत है.
पहली बात तो ये कि आप सब जो इसमें सम्मिलित हुए सब के सब पहले से ही अच्छे जानकार हैं, आप सब कार्यशाला में हो आये और हम जैसे नवसिखिये जिन्हें कि सही मायनों में इसकी जरुरत है,को कानों कान ख़बर तक नहीं हुई. ये कहाँ का इन्साफ है?
मैं विशेष कर के भारतवासी जी से बहुत खफा हूँ(यद्द्य्पी कि मैं उनकी बहुत इज्जत करता हूँ),मैं उनकी पैनी निगाह का हमेशा से कायल रहा हूँ,पर उन्होंने भी हम जैसों का ख्याल नहीं किया.
खैर, अब पछताये होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत,लेकिन मैं विनम्रता पूर्वक आपसे उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में ऐसी किसी भी कार्यक्रम के सन्दर्भ में हमारा भी ख्याल कर लिया करें.
मुझे पता है मेरे ये किंचित कड़े शब्द आपकी निगाहों से बचने नहीं पाएंगे,इसीलिए अनुरोध करता हूँ कि इन्हें मेरी वास्तविक अभिव्यक्ति समझकर माफ़ कर दीजिएगा.
आपका
अलोक सिंह "साहिल'
आप सभी का हिन्दी को जीवित और स्वस्थ रखने के इन सभी प्रयासों के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं.
आप जो कार्य शालाएं करते हैं वे सफल रहें - ऐसी शुभ कमनायों सहित-
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