Tuesday, December 4, 2007

ने जनायु वास..


समय: 1601 बजे(कीव के अनुसार)
1931 बजे (भारतीय)

स्थान : विमान में कीव से उड़ान के एक घण्टे पश्चात दिल्ली की ओर कहीं पर आसमान में

विमान में खिड़की के पास बैठा हुआ हूँ. शीशे से बाहर देखने पर लगता है जैसे हम धुंये के गुबार में से गुजर रहे हैं. परन्तु मुझे पता है कि यह बादल हैं. और हम बादलों के बीच होकर अभी अभी उड़े हैं. पृथ्वी से उड़कर अब हम पहुँचने वाले हैं, बादलों के ऊपर. और रूई के वृहदाकार गोले अथवा कभी फूलगोभी की आकृति वाले बादलों को नीले आसमान में मैं प्राय: देखा करता हूँ जब भी कभी विमान से उड़ान भरता हूँ. मेरा यह अनुभव प्राय: मुझे सृष्टि की विशालता और मानव की लघुता का एक आध्यात्मिक अनुभव कराया करता है. इसी कारण से मेरा यह अभ्यास है कि मैं घण्टों उड़ते हुये बादलों को देखते हुये अपनी कल्पना से तरह तरह के चित्र देख पाता हूँ. चित्रकार की तूलिका से किस रंग के समायोजन से यह सब वास्तविक रूप से चित्रित किया जा सकेगा यह मेरे चिन्तन का प्रिय विषय रहते हैं और मैं हवाई यात्रा का आनन्द इसी प्रकार उठाता हूँ. कैसी है हमारी पृथ्वी, नदियाँ, पहाड और विशालकाय देशों की धरती के रंग? यह सब मैंने इसी प्रकार देखा है और जाना है.

वस्तुत: इस पल तो यूक्रेनियन वायुसेवा के विमान में बैठा हुआ उड़ता जा रहा हूँ कीव से दिल्ली की ओर. कुल दूरी 6000 किमी के लगभग और अब तक हम एक घण्टे की उड़ान भर चुके हैं. कुल समय दिल्ली पहुँचने में लगेगा लगभग छ: घण्टे. इस प्रकार हम 1000 किमी के आसपास उड़ चुके हैं. अत: हम कहीं पर आज के रूस के उपर से उड़ रहे होंगे ऐसा मैं सोचता हूँ. इधर कीव में एक बहुत लम्बे प्रवास पर रहा हूँ. जिस उद्देश्य के लिये आया था, उसे सफलता पूर्वक पूर्ण किया है. और अब जब कीव छोड़ रहा हूँ, तो ये भावानात्मक वियोग का आवेग कैसा…? सोचता हूँ, मानव मष्तिष्क में स्मृतियाँ संजोने और उन्हें प्यार करने की प्रवृत्ति शायद सर्वाधिक है. इसलिये वह प्राय: मोह ग्रस्त हो जाता है. संभवत: कैदी को जेल की यातना पूर्ण कोठरी से भी एक भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो जाता होगा. जेल की जिस कोठरी में वह लम्बे समय तक रहता है, जेल मुक्ति के समय शायद उसे उसका वियोग भी अखरने लगता है. आंखे सजल होने लगती हैं. बहुत हसरत के साथ उन दीवारों को देखता है. बड़े बड़े महापुरूषों ने ऐसे ही स्थानों पर ग्रन्थो की रचना भी की है. नेहरू जी द्वारा अल्मोड़ा जेल की उनकी रचना, उनकी स्मृति में इसी भावना की घोतक है. ऐसा ही वियोग मुझे आकुलता में धकेल रहा है. इस पल…

''या ना खाचू दस्विदानियाँ (मुझे अलविदा नहीं चाहिये)''

मेरे कानों में स्वर गूंजते से लग रहे हैं. परन्तु यह स्वर किसके? यह आवाज कौन?
मन भरता जा रहा है. कुछ अकुलाहट अनुभव करता हूँ. तभी विमान परिचारिका आकर शीतल पेय पकड़ा जाती है. तत्पश्चात खाना लगा दिया गया है. निरामिष भोजी लोगों के लिये यूक्रेनी विमान सेवा में कीव से दिल्ली की यात्रा में बडी असुविधा है. जबकि यही विमान सेवा दिल्ली से कीव की यात्रा में दिल्ली से सामिष एवं निरामिष दोनों प्रकार के स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है. भोजन के दौरान ध्यान भंग होने से चिन्तन में बाधा पहँचती है. अजय, सप्तावर से बोलकर विमान में आनन्द और मेरे साथ अपना ग्रुप फोटो खींचने को कहता है. और फिर क्लिक की आवाज के साथ ही फ्लैश लाइट .. और मैं फिर सोचने लगता हूँ.

एक बहुत बड़े अन्तराल तक वियोग की पीड़ा से गुजरते हुये रहा हूँ कीव में. वियोग भी किसका अपने जीवन के उन सभी अंगो का जिनका अस्तित्व ही मेरे लिये अथवा किसी भी मानव के लिये प्राणवायु जैसा है. कितनी लम्बी अवधि के बाद मिलूँगा सब से. कल्पना करता हूँ पहुँचते ही मेरी बाहें फैलेंगी और पत्नी, बेटी सहित सब समा जायेंगे मेरी बाहों में. और फिर … नयन धारओं से मेरे सीने के वस्त्रों के साथ साथ हृदय भी सिक्त हो जायेगा.

क्यों होता है ऐसा? रोते हैं हम खुशी के पलों में. रोते है हम दुख के पलों में. संयोग अथवा वियोग हमारे भावातिरेक को हमारी आंखे सिर्फ आंसुओं में डूबकर ही अभिव्यक्त करना जानती हैं. स्मृति में अपनी बी एस सी के एक गणितीय सिध्दान्त की व्याख्या करते हुये प्रोफेसर अग्रवाल का चित्र उभरता है और… कानों में उनकी आवाज… अपने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुये वे बोलते
'' +∞ और -∞ एक ही बिन्दु है. एक ही अक्ष पर हम चलते चले जायें….. ''
वह हमें समझाते चले गये थे गणित और मैं समझता गया था. पृथ्वी गोल है पूर्व दिशा में चलते जायेगें तो भी (∞) अनन्त तक चलते ही चले जायेगें. और यदि पश्चिम की ओर चलने लगे तो भी अनन्त (∞) तक चलते ही जायेगें. यह सब चक्रीय है. सारा रहस्य छिपा है. सापेक्षता और निरपेक्षता में. अर्थात क्या किसके सापेक्ष क्या है?

विज्ञान के इन सिध्दान्तों को समझाने वाले मेरे आदरणीय व्याख्याताओं को संभवत: यह कल्पना भी उन दिनों नहीं रही होगी कि उनका यह शिष्य विज्ञान के सिध्दान्तों से मानव मन की गहराइयाँ और दर्शन नापने का प्रयास करने लगेगा. किन्तु आज यह सत्य है और मैं प्रयासरत हूँ और कुछ-कुछ जानने भी लगा हूँ कि यह सारी स्रष्टि ही चक्रीय है. पृथ्वी चक्रीय, सौरमण्डल चक्रीय, आकाश गंगा चक्रीय.. चक्रीय हैं सारी नीहारिकायें और सारा ब्रह्माण्ड. कहा तक चलेगें हम? अनन्त तो अनन्त ही रहेगा चाहे धनात्मक अथवा त्रृणात्मक. इसी प्रकार अनन्त हैं हमारी भावनायें भारतीय दर्शन में हमारे मनीषीयों ने भावना या मन की गति भी अनन्त ही मानी है. उसी मन के साथ जब इस पल उड़ रहा हूँ, तो मन भावना से भरा जा रहा है. अपने नगर पहुँचते ही परिवार से मिलने की कल्पना से.

परन्तु इस पल शायद ऐसा नहीं है. टेलीफोन से जब भी कीव से घर बात करता, आंखे प्राय: पत्नी तथा बच्चों के वियोग के साथ साथ, उनकी आवाज कानों में पड़ते हुये, संयोग की प्रसन्नता से सजल हो उठती थीं. उसी संयोग के अन्दर आज भी इस पल मेरी आंखो में सजलता तथा हृदय में आकुलता का अतिरेक है. किसी गजल के शब्द कानों में उभर रहे है.

… सीने में जलन आंखो में तूफान सा क्यूँ है?

मन वापस उड़ा जा रहा है कीव की ओर शरीर उड़ रहा है भारत की ओर भारतवर्ष से वियोग समाप्त हुआ है. किन्तु यह आवेग, यह आकुलता है कीव से वियोग की. कीव मुझे क्यों खींच रहे हो तुम क्या है वहाँ पर जो मेरा है, जो छूट गया है. पा सकोगे क्या तुम उसे.. यह वियोग का विशाल जलधि लांघ कर? किसी कविता का अंकुर फूट रहा है मेरे हृदय में. बाहर अंधेरा होने वाला है. झांकता हूं तो बादल कहीं कहीं छंटे हुये हैं. नीचे पूरी धरती वर्फ से ढकी है. अंतरिक्ष की नीलिमा उस बर्फ से ढक़ी धरती के विशाल भूखण्ड को नीली चादर जैसी उढाये हुये है. धरती के इसी विशाल भूखण्ड को कभी सोवियत संघ के नाम से जाना जाता था. जो सारे विश्व में महाशक्ति के रूप गर्वोन्नत खडा था. आज विघटन के बाद आपसी ईष्या द्वेष से भरे हुये छोटे छोटे देशों के झुण्ड की तरह है. आर्थिक विपन्नता के शिकार, आर्थिक रूप से अमेरिकन डालर की परतन्त्रता मे फंस चुके हैं. कितनी बड़ी-बड़ी हैं उनकी समस्यायें.., कुछ मेरी समझ में आती है कुछ नहीं. परन्तु मैं चाहता हूँ उनके देश में भी समस्याओं का अन्त हो जाये वह मेरे अपने देश के प्रति मेरी कामना की तरह ही मुझे अपने जैसे लगने लगे है. वहाँ कुछ तो है, जो मेरा है कौन है वह जो मेरे हृदय के स्पन्दनों को इस पल अपने प्यार से आकुल कर रहा है.

मुझे मालुम है इस पल मैं उड़ा जा रहा हूँ सुदूर पूर्व अपनी मातृभूमि की ओर.. यूरोप की धरती से उड़कर एशिया में अपनी माँ, अपनी भारत माँ से मिलने. क्षितिज की गहरायी को प्रदर्शित करने वाली गहरी नीली रेखा दिखायी पड़ रही है. बायीं ओर देखता हूँ तो यह कालिमा में डूबती जा रही है. जबकि दाहिनी ओर की खिड़की से देखने पर सांध्य कालीन लालिमा के साथ साथ एक पीली रेखा भी है. यही है वह रात्रि संध्या एवं अपराहन का एक साथ दृश्यावलोकन जिसने मुझे कई बार प्रकृति की विशेषानुभूति करायी है. यह सारा सब कुछ मेरी आकुलता को कम नही कर पा रहा है. क्यों आ रहा है हृदय में ये ज्वार…? लगता है एक झंझावात मुझे घेर चुका है. आंखे चुपके से बह रही हैं. मैं छिपाने का प्रयास करता हूँ किन्तु आनन्द देख लेता है. वह जानता है मुझे मेरे हृदय को मेरी पीड़ा को भी. समझने तथा गंभीरता के साथ सहेज लेने की क्षमता भी है उसमें. धीरे से मेरे कान में फुसफुसाता है
''भैया?''
''कुछ नहीं रे'' मैं कहने का प्रयास करता हूँ.
सहसा पाता हूँ गला अवरूध्द है. उसकी ओर देखकर हँसता हूँ. किन्तु सब कुछ उल्टा पुल्टा आंखे उसके स्नेह का सहारा पाकर स्रोत बनने की चेष्टा करने लगती है. मैं वलात् मन पर काबू करके कुछ संयत होता हूँ तथा आनन्द से कहता हूँ ''कुछ कागज चाहिये लिखना है कोई कविता आहट दे रही है. यह तो कविता की प्रसव पीड़ा है रे!'' वह एक कागज का टुकड़ा मांगकर लाता है और मैं उसी पर जुट जाता हूँ घसीटने में. जानता हूँ इस पल इसी की आवश्यकता थी मुझे. मुस्करा कर हृदय के भावों को छिपाने में सक्षम होकर आनन्द से कहता हूँ

''तुम्हें याद है वह पंक्ति ?''
'' ने जनायु बास'' आनन्द के मुंह से फूटता है
…और लगता है जैसे मेरे हृदय के अन्दर पडे छाले को किसी ने फोड़ दिया है. एक भयंकर पीड़ा के ज्वार से उछल कर सारा अवसाद बहने लगता है. इस कविता के रूप में जो रूसी में सुनी गयी कविता का भावार्थ मात्र है. मेरी अपनी तो उसमें मात्र पीड़ा की अनुभूति ही है. क्योंकि कीव की जिस स्ट्रीट पर, जिस संध्या यह कविता उसने जिस कारण से मुझे सुनायी थी वही सब मेरे हृदय में आकुलता का रूप लिये छिपा हुआ है. वही है… वही है…, वह आवाज मेरे कानों में मधुरता, स्नेह एवं भावतिरेक के साथ वह सजल नीली आंखे खिडक़ी के बाहर भयंकर हिमपात और तापमान.. -23 c की शीत किन्तु आतिथ्य की उष्णता क्या थी वह आवाज?

''ने जनायु वास
कौन थे तुम नहीं जानती मैं
हो कौन तुम,
यह नहीं जानना है.
किन्तु फिर भी धडक़ता
है हृदय मेरा
यह तुम्हारे ही लिये
फिर मिलोगे
कभी जीवन में मुझे,
नहीं मालुम यह मुझे,
जब जमेगी नदी निप्रो शीत से
और जब हिमपात भी होगा कभी
हृदय होगा उष्ण मेरा स्नेह से
बस तुम्हारे ही लिये

उठेंगे जब हाथ कहने अलविदा
सहम धड़कन जायेंगी मेरी सभी,
होठ कांपेगे सहम कर
मैं नही कह पाऊंगा तब अलविदा
बस तुम्हारे ही लिये

अतिथि थे तुम एक दिन,
पर ठहर जाओगे हृदय में,
यह नहीं जाना कभी
मेरी आंखे वाट जोहेंगी सदा,
और आकुल हृदय धड़केगा...
बस तुम्हारे ही लिये
ने जनायु बास''

कानों में कविता की पंक्तियां ''ने जनायु वास'' विमान इंजनों की घरघराती आवाज के बावजूद लगता है अंतरिक्ष मे गूंजकर पड़ रही हैं. मेरा पेन लगता है बहुत धीरे चल रहा है. मन में चीखकर तुम्हें पुकार रहा हूँ.
''लो तुम्हारा नाम भी
अब छा गया है व्योम में,
तुम हमारे स्वर सुनो
या ना सुनो…
किन्तु मैं यह जानता हूँ,
युगों से मैं जानता था,
हाँ मिले थे हम नहीं.
हृदय के स्पन्दनों को
छोड़कर मैं आ गया हूँ.
मेरी श्वासों में बसी है
श्वास भी कुछ उष्ण सी,
आज मेरे हृदय में अब
बस चुका है करूणा क्रन्दन
देखकर हिमपात भी
कुछ नहीं अब हो सकेगा
हृदय ज्वाला याद से
गीत उगलेगी कि लावा
नहीं कुछ मुझको पता है
हाँ तुम्हारे शब्द प्रेरित कर सकेंगें
मैं लिखूँ.. मैं लिखूँ..
चाह यह मेरी तुम्हारी एक है
‘ने जनायु वास’
यह अब रोशनी है तिमिर में
और यह मैं जानता हूँ
आज तू भी जानती है
और यह हम जानते है
भले जीवन भर जलेगें
हृदय पीड़ा से गलेंगें
किन्तु हम कर जायेगें
सृष्टि नूतन गीत की
नहीं भाषा धर्म कोई
देश के बन्धन कभी
स्नेह से ऊंचा उठेगा
कोई बाधा या हिमाला
स्नेह आड़े आयेगा
प्यार का पंछी अप्रतिम
पार उड़कर जायेगा..''

लग रहा है कीव में मैं बहुत कुछ छोड आया हूँ. जो छूटा है वह मेरा है. जो छूटा वह मेरी अपनी धरती के दिये संस्कारों का हिस्सा है. स्नेह, प्रीत,प्यार और वसुधैव कुटुम्बकम की धरती से जब मैं गया था तो कोई नहीं था वहाँ. किन्तु आज अपरिचितों के बीच उसी धरती पर उसी नगर की एक स्ट्रीट की बहुमंजली इमारत के एक फ्लैट में है एक हृदय, जहाँ अंकुरित है मेरे स्नेह का बीज. और वह हृदय हर पल धड़कता है मुझे प्ररेणा देता हुआ. गति है उस प्यार से. मैं जानता हूँ इस पल जब मैं उड़ रहा हूँ विमान से इस पल भी वह हृदय धड़क रहा होगा मेरे लिये. प्रात: फोन पर हुयी बात से कानों में पडने वाली हिचकियाँ रूलायी और अवरूध्द आवाज मुझे इस पल भी सुनायी पड़ रही है. मैं स्वयं उसी पीड़ा को भोग रहा हूँ इस पल. तुमहारी नीली आंखों को अपने हाथों से ढक कर मैं ने चलते चलते यही तो कहा था
''आत्मा को प्यार करो शरीर तो मिथ्या है यह स्वपन है''
और वही सत्य जानते हुये भी मैं मोह ग्रस्त हूँ स्वयं ही. संभवत: यह स्वयं की अपनी कविता एवं साहित्य की रचना हेतु दर्द एवं पीड़ा पाने के नये आयाम ढूंढ़ते रहने वाला मेरा अपना खोजी मन ही है.
तुम मेरी स्वत्वाहूता पीड़ा हो
मैने अपनी एक वन्दना में माँ सरस्वती से प्रार्थना की थी
‘… माँ मुझमे तुम पीड़ा देना’
माँ ने उसी आर्शीवाद के रूप में तुम्हें मेरी आजीवन ‘पीड़ा प्रेरणा’ के रूप में मुझे सौंपा है. और यही है वह निष्काम नि:शरीर प्रेम. सम्भवत: राधा और मीरा की भक्ति का जो मैं मानव शरीर से तुम्हारे स्नेह से अनुभव कर पा रहा हूँ. तुम्हें राधा और कृष्ण के चित्र से और भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव हैं. जिज्ञासा है भारत को समझने की. राधा का चरित्र जीने की कामना करते करते तुम कूद पड़ी हो इस वियोग के अथाह समुद्र में.

तुम्हारी कवितायें हर पल मेरे हृदय में गूंजती रहेंगी. हम करते रहेंगे स्नेह पत्रों और दूरभाष द्वारा और रचते रहेंगे साहित्य साधनारत होकर. याद है न तुमने उस दिन कहा था रूसी भाषा में
''स्नेह कभी मरता नहीं''
हाँ मैं भी यह कह रहा हूँ. और सिद्व करना है हमें अपनी रचनाओं से और यही उक्ति हमारे विश्वास को जगाये रख सकेगी. यही शब्द पहुचायेंगे उष्मा तुम्हारे हृदय में.. हिमपात में. भयंकर शीत में भी जब तुम गीत गुनगुनाओगी उसे सुनने मेरा मन सदा तुम्हारे पास होगा. मैं कभी नहीं भूलूँगा तुम्हारे उस निष्काम प्रेम को जिसकी उष्मा लेकर तुम शून्य से नीचे के तापमान में भी कष्टसाध्य दूरी एवं शीत की परवाह किये बिना मुझसे कुछ पल सानिध्य पाने आयीं. तुमने योरेप में जन्म लेकर भारतीय राधा का जीवन जीने का प्रयास किया है. ईश्वर करें तुम्हारी सहायता एवं दे सके शक्ति मुझे तुम्हें अपनी लेखनी में समेट पाने की.

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6 कहानीप्रेमियों का कहना है :

रंजू भाटिया का कहना है कि -

श्रीकांत जी आपकी यह आत्मकथा रूपों कथा अच्छी लगी .इस के संग जुड़े भावों की दिल से महसूस किया
प्रेम से जुडा एहसास जो इस में उभर के आया है वह बहुत सुंदर है ..प्रेम बंधा नही किसी सीमा में ..भाषा में .

अतिथि थे तुम एक दिन,
पर ठहर जाओगे हृदय में,
यह नहीं जाना कभी
मेरी आंखे वाट जोहेंगी सदा,
और आकुल हृदय धड़केगा...
बस तुम्हारे ही लिये
ने जनायु बास''

बहुत सुंदर लगा आपका यह ढंग इस को यूं सुनाने का .इसको पूरा पढने के बाद लफ्ज़ मौन है लिखते रहे .इंतज़ार रहेगा आपकी अगली कहानी का .शुभकामना के साथ

रंजू

शोभा का कहना है कि -

कुछ अनुभव अभिव्यक्ति से परे होते हैं । उनका होना ही जीवन का सम्बल होता है । आपने गूँगे के गुड़ को भाषा दी है । जो अनुभव किया उसको बहुत सुन्दर शब्दों से उतारा है । भाव-विभोर कर देने वाला अनुभव है ये । परिवर्तन तो सृष्टि का नियम है । सब कुछ हमेशा नहीं रहता फिर भी आपने उसे बहुत सँभाल कर रखा है । जीवन के अनुभव बस यूँ ही प्रेरणा देते रहें यही कामना है ।
सुन्दर और भावभरी अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

श्रीकांत जी,

कहानी की शैली अनूठी है। आत्मकथात्मकता इसकी रोचकता बढाती है और दार्शनिकता इसे गहरायी प्रदान करते है।

"तुमने योरेप में जन्म लेकर भारतीय राधा का जीवन जीने का प्रयास किया है. ईश्वर करें तुम्हारी सहायता एवं दे सके शक्ति मुझे तुम्हें अपनी लेखनी में समेट पाने की." यह कथ्य मन की कश्मकश के साथ निकल कर आया है, एक अच्छी कहानी।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Alpana Verma का कहना है कि -

आत्म कथा सी यह कहानी अच्छी लगी-बहुत दिनों बाद इतनी ज्यादा हिन्दी पढी :) -- या कहिये पढ़ सकी क्यों कि रचना में एक निरंतरता है जो पढ़ने वाले को बाँध कर रखती है---कहानी कहती है--
जीवन चलने का नाम है ----इस लिए अच्छे बुरे सभी अनुभवों से सीख लेना ही है -चाहे कहीं भी रहें -कवि कि लेखनी कहीं रूकती नहीं है यह तय है---शुभकामना

Anonymous का कहना है कि -

श्रीकांत जी माफ़ी चाहूँगा,मैंने ४ दिन पहले ही यह कहानी देखि,परन्तु इसके शीर्षक को पढ़कर ही मैं ठिठक गया,यह सोंचकर की जब शीर्षक ही नहीं समझ आया टू कहानी क्या ख़ाक समझ आयेगी.
परन्तु आज फ़िर जब मेरे नजरों से गुजरा टू मैंने सबसे पहले नाम देखा की आख़िर लिखी किसने है,सच मानिए आपके नाम के सहारे बड़े हिम्मत के साथ पढ़ना आरंभ किया और अंत आते आते..................
लाजवाब हो गया
बहुत ही अच्छी आत्मकथात्मक कहानी,सबसे बड़ी बात मेरा विश्वास कायम रहा.
बहुत बहुत बधाई
अलोक सिंह "साहिल"

Sajeev का कहना है कि -

अतिथि थे तुम एक दिन,
पर ठहर जाओगे हृदय में,
यह नहीं जाना कभी
मेरी आंखे वाट जोहेंगी सदा,
और आकुल हृदय धड़केगा...
बस तुम्हारे ही लिये
ने जनायु बास''

इस उत्क्रुस्त कहानी में यह कविता चार चाँद लगा जाती है , ऐसा लगता है जैसे इस कविता की भूमिका कहती हो ये कहानी..... श्रीकांत जी बधाई

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