Monday, December 31, 2007

अपंग

-तो, अब लड़की को बुलाया जाये?
मेरे घरवाले, जिनमे मैं, मेरी बहन, मेरी माँ और मेरे पिताजी हैं, मेरे लिए दुल्हन पसंद करने आये हैं

लड़की परंपरागत भेष-भूषा में चाय-बिस्कुट के साथ हाज़िर होती है
-बैठ जाओ, बेटी! - माँ ने कहा
साड़ी संभालते हुए हलकी-सी मुस्कान के साथ बैठ जाती है
-अच्छा हँसती हो। - मैने कहा
-शुक्रिया। -वह हल्की मुस्कुराई।
-हँसने के लिए क्या..... गालों को आपरेशन से सजाया है ?
- जी नही, बचपन से ऐसे ही हैं
-लगते नहीछोडो कोई बात नहींअच्छा यह बताओ , हाथों से काम कर लेती हो , मतलब की खाना-पीना, खाना बनानाकहीं ये हाथ नकली तो नहीं हैं
- नही जी, असली हैंएकदम भगवान के घर से ही जुड़ कर आये हैं
-वाह ! बहुत ख़ूब ! और पैरों के बारे में क्या ख्याल है , देखने में तो ये भी भगवान के घर वाले ही लगते हैं, लेकिनआज के जमाने में किसी भी चीज़ पर भरोसा नही किया जा सकता
-ये भी असली हैंमाँ कसम!
-ठीक है , जरा चल कर दिखाओ तोएडियों और पाँव की ऊंगलियों को इधर-उधर घुमाओहाँ , असली ही लग रहीहैं
( मैं क्या पूछ रह हूँकिसी के चेहरे पर किसी भी तरह के भाव क्यों नही उभर रहे? )
-तो यह शादी पक्की समझी जाये । - माँ ने स्वीकृति के शब्दों में कहा

दृश्य तेजी से बदलते हैंशादी हो चुकी हैसुहागरात का सुखद अवसर सामने है

आज हमारी पहली रात है- मैंने कहा
- आज हम एक-दुसरे को अच्छी तरह से जान ले, पहचान लेसुनो, मैं तुम्हारे हाथ- पाँव देखना चाहता हूँ। ( यहमैं क्या बोल रह हूँ ! )
- लो देखो । - यह कहकर उसने अपने हाथ- पाँव शरीर से उतारकर धर दिए।
-क्या ? ....... तुम्हारे हाथ-पाँव ...... तुम अपंग !

मैं बेहोश हो जाता हूँ

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बड़ा ही भयावह एवं अजीबो-गरीब स्वप्न थादिल में कुतूहल पैदा हो, उससे पहले ही मैंने करवट बदल लीमेरामस्तिष्क एक नए ख्वाब की संरचना में जुट गया

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-दोस्तों , आज मैं सबके सामने अपने इश्क का इकरार कर रहा हूँ
सारे मित्रों की नज़रें मुझपर हीं टिकी हैं
-मेरा पाक प्रेम! यह 'क्लास' मेरी मोहब्बत का गवाह रहेगा, रहेगा ना?
मैं पूरे जोश और होश में विभा से अपना प्रेम स्वीकार कर रहा हूँक्लास में विभा भी मौज़ूद है
(लेकिन हम दोनों तो साथ में नहीं पढते! )
विभा सर झुकाकर हामीं भरती है
(लेकिन विभा से मेरा प्यार तो एकतरफा है। )
सारे दोस्त खड़े होकर तालियाँ बजाते हैं, सीटियाँ बजाते हैंमाहौल बड़ा हीं खुशनुमा हैतभी 'क्लास' में प्रोफेसरगांगुली का आना होता है। ( प्रोफेसर गांगुली! ये तो मुझे केमिस्ट्री पढाते हैं।)
-आज मैं जो चैप्टर पढाने जा रहा हूँ , उसका नाम है " वेन विश्व मेट विभा "।
(केमिस्ट्री के पीरियड में इंग्लिश लव स्टोरी ! उफ ! पर पता नहीं क्यों, किसी भी छात्र को इसकी कोई परवाह हींनहीं है।)
-विभा की पहचान विश्व से पहले उसकी छोटी बहन प्रीति से हुई थी। -प्रोफेसर ने कहा

मैं संग-संग सोचता जाता हूँ
प्रीति मुझसे विभा की ढेर सारी बातें किया करती थी
-आज विभा ने रंगोली बनाई
-आज, जानते हो भैया, एक लड़के ने विभा को छेड़ना चाहा तो उसने उसे थप्पर रसीद कर दिया
-आज विभा ने अपने हाथों पर मेंहद रची थी

-विश्व विभा की मेंहदी में "वि" ढूँढकर उसमें अपने नाम को महसूस करता था

मैं फिर सोचने लगता हूँ
विभा का नाम लिखकर उससे बातें कर रहा हूँ
-विभा मैं तुमसे बेहद प्यार करता हूँबचपन से हीं तुम्हें चाहता हूँना!ना! पिछले जन्म से या फिर हजार जन्मोंसे

-विश्व विभा के प्यार में पागल हो गया था, जबकि उसे उसने देखा तक नहीं था
-एक दिन वह विभा से मिलने गया

-भैया! यही है विभामेरी सबसे अच्छी और खूबसूरत सहेली। -प्रीति मुझसे कहती है
मैं कुछ भी नहीं कह पाताबस उसे एक टक देखता रह जाता हूँउसके सौन्दर्य के सान्निध्य का पल मैं खोना नहींचाहताशनै: शनै: मेरा प्रेम अपरीमित हुआ जाता है

-विश्व विभा के प्यार में इस कदर मशगूल था कि उसे इसका भान हीं नहीं रहा कि विभा जिन दो पैरों पर खड़ी थी, वे हाड़-माँस के नहीं थेउसके दोनों पैर कृत्रिम थेलेकिन प्रेम........

यकायक मैं सोच से बाहर आता हूँमैं विभा की ओर देखता हूँविभा मुझे हीं देख रही होती हैमुझसे नज़र मिलतेहीं वह अपना सर नीचे कर लेती हैफिर, मैं उसके कदमों को निहारने लगता हूँ
एक झटके से पैरों से आवाज आती है- हाँ, हम असली नहीं है।- यह कहकर दोनों पैर बाहर निकल आते हैं
मैं कुछ भी समझ नहीं पातापल में हीं दोनों पैर लोहे के तार बनकर मेरी आँखों में चुभने लगते हैंविभा ओझलहोती जाती है..........

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एक करवट, दूसरी करवट....तीसरी.... नींद खुल गईमेरा पूरा चेहरा पसीने से तर-बतर थादोनों हीं स्वप्न मेरीआँखों पर उपलाते-से प्रतीत हो रहे थे
उठकर मैं माँ के पास चला गया
-बेटा! कोई बुरा ख्वाब देखा क्या?
मैं निरूत्तर
-मैने हजार बार मना किया कि दिन में मत सो .... मत सोदिन के ख्वाब अच्छे नहीं होतेलेकिन मेरी माने तोना
-कुछ नहीं माँबस ऎसे हीं
मैं माँ के पास भी खुद को असहज महसूस कर रहा थासो, बात टालकर बरामदे में गया
एक हीं तरह के दो स्वप्न.....मुझे कुछ भी समझ नहीं रहा था
- आखिर ऎसे स्वप्न मुझे आए हीं क्यों? और जो स्वप्न में हुआ , क्या ऎसा हो भी सकता है
-कोई किसी अपंग से प्रेम कर भी सकता है क्या? जो खुद को नहीं संभाल सकती, वह दूसरों को क्या संभालगी, प्यार कैसे करेगीऔर ऎसों से शादी ! ऎसी किसी लड़की से शादी की कोई सोच भी कैसे सकता है
-किसी अपाहिज के साथ जीना क्या, एक पल गुजारना भी असंभव है
-छि: , मैं भी कैसे-कैसे सपने देखने लग गया हूँ
-विभा, मेरी विभा, ना...ना.... सपना हीं थावो ऎसी नहीं हो सकतीना....! लेकिन मैने अभी तक उससे खुलकरबात भी तो नहीं की हैउसे ठीक से देखा भी तो नहीं हैकहीं वो भी.....
- भगवान करे, ऎसा होमैं आज हीं उससे मिलता हूँउससे अपने दिल की सारी बातें कहकर डालूँगा

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मैं विभा के दरवाजे पर थाआज तक जो कह सका, पता नहीं कैसे, आज उससे कह देने की हिम्मत गई थीमुझमेंशायद यह मेरी मजबूरी थी या मेरा प्यार.... कुछ भी हो, लेकिन आज अपने दिल की बात जबां पर लानीहीं थीमैने अपनी ऊँगलियों को डोरबेल पर प्रहार करने के लिए तैयार किया.... आगे बढाया... फिर रूक गयापहली दफा होने के कारण मैं अपने आप को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पा रहा थासहमते हुए मैने डोरबेलबजाया

-खोलता हूँ। (दरवाज खोलकर) कहिए, कौन हैं, किससे मिलना है?
- वि....... विश्व आया है, वि...... विभा से कह दीजिए। (शायद विभा का भाई था।)
-विश्व कौन?
-उसकी सहेली प्रीति का भाई
वह मुझे घूरता रहामैं आगे कुछ कह सका
फिर कुर्सी की ओर ईशारा करते हुए उसने कहा- ठीक है, आप यहाँ बैठिएमैं पूछता हूँ

अंदर से आवाजें रही थीं-
-दीदी, कोई विश्व है
-बैठाओमेरी .......

आगे की बातें मैं सुन नहीं पायाकहीं खो गया था , शायद
-दीदी रही है
-अच्छा, सुनो यह बैसाखी किसकी है।- कोने में रखी एक बैसाखी की ओर ईशारा करके मैने पूछा। ( मैं अभी भीअपने स्वप्न की दुनिया में हीं था।)
- जी.... अच्छा, यह बैसाखी! दीदी की है
-दीदी...
मेरा स्वप्न यथार्थ में बदलने लगा थामेरी आँखों के सामने अंधेरा-सा छाने लगा
-वो क्या है कि कभी-कभार वो कॄत्रिम पाँव लगा लेती हैहमेशा नहीं लगाती..... चुभता है नाजैसे कि अभी लगाईहुई है
वह बोले जा रहा था
-सुनो, कह देना कि कुहासे छट गए हैंमुझे रास्ता दीख गया हैमंजिल ..... मेरी मंजिल.... वोछोड़ो, इतना हींकह देना वो समझ जाएगी। - यह कहकर मैं वहाँ से चल दिया
वह मुझे रोकने की कोशिश करता रहा, पर मैं ना रूका

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-विभा भी! इतनी झूठी और मक्कार होगी वो , मैने कभी सोचा भी नहीं थामुझे पहले हीं इस बात का भान क्योंनहीं हुआआह....! वह हमेशा जूत क्यों पहनी होती थी, हमेशा एड़ियों तक के हीं कपड़े क्यों पहनती थी.... छुपातीथी मुझसेझूठी.... अपंग.....। सारे अपंग लोग हीं झूठे होते हैं... मक्कार होते हैं.....चालबाज......
मैं सड़क पर निर्बाध बढा जा रहा था

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-भैया, अब कैसे हो?
-बेटा.... होश गया मेरे बेटे को
-मैं.... मैं कहाँ हूँ?......अस्पताल में...... क्यों?
-भैया.... परसो सड़क पर ....परसो आप रहे थे तो पीछे से ट्रक ने आपको धक्का दे दियालेकिन कोई बात नहीं, चोट ज्यादा गहरी नहीं थी। ( उसकी आँखों में आँसू थेमैने उन्हें पढने की कोशिश की।)
-अच्छा.....
-अब कैसे हो? -विभा ने पूछा
-तुम... तुम भी यहीं होक्यों आई हो? झूठी .... मक्कार....। यह सब... सब तुम्हारे कारण हीं तो हुआ है
-मेरे कारण? मैने क्या किया?
-भैया, क्या बोल रहे हो?
-बेटा, ऎसा नहीं कहते
-हाँ , सही बोल रहा हूँतुम्हारी सहेली अपंग हैउसके पाँव नकली हैंऔर अपंग लोग छलिया होते हैं, मक्कारहोते हैं। .... अपनी सहेली के बारे में जानती थी तुम.... हाँ... नहीं ना.... पूछो अपनी सहेली से। - मैने प्रीति से कहा
-क्या अनाप-शनाप बक रहे हो! - विभा चौंकी
- अनाप-शनाप! वाह! छोड़ो , मुझे यहाँ नहीं रहनातुम्हारे सामने सच भी नहीं कह सकताओह!
मैने उठने की कोशिश की
- आह! नहीं...... मेरा पाँव! मेरा एक पाँव क्या हुआ?
-बेटा, एक्सीडेंट में तुम्हारा दाहिना पाँव बुरी तरह जख्मी हो गया थाजहर पूरे शरीर में फैल रहा थाइसलिए उसेहटाना पड़ा। - माँ ने रोते हुए कहा
-किस..... किससे पूछ कर ऎसा किया?
-आपसे कैसे पूछता कोईआप बेहोश थे। - प्रीति की आँखें सूजी जा रही थीं
- नहीं..... मुझे मरने दिया होतालेकिन अपंग.....अपंग.....। मैं भी!
-चले जाओ तुम सब यहाँ सेमुझे अकेला छोड़ दो
डाक्टर ने उन सब को इशारे से बाहर जाने को कहामैं घंटों रोता रहा

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चोट ने इनके स्वभाव पर ऎसा असर किया हैऊपर से पाँव चले जाने का सदमा! इंसान ढेर सारा खून गँवा देने केबाद चिरचिरा हो हीं जाता है
मेरे कमरे के बाहर डाक्टर किसी को समझा रहे थे
कुछ देर बाद-
-विभा, भैया को माफ कर देना
-माफ किया.... लेकिन मुझे समझ नहीं रहा कि वह ऎसा क्यों कह रहा था... वो अपंग वाली बातेंमुझसे तोउसकी बात भी नहीं हुई थीएक्सीडेंट वाले दिन वो मेरे घर आया थामेरे छोटे भाई से कुछ पूछा, फिर जानेक्या-क्या ऊलूल-जूलूल बोल कर वहाँ से चल दिया
-क्या बातें हुई थीं?
-अरे मेरे घर में मेरी बहन की बैसाखी पड़ी थीउसी के बारे में कुछ पूछ रहा था
-विभावरी दीदी की?
-हाँ! तुम्हें पता तो है हीं कि दो साल पहले उसने ऎसे हीं एक एक्सीडेंट में अपना एक पाँव गँवा दिया था
-हाँ, पता है
-अब इस बात से नाराजगी! मुझे तो कुछ समझ नहीं रहा
-लेकिन मैं समझ गईदर-असल भैया ने उस बैसाखी को तुम्हारा समझावो तुम्हें पसंद करता है नातुमसेकहता नहीं अलग बात हैशायद इसी वज़ह....
-पसंद वाली बात अपनी जगह है। (उसके भाव में किसी भी तरह का बदलाव, हीं आवाज में किसी तरह कीउतार-चढाव महसूस हुई।) लेकिन बैसाखी की बात से नाराजगी.... यह तो कोई बात नहीं हुई ना! बैसाखी मेरी दीदीकी हैवो पहले भी मेरी दीदी थी और पैर गंवाने के बाद भी मेरी दीदी हीं हैमैं उनकी अब भी उतनी हीं इज़्ज़तकरती हूँ , जितना पहले करती थी, उतना हीं प्यार भीशरीर का एक हिस्सा कम होने या होने से इंसान काअस्तित्व नहीं मिटतावह यथावत रहता हैतुम्हारे भाई ने मेरा नहीं,मेरी दीदी का अपमान किया है.....
- मानती हूँलेकिन.....
- लेकिन क्या? तुम मानती हो ना कि तुम्हारे भैया ने गलती की है
-हाँ!
-अगर तुम्हारा भैया भी यह मानता तो......

मैं सब सुन रहा था और अंदर हीं अंदर घुटा जा रहा थाआगे की बातें सुन सकूँ, मुझमें इतनी हिम्मत थीमैंखुद में डूबता चला गया

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-विभा , जानता हूँ कि मुझे तुमसे कुछ भी कहने का कोई हक नहीं है, फिर भी तुमसे एक आग्रह करना चाहता हूँ
-अगर कहने को कुछ बचा है तो नि:संकोच कहो। - उसके इस जवाब में पहले वाली चंचलता थी, बल्कि एकअकाट्य शिथिलता थी
-मैने तुम्हारा दिल दुखाया हैअनजाने में तुम्हारी बहन का अपमान किया है, तो देखो... इसकी सज़ा मुझे मिलगई हैअब मैं जान गया हूँ कि इंसान अपने शरीर के बाहरी हिस्सों से नहीं , बल्कि अंदरूनी हिस्से-अपनी रूह- सेबनता है
-काश , पहले जान लेतेअच्छा छोड़ो, गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदायह बताओ कि अब कैसे हो? तबियतकैसी है?
- तबियत नासाज़ है, इसलिए तो तुम्हारे दर पर हूँमुझे जो भी कहना है कह लेने दो, रोको नहीं
-ठीक हैकहो!
- मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में मुझ-जैसे कई लोग हैं, जो एक अपंग को सहारे का मुहताज समझते हैंइसलिएउनसे प्रेम, दोस्ती ,शादी से कतराते हैंमैने यह गलती की थीअब मैं इसका प्रायश्चित करना चाहता हूँतुम मेरासाथ दोगी? बोलो!
- मैं .... मैं क्या कर सकती हूँ?
-तुम हीं सब कुछ कर सकती होमैं तुम्हारी बहन विभावरी से शादी करना चाहता हूँ
-विश्व!
-हाँ विभा! दूसरे के भरोसे जीने से अच्छा है खुद का भरोसा बनोना
-लेकिन तुम दोनों हीं तो....
- अब तुम तो ना कहोतुम्हारी हीं बातों से खुद को जान पाया हूँवैसे भी जिंदगी को चलने के लिए दो हीं पाँवचाहिएहम दोनों का एक-एक पाँव जिंदगी को अपंग नहीं बनने देगा, अपाहिज नहीं होने देगा
- विश्व , तुम क्या थे, क्या हो गये?
- अच्छा हीं हुआ हूँहाँ सुनो, उससे भी तो पूछ लोबस मेरे कहने से शादी थोड़े हीं हो जाएगी
- पूछती हूँ
-दीदी....दीदी.....
-दीदी की हाँ है जीजाजी। -उसका लहजा मजाकिया हो चला था

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उस रात फिर से वही स्वप्न...
सुहागरात के लिए सेज सजी हुई हैविभावर घूँघट में बैठी हैमैं कमरे में प्रवेश करता हूँ
-यह हमारी पहली रात हैआज हम एक-दूसरे को जान लें, पहचान लें
-सुनो, मैं तुम्हारे हाथ-पाँव देखना चाहता हूँ
उसने अपना पाँव उतारकर रख दिया
-यह लो मेरा भी। - मैने हँसते हुए कहा
हमदोनों आसमान की ओर देख रहे हैंजिंदगी हमारे पैरों से चलकर हमारी ओर रही है

सुबह उठा तो माँ ने कहा कि मैं रात भर नींद में मंद-मंद मुस्कुरा रहा था

-विश्व दीपक 'तन्हा'


Sunday, December 23, 2007

एक और मुखौटा

वो अक्सर होश सँभालने के बाद कुछ सपने अपनी नींद के साथ बंधे पाती और चाह कर भी इनसे मुक्त नही हो पाती थी......वह देखती कि किसी लंबी सड़क पर वो चली जा रही है। दोनो तरफ़ हरियाले पेड़ हैं , पर अचानक वो सड़क आगे जा कर टूट जाती है और सामने एक गहरी सी खाई आ जाती है। वो आगे बढना चाहती है पर कैसे बढे या सोच नही पाती और घबरा के उसकी नींद खुल जाती। या फिर कभी वो देखती कि घर में आग लगी है- उसकी माँ लपटो में फँसी है- वो और उसके पापा चाह कर भी उन्हे बचा नही पाते और उसकी माँ की चीख जैसे उसके कानों में आकर जम के बैठ जाती- वो छटपटा कर उठ जाती, पर किसी से कुछ कह नही पाती ।फिर एक दिन अचानक उसकी माँ चली गयी। वो और उसके पापा उनको बचा भी नही पाये। इसके बाद वो सपना आना बंद हो गया। पर वो दूसरा सपना अक्सर आज भी आता और उसकी नींद खोल जाता। नीरा बचपन से ही अकेली रही। माँ चली गयी तो पिता जी भी यह सदमा झेल नही सके। वो भी उसको जीवन संग्राम में अकेला छोड़ कर एक दिन चले गए । उसके जीवन में अनेक लोगों ने अपनापन जताने की, पास आने की कोशिश की, पर कोई उसके दिल को समझ नही पाया फ़िर आस पास के रिश्तेदारों ने देखा कि वो सबके प्रति उदासीन रहती है तो उन्होने भी उसको भाग्य के सहारे छोड़ दिया। नीरा के जीवन की शून्यता बढ़ती जा रही थी। सामजिक व्यवहार से उसका मन ऊब चुका था। कलम और काग़ज़ ही उसके जीने का सहारा बन गए थे। नौकरी करती थी क्योंकि वो जीने की जरुरत भी थी। बाकी का समय उसने अपने लेखन को दे दिया था ।

-- वैसे भी एक अकेलेपन का कागज़ कलम से अच्छा सहारा कौन हो सकता है ? जब इनसे बातें करती- करती ऊब जाती तो शहर के कोने में बनी झील के किनारे घंटो बैठी रहती और कुछ न कुछ सोचती रहती। झील की ठहरी लहरे जब हवा के बहाव से कुछ हलचल करती तो उनको ध्यान से देख के हौले से कुछ सोच के मुस्करा देती। ऑफिस में उसकी मेज पर बिखरे कागजों में अक्सर कभी कोई न कोई कविता लिखी होती जिसे जब कोई पढ़ लेता तो वाह- वाह कर देता और उसको कही प्रकाशित करने की बात करता तो वह धीरे से सर हिला के मना कर देती - यह तो वह यूं ही लिख देती है ।

आज फ़िर रविवार था । ऑफिस की छुट्टी का दिन । सारा दिन अपने कमरे में बैठी- बैठी वह उकता गई । सोचा- चलो कुछ देर झील के किनारे चल के आती हूँ। हवा बहुत ही मधुर मीठी चल रही थी, आसमान में हलके बादल थे, झील के किनारे कुछ बच्चे गुब्बारे लिए भाग रहे थे ,वो अपने जाने- पहचाने कोने में जाकर बैठ गई। हलके नीले रंग की साड़ी में वह झील की ही सी नज़र आ रही थी उसको नही पता था कि एक युवक उसको कई बार वहाँ बैठे देखता रहता है ..उस का नाम नीरज था ,वह अक्सर उसको वहाँ देखता और सोचता कि आखिर कौन है यह ?क्यों ऐसे अकेली यहाँ बैठी रहती है ,पर उसकी सख्त मुख मुद्रा देख के कुछ पूछने का साहस नही कर पाता ,आज भी वह उसको यूं बैठे देख के सोच रहा था कि किसी तरह इस से बात हो पाती ,कि तभी अचानक बारिश शुरू हो गई नीरा जैसे किसी गहरी सोच से अचानक जागी और एक पेड़ के नीचे खड़ी हो गई ,पर बारिश तेज थी .

""यदि आपको बुरा न लगे तो मेरे पास कार है और यह बारिश अभी आसानी से रुकने वाली नही आप मेरे साथ चलिए ..नीरज ने कहा
घबराए नही मैं कोई ग़लत इंसान नही हूँ एक पेंटर हूँ और यहाँ अपनी तस्वीर के लिए कोई न कोई प्रेरणा तलाश करने अक्सर आ जाता हूँ ..प्रकति बहुत सुंदर रूप दिखा देती है कई बार, कह कर वह मुस्करा दिया !

अजीब इंसान है यह !! नीरा ने सोचा बोलता ही जा रहा है और उधर बारिश तेज हुए जा रही है। लगता है कि इसी के साथ आगे तक जाना होगा सोच के वह चुपचाप उसके साथ कार में जा कर बैठ गई।
कुछ दूर आगे जाने पर नीरज ने उसके घर का पता पूछा ..तो उसने कहा कि वह चले जहाँ उतरना होगा वह बता देगी यहाँ से ज्यादा दूर नही है उसका घर ..

""आप यहाँ अक्सर आती है मैंने देखा है , आपको नीरज ने कहा
"जी हाँ बस कभी कभी आ जाती हूँ ,अधिकतर चुप रहने वाली नीरा इस से ज्यादा कुछ नही बोल पायी
बस बस यही किनारे पर रोक दे आगे गली में मेरा घर है मैं चली जाऊँगी धन्यवाद आपका
यह कह कर वह तेजी से उतरी और सामने गली में गुम हो गई !

अजीब है कुछ नीरज यह सोचते सोचते आगे निकल गया
यूं ही कुछ दिन बीत गए ..नीरज आज फ़िर झील पर पहुँचा उसका अनुमान सही था वह अजीब सी लड़की वही अपन परिचित कोने में बैठी थी हलके गुलाबी रंग की साड़ी में वह ख़ुद झील में खिला कमल ही दिख रही थी और आज वह किसी गहरे सोच में भी नही थी .क्यूँकी उसने नज़र उठा के उसकी तरफ़ देखा और हौले से मुस्करा दी ,नीरज की हिम्मत बढ़ी वह उसके पास गया ,
नमस्ते जी !!उस दिन तो आप अपना नाम बताये बिना ही चली गई चलिए मैं अपना नाम बता देता हूँ मेरा नाम नीरज है और काम क्या करता हूँ यह तो मैंने आपको उस दिन बता ही दिया था शायद याद होगा आपको '

"हाँ मुझे याद है कैसे भूल सकती हूँ ,मेरा नामा नीरा है मैं एक कम्पनी में जॉब करती हूँ थोड़ा बहुत लिखने का शौक है सो कभी कभी वह भी कर लेती हूँ ,कह के वह मुस्करा दी
अच्छा यह तो बहुत अच्छी बात है किसी दिन आपकी कविता जरुर सुनूंगा ,जब आप चाहे सुना दे वैसे कल मेरी पेंटिंग्स की एक प्रदशनी कला केन्द्र में लग रही है यदि आप देखना चाहे तो आ सकती है ,यह लीजिये मेरा यह कार्ड है आप शाम को वहाँ ६ बजे तक आ जाए मुझे अच्छा लगेगा !!
अच्छा ठीक है देखतीं हूँ कोई विशेष काम न आ पड़ा तो जरुर आऊँगी कह कर उसने कार्ड ले लिया !

अगले दिन जब वह ऑफिस से निकली तो कुछ सोच के कला केन्द्र चल पड़ी नीरज उसको वहाँ देख के बहुत खुश हो गया .नीरा को उसके बनाए चित्र अपनी कविता के रूप को दर्शाते से दिख रहे थे वह जैसे उस में अपना लिखा तलाश कर रही थी !,चित्र वाकई बहुत सुंदर बनाते हैं आप .......आपकी यह प्रद्शनी सफल हो यही शुभकामना देती हूँ आपको .अब चलती हूँ फ़िर मिलेंगे कह कर वह बाहर आ गई !



अगले दिन आसमान में फ़िर से हलके बादलों का घेरा था तेज हवा से पेड़ की डालियाँ झूम रही थी हलकी हलकी ठंड अपने आगोश में लेने थी पूरी फिजां को ,नीरज झील के किनारे चल पड़ा ,उस को लगा आज नीरा वहाँ नही होगी ,पर उसकी आशा के विपरीत वह वहीं बैठी थी अपनी ही जगह पर नीरज के पास आने पर वह मुस्कराई ,नीरज ने पूछा की
क्या वह यहाँ बैठ सकता है ,नीरज ने पूछा
हाँ हाँ क्यों नही आप बैठिये न नीरा ने मुस्करा के कहा ..उसके हाथ में एक लाल रंग की डायरी थी ,नीरज को उसने अपनी कुछ कविता पढ़वाई ,
आप तो बहुत अच्छा लिखती हैं क्या आपने कभी इनको कही प्रकाशित करवाने का सोचा . ?
"नही कभी सोचा तो नही क्या यह इस लायक हैं ?"
अरे आप ख़ुद पर भरोसा रखे आप बहुत अच्छा लिखती है .मैं जरुर बात करूँगा किसी प्रकाशक से नीरज ने उसको आश्वासन दिया !
इस तरह उस दिन की मुलाकात खत्म हो गई .पर अकसर रोज़ ही वहाँ मिलना हो जाता ,एक दिन नीरज ने पूछा कि तुम यूं ही घूमने आती हो क्या यह अकेलापन तुम्हे परेशान नही करता ?
नही !!अब आदत सी पड़ गई है यहाँ आ के बहुत सकून मिलता है मुझे
प्रकति बहुत मासूम है इस में इंसान सा छल कपट नही है ,नीरा ने कहा
सुन के नीरज अजब तरीके से मुस्कराया अच्छा क्या तुमने कभी किसी को अपना साथी बनाने या जीवन को किसी के साथ आगे बिताने की नही सोची , ?

नही मैं किसी रिश्ते में बंधना नही चाहती पर हाँ यह मानती हूँ की यदि मन साफ हो तो एक स्त्री पुरूष अच्छे मित्र साबित होतें हैं पर हमारा समाज अक्सर इन रिश्तों को अच्छे स्वस्थ नजरिये से नही देखता और फ़िर यह सम्बन्ध ज्यादा देर तक चल भी नही पाते यूं ,मैं प्रेम या प्रेम करने वालों से कोई शिकायत नही कर रही हूँ पर मैं सोचती हूँ की जब आप किसी से बहुत प्यार करते हैं तो एक अविश्वास या एक अपना ही स्वामित्व का भाव दिल में पैदा होने लगता है , वह बन्धन यदि प्रेम से एक दूसरे को समझने वाला हो ,एक दूसरे की भावना को इज्जत देता हो तो दूर तक निभ जाता है पर यदि इस में अहम् आ जाए तो जीवन एक समझौता बन जाता है और वही समझौता मुझे पसन्द नही , !


फ़िर भी स्त्री पुरूष के दूसरे के पूरक हैं ,एक दूजे के बिना अधूरे हैं ,तुम इन संबंधो को बन्धन क्यों मानती हो ?चलो यूं शादी विवाह के बन्धन में बंधना न चाहो तो यूं भी रहा जा सकता है आज कल तो यह आम बात है , वैसे भी आज कल किसको फुरसत है कि यूं बंधे ,मैं तो यही मानता हूँ कि जब तक अपना काम न हो जाए तब तक उस रिश्ते को बनाए रखो , और बाद में जब वह बोझ लगने लगे तो उतार दो उस रिश्ते को किसी पुराने कपडे सा , आज ज़िंदगी तेज रफ़्तार से भाग रही है .कौन किस के लिए क्या सोचता है कह कर वह अपनी आंखों में चमक ला के मुस्करा दिया ..और मैं आपकी किताब जरुर पब्लिश करवा दूंगा बस आपको कुछ घंटे का अपना वक्त मुझे देना होगा ,!
क्या मतलब है आपका ???कहते है न औरत के पास एक ख़ास नज़र होती है सामने वाले को पहचानने की नीरा को भी अब उसको मंशा समझ में आने लगी
यह तो अपने अपन विचार हैं ,मैंने अपने बता दिए आप अपने विचारों के साथ अपना सोचने को आजाद हैं कह के नीरा ने बात बदलने कि कोशिश की..

अरे इतनी नासमझ भी नही है आप , मैं क्या कह रहा हूँ आप अच्छे से समझ रही है मेरी बात को . बस कुछ घंटे ही तो मांग रहा हूँ आपसे ,कौन से जीवन भर के बन्धन की बात कर रहा हूँ !!
जी , मैं अच्छे से समझ रही हूँ कि आप क्या बात कर रहे हैं .भविष्य में मुझसे मिलने की कोशिश न करे तो ही आपके लिए बेहतर होगा , अपनी भावनाओं को यूं डायरी में बिखेरना ज्यादा अच्छा है पर यूं किसी के साथ समझौता करना मुझे मंजूर नही कह कर नीरा वहाँ से चली गई .नीरज अपना ठगा सा मुंह ले कर वहीं खड़ा रह गया !!
घर पहुँच के नीरा ने अपने लिए एक कप चाय बनायी और सोच में गुम हो गई कि यह दुनिया शायद यूं ही चलती है ,अब किसी का चेहरा देख के उसके अन्दर की हलचल को कौन पहचान सकता है ,बातें करते करते कब जाना उसने कि यहाँ भी वही सब चल रहा है नीरज के दिमाग में ,जिनसे वह दूर जाना चाहती है .....आखिर वह दुनिया कहाँ गुम हो गई है जो बिना किसी स्वार्थ के चला करती थी ? शायद उसके दिल की बात समझने वाला कोई नही आएगा यहाँ ..पर वह हार नही मानेगी ,उसको जीना है और वह भी सिर्फ़ अपनी शर्तों पर ..किसी से किसी किस्म का समझौता करके नही ...वह अपने उन संस्कारों से जुड़ी हैं जिसमें उसको अपनी मंजिल पता है और उस पर जाने का सही रास्ता भी ....वह उठी और नई आशा के साथ अपने डायरी कलम को उठा के नई पंक्तियों को संवारने में जुट गई और उसकी कलम से निकला ...

है उपकार बहुत उनका मुझ पर
जिन्होंने मुझे हर राह पर ठोकर दी है
बढ़ी हूँ उतने ही जोश से
अपनी मजिल की तरफ़
जिस राह ने नई उलझन दी है !!

Tuesday, December 11, 2007

चार जुलाई

कोई शहर किसी का सब कुछ कैसे छीन लेता है?
यह सवाल पूछने वाला आदमी अगर उस चार जुलाई को, ऊँची इमारतों और छोटे दिलों के उस शहर में मेरे साथ कुछ क्षण बैठ जाता और मुझे कुछ जवाब सुझा देता तो आज न तो इस जख़्म का दर्द मेरे हर शब्द में समा जाता और न ही मैं यह सवाल दोहरा रहा होता।
वैसे सवाल में कुछ संशोधन करना होगा...
कोई शहर किसी का सब कुछ क्यों छीन लेता है?
जानती हो नेहा? उस आखिरी एस.एम.एस. को भेजने से पहले मैं तुम्हारे ऊँची इमारतों वाले शहर की एक भीड़ भरी बस में कितना फूट-फूटकर रो रहा था?
भला तुम कैसे जानोगी? वैसे जो जानते थे या जो देख रहे थे, वे भी कुछ नहीं बोले थे। कुछ देर बाद मैं ही थककर चुप हो गया था। उस दिन अंतिम बार थका था मैं।
कैसे लोग हैं ना तुम्हारे शहर के...बिल्कुल तुम्हारी तरह।
शायद वह शहर ही ऐसा था और तब से मुझे भी लगता है कि उस शहर ने तुम पर भी कुछ जादू-टोना कर दिया था। वरना तुम कहाँ किसी की हत्या कर सकती थी?
हाँ, सच कह रहा हूँ। मैं उसी दिन मर गया था नेहा...



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मैं एक गैरज़िम्मेदार बेटा था नेहा, एक गैरज़िम्मेदार भाई भी और शायद एक गैरज़िम्मेदार इंसान भी था। पिता जी चाहते थे कि अपनी पीढ़ी के होनहार नौजवानों की तरह मैं भी डॉक्टर या इंजीनियर बनूँ। मैं नहीं बन सका। मैंने बनना ही नहीं चाहा। सच कहूँ तो मैंने उनकी कोई बात कभी मानी ही नहीं। ऐसा लगता है कि जन्म से ही एक पूर्वाग्रह सा था। जो वे कहते थे, वो मैंने कभी नहीं किया।
तुम्हें नहीं पता, बचपन में जब वे मुझे साइकिल चलाना सिखाया करते थे तो मैं उनका बताया एक भी तरीका नहीं आजमाता था। अजीब सा पूर्वाग्रह था ये, जो होश संभालने से पहले ही मेरे सीने से आकर चिपक गया था। कभी उनपर भरोसा ही नहीं कर पाया। वैसे मुझे पता है कि यह मेरी ही गलती थी। लेकिन मुझे कभी गलतियाँ सुधारना नहीं आया, नेहा।
और हाँ, मैं सब कुछ हो सकता था, लेकिन एक गैरज़िम्मेदार प्रेमी नहीं था।
हाँ, मुझे कोई तारीख याद नहीं रही कि कब तुमसे पहली दफ़ा मिला था, तुम्हारा जन्मदिन कब आता था या और कुछ...
लेकिन तुम बहुत सी बातें जानती भी तो नहीं थी।
पिछली बार जब तुमसे मिला था और तुम्हारे कानों में जो बालियाँ पहनाई थीं, जिनको देखकर तुम उनके महंगी होने को लेकर चिंतित हो गई थी और मैंने कहा था कि ये आर्टिफिशियल हैं...
वे असली सोने की थी, नेहा।
अब सोचोगी कि मेरे पास इतने पैसे आए कैसे? मैंने कहा न, मैं गैरज़िम्मेदार भाई भी था।
तुम्हारा जन्मदिन तो मुझे आज भी याद नहीं है। लेकिन मैंने यह भी तो कभी नहीं बताया कि साल के जिस जिस दिन किसी बात पर तुम मेरे सामने रोई थी, आने वाले सालों के उन दिनों में मैंने कभी रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं खाया।
सीने से चिपके उसी जन्मजात पूर्वाग्रह की वज़ह से भगवान पर भी कभी भरोसा नहीं हुआ, लेकिन साल के उन बीस-तीस दिनों में मैंने तुम्हारे लिए व्रत रखे।
और जानती हो, भगवान से क्या माँगा?
तुम कैसे जानोगी, मैंने कभी बताया ही नहीं था।
मैंने माँगा कि तुम्हें एक मुस्कान मिले और बदले में मेरी हज़ार मुस्कुराहटें छीन ली जाएँ।
नेहा, अब लगता है कि भगवान है। उसने मेरे खाते की सब मुस्कुराहटों को हज़ार से भाग देकर शायद तुम्हें ही दिया होगा। मैं फिर कभी नहीं मुस्कुरा पाया।
तुम तो बहुत हँसने लगी थी ना?
मैं तुम्हें दुखी नहीं देखना चाहता, लेकिन तुम इतना हँसती क्यों थी नेहा?



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- जानते हो...मैं इस दसमंजिला इमारत की छत पर टहल रही हूँ।
तुम एक रात फ़ोन पर कह रही थी। पता नहीं कहाँ रही होगी...छत पर, पाताल में या धरती पर!
हो सकता है कि तुम अपने कमरे में आराम से लेटी थी और तुमने अपनी कल्पना से वह दसमंजिला इमारत का सीन मेरी कल्पना में बुन दिया था। मैं तुम्हारा ही तो भरोसा करता था। तुम्हारा कहा सब सच और बाकी सब...बाकी सब सुनता ही कहाँ था?
वैसे एक बात है कि तुम कहानियाँ अच्छी बनाती थी। एक और दिन, जब मैं तुम्हारे बेवक़्त के फ़ोन पर चौंका था और तुमने बताया था कि तुम अभी-अभी मेरे शहर में आई हो और रास्ते में कुछ आवारा लड़के तुम्हारे पीछे पड़े हैं।
तुम शायद देखना चाहती थी कि मैं क्या करता हूँ?
और मैं फ़ोन वहीं पटककर तुम्हारी मौसी की गली तक दौड़ा चला गया था। तुम कहीं भी नहीं थी...किसी भी रास्ते पर। तुम कभी भी, किसी भी सड़क पर मुझसे नहीं टकराई ना? तुम्हारा हर रास्ता जाने कहाँ से होकर गुजरता था?
खैर, दो घंटे घूम-फिरकर जब लौटा तो फिर से तुम्हारा खिलखिलाता हुआ फ़ोन आया था। तुम बहुत हँसी थी मुझपर और अपनी कहानी की सफलता पर।
कौन जानता है कि वह दसमंजिला इमारत भी किसी कहानी का हिस्सा हो।
लेकिन जानती हो...वह छत, जो मैंने कभी देखी भी नहीं या संभवत: थी भी नहीं, हमेशा छलनी करती रही मुझे।
- यहाँ से पूरी दिल्ली दिखती है।
तुम्हारी आवाज़ में एक नशा था उस दिन। जाने किस चीज का नशा था?
मैं चुप रहा। उन दिनों मौन ही मेरी नियति बनता जा रहा था।
- मुझे लगता है कि तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते...
- पता नहीं।
मैं भी तुम्हारी तरह ‘पता नहीं’ बहुत कहने लगा था। तुम चुप रही। मैं तुम्हारी आँखों से रात की जगमगाती हुई दिल्ली देखता रहा और तुम...तुम क्या देख रही थी?
हो सकता है कि तुम अपने बिस्तर पर अधलेटी थी और तुम्हारी हाथ में टी.वी. का रिमोट कंट्रोल था। तुम उसे ‘म्यूट’ करके लगातार चैनल बदल रही थी। मैं भी तो...तुम्हारे साथ भी ‘म्यूट’ सा हो जाता था और तुम्हारे बिना भी।
लेकिन उन क्षणों में मैं तुम्हारे टहलते हुए कदमों के साथ उस छत को महसूस कर रहा था। जानती हो...वह छत बाद के कुछ दिनों में मेरे ऊपर घिरने लगी थी। रोज़ सिमटती जाती थी और मेरी घुटन बढ़ती जाती थी।
खैर, मैं बोल ही पड़ा था। दर्द ने सब रिमोट कंट्रोल बेकार कर दिए थे शायद।
- नेहा, दो ही रास्ते हैं। तुम्हें पा लूँ या मर जाऊँ...
तुम शायद रुक गई थी। मुझे लगा कि उस क्षण पूरी दिल्ली भी थम गई होगी।। उस इमारत के सामने वाले सिग्नल पर रुकी हुई गाड़ियाँ और भागकर सड़क पार करते-करते सड़क के बीचों-बीच जम गए लोग मुझे दिख रहे थे।
पहले एक ठंडा नि:श्वास सुनाई दिया। हो सकता है कि सामने टी.वी. पर चल रही फ़िल्म के किसी दुखद सीन पर वो ठंडी साँस निकली हो, लेकिन मुझे यही लगा कि सिग्नल की गाड़ियाँ, दिल्ली और तुम, टहलते-टहलते थम गई हो।
- मैं दुकान पर रखा कोई सामान नहीं हूँ, जिसे पाया जाए। तुम ऐसी भाषा में क्यों कहते हो...
मुझे ऐसी ही भाषा आती थी नेहा..और अगर दूसरी तरह कहना नहीं आता था तो क्या करता?
- वैसे भी अभी हमारे रिश्ते को वक़्त लेने दो।
वक़्त का इंतज़ार कैसे करता नेहा? मुझे वक़्त पर तो बिल्कुल भी भरोसा नहीं था। इसीलिए तो मैं डरा-डरा सा रहता था। जब तुम पास होती थी, तब भी दूर महसूस होती थी। तुम्हें पाना जीने के लिए जरूरी हो गया था, नेहा....नहीं तो कभी ऐसी बातें न करता।
- तुम नहीं मिली तो मरने का रास्ता ही बचता है।
सिग्नल पर रुकी हुई गाड़ियाँ, उनसे टकराकर और बचकर सड़क पार करते लोग और शायद तुम्हारे कदम भी चलने लगे थे। तुम्हारा शहर बहुत भागता है। मेरी मौत की चेतावनी भी उसे ज्यादा देर तक रोककर नहीं रख पाई।
- किसी दिन जब तुम्हें यही आखिरी रास्ता लगे तो प्लीज़ एक बार मुझे बता देना। उस दिन तुम देखोगे कि मैं कितनी हिम्मतवाली हूँ। फिर तुम्हें मरना नहीं पड़ेगा।
- क्या करोगी तुम?
- उस दिन पता चल जाएगा।
तुम चैनल बदल रही थी या नहीं, मुझे नहीं दिखा। तुम्हारा चेहरा धुंधला सा होने लगा था।
- मैं छत की मुंडेर पर हूँ।
मैं चुप रहा।
- मन करता है कि कूद जाऊँ। इस दसमंजिला इमारत से गिरकर तो बचने का कोई चांस नहीं है।
- पीछे हट जाओ, नेहा।
मैं बेचैनी से चिल्ला पड़ा था।
हो सकता है कि उस क्षण तुम्हारी फ़िल्म ख़त्म हो गई हो और तुमने टी.वी. बन्द अर दिया हो। मेरी कल्पना में तो तुम छत से दस मंजिल नीचे सड़क को ही निहार रही थी।
- अभी नहीं कूदूँगी।
शायद तुम आराम से बिस्तर पर लेट गई होगी।
तभी माँ ने आकर बहुत लाड़ से मुझसे पूछा- क्या खाएगा?
- ज़हर।
मैं हौले से बोला। जानता हूँ कि माँ पर क्या गुजरी होगी?
- किसी काम का नहीं है ये। दिनभर पड़ा रहता है और जुबान से एक मीठी बात भी नहीं निकाल सकता। निठल्ला है...और हमारा जीना भी मुश्किल कर दिया है।
माँ बड़बड़ाते हुए तेजी से चली गई थी। जाते-जाते गुस्सा दरवाजे पर उतरा था। तुम भी तो फ़ोन पर सब कुछ सुन ही रही थी।
काश, तुम उस दिन कूद जाती।
तुम उस दिन कूदी क्यों नहीं थी, नेहा?


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- तुम शराब क्यों पीते हो?
तुम सवाल बहुत पूछती थी और मेरे पास सवाल-जवाब, कुछ होता ही नहीं था। तुम्हारे लिए बहुत सा प्यार था अन्दर, जिसकी कोई वज़ह ही नहीं थी। बेवज़ह चीजें बहुत दर्द देती हैं, नेहा।
- तुम मेरी किसी बात का जवाब नहीं देते। तुम्हें दुनिया में किसी की फ़िक्र है ही नहीं।
मैं शराब पीता था?
मुझे तो लगा कि दुनिया की हर चीज मुझे ही पीती रही, तुम भी और शराब भी। और कुछ था ही कहाँ?
उस क्षण तुम क्या सोच रही थी, मुझे नहीं पता। लेकिन मुझे लगा था कि शराब पीने का प्रश्न तुम्हारे लिए मुझसे ज्यादा जरूरी था। मन किया कि....
खैर, मैं बोल ही पड़ा।
- इसलिए पीता हूँ कि पागल न हो जाऊँ।
- तुम्हारे साथ दिक्कत क्या है? दुख किस बात का है तुम्हें?
तुम बहुत सुन्दर नहीं थी, नेहा और जब इस तरह झुंझलाती थी तो तुम्हारे चेहरे को देखना कोई अच्छा अनुभव नहीं होता था। मगर मेरे लिए तो तुम जरूरत बन गई थी।
सच में...बेवज़ह प्यार, बाकी बेवज़ह चीजों की तरह ही बहुत तकलीफ़ देता है।
- कौन लड़का है वो?
- कौन?
तुम कहानियाँ भी अच्छी बनाती थी और अभिनय भी अच्छा करती थी। तुम्हारे चेहरे पर जो चौंकने के भाव थे, वे पकड़े जाने के डर से रंगे हुए थे। तुम्हारा चेहरा ईंटों सा लाल हो गया था।
- तुम्हारे पास देने को अच्छी उपमाएँ भी नहीं हैं क्या? तुम बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो।
शुरुआत के दिनों में तुम कहा करती थी। मुझे भी यह कहना कभी नहीं आया कि तुम्हारा चेहरा ईंटों सा लाल नहीं, गुलाब सा लाल हो गया है।
- कौन?
तुम चौंककर मेरी ओर देख रही थी। मेरी आँखें भी लाल रही होंगी उस वक़्त, सूरज सी लाल।
कैसी उपमा है ये, ईंटों से कुछ अच्छी, पर ज्यादा रोमांटिक नहीं है न?
- जिसके साथ उस दिन पिक्चर देखने गई थी...
- मैं किसी के साथ नहीं गई।
मैंने तो यूँ ही पूछ लिया था। तुम अगर सच बोल रही होती तो तुम्हें उस बात पर गुस्सा आता। तुम्हें गुस्सा नहीं आया। तुम केवल घबरा रही थी। मैं समझ नहीं पाया था कि तुम्हारी घबराहट पर यकीन करूँ या तुम पर?
हाँ , कोई तो था जिसका ख़याल उस क्षण तुम्हारे दिल में मचल रहा था। तुम दूसरी ओर देखने लगी थी।
- मेरे कमरे तक चलोगे आज?
तुम्हारी आँखों में अजीब सा निवेदन आने लगा था। यही वे क्षण होते थे नेहा, जब मैं तुम्हारी घबराहट के मतलब निकालने की बजाय बस तुम पर भरोसा कर लेता था।
तुम्हारा कमरा बहुत किस्मत वाला था। तुम्हारी खुशबू से महकता रहता था दिनभर।
उस रोमांटिक सी खुशबू वाले कमरे में मैं अनरोमांटिक आदमी तुम्हारे सामने बैठा रहा। मैं फिर ‘म्यूट’ हो गया था। जानती हो, कोई उस समय मुझसे पूछता कि तुमने किस रंग के कपड़े पहन रखे हैं तो मैं न बता पाता। मैंने तुम्हारे चेहरे के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं...या शायद चेहरा भी नहीं देखता था, केवल सोचा करता था तुम्हें और कभी-कभी तो यह भी लगने लगता था कि तुम मेरी कल्पना ही हो...और कुछ भी नहीं।
तुम मेरे चेहरे पर, होठों पर, सीने पर चुम्बन जड़ती रही...थप्पड़ों की तरह।
फिर खराब उपमा...
मैं बेसुध सा बैठा रहा और हमारे रिश्ते को अपना वक़्त लेते देखता रहा। अब ऐसे वक़्त पर मैं कैसे भरोसा कर सकता था, नेहा?
नीचे गिरी हुई अपनी शर्ट मुझे उस समय दुनिया में सबसे प्यारी लगी थी। उसे भी तुमने उसी तरह उतार कर फेंक दिया था, जैसे मुझे ज़िन्दगी ने उतारकर फेंका था। वही एक अपनी सी लगी थी उस कमरे में। कमरे की सब दीवारें आँखें फाड़-फाड़कर मुझे देख रही थीं। तुम्हारी आँखें बन्द थीं और मैं भर्राई हुई आँखों से (कभी भर्राई हुई आँखें देखी हैं? उस दिन तुम्हारी आँखें बन्द न हो गई होतीं तो देख लेती...) कभी शर्ट को और कभी दीवारों को देखता रहा था।
मैं शराब क्यों पीता था? कभी उन बेशर्म दीवारों से पूछती तो जान जाती।
और तुम्हारे चुम्बन इतना चुभते क्यों थे, नेहा?


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तुम्हें बचपन से ही पालतू जानवरों का बहुत शौक था ना? उन दिनों मैं भी कुछ वैसा ही बनने लगा था। फ़र्क इतना था कि तुम्हारे कुत्ते-बिल्लियाँ शराब पीकर होश नहीं खो सकते थे।
फिर शराब!!!!!!!
मैंने कहा था न, और कुछ रह ही कहाँ गया था तुम्हारे और उसके सिवा।
तुम बस में थी उस दिन, जब मैंने फ़ोन किया। भरोसा करता हूँ कि बस में ही रही होगी। बस में बैठे कुछ बेवकूफ से लोग तुम्हें आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे होंगे। तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव थे? तुम किस बात पर मुस्कुरा रही थी नेहा और मेरा फ़ोन जाते ही तुम्हारे होंठ सिमट क्यों गए थे? तुम्हारे पास वाली सीट पर कौन बैठा था, मैं नहीं देख पाया।
- मैं अभी बात नहीं कर सकती तुमसे।
- क्यों?
- मैं किसी के साथ हूँ।
दुनिया में ऐसा कौन था नेहा, जिसके सामने तुम मुझसे बात नहीं कर सकती थी? तुमसे अगली सीट पर बैठी लड़की किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ी थी और मेरा मन किया कि अभी चार सौ किलोमीटर दूर से उसका गला दबा दूँ।
- कौन है तुम्हारे साथ?
मेरे दीदे जलने लगे थे। किसी ने जैसे भट्टी का कोयला आँखों में रख दिया था।
- कोई है। तुम इस तरह मुझ पर शक मत किया करो।
मैं तुम पर शक कैसे कर सकता था, नेहा?
नहीं कर सकता था ना..लेकिन करने लगा था।
क्यों करने लगा था? क्यों करने लगा था? क्यों करने लगा था?
मैंने अलमारी पर लगे काँच में हाथ दे मारा था।
- क्या हुआ?
चौंकने का अभिनय करते हुए तुम्हारे माथे पर दो सलवटें उभर आई थीं। अगली सीट वाली लड़की तुम्हें देखने लगी थी। तुम्हारे साथ वाली सीट पर कौन था, मैं फिर नहीं देख पाया। तुम शायद उसी की तरफ देख रही थी।
मेरे हाथ में छ: जगह काँच चुभ गया था। खून की धारें निकलने लगी थीं। उस शाम बहुत खून बहा। मैंने भी बहने दिया कि शायद तकलीफ कुछ कम हो जाए।
- कुछ टूट गया है शायद।
मेरी आवाज़ में रोमांस चाहे न रहा हो, मगर मैंने दर्द भी नहीं आने दिया था। तुम्हें याद है, अजीब सा खालीपन लिए यह वाक्य पहाड़ जितना भारी हो गया था।
तुम्हें याद नहीं होगा.....
मुझे याद है। वो जो दसवीं मंजिल की छत मेरे ऊपर घिरने लगी थी, यह पहाड़ भी ज़िद करके उसपर बैठ गया था।
फिर तुम्हारा नि:श्वास सुनाई दिया था। तुम्हारे माथे की दो सलवटें गायब हो गई होंगी। तुम्हारे पास वाली सीट पर एक चेहरा दिखने लगा था।
और हाँ, उस चेहरे को पता था कि तुमने उस दिन पीला सूट पहन रखा था। शायद मैं ही एक अन्धा था...
- मैं अभी फ़ोन रखती हूँ।
जानती हो, मैंने कभी पहले फ़ोन नहीं काटा। हमेशा लगता था कि तुम कुछ कहना भूल रही हो और याद आते ही फिर से दौड़कर फ़ोन उठाओगी और कह दोगी।
मोबाइल पर्स में रखकर तुम्हारा हाथ किसी हाथ को छूने लगा था।
मैंने छ: घावों वाला वही हाथ फिर से काँच पर दे मारा।
जानती हो, उस शाम दो घंटे तक खून बहता रहा और फिर थककर बन्द हो गया। मैं गलत था। उसके बाद भी तकलीफ़ कम नहीं हुई थी। आँखों में रखा तन्दूर रात-रात भर जलता रहता था। तुम रात भर उस पर किसी और के सपने सेकने लगी थी शायद...और मेरे सपनों का ईंधन था कि तन्दूर बुझता ही नहीं था।
और हाँ, पालतू जानवर अगर पागल हो जाए तो बहुत खतरनाक हो जाता है। उसे न मारो तो वह तुम्हें मार डालता है।
मैं तभी मार दिया गया था या...?


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चार जुलाई आ गई। तीन की रात को भी मैं सोया नहीं था। सारी रात सिर में बहुत तेज दर्द होता रहा। लेकिन जो नियत था, वह तो होना ही था। मैं सुबह जल्दी ही तुम्हारी दिल्ली के लिए निकल गया था।
ऊँची इमारतें, छोटे दिल, सजे-संवरे लोग, घिनौनी हसरतें, जलते हुए तन्दूर, सिकते हुए सपने...सब कुछ था तुम्हारे शहर में।
- कहाँ जा रहा है? कब तक लौटेगा?
बेचैन माँ ने चलने से पहले टोका था। उस सुबह जाने क्यों, मैं बरसों बाद माँ के गले लगकर रो पड़ा था। बहुत देर तक रोता रहा था। माँ सवाल पूछती थी, कारण पूछती थी और मैं सावन की झड़ी सा बरसता ही जाता था। मैंने कुछ नहीं कहा। माँ रोने लगी थी और उसे रोता छोड़कर मैं निकल आया था।
सात बजे थे तब...तुम शायद सोकर उठी होगी और बहुत देर तक बिस्तर पर लेटी रही होगी। इतवार था ना उस दिन....एक अभागा इतवार।
मैं माँ के आँसू भी उस छत और पहाड़ के साथ सीने पर रखकर बस में बैठ गया था। जानती हो, उस सफर में मैंने कुछ नहीं सोचा। रास्ते भर बस से बाहर ताकता रहा, बेसुध सा हुआ।
उस काँच चुभने वाली शाम के बाद मैंने शराब नहीं पी थी नेहा, लेकिन एक अजीब सा नशा रहने लगा था। कभी-कभी उस नशे से बहुत डर लगता था। उस दिन भी बहुत लग रहा था।
तुम्हारे कमरे पर मैं पहुँचा तो तुम चौक गई थी। वह अभिनय नहीं था चौंकने का।
तुम पर भरोसा करता हूँ। तुम सच में चौंकी थी मेरे अप्रत्याशित आगमन से।
-क्या खाओगे?
तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट कुछ असहज सी लग रही थी।
- ज़हर...
कहकर मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहा। तुम्हारी पलकें काँपीं, लेकिन माथे पर सलवटें नहीं आईं। तुम बहुत हिम्मतवाली थी नेहा, तुम डरी नहीं थी।
- ऐसा मत कहा करो।
- आखिरी बार कहा आज।
तुम उठकर चली थी। शायद चाय बनाने के लिए...या शायद ज़हर लाने के लिए। कौन जानता था?
मैंने तुम्हारा हाथ खींच लिया और दूसरा हाथ तुम्हारी प्यारी सी गर्दन पर जा टिका था। सुराही जैसी गर्दन पर। तुम्हारी आँखों में प्रश्न तैर रहे थे और मेरी आँखों में आँसू।
तुम संतुलन बिगड़ने से जमीन पर गिर गई थी।
मेरे हाथ का कसाव तुम्हारी गर्दन पर बढ़ता जा रहा था। तुम्हारी आँखें फैलती जा रही थीं, विवशता और निवेदन लिए। सच कहूँ, तुम पर बहुत तरस आ रहा था। मेरी आँखों से आँसुओं की धार गिरने लगी थी। तुम्हारा चेहरा लाल होता जा रहा था, गुलाब सा लाल।
तुम चिल्लाने की कोशिश कर रही थी। मैंने तुम्हें चिल्लाने दिया। मैंने कभी रोका ही नहीं तुम्हें कुछ करने से।
तुम छटपटाने लगी थी। मेरे चेहरे को तुम्हारे हाथ नोंच रहे थे। शायद वही पहली बार था, जब तुमने सच्चे दिल से मेरे चेहरे को छुआ था। नेहा, बहुत प्यारी लग रही थी तुम।
मौत ज्यादा इंतज़ार नहीं कर पाई। तुम्हारी आँखें मिंच गई थीं और छटपटाहट जमीन पर जा लगी थी।
अँधेरा होने तक मैं तुम्हें चूमता रहा था और रोता रहा था।



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मैंने तुम्हें नहीं मारा नेहा। तुमने ही मुझे मारा था।
यही लिखा था मैंने उस आखिरी एस.एम.एस. में। तुम्हारे फ़र्श पर पड़ा मोबाइल ‘अगर तुम मिल जाओ’ की धुन में बजा होगा और तुम फ़र्श पर पड़ी रही होगी। तुम्हारे हाथों के नाखूनों में खून था मेरा। मैंने तुम्हें मरने के बाद भी नहीं छोड़ा था नेहा।
तुम बहुत प्यारी लग रही थी नेहा। काश तुम मुझे न मारती...
हाँ, दुनिया के साढ़े छ: अरब आदमियों में से किसी ने उस शाम के बाद मुझे नहीं देखा।
मैं मर गया था या नहीं, यह मैं भी नहीं जानता।



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नेहा चौधरी की डायरी का एक पन्ना-

आज केवल तुम्हारे लिए ही लिख रही हूँ। जानते हो, आज कौनसा दिन है?
तुम्हें तो कुछ भी याद नहीं रहता, यह कैसे रहेगा?
आज के दिन, चार जुलाई के दिन हम पहली बार मिले थे। काश, आज तुम यहाँ होते। तुम्हारी बहुत याद आ रही है। सुबह से उठी हूँ तो ऐसा ही मन कर रहा है कि उड़कर यह चार सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लूँ।
तुम भी तो बहुत अकेले हो मेरे बिना। मैं जानती हूँ कि तुम पागल हो मेरे लिए। पागल ही रहना, अच्छे लगते हो।
तुम्हारी एक शर्ट पिछली बार छूट गई थी। उसे छू लेती हूँ तो लगता है कि तुम्हें चूम लिया है।
तुम बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो, तुम्हारे पास अच्छी उपमाएँ भी नहीं हैं मेरे लिए, तुम्हें कुछ याद भी नहीं रहता, तुम शक भी बहुत करते हो, तुम पागल भी हो..........
लेकिन तुम दुनिया में सबसे प्यारे हो मुझे। तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकती...सच्ची।
अभी दरवाजे पर कोई आ गया है....बाकी बाद में.....लव यू।

Thursday, December 6, 2007

जवाब

.
कमरे में एक स्टूल। कमरे में सिर्फ जाई। हाथ में वाकमैन। जेब में,राहुल ने जो भेजी है वो, केसेट। जाई का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ। गुस्से से जाई रेकार्डिंग शुरू करती है।

केसेट रेकार्डिंग: साईड ए।

जनाब राहुल देशपाण्डे!
नमस्ते।

आपने भेजी हुइ केसेट मिली। आपने बिना सोचे समझे रचे हुए शब्दों के महल भी मिले। राहुल , मुझे तुम पर बहुत विश्वास हो चला था। राहुल! तुम्हारे दोस्ताना अंदाज और स्नेहमयी बातों से मै तुम्हारा आदर करने लगी थी। तुम्हारी केसेट सुनी और उसके हर एक शब्द के साथ तुम मेरे दिल से, मेरे मन से, उतरते चले गए।

तुम पर मैने जो विश्वास किया, उसकी तुमने धज्जियाँ उडा दी राहुल। एक ही पल में तुमने हमारी दोस्ती को मिट्टी में मिला दिया।

मै ही गलत थी।
सब की तरह ये नहीं है,राहुल कुछ अलग है। ना जाने मेरे मन ने ऐसा क्यों सोचा और मैने तुमपर विश्वास किया। तुम्हारे साथ अपनी सारी बातें बाँटी।

हम दोनों के तुम प्यारे मित्र बन बैठे थे। हाँ, जुई को भी ये बात पसंद नहीं आने वाली, ये जान लो तुम। उसे जब तुम्हारी इस केसेट के स्टंट का पता चलेगा ना, उसका हाल तो मुझसे भी बुरा होगा।

कम से कम मै तुम्हें जवाब तो रेकार्ड कर के भेज रहीं हूँ। वो तो तुम्हारा नाम तक घर में किसी को लेने नहीं देने वाली। इसे तुम्हारा नसीब जानो के तुमने भेजी ये केसेट पहले मेरे हाथ लगी। इस केसेट को देख वो क्या करेगी इसकी कल्पना करके ही बदन में झुरझुरी दौडने लगती है। अरे, वो कितना गुस्सा करेगी इसका अंदाजा है क्या? मेरी ही बहन है ना वो भी। मै एक गुस्सैल तो वो पाँच। तुम्हे तो पता है। तुम तो एक बार भुगत भी चुके हो। फिर भी तुमने ये धॄष्टता की राहुल ?

हं..
कौन, कहाँ का राहुल!
छै महीने पहले देशपाण्डे चाचाजी का लडका हमारे घर आता क्या है। एक महीना भर रहता क्या है। हमारा प्यारा मित्र बनता क्या है, और छै महीने होते नहीं है तो "प्रपोज" करता है?
वो भी कायरों की तरह केसेट भेज कर?

अरे यहाँ थे तभी कहा होता तो बात वही रफा दफा हो गई होती। लेकिन मन में कुछ और ही रखकर तुम हमारे साथ पूरा महीना - एक महीना धोखाधडी करते रहे राहुल !

रिकार्डिंग करते- करते अब जाई की आवाज़ काफी तेज हो चली है।

तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई राहुल ?
इतना बडा कदम उठाने की तुम्हारी हिम्मत ही कैसे हुई?
तुमने साबित कर दिया कि तुम भी वैसे ही हो।
सब की तरह।
तुम अलग हो ये मेरा भ्रम था ये साबित कर दिया राहुल ।

थेंक यू।
थेंक यू जनाब राहुल देशपाण्डे।
हमें नींद से जगाने के लिये, भ्रम का परदा हटाने के लिये।
छै महीने बाद ही सही। जल्दी ही था, कहना चाहिये अब तो।

"जाई, जुई,राहुल " क्या दोस्ती है, कहती थी जुई। अभिमान करने जैसी दोस्ती है, कहती थी जुई। तुमने हमारे पाँव तले की ज़मीन खिसका दी। तुमने सब लडको की तरह हरकतें कर के दिखा दी।

बहुत गुस्सा आ रहा है राहुल ।
तुम पर बहुत गुस्सा आ रहा है।
तुम यहाँ होते तो हम दोनो ने मिलकर तुम्हे इतना पीटा होता, इतना पीटा होता। क्यों इतनी अच्छी दोस्ती का सत्यानाश किया राहुल ? क्यों राहुल?

दुख होता है।
बहुत दुख होता है रे।
इतनी अच्छी दोस्ती को तुम एक क्षण में इस तरह खराब कर दोगे ऐसा सोचा भी नहीं था।

ना राहुल।
तुम्हारी ये हरकत छोड देने लायक नहीं है। माफ करने लायक ही नहीं है। तुम हम दोनो सहेलियों को खो चुके हो राहुल ।

एक महीना ही सही, मगर तुम हमारे प्यारे दोस्त थे, इसलिये एक मौका दे रही हूँ। केसेट कि दूसरी बाजू में मै जो बता रही हूँ वही करो। कम से कम इतना एहसान कीजिए हम पर। हाँ एक गिलास ठंडे पानी का ले आओ, और पी जाओ, और फिर केसेट पलटना।

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(जाई स्टूल पर बैठती है। केसेट पलटती है। चेहरे पर नटखट हँसी। अब हसी कि अब हसी ऐसी अदा मिश्रित मुद्रा। होठों को ना खोलते हुए हँसने लगती है)

अब पता चलेगा साहब को कि खेल खेलना क्या होता है। साहब आपको ही सिर्फ नही आता है खेल खेलना , हम भी कुछ कम नहीं है। अब चेहरा देखने जैसा हो जाएगा इनका। अब तक तो चार पाँच गिलास पानी पी चुके होंगे जनाब।

(जाइ फिर संजिदा हो कर, रेकार्डिंग शुरू करती है)

केसेट रेकार्डिंग: साईड बी।

राहुल !राहुल !

सारी रे।

तुम्हे कैसा झटका लगा होगा इस बात का खयाल है मुझे। राहुल , पिछली साईड में जो रेकार्ड किया है वो सब मजाक था रे।

सब झूठ है।

बहुत मन से लगा ली क्या मेरी बात?

तो क्या करती? तुम्हारी ही शैली का प्रयोग किया है मैने। खेल लेने की शैली।

तुमने नहीं उस दिन गश खाकर झूठ मूठ गिर गये थे। तब हम दोनों की कैसे सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी? जुई को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था। एकदम रोने जो लगी वो। मेरी भी जान निकल गई थी। क्या हुआ राहुल ? क्या हुआ राहुल ? कह कर मै तुम्हे जोर जोर से हिला रही थी। तुम मगर भैसे की तरह आराम से पड़े थे। दौड कर मै डाक्टर को फोन करती के तुमने पीछे से आकर हाथों से मेरी आँखें ढक दी।

मै तो रो पडी थी तब।

तुमने कहा था, रो क्यो रही हो पगली वो तो मजाक था। मै दौड्कर दुसरे कमरे में चली गई थी फिर। दरवाजा भी लगा लिया था। तुम्हे कुछ नही हुआ है इसका अत्यानंद या तुम्हारा दिया हुआ झटका ? मै किस बात के लिये रो रही थी मुझे ही समझ में नहीं आ रहा था।

तुम आदमी लोग कैसे निष्ठुर होते हो? किसी के दिल का खयाल कभी होता ही नही तुम लोगों में। उस समय मुझे तो लग रहा था मेरी साँस ही अटक गई है। उस लिहाज से ये मजाक बडा तो नहीं है ना राहुल ?

फिर भी राहुल !

सारी रे।

शायद थोड़ा ज्यादा ही कठोर कह गई मैं। मगर तुम भी ग्रेट ही हो। केसेट रिकार्ड कर के भेजी। वो भी डाक से। पापाजी माँ के हाथ लग जाती तो? तुम लड़के लोग निपट मूर्ख होते हो कुछ मामलो में। जहाँ चाहिये, वहाँ तुम्हारी होशियारी नजर नहीं आती है।

नसीब मेरा, जब डाकिया पार्सल चिल्लाया , तब मै दौडी और घर में कोई नहीं था। पार्सल पर राहुल देशपाण्डे पढकर अंधे को आँखे मिलने जैसी खुशी हुई मुझे। मेरा आनंद देख बेचारा डाकिया घबडा गया था। कब पार्सल खोलने को मिलता है इस चक्कर में डाकिये के कागज पर दस्तखत करने जितना समय भी मुझे बहुत ज्यादा लग रहा था।

सिर्फ तुम्हारा पार्सल लेकर मैं कितना नाची हूँ पता है? कब उस पार्सल को खोलती हूँ ऐसा हो रहा था और केसेट देखकर कब सुनती हूँ ऐसा हो गया।

और क्यों जी? इतनी बडी केसेट में कितनी लाइने रेकार्ड कराई आपने? तो चार. कह दिया कि, दूर जाकर पता चला तुम्हारे सिवाय रह नहीं सकता। मै तुमसे प्यार करने लगा हूँ। मुझसे शादी करोगी?, जवाब की राह देख रहा हूँ। राहुल .. बस।

यहाँ भी कंजूसी राहुल? मै तुम्हे चिक्कू कहती थी वो सच में झूठ नही था।

ए राहुल, तुम्हे मेरा जवाब सुनना है ना? तुम कितनी आसानी से कह गए। लेकिन कितना तरसाने के बाद राहुल?

जब तुम वापस जाने के लिये निकले थे, हम तीनों ही गुम- सुम हो गए थे। सब की आँखे नम थीं। तभी लगा था सब कह दूँ। तुम्हारी भी आँखों में मैने वहीं देखा था जो मेरे मन में था। लेकिन तुम भी कुछ नही बोलें। जुई तो दरवाजे तक भी नही आई।

राहुल तुम्हे याद है?

जुई तुम्हे दोस्त मानने को तैयार नहीं थी तब तुम मुझे किस तरह मस्का लगाते थे। एक ही छत के नीचे रहने वाले हम उम्र लोगों को तो दोस्त होना चाहिये ऐसा तुम्हारा कहना था। तुम्हारे मीठे बोल आखिर काम कर ही गए थे, और तुमने अपनी मन मानी कर ही ली थी। जाते समय कहा था तुमने, जुई को कहो अब ना गिरे, अब राहुल नही रहेगा दौडने के लिये। सच उस समय तुमने क्या- क्या नहीं किया था। वही घटना थी राहुल, जबसे तुम मुझे अच्छे लगने लगे थे।

जुई को खिडकी के पास पडा देख पहले तो मुझे ऐसे लगा कि वो भी तुम्हारी तरह मस्करी ही कर रही है। मगर वो कुछ इस तरह टेढी- मेढी पडी हुई थी के मुझे तुरंत ही मानना पडा के कुछ गड़बड़ है। उसे सच में कुछ हो गया है।

माँ का भी उसे देख बुरा हाल हो चला था। मै तुम्हारा नाम लेकर चिल्लाने लगी। राहुल- राहुल, जुई को क्या हो गया है ,देखो ना राहुल ! तुम दौडकर आये। उसके बाद तुम यूँ एक्शन लेते गए वो देखने लायक था। तुम्हारे चेहरे पर भी मै अपनी ही तरह डर और चिंता देख रही थी। तुमने झट पिताजी को, डाक्टर को फोन लगाए।

जब डाक्टर ने जुई को एडमिट करने के बारे में बताया तब मैने तुमसे पूछा राहुल! मेरी जुई को कुछ होगा तो नही ना? मुझे तब बहुत डर लग रहा था मगर तुमने दिलासा दिलाई। कहने लगे, जाई तुम्हारी जुई को कुछ नहीं होगा। सच राहुल अब हँसी आती है, एक वकालत किया हुआ राहुल डाक्टरों की तरह मुझे दिलासा देता है और मै बावली उस पर पूरा एतबार करती हूँ। मुझे बहुत अच्छा लगा था उस समय। तब मुझे पता चला इस लडके की बातों से भी मुझे दिलासा मिलती है। तुम ने बहुत कुछ किया उस समय हमारे लिये राहुल ।

राहुल ! तुम्हारी केसेट बहुत अच्छी लगी रे। हाँ राहुल! मै भी तुमसे बहोत प्यार करती हूँ। तुम्हे मुझसे यही सुनना था ना?

सच राहुल , तुम कहते थे ना कि शादी के बाद लडकी- लडके का घर बसाती है -ऐसा नहीं कहना चाहिये। घर तो दोनो दूसरे एक का बसाते हैं। किसी एक के किये से नहीं होता। तुम कहते थे घर दोनो का होता है दोनो मिलकर चलाते हैं।

संसार दो दिलों का सजाया हुआ सपना कहते थे तुम। तभी मुझे एहसास हुआ था के तुम कुछ अलग हो। मुझे लगता था इसकी हमसफर जो भी होगी कितनी भाग्यशाली होगी? ऐसा सोचते- सोचते कब मै उस जगह खुद को ही देखने लगी पता ही नहीं चला।

तुम्हारे जाते समय देशपाण्डे चाचा को मैने कितना मनाने की कोशिश की कि चाचा रूक जाइए कुछ और दिन रूक जाइए मगर नहीं उनका एक ही राग अलापना शुरू था- कोर्ट की तारीखें थी तब तक रूके थें। महीने से तुम लोगों को तंग करते चले आ रहे हैं। अब जाना ही होगा। उधर के सब काम रुके हुए हैं।

कम से कम राहुल को तो कुछ दिन रहने दीजिए- कहने पर जनाब आप भी उधर के हो गये। आपको भी उधर के सारे काम दिखाई दे रहे थे। इस जाई की आँखों में बसी प्रीत नजर नहीं आ रही थी।

सच कहूँ राहुल ! तुम अगर एक भी दिन और रहते ना, तो मै तभी सब कुछ बता देती।

मै कितनी खुश हूँ मालूम है? मेरा राहुल , (शरमाकर हँसती है) तेरी जाई कितनी खुश है ये देखने के लिये तुम यहाँ चाहिये थे। जुई को भी बडी खुशी होगी। राहुल जीजाजी कहते समय उसे कैसा लगेगा।? हं- हं। (फिर शरमाकर हँसती है)

थेक्यू राहुल। थेक्यू वेरी मच। छै महीने से तडपने वाले दिल को तुमने सुकून दिया है। मेरी क्या हालत हो गई थी तुम्हे अंदाजा ना होगा। जाई राहुल देशपाण्डे कितना सुंदर लगता है ये नाम। तुमने भेजी ये केसेट मेरे लिये नया जीवन ले आई है राहुल! तुम्हारे लिखे हुए ये अक्षर, डियर जे यू आय...

जू........(अचानक हकबका जाती है)
...
...
...
...

जु ई ई ई ई ई ई ई (पीडा से चीखती है) डियर जुई, राहुल तुमने ये केसेट जुई के लिये बनाई है? राहुल तुमने ये केसेट जुई को भेजी है? (रोते रोते स्टूल पकड कर नीचे बैठ जाती है)

जूई, जूई (रोना रूकता ही नही है। टेप रेकार्डर बंद करती है। बाजू में रख देती है। अचानक गुस्से से फिर से टेप रेकार्डर उठाती है और फेकने के लिये हाथ उठाती है। फिर रोना आ जाता है। हाथ नीचे आ जाता है। टेप रेकार्डर हाथ से छूट जाता है)

मैने क्यों पहले ठीक से नहीं पढा? क्यों? क्यों? मेरे ही साथ ये सब क्यों होता है? राहुल! मैने कितने सपने सजाए थे राहुल!

(अचानक फिरसे सावधान हो जाती है। आँखों में चमक।)
मै जुई को ये केसेट दिखाउँगी ही नहीं।

(फिर रोना आ जाता है)
कैसे मुमकिन है?
जुई, मेरी जुई, जुई को राहुल जैसा होनहार लडका फिर कब मिलेगा?

(खुद को ही समझाती है) जुई को राहुल ने प्रपोज किया है- ये तो खुशी की खबर है जाई। जाई ये तो खुशी की खबर है। जाई तुम्हे ये केसेट जुई को देते समय बहुत खुशी होनेवाली है।

जाई, हं कैसे कहोगी? जुई मेडम हमारे पास क्या है? एक लडके ने किसी के लिये तोहफा भेजा है रे।
अ.......ह......ss ऐसे नही ऐसे नहीं कुछ देना पडेगा बच्चू।

कुछ देना पडेगा.....हं...
राहुल ! मेरी कहानी किसी को कभी पता नहीं चलेगी।

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नही मिलता.
कहीं जमीं तो कहीं आँसमा नही मिलता.

तुषार जोशी, नागपुर

Tuesday, December 4, 2007

ने जनायु वास..


समय: 1601 बजे(कीव के अनुसार)
1931 बजे (भारतीय)

स्थान : विमान में कीव से उड़ान के एक घण्टे पश्चात दिल्ली की ओर कहीं पर आसमान में

विमान में खिड़की के पास बैठा हुआ हूँ. शीशे से बाहर देखने पर लगता है जैसे हम धुंये के गुबार में से गुजर रहे हैं. परन्तु मुझे पता है कि यह बादल हैं. और हम बादलों के बीच होकर अभी अभी उड़े हैं. पृथ्वी से उड़कर अब हम पहुँचने वाले हैं, बादलों के ऊपर. और रूई के वृहदाकार गोले अथवा कभी फूलगोभी की आकृति वाले बादलों को नीले आसमान में मैं प्राय: देखा करता हूँ जब भी कभी विमान से उड़ान भरता हूँ. मेरा यह अनुभव प्राय: मुझे सृष्टि की विशालता और मानव की लघुता का एक आध्यात्मिक अनुभव कराया करता है. इसी कारण से मेरा यह अभ्यास है कि मैं घण्टों उड़ते हुये बादलों को देखते हुये अपनी कल्पना से तरह तरह के चित्र देख पाता हूँ. चित्रकार की तूलिका से किस रंग के समायोजन से यह सब वास्तविक रूप से चित्रित किया जा सकेगा यह मेरे चिन्तन का प्रिय विषय रहते हैं और मैं हवाई यात्रा का आनन्द इसी प्रकार उठाता हूँ. कैसी है हमारी पृथ्वी, नदियाँ, पहाड और विशालकाय देशों की धरती के रंग? यह सब मैंने इसी प्रकार देखा है और जाना है.

वस्तुत: इस पल तो यूक्रेनियन वायुसेवा के विमान में बैठा हुआ उड़ता जा रहा हूँ कीव से दिल्ली की ओर. कुल दूरी 6000 किमी के लगभग और अब तक हम एक घण्टे की उड़ान भर चुके हैं. कुल समय दिल्ली पहुँचने में लगेगा लगभग छ: घण्टे. इस प्रकार हम 1000 किमी के आसपास उड़ चुके हैं. अत: हम कहीं पर आज के रूस के उपर से उड़ रहे होंगे ऐसा मैं सोचता हूँ. इधर कीव में एक बहुत लम्बे प्रवास पर रहा हूँ. जिस उद्देश्य के लिये आया था, उसे सफलता पूर्वक पूर्ण किया है. और अब जब कीव छोड़ रहा हूँ, तो ये भावानात्मक वियोग का आवेग कैसा…? सोचता हूँ, मानव मष्तिष्क में स्मृतियाँ संजोने और उन्हें प्यार करने की प्रवृत्ति शायद सर्वाधिक है. इसलिये वह प्राय: मोह ग्रस्त हो जाता है. संभवत: कैदी को जेल की यातना पूर्ण कोठरी से भी एक भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो जाता होगा. जेल की जिस कोठरी में वह लम्बे समय तक रहता है, जेल मुक्ति के समय शायद उसे उसका वियोग भी अखरने लगता है. आंखे सजल होने लगती हैं. बहुत हसरत के साथ उन दीवारों को देखता है. बड़े बड़े महापुरूषों ने ऐसे ही स्थानों पर ग्रन्थो की रचना भी की है. नेहरू जी द्वारा अल्मोड़ा जेल की उनकी रचना, उनकी स्मृति में इसी भावना की घोतक है. ऐसा ही वियोग मुझे आकुलता में धकेल रहा है. इस पल…

''या ना खाचू दस्विदानियाँ (मुझे अलविदा नहीं चाहिये)''

मेरे कानों में स्वर गूंजते से लग रहे हैं. परन्तु यह स्वर किसके? यह आवाज कौन?
मन भरता जा रहा है. कुछ अकुलाहट अनुभव करता हूँ. तभी विमान परिचारिका आकर शीतल पेय पकड़ा जाती है. तत्पश्चात खाना लगा दिया गया है. निरामिष भोजी लोगों के लिये यूक्रेनी विमान सेवा में कीव से दिल्ली की यात्रा में बडी असुविधा है. जबकि यही विमान सेवा दिल्ली से कीव की यात्रा में दिल्ली से सामिष एवं निरामिष दोनों प्रकार के स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है. भोजन के दौरान ध्यान भंग होने से चिन्तन में बाधा पहँचती है. अजय, सप्तावर से बोलकर विमान में आनन्द और मेरे साथ अपना ग्रुप फोटो खींचने को कहता है. और फिर क्लिक की आवाज के साथ ही फ्लैश लाइट .. और मैं फिर सोचने लगता हूँ.

एक बहुत बड़े अन्तराल तक वियोग की पीड़ा से गुजरते हुये रहा हूँ कीव में. वियोग भी किसका अपने जीवन के उन सभी अंगो का जिनका अस्तित्व ही मेरे लिये अथवा किसी भी मानव के लिये प्राणवायु जैसा है. कितनी लम्बी अवधि के बाद मिलूँगा सब से. कल्पना करता हूँ पहुँचते ही मेरी बाहें फैलेंगी और पत्नी, बेटी सहित सब समा जायेंगे मेरी बाहों में. और फिर … नयन धारओं से मेरे सीने के वस्त्रों के साथ साथ हृदय भी सिक्त हो जायेगा.

क्यों होता है ऐसा? रोते हैं हम खुशी के पलों में. रोते है हम दुख के पलों में. संयोग अथवा वियोग हमारे भावातिरेक को हमारी आंखे सिर्फ आंसुओं में डूबकर ही अभिव्यक्त करना जानती हैं. स्मृति में अपनी बी एस सी के एक गणितीय सिध्दान्त की व्याख्या करते हुये प्रोफेसर अग्रवाल का चित्र उभरता है और… कानों में उनकी आवाज… अपने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुये वे बोलते
'' +∞ और -∞ एक ही बिन्दु है. एक ही अक्ष पर हम चलते चले जायें….. ''
वह हमें समझाते चले गये थे गणित और मैं समझता गया था. पृथ्वी गोल है पूर्व दिशा में चलते जायेगें तो भी (∞) अनन्त तक चलते ही चले जायेगें. और यदि पश्चिम की ओर चलने लगे तो भी अनन्त (∞) तक चलते ही जायेगें. यह सब चक्रीय है. सारा रहस्य छिपा है. सापेक्षता और निरपेक्षता में. अर्थात क्या किसके सापेक्ष क्या है?

विज्ञान के इन सिध्दान्तों को समझाने वाले मेरे आदरणीय व्याख्याताओं को संभवत: यह कल्पना भी उन दिनों नहीं रही होगी कि उनका यह शिष्य विज्ञान के सिध्दान्तों से मानव मन की गहराइयाँ और दर्शन नापने का प्रयास करने लगेगा. किन्तु आज यह सत्य है और मैं प्रयासरत हूँ और कुछ-कुछ जानने भी लगा हूँ कि यह सारी स्रष्टि ही चक्रीय है. पृथ्वी चक्रीय, सौरमण्डल चक्रीय, आकाश गंगा चक्रीय.. चक्रीय हैं सारी नीहारिकायें और सारा ब्रह्माण्ड. कहा तक चलेगें हम? अनन्त तो अनन्त ही रहेगा चाहे धनात्मक अथवा त्रृणात्मक. इसी प्रकार अनन्त हैं हमारी भावनायें भारतीय दर्शन में हमारे मनीषीयों ने भावना या मन की गति भी अनन्त ही मानी है. उसी मन के साथ जब इस पल उड़ रहा हूँ, तो मन भावना से भरा जा रहा है. अपने नगर पहुँचते ही परिवार से मिलने की कल्पना से.

परन्तु इस पल शायद ऐसा नहीं है. टेलीफोन से जब भी कीव से घर बात करता, आंखे प्राय: पत्नी तथा बच्चों के वियोग के साथ साथ, उनकी आवाज कानों में पड़ते हुये, संयोग की प्रसन्नता से सजल हो उठती थीं. उसी संयोग के अन्दर आज भी इस पल मेरी आंखो में सजलता तथा हृदय में आकुलता का अतिरेक है. किसी गजल के शब्द कानों में उभर रहे है.

… सीने में जलन आंखो में तूफान सा क्यूँ है?

मन वापस उड़ा जा रहा है कीव की ओर शरीर उड़ रहा है भारत की ओर भारतवर्ष से वियोग समाप्त हुआ है. किन्तु यह आवेग, यह आकुलता है कीव से वियोग की. कीव मुझे क्यों खींच रहे हो तुम क्या है वहाँ पर जो मेरा है, जो छूट गया है. पा सकोगे क्या तुम उसे.. यह वियोग का विशाल जलधि लांघ कर? किसी कविता का अंकुर फूट रहा है मेरे हृदय में. बाहर अंधेरा होने वाला है. झांकता हूं तो बादल कहीं कहीं छंटे हुये हैं. नीचे पूरी धरती वर्फ से ढकी है. अंतरिक्ष की नीलिमा उस बर्फ से ढक़ी धरती के विशाल भूखण्ड को नीली चादर जैसी उढाये हुये है. धरती के इसी विशाल भूखण्ड को कभी सोवियत संघ के नाम से जाना जाता था. जो सारे विश्व में महाशक्ति के रूप गर्वोन्नत खडा था. आज विघटन के बाद आपसी ईष्या द्वेष से भरे हुये छोटे छोटे देशों के झुण्ड की तरह है. आर्थिक विपन्नता के शिकार, आर्थिक रूप से अमेरिकन डालर की परतन्त्रता मे फंस चुके हैं. कितनी बड़ी-बड़ी हैं उनकी समस्यायें.., कुछ मेरी समझ में आती है कुछ नहीं. परन्तु मैं चाहता हूँ उनके देश में भी समस्याओं का अन्त हो जाये वह मेरे अपने देश के प्रति मेरी कामना की तरह ही मुझे अपने जैसे लगने लगे है. वहाँ कुछ तो है, जो मेरा है कौन है वह जो मेरे हृदय के स्पन्दनों को इस पल अपने प्यार से आकुल कर रहा है.

मुझे मालुम है इस पल मैं उड़ा जा रहा हूँ सुदूर पूर्व अपनी मातृभूमि की ओर.. यूरोप की धरती से उड़कर एशिया में अपनी माँ, अपनी भारत माँ से मिलने. क्षितिज की गहरायी को प्रदर्शित करने वाली गहरी नीली रेखा दिखायी पड़ रही है. बायीं ओर देखता हूँ तो यह कालिमा में डूबती जा रही है. जबकि दाहिनी ओर की खिड़की से देखने पर सांध्य कालीन लालिमा के साथ साथ एक पीली रेखा भी है. यही है वह रात्रि संध्या एवं अपराहन का एक साथ दृश्यावलोकन जिसने मुझे कई बार प्रकृति की विशेषानुभूति करायी है. यह सारा सब कुछ मेरी आकुलता को कम नही कर पा रहा है. क्यों आ रहा है हृदय में ये ज्वार…? लगता है एक झंझावात मुझे घेर चुका है. आंखे चुपके से बह रही हैं. मैं छिपाने का प्रयास करता हूँ किन्तु आनन्द देख लेता है. वह जानता है मुझे मेरे हृदय को मेरी पीड़ा को भी. समझने तथा गंभीरता के साथ सहेज लेने की क्षमता भी है उसमें. धीरे से मेरे कान में फुसफुसाता है
''भैया?''
''कुछ नहीं रे'' मैं कहने का प्रयास करता हूँ.
सहसा पाता हूँ गला अवरूध्द है. उसकी ओर देखकर हँसता हूँ. किन्तु सब कुछ उल्टा पुल्टा आंखे उसके स्नेह का सहारा पाकर स्रोत बनने की चेष्टा करने लगती है. मैं वलात् मन पर काबू करके कुछ संयत होता हूँ तथा आनन्द से कहता हूँ ''कुछ कागज चाहिये लिखना है कोई कविता आहट दे रही है. यह तो कविता की प्रसव पीड़ा है रे!'' वह एक कागज का टुकड़ा मांगकर लाता है और मैं उसी पर जुट जाता हूँ घसीटने में. जानता हूँ इस पल इसी की आवश्यकता थी मुझे. मुस्करा कर हृदय के भावों को छिपाने में सक्षम होकर आनन्द से कहता हूँ

''तुम्हें याद है वह पंक्ति ?''
'' ने जनायु बास'' आनन्द के मुंह से फूटता है
…और लगता है जैसे मेरे हृदय के अन्दर पडे छाले को किसी ने फोड़ दिया है. एक भयंकर पीड़ा के ज्वार से उछल कर सारा अवसाद बहने लगता है. इस कविता के रूप में जो रूसी में सुनी गयी कविता का भावार्थ मात्र है. मेरी अपनी तो उसमें मात्र पीड़ा की अनुभूति ही है. क्योंकि कीव की जिस स्ट्रीट पर, जिस संध्या यह कविता उसने जिस कारण से मुझे सुनायी थी वही सब मेरे हृदय में आकुलता का रूप लिये छिपा हुआ है. वही है… वही है…, वह आवाज मेरे कानों में मधुरता, स्नेह एवं भावतिरेक के साथ वह सजल नीली आंखे खिडक़ी के बाहर भयंकर हिमपात और तापमान.. -23 c की शीत किन्तु आतिथ्य की उष्णता क्या थी वह आवाज?

''ने जनायु वास
कौन थे तुम नहीं जानती मैं
हो कौन तुम,
यह नहीं जानना है.
किन्तु फिर भी धडक़ता
है हृदय मेरा
यह तुम्हारे ही लिये
फिर मिलोगे
कभी जीवन में मुझे,
नहीं मालुम यह मुझे,
जब जमेगी नदी निप्रो शीत से
और जब हिमपात भी होगा कभी
हृदय होगा उष्ण मेरा स्नेह से
बस तुम्हारे ही लिये

उठेंगे जब हाथ कहने अलविदा
सहम धड़कन जायेंगी मेरी सभी,
होठ कांपेगे सहम कर
मैं नही कह पाऊंगा तब अलविदा
बस तुम्हारे ही लिये

अतिथि थे तुम एक दिन,
पर ठहर जाओगे हृदय में,
यह नहीं जाना कभी
मेरी आंखे वाट जोहेंगी सदा,
और आकुल हृदय धड़केगा...
बस तुम्हारे ही लिये
ने जनायु बास''

कानों में कविता की पंक्तियां ''ने जनायु वास'' विमान इंजनों की घरघराती आवाज के बावजूद लगता है अंतरिक्ष मे गूंजकर पड़ रही हैं. मेरा पेन लगता है बहुत धीरे चल रहा है. मन में चीखकर तुम्हें पुकार रहा हूँ.
''लो तुम्हारा नाम भी
अब छा गया है व्योम में,
तुम हमारे स्वर सुनो
या ना सुनो…
किन्तु मैं यह जानता हूँ,
युगों से मैं जानता था,
हाँ मिले थे हम नहीं.
हृदय के स्पन्दनों को
छोड़कर मैं आ गया हूँ.
मेरी श्वासों में बसी है
श्वास भी कुछ उष्ण सी,
आज मेरे हृदय में अब
बस चुका है करूणा क्रन्दन
देखकर हिमपात भी
कुछ नहीं अब हो सकेगा
हृदय ज्वाला याद से
गीत उगलेगी कि लावा
नहीं कुछ मुझको पता है
हाँ तुम्हारे शब्द प्रेरित कर सकेंगें
मैं लिखूँ.. मैं लिखूँ..
चाह यह मेरी तुम्हारी एक है
‘ने जनायु वास’
यह अब रोशनी है तिमिर में
और यह मैं जानता हूँ
आज तू भी जानती है
और यह हम जानते है
भले जीवन भर जलेगें
हृदय पीड़ा से गलेंगें
किन्तु हम कर जायेगें
सृष्टि नूतन गीत की
नहीं भाषा धर्म कोई
देश के बन्धन कभी
स्नेह से ऊंचा उठेगा
कोई बाधा या हिमाला
स्नेह आड़े आयेगा
प्यार का पंछी अप्रतिम
पार उड़कर जायेगा..''

लग रहा है कीव में मैं बहुत कुछ छोड आया हूँ. जो छूटा है वह मेरा है. जो छूटा वह मेरी अपनी धरती के दिये संस्कारों का हिस्सा है. स्नेह, प्रीत,प्यार और वसुधैव कुटुम्बकम की धरती से जब मैं गया था तो कोई नहीं था वहाँ. किन्तु आज अपरिचितों के बीच उसी धरती पर उसी नगर की एक स्ट्रीट की बहुमंजली इमारत के एक फ्लैट में है एक हृदय, जहाँ अंकुरित है मेरे स्नेह का बीज. और वह हृदय हर पल धड़कता है मुझे प्ररेणा देता हुआ. गति है उस प्यार से. मैं जानता हूँ इस पल जब मैं उड़ रहा हूँ विमान से इस पल भी वह हृदय धड़क रहा होगा मेरे लिये. प्रात: फोन पर हुयी बात से कानों में पडने वाली हिचकियाँ रूलायी और अवरूध्द आवाज मुझे इस पल भी सुनायी पड़ रही है. मैं स्वयं उसी पीड़ा को भोग रहा हूँ इस पल. तुमहारी नीली आंखों को अपने हाथों से ढक कर मैं ने चलते चलते यही तो कहा था
''आत्मा को प्यार करो शरीर तो मिथ्या है यह स्वपन है''
और वही सत्य जानते हुये भी मैं मोह ग्रस्त हूँ स्वयं ही. संभवत: यह स्वयं की अपनी कविता एवं साहित्य की रचना हेतु दर्द एवं पीड़ा पाने के नये आयाम ढूंढ़ते रहने वाला मेरा अपना खोजी मन ही है.
तुम मेरी स्वत्वाहूता पीड़ा हो
मैने अपनी एक वन्दना में माँ सरस्वती से प्रार्थना की थी
‘… माँ मुझमे तुम पीड़ा देना’
माँ ने उसी आर्शीवाद के रूप में तुम्हें मेरी आजीवन ‘पीड़ा प्रेरणा’ के रूप में मुझे सौंपा है. और यही है वह निष्काम नि:शरीर प्रेम. सम्भवत: राधा और मीरा की भक्ति का जो मैं मानव शरीर से तुम्हारे स्नेह से अनुभव कर पा रहा हूँ. तुम्हें राधा और कृष्ण के चित्र से और भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव हैं. जिज्ञासा है भारत को समझने की. राधा का चरित्र जीने की कामना करते करते तुम कूद पड़ी हो इस वियोग के अथाह समुद्र में.

तुम्हारी कवितायें हर पल मेरे हृदय में गूंजती रहेंगी. हम करते रहेंगे स्नेह पत्रों और दूरभाष द्वारा और रचते रहेंगे साहित्य साधनारत होकर. याद है न तुमने उस दिन कहा था रूसी भाषा में
''स्नेह कभी मरता नहीं''
हाँ मैं भी यह कह रहा हूँ. और सिद्व करना है हमें अपनी रचनाओं से और यही उक्ति हमारे विश्वास को जगाये रख सकेगी. यही शब्द पहुचायेंगे उष्मा तुम्हारे हृदय में.. हिमपात में. भयंकर शीत में भी जब तुम गीत गुनगुनाओगी उसे सुनने मेरा मन सदा तुम्हारे पास होगा. मैं कभी नहीं भूलूँगा तुम्हारे उस निष्काम प्रेम को जिसकी उष्मा लेकर तुम शून्य से नीचे के तापमान में भी कष्टसाध्य दूरी एवं शीत की परवाह किये बिना मुझसे कुछ पल सानिध्य पाने आयीं. तुमने योरेप में जन्म लेकर भारतीय राधा का जीवन जीने का प्रयास किया है. ईश्वर करें तुम्हारी सहायता एवं दे सके शक्ति मुझे तुम्हें अपनी लेखनी में समेट पाने की.